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प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ २.७ सप्तापि पृथिव्याः लोकस्पशिन्यो नवेति ६३ दध्यादिव्याप्तानि तत्र कस्मिन् अपान्तराले कियान् घनोदध्यादिरिति प्रतिपाद नार्थमाह-' इमी से णं' इत्यादि, 'हमी से णं भंते' एतस्याः खलु भदन्त ! 'रयणमार पुढवीए' रत्नप्रभायाः पृथिव्या 'पुरस्थिभिल्ले चरिमंते' पौरस्त्यः पूर्वदिग् भावीचरमान्तोऽपान्तराळलक्षणः सः 'कइविहे पत्ते' कतिविधः - कति प्रकारकः मज्ञप्तः - कथित इति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि' 'गोमा' हे गौतम | 'तिविहे पन्नत्ते' त्रिविध त्रिपकारकः प्रज्ञप्त - कथितः 'तं जहा ' तद्यथा - 'घणो after' घनोदधिवलय:- वलयाकार घनोदधिरूपः 'घणवायवलए' घनवातदलयः वलयाकार घनवातरूप इत्यर्थः 'उणुवायचलाए' नुगतवलपः वलयाकार तनुदधि आदि से व्याप्त हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं कि यह अन्तराल घनोदधि आदि से व्याप्त है इस विषय में गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है- 'इमोसे णं भंते ! स्यणप्पभाए पुढवीए' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी का पूर्व दिग्भागवत जो चरमान्त है सो वहां तक और अलोक से पहिले जो अपान्तराल है वह 'कविहे पनन्ते' कितने प्रकार का कहा गया है ? रत्नप्रभा पृथिवी से पूर्व दिशा की ओर बारह योजन आगे जाने पर ठीक यहीं से अलोक का प्रारम्भ हो जाता है इसी तरह से अन्यत्र भी ऐसा ही समझना चाहिये सो यह जो रत्न प्रभा पृथिवी से अलोक प्रारम्भ होने के पहिले २, बीच का जो व्यव धान स्थान है उसमें क्या है ? ऐसा इस प्रश्न का भाव है इस प्रश्न का उत्तर दिया गया है कि 'गोवमा ! तिविहे पनते' हे गौतम ! वह अपान्तराल तीन प्रकार का कहा गया है- 'घणोदहिवलए' वलयाकार ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કે તે અ તરાલ ઘનેદધિ વિગેરેથી વ્યાપ્ત છે. તે સંબધમાં गौतमस्वाभीयो अलुने मे पूछयु हे 'इमी से णं' भते ! रयणप्पभाए पुढवीए' डे लगवन् मा रत्नप्रला पृथ्वीनी पूर्व दिशामां भावेल ने अरमान्त छे, त्यां सुधी मने मोनी पडेसां ने अयनरास छे ते 'कइविहे पण्णत्ते' કેટલા પ્રકારના કહેલ છે ? રત્નપ્રભા પૃથ્વીથી પૂદિશા તરફ માર ચેાજન આાગળ જતાં ખરાખર ત્યાંથીજ અલેાકના પ્રારભ થાય છે. એજ પ્રમાણે અન્યત્ર પણ એજ પ્રમાણેનુ કથન સમજવું.
તે આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીથી અલાકના પ્રારંભ થતાં પહેલાં વચ્ચેનું જે વ્યવધાન સ્થાન છે, તેમાં શું છે ? આ પ્રમાણેના આ પ્રશ્ન પૂછવાના હેતુ छे, खाना उत्तरमां अलु हे छे ! 'गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते' हे गौतम! मे अथान्तरास ॠथु अञ्जानु' इहेस हे 'घणोदहिवलए' वसयाअर धनोऽधि,