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નમો અરિહંતાણં નમો સિદ્ધાણં
નમો આયરિયાણં નમો ઉવજઝાયાણં
નમો લોએ સવ્વ સાહૂણં એસો પંચ નમુકકારો
સવ્વ પાવપ્પણાસણો મંગલાણં ચ સવ્વેસિં પઢમં હવઈ મંગલં
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જિનાગમ પ્રકાશન યોજના પ. પૂ. આચાર્યશ્રી ઘાંસીલાલજી મહારાજ સાહેબ
કૃત વ્યાખ્યા સહિત
DVD No. 1 (Full Edition)
:: યોજનાના આયોજક ::
શ્રી ચંદ્ર પી. દોશી – પીએચ.ડી. website : www.jainagam.com
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PRASANT
SHRI RI
VA SUTRA
PART : 2
શ્રી રાજપ્રશ્નીય સૂત્ર ભાગ ૨
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जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर - पूज्यश्री - घासीलाल जी - महाराजविरचितया सुबोधिन्याख्यया व्याख्यया समलङ्कृतं हिन्दी - गुर्जर भाषाऽनुवाद सहितम्
श्री - राजप्रश्नीयसूत्रम् SHREE RAAJPRASHNIYA SŪTRAM
(द्वितीयो भागः )
नियोजकः
संस्कृत - प्राकृतज्ञ - जैनागमनिष्णात- प्रियव्याख्यानिपण्डितमुनि श्री कन्हैयालालजी -महाराजः
प्रकाशकः
"अजीत निवासी श्रीमान् सेठ सा. चिमनलालजी रिखबचन्दजी जीरावला तत्प्रदत्तद्रव्यसाहाय्येन
अ. भा. श्वे. स्था. जैनशास्त्रोद्धारसमितिप्रमुखः श्रेष्टिश्री - शान्तिलाल - मङ्गलदासभाई -महोदयः मु० राजकोट
प्रथम आवृत्ति
प्रति १२००
वीर-संवत्
२४९२
विक्रम संवत्
२०२२
मूल्यम् रु. २०/
ईस्वी सन्
१९६६
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भवानुआ:
श्री. म. ला. वे. स्थानवासी જૈત શાસ્ત્રોદ્ધાર समिति, ઠે. ગરેડિયાકૂવા શેડ, રાજકાટ
ગ્રીન લાજ ( सौराष्ट्र )
પાસે
ये नाम केचिदिह नः प्रथयन्त्यवज्ञां, जानन्ति ते किमपि तान् प्रति नैष यत्नः । उत्पत्स्यतेऽस्ति मम कोऽपि समानधर्मा, कालो यं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी ॥ १ ॥
પ્રથમ આવૃત્તિ ઃ પ્રત ૧૨૦૦
વીર સવત્ ઃ ૨૪૯૨ વિક્રમ સનત ૨૦૨૨ ઈસવીસન ૧૯૬૬
Published by :
Shri Akhil Bharat S. S. Jain Shastroddhara Samiti, Garedia Kuva Road, RAJKOT (Saurashtra) W. Ry, India.
फ्र
શ્રી રાજપ્રશ્નીય સૂત્ર : ૦૨
करते अवज्ञा जो हमारीं यत्न ना उनके लिये । जो जानते हैं तत्त्व कुछ फिर यत्न ना उनके लिये ॥ जनमेगा मुझसा व्यक्ति कोई तत्त्व इससे पायगा । है काल निरवधि विपुल पृथ्वी ध्यान में यह लायगा ॥ १ ॥
हरिगीतच्छन्द
45
Hey 21. 20000
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જાદવજી માહનલાલ શાહ નીલકમલ પ્રીન્ટરી, ઘીકાંટારાડ सभहावाह
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श्रीमान् सेठ साहब चिमनलालजी-रिखबचन्दजी 'जीरावलाका'
परिचय भारतीय संस्कृति के निर्माण में ओसवाल जाति का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। इस जाति की बुद्धिमत्ता. दूरदर्शिता, शूरवीरता और आत्मबलिदान के कारण भारत के उज्ज्वल इतिहास का निर्माण हुआ है । भारतीय स्वतंत्रता के संग्राम में भी इस जाती ने असाधारण योग प्रदान किया है । उदयपुर, जोधपुर बीकानेर सिरोही, किसनगढ आदि रियासतों के इतिहास इस जाति द्वारा प्रदर्शित दूरदर्शिता, राजनीतिज्ञता और वीरता से भरी हुई गाथाओं से
ओतप्रोत है । इस जाति के वीरोंने अपने देश समाज और धर्म के प्रति जिस भक्ति का परिचय दिया है वह इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्णाक्षर से अंकित है ! अपने देश और स्वामी के प्रति बफादार रहनेवाले और उनके लिए सर्वस्व अर्पण करनेवाले व्यक्तियों की नामावली में सर्व प्रथम नाम भामाशाह का आता है । इस जैनमंत्री की विपुल सम्पत्ति की सहायताने महाराणा प्रताप को नया जीवन प्रदान किया था, और मेवाड के गौरव की रक्षा की थी।
इसी गौरव पूर्ण जाति में श्रीमान् चिमनलालजी एवं रिखबचन्दजी का जन्म हुआ। आप प्रसिद्ध दोसी परिवार के हैं। दोसी यह ओसवाल जोति का एक गोत्र है। कहा जाता है कि वि. संवत् ११९७ में विक्रमपुर में सोनागरा राजपूत हरिसेन रहता था। आचार्य श्री जिनदत्तसरिने इसे जैनधर्म का प्रतिबोध देकर ओसवाल जाति में मिलाया और दासी गोत्र की स्थापना की। इस गोत्र के नाम को समुज्ज्वल करने वाले अनेक नररत्न हो गये हैं। दोसी परिवार में श्रीमान भिवखूजी बडे प्रसिद्ध हुए। आपने महाराणा राजसिंहजी (प्रथम) का प्रधानपद सम्भाला था। आपकी निगरानी में उदयपुर का मशहूर राजसमुद्र नामक तालाब का काम जारी हुआ एवं पूर्ण हुआ। इस तालाब के बनवाने में १०५०७६०८) रुपये खर्च हुए । इस तालाव का पूर्ण होने पर महाराणाराजसिंहजी ने राजसमुद्र के उद्घाटन उत्सव के अवसर पर दोशी भिवखुजी को एक हाथी और सिरे पाव प्रदान कर उनका सम्मान बढाया था। दोसी पद्मोजी ने धर्म स्थानों का उद्धार किया एसा। बादशाह के फरमान
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में उल्लेख है। कहने का सारांश यह है कि दोसी परिवार पहले से ही धार्मिक सामाजिक एवं राष्ट्रीय कार्यों में उदारतापूर्वक तन, मन, धन से सेवा करता आ रहा है। श्रीमान् सेठ चिमनलालजी एवं रिखबचन्दजी सा. को इसी गौरवशाली गोत्र में जन्म लेने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। इन सीधे सादे दोनों भाईयों को देखकर यह कभी अनुमान नहीं लगाया जा सकेगा कि ये-एक वडे श्रीमन्त होंगे। तथा श्रीमन्ताई के साथ बडे दानवीर भी होंगे। मारवाड के इस दानी परिवार की प्रसिद्धि अन्य श्रीमन्तां की तरह चाहे न हो पाइ हो पर सेठ साहब चिमनलालजी एवं रिखबचन्दजी जैन समाज के 'गुदडी में छिपेलाल' है। अपनी सम्पत्ति का उपयोग परोपकारी कार्यों के करने में परम उदार है।
श्रीमान् चिमनलालजी सा० के पूर्वजों का राजघराने के साथ अच्छा सम्बन्ध रहा है। आप के दादा श्रीमान गुलाबचन्दजी जोधपुर के समीप सिवाना तहसील के कोटडी नामक गांव में रहते थे। आप ठिकाने के कोठार के काम को सम्भालते थे, राजकीय जीम्मेदारी के पद पर रहते हुए भी धार्मिक व सामाजिक जनसेवा के कार्यों में भी पूर्ण सहयोग प्रदान करते रहते थे। आपकी राजघराने में एवं समाज में अच्छी प्रतिष्ठा थी। आप 'जीरावला' के उपनाम से प्रसिद्ध थे। आप बडे मधुरभाषी एवं मिलनसार प्रकृति के उदारचेता सज्जन थे। आपको एक पुत्र हुआ जिसका नाम प्रेमचन्द रखा । प्रेमचन्दजी की उम्र अभी कोई ज्यादा नहीं हुई थी कि पिताजी की मृत्यु हो गई । पिताजी के अचानक स्वर्गवास से इनपर सारे परिवार के निर्वाह की जिम्मेदारी आ पडी । ये वडे बहादूर थे । पिता के परंपरानुसार चलने वाले कुशल व्यापारी थे। इन्होंने अल्प समय में ही पिता की जैसी प्रतिष्ठा प्राप्त करली और कोठार का काम भी सम्माल लिया वि. सं. १९६४ में इनका शुभलग्न जूनाडा निवासी श्रीमान् सायबलालजी की सुपुत्री खेतुबाई के साथ सम्पन्न हुआ। खेतुबाई एक आदर्श महिला एवं सती साध्वी स्त्री है। खेतुबाई जैसी आदर्श पत्नी को पाकर श्रीमान् प्रेमचन्दजी बडे सुखी थे। इनके दो पुत्र हुए श्री चिमनलालजी
और रिखबचन्दजी । किन्तु इस सुख को विधाता नहीं देख सका जब चिमनलालजी पांच वर्ष के थे एवं श्री रिखबच दजी १॥ डेढ वर्ष के थे तब अचानक ही प्रेमचन्दजी साहब का स्वर्गवास हो गया । इनके स्वर्गवास से
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सारा परिवार शोक निमग्न हो गया। बालक और परिवार के सदस्य विलाब विलाव कर रोने लगे । श्रीमती खेतुवाई पर पति वियोग का वज्रपात हुआ । ऐसे भयंकर संकट के समय खेतुबाईने असाधारण धैर्य का परिचय दिया । रोने देने में अपना बहुमूल्य समय नष्ट न कर दोनों बालकों के भविष्य को उज्ज्वल बनाने का विचार करने लगी । इधर पति के मृत्यु से आर्थिक स्थिति अत्यन्त शोचनीय हो गई । कोठार के काम से जो थोडी बहुत आमदनी होती थी वह भी अब समाप्त हो गई। कर्म कीग ति बडी गहन है । एक आपत्ति का अन्त नहीं हुआ था कि यह दूसरी आपत्ति का आरंभ हो गया । ऐसी विकट स्थिति में भी खेतुबाईने हिम्मत न छोडी किन्तु बडे लाड प्यार से बच्चों का लालनपालन करने लगी । अपने चन्द्र जैसे आनंदप्रद बच्चां को देख कर अपना सारा दुःख भूल जाती थी । यह अपने का अपने बच्चां के सुनहरे स्वम में खोजाती थी ।
ये दोनों बालक बडे होते जा रहे थे । माता की ये ही आशा थे । बच्चों का पढ़ना लिखना भी परिस्थिति के अनुकूलतानुरूप होता था । जब श्रीमान् चिमनलालजी दस वर्ष के हुए तब इन्हें अपने पारिवारिक जीवन का भान हो आया । इन्होंने माता के इस बोझ को हलका करने का विचार किया । कोठडी एक छोटा गांव है इसलिये इसमें व्यापार की कोई गुंजाइश नहीं थी । अतः बालक चिमनलालने बाहर जा कर अर्थ उपार्जन का निश्चय किया । माता की आज्ञा प्राप्त कर दस वर्ष के चिमनलाल जी अपने सम्बन्धियों के साथ व्यापार करने के लिए चल पडे । ये कर्णाटक के 'हिराकेरी' गांव में पहुंचे । इतनी छोटी उम्र में माता का वात्सल्य को छोडकर अकेलेही अनजाने प्रदेश में पहुंच जाना कम हिम्मत का काम नहीं है । ये वहां की कन्नडी भाषा से अनभिज्ञ थे । बात बात पर मुश्किलें आती थीं किन्तु इन्होंने हिम्मत नहीं छोडी अल्प समय में ही इन्होंने स्थानीय कन्नडी भाषा सीख ली । नोकरी से व्यापार में लगे खूब श्रम किया किन्तु भाग्यदेवताने इनका साथ नहीं दिया अन्ततः निराश होकर अपने गांव कोठडी चले आये। यहां भी आपने कम परिश्रम नहीं किया । कई तरह के व्यापार करने पर भी आपके पल्ले असफलता ही पडी । अशुभ कर्म का अभी उदय था । अन्त में हार थक कर पुनः कर्नाटक के हलगेरी नामक गांव में जाकर कपडे की दुकान करली। इस दुकान से आपको लाभ नहीं मिला । कमाने के स्थान में आपको लाभ में
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नुकसान ही उठाना पड़ा यहां तक कि आप कर्जदार हो गये । धन चला गया किन्तु आप में नीति कायम थी। धन से भी आपने नीति को विशेष महत्ता दी। आप को साहुकारों का कर्ज शूल की तरह चूमने लगा। आपने हर परिस्थिति में कर्ज से मुक्त होने का निश्चय किया । कर्ज चुकाने के लिए आपने वहां नोकरी करली । कर्जा चुका देने पर आप फिर से अपने गांव कोठडी चले आये।
वि. सं. १९८४ में श्री चिमनलालजी का शुभविवाह खण्डपनिवासी हिम्मतलालजी सुराणा की सुपुत्री श्री प्यारबाई के साथ सम्पन्न हुआ । विवाह के बाद वि. सं. १९८८ में आप कमाने के लिए अहमदाबाद पधार गये । आप के साथ आप के छोटे भ्राता रिखबचन्दजी साहब भी चले आये थे प्रारंभ में दोनों भाइयोंने दस रुपये प्रतिमास पर नौकरी करली। धीरे धीरे अपनी योग्यता व अपनी प्रतिभा के बल से दोनों भाइयोंने साधारण पूजी से कपडे की दुकान खोली। आप इस व्यवसाय में साहसपूर्वक अग्रसर हुए, थोडे ही वर्षों में आप की गणना नगर के प्रतिष्ठित लक्षाधिपति व्यापारियों में एवं प्रमुख व्यक्तियोंमें होने लगी।
___ आप के लघु भ्राता श्रीमान् रिखबचन्दजी का शुभविवाह 'अजित' निवासी श्री अन्नराजजी साहब की सुपुत्री पानबाई के साथ सम्पन्न हुआ। आप दोनों का पारिवारिक जीवन बडा सुखी है । आपके घर में सम्प और सम्पत्ति का एक सा आदर है। आप दोनों भाइयों का आपसी प्रेम राम लक्ष्मण के प्रेम का स्मरण दिलाता है। परिवार के इस सुखमय जीवन को देखकर श्रीमती खेतुबाई फूली नहीं समाती। ऐसा आनन्द का अवसर संसार की कम माताओं को ही प्राप्त होता है। इस समय खेतुबाई शरीर से (७५) वर्ष की वृद्धा है, किन्तु हृदय से युवा है । अब भी समय समयपर अपने परिवार को अपने जीवन के मुख्य अनुभवों से मार्ग दर्शनक राती हती है। सामायिक प्रतिक्रमण मुनिदर्शन आपके दैनिक जीवन के अंग हैं। आपका प्रायः समय धार्मिक कार्यों में ही व्यतीत होता है। आपका परिवार इस प्रकार है__आप के दो पुत्र हैं श्रीमान् चिमनलालजी सा. एवं रिखबचन्दजी सा. श्रीमान् चिमनलालजी साहब की पांच पुत्रियां हैं जिनके नाम ये हैं-१ बदामबाई २ खमाबाई ३ जम्मुबाई ४ सरस्वतीबाई ५ एवं धापुबाई । श्रीमान्
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रिखबचन्दजी साहब के श्री दीपचन्दजी, शंकरलालजी सुगनराजजी एवं महेन्द्रकुमारजी ये चार पुत्र एवं सौभाग्यबाई तथा पुष्पाबाई ये दो पुत्रियां हैं ।
इस परिवार का वंश वृक्ष इस प्रकार हैगुलाबचन्दजी सा० (दादा)
प्रेमचन्दजी सा० (पिता)
चिमनलालजी सा०
रिस्त्रचन्दजी सा
(पुत्रिया)
|
दीपचन्दजी शंकरलालजी सुगनराजजी महेन्द्रकुमार सौभाग्यबाई
पांच पुत्रियां
(पुत्र)
बदामबाई खमाबाई जम्मुबाई सरस्वतीबाई धार्मिकजीवन
सरस्वतीबाई धापूबाई
व्यापारिक जीवन के अतिरिक्त आप भातृद्वय- दोनों भाइयों का सार्वजनिक एवं धार्मिक जीवन विशेष सराहनीय है । आपने सार्वजनिक कार्यों के लिये बहुत अधिक दान दिया है। आपने सर्वसाधारण के लिये समय समय पर अकाल रोग बाढ आदि के अवसरों पर भी काफी सहायताएं दी है । आपने कई व्यक्तियों को आर्थिक सहायता देकर धंधे में लगाया है । विद्यार्थियों को आर्थिक सहयोग देकर अपनी विद्याप्रियता का परिचय दिया है । पर्युषणपर्व आदि धार्मिक उत्सव के अवसर पर असन, पूंजनियां माला आदि धर्मोपकरण के साथ साथ अन्य कई उपयोगी वस्तुओं की भी प्रभावना करते रहते हैं । आपने निजी खर्च से वि.सं. २००४ में दीक्षा भी दिलवाई है। साहित्यप्रेम
जैन साहित्य प्रकाशन कार्य में आपकी बडी दिलचस्पी है । कई ग्रन्थों के प्रकाशनों में आपका आर्थिक सहयोग रहा है । आप ने अभी अभी अखिल भारतीय श्वे॰ स्था० जैन शास्त्रोद्धारसमिति राजकोट को दानार्थ ५०००) पांच हजार रुपये प्रदान कर समिति के सन्माननीय सदस्य बने हैं। आपका यह साहित्य प्रेम सराहनीय है । साहित्यशिक्षा के प्रति आप उदार चेताओं का कितना ध्यान है यह उपरोक्त ज्ञान दान बता रहा है ।
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आपकी दैनिक जीवनचर्या में सामायिक प्रतिक्रमण व्रत, पच्चक्वाण मुनिदर्शन आदि आवश्यक अंग हैं। इन कामों में आप कमी प्रमाद नहीं करते। प्रतिवर्ष बाहर जाकर मुनिदर्शन का भी समय समय पर लाभ लेते रहते हैं। आप की उदारता सर्वतोमुखी है। आप अपनी जन्मभूमि कोठडी में निजी खर्च से अस्पताल बनाकर सरकार को अर्पण करने की भी उत्कट इच्छा रखते हैं। आपका इस समय निवास मारवाड में अजित गांव जि जोधपुर में है। आपने वि.सं. २०१३ की साल में कोठडी छोड दिया था। आपकी धार्मिक भावना इसी प्रकार उत्तरोत्तर बढती रहे यही शुभ कामना है।
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સ્વાધ્યાય માટે ખાસ સૂચના
આ સૂત્રના મૂલપાઠનો સ્વાધ્યાય દિવસ અને રાત્રિના પ્રથમ પ્રહરે તથા ચોથા પ્રહરે કરાય
છે.
(૨) પ્રાત:ઉષાકાળ, સન્યાકાળ, મધ્યાહ્ન, અને મધ્યરાત્રિમાં બે-બે ઘડી (૪૮ મિનિટ) વંચાય
નહીં, સૂર્યોદયથી પહેલાં ૨૪ મિનિટ અને સૂર્યોદયથી પછી ૨૪ મિનિટ એમ બે ઘડી સર્વત્ર સમજવું. માસિક ધર્મવાળાં સ્ત્રીથી વંચાય નહીં તેમજ તેની સામે પણ વંચાય નહીં. જ્યાં આ સ્ત્રીઓ
ન હોય તે ઓરડામાં બેસીને વાંચી શકાય. (૪) નીચે લખેલા ૩૨ અસ્વાધ્યાય પ્રસંગે વંચાય નહીં. (૧) આકાશ સંબંધી ૧૦ અસ્વાધ્યાય કાલ. (૧) ઉલ્કાપાત–મોટા તારા ખરે ત્યારે ૧ પ્રહર (ત્રણ કલાક સ્વાધ્યાય ન
થાય.) (૨) દિગ્દાહ–કોઈ દિશામાં અતિશય લાલવર્ણ હોય અથવા કોઈ દિશામાં
મોટી આગ લગી હોય તો સ્વાધ્યાય ન થાય. ગર્જારવ –વાદળાંનો ભયંકર ગર્જારવ સંભળાય. ગાજવીજ ઘણી જણાય તો ૨ પ્રહર (છ કલાક) સ્વાધ્યાય ન થાય. નિર્ધાત–આકાશમાં કોઈ વ્યંતરાદિ દેવકૃત ઘોરગર્જના થઈ હોય, અથવા વાદળો સાથે વીજળીના કડાકા બોલે ત્યારે આઠ પ્રહર સુધી સ્વાધ્યાય ના
થાય. (૫) વિદ્યુત—વિજળી ચમકવા પર એક પ્રહર સ્વાધ્યાય ન થા. (૬) ચૂપક–શુક્લપક્ષની એકમ, બીજ અને ત્રીજના દિવસે સંધ્યાની પ્રભા
અને ચંદ્રપ્રભા મળે તો તેને ચૂપક કહેવાય. આ પ્રમાણે ચૂપક હોય ત્યારે
રાત્રિમાં પ્રથમ ૧ પ્રહર સ્વાધ્યાય ન કરવો. (૭) યક્ષાદીત-કોઈ દિશામાં વીજળી ચમકવા જેવો જે પ્રકાશ થાય તેને
યક્ષાદીપ્ત કહેવાય. ત્યારે સ્વાધ્યાય ન કરવો. (૮) ઘુમિક કૃષ્ણ-કારતકથી મહા માસ સુધી ધૂમાડાના રંગની જે સૂક્ષ્મ જલ
જેવી ધૂમ્મસ પડે છે તેને ધૂમિકાકૃષ્ણ કહેવાય છે. તેવી ધૂમ્મસ હોય ત્યારે
સ્વાધ્યાય ન કરવો. (૯) મહિકાશ્વેત–શીતકાળમાં શ્વેતવર્ણવાળી સૂક્ષ્મ જલરૂપી જે ધુમ્મસ પડે છે.
તે મહિકાશ્વેત છે ત્યારે સ્વાધ્યાય ન કરવો. (૧૦) રજઉદ્દઘાત–ચારે દિશામાં પવનથી બહુ ધૂળ ઉડે. અને સૂર્ય ઢંકાઈ જાય.
તે રજઉદ્દાત કહેવાય. ત્યારે સ્વાધ્યાય ન કરવો.
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(૨) ઔદારિક શરીર સંબંધી ૧૦ અસ્વાધ્યાય (૧૧-૧૨-૧૩) હાડકાં-માંસ અને રૂધિર આ ત્રણ વસ્તુ અગ્નિથી સર્વથા બળી ન
જાય, પાણીથી ધોવાઈ ન જાય અને સામે દેખાય તો ત્યારે સ્વાધ્યાય ન
કરવો. ફૂટેલું ઇંડુ હોય તો અસ્વાધ્યાય. (૧૪) મળ-મૂત્ર—સામે દેખાય, તેની દુર્ગધ આવે ત્યાં સુધી અસ્વાધ્યાય. (૧૫) સ્મશાન—આ ભૂમિની ચારે બાજુ ૧૦૦/૧૦૦ હાથ અસ્વાધ્યાય. (૧૬) ચંદ્રગ્રહણ–જ્યારે ચંદ્રગ્રહણ થાય ત્યારે જઘન્યથી ૮ મુહૂર્ત અને
ઉત્કૃષ્ટથી ૧૨ મુહૂર્ત અસ્વાધ્યાય જાણવો. (૧૭) સૂર્યગ્રહણ—જ્યારે સૂર્યગ્રહણ થાય ત્યારે જઘન્યથી ૧૨ મુહૂર્ત અને
ઉત્કૃષ્ટથી ૧૬ મુહૂર્ત અસ્વાધ્યાય જાણવો. (૧૮) રાજવ્યગ્રત–નજીકની ભૂમિમાં રાજાઓની પરસ્પર લડાઈ થતી હોય
ત્યારે, તથા લડાઈ શાન્ત થયા પછી ૧ દિવસ-રાત સુધી સ્વાધ્યાય ન
કરવો. (૧૯) પતન–કોઈ મોટા રાજાનું અથવા રાષ્ટ્રપુરુષનું મૃત્યુ થાય તો તેનો
અગ્નિસંસ્કાર ન થાય ત્યાં સુધી સ્વાધ્યાય કરવો નહીં તથા નવાની
નિમણુંક ન થાય ત્યાં સુધી ઊંચા અવાજે સ્વાધ્યાય ન કરવો. (૨૦) ઔદારિક શરીર–ઉપાશ્રયની અંદર અથવા ૧૦૦-૧૦૦ હાથ સુધી
ભૂમિ ઉપર બહાર પંચેન્દ્રિયજીવનું મૃતશરીર પડ્યું હોય તો તે નિર્જીવ
શરીર હોય ત્યાં સુધી સ્વાધ્યાય ન કરવો. (૨૧થી ૨૮) ચાર મહોત્સવ અને ચાર પ્રતિપદા–આષાઢ પૂર્ણિમા,
(ભૂતમહોત્સવ), આસો પૂર્ણિમા (ઇન્દ્ર મહોત્સવ), કાર્તિક પૂર્ણિમા (સ્કંધ મહોત્સવ), ચૈત્રી પૂર્ણિમા (યક્ષમહોત્સવ, આ ચાર મહોત્સવની પૂર્ણિમાઓ તથા તે ચાર પછીની કૃષ્ણપક્ષની ચાર પ્રતિપદા (એકમ) એમ
આઠ દિવસ સ્વાધ્યાય ન કરવો. (૨૯થી ૩૦) પ્રાતઃકાલે અને સભ્યાકાળે દિશાઓ લાલકલરની રહે ત્યાં સુધી
અર્થાત સૂર્યોદય અને સૂર્યાસ્તની પૂર્વે અને પછી એક-એક ઘડી સ્વાધ્યાય
ન કરવો. (૩૧થી ૩૨) મધ્ય દિવસ અને મધ્ય રાત્રિએ આગળ-પાછળ એક-એક ઘડી એમ
બે ઘડી સ્વાધ્યાય ન કરવો.
ઉપરોક્ત અસ્વાધ્યાય માટેના નિયમો મૂલપાઠના અસ્વાધ્યાય માટે છે. ગુજરાતી આદિ ભાષાંતર માટે આ નિયમો નથી. વિનય એ જ ધર્મનું મૂલ છે. તેથી આવા આવા વિકટ પ્રસંગોમાં ગુરુની અથવા વડીલની ઇચ્છાને આજ્ઞાને જ વધારે અનુસરવાનો ભાવ રાખવો.
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स्वाध्याय के प्रमुख नियम
(१)
(३)
इस सूत्र के मूल पाठ का स्वाध्याय दिन और रात्री के प्रथम प्रहर तथा चौथे प्रहर में किया जाता है। प्रात: ऊषा-काल, सन्ध्याकाल, मध्याह्न और मध्य रात्री में दो-दो घडी (४८ मिनिट) स्वाध्याय नहीं करना चाहिए, सूर्योदय से पहले २४ मिनिट और सूर्योदय के बाद २४ मिनिट, इस प्रकार दो घड़ी सभी जगह समझना चाहिए। मासिक धर्मवाली स्त्रियों को स्वाध्याय नहीं करना चाहिए, इसी प्रकार उनके सामने बैठकर भी स्वाध्याय नहीं करना चाहिए, जहाँ ये स्त्रियाँ न हों उस स्थान या कक्ष में बैठकर स्वाध्याय किया जा सकता है। नीचे लिखे हुए ३२ अस्वाध्याय-प्रसंगो में वाँचना नहीं चाहिए(१) आकाश सम्बन्धी १० अस्वाध्यायकाल (१) उल्कापात-बड़ा तारा टूटे उस समय १ प्रहर (तीन घण्टे) तक स्वाध्याय
नहीं करना चाहिए । (२) दिग्दाह—किसी दिशा में अधिक लाल रंग हो अथवा किसी दिशा में आग
लगी हो तो स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । गर्जारव-बादलों की भयंकर गडगडाहट की आवाज सुनाई देती हो, बिजली अधिक होती हो तो २ प्रहर (छ घण्टे) तक स्वाध्याय नहीं करना
चाहिए। निर्घात–आकाश में कोई व्यन्तरादि देवकृत घोर गर्जना हुई हो अथवा बादलों के साथ बिजली के कडाके की आवाज हो तब आठ प्रहर तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । विद्युत—बिजली चमकने पर एक प्रहर तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए
यूपक-शुक्ल पक्ष की प्रथमा, द्वितीया और तृतीया के दिनो में सन्ध्या की प्रभा और चन्द्रप्रभा का मिलान हो तो उसे यूपक कहा जाता है। इस प्रकार यूपक हो उस समय रात्री में प्रथमा १ प्रहर स्वाध्याय नहीं करना चाहिए
(८)
यक्षादीप्त—यदि किसी दिशा में बिजली चमकने जैसा प्रकाश हो तो उसे यक्षादीप्त कहते हैं, उस समय स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । धूमिका कृष्ण-कार्तिक से माघ मास तक धुंए के रंग की तरह सूक्ष्म जल के जैसी धूमस (कोहरा) पड़ता है उसे धूमिका कृष्ण कहा जाता है इस प्रकार की धूमस हो उस समय स्वाध्याय नहीं करना चाहिए ।
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(९) महिकाश्वेत-शीतकाल में श्वेत वर्णवाली सूक्ष्म जलरूपी जो धूमस पड़ती
है वह महिकाश्वेत कहलाती है, उस समय स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । (१०) रजोद्घात–चारों दिशाओं में तेज हवा के साथ बहुत धूल उडती हो और
सूर्य ढंक गया हो तो रजोद्घात कहलाता है, उस समय स्वाध्याय नहीं करना चाहिए।
(२)
ऐतिहासिक शरीर सम्बन्धी १० अस्वाध्याय— (११,१२,१३) हाड-मांस और रुधिर ये तीन वस्तुएँ जब-तक अग्नि से सर्वथा जल
न जाएँ, पानी से धुल न जाएँ और यदि सामने दिखाई दें तो स्वाध्याय नहीं
करना चाहिए । फूटा हुआ अण्डा भी हो तो भी अस्वाध्याय होता है। (१४) मल-मूत्र—सामने दिखाई हेता हो, उसकी दुर्गन्ध आती हो तब-तक
अस्वाध्याय होता है। श्मशान—इस भूमि के चारों तरफ १००-१०० हाथ तक अस्वाध्याय होता
(१६) चन्द्रग्रहण-जब चन्द्रग्रहण होता है तब जघन्य से ८ मुहूर्त और उत्कृष्ट से
१२ मुहूर्त तक अस्वाध्याय समझना चाहिए । (१७) सूर्यग्रहण-जब सूर्यग्रहण हो तब जघन्य से १२ मुहूर्त और उत्कृष्ट से १६
मुहूर्त तक अस्वाध्याय समझना चाहिए । (१८) राजव्युद्गत-नजदीक की भूमि पर राजाओं की परस्पर लड़ाई चलती हो,
उस समय तथा लड़ाई शान्त होने के बाद एक दिन-रात तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। पतन-कोई बड़े राजा का अथवा राष्ट्रपुरुष का देहान्त हुआ हो तो अग्निसंस्कार न हो तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए तथा उसके स्थान पर जब तक दूसरे व्यक्ति की नई नियुक्ति न हो तब तक ऊंची आवाज
में स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । (२०) औदारिक शरीर-उपाश्रय के अन्दर अथवा १००-१०० हाथ तक भूमि
पर उपाश्रय के बाहर भी पञ्चेन्द्रिय जीव का मृत शरीर पड़ा हो तो जब तक
वह निर्जीव शरी वहाँ पड़ा रहे तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । (२१ से २८) चार महोत्सव और चार प्रतिपदा-आषाढ़ी पूर्णिमा (भूत महोत्सव),
आसो पूर्णिमा (इन्द्रिय महोत्सव), कार्तिक पूर्णिमा (स्कन्ध महोत्सव), चैत्र पूर्णिमा (यक्ष महोत्सव) इन चार महोत्सवों की पूर्णिमाओं तथा उससे पीछे की चार, कृष्ण पक्ष की चार प्रतिपदा (ऐकम) इस प्रकार आठ दिनों तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए ।
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(२९ से ३०) प्रातःकाल और सन्ध्याकाल में दिशाएँ लाल रंग की दिखाई दें तब
तक अर्थात् सूर्योदय और सूर्यास्त के पहले और बाद में एक-एक घड़ी
स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । (३१ से ३२) मध्य दिवस और मध्य रात्री के आगे-पीछे एक-एक घड़ी इस प्रकार
दो घड़ी स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। उपरोक्त अस्वाध्याय सम्बन्धी नियम मूल पाठ के अस्वाध्याय हेतु हैं, गुजराती आदि भाषान्तर हेतु ये नियम नहीं है । विनय ही धर्म का मूल है तथा ऐसे विकट प्रसंगों में गुरू की अथवा बड़ों की इच्छा एवं आज्ञाओं का अधिक पालन करने का भाव रखना चाहिए ।
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विषय
राजप्रश्नीय सूत्र भाग दूसरे की
विषयानुकमणिका अनुक्रमाङ्क
पृष्ठाङ्क सूर्याभदेव के देवद्धि के संबन्ध में
गौतमस्वामी का प्रश्न ... ... १-४ सूर्याभदेव के ऋद्धिं के संबन्ध में भगवान् का उत्तररूप कथनमें सूर्याभदेव के पूर्वभवजीच प्रदेशी राजा का वर्णन... ... ...५-३८३ सूर्याभदेव का आगामिभवका वर्णन... ... ...३८३-४४९
॥ समाप्त ॥
卐
શ્રી રાજ,શ્રીય સૂત્ર: ૦૨
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शुद्धि पत्र तुज्ञ पाठकगण,
सविनय निवेदन है कि शास्त्रों में प्रुफ और प्रिंटिंग सम्बन्धी कई गलतीयां होना संभवित है, जो सुज्ञ वाचकवृन्द नीरक्षीरन्याय से समझ कर पढलेंगे, पर जो शास्त्रीय गलती रह गई है जो देखने में अगर सुज्ञ वाचकजन द्वारा दृष्टिगोचर हुई हैं, इनका शुद्धिपत्र देने में आता है। सूत्र का नाम पृष्ठ पङ्कि अशुद्ध
शुद्ध समवायङ्ग सूत्र १६४ ५ रामः खलु बलदेवो) रामः खलु बलदेवो
द्वादशवर्षे सहस्रा- द्वादशवषशतानि
णि सर्वायुषं ) सर्वायुषं १६ बारह हजार वर्ष बार सौ वर्ष
૨૮ બાર હજાર વર્ષ બારસે વર્ષ ज्ञाताधर्मकथाङ्ग-२६१ १ पहली पंक्ति 'त्रैमासिकी' पद छूट गया है सूत्र भा. २ , पूरी होने पर सो 'त्रैमासिकी' यह पद
बढाके पढ़ें आठवीं भिक्षु प्रतिमा के अनन्तर 'प्रथम सात दिनरात प्रमाणवाली नववीं भिक्षु प्रतिमा' यह पाठ छटा है सो 'नववीं भिक्षु पडिमा' वहां
इतना झोड के पढ़ें ज्ञातधर्मकथाङ्गसूत्रभा.३, ३९७ १७ प्रवचनसिद्ध प्रवचनविरुद्ध
છે ૨૧ પ્રવચનસિદ્ધ પ્રવચન વિરુદ્ધ ज्ञातधर्मकथाङ्गसूत्रभा.२ १४७ १७ मद्यपान में आसक्त-निद्राजनक द्रव्य में आसक्त
, ૨૯ મદ્યપાનમાં નિદ્રાજનક દ્રવ્ય
આસકત માં આસકત ज्ञातधर्मकथाङ्गमत्रभा-३ ३३४ ३ भगवताऽऽवश्यके- भगवताऽनुयोगद्वारे
, १७ आवश्यक सूत्रमें- अनुयोगद्वारसूत्रमें , ૧૯ આવશ્યક સૂત્રમાં- અનુગદ્વાર સૂત્રમાં
શ્રી રાજ,શ્રીય સૂત્ર: ૦૨
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दसअट्ठ
"
अन्तकृद्दशाङ्गसूत्र २९५ १० दसदस
'सत्तमवग्गे तेरसउद्देसगा' इतना पाठ छूट गया है
सो वहां समझ लेवें आचारसत्रभा. २ १२२ ८ नेत्तपरिणाणा ) नेत्तपरिणाणा अपरि
अपरिहीणा फरस हीणा जीहपरिण्णाणा अपपरिणाणा अपरि-) रिहीणा फरिस परिणाणा हीणा
अपरिहीणा आचाराङ्गसूत्रभा-२ २८१ १४ निन्यानवे
अट्ठानवे ૨૬ નવાણુ
અઠ્ઠાણુ दशाभ्रतस्कध
२० कालकर के ग्रैवेयक- कालकरके देवलोकमें से
आदि ૨૯ કાલકરીને રૈવેયક કાલકરીને દેવલોકમાંના
माहिज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रभा.२ ७३० २१ गुशिल कोत्य ગુણાશલક રૌત્ય
(नन रास२) (Gधान माया) उत्तराध्ययनसूत्रभा.३ १८० १-२ ...तृतीय देवलोके- मोक्षं गतः
गतः ततश्चुतो महा । विदेहे केवलिभृत्वा ।
सिद्धिगतिं गमिष्यति । १२,१४,१५...वे चक्रवतीं तृतीयदेव वे चक्रवर्ती
लोकमें गये वहाँसे चवकर । मोक्ष गये महाविदेहमें केवलीहोकर ।
सिद्धि पदको प्राप्त करेंगे , २३-२४.... यती भरीने जीतते यती
દેવલોકમાં ગયા અને ત્યાંનુ મોક્ષમાં ગયા આયુષ્ય પુરૂં કરી ત્યાંની ચાવી ને મહાવિદેહમાં કેવલો
થઈને સિદ્ધિ પદ પ્રાપ્ત કર્યું उत्तराध्ययनसूत्रमा.४ ९२ १४ संयमयोगोंका उल्लंघन संयम योगों का
होताहै
उल्लंघन नहीं होता है ૨૪ સંયમ યોગનું ઉલંઘન સંયમ મેગેનું થાય છે
ઉલંઘન થતું નથી
શ્રી રાજપ્રશ્રીય સૂત્ર: ૦૨
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भगवतीसूत्र भा. ३ ८९९ ३ त्रिभागोन
३-४ पल्योपमं
१३ तृतीयभागकम एक पल्यापम की
99
99
""
२८... पापभ रतां
ત્રિભાગ ન્યૂન છે
"
भगवतीसत्रभा. ३ ८९९ २८ मे पोषम रतां
ત્રિભાગ અધિક
उत्तराध्ययन
27
24
दशाश्रुतस्कन्ध
99
99
तपः कृत्वा तस्मिन्नेव भवे मुक्तिं गतः । उसी भव में मुक्ति लाभ किया
તેજ ભવમાં મુકિત ના લાભ કરેલ છે. यतस्तैरुत्कृष्टदेशोनार्घपुद्गल देशऊन अर्ध पुद्गल દેશઉન અધ પુદ્ગલ
१७४
૧૭૪
दशाश्रत स्कंध के दसवें अध्ययनमें हिंदी एवं गुजराती में दशों निदानों के प्रकरण में जहां-जहां ग्रैवेयक शब्द है वहां वहां 'सौधर्म' ऐसा पाठ सुधारकर पढना चाहिए.
,
"
४४८
11
99
१०
१७४
२
.. तपः कृत्वा तृतीय
भवे मुक्तिं गतः
१३ तृतीय भव में मुक्ति लाभ किया
२५ त्री लवभां भुम्ति
ના લાભ કરેલ છે २ यतस्तै रुत्कृष्टार्ड
पुद्गल
१२ देशऊन पुद्गल
૧૨ દેશઉન પુદ્ગુગલ
શ્રી રાજપ્રશ્નીય સૂત્ર : ૦૨
त्रिभागोन पल्योपमद्वयं तृतीयभाग कम दो पल्योपम की
તૃતીય ભાગ ક્રમ એ પલ્ચાપમની છે.
ભાગ અધિક
તૃતીય એ પચાપમ
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राजप्रश्नीयसूत्र भा. २ दूसरेका शुद्धि पत्रक
शुद्ध
अशुद्ध मडबसि कटे
मडबास
कर्बटे
# or order 0000
વસ્તીમ देवजई भग्यतामुपगता कबट सबन्धिकं अमंतेत्ता जणयए नयरा सेयावयाए दुप्पयञ्चउप्पय मियपपसु भगवतम् के शिवामी निवास्थानभूत चडे અપહ उत्कोच-लांच ઉત્કચ લાંચ पटं जइ बह वेन व्यापारतेन इष्ठान् तस्स ण अनुरद्धा प्रमयुत्ता
વસ્તીમાં देवजई भोग्यतामुपगता कर्बटे संम्बन्धि आमंतेत्ता जणबए नयरी सेयवियाए दुप्पयचउप्पयमियपसु भगवंतम् केशिस्वामी निवासस्थानभूत चंडे આ उत्कोचन ઉત્કચન पउंजइ बहुत्वेन व्यापारस्तेन इष्टान् तस्स ण अनुरक्ता प्रेमयुक्ता पुत्ते यावत् शब्द यह प्रकट
= * * * * * * * * * * * * 8 9 * * * ๐ ๐ : * * * * 9 9 ะ
wrv v
arnarwana
पत्त
यावत् शब्द प्रकट
શ્રી રાજપ્રશ્રીય સૂત્ર: ૦૨.
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________________
*
અંતઃપુરનું शास्त्रेहामति કર્મજા નિશ્રામાં कार्यों में कथा नि:शपणे સકલાર્થને आयोगप्रयोगः संप्रयुक्तः भोजनावशिष्टे शुश्रूषादि અદૃષ્ટ
* * * * *
तेणं
અંતપુરનું शास्हामति કમજ. નિશ્ચમ कार्या में कथा નિશંકપણે સફલાઈને आयागप्रयोगः सप्रयुक्तः भोजनावशिष्ट शुश्रषादि भद्र तेण समृद्ध जितशत्रु नाम उत्तरपोरस्त्ये जियसत् जितशत्र जसा अन्तेवासाव जियसत्तस्स सूत्रर्थजितशत्राः रायकजाणय वयासा पच्चप्पिणहा महत्थ जाव अभितरिया त महत्थं चाउग्घंट અનેત પરમ સમનસ્થિત
समृद्ध जितशत्रुर्नाम उत्तरपौरस्त्ये जियसत्त
* * * * * * * * *
जितशत्र
जैसा अन्तेवासीव जियसत्तुस्स
सूत्रार्थ
जितशत्रोः राजकज्जाणिय वयासी पच्चाप्पिणह महत्थं जाव अभितरिया तं महत्थं चाउग्घंट અનેક પરમ સૌમનસ્થિત
* * * • • • •
१६
२८ 30
શ્રી રાજ,શ્રીય સૂત્ર: ૦૨
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अशुद्ध काटुम्बक पुरुषान् सकङ्कठावतंसकं शरशतद्वात्रिंशतत्तूण
E ๔ *
शुद्ध कौटुम्बिकपुरुषान् सकङ्कटावतंसकं शरशतद्वात्रिंशत्तण दोनों ओर स तोरणवरयुक्त ऐसा है
જ્યારે
दध्यक्षतदुर्वाधेरादीनि आरोपण किया आयुध पदसे यत्रैव
दोनों और स तारणवर युक्त सा है ત્યારે दूध्यक्षत दर्वाङ्करादीनि आरापण किया आयुध दसे यत्रत्र केकयाद्ध जितश जियसत्तस्स सावत्थाए ० १०६ स्य श्रावस्या उपाग ति
केकयाई जितशत्रू जियसत्तस्स
सावत्थीए विहरइ सू० तस्य श्रवस्त्या उपागच्छति आदि कुशलप्रश्नादि सारहिं चाउग्घंटे जिमितभुक्तोत्तराग प्रतीच्छति
* * * * * * * * * แs ะ • • s • * * * * , *
आद
कुशल प्रभ्रादि सारहि चउग्घंट जिमितभुक्तात्तराग प्रतोच्छति
एवं
एव
ટીક્રાર્થ पञ्चविधन्
ટીકાર્ય पञ्चविधान जियमाए जेणेव
जियम
जेणव
*
શ્રી રાજપ્રશ્રીય સૂત્ર : ૦૨
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________________
ओयसी विद्या धानो श्रावस्ती गरी यत्रव शान्तिप्रधन सत्यपधान
ओयंसी विद्याप्रधानो श्रवस्तीनगरी यत्रैव शान्तिप्रधान सत्यप्रधान सुहेणं पैतृको श्रावस्ती तथा निष्कपटः
सुहणं
वयं
तृको श्रावती तथ निकपट: वय लपरहित्यं व्य શેચ છે सिघाडग ઉદપયાવસ્થા ધાદિકેને महापथपथ-षु जनात्कलिकेति वा जनोमिरितवा सारथि तं लगों के નિમિ महद्भिर्महद्धि चतुपथ मनुयां લાયો इत्यारस्थ पजलि गतोयोग्रषु
लेपराहित्य द्रव्य શૌચ છે सिंघाडग ઉદયાવસ્થા ક્રોધાદિકને महापथपथेषु जनोत्कलिकेति वा जनोमिरिति वा सारथिस्तं लोगों के નિમિત્તે महद्भिर्महद्भि चतुष्पथ मनुष्यों
2 r r Mir var v y mur AM- Mr. & rar
લાગ્યો
इत्यारभ्य पंजलि गतोग्रेग्रेषु
શ્રી રાજપ્રશ્રીય સૂત્ર : ૦૨
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________________
অন্তু वदाविदएहि करतलपरिगृहीतं
श्रावत्यां
शुद्ध वंदावंदएहिं करतलपरिगृहीतं श्रावस्त्यां देवानुप्रिय! व्याख्यातप्रायमिति सव्वाओ दिसिं सव्वाओ सव्वाओ
सव्वाओ
देवनुप्रिय ! गाख्यातपायमिति सव्व ओ दिसि सव्वओ सचओ सन्वओ सव्वओ श्रुत्वा अवितहमेय धन्न चत्त सारही केशिन गिहिधम्म पाव्वयणं विच्छ,
* * * * * * 4 - ะ ะ ะ แ ต ง * * * * * *
सव्वाओ श्रुत्त्वा अवितहमेयं धन्नं चित्ते सारही केशिनं गिहिधम्म पावयणं विच्छद्य शमीम मैं तो सात शिक्षा सन्देहसहितम्
शकोमि मैं ता
एवं
सातत शिक्षा न्देहरारतम् एव अश्वदिको परिस्थिति प देशाशिक પ્રાણાતપાતથી ઈચ્છા પરારમાણ अश्वस्थप्त व
अश्वादिको परिस्थिति देशावकाशिक પ્રાણાતિપાતથી ઇચછા પરિમાણુ अश्वरथस्तत्रव
* * * * * * *
શ્રી રાજપ્રશ્રીય સૂત્ર: ૦૨
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________________
अशुद्ध
गधव्व
अट्ठामजपेमाणु
अय
छणेण
जियसत्तणा
श्रमणापासको
गथु
पावथणाआ
નિત્ય
परिपुष्णं फासुरसाणिज्जेणं
पौषधोपया सैः
काङ्क्षारहितः चतुर्दश्यष्टमी पौणमास्यः
पौषध
मुहुर्मुहुरबलाकयन्
विहरात
कयाइ
सारहा
छत्तणं
अ भंते
पसिस
पाउग्गद्दण
पुरसवग्गु
पहिले
महत्थ
हता
अभिगम णिज्ज
परिवसति
महार्थं
શ્રી રાજપ્રશ્નીય સૂત્ર : ૦૨
शुद्ध
गंधव्व
अमिज्जपेमाणु
अयं
पुंछणेणं जियसणा
श्रमणोपासको
गयु
पावयणाओ
નિગ્રંથ
परिपुष्णं
फासुएसणिज्जेणं
पौषधोपवासैः
काङ्क्षारहितः
चतुर्दश्यष्टमी पौर्णमास्यः
पौषध
मुहुर्मुहुग्वलोकयन्
विहरति
काई
सारही
छतेणं
अहं भंते !
पए सिम्स
पाउग्गहणं
पुरिसवग्गु
पहिले
महत्थं
हंता
अभिगमणिज्जे
परिवसंति
महार्थं
पेज
८२
८२
८२
८२
८२
८३
८३
८३
८४
८५
८५
८६
૮૮
८८
९१
९२
९२
९२
९२
९२
९३
९३
९४
९५
९७
९९
९९
९९
९९
१००
पि
Tr
१०
११
१५
१७
१
૨૬
२८
૨૬
१३
२७
१
३
१८
११
१६
१६
१९
ތ
१७
१०
१०-११
१२
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________________
अढाइ षयेसिस योर
आढाइ पएसिस्स योग्य
9 * * *
हंता
हे चित्ते रीसृपों सो सग्गे અભિમમનાય
* * * *
१०४
१०४
हे चित्र सरीसृपों सोपसग्गे અભિગમનીય बहूनां द्विपदचतुष्पदमृगपशुपक्षिसरीसृपाणाम् द्विपदादयः पक्षिसरीसृषाणां तद्वनप्रवेशरूपोऽर्थः कुमारसमणं पज्जुवासिस्संति अधार्मिष्ठः पीठफलकसेज्जासं युष्माकं नमंसिष्यति प्रातिहारिकेण तुम्भ तत्र सम्मानयिष्यन्ति खाद्यं स्वायं
पक्षसरीसृपाणा तद्वनप्रवेशरूपाऽर्थः कुगारसमणं पज्जुवासिप्सति उधामिष्ठः पीठलगसेज्जासंफ युमकं नमंसियष्यति प्रतिहारिकेण
१०४
१०४
* * 9 : * * * * * 9 ง ๕ ๕ ๕ ๓ : แs # ง แ 8
ब्तुभं
सम्मानयियन्ति खाद्यं खाद्य मज्झ थत्रव कुमारमणम्स કેર્યાદ્ધમાં दुइज्जमाणे पडिहारिएणं इत्यादि
यत्रेव कुमारसमणस्स કેકયાદ્ધમાં दुइजमाणे पाडिहारिएणं
૧૦૯
११० ११० १११
इत्यादि
:
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________________
१११ १११
मृगवगम् विणयेणं नयरि यत्रव वरतरनी संपउत्तहि
११२
* * * * * * * *
गह
११५
११६
वरतरणी संपउत्तेहि तत्रव श्रावस्ती समापात् ससुपविष्टः
११६ ११७
११७
मृगवनम् विणएणं नयरिं यत्रैव वरतरुणी संपउत्तेहिं गिहे वरतरुणी संपउत्तेहिं तत्रैव श्रावस्ती समीपात् समुपविष्टः कामभोगान् प्रत्यनुभवन् सावत्थीओ केशीकुमारश्रमणः श्रावस्त्या श्वेतविका केसिकुमारसमणे
४४ कुमार श्रमणो व्याख्या केशीकुमारश्रमण કેકયાર્થ शृङ्गाटक णाम गोयं अवकमंति पूर्वानुपूर्वी जस्सणं
सावत्थाआ केशीकुमार मणः
वस्त्या श्वेताविका कंसिकुमारसमणे औ8 कुमार मणो व्याखया केशाकुमार श्रमण કૈકયાદ્ધ श्रङ्गाटक णामं गायं अवकमंति पूर्वानुपूर्वी जसणं
૧૧૮
* * * * * * 9 9 : * * * * * * * * * * *
११९
१५
૧૧૯
TO
१२१
विहरइ
विहरइ
१२३
विउल जुत्तमेव
विउलं जुत्तामेव
१२४ १२४
*
શ્રી રાજપ્રશ્રીય સૂત્ર: ૦૨
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________________
E
অন্তু। सज्झय प्रा दपीठा पण
शुद्ध सज्ज्ञयं प्रासादपीठा
१२४
१२५
पग
१२५
હદયમાં
૧૨૫ ૧૨૫ १२६
હૃદયમાં दृष्ट पडिविसज्जेइ મૃઝવદ્યાન विषुलं जीवियारिहं उसने पच्चप्पिणेह घंटोंवाले हियए घंटोंवाला हट
पडिविसज्जे મૃગવનયદ્યાન उिलं जीवियारिहं र सने पच्चाप्पिणेह घंटांवाले हिजए घटोंवाला
१२६ १२६ १२७
१२७
१२७
१२७
१२८
૧૨૮
ज्य.
ه س
س سه
१३२
वहुणं परमसौमनस्थितः वहुगणतरम् आरामगय वा त घेव ना लभइ केवलिपन्नत धम्म केवलिपन्नत वाद्यस्वाधेन छत्तण महणं
वहूणं परमसामनस्यितः बहुगुणतरम् आरामगयं वा तं चेव नो लभइ केवलिपन्नत्तं धम्म के वलिपन्नत्तं खाद्यस्वायेन छत्तण माहणं
१३२
Morowww or orm
१३५ १३५
१३६
आरामगत उवस्सगयं પ્રયુતાસના
आरामगतं उवस्सगयं પર્ય પાસના
१३६
१३६
શ્રી રાજપ્રશ્રીય સૂત્ર : ૦૨
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________________
अशुद्ध બર્થો विजानाहि पत्र जीवा जावादि पदाथों श्चमण
અર્થો विजानीहि तत्र जीवा जीवादि पदाथों श्रमण
पेज पति ૧૩૭ ૨૭ १३८३ १३८ ५ १३९ ९
दैवत
दैवतं
१४१
माहनेन उसकी श्रवणताये
१४१
चित्ते
१४३
E : w x y & # x y = : : : : : : :
૧૪૩ १४४
१४४
१४४
महानेन उसका मरणताये चित्त ટીકાર્ય चाउग्घटे दिसि मानेप्याम प्रढेशी सारहिं धन्मणाइकरखमाणा अयश्य નિ સસ્થાને एयमाणत्तिय ए होउ एत खलु तं एहणं तं आसे तं एइणं तं आसे रा कि
TEERTREEEEEEEEEEEEEEEEEEEER
१४५
४८
१४७
anचाउग्घंटे दिसिं मानेष्यामि प्रदेशी सारहि धम्ममाइकखमाणा अवश्य નિવાસસ્થાને एवमाणत्तियं एवं होउ एतत्खलु तं एएणं ते आसे तं एएण ते आसे रात्रि रात्रिक दव्वं
१४७
१४८
१४८
दव
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Page #31
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________________
शुद्धप्रावे ।। चि सारथी
१५४ १५४
ગથી
૧૫૪
१५५
ต * *
शुद्धप्रावेश्यानि चित्र सारथी ગયા खलुस अत्रैव अज्झथिए निविण्णाणा निविण्णाणं चित्रसारथिमेव चित्रसारथिमेव होता है
अत्रय अज्ज्ञथिए निविणणाणा निर्विण्णाणं चि सारथिमेव मूर्वा हाता है
१५८
* *
१५८
१५९
१६२
* * * *
जा
१६२
१६४
વિચ
૧૬૪
* * * * * *
१६६
पुरि
१६७
મસ્તર વાળા
મસ્તકવાળા करेति
करोति जढ
जड़
વચ્ચે पहीसी राया
पएसी राया खल
खलु
पुरिसं अण्ण जवियत्तं अण्ण जीवियत जीवितं
जीवितं अन्नजीवितत्वम् अन्नजीवितत्वं पवि चयं
परिचयं जड जपवासटि जर्ड पज्जुवासति केशा एसे
ऐसे केसा कुमारसमणे केसी कुमारसमणे प्रासुकैपणीयान्नमात्र विनः प्रासुकैपणीयान्न मात्र जीविनः श्रतज्ञान
श्रुतज्ञान प्रसार
प्रकार केवलवाणे
केवलणाणे
१६७
केशी
* * * * * * * ะ
१६८ १७०
१७२ १७४
ะ ะ
१७४
શ્રી રાજપ્રશ્રીય સૂત્ર: ૦૨
Page #32
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________________
१७५
१२ तद्यथा आभिनिवोधिकज्ञानम् अङ्गप्रविष्टम् श्रुतज्ञानविषयक
प्रज्ञप्तं
त था आभिनिवो ज्ञानम् अ विष्टम् श्रतज्ञान विषयक प्रहप्तं भिनिवोधिक ज्ञान अवधि न ક્ષાપશમિદ श्रुतज्ञानम् तत् एतद्रपं उधविसामि चित्तण
आभिनिबोधिक ज्ञान अवधिज्ञान ક્ષાપશમિક श्रुतज्ञानम्
१७६
१७७
तत्
* * * * * ะ 3 แs • * * * *
१७७
१७७
एतद्रूपं उवविसामि चित्तेण
१७८
१
केसीकुमारश्रम मनाऽम: करभरवृत्ति
केशीकुमारश्रमण मनोऽम करभरवृत्ति
FARRERAKATREATRE REFERREF
१८५
१८६
अर्धा ए स्वभ्यापि शरार
अधम्मिए स्वस्यापि शरीर सरीरं
सरीर
* * * *
१८७
ना
१८८
१८८
मनाऽम विशेषणावशिष्टो खल
*
१८९
पएसि राय
मनोऽम विशेषण विशिष्टो खलु पएसिं राय एवं सूरियकता तुमं
* * * * *
सूरियकता तुम
શ્રી રાજપ્રશ્રીય સૂત્ર : ૦૨
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अशुद्ध
हाय
च्छित्त
सव्वालंकार भ्रूसिय
तुम
पारयणं
त
सम
ण
लागं
पसि
पसि
देवि
प्रदेशन
इंड
हत्थविन्नगं
व्यपरापय
शकोति
शाघ्रमागन्तुं
शक्राति
शक्राति
"
तुम सबात् सूर्यकाता देवा
नि क मर्यामधामको करभरवृत्ति ना शक्राति
शरारया
वयासा
अह
शुद्ध
શ્રી રાજપ્રશ્નીય સૂત્ર : ૦૨
हायं
च्छित्तं
सव्वालंकार भ्रूसियं
मं
परियणं
तं
सम्म
ர்
लोग
पर्सि
पर्सि
देविं
प्रदेशिन्
डंड
१३
हत्थ भिन्नगं
व्यपरोपयेत्
शक्रोति
शीघ्रमागन्तुं
शक्रोति
शक्नोति
99
तुम इस बात सूर्यकान्ता देवी
निजक
नगर्या मधार्मिको
करभरवृत्ति
नो शक्नोति
शरीरयो
वयासी
अहं
पङ्कि १६
१८९
१८९ १७
पेज
१८९ १७
१९०
१९०
१९०
१९०
१९०
१९१
१९१
१९१
१९१
१९२
१९२
१९२
१९३
१९४
१९५
१९५
१९६
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१९६
१९८
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२००
२००
२००
२०१
२०१
२०१
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४
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११
१२
१३
१५
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४
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२५
१
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१
१
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१२
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३
८
१
१३
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अशुद्ध आज्जया सरीर
शुद्ध अज्जिया सरीरं आगंतुं अन्नं
पेज पति २०२ ४ २०२६ २०२ २०२
आगतु
अन्न
ना
२०४
वृत्त सा क्वाभवादति इत्यात्राह वौच वृत्ति
वृत्तिं सा काभवदिति इत्यत्राह पौत्र
by ur verma wor:22.27
२०८
वृत्ति
२०८
त माद्
दिव्वेहि कामभोगेहि
तस्मात् दिव्वेहिं कामभोगेहि
अज्झोववण्णे गंधे ठाणेहिं भिंगार कडच्छुय
धार्मिको
२१
अज्ज्ञाववण्णे गधे ठाणेहि भिगार कडुच्छुय धार्मिकी पडिसुणेज्जा शीघ्रमागन्तम् विशेषणांसे देवलाक हुणोववन्नए उहे दिव्वेहि शक़ाति अधुनापपन्नक
Ww ०
पडिसुणेजासि शीघ्रमागन्तुम् विशेषणोंसे देवलोक अहुणोववण्णए उन्हे दिव्वेहि शक्कोति अधुनोनोपपन्नक केशी
२१३ २१३ २१३ २१४ २१४ २१५
केश
२१७
१४
શ્રી રાજપ્રશ્રીય સૂત્ર : ૦૨
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लामं
सधिवाले हिं जीवित
लोगं संधिवालेहि जीवितं णिग्गए अन्नं
णग्गए
अन्न
२२०
अउकुभीए
२२०
२२१
२२०
अयामयेन
वारिक किचित् जओ ण अवादित् राएज्जा समपन्नाः
अउकुंभिए अन्नं अयामयेन दौवारिक किंचित् जओ णं अवादीत् रोएज्जा सम्पन्नाः माडम्विक प्रवाल પિષણ
माडम्बक
२२२ રરર ૨૨૨ રરર ૨૪ ૨૨૪ २२४ ૨૨૪ ૨૨૮ २२८ २२८
24 Mar ~ mm varamaar arm MM22 23
प्रवाव
પિયણ
नास्ति किञ्चित्
२२९
२३०
नाम्ति काञ्चत् सुण्ठु भेरिच से तेणं वहया वा जाई अंकुण्ठितगतिः सद्दाहि सरीर ऐ।
भेरिंच से गुण वहिया जाव राई अकुण्ठितगतिः सदहाहि
२३०
२३१
सरीरं
२३२
२३३
ऐसा भंते! जावियाओ
जीवयाओ
२३२
શ્રી રાજપ્રશ્રીય સૂત્ર : ૦૨
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२३४
तामयस्कुम्भी कृमि कुम्मी मिव जण्हाणं पश्यमि प्रतज्ञा सु तिष्ठि केसिकु रसमणं सादृरश्यम् अचमेण्टक दुदुघण
ता पभू अपः जत्तो नायमर्थसंः मर्थ रिल्लएणं
तामयस्कुम्भी कृमि कुम्भी मिव जम्हाणं पश्यामि प्रतिज्ञा सुप्रतिष्ठिता केसिकुमारसमणं सादृश्यम् अचमेंष्टकद्रुघण हंता पभू अपज्जतत्तो नायमर्थः समर्थः कोरिल्लएण जैसे एगं प्रज्ञा
२३६ २३६ २३९ २४१ २४३ २४४
१३ १३ २३ २४१ १६ ४
२४४
२४५ २४५
३
जैसे
२४६
प्रझा
२४९
ગથી
નથી
mr.22
२४
महं
परिहिवत्तए
जएणं
परिवहित्तए जइणं કથન प्रभुः
કથર
२५१ ૨૫૧ २५२
प्रभु
जैसा
जैसा
२५२
२५३
पएसि तरुणा शिल्पापगतः
पएसि तरुणो शिल्पोपगतः
२५५
-24xnn...
ना
राजामम् वाहयायामुपस्थानशालाया। बाहयायामुखस्थानशालायां पास
राजानम् बाहयायामुपस्थानशालायां बाहयायामुपस्थानशालायां पएसिं
२५५ २५६ २५७ २६२ २६२ २६३
2
શ્રી રાજપ્રક્ષીય સૂત્ર: ૦૨
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________________
१७
अशुद्ध जीयस्स खल पएसा एवं वयासा पदाना
जीवस्स खलु पएसी
२६३ २६५
वयासी
पदानां
अम्हं पासइ
तसि
तंसि
२७०
एगत सकपो संकप्प झियायमाण
एगंते संकप्पे संकप्पं झियायमाण
२७० २७१
तेसिं
२७१
Frrrrrrrrrrrrrrrrr v wwwraa
उवएमलद्दे खाइम
२७१ २७१ २७१ २७२
कचित्
२७२
उवएसलद्धे स्खाइम रायं केचित वनोपजीविन! ज्योतिश्च ज्योतिर्भाजनं च केइ पुरिसा विज्झवेत्ता झियायइ बंध करोति अरणिं
२७२ २७२
वनापजीविन! ज्यातिश्व ज्यातिर्भाजनं च केइ पुरिसो विज्ञवेत्त झियाइ बध कराति अरणि आर तएण
२७३
२७५
૨૭૮ २७९ २७९ २७९
और
तएणं
२७९
२७९
શ્રી રાજપ્રશ્રીય સૂત્ર : ૦૨
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________________
२८०
५
२८५
१५
२८७
मज्झे
२८७
२८८
त्वाणच्छसि
त्वमिच्छसि अग्निपात्
अग्निपात्रे पारकरं
परिकरं पवेिशयति
परिवेशयति परिषो
परिषदो मझे वर्तव्यावर्तव्यनिर्णायकानां- कर्तव्याकर्तव्यनिर्णायकानां वक्तम्
वक्तुम् अवहेलहितुम्
अवहेलयितुम् योग्याऽम्मि
योग्योऽस्मि भा :
भावः जाणाम
जाणामि अवस्ज्झ
अवरज्झइ पाडलोमं
पडिलोमं वामवामेन
वांमं वामेन अनष्ट
अनिष्ट
यस्य ऋषपरिषदि
ऋषि परिषदि विरुद्धेनत्यर्थः
विरुद्धेनेत्यर्थः
२८८ २८८ २८८ ૨૮૮
૨૮૮
२८८
२८९
२९२
* * * * * * * * * * * * *
२९२
स्य
२९३ २९३
२९३
२९४
२९४
अयमे द्रूप यात् काणेन यावच्छे न प्रतिलाम प्रतिलोमेन भङ्गत्रयाक्त
अयमेतद्रूप यावत् कारणेन यावच्छब्देन प्रतिलोम प्रतिलामेन भङ्गत्रयोक्त किं
२९५ २९५ २९६ २९६
ه
५
ฮ เฮ
سه له
ร
पएसी
م
ะ
३०४
سه
पएसा व्यजने હસ્તામલકવ नातिनिपुणाः
व्येजते હસ્તામલકવત્ नीतिनिपुणाः
له
२३
૩૧૨ ३०८
سه
શ્રી રાજપ્રશ્રીય સૂત્ર: ૦૨
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________________
कुंथू
थुकुंथू हत्ती णिच्छिाइ सर कार शालाथाः काट शालायाः
MY
हस्ती णिच्छिड्डाई सतर कार शालायाः कार शालायाः
# ๒ ๑ ๕
mmmmmmmmmmm
अह
अहं
๓ 9 - - ๓ )
एव मोक्ष्मामि समासरणं
३२१
एव
३२३
३२३
मोक्ष्यामि समोसरणं एवं अइ गाढबंधणबद्ध करेंति तए णं विस्तारवाली पासंति जाव
अइगाटबंधणबद्ध करोत तए ण विस्तारवली
३२४
३२५
३२६
पासति
રૂ૭
३२७
सुबहुं
२
जाघ सुबह पडिसुणेति तउययारं तत्थण बंध त्तए बहुाह ग्रारंभ दासीदासगामहिगवेलक प्राथश्चित्ताः मानुष् कान् पचविहे लाह उ गच्छाइ
पडिसुणे ति तउयभारं तत्थणं बंधित्तए बहूहिं प्रारंभ दासीदासगोमइिसगवेलकं प्रायश्चित्ताः मानुष्यकान् पंचविहे लोह
* * * * * * ง * * * * * * *
३३१
३३१
३३१
३३२ ३३२
*
उवागच्छह
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________________
२०
५,थ्य।
अग्राभिकायाः सर्मापे सड हो
પામે अग्रमिकायाः समीपे सङ्ग्रहो
૩૩૩ ३३५ ३३६ ३३६
वर्णन
वर्णन
३३७
* * * * *
३३७ ३३७
ന
ന
३३७
प्रासादावतंसकान् प्रायश्चित्ताः घृतदध्यक्षता: विलास्यमानाः प्रत्यनुभवन्तो अल्पमूल्ये द्वात्रिंशद्वद्धैः विस्मयः दुष्टावसानम् अहमम्मि तस्माद्धेतोः अनन्तरोक्तः
ന
* * * * *
३३८
३
ന
ന
ന
३३८
ന
प्रासादावन्तंसकान् प्रा श्चित्ताः धृतदध्यक्षताः घिलास्यमानाः प्रत्यनुभवता अल्पमल्ये द्वात्रिशद्वद्धः तित्मयः दुष्टा सानम् अहममि तमाद्धेतोः अन्तराक्तः त इच्छाम देवानुनि राणामन्तिके णमंसेज्जा सर पर त्रणामाचार्याणां जनामि वृत्ति मदन अक्षर्मा स्वा णमंसेज्जा सर पर केशाकुमारश्रमणः प्रदेशा
३३८
* * * * *
ന
ന
ന
33९
33९
३४२
इच्छामि देवानुप्रियानामन्तिके णमसेन्जा सत्कार त्रयाणामाचार्याणां जानामि वृत्तिं कल्पयेत् मर्दन अक्षमयित्वा णमंसेजा सत्कार केशीकुमारश्रमण प्रदेशी
३४२ ३४२ ३४२ ३४२ ३४२
* * * * * *
९
३४२
३४४
* * *
३४४
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॥ श्री वीतरागाय नमः ॥ श्री-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलाल व्रतिविरचितया सुबोधिन्याख्यया व्याख्यया
__समलकृतम् श्री राजप्रश्नीयसूत्रम्
(द्वितीयो भागः ) गौतमस्वामी पुनः पृच्छतिमूलम्-सूरियाभेणं भंते ! देवेणं सा दिव्वा देविडसा दिव्वा देव ज्जुई किण्णा लद्धा? किण्णा पत्ता ? किण्णा अभिसमन्नागया?, पुव्व. भवे के आसी? किं नामए वा किं गोत्ते वा? कयरंसि वा गामंसि वा नगरंसि वा निगमंसि वा रायहाणीए वा खेडंसि वा कब्बडंसि वा मडंबंसि वा पट्टणंसि वा दोणमुहंसि वा आगरंसि वा आसमंसि वा सवाह सि वा संनिवेसंसि वा किंवा, दच्चा, कि वा भोच्चा, किंवा किच्चा, किं वा समायरित्ता कस्स वा तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि आरियं धम्मियं सुवयणं सुच्चा निसम्म सूरियाभेणं देवेणं सा दिव्वा देविडि दिव्वा देवजुई लद्धा पत्ता अभिसमण्णागया ? ॥ सू० ९८ ॥
छाया-सूर्याभेण भदन्त ! देवेन सा दिव्या देवद्धिः सा दिव्या देव. द्युतिः कथं लब्धा कथं प्राप्ता कथम् अभिसमन्वागता ? पूर्व भवे क आसात् ?
'मुरियाभेणं भंते ! देवेण सा दिव्या देविङ्की सा दिव्वा इत्यादि ।
सूत्रार्थ-(सूरियाभेणं भते! देवेण सा दिव्वा देविडैि सा दिवा देवज्जुई किण्णा लद्धा ? किण्णा पत्ता, किण्णा अभिसमन्नागया ?) हे भदन्त!
सूरियाभेण भते ! देवेण सा दिव्वा देविड्ी सा दिव्वा' इत्यादि
सूत्रार्थ-(सूरियाभेण भते ! देवेणसा दिव्या देविढी सा दिव्यो देवज्जुई किण्णा लद्धा ? किण्णा पत्ता, किण्णा अभिसमन्नागया ?) महत !
