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________________ - जीवामिगम ने तु ईपदपि मुखमासादयन्ति । तथा-'णिच्चं वहिया' नित्यं वधिकाः, तथा'णिच्वं परममसुभमउलमणुबद्धं नित्यं-सर्वकालम् परममशुभमतुलम्-अशुभस्पेन अनन्यसदृशमताधारणम् अनुबद्धम् अशुभत्वेन निरन्तरमुपचितम् एताया 'निरयमवं' नारकमवम् 'पच्चनुभवमाणा' प्रत्यनुमवन्त:-प्रत्येकं वेदयमाना। 'विहरंति' निहान्ति-निष्ठन्ति । एवं जाव' एवं यावत् यात्पदेन रापभाव आरभ्य सप्तम नरकपर्यन्तमेव दुःखं प्रत्यनुभवन्तो नारकास्तिष्ठन्ति अधासप्तम्या च क्ररकर्माणः पुरुषा उत्पधन्ते नान्ये उत्पधन्ते तदेव दर्शयति-'भो सत्तमाए णं पुढवीर' अधःसप्तम्यां पृथिव्याम् 'पंच अणुत्तरा' पश्चानुत्तरा अतीपदुःसानुभव उत्कृष्टाः 'महति महाळया महाणरगा पन्नत्ता' महन्महाळया महानरकाः प्राप्ताः परममसुभम उलमणुषद्धम्' हमेशा परम अशुभरूप एवं जिसकी तुलना नहीं हो सकती ऐसे अनुथद्ध-निरन्तर परम्परा से ही अशुभ रूप से चले आये हुए 'निरयमवं' नारक के भवको 'पच्चणुभव माणो विहरंति' भोगते हैं। 'एवं जाव अहे सत्समाए णं पुढवीए' इसी प्रकार से नारक जीव द्वितीय पृथिवी से लेकर सप्तम पृथिवी तक के नरकावासों में नारक के भक्ष को भोगते हैं। अधः सप्तमी पृथिवी में जो मनुष्य सर्वो. स्कृष्ट प्रकर्ष प्राप्त कर कर्म करते हैं वे ही उत्पन्न होते हैं अन्य जीव नहीं। यही बात सूत्रकार ने 'अहे सत्तमाए णं पुढवीए पंच अणुत्तरा महतिमहालया महाणरगो पन्नत्ता' इस सूत्रपाठ द्वारा स्पष्ट की है अधा सप्तमी पृथिवी में पांच ही अनुत्तर महानरक है ये बहुत ही विशाल हैं। यहां पर नारक जीव बहुत ही अधिक दुःखों का अनुभव करते हैं। सुभम उलमणुबद्धम्' मे ५२भ अशुभ ३५ मन रेनी तुलना - सती નથી એવા અનુબદ્ધ નિરંતર પરમ્પરાથી જ અશુભ પણાથી આવેલા "निरयभव' ना२६ सपने 'पच्वणुभवमाणा विहर'ति' सागवे छे, “एवं जाव 'अहे संचमाए ण पुन्वी' मा०४ प्रमाणे ना२४ । मी० पृथ्वीया धन સાતમી પૃથ્વી સુધીના નરકાવાસોમાં નારકના ભવને ભેગવે છે. - ' ' અધઃસપ્તમી પૃથ્વીમાં જે મનુષ્યો સત્કૃષ્ટ પ્રકર્ષ પ્રાણ ફૂર કર્મ કરે छ । पन्न थाय छे. मी त्या पन यता नथी. मे वात सूत्रधारे 'अहे सत्तमाए णं पुढवीए पंच अणुचरा महतिमहालया महाणरगा पन्नत्ता' આ સૂત્રપાઠ દ્વારા સ્પષ્ટ કરેલ છે. અધસપ્તમી પૃથ્વીમાં પાંચ જ અનુંત્તર મહાનરક છે, તે ઘણાજ વિશાળ છે. ત્યાં નારક જીવે ઘણા મોટા દુઃખને अनुमप ४२ छे, ते मनुत्तर महानना नामी मा प्रभार छे. 'काले' -१
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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