શ્રી રાજપ્રશ્રીય સૂત્ર: ૦૨
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राजप्रश्नीयसूत्रे
किन्नामको वा? किं गोत्रो वा ? कतमस्मिन् वा ग्रामे वा नगरे वा निगमे वा राजधान्यां वा खेटे वा कबटे वा मडम्बे वा पत्तने वा द्रोणमुखे वा आकरे वा आश्रमे वा संवाहे वा सन्निवेशे वा किं वा दत्त्वा किं वा
२
सूर्याभदेवने वह दिव्यदेवर्द्धि वह दिव्य देवद्युति, कैसे लब्ध की, कैसे प्राप्त की, अर्थात् किस प्रकार से उपार्जित की ? किस प्रकार से उपार्जित की गई वह उसने अपने आधीन की, और कैसे उसने अपने आधीन होने के बाद उसे अपने भोग के योग्य बनाया ? (पुव्वभवे के आसी ? किंना म वा? किं गोते वा कयरंसि वा गामसि वा ? नगरंसि वा निगमसि वा राहाणीए वा खेड सि वा कब्बडसि वा मडंबंसि वा पट्टणसि वा दोनमुहंसि वा आगर सि वा आसमंसि वा संवाहंसि वा) तथा पूर्व भव में वह किस जाति का था ? क्या इसका नाम था ? गोत्र से वह कौन था ? तथा किस ग्राम में वृतिवेष्टितस्थान में, किस नगर में अष्टादश करवर्जितवस्ती में, किसनिगम में - प्रभूततर वणिग्जननिवासस्थान में. किस राजधानी में - राजाके निवास से युक्त स्थान में किस खेट में धूलिप्राकारपरिवेष्टितस्थान में किस कर्बट में क्षुल्लक प्राकारपरिवेष्टित स्थान में, किस मडम्ब में सार्द्ध कोशद्वयान्तर्ग्रामान्तररहित स्थान में, किस पत्तन में जलमार्ग युक्तस्थान में, किस द्रोणमुख में - जलस्थलमार्गोपेत जननिवास में, किस आकर में- सुवर्णरत्ना
સૂર્યાભદેવે તે દિવ્ય દેવદ્ધિ તે દિવ્ય દેવવ્રુતિ કેવી રીતે ઉપાર્જિત કરીને તેને પોતાને અધીન બનાવી. અને સ્વાધીન બનેલી દિવ્યદેવદ્ધિ વગેરેને તેણે ભાગ ચેાગ્ય કેવી
ते मनावी ? ( पुव्व भवे के आसी १ किं नामए वा ? किं गोते वा ? कयरसि गामसि वा नगर सिवा निगम सि वा रायहाणीए वा खेडसि वा कब्बडसि वाड बसवा पण सिवा दोणमुहंसि वा आगरंसि वा आसमं सिवा संवाहंसि वा) ने पूर्व लवभां ते अ लतिनो हतो ? तेनु शु नाम हेतु ? तेनु ગાત્ર શુ હતુ ? તે કયા ગામમાં–વૃત્તિ વેષ્ટિત સ્થાનમાં, કયા નગરમાં—અઢારકર જેમાં લેવામાં આવે નહિ તે વસ્તિમાં, કયા નિગમમાં-વગ્િ લોકો જેમાં વધારે સખ્યામાં રહેતા હોય તે નવાસસ્થાનમાં, કઇ રાજધાનીમાં–રાજા જે નગરમાં રહેતા હોય અને શાસન ચલાવતા હોય તે સ્થાનમાં, કયા ખેટમાં માટીની દીવાલ જેની ચામેર અનેલી છે તેવી વસ્તીમાં, કયા કટમાં–નાની દીવાલથી પરિવૃત્ત સ્થાનમાં, અઢિ ગાઉ સુધી દૂર દૂર ખીજી કોઇ વસ્તી હોય નહીં તેવા સ્થાનમાં કયા પટ્ટનમાં—જલમાગ યુકત સ્થાનમાં, કયા દ્રોણમુખમાં જલસ્થત માતિજન
શ્રી રાજપ્રશ્નીય સૂત્ર : ૦૨
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सुबोधिनी टीका सू. ९८ सूर्याभदेवस्य देवद्धिविषये गौतमस्य प्रश्नः भुत्तवा, किं वा कृत्वा, किं वा समाचर्य कस्य वा तथारूपस्य श्रमणस्य वा माहनस्य वा अन्तिके एकमपि आर्य धार्मिक सुवचन श्रुत्वा निशम्य सूर्याभेण देवेन सा दिव्या देवद्धिः दिव्या देवद्युतिः लब्धा प्राप्ता अभिसमन्वागता? ॥ सू० ९८॥
'मरियाभेण' इत्यादि।
टीका--हे भदन्त ! सूर्याभेण देवेन सा दिव्या देवसम्बन्धिनी देवद्धिः देवसम्बन्धिनी सातिशयविमानादि ऋद्धिः कथं केन प्रकारेण लब्धा= दिक की उत्पत्तिवाले स्थान में. किस आश्रम में-तापसनिवास स्थान में, किस संवाह में-किसानों द्वारा धान्य की रक्षा के निमित्त निर्मित दुर्गभूमिस्थान में, अथवा किस संनिवेश में-समागतसार्थवाहादि के निवासस्थानमें, किं वा दचा. किं वा भोच्चा, किं वा किच्चा, किं वा समायरित्ता कस्स समणस्स वा तहारूवस्स माणस्स वा अतिए एगमषि आयरिय धम्मियं सुबयणं सोच्चा निसम्म मुरियाभेण देवेण सा दिव्या देविड्डी दिव्वा देवजुई, लद्धा, पत्ता, अभिसमण्णागया) अभयदान, सुपात्रदान, करुणादानादिकों में से कौन से दान को देकर, आचाम्ल आदि तपों में अथवा अन्य किसी समय में कौन से अरस विरस आदि आहार को खा करके, प्रतिक्रमण, प्रमार्जन आदि किस कृत्यको करके अथवा किस प्रकार के शीलादिक का समा. चरण करके किस तथारूप श्रमण-निग्रन्थ साधु के, अथवा किस द्वादशव्रतधारी श्रावक के, पास में एक भी तीर्थकर प्रतिपादित पापनिवृत्तिनिरवद्य वचन सुनकरके एवं उन वचनों को आदेयरूप मानकर हृदय में નિવાસમાં, કયા આકરમાં સુવર્ણરત્ન-વગેરે જ્યાંથી નીકળે છે તેવા સ્થાનમાં, ક્યા આશ્રમમાં-તાપસ નિવાસ સ્થાનમાં, સંવાહમાં-ધાન્યની રક્ષા માટે ખેડૂતેએ જે સ્થાન વિશેષ પર દુર્ગ રચના કરી હોય તે વસ્તીમાં, અથવા ક્યા સંનિવેશમાં-સાર્થવાહો oयां मापान २ ते स्थान विशेषोमां, (किंवा दचा. किंवा भोचा. किंवा किच्चा किंवा समायरित्ता कस्स वा तहारुवस्स समणस्स वा माहणस्स वा आतिए एगमवि आयरियं धम्मियं सुवयणं सोचा निसम्स सरियामेणं देवेणं सा दिव्या देविङ्की दिव्या देवजुई. लद्धा, पत्ता अभिसमण्णागया) मलयान, सुपात्रદાન, કરૂણાદાન વગેરેમાંથી કયું દાન આપીને આચલ્ડિ વગેરે તપમાંથી અથવા બીજા કઈ વખતે કયા અરસવિરસ વગેરે આહારે ગ્રહણ કરીને, પૌષધ, પ્રતિક્રમણ, પ્રમાજૈન વગેરે કઈ વિધિ કરીને અથવા શીલ વગેરે કઈ જાતના આચરણને કરીને કયા તથારૂપ શ્રમણ-નિગ્રંથ સાધુની અથવા કયા દ્વાદશત્રતધારિ શ્રાવકની પાસેથી એક પણ તીર્થંકર પ્રતિપાદિત પાપ નિવૃત્તિ-નિરવદ્ય વચન સાંભળીને અને તે વચનેને
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राजप्रश्नीयसूत्रे
---
उपार्जिता ? कथ = केन प्रकारेण प्राप्ता= उपार्जिता सती स्वायत्ती भूता! कथं = केन हेतुना अभिसमन्वागता अभिमुख्येन सम्=साङ्गत्येन अनु=पश्चात्स्वायत्ती भवनानन्तरम् आगता = भोग्यतामुपगता ?, तथा-सा दिव्या देवद्युतिः = देवसम्बन्धिनी शरीराभरणादिकान्तिः कथं लब्धा ? कथं प्राप्ता ? कथम् अभिसमन्वागता ?, तथा - पूर्व भवे = पूर्व जन्मनि स कः = कि जातीय आसीत् ? किन्नामको वास आसीत् ? किं गोत्र := गोत्रेण वा स क आसीत् ? तथा-कलमस्मिन् वा ग्रामे वृत्तिवेष्टिते नगरे अष्टादशकरवर्जिते, निगमे प्रभूततर - बणि जननिवासस्थाने राजधान्याम् = राज्ञो निवासोपलक्षिते स्थाने वा खेटेधूलिमाकारपरिवेष्टिते, कर्ब टे - क्षुल्लपाकारपरिवेष्टिते, मडम्बे - साईक्रोशद्वयान्त: ग्रामान्तररहिते, पत्तने, जलमार्ग युक्ते स्थाने, द्रोणमुखे - जलस्थलमार्गोपेते जननिवासे आकरे = सुवर्ण रत्नाद्युत्पत्तिस्थाने, आश्रमे तापसनिवासस्थाने, सवाहे - कृषीवलेपन्यरक्षार्थ निर्मिते दुर्गभूमिस्थाने, सन्निवेशे-समागतसा र्थवाहादिनिवासस्थाने, किं वा अभयदानसुपात्रदान करुणादानादिकं दत्त्वा, किंवा आचामाम्लादितपस्सु अन्यसमयेऽपि च अरसविरसादिक भुसवा, किं वा - पौषधप्रतिक्रमणप्रमार्जनादिक कृत्वा, किं वा - शीलादिकं समाचर्य = विधाय, कस्य वा तथारूपस्य श्रमणस्य = निर्ग्रन्थसाधो व माहनस्य = द्वादशव्रतधारिश्रावकस्य वा अन्तिके= समीपे एकमपि आर्य म्=आर्य संम्बन्धिकंतीर्थकर प्रतिपादितमित्यर्थः, सुवचन = पापनिवृत्तिरूपं निरवद्यवचनं श्रुत्वा = आकर्ण्य, निशम्य = तद्वाक्यमादेयतया हृद्यवधार्य सूर्याभेण देवेन सा दिव्या देवर्द्धि दिव्या देवद्युतिर्लब्धा प्राप्ता अभिसमन्वागता ? इति ।। सू. ९८ मूलम् – 'गोयमाई' समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं आमंतेचा एवं वयासी
४
•
-
एवं खलु गोयमा ! ते कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबूद्दीवे दीवे भार वासे के अद्वे नामे जणवए होत्था, रिद्धत्थिमियसमिद्धे । तत्थ णं
धारण करके इस सूर्याभदेव ने वह दिव्य देवर्द्धि, दिव्य देवद्युति उपार्जित कि हैं ? अपने आधीन की है ? और अपने भोग के योग्य बनाई है ? ॥ टीकार्थ इसका स्पष्ट है ।। सू० ९८ ॥
દેયરૂપથી સ્વીકારીને હૃદયમાં ધારણ કરીને સૂર્યાભદેષે તે દિવ્ય દેવદ્ધિ દિવ્ય દેવવ્રુતિ મેળવી છે ? પેાતાને આધીન બનાવી છે? અને પેાતાના માટે ભાગ ચગ્ય जनावी छे.” टीअर्थ:-मानो स्पष्ट छे ॥ ७८ ॥
શ્રી રાજપ્રશ્નીય સૂત્ર : ૦૨
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सुबोधिनी टीका. ९९ सुर्याभिदेवरूप ऋद्धिविषये भगवदुत्तरम्
के अद्धे जण सेयवियाणामं नयरी होत्था, रिद्धत्थिमियसमिद्धा जाव पडिवो । तीसे णं सेयवियाए नयरीए बहिया उत्तरपुरस्थि मे दिसीभाए एत्थणं भिगवणे णाम उज्जाणे होत्था सव्वोउयपु फफलसमिद्धे रम्मे नंदणंवण्णष्पगासे सायलाए सुभसुरभिसीयलाए छायाए सव्वओचेव समणुवद्वे पासाईए जाव पडिवे । तत्य सेविया गरीए पएसी णामं राया होत्था, महया हिमवंत जाव विहरइ । अधम्मिए अधम्मिट्टे अधम्मक्खाई अधम्माणुए अधम्मपलोई अधम्मपजणणे अधम्मसीलसमुयायारे अधम्मेण चैव वित्ति कप्पेमाणे 'हणछिदर्भिद' - पवत्तए लोहियपाणी पावे चंडे रुदे खुद्दे साहसिए उक्कंचन - वंचण - माया - नियडि - कूड - कवड - साइ संपओगबले निस्सीले निव्वए निग्गुणे निम्मेरे निपच्चक्खाणपोसहोववासे बहूणं दुप्पयचउप्पयमियपसु पपक्खीसिरिसवाणघायाए वहाए उच्छेयणयाए अधग्मकेऊ समट्टिए, गुरूणं णो अब्भुट्ठेइ, णो विणयं पउंजइ, सयस्स वि यणं जणवयस्स णो सम्मं करभरवित्तिं पवत्तेइासू९९| छाया - गौतम ! इति श्रमणो भगवान् महावीरो भगवंतम् गौतमम् आमन्त्रय एवमवादीत्-
'गोयमाई' समणे भगवं महावीरे भगव गोयम' आम तेत्ता' इत्यादि । सूत्रार्थ - ( गोयमाइ समणे भगवा महावीरे भगव' गोयम' आमंतेत्ता एवं वयासी) हे गौतम ! इस प्रकार से श्रमण भगवान् महावीरने भगवान गौतम को संबोधित करके इस प्रकार कहा - ( एवं खलु गोधमा !
'गोयमाइ' समणे भगवं महावीरे भगव गोयम आम तेत्ता' इत्यादि । सूत्रार्थ : - ( गोयमाइ समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं आमंतेत्ता एवं वयासी) हे गौतम! या प्रमाणे गौतमने समोधित रीने लगवाने तेने या
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राजप्रश्नीयसूत्रे एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये इहैव जम्बूद्वीपे-द्वीपे भारते वर्षे के कयाई नाम जनपद आसीत् ऋद्धस्तिमितसमृद्धः। तत्र खलु केकयाई जनपदे श्वेतविका नाम नगरी आसीत्, ऋद्धम्तिमितसमृद्धा यावत प्रतिरूपा। तेण कालेण तेण समएण इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे केयइअद्ध नामे जणवए होत्था) हे गौतम ! मैं इस विषय में तुम से कहता हू सो तुम उसे सुनो-बात ऐसी है-इस अवसर्पिणीकाल के चतुर्थ आरकरूपकाल में और केशिस्वामी के विहरण के समय में इस जम्बूद्वीप नामके मध्यजम्बूद्वीप में भरतक्षेत्र में केकयाद्ध नामका जनपद-देश था. तात्पर्य कहने का यह है कि केकयदेण का आधाभाग आर्यजनों का निवासस्थानरूप था और आधाभाग अनायजनों का निवासस्थानरूप था इस तरह आर्य अनार्य के निवासस्थानभूत होने से केकय देश को यहां आधे आधेरूप में पृथक पृथकू जनपद कहा गया है (रिद्धस्थिमियसमिद्धा जाव पडिरूवा) यह केकयाई ऋद्धनभस्तलस्पर्शी अनेक भवनादिकों से युक्त था, एवं बहुजनसंकुल था, स्तिमित-स्वचक्र परचक्र के भय से रहित था, एवं समृद्ध-धनधान्यादि से परिपूर्ण था यावत् प्रतिरूप था (तत्थणं के यइअद्धे जणवए सेयविया णाम णयरी होत्था) उस केकयाद्ध जनपद में श्वेतविका नामकी नगरी थी. (रिद्धस्थिमियसमिद्धा जाव पडिरूवा) यह नगरी भी ऋद्ध, स्तिमित और समृद्ध थी. एवं प्रतिरूप-सर्वोत्तम थी (तीसे णं सेयबियाए नयरीए बहिया प्रमाणे घु-(एवं खलु गोयमा। तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबूद्दीवे दीवे भारहे वासे अद्धे नामे जणवए होत्था) हे गौतम ! मा वि २ ४४ दुतमने કહે તે તમે સાંભળો. વિગત આ પ્રમાણે છે કે–આ અવસર્પિણી કાળના ચોથા આરકરૂપ કાળમાં અને કેશિસ્વામીના વિતરણના સમયમાં આ જંબુદ્વીપ નામના મધ્ય જબૂદ્વીપમાં ભરતક્ષેત્રમાં કેક્યાદ્ધ નામે જનપદ-દેશ-હતે. તાત્પર્ય એ છે કે કેય દેશના અર્ધા ભાગમાં આયંજનો નિવાસ કરતાં હતા અને અર્ધા ભાગમાં અનાર્યજને રહેતા હતાં. એથી જ આ અનાર્યોના નિવાસસ્થાનરૂપ તે કેક્યપ્રદેશને અહીં અર્ધા ३५मा नुहा नुहा नपहोना नाम समाधित ४२वामा माया छे. (रिद्धस्थिमियसमिद्धा जाव पडिरूवा) 21 अध्यादेश नमस्तस्पशी ji सनी वगेरेથી યુકત હતું, અને બહુજન સંકુલ હતે, સ્વિમિત-સ્વચક્ર પરચક્રની બીકથી રહિત हतो भने समृद्ध धनधान्य वगेरेथी परिपूडतो यावत् प्रति३५ उता. (तत्थण केयइअखें जणवए सेयविया णाम णयरी होत्था) है. याद्ध पम श्वेतqिst नामै नगरी ती. (रिद्धस्थिमियसमिद्धा जाव पडिरूवा) २ नगरी ५ ६ स्तिमित भने समृद्ध हती मने प्रति३५-सर्वोत्तम ती. (तीसे ण सेयवियाए
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सुबोधिनी टीका सू. ९९ सूर्याभदेवस्य ऋद्धिविषये भगवदुत्तरम्
७ तस्याः खलु श्वेतविकाया नगर्या बहिः उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे अत्र खलु मृगवन नाम उद्यानम् आसीत-सवत्तक पुष्पफलसमृद्धं रम्यं नन्दनवनप्रकाश शुभसुरभिशीतलया छायया सर्वत एव समनुबद्ध प्रासादीयं यावत् प्रति. रूपम् । तत्र खलु श्वेतविकायां नगर्या प्रदेशी नाम राजा आसीत-महाहिमवद-यावद् विहरति । अधार्मिकः अधर्मिष्ठः अधर्मख्यातिः अधर्मानुगः उत्तरपुरथिमे दिसीभागे एत्य णं मिगवणे णामं उजाणे होत्था) उस श्वेत. विका नगरो के ईशान कोने में मृगवन नामका उद्यान था (सवो उयपुष्फफलसमिद्धे रम्मे, नंदणवणषगासे सुभं सुरभिसीयलाए छायाए सव्वओ चेव समणुबद्धे पासाईए जाव पडिरूवे) यह उद्यान छहों ऋतुओं के पुष्पों एवं फलों से युक्त था. अतः मनोरम था नन्दनवन के जैसा था. शुभ-सुखावह होने से अच्छी, एवं सुरभि-मनोज्ञ एवं शीतस्पर्श वाली ऐसी छाया से सर्वत्र यह समनुबद्ध-युक्त था, प्रासादीय था यावत प्रतिरूप था (तत्थ णं सेयवियाए णगरीए पएसी णाम राया होत्था) उस श्वेतविका नगरी में प्रदेशी नामका राजा था, (महया हिमवत जाव विहरह) इसमें महाहिमवान्, महामलय, मन्दर-(मेरुपर्वत) एवं महेन्द्र के जैसा था (अधम्मिए, अधम्मि?, अधम्मक्खाई, अधम्माणुए, अधम्मपलोई, अधम्म पजणणे अधम्मसीलसमुयायारे, अधम्मेण चेव वित्ति कप्पेमाणे) परन्तु वह धार्मिक नहीं था अधर्माचारी था, अतिशयरूप से अधर्माचरणशील था, अतएव अधर्म द्वारा ही यह जगत में प्रसिद्ध, हुआ था अधर्मानुयायी नयरीए बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसी भागे एत्थ ण मिगवणे णाम उज्जाणे होत्था) ते यतनगरीन शान शुभां भृगवन नाभे धान इतु: (सन्चो उय पुरफ.फलसमिद्धे रम्मे, नंदणवणव्यगासे सुभंसुरभिसीयलाए छायाए सव्वओ चेव समणुबद्ध पासाईए जाव पडिरूवे) मा धान परतुमान या तभी ફળથી સમૃદ્ધ હતું. એથી નન્દનવન જેવું મનેમ હતું. શુભ-સુખાવહ હવા બદલ સારી, અને સુરભિ-મને જ્ઞ–અને શીતસ્પર્શવાળી છાયાથી તે સર્વત્ર સમનુબદ્ધ-યુકત इत. प्रासाहीय . यावत् प्रति३५ तु. (त त्थ णं सेयवियाए णगरीए पएसी णामराया होत्था) ते श्वातपिता नगरीमा प्रदेशी नामे न तो. (महया हिमवत जाव विहरइ) मा भडिमपान, महाभलय, मह२ (भेरु'त) मने महेन्द्र रेटयु मम हतु: (अधम्मिए, अधम्मिटे, अधम्मक्खाई, अधम्माणुए, अधम्मपलोई, अधम्मपजणणे, अधम्मसीलसमुयायारे, अधम्मेण चेव वित्ति कप्पेमाणे) પણ તે ધાર્મિક હતું નહિ અધર્માચારી હતા, ખૂબ જ અધર્માચરણમાં પ્રવૃત્ત રહેનાર
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राजप्रश्नीयसूत्रे
अधर्मप्रलोकी अधर्मप्रजननः अधर्मशीलसमुदाचारः अधर्मेणैव वृत्तिकल्पयन् 'जहि छिन्धि भिन्धि' प्रवर्त्तकः लोहितपाणिः पापः चण्डो रौद्र, क्षुद्रः साहसिकः उत्कञ्चन - वञ्चन-माया - निकृति - कूटकपटसतिसम्प्रयोग बहुलो निश्शीलो निर्वृतो निर्गुणो निर्मर्यादो निष्प्रत्याख्यानपौषधोपवासो बहूनां द्विपदचतु
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था, अधर्म का ही निरन्तर चिन्तवन किया करता था, प्रजाजनों में भी वह केवल प्रकर्षरूप से अपने उपदेशों द्वारा अधर्म को ही भरा करता था, उसे ही प्रोत्साहित किया करता था, कूटर कर इसके स्वभाव में धर्म भाव भरा हुआ था, और कार्य भी यह इसी प्रकार के किया करता थायहांतक कि यह अपनी जीविका भी अधर्म से ही चलाया करता था. तथा ('हण-छिंद-भिंद' -पवत्तए लोहियपाणी पावे चंडे, रुदें, खुद्दे, साहसिए उक्कं चण, वचण, माया - नियsि - कूड - कबड - साइ संपओगबहुले, निस्सीले निव्वए, निग्गुणे, निम्मेरे, निष्पच्चवखाणपोसहोववासे बहूणं) मारो, काटो, दो टुकडे करदो इत्यादि वाक्यों द्वारा जीवों के हिंसादिक कार्यों में अपने आश्रित जनों को प्रवृतिशील बनाया करता था, इसके हाथ सदा रक्त से भरे रहते थे, यह साक्षात् पापका अवतार था, क्यों कि पापकर्म में यह सदा परापग बना रहता था, यह बहुत अधिक क्रोधी था, रौद्र क्रूररूप होने से भयानक था, तुच्छ बुद्धिवाला होने से क्षुद्र था. सहसाकर्मकरणशील
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હતા. એથી તે અધીના રૂપમાં જ જગતમાં પ્રસિદ્ધ થઈ ગયા હતા. તે અધર્મનુયાયી હતા તે રાતદિવસ અધર્મનું જ ચિંતન કર્યાં કરતા હતા. પ્રજાની સામે પણ તે અધર્માચરણ તરફ પ્રવૃત્ત થવાના ઉપદેશ આપતા રહેતા હતા. તે અધમને જ પ્રાત્સાહિત કરતા રહેતા હતા. તેના અણુ અણુમાં અધર્મ જ વ્યાપક થઈ રહ્યો હતા. તેના બધાં કાર્યો પણ અધર્મથી પ્રેરાઈને થતાં હતાં તે પેાતાનુ ભરણ પાષણ પણ અધર્મના આધારે જ १२तो हतो. तेभन ("हणछिंद मिंद पवनए लोहियपाणी पावे चंडे, रुद्दे, खुद्दे साहस्सिए, उक्कचण, वचण, मायानिय डिल्कूड - कवडे साइस पओगबहुले. निस्सीले, निव्वए, निग्गुणे, निम्मेरे. निष्पञ्चकखाण पोहोचवा से बहूणं ) भारी, अपेो मे ४४डा उरी नामो वगैरे वाम्यो વડે તે જીવાના હિંસા વગેરે કાચના પોતાના આશ્રિતાને પ્રવૃત્તિશીલ રાખતા હતા. તેના હાથેા સદા રકતથી ખરડાએલા રહેતા હતા. તે સાક્ષાત્ પાપના અવત્તાર
હતા. કેમકે તે સદા પાપ પરાયણુ જ રહેતા હતા. આ महुन ोधी हतो, रौद्रકરરૂપ હોવાથી ભયાનક હતા, તુષ્ટબુદ્ધિવાળા હોવાથી ક્ષુદ્ર હતો, સહસાકમ કરણશીલ
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सुबोधिनी टीका. ९९ सुर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् पदमृगपशुपक्षिसरीसृपाणां घाताय वधाय उच्छेदनाय अधर्म केतुः समुत्थितः, गुरूणां नो अभ्युत्तिष्ठति नो विनय प्रयुड़े, स्वकस्यापि च जनपदस्य नो सम्यक करभरपूर्ति प्रवत्तयति ॥ सू० ९९ ॥ होने से अर्थात् विना विचारे कार्य करनेवाला होने से साहसिक था, उत्कोचन,
वंचन-परमतारण, माया-परवंचनबुद्धि, नितिगूढमाया, कूट-गढमाया को ढंकने के लिये अन्यमाया करना, कपट-वेष भाषा आदिको बदलनाविपरीत बना लेना, इन सब का जो सातिसंप्रयोग-प्रकर्ष रूप से व्यापार उस व्यापार से यह व्याप्त था, तथा, निश्शील-शीलवर्जित था, नितहिंसादिककुकृत्यरूप पापों से विरति का अभाववाला होने से व्रतरहित था, निर्गुण-क्षान्त्यादिक गुणों के अभाव से युक्त होने के कारण निर्गुण था, निमर्यादः-मर्यादा रहित था, परस्त्री वर्जनादिरूप मर्यादा से रहित होने के कारण निर्मर्याद था, प्रत्याख्यान, पौषध और उपवास इनसे रहित था, तथा अनेक (दुष्पयचउप्पयमियपसुपवखी सिरिसवाणघायाए बहाए उच्छेयणयाए, अधम्म के समट्टिए) द्विपद्-मनुष्य वगैरह, चतुष्पद-मृगादि वगैरह पशु-ग्राम की गाय वगैरह, सरीसूप-मुजपरिसर्प एवं उर:परिसर्प-नकुल सर्प आदि इन सब की हत्या करने, इन्हें मारने में-चोट पहुंचाने में और माण रहित करने के लिये अधर्मरूप केतुग्रह के जैसा उत्पन्न हुआ था, अर्थात् केतुग्रह के उदित होने पर लोक में जिस प्रकार से હોવાથી એટલે કે વગર વિચાર્યું કાર્ય કરનાર હોવાથી તે સાહસિક હતે. ઉોચન,
વચન-પર પ્રસારણ, માયા-પરવંચન બુદ્ધિ નિકૃતિ-ગ્રહ માયા, ફૂટ-ગૂઢમાયાને છુપાવવા માટે બીજી માયા કરવી, કપટ વેષ ભાષા વગેરે બદલી નાખવા, આ બધા દણાની પ્રકષતા તેમાં વિદ્યમાન હતી. તથા તે નિશીલશીલ વર્જિત હો, નિર્વતહિંસા વગેરે કુકૃત્યરૂપપા તરફ પ્રવૃત્તિ રાખનાર હોવાથી તે વ્રત વગરને હતા, નિર્ગુણ-સાત્તિ વગેરે ગુણે તેમાં નહોતા તેથી તે નિર્ગુણ હોત, નિર્ભયાદમર્યાદા રહિત હતે. પરસ્ત્રી વર્જનાદિરૂપ મર્યાદાથી રહિત હોવા બદલ નિર્મદ હતા. તે प्रत्याभ्यात, पोष५ भने वास २ तो, ध! (दुप्पय चउप्पय मियपसुपक्खी सिरिसवाणधायाए बहाए अच्छेयणयाए, अधम्मकेऊ समट्रिए) विपEમાણસ વગેરે ચતુષ્પદ-મૃગ વગેરે, પશુ-ગાય વગેરે, પક્ષી-ચકલીઓ વગેરે, સરીસપભુજપરિસર્ષ અને ઉરઃ પરિસર્પન્નકુલ સર્પ વગેરે આ બધાને હણવામાં, મારવામાં અને એમને સમૂલ નષ્ટ કરવામાં તે અધર્મને પ્રત્યક્ષ અવતાર અને કેતુ ગ્રહ જે ઉદિત થયું હતું. એટલે કે કેતુગ્રહ જ્યારે ઉદિત થાય ત્યારે લેકમાં જેમ ઘણા
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राजप्रश्नीयसूत्रे
'गोयमा ! - इति-
टीका - - गौतमस्वामिनः प्रश्न श्रुत्वा श्रमणो भगवान् महावीरों भगवन्तं गौतमस्वामिनं 'गौतम' इति आमन्त्र्य = सम्बोध्य एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत् = उक्तवान्- हे गौतम! एवं खलु त्वम् जानीहि - तस्मिन् काले=अस्या अवसर्पिण्याश्चतुर्थारकलक्षणे काले, तस्मिन् समये केशिस्वामि विहरणोपलक्षिते समये इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे मध्यजम्बूद्वीपे भारते वर्षे = भरत क्षेत्र के कयाद्ध नाम जनपदो=देश आसीत् । अत्रेदं बोध्यम् - केकयदेशस्य अर्द्धम् आर्यजननिवासस्थानम्, अथ च अनार्यजन निवासस्थानम् । आर्यानार्थ यो निवासभूतत्वात् केकयस्य अर्द्धद्वयं पृथक्पृथग्जनपदत्वेन विवक्षितमिति । स केक यार्द्ध जनपदऋद्धस्तिमित समृद्धः- तत्र - ऋद्धः नभः स्पर्शिबहुलप्रासादयुक्तो बहुलजनसंकुलश्च, स्तिमितः स्वचक्रपरचक्रभयरहितः, समृद्धः = धनधान्यादिपरिपूर्ण:, पदत्रयस्य कर्मधारयः । तत्र खलु केकयार्डे - जनपदे श्वेतविका नाम नगरी आसीत् । सा नगरी ऋद्धस्तिमितसमृद्धा यावत् - प्रतिरूपा । यावत्पदेन - औपपपातिकसूत्रोक्त चम्पानगरीवर्णनपर पदसमूहोऽत्रापि बोध्यः । प्रतिरूपा = सर्वोत्तमा च आसीत् । तस्याः खलु श्वेतविकायाः नगर्या बहिः बाह्यप्रदेशे उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे = ईशानकोणे अत्र खलु मृगवन नाम उद्यानम् आसीत् । तत् उद्यान सर्वर्त्तकपुष्पफलसमृद्धम् = षड्ऋतु सम्बन्धिपुष्पफलसमन्वितं रम्यं = अनेक विप्लव ( उपद्रव) होते हैं, उसीप्रकार से इस राजा के शासन होने पर देशभर में त्रास था, (गुरूणां णो अब्भुट्टो, णो विषय पउजइ, सयस्स वि य णं जणवयस्स णो सम्मं करभरवृत्तिं पवत्तेइ ) आते हुए मातापितादिरूप गुरुजनों को देखकर यह उनका आदर करने के लिये वडा नहीं होता था, उनके विषय में वह विनययुक्त नहीं होता था, तथा अपने जनपद केकयार्द्ध जनपद के प्रजाजनों की कर लेकर भी पालनरूपवृत्ति यथार्थ रूप से नहीं करता था. ।
વિપ્લવે (ઉપદ્રવા) થાય છે, તેમજ આ રાજાના શાસનકાળમાં સમસ્ત દેશમાં ત્રાસ मने अशांतिनु वातावरण असरी रघु तु. (गुरूणां णो अब्भुट्टेए, जो विजय उजर, सस्स वियणं जणवयस्स णो सम्मं कर भरवित्ति पवत्तेइ ) भातापिता વગેરે ગુરુજનાને આવતા જોઈને પણ તે તેમનેા આદર કરવા માટે ઉભા થતા ન હતા. તેમની સામે તે વિનયશીલ થઇને રહેતા ન હતો. તેમજ પેાતાના જનપદ કૈકયાહૂ જનપદની પ્રજા પાસેથી ટેકસ લઇને પણ તે સરસ રીતે તેમનું પાલન કે રક્ષણ કરતો ન હતો.
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सुबोधिनी टीका सू. ९९ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ११ मनोरम नन्दनवनप्रकाशनन्दनवनसदृश, शुभसुरभिशीतलया शुभा=मुखा बहुत्वेन शुभा सुरभिः मनोज्ञा शीतला-शीतस्पर्श युक्ता, पदत्रयस्य कर्मधारयः तथाभूतया छायया सर्वत एव सर्व प्रदेशावच्छेदेनैव समनुबद्धां-युक्तां पासा. दीयां यावत् प्रतिरूपां चासीत् । तत्र खलु श्वेतविकायां नगर्यो प्रदेशी नाम राजा आसीत् । स प्रदेशी राजा महाहिमवन्महामलयमन्दरमहेन्द्रसारो यावद् विहरति । प्रदेशिराजस्य सकलं वर्णनमोपपातिकसूत्रोक्तकूणिकराजवद् बोध्यम् । स प्रदेशी राजा तु-अधार्मिकः-धर्मेण चरति धार्मिकः, न धार्मिकोऽधार्मिक:-अधर्माचारी, अधार्मिकस्तु सामान्यधर्माचरणेनापि भवति, अत आह-अधर्मिष्ठ इति । अधर्मिष्ठः सातिशयाधर्माचरणशीलः, अधर्मख्यातिः-अधर्मेण ख्यातिर्यस्य स तथा अधर्मद्वारैव जगति प्रसिद्धिं गतः, अधर्मानुगः-अधर्मम् अनुगच्छतीति-अधर्मानुगः-अधर्मानु. यायी, अधमलोकी-अधर्म मेव प्रलोकते=निरन्तर विचारयति यः सः-अधर्मविषयक विचारपरायणः, अधर्म प्रजनन:-अधर्म मेव प्रकर्षेण जनयति उत्पादयति लोकेषु यः सः प्रजास्वपि अधर्म भावोत्पादक इत्यर्थः, तथा अधर्मशील समुदाचार:- अधर्म एव शील स्वभावः समुदाचारः अनुष्ठान च यस्य स तथा अधर्ममयस्वभाययुक्तः अधर्मानुष्ठानपरायणश्चेत्यर्थः, तथा-अधमें: णैव वृत्ति जीविका कल्पयन् कुर्वन्, तथा-जीवान् प्रति जहि-मारय छिन्धि%D विदारय भिन्धि-द्विधाकुरु' इत्यादि वाक्यः प्रवर्तक स्वाश्रितान् जनान् प्रवर्तः यिता, अतएव-लोहितपाणिः रक्तखरष्टितहस्तः, पाप: पापस्वरूपः-सर्वदा पापपरायणत्वात्, चण्डः चण्डस्वरूपः-तीव्रतरकोपावेशात् रौद्रः भयानका क्रूररू त्वात्, क्षुद्रः-तुच्छबुद्धित्वात् साहसिका सहसा कर्मकरणशील:-असमीक्षित कारित्वात, तथा-उत्कञ्चन-वचन-माया-निकृति-कूट-कपट-सातिसम्प्रयोग बहुल:-तत्र-उत्कञ्चनम् उत्कोचग्रहणम्, 'उत्कोच:'-'लाञ्च' इति भाषा:
टीकार्थ-इसका, मूलार्थ - जैसा ही है-श्वेतविका नगरी का वर्णन औपपातिकसूत्र में वर्णित चंपानगरी जैसा ही जानना चाहियेयही बात यहां यावत्पद से प्रकट की गइ है तथा पदेशी राजा का भी वर्णन औपपातिकसूत्र में वर्णित हुए कूणिक राजा के जैसा ही समझना ॥ सू. ९९ ॥
ટીકાર્થ –મૂલાર્થ પ્રમાણે જ છે. શ્વેતવિકા નગરીનું વર્ણન ઓપપાતિક સૂત્રમાં વણિત ચંપાનગરી જેવું જ સમજવું જોઈએ. યાવત્ પદથી એજ વાત અહીં સ્પષ્ટ કરવામાં આવી છે. તેમજ પ્રદેશ રાજાનું વર્ણન પણ ઔપપાતિક સૂત્રમાં વર્ણિત ફૂણિક રાજા જેવું જ સમજવું જોઈએ. સૂ૦ ૯૯
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राजप्रश्नीयसूत्रे मसिद्धः। वञ्चन परप्रतारण माया परवचनबुद्धिः, निकृतिः गूढमाया, कूटम् गृढमायाच्छादनार्थमन्यमायाकरणम्, कपट वेषभाषाविपर्ययकरणम्, एषां यः सातिसम्मयोगाप्रकर्षेण व्यापारस्तेन बहुल;-व्याप्तः; तथा-निश्शील:शीलवर्जितो ब्रह्मचर्यरहितत्वात, निर्वतःव्रतरहितो हिंसादिविरत्यभावात, निर्गुणगुणरहित:-क्षान्त्यादिगुणाभावात्, निमर्यादा मर्यादारहितः-परस्त्रीपरिवर्जनादिरूप मर्यादारहितत्वात, निष्प्रत्याख्यानपौषधोपवास: प्रत्याख्यानपौषधोपवास वर्जितः, तथा-बहूनां द्विपद-चतुष्पदमृगपशुपतिसरीसृपाणां, तत्रद्विपदा मनुष्या-दासीदासादयः, चतुष्पदाः ये मृगाः आरण्याः, पशवो-ग्राम्या गवादयश्च ते-चतुष्पदमृगपशवः, पक्षिणः-प्रसिद्धाः, सरीसृपा-भुजोरुभ्यां सर्पण. शीला गोधादयः, एषा पदानामितरेतरयोगद्वन्द्वः, तेषां घाताय=विनाशनाय वधाय=ताडनाय उच्छेदनाय-निर्मलनाय अधर्म केतुः अधर्मरूपकेतुग्रह इव समुत्थितः समुद्गतः। केतुग्रहे समुदिते सति लोके विप्लवो भवति, तथैवास्मिन नृपतौ शासके सति जनपदे त्रासो वर्तते। तथा-स गुरूणां नो अभ्युत्तिष्ठति-आगच्छतो गुरुन्-मातापित्रादीन् दृष्टा तेषामादर कर्नु न अभ्युत्थाता भवति, तेषु-पित्रादिगुरुजनेषु विनयं नो प्रयुङ्केविनययुक्तो न भवति. तथा-स प्रदेशी राजा स्वकस्यापि च जनपदस्य केकया जनपदस्य खलु करभरवृत्ति-करात्=करंगृहीत्वा यो भरः प्रजानां पालनं तद्रूपा या वृत्तिस्तां सम्यक् याथातथ्येन न प्रवर्त्तयति-न विदधाति । स्वजनपदस्यापि रक्षणकर्मणि समुद्युक्तो न भवतीत्यर्थः ॥सू० ९९॥
म्लम्-तस्स णं पएसिस्स रन्नो सूरियकंता नाम देवी होत्था, सुकुमालपाणिपाया धारिणी वण्णओ । पएसिणा रन्नो सद्धिं अणुरत्ता अविरत्ता इट्टे सद्दे रूवे जाव विहरइ ॥ सू० १०० ॥
छाया--तस्य खलु प्रदेशिनो राज्ञः सूर्य कान्ता नाम देवी आसीत, सुकुमालपाणिपादा धारिणीवर्णकः। प्रदेशिना राज्ञा सार्द्धम् अनुरक्ता अविरक्ता इष्टान् शब्दान् रूपाणि यावद विहरति ॥ मू० १०० ॥
'तस्स ण पएसिस्स रन्नो' इत्यादि ।
सूत्रार्थ--(तस्स णं पएसिस्स रनो) उस प्रदेशी राजा की (सरियकता नाम देवी होत्था) सूर्यकान्ता नामकी रानी थी (सुकुमालपाणिपाया
'तस्स णं पएसिस्स रन्नो' इत्यादि ।
सूत्रार्थ;-(तस्स णपएसिस्स रनो) ते प्रदेशी २०nनी (मरियकता नाम देवी होत्था) सूर्यxit नामे जी ती. (सुकुमालपाणिपाया धारिणी वण्णओ)
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सुबोधिनी टीका सू. ९९ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्ण' नम्
टीका - ' तस्स ण' इत्यादि
तस्य=पूर्वोक्तस्य खलु प्रदेशिनो राज्ञः सूर्यकान्ता नाम देवी =राज्ञी आसीत् । सा सूर्यकान्ता देवी सुकुमालपाणिपादा- सुकुमालं= सातिशय कोमल पाणिपाद = हस्तौ पादौ च यस्याः सा तथाभूताऽऽसीत् । सूर्यकान्तायाः सर्व वर्ण'न' धारिणीवद् बोध्यम् । एतदेव सूचयितुमाह = धारिणीवण्णओ' इति
१३
पातिकधारिणीवद् बोध्यम् । सा सूर्यकान्ता देवी प्रदेशिना राज्ञा सार्द्धं = सह अनुरक्ता = सातिशय प्रेमयुक्ता अविरक्ता=प्रातिकूल्यं गतेऽपि पत्यौ स्वयं सदा प्रसन्नवदना सती इष्यन्=अभिलषितान, शब्दान् रूपाणि यावद्= गन्धान् रसान स्पर्शाश्चेति पञ्चविधान् मनुष्यान् = मनुष्यसम्बन्धिनः कामभोगान् प्रत्यनुभवन्ती = उपभुजाना विहरति ॥ सू० १००॥
मूलम् - तस्स णं पएसिस्स रण्णो जेट्टे पुत्ते सूरियकंताए देवीए अत्तए सूरियकंते नामं कुमारे होत्था, सुकुमालपाणिपाए जाव पडि. रूवे । से णं सूरियकंते कुमारे जुवराया वि होत्था, पएसिस्स रन्नो धारिणीवणओ) इसके हाथ पैर आदि अवयव बडे ही सुकुमार थे. इसका पूर्णवर्णन धारिणी रानी के जैसा ही है. धारिणी का वर्णन औपपातिक सूत्र में दिया गया है । (पएसिणा रन्नो सद्धि अणुरत्ता अविरत्ता इह सद रूवे जाव विहर) प्रदेशी राजा के साथ यह सातिशय प्रेम युक्त बने होकर अभिलषित मनुष्य संबंधि कामभोगों को भोगती थी, यदि राजा कभी प्रतिकूल भी हो जाता तो उस समय यह उससे प्रतिकूल नहीं बनती, प्रत्युत सदा प्रसन्नवदन ही रहती, वहां 'शब्दरूप' से रूप गंध, रस और स्पर्श ये पांच प्रकार के कामभोग गृहीत हुए हैं. ।
टीकार्थ स्पष्ट है || सू० १०० ॥
તેના હાથપગ વગેરે અવયવે! અતીવ સુકુમાર હતા. રાણીનું વન ધારિણી રાણી भेषु ४ छे. औपचाति सूत्रमां धारिणीनं वर्णन उरवामां यान्यु छे. (पए सिणा रन्नो सद्धि अणुरता अविरत्ता इट्ठे सदे रूवे जाव विहरइ) प्रदेशी राजनी સાથે તે સાતિશય પ્રેમયુકત વ્યયવહાર રાખીને અભિષિત મનુષ્ય સંબંધિત કામ ભાગે ભાગવતી હતી. જે કદાચ રાજા કોઇ દિવસ પ્રતિકૂલ થઇ જતા તે તે તેની સામે અનુકૂલ થઇને જ રહેતી હતી. તે સદા પ્રસન્ન વદન જ રહેતી હતી. અહીં “शह३५” थी ३५, गंध, रसाने स्पर्श से पांच अमरना अमलोगो ग्रहण थयुं छे. ટીકા સ્પષ્ટ છે. ૫૧૦૦ના
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राजप्रनीयसूत्रे
रज्जं च रटु च बलं च वाहणं च कोसं च कोट्टागारं च पुरं च अंते उरं च सयमेव पच्चुवेक्खमाणे पचुवेक्खमाणे विहरइ ॥ सू० १०१ ॥
छाया - तस्थ खलु प्रदेशिनो राज्ञो ज्येष्ठः पुत्रः सूर्यकान्ताया देव्याः आत्मजः सूर्यकान्तो नाम कुमार आसीत्, सुकुमालपाणिपादो यावत् प्रतिरूपः । स खलु सूर्याकान्तः कुमारो युवराजोऽप्यासीत्, प्रदेशिनो राज्ञो राज्यं च राष्ट्र च वाहन च बल च कोशच कोष्ठागारं च पुरं च अन्तःपुरं च स्वयमेव प्रत्युत्प्रेक्षमाणः प्रत्युत्प्रेक्षमाणो विहरति ॥ १०१ ॥
'तरण' पएसिस्स रण्णो' इत्यादि ।
सूत्रार्थ - - (तपण पुएसिस्स रण्णो जेट्ठे पुत्रों सूरियकताए देवीए अत्तए सूरियक ते नाम कुमारे होत्था) उस प्रदेशी राजा के पुत्र था, जिसका नाम सूर्यकान्त था यह सूर्यकान्तादेवी से उत्पन्न हुआ था (सुकुमालपाणिपाए जाव पडिरूबे ) इस के हाथ -पग बडेही सुकुमार थे. यावत् यह प्रतिरूप - सर्वोत्तम था. यहां यावत् शब्द यह प्रकट करने के लिये प्रयुक्त हुआ है कि औपपातिक सूत्रोक्त धारिणी के वर्णन में आगत पदसमूह में पुल्लिङ्ग की विभक्तियां लगाकर सूर्यकान्त का वर्णन करना चाहिये. ( से णं सूरियकते कुमारे बिहोस्था) यह सूर्यकान्त कुमार युवराज भी था. अतः वह पएसिस्स रन्नो रज्जच र च बलं च वाहणं च कोडागारं च पुर ं च अंतेउर च सयमेव पच्चdraमाणे विहर) प्रदेशी राजा के राष्ट्रादिसमुदायरूप राज्यका, जनपदरूप (देश राष्ट्रका, सैन्यरूप बल का, हस्त्यादि एवं शिविकादिरूप वाहन
'त एवं पएसिस्स रण्णो' इत्यादि ।
पुत्र हुतो. सूर्य अंत
(सुकुमालपाणिपाए ते अतिशय सर्वोत्तम
सूत्रार्थ - (त एण पएसिस्स रण्णो जेड पुते सरियकताए देवीए अत्तर सूरियकते नाम कुमारे होत्था) (ते प्रदेशी रान्नने नाभ हुतु. ते सूर्यअंता हेवीना गर्भथी उत्पन्न थयेो हते. जाव पडिरूवे ) तेनां हाथ पर महुन सुभेभण तां. यांत्र હતા. અહીં યાવત્ શબ્દના પ્રયાગ એટલા માટે કરવામાં આવ્યા છે કે ઔપપાતિક સૂત્રના ધારિણીના વર્ણનમાં જે પદો આવ્યાં છે તેમાં પુલ્લિ ગની વિભક્તિએ લગાડીને सूर्य अंतनुं वर्णन समन्वु लेये. ( से ण' सूरियक ते कुमारे जुवराया वि होत्था) न्मे सूर्यअंत कुमार युवरान पडतो मेथी (पएसिस्स रन्नो रज्जं च रट्ठ च बलं च वाहण ं च कोसं च कोट्टागार' च पुर ं च अंतेउर च सयमेव पच्चु draमाणे २ विहर) अहेशी राजना राष्ट्राहि समुहायश्य राज्यनु, नयदृ३५ રાષ્ટ્રનું, સૌન્યરૂપ ખળનું, હસ્તિ વગેરે અને શિખિકા વગેરે વાહનનું, ભાંડાગારરૂપ
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सुबोधिनी टीका. सूत्र १०१ सुर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् १५
टीका-'तस्स णं इत्यादि
तस्य खलु पूक्तिस्य प्रदेशिनो राज्ञो ज्येष्ठः पुत्रः सूर्यकान्तायाः देव्या आत्मजः=अङ्गजातः सूर्यकान्तो नामकुमार आसीत्, स कुमारः सुकुमालपाणिपादो यावत्पतिरूपश्च आसीत् । यावत्पदेन औपपातिकसूत्रोक्तधारिणीवर्णकग्रन्थः पुंल्लिङ्गत्वेन विपरिणमय्यात्र ग्राह्य इति । स खलु सूर्यकान्तकुमारो युवराजोऽपि आसीत् । स सूर्यकान्तो युवराजः प्रदेशिनो राज्ञो राज्य राष्ट्रादिसमुदायात्मक च, राष्ट्र जनपद, वल सैन्य, वाहन = हस्त्यादिक शिक्षिकादिक च, कोशमाष्डागार कोष्ठागार-धान्यगृहपुर- नगर', अन्तःपुर च स्वयमेव प्रत्युत्प्रेक्षमाणः प्रत्युत्प्रेक्षमाणः निरीक्षमाणो बिहरति-राज्यराष्ट्रादि सर्वव्यवस्थां पश्यतीत्यर्थः ॥मू० १०१॥
मूलम्-तस्स णं पएसिस्स रन्नो जेट भाउयवयंसए चित्ते णामं सारही होत्था अड्ढे जाव बहुजणस्स अपरिभूए साम-दंड भेय उव प्पयाणअत्थसत्थ ईहामइविसारए उप्पत्तियाए वेणइयाए कम्मयाए पारिणामियाए चउठिवहाए बुद्धीए उववेए, पएसिस्स रण्णो बहुसुकज्जेसु य कारणेसु य कुटुंबेसु य मंतेसु य गुज्झेसु य रहस्सेसु य निच्छएसु य ववहारेसु य आपुच्छणिज्जे पडिपुच्छणिज्जे मेढीपमाणं आहारे आलबणभूए चक्खुभूए सव्वाण सव्वभूमियासु लद्धयच्चए विइण्णबियारे रज्जधुराचितए यावि होत्था ॥ सू० १०२ ॥
छाया-तस्य खलु प्रदेशिनो राज्ञो ज्येष्ठ भ्रातृ वयस्यकश्चित्रो नाम सारथि रासीत् । आढयो यावद् बहुजनस्य अपरिभूतः साम-दण्डभेदोपपदानार्थ का, भाण्डागाररूप कोश का, धान्यगृहरूप कोष्ठागार का, एवं अन्तःपुर का अपने आप ही समय२ पर निरीक्षण अवलोकन करता था.
टीकार्थ स्पष्ट है ॥ सू १०१॥ 'तस्स णं पएसिस्स रन्नो जेट भाउयवयसए' इत्यादि।
सूत्रार्थ--(तस्स ण पएसिस्स रन्नो जेट भाउयवयसए) इस प्रदेशी કેશનું, ધાન્યગ્રહરૂપ કોઠાગારનું, નગરનું અને અંતઃપુરનું પોતાની મેળે જ યથા સમય નિરીક્ષણ કરતા હતા. એટલે કે તે રાજય રાષ્ટ્ર વગેરેની સર્વ વ્યવસ્થાનું અવકન કરતા હતા. ટીકાર્થ સ્પષ્ટ છે. ૧૦૧
'तस्स ण' पएसिस्स रन्नो जेट्ठ भाउयवयं सए' त्याह. सूत्राथ-(तस्स णं पएसिस्स रन्नो जेट्ट भा उय वयं सए) ते प्रदेशी रानने
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राजप्रश्नीयसूत्रे राजा का जेष्ठ भाइ के जैसा एवं अधिक उमरवाला (चित्ते णाम सारही होत्या) चित्र नाम का सारथी था. (अड्डे जाव बहुजणस्स अपरिभूए सामदंड-भेय-उवरपयाण अत्थसत्य ईहा मइविसारए) यह चित्र सारथी आढयसमृद्ध था, यावत् बहुजनों द्वारा भी अपरिभूत था. वहां यावत् शब्द से 'दित्तै बिस्थिण्णविउल-सयणासण जाण-इण्णे, बहुधण-बहुजायरूव-रयए, आओगसंपओगसंषउत्ते, विच्छड्डियविउलभत्तपाणे, बहुदासीदासगोमहिसगवेलयप्पभूए' इसपाठ का संग्रह हुआ है इसका अर्थ इस प्रकार से हैयह चित्र सारथि दीप्त-तेजस्वी था, इसके बडे २ अनेक मकान थे, बडे२ अनेक तल्प (शय्या) थे, बडे२ अनेक पीठकादिक आसन थे शकटमभृति (गाडी वगैरह) यान थे, अश्वादिकों से यह सदा आकीर्ण-युक्त बना हुआ था, विपुल धन का-गणिम आदि द्रव्य का, यह स्वामी था. इसके पास विपुल स्वर्ण था, तथा रजत-चांदी थी. आयोगप्रयोग से यह संप्रयुक्त था, द्विगुणादिलाभके लिये रुपया आदि को कर्ज लेने वालों के लिये देना इसका नाम आयोग है, और इसका उपाय चिन्तन करना सो प्रयोग है. अथवा अपने द्रव्य को दना आदि करने की लिप्सा से अधमर्ण कर्जलेने वालों को उसे देना इसका नाम आयोगप्रयोग संप्रयुक्त है. यह चित्र सारथि इस अधिक द्रव्यों मोटा यो भरमा तना ४२ai पधारे (चित्तें णाम सारही होत्था) यित्र नामे साथि हतो. (अड़े जाव बहुजणस्स अपरिभूए साम-दंड-मेय उवष्पयाण अत्थ सत्य ईहा मइ विसारए) न्ये चित्र सारथि मा८य-समृद्ध-उता. यावत् भने दोथी अपरिभूत तो, मी यावतू २०४थी “दित्ते वित्थिण्णविउलसयणासण जाण-वाहणा-इण्णे. बहुधण-बहु जाय-रूव-रयय, आओगसंपओगसंप उत्ते, विच्छड्डियविउलभत्तपाणे, बाहुदासीदासगोमहिसगवेलयप्पभूए' આ પાઠનું ગ્રહણ થયું છે અને અર્થ આ પ્રમાણે છે કે તે ચિત્ર સારથિ દીસતેજવી હતો, ઘણાં મોટા મેટા તેને મકાને હતાં. મેટી મેટી અનેક શય્યાઓ (૫) હતી. પઠક વગેરે મોટા મોટા ઘણા આસને હતાં. શકટ-ગાડી વગેરે ઘણાં વાહને હતાં. હય-ઘડાઓ-વગેરેથી તે સદા પરિવેષ્ટિત રહેતું હતું. વિપુલ ધન-ગણિમ વગેરે દ્રવ્યને એ સ્વામી હતું. તેની પાસે પુષ્કળ સ્વર્ણ હતું, અને ચાંદી પણ હતી. આગ પ્રગથી એ સંપ્રયુક્ત હતા, બમણા લાભની અપેક્ષાએ જે રૂપિયા વગેરે સિક્કાએ બીજને વ્યાજે આપવામાં આવે તેને આગ કહે છે અને એના માટે જે યુક્તિ પ્રયુકિતઓનું ચિંતન કરવામાં આવે છે તેને પ્રયોગ કહે છે. અથવા તે પિતાના ધનને બમણું વગેરે કરવાની ઈચ્છાથી અધમણું–કજ લેનારને આપવું તેનું નામ આગ પ્રગ સંપ્રયુકત છે. એ ચિત્ર સારથિ અધિક દ્રપાર્જનરૂપ ક્રિયામાં
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सुबोधिनी टीका. सू. १०२ सुर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्ण नम् शास्त्रेहामति विशारदः औत्पत्तिक्या वैनयिक्या कम जया पारिणामिण चतु. विधया बुद्धया उपपेतः, प्रदेशिनो राज्ञो बहुषु कायेषु च कारणेषु च कुटु म्बेषु च मन्त्रेषु च गुह्येषु च रहस्येषु च निश्चयेषु च व्यवहारेपु च आमच्छ. नीयःमतिप्रच्छनीयो मेढिः प्रमाणम् आधारआलम्बनभूतश्चक्षुर्भूतः सर्व भूमिकासु लब्धमत्ययो वितीर्ण विचारो राज्यधुराचिन्तकश्चापि आसीत् ॥१०२॥ पाजनरूप क्रिया में प्रवृत्त था. तथा विपुल मात्रा में इसके यहां भोजन पान खालेने पर भी बचा रहता था, दासी, दास, गो, महिष एवं गवेलकमेष ये सब इसके यहां प्रचुरसंख्या में थे, तथा यह चित्र सारथि साम, दंड, भेद और दान इन चार राजनीतियों में अर्थप्राप्ति के साधनों का प्रतिपादन करने वाले शास्त्र में एवं ईहापधान बुद्धि में, विशारद निपुण था (उत्पत्तियाए, वेणइयाए, पारिणामियाए, चहुविहाए बुद्धिए उबवेए) औत्पत्तिको स्वाभाविक, वैनयिकी, कर्मजा तथा पारिणामिकी अवस्था इन चार प्रकार की बुद्धियों से युक्त था (पएसिस्स रपणो बहुसु कजेसु य कारणेसु य, कुडुबेसु य, मंतेमु य, गुज्झेमु य, रहस्से य, निच्छएमु य, ववहारेसु य आपुच्छणिज्जे, पडिपुच्छणिज्जे) प्रदेशी राजा के अनेक कार्यो में, कार्य संपादक हेतुओं में, कुटुम्ब के विषय में, कर्तव्यनिश्चायार्थ गुप्तमंत्रणाओं में, गुह्यों में-लज्जा से गोपनीय कामों में, रहस्यों में प्रच्छन्नव्यवहारों में, एवं निश्चयों में-पूर्ण निर्णयों में, एवं व्यवहारों में-बान्धवादिकों द्वारा समा. चरित लोकविपरीत आदिक्रियाओं के प्रायश्चित्तों में अच्छी तरह से यह પ્રવૃત્ત હતો. તેમજ એને ત્યાં પુષ્કળ પ્રમાણમાં લેકે ભોજન-પાન કરતા હતાં છતાંએ ભેજન સામગ્રી ખૂબ પડી રહેતી હતી. દાસી, દાસ, ગાય મહિષ અને વેલક-મેષ આ બધા એને ત્યાં પ્રચુર સંખ્યામાં હતાં. એ ચિત્ર સારથિ સામ, દંડ, ભેદ અને દાન આ ચારે ચાર રાજનીતિ-એમાં, અર્થ પ્રાપ્તિના સાધનોનું પ્રતિપાદન કરना शास्त्रोमा भने USप्रधान मुद्धिमा विशा२४-निysतो. (उप्पत्तियाए, वेण. ईयाए. परिणामियाए, चउचिहाए बुद्धिए उववेए) मोत्पत्तिी-वामावि, पैनयी, Hon मने पारिमिती २0 यार प्रा२नी भुद्धिमाथी ते यु४त् छतो. (पएसिस्स रणो बहुसु कज्जेसु य कारणेसुय, कुडुबेसु य, मंतेसु य. गुज्झेसु य, रहस्सेसु य, निच्छएस्सु य, ववहारेसु य, आपुच्छणिज्जे, पडिपुच्छणिज्जे) પ્રદેશી રાજાના અનેક કાર્યોમાં, કાર્ય સંપાદક હેતુઓમાં, કુટુંબની બાબતમાં, કર્તવ્ય નિશ્ચયાથે ગુપ્ત મંત્રણાઓમાં, ગુહ્યોમાં શરમને લીધે ગોપનીય કામમાં, રહસ્યમાં પ્રચ્છન્ન વ્યવહારમાં અને નિશ્ચયમાં પૂર્ણ નિર્ણમાં અને વ્યવહારમાં બાંધવો વગેરે વડે લેક વિપરીત આચરણ કરવા બદલ તેમને પ્રાયશ્ચિત્ત કરાવવામાં, વારે ઘડીએ
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राजनीयसूत्रे
टीका - ' तस्स ण' इत्यादि
तस्य खलु प्रदेशिनो राज्ञो ज्येष्ठ भ्रातृवयस्यकः = ज्येष्ठ भ्रातृतुल्यो वयस्यकःः स्वस्य परमादरणीयत्वात् चित्रो नाम = चित्रनामा सारथि; आसीत । स चित्रसारथिः आढ़यः = समृद्धः 'जाव - यावत् - यावत्पदेन - दित्ते वित्थिष्णविउल-सयणासण - जाण - वाहणाइण्णे बहुधण - बहुजायख्व-रयए आओगसंपभोग पत्ते विच्छड्डिय विउलभत्तपाणे बहुदासीदास गोमहिसग वेलय.
बार बार पूछा जाता था- विशेषरूप से पूछा जाता था (मेढीपमाण आहारे आलंबणभूए, चक्खुभूए, सब्वट्टणिसव्वभूमियासु लद्धपच्चए विष्णबियारे रज्जधुराचितए यावि होत्था ) जिस प्रकार मेधि को आश्रित करके वैल घूमते हैं उसी प्रकार उसे आश्रित करके मंत्रिमंडल मंत्रकरनेरूप कार्यो में प्रवृत्त होता था. अतः वह मेंधीरूप था तथा प्रत्यक्षादिक प्रमाणों की तरह वह हेयोपादेय पदार्थों में प्रवृत्तिनिवृत्तिशाली होने के कारण संशयरहित होकर पदार्थों का परिच्छेदक था. इसलिये वह प्रमाणरूप था. आधारभूतपदार्थों की तरह वह सब का आश्रयदाता था. रज्जु स्तंभादिकों की तरह वह विपत्तिरूप कूप में पतित जनों का उद्धारक होने के कारण अवलम्बन रूप था, यहां यह शंका हो सकती हैं आधार और अवलम्बन में कथा भेद है ! इस का उत्तर है कि जिसके सहारे से मनुष्य अपनी उन्नति करता है या स्वरूपावस्थ होता है उसका नाम आधार है तथा जिसके अवलम्बन से विपत्तियां दूर होती हैं उसका नाम अवल
એની સાથે મંત્રણા કરવામાં આવતી હતી. અને સવિશેષ રૂપમાં એને પૂછવામાં मातु तु. ( मेढीपमाण आहारे आलंबणभूए, सव्वट्टाणसव्वभूमियासु लद्धपच्चए विष्णवियारे रज्जधुराचितए यानि होत्था) भेटिना साधारे भ ખળદ ફરે છે તેમ એને આધાર માનીને મત્રિમ`ડળ માત્રા વગેરે કાર્યોમાં પ્રવૃત્ત થતું હતું. એથી તે મેઢીરૂપ હતા. પ્રત્યક્ષાદિક પ્રમાણેાની જેમ તે હૈયાપાદેય પદામાં પ્રવૃત્તિ નિવૃત્તિશાલી હાવા બદલ પદાર્થોનો તે નિઃશ'કપણે પરિચ્છેદક હતા. એથી તે પ્રમાણુરૂપ હતા. આધારભૂત પદાર્થાની જેમ તે સૌ કોઇનો આશ્રયદાતા હતા. રજ્જુ સ્ત་ભાર્દિકાની જેમ વિપત્તિરૂપ ગ્રૂપમાં પડેલાઓનુ રક્ષણ કરનાર હેાવાથી તે અવલ બનરૂપ હતો. અહીં આધાર અને અવલખનના અર્થ વિષે શંકા ઉત્પન્ન થઈ શકે છે કે એએ અન્નેમાં શે! તફાવત છે? તો સ્પષ્ટીકરણ આ પ્રમાણે છે કે જેના સહારે–આશ્રયે માણસ ઉન્નતિ કરે છે કે સ્વરુપાવસ્થ હાય છે તેનું નામ આધાર છે, તેમજ જેના અવલખનથી વિપત્તિ દૂર થાય છે.
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सुबोधिनी टीका सु. १०२ सुर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्ण' नम् ष्पभूए' छाया - दीप्तो विस्तीर्ण विपुलशयनासनयानवाहनाकीर्णो बहुधनबहुजातरूप-रजतआयोगस' प्रयोगसं प्रयुक्तो विच्छर्दित विपुल भक्तपानो वहु दासीदास गोमहिष गवेलकप्रभूतः इतिस'ग्राह्यम्, तत्र- - दीप्तः = तेजस्वी विस्तीर्ण विपुलभवनशयनासनयानवाहनाकीण :- विस्तीर्णानि= विस्तृतानि विपुलानि बहूनि भवनानि=गृहाः, शयनानि=तल्पानि आसनानि=पीठकादीनि यानानि= शकटपभृतीनि वाहनानि=हयादयस्तैराकीर्ण = व्याप्तः यमुपेतो वा बहुधन बहु जातरूपरजतः- :- बहु = विपुलं धनं=गणिमप्रभृति यस्य स बहुधनः, बहु = विपुल जातरूपं=सुवर्ण रजत =रूप्यं च यस्य स बहु जातरुपरजतः - बहुधनश्वासौ बहुजातरूप-रजतश्चात बहुधन बहुजातरूपरजतः, तथा आयोगसंप्रयोगसंप्रयुक्तः समन्ताद् योजन = द्विगुणादिलाभार्थ रूप्यादीनामधमर्णा
,
म्बन है | नेत्र जैसे अपने विषयभूत होने योग्य पदार्थों का प्रदर्शक होता है उसी प्रकार से यह सब सबके लिये सकलार्थ का प्रदर्शक था यदुक्तम्"मेधिः प्रमाण' आधारः, आलम्बनं चक्षुः "
इस बात की स्पष्ट प्रतिपत्ति के लिये उपमावाचक भूतशब्द इनके साथ जोड कर सूत्रकार ने पुनः इनकी इस प्रकार से आवृत्ति की है - यह मेढि भूत, प्रमाणभूत, आधारभूत एवं चक्षुभूत था अतः सर्वस्थानों में - सन्धि, विग्रह आदिरूप सब जगहों में एवं मन्त्रि- आमात्यादि स्थानरूप सर्व भूमिकाओं में यह यथार्थवादी रूप से माना जाता था और राजा ने भी इसी कारण अन्तःपुरादि जैसे स्थानों में आने जाने को इसे छूट देखी थी. इसतरह राजा का अतिविश्वास पात्र बना हुआ यह चित्रसारथि सकल राज्यकार्य का प्रेक्षक भी बन गया था.
તેનુ' નામ અવલેખન છે. નેત્ર જેમ પેાતાને વિષયભૂત થવા યોગ્ય પદાર્થોના પ્રદક હાય છે તેમજ તે પણ સૌ માટે સકલાના પ્રદશ્યક હતા.
भ: - " मेदिः प्रमाणं आधारः, आलम्बनं चक्षुः "
એ જ વાતને વધારે સ્પષ્ટ કરવા માટે સૂત્રકારે ઉપમાવાચક ‘ભૂત' શબ્દ એમને લગાડીને ફરી આ શબ્દોની આ પ્રમાણે આવૃત્તિ કરી છે-એ મેઢિભૂત, પ્રમાણભૂત આધારભૂત, અને ચક્ષુભૂત હતા. એથી અધે-સંધિ, વિગ્રહ વગેરે રૂપ બધી જગ્યાએ અને મંત્રિ અમાત્યાદિ સ્થાનરૂપ સર્વભૂમિકામાં તે સાચી સલાહ આવનાર ગણાતા હતા. એથી રાજાએ પણ અંતઃપુર જેવાં સ્થાનામાં પણ તેને પ્રવેશવાની છૂટ આપી દીધી હતી. રાજાના અતિવિશ્વાસપાત્ર ખનેલા એ ચિત્ર સારથિ આમ સમસ્ત રાજ્યકાના પ્રેક્ષક પણ ખની ગયે હતા.
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राजप्रश्नीयसूत्रे दिभ्यो नियोजनमायोगः, तस्य प्रयोगः-प्र-प्रकर्षेण योजनम् उपायचिन्तनम्
आयोगप्रयोगः, यद्वा आयोगेन-द्विगुणादिलिप्सया प्रयोगः अधमर्णानां सविधे द्रव्यस्य वितरणम् आयोगप्रयोगः, स संपयुक्तः प्रवर्तितो येन, तस्मिन वा सप्रयुक्तः संलग्नो यः स आयोगप्रयोगसंप्रयुक्तः द्रब्योपार्जनप्रवृत्त इत्यर्थः, तथा-विच्छतिविपुलभक्तपान:-विच्छर्दिते वि-विशेषेण छदिते= भोजनावशिष्टे भक्तपाने भक्तं च पानं च यस्य सः, तथा-बहुदासीदासगोमहिषगवेलकप्रभूतः-दास्यश्व दासाश्च गावश्च महिपाश्च गवेलका:-उरभ्राथेति-दासीदास. गोमहिषगवेलकाः, बहवः प्रचुरा दासीदासगोमहिषगवेलका यस्य सः, तथाबहुजनस्य जातिविवक्षयैकवचनं संबन्धसामान्ये षष्ठी, तेन बहुजनैरित्यर्थो बोध्यः, अत्र अपीत्यध्याहारा बहुजनैरपि अपरिभूतः पराभव रहितश्वासीत्। तथा-स चित्रसारथिः-सामदण्डभेदोपपदानार्थ शास्त्रेहामतिविशारदः-तत्र-साम =सान्त्व, दण्डा-दमः, भेदो-द्वैधीकरणम्. उपपदान दानम्-इत्येतासु चतसृषु राजनीतिषु तथा-अर्थशास्त्रे अर्थमाप्तिसाधनप्रतिपादके शास्त्रे, ईहा-मतौ ईहाविमर्शस्तत्प्रधाना मतिः बुद्धिस्तस्यां च विशारदःनिपुणः, तथा औत्पत्ति क्या स्वाभाविक्या-अदृष्टाश्रुताननुभूतविषयया स्वतः समुत्पन्नया, वैनयिक्या गुरुसमाराधनसमाप्तशास्त्रार्थ संजनितया कर्मजया कृषिवाणिज्यादिकर्मसंपा. तया, पारिणामिक्या-बय:परिणामजनिनया चेति चतुर्विधया चतुष्पकारया बुद्धथा उपपेतो-युक्तश्च आसीत् । तथा-स चित्र सारथिःप्रदेशिनो राज्ञों बहुषु कार्येषु-कर्तव्येषु प्रयोजनेविति यावत्, कारणेषु कार्यजातसम्पादक हेतुषु कुटुम्बेषु-कुटुम्बविषये मन्त्रेषु कर्तव्यनिश्चयार्थ गुप्तविचारेषु गुह्येषु लज या गोपनीयेषु व्यवहारेषु रहस्येषु हसि-एकान्ते भवा रहस्यास्तेषु प्रच्छन्नव्यवहारेष्विति यावत्, निश्चयेषु-पूर्ण निर्णयेषु, व्यवहारेषु व्यवहारप्रष्टव्येषु, यद्वा-बान्धवादि समाचरितलोकविपरीतादि क्रिया प्रायश्चित्तेषु च आमच्छनीयःआईषत् सकृत् प्रच्छनीय प्रष्टव्यः, परिप्रच्छनीयः-परि-सर्वतोभावेन असकृत प्रच्छनीयः प्रष्टव्यः, तथा स चित्रसारथिः-मेधिः यथा मेधिमाश्रित्य गोमण्डल भ्रमति, तथैव तमाश्रित्य सकल मन्त्रिमण्डल मन्त्रकायेषु प्रवर्तते, अतः स मेधिः, तथा-प्रमाणम्-प्रत्यक्षादिप्रमाणबद्धेयोपादेयप्रवृत्तिनिवृत्तिरूपतया संश. यराहित्येन पदार्थ परिच्छेदकः, आधार आधारवत्सर्वेषामाश्रयमूतः, आलम्बन रजस्तम्भादिवद् विपत्कूपेपतन्जनोद्धारक तयाऽवलम्बनम् । ननुआधारालम्बनयोः को भेदः ? इति चेत्, यमधिष्ठाय जन उन्नति गच्छति स्वरूपावस्थो वा भवति स आधारः, यदवलम्बनेनच विपदो विनिवत्त ते
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सुबोधिनी टीका सू. १०२ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् २१ तदालम्बनम्-इति भेद'गृहाण | चक्षुः चक्षते पश्यन्त्यनेनेति चक्षुः नेत्र, तद्वत् सर्वेषां सकलार्थप्रदर्शकः । यदुक्तम्___ "मेधिः प्रमाणम् आधारः आलम्बन चक्षुः" इति, तदेव स्पष्टप्रतिपत्तये औपम्यवाचि-भूतशब्दसम्मेलनेन पुनरावर्त यति-'मेधिभूतः प्रमाणभूतः आधारभूतः आलम्वनभूतः चक्षुर्भूतश्चास्ति : तथा-स चित्रसारथिः सर्व स्थानसर्वभूमिकासु-सर्व स्थानानि सन्धिविग्रहादिरूपाणि सकलकार्याणि च सर्वभूमिकाः मन्त्रमात्यादिस्थानरूपाश्च तासु लब्धः उपलब्धः प्रत्ययः प्रतीति यथार्थवादितया येन स तथाभूतः, तथा-वितीर्ण विचार:-वित्तीर्ण: राज्ञा प्रदत्तः विचार-विचरणम् अन्तःपुरादिषु सर्वत्र यस्मै स तथा राज्ञोऽति विश्वासपात्रमित्यर्थः, तथा-राज्यधुराचिन्तकः सकलराज्यकार्य प्रेक्षकश्चापि आसीत् ॥सू० १०२॥
इसकी टीका का अर्थ इसी मूलार्थ के माथ कर दिया गया है, फिर भी जिन पदों का अर्थ मूलार्थ में नहीं किया गया है-उनका अर्थ इस प्रकार से है-विमर्श प्रधान मति का नाम ईहामति है, स्वाभाविक बुद्धि का नाम कि-जो अदृष्ट अननुभूत, अश्रुत आदि पदार्थों को विषय करती है और उनमें स्वयं ही उत्पन्न हो जाती है वह औत्पत्तिकी बुद्धि है। इसका नाम "हाजिर जवाबी" भी हैं, गुरुजनों की सेवा शुश्रूषादि करने से प्राप्त शास्त्रार्थ के चिन्तन से जो बुद्धि प्राप्त होती है उसका नाम वैनयिकी बुद्धि है। कृषिवाणिज्य आदिकर्म करते२ जो बुद्धि प्राप्त होती है उसका नाम कर्मजा बुद्धि है। जैसे२ उमर बढती जाती है वैसे२ जो बुद्धि प्राप्त होती है उसका नाम पारिणामिकी बुद्धि है । अर्थात् वयः परिणाम जनित बुटि का नाम ही पारिणामिकी वृद्धि है ॥मू०१०२॥
આને ટીકાર્થ મૂલાર્થમાં જ સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યું છે. છતાં એ કેટલાંક પદોને અર્થ મૂલાર્થમાં સ્પષ્ટ થયું નથી તેમને અર્થ સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છે. વિમર્શ પ્રધાનમતિનું નામ ઈહામતિ છે. અદૃષ્ટ, અનનુભૂત, અશ્વત વગેરે પદાર્થોને વિષયભૂત બનાવનારી અને તેમાં પોતાની મેળે જ ઉત્પન્ન થનારી સ્વાભાવિક બુદ્ધિનું નામ ઓત્પત્તિકી બુદ્ધિ છે. આને હાજિર જવાબી પણ કહે છે. ગુરૂજની સેવા શુષા વગેરેથી પ્રાપ્ત થયેલી અને શાસ્ત્રાર્થ ચિંતનથી પ્રાપ્ત થયેલી બુદ્ધિ નચિકી કહેવાય છે. કૃષિ વાણિજ્ય વગેરે કર્મો કરતાં કરતાં જે બુદ્ધિ પ્રાપ્ત થાય છે તેનું નામ કર્મ જા બુદ્ધિ છે. આયુષ્યની વૃદ્ધિ સાથે સાથે જે બુદ્ધિ પ્રાપ્ત થાય છે તે પરિણામિકી બુદ્ધિ છે. એટલે કે વય પરિણામ જનિત બુદ્ધિનું નામ જ પારિમિકી બુદ્ધિ છે. સૂ૦૧૨
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राजप्रश्नीयसूत्रे ___ मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं कुणाला नामं जणवए होत्था, रिद्धस्थिमियसमिद्धे । तत्थ णं कुणालाए जणवए सावत्थी नाम नगरी होत्था, रिथिमियसमिद्धा जाव पडिरूवा । तिसे णं साव. स्थीए णगरीए बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए कोटए नाम चेइए होत्था, पुराणे जाव पासाईए ४ । तत्थ णं सावत्थीए नयरीए पए. सिस्स रन्नो अंतेवासी जियसत्तू नाम राया होत्था, महया हिमवत जाव विहरइ ॥ सू० १०३ ॥
छाया-तस्मिन् काले तस्मिन् सममे कुणाला नाम जनपद आसात्, ऋदस्तिमितसमृद्धः। तत्र खलु कुणालायां जनपदे श्रावस्ती नाम नगरी आसात् ऋद्धस्तिमितसमृद्धा यावत् प्रतिरूपा | तस्याः खलु श्रावस्त्या नगर्याः बहिरु
'तेण कालेण' तेण समण्ण' इत्यादि ।
सूत्रार्थ-(तेण कालेण तेण समएणं) उस काल में-अवसर्पिणी के चौथे आरे में और केशिस्वामी के विहार से उपलक्षित उस समय में (कुणालानाम जणवए होत्था) कुणाला इस नामका देश था (रिद्धस्थि मियसमिद्धे) यह देश ऋद्ध, स्तिमित एवं समृद्ध था यावत् प्रतिरूप -सर्वोत्तम था (तत्थ ण कुणालाए जणवए सावत्थी नाम नयरी होत्था) उस कुणालादेश में श्रावस्ती नामकी नगरी थी (रिद्धस्थिमियसमिद्धा जाव पडिरूवा) यह नगरी भी ऋद्ध स्तिमित एवं समृद्ध थी और यावत् प्रति रूप थी (तीसे ण सावत्थीए गयरीए बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए कोट्ठए नाम चेहए होत्था) उसश्रावस्ती नगरी के बाहिर में ईशानकोने में
"तेण कालेण तेण समएण" इत्यादि ।
सूत्रार्थ-(तेण कालेण तेण समएण) त आणे-साना याथा मारामा भने शिस्वामीना विडा२ना सभये (कुणाला णाम जणवए होत्था) हुादा नामे देश डतो. (रिद्धिािमयसमिढ़े) माहेशद्ध स्तिभित भने समृद्ध उता यापत प्रति३५-सर्वोत्तम तो (तत्थ ण कुणालाए जणवए सावत्थी नाम नयरो होत्था) ते देशमा श्रावस्ती नामे नगरी ती. (रिद्धस्थिमियस मिद्धा जाव पडिरूबा) 0 नगरी प] * स्तिभित भने समृद्ध ती भने यावत् प्रति३५ ती. (तीसे ण सावत्थीए णयरीए बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसी भाए कोट्ठए नाम चेइए होत्था) ते श्रावस्ती नगरानी महा२ ४ान भी
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सुबोधिनी टीका' सू. १०२ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम्_२३ त्तरपीरस्न्ये दिग्भागे कोष्ठको नाम चैत्यमासीत्, पुराण यावत् प्रासादोयम् ४ । तत्र खलु श्रावा नगर्या प्रदेशिनो राज्ञोऽन्तेवासी जितशत्रुर्नाम राजा आसीत् महाहिमवदू विहरति ॥ म्० १०३ ॥ टीका-'तेणं कालेणं' इत्यादि
तस्मिन् काले अस्या अवसर्पिण्याचतुर्थारकलक्षणे काले तस्मिन् समयेकेशिस्वामिविहरणोपलक्षिते समये कुणाला नाम जनपद: कुणालाभिधो
आसीत् । स जनपद ऋद्रस्तिमितसमृद्धः आसीत् । तत्र खलु कुणालायां जनपदे श्रावस्ती नाम नगरी आसीत् । सा नगरी ऋस्तिमितसमृद्धा यावत पतिरूपा चासीत् । यावत्पदेनात्र-औपपातिकसूत्रोक्तचम्पानगरीवर्णन सर्व संग्राह्यम् । तस्याः खलु श्रावस्त्या नगर्याः बहिः प्रदेशे उत्तरपौरस्त्ये उत्तर पूर्व योरन्तराले दिग्भागे-ईशानकोणे कोष्ठको नाम चैत्यमासीत्, तच्चैत्य पुराण यावत् प्रासादीयं दर्शनीयम् अभिरूपं प्रतिरूप चासीत् । यावत्पदेनात्र-औपपातिकसूत्रोक्त सर्व मनुसन्धेयम्। तत्र खलु श्रावस्त्यां नगर्या प्रदेशिनो राज्ञः अन्तेवासी अन्ते-समीपे बसतीत्येचं शीलोऽन्तेवासी कोछुक नामका चैत्य था (पुराणे जाव पासाईए४) यह चैत्य प्राचीन था यावत् प्रासादीय था, दर्शनीय था, अभिरूप था और प्रतिरूप था (तत्थ ण सावत्थीए नयरीए पएसिस्स रन्नो अंतेबासी जियसत्त नाम राया होत्था, महया हिमवंत जाब विहरइ) उस श्रावस्ती नगरी में प्रदेशी राजा का अन्तेवासी जितश नाम का राजा था. जो महाहिमवान् आदि के जैसा बलबाला था.।
टीकार्थ इसका स्पष्ट है-श्रावस्ती नामकी नगरी का वर्णन औप. पातिक सूत्र में कथित च पानगरी के वर्णन जैसा है. चैत्य-उद्यान के वर्णन में भी औपपातिक सूत्रोक्त वर्णन यहां पर ग्रहण करना चाहिये. अन्तेवासी 31°४४ नामे येत्य तु (पुराणे जाव पासाईए४) २॥ चैत्य प्राचीन तु यावत् प्रासाहीय तु. शनीय हतु, मनि३५ तुमने प्रति३५ हेतु (तस्थ ण सावत्थी ए नगरीए पएसिस्स रन्नो अंतेवासी जियसत्त नाम राया होत्था, महया हिमवंत जाब बिहरइ) ते श्रावस्ती नगरीमा प्रदेश २ मन्तवासी तिशत्र નામે રાજા હતે. તે મહાહિમવાનું વગેરે જે બળવાન હતે.
ટીકાથ–આ સૂત્રને ટીકાર્થ સ્પષ્ટ જ છે. પપાતિક સૂત્રમાં ચંપાનગરીનું જે પ્રમાણે વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે તેમજ શ્રાવસ્તી નગરીનું વર્ણન પણ સમજવું જોઈએ. ચૈત્યનું વર્ણન પણ પપાતિક સૂત્રના વર્ણનની જેમ સમજવું જોઈએ.
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राजप्रश्नीयसूत्रे शिष्यः अन्तेवासीव-अन्तेबासी सम्यगाज्ञापालक इति भावः, तथा भूतो जितशत्रुर्नाम राजा आसीत् । म जितशत्रु राजा महाहिमवद्-यावद् विहरति । 'जितशत्रो राज्ञः सर्व वर्णनमौपपातिकमूत्रोक्त कूणिकराजवद् बोध्यमिति ॥सू० १०३।।
मूलम्-- से पएसी राया अन्नया कयाई महत्थं महग्ध महरिह विउल रायारिह पाहुड सजावेइ सज्जावित्ता चित्तं सार ह सदावेइ, सदाबित्ता एवं वयासी गच्छ णं चित्ता ! तुमं सावत्थिं नगरि जियसत्तुस्स रणो इमं महत्थ जाव पाहुड उवणेहि जाई तत्थ रायकज्जाणि य रायकिच्चाणि य रायनिईओ य रायववहारा य ताई
जय स सद्धिं सयमेव पच्चुवेक्खमाणे विहराहित्ति कटु विस जए ॥ सू० १०४ ॥
छाया-ततः खलु स प्रदेशी राजा अन्यदा कदाचित महार्थ महाधं महार्ह विपुल राजाहं प्राभृत सन्जयति, सजयित्वा चित्रं सारथि शब्दशब्द का अर्थ शिष्य है. वह अन्तेवासी के समान अन्तेवासी था अर्थात उसकी आज्ञा का अच्छी तरह से पालक था. जितशत्रु राजा का सर्ववर्णन औपपातिक सूत्रोक्त कूणिक राजाकी तरह से है ऐसा जानना चाहिये ॥सू०१०३।।
'तएण से पएसी राया' इत्यादि ।
सूत्रार्थ-(तएण से पएसी राया अन्नया कयाई महत्थं महग्धं महरिहं विउल रायारिह पाहुड सज्जावेइ) एक दिन की बात है कि प्रदेशी राजा ने महार्ण विपुल प्रयोजनवाला-सातिशयप्रयोजनयुक्त, महाधे-बहूमूल्य, महाह-अतिशोभायुक्त, विपुल-बहुत बडा ऐसा गजा के योग्य मामृत-भेट અન્તવાસી શબ્દનો અર્થ શિષ્ય છે. તે અન્તવાસીની જેમ અન્તવાસી હતા એટલે કે તે સરસ રીતે તેની આજ્ઞાનું પાલન કરતે હતે. જિતશત્રુ રાજાનું બધું વર્ણન ઓપપાતિક સૂત્રત કૃણિક રાજાની જેમજ સમજવું જોઈએ. એ સૂત્ર ૧૦૩ _ 'त एण से पएसी राया' इत्यादि ।
सूत्रार्थ-(त एण से पएसी राया अन्नया कयाई महत्थं महग्ध महरिहं विउल रायारिहं पाहड सज्जावेइ) ते प्रदेशी रातो मे हिवसे महाथ વિપુલ પ્રજનવાળી-સાતિશય પ્રજન યુકત, મહાઈ–બહુમૂલ્યવાળી, મહાઈ અતિશેભાયુકત, વિપુલ-પુષ્કળ પ્રમાણમાં રાજાઓના માટે ગ્ય એવી ભેટ (પ્રાભૃત) તૈયાર કરી.
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सुबोधिनी टीका. सूत्र १०४ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् २५ यति, शब्दयित्वा एवमवादीत-गच्छ खलु चित्र ! त्वं श्रावस्ती नगरी जितशत्रोः राज्ञ इद महार्थ यावत मामृतम् उपनय, यानि तत्र राजकार्याणि च राजकृत्यानि च राजनीतयश राजव्यवहाराश्च तानि जितशत्रणा सार्द्ध स्वयमेव प्रत्युत्मेक्षमाणो विहरेति कृत्वा विसर्जितः ॥९० १.४॥
टीका-'तएणं इत्यादि--
ततः खलु स प्रदेशी राजा अन्यदा कदाचित् अन्यस्मिन् कस्मि श्चित् समये महाथ-महान् विपुलः अर्थः प्रयोजनौं यस्य स तथा तत्सातिशयप्रयोजनयुक्तम् महा बहुमूल्यं महार्हम्-अतिशोभन विपुल बृहत् राजहं नृपयोग्य प्राभृतम् उपहारम् सज्जयति-कल्पयति, सज्जयित्वा चित्र सारथिं शब्दयति-आयति, शब्दयित्वा एवम् वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत-हे चित्र ! त्वं खलु श्रावस्ती नगरी गच्छ, तत्र-जितशत्रोः राज्ञः कृते इदं महार्थ यावत प्राभृतम् उपनयमापय यानि तत्र-श्रावत्या राज कार्याणि-राज्ञो राज्य सम्बन्धीनि कत व्यानि राजकृत्यानि-राज्ञःस्वविपयाणि प्रतिदिवससम्बन्धिकर्तव्यानि. राजनीतयः साम-दण्ड-भेदोपप्रदानरूपाः राजसजाया (सजावित्ता चित्तं सारहिं सद्दावेइ) सजाकर फिर उसने चित्र सारथि को बुलाया (सहावित्ता एवं क्यासी) बुलाकर उससे ऐसा कहा (गच्छण चित्ता ! तुम सावत्थिा नरिं जियसत्तस्स रणो इमं महत्थं जाब पाहुड' उवणेहि) हे चित्र ! तुम श्रवस्तीनगरी में जाओ वहां जितशत्रु के लिये यह महाप्रयोजन साधक यावत् भेट दे आओ तथा (जाई तत्थ राय. कजाण य राजकजाणिय य रायनीईओ य रायववहारा य ताई जियसत्तुणा सद्धिं सयमेव पच्चुवेक्खमाणे विहराहि ति कडु विसजिए) जो वहां पर राजा के राजसंबंधी कर्तव्य हों राजा के अपने प्रतिदिवस के कर्तव्य हो, राजनीति साम, दंड, भेद एवं उपपदानरूप हों एवं राजव्यवहार हों (सज्जावित्ता चित्त सारहिं सदावेइ) तैयार ४शन ते चित्र सारथीन मासाव्या (सदावित्ता एवं वयासी) मसावीने तेने या प्रमाणे ह्यु, (गच्छ ण चित्ता! तुम सात्थि नयरिं जियसत्तुस्स रणो इम महत्थं जाव पाहुड उवणेहि) હે ચિત્ર! તમે શ્રાવસ્તીનગરીમાં જા અને જિતશત્રુને આ મહાપ્રયજન સાધક यावत् लेट माथी मावा, तथा (जाई तत्थ रायकज्जाणि य रायकिच्चाणि य रायनीईओ य रायववहारा य ताई जियसत्तुणा सद्धि सयमेव पच्चुवेवक्ख. माणे विहराहि त्ति कटु विसज्जिए)
त्यांना २०८ समाधि तव्या હોય, રાજનીતિને લગતી સામ, દંડ, ભેદ અને ઉપપ્રદાન રૂપ-બાબતે હોય, રાજકૃત
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राजप्रश्नीयसूत्रे
व्यवहाराः=राजकृतन्यायाश्च भवन्ति, तानि सर्वाणि जितशत्रुणा नृपेण सार्द्ध स्वयमेव प्रत्युत्प्रेक्षमाणो = निरीक्षमाणो विहर = तिष्ठ इति कृत्वा = इत्युक्त्वा स चित्रसारथिस्तेन विसर्जितः || सू० १०४ ॥
मूलम् - तणं से चित्ते सारही पएसिणा रण्णा एवं वुत्ते समाणे हट्ट - जाव पडणेत्ता तं महत्थं जाव पाहुडं गेण्हइ, पएसिस्स रण्णो अतियाओ पडिणिक्खमइ, सेयविया नयरीए मज्झ - मज्झेण जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं महत्थं जाव पाहुडं ठवेइ, कोडुंबिय पुरिसे सहावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी खिप्पामेय भो देवाप्पिया ! सच्छत्तं जाव जुद्धसजं चाउग्घटं आसरह जुत्तामेव उवद्यवेह जाव पच्चाष्पिणह तपणं ते कोडुंबिय पुरिसा तहेव पडिणित्ता खिप्पामेव सच्छत्तं जाव जुद्धसज्ज चाउ घंटं आसरहं जुत्तामेव उवटूवेति, तामाणत्तियं पञ्चपिणंति । तपणं से चित्ते सारही कोडुंबिय पुरिसाण अंतिए एयमहं जाव हियए पहाए कयबलिकम्मे कयकोउय मंगलपायच्छित्ते सन्नद्धबद्धवम्मिय. कवए उष्पालिय सरासणपट्टिए पिगेविजविमलवरचिघपट्टे गहियाउहप्पहरणे तं महत्थं जाव पाहुड' गेण्हइ, जेणेव चाउघंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ, चाउग्घट आसरहं दुरुहेइ, बहुहिं पुरिसेहिं सन्नद्धजाव गहियाउहपहरणेहिं सद्धिं संपवुिडे सकोरिंटमल्लदा मेणं छत्तेणं
२६
राजकृत न्याय हों, उन सब का जिनशत्रु राजा के साथ निरीक्षण करते रहो, इस प्रकार कहकर चित्रसारथि को उसने विसर्जित कर दिया । टीकार्थ स्पष्ट है | ० १०४ ॥
ન્યાય હાય આ બધાનું જિતશત્રુ રાજાની પાસે રહીને તમે નિરીક્ષણ કરતા રહેા, આ પ્રમાણે કહીને તેણે ચિત્ર સારથિને જવાની આજ્ઞા કરી,
આ સૂત્રને ટીકા સ્પષ્ટ છે, ૧૦૪ા
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सुबोधिनी टीका सू. १०५ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् २७ धरेजमाणेणं महया-भडचडगररहपहकरविंदपरिक्खित्ते साओ गिहाओ णिग्गच्छइ, सेयवियाए णयरीए मज्झ मज्झणं णिग्गछइ, सुहेहिं वासेहिं पायरासेहि नाइविकिहिं अंतरावासेहिं वसमाणे वसमाणे केइयद्धस्स जणवयस्स मज्झ मझेणं जेणेव कुणाला जणवए जेणेव सावत्थी नयरी तेणेव उवागच्छइ, सावत्थीए नयरीए मज्झमज्झेणं अणुपविसइ, जेणेव जियसत्तुस्स रणो गिहे जेणेव बाहिरिया उवटाणसाला तेणेव उवागच्छइ, तुरए णिगिण्हइ, रहं ठवेइ, रहाओ पच्चोरुहइ, तं महत्थं जाव पाहुड गिण्हइ, जेणेव अभितरिया उवटाणसाला जेणेव जियसत्तू राया तेणेव उवागच्छइ, जियसत्तु राय करयलपरिग्गहिय जाव कटु जएणं विजएणं वद्धावेइ, तं महत्थ जाव पाहुडं उवणेइ ॥ सू०१०५॥
छाया--ततः खलु स चित्रः सारथिः प्रदेशिना राज्ञा एवमुक्तः सन् हृष्ट यावत् प्रतिश्रुत्य तत् महार्थ यावत प्राभृत गृह्णाति, प्रदेशिनो राज्ञो ऽन्तिकात् प्रतिनिष्क्रामति, श्वेतविकाया नगर्या मध्यमध्मेन यचैव स्वक
'तएण से चित्ते सारही' इत्यादि।
सूत्रार्थ-(तएणं) इसके बाद (से चित्ते सारही) उस चित्र सारथिने जब (पएसिणा रणा) प्रदेशी राजाने एवं वुत्ते समाणे) उसने ऐसा कहातब वह (हट्ट जाव) बहुत प्रसन्न हुआ यावत् (पडिसुणेत्ता तं महत्थं जाव पाहुडं गेण्हइ) उसकी आज्ञा के वचनों को स्वीकार कर के उस महार्थ साधक यावत्-प्राभृतको लिया (पएसिस्स रणो अंतियाओ पडिनिक्खमइ) और लेकर-वह प्रदेशी राजा के पास से निकला (सेयविया नयरोए मक्झम. ज्झ ण जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ) और श्वेतविका नगरी के
सूत्रार्थ-(तएण') त्या२ पछी (से चित्ते सारही) ते यित्र साथिने न्यारे (पएसिणा रणा) प्रदेशी २०-ये (एवं वुत्ते समाणे) मा प्रमाणे माज्ञा ४२ त्यारे ते (हट्ट जाव) अत्यंत प्रसन्न थयो यावत् (पडिमुणेत्ता तं महत्थ जाव पाहुडं Tog૬) તેની આજ્ઞાના વચનને સ્વીકારી ને તેણે તે મહાઈસાધક યાવત્ ભેટને લઈ सीधी, (पएसिस्स रणो अंतियाओ पडि निक्खमइ) मने सधनेते प्रदेशी २Nonनी पाथी Gan थने २ ज्यो, (सेयविया नयरीए मज्झमझेण जेणेव सए
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राजप्रश्नीयसूत्रे गृहं तत्रौव उपागच्छति, उपागत्य तत् महार्थ यावत् प्राभृतौं स्थापयति, कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवम वादिषुः क्षिपमेव भो देवानु पियाः ! सच्छत्र यावत् युद्धसज चातुर्य ण्टम् अश्वरथ युक्तमेव उपस्था. पयत यावत् प्रत्यर्पयत । ततः खलु ते कौटुम्बिकपुरुषाः तथैव प्रतिश्रुत्य क्षिप्रमेव सच्छत्र यावत् युद्धसज्ज चातुर्घण्टम् अश्वरथयुक्तमेव उप्रस्थापयन्ति, बीचों बीच से होता हुआ जहां अपना गृह था वहां पर आया (उवागच्छित्ता तं महत्थं जाव पाहुड ठवेइ) वहां आकर के उसने उस महार्थ. महाप्रयोजनसाधक यावत् भाभृत को एक तरफ रख दिया (कोडुविय पुरिसे सदावेइ) और अपने कौटुम्बिक पुरुषोंको बुलाया (सदावित्ता एवं वयासी) उनसे ऐसा कहा (खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सच्छत्तं जाव जुद्वसज्ज चाउग्घट आसरहं जुत्तामेव उवट्ठवेह, जाव पच्चप्पिणह) हे देवा. नुपियो! तुम लोग शीघ्र ही रथ को घोडा जोतकर तैयार करके यहां ले आओ, उसे चार घंटाओं से सज्जित करना. यावत् फिर हमारी इस आज्ञा को हमें वापिस करना-उस पर छत्र भी लगाना यावत् उसे युद्ध के योग्य सज्जित करना. (तएण ते कोडुचियपुरिसा तहेर पडिसुणित्ता खिप्पामेव सच्छत जाव जुद्धसज चाउग्घंटं आसरहजुत्तामेव उवट्ठति) चित्र सारथि के इस प्रकार वचन सुनकर उन कौटुम्बिक पुरुषों ने बहुत ही जल्दी छत्रयुक्त करके यावत् चार घंटोंवाले उस अश्वरथ को तैयार गिहे तेणेव उवागच्छइ) भने श्वेतविसनगरी ५२थे या पोतानु घ२ तु त्यां गये। (उवागच्छित्ता तमहत्थं जाव पाहुडं ठवेइ) त्यां न तेणे ते मार्थ साध महाप्रयोशन साध४ यावत् बटने मे त२३ भूसीधी, (कोडुवियपुरिसे सद्दावेइ) मन पोतानामि ५३षोन मोलाच्या, (सदायित्ता एव वयासी) मावाने तेभने
, (खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सच्छत्तं जाव जुद्धसज्ज चाउग्घटं आसरहं जुत्तामेव उवट्ठवेह जाव पचप्पिणह) वानुप्रिया! तमे घातरीन શીઘ રથ તૈયાર કરે, અને અહીં લાવે, રથને ચાર ઘંટાઓથી સજિત કરે થાવત આજ્ઞા પ્રમાણે કામ પૂરું કરીને અમને ખબર આપે, રથની ઉપર છત્ર હોવું नये यावत् मधी शत युद्धना भाटे याय डाय तेभ Arora ४२०२, (तएण कोडुबियपुरिसा तहेव पडिसुणित्ता खिप्पामेच सच्छत्तं जाव जुद्धसज्ज चाउग्घंटं आसरह जुत्तामेव उवट्ठवें ति) AN ANथना l प्रभारी क्यन સાંભળીને તે કોટુંબિક પુરુષોએ એકદમ ત્વરાથી છત્રયુકત યાવત્ ચાર ઘટેથી સુસ
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सुबोधिनी टीका. १०५ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् २९ तामाज्ञप्तिकां प्रत्यर्प यन्ति । ततः खलु स चित्रः सारथिः कौटुम्बिकपुरुषाणाम् अन्ति के एतमर्थ यावत् हृदयः स्नातः कृतबलिकर्मा कृतकौतुकमङ्गलपायश्चित्तः सन्नद्धबद्धवमितकवचः उत्पीडितश सिनपट्टिकः पिनद्वग्रैवेयविमलवरचिह्नपट्टो गृहीतायुधप्रहरणस्तन्महार्थ" यावत् प्राभृतं गृह्णाति, यत्रैव चातुर्घण्टः अश्व रथस्तत्रैव उपागच्छति, चातुर्धण्टम् अश्वरथं द्रोहति, बहुभिः पुरुषैः सनद्धकर उपस्थित कर दिया (तमाणत्तिपं पच्चप्पिण ति) और चित्र सारथि के पास रथ को तैयार हो जाने की खबर भेज दी, (तएणं से चित्ते सारही कोड बियपुरिसाण अंतिए एयम सोचा जाव हियए हाए कयबलिक्म्मे कयकोउयम गलपायच्छित्ते सन्नद्धबद्धवम्मियकचए, उत्पीलियसरासणपट्टिए, पिणद्धगेविज,विमलवरचिंधपट्ट' गहियाउहप्पहरणे त महत्थ जाव पाहुडगेण्हइ) कौटुम्विक पुरुषों से की गई खबर को सुनकर वह चित्र सारथि बहुत ही अधिक आनंदित एवं संतुष्ट चित हुआ-उसने उसी समय उठकर स्नान किया. बलिकर्म (काकआदि को अन्नभाग देनेरूप) किया, कौतुक मंगल एवं प्रायश्चित्त किये अच्छी तरह से बांधकर कवच पहिरा, प्रत्यंचा चढाकर धनुष को नम्रीभूत किया, ग्रीवा में हार पहिरा, तथा सुन्दर चित्रों से चिह्नित निर्मल वस्त्र धारण किये और खङ्गादिक आयुधों को साथ में लिये, इस प्रकार से अच्छी तरह से सज्जित होकर उसने उस महार्थ साधक यावत् प्राभृत को हाथ में लिया और (जेणेव चाउग्घंटे आसर हे तेणेव उवागच्छइ Alrard शन भविश्य ने उपस्थित ध्या. (तमाणत्तिय पञ्चप्पिण ति) भने २५ तैयार थ पानी ५५२ यित्र साथिनी पासे ५ish. (तएण' से चित्ते सारही कोड बियपुरिसाण अंतिए एयमटुं सोचा जाव हियए हाए कयबलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छित्ते सन्नद्धबद्धवम्मियकवए उप्पीलियसरासणपहिए, पिणद्धगेविजविमलवरचिंधपट्ट गहियाउहप्पहरणे त महत्थं जाव पाहुडं गेहइ) 01 पुरुषानी अम पूर्ण थ पानी मम सजीन ते त्रि સારથિ ખૂબજ આનંદિત અને સંતુષ્ટ ચિત્ત થયું. તેણે તરતજ સ્નાન કર્યું, બલિ કર્મ કર્યું, કૌતુક મંગલ અને પ્રાયશ્ચિત્ત કર્યો. સરસ રીતે કસીને કવચ પહે, પ્રત્યંચા ચઢાવીને ધનુષને નમ્ર બનાવ્યું. ગળામાં હાર પહેર્યો, સુંદર સુંદર ચિત્રેથી ચિષ્ઠિત નિર્મળ વસ્ત્રો ધારણ કર્યો. અને ખેડૂગ વગેરે આયુધો અને પ્રહરણ સાથે લીધાં.આ પ્રમાણે
સરસ રીતે સજિત થઈને તેણે તે મહાર્થ સાધકથાવત્ ભેટને હાથમાં લીધી અને (जेणेव चउग्घंटे आसरहे तेणेव उबागच्छइ, चाडग्घंटे आसरहं दुरूहेइ) લઈને તે જયાં ચાતુર્ઘટ અધરથ તૈયાર હતું ત્યાં ગયે. ત્યાં જઈને તે રથ ઉપર
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राजप्रश्नीयसूत्रे यावद्-गृहीतायुधपहरणः साई सम्परितः सकोरण्टमाल्यदाम्ना छत्रेण ध्रियमाणेन महाभटचटकररथपहकरन्दपरिक्षितः स्वाद् गृहाद निर्गच्छति, श्वेतविकाया नगर्या मध्यमध्येन निर्गच्छति, सुखैः वासैः प्रातराशैः नाति. विकृष्टैः अन्तरावासैः वसन् वसन् केकयाद्धस्य जनपदस्य मध्यमध्येन यत्ररैव कुणाला जनपदो यत्रोव श्रीवस्ती नगरी तव उपागच्छति, श्रावस्त्यां चाउग्घट' आसरह दुरूहेइ) लेकर जहां वह चातुर्घट अश्वस्थ तैयार खडा था वहां पर आया-वहां आकरके फिर वह रथ पर चढा (बहुहिं पुरिसेहिं सन्नद्ध जाव गहियाउहपहरणेहिं सद्धिं संपरिखुडे सकोरिंटमल्लदामेण छत्तेण धरिजमाणेण महया भडचडगररहपगकरविंदपरिवरवत्ते साओ गिहाओ णिग्गच्छइ) तब सन्नद्ध यावत् गृहीत आयुध पहरणवाले ऐसे अनेक पुरुषों से घिर गया, छत्रधारी द्वारा ध्रियमाण एवं कारण्टपुष्पमाला से विभूषित ऐसा छत्र उसके ऊपर तान दिया गया, महाभटौं के विस्तृत समूह के वृन्दने उसे आकर घेर लिया इस प्रकार की परिस्थिति से युक्त हुआ वह अपने घर से निकला (सेयवियाए णयरीए मज्झमझेण णिग्गच्छइ) और निकलकर वह श्वेतविका नगरी के बीचो. बीच से होकर चला-(सुहेहिं वासेहिं पयरासेहिं नाइविकिट्टेहिं अंतरावासेहि वसमाणे२ केइयद्धस्स जणवयस्स मज्झमझेण जेणेव कुणाला जणवए जेणेव सावस्थी नयरी तेणेव उवागच्छइ) इस प्रकार घर से निकला हुआ वह सुखकर रागिनिवासों से, प्रातःकालिकलघु भोजनों से-कलेवाओं से, तथा अतिदूर के नहीं ऐसे अन्तरावासों से पडावों से-मध्याह्नकालिक विश्रामस्थानों से जगह२ ठहरता२ केकया जनपद के मध्य मध्य से होता हुआ सवार थयो. (बहुहि पुरिसेहिं सन्नद्ध जाव गहियाउहपहरणेहि सद्धि संपरिखुडे सकोरिटमल्लदामेण छत्तेण धरेज्जमाणेण महया-भडचडगररहपगकरविंद परिक्खित्ते साओ गिहाओ णिग्गच्छद) न्यारे सन्नद्ध यावत् मना डायामा આયુધ છે એવા અનેક પુરુષથી પરિવેષ્ટિત થઈને તથા કેરટ પુષ્પમાળાથી વિભૂ ષિત અને છત્રધારી વડે ધારણ કરેલું છત્ર તેની ઉપર તાણવામાં આવ્યું ત્યારે તેને મહાભોના વિશાલ સમૂહ વૃન્દ આવીને પ્રવિષ્ટ કરી લીધું. આમ તે પિતાના ઘરથી २वाना थयो. (सुहेहिं वासेहिं पयरासेहिं नाइ विकि?हिं अंतरावासेहिं वसमाणे २ के इयद्धस्स जणवयस्स मज्झमज्झेणं जेणेव कुणाला जणवए जेणेव सावत्थी नयरी तेणेव उवागच्छइ) मा प्रमाणे धेरथी २वान थन ते सुभ४२ शत्रिनिवासी, प्रातः કાલિક લઘુભેજને, અતિ દૂર નહિ એટલે કે નજીકનજીકના અન્તરાવાસે (મુકામે) મધ્યાન્ડકાલિક વિશ્રામ અને સ્થાન રથાન પર મુકામ કરતે તે કેકયાદ્ધ જનપદની
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सुबोधिनी टीका सू. १०५ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ३१ नगर्या मध्यमध्येन अनुप्रविशति, यत्रोव जितशत्रो राज्ञोगृह यत्रोव वाह्या उपस्थानशाला तत्रौव उपागच्छति, तुरगान निगृह्णाति, रथं स्थापयति, रथात् प्रत्यवरोहति, तत् महाथ" यावत् प्राभृत गृह्णाति यत्रैव आभ्यन्तरिकी उपस्थानशाला यौव जितशत्रु राजा तत्रौव उपागच्छति, जितशत्रु राजान करतलपरिगृहीत यावत् कृत्वा जयेन विजयेन वर्द्ध यति, तन्महार्थ यावत् पाभूतम् उपनयति ॥ सू० १०५ ॥ जहां कुणाला जनपद-(देश) था, और जहां उसमें श्रावस्ती नगरो थी वहां पर आ पहुँचा, (सावत्थीए नयरीए मज्झमज्झेणं अणुपविसइ, जेणेव जिय सतुस्स रणो गिहे जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ) वहां आकर वह ठीक बीचोंबीच से होकर उस श्रावस्ती नगरी में प्रविष्ट हुआ और जहां जितशत्रु राजा का प्रासाद था, जहां बाह्य उपस्थानशाला थी चहां आया (तुरए णिगिण्हइ, रहं ठवेइ, रह ओ पच्चोरुहइ, तं महत्थं जाव पाहुडं गिण्हइ) वहां आकर उसने घोडों को रोका, रथ को खडा किया और फिर उस रथ में से वह नीचे उतरा और उसमें से उसने महार्थ साधक उस प्राभृत को लिया (जेणेव अभितरिया उवट्टाणसाला, जेणेव जियसात राया, तेणेव उवागच्छइ. जियसत्तु राय करयलपरिगहियं जाव कई जएण विजएण बद्धावेइ त महत्थं जाव पाहुड उवणेइ) और उठाकर जहां आभ्यन्तरिकी उपस्थानशाला थी, जहां जितशत्रु राजा था वहां पर आया. वहा आकर के उसने जितशत्रु राजा को दोनों हाथों की अंजलि बनाकर एवं उसे मस्तक पर रखकर जयविजय शब्दों का उच्चारण करते મધ્યમાં થઈને જ્યાં કુણાલા દેશ હતું અને તેમાં પણ જ્યાં શ્રાવસ્તી નગરી હતી त्या पडल्या. (सावत्थीए नयरीए मज्झमज्झोणं अणुपविसइ, जेणेव जियसत्तु. स्स रणो गिहे जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ) त्यां पडोयीन તે ઠીક મધ્યમાર્ગથી પસાર થઈને તે શ્રાવસ્તી નગરીમાં પ્રવિષ્ટ થયા. રામને જયાં જિતશત્રુ રાજાનો પ્રાસાદ (મહેલ) હતો, જયાં બાહ્ય ઉપસ્થાન શાળા હતી ત્યાં ગયે. (तुरए णिगिण्हइ रहं ठवेइ, रहाओ पच्चोरूहइ, तं महत्थं जाव पाहुड गिण्हर) ત્યાં પહોંચીને તેણે ઘોડાઓને રોક્યા, રથને ઉભે રાખે અને રથમાંથી નીચે ઉતરીને तो ते भार्थ साध लेट सीधी. (जेणेव अभितरिया उचट्ठाणसाला, जेणेव जियसत्तू राया, तेणेव उवागच्छइ, जियसतं रायं करयलपरिग्गहियं जाव कहजएणं विजएणं बद्धावेइ, तं महत्थं जाव पाहुडं उवणेइ) मने साधन ते જયાં આત્યંતરિકી ઉપસ્થાનશાળા હતી જ્યાં જિતશત્રુ રાજા હતો ત્યાં ગયે. ત્યાં જઈને તેણે જિત-રાજાને બન્ને હાથોની અંજલિ બનાવીને અને તેને
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राजप्रश्नीयसूत्रे टीका-'तएणं से' इत्यादि
ततः खलु स चित्रः सारथिः पदेशिना राज्ञा एवं पूर्वोक्तप्रकारेण उक्तः सन् हृष्ट यावत-यावत्पदेन-हृष्ठतुष्टचित्तानन्दितः प्रोतिमनाः परमसौमनस्थितो हर्ष वशविसर्प श्रदय: करतलपरिगृहीत दशनखं शिर आवत मस्तके अञ्जलिं कृत्वा एवं देवस्तथेति आज्ञाया विनयेन वचन प्रतिशृणोति' इति संग्रा. ह्यम् । अस्य वाक्यस्यार्थाऽस्यैव सूत्रस्य पश्चमसूत्र टीकातोऽवगम्य इति पतिश्रुत्य तत् महार्थ यावत् प्राभृतं गृह्णाति उपादत्ते, गृहीत्वा प्रदेशिनो राज्ञः अन्तिकात समीपात् पतिनिष्कामति, प्रतिनिष्क्रम्य श्वेतविकाया नगर्या मध्यहुए बधाया, और बधाकर उस महाप्रयोजनसाधक यावत् प्राभृत को इन्हें दिया, अर्थात् राजा को भेट किया।
टीकार्थ-प्रदेशी राजाने जब अपने चित्र सारथि से ऐसा कहा तब हृष्ट हुआ, तुष्ट हुआ एवं चित्त में आनन्दित हुआ प्रीतियुक्त मनवाला हुआ, परमसोमनस्थित हुआ हर्ष के वश से उसका हृदयहर्षित होने लग गया. उसी समय उसने करतलपरिगृहीत, दशनखसंयुक्त एवं शिर पर आवर्तवाली ऐसी अंजलि करके "हे देव ! आप जैसे कहते हैं सो मुझे प्रमाण है" इस प्रकार कह कर उनकी आज्ञा को बडे विनय के साथ स्वीकार किया, हृष्ट तुष्ट आदि पदों का अर्थ इस सूत्र के पांचवें सूत्र की टीका से जानना चाहिये । इस प्रकार अपने स्वामी की आज्ञा स्वी. कार करके उसने उस महाप्रयोजन साधक यावत् माभृत (भेट) को अपने हाथ में ले लिया और लेकर वह प्रदेशी राजा के पास से चला आया और श्वेतविका नगरी के मध्यभाग से होकर अपने घर पर आ गया वहां आकरके મસ્તકે મૂકી તે જયવિજ્ય શબ્દોનું ઉચ્ચારણ કરતાં વધામણી આપી અને ત્યારપછી તે મહાપ્રયજન સાધક યાવત ભેટને રાજાની સામે મૂકી–રાજાને તે ભેટ અર્પિત કરી.
ટકાથ–પ્રદેશી રાજાએ જયારે પિતાના ચિત્ર સારથિને આ પ્રમાણે કહ્યું ત્યારે હૃષ્ટ, તુષ્ટ, ચિત્તમાં આનંદિત અને પ્રીતિયુકત મનવાળે થયેલે તથા પરમસીમનસ્થિત થયેલે તે હર્ષાતિરેકથી અતીવ હર્ષિત થઈ ગયું. તેણે તરત જ કરતલ પરિગ્રહીત દશનખસંયુક્ત અને મસ્તક પર અંજલિ ફેરવીને કહ્યું-“હે દેવ! જે આ૫ આજ્ઞા કરે છે તે મારા માટે પ્રમાણરૂપ છે. આ પ્રમાણે કહીને તેણે રાજાની આજ્ઞાને સ્વીકારી લીધી. હુષ્ટ તુષ્ટ વગેરે પદનો અર્થ આ સૂત્રની પાંચમાં સૂત્રની ટીકામાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યું છે. આ રીતે પિતાના સ્વામીની આજ્ઞાને સ્વીકારી તેણે મહાપ્રયોજન સાધક યાવત્ ભેટને હાથમાં લીધી અને લઈને તે પ્રદેશ રાજા પાસેથી આવતે રહ્યો અને વિકાનગરીના મધ્યભાગમાં થઈને પિતાને ઘેર ગયે, ત્યાં પહોંચીને તેણે તે
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सुबोधिनी टीका. सू. १०५ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ३३ मध्येन व्यतिव्रजन् यत्रैव स्वक गृह तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य तत् महाथै यावत् पाभूत स्थापयति, स्थापयित्वा कौटुम्बिकपुरुषान् =भृत्यपुरुषान् शब्द यति, शब्दथित्वा एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत् उक्तवान्-भो देवानुप्रियाः! यूयं क्षिप्रमेव-शीघ्रमेव सच्छत्र यावत्-यावत्पदेन-सध्वज सघण्ट' सपतार्फ सतोरणवरं सनन्दिघोष सकिङ्किणीहेमजालपरिक्षिप्त हैमवतचित्रतिनिशकनकनियुक्तदारुक सुसंपिनद्धचक्रमण्डलधुराकं कालायससुकृतनेमियन्त्रकर्माणम् आकीर्ण वरतुरगसुसंप्रयुक्त कुशलनरच्छेकसारथि सुसंपरिगृहीतं शरशतद्वात्रिंशत्तूणपरिमण्डितं सकङ्कटावतंसकं सचापप्रहरणावरणभृतयोधयुद्धसज्जम् इति संग्राह्यम्, अर्थस्त्वेषां पदानां त्रिषष्टितमसूत्रतो द्वितीयाविभक्तिव्यत्ययेना. उसने उस महाप्रयोजन साधक यावत् प्राभृत को रख दिया, रखकरके फिर उसने नौकरचाकररूप कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, बुलाकर उसने उस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियो ! आपलोग शोघ्र ही छत्रसहित यावत्-ध्वजासहित, घण्टासहित, पताकासहित, उतमतोरणसहित, नन्दिघोषसहित, किङ्किणीसहित, इत्यादि ६२वें मूत्रोक्त विशेषणों से सहित रथको उपस्थित करो-६२वें सूत्र में उक्त पाठ जो यहां यावत् शब्द से गृहीत हुआ है द्वितीयाविभक्ति का व्यत्यय करके लिया गया है सो इस प्रकार से है___सध्वज, सघण्ट, सपताक, सतोरणवरं, सनन्दिघोषं, सकिङ्किणो हेमजालपरिक्षिप्त, हैमवतचित्रतिनिशकन कनियुक्तदारुक, सुसंपिनिद्धचक्र मण्डलधुराक, कालायससुकृतनेमियन्त्रकर्माणम्, आकीर्ण वरतुरगसुसंपयुक्त कुशलनरच्छेकसारथिसुसंपरिगृहीतं, शरशतद्वात्रिंशत णपरिमंडित, सकङ्कटाबतंसक, सचापप्रहरणावरणभृतयोधयुद्धसज्ज" इस समस्त पाठका अर्थ મહાજન સાધક યાવત્ ભેટને મૂકી દીધી. મૂકીને તેણે નેકર-ચાકર વગેરે કોટુંબિક પુરુષને બેલાવ્યા. અને બોલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું- હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે સૌ સત્વરે છત્રયુકત યાવત્ ધ્વજા સહિત, ઘંટા સહિત વગેરે ૬૨ માં સૂત્રોક્ત વિશેષણોથી યુકત રથને ઉપસ્થિત કરે. ૬૨ માં સૂત્રને પાઠ જે અહીં યાવત શબ્દ વડે ગૃહીત થયેલ છે તે બીજી વિભક્તિને વ્યત્યય (વ્યતિક્રમ) કરીને ગ્રહણ કરાવે છે તે मा प्रमाणे छ
"संध्वजं सघण्टं, सपताकं, सतोरण वरं. सनन्दिघोषं, सकिङ्किणीहेम. जालपरिक्षिप्त, हैमवतचित्रतिनिशकनकनियुक्तदारुकं, सुसंपिनिद्धचक्रमण्डलधुराकं, कालायससुकृतनेमियन्त्रकर्माणम् आकीर्ण वरतुर गमुसंप्रयुक्त, कुशलनरच्छेफसाथिसुसंपरिगृहीत. शरशतद्वात्रिंशत णपरिमंडितं, सकङ्कटा वतसकं, सचावग्रहरणावरणभूतयोधयुद्धसज्ज" मा पानो म २ प्रमाणे छ
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इसप्रकार से है - सध्वज- ध्वजा से युक्त है सघण्ट - दोनों ओर घण्टासहित है, सपताक पताका सहित है, स तोरणवरयुक्त - प्रधानतोरण सहित है, सनन्दिघोष - द्वादशप्रकार के बाजों से युक्त है. सकिङ्किणी हेमजालपरिक्षिप्त-क्षुद्रघंटिकावाले हेमजाल से परिवेष्टित है, हैमवतचित्रतिनिशकनक नियुक्त दारुकहिमालय पर्वत पर उत्पन्न हुई तथा विस्मयकारक ऐसी तिनिशवृक्ष विशेष की सुवर्ण शोभित लकड़ी से जो बनाने में आया है, सुसंपितद्वचक्रमंडलधुराकअच्छी तरह से जिसमें चक्रमण्डल एवं धुरा बांधे गये हैं, कालायस सुकृतने मियन्त्रकर्मा - उत्तमजाति के कृष्ण लोह से जिसमें नेमियंत्र कर्म की रचना की गई है - अर्थात् चक्रान्तभूस्पर्शिभाग की संघर्षण से रक्षा करने के लिये अरकों के ऊपर फल कमण्डलरूप आवरण जिसमें लगाया गया है, आकीर्ण वरतुरगसुसंप्रयुक्त आकीर्णजातिके उत्तम घोडे जिसमें जुते हैं, कुशलनरच्छेकसारथिसृसंपरिगृहीत निपुण पुरुषों में भी चतुरसारथीद्वारा अच्छी तरह से जो परिगृहीत हो रहा है, शरशत द्वात्रिंशतूणपरिमंडित - शतसंख्यक शरों के ३२ संख्यक बाणकोषों से जो परिमण्डित है, सचापशरप्रहरणावरणभृतयोधयुद्धसज्ज धनुषसहित बाणों से, कुन्त, तोमर, परशु आदि शास्त्रों से, एवं कवच आदि उपकरणों से जो परिपूर्ण है, युद्धकारी योद्धाओं के संग्राम के लिये सहवन-ध्वल सहित छे, संघटने तर घटायो छे, सचता-पता असहित छे, સ તારણવર યુકત-પ્રધાન તારણ સહિત છે, સનંદિઘાષ-બાર પ્રકારના વાજાએથી યુકત છે. સમિકિણી હેમજાલ પરિક્ષિપ્ત-ક્ષુદ્ર (નાની) ઘટિકાવાળા હેમાલથી પરિવેષ્ટિત છે, હૈમવત ચિત્રતિનિશકનકનિયુકત દારુક-હિમાલય પર્વત પર ઉત્પન્નથયેલી, વિસ્મય કારક તિનિશવૃક્ષ વિશેષની સુવર્ણ મંડિત લાકડીથી જે તૈયાર કરવામાં આવ્યેા છે. સુસ'પિનદ્ધચક્રમ'ડલ રાક જેમા ચક્રમંડળ અને ધુરાએ સુસ ંબદ્ધ છે, કાલાયસ સુકૃત નૈમિયત્રકમાં-ઉત્તમ જાતિના કૃષ્ણ લેહથી જેના નેમિયત્રની રચના કરવામાં આવી છે. એટલે કે ચક્રના જે ભાગ ભૂપ કરે છે તેને સંઘર્ષોંથી રક્ષવા માટે કૃષ્ણ લેહની પાટી જેના પર લગાડવામાં આવી છે. આકીર તુરંગસુસ'પ્રયુકત-આકી જાતિના ઉત્તમ ઘેાડાઓ જેમાં જોતરેલા છે, કુશલનર અેક સારથિ સુસ’પરિગૃહીત-નિપુણુપુરુ ષામાં પણ અતિનિપુણ સારથિ વડે જે સારી રીતે હાંકવામાં આવી રહ્યો છે,-શરશત દ્વાત્રિશત્તુણુપરિમ’ડિત-સે શરો અને બત્રીશ જેટલા તૂણાથી જે પમિતિ છે, સચાપશરપ્રહરણાઽકરણભૂતયેાધ યુદ્ધ સજજ-ધનુષ સહિત શાથી, કુંત, તેામર, પરશુ વગેરે શાસ્ત્રોથી, અને કવચ વગેરે ઉપકરણાથી જે પરિપૂર્ણ છે, યુદ્ધ ખેડનારાઓ
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सुबोधिनी टीका सू. १०५ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ३५ ऽवसे य इति । एवंविधं चातुर्घण्ट चतसृभिर्घण्टाभिः शोभितम् अश्वरथं युक्तमेव-योजितं कृत्वैव उपस्थापयत, यावत् प्रत्यर्पयत-मदीय निर्देशानुसारेण सर्व प्रकल्प्य मां सूचयत । ततः खलु ते कौटुम्बिकपुरुषाः तथैव यथा चित्र सारथिना समाज्ञतं तथैव तदीयवचनं प्रतिश्रुत्य स्वीकृत्य क्षिप्रमेव सच्छत्र यावत् युद्धसज्ज चातुर्वण्टम् अश्वरथं युक्तमेव उपस्थापयन्ति, ताम् आज्ञप्तिकाम् प्रत्यर्पयन्ति="भवन्निदेशानुसारेण सर्वमस्माभिः सम्पादित'-मिति चित्रसारथये निवेदयन्ति । ततः खलु स चित्रसारथिः कौटुम्बिकपुरुषाणाम् अन्ति के समीपे एतमर्थ 'रथोऽस्माभिः सज्जीकृतः' इत्येतद्रूपम् अथ" यावद् हृदयः अत्रेद संगृह्यते, तथाहि-'श्रुत्वा निशम्य हृष्टतुष्टचित्तानन्दितः पोतिमनाः परमसौमनस्यितो हर्षवशविसर्प वृदयः' इति । अर्थ स्त्वेषामुक्त एव, एतादृशः सन् स्नातः विहितस्नानः कृतबलिकर्मा-स्नाने कृते पशुपक्ष्या. द्यर्थ कृतान्नभागः, कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्तः कृतानि कौतुकमङ्गलान्येव जो सज्ज-उद्यती कृत है, चातुर्घट का अर्थ “चार घंटाओं से शोभित" ऐसा है तथा युक्त शब्द का अर्थ "घोडों ऐसे जुता हुआ" ऐसा है। जब तुम लोग मेरी आज्ञा के अनुसार सब काम कर लो तो हमे इसकी पीछे शीघ्र ही सूचना दो, इसके बाद उन कौटुम्बिक पुरुषों ने जैसा कि चित्र सारथि ने उन्हें कार्य करने के लिये आज्ञापित किया था वसा काम यथा शीघ्र करके उसे सूचना दे दी. "आपकी आज्ञा के अनुसार हमने सब काम कर लिया है', इस प्रकार से दी गई सूचना को सुनकर चित्र सारथि "हृष्ट तुष्ट चित्तानन्दितः, प्रीतिमनाः, परमसौमनस्थितः, हर्ष वशविसर्प हृदयः” इन यावतू पदगृहीत विशेषणों वाला हो गया. इन पदों का अर्थ कहा जा चुका है। उसने स्नान किया, बलिकर्म किया-पशु पक्षी માટે જે સજિત છે, ચાતુર્ઘટ-એટલે કે ચાર ઘટેથી જે સુશોભિત છે તેમજ યુકત એટલે કે જેમાં ઘડાઓ જોતરેલા છે. તમે જ્યારે મારી આજ્ઞા મુજબ કામ પુરૂં કરી લે ત્યારે મને કામ સંપૂર્ણ થઈ જવાની ખબર આપે. ત્યાર પછી કૌટું બિક પુરૂષોએ ચિત્ર સારથિની આજ્ઞા પ્રમાણે જ શીવ્ર કામ પૂરું કરી દીધું. અને તેને ખબર આપી કે-હે દેવાનુપ્રિય! તમારી આજ્ઞા મુજબ બધું કામ પૂરું થઈ ગયું છે. या प्रमाणेनी ५५२ सालमीन मित्रसाथि "दृष्टतष्टचित्तानन्दितः प्रीतिमनाः परमसौमनस्यितः हर्ष वशविसर्प द्धदय." यावत् पहथी गडीत त विशेषणेथी તે યુકત થઈ ગયે. આ પદને અર્થ પહેલાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યું છે. તેણે સ્નાન કર્યું. બલિકમ કર્ય-પશુપક્ષિ વગેરેને અન્નભાગ અર્પિત કર્યો. દુરવપ્ન વગેરેને નષ્ટ
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राजप्रश्नीयसूत्रे प्रायश्चित्तानि-दुःस्वप्नादिविघातार्थमवश्यकरणी यत्वाद् येन स तथा, तत् कौतुकानि-मषीतिलकादीनि, मङ्गलानि तु सिद्ध दध्यक्षतदुर्वाङ्कुरादीनि । तथासन्नद्धबद्धवर्मितकवच:-सन्नद्धं शरीरे आरोपणात. बद्ध-गाढतरबन्धनेन बन्धनात्, वर्मितम् अङ्गरक्षार्थ सुष्टुतया परिहितं कवचं येन सः, तथाउत्पीडितशरासनपट्टिका-उत्पीडिता प्रत्यश्वारोपणेन नम्रीकृता शरासनपट्टिका धनुर्दण्डो येन सः, अथवा-उत्पाडिता-स्कन्धे स्थापिता शरासनपट्टिका धनु
आदिकों के लिये अन्न का भाग किया, दुःस्वप्न आदिकों को नष्ट करने के लिये अवश्यकरणीय होने से कौतुक मङ्गलरूप प्रायश्चित्त किये मषी तिलक आदिकों का नाम कौतुक, सिद्धार्थ सरसो, दही. अक्षत दर्वाङ्कुर आदिकों का नाम मंगल है। बाद में उसने सन्नद्र, बद्ध, वर्मित कवच को पहिरा, पहिले उसे शरीर पर आरोपण किया. इसलिये वह कवच सन्नद्ध हुआ, बाद में वह गाढतर बंधन से जकडकर कस दिया गया. इससे बद्ध हुआ, तथा अगरक्षा के निमित्त ही यह धारण किया गया था. अतावर्मित हुआ "उत्पीडितशरासनपटिकः" से यह प्रकट किया गया है कि वह शरासनपट्टिका-धनुर्दण्ड जब प्रत्यंचा पर आरोपित किया गया तब झुक गया. अथवा उत्पीडित शब्द का अर्थ 'कंधे पर रखना भी है। तथाच प्रत्यंचा आरोपित की जाने से झुका दिया है, धनुप दण्ड जिसने अथवा स्कन्ध पर आरोपित किया है धनुदण्ड जिसने ऐसा वह चित्रसारथी हो गया तात्पर्य कहनेका यही है कि उस चित्रसारथीने अपने धनुष पर प्रत्यचा आरोपित करली, अथवा उसे हाथ में न लेकर कंधे पर हाँग लिया. अपने कंठ કરવા માટે અવશ્યકરણીય મંગલરૂપ પ્રાયશ્ચિત્તો કર્યા. મીતિલક વગેરેને કૌતુક, સિદ્ધાદ્ધ-સર્ષપ, દહીં, અક્ષત દુર્વાકુર વગેરેને મંગલ કહે છે. ત્યારપછી તેણે સન્નદ્ધ, બ, વર્મિત કવચ પહેલું. પહેલાં તે કવચનું તેણે શરીર પર આરેપણ કર્યું. એથી તે કવચ સન્નદ્ધ થયું ત્યારપછી ગાઢતર બંધનવડે કરવામાં આવ્યું એથી તે બદ્ધ થયું. અને અંગરક્ષક માટે તેને ધારણ કરવામાં આવ્યું. હતું એથી તે વમિત થયું. "उत्पीडितशरासनपट्टिक;" मेथी मा २५०८ ४२पार्भा माव्यु छ ते शासनपट्टिा (ધનુષદંડા) પર જયારે પ્રત્યંચા ચઢાવવામાં આવી તે શરાસન પટ્ટિક નમી ગઈ હતી. અથવા ઉત્પીડિત શબ્દનો અર્થ ખભા પર મૂકવું” પણ થાય છે. પ્રત્યંચા ચઢાવવાથી જેણે ધનુષદંડને નમાવી દીધા છે અથવા ખભા પર જેણે ધનુડ ધારણ કર્યો છે એવો તે ચિત્રસારથિ શોભવા લાગે. મતલબ છે કે તે ચિત્ર સારથિએ પિતાના ધનુષ પર પ્રત્યંચા ચઢાવી લીધી હતી. અથવા તે ધનુષને હાથમાંથી ખભા પર ભેરવી દીધું
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सुबोधिनी टीका सू.१०५ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशोराजवर्णनम् ३७ दण्डो येन सः, तथा-पिनद्धय॒वेयविमलवरचिह्नपट्टः-पिनद्ध परिहित अवेयं= ग्रीवाभूषणं विमलवरचिह्नपर्ट, येव सः, तथा-गृहीतायुधप्रहरणः-गृहीतानि आयुधानि-धनुरादीनि प्रहरणानि-खगादीनि च येन स तथा-धृतशस्त्रास्त्र इत्यर्थः, एवम्भूतः सन् तत् महार्थ यावत् प्राभृत गृह्णाति, गृहीत्वा यत्रैव चातुर्घण्ट: अश्वरथस्तत्रैव उपागच्छति उपागत्य चातुघण्टमू अश्वरथं दूरो हति-आरोहति । ततः सः सन्नद्ध यावद् गृहीतायुधमहरणैः बहुभिःपुरुषैः साद्ध-सह संपरिहतसंवेष्टितः सकोरण्टमाल्यदाम्ना-कोरण्टपुष्पमालाविभूषितेनछत्रेण ध्रियमाणेन सह महाभटचटकरप्रकरवृन्दप रक्षिप्त:-महाभटानां ये चटकर प्रकरा: विस्तृतसमूहास्तेषा यद् वृन्दं तेन परि क्षप्तः परिवेष्टितःसन स्वात्= स्वकीयाद् गृहाद् निगच्छति-निस्सरति, निगत्य श्वेतविकाया नगर्या मध्यमध्येन निर्गच्छति । इत्थं निर्गतःस सुखैः सुखकरै वासै: रात्रिनिवासै मात. में उसने ग्रीवा का आभूषणरूप ग्रैवेय हार पहिरा और सुन्दर २ चित्रों से सुशोभित सुन्दर वस्त्र भी पहिरे. धनुष आदिकों को यहां आयुध पदसे
और तलवार आदिकों को प्रहरण पद से गृहात किया गया है. इस तरह उसने आयुध और प्रहरणों को अपने साथ ले लिया. इस प्रकार सब तरह से तैयार होकर वह मामृत को साथ में लेकर के जहां चातुघट अश्वरथ था वहां पर आया, वहां आकर वह उस रथ पर बैठ गया. रथ में बैठ के ही वह सन्नद्ध हुए यावत् गृहोतायुधपहरणवाले अनेक पुरुषों से संपरिवृत हो गया. छत्रधारी पुरुषने उसके ऊपर कोरण्टपुष्पों की मालाओं से सुशोभित छत्र तान दिया. इस तरह महासुभटों के विस्तृत समूह के वृन्द से परिवेष्टित होकर वह अपने घर से चला. एवं श्वेतविकानगरी के ठीक मध्यभाग से होता हुआ निकला. कितनेक सुखकरवासो से હતું. ગળામાં તેણે આભૂષણરૂપ રૈવેયક-હાર પહેર્યો હતો અને સુંદર ચિત્રોથી સુશેભિત સુંદર વસ્ત્રો પણ પહેર્યા હતાં. ધનુષ વગેરેને અહીં આયુધપદ અને તલવાર વગેરેને પ્રહરણ પદથી ગ્રહણ સમજવાં. આ રીતે તેણે પોતાના આયુધો અને પ્રહરણને પિતાના હાથમાં લીધા. આ પ્રમાણે બધી રીતે તૈયાર થઈને તે ભેટને લઈને જ્યાં ચાતુર્ઘટ અશ્વરથ હતો ત્યાં ગયા. ત્યાં જઈને તે રથ પર સવાર થયે. રથ પર સવાર થતાંજ તે સન્નદ્ધ થયેલા યાવત્ ગૃહીતાયુધ પ્રહરણવાળા અનેક પુરૂષથી તે સંપરિવું થઈ ગ. છત્રધારી પુરૂષએ તેના ઉપર કેરંટ પુષ્પોની માળાથી સુશોભિત છત્ર તાણી દીધું. આ પ્રમાણે તે મહાસુભટના વિસ્તૃત સમૂહના વૃન્દથી પરિષ્ટિત થઈને તે પિતાના ઘેરથી રવાના થશે અને તવિકા નગરીના ઠીક મધ્યભાગમાં થઈને તે કેટલાક સુખકરવાસે, રાત્રે મુકામ કરીને સવારે ત્યાંથી રવાના થતી વખતે કરેલા પ્રાતઃ
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= प्रातःकालिकलघु भोजनः तथा नातिविकृष्टैः = नातिदूरें: अन्तरावासैः मध्याह्नकालिक विश्रामस्थानः वसन् वसन् केकयार्द्धस्य जनपदस्य मध्यमध्येन यत्रैव कुणाला जनपदो यत्रैव श्रावस्ती नगरी तत्रैव उपागच्छति, श्रावस्त्यां नगर्यां मध्यमध्येन अनुप्रविशति, अनुप्रविश्य यत्रव जितशत्रो राज्ञो गृह यत्रैव बाह्या उपस्थानशाला तत्रैव उपागच्छति, तुरगान् = अश्वान् विनिट ह्णाति = निरुणद्धि, रथं स्थापयति रथात् प्रत्यवरोहति = अवतरति तत् महार्थ यावत् प्राभृतं गृहीत्वा यत्रैव आभ्यन्तरिको उपस्थानशाला, यत्रैव जितश राजा तत्रैव उपागच्छति जितशत्रु नं करतलपरिगृहीतं यावत् कृत्वा जयेन विजयेन वर्द्धयति, तद् महार्थ यावत् प्राभृतम् उपनयति=तस्मै प्रयच्छति ।। सू० १०५ ॥
रात्रियों में ठहरने से प्रातराशों से - प्रातःकालिक लघुभोजनरूप कलेवा से तथा बहुत अधिक दूर के नहीं ऐसे मध्याह्नकालिक विश्रामों से युक्त हुआ वह जगह २ ठहरता - केकयार्द्ध जनपद के पास आगया, उसके मध्य मध्य से होकर वह निकला और जहां कुणाला जनपद-देश था, और उसमें भी जहां श्रावरती नगरी थी वहां आकर वह उसके ठीक बीचों बीच से होकर उसमें प्रविष्ट हुआ. प्रविष्ट होकर फिर वह वहां गया जहां जितशत्रू राजा का राजमहल था, और उसमें भी जहां बाह्य उपस्थानशाला थी. वहां पहुँचते ही उसने घोड़ों को खड़ा कर दिया और रथ को चलने से रोक दिया. बाद में वह उस रथ से नीचे उतरा और प्राभृत को साथ लेकर वह आग्यन्तरिकी उपस्थानशाला में जहां जितशत्रू राजा थे. वहां पर पहुँचा, वहां पहुंचते ही उसने जितशत्र राजा को दोनों हाथ जोडकर बडे विनय प्रणाम किया और जय विजय
કાલિક અ૫ભાજનો, (નાસ્તાએ) તથા વધારે દૂર નહિ પણ નજીક નજીક જ મધ્યાજ્ઞકાલિક વિશ્રામા કરતા કરતા સ્થાન સ્થાન પર પડાવ નાખતા તે કેકયાદ્ધ જનપદની નજીક પહેાંચ્યા. અને ત્યારપછી તે જનપદની મધ્યમાં થઇને જયાં કુણાલા દેશ હતા અને જયાં શ્રાવસ્તીનગરી હતી ત્યાં જઈને તે ઠીક નગરીના મધ્યમાથી જ્યાં જિતશત્રુ રાજાનો રાજમહેલ હતા અને તેમાં પણ જયાં માહ્ય ઉપસ્થાનશાળા હતી ત્યાં પહોંચ્યા અને પહેાંચતાં જ તેણે ઘેાડાઓને ઉભા રાખ્યા અને રથને આગળ જવાથી રાકયા. ત્યારપછી તે રથમાંથી નીચે ઉતર્યાં અને ભેટને લઈને આભ્ય તરિકી ઉપસ્થાન શાળામાં જયાં જિતશત્રુ રાજા હતા ત્યાં ગયા. ત્યાં પહોંચીને તેણે જિતશત્રુ રાજાને બન્ને હાથ જોડીને પ્રણામ કર્યા. અને જયવિજય શબ્દોનું ઉચ્ચારણ કરીને
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सुबोधिनी टीका. सूत्र १०६ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ३९
मूलम्--तएणं से जियसन्त राया चित्तस्स सारहिस्स तं महत्थ जाब पाहुड पडिच्छइ, चित्तं सारहिं सकारेइ सम्माणेइ पडिविसज्जेइ, रायमग्गमोगाढं च संवासं दलयइ । तए णं से चित्त सारही विसज्जिए समाणे जियसत्तुस्स अतियाओ पडिनिक्खमइ, जेणेव बाहिरिया उवटाणसाला जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवाग. च्छइ, चाउग्घट आसरहं दुरूहइ, सावत्थीए णयरीए मज्झमझेणं जेणेव रायमग्गमोगाढे आवासे तेणेव उवागच्छइ, तुरए निगिण्हइ, रहं ठवेइ, रहाओ पञ्चोरुहइ, हाए कयबलिकम्मे कयकोउयमंगल पायच्छित्ते सुद्धप्पावेसाइ मंगल्लाइं वत्थाई पवरपरिहिए अप्प. महग्घाभरणालंकियसरीरे जिमिय भुत्तरागए वियणं समाणे पुवावरण्हकालसमयंसि गंधव्वेहि य गाडगेहि य उवनचिजमाणे उवनचिजमाणे उवगाइज्जमाणे २ उवलालिज्जमाणे २ इ8 सदफरिस-रस-रूव-गंधे-पंचविहे माणुस्सए कामभोगे पञ्चणुभवमाणे विहरूइ ॥ सू० १०६
छाया-ततः खलु स जितशत्र राजा चित्रस्य सारथेस्तन्महार्थ यावत् प्राभृत प्रतीच्छति चित्र सारथि सत्कारयति सम्मानयति प्रतिविसर्जयति, शब्दों का उच्चारण करते हुए उन्हें बधाई दी. बाद में लाये हुए उस महार्घ आदि विशेषणों वाले प्राभृत को उनके लिये अर्पण किया ।मू.१०५।
'तए णं से जियसत्तूराया' इत्यादि।
सूत्रार्थ--(तएणं से जिसन राया चित्तस्स सारहिस्स तं महत्थ जाव पाहुडं पडिच्छइ) तब जितशत्रु राजाने चित्र सारथि से दिये गये महार्थ તેમણે વધામણી આપી. ત્યારપછી તેણે મહાઈ વગેરે વિશેષણવાળી ભેટ રાજાને સમર્પિત કરી. ૧૦૫
'त एण से जियसत्त राया' इत्यादि ।
सूत्रार्थ-(तए ण से जियसन तरस सारहिस्स त महत्थं जाव पाहुड पडिच्छइ) त नये थिसाथि पडे अतिशयेही भाडा वगैरे
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___ राजप्रश्नीयसूत्रे राजमार्गावगाच तस्य आवासं ददाति । ततः खलु स चित्रः सारथिः विम. र्जितःसन जित शत्रोः अन्तिकात प्रतिनिष्क्रामति, यत्र व बाह्या उपस्थान शाला यत्र व चातुघण्टः अश्वरथस्तत्रैव उपागच्छति चातुघण्टम् अश्वरय दुरोहति श्रवस्त्या नगर्या मध्यमध्येन यत्र व राजमार्गावगाढ आवासस्तत्रैव उपागच्छति, तुरगान् निगृह्णाति, रथ स्थापयति. रथात प्रत्यवरोहति, स्नातः आदि विशेषणों वाले प्राभृत को जो कि प्रदेशी राजाने प्रेषित किया था. ले लिया. (चित्त सारहिं सकारेइ, मम्माणेइ, पडिविसज्जेइ ) फिर कुशलप्रश्नादि पूछकर उसका सत्कार किया, आसन आदि देकर उसका सन्मान किया और बाद में उसे विसर्जित कर दिया अर्थात विश्राम करने के निमित्त भेज दिया. (रायमग्गमोगाढ' च संवासं दलयइ) उसे राजमार्ग के पास स्थित गृह में ठहराया गया (तए णं से चित्ते साही विसजिए समाणे जियसत्तस्स अंतियाओ पडि निक्खमइ-जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ) अतः वह चित्र सारथि जितशत्रु राजा द्वारा विसर्जित किया गया होकर उनके पास से चला आया. और जहां बाह्य उपस्थानशाला थी, जहां चातुर्घट अश्वरथ था. वहां आकर वह (चाउग्घंटं आसरहं दुरूहइ) उस चातुघट रथ पर सवार हो गया (सावत्थीए गयरीए मज्झ मज्झेणं जेणेव रायमग्गमोगाढे आवासे तेणेव उवागच्छइ) और श्रावस्ती नगरी के बीचो बीच से होता हुआ जहां राजमार्ग पर स्थित आवास-गृह था वहां पर आया. (तुरए विशेषणेवाजी लेटने-ॐ ने प्रदेशी २० भोसी छती-स्वी10 सीधी. (चित्त सारहिं सकारेइ, सम्माणेइ, पडिविसज्जेइ) त्या२५छी पुशलता विष समाया। પૂછીને તેને સત્કાર કર્યો આસન વગેરે આપીને તેનું સન્માન કર્યું અને ત્યારપછી तेने विसर्जित ४२ वीपी. सेट विश्राम ४२१॥ भाट भोली सीधी. (रायमग्गमोगाढ च संवासं दलयइ) तेने २००४मानी पासेन॥ ५२मा उता। माथ्यो. (तए णं से चित्ते सारही विसज्जिए समाणे जियसतुस्स अंतियाओ पडि निक्खमइजेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ) ત્યારપછી જિતશત્રુ રાજા પાસેથી વિસર્જિત કરાયેલે તે ચિત્રસારથી ત્યાંથી રવાના થયે અને જયાં બાહ્ય ઉપસ્થાનશાળા હતી, જ્યાં ચાતુર્ઘટ અધરથ હતું ત્યાં આવ્યા त्यां मावीन ते (चाउग्घंटेआसरहं दुरूहइ) यातुध २५ ५२ सवार थय।. (सावत्थोए णयरीए मज्झमज्झेणं जेणेव रायमग्गमोगाढे आवासे तेणेव उवागच्छइ) અને શ્રાવસ્તીનગરીના મધ્યમાં થઈને જ્યાં રાજમાર્ગ પર સ્થિત આવાસ-ગૃહ-હતું
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सुबोधिनी टीका सू. १०६ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ४१ कृतबलिकर्मा कृतकौतुकमगलपाय श्चत्तः शुद्धप्रवेश्यानि मङ्गल्यानि वस्त्राणि प्रवरपरिहितः अल्पमहर्घाभरणालङ्कृतशरीरो जिमितमुकोत्तरागतोऽपिच खलु सन् पूर्वापराह्नकालसमये गन्धवै श्च नाटकैश्च उपनय॑मान २ उपगीयमान उपगीयमान उपलाल्यमानः २ इष्टान् शब्द-स्पर्श-रस-रूपगन्धान् पश्च. विधान मानुष्यकान कामभोगान प्रत्यनुभवन् विहरति ॥ सू० १०६ ॥ निगिहिइ, रहं ठवेइ, रहाओ पच्चोरुहइ) वहां आकर के उसने घोडोंको रोका रथ को खडा किया और फिर रथ से नीचे उतरा (हाए कय. बलिकम्मे, कयकोउयमंगलपायच्छित्ते सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाई वत्थाई पवरपरिहिए) बाद में उसने स्नान किया. बलिकर्म-वायसादिकों के लिये अन्न का भाग दिया, दुःखस्वप्नों को नाश करने के लिये कौतुक, मंगलरूप प्रायश्चित्त किये, बाद में शुद्ध राजसभा में प्रवेश योग्य ऐसे माङ्गलिक वस्त्रों को रीति के अनुसार पहिरा (अप्पमहग्धाभरणालंकिय. सरीरे) फिर उसने अल्प भारवाले बहुमूल्य आभरणों से अपने शरीर को आलंकृत किया और (जिमियभुत्तरागए वियणं समाणे) जीमने के बाद अर्थात् भोजन करके-फिर वह उपवेशनस्थान में आ गया (पुव्वावरण्हकालसमयंसि) वहां दिवस के तृतीय प्रहर में (गंधव्वेहिं य गाडगेहि य उवण चिजमाणे, उवणचिजमाणे उवगाइजमाणे २ उवलालि. जमाणे २) गीतों द्वारा और नाटकों द्वारा बार २ अपना २ विषय सिखाकर, अपना २ विषय सुनाकर वारंवार रिझाया गया, बारबार विलास. त्यो गयो. (तुरए निगिहिइ, रहं ठवेइ, रहाओ पचोरुहइ) त्यां पायीने ते०४ ઘોડાઓને ઉભા રાખ્યા રથ ભાવ્યું. અને ત્યારપછી તે રથમાંથી નીચે ઉતર્યો— (हाए कयबलिकम्मे, कयको उपमंगलपायच्छिशे मुद्धप्पावेसाई मंगल्लाई वत्थाइ पवर परिहिए) त्या२६ तेणे स्नान ४-सिम -- ४८ वगैरेने અન્ન ભાગ આખે દુઃસ્વપ્નને નષ્ટ કરવા માટે કૌતુકર્મંગલરૂપ પ્રાયશ્ચિત્ત કર્યા. त्या२पछी २०४समामा सामे मेवा २१२७ मांग पत्रो तेो धा२६५ ४ा. (अपमहग्याभरणालंकियसरीरे) त्या२मा तेणे मला२an मभूक्ष्य माथी पोताना २२ने शायु अने (जिमियभुत्तुत्तरागए वि य णं समाणे) भ्या पछी मेट सीन ते पवेशन स्थान त२५ गया. (पुत्वावरण्हकाल. समयंसि) त्या सिना alan पसारमा (गंधवे हि य णाडगेहि य उवणच्चिज्जमाणे, उवणचिज्जमाणे उवागाइज्जमाणे-२ उवलालिज्जमाणे २) त्यां गातो पडे, નાટક વડે વારંવાર પિતાને વિષય સિખાવેલે પોતાનો વિષય સંભળાવીને પ્રસન્ન
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राजप्रश्नीयसूत्रे 'तएणसे' इत्यादि।
टीका-ततःखलु स जितशत्रू राजा चित्रस्य सारथेः सकाशात् पदेशिराजप्रेषित तद् महार्थ यावत् पाभृत प्रतीच्छतिगृहाति, चित्र सारथिं सकार यति-कुशलप्रश्नादिना, सम्मानयति आसनप्रदानेन, ततस्तं पति विसर्जयति विश्रामार्थ संप्रेषयति, तथाच राजमार्गावगाढ राजमार्गसमीपस्थितम आवासंगृहं तस्य तस्मै ददाति । अत्र सम्बन्धसामान्ये षष्ठी। ततः खलु स चित्र: सारथिः जितशणा राजा विसर्जितः सन् तस्य जितशत्रू राज्ञः अन्तिकात प्रतिनिष्क्रमति-निर्गच्छति, यव बाह्या उपस्थानशाला, यत्र व चातघण्टः अश्वरथः तत्रव उपागच्छति, उपागत्य चातुर्घण्टम् अश्वरथं दूरीहति अरोहति, श्रावस्त्या नगर्या मध्यमध्येन यत्र व राजमार्गावगाढ-आवासः, तत्र व उपागच्छति, तुरगान् निगृह्णाति-निरुणद्धि, निगृह्य रथं स्थापयति, स्थापयित्वा रथात् प्रत्यवरोहति अवतरति । ततः स्नातः कृतस्नानः कृतबलिकर्मा-स्नाने कृते पशुपक्ष्याद्यर्थ कृतान्नभागः, कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्तःकृतानि कौतुकमङ्गलान्येव प्रायश्चित्तानि दुःस्वप्नादि विघातार्थमवश्यकरणी यत्वाद् येन स तथा, तत्र-कौनुकानि-मपीतिलकानि, मङ्गलानि तुसिद्धार्थ सषपदध्यक्षतदूर्वाश्रादीनि । तथा शुद्धपावेश्यानि-राजसभापवेशार्हाणि मङ्गल्यानिम्माङ्गलिकानि वस्त्राणि प्रवरपरिहित: यथारीतिपरिघृतः अल्पमहर्घाभरणालङ्कतशरीर:-अल्पानिस्तोकभाराणि यानि महा_णि बहुमूल्यानि आम रणानि त: अलङ्कृत-सुशोभितं शरीरं यस्य सः, तथा जिमितभुक्तोत्तरा. गतः जिमित: कृतभोजनः, सचासौ भुक्तोत्तरागत भोजनोत्तरकालम् उपवे. शनस्थाने समागतश्चेति तथाभूतोऽपि च खलु सन् पूर्वापराङ्गकालसमये पूर्व वासौ अपराह्नश्चेति पूर्वापराह्नः, स एव कालसमय:-कालोपलक्षितः समयस्तस्मिन्-दिवसस्य तृतीये पहरे गान्धर्वे श्व-गीतैश्च नाटकैश्च उपनत्ययुक्त बनाया गया वह चित्र सारथि (इट्टे सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोगे पञ्चणुभवमाणे विहरइ ) इष्ट-अभिलषित-शब्द, स्पर्श रस, रूप गध इन पांच प्रकार के मनुष्यभव संबंधी कामभागों को अनुभवित करने लगा। टीकार्थ इसका स्पष्टहै ॥ १०६ ॥ शयेतो, वारवार वासयु४त मनायो ते चित्र साथि (इढे सद-फरिस-रसख्व-गघे पंचविहे माणुस्सए कामभोगे पञ्चणुभवमाणे विहरइ) 2-मलि. લષિત–શબ્દ, સ્પર્શ, રસ, રૂપ, ગંધ આ પાંચ જાતના મનુષ્યભવ સંબંધી કામ ભોગોને ભેગવવા લાગ્યું. ટીકાર્થ –આ સૂત્રને સ્પષ્ટ છે. ૧૦૬
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सुबोधिनी टीका सू. १०६ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ४३ मानः उपनय॑माना=नृत्त दर्य मानो दर्यमानः उपगीयमान: उपगीयमानःगान श्राव्यमाणः श्राव्यमाणः, अतएव-उपलाल्यमानः२ विलास्यमानः२ इष्टान्-अभिलषितान शब्द-स्पर्श-रस-रूप-गन्धान पञ्चविधान् मानुष्यकान= मनुष्यसम्बधिनः कामभोगान प्रत्यनुभवन् विहरति ।मु० १०६॥
मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं पासावञ्चिजे केसी नाम कुमारसमणे जाइसंपण्णे कुलसंपण्णे बलसंपण्णे रूवसंपण्णे विणय. संपण्णे नाणसंपण्णे दंसणसंपण्णे चरित्तसंपण्णे लज्जासंपण्णे ला. घवसंपण्णे लज्जालाघवसंपण्णे ओयं सी तेयसी वच्चसी जसंसी जियकोहे जियमाणे जियमाए जियलोहे जियणिदे जिइंदिए जिय. परीसहे जीवियासमरणभयविष्पमुक्के तवप्पहाणे गुणप्पहाणे करणप्पहाणे चरणष्पहाणे निग्गहप्पहाणे निच्छयपहाणे अजवप्पहाणे मद्दव पहाणे लाघवत्पहाणे खंतिप्पहाणे गुत्तिप्पहाणे मुत्तिप्पहाणे विजप्पहाणे मंतप्पहाणे बंभप्पहाणे वेयप्पहाणे नयप्पहाणे नियमपहाणे सच्चप्पहाणे सोयप्पहाणे नाणप्पहाणे दसणप्पहाणे चरित्तप्पहाणे ओराले चउद्दसपुव्वी चउणाणोवगए पंचहि अणगारसएहिं सद्धि सपरिवुडे पुत्वाणुपुटिव चरमाणे गामाणुगाम दूइज्जमाणे सुहं. सुहेणं विहरमाणे जेणेव सावत्थी णयरी जेणेव कोट्रए चेइए तेणेव उवागच्छइ, सावत्थी नयरीए बहिया कोटए चेइए अहापडिरूव उग्गहं उग्गिणिहत्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ सू०१०७॥
छाया-तस्मिन् काले तस्मिन समये पार्थापत्यीयः केशोनामकुमार. श्रमणो जातिसम्पन्नः कुलसम्पन्नो बलसम्पन्नो रूपसम्पन्नो विनयसम्पन्नो
'तेण कालेणं तेणं समएणं' इत्यादि । सूत्रार्थ-(तेण कालेण तेण समएण) उस काल और उस समय 'तेणं कालेणं तेणं समएण' इत्यादि । सूत्रार्थ:-(तेण कालेण तेण समएण) ते णे मने ते सभये (पासा
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_ राजप्रश्नीयसूत्रे ज्ञानसम्पन्नो दर्शनसम्पन्न:चारित्रसम्पन्नो लज्जासम्पन्नो लाधवसम्पन्नो लज्जा. लाघवसम्पन्न ओजस्वी तेजस्वी बर्चस्वी यशस्वी जितक्रोधो जितमानो जित मायो जितलोभो जितनिद्रो जितेन्द्रियो जितपरीघहो जीविताशामरणभयविषमुक्तः तपःप्रधानो गुणप्रधानः करणप्रधानः चरणप्रधानों निग्रहप्रधानो निश्चयप्रधान: में (पासावचिज्जे) पापित्यीय-भगवान् पार्श्वनाथ की शिष्य परम्परा में स्थित (केसी नाम कुमारसमणे) केशी नामके कुमार श्रमण-जो कि कुमार अवस्था में ही दीक्षित हुए थे और जो (जाइस पन्ने) जातिसंपन्न थे, (कुलसपण्णे) कुलसौंपन्न थे, (बलसंपण्णे) बल संपन्न थे (रूवसंपन्ने) रूप संपन्न थे, (विणयसपन्ने) विनयसपन्न थे (नाणसंपण्णे) ज्ञान सपन्न थे, (दसणसंपन्ने ) दर्शन संपन्न थे (चरित्तसंपन्ने) चारित्र संपन्न थे, (लज्जास पन्ने) लज्जा संपन्न थे (लाघवस पन्ने ) लाघव संपन्न थे (लज्जा लाघवस पन्ने) ल जा एवलाघव से संपन्न थे (ओय सी, तेयं सी, बच्चसी, जसंसी) ओजस्वी थे, तेजस्वी थे, वर्चस्वी थे, यशस्वी थे, (जियमाणे) जितमाम थे (जियमाए) जितमाय थे (जियलोहे, जिणिद्दे जिदिए) जित लोभ थे, जितनिद्र थे, जित इन्द्रिय थे. (जियपरीसहे. जीवियासमरणभयविप्पमुक्के) जीने की आशा से और मरण के भय से विषमुक्त थे (तवष्पहाणे गुणप्पहाणे) तपप्रधान थे, गुणप्रधान थे (करणप्पहाणे चरणप्पहाणे निग्गहष्पहाणे, निच्छयप्पहाणे, अजचप्पहाणे, महवप्पहाणे, लाघवप्पहाणे वञ्चिज्जे) पापित्यीय-मगवान पार्श्वनाथनी शिष्य ५२५२राम स्थित (केसी नाम कुमारसमणे) 3थी नाम भार श्रम २ मा२ १२थामi walक्षत या डता-मने रे (जाइसंपन्ने) onliसपन्न ता. (कुलसंपण्णे) सपन्न (ता. (बलसंपण्णे) १८ सपन्न ता. (रूवस पण्णे) ३५सपन्न (ता. (विणयस पन्ने) विनय सपन्न ता. (नाणसपण्णे) ज्ञान सपन्न (ता. (दसणस पन्ने) ४शन सपन्न हता. (चरित्तसपण्णे) यारित्र संपन्न हता (लज्जासपण्णे) aaron सपन्न हुता. (लाघवसंपण्णे) साधन सपन्न ता. (लज्जालापवस पन्ने) Horon मने साधन सपन्न (ता. (ओयंसी. तेय सी, वच्चंसी, जससी) मा०८ स्वी हता, ते४२वी उता, वयस्वी उता, यशस्वी उता. (जियकोहे) Lord ोधी हता. (जियमाणे) हितमान ता. (जियमाए) तिभाय ता. (जियलोहे जियणिद्दे जिइंदिए) for ale ता, तिनद्र ता, तेन्द्रिय ता. (जियपरोसहे, जीबीयाममरणभयविप्पमुक्के) वानी २२॥ भने भान भयथी विप्रभुत ता. (तवपहाणे गुणष्पहाणे) त५ प्रधान हता, गुए प्रधान उता. (करणप्पहाणे, चणरप्प
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सुबोधिनी टीका. सू. १०७ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ४५
आर्जवप्रधानो माईवधानो लाघवप्रधानः शान्तिप्रधानो गुप्तिप्रधानो मुक्ति प्रधानो विद्या धानो मन्त्रप्रधानो ब्रह्मप्रधानो वेदप्रधानो नयप्रधानो नियमप्रधानः सत्यप्रधानः शौचमधानो ज्ञानप्रधानो दर्शनप्रधानः चारित्रप्रधान: उदारः चतुर्दशपूर्वी चतुर्ज्ञानोषगतः पञ्चभिः अनगारशतैः साद्ध संपरिकृतः पूर्वानुपूर्ध्या चरन् ग्रामानुग्राम द्रवन् सुखसुखेन विहरन् यत्रैव श्रावस्ती गरी यत्रव कोष्ठक चौत्य तत्रैव उपागच्छति, श्रावस्तीनगर्या बहिः कोष्ठके खतिष्पहाणे, मुत्तिप्पहाणे, गुत्तिप्पहाणे विजप्पहाणे, मंतप्पहाणे, वेय. प्पहाणे) करणप्रधान थे, चरण प्रधान थे, निग्रह प्रधान थे, निश्चयप्रधान थे आर्जवप्रधान थे, मार्दव प्रधान थे, लाघवप्रधान थे, क्षान्तिपधान थे मुक्तिप्रधान थे, गुप्तिमधान थे, विद्या प्रधान थे, मंत्रप्रधान थे, ब्रह्मप्रधान थे, वेद प्रधान थे, (नयप्पहाणे नियमप्पहाणे, सच्चप्पहाणे, सोयप्पहाणे, नाणप्पहाणे, दंसणप्पहाणे चरित्तप्पहाणे, ओराले चउद्दसपुची चउणाणो. बगए) नयप्रधान थे, नियमप्रधान थे, सत्यप्रधान थे, शौचमधान थे, ज्ञान प्रधान थे, दर्शन प्रधान थे, चारित्र प्रधान थे, उदार थे. चौदह पूर्वके धारी थे, और मतिज्ञान आदि चार ज्ञान वाले, शे (पंचहि अणगारसएहिं संपरिवुडे) पांचसौं अनगारों के साथ (पुव्वाणुपुटिव चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे मुहं सुहेणं विहरमाणे जेणेव सावित्धी णयरी, जेणेव कोहए चेइए, तेणेव उवागच्छइ) तीर्थंकर परम्परा के अनुसार विहार करते हुए, हाणे, निग्गहप्पहाणे, निच्छयपहाणे, अज्जवष्पहाणे, महवप्पहाणे, लायवप्पहाणे, खतिप्पहाणे, मुत्तिप्पहाणे, गुत्तिप्पहाणे, विजप्पहाणे, मतप्पहाणे वेयप्पहाणे) ४२९ प्रधान हता, २२ प्रधान ता, निड प्रधान ता, निश्चय પ્રધાન હતા, આર્જવ પ્રધાન હતા, માવ પ્રધાન હતા, લાઘવ પ્રધાન હતા, ક્ષાંતિપ્રધાન હતા, મુકિત પ્રધાન હતા, ગુપ્તિ પ્રધાન હતા, વિજય પ્રધાન હતા, મંત્ર પ્રધાન डता, ब्रह्म प्रधान उता, वे प्रधान हता. (नयप्पहाणे, नियमप्पहाणे, सच्चप्पहाणे सोयप्पहाणे, नाणप्पहाणे, दंसणप्पहाणे, चरित्तप्पहाणे, ओराले चउद्दसपुग्धी चउणाणोवगए) नय प्रधान त, नियम प्रधान हता, सत्य प्रधान ता, शौम्य પ્રધાન જ્ઞાન પ્રધાન હતા, દર્શન પ્રધાન હતા, ચારિત્ર પ્રધાન હતા, ઉદાર હતા, यौवना पारी डा भने भतिज्ञान वगेरे यार ज्ञानवाण ता. (पंचहिं अण. गारसएहिं सद्धिं सपरिबुडे) पांयस मनाशनी साथै (पुब्वाणुपुन्धि चर माणे गामाणुगाम दुइज्जमाणे मुंह सुहण विहरमाणे जेणेव सावत्थी णयरी जेणेव कोट्ठए चेइए, तेणेव उवागच्छइ) ताथ ४२ ५२५२। भुस विडा२ ४२ता ४२i
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राजप्रश्नीयसूत्रे चे त्ये यथाप्रतिरूपम् अवग्रहम् अवगृह्य संयमेन तपसा आत्मान भावयन् विहरति ॥ सु. १०७ ॥
टीका—'तेण कालेणं' इत्यादि
तस्मिन् काले तस्मिन् समये पावा॑पत्यीयः भगवतः पार्श्वनाथस्य शिष्यपरम्परायां स्थितः केशीनामकुमारश्रमणः-कुमारश्चासौ श्रमणश्वोति, कौमार्यावस्थायां प्रवजित इत्यर्थः, स कीदृशः ? इत्याह-जातिसम्पन्न:-जाति:-मात पक्ष:-तेन सम्पन्नो युक्तः-उत्तममातृपक्ष सम्पन्न इत्यर्थः, तथा कुलसम्पन्न:कुल' पौत को वंशः, तेन सम्पन्नः-उत्तमपितृपक्षसम्पन्न इत्यर्थः, तथा-बल. एक ग्राम से दूसरे ग्राम में होते हुए आनन्द के साथ जहां श्रावस्ती नगरी थी और जहां कोष्ठक चैत्य था, वहां पर आये. (सावत्थीनयरीए बहिया कोट्ठए चेइए अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हिता सजमेण तवसा अप्पाण भाबेमाणे विहरइ) जहां आकर वे श्राव ती नगरी के बाहर प्रदेश में स्थित कोष्ठक चैत्य में यथामतिरूप अवग्रह प्राप्तकर संयम और तपसे आत्मा को भावित करते हुए ठहर गये।
टीकार्थ-उस काल और उस समय में पर्थापत्यीय भगवान् पार्श्व: नाथकी शिष्य परंपरा में स्थित केशीकुमार श्रमण जिन्होने कौमार्य-बाल्य अवस्था में प्रव्रज्या धारण करली थी. तीर्थ कर परम्परा के अनुसार विहार करते हुए कोष्ठक चैत्य में आकर ठहरे, ये जाति संपन्न थे मातृपक्षका नाम जाति है, उससे ये युक्त थे अर्थात् उत्तम मातृपक्षवाले थे, पैतृक वशका नाम कुल है, उस से भी ये युक्त थे-अर्थात् उत्तम पितृपक्षवाले थे विशिष्ट એક ગામથી બીજે ગામ વિહાર કરતાં કરતાં આનંદની સાથે જ્યાં શ્રાવસ્તી નગરી હતી भने ४यां 31४४ चैत्य (धान) हेतु त्या माव्या. (सावत्थी नयरीएबहिया कोट्ठए चेइए अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेण तवसा अपाणं भावेमाणे विहरइ) त्यां ने तेया श्रावस्ती नगरानी मडा२-३1४४ येत्यमा यथाપ્રતિરૂપ અવગ્રહ પ્રાપ્ત કરીને સંયમ અને તપથી આત્માને ભાવિત કરતાં રોકાયા.
ટીકાઈ–તે કાળે અને તે સમયે પાર્થાપત્યય ભગવાન-પાનાથની શિષ્ય પરંપરામાં સ્થિત કેશીકુમાર શ્રમણકે જેમણે કૌમાર્ય અવસ્થામાં પ્રવ્રયા ધારણ કરી હતી. તીર્થંકર પરંપરા મુજબ વિહાર કરતાં કરતાં કોષ્ઠક ચત્યમાં આવીને રોકાયા એઓ જાતિ સંપન્ન હતા. માતૃપક્ષનું નામ જાતિ છે એનાથી એ યુક્ત હતા એટલે કે ઉત્તમમાતૃપક્ષવાળા હતા. પૈતૃકવંશનું નામ કુળ છે, એનાથી એ યુકત હતા એટલે કે એઓ ઉત્તમપિતૃપક્ષવાળા હતા. વિશિષ્ટ સંહનનથી સમુO
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सुबोधिनी टीका. सू. १०७ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ४७ सम्पन्न:-बल-विशिष्ट संहननसमुत्था शक्तिः, तेन सम्पन्नः, रूपसम्पन्न:रूपम् सर्वोत्कृष्ट शारीरं सौंदर्य तेन सम्पन्नः, बिनयसम्पन्नः-विनयःप्रसिद्ध;, तेन सम्पन्नः, तथा ज्ञानसम्पन्न:-मत्यादिज्ञानयुक्तः, दर्शनसम्पन्नः सम्यत्तवयुक्तः, चारित्रसम्पन्न:-चारित्रं-संयमः तेन संपन्नो युक्तः, लज्जासम्पन्न: लज्जा अनुचितानुष्ठानस चरणात्मिकरूपाः, तया सम्पन्न युक्तः, लाघव. सम्पन्नः लाघवं द्रव्यतोऽल्पोपधित्व, भावतो गौरवत्यागः, ताभ्यां सम्पन्नः, लज्जालाघवसम्पन्न: लज्जया लाघवेन च स सततमेव सम्पन्नः । तथाओत्तस्वी--ओजा=आत्मिक तेजः, तदस्ति यस्य स तथा, आत्मिकतज सम्पन्न इत्यर्थः, तेजस्वी-तेजःशरीरप्रभा, तदरित यस्य तथा अनुपमशरीरप्रभाविशिष्ट इत्यर्थः, तथा वर्चस्वी-प्रभाववान, 'वचस्वी'-इतिच्छायापक्षेप्रशस्तवचनयुक्त इत्यर्थः, तथा-जितक्रोध, क्रोधजेता, जितमानःमानजेतासंहनन से समुत्थ शक्ति का नाम बल है, इस बल से ये युक्त थे, सर्वोस्कृष्ट शारीरिक सौन्दर्य का नाम रूप है. इस रूप से ये संपन्न थे, विनय सपन्न थे, मत्यादि ज्ञानों से संपन्न थे, सम्यत्तव से युक्त थे, संयमरूप चारित्र से युक्त थे, लज्जा से युक्त थे अर्थात् -अनुवित काम करने से सदा दूर रहते
थे. लाघव से युक्त थे, लाघव द्रव्य और भाव की अपेक्षा से दो प्रकार का कहा गया है अल्प उपधि रखना यह द्रव्य की अपेक्षा लाघव है तथा गौरव का त्याग करना यह भाव की अपेक्षा लाघव है। लज्जा और लाघव इन दोनों से ये युक्त थे. इनमें आत्मिक तेज पूर्ण रूप से भरा हुआ था अतः ओजस्वी थे. शरीर प्रभा का नाम तेज है. यह शारिरिक तेज इनका अनुपम था. इसलिये ये तेजस्वी थे. प्रभाववान् थे इसलिये वर्चस्वी थे अथवा प्रशस्तवचन से युक्त थे. इसलिये वचस्वी थे. क्रोध के विजेता थे अतः जित क्रोध थे. શકિતનું નામ બળ છે, આ બળથી એ યુકત હતા. સર્વોત્કૃષ્ટ શારીરિક સૌન્દર્યનું નામ રૂપ છે, આ રૂપથી એઓ સંપન હતા, વિનયયુકત હતા, મતિ વગેરે જ્ઞાનથી સંપન્ન હતા. સમ્યકત્વથી યુક્ત હતા, સંયમરૂપ ચારિત્રથી યુકત હતા. લજજાથી યુક્ત હતા એટલે કે–સાવદ્ય કામમાં લજજા રાખતા હતા. દ્રવ્ય અને ભાવની અપેક્ષાએ લાઘવના બે પ્રકારે છે. અ૫ ઉપાધિ રાખવી એ દ્રવ્યની અપેક્ષાએ લાઘવ છે તેમજ ગૌરવ ત્યાગ એ ભાવની અપેક્ષાએ લાઘવ છે. લજજા અને લાઘવ આ બન્નેથી એઓ સંપન્ન હતા, આમિક તેજ એમનામાં પ્રચુર પ્રમાણમાં હતું એથી એઓ. ઓજસ્વી હતા. શરીરપ્રભાનું નામ તેજ છે. એમનું આ શારીરિક તેજ અનુપમ હતું. એથી જ એઓ તેજસ્વી હતા, પ્રભાવાન હતા. એથી જ એઓ વર્ચસ્વી હતા. કેને જીતનાર હતા એથી એઓ જિત-ક્રોધી હતા, માનના વિજેતા હતા એથી જિત
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राजप्रश्नीयसूत्रे
मानापमानयोस्तुल्य इत्यर्थः, जितमायः = सर्वथा निष्कपटः, जितलोभः = लोभजेता, जिन निद्रः = वशीकृतनिद्रः, जितेन्द्रियः = निगृहीतसकले न्द्रियः, जितपरीपहः= परी पहजेता, तथा जीविताशामरणभयविप्रमुक्तः - जीवितस्य= जीवनस्य या आशा तस्याः, तथा मरणस्य = प्राणवियोगस्य यद् भयंततश्च विप्रमुक्तः= रहितः जीवनमरणयोः समभावयुक्त इत्यर्थः तथा तपः प्रधान := तपसा प्रधानः कलमुनीनां मध्ये प्राधानत्वं प्राप्तः, अथवा - तपः = तपस्या प्रधानं यस्य स महातपस्वीत्यर्थः, गुणप्रधानः- गुणै = क्षान्त्यादिगुणैः प्रधानः = श्रेष्ठः । ' तपः प्रधानगुणप्रधाने' ति विषेषणद्वयेन पसः पूर्वबद्धकर्मणो निर्जराहेतुत्वेन संगमस्य चाभिनवकर्मणोऽनुपादहेतुत्वेन मोक्षापायत्वान्मोक्षार्थिभिस्ताववश्य
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मान के विजेता थे अतः जितमान थे, तात्पर्य मान अपमान में सम थे सर्वथा निष्कपट थे, अतः जितमान थे, लोभ के जेता थे अतः जित्तलोभ थे. निद्रा को वश में कर लिया था इसलिये जितनिद्र थे. समस्त इन्द्रियों के निग्रहकर्त्तार्थ - इसलिये जितेन्द्रिय थे - परीषहों पर विजय पा लिया था इसलिये जिता रीपह थे, जीने की आशा से एवं मरण के भय से बिलकुल विप्रमुक्त थे इसलिये जीवन मरण में समभाव शाली थे, तपसे सकल मुनिजनो में प्रधानता प्राप्तकरलेने के कारण ये तपः पधान थे. अथवा तपस्या प्रधान थे, महातपस्वी थे, इसलिये तपः प्रधान थे, क्षान्त्यादिक गुणों से श्रेष्ठ होने के कारण गुणप्रधान थे " तप:प्रधान एवं गुणप्रधान" इन दो विशेषणों से यह सूचित किया गया है कि तप पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा का हेतु होता है एवं संयम नवीन कर्मों की अनुपादेयता का हेतु होता है अर्थात् नवीन कर्मों के आगमन
હતા. અર્થાત્ માન અપમાન બન્ને એમના માટે સરખા હતાં. એએ સ’પૂર્ણતઃ નિષ્કપટ હતા એથી જિતમાન હતા. લેાભને જીતનાર હતા એથી જિતલેાભી હતા, એમણે નિદ્રાવશ કરી હતી એથી એએ જિતાનિદ્ર હતા, બધી ઇન્દ્રિયાને એમણે વશમાં કરી રાખી હતી. એથી એએ જિતેન્દ્રિય હતા, પરીષહેા પર એમણે વિજય મેળવ્યા હતા એથી એએ જિત પરીષહુ હતા. જીવવાની આશાથી અને મરણના ભયથી એએ એકદમ વિપ્રમુકત હતા. એથી જીવન મરણમાં એએ સમલ વીલ હતા. સકલ મુનિએમાં તપની અપેક્ષાએ પ્રધાન હાવાથી એએ તપઃપ્રધાન હતા, અર્થાત્ મહાતપસ્વી હતા ક્ષાન્ત્યાદિક શ્રેષ્ટ ગુણાથી યુક્ત હાવા બદલ એવા ગુણુ પ્રધાન હતા “તપઃપ્રધાન અને ગુણપ્રધાન” આ એ વિશેષણાથી એ વાત સૂચિત કરવામાં આવી છે કે તપ પૂર્વબદ્ધકર્મોની નિરાના હેતુ હાય છે અને સંયમ
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सुबोधिनी टीका सु. १०७ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् मेवोपात्तव्याविति सूचितम् । सामान्यतो गुणपाधान्यमुक्त्वा सम्प्रति विशेषतः स्तदाह तथाहि-करणपधान:-करण =पिण्डविशुद्धयादि सप्ततिविधम्, तदुक्तम् 'पिंडविसोही (७) समिई (५) भावण) (१२) पडिमा (१२) य इंदियनिरोहो(५)। पडिलेहण (२५) गुत्तीओ (३) अभिग्गहो (१) चेव करण तु ॥१॥ छाया-पिण्डदिशोधिः समितिः भावना-प्रतिमा च इन्द्रियनिरोधः ।
प्रति लेखना गुप्तयः अभिग्रहाश्चैव करण तु ।। इति ॥ तत्पधान यस्य स तथा, चरणप्रधान:-चरण =महावतादि सप्ततिविधम् , तदुक्तम् -- वय (५) समणधम्म (१०) संजम (१७) चेयावच्च (१०) च ब भ.
गुत्तीओ (५) णाणाइतिग (३) तब (१२) कोह निग्गहाई (४)चरणमेय। छाया---व्रत श्रमणधर्मः सयमो वयात्त्य च ब्रह्मगुप्तयः।
ज्ञानादित्रिकं तपः क्रोध निग्रहादिः चरणमेतत् ॥इति।। तत् प्रधान यस्य स तथा, निग्रहप्रधान:-निग्रहः असदाचारप्रवृत्तेनिषेधः स प्रधानं यस्य स तथा, निश्चयप्रधाना=निश्चया तत्त्वानां निर्णयो विहितानुष्टानानामव. श्यमभ्युपगमो वा, स प्रधान यस्य स तथा आर्जवप्रधान:-आजवंऋजुता माया. को रोकनेवाला होता है- इसलिये ये दोनों मोक्ष के उपायभूत होते हैं अतःमोक्षार्थियों को इन्हें अवश्य प्राप्त करना चाहिये।
अब सामान्यरूप से गुणप्रधानता कहकर विशेषरूप से उसका प्रति. पादन करने के लिये कहा गया है-करण प्रधान इत्यादि पिण्ड विशु. द्धयादि सात प्रकारका है-कहा भी है "पिंडविसोही' इत्यादि, इन गुणों से ये युक्त थे अतः ये करण प्रधान कहे गये हैं। महाव्रतादि रूप चरण ७० प्रकार का कहा गया है-जैसे 'वय' इत्यादि यह चरण इनमें प्रधान था. अतः ये चरण प्रधान थे. असदाचारप्रवृत्ति के निषेध का नाम निग्रह है यह निग्रह इनमें प्रधान था. अताइन्हें निग्रह प्रधान कहा गया है । तत्वों का निर्णय करनेरूप निश्चय अथवा विहित अनुष्ठानों का अवश्य કર્મોની અનુપાદેયતાનો હેતુ હોય છે. એટલે કે નવીન કર્મોને રોકનાર હોય છે. એથી જ એઓ અને મોક્ષ માટે ઉપાયભૂત કહેવાય છે. એથી મુમુક્ષુકોને માટે એ બને અવશ્ય આદરણીય છે.
હવે સામાન્યરૂપથી ગુણપ્રધાનતાને કરીને વિશેષરૂપથી તેનું પ્રતિપાદન કરવા માટે કહે છે કે-કરણપ્રધાન ઇત્યાદિ. પિંડવિશુદ્ધ વગેરે રૂપ જે કરણ છે તેના સાત प्रा। छ. ४ां छ:-"पिंड विसोही' वगैरे. मा २१ समनामा प्रधान३५ उतु એથી એઓ કરણપ્રધાન કહેવાય છે. મહાવ્રતાદિરૂપ ચરણના ૭૦ પ્રકારે કહેવાય છે. જેમકે ૧ ઇત્યાદિ આ ચરણ પણ એમનામાં પ્રધાનરૂપે હતું એથી એ ચરણ પ્રધાન હતા. અસદાચારની પ્રવૃત્તિના નિષેધનું નામ નિગ્રહ છે. આ નિગ્રહ એમનામાં પ્રધાનરૂપે હતે. એથી જ એમને નિગ્રહ પ્રધાન કહેવામાં આવ્યા છે. તેના નિર્ણય માટે જે નિશ્ચયાત્મક દઢ વૃત્તિ અથવા વિહિત અનુષ્ઠાનેને રવીકારવારૂપ જે નિશ્ચયાત્મક
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निग्रहः, तत्प्रधानं यस्य स तथा मार्दवप्रधानः- मार्दवं मृदुता - नम्रता तत् प्रधानं यस्य स तथा, लाघवप्रधानः - लाघव = लघुता - द्रव्यभावलघुता तत्मधानं यस्य स तथा क्षान्तिप्रधानः - क्षान्तिः = क्रोधनिग्रहः, सा प्रधानं यस्य स तथा, गुप्तिप्रधानः- गुप्तिः = मनोगुप्त्यादिका, सा प्रधानं यस्य स तथा, मुक्तिप्रधानः- मुक्तिः = निलो भता, सा प्रधानं यस्य स तथा, सर्वथा निर्लोभ इत्यर्थः विद्याप्रधान:- विद्याः = रेहिणीप्रज्ञष्त्यादिदेवताधिष्ठिताः वर्णानुपूर्वी रूपाः ताः प्रधानानि यस्य स तथा मन्त्रप्रधानः- मन्त्राः:- हरिणैगमेष्यादिदेवाधिष्ठिताः ते प्रधानानि यस्य स तथा ब्रह्मप्रधान:- ब्रह्म ब्रह्मचर्य मैथुनविरमणलक्षण
स्वीकार करनेरूप निश्चय इनमें था, इसलिये ये निश्चयप्रधान थे । आर्जव नाम ऋजुता ( सरलता) का है और यह माया निग्रहरूप होती है । यह इनकी प्रधान थी. अतः ये आर्जवप्रधान थे मार्दवप्रधान इसलिये थे कि इनमें मृदुता नम्रता प्रधानरूप से थी. लाघवप्रधान थे इसलिये थे कि इनमें द्रव्पभावरूप लघुता (हलकापन) प्रधा नरूप से थी क्षान्तिप्रधान ये इसलिये थे कि इनमें क्रोध को निग्रह कर नेरूप परिणति प्रधान थी, गुप्तिप्रधान ये इसलिये थे कि इनमें मनोगुप्सि वचनगुप्ति एवं कायगुप्ति ये तीन गुप्तियां प्रधान थीं मुक्तिप्रधान ये इस लिये थे कि इनमें निर्लोभता प्रधानरूप में थी, विद्याप्रधान ये इसलिये थे कि रोहिणी प्रज्ञप्त्यादिक देवताधिष्ठित वर्णानुपूर्वीरूप विद्याएं इनमें प्रधान थीं मंत्रप्रधान ये इसलिये थे कि इनमें हरिणैगमेषी आदि देवाधिष्ठित मंत्रधान थे, मैथुनविरमणरूप ब्रह्मचर्य का नाम ब्रह्म है. अथवा सर्व ही
ભાય હાય છે એ પણ એમનામાં હતા. એથી એએનિશ્ચય પ્રધાન હતા. આજવ ઋજુતા (સરલતા)નું નામ છે. અને માયાનિગ્રહરૂપ પ્રવૃત્તિ હોય છે. એ પણ એમનામાં પ્રધાનરૂપે હતી એથી એએ આવ પ્રધાન હતા. માર્દવ પ્રધાન એએ એટલા માટે હતા કે એમનામાં મૃદુતા–વિનમ્રતા–પ્રધાનરૂપે હતી. એમનામાં દ્રવ્યભાવ લઘુતા પ્રધાનરૂપે હતી એથી જ એ લાઘવપ્રધાન હતા. ક્રોધને નિગ્રહ કરવા રૂપ પરિણતિ એમનામાં પ્રધાન હતી એથી એ ક્ષાંતિ પ્રધાન હતા. એમનામાં મનેગુપ્તિ, વચનપ્તિ અને કાયપ્તિ એ ત્રણે ગુપ્તિએ પ્રધાન હતી એથી એએ ગુપ્તિપ્રધાન હતા. એમનામાં નિર્લોભતા પ્રધાનરૂપે હતી એથી એએ મુકિતપ્રધાન હતા. એમનામાં શહિણી પ્રજ્ઞત્યાદિક દેવતાધિષ્ઠિત વર્ણાનુપૂર્વી રૂપ વિદ્યાએ પ્રધાન હતી એથી જ એએ વિદ્યાપ્રધાન હતા. એમનામાં હરિણગમેષી વગેરે દેવાધિષ્ઠિત મંત્રપ્રધાન હતા એથી એએ મંત્રપ્રધાન હતા. મૈથુન વિરમણરૂપ બ્રહ્મચર્યનું નામ બ્રહ્મ છે અથવા સર્વાંકુશળ અનુ
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सुबोधिनी टीका. सूत्र १०७ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्ण' नम्
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मिति सर्वमेव वा कुशलानुष्ठानं, तत्प्रधानं यस्य स तथा, वेदप्रधानः - वेद: = आगमः - लौकिक - लोकोत्तरकुमावच निकभेदेन त्रिविधः स प्रधान' यस्य स तथा स्वसमयपरसमयज्ञानसम्पन्न इत्यर्थः, नयप्रधानः- नयाः =नैगमादयःसस त एव भेदमभेदतः सप्तशतविधाः, ते प्रधानानि यस्य स तथा विचित्राभिग्रहधारीत्यर्थः, सत्यप्रधानः- सत्यं = सकलपाणिनामत्यन्तहितकर वचनम्, तत् न यस्य स तथा - हितमितप्रियवचनयुक्त इत्यर्थः, शौचप्रधानः- शौचं द्रव्यतो लेपरहित्य भावतो निरवद्याचरणं, तत् प्रधानं यस्य स तथा, ज्ञानप्रधानः- ज्ञान =मत्यादिकं तत् प्रधानं यस्य स तथा, दर्शनप्रधानः कुशल अनुष्ठानों का नाम ब्रह्म है इस ब्रह्मप्रधानता वाले वे थे. इसलिये इन्हें ब्रह्मप्रधान कहा गया है। आगम का नाम वेद है. यह लौकिक, लोकोतर, और कुमाचचनिक के भेद से तीन प्रकार का है, यह वेद इनमें प्रधान था अतः इन्हें वेदप्रधान कहा गया है। तात्पर्य यह कि ये स्वसमय के और परसमय के ज्ञान से संपन्न थेो नैगम, संग्रह आदि जो सात नय है ये नय ही भेदमभेद की अपेक्षा ७०० हो जाते हैं ये नय इनमें प्रधान थे अर्थात ये बहुत ही सूक्ष्मरूप से नयों के विशेषज्ञाता थे इसलिये इन्हें नयप्रधान कहा गया है। अभिग्रहविशेषों का नाम नियम है अर्थात् चित्र अभिग्रहों के धारी थे सकलप्राणियों के एकान्तरूप से franर्ता जो वचन होते हैं उनका नाम सत्य है इस सत्यप्रधान ये थे अर्थात् ये हित, मित, प्रिय वचन बोलते थे । द्रव्य और भाव की अपेक्षा से शौच दो प्रकार का है-लेपरहित होना यह द्रव्य की अपेक्षा शौच है ખાનાનું નામ બ્રહ્મ છે. એએ આ બ્રહ્મ પ્રધાનતાથી યુકત હતા એથી જ એએ બ્રહ્મ પ્રધાન કહેવાતા હતા, આગમનુ નામ વેદ લૌકિક, લેાકેાત્તર અને કુપ્રાવચનિક આમ ત્રણ પ્રકારના છે, આવેદ એમનામાં પ્રધાન હતા એથી એ વેદપ્રધાન કહેવાતા મતલમ આ છે કે એએ સ્વસમયના અને પરસમયના જ્ઞાનથી संपन्न हुता, नेगम, સ'ગ્રહ વગેરે ? સાત નયે। છે તે ના ભેદ પ્રભેદની અપેક્ષાએ ૭૦૦ થઈ જાય છે, એ નય પણુ એમનામાં પ્રધાન હતા એટલે કે એએ ખૂબ જ નયના સૂક્ષ્મજ્ઞાતા હતા, એથી જ એ નયપ્રધાન કહેવાય છે, અભિગ્રહ વિશેષનુ નામ નિયમ છે, એટલે કે એએ વિચિત્ર અભિગ્રહાને ધારણ કરનારા હતા, એકનિષ્ઠ થઈને જે સલ પ્રાણીઓના હિત માટે વચનેા કહેવાય છે તે સત્ય છે, એએ સત્યપ્રધાન હતા, એટલે કે એ હિત, મિત અને પ્રિય વચન ખેલનારા હતા દ્રવ્ય અને ભાવની અપેક્ષાએ શૌચના એ પ્રકારેા છે, લેપરહિત થવું એ દ્રવ્યની અપેક્ષાએ શૈાચ છે, અને નિરવદ્ય આચરણ કરવું એ ભાવની અપે
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दर्शनं सम्यक्त्व', तत्प्रधानं यस्य स तथा, चारित्रप्रधानः-वारित्र =क्रिया, तत् प्रधान यस्य स तथा, उदार: ऋज्वाशयः, तथात्र-'घोरे घोरगुणे घोर तवस्सी धोरबंभचेखासी उच्छ्हसरीरे' छाया-घोरो घोरगुणो घोरतप. स्वो घोरब्रह्मचर्य वासी उच्छूटशरीरः' इति संग्राह्यम् तत्र-घोर: सातिशयदीप्सियुक्तः, घोरगुणः सर्वोत्कृष्टगुणयुक्तः. घोरतपस्वी कातरजनदुष्करतपःकारकः, घोरब्रह्मचारी अल्पसत्वानना ठेयब्रह्मचर्य युक्तः, उच्छूढशरीरः-उच्छूढम् उज्झितमिव संस्कारपरित्यागात् शरीर येन सः, सर्वथा शरीरसंस्कारपरिवर्जित इत्यर्थः । तथा-चतुदेशपूर्वी-चतुदशपूर्वधारकः-तथा-चतुर्ज्ञानोपगतः मति-श्रुतावधिमनःपर्यवेति ज्ञान
और निरवद्य आचरण करना यह भाव की अपेक्षा शौच है, इस प्रकार के शौच प्रधान ये थे, मत्यादिक ज्ञानों से प्रधान होने के कारण ये ज्ञानप्रधान थे, सम्यतवरूप दर्शन से प्रधान होने के कारण दर्शनप्रधान थे, क्रियारूप चारित्र से प्रधान होने के कारण चारित्रप्रधान थे, ज्वाशयरूप उदारभाव से प्रधान होने के कारण ये उदार थे, यहां घोरे' इत्यादि । सातिशयदीप्ति से युक्त होने के कारण ये घोरगुण वाले थे, कातर-कायर जन जिन तपों को नहीं कर सकते थे-ऐसे कठिन तपो को करने के कारण ये घोरतपस्वी थे, हीनशक्तिवाले जोव जिस ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकते थे, उस ब्रह्म चर्य व्रत को ये धारण करते थे, इसलिये घोर ब्रह्मचारी थे, अपने शरीर का संस्कार करना इन्होने छोड रस्वा था इसलिये ये उच्छूढशरीर थे, चौदह पूर्व के पूर्ण रूप से पाठी थे,इसलिये ये चतुर्दशपूर्व धारकथे, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्य यज्ञान इन चार ज्ञानों से सहित थे इस ક્ષાએ શૌચ છે. એઓ શૌચપ્રધાન હતા, મતિ વગેરે જ્ઞાનપ્રધાન હોવાથી એ જ્ઞાનપ્રધાન હતા. સમ્યક્ત્વરૂપ પ્રધાન હોવાથી એઓ દર્શનપ્રધાન હતા. ક્રિયા રૂપ ચારિત્ર પ્રધાન હોવાથી એઓ ચારિત્ર્ય પ્રધાન હતા. અજવાશયરૂપ ઉદારભાવપ્રધાન હોવાથી मेमा हार हुता. मडा घोरे वगेरे. सातिशय हतिथी युटत डावा महल मे। ઘરગુણવાળા હતા. કાતર લોકો જે તપ આચરી શકે નહિ તે કઠિન તપનું એઓ આચરણ કરતા હતા. એથી એ ઘોર તપસ્વી હતા. દુર્બળ છે જે જાતના બ્રહ્મચર્યનું પાલન કરી શકે નહિ તે બ્રહ્મચર્ય વ્રતને એઓ ધારણ કરતા હતા. એથી એઓ ઘર બ્રહ્મચારી હતા. પિતાના શરીરના સંસ્કારની બધી ક્રિયાઓને એમણે સદંતર ત્યાગ કર્યો હતે એથી એઓ ઉછૂઢ શરીર હતા. ચૌદ પૂર્વના પૂર્ણપાઠી હતા. એથી એઓ ચતુર્દશપૂર્વ ધારક હતા. મતિજ્ઞાન, શ્રુતજ્ઞાન, અવધિજ્ઞાન અને મનઃ
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सुबोधिनी टीका. १०७ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् चतुष्टययुक्तः। एवविधः सन पञ्चभिरन गारशतैः पश्चशतसंख्यकैरनगारैः सार्द्ध सह सपरित संवेष्टितः पूर्वानुपूर्वी चरन्तीर्थ करपरम्परया विहर माणः, ग्रामानुग्रामम् एकस्माद् ग्रामाद ग्रामान्तर द्रवन् गच्छन् सुखसुखेन विहरन्, यत्रव-श्रावस्ती नगरी, यत्रोव कोष्ठक चैत्य, तत्रोव उपागच्छति, श्रावस्ती-नगर्या बहि: श्रावस्ती नगरी बहिःप्रदेशे स्थिते कोष्टके चैत्ये यथाप्रतिरूपसाधुकल्पानुसारम् अवग्रहम् वनपालाज्ञाम् अवगृह्य-गृहीत्वा संयमेन सप्तदशविधेन तपसा द्वादशविधेन च आत्मानं भावयन्-वासयन् विहरतीति । इदमत्रबोध्यम्-आजवादीनां चरणकरणान्तर्गतत्वेऽपि यत्पुनरुपादान तत् अाजवादीना प्राधान्यख्यापनार्थमिति । जितक्रोधत्वादीनाम् आर्जवादीनां चाय विशेषो बोध्य:-जितक्रोधादिपदैः उदयावरथाप्राप्तानां लिये चतुर्ज्ञानोपगत थो, इनके साथ पांच सौ अनगार थ , अकेले नहीं थो, तीर्थकरपरंपरा के अनुसार ये विहार करने में रत थे-अतः उसी परंपरा के अनुसार ये विहार करते२, एक ग्राम से दूसरे ग्राम में बडे यतना से धर्मोपदेश की वरसा करते२ जहां श्रावस्ती नगरी थी, और उसमें भी जहां वह कोष्ठक चैत्य था वहां पर आये, वहां आकर वे उस नगरी के बाहर बने हुए उस कोष्ठक चैत्य में साधुकल्प के अनुसार वनपाल की आज्ञा लेकर १७ प्रकार के संयम से और १२ प्रकार के तप से आत्मा को वासित करते हुए ठहर गये. यहा ऐसा समझना चाहिये-आज व
आदि यद्यपि चरण और करण के अन्तर्गत हैं-फिर भी यहां जो स्वतन्त्र रूप से उनका उपादान किया गया है-वह उनमें प्रधानता प्रदर्शित करने के लिये किया गया है। जितक्रोधत्व आदि में और आर्जव आदि में પર્યયજ્ઞાન એ ચારેચાર જ્ઞાનથી એઓ યુકત હતા એથી ચતુર્ણાનો પગત હતા. એમની સાથે પાંચસે અનગાર હતા. એ એકલા હતા નહિ. તીર્થકર પરંપરા મુજબ વિહાર કરવામાં એઓ રત હતા. આમ એઓ તીર્થંકર પરંપરા મુજબ વિહાર કરતાં કરતાં એક ગામથી બીજા ગામ ખૂબ જ નિષ્ઠાથી ધર્મોપદેશની વર્ષા કરતાં કરતાં જ્યાં શ્રાવસ્તી નગરી હતી અને તેમાં પણ જ્યાં તે કોષ્ઠક ઐત્ય હતું ત્યાં આવ્યા. ત્યાં આવીને તે નગરીની બહારના તે કેઠક ચૈત્યમાં સાધુ ક૫ મુજબ વનપાલની આજ્ઞા મેળવીને ૧૭ પ્રકારના સંયમથી અને ૧૨ પ્રકારના તપથી પિતાના આત્માને વાસિત કરતા તેઓ ત્યાં રોકાયેલા આર્જવ વગેરેને જે કે ચરણ અને કરણમાં સમાવેશ થાય છે છતાં એ અહીં જે સ્વતંત્રરૂપથી એમનું ગ્રહણ કરાયું છે તે તેમનામાં પ્રધાનતા પ્રદર્શિત કરવા માટે જ છે તેમ સમજવું. જિતકોધત્વ વગેરેમાં અને
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क्रोधादीनां विफलीकरण
सूचितं
राजप्रश्नीयसूत्रे मार्दवपधानादिपदेस्तेषामुदय निरोधः सूचितः । अथवा-यत- एव जितक्रोधादिः, अत एव - क्षमादिप्रधान इति हेतु हेतुमद्भावाद विशेषो बोध्य इति तथा- 'ज्ञानसम्पन्नः' इत्यादिपदैः ज्ञानादिमत्त्वमात्र' सूचितम् । 'ज्ञानप्रधानः' इत्यादिपदैस्तु ज्ञानादिप्राधान्यं सूचितमिति ।। सू० १०७ ॥
मूलम् - तणं सावत्थीए नयरीए सिघाडग-तिय- चउक्कचच्चर - चउम्मुह - महापहपहेसु महया जणसदेइ वा जण हे वा जणबोलेइ वा जणुम्मीइ वा जणुकलियाइ वा जणसंनिवाएइ वा जाव परिसा पज्जवीसइ ।
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तरणं तस्स चित्तस्स सारहिस्स तं महया जणसद च जाव जणसंनिवार्य च सुणेत्ता य पासित्ता य इमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पज्जित्था किंण अज्ज सावत्थीए णयरीए इंदमहेइ वा
यह अन्तर हैं कि जो जितक्रोधादि होता है वह उदयावस्थाप्राप्त क्रोधादिकों को विफल बना देता है, और जो मार्दवप्रधानादि पर्दों वाला होता है वह क्रोधादिकों के उदय का निरोध कर देता है । यही बात सूचित करने के लिये इन पदों को भिन्नर रूप में रखा गया है। जिस कारण वह जितक्रोधादि होता है, उसी से वह क्षमादिप्रधान होता है - इस तरह हेतुहेतुमद्भाव को लेकर इनमें विशेषता जाननी चाहिये, तथा 'ज्ञानसंपन्न' इत्यादि पदों द्वारा सिर्फ ज्ञानादियुक्तता सूचित की गई है और 'ज्ञानप्रधान' इत्यादि पदों द्वारा उनमें प्रधानता प्रकट की गई है । . १०७ ॥ આાવ વગેરેમા આ તફાવત છે કે જે જિતક્રોધી વગેરે હાય છે તે ઉત્તપયાવસ્થા પ્રાપ્ત ક્રોધાદ્ઘિકોને અફળ બનાવી મૂકે છે. અને જે માન પ્રધાનાદિપટ્ટાવાળા ડાય છે તે ક્રોધાર્દિકાના ઉદયના નિરોધ કરે છે. એ વાતને સૂચિત કરવા માટે જ આ પદોનું ભિન્ન ભિન્ન રૂપમાં ગ્રહણ કરાયુ છે. જેને લઈને તે જિતાધાદિ હાય છે, તેને લઈને જ તે ક્ષમાદ્વિપ્રધાન હાય છે. આ પ્રમાણે હેતુ હેતુમદ્દભાવને લઇને એમ नाभां विशेषता लगवी येते "ज्ञानसंपन्न " वगेरे पहा वडे छत ज्ञानाहि युक्तता सूथित वामां भावी छे भने "ज्ञानप्रधान" वगेरे यही वडे तेमनामां પ્રધાનતા પ્રકટ કરવામાં આવી છે. ૧૦૭ણા
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सुबोधिनी टीका' सु. १०७ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ५५ खंदमहेइ वा एवं रुद्दमहेइ मउंदमहेइ वा वेसमणमहेइ वा नागमहेइ वा भूयमहेइ वा जखमहेइ वा थूभमहेइ वा चेइयमहेइ वा रुक्खमहेइ वा गिरिमहेइ वा दरिमहेइ वा अगडमहेइ वा नईमहेइ वा सरमहेइ बा सागरमहेइ वा, जं णं इमे बहवे उग्गा उग्गपुत्ता भोगा भोगपुत्ता राइन्ना इक्खगा गाया कोरव्वा जहा उववाइए तहेव अप्पेगइया हयगया जाव अप्पेगइया पायचारविहारेणं महया महया वंदावंदएहिं निग्गच्छंति ? । एवं संपेहेइ संपेहित्ता कंचुइजपुरिसं सदावेइ सदावित्ता एवं वयासी किं णं देवाणुप्पिया ! अन्ज सावत्थीए नयरीए इंदमहेइ वा जाव सागरमहेइ वा जेणं इमे बहवे उग्गा जाव णिग्गच्छति ॥ सू० १०८ ॥
छाया-ततः खलु श्रावस्त्या नगर्याः शृङ्गाटक-त्रिक-चतुष्क-चलरचसुर्मुख-महापथपथषु महान् जनशब्द इति वा जनव्यूह इति वा जनबोल इति वा जनकल कल इति वा जनोमिरित वा जनात्कलिकेति वा जनसन्निपात इति वा यावत् परिषत् पर्युपास्ते ।
'तए ण सावत्थीए नयरीए' इत्यादि ।
सूत्रार्थ-(तए णं) इसके बाद (सावत्धीए नयरीए) श्रावस्तो नगरी के (सिंघाडग-तिय-चउक-चच्चर-चउम्मुह-महापहपहेसु महया जणसद्देइ वा जणवूहेइ वा, जणबोलेइ वा जणकलकलेइ वा जणुम्मीइ वा जणुकलि. याइ वा, जण निवाएइ वा, जाव परिसा पज्जुवासई) श्रङ्गाटक में त्रिक में, चतुष्क में, चत्वर में, चतुर्मुख में, महापथ में एवं पथ में मिलित मनुष्योका पर
'तए ग सावत्थीए नयरीए' इत्यादि ।
सूत्राय:-(त एण) त्या२५४ी (सावत्थोए नयरोए) श्रावस्ती नारीना (सिघाडग-तिय-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापहपहेसु महया जणसद्देइवा जण चूहेइवा, जणबोलेइवा जणकलकलेइ वा जणुम्मीइ वा जणुक्कलियाइ वा जण निवाएइ वा जाव परिसा पज्जुवासइ) श्रृभा , भि , यतु માં, ચત્વરમાં, ચતુર્મુખમાં, મહાપથમાં અને પથમાં એકત્ર થયેલા અને આવા
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राजप्रश्नीयसूत्रे
ततः खलु तस्य चित्रस्य सारथिस्त महान्त जनशब्दं च यावत् जनसनिपातं च श्रुत्वा च दृष्ट्वा च अयमेतम्प आध्यात्मिको यावत् समुदपद्यत्त किं खलु अद्य श्रावत्यां नगर्याम् इन्द्रमह इति वा स्कन्दमह इति वा एवं रुद्रमह इति वा मुकुन्दमह इति वा वैश्रवणमह इति वा नागमह इति वा भूतमहइति वा यक्ष महइति वा स्तूपमह इति वा चैत्यमह इति वा वृक्षमह
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स्परमें आलाप मचुररूप से होने लगा और लोक भी इकट्ठे हुवे थे परस्पर में अव्यक्तवर्ण वाली ध्वनि भी लोगों के मुख से निकलने लगी, कोलाहल जैसा मच गया. लोगों में अपार भीड होने से एक दूसरे का संघर्ष भी होने लग गया, कहीं२ मनुष्यों को थोडी भीड छटकर खडी हो गई, अन्य अन्य स्थानों से आ २ कर उसमें मिलने लगे. यावत् परिषदा उनकी पर्युपासना करने लगी ।
(तएण तस्स चित्तस्स सारहिस्स त महया जणसद्द ं च जाव जणसंनिवार्य च सुणेत्ता य पासित्ता य इमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पज्जित्था ) इसके बाद उस महान् जनशब्द को यावत् जनसनिपात को सुनकर एवं देखकर उस चित्र सारथि को इस प्रकार का यह आध्यात्मिक यावत् मनोगत विचार उत्पन्न हुआ, (किं णं अज्ज सावन्थीए गरीए इंदमहेइ वाखदम बा एवं रुद्दमहेइ वा मउदमहेइ वा समणमहेइ वा, नागमहे वा, भूयमहे वा, जक्खमहेइ वा ) क्या आज श्रावस्ती नगरी में કરનારા લેાકામાં પરસ્પર પ્રચુરરૂપમાં આલાપ થવા માંડયા-વાર્તાલાપ પ્રારભ થયા લાક વધારે સખ્યામાં એકત્ર થવા લાગ્યા. પરસ્પર અસ્ફુટ ધ્વનિમાં પણ લેકમાં વાતચીત થવા લાગી. પિરણામે ધેાંઘાટ જેવુ વાતાવરણુ થઇ ગયું. ત્યાં અપાર લીડ થવા માંડી અને તેથી એક બીજાથી સતિ થઇને જ લેાકેા અવરજવર કરીશકતા હતા. એવી પરિસ્થિતિ ઉત્પન્ન થઇ ગઇ. કેટલાક સ્થાને! પર થાડા માણસે ટોળાના આકારમાં એકત્ર થઇ ગયા. અને ખીજા લોકો પણ તેમની પાસે રૂકાવવા લાગ્યા, યાર્વત્ પરિષદા તેમની પ પાસના કરવા લાગી,
(त एण तस्स चित्तस्स सारहिस्स तं महया जणसदं च जाव जण सनिवार्य' च सुताय पासित्ता य इमेयारूबे अज्झत्थिए जाव समुप्पज्जित्था ) ત્યારખાદ તે મહાન્ જનશબ્દને યાવત્ જનસનિપાતને સાંભળીને અને જોઈને તે ચિત્રસારથીને આ જાતના આધ્યાત્મિક યાવત્ મનેાગત વિચાર ઉત્પન્ન થયે કે
(किं णं अज्ज सावत्थीए णयरीए इंदमहेइ वा मउदमहेइ वा वेसमणमहेइ वा
खंदमहे वा एवं रुदमहे वा भूगमहेइ वा जक्खमहेइ वा )
नागमहेइ वा
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सुबोधिनी टीका. सू. १०८ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ५७ इति वा गिरिमह इति वा दरीमह इति वा अवटमह इति वा नदीमह इति वा सरोमह इति वा सागरमह इति वा, यत्खलु इमे बहव उग्रा उग्रपुत्रा भोगा भोगपुत्रा राजन्याः इक्ष्वाकवो ज्ञाताः कौरव्याः यथा औषपाति के तथैव इन्द्र को निमित्त करके उत्सव हो रहा है, या स्कन्द को निमित्त करके उत्सव हो रहा है, या रुद्र को निमित्त करके उत्सव हो रहा है, या मुकुन्द को निमित्त करके उत्सब हो रहा है, या वैश्रवण को निमित्त करके उत्सव हो रहा है, या नाग को निमित्त करके उत्सव हो रहा है, या भूतको निमित्त करके उत्सव हो रहा है, या यक्ष को निमित्त करके उत्सव हो रहा है (थूभमहेइ वा, चेइयमहेइ वा, रुक्खमहेइ वा, गिरिमहेइ वा, दरिमहेइ वा, अगडमहेइ वा, नईमहेइ वा, सरमहेइ वा, सागरमहेइ वा) या किसी स्तूप को निमित्त करके उत्सव हो रहा है, या किसी चैत्य-उद्यान को निमित्त करसे उत्सव हो रहा है, या किसी वृक्ष को निमित्त करके उत्सव हो रहा है, या किसी पर्वत को निमित्त करके उत्सव हो रहा है या किसी गुफा को निमित्त करके उत्सव हो रहा है, या किसी-- अवट-कूप को लेकर के उत्सव हो रहा है, या किसी नदी को निमित्त करके उत्सव हो रहा है, या किसी तालाव को निमित्त करके उत्सव हो रहा है, या किसी समुद्र को निमित्त करके उत्सव हो रहा है ? (जे ण इमे बहवे उग्गा उग्गपुत्ता, भोगा भोगपुत्ता, राइन्ना, रक्खगा, णाया, कोरव्वा, શું આજે શ્રાવસ્તી નગરીમાં ઈન્દ્રના નિમિત્ત કેઈ ઉત્સવ ઉજવાઈ રહ્યો છે, સ્કંદના નિમિત્ત ઉત્સવ ઉજવાઈ રહ્યો છે, કે રુદ્રના નિમિત્તે ઉત્સવ ઉજવાઈ રહ્યો છે, કે મુકુન્દના નિમિત્તે કઈ ઉત્સવ ઉજવાઈ રહ્યો છે, કે વૈશ્રવણના નિમિત્તે કઈ ઉત્સવ ઉજવાઈ રહ્યો છે, કે નાગ નિમિત્તે ઉત્સવ ઉજવાઈ રહ્યો છે, કે ભૂતના નિમિત્તે आ5 Sत्स4 Sorqा रह्यो छ ॐ यक्षना निमित्त उत्सव वा यो छे. (थभमहेइ वा, चेइयमहेइ वा, रुक्खमहेइ वा, गिरिमहेइ वा, दरिमहेइ वा, अगड. महेइ वा, नईमहेइ वा, सरम हेइ वा. सागामहेइ वा) आध स्तूपना निमित्त ઉત્સવ ઉજવાઈ રહ્યો છે, કે ચૈત્યના નિમિત્ત ઉત્સવ ઉજવાઈ રહ્યો છે, વૃક્ષના નિમિતે ઉત્સવ ઉજવાઈ રહ્યો છે, કે પર્વતના નિમિત્ત ઉત્સવ ઉજવાઈ રહ્યો છે કે ગુફાના નિમિત્ત ઉત્સવ ઉજવાઈ રહ્યો છે, કે કોઈ–અવકૃપના નિમિતે ઉત્સવ ઉજવાઈ રહ્યો છે, કે કઈ નદીના નિમિતે ઉત્સવ ઉજવાઈ રહ્યો છે, કે તળાવના નિમિતે ઉત્સવ Gorq४ २wो छ, ॐ समुद्रना निभित्ते वा २wो छ ? (जे णं इमे बहवे उग्गा उग्गपुत्ता. भोगा भोगपुत्ता, राइन्ना, रक्खगा, णाया, कोरव्वा, जहा
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राजप्रश्नीयसूत्रे अप्येक के हयगता यावत् अध्येकके पादचार विहारेण महद्भिर्महद्भिन्द वृन्दैर्निर्गच्छन्ति ?, एवं संप्रेक्षते संप्रेक्ष्य कन्चुकीयपुरुष शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत-कि खलु देवानुप्रियाः ! अद्य श्रावस्त्यां नगर्याम् इन्द्रमह इति वा यावत् सागरमह इति वा, यत्खलु इमे बहव उग्रा यावत् निर्गच्छन्ति? ॥१०८॥
'तएण' इत्यादि
टीका--ततः खलु श्रवस्त्या नगर्या श्रृङ्गाटक-त्रिक-चतुष्क-चत्वर चतर्मुख -महापथपथेषु-तत्र-श्रृङ्गाटक श्रृङ्गाटकाकृतिकस्त्रिकोणो मार्गः, त्रिक त्रिपथ जहा उवचाइए तहेव अप्पेगइया हयगया) जो ये बहुत से उग्रवंश के मनुष्य, उग्रवंश के पुत्र, भोगवंश के मनुष्य, भोगवंश के पुत्र, राजन्यवंश के मनुष्य, इक्ष्वाकुवंश के मनुष्य, ज्ञातवश के मनुष्य, कुरुवंश के मनुष्य, जैसा कि इसके आगे औपपातिक सूत्र में कहा गया है उसके अनुसार कितनेक घोडों पर चढ कर (जाव अप्पेगइया पायचारविहारेण महयार वंदावंदरहिं निग्गच्छति) यावत् कितनेक पैदल ही भिन्न२ समूह में होकर निकल रहे हैं। (एवं सपेहेइ) ऐसा उसने विचार किया-(सपे हित्ता कंचुइज्जपुरिसं सदावेइ) ऐसा विचार करके उसने कचुकीयपुरुष को बुलाया (सदावित्ता एवं क्यासी) बुलाकर उससे कहा-(किं ण देवाणुप्पिया ! आज सावत्थीए नयरीए इंदमहेइ वा, जाव सागरमहेइ वा जे ण इमे बहवे उग्गा, जाव निग्गच्छंति) हे देवानुप्रिय ! क्या आज श्रावस्ती नगरी में इन्द्र महोत्सव है या यावत् सागर महोत्सव है कि जिससे ये उग्रव श के मनुष्य यावत् जा रहे हैं। उववाइए तहेव अप्पेगइया हयगया) थी घर वाशना पुत्रो, लोग વંશના માણસે, ભેગવંશના પુત્ર, રાજન્યવંશના માણસે, ઈક્વાકુવંશના માણસે, જ્ઞાતવંશના માણસેકુરુવંશના માણસો-પહેલાં પપાતિક સૂત્રમાં જે પ્રમાણે વર્ણન ४२वाभा माव्युछे ते भु४५ ४८९13 घोडामा ५२ सवार थईने (जाव अप्पेगइया पायचार विहारेणं महया२ वदाव'दएहिं निग्गच्छति) यावत् १८८४ ५ini or agar adal समूडमा मेत्र थन ४४ २द्या छे. (एवं संपेहेइ) PALonal तेणे विया२ ज्यो. (सपेहित्ता कचुइज्जपुरिस सहावेइ) मा प्रमाणे विया२ रीन तेणे युीय पुरुषने माराव्या. (सदावित्ता) एवं वयासी) मालावीन तेने घु. किं णं देवाणुप्पिया! अज्ज सावत्थीए नयरीए इंदमहेइ वा, जाव सागरमहे वा जेणं इमे बहवे उग्गा, जाब निगच्छति) हेवानुप्रिय ! शुमारे શ્રાવસ્તી નગરીમાં ઈન્દ્રમહોત્સવ છે કે યાવત્ સાગર મહોત્સવ છે કે જેથી ઉગ્રવંશના માણસે યાવત જઈ રહ્યા છે?
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सुबोधिनी टीका सू. १०८ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ५९ यत्र त्रयों मार्गाः सम्मिलन्ति तत् चतुष्कम् चतुष्पथ' यत्र चत्वारो मार्गा मिलि वास्तत्, चत्वरम्-अनेकमार्ग संगमस्थानम्. चतुर्मुखं यतश्चतसृष्वपि दिक्षु पन्थानो निस्सरन्ति तत्, महापथा-राजमार्गः, पन्थाः-सामान्यमार्गः, एतेषामितरेतरयोगद्वन्द्वः, तेषु तथोक्तेषु, महान् प्रचुरः जनशब्द इति वा जनानां परस्परालापादिरूपः, जनव्यूहाजनबोल: जनानामव्यक्तवर्णा ध्वनिः, जनकलकला जनानां कोलाहलध्वनिः,तत्र-बोलकळकलयोरय विशेषः =बोल अविभाव्यमानवचनविभागः कलकलस्तु विभाव्यमानवचनविभाग इति, जनोमि: जनसम्बाधः, जनोत्कलिका-जनानां लघुतरः संघातः,जनसन्निपातः= जनानाम् अन्योन्यस्थानेभ्य एकत्र मीलनम्, यावत्-पर्षत-उग्रोग्रपुत्रादिरूपा
टीकार्थ-तब श्रावस्ती नगरी के श्रृंगाटक-सिंघाडे को आकृति जैसे त्रिकोणवाले मार्ग में, त्रिक-तीनमार्ग से मिले हुए मार्ग में, चतु पथमें चार मागों से मिले हुए मार्ग में, चत्वर में अनेक मागों के संगमवाले स्थान में,चतर्मुख-जहांसे चारों दिशाओं में मार्ग निकलते हैं, ऐसे रास्ते में.महा. पथ राजमार्ग में, और पथ-सामान्य मार्ग में प्रचुर मात्रा में जनशब्द हुआ,
आपस में बातचीत करने की अवाज निकली, जनव्यूह-जनसमुदाय-आकर इकट्ठा होने लगा, जनबोल-मनुष्यों की अव्यक्त वर्णवाली ध्वनि होने लगी जनकलकल-जनों की कोलाहल रूप ध्वनि होने लगी। बोल में और कलकल में अन्तर इतना ही है कि बोल में वचन विभाग अविभाव्यमान (अलग२) होता है और कलकल में वचनविभाग विभाव्यमान (अव्यक्त ध्वनि) होता है, जनसम्बा. धजनों के जमघट में होने वाले पारस्परिकविमर्द का नाम जनोमि है। तथा मनु यो का जो लघुतर संघात है वह जनोत्कलिका है. अन्योन्यस्थानों से आगत 1 ટીકા–ત્યારે શ્રાવસ્તી નગરીના શ્રાટક-શિગડાની આકૃતિ જેવા ત્રિકોણવાળા માર્ગમાં, ત્રિક-ત્રણ માર્ગો જ્યાં એકત્ર થાય તે માર્ગમાં, ચતુષ્પથમાં-ચાર રસ્તાઓ જ્યાં ભેગા મળે તે માર્ગમાં, ચત્વરમાં-ઘણું માર્ગો જ્યાં એકત્ર થાય તે સ્થાનમાં, ચતુર્મુખ-જ્યાંથી ચોમેર રસ્તાઓ જતા હોય એવા માર્ગમાં, મહાપથરાજમાર્ગમાં અને પથ-સામાન્ય માર્ગમાં-ભારે જનશબ્દ છે. માણસને ઘંઘાટ થયે. પરસ્પર વાર્તાલાપ કરવાથી શેકબકેર થય. જનબૃહ–જનસમુદાય-એકત્ર થવા લાગે, જનબેલ–માણસની અવ્યકત વનિ થવા લાગે, જનકલકલ-માણસને કોલાહલરૂપ ધ્વનિ થવા માંડે. બેલમાં અને કલરવમાં તફાવત આટલો જ છે કે બેલમાં વચન વિભાગ અવિભાવ્યમાન હોય છે અને કલકલમાં વચનવિભાગ વિભાવ્યમાન હોય છે. જનસમ્બધજના જમઘટ્ટમાં થનાર પારસ્પરિક વિમર્દનું નામ છે. તેમજ માણસોને જે લઘુતર સંઘાત છે તે જનેકલિકા છે. બીજા ઘણાં સ્થાનેથી આવેલ માણસે
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राजप्रश्नीयसूत्रे
पर्युपास्ते । अत्र यावच्छब्देन, बहुजणो अन्नमन्नस्स' इत्यारभ्य 'अभिमुहावि
एण पंजलिउडा' इत्यन्तः सर्वोऽपि पाठ औपपातिकसूत्रोक्त चम्पानगरीगत श्री महावीरस्वामिसमागमनपठितः सर्वोऽप्यत्र वाच्यः, नवरम् अत्र छत्रादयस्तीर्थ करातिशेषाः न वाच्याः । तथा - 'समणे भगवं महावीरे' इत्यादि भगवन्नाम स्थाने 'पासावचिज्जे केसी नाम कुमारसमणे जाईसपणे इत्यादि वाच्यम् । अत्र 'जन शब्द इति वा' इत्यादौ इति शब्दो वाक्यालङ्कारे' 'वा' शब्दः समुच्चये इति ।
'तए णं तस्स चित्तस्स' इत्यादि - ततः खलु तस्य चित्रस्य सारथेः तं महान्तं जनशब्द च यावत् जनसंनिपातं च श्रुत्वा = आकर्ण्य तं महान्तं मनुष्यों का जो एक जगह मिलान होता है उसका नाम जनसन्निपात है। यावत् उग्र, उग्रपुत्र आदि कों की परिषदाने पर्युपासना की यहां यावत् शब्द से बहुजणी अण्णमण्णस्स' यहां से लेकर अभिमुहा चिणएण पंजलि उड़ा' यहां तक का सब पाठ जो कि औपपातिक सूत्र में ३८ वे सूत्र में चम्पानगरीगत श्रीमहावीर स्वामी के आगमन के पाठ में लिखा जा चुका है, ग्रहण किया गया है। उस पाठ गत छत्रादिक जो कि तीर्थकर प्रकृति के अतिशयरूप हैं यहां ग्रहण नहीं करना चाहिये - तथा 'समणे भगव - महावीरे' इत्यादि भगवन्नाम के स्थान में 'पासावचिज्जे केसी नाम कुमारसमणे जाइसंपन्ने' ऐसा पाठ कहना चाहिये, 'जनशब्द हात वा' इत्यादिपाठ में आगत इति शब्द वाक्यालंकार में और 'वा' शब्द समुच्चय में आया है।
'तरण' तस्स चित्तस्स' इत्यादि इसके बाद उस चित्र सारथि को उस એક સ્થાને જયાં એકત્ર થાય છે તેનું નામ જનસન્નિપાત છે. યાવત્ ઉગ્ર, પુત્ર वगेरेनी परिषहान् पर्युपासना पुरी. माहीं यावत् शहथी 'बहुजणो अण्णमण्णस्स" अहींथी भांडीने “अभिमुहा विणएण पं'जलिउडा" सुधीना औषघातिङ सूत्रना ૩૮ મા સૂત્ર મુજબ ચંપાનગરી ગત શ્રી મહાવીર સ્વામીના આગમનપાઠમાં જે વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે તે બધુ અહીં. ગ્રહણુ સમજવુ. તે પાઠમાં જે છત્રાદિકકે જે તીર્થંકર પ્રકૃતિના અતિશયરૂપ છે- તેમનું ગ્રહણ અહીં કરવું નહિ. તેમજ 'समणे भगव' महावीरे' वगेरे लगवानना नाभोनी ज्या "पासावचिज्जे केसी नाम कुमारसमणे जाइस' पन्ने " यातना पाउनु ग्रहण समन्वु "जनशब्द इति वा" वगेरे पाडमा आवेस 'छति' शब्द वायास अरभां भने 'वा' शब् સમુચ્ચયના રૂપમાં છે.
'तए ण' तस्स चित्तस्स' इत्यादि, त्याच्छी ते चित्र सारथीने ते महान
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जनसमुदाय दृष्ट्वा च अयमेतद्रूपः आध्यात्मिको यावत् समुदपद्यत-समुन् त्पन्नः। यावच्छब्देन 'चिन्तितः, कल्पितः, प्रार्धितः, मनोगतः संकल्प:' इति पदसमूहः व्यशीतितममूत्रवद् बोध्यः। अर्थोऽप्येषां तत एव गम्य इति । सम्प्रति मनोगतसंकल्पस्वरूपमाह-'कि ण" इत्यादि । ति खलु 'किम्' इति वितकें, 'खलु' इति वाक्यालङ्कारे, अद्य श्रावस्त्यां नगर्याम् ईन्द्रमहःइन्द्रः शक्रः तन्निमित्तो महः उत्सवा= इति वा, एव स्कन्दमहः' इत्यारभ्य 'सागरमहः' इत्यन्तानां पदानामपि अर्थोऽनुसन्धेयः। नवरम्-स्कन्दा कार्ति
महान् जनशब्द को यावत् जनस पातको सुन करके और देख करके इस प्रकार का यह आध्यात्मिक यावत् संकल्प उत्पन्न हुआ. यहां यावत् शब्द से 'चिन्तित, कल्पित, प्रार्थित, मनोगत' ये विशेषण संकल्प के ग्रहण किये गये हैं। इनका अर्थ ८३वे सूत्र में स्पष्ट किया गया है। अतः वहीं से वह जानना चाहिये। किं णं' इत्यादि "किं' शब्द वितर्क में और 'खलु' शब्द वाक्याल कार में आया है। चित्र सारथी को जो संकल्प उत्पन्न हुआ है वही इन शब्दों द्वारा प्रकट किया गया है-क्या आज श्रावस्ती नगरी में इन्द्रमह है ? इन्द्र नाम शक्र का है. इस शक्र को निमित्त करके किया गया मह-उत्सव वह इन्द्रमह है. 'स्कन्दमह' से लेकर 'सागरमह' तक के पदों का अर्थ भी इसी प्रकार से जानना चाहिये. स्कन्द नाम कार्तिकेय
જનશબ્દને યાવત્ જનસંપાતને સાંભળીને અને જોઈને આ જાતનો આધ્યાત્મિક યાવત स४८५ (पन्न था. मी यावत् २०४थी "चिन्तित, कल्पित, प्रार्थित, मनोगत સંક૯પ માટે આ વિશેષણનું ગ્રહણ સમજવું. આ બધાને અર્થ ૮૩ મા સૂત્રમાં स्पष्ट ४२वाभा माव्य। छ. तेथी शिसुराना त्यांथी atी से नये. "किण त्याहि. "कि" श५६ वित: भाट सने "खलु” १५४ पाच्या ४२ मा प्रयुक्त થયેલ છે. ચિત્રસારથિને જે સંકલ્પ ઉત્પન થયે તેજ આ નિગ્ન શબ્દ વડે પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે કે શું આજે શ્રાવસ્તી નગરીમાં ઈદ્રમહ છે? ઇન્દ્ર શુક્રનું નામ छ. मा शानिमित वाये उत्सव मा छे. "स्कदमह" थी भान "सागरमह" सुधीना ii पहा मर्थ मा प्रमाणे 4 ongो न ४
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राजप्रश्नीयसूत्रे केयः, रुद्रः शिवः मुकुन्दः नारायणः, वैश्रवण: कुबेरः, नागो-भवनपतिविशेषः, भूतयक्षौ व्यन्तरविशेषौ, स्तूप: चैत्यस्तूप:शिखर वा,चैत्य-चितात्थित स्मारकचिह्नम्,क्षा अश्वत्थादिः, दरी-गुहा, गिरिः पर्वतः, अवटा गर्तः, नदी, सर सागरा:-समुद्राः । 'इति' शब्दः सर्वत्र स्वरूपनिर्देशपरः, 'वा' शब्द: समुच्चये । ततश्च इन्द्रमहादिषु कश्चिन्महोऽस्ति, यत्खलु इमे बहवः उग्रा भगवता आदिनाथेन आरक्षकपदस्थापितानां वंशजाताः, उग्रपुत्राः=कुमाराव स्थोपेता उग्राएव उग्रपुत्राः, भोगा: प्रादिनाथेन गुरुपदे स्थापितानां वशजाताः, भोगपुत्राः-तेषां पुत्रा एव, राजन्या: भगवताऽऽदिनाथेन वयस्यपदे स्थापित का है, रुद्र नाम महादेव का है मुकुन्द नाम नारायण का है, वैश्रवण नाम कुबेर का है. भवनपतिविशेष का नाम नाग है, भूत और यक्ष ये व्यन्तर विशेष हैं। स्तूप का नाम चैत्य स्तूप अथवा शिखर है, चितास्थित स्मारक चिह्न का नाम चैत्य है, पीपल बगैरह के झाड का नाम वृक्ष है, गिरि नाम पर्वत का है, गुफा का नाम दरी है, अवट का नाम गर्त, नदी, सर-तालाब और सागर ये सब अर्थतः प्रतीत ही है। इति शब्द यहां सब जगह स्वरूप. निर्देशपरक है 'वा' शब्द समुच्चय में है। इस तरह से उसने विचार किया कि क्या इन्द्रमहादिकों में से आज कोई मह-उत्सव है कि जिसमें ये अनेक उग्र-भगवान् आदिनाथ द्वारा जिन्हें आ रक्षक के पद पर स्थापित किया गया है, उनके वंश के लोग-जा रहे है ये अनेक उग्रपुत्रकुमारावस्थोपेत उग्ररूप उग्रपुत्र जा रहे हैं, ये भोग आदिनाथ भगवान जिन्हें गुरु के पद पर स्थापित किया उनके वंशके लोग जा रहे हैं, भोगपुत्र-उनके कुमारावस्थापन्न लडके जा रहे हैं, ये राजन्य-आदिनाथ કાર્તિકેયનું નામ છે. રુદ્ર મહાદેવનું નામ છે. મુકુન્દ નું નામ છે. નારાયણ શ્રવણ કુબેરનું નામ છે, ભવનપતિ વિશેષનું નામ નાગ છે. ભૂત અને યક્ષ એઓ વ્યક્તવિશેષ છે. સ્વપ નામ ચંત્યસ્તૂપ અથવા શિખરનું છે, ચિતસ્થિત સ્મારકચિહ્નનું નામ ચૌલ્ય છે. પીપળ વગેરે ઝાડનું નામ વૃક્ષ છે. ગુફાનું નામ દરી છે. ગિરિ પર્વતનું નામ અવટ ગર્તા છે, નદી સર-તળાવ અને સાગર આ બધાને અર્થે સ્પષ્ટ જ છે, ઇતિ શબ્દ અહીં સ્વરુપ નિદેશપરક છે. “વા” શબ્દ સમુચ્ચય માટે વપરાયે છે. આ પ્રમાણે વિચાર કર્યો કે શું આજે ઈન્દ્ર મહાદિકમાંથી કોઈ મહોત્સવ છે? કે જેથી એ ઘણું ઉગ્ર-ભાગવાન આદિનાથ વડે જેમને આરક્ષકદે પ્રતિષ્ઠિત કરવામાં આવ્યા છે તેમના વંશના લેકે જઈ રહ્યા છે, એઓ ઘણા ઉગ્રપુત્ર-કુમારાવસ્થાપિત ઉગ્રરૂપ ઉગ્રપુત્રે જઈ રહ્યા છે, એ ભેગ-આદિનાથ ભગવાને જેમને ગુરુપદે પ્રતિષ્ઠિત કર્યા છે તેમના વંશના લેકે જઈ રહ્યા છે, એ ભેગપુત્ર તેમના કુમારાવસ્થાપન્ન પુત્ર જઈ રહ્યા છે, એ
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सुबोधिनी टीका' सू. १०८ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ६३ तानां वंशजाताः, इक्ष्वाकव: इक्ष्वाकुशोद्भवाः, ज्ञाता: ज्ञातवंशीयाः, कौरव्याः कुरुव शोद्भवाः, 'जहा उववाईए तहेव' इतोऽग्रे 'खत्तिया माहणा' इत्यारभ्य 'चंदणोलित्तगायसरीरा' इतिपर्यन्तः सर्वोऽपि पाठ औपपातिकमूत्रोक्तश्री महावीरस्वामि वन्दनार्थगतोग्रोग्रपु दिवद् विज्ञेयः। अप्येकके हयगता अश्वारूढाः, यावत् अप्येकके गजगता: गजारूढाः, अप्येकके पादचारविहारेण महद्भिः अतिविशालैः वृन्दवृन्दैः पृथक पृथक समूहभूतै निर्गच्छन्ति=निस्स रन्ति-इति । एवम् अनेन प्रकारेण सप्रेक्षते, सप्रेक्ष्य कञ्चुकीयपुरुष शब्दयति, शब्दयित्वा एवम् अवादीत् उक्तवान्-किं खलु देवानुपियाः। अद्य श्रावस्त्यां नगर्याम् इन्द्रमह इति वा यावत् सागरमह इति वा वर्तते यत् खलु इमे बहव उग्रा यावद् निगच्छन्ति ? इति ॥ मू. १०८॥ ने जिन्हें मित्रपद पर स्थापित किया उनके वंश के लोग जा रहे हैं, ये इक्ष्वाकुवंश के लोग जा रहे हैं, ज्ञातवंशीयजन जा रहे हैं, ये कुरुवशीय जन जा रहे हैं, 'जहा उववाइए तहेव' यहां से आगे 'खत्तिया माहणा' से लेकर 'चंदणोलित्तगायसरीरा' यहां तकका समस्त पाठ जो कि औपपातिक सूत्र में कहा गया है उस समय, जब कि श्रीमहावीर स्वामी की बन्दना के लिये उग्र-उग्रपुत्रादि कहे गये हैं यहां ग्रहण करना चाहिये, इनमें से कितनेक अश्वपर चढ कर, कितनेक हाथीपर चढ कर और कितनेक पैदल ही चलकर तथा कितनेक अपना २ विशाल समुदाय वना कर पृथक २ रूप से निकल रहे हैं।
इस प्रकार विचार कर फिर उसने कंचुकीयपुरुष द्वारपाल को बुलाया और बुलाकर उससे ऐसा कहा-हे देवानुप्रिय ! आज क्या श्रावस्ती नगरी में રાજ આદિનાથે જેમને મિત્રપદે પ્રતિષ્ઠિત કર્યા છે તેમના વંશના લેકે જઈ રહ્યા છે, ઈશ્વાકુવંશના લેકો જઈ રહ્યા છે, એ જ્ઞાતવંશીય લેકે જઈ રહ્યા છે, એ કુરુवशीय सी ४६२हा छ, 'जहा उववाइए तहेव" मडी थी माण खत्तिया माहणा" थी भाडीने "चंदणोलित्तगायसरीरा' मही सुधीना सभरत पाउनुકે જે ઔયપાતિકસૂત્રમાં શ્રી મહાવીર સ્વામીની વંદના માટે ઉગ્ર ઉગ્ર પુત્રાદિ ગયા હતા–અહીં ગ્રહણ સમજવું. તેનાથી કેટલાક અશ્વ પર સવાર થઈને કેટલાક હાથી પર સવાર થઈને અને કેટલાક પગપાળાં જ ચાલીને તેમજ કેટલાક પિતાને વિશાળ સમુદાય બનાવીને જુદા જુદા આકારમાં ત્યાં જવા નીકળી રહ્યા છે.
આ પ્રમાણે વિચાર કરીને પછી તેણે કચુકીય પુરુષને બોલાવ્યા અને બેલાવીને તેને આમ કહ્યું કે-હે દેવાનુપ્રિય ! શું આજે શ્રાવસ્તી નગરીમાં ઈન્દ્રમહ યાવત
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राजप्रश्नीयसूत्रे मूलम्त एणं से कंचुईपुरिसे केसिस्स कुमारसमणस्स आगमणगहियविणिच्छए चित्त सारहि करयलपरिग्गहियं जाव वद्धावेत्ता एवं वयासी-णो खलु देवाणुप्पिया! अज सावथिए णयरीए इंदम हेइ वा जाव सागरमहेइ वा जे णं इमे बहवे जाव वदाविदएहिं निग्गच्छंति, एवं खलु भो देवाणुप्पिया ! पासावचिज केसी नामं कुमारसमणे जाइसंपन्ने जाव दुइजमाणे इहमागए जाव विहरइ । ते गं अज सावत्थीए नयरीए बहवे उग्गा जाव अप्पेगइया वंदण. वत्तियाए जाव महया महया वंदावंदएहिं णिग्गच्छति ॥सू०१०९॥
छाया-ततःखलु स कञ्चुकिपुरुषः केशिनः कुमार श्रमणस्य आग. मनगृहीतविनिश्चयः चित्रं सारथि करतलपरिगृहीतं यावत् वयित्वा एवमवादीतनो खलु देवानुप्रिय! अद्य श्राव त्यां नगर्याम् इन्द्रमह इति वा यावत्सा इन्द्रमह यावत् सागरमह है ? जो ये बहुत से उग्र, उग्रपुत्र आदि सबके सब अपने २ घर से निकल कर जा रहे है ? ॥१०८॥
'तएण से कंचुईपुरिसे केसिस्स कुमारसमणस्स' इत्यादि ।
सूत्रार्थ-(तए ण) इसके बाद उस कंचुको पुरुषने (केसिस्स कुमारसमण) केशी कुमारश्रमण के आगमन का गृहीत निश्चयवाला होकर चित्त सारहिं करयलपरिग्गहिय जाव वदावेत्ता एवं वयासो) चित्रसारथी से बडे विनय से दोनों हाथों की अंजलि बनाकर और उसे मस्तक पर घुमाकर एवं जयविजय शब्दों द्वारा उसे बधाई देकर इस प्रकार कहा-(णो खलु देवा. સાગરમહ છે? કે જેથી એ બધા ઉગ્ર, ઉગ્રપુત્ર વગેરે સૌ પોતપોતાના ઘરથી નીકળીને જઈ રહ્યા છે? ૧૦૮
"त एणं से कंचुईपुरिसे केसिस्स कुमारसमणस्स" इत्यादि. सूत्रार्थ-(त एणं) त्या२ पछी ते युधी पुरुष (केसिस्स कुमारसमण)
भार श्रमानी माननी पात भनमा पियारीने (चित्तं सारहिं करयल परिग्गहिय जाव वद्धावेत्ता एवं वयासी) यित्र साथिनी सामे विनम्रतापूर्व બને હાથની અંજલિ બનાવીને અને તેને મસ્તક પર ફેરવીને અને વિજય शव तेभने धामणी न्यायाने २L प्रमाणे ४ -(णो खलु देवाणुप्पिया !
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सुबोधिनी टीका. सूत्र १०९ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ६५ गरमह इति वा यत् खलु इमे बहवो यावद् वृन्दवृन्दैनिर्गच्छन्ति, एवं खलु भो देवानुप्रिय ! पार्धापत्यीयः केशी नाम कुमारश्रमणो जातिसंपन्नो यावत् दवन् इशागतो यावत विहरति । तत्खलु अद्य श्रावस्त्यां नगर्या बहव उग्रा यावत् अप्येककावन्दनवृत्तिताये यावतमहद्भिर्महद्भिन्दवृन्दै निर्गच्छन्ति ॥१०९।।
टीका-'तएण से इत्यादि ततः खलु स कन्चुकिपुरुषः केशिन: कुमारश्रमणस्य आगमनगृहीतविनिश्चयः--आगमनस्य गृहीतः निश्चयो येन स तथा-ज्ञात केशिकुमारागमनवृत्तान्तः सन् चित्रं सारथि करतलपरिगृहीतं यावद् वयित्वा एवम्-अवादीत् हे देवानुप्रिय ! अब खलु श्रावस्त्यां नगर्याम् इन्द्रमहादि सागरमहान्तेषु कश्चिद् महोउत्सवो नास्ति, यत् खलु इमे उग्रादयो यावद् वृन्दवृन्दैनिगच्छन्ति । एवं खलु भो देवानुपिय ! भवान् जानातु यदद्य खलु पापित्यीयः के शीनाम कुमारश्रमणो जातिसम्पन्नो यावत् द्रवय इह-श्रावणुप्पिया! अज्ज सावत्थीए णयरीए इंदमहेइ वा, जाव सागरमहेइ वा “हे देवा. नुप्रिय! आज श्रावस्ती नगरी में न इन्द्र उत्सव है अथवा यावत् न सागर उत्सव है (जेण इमे बहवे जाव विंदाविंदएहिं निग्गच्छति, एवं खलु भो देवाणुप्पिया! पासावचिजकेसी नाम कुमारसमणे जाइसंपन्ने जाब दुइज्जमाणे इष्टमागए जाव विहरइ) परन्तु जो ये बहुत से उग्र उग्रपुत्रादिक अनेक विशाल समुदायरूप में होकर निकल रहे हैं-सो उसका कारण यह है कि पार्धापत्यीय केशी नाम के कुमारश्रमण जो कि जातिसंपन्न आदि पूर्वोक्त विशेषणों वाले है तीर्थकर परम्परा के अनुसार विहार करते हुए, एक ग्राम से दूसरे ग्राम में धर्मोपदेश करते हुए यहां पधारे हैं यावत्कोष्ठक चैत्य में विरागते हैं। (तेण अज सावत्थीए नयरीए बहवे उग्गा, जाव अप्पेगइया बंदणवत्तियाए जाच महया महया वादाव'दए हिं णिग्गच्छति) अज्ज सवत्थीए णयरीए इंदमहेइ वा, जाव सागरमहेइवा) र हेवानुप्रिय ! मार श्रावस्ती नगरीमा नछन्द्र उत्सव छे ४ यावत् न सा१२ उत्सव छ. (जे णं इमे बहवे जाव विदाविदएहि निग्गच्छति, एवं खलु भो देवाणुप्पिया। पासावच्चिज्ज के सीनाम कुमारसमणे जाइसंपन्ने जाव दुइज्जमाणे इहमागए जाव विहरइ) ५४ मा मा उथ अपुत्रापि विशण समुहायना આકારમાં એકત્ર થઈને જઈ રહ્યા છે. તેનું કારણ એ છે કે પાર્થાપત્યય કેશી નામે કુમાર શ્રમણ કે જે જાતિસંપન્ન વગેરે પૂર્વોકત વિશેષણોવાળા છે, તીર્થંકર પરંપરા મુજબ વિહાર કરતાં કરતાં એક ગામથી બીજે ગામ ધર્મોપદેશ કરતા અહીં પધાર્યા છે. भने यावत ४४ शैत्यमा तेमाश्री विश 2. (ते णं अज्ज सावत्थीए नयरीए बहवे उग्गा, जाव अस्पेगइया वंदणवत्तियाए जाव महया महया वंदा.
श्रीशाप्रश्नीय सूत्र:०२
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राजप्रनीयसूत्रे
त्या नगर्याः कोष्ठके चैत्ये आगतो यावद् तत् खलु अद्य श्रावस्त्यां नगर्यां बहव उग्रा यावत् इभ्यपुत्रा अष्येक के वन्दनवृत्तितायै वन्दननिमित्त यावद् महद्भिर्महद्भिर्व्वन्दवृन्दै निर्गच्छन्तीति ॥ सू० १०९ ॥
मूलम् - तणं से चित्ते सारही कंचुइपुरिसस्स अंतिए एयमट्ठे सोच्चा निसम्म हट्टतुट्ठ - जाव - हियए कोडुंबिय पुरिसे सहावे इ. सदावित्ता एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवाणुष्पिया ! चाउग्घंटं आसरह जुत्तामेव उवटुवेह जाव सच्छत्तं उबटूवेति । तएणं से चित्ते सा - रही हाए कयबलिकम्मे कयको उय मंगलपायच्छित्ते सुद्धप्पावेसाई मंगलाई स्थाई पवरपरिहिए अप्पमहग्धामरणालंकियसरीरे जेणेव चाउघंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चाउग्घंट आसरहं दुरुहइ, सकोरिंटमलदा मेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं महया भडचडगरविंदपरिक्खित्ते सावत्थी नयरीए मज्झं मज्झेणं निग्गच्छइ निग्गच्छित्ता जेणेव कोटुए चेइए जेणेव के सिकुमारसमणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता के सिकुमारसमणस्स अदूरसामंते तुरए णिगि ues रहं ठवेइ य, ठवित्ता पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता जेणेव के सिकुमारसमणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता के सिकुमारसमणं तिक्खुत्तो आयाहिण -पयाहिणं करेइ, करिता वंदइ नमसइ वंदित्ता नमसित्ता णच्चासपणे णाइदूरे सुस्सुसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे पंजलिउडे विणणं पज्जुवासइ ॥ सू० ११० ॥
इस कारण आज श्रावस्ती नगरी में अनेक उग्र यावत् इभ्यपुत्रवन्दना करने के निमित्त यावत् विशालसमुदाय के रूप में होकर निकल रहे है । १०९ ।
वंद एहिं णिगच्छति) मेथी खाने श्रावस्ती नगरीभांथी धाशा » યાવત્ ઇભ્યપુત્રા વંદના કરવા માટે યાવવિશાળ સમુદાયના રૂપમાં એકત્ર થઈને જઇ રહ્યા છે. ૧૦૯મા
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सुबोधिनी टीका. ११० सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ६७
छाया-तत खलु स चित्रः सारथिः कञ्चुकिपुरुषस्य अन्तिके एतमर्थ श्रुत्वा निशम्य हष्टतुष्ट-यावद् हृदयः कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति शब्दयित्वा, एवमवादीतक्षिप्रमेव भो देवानुपिया ! चातुर्घण्टम् अश्वरथ युक्तमेव उपस्थापयत यावत्सच्छत्रम् उपस्थापयन्ति । ततः खलु स चित्रः सारथिः स्नातः कृतबलिकर्मा कृतकौतुकमङ्गलपायश्चित्तः शुद्धप्रवेश्यानि मङ्गल्यानि वस्त्राणि प्रवरप.
'तएण से चित्ते सारही कंचुइपुरिसस्स अतिए एयमटुं' इत्यादि ।
सूत्रार्थ-(तएणं से चित्ते सारही कंचुइपुरिसस्स अंतिए एयम सोचा निसम्म हट्टतुट्ठ जाव हियए कोडुबियपुरिसे सदावेइ) इसके बाद जब कि क'चुकी के मुख से इस अर्थ को सुना और उसका हृदय में विचार किया तब हृष्ट यावत् हृदय वाले होकर उस चित्रसारथिने कौटुम्बिकपुरुषोंआज्ञाकारी पुरुषों को बुलाया, (सहावित्ता एवं बयासी) बुलाकर उसने ऐसा कहा (खिल्पामेव भो देवाणुप्पिया! चाउग्घंटं आसरहं जुत्तामेव उवट्ठवेह) हे देवानुमियो ! आप लोग चातुर्घट-(चारघंटोवाले) अश्वरथ को घोडों से युक्त करके शीघ्र ही उपस्थित करो (जाव सच्छत्त उवट्ठवें ति) अपने स्वामी की इस प्रकार आज्ञा के वचन सुनकर यावत् उत्तम छत्र सहित अश्वरथ को उन्होंने लाकर उपस्थित कर दिया. (तएण से चित्ते सारही हाए कयबलिकम्मे, कयकोउयम गलपायच्छित्तो) रथ को उपस्थित हुआ जानकर चित्र साएथिने स्नान किया, बलिकर्म किया अर्थात काक
"त एणं से चित्ते सारही कचुइपुरिसस्स अंतिए एयम” इत्यादि
सूत्रार्थ:-(त एणं से चित्ते सारही कंचुइपुरिसस्स अंतिए एयम8 सोचा निसम्म हट्टतुट्ठ जाव हिय ए कोडुविय पुरिसे सदावेइ) न्यायुमीना મુખથી આ બધી વિગત સાંભળી ત્યારે તેણે મનમાં વિચાર કર્યો અને હષ્ટ યાવત્ હદયવાળો થઈને તે ચિત્રસારથીએ કૌટુંબિક પુરૂષને–આજ્ઞાકારી પુરૂષને બેલાવ્યા. (सदावित्ता एव वयासी) मासावीन तभने म प्रमाणे . (खिरपामेव भो देवाणुप्पिया! चाउग्घंटे आसरह जुत्तामेव उववेह) 3 हेवानुप्रिय ! ५ सौ सत्वरे यातुध (या२ धावा) अश्वथने Alord 3रीन सावा. (जाव सच्छत्तं उवहवें ति) पोताना स्वाभीनी प्रमाणे माझा सinीने यावत् तेभ ઉત્તમ છત્રસહિત અધરથ લાવીને ઉપસ્થિત કર્યો.
(त एण से चिते सारही पहाए कयवलिकम्मे, कयकोउयमंगलपायच्छित्तो) २थने यावेडो नन थिसारथिये स्नान ४यु, मसिभ यु भने स्वप्नना निवारा डौतु, भ६३५ प्रायश्चित्तनी विधिमा संपन्न ४२१. सुद्ध
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राजनीयसूत्रे
रिहितः, अल्प महार्घाभरणालङ्कृतशरीरो यत्रैव चातुर्घण्टो अश्वरथस्तत्रैव उपा गच्छति, उपागत्य चातुर्घण्टम् अश्वरथं दुरोहति, सकोरण्टमाल्यदाम्ना छत्रेण त्रियमाणेन महाभट - चटकरवृन्दपरिक्षिप्तः श्रावस्तीनगर्याः मध्यमध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रव कोष्टकं चैत्य यत्रैव केशिकुमारश्रमणस्तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य केशिकुमारश्रमण त्रिकृत्वः आदक्षिणपदक्षिणं करोति,
आदि को अन्न का भाग दिया एवं दुःस्वप्न को विनाश करने के लिये कौतुक, मंगलरूप प्रायश्चित्त किया, (सुद्धपावेसाई मंगलाइ बत्थाई पवरपरिहिए अप्पमहग्याभरणालकियसरीरे जेणेव चाउघंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ) बाद में उसने शुद्ध, परिषदा में प्रवेशयोग्य, मांगलिक, वस्त्रों को अच्छी तरह से पहिरा एवं विशिष्ट कीमतवाले तथा अल्प वजनवाले ऐसे आभूषणों से अपने शरीर को अलंकृत किया. ( जेणेत्र चाउघंटे आसरहे तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता चाउग्धटं आसरह दुरुह ) बाद में वह जहां चारघंटों वाला अश्वरथ खडा था वहां पर आया - वहां आकर वह उस चातुर्घट अश्व रथ पर बैठ गया (सकोरिंटमल्लदामेण छत्तेण धरिज्जमाणेणं महया भउचडगर विंदपरिक्खित्ते सावत्थी मज्झमज्झणं निग्गच्छ३) छत्रधारण करने वालेने उसके ऊपर कोरंटपुष्पों की मालाओं से सुशोभित छत्र तान दिया, विशाल भटों का समूह उसके आसपास आकर खडा हो गया इस प्रकार होकर फिर वह श्रावस्ती नगरी के बीचों बीच से होता हुआ निकला ( नग्गच्छित्ता जेणेव कोट्ठए
पावेसाई' 'गलाई वत्थाई पवरपरिहिए अप्पमहग्घाभरणालंकियसरी रे चाउटे आसरहे तेणेव उवागच्छड़) त्यारबाट तेथे सारी रीते शुद्ध, मुनिपरिષદામાં પ્રવેશ ચાગ્ય, માંગલિક વસ્ત્રો ધારણ કર્યાં. તથા બહુ કંમતી અને અલ્પलारवाजा आभूषणे। पहेरीने पोताना शरीरने खसंत यु. ( जेणेव चाउरघ दे आसरहे तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता चाउरघंट आसरह दुरुह ) ત્યાર બાદ જ્યાં ચાર ઘટાવાળા અધરથ હતા ત્યાં ગયા. ત્યાં જઇને તે ચાતુ ટ २थ पर सवार थयेो. (सकोरिंटमल्लदा मेणं छत्तेण धरिज्जमाणेण महया भड चडगरविंद परिविखत्ते सावत्थीए नयरोए मज्झ मज्झेण निग्गच्छ) ७२ ધારણ કરનારાએ તેમના ઉપર કારટ પુષ્પોની માળાઆથી સુશેાભિત છત્ર તાણ્યું વિશાળ ભટોના સમૂહા આવીને તેની આસપાસ ચામેર વિંટળાઇ ગયા. આ પ્રમાણે ते श्रावस्तीनी नगरीनी वस्थे थाने नीयो. (निगच्छित्ता जेणेव कोट्ठए चेइए
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सुबोधिनी टीका सु. ११० सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम्
कृत्वा वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा नात्यासन्ने नातिदूरे शुश्रूषपाणा नमस्यन अभिमुखे प्राञ्जलिपुटो विनयेन पर्युपासते । ११० |
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चेइए के सिकुमारसमणे तेणेव उवागच्छइ) निकलकर वह जहां कोष्ठक चैत्य था और उसमें भी जहां केशीकुमारभ्रमण थे वहां पहुँचा (उबागच्छित्ता के सिकुमारसमणस्य अदृरसाम ते तुरए णिगिव्हइ ) वहां पहुँच कर उसने केशिकुमारश्रमण के स्थान से कुछ थोडी दूर पर घोडां को खडा कर दिया (रह ठवेs) रथको खड़ा कर दिया (ठचित्ता पच्चोरुहई ) खडा करके फिर वह उससे नीचे उतरा (पचोरुहिता जेणेव के सिकुमारसमणे तेणे व उवागच्छइ) नीचे उतर कर वह जहां केशीकुमार श्रमण थे वहां पर गया ( उवागच्छित्ता के सिकुमारसमण तिक्खुत्तो आग्राहिणपयाहिण करेइ) वहां जाकर उसने केशीकुमार श्रमण को तीनबार प्रदक्षिणा की (करिता वंदन, नमसइ) प्रदक्षिणा करके फिर उसने उनको बन्दना की, नमस्कार किया (वदिता नमसित्ता णच्चासरणे णाइदूरे सुस्सुसमाणे णर्मसमाणे अभिमुद्दे पंजलिउडे विणणं पज्जुवासइ) वन्दना नमस्कार करके फिर वह न अधिक दूर और न अधिक पास ऐसे उचित स्थान पर धर्मोपदेश सुनने की इच्छा से बैठ गया. वहां बेटे ही उसने उनके समक्ष विनय से दोनों हाथ जोडकर उनकी पर्युपासना की. ! टीकार्थ इसका स्पष्ट है ॥ ११० ॥
जेणेव केसि कुमारसमणे तेणेव उवागच्छइ) नीजीने ते ज्यां श्रेष्ठ सैत्य तु . भ्यने तेमां पशु नयां देशीकुमार श्रम हृता त्यां गयो, ( उवागच्छित्ता के सिकुमार समणस्स अदूरसाम ते तुरए णिगिण्हइ) त्यां पडथीने तेथे शिकुमार श्रमगुना स्थानथी थोड़ा अ ंतरे घोडामाने उलाराभ्या. (रह ठवेइ) स्थने थालाव्या. ( ठवित्ता पत्रोरुहई) उलो शमीने पछी ते रथ परथी नीचे उतय. (पबोरुहित्ता जेणेव के सिकुमारसमणे तेणेव उपागच्छई) नीचे उतरीने ते भ्यां शीकुमार श्रम इता त्यां गये।. (उवागच्छित्ता के सिकुमार समण तिक्खुत्तो आयाहिणययाहिणं करेइ) त्यां बर्धने तेषु शीकुमार श्रमणुनी प्रणुषार प्रदक्षिणा उरी. (करिता बंद, नमसइ) प्रदक्षिणा मरीने तेथे तेमने वहन र्या, नमस्सार र्या. ( वंदित्ता नमसित्ता पचासणे णाइदरे सुस्सुसमाणे णमसमाणे अभिमुहे पंजलिउडे विणण पज्जुवासड़) वंढना तेभन नमस्डार अरीने ते दूर पण नहि भने वधारे નજીક પણ નહિ એવા ચેાગ્ય સ્થાન પર તે ધર્મ શ્રવણની ઇચ્છાથી એસીને જ તેણે તેમની સામે વિનયપૂર્વક હાથ જોડીને તેઓશ્રીની પ`પાસના કરી.
टीअर्थ – सूत्र स्पष्ट ४ हे. ॥११०॥
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राजप्रश्नीयसूत्रे _ 'तएणं से' इत्यादिटीका-एतत्स्चस्थपदानां व्याख्या पूच 'गता, अतइदं व्याख्यातपायमितिासू.११०।
मूलम्-तएणं से केसिकुमारसमणे चित्तस्स सारहिस्स तीसे महइमहालयाए परिसाए चाउज्जामं धम्म परिकहेइ, तं जहासव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं, सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं, सव्वाओ आदिन्नादाणाओ वेरमणं, सव्वओ बहिद्धादाणाओ वेरमणं तएणं सा महइमहालिया परिसा केसिस्स कुमारसमणस्त अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म जामेव दिसि पाउभ्या तामेव दिसि पडिगया।सू.१११।
छाया--ततः खलु स केशिकुमारश्रमणः चित्राय सारथये तस्यां महा. तिमहालयायां परिषदि चातुर्याम धर्म परिकथयति, तद्यथा-सर्वस्मात् पाणातिपाताद् विरमणम् ?, सर्वस्मात् मृषावादाद् विरमणम् २, सर्व स्मात् अदत्तादानाद् विरमणम्३, सर्वस्माद्यहिरादानाद विरमणम्।। ततः खलु सा महातिम
'तएणं से केसिकुमारसमणे' इत्यादि ।
सूत्रार्थ-(तएणं से के सिकुमारसमणे) इसके बाद (के सिकुमारसमणे) केशिकुमार श्रमणने (वित्तस्स सारहिस्स) चित्र सारथि के लिये (तोसे महइमहालयाए) उस अति विशाल (परिमाए) परिषदा में (चाउ जाम धम्म परिकहेइ) चातुर्याम धर्म का (परिकहेइ) मरूपण किया-उपदेश दिया (तं जहा-सव्वओ पाणाइवायाओ बेरमण, सव्वओमुसावायाओ वेरमण', सव्वओ आदिन्नादाणाओ वेरमण सव्वओ बहिद्धादाणाओ वेरमण') वे चातुर्याम ये हैं-१ समस्त प्राणातिपात से विरक्त (निवृत्त) होना, २
'तएण से केसिकुमारसमाणे' इत्यादि ।
सूत्रा:-(तएण से के सिकुमारसमणे) त्या२ ५४ी थिभार श्रम (चित्तस्स सारहिस्स) चित्र साथि भाटे (तीसे महइमहालयाए) ते मति विशा (परिसाए) परिपामा (चाउज्जाम धम्म परिकहेइ) यातुर्याभ धमनी (परिकहेइ) ५३५ ४२री. मेटवे 3 पहेश श्यो. (त जहा सवाओ पाणाइवायाओ वेरमण, सव्वाओ, मुसावायाओ वेरमण, सव्याओ आदिन्नादाणाओ वेरमण, सव्वाओ बहिद्धादाणारी वेरमण') ते यातुर्याम धर्मनी विशेष विशात २॥ प्रमाणे छ-(१) समस्त प्रातिपातथी वि२४त (निवृत्त) यु. (२) समस्त भूषापाथी वि२.
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सुबोधिनी टीका सू. १११ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् हालया परिषत् केशिनः कुमारश्रमणस्यान्तिके धर्म श्रुत्वा निशम्य यस्या एव दिशः प्रादुर्भूता तामेव दिशे प्रतिगता ॥ सू० १११॥
_____टीका-'तएण से इत्यादि-ततः खलु स केशीकुमारश्रमणः चित्राय सारथये-चित्रं सारथिमुद्दिश्य तस्यां महातिमहालयायाम् अतिविशालायां परिषदि चातुर्याम चतुर्णाम् चतु:संख्यकानां यामानां=यमा एव यामास्तेषां समाहारश्चतुर्याम, तदेव चातुर्याम, तदस्ति यस्मिन् स चातुर्यामस्त धर्म परिकथयति व्याख्याति, तद्यथा-सर्वस्मात् प्राणातिपाताद् विरमण = सकलमाणिप्राणवियोजनानुकूलव्यापारतो विनिवृत्तिः१, सर्वस्माद् मृषा. वादाद् विरमणम्-सर्वविधाऽसत्यभाषणाद् विनिवृत्तिः, तथा-सर्वस्मात समस्त मृषावाद से विरक्त होना, ३ समस्त अदत्तादान से विरक्त होना और समस्त बहिरादान से विरक्त होना (तएणं सा महइमहालिया परिसा के सिस्स कुमारसमणस्स अंतिए धम्मं सोचा निसम्म हट्टतुट्ट० जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया) इस तरह केशिकुमार श्रमण से चातु.
र्याम धर्म का उपदेश सुनकर और हृदय में उसे धारण कर वह अतिविशाल परिषदा हृष्ट तुष्ट यावत हृदयवाली होती हुई जहां से आई थी वहां पर पीछी चली गई.
टीकार्थ मूलार्थ के ही अनुरूप है. चातुर्यान धर्मका उपदेश किया-सो इसका तात्पर्य ऐसा है कि चातुर्याम वाले धर्म का उपदेश दिया. सकल प्राणियों के प्राणों को वियोजन (अलग) करने के अनुकूल व्यापार से रहित होना इसका नाम प्राणातिपात विरमण है. इसी तरह समस्त प्रकार के अस. त्यभाषण करने से दूर रहना-उसका त्याग करना इसका नाम मृषावादકત થવું. (૩) સમસ્ત અદત્તાદાનથી વિરકત થવું અને સમસ્ત બહિરાદાનથી વિરકત थ. (तए ण सा महइमहालिया परिसा केसिस्स कुमारसमणस्स अंतिए धम्म सोचा निसम्म हट्टतुट्ट जामेव दिसिं पउन्भूया तामेच दिसि पडिगया) આ પ્રમાણે કેશિકુમાર શ્રમણથી ચાતુર્યામ ધમને ઉપદેશ સાંભળીને અને હદયમાં તેને ધારણ કરીને તે અતિ વિશાળ પરિષદા હતુષ્ટ યાવત્ હૃદયવાળી થઈને જ્યાંથી આવી હતી ત્યાં ફરી જતી રહી.
ટીકાઈ–મૂલાઈ પ્રમાણે જ છે. ચાતુર્યામ ધર્મને ઉપદેશ કર્યો એટલે કે ચાતુ ર્યામવાળા ધર્મને ઉપદેશ કર્યો. સકળ પ્રાણુઓના પ્રાણોને વિયુકત કરનાર જે વ્યાપાર (કાર્ય હોય છે તેનાથી રહિત થવું એટલે કે કોઈ પણ પ્રાણીને કોઈ પણ રીતે પ્રાણ વિયુક્ત ન કરવું તે પ્રાણાતિપાત વિરમણ છે. આ પ્રમાણે જ સમસ્ત પ્રકારના અસત્યાચરણથી દૂર રહેવું – અસત્યને સર્વથા ત્યાગ કરે. તે મૃષાવાદ વિરમણ છે.
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राजप्रश्नीयसूत्रे अदत्तादानात सकलविधाचौर्याद विरमण विनिवृत्तिः, तथा-सर्वस्माद बहिरादाना-धर्मोपकरणातिरिक्तपरि ग्रहोपादानाद् बिरमणम् । मैथुनविरमणस्य परिग्रहे एचान्तर्भावः, नहि अपरिगृहीता स्त्री परिभुज्यतेऽतो मैथुन-बिर. मणरूप महाव्रत न पृथगुपात्तमिति । उपलक्षणाद अगारधम मपि परिकथयति । ततः खलु सा महातिमहालया परिषत् कोशिनाकुमारश्रमणस्य अन्तिको समीपे धर्म श्रूत्वा सामान्यतः, निशम्य-विशेषतो हृद्यवधार्य यस्या एव दिशः प्रादुर्भूता, तामेव दिश प्रतिगता ।।मू० १११।।
मूलम्-तएणं से चित्ते सारही केसिस्स कुमारसमणस्स अंतिए धम्मं सोचा निसम्म हट जाव-हियए उठाए उट्टेइ, उद्वित्ता केसिंकुमारसमणं तिक्खुत्तो आयाहिणययाहिणं करेइ वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-सदहामि णं भंते ! णिग्गथ पावयण,
विरमण है. समस्तप्रकार के अदत्तादान से-वौयकर्म से दर रहना उसका त्याग करना इसका नाम अदत्तादानविरमण है, तथा धर्मोपकरण से अतिरिक्त परिग्रह का त्याग करना इसका नाम बहिरादान विरमण है। मैथुन विरमण को यहां स्वतंत्र रूप से व्रत नहीं माना गया हैं. क्यों कि उसका अन्तर्भाव परिग्रह में ही हो जाता है। क्यों कि जो स्त्री भोग के काम आती है वह अपरिगृहीत हुई नहीं आती है किन्तु परिगृहीत हुई ही आती है। उपलक्षण से उन्होंने आगारधर्म का भी कथन किया. इस तरह केशिकुमार श्रमण के पास धर्म का उपदेश सामान्य रूप से सुनकर और उसे विशेषरूप से हृदय में धारण करके वह अतिविशाल परिषदा जहां से आई थी वहीं पर पीछी चली गई ॥ १११ ।।
સમસ્ત પ્રકારના અદત્તાદાનથી-ચૌર્યકર્મથી દૂર રહેવું તે કર્મનો ત્યાગ કરે–તે અદત્તાદાન વિરમણ છે. તેમજ ધર્મોપકરણોતિરિક્ત પરિગ્રહનો ત્યાગ તે બહિરાદાન વિરમણ છે. મૈથુન વિરમણને અહીં સ્વતંત્રપણે વ્રતરૂપે નિર્દેશ કર્યો નથી કેમકે તેને પરિગ્રહમાં જ અન્તર્ભાવ કરવામાં આવ્યું છે. કેમકે જે સ્ત્રી ભેગ માટે આવે છે તે અપરિગ્રહીત થઈને નહિ પણ પરિગ્રહીતના રૂપમાં જ આવે છે. ઉપલક્ષણથી તેઓ શ્રીએ અગાર ધર્મનું પણ કથન કર્યું છે. આ પ્રમાણે સામાન્યરૂપથી કેશિકુમાર શ્રમણ પાસેથી ધર્મોપદેશ સાંભળીને અને તેને સવિશેષરૂપમાં હદયમાં ધારણ કરીને તે અતિ વિશાળ પરિષદા જ્યાંથી આવી હતી ત્યાં પાછી જતી રહી. ૧૧૧
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सुबोधिनी टीका सु. ११२ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्ण' नम्
रोयामि णं भंते! णिग्गंथं पावयणं, अब्भुट्टेमि णं भंते । निग्गथ पावयण, एवमेयं भते । निग्गंथे पावयणे, तहमेयं भते । निग्गंथे पावणे अवितहमेय निग्गंथे पात्रयणे, असंदिद्धमेयं भते ! निग्गंथे पावयणं, इच्छियमेयं भते । निग्गंथे पावयणे, पडिच्छियमेयं भंते! निग्गथे, पात्रयणे, इच्छियपडिच्छियमेयं भंते ! निग्गथे पावयणे, जं
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तुभेवदहत्तिक दइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी - जहा णं देवाणुप्पियाणं अंतिए बहवे उग्गा भोगा जाव इब्भा इब्भपुत्ता चिच्चा हिरण्णं चिच्चा सुवण्णं, एवं धणं धन्न बलवाहणं कोसं कोट्टागारं पुरं अंतेउरं, चिच्चा विउलं धणकणगरयणमणिप्रोत्तिय संखसिलप्पवाल संतसारसावएजं, विच्छडित्ता विगोवइत्ता दाणं दाइत्ता परिभाइत्ता मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वयंति, णो खलु अहंता संचाएमि चिच्चा हिरण्णं तं चैव जाव पव्वइत्तए । अहं णं देवाणुप्पियाणं अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खा - वइयं दुवालसविहं गिहिधम्मं पडिवजित्तए । अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेहि । तएणं से चित्तं सारहा केसिकुमारसमणस्स अंतिए पंचाणुव्वइयं जाव गिहिधम्म उवसंपजित्ता णं विहरइ । तरणं से चत्ते सारही केसिकुमारसमणं वदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव पहारेत्थ गमणाए, चाउग्घंटं आसरहं दुहरुइ, जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव दिसि पडिगए ॥ सू० ११२ ॥
छाया - ततः खलु स चित्रः सारथिः केशिनः कुमारश्रमणस्य अन्तिके धर्म श्रुत्वा निशम्य हृष्ट यावद - हृदय: उत्थया उत्तिष्ठति, उत्थाय कोशिन
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राजप्रश्नीयसूत्रे कुमारश्रमण त्रिकृत्वा आदक्षिण-प्रदक्षिण करोति, वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीत्-श्रद्दधामि अलु भदन्त ! नेग्रन्थं प्रवचनम्, प्रत्येमि खलु भदन्त ! नै ग्रन्थं प्रवचनम्, रोचयामि खलु भदन्त ! नैर्ग्रन्थ प्रवचनम्, अभ्युत्तिष्ठे खलु भदन्त ! नर्ग्रन्थं प्रवचनम्, एवमेतद् भदन्त ! नैर्ग्रन्थं प्रवचनम्, तथैवैतद् भदन्त ! नैर्ग्रन्थं प्रवचनम्. अवितथमेतद् भदन्त ? नैर्ग्रन्थ प्रवचनम्, असन्दिग्धमेतद् भदन्त ! नैर्ग्रन्थ प्रवचनम्, इष्टमेतद्
'तएणं से चित्तें सारही इत्यादि।
सूत्रार्थ-(तएणं) इसके बाद (से चित्ते सारही) वह चित्र सारथि (केसिस्स कुमारसमणस्स अंतिए धम्मं सोचा निसम्म) केशीकुमार श्रमण के पास धर्म को सुनकर और उसे हृदय में अवधृतकर (हट्ट जाव हियए) हर्षित हुआ संतुष्ट हुआ यावत् (उठाए उ8 इ) अपने आप उठा-(उद्वित्ता केसि कुमारसमण तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ) और उठकर उसने के शिकुमारश्रमण की तीन आदक्षिणप्रदक्षिणा की (वंदइ नमसइ) वन्दना की नमस्कार किया (वदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी) वंदना नमस्कार कर फिर वह इस प्रकार बोला-(सदहामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं रोयामि णं भंते ! णिग्गथ' पावयण' अन्भुट्टेमि ण भते ! णिग्गंथ पावयणं एवमेय भते! निग्गय पावयण असदिद्धमेय भाते ! निग्गय पावयणं) हे भदन्त! मैं निर्ग्रन्थप्रवचन की श्रद्धा करता हूं। हे भदन्त ! में निर्ग्रन्थप्रवचन की प्रतीति करता हूं, हे भदन्त ! मैं निग्रन्थ प्रवचन को अपनी रुचि का
'त एण से चित्ते सारही' इत्यादि ।
सूत्रार्थ:-(त एण) त्या२ ५छी (से चित्ते सारही) ते यत्र साथि (केसिस्स कुमारसमणस्स अतिए धम्म सोच्चा निसम्म) शोभा२ श्रभानी पासेथी धम सामनीने अने तेन या घा२९५ ४शन (हट्ठजाव हियए) हर्षित थयो. संतुष्ट थयो यावत् (उठाए उट्टेइ) चातानी भेणे sal थय। (उहित्ता केसि कुमारसमण तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिण' करेइ) मने से थने तेरे शीभार श्रभाशुनी त्रशु पा२ माइक्षिण प्रक्षिए। ४२. (व'दइ नमसइ) ना ४ नमः४१२ ध्या. (वदित्ता, नमसित्ता एवं वयासी) नारीन ते 20 प्रभारी वा साये।(सदहामिण भते! निग्गथ पावयण रोयामिण भते ! णिग्गथ पावयण अब्भुट्टोमि णं भंते ! निरगथं पाब्वयण एवमेयं भंते ! णिग्गंथं पावयणं असंदिद्धमेयं भंते ! निग्गंथं पावयणं) B RE ! दुनिय अवयनमा श्रद्धा भु છું. હે ભદત ! હું નિગ્રંથ પ્રવચનમાં પ્રતીતિ રાખું છું, હે ભદત હું નિગ્રંથ પ્રવચનને
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सुबोधिनी टीका. सू. ११२ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् भदन्त ! नैग्रन्थ प्रवचनम्, प्रतीष्टमेतद् भदन्त ! नैर्ग्रन्य प्रवचनम् इष्टप्रतीष्टमेवद् भदन्त ! नैग्रन्थं प्रवचनम् यत् खलु यूयं वदथेति कृत्वा वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीत-यथा खलु देवाणुप्रियाणाम् अन्तिको बहव उग्रा भोगा यावत् इभ्या इभ्यपुत्रास्त्यक्त्वा हिरण्य त्यत्तवा सुवर्णम् एवं धन धान्य बल वाहन कोश कोष्ठागारपुरम् अन्तःपुर', त्यक्त्वा विषय बनाता हूं. हे भदन्त ! मैं इस निग्रन्थ प्रवचन को स्वीकार करता हूं. हे भदन्त ! आप जैसा इस निम्रन्थ प्रवचन का प्रतिपादन करते हैं, वह वैसाही है. हे भदन्त ! यह निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य है हे भदन्त ! यह निर्ग्रन्थ प्रवचन सन्देह रहित है। (इच्छियमेय भते! निग्गथे पावयणे, पडिच्छियमेय भंते निग्गंथे पाचयणे) हे भदन्त ! यह निर्ग्रन्थ प्रवचन इष्ट है,हे भदन्त ! यह निर्ग्रन्थ प्रवचन प्रतीष्टहै। (इच्छियपाडिच्छियमेय भते ! निग्गथे पावयणे) हे भदन्त ! यह निर्ग्रन्थ प्रवचन इष्टप्रतीष्ट दोनोरूप है. (जं ण तुन्भे वदह, त्ति कटु वंदइ, नमसइ) जैसा कि आप कहते हैं इस प्रकार कहकर उसने उसको वन्दना की नमस्कार किया, (बदित्ता नम सित्ता एवं वयासी) वन्दना नमस्कार कर फिर उसने ऐसा कहा (जहाण देवाणुप्पियाण अंतिए बहवे उग्गा, भोगा जाव इब्मा इब्भपुत्ता चिच्चा हिरण्ण', चिच्चा सुवण्ण, एवं धण धन्न बल वाहण कोस कोट्ठागारं पुर अंते उर) आप देवानुपिय के पास जिस प्रकार अनेक उग्र भोग यावत् इभ्य પિતાની રુચિનો વિષય બની છું. હે ભદંતહં આ નિર્ચ પ્રવચનને સ્વીકારું છું. હે ભદંત ! આ નિગ્રંથ પ્રવચનનું આપ શ્રી જે પ્રમાણે પ્રતિપાદન કરી રહ્યા છે. અક્ષરશઃ યથાવત્ છે. હે ભદંત ! આ નિગ્રંથ પ્રવચન સત્ય છે, હે ભદંત ! આ निथ प्रयन सटेड २डित छ. (इच्छियमेयं भंते ! निग्गथे पावयणे, पडिच्छियमेय भते निग्गंथे पावयणे) हे महत! मा निथ प्रयन ष्ट छ, डे महत! म निथ प्रक्यन प्रतीष्ट छे. (इच्छियपडिच्छियमेयं भंते ! निग्गंथे पावमणे) हे महत! म निथ अवयन ४ट भने प्रतीष्ट मन्ने छ. (जं गं तुब्भे बदह, तिकटु वंदइ नमसइ) रे प्रमाणे भा५श्री ही २ छ। ते प्रमाणे ४ छे. साम डीने तो बहना तेम नमा२ ४ा. (बदित्ता नमंसित्ता एवं. वयासी) न तभ०४ नम२४.२ ४शन तो तमाश्रीन २ प्रमाणे धु-(जहाणं देवाणुप्पियाणं अंतिए बहबे उग्गा, भोगा: जाच इन्भा इब्भपुत्ता चिच्चा हिरणं. चिच्चा सुवण्णं. एवं धणं धन्न बलं वाहणं कोसं कोट्ठागारं पुरं अतेउर) साप हेवानुप्रियनी पासे रेभ अश्र, लोग यावत् एल्य भने ल्यपुत्री
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राजप्रश्नीयसूत्रे
विपुल धनकनकरत्नमणिमौक्तिक शङ्खशिलामवालसत्सारस्वापतेयं विच्छ विगोप्य दान दत्त्वा परिभाज्य मुण्डा भूत्वा अगारात् अनगारितां पत्रजन्ति, नो खलु अहं तावत् शक्नोमि त्यक्त्वा हिरण्य ं तदेव यावत् प्रव्रजितम् । अह खलु देवानुप्रियाणाम् अन्तिके पञ्चाणुव्रतिक' सप्तशिक्षाव्रतिक' द्वादशविधं गृहिधर्म प्रतिपत्तुम् । यथासुखं देवानुप्रिय ! मा प्रतिबन्ध कुरु । ततः और इभ्य पुत्र हिरण्य को छोडकर, सुवर्ण को छोडकर एवं धन धान्य. बल, वाहन, कोश, कोष्ठागार, पुर और अन्तःपुर को (चिच्चा) छोडकर (विडलं धणकणगरयण मणिमोत्तिय संख सिलप्पवालस' तसार सावएज', बिग्छडिज्जा, विगोवइत्ता, दाण दाइत्ता) तथा विपुल, धन, कनक, रत्न मौक्तिक शंख शिलाप्रवाल एवं सत्सारस्वापतेय को छोड़कर तथा उन सबको विशाल प्रमाण में दीन दरिद्र आदिकों के लिये वितरित कर (परिभाइत्ता) पुत्रादिको में विभक्त (विभाग) कर (मुंडा भविता अगाराओ अणगारियं पव्वय ति) बाद में मुंडित होकर के अगार अवस्था को धारण करते हैं (जो खलु अह' ता संचाएमि, चिच्चा हिरण्णं त चेव जाव पवइन्तए) वैसा मैं हिरण्य आदि को छोडकर दीक्षा धारण करने के लिये समर्थ नहीं हूं, (अहंण देवाणुप्पियाण अतिए पंचाणुब्बइयं सत्तसिक्खावइयं दुबालस बिह गिहिधम्मं पडिवज्जितए) मैं ता आप देवानुप्रिय के पास पांच अणुव्रतवाले एवं साततशिक्षा व्रतवाले इस तरह १२ प्रकार के गृहस्थ धर्म को धारण कर सकता हूँ | ( अहासुहं देवाणुपिया ! मा पडिबंध करेहि) आप डिरएयनो त्याग उरीने मने धन, धान्य, जज, वाहन, प्रेश, श्रेष्ठागार, पुर मने भ्यतःपुर-२शुवास (चिच्चा) ना त्याग उरीने ( चिउळघणकणगरयणमणिमोतियसंखसिलप्पवालसंत सारसावएज्जं, विच्छडिज्जा, विगोवइत्ता, दाणं दाइत्ता તેમજ વિપુલ ધન, કનક, રત્ન, મૌતિક શંખ શિલા પ્રવાલ અને સત્તાર સ્વાયતૈય ના ત્યાગ કરીને તેમ જ પુષ્કળ પ્રમાણમાં દીનદરિદ્ર વગેરે લોકોને આપીને (परिभाइता ) पुत्रप्रेमां बड़ेथीने (मुंडा भवित्ता अगाराओ अगगारिय पव्वय ति) त्यार माह भुडित थर्धने अगार अवस्थामांथी अनगार व्यवस्थाने धार ४२ छे. (णो खलु अहं ता संचाएमि, चिच्चा हिरण्ण ं तं चैव जाव पव्त्रत्तए) तेभ हु' डिरएय वगेरेना त्याग उरीने दीक्षा धारा १२वामां असमर्थ छु (अहं णं देवाप्पियाण अंतिए पंचाणुब्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्मं पडिवज्जित्तए) आपश्री पासेथी हुं तो इस पांच अनुव्रतवाजा भने અને સાત શિક્ષાવ્રતવાળા આમ ૧૨ પ્રકારના ગૃહસ્થ ધર્મને સ્વીકારી શકું છું. ( अहामुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध करेहि) आप हेवानुप्रियने ने- आयभां
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सुबोधिनी टीका सू. ११२ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ७७ खलु स चित्रः सारथिः केशिकुमारश्रमणस्य अन्तिके पश्चाणुव्रतिक यावद् गृहिधर्मम् उपसम्पद्य खलु विहरति । ततः खलु स चित्रः सारथिः केशिकुमारश्रमण वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा यत्रैच चातुर्घण्टः अश्व. रथस्तत्रौव प्राधारयद् गमनाय, चातुर्घण्टम् अश्वरथं दूरोहति, यस्या एव दिशः प्रादुर्भूतस्तामेव दिश प्रतिगतः ॥ मू० ११२ ॥
टीका--'त एणं से इत्यादि--
ततः खलु स चित्रः सारथिः केशिनः कुमारश्रमणस्य अन्ति के देवानुप्रिय को जिस प्रकार से सुख हो वैसा करो-परन्तु विलम्ब मत करो. (तएण से चित्ते सारही केसिकुमारसमणस्स तिए पचाणुव्वइयं जाव मिहिधम्म उपसंपज्जित्ताण' विहरइ) इसके बाद उस चित्र सारथि ने केशिकुमार श्रमण के पास पांच अणुव्रतों वाले एवं सात शिक्षावतो वाले गृहस्थ धर्मको अंगीकार कर लिया (तएणं से चित्ते सारही केसि. कुमार समण वंदइ, नमसइ बदित्ता नम सित्ता जेणेव चाउग्घटे आसरहे तेणेव पहारेत्थ गमणाए, चाउग्घट आसरह' दुरुहइ) इसके बाद उस चित्र सारथिने केशिकुमार श्रमण को वन्दना की नमत्कार किया, वंदना नमस्कार कर उसने जहां चातुर्घट अश्वरथ रखा था उस ओर जाने का निश्चय किया. वहां जाकर वह उस पर चढ गया. (जामेव दिसिं पाउ
भूए, तामेव दिसि पडिगए) और जिस दिशा से होकर आया था उसी दिशा तरफ चला गया।
टीकार्थ--इस के बाद चित्र सारथी केशीकुमार श्रमण के पास सुम थाय ते ४. ५ विen न ४२!. (त एणं से चित्ते सारही केसिकुमारसमणस्स तिए पंचाणुव्वइय जाव गिहिधम्म उवसंपज्जित्ताण विहरइ) ત્યાર પછી તે ચિત્ર સારથિએ કેશિકુમાર શ્રમણ પાસેથી પાંચ અણુવ્રતવાળા અને सात शिक्षामता स्थधर्म ने वीारी सीधी. (त एणं से चित्त सारही केसिकुमारसमणं बदइ, नमसइ, वंदित्ता नम सित्ता जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव पहारेत्थ गमणाए, चाउग्घट आसरह' दुरुहइ) त्या२ मा त यित्र સારથીએ કેશિકુમાર શ્રમણને વંદના કરી, નમસ્કાર કર્યા. વંદના તેમજ નમસ્કાર કરીને તેણે જ્યાં ચાતુર્ઘટ અશ્વરથ હતું તે તરફ જવાનો નિશ્ચય કર્યો. ત્યાં જઈને તે રથ ५२ सवार २७ गयो. (जामेव दिसि पाउन्भूए. तामेव दिसि पडिगए) भने જે દિશા તરફ થઈને તે આવ્યું હતું તે જ દિશા તરફ પાછો જતો રહ્યો.
ટીકાર્ય–ત્યાર બાદ ચિત્રસારથિ કેશિકુમાર શ્રમણની પાસે ધર્મ સાંભળીને
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राजप्रनीयसूत्रे
समीपे धर्म श्रुत्वा सामान्यतः, निशम्य = विशेषतो हृद्यवधार्य हृष्टयावदहृदयः= हृष्टतुष्टचित्तानन्दितः प्रीतिमनाः परमसौमनस्थितः हर्षवशविसर्प दहृदयः उत्थया = उत्थानशक्त्या उत्तिष्ठति उत्थाय केशिनं कुमारश्रमणं त्रिकृत्वः= वारत्रयम् आदक्षिणप्रदक्षिणं करोति, बन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवम् = वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत् = उक्तवान् - हे भदन्त ! खलु निश्चयेन श्रद्दधामि इदमेवमेवास्तीति श्रद्धानविषयीकरोमि नैर्ग्रन्थ' प्रवचनम्, हे भदन्त ! प्रत्येमि=मतीतिविषयीकरोमि खलु नैर्ग्रन्थं प्रवचनम्, हे भदन्त ! रोचयामि = रुचिविषयीकरोमि खलु नैर्ग्रन्थं प्रवचनम्, हे भदन्त ! अभ्युत्तिष्ठे = अभ्युपगच्छामि खलु नैर्ग्रन्थ प्रवचनम्, हे भदन्त ! यथा खलु भवद्भिः प्रतिपादितम् एतद् नैर्ग्रन्थं प्रवचनम्, एवमेव, हे भदन्त ! यथा भवन्तः प्रति• पादयन्ति एतद् नैर्ग्रन्थ प्रवचनं तथैव तद्रूपमेवास्ति, हे भदन्त ! एतद् नैर्ग्रन्थ' प्रवचनम् अवितथं = सत्यम् अत एव हे भदन्त ! एतद् नैग्रन्थ' प्रव
धर्म सुनकर और उसे विशेषरूप से अपने हृदय में धारण कर हृष्ट तुष्ट और चित्त में आनंद संपन्न हुआ उसके मनमें गाढ़ प्रीति जग गई, वह परम सौमनस्थित हो गया, हृदय अपार हर्ष के कारण उसका हर्षित होने लगा. वह उसी समय खडा हुआ, और केशिकुमार श्रमण को उसने तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिण पूर्वक वन्दना की नमस्कार किया. वन्दना नमस्कार कर फिर उसने ऐसा कहा - हे भदन्त में इस निर्ग्रन्थ प्रवचनको यह ऐसा ही है, इस रूपसे अपनी श्रद्धा का विषय बनाता हूं, हे भदन्त ! मैं इस निर्ग्रन्थप्रवचन को अपनी प्रतीति में लाता हूं. हे भदन्त ! मैं इस निर्ग्रन्थ प्रवचनको अपनी रुचि में आकृष्ट करता हूं और मैं हे भदन्त ! इसे स्वीकार भी करता हूं । हे भदन्त । जैसा आपने कहा है यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ऐसा हो है । यह निर्ग्रन्थ प्रवचन अवितथ- सर्वथा सत्यरूप है, અને તેને વિશેષરૂપથી હૃદયમાં અવધારિત કરીને હતુષ્ટ થયા અને તેનું ચિત્ત અતીવ આનંદિત થયું. તેના મનમાં તીવ્ર પ્રીતિ ઉત્પન્ન થઈ. તે પરમસૌમનસ્થિત થઇ ગયા. તેનું હૃદય અપાર હર્ષોંથી તમેળ થઈ ગયું. તે તરતજ ઉભા થયા અને કેશિકુમાર શ્રમણની તેણે આદક્ષિણ પ્રદક્ષિણાપૂર્વક વન્દના કરી નમસ્કાર કર્યો વંદના તેમજ નમસ્કાર કરીને પછી તેણે આ પ્રમાણે કહ્યું “હે ભદંત ! હું આ નિગ્રંથ પ્રવચન પર એ એવું જ છે” આ રૂપમાં શ્રદ્ધાશીલ થાઉં છું. હું ભેદત ! આ નિગ્રંથ પ્રવચન પર હું સંપૂર્ણપણે પ્રતીતિ ધરાવું છું. હે ભદત ! આ નિ થ પ્રવ ચનને હું પેાતાની રુચિ તરફ સહજ ભાવે આકૃષ્ટ કરૂ' છુ' અને હું ભ ત ! આને હું સ્વીકારૂં પણુ છું. હે ભદંત ! આપશ્રીએ જે પ્રમાણે કહ્યું છે તે પ્રમાણે જ આ નિગ્રન્થ પ્રવચન છે. આ નિગ્ર^થ પ્રવચન અવિતથ-સવ થા-સત્યરૂપ છે, એથી જ એ
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चनम्, असन्दिग्धम= न्देहरहितं खलु भदन्त ! एतद् नैर्ग्रन्थ प्रवचनम्, तथा - हे भदन्त ! एतत् खलु इष्ट प्रताष्टम् अभिलषितम् प्रतीष्टम्=आभिमुख्येन सम्यक् प्रतिपन्नमेतत् इष्टमतीष्टम् = सर्वथाऽतिशयेनाभिलषितं हे भदन्त ! नैर्ग्रन्थं प्रवचनम्, यत् खलु यूयं वदथ - इति कृत्वा = इत्युक्तवा वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा एवम् = वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत् उक्तवान्, हे भदन्त ! देवानुप्रियाणाम् = भवताम् अन्तिके = समीपे यथा येन प्रकारेण खलु बहव उग्रा भोगा यावत् इभ्या इभ्यपुत्रा हिरण्यं = रजतम् त्यक्त्वा, एवम्-अमुनैवप्रकारेण धनं रूप्यादि, धान्यं = शाल्यादि, बलं = सैन्यं वाहनम् = अश्वादिरूपम्, कोश- प्रसिद्धम्, कोष्ठागारं धान्यगृहं, पुरं=नगरम्, अन्तःपुरं= स्त्रीनिवासभूतस्थान च त्यक्तवा, तथा विपुल = प्रचुर धनकनकरत्नमणि मौक्तिकशङ्ख शिलाप्रवालसत्सारस्वापतेय' - तत्र धनरूप्यादि कनक = घटितमघ
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इसीलिये यह सन्देह रहित है । इष्ट है और प्रतीष्ट है. अर्थात इसे भव्यजीवों ने अपने जीवन में उतारा है, अतः यह सर्वथा अतिशयरूप से अभिलषित सिद्ध हुआ है ऐसा कह कर उस चित्र सारथिने केशिकुमार श्रमण की भक्ति के वशवर्ती होकर पुनः वन्दना की नमस्कार किया और फिर उसने उनसे ऐसा कहा - हे भदन्त ! आप देवानुप्रिय के पास जिस प्रकार से अनेक उग्रोंने उग्रपुत्रोंने भोगोंने यावत् इभ्योंने एक इभ्यपुत्रोंने हिरण्यरजत को छोडकर, सुवर्ण को छोडकर, इसी प्रकार से धन-रूप्यादिकों को, धान्य - शाल्यादिकों को, बल-सैन्य को वाहन - अश्वदिकों को, कोश को, कोष्ठागारधान्यगृह को, पुर नगर को, अन्तःपुर स्त्रीनिवास भूतस्थानको छोडकर, तथा विपुल प्रचुर धन रूपयादिकों को कनक घटित अघटित (घडा हुआ और विना घडा)
સંદેહુ રહિત છે. ઇષ્ટ છે અને પ્રતીષ્ટ છે. એટલે કે ભવ્ય જીવાએ આને પેાતાના જીવનમાં ઉતાર્યું છે. એથી જ એ સર્વથા અતિશયરૂપથી અભિલતિ સિદ્ધ થયું છે.” આ પ્રમાણે કહીને તે ચિત્ર સારથિએ ભક્તિવશ થઈને કેશકુમાર શ્રમણની ફ્રી વન્દના કરી તેમને નમસ્કાર કર્યો અને પછી તેણે તેઓશ્રીને આ પ્રમાણે કહ્યું– ુ ભદત ! આપ દેવાનુપ્રિય પાસેથી જેમ ઘણા ઉગ્રોએ, ઉગ્રપુત્રોએ ભાગાએ યાવત્ ઇભ્યાએ અને પુત્રોએ હિરણ્ય-સુવર્ણને ત્યજીને, રજત-ચાંદીને ત્યજીને, આ प्रमाणे धन-३ष्या वगेरेने, धान्य- शासि वगेरेने, मस-सैन्यने, वाहन-अश्व वगेरेने કાશને કાષ્ઠાગાર–ધાન્યગ્રહી, પુર-નગરને, અન્તપુર-રણુવાસને ત્યજીને તેમજ વિપુલ પ્રચુર ધન રૂપ્સ વગેરેને કનક-ઘટિત અઘટિત બન્ને પ્રકારના સુવર્ણને, કેતન ગેરે
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टित चेति द्विविध' सुवर्णम्, रत्न' कर्केतनादिकम्, मणिः = पद्मरागादिरूपः, मौक्तिकं = मुक्ताफल, शङ्खः - रत्नविशेषः, शिलाप्रवाल: = विदुमः, सत्सार - स्वापतेय सद् = पितृपितामहादिपरम्परारूपेण विद्यमान सारं = प्रधानं यत्, स्वा पतेयं = मणिरत्नादिक द्रव्य तत् एतेषां समाहारस्तत्, - धनधान्यादि सत्सारस्वापतेयान्त' सर्व विच्छद्य = भावतः परित्यज्य, विगोप्य = तानि सर्वाणि प्रकटीकृत्य दानं दत्त्वा = दीनदरिद्रादिभ्यो वितीर्य, परिभाज्य = पुत्रादिषु विभज्य, मुण्डा भूत्वा अगारात् अनगारितां प्रव्रजन्ति = दीक्षां गृह्णन्ति, नो खलु भदन्त ! अहं यावत् शक्नोमि= समर्थोऽस्मि त्यत्तवा हिरण्यं तदेव यावत = सुवर्णादिकं सर्व त्यक्तवा - इत्यर्थः प्रव्रजितुम् = दीक्षां ग्रहीतुम् । अहं खलु देवानुप्रियाणाम् अन्तिके = समीपे पञ्चाणुवतिक- पञ्च = पश्चसं ख्यकानि अनुव्रतानि = स्थूलात् प्राणातिपाताद् विरमणम १, स्थूलाद् मृषावादाद् विरमणम् २, स्थूलात्
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दोनों प्रकार के सुवर्ण को, कके तनादिक रत्नको, पद्मरागादिकरूप मणियों को, मुक्ताफलों को, रत्नविशेषरूप शंखको, शिलाप्रवालम को, सत्-पिता पितामह आदिकों की परम्परारूप से विद्यमान सारप्रधान मणिरत्नादिकरूप स्वापतेय को, भावतः छोड करके, तथा प्रत्यक्षरूप में इन सबको दीन दरिद्रादिकों को दान देकर, एवं पुत्रादिकों में इन्हें विभक्त करके अर्थात पुत्रादिकों को धन आदिका भाग देकर मुडित होकर अगारावस्था से परे हो दीक्षा धारण करते हैं, मैं इस प्रकार की परिस्थिति से युक्त हो कर - अर्थात् सुवर्णादिक सब का परित्याग कर भागवती दीक्षा धारण करने में अपने आपको शक्ति संपन्न नहीं मान रहा हूं - असमर्थ मान रहा हूं. अतः आप देवानुमिय के पास मैं श्रावक व्रतों को धारण करना चाहता हूं - वश ऐसी हीं इस समय मुझ में शक्ति है. अर्थात् - १स्थूल प्राणातिपात
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રત્નને, પદ્મરાગ વગેરે રૂપ મણિઓને, મુકતાલેાને રત્ન વિશેષ શ`ખને, શિલાપ્રવાલવિધ્રુમને સત્–પિતા પિતામહ વગેરેની પરંપરાથી વિદ્યમાન સાર પ્રધાન–મણિરત્ન વગેરે રૂપ રવાપતેયો, ભાવાતઃ (અન્તરની ઇચ્છાથી જ) ત્યજીને તેમજ પ્રત્યક્ષરૂપમાં દીન દરિદ્ર વગેરેને દાનમાં આપીને અને પુત્રાદિકામાં વિભાજિત કરીને એટલે કે પુત્રાદિકાને ધન વગેરેના ભાગ આપીને મુ`ડિત થઈને-અગારાવસ્થાથી પર એવી ભાગવતી દીક્ષા ધારણ કરે છે. હું પોતાની જાતને આવી પરિસ્થિતિથી યુકત થઇને એટલે
સૂવર્ણ વગેરે બધી વસ્તુનો ત્યાગ કરીને ભગવતી દીક્ષા ધારણ કરવામાં હું અસમંતા અનુભવી રહ્યો છું. એથી આપ દેવાનુપ્રિય પાંસેથી હું શ્રાવક વ્રતાને ધારણ કરવા ઇચ્છું છું. હમણા મારામાં આટલી જ શક્તિ છે. એટલે કે જેમાં (૧) સ્થૂલ
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जावप्रदाशराजवर्णनम् ८१ अदत्तादानाद् विरमणम् ३, स्वदारसन्तोषः४, ईच्छापरिमाणः५, इति पश्चाणुव्रतानि तानि सन्ति यस्मिस्तम्, तथा-सप्तशिक्षाबतिक-सप्रशिक्षात्रतानि यस्मिन्-दिग्वतम्, १ उपमोगपरिमोगपरिमाणम्२, अनर्थदण्डविर. मणम् ३, सामायिकम् ४, देशावकाशिकम् ५. पौषधोपवासः ६, अतिथिस विभागः, ७ इति सप्तशिक्षाव्रतानि तानि सन्ति यस्मिस्तम्, इत्येवं द्वादशविध गृहिधर्म प्रतिपनु स्वीकत शक्नोमि। इत्थं चित्रसारथेचनः श्रुत्वा केशिकुमारश्रमणः प्राह-हे देवानुप्रिय ! यथा ते सुख भवेत्तथा कुरु, अत्र अवश्यकर्त्तव्ये कार्य प्रतिबन्ध-विलम्ब मा कुरु-इति ! ततः खलु स चित्र: सारथिः केशिकुमारश्रमणस्य अन्तिके पञ्चाणुव्रतिकः यावद् गृहिधर्मम् उपसम्पद्य-स्वीकृत्य विहरति । ततः खलु से चिरमण, २ स्थलमृषावाद से विरमण, ३स्थलअदत्तादान से विरमण, ४स्वदारसतोष, और ५इच्छापरिमाण ये पांच अणुव्रत हैं जिसमें ऐसे तथा १दिग्वत, २उपभोगपरिभोगपरिमाण, ३अनर्थदण्डविरमण, ४सामायिक, ५देशा. शिक,६पौषधोवकापवास. अतिथि संविभाग, एवं ये सातशिक्षावत है जिसमें ऐसे गृहिधर्म को स्वीकार करने की मुझ में शक्ति है इसलिये इसे ही मैं धारण करना चाहता हूं-इसका विशेष वर्णन औपपातिक-सूत्र में आनन्द श्रावक के प्रकरण में देखना चाहिये। इस प्रकार चित्र सारथि के वचनकथन को सुनकर के केशिश्रमणने उससे कहा-हे देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख हो-वैसा करो परन्तु इस अवश्यकतव्य कार्य में ढील मत करो इस प्रकार केशिकुमारश्रमण का हितविधायक वचन सुनकर चित्र सारथिने उनके पास पांच अणुवतीवाले एवं सातशिक्षा व्रतों वाले गृहिधर्म को स्वीकार
પ્રાણ તપાતથી વિરમણ, (૨) સ્થૂલ મૃષાવાદથી વિરમણ (૩) સ્થૂલ અદત્તાદાનથી વિરમણ (४) छ। परारमा मा पांये मानता तम (१)हनत, (२) पास परि लोगपरिभा, (3) सामायि: (४) शाhिs (५) पोषधापवास, (6) मतिथिસંવિભાગ અને (૭) અનર્થ દંડ વિરમણ આ સાત શિક્ષાત્રતે છે એવા ગૃહિધર્મને સ્વીકારવા માટે હું તૈયાર છું. આનું વિશેષ વન ઔપપાતિક સૂત્રના આનંદ શ્રાવક પ્રકરણમાં કરવામાં આવ્યું છે. આ પ્રમાણે ચિત્રસારથીનું કથન સાંભળીને શિકુમાર શ્રમણે તેને કહ્યું- હે દેવાનુપ્રિય! તમને જેમાં સુખ થાય તેમ કરે. પણ આ આવશ્યક કર્તવ્યમાં હવે વાર કરે નહિ.” આ પ્રમાણે કેશિકુમાર શ્રમણનું હિત વિધાયક વચન સાંભળીને ચિત્ર સારથિએ તેઓશ્રી પાસેથી પાંચ અણુવ્રતવાળા તેમજ સાતશિક્ષા કતવાળા ગૃહિધર્મને સ્વીકારી લીધું. ત્યારબાદ ચિત્રસારથિએ તે કેશિકુમાર
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राजप्रश्नीयसूत्रे स चित्रः सारथिः के शिकुमारश्रमण वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा यत्रैव चातुर्घण्टः अश्वरथ स्त व प्राधारय-निश्चयमकरोद् गमनाय गन्तुमिति । च गत्वा चातुर्यण्टम् अश्वरथ दूरोहति, दुरूह्य यस्यादिशः प्रादुर्भूतः, तामेव दिश' प्रतिगत इति ॥सू० ११२ ।
मूलम्--तएणं से चित्ते सारही समणोवासए जाए अहिगय. जीवाजीवे उवलद्धपुण्णपावे आसवसंवरनिज्जरकिरियाहिगरणबंध मोक्खकुसले असहिज्जे देवासुरणागजक्खरक्खसकिन्नरकिंपुरिसगरुल गधब्वमहोरगाईहिं देवगहेहिं निग्गंथाओ पावयणाओ जणइकमणि जे, निग्गंथे पावयणे णिस्तकिए णिकं खए णिव्वितिगिच्छे लट्रे गहिय? पुच्छिय? अहिगय? विणिच्छियो अटिमिजपेमाणुरागरते. 'अयमाउसो! णिग्गंथे पावयणे अतु, अय परम?, सेसे अण?' ऊसियफलिहे अवंगुयदुवारे चियतंतेउरप्पवेसे चाउद्दसटुमुद्दिटुपुण्णमासिणासु पडिपुण्णं पोसहं सम्म अणुपालेमाणे समणे णिग्गथे फासु. एसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पीठफलगसेज्जासथारेणं वत्थ. पडिग्गहकबलपायपुछणेणं ओसहभेसज्जेणं पडिलाभेमाणे, बहुहिंसीलब्वयगुणवेरमणपोसहोववासेहिय अप्पाणं भावेमाणे जाई तत्थ रायकज्जाणि य जाव राजववहाराणि य ताइं जियसत्तणा रण्णा सद्धि सयमेव पचुवेक्खमाणे पञ्चुवेक्खमाणे विहरइ ।सू०११३।। कर लिया. इसके बाद चित्रसारथिने उन केशिकुमारश्रमण को वन्दना की नमस्कार किया, वन्दना नमस्कार करके फिर वह जहां चातुर्घट अश्वस्थ रखा हुआ था वहां पर आया वहां आकर वह उसपर बैठ गया और इस प्रकार यह जहां से आया था वहीं से होकर वापिस चला गया। सू. ११२॥ શ્રમણની વંદના કરી. નમસ્કાર કર્યા. વન્દના નમસ્કાર કરીને પછી તે જ્યાં ચાતુઘટ અશ્વરથ હતો ત્યાં ગયા. ત્યાં પહોંચીને તે તેમાં બેસી ગયે અને આ પ્રમાણે તે જયાંથી આવ્યું હતું ત્યાં જ પાછો જતો રહ્યો. સૂ૦ ૧૧રા
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सुबोधिनी टीका स्. ११३ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ८३
छाया-ततः खलु स चित्रः सारथिः श्रमणोपासको जातः अभिगत जीवाजीव उपलब्धपुण्यपाप आस्रवस वरनिर्जराक्रियाऽधिकरणबन्धमोक्षकुशलः असाहाय्यो देवासुरनागयक्षराक्षसकिन्नरकिम्पुरुषगरुडगन्धर्व महोरगादिभिः देवगणैः नँग्रन्थात् प्रवचनात् अनतिक्रमणीयः, नैर्ग्रन्थे प्रवचने निश्शङ्कितो निष्काङ्गितो निर्विचिकित्सो लब्धार्थो गृहीतार्थः पृष्टार्थः अधि
'तएणं से चित्र सारही' इत्यादि।
सूत्रार्थ-(तएण से चित्ते सारही समणोवासए जाए) अब वह चित्रसारथि श्रमणोपासक हो गया. (अहिगय जीवाजीवे. उवलद्धपुण्णपावे, आसवसंवनिज्जरकिरियाहिगरणबंधमोक्खकुसले ) जीव और अजीव तत्त्व के वह ज्ञाता बन गये, पुण्य एवं पाप के स्वरूप को जानने लगे, आस्रव. संबर, निजरा, क्रिया, अधिकरण, बंध और मोक्ष इनमें कुशल हो गये, अर्थात् इनके स्वरूप का उसे बोध हो गया. (असहिज्जे) कुतीर्थिकों के कुतर्क के खण्डन में पर की सहायता की अपेक्षा वाला नहीं रहा (देवा
सुरणागजक्खरक्खसकिन्नर किंपुरिसगरुलगधश्वमहोरगाईहिं देवगहे हिं निग्ग'थाओ पावयणाओ अणइकमणिज्जे, निग्गथे पावयणे निस्स किए) देवों से अमरों से नागों से, यक्षों से राक्षमों से, किंपुरुषों से, गरुडों से, गंधर्वो से, महोरगों से-इन सब देवगणों से-वह निर्गन्ध प्रवचन की श्रद्धा आदि से, अनतिक्रमणीय हो गया अर्थात् ये सब देवगण भी उसे निर्गन्थप्रवचन से थोडा सा भी विचलित करने के लिये समर्थ नहीं हो सके, वह (निग्ग थे पाच
'तए ण से चिते सारहो' इत्यादि।
सूत्रार्थ-(तए ण से चित्ते सारही समगोवासए जाए) वे चित्र सारथि अभपास ५ गया तो. (अहिगयजीवाजीवे, उबलद्धपुण्णपावे, आसवस'वरनिज्जरकिरियाहिगरणबंधमोक्खकुसले) ७५ भने १० तत्वात જ્ઞાતા થઈ ગયે. પુણ્ય અને પાપના સ્વરૂપને તે જાણવા લાગ્યા, આસવ, સંવર, નિર્જરા, ક્રિયા, અધિકારણ. બંધ અને મોક્ષમાં તે કુશળ થઈ ગયો એટલે 3 मा मधान! २१३५४ शान तेने 45 गथु (असहिजे) gillथ ना तs ना ५नम तेरे lonनी भनी अपेक्षा न २७. (देवासुरणागजक्खरक्खसकिनरकिंपुरिसगरुलगधव्वमहोरगाइहिं देवगहेहिं निग्गथाओ पाथणाओ अणइक्कमणिज्जे, निग्ग थे पावयणे निस्स किए) हेवोथी, मसुशथी, नागाथी, યથી રાક્ષસેથી કિન્નરોથી પુિરૂથી ગરુડોથી ગંધથી મહરગોથી-આ બધા દેવગણેથી તે નિગ્રંથ પ્રવચન પર અતી શ્રદ્ધાને લીધે અનતિ મણીય થઈ ગયે એટલે કે આ બધા દેવગણે પણ તેને નિગ્રંથ પ્રવચન પરથી જરાએ વિચલિત કરી
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राजप्रश्नीयसूत्रे गनार्थो विनिश्चितार्थः अस्थिमज्जाप्रेमानुरागरक्त:-'इदम् आयुप्मन् ! नैन्य' प्रवचनम् अर्थ:, अयं परमार्थः, शेषम् अनर्थः' उच्छित-स्फाटिकः अमा वृत्तद्वारः प्रीतिकरान्त:पुरगृहप्रवेशः चतुर्दश्यष्टम्युदृिष्टपौणमासीषु प्रतिपूर्ण यणे णिस्सकिए) ऐसा निर्ग्रन्थप्रवचन में निःश कितगुण से युक्त हो गया (णिक लिए) अन्यमत की कांक्षा उसके चित्त में थोडी सी भी नहीं रही ऐसा निष्काक्षितगुण वाला वह हो गया. (णिवितिगिच्छे, लद्धहे , गहियडे, पुच्छिय?, अहिगयढे, विणि च्छि यट्ठो, अहिभिंजपेमाणुरागरत्ते) फलके प्रति संदेह उसका जाता रहा ऐसा वह निर्विचिकित्स गुण-संपन्न हो गया. इसी कारण उसने गुर्वादिकों से यथार्थ निर्ग्रन्थप्रवचन का अर्थ प्राप्त कर लिया, और इसी कारण वह पराभिप्राय के ग्रहण से अवधारित (निश्चित) अर्थतत्त्ववाला बन गया. पृष्टार्थ हो गया. निर्णीतार्थ हो गया, अधिगतार्थ हो गया, विनि श्चितार्थ हो गया, तथा उसकी अस्थि और मज्जा ये दोनो निग्रन्थ प्रव चनविषयक प्रेमरूपी रंजन द्रव्य से खूब रंग गये, अर्थात् रग रग में उसके निर्ग्रन्थप्रवचन का अनुराग भर गया. (अयमाउसो ! निग्गथे पावयणे अढे अयं परमट्ठो, सेसं अणट्टे , ऊसियफलिहे, अवगुयदुवारे, चियत्ततेउ. रघरपवेसे) हे आयुष्मन् ! यह निग्रन्थप्रवचन ही वास्तविक अर्थ से युक्त है क्यों कि यह मोक्ष का हेतु है, यही परमार्थ है क्यों कि जीवों का सध्या ना. ते (निग्गथे पावयणे णिस्सकिए) २ प्रमाणे निय अवयनमा नि:शत गुपयुइत गयो. (णिक खिए) तना भनभा भी मत भाटे ससार २७ शेष न २डी. २0 प्रमाणे ते निsiक्षित गुपयुत १७ गयो. ( णिवितिगिच्छे लद्धढे , गहियढे, पुच्छियढे , अहिगयढे, विणिच्छियडे, अद्विमिंजपेमा. गुरागरते) ३१ प्रत्ये तना भनमा सहेड रह्यो ना, मा प्रमाणे नियस ગુણ સંપન્ન થઈ ગયે. એથી જ તેણે ગુરૂ વગેરે પાસેથી યથાર્થ નિગ્રંથ પ્રવચનને અર્થ જાણી લીધું હતું. એથી જ તે પરાભિપ્રાયના ગ્રહણથી અવધારિત અર્થ તરવવાળ થઈ ગયે, પુષ્ટાર્થ થઈ ગયે નિષ્ઠીતાર્થ થઈ ગયે. અધિગતાર્થ થઈ ગયે, વિનિશ્ચિતાર્થ થઈ ગયો અને તેના અસ્થિ અને મજજા અને નિગ્રંથ પ્રવચન વિષયક પ્રેમરૂપી રંજન દ્રવ્યથી ખૂબજ રંજિત થઈ ગયા એટલે કે તેના શરીરના આએ AALHi निA प्रयन प्रत्येनी प्रीति व्यास 25 . (अयमाउसो ! निग्गथे पावयणे अढें अयं परम?, सेस अणढे, ऊसियफलिहे, अवगुयदुवारे, चियत्त तेउरघरप्पवेसे) ले मायुष्यभन् ! म निथ अपयन । वास्तव में યુકત છે કેમકે એ મેક્ષ માટે હેતુરૂપ કહેવાય છે. એ જ પરમાર્થ છે કેમકે જીવેનું
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सुबोधिनी टीका सू ११३ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ८५ पौषध सम्यकू अनुपालयन् श्रमणान् निर्ग्रन्थान् पासुकषणीयेन अशनपानखादिम-स्वादिमेन पीट--फलक शय्या-संस्तारेण वस्त्र--प्रतिग्रह-कम्बलपादपोञ्छनेन औषधभैषज्येन प्रतिलाभयन् बहुभिः शीलवतगुणविरमणपोपप्रयोजन इसीसे सिद्ध होता है, इसके अतिरिक्त अन्यतीर्थिक कुपवचनादिक कुगतिप्रापक होने से अनर्थ रूप हैं, इस तरह से वह अपने पुत्रादिकों को शिक्षा देने लगा. निर्ग्रन्थप्रवचन को प्रतिपत्ति से उसका अन्तःकरण अस विचारों से रहित हो जाने के कारण स्फटिक की तरह निर्मल हो गया, भिक्षुक आदिकों का भिक्षाके निमित्त गृह में प्रवेश सरलता से हो जावे इस ख्याल से वह अपने गृहप्रवेश द्वार को सदा अर्गला से रहित रखने लगा अर्थात् दानादि के लिये खुले दरवाजे रखे । राजा के अन्तः पुर में भी उसका प्रवेश श'का रहित होने से प्रीति का जनक बन गया. अर्थात् अतिधार्मिक होने से वह परस्त्री सहोदर (भाई) बन कर रहने लग गया. (चाउद्दसट्टमुद्दिठ्ठपुण्णमासिणीस पडिपुष्णं पोसह सम्म अणुपालेमाणे समणे निग्ग ये फामुएसणिज्जेणं असणपाणखाइम-साइमेण पीढफलगसेज्जासंथारेण वत्थपडिग्गहकंबलपायपुंछणेण ओसहभेसज्जेण पडिलाभेमाणे) चतुर्दशी, अष्टमी, उद्दिष्ट-अमावस्या, एवं पूर्णिमा इन चार तिथियों में अहोरात्र पौषध का पालन करता हुआ, तथा प्रामुक एषणीय-अचित्त और साधुजन को कल्पनीय ऐसे अशन, पान, खादिम, स्वादिमरूप चतुर्विध आहार से, પ્રયજન એના વડે જ સિદ્ધ થાય છે. બાકીના બધાં-અન્યતીથિક કુપ્રવચન વગેરે કુગતિ પ્રાપક હોવા બદલ અનર્થ રૂપ છે. આ પ્રમાણે તે પિતાના પુત્ર વગેરેને ઉપદેશ આપવા લાગે, નિગ્રંથ પ્રવચનની પ્રતિપત્તિથી તેનું હદય અસદુ વિચારથી રહિત થઈ ગયું હતું એટલા માટે સ્ફટિકની જેમ નિર્મળ થઈ ગયું હતું. ભિક્ષક વગેરે ભિક્ષા માટે આવે ત્યારે સરળતાપૂર્વક ઘરમાં તેઓ પ્રવેશ મેળવી શકે તે માટે તે પિતાના ઘરનું બારણું ખુલ્લું જ રાખવા લાગ્યો. રાજાના રાજમહેલમાં પણ તેને પ્રવેશ નિઃશંકપણે થવા લાગે એટલે કે તે અતિધાર્મિક થઈ ગયું હતું એથી તે ५२त्री सहा४२ मनाने २१॥ साये. ( चाउद्दसट्ट,मुट्ठिपुण्णमासिणीमु पडिपुण्ण पोसह सम्म अणुपालेमाणे समणे निग्गंथे फासुएसाणिज्जेण असणपाणनाइमसाइमेण' पीढफलगसेज्जासंथारेण वत्थपरिग्गह
कंबलपायपु छणेण ओसहभेसज्जण पडिलाभेमाणे)। ચતુર્દશી અષ્ટમી, ઉદિષ્ટ અમાવસ્યા અને પૂર્ણિમા એ ચારેચાર તિથિઓના દિવસે અહેરાત્ર સુધી પૌષધનું પાલન કરતા હતા તેમજ પ્રાસુક એષણીય અચિત્ત અને સાધુજન માટે કલ્પનીય એવા અશન, પાન, ખાદિમ, સ્વાદિમરૂપ ચતુર્વિધ આહારથી
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राजप्रश्नीयसूत्रे धोपयासः आत्मान' भावयन् यानि तत्र राजकार्याणि च यावत् राजव्यवहाराश्व तानि जितशत्रुणा राज्ञा सार्द्ध स्वयमेव प्रत्युत्पेक्षमाणः प्रत्युत्पेक्षमाणो विरहति ॥ सू० ११३ ॥
टीका-'तएण' से' इत्यादि--
ततः खलु स चित्रः सारथिःश्रमणोपासको जात: सन् अभिगत-जीवाजीव:-अभिगतौ सम्यक् अवगतौ ज्ञातौ जीवाजीवौ जीवतत्वम् अजीवतत्त्वं च येन स तथा-जीवतत्त्वाजीवतत्त्वविषयकसकलज्ञानसम्पन्नः, उपलब्धपुण्य
पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक से, बस्त्र पात्र कम्बल, पादपोंच्छन, से, (चरण को साफ करने का वस्त्रविशेष) एवं औषध भैषज्य से श्रमण निग्रंन्यों को प्रतिलाभित करता हुआ ( वहूहिं सीलव्वयगुणवेरमण पोसहोववासेहिं य अप्पाणं भावेमाणे जाई तत्थ राजकजाणि य जाव राजववहाणि य ताई जियसत्तुणा रणा सद्धिं सयमेव पच्चुवे. क्खमाणे२ विहरइ) एवं अनेक शीलवतो, गुणवतों, मिथ्यात्व से निर्वतन, मत्याख्यान और पौषधों से आत्मा को भावित करता हुआ वह जितने भी उस श्रावस्ती नगरी में राजकार्य थे यावत् जितने वहां राजव्यवहार थे उन सब का जितशत्रु राजा के साथ२ बारंबार अवलोकन करता हुभा रहने लगा।
टीकार्थ-गृहिधर्म के पालन करने से वह चित्र सारथि श्रामणोपासक बन गया जीव-अजीव तत्त्व विषक सकलज्ञान से वह सम्पन्न हो गया,
પીઠ ફલક, શમ્યા સંસ્કારકથી વરમાં પાત્ર, કંબલ, પાદ પ્રેછનથી અને ઔષધ ભેષજયથી श्रम नियाने प्रतिमलित ४२ (बहुहिं सीलव्वयगुणवेरमणपोसहोवबासेहिं य अप्पाणं भावेमाणे जाई तत्थ राजकज्जाणि य जाव राजवच. हाराणि य ताई जियसत्तुणा रणा सद्धिं सयमेव पच्चुवेक्खमाणे२ विहरइ) અને અનેક શીલવતે, ગુણવતે, મિથ્યાત્વથી નિવર્તન, પ્રત્યાખ્યાત અને પોષવડે પિતાના આત્માને ભાવિત કરતે તે શ્રાવસ્તી નગરીના સર્વ રાજકાર્યોનું સંચાલન કરતો જિતશત્રુ રાજાની સાથે રહીને વારંવાર રાજ્યકાર્યનું અવલોકન કરતો પિતાના દિવસો પસાર કરવા લાગ્યા.
ટીકાર્થ-ગૃહિધર્મના પાલનથી તે ચિત્રસારથિ શ્રમણ પાસક થઈ ગયે. જીવ, અજીવ તત્વ વિષયક સકળ જ્ઞાનથી તે સંપન્ન થઈ ગયે. પુણ્ય અને પાપના યથા
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सुबोधिनी टीका सू. ११३ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ८७ पापः-उपलब्धे याथातथ्येन विज्ञाते पुण्यपापे-पुण्यलक्षण पापलक्षण च येन स तथा-पुण्यपापयोः यथावस्थितस्वरूपज्ञायकः, तथा-आस्रवसंवरनिर्जरा क्रियाधिकरणबन्धमोक्षकुशल:-तत्र-आस्रवःमाणातिपातादिः, संवरः =माणातिपातविरमणादिः, निराकमणां देशतो निर्जरण, क्रिया कायिक्यादिरूपा, अधिकरणम्, खङ्गादिकम्, बन्धः कर्मपुद्गलजीवपदेशयोः दुग्धजलवत् एकीभावः, मोक्षः जीवप्रदेशेभ्यः सर्वात्मना कर्मणामपगमनम, एते. वामितरेतरयोगद्वन्द्वः, तेषु कुशल: चतुरः-आस्रवादिस्वरूपाभिज्ञ-इत्यर्थः, तथा-असाहाय्य: नास्ति साहाय्य-सहायता यस्य स तथा-कुतीथिककुतक'. खण्ड ने परसाहायानपेक्ष इति भावः, तथा-देवासुरनागयक्षराक्षसकिन्नरकिम्पुरुषगरुड़गन्धर्व महोरगादिभिः तत्र-देवाः पैमानिकाः, असुरा असुरकुमारा:, नागा: नागकुमाराः असुरा नागाः, इमे उभये भवनपतयः, यक्षाः, पुण्य और पाप के यथावस्थित स्वरूप का वह ज्ञाता हो गया, तथा प्राणाति पातादिरूप आत्रव, माणातिपातादिविरमणरूप सवर, कर्मों का एकदेश से क्षय होनेरूप निर्जरा, कायिकी आदिरूप क्रिया खड्गादिरूप अधिकरण, दुग्धजल की तरह कर्म पुद्गलों का और जीवप्रदेशों का एक क्षेत्रावगाहरूप बध, जीचप्रदेशों से सर्वात्मना कर्मों का अपगमरूप मोक्ष इन सब में वह चतुर बन गया, अर्थात् जीव आदि के स्वरूप का वह अभिज्ञ हो गया, कुतीर्थिकजनों के कुतर्क खण्डन में वह किसी को भी सहायता नहीं लेता ऐसा समझदार हो गया, तथा जिनप्रवचन के प्रति उसकी ऐसी अगाध श्रद्धा बढ़ गई कि जिससे वह देव, असुर, नाग, यक्ष राक्षस, किन्नर, किम्पुरुष आदिकों द्वारा भी उससे किञ्चित् भी चलायमान नहीं किया जासका. वैमानिक देव यहां देवपद से, असुरकुमार जाति के भवनपनि असुरकुमारपद વસ્થિત સ્વરૂપને તે જાણવા લાગે. તેમજ પ્રાણાતિપાત વગેરે આસવ પ્રાણાતિપાતાદિ વિરમણરૂપ સંવર, કર્મોને એકદેશથી ક્ષય થવા રૂપ નિર્જરા, કાયિકી વગેરે રૂપ ક્રિયા ખડૂગ વગેરે રૂ૫ અધિકરણ, દુગ્ધજલની જેમ કર્મપુદ્ગલેનું અને જીવ પ્રદેશોનું એકક્ષેત્રાવગાહનરૂપ બંધ, જીવ પ્રદેશથી સર્વાત્મના કર્મોનું અપગમનરૂપ મોક્ષ આ બધામાં તે ચતુર હતો એટલે કે આસ્રવ વગેરેના સ્વરૂપનો તે જાણકાર થઈ ગયું હતું. તે એ ચતુર થઈ ગયે હતું કે કુતીર્થિકોના કુતર્ગખંડનમાં તે કેઈની પણ મદદ લેતે નહતો. તેમજ જિનપ્રવચન પ્રત્યે તેના મનમાં એવી અગાધ श्रा भी 5 ती थी ते ३१, असुर, नाग, यक्ष, राक्षस, २, પુરુષ વગેરે વડે તે જરાએ વિચલિત કરી શકાય તેમ નહોતું. વૈમાનિક દેવ અહીં દેવપદથી, અસુરકુમાર જાતિના ભવનપતિ અસુરકુમાર પદથી, નાગકુમાર જાતિના ભવન
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राजप्रश्नीयसूत्रे
राक्षसाः, किन्नराः किम्पुरुषाः, एते चत्वारोग्यन्तरविशेषाः, गरुडाः = गरुडध्वजाः सुपर्णकुमाराः भवनपतिविशेषाः, गन्धर्वा महोरगाव व्यन्तरविशेषाः, तत्पभृतिभिरपि देवगणैः नैर्ग्रन्थात् मवचनात् अनतिक्रमणीय: = अचालनीयः निर्ग्रन्थमवचनात्त' चालयितु देवादयोऽसमर्थं इति भावः । तथा-निर्ग्रन्थे प्रवचने निश्शङ्कितः = अन्यदर्शनापेक्षया श्रेष्ठमिदं न वेति शङ्कारहितः, अत एव - निष्काशितः काक्षारहितः परमत का इक्षारहितः निर्विचिकित्सः फल' प्रति सन्देहरहितः, अत एव - लब्धार्थ : - लब्धः = मातः अर्थो गुर्वादीनां सकाशाद् येन स तथा उपलब्धपदार्थ इत्यर्थः गृहीतार्थः- हीतः = स्वीकृतोऽर्थो येन स तथा - पराभिप्रायग्रहणतोऽवधारितार्थतच्च इत्यर्थः, पृष्टार्थः - पृष्टोऽर्थो
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से, नागकुमार जाति के भवनपति देव नाग शब्द से, तथा यक्ष, राक्षस, किन्नर, एवं किंपुरुष इन पदों से व्यन्तर जाति के इस २ नामके देव गृहीत हुए हैं। गरुड शब्द से गरुडध्वजवाले सुपर्ण कुमार जो कि भवनपति जाति के देव विशेष हैं । गृहीत हुए हैं। गन्धर्व और महोरग ये व्यन्तरविशेष हैं। उसके मनमें ऐसी शंका कि यह निर्ग्रन्थप्रवचन अन्य दर्शनों की अपेक्षा श्रेष्ठ है की नहीं है ककी नहीं उत्पन्न हुई इसलिये यह उसके प्रति निःशंकित था. परमत की कांक्षा का अभाव इसके चित्त में सर्वथा हो गया था- इसलिये यह निष्कांक्षित था, फल के प्रति सन्देह से ग्रह रहित था, इसलिये निर्विचिकित्स था. इसी कारण इसने गुर्वादिकों के पास से प्रवचनगदित अर्थ को अच्छी तरह से जान लिया था. इसलिये यह लब्धार्थ था, उसे अच्छी तरह से स्वीकार कर लिया था. इसलिये ये गृहीतार्थं था. संदेहयुक्त स्थल में परस्पर प्रश्न करने से वह अर्थ
પતિદેવ નાગ શબ્દથી તેમજ યક્ષ, રાક્ષસ, કિનર અને કપુરૂષ આ પટ્ટાથી ન્યતર જાતિના દૈવાનુ ગ્રહણ થયું છે. ગરૂડ શબ્દથી ગરૂડધ્વજવાળા સુવર્ણ કુમાર-કે જેઓ ભવનપતિ જાતિના દેવ વિશેષ છે તેનુ ગ્રહણુ થયુ' છે. ગ ́ધવ અને મહેારગ એ બંને ન્ય'તરણ વિશેષ છે. તે ચિત્રસારથિના મનમાં નિગ્રન્થ પ્રવચનને લઇને એવી કાઈપણ દિવસે શંકા ઉત્પન્ન થઇ નહેાતી કે આ નિગ્રંથ પ્રવચન ખીજા દેશના કરતાં શ્રેષ્ઠ છે કે કેમ ? એથી તે તે પ્રતિ નિઃશકિત હતા. પરમત પ્રત્યે તેના મનમાં લીરે કાંક્ષા ઉત્પન્ન થઈ નહાતી એથી તે નિષ્કાંક્ષિત હતા ફળ પ્રત્યે તે સંદેહ રહિત હતા. એથી નિિિચકિત્સ હતા. તેણે ગુરુ વગેરે પાંસેથી પ્રવચન વગેરે અને સારી પેઠે જાણી લીધાં હતાં. એથી તે લખ્યા હતા. તે અન! તેણે સારી પેઠે સ્વીકાર કરી લીધા હતા. એથી તે ગૃહીતાર્થ હતા. સૌશયિક સ્થળ વિષે પરસ્પર પ્રશ્નો કર
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सुबोधिनी टीका' स. ११३ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ८९ येन स तथा-सांशयिकस्थल परस्पर प्रश्नकरणेन निर्णीतार्थः, अधिगतार्थ:अधिगतः सर्वथा उपलब्धः अर्थो येन स तथा-सर्वप्रकारेणोपलब्धार्थः, अत एव-विनिश्चितार्थ:-वि-विशेषेण निश्चित:निर्णीतोऽर्थो, येन स तथा-ज्ञातवास्तविकार्थ इत्यर्थः, तथा-अस्थिमजामोमानुरागरक्तः-अस्थिमज्जो मसिद्धो ते प्रेमानुरागेण-निर्ग्रन्थ प्रवचनविषयकं यत् प्रेम तद्रूपो योऽनुरागोरञ्जनद्रव्य तेन रक्ते इव रक्ते यस्य स तथाभूतः सन् “हे आयुष्मन् ! इद नौग्रन्थं प्रवचनमेव अर्थः वास्तविकार्थयुक्तः-मोक्षहेतुत्वात्, शेषम् इतो भिन्नम् अन्यतीर्थिककुमवचनादिकम् अनर्थः-कुगतिमापकत्वात्"-इत्येव पुत्रादिकमनुशासत्, तथा उच्छि वस्फाटिक:-स्फटिकमिव स्फाटिकम् अन्तः करणम्, उच्छितम् उद्गत स्फाटिक यस्य स तथा-निर्ग्रन्थप्रवचन प्रतिपच्या, असद्विचारशून्यत्वात्स्फटिकवन्निमलान्तःकरण इत्यर्थः, अथवा'उच्छितपरिघः' इतिछाया, एतत्पक्षेः उच्छित तत्स्थानादपनीय ऊर्वी का निणेता बन गया था, इसलिये पृष्टार्थ था, सर्व प्रकार से अर्थ का ग्रहण करने वाला बन गया था, इसलिये ये लब्धार्थ था. वास्तविक अर्थका ज्ञाता बन गया था. इसलिये ये विनिश्चयार्थ था, निग्रन्थमबचनविषयक प्रेम. उसकी रोमर में समा गया था, इसलिये ये अस्थिमज्जामानुराग रक्त था. वह अपने पुत्र पौत्रादिकों से यही कहता था कि हे आयुष्मन् ! यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ही मोक्ष हेतु होने से वास्तविक अर्थ से युक्त है अन्य कुवादियां के प्रवचन ऐसे नहीं हैं। क्यों कि वे दुर्गति के प्राप्त कराने वाले हैं। निग्रन्थप्रवचन की प्रतिपत्ति से उसका हृदय स्फटिकमणि के जैसा निर्मल हो गया था 'उसियफलिहे' की छाया जब 'उच्छितपरिघः' एसी की जाती है तब इसका अर्थ ऐसा होता है कि इसने घरके द्वार के किबाडों में, વાથી તે અર્થને નિર્ણતા બની ગયો હતો. એથી તે પૃષ્ટાર્થ હતો. તે સર્વ રીતે અર્થને ગ્રહણ કરનાર બની ગયે હતો. એથી તે લબ્ધાર્થ હતો. તે વાસ્તવિક અર્થને જ્ઞાતા થઈ ગયે હતો. એથી તે વિનિશ્ચતાર્થ હતો. નિગ્રંથ પ્રવચન વિષયક પ્રેમ તેના અણુએ અણુમાં રમી ગયે હતો, એથી તે અસ્થિમજજા પ્રેમાનુરાગી હતો. તે પિતાના પુત્ર પૌત્ર વગેરેને આ પ્રમાણે જ કહેતો હતો કે હે આયુમન ! આ નિગ્રંથ પ્રવચન જ મોક્ષના હેતુ હોવા બદલ વાસ્તવિક અર્થથી યુકત છે. બીજા કુવાદિએના પ્રવચને આવાં નથી. કારણકે તે કુગતિ તરફ દોરનારા છે. નિગ્રંથ પ્રવચનની प्रतिपत्तिथी त य टिम भ नि 25 आयु तु. 'उसीयफलिहे' नी छाया न्यारे 'उच्छ्तिपरिघः' मा प्रमाणे ४२पामा मा छ त्यारे तेन मर्थ આ પ્રમાણે હોય છે કે તેણે ગૃહપ્રવેશદ્વારના કમાડોમાં અર્ગલા મૂકવાના સ્થાનની
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राजप्रश्नीयसूत्रे कृतो न तु तिरश्चीनः कृतः परिघ: अर्गला येन स तथा 'भिक्षुकादीनां सौकर्येण भिक्षार्थ गृहे प्रवेशो भवतु इति हेतोः कपाटपश्चाद्भागादपनीताल इत्एर्थः । अथवा-उच्छिन: अपगतः परिधः अर्गला गृहद्वारे यस्यासौ तथा-ौदार्याधिक्यादतिशयदानदातृत्वाद् भिक्षुकमवेशार्थमनर्गलितगृहद्वार इत्यर्थः । एतावदेव न किन्तु अपातद्वारः भिक्षुकादिपवेशार्थ कपाटानामपि पश्चात्करणात् सर्वथा समुद्घाटितद्वारइत्यर्थः । यद्वासम्यग्दर्शनलाभे सति कुतश्चिदपि पाखण्डिकाद् भयाभावेन शोभनमार्ग परिग्रहेण च सर्वदा समुद्घाटितशिरास्तिष्ठतोति भावः, तथा-प्रीतिकरान्तःपुरअर्गला को उसके रखने के स्थान से ऊपर कर दिया था, तिरछा नहीं किया था. अर्थात् प्रवेशद्वार के किवाडों में इसने अर्गला नहीं लगाई किन्तु वह ऊँची ही रही सो उसका कारण यह था भिक्षुक आदि जनों का प्रवेश घर में भिक्षा के निमित्त सरलता पूर्वक होता रहे। अथवा उच्छित शब्द का अर्थ 'इसने अर्गला बिलकुल नहीं लगाई ' ऐसा भी होता है क्यों कि यह उदारता वाला था, तथा अतिशय दान देने वाला था. इसलिये भिक्षुका. दिकों के प्रवेश के लिये इसने अपने घर के द्वार को अर्गला से रहित ही कर दिया था उतना ही नहीं किन्तु उसने गृह द्वारके कपाटों को खुलाकर दिया इसीलिये वह 'अप्राकृतद्वारः' ऐसा कहा है अर्थात् वह सर्वथा समुद्घाटित द्वार वाला प्रकट किया है। अर्थात् दान पुण्यके लिये उनके घरके द्वार सदा खुले थे यद्वा--सम्यग्दर्शन के लाभ होने पर किसी भी पाखण्डिक से उसे भय नहीं था सो इससे ઉપરજ રાખી. ત્રાંસી મૂકી ન હતી એટલે કે પ્રવેશદ્વારના કમાડેમાં તેણે સાંકળ લગાડી ન હતી પણ તેને ઉંચી જ રાખી હતી એની પાછળ આ હેતુ છે કે ભિક્ષક વગેરે ભિક્ષા માટે આવે ત્યારે સહેલાઈથી ઘરમાં પ્રવેશી શકે. અથવા ઉસ્કૃિત શબ્દને અર્થ આ પ્રમાણે પણ થાય છે કે તેણે અર્ગલા લગાડી જ નહોતી. તે ઉદાર તેમજ અતિશય દાનદાતા હતો એથી ભિક્ષુક વગેરેના પ્રવેશ માટે પિતાના ઘરને તેણે અર્ગલા વગર જ રાખ્યું હતું. આ પ્રમાણે અર્થ કરતાં આપણે એમ કહી શકીએ કે તેણે અર્ગલાને તેના स्थान ५२थी यी ५ नहाती ४२. मेटसा भाटे 'अप्रावतद्वार: पया સૂત્રકારે તેને સર્વથા સમુદ્દઘાટિતદ્વારવાળો પ્રકટ કર્યો છે. અને સમ્યગ દર્શનના લાભ થી હવે કોઈ પણ પાંખડિકથી તે ભયભીત નહોતો થતો એથી અને શોભનમાર્ગના
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सुबोधिनी टीका. सू. ११३ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ९१ गृहप्रवेश:=पीतिकरः प्रीत्युत्पादक: अन्तःपुरगृहे-राज्ञोऽन्तःपुरे प्रवेशो यस्य स तथा, प्रीतिकरोऽतिधार्मिकतया सर्वत्रानाशङ्कनीय इति भावः, तथाचतुर्दश्यष्टम्युद्दिष्टपौर्णमासीषु तत्र-चतुर्दश्यष्टमीपौणमास्यः प्रसिद्धाः, 'उद्दिष्टम् इत्यमावास्या, एतासु चनमुष्वपि तिथिषु प्रतिपूर्ण-सकलम्-अहोरात्र पौषध सम्यक अनुपालयन, तथा-प्रासुकैषणीयेन-अचित्तेन साधुजनकल्पनीयेन च अशनपानखादिमस्वादिमेन=अशनादिचतुर्विधेनाहारेण पीठफलकशय्यासंस्तारकेण, वस्त्रप्रतिग्रहकम्बलपादपोन्छनेन-तत्र-वखवसन, प्रतिग्रहः भक्त. पानादिपात्रं, कम्बल:-प्रसिद्धः, पादपोख्छनपादप्रोग्छनार्थ वस्त्रम्, एतेषा समाहारः, तेन. तथा-औषधभैषज्येन-औषधम एकद्रव्यनिष्पादित,भैषज्यम= अनेकद्रव्यनिष्पादितम्, उभयोः समाहारस्तेन च श्रमणान् निर्ग्रन्थान् प्रतिलम्भयन् प्रतिलम्भयन, तथा-बहुभिः अनेकसंख्यकैः शीलवतगुणविरमणप्रत्याख्यानपोषधोपवासैः तत्र-शीलवतानिस्थूलमाणातिपातविरमणा
और शोभनमार्ग के परिग्रह से वह मर्वदा समुद्घाटित शिरवाला बना रहता था अर्थात् स्वधर्माभिमान वालाहै। तथा वह प्रीतिकरान्तःपुरगृहप्रवेश वाला था, अर्थात् राजा के अन्तःपुररूप घर में इसका प्रवेश प्रीत्युत्पादक था अर्थात् यह अतिधार्मिक था इसलिये पीतिकर सर्वत्र अनाशङ्कनीय था तथा चतुर्दशी अष्ठमी अमावास्या और पूर्णिमा इन चारों पर्व तिथियों में यह अहोरात्र का पौषध करता था मासुकएषणीय. अचित्त एवं साधुजन कल्पनीय ऐसे अशनपान आदिरूप चार प्रकार के आहार से, पीठ, फलक, शय्या एवं संस्तारक से. वस्त्र, प्रतिग्रहभक्तपानादिपात्र, कम्बल, एवं पादमोन्छनार्थ वस्त्र से, एकद्रव्यनिष्पादित औषध से तथा अनेक द्रव्य निष्पादित भैषज्य से यह श्रमणनिग्रन्थों को प्रतिलाभित करता था, इस तरह अनेकसंख्यक शीलवतों से-स्थलमाणातिपातविरमण आदिकों से, दिग्वत आदिरूप गुणवतों से, मिथ्यात्व. પરિગ્રહથી તે સર્વદા સમુદ્દઘાટિત શિરવાળે થઈને રહેતો હતો. તે પ્રીતિકરાન્તઃ પુરગૃહપ્રવેશવાળે હતો. એટલે કે રાજાના રણવાસમાં તેને પ્રવેશ પ્રત્યુત્પાદક હતે એટલે કે તે અતિધાર્મિક હતા એથી પ્રીતિકર અને સર્વત્ર અનાશંકનીય હતા. ચતુર્દશી વગેરે ચાર ચાર પર્વતિથિઓમાં તે અહોરાત્ર પૌષધ કરતે હતે પ્રાસક એષણીય અચિત્ત અને સાધુજન ક૫નીય એવા અનપાન વગેરે રૂપ ચાર પ્રકારના આહારથી પીઠ, ફલક, શય્યા, અને સંસ્મારકથી વસ્ત્ર, પ્રતિગ્રહ-ભકતપાન વગેરે પાત્ર, કંબલ અને પાદ છનાર્થ વસ્ત્રથી એક દ્રવ્ય નિષ્પાદન ભૈષજયથી તે શ્રમણ નિર્વ ને પ્રતિલાભિત કરતા હતા. આ પ્રમાણે ઘણું શીલવતોથી–સ્થૂલ પ્રાણાતિપાત વિરમણ વગેરેથી, દિગૃવિરતિ વગેરે ગુણવતેથી, મિથ્યાત્વ નિવર્તનરૂપ વિરમણથી,
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राजप्रश्नीयसूत्रे दीनि पञ्च, गुणाःगुणवतानि-दिग्वतादोनि, विरमण =मिथ्यात्वान्निवर्तनम्, प्रत्याख्यान पर्वदिनेषु हरितकायादीनां परित्यागः, पौषधोपवासाचतुर्द श्यादिप तिथिषु आहारत्यागः, एषामितरेतर योगद्वन्द्वः, तेश्च आत्मान भावयन् वासयन, यानि तत्र श्रावस्त्यां नगर्या राजकार्याणि च यावद् राजव्यवहाराश्च तानि सर्वाणि नितशणा राज्ञा सार्द्ध स्वयमेव प्रत्युपेक्षा माणः प्रत्युपेक्षमाणः=मुहुर्मुहुरवलाकयन् विहरात ॥सू० ११३॥
मूलम्-तएणं से जियसत्तू राया अण्णया कयाइ महत्थं जाव पाहुडं सज्जेइ, सजित्ता चित्तं सारहिं सदावेइ, सदावित्ता एवं वयासी गच्छहि णं तुमं चित्ता ! सेयंवियानयरिं, पएसिस्स रन्नो इमं महत्थं जाव पाहुडं उवणेहि, मम पाउग्गहणं जहा भणियं अवितहमसं. दिद्धं वयणं विन्नवेहित्तिकद्दु विसजिए। तएणं से चित्ते सारहा जियसत्तुणा रन्ना विसज्जिए समाणे त महत्थ जाव गिण्हइ, जियसत्तुस्स रणो अंतियाओ पडिणिक्खमइ, सावत्थीए नयरीए मज्झंमझेणं निग्गच्छइ, जेणेव रायमग्गमोगाढे आवासे, तेणेव उवागच्छइ, तं महत्थं जाव ठवेइ, हाए जाव सरीरे सकोरिंटमल्लदामेणं छत्तणं धरिजमाणेणं महया भडचडगरविंदपरिक्खित्ते पायचारबिहारेण महया पुरिसवग्गुरापरिक्खित्ते रायमग्गमोगाढाओ आवासाओ निग्ग च्छइ, सावत्थीए नयरीए मज्झमज्झणं निग्गच्छइ, जेणेव कोट्टए निवर्तनरूप विरमण से, पर्वदिनों में हरितकायादिकों के परित्याग से, चतुश्यादिपर्व तिथियों में आहारत्याग से आत्मा को वासित करता हुआ वह श्रावस्ती नगरी में जितने भी राजकार्य थे यावत्-राजव्यवहार थे उन सब का जितशत्रु राजा के साथ स्वतः बार बार निरीक्षण करता हुआ रहने लगा।सू,११३ પર્વના દિવસેમાં હરિતકાય વગેરેના પરિત્યાગથી, ચતુર્દશી વગેરે તિથિઓમાં આહાર ત્યાગથી આત્માને વાસિત કરને તે શ્રાવસ્તી નગરીમાં જેટલા રાજકાર્યો હતાં યાવતુ રાજવ્યવહાર હતા તે સર્વનું જિતશત્રુ રાજાની સાથે પિતે વારંવાર નિરીક્ષણ કરતે રહેવા લાગ્યા. શરૂ. ૧૧૩
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सुबोधिनी टीका. सूत्र ११४ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ९३ चेइए जेणेव केसीकुमारसमणे तेणेव उवागच्छइ, केसिकुमारसमणस्स अंतिए धम्म सोच्चा णिसम्म हटु जाव उठाए जाव एवं वयासीएवं खलु अ भंते ! जियसत्तुणा पएसिस्स रन्नो इमं महत्थं जाव उवणेहि ति कडु विसजिए, तं गच्छामि गं अहं भंते ! सेयंवियं नयरि ! पासादीया णं भते! सेयंविया णयरी, एवं दरिसणिज्जा णं भंते ! सेयंविया णयरी, अभिरूवा गं भंते! सेयंविया गयरी पडिरूवा णं भते ! सेयं विया णयरी, समोसरह णं भते ! तुन्भे सयंवियं णयरि ॥सू० ११४॥
___ छाया-ततः खलु स जितशत्रू राजा अन्यदा कदाचित् महार्थ यावत् माभृतं सज्जयति, चित्र सारथिं शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत् गच्छ खलु त्वं चित्र! श्वेतपिकां नगरीम्. प्रदेशिनो राज्ञ इदं महार्थ यावत पाभृतम् उपनय, मम पादग्रहण यथा भणितम् अवितथम् असन्दिग्धम् वचन
'तएणं से जियसत्तू राया' इत्यादि ।
सूत्रार्थ--(तएण से) इसके बाद उस (जियसत्तू राया) जितशत्रु राजाने (अन्नया कयाइ) किसी एक समय (महत्थं जाव पाहुई सज्जेइ) महाप. योजनसाधक यावत् प्राभृत को सजाया, (सज्जित्ता चित्तं सार हिं सदावेइ) सजाकर फिर उसने चित्र सारथि को बुलाया. (सदायित्ता एवं क्यासी) बुलाकर उससे ऐ सा कहा-(गच्छाहि णतुमंचित्ता। सेय वियानयरिं पए पसिस्स रन्नो इम महत्थं जाव पाहड उवणेहि) हे चित्र ! तुम जाओ और श्वेतांबिका नगरी में प्रदेशी राजा के पास इस महाप्रयोजन साधक यावत
'त एण से जियसत्त राया' इत्यादि ।
सूत्रार्थ:--(त एण से)त्यारे पछी ते (जियसन राया) fruनये (अन्नया) कयाइ) आई मे मते (महत्थ जाव पाहुड सज्जेइ) भाप्रयोग साथ यावत् सेट (प्राकृत) तैय२ ४ी. (सज्जित्ता चित्तं सारहिं सदावेइ) तैयार ४शन तेणे चित्र साथीन मासाव्या. (सदावित्ता एवं क्यासी) मासावीनते) मा प्रभारी ह्यु (गच्छहि ण तुम चित्ता! सेयं विया नयरिं पएसिस्स रन्नो इम' महत्थं जाव पाहुड उवणेहि) यित्र! तमे वेतqि नगरीमा प्रदेशी रानी पासे या
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राजप्रश्नीयसूत्रे विज्ञापयेति कृत्वा विसर्जितः । ततः खलु स चित्रः सारथिर्जितशत्रुणा राज्ञा विसर्जितः सन् तत् महार्थ यावद् गृह्णाति. जितशत्रो राज्ञोऽन्तिकात् प्रतिनिष्क्रामति, श्रावस्त्या नगर्या मध्यमध्येन निर्गच्छति, यौव राजमार्ग मबगाढ आवासः, तत्र व उपागच्छति, तन्महार्थ यावत् स्थापयति, स्नातो यावच्छरीर: सकोरण्टमाल्यदाम्ना छोण ध्रियमाणेन महाभटचट करन्दपरिक्षिप्तः पादचारविहारेण महापुरुषवामुरापरिक्षिप्तो राजमार्गमवगाढात भावा प्राभृत को ले जाओ (मम पाउग्गहण जहा भणिय अवितहमसंदिद्धं वयण विनवेहि तिकटु विसज्जिए) और उनसे मेरा प्रणाम कहो, तथा मेरी और से यथोक्त अवितथ असंदिग्ध ववन कहो, इस प्रकार कह कर उसे विसर्जित कर दिया. (तएण से चित्ते सारही जियसनुणा रण्णा विसज्जिए समाणे त महत्थ जाव गिण्हइ-जियसत्तस्स रण्णो अंतियात्रो पडिनिक्खमइ) इसके बाद जितशत्र राजा द्वारा विसर्जित किये गये चित्र सारथि ने उस महाप्रयोजन साधक यावत् प्राभृत को उठा लिया और जितशत्रु राजा के पास से चला आया. (सावत्थीए नयरीए मज्झ मज्झेण' निग्गच्छड) एवं श्रावस्ती नगरी के ठीक बीचों बीच के मार्ग से होकर निकला (जेणेव रायमग्गमोगाढ आवासे तेणेव उवागच्छइ) निकलकर वह जहां राजमार्ग पर स्थित आवासस्थान था, वहां पर आया (महन्थ जाव ठवेइ) वहां आकरके उसने उस प्राभूत को एक ओर रख दिया. (हाए जाव सरीरे सकोरिंटमल्लदामेण छत्तण धरिजमाणेण महया भडचडगरविंदमहाप्रयोन साथ यावत् लेट ou.(मम पाउग्गद्दण जहा भणिय अवि तहमसदिद्ध वयण विन्नवेहित्तिकद विसज्जिए) भने भने भा२२ प्रणाम ४। भने भारावती यथात अवित असहिग्य वयन ४डश. (त्तिकहु विसजिए) मा प्रमाणे डीन तेने त्यांची वानी ! ४0. (तएण से चित्रो सारही जिय सतुणा रणा विसज्जिए समाणे तं महत्थं जाच गिण्हइ जियसत्तस्स रणों अंतियाओ पडिनिक्खमइ) त्या२पछी तिशत्रु २० पासेथी माज्ञापित थने ते ચિત્ર સારથીએ તે મહાપ્રયજન સાધક યાવત્ ભેટને લઈ લીધી અને જિતશત્રુ રાજા पासेथी सावतो रह्यो (सावत्थीए नयरीए मज्ज्ञमज्झणमिग्गच्छद) भने श्रावस्ती नगीना पराम२ मध्यमाथी थधन (जेणेब रायमग्गमोगाढे आवासे तेणेव કાનજી) તે જ્યાં રાજમાર્ગ પર પિતાનું નિવાસસ્થાન હતું ત્યાં આવ્યા. (त महत्थं जाव ठवेइ) त्यां पीन तेथे ते लेटने मे १२५ भूी हीधी. (ण्हाए जाव सरीरेसकोरिटमल्लदामे णं छत्ते ण धरिजमाणे णं महया महया
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सुबोधिनी टीका सू. ११४ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् श्रावस्त्या नगर्या मध्य
मध्येन निर्गच्छति तत्रैव
कुमारश्रमणः
सात् निर्गच्छति, यत्रैव कोष्ठक. चैत्य यत्रैव केशी उपागच्छति, केशिकुमार श्रमणस्य अन्तिके धर्म श्रुत्वा हृष्ट यावत् उत्थया यावदेवमवादीत - एवं खलु अह भदन्त ! जितशत्रुणा राज्ञा प्रदेशिने राज्ञे परिक्खिते पायचारविहारेण महया पुरिसवग्गु परिक्खिते रायमग्गमोगाढाओ आवामाओ निग्गच्छर) स्नान किया यावत् बहुमूल्य वेश एवं अल्पभारवाले आभूषणों से अपने शरीर को अलंकृत किया. पश्चात् छत्रधारी द्वारा ताने गये एवं कोरंटपुष्पों की माला से विभूषित ऐसे छत्र से युक्त हुआ वह चित्र सारथि विशाल भटों के विस्तृत समूह से युक्त होकर उस राजमार्ग स्थित आवास से पैदल ही निकला साथ में विशाल जनमेदिनी भी थी. (सावत्थीए नयरीए मज्झमज्झेण निग्गच्छ३) इन सब से घिरा वह चित्र सारथि श्रावस्ती नगरीके बीचों बीच मार्ग से होकर चला ( जेणेव कोट्टए चेइए जेणेव के सिकुमारसमणे तेणेव उवागच्छ ) चलते२ वह वहां पहुंचा जहां कोष्ठक चैत्य और उसमें भी जहां केशिकुमारश्रमण थे ( के सिकुमारसमणस्स अति धम्म सोच्चा णिसम्म हट्ठतुट्ठ जात्र उट्ठाए एवं वयासी वहां पहुंचकर उसने केशिकुमार श्रमण से धर्मका उपदेश सुना और उसे हृदय में धारण किया सुनकर और हृदय में धारण कर वह आनंद से प्रफुल्लित बन गया, और संतुष्ट चित्त हो गया यावत् उसका हृदय प्रमोद से
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भड चडगरविंदपरिक्खिते पायचारविहारेण महया पुरिस वग्गुरापरिक्खित्ते रायमग्गमोगाढाओ आवासाओ निग्गच्छ इ) स्नान यु" यावत् महु भितवानां मने અલ્પભારવાળાં આભૂષણા વડે તેણે પેાતાના શરીરને અલંકૃત કર્યું. ત્યારપછી કાર ટ પુષ્પ વડે શાભતુ છત્ર છત્રધારીએ વડે તેના ઉપર તાણુવામાં આવ્યું. આ પ્રમાણે તે ચિત્ર સારથિ વિશાળ ભટાના સમુદાયથી પરિવેષ્ટિત થઇને તે રાજમાર્ગ પર સ્થિત આવાસ સ્થાનથી પગપાળાં જ રવાના થયા. તેની સાથે વિશાળ માનવસમૂહ પણ હતા. (सावस्थी नयरी मज्झ मज्झेण निग्गच्छइ) मा सर्वथी वीटजायेखेोते सारथि श्रावस्ती नगरीना मध्यमार्ग पर थाने नीडल्या. ( जेणेव कोइए चेइए जेणेव के सिकुमार समणे तेणेव उचागच्छइ) नीडजीने ते भ्यां श्रेष्ठ शैत्य तु अने तेमां या नयां शिडुभार श्रमण हुता त्यां थडग्या (के सिकुमारसमणस्स अतिए धम्मं सोचा णिसम्म हट्टतुट्ठ जाव उट्टाए जाव एवं वयासी) ત્યાં પહાંચોને તેણે કેમિાર શ્રમણ પાસેથી ધર્મોપદેશ સાંભળ્યા અને તેને હૃદયમાં ધારણ કર્યાં. ધર્મોપદેશ સાંભળીને અને હૃદયમાં ધારણ કરીને તે આનંદવિભાર થઈ ગયા અને સંતુષ્ટ ચિત્તવાળું થઇ ગયા. યાવત્ તેનું હૃદય પ્રસન્નતાથી ઉભરાઈ ગયું
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राजप्रश्नीयसूत्रे इदं महार्थं यावत् उपनय इति कृत्वा विसर्जितः तद् गच्छामि खलु अहं भदन्त ! श्वेतविकां नगरीम् । प्रासादीया खलु भदन्त ! श्वेतबिका नगरी एवं दशनीया खलु भदन्त ! श्वेतविका नगरी, अभिरूपा खलु भदन्त ! श्वेतविका नगरी, प्रतिरूपा खलु भदन्त ! श्वेतविका नगरी, समवसरत खलु भदन्त ! यूयं श्वेतविकां नगरीम ॥सू० ११४॥
टीका-'तएण' से' इत्यादि
ततः खलु स जितश राजा अन्यदा कदाचित् महार्थं यावत्-बाव स्पदेन 'महार्थ महाहं विपुलं राजाहम्' इति संग्रह्यते अर्थस्त्वेषां पूर्ववद् मत्त होकर उछलने लगा यावत् वह स्वतः उठा और उठकर यावत् उसने इस प्रकार कहा-(एव खलु अहं भते ! जियसत्तणा पएसिस्स रन्नो इम महत्थं जाव उवणेहि त्ति कटु विसजिए तं गच्छामि अहं भते! सेय. विय नयरिं) हे भदन्त ! मुझे जितशत्रु राजाने 'प्रदेशी राजा के पास हे चित्र! तुम इस महाप्रयोजन साधक यावत् प्राभूत को ले जाओ' ऐसा कह कर विसर्जित किया है सो हे भदन्त ! मैं श्वेतांविका नगरी को जा रहा है। (पासाईया ण भते ! सेय विया नयरी, एवं दरिसणिजाण भंते! सेय बिया नयरी, अभिरुवाण भते! सेय विया नयरी, पडिरूवाणं भंते ! सेयंविया णयरी, समोसरहणं भंते! तुम्भे सेयं वियनयरिं) हे भदन्त! श्वेतांविका नगरी प्रासादीया है-हे भदन्त ! श्वेतांबिका नगरी दर्शनीया है, हे भदन्त ! श्वेतांबिका नगरी अभिरूप है, हे भदन्त ! श्वेतांबिका नगरी प्रतिरूपा है अतः हे भदन्त ! आप उस श्वेतांबिका नगरी में पधारें। यावत् ते ते sal थयो भने उनी थने यावत् तेणे - प्रमाणे ४धु-(एवं खलु अहं भते ! जियसत्तुणा पएसिस्स रन्नो इम महत्थं जाव उवणेहि ति कटु विसजिए तगच्छामिण अहंमते ! सेय वियनयरि) मत ! भने शत्रु રાજાએ પ્રદેશી રાજાની પાસે આમ કહીને જવા આજ્ઞા કરી છે કે હે ચિત્ર તમે આ મહાપ્રયજન સાધક યાવત્ પ્રાભૂતને પ્રદેશ રાજા પાસે લઈ જા” તે હે ભદંત !
वेतirst नगरी त२३ ० २wो छु. (पासाईया ण भते! सेयंविया नयरी एवं दरिसणिज्जा ण भते ! सेयविया नयरी, अभिरूवाण भते ! सेय विया नगरी, पडिरूवाण भते ! सेय विया णयरी, समोसरहण' भते ! तुम्भे सेविय नगरि) मत ! श्वेतist नारी अनिरुपा छ, मत ! श्वेताબિકા નગરી પ્રતિરૂપા છે. માટે હે ભદંતતમે શ્વેતાંબિકા નગરીમાં પધારે.
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सुबोधिनी टीका सू. १९४ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम्
बोध्य इति एतादृशं सज्जयति = कल्पयति, सज्जयित्वा चित्र सारथिं शब्दयति, शब्दयित्वा एवं = वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत = उक्तवान्-त्वं खलु हे चित्र ! श्वेतविकां नगरीं गच्छ प्रदेशिनो राज्ञः समीपे इदं महार्थ यावत् प्राभृतम् उपनय= प्रापय, मम=मत्कर्तृकं पादग्रहण = प्रणामं यथा भणितं = यथेो क्तम्- अवितथम् = यथार्थम् असंदिग्धम् सुस्पष्टं वचनं च विज्ञापय निवेदय, इति कृत्वा = इत्युक्तवा विसर्जितः । ततः खलु स चित्रः सारथिः जितशत्रुणा राज्ञा बिसर्जितः = प्रदेशिराजसमीपे गन्तुम् आज्ञप्तः सन् महार्थं यावत् = महास्वादिविशेषणविशिष्ट प्राभृतं गृह्णाति जितशत्रो राज्ञः अन्तिकात्-समीपात प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य श्रावस्त्या नगर्या मध्यमध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैव राजमार्गमवगाढः = राजमार्गस्थितआ वासः = प्रासादः तत्रैव उपा गच्छति, तत् महार्थं यावत् = महार्थत्वादिविशेषणविशिष्ट ं प्राभृत' स्थापयति, स्थापयित्वा स्नातो यावच्छरीर:- 'यावच्छरीर' पदेन 'कृतबलिकर्मा कृतकौतुक मङ्गलप्रायश्चित्तः अल्पमहार्घाभरणालङ्कृतशरीरः' इति संगृह्यते, अर्थस्स्वेषां पूर्ववद् बोध्यः तथा-सकोरण्टमाल्यदाम्ना छत्रेण ध्रियमाणेन युक्त: महाभटकर वृन्दपरिक्षिप्तो महापुरुषवागुरापरिक्षिप्तश्च सन् राजमार्गमवगाढात् आवासात् निर्गच्छति । ' सकोरण्ट' - इत्यादि - पदानामर्थः पूर्ववद् बोध्यः । ततः श्रावस्त्या नगर्या मध्यमध्येन निगच्छति, निर्गत्य यत्रैव कोष्ठक ं चै त्य
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टीकार्थ - - इस सूत्र का मूलार्थ के हो अनुरूप है, - नवर' - 'महस्थ' जाव पाहुड' में जो यावत् पद आया है उससे 'महग्घ, महार्ह, विपुलं, राजा है' इन पदों का संग्रह हुआ है। इन पदों का अर्थ यथास्थान लिखा जा चुका है--: -- अतः वैसा ही समझना चाहिये. 'हाए जाव सरीरे' में जो यावत् पद आया है उससे 'कृतबलिकर्मा, कृत कौतुकम गलप्रायश्चित्तः अल्पमहार्घाभरणाल'कृत' इन पूर्वोक्त पदों का संग्रह हुआ है. इनका अर्थ पहिले के जैसा ही जानना चाहिये, हट्ट जाव' में जो यावत पद आया है उससे 'तुष्टचित्तानन्दितः, प्रीतिमनाः, परमसौ
टीअर्थ - ९- सूत्रनो टीअर्थ प्रमाणे ४ छे. "नवरं महत्थ जाव पाहुड" भां ? यावत् यह छे. तेथी 'महग्ध' 'महा'', विपुल' राजा " आ होना संग्रह थयो छे. आ होना मर्थ यथास्थाने स्पष्ट वामां आव्यो छे. 'हाए जाव सरीरे' भां ने यावत् यह तेथी 'कृतबलिकर्मा, कृतकौतुकम' गलप्रायश्चित्तः अल्पमहाभरणालंकृत' मा होना संग्रह थयो छे. या पहोनो अर्थ चडेसांनी नेम समन्वो लेहये. "हट्ठ जाव' भां ने यावत् यह छे तेथी "तुष्टचित्तानन्दितः,
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राजप्रश्नीयसूत्रे थत्रै व केशीकुमारश्रमणस्तत्रै व उपागच्छति, के शिकुमारश्रमणस्य अन्तिके =समीपे धर्म श्रुत्वा सामान्यत आकर्ण्य निशम्य विशेषतो हृद्यवधार्य हृष्टः यावत्-हृष्टतुष्टचित्तानन्दितःप्रीतिमनाः परमसौमनस्यितो-हर्षवश विशप दयः अर्थ स्त्वेषां पूर्ववद् बोध्यः, उत्थया उत्थानशत्तया यावत् यावत्पदेन-'उत्तिष्टति,उत्थाय केशिन कुमार श्रमण विकृत्व आदक्षिणप्रदक्षिण' करोति,वन्दते नमस्यति,वन्दित्वा नमस्यित्वा'-इति संग्राह्यम्, एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत उक्तवान्'एवं खल्लु अहं भदन्त ! जितशत्रुणा राज्ञा' 'प्रदेशिनो राज्ञः समीपे इदं महार्थं यावत-महार्थत्वादिविशेषणविशिष्ट प्राभृतम् उपनय' इति कृत्वा इत्युक्तवा विसर्जितः । तत तस्मात् कारणात् खलु भदन्त ! गच्छाम्यह श्वेतविकां नगरीम् । हे भदन्त ! श्वेतविका नगरी खलु प्रासादीया-दर्शकजनानां मनःप्रमोदनिकाऽस्ति ! एवम् तथा हे भदन्त ! श्वेतविका नगरी खलु दर्शनीया-प्रे क्षणीयाऽस्ति । हे भदन्त ! श्वेतविका नगरी खल अभिरूपा-सर्वकालरमणीयाऽस्ति । हे भदन्त ! श्वेतविका नगरी खलु पतिरूपा-सर्वोत्तमाऽस्ति । अतो हे भदन्त ! यूयं श्वेतविकां नगरी समवसरतआगच्छत-इति ॥ मू० ११४ ॥
मनस्यितो, हर्षवशविसर्प दहृदयः' इन पदों का संग्रह हुआ है. इनका अर्थ पहिले जैसा ही जानना चाहिये, 'उहाए जाव' में आगत यावत्पद से उनि. ष्ठति, उत्थाय केशिन कुमारश्रमण विकृत्व आदक्षिणप्रदक्षिण-करोति, वन्दते, नमस्यति, वन्दित्वा, नमस्यित्वा' इस पाठ का संग्रह हुआ है। दर्शकजनों के मन में प्रमोदजनक है यह प्रासादीय शब्द का अर्थ है। देखने योग्य है, यह दर्शनीय शब्द का अर्थ है-सर्वकाल रमणीय है वह अभिरूप शब्द का अर्थ है-सर्वोत्तम है यह प्रतिरूप शब्द का अर्थ है।म, ११४॥
प्रीतिमनाः, परमसौमनस्थितो, हर्षवश विसर्पहृदयः' मा पानी सड थयो छे. भा पहानी Aथ पडेसन भर समस्यो नये. 'उठाए जाब' मां 2 यावत् प६ मा छे तेथी "उत्तिष्ठति, उत्थाय केशिन कुमारश्रमण विकृत्व आदक्षिण प्रदक्षिणं करोति वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा, नमस्यित्वा' ॥ ५४ने। સંગ્રહ થયે છે. દર્શકો માટે જે પ્રમોદજનક છે-એ પ્રાસાદીય શબ્દનો અર્થ થાય છે. દર્શનીય શબ્દનો અર્થ છે. જેવા ગ્ય. અભિરૂપ શબ્દનો અર્થ થાય છે જે સર્વ કાળ રમણીય છે તે પ્રતિરૂપ શબ્દને અર્થ સર્વોત્તમ થાય છે. સૂ૦ ૧૧૪
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सुबोधिनी टीका सू. १३५ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ९९
___ मूलम्-तएणं से केसी कुमारसमणे चितेणं सारहिणा एवं वुत्ते समाणे चित्तस्स सारहिस्स एयमढं णो आढाइ णो परिजाणाइ तुसिणीए संचिटुइ । तएण से चित्ते सारही केसिकुमारसमणं दो. चंपि तचंपि एवं वयासी-एवं खलु अहं भंते ! जियसत्तुणा रण्णा पएसिस्स रण्णो इमं महत्थ जाब विसजिए, तं चेव जाव समोसरह णं भंते ! तुब्भे सेयंवियं णयरिं । तएणं से केसीकुमारसमणे चित्तेण सारहिणा दोच्चंपि तच्चंपि एवं वुत्ते समाणे चित्तं सारहिं एवं वयासी-चित्ता । से जहानामए वणसंडए सिया किण्हे किण्हो भासे जाव पडिरूवे । से गूणं चित्ता ! से वणसंडे बहूर्ण दुपयचउप्पयमियपसुपक्खीसरीसिवाणं अभिगमणिजे ? हता ! अभिग. मणिज । तंसिं च णं चित्ता ! वणसंडंसि बहवे भिलूगा नाम पावसउणा परिवस ति, जेणं तेसिं बहूणं दुपयचउप्पयमियपसु. पक्खिसरीसिवाणं ठियाणं चेव मससोणियं आहारेति ! से गूणं चित्ता ! से वणसंडे तेसि णं बहूणं दुपय जाव सरीसिवाणं अभिगमणिज्जे ? णो इणटे सम? ! कम्हा ? भंते ! सोवसग्गे। एवामेव चित्ता ! तुज्झपि सेयंवियाए णयरीए पएसी नाम राया परिवसइ, अहम्मिए जाव णो सम्म करभरवित्तिं पवत्तइ । तं कहणं अहं चित्ता ! सेयंवियाए नयरीए समोसरिस्सामि ? ॥सू० ११५॥
छाया-ततःखलु स केशीकुमारश्रमणः चित्रे ण सारथिना एवमुक्तः सन् चित्रस्य सारथेरेतमर्थ नो आद्रिय ते नो परिजानाति, तूष्णीकः सन्तिष्ठते। ततः खलु स चित्रः सारथिः केशिकुमारश्रमण द्वितीयमपि तृतीयमपि
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राजप्रश्नीयसूत्रे एवमवादीत्-एवं खलु अहं भदन्त ! जितशत्रुणा राज्ञा प्रदेशिनो राज्ञइद महार्थ यावद् विसजितः, तदेव यावत् समवसरत खलु भदन्त! यूयं श्वेतविकां नगरीम् । ततः खलु केशीकुमारश्रमणः चित्रोण सारथिना द्वितीय
'तएण से केसी कुमारसमणे' इत्यादि।
सूत्रार्थ-(तएण) इसके बाद (से केसीकुमारसमणे) उन केशिकुमार श्रमणसे जब चित्र सारथो ने ऐसा कहा-तब (चित्तस्स सारहिस्स) चित्र सारथी का (एयम, णो अढाइ, णो परिजाणाइ, तुसिणीए संचिट्ठइ) इस अर्थको आदर नहीं दिया, उसे विचार का विषय नहीं बनाया. किन्तु चुपचाप हो रहे (तएण से चित्ते सारही केसिकुमारसमण' दोच्च पि तच्चपि एवं वयासी) इसके बाद चित्र सारथीने पुन दुबारा भी और तिबारा भी उन केशिकुमारश्रमण से ऐसा ही कहा कि (एव' खलु अहं भते ! जियसत्तुणा रण्णा पयेसिस्स रणो इम महत्थं जाव विसजिए त चेव जाव समोसरह णं भते ! तुम्भे सेयं विय नरिं) हे भदन्त ! जितशत्रु राजा के द्वारा मैं ऐसा कहा गया हूं कि हे चित्र ! तुम इस महार्थादि विशेषणों वाले प्राभृत (भेट) को लेकर प्रदेशीराजा के पास जाओ सो मैं वहां जा रहा हूं-वह श्वेतांबिका नगरी दर्शनीय आदि विशेषणों वाली है अतः वहां पधारे (तएणसे केसीकुमारसमणे चित्तेण सारहिणा दो चापि तच्च पि ऐवं
'त एण' से केसीकुमारसमणे' इत्यादि ।
सूत्रार्थ:-(त एण) त्या२ पछी (से केसीकुमारसमणे) ते शिभा२ श्रमाने न्यारे थिसाथी मे २0 प्रमाणे छु त्यारे (चित्तस्स सारहिस्स)य. साथिना (एयमट्ट णो आढाइ, णो परिजाणाइ, तुसिणीए सचिट्ठइ) 241 2Aथ ने આદર આપે નહિ. તેના કથન પર કોઈ પણ જાતને વિચાર કર્યો નહિ, તેઓ આ मधु सामजीने भौन ॥ २ह्या. (तएण से चित्ते सारही के सिकुमारसमण दोच्चपि तच्च पि एवं बयासी) त्या२ ५६ भित्र साथिये भी मत भने त्री मत ५४ शिशुमार श्रमाने मी प्रमाणे (एवं खलु अहं भते ! जियसत्तुणा रण्णा पएसिस्स रण्णो इम महत्थ जाव विसज्जिए त चेच जाव समोसरह ण भते ! तुम्भे सेयविय नरि) 8 मत! शत्रु રાજાએ મને આ પ્રમાણે કહ્યું છે કે હે ચિત્ર! તમે આ મહાર્ણાદિ વિશેષણવાળી ભેટને લઈને પ્રદેશી રાજાની પાસે જા. જેથી હું ત્યાં જઈ રહ્યો છું. તે ધોતાંબિકા नारी शनीय वगैरे विशेषवाणी छे तेथी तमे पण त्यां पधारे. (त एण से केसिकुमारसमणे चित्ते ण सारहिणा दोच्चापि तच्चपि एवं वुत्ते समाणे
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सुबोधिनी टीका सू. ११५ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् १०१ मपि तृतीयमपि एवमुक्तः सन् चित्र सारथिम् एवमवादीत-चित्र ! स यथानामको वनषण्डः स्यात् कृष्ण : कृष्णावभासो यावत्पतिरूपः । अथ नून चित्र! स वनपण्डो बहूनां द्विपद चतुःपदमृगपशुपक्षिसरीसृपाणाम् अभिगमनीयः ? हन्त ! अभिगमनीयः । तस्मिंश्च खलु चित्र ! वनपण्डे बहवो भिल्लका नाम पापशाकु निकाः परिवसन्ति । ये खलु बहूनां द्विपदचतुष्पदमृगपशुपक्षिसरी सृपाणां स्थितानामेव मांसशोणितम् आहारयन्ति । अथ नून चित्र ! स वुत्ते समाणे चित सारहिं एव वयासी) तब इस प्रकार दुबारा तिवारा भी चित्र सारथी के द्वारा विनन्ति किये जानेपर केशिकुमार श्रमणने उन चित्र सारथी से ऐसा कहा (चित्ता! से जहानामए वणसडए सिया किण्हे किण्होभासे जाव पडिरूवे) हे चित्र ! जैसे कोई एक वनषड हो और वह कृष्ण-कृष्ण वर्णवाला हो, तथा कृष्ण जैसा दिखता हो (से गुण चित्ता से वणसंडे बर्ष दुप. यचउप्पयमियपसुपरखीसरीसिवाण अभिगमणिज्जे) तो हे चित्ते ! कहो वह अनेक द्विपद, चतुष्पद, मृग, पशु पक्षी और सरीसृप सर्प इन सबके गमन के योग होता है न ? (हता अभिगमणिज्जे) हां भदन्त ! वह इनके गमन के योग्य होता है. (तसि च ण चित्ता वणससि बहवे भिलूगा पावसउणा परिवसति) यदि उस वनखड में हे चित्र ! अनेक पापिष्ठ भील लोग जो कि पारधी होते हैं रहते हैं (जे ण तेसि बहूणं दुपयचउप्पयमियप. सुपक्खिसरीसिवाण' ठियाणं चेव मससोणिय आहारति) जो कि वहां रहे हए उन बहुत से द्विपद . चतुष्पद, मृग, पशु, पक्षी और सरीसृपों के मांस शोणित चित्त सारहिं एव' वयासी) त्यारे ते प्रमाणे भा० १५त मने त्री मत उसी यिसाथिनी पात साजान तेने मा प्रमाणे ह्यु (चित्ता ! से जहानामए वणसंडए सिया कण्हे किण्होभासे जाव पडिरूवे) हे चित्र ! म पनम हाय मने ते गुवर्ण वाण हाय, तभ०४ ४ो सागतो डाय (से प्रण चित्ता से रणसंडे बहण दुपयचउप्पयमियपसुपरवीसरीसिवाण अभिगमणिज्जे) तो चित्र ! ४ ते वन घi वि५हो, यतुम्ही, भृगी, पशुस पक्षी अने स२३५॥ २॥ मयाना भाटे मन ४२वा योग्य डाय न ? (हता
अभिगमणिज्जे) हi महत! ते तमना भाटे गमन योज्य गाय छे. (तसि च ण चित्ता वणसंडसि बह वे भिलूगा पावसउणा परिवसंति) मने ते वनमा हे चित्र ! | पापिष्ठ शिरी लासी २४ता डोय (जे ण तेसिं बहूणं दुपय चउप्पयमियपसुपक्खिसरी सिवाण ठियाण' चेव मस्सोणियं आहारैति) અને તેઓ ત્યાં રહેનારા તે ઘણા દ્વિપદે ચતુષ્પદે, મુગા પશુઓ અને સરીસૃપના
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राजप्रश्नीयसूत्रे वनषण्डस्तेषां खलु बहूनां द्विपद यावत-सरीसृपाणाम् अभिगमनीयः ? नो अयमर्थः समर्थः । कस्मात ? भदन्त ! सोपसर्गः ? एवमेव चित्र ! युष्माकमपि श्वेतविकायां नगर्या प्रदेशी नाम राजा परिवसति, अधार्मिको यावत्, नो सम्यकरभरवृत्ति प्रवर्त्तयति । तत् कथं खलु अह' चित्र ! श्वेतविकायां नगर्या समवसरिष्यामि ॥सू० ११५॥
टीका-'तएण से' इत्यादि
ततः खलु स के शीकुमारश्रमणः चित्रेण सारथिना एवम् उक्त. प्रकारेण उक्तः सन् चित्रस्य सारथेः एतमर्थ ='यूयं श्वेतविकायां नगर्या का आहार करते हों, क्या ऐसी स्थिति में (से गूण चित्ता! से वणसंडे तेसि बहूण दुपय जाव सरीसिवाणं अभिगमणिज्जे ? हे चित्ते ! वह वनषण्ड उन अनेक द्विपद यावत् सरीसृपों के लिये अभिगमनीय हो सकता है ? (णो इणढे सम?) हे भदन्त ! ऐसी स्थिति में वह उनके लिये अभि गमनीय नहीं हो सकता है। (कम्हा) हे चित्र ! वह उनके लिये अभिग मनीय-प्रवेश के योग्य-क्यों नहीं हो सकता है ? (सोगसग्गे) क्यों कि हे भदन्त ! वह वनपण्ड विघ्नसहित है।(एवामेव चित्ता ! तुज्झपि से यावियाए णयरीये पएसी नाम राया परिवसइ, अहम्मिए जाव णो सम्म करभरवित्तिं पवत्ता--त कह चित्ता सेय वियाए नयरीए समोसरिस्सामि) इसी तरह से हे चित्र ! तुम्हारे लिये श्वेतांविका नगरी में प्रदेशी राजा रहता है वह अधार्मिक है यावत् प्रजाजनों से कर टेक्सले कर भी उनका अच्छी तरह से पालन पोषण नहीं करता है। तो हे चित्र! उस श्वेतांविका नगरी में हम लोग कैसे आवे भांस भने शातिना माह।२ ४२ता जाय तो शु सेवी परिस्थितिभा (से णण' चित्ता ! से वणसडे तेसि बहूण दुपय जाव सरिसिवाणं अभिगमणिज्जे ?) હે ચિત્ર ! તે વનખંડ તે ઘણું દ્વિપદે યાવત્ સરિસૃપો માટે અભિગમનીય અર્થાત विय ४२१। यो-४ी २४14 ? (णो इण हे सम टे) महत ! मेवी स्थितिમાં તે તેમના માટે અભિગમનીય થઈ શકે તેમ નથી. (૪) હે ચિત્ર ! તે તેમના भाटे म भिगमनीय-वियर ४२५० योग्य-भ नथी ? (सोवसग्गे) डेभडे मत ! ते वन विन सहित छ. (एवामेव चित्ता ! तुज्झपि सेयवियाए णयरीए पएसीनाम राया परिवसइ, अहम्मिए जाव णो सम्म करभरवित्ति पत्ता त कह णं अहं चित्ता सेयवियाए नयरीए समोसरिस्सामि) PAL प्रमाणे જ હે ચિત્ર ! તમારે માટે શ્વેતાંબિકા નગરીમાં પ્રદેશ રાજા રહે છે. તે અધાર્મિક છે યાવત્ પ્રજા પાસેથી કર-ટેકસ લઈને પણ તેમનું પાલન-રક્ષણ સારી રીતે કરતો નથી. તે એવી સ્થિતિમાં હું ધ તાંબિકા નગરીમાં કેવી રીતે જઈ શકું છું. ?
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सुबोधिनी टीका सू. ११५ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशीराजवर्णनम् १०३ समवसरत'-इत्थं रूपम् अर्थम् नो आद्रियते-नो आदरविषयत्वेन हृदिकरोति. अतएव--नो परिजानाति-विचारविषयत्वेन एतमर्थ न स्वीकरोति, तत एव तूष्णीकः अवलम्बितमौन भावः सन् सन्तिष्ठते। ततः खलु स चित्रः सारथिः केशिकुमारश्रमण द्वितीयमपि तृतीयमपि द्वित्रिवारम् एवम् अवादीत -एवं खलु अहं भदन्त ! जितशणा राज्ञा-इत्यादि-समवसरत खलु भदन्त ! यूयं श्वेतविकां नगरीम् इत्यन्तम् । वाक्य पूर्व सूत्रे गतम्-अस्यार्थस्तत एव बोध्यः-इति । ततः खलु केशीकुमारश्रमणः चित्रेण सारथिना द्वितीयमपि तृतीयमपि-द्विकृत्वाऽपि विकृत्वोऽपि एवमुक्तः सन् चित्रं सारथिम्एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत उक्तवान्-स यथानामको वनषण्डः स्यात, कृष्ण:-कृष्णवर्णः कृष्णावभास:-कृष्ण इच अवभासते न तु वस्तुतः कृष्ण. एवं । यावत्-यावत्पदेन-'नीलो नीलावभासे। हरितो हरितावभासः शीतः शीतावभासः स्निग्धः स्निग्धावभासः तीव्रः तीव्रावभासः कृष्णः कृष्णच्छायो नीलो नीलच्छायो हरितो हरितच्छायः शीतःशीतच्छायः स्निग्धःस्निग्धच्छायः तीवः तीवच्छायः घनकटितकरच्छायो रस्यो महामेघनिकुरम्वभूतः प्रासादीयो दर्शनीयः अभिरूपः' इति संग्राह्यम् । तपा-प्रतिरूपः। अर्थस्त्वेषामौवपातिकसूत्रस्यास्मत्कृतायां पीयूषवर्षिणीटीकायामवलोकनीयः। अथ नून चित्र! वनषण्डो
टीकार्थ इसका इस मूलार्थ के जैसा ही है-नवरं-'किण्होभासे जाव पडिरूवे)में आया हा यावत पद से यहां 'नीलो, नीलावभासो, हरितो, हरितावभासः, शीतः, शीतावभासः स्निग्ध स्निग्धावभासः, तीव्रः, तीव्रावभासः, कृष्णः, कृष्णच्छायो, नीलो, नीलच्छायो, हरितो, हरितच्छायः,
शीतः, शीतच्छायः, स्निग्धः स्निग्धच्छायः, तीव्रः, तीव्रच्छायः, घन. कटितकटच्छायो, रम्यो, महामेघनिकुरम्बभूतः प्रासादीयो, दर्शनीयः अभिरूप:' यह पाठ संगृहीत हा है। इन पदों का अर्थ औपपातिकसूत्र की पीयूषवर्षिणी टीका में हमने स्पष्ट किया है अतः वहीं से जान लेना
टार्थ:-मानी भूसा प्रभार ४ छे. 'नवरं 'किण्होभासे जाव पडिरूवे' भारे यावत् ५४ मावे छे. तेथी मी "नीलो, नीलावभासो, हरितो, हरितावभासः, शीतः शीतावभासः, स्निग्धः, स्निग्धावभासः, तीव्रः, तीव्राचभासः, कृष्णः, कृष्णच्छायो, नीलो, नीलच्छायो, हरितो, हरितच्छायः, शीतः, शीतच्छायः स्निग्धः स्निग्धच्छायः, तीव्रः तीव्रच्छायः, धनकटि तकटच्छायो, रम्यो, महामेधनि कुरम्बभूतः प्रासादीयो, दर्शनीयः, अभिरूप:"AL 48न संघ थयो छे. આ પાઠનો અર્થ અમે “પપાતિક સૂત્રની પીયૂષવર્ષિણી ટીકામાં કર્યો છે.
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राजप्रश्नीयसूत्रे
बहूनां द्विपद चतुष्पदमृग पशु पक्षिपरो वृषाणाम् द्विपदादयः मारण्याख्याताः, तेषाम् अभिगमनीयः =गन्तु योग्यो भवेत् ?, इत्थं केशिकुमारश्रमणस्य वचन श्रुत्वा चित्रः प्राह - हन्त ! अभिगमनीयः = गन्तु योग्यो भवेत्स वनषण्ड इति । पुनः केशिकुमारश्रमणः पृच्छति - हे चित्र ! तस्मिन् = पूर्वोक्ते च खलु वनघण्डे बहवो भिल्लकाः भिल्लजातीयाः 'नाम' इति संभावनायां पापशाकुनिकाः= पापिष्ठाः व्याधाः परिवसन्ति ये खलु तेषां बहूनां द्विपदचतुष्पदमृगपशुपक्षपरीसृपाणां स्थितानामेव मांसशोणितं = मांसानि शोणितानि च आहारयन्ति = भुञ्जते । अथ नून चित्र ! स वनषण्डः तेषां खलु बहूनां द्विपद - यावत् सरीसृपाणाम् सर्पाणाम् अभिगमनीयो भवेत् ? चित्रः माह-अयमर्थः = द्विपदादीना तद्वनप्रवेशरूपोऽर्थः नो समर्थः =न योग्यः, स वनषण्डस्तेषां प्रवेष्टुं न योग्य इति भावः । केशी पृच्छति - कस्मात् = कस्मात् कारणात् स वनषण्डः प्रवेष्टु ं न योग्यः ? चित्रः प्राह - हे भदन्त ! स वनघण्डः = विघ्नसहितः । ततः केशी पाहहे चित्र ! यथा स वनघण्डस्तेषां द्विपदादीनां प्रवेष्टुं न योग्यः, एवमेव = अनेन प्रकारेणैव श्वेतविका नगर्यपि प्रवेष्टुं न योग्या । तत्र श्वेतचिकायां नगर्यां युक्ष्माकं प्रदेशी नाम राजा परिवसति, अधार्मिको यावत नो सम्यक् करभरवृत्ति प्रवर्त्तयति । यावत्पदेन अधर्मिष्ठः अधर्मानुगः' इत्यादि पदानि संग्राह्याणि तानि च - एकशततमसूत्री विलोकनीयानि । अर्थोऽपि तत्रेव बिलोकनीयः । तत् कथं खलु अहं चित्र ! श्वेतविकायां नगर्यां समवसरिच्यामि= आगमिष्यामि ? | सू० ११५ ॥
मूलम् -- तणं से चित्ते सारही केसिं कुगारसमणं एवं वयासी किं णं भंते! तुब्भं पएसिणा रन्ना कायव्वं ? अस्थि णं भते ! सेय विure नगरीए अन्ने बहवे ईसरतलवर जाव सत्थवाहप्पभिइयो जे णं देवाणुप्पियं वंदिस्संति जाव पज्जुवासिस्सति विउलं असणं पाणं चाहिये. 'अहम्मिए जाव' में आया हुआ यावत् पद से 'अधर्मिष्ठः अधर्मानुगः' इत्यादि पदों का संग्रह किया गया है। इन पदोंका अर्थ १०१ सूत्र में लिखा गया हैं | सू० ११५ ।।
मेथी निज्ञासुयोग्ये त्यांथी अर्थ लगी होवो लेहये. "अहम्मिए जाव" भां भे यावत् यह छे तेथी "उधार्मिष्ठः, अधर्मानुगः' वगेरे पहोना संग्रह थयो छे. આ પદોના અર્થ ૧૦૧માં સૂત્રમાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યે છે. ૫૧૧પા
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सुबोधिनी टीका सू. ११६ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् १०५ खाइमं साइमं पडिलाभिस्संति, पाडिहारिएणं पीठलगसेज्जासंफ थारएणं उवनिमंतिस्संति। तएणं से केसीकुमारसमणे चित्तं सारहिं एवं वयासी अविआई चित्ता! जाणिस्सामो ॥ सू० ११६ ॥
छाया--ततः खलु स चित्रः सारथिः केशिन कुमारश्रमण मेवमवा. दीत-कि खलु भदन्त ! यु माकं प्रदेशिना राज्ञा कर्त्तव्यम् ? सन्ति खलु भदन्त ! श्वेतविकायां नगर्याम् अन्ये बहव ईश्वरतलवर-यावत्सार्थवाहप्रभृतयः, ये खलु देवानुपिय वन्दिष्यन्ति नमस्थिष्यन्ति यावत् पर्युपासिष्य न्ते, विपुलम् अशन पान खाद्य स्वाय प्रतिलम्भयिष्यन्ति, प्रतिहारिकेण पीठ.
'तरण से चित्ते सारही' इत्यादि।
सूत्रार्थ-(तएण) इसके बाद (से चित्ते सारही केसि कुमारसमणं एव' वयासी) उस चित्र सारथिने केशिकुमारश्रमण से ऐसा कहा--(कि ण भंते ! न्तुभ पएसिणा रन्ना कायन्च) हे भदन्त ! आपको प्रदेशी राजा से क्या तात्पर्य है (सेय वियाए नयरीए अन्ने बहवे ईसरतलवर जाव सत्यवाहप्पभिईओ जे देवाणुप्पिय बंदिस्सति णम सिस्सति जाव पज्जुवासिस्सति, विउल असणं पणं खाइमं साइम पडिलाभिस्संति) श्वेतांविका नगरी में
और भी बहुत से ईश्वर तलवर यावत् सार्थवाह आदि हैं जो आप देवानुमिय को वन्दना करेंगे, नमस्कार करेंगे यावत् पर्युपासना करेंगे एव विपुल, अशन से पान से खादिम से और स्वादिम से आप को प्रतिलाभित करेंगे। (पडिहारेण पीदफलगसेज्जासंथारएणं उवनिम तिस्संति) एवं समर्पणीय
'तए ण से चित्ते सारही' इत्यादि.
सूत्रार्थ-(तए ण) त्या२ पछी (से चित्तो सारही केसि कुमारसमण एवं वयासी) ते यि साथिये शिभा२ श्रमाने सा प्रमाणु यु (किं ण भते । तुम्भ पएसिणा रन्ना कायन्च) GET ! मा५श्रीने प्रदेश २ion साथे | निस्मत छ १ (सेय वियाए नयरीए अन्ने बहवे ईसरतलवरजाव सत्थवा हप्पभिईओ जे ण देवाणुप्पिय' वादिसति णमसिस्सति जाव पज्जुवासिं
सति विउल असण पाण खाइम साइम पडिलामिस्सति) श्वेतifest નગરીમાં બીજા ઘણુ ઈશ્વર, તલવર યાવત્ સાર્થવાહ વગેરે છે કે જે આપ દેવાનુપ્રિયને વંદન કરશે નમસ્કાર કરશે યાવત પર્યું પાસના કરશે. અને વિપુલ અશનથી, पानथी, माहीमथी भने स्वाभिधी मापश्रीन प्रतिमालित २२. (पडिहारेणं पीढफलगरोज्जासंथारएणं उवनिमंतिस्सति) भने समय पीठ ५८४ शय्या
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राजप्रश्नीयसूत्रे
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फलकशय्यासंस्तारकेण उपनिमन्त्रयिष्यन्ति । तत. खलु स कशीकुमारश्रमणचित्र सारथिमेवमवादीत् - अपि च चित्र ! ज्ञास्यामः ।। सू० ११६ ।। टीका- 'तणं से' इत्यादि - टीका - ततः खलु स चित्रः सारथिः केशिनं कुमारभ्रमणम् एवम् वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत् उक्तवान् किं खलु भदन्त ! युष्माकं प्रदेशिनो राज्ञा कर्त्तव्यम् = प्रदेशिनो राज्ञः सकाशाद् भवता नास्ति किञ्चित् प्रयोजनमित्यर्थः । हे भदन्त । श्वेतविकायां न गया खलु अन्ये बहवः इश्वर तलवर यावत्सार्थ - वाप्रभृतयः सन्ति । अत्र 'यावत्' - पदेन - 'मांडम्बिक कौटुम्बिकेभ्यश्रेष्ठिसेनापति -' इति संग्राह्यम् । ये ईश्वरादयः खलु देवानुप्रियं वन्दिष्यन्ते= स्तोष्यन्ति नमस्यन्ति = प्रणता भविष्यन्ति यावत् यावत्पदेन - 'सत्कारयिध्यन्ति सम्मानयिष्यन्ति, कल्याणं मङ्गलं दैवतं चैत्यम् - इति संग्राह्यम् । त-सत्कारयिष्यन्ति अभिमुखगमनादिना, सम्मानयिष्यन्ति वसतिप्र दानदिना, तथा - कल्याण = कल्याणस्वरूपम्, मङ्गलं - मङ्गलस्वरूपम् दैवतम् - पीठफलक शय्यासंस्तारक ग्रहण करनेके लिये आपसे प्रार्थना करेंगे । ( तणं से केसीकुमारसमणे चित्तं सारहिं एवं क्यासी) तब केशीकुमारश्रमणने चित्रसारथी से इस प्रकार कहा ( अविआई चित्ता ! जाणिस्सामो ) हे चित्र ! विचार करेंगे । टीकार्थ स्पष्ट है. नवरं तलवर जाव सत्थवाह' में आगत यावत् पदसे यहां 'माङबिक - कौटुम्बिकेभ्यश्रेष्ठिसेनापति' पाठ का ग्रहण हुआ है । 'णमंसिस्संति जाव पज्जुवासंति' में आगत यावत् पद से सत्कारयिष्यन्ति सम्मानयिष्पयन्ति, कल्याणं मंगलं दैवतं चैत्यम्' इस पाठका संग्रह हुआ है। अभिमुखगमनादि द्वारा जो सम्मान प्रदर्शित किया जाता है उसका नाम सत्कार है, वसति आदिके देनेसे जो भक्ति प्रदर्शित की जाती है उसका संस्तारः श्रडुषु १२वा व्यापने विनंती ४२शे (त एण' से केसीकुमारसमणे चिर्च सारहि एवं वयासी) त्यारे शिकुमार श्रमणे चित्र सारथिने या प्रभागे उ (अविआई चित्ता जाणिस्सामी) हे चित्र ! त्रियार उरीश !
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अर्थ::- स्पष्ट ४ छे. नवरं "तलवर जाव सत्थवाह" मां ने यावत् यह આવેલુ છે, તેથી અહી ' माडंबिक कौटुम्बिकेभ्यश्रेष्ठि सेनापति पाउने सं थयो छे. 'णम सिस्संति जाब पज्जुवासिस्सति' भां आपेक्षा यावत पथी 'सत्कार यिष्यन्ति, सम्मानपि यन्ति, कल्याण मंगलं दैवतं चैत्यम्" मा पाउन સંગ્રહ થયા છે. અભિમુખ ગમન-વગેરે વડે જે સન્માન આપવામાં આવે છે તેનુ નામ સત્કાર છે. નિવાસ માટે સ્થાન વગેરે આપીને જે ભકિત પ્રદર્શિત કરવામાં આવે
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सुबोधिनी टीका सू. ११६ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् १०७ धर्म देवस्वरूपम्, चैत्यं चित्तिः विशिष्टज्ञानं , तया युक्त सर्वथा विशिष्टज्ञानवन्तमित्यर्थः, इति बुद्धया पर्युपासिध्यन्ते से विध्यन्ते । तथा-विपुल प्रचुरम् अशनं पान खाद्य खाद्य प्रतिलम्भयिष्यन्ति प्रदास्यन्ति । तथा-प्रातिहारिकेण-पुन: समर्पणीयेन पीठफलकशय्यासंस्तारकेण-पीठफलकादयः प्राख्याख्याताः, तेषां समाहारस्तेन उपनिमन्त्रयिस्यन्ति-प्रातिहारिकं पीठफलकशय्यासंस्तारक च ग्रहीतुं भवन्त प्रार्थ यिष्यन्ति-इति। ततः खलु स केशीकुमारश्रमणः चित्र सारथिम् एवम् अनेन प्रकारेण अवादी-उक्तवान्-'अविआई'-अपि च चित्र । ज्ञास्यामः विचारयिष्यामः इति ॥ मू० ११६॥
मूलम्-तएणं से चित्ते सारही केसिकुमारसमणं वंदइ नमसइ, केसिस्स कुमारसमणस्स अंतियाओ कोट्रयाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ, जेणेव सावत्थी णयरी जेणेव रायमग्गमोगाढे आवासे तेणेव उवागच्छइ, कोडुंबियपुरिसे सदावेइ, सदावित्ता एवं वयासीखिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! चाउग्धंट आसरहं जुत्तामेव उवटवेह, जहा सेयंवियाए णयरीए णिग्गच्छइ तहेव जाव वसमाणे कुणालाजणवयस्स मज्झ मज्झेणं जेणेव केइयअद्धे जेणेव सेयविया णयरी जेणेव मियवणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, उज्जाणपालए सद्दावेइ, सदावित्ता एवं वयासी- जया णं देवाणुप्पिया! पासावचिज्जे केसी नाम कुमारसमणे पुवाणुपुट्विं चरमाणे गामाणुगाम दूइज्जमाणे इहमागच्छिज्जा तया णं तुब्भे देवाणुप्पिया! केसिकुमारसमणं बंदिजाह नमंसिज्जाह वंदित्ता नम सित्ता अहापडि रूवं उग्गह अणुजाणेजाह, पडिहारिएणं पीढ. फलग जाव उवनिमंतिजहि, एयमोणत्तियं खिप्पामेव पञ्चप्पिणेज्जाहा नाम सन्मान है. श्वेतांबिका नगरी के लोग आप कल्याणस्वरूप हैं, मगस्वरूप हैं धर्मदेवस्वरूप हैं तथा चैत्य विशिष्ट ज्ञानवान् ऐसा मानकर आपकी सेवा करेगे।सू.११६॥ છે તેનું નામ સન્માન છે. શ્વેતાંબિકા નગરીના લેકો આપશ્રી ને કલ્યાણ સ્વરૂપ, મંગળવરૂપ તેમજ ચૈત્યવિશિષ્ટ જ્ઞાનવાનું માનીને આપની સેવા કરશે. સૂ. ૧૧દા
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राजप्रश्नीयसूत्रे तएणं ते उज्जाणपालगा चित्तेणं सारहिणा एवं वुत्ता समाणा हट्ट. तुट जाव हिययो करयलपरिग्गहिय जाव एवं वयासी-तहत्ति अणाए विणएणं वयणं पडिसुणंति ॥सू० ११७॥
___ छाया-ततः खलु स चित्रः सारथिः केशिकुमारश्रमण वन्दते नमः स्थति केशिनः कुमारश्रमणस्य अन्तिकात् कोष्ठकात् चैत्यात प्रतिनिस्कामति, यत्रोव श्रीवस्ती नगरी यत्रैव राजमार्गमवगाढः आवासस्तत्रौव उपागच्छति, कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादील-क्षिपमेव भो देवानु प्रियाः ! चातुर्घण्टम् अश्वरथ युक्तमेव उपस्थापयत, यथा श्वेतविकाया
('तएण') इसके बाद (से चित्ते सारही) उस चित्र सारथीने (केसि कुमारसमण वंदइ नमसइ) केशीकुमार श्रमण को वन्दना की और नमस्कार किया (केसिस्स कुमारसमणस्स अतियाओ कोट्टयाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ) पश्चात् में वह केशीकुमार श्रमण के पास से और उस कोष्टक चैत्य से चला आया. (जेणेव सावत्थी गयरी जेणेव रायमग्गमोगाढ आवासे तेणेव उवा गच्छइ) आकर वह जहां श्रावस्ती नगरी थी एवं उसमें जिस तरफराजमार्ग पर स्थित आवास था वहां पर आया (कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ) वहां आकर के उसने कौटुम्बिक-आज्ञाकारी पुरुषों को बुलाया (सहावित्ता एवं वयासी) बुलाकर उनसे ऐसा कहा-(खिप्पामेव भो देवाणुपिया! चाउग्घंट' आसरह जुतामेव उवट्ठवेह) हे देवानुप्रियों ! तुम लोग शीघ्र चार घंटों वाले अश्वरथ को तैयार करके ले आओ.(जहा सेयंवियाए णयरीए निग्गच्छइ,
त एण से चित्ते ! सारही' इत्यादि ।
सूत्रार्थ -(त एणं) त्या२ ५७ (से चित्ते सारही) ते यिनसाथीये (केसिकुमारसमण वेदइ नमसइ) शीमा२ श्रमाने न तमा नभ२४।२ ४ा. (केसिस्स कुमारमणस्स अंतियाओ-कोट्टयाओ चेइयाओ पडिनिक्रनमइ) त्यार પછી તે કેશીકુમાર શ્રમણ પાસેથી અને તે કોષ્ટક મૈત્યમાંથી બહાર આવી ગયો. (जेणेव सावत्थी णयरी जेणेव रायमग्गमोगाढे आवासे तेणेव उवागज्छइ) આવીને તે જ્યાં શ્રાવસ્તી નગરી હતી અને તેમાં પણ જ્યાં રાજમાર્ગો પર સ્થિત निवासस्थान हेतु त्या मा०यो. (कोडवियपुरिसे सदावेइ) त्यां पडांयीन ते औ४ि पु३षाने-मारी पु३वाने माराव्या (सदावित्ता एवं वयासी) मातापान तभने PAL प्रमाणे ह्यु (खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! चाउरघंटे आसरह जुत्तामेव उवढवेह) वानुप्रिया ! तमे व सत्वरे या२ माथी युत
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सुबोधिनी टीका सू. ११७ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् १०९ नगर्या निर्गच्छति तथैव यावद् वसन् कुणालाजनपदस्य मध्यमध्येन यत्र व केकयाई यत्र व श्वोतविका नगरी यत्रैव मृगवनम् उद्यान' तव उपागगच्छति, उद्यानपालकान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत्-यदा खलु देवा. नुप्रियाः। पार्थापत्यीयः केशीनामकुमारश्रमणः पूर्वानुपूर्व्या चरन् ग्रामानुग्राम द्रवन इहागच्छेत्, तदा खलु यूयं देवानुप्रियाः ! केशिकुमारश्रमण तहेव जाव वसमाणे कुणाला जणवयस्स मज्झमझेण जेणेव केइयअद्धे जेणेव सेय विया गयरी जेणेव मियवणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ) यहां से आगे चित्र सारथी जिस प्रकार श्वेताविका नगरी से निकल कर कुणाला जनपद (देश) में स्थित श्रावस्ती नगरी आया, उसी प्रकार वह श्रावस्ती नगरी से भी निकलकर केकयाई जनपद में स्थित श्वेतांविका नगरी में पहुंचा. इसलिये यहां पर पूर्व की तरह से ही समग्र पाठ संगृहीत करना चाहिये. इसी बात को सूचित करने के लिये 'जहा सेयं वियाए णयरीए णिग्गच्छई' इत्यादि यह पाठ कहा गया है. अर्थात् वह चित्रसारथि जिस प्रकार से श्वेतांविका नगरी से निकलता है, उसी प्रकार से यावत् मार्ग में पडाव डालता हुआ वह कुणाला जनपद के मध्यमध्य से होता हुआ जहां केकयाई था और जहां श्वेतांविका नगरी थी और उस में भी जहां मृगवन नाम का उद्यान था वहां आया (उजाणपालए सद्दावेइ) वहां आकर के उसने उद्या. नपालों को बुलाया. (सहाबित्ता एवं क्यासी) वहां आकर के उसने एसा कहा-(जया ण देवाणुप्पिया ! पासावचिज्जे केसी नाम कुमारसमणे पुवा. भ२५ तैयार ४शन सावी. (जहा सेयं वियाए णरीए निग्गच्छइ. तहेव जाव वसमाणे कुणाला जणवयस्स मज्झमज्झणं जेणेव केइय अद्धे जेणेव सेयंविया गयरी जेणेव मियवणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ) महीथी ते ચિત્રસારથી પહેલાં જેમ તે શ્વેતાંબિકાનગરીથી નીકળીને કુણાલા જનપદમાં સ્થિત શ્રાવતી નગરીમાં આવ્યું હતું, તેમજ તે શ્રાવસ્તી નગરીથી બહાર નીકળીને કેયા જનપદમાં સ્થિત શ્વેતાંબિકા નગરીમાં પહોંચે. અહીં તે પ્રમાણે જ વર્ણન સમજી से नये. से पातने मनाया भाटे । 'जहा सेयवियाए णयरीए णिग्गच्छद' વગેરે પાકને ઉલ્લેખ કરવામાં આવ્યું છે. એટલે કે તે ચિત્ર સારથિ જેમ તા. બિકા નગરીથી નીકળે છે, તે પ્રમાણે જ થાવત્ મુકામ કરતે તે કુણાલા જનપદના એકદમ મધ્યમાં પસાર થઈને જયાં કેકર્યાદ્ધમાં શ્વેતાંબિકા નગરી હતી અને તેમાં पा यां मृगवन नामे धान हेतु त्यां मा०या. (उज्जाणपालए सहावेइ) त्यां भावाने तेथे धान पालने मोडा०यो. (सावित्ता एवं क्यासी) मापाने आ प्रभारी ४ . (जया ण देवाणुप्पिया! पासावचिज्जे केसी नाम कुमारसमणे
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राजप्रश्नीयसूत्रे वन्दित्त्वा नमस्यित्वा यथाप्रतिरूपम् अवग्रहम् अनुज्ञापयत, प्रातिहारिकेण पीठ-फलक-यावत् उपनिमन्त्रयत , एतामाज्ञप्तिकां क्षिप्रमेव प्रत्ययत-! ततः खलु ते उद्यानपालकाः चित्रेण सारथिना एवमुक्ताः सन्तो हृष्टतुष्ट यावद्धदयाः करतलपरिगृहीतं यावत् एवमवादीत् तथेति, आज्ञाया विनयेन वचनं प्रतिश्रृण्वन्ति ।। सू० ११७॥ णुपुचि चरमाणे, गामाणुगाम दुइज्जमाणे इहमागच्छिजा. तयाणं तुब्भे देवाणुप्पिया केसिकुमारसमण वंदिजह ) हे देवानुप्रियों ! जब पार्श्वनाथ भगवान परंपरा में विचरने वाले केशी नामके कुमारश्रमण पूर्वसाधु परम्पराके अनुसार विचरते हुए तथा एक ग्रामसे दूसरे ग्राम में विहार करते हुह यहां पर पधारें, तब तुम हे देवानुप्रियो ! केशिकुमार श्रमणको वन्दना करना (नमंसिज्जाह) नमस्कार करना. (वंदित्ता नमंसित्ता अहापडिरूवं उग्गह अणुज्जाणेज्जाह ) वंदना नमस्कार कर फिर तुम उन्हें साधुकल्पानुसार वसति में निवास करने के लिये आज्ञा दे देना (पडिहारिएणं पीठफलग जाव उवनिमंतिज्जाह ) और समर्पणीय पीठफलक आदि जैसा. वे चाहे वैसा तुम उन्हें देने की प्रार्थना करना. (एयमाणत्तियं खिप्पामेव पञ्चप्पिणेजाह) बाद में मेरी इस आज्ञा को जब पीछे शीघ्र लौटाना-अर्थात् जब केशिकुमार श्रमण आ जावे-तब तुम उनके आगमनादि के वृत्तान्त की हमें शीघ्र ही खबर देना. (तएणं ते उजाणपालगा चित्तेणं सारहिणा एवं वुत्ता समाणा हद्वतुट्ठ जाव हियया करयलपरिग्गहियं जाव एवं वयासी-तहत्ति पुब्वाणुपुन्विचरमाणे, गामाणुगाम दूइज्जमाणे इहमागच्छिज्जा, तयाण तुब्भे देवाणुप्पिया ! केसिकुमारसमण वंदिज्जह) देवानुप्रिये ! पाश्वनाथ लगवाननी ५२ ५२रामा विय२६५ કરનારા કેશી નામે શ્રમણ પૂર્વસાધુ પરંપરા મુજબ વિચરણ કરતાં કરતાં તેમજ એક ગામથી બીજે ગામમાં વિહાર કરતાં કરતાં અહીં પધારે ત્યારે હે દેવાનપ્રિયા ! तमे सौ शिमा२ श्रमण न ४२०१. (नमंसिज्जाह) नम२४॥२ ४२०. (वंदित्ता नमंसित्ता अहापडिरूवं उग्गहं अणुज्जाणेज्जाह) ना तेभ०४ नभ२४।२ કરીને તમે તેમને સાધુ કલ્પાનુસાર વસતીમાં નિવાસ કરવાની આજ્ઞા આપશે. (पडिहारिएणं पीठफलग जाव उवनिमंतिज्जाह ) भने समयीय पी४३ वगेरे વસ્તુની તેઓશ્રી માગણી કરે તે વસ્તુ તમે તેમને નમ્રપણે સમર્પિત કરજે. (एयमाणत्तियं खिप्पामेव पञ्चप्पिणेज्जाह) मने या२ मा मधु थ य त्यारे तभे भने शिशुभार श्रमानी A8 पारवानी मम२ भान. ( तए णं ते उज्जाणपालग चित्तेणं सारहिणा एवंबुत्ता समाणा हट्ठतुट्ठ जाव हियया करयलपरिग्गहियं जाब
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सुबोधिनी टीका सु. ११४ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवणेनम् १११
टीका-'तएणं से' इत्यादि-ततः खलु स चित्रःसारथि केशिकुमारश्रमण वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा केशिनःकुमारश्रमणस्य अन्तिकात् समीपात् , तदनुकोष्ठकाच्चैत्याच्च प्रतिनिष्क्रामति=निस्सरति, प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव श्रावस्ती नगरी यत्रैव च राजमार्गमवगाढः आवासः, तत्रैव उपागच्छति उपागत्य कौटुम्बिकपुरुषान् =भृत्यान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत् -भो देवानुप्रियाः ! चातुघण्टं-चतुघण्टविभूषितम् अश्वरथं युक्तमेप-योजिताश्वभेव उपस्थापयत-उपस्थितं कुरुत । इतोऽग्रे यथाश्वेतविकाया नगर्या निम्मृत्य चित्रः सारथिः कुणाला जनपदे श्रावस्त्यां नगर्यां गतः, तथैव स श्रावस्त्या नगर्या अपि निस्सृत्य केकया जनपदे श्वेतविकायां नगर्यां च गतः। अतोऽत्र पूर्ववदेव समग्रः पाठः संग्राह्यः । अमुभेवार्थचयितुमाह-'यथा श्वेतविकाया नगर्या निर्गच्छति, तथैव यावत् वसन् कुणालाजनपदस्य मध्यमध्येन यत्रैव केकयाई यत्रैव श्वेतविका नगरी यत्रैव मृगवनम् उद्यानं तत्रैव उपागच्छतीति । तत्र मृगवने उद्याने उपागत्य स उद्यानपालकान् शब्दयति-आह्वयति, शब्दयित्वा एवमवादीत् -भो देवानुप्रियाः । यदा खलु पार्थापत्यीयः पार्श्वनाथतीर्थकरपरम्परायां संजातः केशी नाम कुमारश्रमणः पूर्वानुपूठ्या पूर्वसाधुपरम्पराया चरन् = विचरन् ग्रामानुग्रामम् –एकस्माद् ग्रामादनन्तरस्थितं ग्रामं द्रवन् = क्रमेण गच्छन् इह-श्वेतविकायां नगर्याम् आगच्छेत् =आयात् . तदा खलु यूयं देवानुप्रियाः केशिकुमारश्रमणं वन्दध्वं नमस्यत वन्दित्वा नमरियत्वा, यथाप्रतिरूपं साधुकल्पानुसारम् अवग्रहं वसतौ निवासार्थमाज्ञां अनुज्ञापयत=अर्पयत, आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेति) चित्र सारथीके द्वारा इस प्रकार कहे गये वे उद्यानपाल हृष्टतुष्ट यावत् हृदय हुए और दोनों हाथ जोडकर बडे विनयके साथ यावत् इस प्रकार से बोले-हे स्वामिन् ! आपकी आज्ञा हमें प्रमाण है अर्थात् आपने कहा है हम वैसाही करेंगे इस प्रकार अपनी ओरसे स्वीकृति के वचन कहकर उन्होंने चित्र सारथीकी आज्ञाके वचनोंको स्वीकार कर लिया। एवं वयासी-तहत्ति आणाए विणयेणं वयणं पडिसुणेति) थिसारथी43 मा प्रमाणे આજ્ઞાપિત થયેલા તે ઉદ્યાન પાલક હષ્ટ–તુષ્ટ યાવત્ હદયવાળા થયા અને બન્ને હાથ જોડીને વિનમ્રતાપૂર્વક આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યા કે હે સ્વામિન્ ! આપશ્રીની આજ્ઞા મારા માટે પ્રમાણરૂપ છે. એટલે કે આપશ્રીએ જે પ્રમાણે આજ્ઞા કરી છે અમે યથા સમય તેમજ આચરીશું. આ પ્રમાણે પોતાના તરફથી સ્વીકૃતિનાં વચને કહીને તેમણે ચિત્રસારથિની આજ્ઞાને સ્વીકારી લીધી.
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राजप्रश्नीयसूत्रे
तथा - प्रतिहारिकेण = पुन: समर्पणीयेन पीठफलक यावत् = पीठफलकशय्यासंस्तारकेण उपनिमन्त्रयत प्रातिहारिकं पीठफलकादिकं यथा स गृहीयात् तथा तं केशिकुमारश्रमणं प्रार्थयतेत्यर्थः । एवं कृत्वा एताम् आज्ञप्तिकां क्षिप्रमेव प्रत्यर्पयत = केशिकुमारश्रमणस्य आगमनादिवृत्तान्तं मां क्षिप्रमेव सूचयतेति । ततः खलु ते उद्यानपालकाः चित्रेण सारथिना एवसुक्ताः सन्तः हृष्टतुष्टयावद्धदया: हृष्टतुष्टचित्तानन्दिताः प्रीतिमनसः परमसौमनस्थिताः हर्षवश विसर्पद्धदयः करतलपरिगृहीतं यावत् - यावत्पदेन - 'दशनखं शिर आवर्त्त मस्तके अञ्जलिं कृत्वा' इति संग्राह्यम्, हृष्टतुष्टेत्यादिपदानां करतलेत्यादिपदानां चार्थः पूर्ववद् बोध्यः एवं = वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत् उक्तवान् - तथेति = हे देवानुप्रिये ! यथा यूयमाज्ञापयन्ति तथैव समाचरिष्यामः इति । एवं स्वीकारवचनामुक्त्वा ते उद्यानपालकास्तस्य चित्रसारथेः आज्ञाया वचनं विनयेन प्रतिभ्रूणवन्ति = स्वीकुर्वन्ति - इति ॥ सू० ११७ ।।
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मूलम् - तणं से चित्ते सारही जेणेव सेयंबिया णयरी तेणेव उवागच्छइ, सेयवियं नयरि मज्झ मज्झेणं अणुपविसइ, जेणेव पएसिस्स रपणो गिहे जेणेव बाहिरिया उवट्टाणसाला तेणेव उवागच्छइ, तुरगे णिगिoes, रहं ठवेइ, रहाओ पञ्चोरुहइ, तं महत्थं जाव गेहइ, जेणेव पएसी राया तेणेव उवागच्छइ, पएसिंराय करयल
टीकार्थ मूलार्थ के अनुरूप ही हैं नवरं 'हट्ट जाव हियया' में जो यावत् पद आया है उससे यहां 'हृप्रतुष्टचित्तानन्दिताः, प्रीति मनसः परमसौमनस्थिताः, हर्षवशविसर्पद्धदया : " यह पाठ गृहीत हुआ है, तथा करतलपरिगृहीतं के यावत्पद से 'दशनखं शिर आवर्त्त मस्तके अंजलि कृत्वा' इस पाठ का ग्रहण हुआ है. इन पाठों के पदों का पहिले अर्थ कहे हुवे अर्थ के अनुसार ही है ॥ ११७ ॥
टीडार्थ:
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:- सूत्रनो भूसार्थ प्रमाणे छे. 'नवरं ' " हट्ठतुट्ठ जाव हियया” भां ? यावत् यह आवे छे. तेथी "हृष्टतुष्टचित्तानन्दिताः प्रीतिमनसः परमसौमनस्थिताः, हर्षवशविसर्पद्धृदयाः " । पाठन सग्रह थयो छे तेम करतलपरिगृहीतं ना यावत् पहथी “ दशनखं शिर आवर्त्त मस्तके अंजलि कृत्वा આ પાઠનું ગ્રહણ થયું છે. આ પાઠના પદોના અર્થ પહેલા જે પ્રમાણે સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યા છે તે પ્રમાણે જ અહીં સમજવા જોઇએ. ।। સૂ॰૧૧૭ ।।
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सुबोधिनी टीका सू. ११८ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ११३ जाव वद्धावेत्ता तं महत्थं जाव उवणेइ । तएणं से पएसी राया चित्तस्स सारहिस्स तं महत्थं जाव पडिच्छइ, चित्तं सारहिं सकारेइ सम्माणेइ पडिविसज्जेइ । तएणं से चित्ते सारही पएसिणा रण्णा विसजिए समाणे हट्जाव हियए पएसिस्स रन्नो अंतियाओ पडि. णिक्खमइ, जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ, चाउग्घंट आसरहं दूरुहइ, सेयंवियाए नयरीए मज्झमज्झेणं जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, तुरगे णिगिण्हइ, रहं ठवेइ, रहाओ पच्चोरुहइ, हाए जाव उल्पि पासायवरगए फुट्टमाणेहिं मुइंगमत्थएहिं बत्तीसइबद्धएहि नाडएहिं वरतरुणीसंपउत्तेहि उवणच्चिज्जमाणे उवगा इज्जमाणे उवलालिजमाणे इहे सद्दफरिस जाव विहरइ ।सू० ११८॥
छाया-ततः खलु सचित्रः सारथिः यौव श्वेतांचिका नगरी तत्रैव उपागच्छति, श्वेतांचिका नगरी मध्यमध्येनअनुपविशति, यत्र व प्रदेशिनः राज्ञः गृहं यत्रैव बाह्या उपस्थान शाला तत्रैव उपागच्छति, तुरगान निगृह्णाति, रथं स्थापयति,रथात प्रत्य.
'तएणं ते चित्ते सारही' इत्यादि ।
सूत्रार्थ-(तएणं) इसके बाद (से चित्ते सारही जेणेव सेविया णयरी तेणेव उवागच्छइ) वह चित्र सारथि जहां श्वेतांविका नगरी थी-वहां गया (सेयविय नयरिं मज्झ मज्झोणं अणुपविसइ) वह उस नगरी में बीचों बीच के मार्ग से होकर प्रविष्ट हुआ (जेणेव पएसिस्स रण्णो गिहे जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ) प्रविष्ट होकर वह वहां गया जहां कि प्रदेशी राजा का घरथा और जहां प्रदेशी राजा की बाह्य उपस्थानशाला थी ( तुरगे निगिण्हइ) वहां पहुंच
'त एण ते चित्ते सारही' इत्यादि।
सूत्रार्थ-(त एण')त्या२ पछी(से चित्ते सारही जेणेव सेयबिया गयरी तेणेव उवागच्छइ)तयित्र सा२NिornidiAIIAN ती त्यां गया. (सेववियं नयरिं मज्झमझे ण अणुपविसइ) व नाशन मध्यमाथी थधन प्रविष्ट थयो. (जेणेव पएसिस्स रणो गिहे जेणेव बाहिरिया उवट्ठाण साला तेणेव उवागच्छइ) પ્રવિષ્ટ થઈને તે ત્યાં ગયે. જ્યાં પ્રદેશ રાજાનું ઘર હતું અને જ્યાં પ્રદેશ રાજાની બાહ્ય
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____राजप्रश्नीयसूत्रे वरोहति, तद महार्थ यावद गृहाति, यत्र व प्रदेशी राजा तव उपागच्छति, प्रदेशिन राजानं करतल यावद् वद्धयित्वा तन्महार्थ यावत् उपनयति । ततःखलु स प्रदेशी राजा चित्रस्य सारथेस्तन्महाथ यावत प्रतीच्छति चित्र सारथि सत्कारयति सन्मानयति प्रतिविसर्जयति ! ततः खलु स चित्रः सारथिः प्रदेशिना राज्ञा विसर्जितः सन् हृष्ट यावद्हृदयः प्रदेशिनो राज्ञः कर उसने घोडों को रोका (रहं ठवेइ) और रथ को खडा किया। (रहाओ पचोरुहइ) फिर वह उस रथ से नीचे उतरा (तमहत्व जाव गेण्हइ) नीचे उतर कर उसने उस महार्थ आदि विशेषणों वाले माभृत को हाथ में लिया (जेणेव पएसी राया तेणेव उवागच्छइ) और जहां प्रदेशी राजा था वहां गया (पएसीराय करयल जाव बद्धावेत्ता तं महत्थं जाव उवणेइ) वहां जाकर के उसने प्रदेशी राजा को दोनों हाथों की अंजलि बनाकर एवं उसे मस्तकपर से घुमाकर नमस्कार किया और जयविजय शब्दों का उच्चा रण करते हुए उसे बधाई देकर फिर उसने उसके समक्ष लाये हुए पारितोषिक-भेट अर्पण किया (तएणं से पएसी राया चित्तस्स सारहिस्स तं महत्थं जाव पडिच्छइ) प्रदेशी राजाने चित्र सारथी के उस महार्थ आदि विशेषणों वाले प्राभृत को अंगीकार कर लिया (चित्तं सारहिं सका. रेइ, सम्माणेइ पडिविसज्जेइ) और चित्र सारथी का सत्कार किया एव सन्मान किया. बाद में उसे विसर्जित कर दिया. (तएणं से चित्ते सारही ७५स्थान l ती. (तुरगे निगिण्हइ) त्यां पहायान तेरी यामाने Sell awया. (रह ठवेइ) भने २थने थामा०यो. (रहाओ पञ्चोरुहइ) त्या२ ५७ ते २५मा नाये तो. (त महत्थ जाव गेहइ) नये उतरीन तरी ते भार्थ वगैरे विशेषाशवाणी लेट पाताना हायमा दीधी. (जेणेव राया तेणेव उवागच्छइ) मन या अशा २० ते! त्यां गया. (पएसी राय करयल जाव वद्धावेत्ता तं महत्व जाव उवणेइ) त्यां ने तो अशी शतने भन्ने हायानी અંજલિ બનાવીને તેને મસ્તક પર ફેરવીને નમસ્કાર કર્યા અને જયવિજય શબ્દોનું ઉચ્ચારણ કરીને તેને વધામણી આપી. ત્યાર પછી તેણે પિતાની સાથે લાવેલી ભેટને राजने मपित 3. (तए ण से पएसी राया चित्तस्स सारहिस्स त महत्थं जाव पडिल्छइ) अशी शकतो यिसारथिनी ते महा वगैरे विशेषगावाणी लेटने स्वी10 eीधी. (चित्त सारहिं सकारेइ, सम्माणेइ पडिविसज्जेइ) भने ચિત્રસારથીને સત્કાર તેમજ સન્માન કરીને પછી તેને ત્યાંથી વિસર્જિત કર્યો. (त एण' से चित्ते सारही पएसिणा रणा विसज्जिए समाणे हट्ट जाव
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सुबोधिनी टीका सु. ११८ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम्
अन्तिकात् प्रतिनिष्क्रामति, य व चातुर्घष्टः अश्वरथस्तत्रैव उपागच्छति, चातुर्घम् अश्वरथं दूरोहति, श्वेतविकाया नगर्या मध्यमध्येन यत्रैव स्वक गृहं तत्रैव उपागच्छति, तुरगान निगृह्णाति, रथं स्थापयति, रथात् प्रत्यबरोहति स्नातो यावत् उपरि प्रासादवरगतः स्फुटद्भिर्मृदङ्गमस्त कैर्द्वात्रिंशङ्खकर्नाटक व तरुणी संयुक्त उपनर्त्य मानः उपगायमानः उपलालयमान इष्टान् शब्दस्पर्श- यावद् विहरति ॥ सू० ११८||
११५
"
परसिणा रण्णा विसज्जिए समाने हट्ट जाब हियए पएसिस्स रन्नो अतियाओ पडिनिक्खमइ जेणेव चाउघंटे आसरहे तेणेव उवागच्छ इस प्रकार प्रदेशी राजा द्वारा विसर्जित किया गया वह चित्र सारथि हृष्ट यावत् हृदय वाला होकर मदेशी राजा के पास से चला आया और जहां चातुर्बेट अश्वरथ था वहां पर आ गया (चाउग्घंटं आसरहं दुरुहइ, सेयं वियाए नयरी मज्झमज्झे णं जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छ इ) वहां आकर वह उस चार घंटेवाले अश्वरथ पर सवार हो गया और श्वेतांबिका नगरी के ठीक मध्यमार्ग से होता हुआ अपने भवन की और चल दिया, (तुरगे foroes, रह ठवे रहाओं पचोरुहर, हाए जाब उपि पासायवरगए) वहां आकर के उसने चोडों को रोका, रथ को खड़ा किया, फिर रथ से नीचे उतरा, स्नान किया यावत् उत्तम प्रासाद के उपरिभाग में जाकर बैठ गया, (हमाणेहिं मुइगमत्थए हिं बत्तीसइबद्ध एहिं वरतरणी संपतेहिं उवण चिज - माणेर उबगाइज्नमाणेर उचला लिजमाणे२ इट्ठसद्दफरिस जाब बिहरइ) वहां पर
हियए पए सिस्स रन्नो अतियाओ पडिनिवखमइ, जेणेव चाउघरे आसरहे तेणेव उवागच्छइ) या प्रमाणे अहेशी राम बडे विसन्ति पुरायेलो ते चित्रસારથિ હૃષ્ટ યાવત્ હૃદયવાળા થઈને પ્રદેશી રાજાની પાસેથી આવતા રહ્યો અને જ્યાં यातुर्धट अश्वरथ हतो त्यां माव्या. (चाउग्घंटं आसरह दुरुहइ, सेयं बियाए नय री मज्झमज्झेण जेणेव सए गहे तेणेव उवागच्छइ) त्या भावाने ते यातुध वाणा અધરથ પર સવાર થયે। અને શ્વેતામિકા નગરીના ઠીક મધ્ય માર્ગોમાંથી પસાર थर्धने पोताना लवन त२३ खाना थयो. (तुरगे णिगिण्हइ, रह उबेइ, रहाओ पच्चीरुहर हाए जाव उपि पासायचरगए ) त्यां आवीने तेथे घोडामाने उला राज्या, स्थ થાભાવ્યા અને ત્યારપછી રથમાંથી નીચે ઉતર્યાં. સ્નાન કર્યું" થાવત્ ઉત્તમ પ્રાસાદના उपरिभागमां कहने मेसी गये. (फुडमाणेहिं मुइगमत्थए हिं वत्ती सहबद्ध एहिं नाडए हिं वरतरणी संपतहिं उणचिज्जमाणे२ उवगाइज्जमाणे२ उबला लिज्जमाणे इट्ठे सद
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राजप्रश्नीयसूत्रे टीका-'तएणं' इत्यादि
ततः खलु स चित्रः सारथिः यत्रैव श्वेतविकानगरी तत्रैव उपागच्छति. श्वेतविकां नगरी मध्यमध्येन=अतिशयमध्यदेशस्थितमार्गेण श्रावस्ती नगरीम् अनुप्रविशति, यत्रैव बाह्या उपस्थानशाला तत्रैव उपागच्छति, तुरगान् अश्वान् निगृह्णाति-निरुणद्धि, रथं स्थापयति, स्थात् प्रत्यवरोहति अवतरति, तद् महार्थ यावत्=महार्थत्वादिविशेषणविशिष्टं प्राभृतं गृह्णाति, गृहीत्वा यत्रैव प्रदेशी राजा तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य प्रदेशिनं राजानं करतल यावत्करतलपरिगृहीतं दशनखं शिर आवर्त मस्तके अञ्जलिं कृत्वा वर्द्धयति, वर्द्धयित्वा तद् महार्थं यावत्-महार्थत्वादिविशेषणविशिष्टं प्राभृतम् उपनयति प्रदेशिने राजे समर्पयति । ततः खलु स प्रदेशी राजा चित्रस्य सारथः सकाशात् तद् महार्थं यावत्-महार्थत्वादिविशेषणविशिष्टं प्राभृतम् प्रतीच्छति गृह्णाति, चित्र सारथि सत्कारयति-आसनप्रदानादिना, सम्मानयति-वस्त्राभूषणा दिप्रदानेन, ततः प्रतिविसर्जयति-गन्तुमादिशति । ततः खलु स चित्रःसारथिः प्रदेशिना राज्ञा विसर्जितः सन् हृष्ट-यावद् इष्टतुष्टचित्तानन्दितः प्रीतिमनाः रहते हुए यह बजते हुए मृदङ्गों को ध्वनिपूर्वक ३२ पात्रों द्वारा अभिनीत किये नाटक को बार बार देखकर और गानों को सुनकर एवं ललितकलाओं द्वारा हर्षित होकर अमिलषित शब्द, स्पर्श, रूप रस, गंध इन पांच प्रकार के कामभोगों को भोगते हुए अपने समय को निकालने लगा।
टीकार्थ मूलार्थ के ही अनुरूप है परन्तु जहां पर विशेषता है वह इस प्रकार से है-आसनप्रदान आदि द्वारा प्रदेशी राजाने उस चित्र सारथि का सत्कार किया, एवं वस्त्राभूषण आदि पदान द्वारा उसका सन्मान किया, विस. जित किया का तात्पर्य है, जाने के लिये आज्ञा दिया, 'हट्ट जाव हियए' में आगत इस यावत्पद से हृष्ट तुष्टचित्तानन्दितः, प्रीतिमनाः, परमसौमनस्यितः,हर्षवश. फरिस जाव विहरइ) त्यां डीन ते भृगानी पनि सा2 3२ पात्र द्वारा અભિનીત કરાયેલા નાટકને વારંવાર જોઈને અને ગીત સાંભળીને અને લલિતેવટે હર્ષિત થઇને અભિલષિત શબ્દ, સ્પર્શ, રૂપ રસગધ આ પાંચ પ્રકારના કામોને ભગતે પિતાના સમયને પસાર કરવા લાગ્યા.
ટીકાર્ય—આ સૂત્રને મૂલાઈ પ્રમાણે જ છે. પણ જ્યાં વિશેષતા છે તે આ પ્રમાણે છે આસન વગેરે આપીને પ્રદેશી રાજાએ તે ચિત્રસારથિને સત્કાર કર્યો અને વસઆભૂષણ આપીને તેનું સન્માન કર્યું વિસર્જિત શબ્દનો અર્થ છે જવા માટે माशा माथी 'हट्ट जाव हियए' मा मावे यावत पथी "हृष्टतुष्टचित्तानन्दितः
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सुबोधिनी टीका सु. ११८ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ११७ परमसौमनस्यितो हर्षवशावपर्पद्धृदयः प्रदेशिनो राज्ञः अन्तिकात्समीपात् प्रतिनिष्क्रामति=निर्गच्छति, यत्रैव चातुर्घण्टः अश्वस्थः तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य चातुर्घण्टम् अश्वरथं दृरोहति आरोहति, दुरूह्य श्वेतविकाया नगर्या मध्यमध्येन यत्रैव स्वकं-स्वकीयं गृहं तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य तुरगान् निगृह्णाति, निगृहय रथं स्थापयति, स्थात् प्रत्यवतरति । ततः स्नातः कृतस्नानविधिः यावत् 'यावत्'-पदेन-'कृतबलिकर्मा कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्तः सर्वालङ्कारविभूषितः' इति सग्राह्यम् । तत्र-कृतबलिकर्मा-काकादिभ्यो वितीर्णान्नभागः, कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्तः-कृतानि-विहितानि कौतुकानि-मषीतिलकादीनि मङ्गलानि मङ्गलकराणि दुःस्वप्नादिफलनिवारणार्थ दध्यक्षतादीनि तान्येव प्रायश्चित्तानि-अवश्यकरणीयत्वाद् येन सः, तथा-सर्वालङ्कारविभूषितः समस्ताभरणभूषितशरीरः सन् उपरिप्रासादवरगतः उत्तमप्रासादोपरिभागे समुपविष्टः स्फुटद्भिः=अतिरभसास्फालनात् स्फुटद्भिरिव मृदङ्गमस्तकैः मृदङ्गमुखपुटैः, तथा- घरतरुणीसम्प्रयुक्तैः अतिसुन्दरयुवतीभिरमिनीतैः द्वात्रिंशद्वद्वकैः-द्वात्रिंशसंख्यकपात्रनिबद्धैः नाटकैः उपनयमानः स्वचरित्राभिनयपूर्व मभिनीयमानः, उपगीयमानः स्वगुणगानपूर्वकं गीयमानः, उपलाल्यमानः= ललितकलाभिः प्रमोद्यमानः इष्टान्-अभिलषितान् शब्दस्पर्शयावत्-शब्द स्पर्शरूपरसगन्धान् पञ्चविधान् कामभोगात् प्रत्यनुभवन विहरतीति ॥ सू० ११८॥ विसर्पदयः' इन पदों का ग्रहण किया गया है। ‘हाए जाव उप्पि' में आगत यावत् पद से 'कृतबलिकर्मा, कृत कौतुकमंगल पायश्चित्तः, सर्वालङ्कारविभूषितः' इन पदों का संग्रह हा है, 'कृतबलिकर्मादि पदों का तात्पर्य है काकादिकों के लिये उसने अन्नभाग वितीर्ण किया तथा दुःस्वप्नादिफलों के निवारण के लिये मषीतिलक आदिरूप कौतुक तथा मंगलकर दध्यक्षतादिकरूप प्रायश्चित्त-अवश्य करणीय होने से किये। इनसे नीचे के पदों का अर्थ मूलार्थ में लिख दिया गया में ॥ सू० ११८ ॥ मीतिमनाः परमसौमनस्थितः, हर्षवविसप वृदयः" मा ५४ानु अ६५ ४२वामा मा०यु छ. "हाए जाव उपि" भां मावेसा यावत् ५४थी "कृतबलिकर्मा, कृत कौतुकमंगलप्नायश्चित्तः सर्वालङ्कारविभूषितः' । पहोना सब थयो छ. तબલિકર્માદિ પદેને અર્થ છે કાગડા વગેરેને અન્ન ભાગ અર્પ તેમજ દુઃસ્વપ્ન વગેરે ને નિવારણ કરવા માટે મથી તિલક વગેરે રૂપ કૌતુક તેમજ મંગળકર દહીં અક્ષત વગેરે રૂપ પ્રાયશ્ચિત્ત-અવશ્યકરણીય હોવાથી કર્યા. એના પછીનાં પદેના અર્થો મૂલાર્થ માં જ લખવામાં આવ્યા છે. સૂ૦ ૧૧૮
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राजप्रश्नीयसूत्रे ____ मूलम्-तएणं से केसीकुमारसमणे अण्णया कयाइं पाडिहारियं पीढफलकसेज्जासंथारगं पच्चप्पिणइ। सावत्थाओ णयरीओ कोट्टगाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पंचहि अणगारसएहिं जाव विहरमाणे जेणेव केयइअद्ध जणवए, जेणेव सेयंबिया नयरी जेणेव मियवणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, अहा पडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ॥ सू० ११९॥
छाया-ततःखलु स केशीकुमार श्रमणः अन्यदा कदाचित् प्रातिहारिक पीठफलक शय्यासंस्तारकं प्रत्यर्पयति श्रावस्त्या नगर्या कोष्ठकात् चैत्यात् प्रतिनिष्कामति पञ्चभिरनगारशतैर्यावत् विहरन् यत्रैव केकया? जनपदः यत्रैव श्वेतांविका
'तए णं केसीकुमारसमणे' इत्यादि।
सूत्रार्थ (तए गं केसीकुमारसमणे अण्णया कयाई पाडिहारियं पीठफलकसेजासंथारगं पचप्पिणइ) इसके बाद केशीकुमारश्रमणने किसी एक समय अर्पणीय पीठफलकशय्यासंस्तारक को वापिस कर दिया अर्थात् जहां वे कोष्ठक चैत्य-उद्यान में ठहरे हुए थे-वहां के पुरुषो को उन्होंने संभला दिया. (सावत्थीओ णयरीओ कोडगाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ) इसके बाद वे श्रावस्ती नगरी से एवं कोष्ठकचैत्य से निकले (पंचहि अणगारएहिं जाव विहरमाणे जेणेव केयइअद्धे जणवए जेणेव सेयं विया गयरी जेणेव मियवणे उजाणे तेणेव उवागच्छइ) पांच सौ अनगार इनके साथ थे. अतः उनके साथ तिर्थकर परम्परा के अनुसार विचरण करते हुए, एक ग्राम से दूसरे ग्राम में _ 'त एण केसीकुमारसमणे' इस्यादि ।
सूत्रा:-(त एण केसीकुमारसमणे अण्णया कयाइ पाडिहारियपीढफलकसेज्जासंथारगं पच्चप्पिणइ) त्या२ पछी शीमा२ श्रम quत अपीय પડફલક શય્યા સંસ્મારકને પાછા આપી દીધાં એટલે કે તેઓશ્રીએ જે કૌષ્ઠક ચિત્યમાં મુકામ કર્યો હતો. ત્યાંના રખેવાળને તે વસ્તુઓ આપી દીધી. (सावत्थीओ णयरीओ कोडगाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ) त्या२५छी ते शीशुमार શ્રમણ તે શ્રાવસ્તી નગરીથી અને કેપ્ટક ચિત્યમાંથી નીકળ્યા. એટલે કે વિહાર ध्या. ( पचहिं अणगारसएहिं जाव विहरमाणे जेणेव केयइअद्धे जणवए जेणेव सेयंचिया गयरी जेणेव मियवणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ) पांयसे। मना२ તેઓશ્રીની સાથે હતા. આમ તેઓશ્રી આ બધાની સાથે તીર્થંકર પરંપરા
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सुबोधिनी टीका स्. ११९-२० सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ११९ नगरी यत्रै व मृगवनमुद्यान तत्रैव उपागच्छति, यथाप्रतिरूपमवग्रहमवगृहय संयमेन तपसा आत्मान भावयन् विहरति ॥ सू० ११९॥
टीका--'तएण केसी इत्यादि-व्याख्या निगदसिद्धा नवरम्-केशी कुमार मणो मृगवनोद्यानस्थितस्य कस्यचित् पुरुषस्य स्तोककालिकमवग्रहमव गृहय तिष्ठति। वनपालावग्रहादीनामग्रे वक्ष्यमाणत्वात् ।। १० ११९॥
___ मूलम्--तएणं सेयंबियाए नयरीए सिंघाडग० महया जणसदेइ वा० परिसा निग्गच्छइ। तएणं ते उजाणपालगा इमीसे कहाए लट्टा समाणा हट्टतुटू जाव हियया जेणेव केसीकुमारसमणे तेणेव उवागच्छंति केसि कुमारसमणंवंदंति नमसति अहापडिरूवं उग्गहं अणुजाणंति, पाडिहारिएणं जाव संथारएणं उवनिमंतति णाम गोयं पुच्छति ओधारेति एग त अवकमति अन्नमन्न एवं वयासी-जस्लणं देवाणुविहार करते हुए क्रमशः वहां आये जहां के कयार्द्ध जनपद-देश था, उसमें भी जहां वह श्वेताबिका नगरी थी और उसमें भी जहां वह मृगवन नाम का उद्यान था (अहापडिरूवं उगाहं उग्गिणिहत्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ) वहां आकर वे यथाप्रतिरूप अवग्रह प्राप्त--करके संयम एव' तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे।
__ व्यसाया स्पष्ट है-नवरम्-केशाकुमारश्रमण मृगवनोधानस्थित किसी पुरुष की कुछ समयतक ठहरने के लिये आज्ञा प्राप्त कर ठहर गये. वनपाल एव अवग्रहादिकों के विषय में सत्रकार आगे कथन करेंगे ॥सू०११९।। મુજબ વિચરણ કરતાં એક ગામથી બીજે ગામ વિહાર કરતાં અનુક્રમે જ્યાં કૌક્યાદ્ધ જનપદ-દેશ વિશેષ હતું અને તેમાં પણ જયાં ધોતાંબિકા નગરી હતી અને તેમાં પણ જયાં મૃગવન નામે ઉઘાન હતું. ત્યાં પહોંચ્યા. (अहापडिरूव उग्गहं उग्गिणित्ता संजमेण तवसा अप्पाण मावेमाणे विहरइ) त्यां पायीन गोश्री तथा प्रति३५ सह प्रास अशन संयम भने તપથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા વિચરણ કરવા લાગ્યા.
मा सूत्रन टी २५०८ छे. 'नवरम् 32ीमा२ श्रम भृगवन धान પાલકની પાસેથી રહેવાની આજ્ઞા મેળવીને ત્યાં રોકાઈ ગયા. વનપાલ અને અવગ્રહ વગેરેની બાબતમાં સૂત્રકાર હવે પછી કહેશે કે સૂ૦ ૧૧૯
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राजप्रश्नीयसूत्रे प्पिया चित्ते सारही दंसणं क खेइ, दसणं पत्थेइ, दसण पीहेइ, दसणं
अभिलसेइ, जस्स णं णामगोयम्सवि सवणयाए हट्टतुट्ठ जाव हियए भवइ से णं एस केसीकुमारसमणे पुव्वाणुपुब्बि चरमाणे गामाणुगाम दुइज्जमाणे इहमागए इहसंपत्ते इह समोसढे इहेव सेयंवियाए णयरीए बहिया उज्जाणे अहापडिरूव जाव विहरइ, तं गच्छामोणं देवाणुपिया ! चित्तस्स सारहिस्स एयगढ़ निवेदेमो पियं से भवउ । अण्णमण्णस्स अंतिए एयम पडिसुणेति, जेणेव सेयविया णयरी, जेणेव चित्तस्स सारहिस्स गिहे जेणेव चित्ते सारही तेणेव उवागच्छति, चित्तं सारहिं करयल जाव वद्धावेति, एवं वयासो-जस्स णं देवाणपिया : दसण कंखंति जाव अभिलसंति, जस्स ण णामगोयस्स विसवणयाए हट्ट जाव भवंति, से ण अयं केसीकुमारसमणे पुव्वाणुवि चरमाणे गामाणुगामं दइज्जामाणे इहेव मियवणे उज्जाणे समोसढे जाव विहरइ ॥ सू० १२०॥
छाया-ततः खलु श्वेतविकायां नगर्यो श्रृङ्गाटक० महान् जनशब्द इति बा० परिषद् निर्गच्छति । ततः खलु ते उद्यानपालका अस्याः कथाया
'तएणं सेयंबियाए नयरीए' इत्यादि ।
सूत्रार्थ-(तएणं सेयंबियाए नयरीए सिंघाडग० महया जणसद्देइ वा० परिसा निग्गच्छइ) इसके बाद श्वेतांबिका नगरी में शृङ्गाटक आदि मागा के ऊपर उपस्थित हुई अपार जनमेदिनी में परस्पर वातचीत आदि हुई. परिषदा निकली (तएणं ते उजाणपालगा इमीसे कहाए लट्ठा समाणा
'त एणं' सेयंवियाए नयरीए' इत्यादि ।
सूत्रा-(तएणं सेयंवियाए नयरीए सिंघाडग० महया जणसदेइवा० परिसा નિરાચ્છ) ત્યારપછી તાંબિકા નગરીમાં શૃંગાટક વગેરે માર્ગો પર એકત્ર થયેલા भानसभामा ५२२५२ वातयात बरेने। प्रारम थये। परिषदा नीजी. (त एण ते उज्जाणपालगा इमीसे कहाए लद्वट्ठा समाणा हद्वतुट्ठ जाव हियया
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सुबोधिनी टीका. १२० सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम्
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लब्धार्थाः सन्तः हृष्टतुष्ट यावद् हृदया यंत्रैव केशीकुमारश्रमणः तत्रैव उपागच्छन्ति केशिनं कुमारश्रमणं वन्दन्ति नमसंति यथाप्रतिरूपमवग्रहमनुजानन्ति, प्रातिहारिकेण यावत् संस्तारकेण उपनिमन्त्रयन्ति, नामगोत्र पृच्छन्ति, अवधारयन्ति, एकान्तमपक्रामन्ति, अन्योन्यमेवमवादिषु :खलु देवानुप्रिया ! चित्रः सारथिः दर्शनं काङ्गति, दर्शनं प्रार्थयति दर्शन स्पृहयति, दर्शनभिलषति, यस्य खलु नामगोत्रत्स्यापि श्रवणतया हृष्टतुष्ट
:-यस्य
तु जाव हियया जेणेव केसीकुमारसमणे तेणेव उवागच्छंति ) इसके बाद वे उद्यानपाल जब इस बात से निश्चितमतिवाले हो गये, तब हृष्टतुष्ट यावत् हृदयवाले होते हुए वे जहां केशीकुमारश्रमण थे - वहां पर आये. ( केसिंकुमारसमणं वदति, नमसंति, अहापडिरूवं उग्गहं अणुजाणंति ) वहां आकर उन्होंने केशीकुमार श्रमणको वन्दना की, नमस्कार - किया एवं यथारूप अवग्रह आज्ञा उन्होंने दिया. ( पाडिहारिएणं जाव संथारएणं उवनिमंतति ) तथा समर्पणीय ( प्रातिहारिक ) यावत् संस्तारक आदि से उन्हें उपनियंत्रित किया. ( णामं गोयं पुच्छंति ओधारेंति, एगंत अवकमंति, अन्नमन्न एवं वयासी ) नामगोत्र पूछा। उसे हृदय में धारणकिया । फिर वे एकान्तमें गये और वहां जाकर उन्होंने आपस में इस प्रकार से बातचीतकी ( जस्स णं देवाणुप्पिया । चित्ते सारही दंसणं कखेड दंसणं पीहेइ, दंसणं अभिलसेइ ) हे देवानुप्रियो ! जिनके दर्शन चित्र सारथि चाहता हैं, जिनके दर्शन की वह प्रार्थना करता है, जिनके दर्शनकी वह स्पृहा रखता है, जिनके दर्शनकी वह अभिलाषावाला जेणेव केसीकुमारसमणे तेणेव उवागच्छति) त्यार पछी ते उद्यानवाबो भ्यारे આ બાબતમાં નિશ્ચિત મતિવાળા થયા ત્યારે તે હૃષ્ટ દુષ્ટ યાવત્ હૃદયવાળા થઈને नयां प्रेशीङ्कुभार श्रभ| हता त्यां भाव्या (केसिं कुमारसमण वदति, नमसति, अहापडिव उग्गहं अणुजाणंति) त्यां भावीने तेमणे देशीकुमार श्रमलुने वहना पुरी नभरडार अर्ध्या गमने यथा दयनीय वस्तुओ तेथे श्रीने खायी. ( पाडिहा रिएण जाब साधारण उवनिमंतति) तेभन समर्पणीय यावत् संस्तार वगेरे सीने तेगोश्रीने उपनिमंत्रित अर्था (णाम गोय पुच्छति ओधारेंति, एगत अवक्कमति, अन्नमन्न एवं वयासी) नाम - गोत्र पूछयां मने तेने હૃદયમાં ધારણ કર્યો. ત્યારપછી તે સર્વે એકાંતમાં ગયા ત્યાં જઈને તેમણે પરસ્પર श्मा प्रमाणे वातचीत पुरी डे (जस्सण देवाणुपिया ! चित्ते सारही दसण
'खे, दस पत्थे, दंसण पोहेइ, दंसण अभिलसेइ) हे देवानुप्रियो ! ચિત્રસારથી જેઓશ્રીના દર્શનાની ઇચ્છા ધરાવે છે, જેએશ્રીના દના માટે તેઓ પ્રાર્થના કરે છે, જેઓશ્રીના દાની તે સ્પૃહા ધરાવે છે, જેઓશ્રીના દનાની
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___राजप्रश्नीयसूत्रे यावहृदयो भवति स खलु एष केशीकुमारश्रमणः पूर्वानुपूर्वी चरन् ग्रामानुग्रामं द्रवन् इहागतः, इहसंप्राप्तः, इह समवसृतः, इहैव श्वेतविकाया नगर्या बहिमृगवने उद्याने यथाप्रतिरूपं यावद् विहरति, तद् गच्छामः खलु देवानुप्रियाः ! चित्रस्य सारथेः एतमथै प्रियं निवेदयामः, प्रियं तस्य भवतु । अन्योन्यस्यान्तिके एतमर्थ प्रतिश्रृण्वन्ति, यत्रैव श्वेतविका नगरी यत्रैव चित्रस्य है. (जम्स णं णामगोयस्स वि, सवणयाए हट्टतुट्ठ जाब हियए भवइ) तथा जिनके नामगोत्र के भी श्रवण से जो हष्टतुष्ट यावत् हृदयवाला होता है ( से गं एस केशीकुमारसमणे पुव्वाणुपुवि चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे इहमागए) वे ये केशीकुमारश्रमण तीर्थकर परम्परा के अनुसार विचरते हुए एवं एक ग्राम से दूसरे ग्राम में विहार करते हुए यहां आये है। (इह संपत्ते ) यहां प्राप्त हुए हैं। (इहसमोसढे ) यहां समवसृत हुए हैं। ( इहेव सेयं वियाए णयरीए बहिया उज्जाणे अहापडिरूवं जाव विहरइ ) इसी श्वेतांबिका नगरी के बाहर उद्यानमें यथाप्रतिरूप अवग्रह प्राप्तकर यावत् विराजते हैं। (तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया! चित्तस्स सारहिस्स एयमहूँ पियं निवेदेमो पियं से भवउ ) तो हे देवानुप्रियो ! चले और चित्र सारथि के इस प्रिय अर्थ का उनसे निवेदन करें, हमारा यह निवेदन उन्हें बडा ही प्रिय लगेगा ( अण्णमण्णस्स अंतिए एयमढे पडिसुणेति )
ते मलिदा रामेछ. (जस्मण णामगोयस्स वि सवणयाए हट्ठतुट्ठ जाव हिय ए મus) તેમજ જેઓશ્રીનું નામ ગોત્રના શ્રવણથી જ જે હણ-તુષ્ટ યાવત્ હૃદયવાળો य नय छे. (से ण एस केसीकुमारसमणे पुव्वाणुपुचि चरमाणे गामाणुगाम दइज्जमाणे इहमागए) तमाश्री अशीभा२ श्रम तीर्थ ४२ ५२५२१ મુજબ વિચરણ કરતા અને એક ગામથી બીજે ગામ વિહાર કરતાં અહીં પધાર્યા છે. (इह संपत्ते) मही प्रास च्या छ. (इह समोसढे) मी समस्त या छे. (इहेव सेयवियाए णयरीए बहिया उज्जाणे अहापडिरूव जाव विहरइ) આ તાંબિકા નગરીની બહારના ઉદ્યાનમાં યથાપ્રતિરૂપ અવગ્રહ પ્રાપ્ત કરીને યાવત્ [१२ छे. (त गच्छामो ण देवाणुपिया ! चित्तस्स सारहिस्स एयम पिय निवेदेमो पिय से भबउ) त्यारे हे वानुप्रियो ! माप यित्र साथिनी पासे જઈને આ પ્રિય સમાચાર વિષે તેમને ખબર આપીએ. અમારી આ ખબર તેમને यूम०८ मश. (अण्णमण्णस्स ऑतिए एयम पडिसुणेति) प्रमाणे तय अधा ५२२५२ मे भीतनी पातने मेभित ने स्वीारी से छे. त्या२ पछी (जेणेव
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सुबोधिनी टीका' सू. १२० सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् १२३ सोरथेहं यत्र व चित्रः सारथिस्तत्र वोपागच्छन्ति चित्रं सारथिं करतल. यावद् वर्द्धयन्ति, ए वनवादिषुः-पस्य खलु देशानुपियाः दर्शन कान्ति, यावत्-अभिलषन्ति, यस्य खलु नामगोत्रस्यापि श्रवणतया हृष्ठ यावद् भवन्ति म खल्वयं के शीकुमारश्रमणः पूर्वानुपूर्वी चरन् ग्रामानुग्राम द्रवन् इहैव उद्याने मृगवने समवसृतः यावद् विहरति ॥ सू० १२० ॥
टीका-'तएण सेयवियाए' इत्यादि । व्याख्या निगदसिद्धा ॥म. १२०॥ इस प्रकार की बातचीत को वे स्वीकार कर लेते हैं। बाद में (जेणेव सेयंबिया णयरी, जेणेव चित्तस्स सारहिस्स गिहे जेणेव चित्ते सारही तेणेव उवागच्छति) वे जहां श्वेतांबिका नगरी थी और उसमें भी जहां चित्र सारथि का गृह था एवं वहां पर भी जहाँ चित्र सारथी था वहां पर आये (चिन सारहि करयल जाव बद्धावे ति, एव वयासी) वहां आकर के उन्होंने चित्र सारथि के प्रति बडे विनय के साथ अपने दोनों हाथों को अंजलि बनाकर उसे मस्तक पर से घुमाते हुए नमग्कार किया. तथा जयविजय शब्दों का उच्चारण कर उसे बधाई दी और फिर ऐंसा कहा-'जस्स ण देवाणुप्पिया ! दसण क खति, जाव अभिलसंति, जस णं णामगोयस्स वि सवयाए हट्ट जाव भवंति, से ण' अयं केसीकुमारममणे पुरवाणुपुचि चरमाणे गामानुगाम दृहज्जमाणे इहेव मियवणे उज्जाणे समोसह जाब विहरइ) हे देवानुप्रिय! आप जिसके दर्शन की चाहना रखते हैं, यायत् अभिलाषा रखते हैं तथा जिसके नामगोत्र के भी श्रवण से भी आप हृष्टतुष्ट यावत् हृदय वाले हो जाते हैं वे ये केशीकुमारश्रमण पूर्वानुपूर्वो से विचरते हुए, एक ग्राम से सेय बिया णयरी, जेणेव चित्तस्स सारहिस्स गिहे जेणेव चिन सारही तेणेव उवागच्छति) तो यi inst नगरी ती मने तेभा पन्या थिसारथी
तो त्यां गया. (चित्तं सारहिं करयल जाव बद्धाति, एवं वयासी) त्या पडत्याने તેમણે ચિત્રસારથિને બહુજ નમ્રપણે બન્ને હાથની અંજલિ બનાવીને અને તેને મરતક પર ફેરવીને નમસ્કાર કર્યા તેમજ જયવિજ્ય શબ્દોનું ઉચ્ચારણ કરીને તેને qधामी -पापी. मने पछी तेने २प्रभा ह्यु. (जस्सण' देवाणुप्पिया ! दसण'
खति. जाव अभिलसति, जस्स ण णामगोयस्स वि सवणयाए हट जाव भवति, से ण अय केसीकुमारसमणे पुवाणुपुचि चरमाणे गामानुगाम दुइज्जमाणे इहेव मियवणे उज्जाणे समोसढे जाव विहरई) ७ वानुप्रिय ! તમે જેઓશ્રીના દર્શનની ઈચ્છા ધરાવતા હતા, યાવત્ અભિલાષા રાખતા હતા. તેમજ જેઓશ્રીના નામગોત્રના શ્રવણ માત્રથી જ તમે હૃષ્ટ-તુષ્ટ યાવત હૃદયવાળા
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राजप्रश्नीयसूत्रे
मूलम् - तणं से चित्ते सारही तेसि उज्जाणपालगाणं अंतिए एयम सोच्चा णिसम्म हट्टतुटु जाव आसणाओ अब्भुट्ठेइ पायपीढाओ पच्चोरुहइ, पाउयाओ ओमुयइ, एगसाडियं उत्तरोसंगं करेइ, अंजलिमउलियग्गहत्थे - केसि कुमारसमणाभिमुहे सत्तटुपयाइं अनुगच्छइ, करयल परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिकट्टु एवं वयासी- नमोऽत्थूण अरहंताणं जाव संपत्ताणं, नमोऽत्थुणं केसिस्स कुमारसमणस्स मम धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगस्स, वंदामि णं भगवंतं तत्थगयं इहगए, पास मे तत्थगए इहगयं तिकट्टु वंदइ नमंसइ, ते उज्जाणपालए विउलेणं वत्थगंधमल्लालंकारेणं सकारेइ सम्माणेइ विउल जीवियारिहं पीइदाणं दलयइ पडिविसज्जेइ | कोडुंबिय पुरिसे सहावेइ, एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवाणुपिया ! चाउग्घंट आसरहं जुत्तमेव उवटुवेह जाव पञ्चपिह | तरणं ते कोडुंबियपुरिसा जाव खिष्पामेव सच्छत्तं सज्झय जाव उवटूवित्ता तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति तएण से चित्ते सारही कोडबियपुरिसाणं अंतिए एयमट्ठे सोच्चा निसम्म हट्टतुटू जाव हियए पहा कयबलिकम्मे जाव सरीरे जेणेव चाउग्घंटे जाव दुरूहित्ता सकोरंट० महया भडचडगर० तं चैव जाव पजवास धम्मका । सू. १२१ ।
दूसरे ग्राम में विहार करते हुए यहां मृगवन नामके उद्यान में आये हुए हैं यावत् तप और संयम से आत्माको भावित करते हुए ठहरे है । इसकी व्याख्या मूलार्थ के जैसी ही है ॥ १२० ।।
થઈ જાએ છે. તેઓશ્રી કેશીકુમારશ્રમણ પૂર્વાનુપૂર્વી થી વિચરણ કરતાં એક ગામથી ખીજે ગામ વિહાર કરતાં અહીં મૃગવન નામના ઉદ્યાનમાં પધારેલા છે. યાવતુ તપ અને સયમથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા વિરાજે છે.
આ સૂત્રની વ્યાખ્યા મૂલા
પ્રમાણે જ છે. ૫૧૨૦ના
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सुबोधिनी टीका सु. १२१ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णनम्
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छाया -- ततः खलु स चित्रः सारथिः तेषामुद्यानपालकानामन्तिके एत मर्थ श्रुत्वा निशम्य हृष्ट तुष्ट यावद् आसनाद अभ्युत्तिष्ठति प्रापादपीठा त्प्रत्यवरोहति पादुके अवमुञ्चति एकशाटिकमुत्तरासङ्ग' करोति, अञ्जलिमुकुलिताग्रहस्तः केशिकुमार श्रमणाभिमुखः सप्ताष्टपदानि अनुगच्छति करतल परिगृहीत' शिरआवर्त्त मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा एवमवादीत् नमोऽस्तु खलु
'तण' से चित्ते सारही' इत्यादि ।
सूत्रार्थ - (तरण से चित्ते सारही तेसिं उज्जाणपालगाणं अतिए एम) इसके बाद वह चित्र सारथि उन उद्यानपालकों के पास से इस अर्थकों - वृत्तान्त को ( सोचा निसम्म हह्तुट्ठ जाव आसणाओ अन्भुट्ठेइ) सुनकर एवं उसे हृदय में धारण कर बहुत अधिक हृष्ट एवं संतुष्ट चित्त हुआ यावत् वह अपने आसन से उठा ( पायपीढाओ पञ्चोरुहइ) और पादपीठ - ( चरण रखने का आसन) के उपर पग रखकर वह नीचे उतरा ( पाउयाच ओमुयइ) पादुकाएं उसने उतार दी ( एगसाडिय उत्तरासंगं करेइ) एकशाटिक उतरासग किया । ( अजलिम उलियग्गहत्थे के सिकुमारसमणा भिहे सत्तट्टयाई अणुगच्छइ) फिर उसने अपने दोनों हाथों को जोड़कर अंजलिरूप में परिवर्तित किया और केशीकुमारश्रमण के अभिमुख होकर अर्थात् जिस ओर केशीकुमार श्रमण विराजमान थे उस ओर सात आठ पण तक आगे जाकर (करयलपरिज्गाहिय सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कहु एवं वयासी) वहां जाकर उसने अपने दोनों हाथों की बडे विनय के साथ
'तरण' से चित्ते सारहो' इत्यादि ।
सूत्रार्थ - ( त एण) से चित्ते सारही तेर्सि उज्जाण पालगाणं अंतिए एयम) त्यार पछी ते चित्रसारथि ते उद्यानपासना मुभथी या अर्थने वृत्तांत ( सोच्चा निसम्म हट्टतुट्ठ जाव आसणाओ अब्भुट्टे इ) सांलजीने अने तेने हदयभां ધારણ કરીને ખૂબજ હષ્ટ અને સંતુષ્ટ ચિત્તવાળા થયા યાવત તે પેાતાના આસન પરથી ઉભા થયે. (पाय पढाओ पच्चरुहइ) मने चाची (पण भूस्वानुं मासन विशेष ) पर या भूट्ठीने नीचे उतर्यां ( पाउयाओ ओमुयइ) अने यामां चडेरेसी चावडीओो उतारी हीधी. ( एगसाडियां उत्तरासंगं करेइ) शाटिङ उत्तरासंग ये. (अंजलिमउलियग्गहत्थे के सिकुमार समणाभिमुहे सत्तट्टपया अणुगच्छइ) त्यार पछी तेथे पोताना भन्ने हाथो જોડીને અંજલિ મનાવી અને કેશીકુમારશ્રમણની સામે મુખ કરીને એટલે કે જે દિશા તરફ કેશીકુમાર શ્રમણ વિરાજમાન હતા તે તરફ સાત આઠ પગ સુધી સામે गया. ( करयल परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्टु एवं वयासी)
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राजप्रश्नीयसूत्रे अहंदयो यावत्-सम्प्राप्तेभ्यः, नमोऽस्तु खल केशिने कुमारश्रमणाय मम धर्माचार्याय धर्मोपदेशकाय, वन्दे खलु भगवन्त तत्रगतमिहगतः पश्यतु मे तत्रगत इहगतप. इति कृत्वा वन्दते नपश्यति, तान् उद्यानपालकान् विपु. लेन वस्त्रगन्धमाल्पालङ्कारेण सत्करोति संमानयति विपुल जोविताहे पोति. दान ददाति प्रति विसर्जयति । कौडुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, एवमवादीतअंजलि बनाई और उसे मस्तक पर से तीन बार घुनाकर इस प्रकार पाठ पढने लगा-(नमोऽत्युण अरहताण जाव संपात्ताण', नमोत्थुण केसिस्स कुमारसमणस्म मम धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगस्स, वदामि ण भगवंत तत्थगय इहगए) अर्हन्त भगवन्तों को नमस्कार हो यावत सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त हुए हैं. मेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक केशीकुमारश्रमण को नमस्कार हो. यहां रहा हुआ मैं यहां पर मृगवनोद्यान में विराजमान आपको नमस्कार करता हूं। (पासउ में तत्थगए इहगयं त्तिक वंदइ नम. सइ) वहां रहे हुए वे भगवान् यहाँ रहे हुए मुझे देखे' इस प्रकार कहकर उसने वन्दना की, नमस्कार किया, (ने उजाणपालए विउलेणवत्थगधमलालंकारेण सक्कारेइ) इस तरह परोक्षविनग करके फिर उसने उन उद्यानपालकों का विपुल वस्त्र गध माला एवं अलकारों से सत्कार किया (मम्माणेइ) सन्मान किया (विउलं जीवियारिह पीइदाणदलयड) और अन्त में उनके लिये विपुल मात्रा में जीविकायोग्य प्रीतिदान दिया (पडिविसज्सेइ) फिर ત્યાં જઈને તેણે પિતાના બન્ને હાથની ખૂબ નમ્રપણે અંજલિ બનાવી અને તેને મસ્તક પર ત્રણ વખત ફેરવીને આ પ્રમાણે તે પાકનું ઉચ્ચારણ કરવા લાગે (नमोऽत्थुणं अरहंताणं जाव संपत्ताणं, नमोत्थुगं केसिस्स कुमारसमणरस मम धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगम्स वदामि णं भगवंत तत्थगय इहगए) અહંત ભગવંતને મારા નમસ્કાર છે કે જેઓશ્રીએ યાવત્ સિદ્ધિગતિ નામકસ્થાનને પ્રાપ્ત કર્યું છે. મારા ધર્માચાર્ય ધર્મોપદેશક કેશીકુમારશ્રમણને નમસ્કાર છે. અહીંથી
ईयां भृगवनायधामा विमान आपश्रीन नम२७१२ ४३ छु. (पासउ में तत्थगए इहगय त्तिक वंदइ नमसइ) त्या विमान ते मापान सही विधमान भने कुओ मा प्रमाणे ४हीन तेथे पहना ४२॥ नमः४।२ ४ा. (ते उज्जाणपालए विउलेणं बत्थगंधमल्लालंकारेणं सक्कारेइ) मा प्रमाणे पक्ष विनय કરીને તેણે તે ઉદ્યાનપાલકને વિપુલ વસ્ત્ર, ગંધ, માળાઓ અને અલંકારે વડે समा२ यो. (सम्माणेइ) सन्मान यु. (किउल जीवियारिह पीईदाण दलयइ) भने छेटे तेभने विधुर मात्रामा वि योग्य प्रीतिहान मायु:(पडिविसज्जेइ)
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सुबोधिनी टीका. सू. १२१ सूर्याभदेवस्य पूर्वं भवजीवप्रदेशिराजवर्ण' नम् १२७ क्षिप्रमेव भो देवानुप्रियाः ! चतुर्घष्टमश्वरथं युक्तमेव उपस्थापपन यावत् प्रत्यर्पयत । ततः खलु ते कौटुम्बिकपुरुषा यावत् क्षिममेत्र सच्छत्र सध्वज यावत् उपस्थापयित्वा तामाज्ञप्तिकां प्रत्यर्पयन्ति । ततः खलु स चित्रः सारथिः कौटुम्बिक पुरुषाणामन्तिके एतमर्थ श्रुत्वा निशम्य हृष्टतुष्ट याद हृदयः स्नातः कृत बलिकर्मा यावत्-शरोरः यत्रैव चातुर्घण्टो यावद् दूरुह्य सको
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० महता भटचटकर० तदेव यावत् पर्युपास्ते धर्मकथा || मु० १२१ ।। विसर्जित कर दिया (कोड बियपुरिसे सदावेइ ) तदनन्तर उसने अपने आज्ञ कारी सेवकों को बुलाया (सदावित्ता एवं वयासी) बुलाकर उनसे ऐसा कहा ( खियामेव भो देवाणुप्पिया ! चाउग्घट आमरह जुत्तामेत्र उट्ठवेह जाव पञ्च पिणेह ) हे देवानुप्रियो ! तुम लोग शीघ्र ही चार घंटों वाले अश्वरथ को घोडाओं से युक्त करके उपस्थित करो, यावत् फिर हमें इसकी खबर दो (एण ते कोडबियपुरिया जान खिप्पामेव सच्छत्तं सज्झयं जाव उत्रवित्ता तमाणत्तियं पञ्चपिगति) इसके बाद उन कौटुम्बिक पुरुषोंने यावत् बहुत ही शीघ्र छत्र एवं ध्वजा से युक्त करके उस चार घंटावाले अश्वरथ को घोडाओं से युक्त कर उपस्थित कर दिया और पीछे इस खब को उसके पास दिया. (नएण से वित्ते सारही कोडुबियपुरिसान अतिए एयमहं सोच्चा निसम्म हट्ठतु जाव हियए हाए कपबलिकम्मे जाव सरीरे चाटे आसरहे जाव दुरुहिता सकोरंट० मध्या भडवडगर ० तं चेत्र जाव पज्जुवासह धम्मका) तब उस चित्र सारथिने कौटुम्बिक त्यार पछी तेभने विसर्भित . ( कोड बियपुरिसे सदा बेइ) त्यार माह ते पोताना आज्ञाअरी सेवने मोसाव्या. (सद्दावित्ता एवं वयामी) खोसावीने तेमने या प्रमाणे उधुं. (खिप्पामेव भो देवाणुपिया ! चाउरघट आसरह जुत्तामेव उबवेह जाब पच्चपिणह) हे देवानुप्रियो ! तमे सोडी सत्वरे यार घटोवाजा અશ્ર્વરથને ઘેાડાએથી સજજ કરીને અહીં ઉપસ્થિત કરી, યાવતુ પછી અમને ખખર मा. (तए णं ते कोड बियपुरिसा जाव खिप्पामेव सच्छन्तं सज्झयं जाव उवहवित्ता तामाणत्तियं पच्चप्पियंति) त्यार पछी ते टुमि पुरषो यावत શીઘ્ર છત્ર અને ધ્વજાથી સુસજ્જિત કરીને તે ચાર ઘટાઓવાળા અશ્વરથને ઘેાડાઓથી યુકત કરીને ઉપસ્થિત કર્યાં. અને તેની ખખર પણ તેની પાસે પહાંચાડી દીધી. (त एणं से चिते सारही कोडबियपुरिसाण अतिए एयमहं सोचा निसम्म हट्ठतु जात्र हिजए हाए कयबलिकम्मे जाब सरीरे चाउ घटे आसरहे जाव दुरुहित्ता सकोरंट० महया भड चडगर • तं चेत्र जात्र पज्जुबासइ धम्मका) ते चित्र सारथियो टुमिङ पु३षोना मुभथी अधरथ तैयार था भवानी
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राजप्रश्नीयसूत्रे 'तएणं से चित्ते' इत्यादि । व्याख्या निगदमिद्धा। नवरम्-चित्र सारथिगमनवर्णनमेकादशाधिकशततमसूत्रे, विलोकनीयम् ॥ १२१ ॥
मूलम्-तएणं से चित्ते सारही केसिकुमारसमणस्स अंतिए धम्म सोचा निसम्म हट्टतुट० तहेव क्यासी-एवं खल्ल भंते ! अम्हं पएसी राया अधम्मिए जीव सयस्स वि णं जणवयस्स नो सम्मं करभरवित्ति पवत्तेइ, तं जइणं देवाणुप्पिया ! पएसिस्स रणो धम्ममाइक्खेजा बहुगुणतरं खलु होज्जा पएसिस्स रणो तेसिंगं च बहणं दुपय चउप्पमियपसुपक्खिसरिसवाणं, तेसिं च बहणं समणमाहणपुरुषों के मुख से अश्वरथ के तैयार हो जाने की बात सुनकर और उसे हृदय में धारण कर हृष्टतुष्ट यावत् हृदय होते हुए स्नान किया, बलिकर्म-अर्थात्-काकआदि पक्षियों के लिये अन्न का भाग दिया यावत् बहुमूल्य अल्पभारवाले आभूषणों से अलंकृत शरीर होकर जहां चार घटोंवाला अश्वस्थ था वहाँ आया. यावत उस पर वह बैठ गया. उसके बैठते ही छत्रधारीने उस पर कोरण्ट पुष्षों की माला से युक्त छन्त्र तान दिया. विशाल भटों की भीड आकर उसके दोनों ओर उपस्थित हो गई. वहां पहिले का अशिष्ट ओर सब कथन करना चाहिये, यावत् उसने केशिकुमारश्रमण को पर्युपासना को. के शिकुमारश्रमणने धर्मोपदेश दिया।
टीकार्थ-इसकी व्याख्या स्पष्ट है। नवर-चित्रसारथी के गमन का वर्णन १११वे मूत्र में देखना चाहिये ॥ मू. १२१ ॥ વાત સાંભળીને અને હૃદયમાં ધારણ કરીને હટ–તુષ્ટ યાવત્ હૃદયવાળા થઈને સ્નાન કર્યું. બલિકર્મ એટલે કે કાગડા વગેરે પક્ષીઓને માટે અન્ન ભાગ અર્પિત કર્યો. થાવત્ બહુમૂલ્ય અ૫ભારવાળા આભૂષણથી પિતાના શરીરને અલંકૃત કર્યું અને ત્યાર પછી તે જ્યાં ચારઘંટવાળો અશ્વરથે હતે ત્યાં આવ્યું. ચાવતુ તેમાં બેસી ગયે. તે બેઠે ત્યારે છત્રધારીઓએ કરંટ પુપની માળાથી યુકત છત્ર તેની ઉપર તાર્યું. તે વખતે વિશાળ દ્ધાઓની ભીડ તેની આસપાસ આવીને એકઠી થઈ ગઈ. અહીં પહેલાંની જેમજ બધું કથન સમજવું જોઈએ યાવતું તેને કેશિકુમારશ્રમણની પર્યુંપાસના કરી, કેશિકુમારશ્રમણે ધર્મોપદેશ આપે.
ટીકાઈ–આ સૂત્રનો સ્પષ્ટ જ નવરંચિત્રસારથીનું ગમનનું વર્ણન ૧૧૧ મા સૂત્ર પ્રમાણે સમજવું જોઈએ છે ૧૨૧
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सुबोधिनी टीका सू. १२२ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् १२९ भिक्सुयाणं तं जइ णं देवाणुप्पिया! पएसिस्स बहुगुणत्तरं होजा, सयस्स वि णं जणवयस्स्स ॥ सू. १२२ ॥
छाया--ततः खलु स चित्रः सारथिः केशिनः कुमारश्रमणस्यान्ति के धर्म श्रुत्वा निशम्य हृष्टतुष्ट० तथैव एवमवादीत्-एवं खलु भदन्त! अस्माकं प्रदेशी राजा अधार्मिकः यावत् स्वकस्यापि खलु जनपदस्य नो सम्यक् करभरवृत्तिं प्रवर्तयति तद् यदि खलु देवानुप्रिय ! पदेशिने राज्ञे धर्ममारूयायात् (तदा) बहुगुणतरं खलु भवेत्, प्रदेशिनो राज्ञस्तेषां च बहूनां द्विपद वनुष्धदमृगयशुपक्षि परीमृपाणां, तेवां च बहूनां श्रमणमाहनभिक्षुका
'तए ण से चित्ते सारही' इत्यादि ।
सूत्रार्थ--(तए ण) इसके बाद (से चित्ते सारही) उस चित्र सारथिने (केमिस्म कुमारसमणस्स) केशीकुमारश्नमण के (अंतिए) पास धम्म सोच्चा निसम्म हट्टतुट तहेव एवं वयासी) धर्मका उपदेश सुनकर और उसे हृदय में धारण कर हृष्टतुष्ट चित्त वाला हुआ एवं आनंद से विभोर होकर प्रीतिमनबाला हुआ. इस तरह परमसौमनम्यित होकर वह बोला (एव खलु भंते ! अम्हं पएसी राया अहम्मिए जाव सयम्स वि ण जण वयस्स नो सम्मं करभरविति पवत्तेइ) हे भदन्त ! हमारा प्रदेशी राजा अधार्मिक है यावत् वह अपने देशके प्राप्त कर से भरणपोषणरूप व्यवहार को ठीक तरह से नहीं चलता है(त जइण देवाणुप्पिया! पएसिस्स रष्णो धम्ममाइक्खेज्जा बहुगुणतर होजा, पएसिम्स रण्णो तेसिं च बहूण दुपयचउप्पयमियपसुपक्खिसरीसवाण) तो
'तए ण से चित्ते सारही' इत्यादि।
सूत्रार्थ-तए ण) त्या२ पछी (से चित्त सारही) ते भित्र साश्यीय (केसिस्स कुमारसमणस्स) अशीभा२ श्रभानी (अंतिए) पासेथी (धम्म सोचा निसम्म हत० तहेव एवं वयासी) घम' विष पहेश सांमजीन भने त હદયમાં ધારણ કરીને હષ્ટ-તુષ્ટ ચિત્તવાળો થયો અને આનંદિત થઈને પ્રીતિયુકતમનવાળે थयो. या प्रमाणे ५२मसोमनास्थित थने ते मोत्या. (एवं खलु मते ! अम्हं पएपी राया अहम्मिए जाव सयस्स वि ण जणवयस्स नो सम्म करभरविनि पवत्त इ) महत ! मभा। प्रशी २ion Aधार्मिी छे यावत् ते पाताना દેશના લેક પાસેથી કર મેળવીને પણ પ્રજાનું ભરણ-પોષણ તેમજ રક્ષણ કરતું નથી. (तजइ ण देवाणुप्पिया! पएसिस्स रण्णो धम्ममाइखेज्जा बहुगुणतरं होज्जा, पएसिरस रणो तेसिंच बहूण दुपयचउप्पयमियपसुपक्खिसरीसवाण)
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राजप्रश्नीयस्त्रे णाम् । तद् यदि खलु देवानुप्रिय ! प्रदेशिनो बहुगुणतर भवेत्, स्वक स्यापि च खलु जनपदस्य ।। मू० १२२ ॥
टीका-'तए णं से चित्ते' इत्यादि-ततः तदनन्तर खलु म चित्रः सारथिः केशिनः कुमारश्नमणस्य अन्तिके समीपे धर्म जिनोतं धुत्वाकर्ण गोचरीकृत्य निशम्य हृद्यवधार्य हृष्टतुष्ट तथैव-पूर्व व देव हृष्टतुष्टचित्तानन्दितः मीतिमनाः परमसामनस्यितः हर्षवशविसर्पहृदयः, इति सग्राह्यम् । अर्थस्तु पूर्व गतः। एवमवादीत्-किमवादीत् ? इत्याह-एवं खलु यत् हे भदन्त
अस्माकं प्रदेशी राजा अधार्मिकः यावत्-यावत्पदेन-अधर्मिष्ठादीनि सर्वाणिविशेषणानि एकशततमस्त्रोक्तानि संग्राह्याणि, एषामर्थोऽपि तत्रैव विलोयदि आप हे देवानुप्रिय ! उस प्रदेशी राजा को जिनपरूपित धर्म का उपदेश देखें तो वह उस प्रदेशी राजा के लिये और परलोक में बहुत गुणकारी होगा, तश अनेक द्विपद, चतुरूपद, मृग, पशु, पक्षी एव सरीसृपसर्प आदिको का हितावह होगा (तेसिं च बहण समणमाहणभिक्खु. याण) और उन अनेक श्रमण मोहण, भिक्षुकों के लिये बहुत ही अधिक लाभदायक होगा (तं जइ ण देवाणुपिया ! पए सिस्स बहुयुणतर होजा, सयस्स वि य ण जणवयस्स) यदि वह धर्मो देश प्रदेशी राजा का हितकारक हो जाता है तो उसक जनपद-देश का इससे बडा भला होगा।
टोकार्थ इसका स्पष्ट है। हतु तहेव एवं वयासी' में तथैव' पद से 'हृष्टतुष्टचित्तानन्दितः, पीतिमनाः, परमसीमनस्थितः, हर्षवशविसपदयः' इस पाठ का ग्रहण हुआ है, इन पदों का अर्थ पहिले लिखा जा चुका है। 'अहम्मिए जाव' में आगत पद से' 'अधर्मिष्ठ' आदिक विशेषणों का गृहण જે આપ દેવાનુપ્રિય તે પ્રદેશી રાજાને જિન પ્રરૂપિત ધર્મને ઉપદેશ આપે છે તે પ્રદેશી રાજાને આ લેક અને પરલેક અતીવ ગુણકારી થાય અને ઘણાં દ્વિપદ, ચતુ
૫દ, મૃગ, પશુ, પક્ષી અને સરીસૃપ એટલે કે સાપ વગેરેના માટે પણ હિતાવહ થાય. (तेसिं च बहूण समणमाहणभिक्खुयाण मने ते घा! अभए भाइ भिक्षुडाना भाटे पा अतीव हिताय थाय. (त जइ ण देवाणुप्पिया ! पएसिसम बहुगुणतर' होज्जा, सयस्स वि य ण जणवयस्स) न्ने मापने। धर्भापदेश प्रदेशी रात पोताना જીવનમાં ઉતારે તે તેનું પોતાનું અને તેના જનપદ–દેશનું પણ તેનાથી ઘણું કલ્યાણ થાય તેમ છે.
मा सूत्रन टी २५०८ ०४ छ. "ह तट्ट तहे। चयासी 'मां' तथैव" १४थी "हृष्टतुष्टचित्तानन्दितः प्रोतिमनाः परमसौमनस्थितः, हर्ष वश. विसपद्धदयः" tusने सर थये। छ. मा सब पहने। म पडसा २५ट ४२वाभा माया छे. "अहम्मिए जाव" भी आवेर यावत् पहथी 'अधभिष्ठः'
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सुबोधिनी टीका सू. १२२ सूर्याभदेवस्य पूर्व भव जोवप्रदेशिराजवर्णनम् १३१ कनोयः, म स्वकस्यापि जनपदस्य देशस्य करभरवृत्ति-करेण भरः-भरणपोषण', तपां वृत्ति व्यवहार नो सम्यक प्रवत यति, तद् यदि खलु हे देवानुप्रिय ! प्रदेशिने राज्ञे भवान् धर्म जिनमरूपितम् आख्यायात्-कथयेत् तदा प्रदेशिनो राज्ञः बहुगुणतरम्-इहलोकपरलोकसफलीकरणलक्षण दया. दानादिरूप वाऽत्यन्तगुण भवेत् ! तथा बहूनां द्विपदचतुष्पदमृगपशुपक्षि. सरीसृपाणाम्-तत्र-द्विपदाः दासीदासादयः चतुष्पदाः ये मृगाः श्रारण्याः,पशवः
ग्राम्या गोमहिष्यादयः, सरीसृपाः भुजपरिसपाः-गोधादयः उरःपरिसश्चि सर्पादयः, तेषां बहुगुणतर पालनरक्षणरूपं भवेत् तथा-श्रमणमाहनभिक्षुकाणाम-तत्र श्रमणाः शाक्यादयः, माहना:ब्राह्मणाः, भिक्षुकाभिक्षाजीविनः तेषां च बहगणतरम्-भिक्षालाभरक्षणादिरूपमतिशयगुण भवेत् । तत् यदि खलु भदन्त ! प्रदेशिनो राज्ञो बहुगुणतरं भवेत् तदा तस्य स्वकस्यापि जनपदस्य-देशस्य बहुगुणतर योगक्षेमलक्षण भवेदिति ॥ मू० १२२॥
हुआ है। ये सब विशेषण १०१ मूत्र में कहे जा चुके हैं। वहीं पर उनका अर्थ भी लिख दिया है। 'बहुगुणतरम्' का तात्पर्य उस प्रदेशो राना को इस लोक एवं परलोक को सफल करनेरूप बहुगुण वाला अथवा दयादा. नादिरूप अत्यन्तगुण वाला होगा। दासीदास आदि द्विपद से, भृगादि चतुष्पद से, ग्राम्य गोमहिष आदि पशुपद से, भुजपरिसर्प गोधादिक, एवं उरः परिसर्प सादिक, सरीसृप पद से गृहीन हुए हैं। इन द्विपदादिकों का पालन रक्षणरूप बहुतरगुणवाला वह धर्मोपदेश होगा. शाक्यादिक श्रमण शब्द से ब्राह्मण माहन शब्द से, तथा भिक्षाजीवी भिक्षुक पद से लिये गये हैं। इन सबके लिये भिक्षालाभ एव संरक्षणादिरूप अतिशय गुण वाला वह धर्मोपदेश होगा ॥म.१२२॥
વગેરે વિશેષણોનું ગ્રહણ સમજવું જોઈએ. આ બધા વિશેષણે ૧૦૧ મા સૂત્રમાં माता छ. सनो मथ ५९ ते सूत्रमा २४ २५५८ ४२वामा मा०यो छे. 'बहगुणतरम' નો અર્થ આ પ્રમાણે છે કે તે ધર્મોપદેશ તે પ્રદેશ રાજાના માટે આ લેકને તેમજ પરલેકને સફળ બનાવવા રૂપ બહુગુણવાળે થશે અથવા તો દયા દાન વગેરે રૂપ અત્યંત ગુણવાળે થશે. દ્વિપદથી દાસી દાસ વગેરે ચતુષ્પદથી મૃગ વગેરે, પશુપદથી ગ્રામ્ય ગેમહિષ વગેરે, સરિસૃપ પદથી ભુજપરિસર્પ ગોધાદિક અને ઉરઃ પરિસર્પ– સર્પાદિકનું “સરીસૃપા પદથી ગ્રહણ થયું છે. આ દ્વિપદ વગેરેના માટે પાલન રક્ષણરૂપ બહુતર ગુણવાળે તે ધર્મોપદેશ થશે. શ્રમણ શબ્દથી શાકય વગેરે, મોહન શબદથી બ્રાહ્મણ તેમજ ભિક્ષપદથી ભિક્ષાજવીનું ગ્રહણ કરવામાં આવ્યું છે. આ સર્વના માટે સંરક્ષણ તેમજ ભિક્ષા લાભ વગેરેથી અધર્મોપદેશ અતિશય ગુણવાળો થશે. સૂ૦ ૧રરા
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राजप्रश्नीयसूत्रे मूलम्-तएणं से केसीकुमारसमणे चित्त सारहिं एवं वयासीएवं खलु चउहिं ठाणेहि चित्ता ! जीवे केवलिपन्नत्तं धम्म नो लभेजा, सवणयाए, तं जहा- आरामगय वा उजाणगयं वा समणं वा माहणं वा णो अभिगच्छइ णो वंदइ णो णमंसइ णो सकारेइ जो सम्माणेइ णो कल्लाणं मंगल देवय चेइय' पजुवासेइ, नो अदाइ हेऊइं पसिणाइ' कारणाइ वागरणाई पुच्छेइ, एएणं ठाणेणं चित्ता ! जीवे केवलिपन्नत्त धम्म नो लभइ सवणयाए । (१) उवस्सयगय समणं वा त चेव जाव एएणवि ठाणेणं चित्ता ! जीवे केवलिपन्नत्त धम्म नो लभइ सवणयाए । (२) गोयरग्गगयं समणं वा माहणं वा नो जाव पज्जुवासइ,नो विउलेणं असण.पाणखाइमसाइमेणं पडिलाभइ० नो अटाइ जाव पुच्छई, एएणं ठाणेणं चित्ता । जीवे केवलिपन्नत्त धम्म ना लभइ सवणयाए । (३) जत्थ वि णं समणेणं वा माहणेण वा सद्धि अभिसमागच्छइ तत्थवि ण हत्थेण वा वत्थेण वा छत्तेण वा अप्पाणं आवरित्ता चिटइ, नो अट्ठाई जाव पुच्छइ, एएणवि ठाणेण' चित्ता ! जीवे केवलिपन्नत धम्म णो लभइ सवणयाए, (४) एएहिं च ण चित्ता ! चउहि ठाणेहिं जीवे नो लभइ केवलिपन्नत्त धम्म सवणयाए । चउहि ठाणेहि चित्ता ! जीवे केवलिपन्नतं धम्म लभइ सवणपाए, तं जहा-(१) आरामगयं वा उजाणगयं वा समणं वा माहणं वा वंदइ नमसइ जाव पखुवासइ अटाइंजाव पुच्छइ, एएण ठाणेण चित्ता ! जीवे केवलिपन्नत धम्म लभइ सवणयाए । एवं [२] उवरसगयं० [३] गोयरग्गगयं समणं वा जाव पजुवासइ, विउलेणं जाव
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सुबोधिनी टीका सु. १२३ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशोराजवर्णनम् १३३ पडिलाभेइ अट्ठाई जाव पुच्छइ, एएण वि० (४) जत्थ वि य णं समजेण वा० अभिसमागच्छइ तत्थवि य णं णो हत्थेण वा जाव आवरेत्ता चिठेइ, एएणवि ठाणेणे चित्ता ! जाव केवलिपन्नत धम्मं लभइ सवणयाए । तुज्झं च णं चित्ता ! पएसी राया आरामगयं वा तंचेव संवं भाणियव्व आइल्लएणं गमएणं ज'व अप्पाणं आवरेत्ता चिटइ त कह ण चित्ता! पएसिस्स रन्नो धम्नमाइक्खिस्तामो? ॥सू०१२३॥
छाया-ततः खलु केशीकुमारश्रमणः चित्र मारथिम् एवमवादीत्-एवं खल चतुर्भिः स्थानः चित्र ! जीवः केवलिप्रज्ञप्त धर्म नो लमते श्रवणतायें, तद्यथा(१) आरामगत वा उद्यानगत वा श्रमण वो माहन वा नो अभिगच्छति, नो वन्दते. नो नमस्यति, नो सत्करोति, नो सम्मान यति. नो कल्याण मङ्गल दैवत चैत्य पर्युपास्ते. अर्थान हेतून प्रश्नान कारणानि पाकरणानि पृच्छति
'तए ण से केसीकुमारसमणे' इत्यादि।
सूत्रार्थ-(तए णं से) इसके बाद (केसीकुमारसमणे) केशीकुमारश्रमणने (चित्त सारहिं) चित्र सारथि से (एवं क्यासी) ऐसा कहा-(एवं खलु चर्हि ठाणेहि चित्ता! जीवे केवलिपन्न धम्मं नो लभेजा सवणयाए) हे चित्र ! जीव चार कारणों से केवलिप्राप्त धर्म को सुन नहीं सकता है। (तं जहाआरामगयं वा उजाणगय वा, समणं वा णो अभिगच्छइ, णो वंदइ, जो णमंसह, णो सकारेइ, णो सम्माणेड, कल्लाणं मंगलं देवयं चेइय पज्जुबासेइ) जैसे-आराम में आये हुए या उद्यान में आये हुए श्रमण के वा माहण के
'तए ण से केसीकुमारसमणे' इत्यादि।
सूत्रार्थ:-(त एण) त्या२ पछी (केसीकुमारसमणे) शोभा२प्रमाणे चित्त सारहि) यिसाथिने (एवं वयासी) मा प्रमाणे ४ह्यु. (एव खलु चाहिं ठाणेहिं चित्ता ! जीवे के वलिपन्नत्त धम्म नो लभेज्जा सवणयाए) 3यित्र !
4 या२ ॥२॥ो सीधे ही प्रत धर्म श्रम ४N Asो नथी. (त' जहाआरामगय वा उज्जाणगय वा, समणं वा माहणं वा णो अभिगच्छइ, णो वंदइ, णो णमंसइ, णो सक्कारेइ, गो सम्माणेइ, णो कल्लाणं मंगल देवयं चेश्य पज्जुवासइ) भ माराममा पधारेसा में धानमा ५याला अभय , भहानी
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राजप्रश्नोयसूत्रे एतेन स्थानेन चित्र ! जीवः केवलि प्रज्ञप्त धर्म नो लभते श्रवणताय । (२) उपश्रयगत श्रमण वा तदेव यावत् एतेनापि स्थानेन चित्र ! जीवः केवलि प्रज्ञप्त धर्म नो लभते श्रवणतायै । (३) गोचराग्रणत श्रमण वा माहन वा सन्मुख सत्कार आदि करने के निमित्त जो नहीं जाता है, मधुर वचनों से जो सुखशातादि प्रश्नपूर्वक उनकी स्तुति नहीं करता है, उनके समक्ष अपने मस्तक को जो नहीं झुकाता है, अभ्युत्थानादि द्वारा जो उनका सत्कार नहीं करता है, वसति आदि के देने से जो उनका सन्मान नहीं करता है, तथा कल्याणस्वरूप, मगलस्वरूप, धर्म देवस्वरूप मानकर एवं विशिष्टज्ञान वाला मानकर जो उनकी पर्युपासना नहीं करता है, (नो अट्ठाइ , हेऊई पसिणाई कारणाई', वागरणाई पुच्छेइ) अर्थ को-जीवाजीवादिक पदार्थों को, हेतुओं को-अन्यथानुपपत्तिरूप साधनों को, प्रश्नों को, कारणों को, व्याकरणों को, नहीं पूछता है, (एएणं ठाणेणं चित्ता ! जीवे केवलिपन्नत्त धम्म नो लभइ सवणयाए) इस कारण से हे चित्र ! जीव के वलिपजप्त धर्म को सुन नहीं सकता है। यह प्रथम कारण है। (१) (उवस्सगय समणं वातचेव, जाव एएणं वि ठाणेणं चित्ता! नोबे केलिपन्तत्तं धम्म नो लभइ सवयण याए) उपाश्रग में आये हुए श्रमण के सत्कार आदि करने के निमित्त जो उनके समक्ष नहीं जाता है यावत् उनसे व्याकरणों को नहीं पूछता है, ऐसा जीव. इस द्वितीय कारण से भी केवलि प्रज्ञप्त धर्म को सुन नहीं सकता है । (२) સામે જે સત્કાર વગેરે કરવા માટે જતો નથી, મધુર વચનોથી સુખશાતાદિ પ્રશ્નપૂર્વક તેમની સ્તુતિ કરતા નથી, તેમની સામે પિતાનું મસ્તક નમ્ર ભાવે નમાવતો નથી, અભ્યથાન વગેરે વડે જે તેમને સત્કારતો નથી, વસતિ વગેરે આપીને તેમનું સન્માન કરતું નથી તેમજ કલ્યાણ સ્વરૂપ, મંગળસ્વરૂપ, ધર્મદેવસ્વરૂપ માની અને વિશિષ્ટशान सपन्न मानीन तेमनी पथुपासना ४२तेनथी. (नो अट्ठाई, हेऊई, पसि णाइ', कारणाइ वागरणाइ, पुच्छेइ) अर्थान-७१ म वगेरे पहायाने, तु. माने मन्यथानु५५त्ति३५ साधनाने,प्रश्नाने ।२।ने, व्य४ि२णाने पूछतो नथी,(एएण ठाणेग चित्ता ! जीवे केवलिपन्नत्त धम्म'नो लभइ सवणयाम्) 8 थिa! All २४ने લીધે જ જીવ કેવલિ પ્રજ્ઞપ્ત ધર્મનું શ્રવણ કરી શકતો નથી. આ પહેલું કારણ છે. (૧) (उवस्सयगयं समर्ण वा तं चेव, जाव एए णं वि ठाणेण' चित्ता !जीवे केवलिपन्नत्तं धम्म नो लभइ सवणयाए) उपाश्रयमा धारेसा श्रमाय 3 भाशुने। સત્કાર વગેરે કરવા માટે જે તેમની સામે જ નથી. યાવત્ તેમને વ્યાકરણ વિષે પ્રશ્ન કરતો નથી. આ જાતને જીવ આ બીજા કારણથી પણ કેવલિપ્રજ્ઞપ્ત ધર્મનું
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सुबोधिनी टीका. १२३ सूर्यामदेवस्य पूर्व भव जीवप्रदेशिरजवर्णनम् १३५ नो यावत् फ्र्युपास्ते नो विपुलेन अशनपानवाद्यस्वाधीन प्रतिलम्पयति. नो अर्थात् यावत् पृच्छति, एतेन स्थानेन वित्र ! जीवः केवलिप्रज्ञप्त धर्म नो लभते श्रवणतायै । (४) यत्रापि खलु श्रमणेन वा माहनेन बा साद्धम् अभिसमागच्छति, तत्रापि खलु हस्तेन वा वस्त्रण वा छत्रेण वा आत्मानमावृत्य तिष्ठति, नो अर्थान् यावत् पृच्छनि एतेना. पि स्थानेन चित्र ! जीवः केवलिपज्ञप्तं धर्म नो लभते श्रवणताय, एतथ खलु चित्र ! चतुर्भिः स्थानीवः नो लभते केवलिप्रज्ञप्त धर्म श्रवणताय ।। (गोयरगागय' समणं वा माहणं वा नो जाव पज्जुवासई, नो विउलेण असणपाणवाइमसाइमेण पडिलाभइ० नो अट्ठाई जाव पुच्छइ एए ण ठाणेण चित्ता! जीवे केलिपन्नत्त धम्म ने लभइ सवणयाए) गोचरी के लिये-भिक्षा के लिये-गाँव में आये हुए श्रमण के या माहण का जो सत्कार आदि करने के निमित्त उनके समक्ष नहीं जाता है, यावत् उनकी पर्युपासना नहीं करता है. तथा विपुल अशत, पान, खाद्य, स्वाधरूप चार प्रकार के आहार द्वारा जो उन्हें पतिलाभित नहीं करता है, और जो अथ से लेकर व्याकरणतक उनसे नहीं पूछता है वह जीव हे चित्र ! इस तृतीय कारण से भी के बलिप्रजात धर्म को सुन नहीं सकता है (३) (जत्थ वि ण' समणेण वा माहणेण वा मद्धि अभिममागच्छइ. तत्थ विण हत्थेग वा वस्थेग वा छत्तण वा, अप्पाणं आवरित्ता चिट्ठइ, नो अट्ठाईजाव पुच्छइ. एरण वि० ठाणेण चित्त !जीवे केलिपन्नत धम्म गोलभइसबणयाए एएहि
चणं चित्ता! चउहि ठाणेहिं जोवे नो लमइ, केलिपन्नत्तं धम्म सवणयाए)इमी श्रवण ४२री २४तानथी. (२) (गोयरग्गगयं समण वा महणं वा नो जाव पज्जुवा. सइ, नो विउलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभइ० नो अट्ठाई जाव पुच्छइ एए ण ठाणेण चित्ता ! जीवे केलि पन्नत्त धम्म लभइ सवणयाए) गोयरी भाट-मिक्षा भाटे ॥i Udan श्वभर भाइ वगेरेन। સત્કાર વગેરે કરવા માટે જે તેમની સામે જતો નથી, યાવત્ તેમની પર્યું પાસના કરતે નથી, તેમજ વિપુલ અશન, પાન, ખાદ્ય, સ્વાદ્યરૂપ ચાર પ્રકારના આહારવડે તેમને પ્રતિલાભિત કરતું નથી અને જે અર્થથી માંડીને વ્યાકરણ સુધીના બધા વિષયેના બાબતમાં તેમને પ્રશ્નો પૂછતો નથી. ચિત્ર! તે જીવ આ ત્રીજા કારણવડે પણ पाल प्रज्ञा भानु श्रव९५ ४२१ शत। नथी (3) (जत्थ वि ण समणेणं वा माहणेणं वा सद्धिं अमिसमागच्छइ, तत्थ वि ण हत्थेण वा वत्थेण वा उत्तेण वा, अप्पाण प्रावरित्ता चिट्ठइ, नो अट्ठाइ जाव पुच्छइ, एएण वि ठाणेण चित्ता ! जीवः केवलिपन्नत्त धम्म णो लभइ सवणयाए एएहिं च ण चित्ता! चउहि ठाणेहिं जीवे नो लभइ, के वलि पन्नतं धम्म सवणयाए) मा प्रमाणे
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राजप्रश्नीयसूत्रे
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चतुर्भिः स्थानैः चित्र ! जीवः केवलिप्रज्ञप्त धर्म लभते श्रवणतायै, तयथा (१) आरामगत वा उद्यानगतं वा श्रमणं वा माहनं वा वन्दते नमस्यति यात्रत् पर्युपास्ते. अर्थात् यावत् पृच्छति, एतेन स्थानेन चित्र ! जीवः केवलिप्रज्ञप्त धर्म लभते श्रवणतायै, एवं (२) उपाश्रयगतम् । (३) गोचरा प्रगत' श्रवण' वा प्रकार जो श्रमण अथवा माहन के साथ संगत हो जाता है वहां पर भी यह भ्रमण अथवा माहन मुझ पहिचान न ले इस हेतु से जो अपने आपको हाथसे वा वस्त्र से या छत्र से आवृत कर लेता है एवं उनसे प्रश्नादि कुछभी नहीं पूछता हैं हे चित्र ! इस चतुर्थ कारण से भी जीव केवलिपज्ञप्त धर्म को सुन नहीं पाता है. (४) इस प्रकार हे चित्र ! ये चार कारण हैं कि जिनकी वजह से यह जीव केवलो भगवान् द्वारा कहे गये धर्म को सुन नहीं पाता ( चउहि ठाणेहिं चित्ता ! जीवे केन लिपन्नत्त धम्मंलभइ सवणयाए ) हे चित्र ! चार कारणों से जीव केवलज्ञप्त धर्म को सुन सकता है (तं जहाआरामगयं वा उज्जाणगयं वा समणं वा माहणं वा बंदर, नमसइ जाव पज्जुवास) वे चार कारण इस प्रकार से हैं-आरामगत या उद्यानगत श्रमण को या माहण की जो वंदना करता है नमस्कार करता है, यावत् उनकी पर्युपासना करता है (अट्ठाई जाव पुच्छह) अर्थों को यावत् पूछता है (एएण ठाणेण चित्ता ! जीवे के वलिपन्नत्तं धम्म लभइ सवणयाए) इस कारण को लेकर हे चित्र ! वह जीव केवलिप्रज्ञप्त धर्म को सुन सकता (१) है, एवं (उबस्सगय० ) इसी प्रकार जो जीव उपाश्रयों में आये हुए श्रमण
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જે શ્રમણુ કે માહણુની સામે આવી જતાં તે શ્રમણુ કે માહણ તેને ઓળખી લે નહિ તે માટે જે પોતાની જાતને હાથવડે, કે વસ્ત્ર વડે કે છત્રવડે છૂપાવી લે છે અને તેમને પ્રશ્ન વગેરે કઇ પૂછતા નથી હું ચિત્ર ! આ ચેાથા કારણથી પણ જીવ કેન્નલિ પ્રજ્ઞપ્ત ધર્મનુ શ્રવણુ કરી શકતા નથી.(૪) આ પ્રમાણે હું ચિત્ર! આ ચાર કારણેાને सीधे लब ठेवली भगवान वडे असा धर्मनुं श्रवायु पुरी शस्तो नथी. ( चउहिं ठाणेहि चित्ता ! जीवे केवलिपन्नत्तं धम्मं लभइ सवणयाए) चित्र ! आर अरशोथी व द्वेषसि-प्रज्ञ ेत धर्मनुं श्रवष्णु उरी डे छे. (तं जहा--आरामगयं वा उज्जाणमयं वा समणं वा माहणं वा, वंद, नमसइ जात्र पज्जुवासइ) ते ચાર કારણે। આ પ્રમાણે છે.—આરામમાં પધારેલા કે ઉદ્યાનમાં પધારેલા શ્રમણને કે माहाराने ने वहन रे ६ नमस्कार मेरे छे, यावत् तेमनी पर्युपासना रे छे. (अट्ठाई जात्र पुच्छइ) अर्थाने यावतू पूछे छे. (एएण ठाणेण चित्ता ! जीवे केवलि पन्नत्तं धम्मं लभइ सणयाए) भरने सीधे हे चित्र ! ते व ठेवसि अज्ञप्त
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सुबोधिना टोका. सू. १२३ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् १३७ यावत पर्युपास्ते, विपुलेन यावत् प्रतिलम्भर्यात. अर्थान यावत् पृच्छति, एतेनापि०, (४) यत्रापि च खलु श्रमणेन वा० अभिसमागच्छति तत्रापि च खलु नो हस्तेन वा यावत् आवृत्य तिष्ठति, एतेनापि स्थानेन चित्र ! जीवः केवलिप्रज्ञप्त धर्म लभते नवणताये, नव च खलु चित्र ! प्रदेशो राजा आराभगत वा तदेव सर्व भणितव्यम् आदिमेन गमकेन यावद् आन्मानमात्य तिष्ठति, तत्कथं खलु चित्र ! प्रदेशिने राज्ञे धर्ममाख्यास्यामः ? ।मु०१२३।। से या माहण से उनको वन्दना करता हुआ, नमस्कार करता हुआ, पयु. पामना करता हुआ अर्थो को यावत् पूछता है, ऐसा जीव केवलिमज्ञप्त धर्म को सुन सकता है. (२)(गोयरग्गगय समण वा जाव पज्जुवासइ, विउ. लेणं जाव पडिलाभेइ, अट्ठाई जाव पुच्छइ, एएण वि०) इसी प्रकार जो जीव गोचरीगतश्रमण की या माहण को यावत् पर्युपासना करता है, विपुल आहार से उन्हें प्रतिलाभित करता है, उनसे अर्थों को यावत् पूछता हैवह जीव केवलिप्रज्ञप्त धर्म को सुन सकता है, (३) (जत्थ वि य णं समणेण वा० अभिसमागच्छइ, तत्थ वि य ण णो हत्थेण वा जाव आवरेत्ता चिटई) जहां पर भी नमण या माहण के साथ संगत होता है वहां पर जो जीव अपने आप को हाथ से यावत् आवत छुपाता नहीं है ऐसा वह जीव इस चतुर्थ कारण को लेकर केवलिप्रज्ञप्त जिनधर्म का श्रवण कर सकता है (४) (तुज्झ च णं चित्ता! पएसी राया आरामगयं वा तं चेव सब्व भाणिथब्व आइल्लएणं गमएणं जाव अप्पाणं आवरेत्ता चिट्टइ तं कहं ण चित्ता! धनुश्रवणशश छ.(१) प्रभा (उम्सयगय०) मा प्रभारी ने 61શ્રેયમાં આવેલા શ્રમણોને કે માહોને વન્દન કરતા, નમસ્કાર કરતે, પર્યુંપાસના કરતે, અર્થોને યાવત્ પૂછે છે, એવો જીવ કેવલિપ્રજ્ઞપ્ત ધર્મનું શ્રવણ કરી श छे (२)गोयरग्गगयं समण वा जाव पज्जुवासइ, विउलेग'जीव पडिलाभेइ, अट्ठाइ जाव पुच्छइ, एएण वि.) मा प्रमाणे गायरी भाटे नाणेसा श्रममनी કે માહણની યાવત્ પ્રયપાસના કરે છે. વિપુલ આહારથી તેમને પ્રતિલાભિત કરે છે તેમને अ विष यावत् छे छे. वनिप्रज्ञतापमान श्र१९४२. (३) (जत्थ वियणं समणण वा अभिसमागच्छद तत्थ वि य णं णो हत्थेण वा जाव आवरेत्ता चिट्टे इ) श्रमण भडाए म त्यो भने तमाश्रीन ने पातानी जतन પિતાના હાથો વડે યાવત આવૃત કરતું નથી એ તે જીવ આ ચેથા કારણને લીધે उपाल प्राप्त नव श्रवण ४२ छ (४) (तुझं च णे चित्ता ! पएसी राया आरामगयं वा तं चेव सब भाणियब आइल्ल एण गमएण जाव
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राजप्रश्नीयसूत्रे टीका-'तरण केसी' इत्यादि
ततः खलु केशीकुमारश्रमणः चित्र सारथिम् एवं वक्ष्यमाणपकारेण अवादीत् उक्तवान्-हे चित्र ! एवं खलु त्वं विजानाहि, यत् चतुर्भिःस्थानः कारणैः जीवः केवलिमज्ञमतीर्थकदुपदिष्टं धर्म श्रवणताये-श्रोतु नो लभतेनो प्राप्नोति. तद्यथा-आरामगतम्-आराम: विविधपुष्पजात्युपशोभितः, तत्र गतप्राप्तवा, उद्यानगतम्-उद्यान पुष्पफलोपेतवृक्षोपशोभित बहुजनसेव्यम् उद्यानिकास्थान तत्र गत प्राप्त वा श्रमण साधु वा मानबतधारित श्रावक वा नो अभिगच्छति-सत्कारार्थ नो अभिमुखं याति, नो वन्दते पएसिस्स रन्नो धम्ममाइक्खिस्सामो ) हे चित्र ! तुम्हारा प्रदेशीराजा आराम आदिगत श्रमण के या माहण के न सन्मुख आता है यावत् न उनकी पर्युपासना करता है, इत्यादि प्रथम गम से लेकर वह चौथे गम तक युक्त बना हुआ है तो फिर मैं उसके लिये किस प्रकार से केवलिमज्ञप्त धर्म का उपदेश दू!
टीकार्थ-केशीकुमारश्नमणने चित्र सारथी से जो कुछ कहा है बह इस सूत्र द्वारा प्रकट किया गया है-इसमें यह समझाया गया है कि कौन जीव किन २ कारणों से केवलिमज्ञप्त धर्म सुन सकता है और कौन जीव किन २ हीं कारणों से उसे नहीं सुन सकता है. केवलिपज्ञप्त धर्म की अप्राप्ति में प्रथम कारण यह है कि श्नमण या माहण-१२ व्रतों का पालनकर्तागृहस्थ जब किसी उद्यान में-विविध पुष्पों से या फलों से युक्त वृक्षों से शोभित ऐसे अनेकजनसेव्य बगीचे में या आराम में-विविध प्रकार की अप्पाणं आवरेत्ता चिट्ठइ त कहं णं चित्ता! पएसिस्स रन्नो धम्ममाइ. क्खिस्सामो) मित्र ! तभा प्रशी २०1 माराम धानमा माता श्रम કે માહણની સામે સત્કારવા જતે નથી યાવત તેમની ૫ર્થપાસના પણ કરતું નથી અને આ પ્રમાણે તે પ્રથમ ગમથી માંડીને ચેથા ગામથી યુકત બને છે તે પછી હું તેને કેવલિપ્રજ્ઞપ્તધર્મનો ઉપદેશ કેવી રીતે આપું ?
ટીકાર્ય—કેશીકુમાર શ્રમણે ચિત્રસારથીને જે કઈ કહ્યું છે તે આ સૂત્ર વડે સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યું છે. આ સુત્રવડે આ પ્રમાણે સમજાવવામાં આવ્યું છે કે ક જીવ શા શા કારણેને લીધે કેવલિપ્રજ્ઞસ્ત ધર્મનું શ્રવણ કરી શકે છે અને જીવ શા શા કારણેથી તેનું શ્રવણ કરી શકતું નથી. કેવલિપ્રજ્ઞપ્ત ધર્મની અપ્રાપ્તિમાં પહેલું કારણ એ બતાવવામાં આવ્યું છે કે શ્રમણ કે માહણ-૧૨ વ્રતનું પાલન કરનાર ગૃહ-જયારે ગમે તે ઉદ્યાનમાં-વિવિધ પુથી કે ફળોથી યુક્ત વૃક્ષોથી શોભિત ચાનક જનસેવ્ય બગીચામાં કે આરામમાં--અનેક જાતની પુષ્પ જાતિઓથી યુકત
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सुबोधिनी टीका. सूत्र १२३ सूर्यामदेवस्य पूर्व भवजोवप्रदेशिराजवर्णनम् १३९ मधुरवचनैः सुखशातादिप्रश्नपूर्वक नो स्तौति, नो नमस्यति नतमस्तको न भवति, नो सत्कारयति अभ्युत्थादिना, नो सम्मानयति-वसत्यादिप्रदानेन, 'कल्याण मगल दैवत चैत्यम्' तत्र-कल्याण कल्याणस्वरूपम्, मङ्गलंमङ्गलस्वरूपम्, दैवत धर्मदेवस्वरूपम, चैत्य-चितिः विशिष्टज्ञान, तयायुक्त' विशिष्टज्ञानवन्त मत्त्वा नो पर्युपास्ते-नो सेवते. अर्थान हेतून प्रश्नान कारणानि व्याकरणानि नो पृच्छति । तत्र-अर्थान् जीवाजीवादिपदार्थान्, हेतू अन्यथानुपपत्तिरूपान्, जीवा देवादिगतिं कथं प्राप्नुवन्ति-इति स्वरूपान्. आत्मना सह कर्मणः कथं सम्बन्धो जायते ? इति रूपान् वा, प्रश्नान= संशयापनीदार्थ जीवाजावादिस्वरूप पन्छनविषयान, कारणानि='जीवस्य ज्ञानादि त्रय केन कारणेनोत्पद्यते?' इत्यादिरूपाणि, यहा-'चातुर्गतिलक्षणसंसारभ्रमणं
पुष्पजाति से युक्त स्थान में आया हुआ हो, तब उस समय जो जीव उनकी सस्कृति निमित्त उनके सामने नहीं जाता है, मधुर वचनों से उनकी सुखशाता नहीं पूछता है, उनकी स्तुति नहीं करता है, उनके पास नत. मस्तक नहीं होता है, अभ्युत्थान आदि क्रिया से उनका सत्कार नहीं करता है, वसति आदि प्रदान द्वारा कल्याणस्वरूप, मंगलस्वरूप, धर्म देवस्वरूप, एवं विशिष्ट ज्ञानयुक्त उन्हे मानकर जो उनकी सेवा नहीं करता है. उनसे अर्थों को-जीवाजीवादि पदार्थो को, अन्यथानुपपत्तिरूप हेतु को, जैसे कि जोव देवादिगति में कैसे जाते हैं अथवा-आत्माके साथ कर्मो का संबंध होता है ऐसे हेतु को.-मश्नों को-संशयादिकों को दूर करने के लिये जीव अजीव
आदि के स्वरूप को पूछनेरूप पश्नों को जीवको ज्ञानादित्रय किस कारण से उत्पन्न होते हैं इत्यादिरूप कारणों को, अथवा चतुर्गतिरूप संसारभ्रमण किम कारण से होता है? इत्यादिरूप कारणों को, पृष्ट क-जीवादिक के स्वरूप में
સ્થાનમાં આવેલા હોય, ત્યારે તે સમયે જે જીવ તેમના સત્કાર માટે તેમની સામે જતો નથી, મધુર વચને વડે તેમની સુખ શાતા પૂછતો નથી, તેમની સ્તુતિ કરતો નથી, તેમની સામે નમ્રભાવે મસ્તક નમાવત નથી અદ્ભુત્થાન વગેરે ક્રિયાથી તેમને સત્કાર કરતું નથી, વસતિ વગેરે આપીને તેમને કલ્યાણ સ્વરૂપ, મંગલસ્વરૂપ, ધર્મદેવસ્વરૂપ, અને વિશિષ્ટ જ્ઞાનયુકત માનીને જે તેમની સેવા કરતે નથી, તેમને અર્થોને જીવાજીવાદિ પદાર્થોને, અન્યથાનુ૫૫ત્તિરૂપ હેતુને, જેમકે જીવ દેવાદિ ગતિ કેવી રીતે મેળવે છે કે આત્માની સાથે કર્મોને સંબંધ હોય છે એવા હેતુને, પ્રશ્નને–સંશયવગેરેને દૂર કરવા માટે જીવ અજવ વગેરેના સ્વરૂપને જાણવા બાબતના પ્રશ્નને જ્ઞાનાદિત્રય જવને કેવી રીતે પ્રાપ્ત થાય છે વગેરે રૂપ કારણેને, અથવા તે ચતુર્ગતિ
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राजप्रश्रीयसूत्रे केन कारणेन भवति' इत्यादि रूपाणि, व्याकरणानि-पृष्टस्य जीवादिस्वरूपस्य उत्तरतया प्रश्नान्तरकरणरूपाणि, तानि नो पृच्छति-एतेन स्थानेन-कारणेन चित्र ! जीवः केवलिपज्ञप्तधर्म श्रवणतायै श्रोतु नो लभते-इति प्रथम स्था नम् । द्वितीयमाह-उपाश्रयगतम्-उपाश्रयो वसतिः, तत्र गत श्रमण वा, इतो ऽग्न-'माहन वा' इत्यारभ्य 'व्याकरणानि पृच्छति' इत्यन्तः सकलोऽपि पूर्वोक्तः पाठो ग्राह्यः अमृमेवार्थ मुचयितमाह-तचेव जाव' इति । हे चित्र ! एतेनाऽपि स्थानेन कारणेन जीवः केवलिप्रज्ञप्त धर्म श्रवणतायै श्रोतुं नो लभते इति द्वितीय स्थानम्। तृतीयमाह-गोचराग्रगत ==भिक्षार्थ ग्रामाभ्यन्तरे प्रविष्ट श्रमणं वा माहनं वा नो 'यावत्' यावत्पदेन-'अभिगच्छति, नो वन्दते, नो
प्राप्त किये गये उत्तर में पुनः प्रश्नान्तर करनेरूप व्याकरणों को, नहीं पूछता है, इस कारण से जोव केवलिप्रज्ञप्त धर्म को सुन नहीं सकता है-इस प्रकार से यह प्रथम स्थान का निरूपण है। द्वितीयस्थान का कारण निरूपण इस प्रकार है-उपाश्रय-में जाकर श्वमण को, अथवा माहण को. जो जीव माप्त करके यावत् व्याकरणों को नहीं पूछता है, हे चित्र ! इस कारण से भी जीव केवलिप्रज्ञप्त धर्म को सुन नहीं पाता है, यहां 'त चेव यावत्' पद से 'माहन वा' यहां से लेकर व्याकरणानि पृच्छति' वहां तक का सम्पूर्ण पाठ ग्रहण किया गया है। इसी अर्थ की सूचना 'त चेन जाव' पद से दी गई है। तृतीयस्थान इस प्रकार से है-श्रमण या माहन भिक्षा के लिये ग्राम के भीतर आया हो, परन्तु जो जोव उनके समक्ष नहीं जाता है, उनको वन्दना नहीं करता है उन्हें नमस्कार नही करता है. उनका રૂપ સંસારભ્રમણ શા કારણથી હોય છે વગેરે રૂપ કારણોને, પૃષ્ઠ જીવાદિકના સ્વરૂપ વિષે જે ઉત્તર આપવામાં આવે તે વિષે ફરી સામે પ્રશ્નોત્તર કરવા રૂપ વ્યાકરણને પૂછતું નથી, આ કારણથી જીવ કેવલિ પ્રજ્ઞસ ધર્મનું શ્રવણ કરી શકતો નથી. આ પ્રમાણે આ પ્રથમ સ્થાનનું નિરૂપણ છે. દ્વિતીયસ્થાનના કારણનું નિરૂપણ આ પ્રમાણે છે. ઉપાશ્રયમાં જઈને શ્રમણને કે માહણને પ્રાપ્ત કરીને જે જીવ યાવત્ વ્યાકરણને પૂછતો નથી. હું ચિત્ર ! આ કારણથી પણ જીવ કેવલિપ્રજ્ઞપ્ત ધર્મનું શ્રવણ કરી शता नथी. मी "त चेव यावत्' ५४थी 'माहन ना' माथी भांडने 'व्याकरणानि पृच्छति" ही सुधाना संपूर्ण पा8 अ५ ७२वामा भाव्या छ. मेरी मर्थने त चेव जाव' ५४थी सूस्थित ४२१ामा भाव्यो छे. तृतीय स्थानमा प्रभारी છે.-શ્રમણ કે માહણ ગેચરી માટે-ભિક્ષા માટે-ગામમાં આવેલા હોય એવી પરૂિ સ્થિતિમાં જે જવ તેમની સામે જતું નથી, તેમને વંદન કરતું નથી તેમને નમસ્કાર
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सुबोधिनी टीका सू १२३ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशोराजवर्णनम्
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नमस्यति, नो सत्कारयति, नोस मानयति, नो कल्याणं मङ्गल दैवत चैत्यम्, इति संग्राह्यम् पर्युपास्ते, तथा विपुलेन=प्रचुरेण अशनपानखाद्यस्वायेंन= अशनादिना चतुर्विधेनाद्वारेण नो प्रतिलम्भयति - अशनादिकं श्रमणाय माहनाय वा नो ददाति अर्थात् यावत् - ' यावत्पदेन - हेतून् प्रश्नान् कारणानि व्याकरणानि ' इति संग्राह्यम् नो पृच्छति । एतेन = उपयुक्तन कारणेन हे चित्र ! जीवः केवलिप्रज्ञप्त धर्म श्रवणतायै श्रोतु नो लमते इति तृतीय स्थानम् ३। चतुर्थस्थानमाह-यत्रापि = यस्मिन् कस्मिंश्चिदपि स्थाने खलु श्रम णेन= साधुना वा महानेन = द्वादशत्रतधारिणा वा स र्द्ध=सह अभिसमागच्छति= संगतो भवति, तत्रापि स्वलु 'अयं श्रमणो वा माहनो वा मां न परिचिनुयात्' इति हेतो: आत्मानं स्वहस्तेन वा वस्त्रोण वा छत्रेण वा आवृत्य = आच्छाद्य तिष्ठति नो अर्थात् यावत् पृच्छति । एतेनापि स्थानेन = कारणेन चित्र ! जीवः
सत्कार और सन्मान नही करता है, तथा कल्याणरूप, मंगलरूप, धर्मदेवरूप मानकर तथा विशिष्टज्ञानयुक्त मानकर उनकी सेवा नहीं करता है. तथा विपुल - प्रचुर - अशन, पान खाद्य, स्वाधरूप चतुर्विध आहार से उन्हें प्रतिलाभत नहीं करता है, अर्थात् श्रमण के लिये माहन के लिये जो चतुर्विध आहार नहीं देता है, एवं अर्थों को, हेतु को, प्रश्नों को, कारणों को तथा व्याकरोणों को उनसे नहीं पूछता है इस उपर्युक्त कारण से हे चित्र ! जीव के लिमज्ञप्त धर्म को नहीं सुन सकता है। चतुर्थस्थान इस प्रकार से है चाहे जिस किसी भी स्थान में साधु या माहन - १२ व्रतधारी श्रावक के साथ संगत हो जावे परन्तु वहाँ पर भी वह जीव अपने आपको हाथ से, या वस्त्र से, या छत्र से ढक लेता है इस ख्याल से कि महाराज मुझे पहिचान न ले और न उनसे अर्थादिकों
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કરતા નથી, તેમનું સન્માન અને સત્કાર કરતા નથી તેમજ તેમનું કલ્યાણુરૂપ મંગળરૂપ, ધદેવ સ્વરૂપ માનીને તથા વિશિષ્ટ જ્ઞાનયુકત માનીને તેમની સેવા કરતા નથી તેમજ વિપુલપ્રચુર અશન, પાન, ખાદ્ય, સ્વાદ્યરૂપ ચતુવિધ આહાર વડે તેમને પ્રતિલાભિત કરતા નથી એટલે કે શ્રમણને કે માહણને જે ચતુર્વિધ આહાર આપતા નથી તથા અર્થાને, હેતુઓને પ્રશ્નોને કારણેાને તથા વ્યાકરણેાને તેમને પૂછતા નથી આ ઉકત કારણથી હું ચિત્ર ! જીવ કેલિપ્રજ્ઞપ્ત ધર્માંનું શ્રવણ કરી શકતા નથી ચતુર્થાં સ્થાન આ પ્રમાણે છે—ગમે તે સ્થાને સાધુ કે માહુન-૧૨ વ્રતધારી શ્રાવક મળે ત્યારે જે જીવ પેાતાની બ્બતને મહારાજ અમને એળખી લે નહિ તેવા વિચારથી હાથવડ, કે વવડ, કે છત્રવડ સતાડી દે છે અને તેમને અર્થાદકો વિષે પણ પૂછતા નથી
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राजप्रश्नीयसूत्रे केवलिमज्ञप्त' धर्म मणतायै श्रोतु न लमते-इति चतुर्थ स्थानम् ४। सम्प्र. न्युपसंहरन्नाह-एतैश्चतुर्मिः स्थानः खलु चित्र ! जीवः केवलिप्रज्ञप्त धर्मश्रवणतायै श्रोतुं न लभते-इति।
इत्थ केवलिपज्ञप्तस्य धर्मस्यालाभे चतुर्विध कारणमुक्तवासम्पति तल्लाभे चतुर्विध कारणमाह-चर्हि' इत्यादि ।
__ हे चित्र ! चतुर्भिः स्थानः कारणैः जीवः केवलिपज्ञप्तं धर्म श्रवणतायै-श्रोतुं लभते, तद्यथा-'आरामगतं वा' इत्पादि । केवलिमज्ञप्तधर्मालामे यानि चत्वारि स्थानानि पोक्तानि, तान्येवात्र परीत्येन विज्ञेयानीति। को पूछता है-तो ऐसा जीव इस कारण से भी केवलिप्रज्ञस धर्म को सुन नहीं पाता है. अब केशीकुमारश्रमण उपसंहार करते हुए कहते हैं कि हे चित्र ! जीवको धर्मलाभ होने में ये चार कारण बाधक हैं। इनके होने से जीव को केवलिमज्ञप्त धर्म की प्राप्ति नहीं होती है। __ इस तरह केवलिपक्षप्त धर्म के अलाम में चतुर्विध कारण कहकर अब केशीकुमार श्रमण उसका लाभ होने में चार कारणों का कथन करते हैं 'चउहिं ठाणेहिं' हे चित्र! चार कारणों से जीव केवलिप्रज्ञप्त धर्म को सुनता है अर्थात् केवलिपज्ञप्त धर्म के अलाभ में जो चार कारण प्रकट किये गये है, वे ही चार कारण विपरीतरूप से आचरिन होने पर जीव के लिये धर्मलाभ के कारण हो जाते हैं यही बात १ आरामगय वा उन्नाणगय वा' इत्यादि चार मूत्रपाठ द्वारा प्रकटकिया है।
તે આ જાતનો જીવ પણ આ કારણથી કેવલિપ્રાપ્ત ધર્મનું શ્રવણ કરી શકતે નથી. હવે કેશીકુમાર શ્રમણ ઉપસંહાર કરતાં કહે છે કે હે ચિત્ર! જીવને ધર્મલાભની પ્રાપ્તિમાં આ ચાર કારણો વિષ્ણરૂપે નડે છે. આ સર્વથી જીવને કેવલિપ્રજ્ઞપ્ત ધર્મની પ્રાપ્તિ થતી નથી.
આ પ્રમાણે કેવલિપ્રજ્ઞપ્ત ધર્મના અલાભ સંબંધી ચાર કારણોનું વિવેચન કરીને હવે કશીકુમાર શ્રમણ કેવલિ પ્રાપ્ત ધર્મના લાભ માટે જે ચાર કારણે છે તેમનું ४५न ४२ता ४ छ:-"चउहि ठाणेहि" उa ! या२ ॥२॥थी ७१ सिप्रज्ञात ધર્મનું શ્રવણ કરે છે. એટલે કે કેવલિપ્રજ્ઞપ્ત ધર્મના અલાભમાં જે ચાર કારણે બતાવવામાં આવ્યાં છે, તેજ ચારેચાર કારણે વિપરીત રૂપમાં આચરવામાં આવે તો तेल या२ १२णी धाम भाटे पयोगी लय छे. मे बात "१ आरामगयं वा उज्जाणगय वा" वगैरे यार सूत्रो ५४ प्रगट ४२वामी मावी छे.
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सुबोधिनी टीका' सू. १२३ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् १४३
इत्थ केवलिप्रज्ञप्तधर्मलाभालाभयोः कारणान्युत्तवा सम्प्रति कवलिप्रज्ञप्त. धर्मालामे यानि कारणानि सन्ति तद्विशिष्ट एव प्रदेशी राजाऽस्ति स कथ मया धर्मआख्येयः ? इति केशिकुमारश्रमणश्चित्र' सारथिमाह-तुज्झ' च गं चित्ता! पएसी राया' इत्यादि । हे चित्र ! तत्वदीयश्च खलु प्रदेशी राजा पारामगतं वा, 'तं चेव सव्व भाणियच आइल्लएणं गमएणं जाव अप्पाणं आवरेत्ता चिट्ठः' इति पाठेन तदेव सर्व गमकजातं भणितन्याम् केन गमकेन ! इत्याह-'आइल्लएणं' इति आदिमेन गमकेनालापकेन 'उजाणगय वा' उद्यानगतं वा, इत्यारभ्य 'अप्पा आवरेत्ता चिट्ठई' आत्मानमात्य तिष्ठति इति पर्यन्तं भणितव्यम् । एवं विधत्वदीयः प्रदेशी राजाऽस्ति, तत्कथ =केन प्र. कारेण खलु चित्र ! एव विधाय त्वदीयाय प्रदेशिने राज्ञे वय धर्मम् आख्या. स्याम:उपदेश्याम इति ॥ सू० १२३ ॥
मूलम्-"तएणं से चित्त सारही केसिकुमारसमण एवं वयासी एवं खलुभंते ! अण्णया कयाई कंबोएहिं चत्तारि आसा उवणयं उवणीया, ते मए पए सिस्स रण्णो अन्नया, चेव उवणीया तं एएणं खलु भंते ! कारगोणं अहं पएसिं रायं देवाणुप्पियाणं अंतिए हव्वमाणेस्लामि, तंमा णं देवाणुप्पिया! तुम्भे पएसिस्स रन्नो धम्ममाइक्खमाणा गिलाएजाह,
___ इस तरह धर्म अप्राप्ति और धर्म प्राप्ति के कारणों को कहकर अब केशीकुमारश्रमण चित्र सारथी के प्रति यह प्रकट कर रहे है कि प्रदेशो राजा केवलिपज्ञप्त धर्म के अपाप्ति के कारणों से विशिष्ट है अतः मैं उसे किस प्रकार से धर्म का उपदेश दू. यही बात केशोकुमारशमण चित्र सारथि से यहां से आगे कहते हैं. 'तुज्झ च णं चित्ता। पएसी राया' इत्यादि मूलार्थ में टीका के अनुसार ही इस सब पाठका अर्थ लिख ही दिया गया है। अतःपुनः यहां नहीं लिखा है ।सू० १२३॥
આ રીતે ધર્મ અપ્રાપ્તિ અને ધર્મ પ્રાપ્તિના કારણનું સ્પષ્ટીકરણ કરીને હવે કેશીકુમાર શ્રમણ ચિત્રસારથીની સામે આ વાત કહે છે કે પ્રદેશ રાજા કેવલિ પ્રાપ્ત ધર્મના અપ્રાપ્તિના કારણોથી યુકત છે. એથી હું તેને કેવી રીતે ધર્મનો ઉપદેશ કરૂં. मे वात शिशुभा२श्रमायु यत्रसारथीने भा प्रभारी ४. छे-"तुज्झ च णं चिना! पएसी राया" वगेरे भाभा टीआय प्रभारी ४ मा प्रधान विषय ४२१/માં આવ્યું છે. એથી અહીં ફરી અર્થ લખવામાં આવ્યું નથી. સુ. ૧૨૩
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अगिला णं ते! तुब्भे पए सिस्सरपणो धम्ममाइक्खेजाह, छंदेण भंते! तुभे एसिस्स रण्णो धम्ममाइक्खेज्जाह । तएवं से केसी कुमारसमणे चित्तं सारहिं एवं वयासी आवीयाइ' चित्ता ! जाणिस्तानो । तसे चित्ते सारही केसि कुमारसमणं वंदइ नमसइ जेणेव चाउ ग्धटे आसरहे तेणेव उवागच्छड़, चाउग्घंट आसरहं दुरूहइ, जामेव दि पाउ भए तामेव दिस पडिगए ॥ सू० १२४ ॥
छाया - ततः खलु स चित्रः सारथि केशिकुमारश्रमण मेवमवादीत् - एवं खलु भदन्त । अन्यदा कदाचित् काम्बोजैः चत्वारः अश्वाः उपनयमुपनीताः ते मया प्रदेशिने राज्ञे अन्यदैव उपनीताः, तद् एतेन खलु भदन्त ! कार णेन अह प्रदेशिन राजान' देवानुप्रियाणामन्तिके हव्यमानेच्या म । तत मा खलु देवानुप्रिया ! यूयं प्रदेशिने राज्ञे धर्म माख्यान्तो ग्लायत, अग्लानाः
'तणं से चित्ते सारही' इत्यादि ।
मुत्रार्थ - (तए णं) इसके बाद (से चित्ते सारही) वह विव सारथि (केसि कुमारसमण एवं वयासी) केशी कुमारश्रमण से ऐपा बोला ( एवं खलु भ'ते ! अण्णया कयाइ कंबोएहिं चत्तारि आमा उवणयं उवणीया ) हे भदन्त ! किसी एक समय कम्बोजदेशवासियोंने चार घोडे भेटरूप में भेजे थे (ते मए एसिम्स रण्णो अष्णयाचेत्र उवणीया उसे मैंने प्रदेशी राजा के समक्ष भेंट में उसी दिन दे दिया (एए गं खलु भते ! कारणेण अह परसिं राय देवाणुपियाण अंतिए हव्वमाणेस्सामि) अतः इस कारण से हे भदन्त ! मैं प्रदेशी राजाको आप देवानुप्रिय के पास बहुत हो शीघ्र
'न एणं से चित्ते सारही' इत्यादि ।
सूत्रार्थ - ( त एणं) त्यार पछी (से चित्ते सारही) ते चित्र सारथिये के सिकुमारमण एवं वयासी) शीकुमार श्रमाने या प्रमाणे विनंती करतां धु - ( एवं खलु भते ! अष्णयो कया कंबोएहिं चत्तारि आसा उवणय उवणीया) हे लह'त ! अध मे वसते देशवासी थे। यार घोडाओ। प्रदेशी रामने लेट मोडल्या हता. (ते मए पएसिस्स रण्णो अष्णया चेव उवणीया ) ते घोडामाने में अदेशी शब्द सामे लेट३यमां अर्पित उरी हीधा छे. (त एएण खलु भंते! कारणेण अहं पएस राय देवाणुपियाण अतिए हब्वमाणेस्सामि) એથી હુ ભદત! પ્રદેશી રાજાને આપ દેવાનુપ્રિયની પાંસે જલ્દી જ ઉપસ્થિત કરીશ,
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सुबोधिनी टीका सू. १२४ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् १४५ खलु भदन्त ! यूय प्रदेशिने राज्ञे धर्ममाख्यात, छन्देन भदन्त ! यूय प्रदेशिने राज्ञे धर्ममारूयात । ततः खलु स के शीकुमारश्रमणः चित्रं सारथिमेवमवादीत्-अपि च चित्र ! ज्ञास्यामः । ततः खलुस चित्रः सारथिः केशिन कुमारश्रमण वन्दते नमस्यति, यत्रैव चातुर्घण्ट: अश्वरथः तत्रैवो लाऊंगा (तमा ण देवाणुप्पिया! तुम्भे पएसिस्स रन्नो धम्ममाइक्खमाणा गिलाएजाह) तो आप हे देवानुप्रिय ! प्रदेशी राजा को जिनोक्त धर्म का उपदेश करते समय ग्लानि मत करना (अगिलाए ण भते! तुब्भे पए. सिस्म धम्ममाइक्खे जाह) प्रत्युत अग्लानिभाव से ही हे भदन्त ! आप प्रदेशी राजा को धर्म का उपदेश करना (छंदेण भते! तुब्भे पएसिस्स रण्णो धम्ममाइकखेजाह) तथा आप अपनी इच्छा के अनुसार ही हे भदन्त ! प्रदेशो राजा को धर्म का उपदेश देना. उसकी इच्छा के अनुसार नहीं (तए ण से केसीकुमारसमणे चित्तंसारहि एवं वयासी) तब उन केशी. कुमारश्रमणने चित्र सारथि से ऐसा कहा-(अवियाइ चिता जाणिस्सामो) हे चित्र ! अघसर आने पर देखा जावेगा. आप के कथनानुसार उसे धर्मोपदेश देने का मेरा भाव तो है। (तए ण से चित्ते सारही केसिं कु. मारसमण बंदइ, नमसइ, जेणेव चाउम्पटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ) इसके अनन्तर चित्र सारथिने केशीकुमारश्रमण को बन्दना की, नमस्कार किया, और फिर वह जहां चार घंटोंवाला अश्वरथ था वहां पर आया (न माण देवाणुपिया! तुम्भे पएसिस्स रन्नो धन्ममाइक्खमाणा गिलाए ज्जाह) ताइवानुप्रिय ! मा५श्री ते घशी ने मनात धमनी पहेश ४२ai aur. मनुमा नहि. (अगिलाए ण भते ! तुम्भे पएसिस्स रन्नो धम्ममाइक्खेज्जाह) ५२ मत ! २५श्री ते प्रशी ने मसानिमाथी । धर्भपिश ४२।।. (छ देण भाते! तुन्भे पएसिस्स रण्णो धम्ममाइक्वखेज्जाह) તેમજ હે ભદંત ! આપશ્રી પિતાની ઈચ્છા મુજબ જ પ્રદેશ રાજાને ધર્મોપદેશ કરશે. तेनी छ। प्रभारी नहि. (तएण से कोसीकुमारसमणे चित्तं सारहिं एवं वयासी) त्यारे ते उशीमा२ श्रमणे ते यत्रसाथिने -AL प्रमाणे ४ह्यु. (अवियाई चित्ता जाणिस्सामो) चित्र ! यित भवस२ मावशे त्यारे न शु तभी
छ। ते भु भारी पशु तेभने उपदेश ४२वानी भावना छ . (त एण से चित्ते सारही केसि कुमारसमण वदइ, नमसइ, जेणेव चाउग्घटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ) त्या२ पछी चित्रसाथिये शिशुभारश्रमाने बहना ४३श नम२४.२ ४ा भने पछी ते यार बाथी युत २५१३२५ तो. त्या माव्या. (चाउग्घंटे
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१४६ पागच्छति, चातुर्घण्टमश्वरथ दूरोहति, यामेव दिश प्रादुर्भूतः तामेव दिश प्रतिगतः ॥ मू. १२४ ।।।
टीका-'तए ण से चित्ते' इत्यादि-ततःखलु म चित्रः सारथि:केशि कुमारश्रमणमेवमवादोत-एव खलु हे भदन्त ! अन्यदा कदाचित् = कस्मिंश्चित् काले काम्बोजैः कम्बोजदेशवासिभिः चत्वारः चतुःसख्यकाः अश्वाः उपनयमाभृतम् उपनीताः प्रापिताः, प्राभृतत्वेन दत्ता इत्यर्थः, ते मया अन्यदैव-तस्मिन्नेव काले प्रदेशिने राज्ञे उपनीताः तदेतेन कारणेन खलु हे भदन्त ! अह प्रदेशिन राजान देवानुप्रियाणां भवताम् अन्तिके समीपे हब्य शीघ्रम् आनेष्यामि, तत्-तदा हे देवानुप्रियाः ! प्रदेशिने राज्ञे धर्म - जिनोक्तम् आख्यान्तः कथयन्तः सन्तो यूयं मा ग्लायत-ग्लानि मा भजत, एतावदेव न प्रत्युत छन्देन-स्वकीयाभिप्रायेण यथेच्छमित्यर्थः हे भदन्त ! यूय प्रदेशिने राज्ञे धर्मम् आख्यात कथयत । ततः चित्रसारथेः कथना(चाउग्घट आसरह दुरुहइ, जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए) वहां आकर वह उस चारघंटों वाले अश्वस्थपर सवार हो गया और जिस दिशा से आया था, उसी दिशा की ओर चला गया ।
टीकार्थ-चित्र सारथिने के शीकुमारश्रमण से ऐसा कहा- हे भदन्त ! किसी एक समय मेरे पास कब्बोजदेशवासियों द्वारा भेजे गये ४ घोडे प्रदेशी राजा के लिये भेटरूप में आये थे सो मैने उसी दिन वे घोडे प्रदेशी राजाके लिये शिक्षित कर दिये इस तरह हमारी उनकी परस्पर में प्रीति है. इसलिये मै चाहता हूं कि आप उसे जिन प्रतिपादित धर्म का उपदेश देवें मैं उसे आपके पास शीघ्र ही ले आऊंगा, उपदेश देने में आप किसी भी प्रकार का संकोच न करें. अपनी इच्छा के अनुसार धम आसरह दुरुहइ जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिमि पडिगए) त्यां पड़ा थाने તે પિતાના ચાર ઘટવાળા અશ્વરથ પર સવાર થઈ ગયો અને જે દિશા તરફથી તે આવેલ હતો તેજ દિશા તરફ પાછો જતો રહ્યો.
ટીકાર્થ – ચિત્રસારથિએ કેશીકુમારશ્રમણને આ પ્રમાણે કહ્યું- હે ભદંત! કઈ એક વખતે મારી પાસે કબજ દેશવાસીઓએ રાજાને ભેટમાં આપવા માટે ઘોડાઓ મોકલ્યા હતા. તેજ દિવસે તે ઘોડાઓને પ્રદેશી રાજાને મે અર્પિત કરી દીધા. આમ તેમની અમારી સાથે મિત્રતા છે. એથી જ હું ઈચ્છું છું કે આપશ્રી તેમને જિન પ્રતિપાદિત ધર્મનો ઉપદેશ કરે. તેમને હું આપશ્રીની પાસે જલદી લાવીશ. ઉપદેશ આપવામાં આપશ્રી પિતાની ઈચ્છા મુજબ ધર્મની વાતો પ્રદેશી રાજાને સંભળાવજે.
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सुबोधिनी टीका सु. १२४ सूर्याभदेवस्य पूर्वनवजीवप्रदेशोराजवर्णनम् १४७ नन्तरं खलु केशीकुमारश्रमणः चित्र सारथिम् एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत्-अकथयत-'अविआई" अपि च हे चित्र ! ज्ञास्थामः अवगमिष्याम: यथावसरं करिष्याम इत्यर्थः, त्वत्कथनानुसारेण करणस्य मम भावो वर्नत इत्याशयः ! ततः खलु स चित्रः सारथिः केशिनं कुमारश्रमणं वदन्ते नमस्यति चातुर्घण्टाश्वरथसमीपे समागत्याश्वरथमारोहति, यामेवदिशं समाश्रित्य प्राद. भूतः समागतः तामेवदिशं प्रतिगता प्रस्थितः ॥मू० १२४॥
मूलम्--तएणं मे चित्ते सारही कल्लं पाउपभायाए रयणीए फुलप्पलकमलकोमलुम्मिलियम्मि अहापंडुरे पभाए कयनियमावस्सए सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलंते साओ गिहाओणिग्गच्छइ, जेणेव पएसिस्स रन्नो गिहे जेणेव पएसी राया तेणेव उवागच्छइ, पएस रायं करयल-जाव कटु जएणं विजएणं वद्धावेइ, एवंवयासीएवं खलु देवाणुप्पियाणं कंबोएहिं चत्तारि आसा उवणयं उवणीया ते य मए देवाणुप्पियाणं अण्णया चेव विणइया, तं एएणं सामी! ते आसे आइटिए पासइ । तएणं से पएसी राया चित्तं सारहि एवं वयासी-गच्छाहि णं तुमं चित्ता ! तेहिं चेव चउहिं आसेहिं आसरहे जुत्तामेव उवटुवेहि जाव पञ्चप्पिणाहि । तएणं से चित्ते सारही पएकी बाते उसे सुनावे. चित्र सारथि का इस प्रकार कथन सुनकर केशीकुमारश्रमणने उससे ऐसा कहा-चित्र ! समय आने पर देखा जावेगा. मेरा भाव अयश्य ऐसा हुआ है कि मैं उसे जिनेन्द्रप्रतिपादित धर्म का उपदेश दू। केशीकुमारश्रमण की इस प्रकार की भावना जानकर चित्र सारथिने उनको वन्दनादिकिये और फिर अपने रथ पर सवार होकर अपने स्थान पर वापिस हो गया, ॥ म० १२४ ।।
ચિત્રસારથિનું આ પ્રમાણે કથન સાંભળીને કેશીકુમાર શ્રમણે તેને આમ કહ્યું કે હે ચિત્ર ! ઉચિત અવસર આવશે ત્યારે જોઈ લઈશુ... મારી એવી ઈચ્છા છે કે હું તેને જિતેંદ્ર પ્રતિપાદિત ધર્મને ઉપદેશ કરૂં. કેશીકુમાર શ્રમણની આ જાતની ભાવના જાણીને ચિત્રસારથિએ તેમને વન્દન કર્યા અને ત્યારપછી પિતાના રથ પર સવાર થઈને પિતાના નિવાસસ્થાને પાછો આવતો રહ્યો. સ. ૧૨૪
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____ राजप्रश्नीयसूत्र सिणा रन्नो एवं वुत्ते समाणे हट्टतुट जाव-हियए उवटुवेइ एयमाणत्तिय पञ्चप्पिणइ । तएणं से पएसी राया चित्तस्स सारहिस्स अंतिए एयमटुं सोचा णिसम्म हटतुट-जाव अप्पमहग्घाभरणालकियसगरे साओ गिहाओ णिग्गच्छइ, जेणामेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ, चाउग्घंटं आसरहं दूरुहइ, सेयवियाए नयरीए भज्झंमझेणं णिग्गच्छइ । तएणं से चित्ते सारही त रह णेगाइ जोयणाइ उभामेइ । तएणं से पएसी राया उण्हेण य तण्हाए य रहवाएण य परिकिलंते समाणे चित्तं सारहि एवं वयासी-चित्ता! परिकिलंते में सरीरे परावत्तेहि रह । तएणं से चित्ते सारही रह परावत्तेइ जेणेव मियवणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, पएसि राय एवं वयासी-एस णं सामी ! मियवणे उज्जाणे एत्थणं आसणं समं किलामं सम्मं अवणेमो। तएणं से पएसी राया चित्तं सारहिं एवं वयासी-ए होउचित्ता ।१२५॥
छाया-ततः खलु स चित्रः सारथिः कल्य प्रादुष्प्रभातायां रजन्यां फुल्लोत्फुल्लकमलकोमलोन्मीलिते अधाऽऽपाण्डुरे प्रभाते कृत नियमावश्यके सहस्र
'तए ण से चित्ते सारही' इत्यादि।
सूत्रार्थ--(तएण') इसके बाद (से चित्तें सारही) वह चित्रसारथि (कल' पाउप्पभायाए रयणीए) दूसरे दिन जब कि प्रातःकाल के रूप में बदल गई और (फुलुप्पलकमल कोमलुम्मिलियम्मि अहाप डुरे पभाए कयनियमावस्सए) कमल विकसित हो चुके तथा नियम और आवश्यक कृत्य जिसमें लोग कर चुके थे ऐसा पीतधवल प्रभात जब हो गया (सहस्स
'तए ण से चित्ते सारही' इत्यादि ।
सूत्रार्थ :-(त एण) त्या२ पछी (से चित्त सारही) ते ! कल्ल' पाउप्पभायाए रयणीए) alon हिसे न्यारे रात्री प्रात:साना ३५भा पति था आई मने (फुलुप्पलकमलकोपलुम्मिलियम्मि अहापंडुरे पभाए कयनियमावस्सए) भगा विस पाभ्यां म नियम भने मावश्य: इत्यो भा हो 43 ५५॥ ४२वामा माव्या. मे पातधस प्रमात न्यारे थयु (सहस्सरस्सिम्मि दिण यरे
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सुबोधिनी टीका सु. १२५ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीव प्रदेशिराजवर्णनम्
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रश्मी दिनकरे तेजसा ज्वलति स्वाद गृहाद् निर्गच्छति, यत्रैव प्रदेशिनो राज्ञो गृह यत्र प्रदेशी राजा तत्रैवोपागच्छति प्रदेशिन राजानं करतलयावत् कृत्वा जयेन विजयेन वर्धयति, एवमवादीत् एवं खलु देवानुभियानां कम्बोजेषु चत्वारोऽश्वा उपनयम् उपनीता, ते च मया देवानुप्रियेभ्यः अन्यदाचैव विनयिताः तद् एत खलु स्वामिन् ! तान् अश्वान् आत्मर्द्धिकान् पश्यत । ततः खलु स प्रदेशी राजा चित्र सारथिम् एवमवादीत्- - गच्छ खलु रस्सिम्मि दियरे तेयसा जलते साओ गिहाओ णिग्गच्छर) एवं सहस्रकि रणों वाला सूर्य जब अपने तेज से चमकने लगा-अपने घर से निकला ( जेणेत्र पए सिस्स रणो गिहे जेणेत्र पएसी राया. तेणेव उवागच्छ३) निकल कर वह वहां गया जहां प्रदेशी राजा का गृह था और उसमें भी जहां वह प्रदेशो राजा था ( पर्सि राय करयल जाव कडे जएण विजएण बद्धावेइ) वहाँ जाकर उसने प्रदेशी राजा को दोनों हाथ जोडकर बडे विनय के साथ प्रणाम किया और जय विजय शब्दों का उच्चारण करते हुए उसे बधाई दी ( एवं वयासी) बधाई देकर फिर उसने उससे ऐसा कहा - ( एवं खलु देवाणुपियाण कंबोएहिं चत्तारि आमा उवणयं उवणीया) कम्बो जदेशवासियोंने चार घोडे भेंटरूप में आप देवानुप्रिय के लिये भेजे थे (ते यम देवाणुपिया अण्ण या चेत्र विणइया) उन्हे मैंने आपके लिये विनीत उसी दिन बना दिया है। अर्थात् शिक्षित कर दिया है ( त एह ण सामी त आसे आईए पामह) अतः आप आईये और स्वकीयमशस्तगति आदि तेयसा जलते साओ गिड़ाओ णिग्गच्छ) भने सहन रिशेोवाणी सूर्य भयारे पोताना तेन्थी अाशित थवा साग्या. पोताना घरेथी नीज्यो. ( जेणेव पएसिस्स रोगिहे जेणेव पएसी राया, तेणेव उवागच्छा) नीणीने ते भ्यां प्रदेशी शन्ननुं गृह हुतु अने तेमां पशुभ्यां ते प्रदेशी शब्न हतो त्यां गये. (एम रायं करयल जान कहु जएणं विजएण बद्धा वेइ) त्यांने तेथे प्रदेशी राजने બન્ને હાથ જોડીને નમ્રતાપૂર્વક પ્રણામ કર્યાં અને જયવિજયના શબ્દનું ઉચ્ચારણ उरीने तेने वधाभागी भायी. (एव वयासी) वधाभली आयी. तेथे तेने या प्रमाणे
. (एवं खलु देवाणुपिया कबोएहिं चत्तारि आसा उवणयं उत्रणीया ) કએજ દેશના નાગરિકાએ આપ દેવાનુપ્રિય માટે ચાર ઘેાડાએ ભેટ રૂપમા મેકલ્યાછે. ( ते य मए देवाणुप्पियागं अण्णया चेव विणइया) ते घोडामाने भे ते दिवसे आपश्रीना भाटे योग्य शिक्षित मनावी हीघा छे. (तं एहणं सामी त आसे आइडिए पासइ) मेथी आप पधारे। अने स्वडीय प्रशस्त जति वगेरे शक्तियो
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राजप्रश्नीयसूत्रे
व' चित्र ! तैरेव चतुर्भिरश्वैः अश्वरथं युक्तमेव उपस्थापययावत् प्रत्यर्पय । ततः खलु स चित्रः सारथिः प्रदेशिना राज्ञा एवमुक्तःसन् हृष्ट तुष्ट- यावत् हृदय उपस्थापयति, एतामाज्ञप्तिकां प्रत्यर्पयति । ततः खलु स प्रदेशी राजा चित्रस्य सारथेरन्तिके एतमर्थ श्रुत्वा निशम्य हृष्ट तुष्ट - यावद् अल्पमहार्घाभरणालङ्कृतशरीरः स्वाद् गृहाद् निर्गच्छति, यत्रव चातुर्घष्टः अश्वरथ
शक्ति से युक्त हुए इन्हें देखिये । (तए ण से पएसी राया चित्तं सारहिं एवं वयासी) तब उस प्रदेशी राजाने चित्र सारथि से ऐसा कहा -- ( गच्छाहि गं तुम चित्ता ! तेहि चेव चउहिं आसेहिं आसरह जुतामेव उववेहि जाव पचविणाहि ) हे चित्र ! तुम जाओ और उन्हीं कम्बोज से प्राप्त हुए चारों घोड़ों से युक्त करके अश्वाध को तैयार कर ले आओ। और उस बात की मुझे पीछे खबर दो (तएण से चित्ते सारही पएसिणा रन्ना एवं वुत्ते समाणे हतुट्ठ जाव हिए उags एयमाणत्तिय पचणिह ) इस प्रकार से प्रदेशी राजा द्वारा कहा गया वह चित्र सारथि बडा ही हृष्टतुष्ट यावत् हृदयवाला हुआ और उसने चार घोडों से युक्त करके अश्वरथ को उपस्थित कर दिया, बाद में प्रदेशी राजा को इसका निवेदन किया (तएण से पएसी राया चित्तस्स सारहिस्स श्रंतिए एयम सोच्चा निसम्म हट्टतुट्ट जाव अप्पम हग्धा भरणालंकियसरीरे साओ गिहाओ णिग्गच्छ) इसके बाद प्रदेशी राजा चित्र
थी युक्त थयेला ते घाहामोनु निरीक्षण ४२. (तरण से परसी राया चित सारहिं एवं वयामी) त्यारे ते प्रदेशी रान्नखे यित्रसारथीने या प्रमाणे उ ( गच्छहिण तुम चित्ता ! तेहि चेव चउहिँ आसेहि आसरह जुत्तामेव sage जाव पञ्चपिणाहि ) हे चित्र ! तमे भयो भने ते मोन्डेशना नागરિકાથી પ્રાપ્ત થયેલા ચારેચાર ઘેડાઓને રથમાં જોડીને તે અર્થે અહીં’ઉપસ્થિત १. अने ते पछी भने आा वातनी मजर आये. (त एण से चित्तें सारही पक्षिणा रन्ना एवं वृत्ते समाणे हट्ट जाव हियए उबडवे एयमाणतियं पञ्चपिण्ड ) या प्रमाणे प्रदेशी रान वडे आज्ञापित थयेसो ते चित्रसारथि ખૂબજ હતુઃ હૃદયવાળા થયો અને તેણે ચારેચાર ઘેાડાઓથી સજજ કરીને અશ્વરથ ત્યાં રાજાની સેવામાં ઉપસ્થિત કર્યાં. અને ત્યાર પછી તેની ખબર રાજાની પાસે पहाडी (तएण से पएसी राया चित्तस्स सारहिस्स अतिए एमई सोचा निसम्म हट्ठ जाव अप्पमहग्धाभरणाल कियमरीरे साओ गिहाओ णिग्गच्छइ) त्यारयछी प्रदेशी शब्द चित्र सारथिनी अश्वस्थ उपस्थित थहा भवानी
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सुबोधिनी टीका. १२५ सूर्याभदेवस्य पूव भवजीवप्रदेशिरजवर्णनम्
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स्तत्रौकोपागच्छति. चातुर्घण्टमश्वरथं दूरोहति, श्वेतविकाया नगर्या मध्यमध्येन निर्गच्छति । ततः खलुः स चित्रः सारथिस्त रथ नैकानि योजनानि उद्भ्रामयति । ततः खलु स प्रदेशी राजा उष्णेन च तृष्ण या च रथवातेन च परिक्लान्तःसन् चित्र सारथिमेवमवादीत्-चित्र ! परिकान्तं मे शरीरं, परासारथि की अश्वरथ के तैयार हो जाने की बात को सुनकर और उसे हृदय में धारण कर बड़ा ही अधिक हर्षित एव तुष्ट चित्त हुआ. उसने उसी समय अपने शरीर पर बहुमूल्य अल्पभार वाले आभूषणों को धारण किया शीघ्र ही वह फिर अपने घर से बाहर निकला (जेणामेव चाउग्घटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ) बाहर निकल कर वह वहां पर आया कि जहां पर वह चार घंटों वाला अश्वस्थ तैयार किया गया खडाथा (चाउग्य टं आसरहं दुरूहइ, सेयं वियाए मज्ज मज्झेण णिग्गच्छइ) वहां आकर वह चार घटों वाले उस रथ पर बैठ गया. फिर वह श्वेतांबिका नगरी को ठीक मध्यमार्ग से होकर निकला (तए ण से चित्ते सारही त रहणेगाइ जोयणाई उभामेइ) बाद में उस चित्र सारथिने उस रथको अनेक योजनों तक बहुत तेज चाल से चलाया. (तए ण से पएसी राया उण्हेण य तहाए य रहवाएण य परिकिलते समाणे चित्त सारहिं एवं वयासो) इस कारण वह प्रदेशी राजा आतप से, प्यास से और रधगत्युद्धब वायु से खिन्न हो गया, अतः उसने चित्र सारथि से ऐसा कहा-(चत्ता ! परिकि વાત સાંભળીને અને તેને હદયમાં ધારણ કરીને ખૂબજ હર્ષિત અને તુષ્ટ ચિત્તવાળા થયે તેણે તેજ ક્ષણે પોતાના શરીર પર બહુમૂય તેમજ અ૫ભારવાળાં આભૂષણો ધારણ ४ा मने ही ते पोताना भलथी मा२ नीज्यो. (जेणामेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ) मा२ . नी४ाने ते त्या मान्य न्यां या२ पाणी मवरथ सुस०४०० थने हो तो. (चाउग्धंट आसरह' दरूहड, सेयवियाए नयरीए मज्झ मज्झण णिग्गच्छइ) त्यां पड़ायाने ते या२ घंटीवाजात २५१५२थ પર બેસી ગયું અને ત્યારપછી તે તાંબિકા નગરીના ઠીક મધ્યવાળા રાજમાર્ગ પર थईने नीज्यो. (त एण से चित्तो सारही तरहणेगाईजोयणाई उम्भामेइ) ત્યારપછી તે ચિત્રસારથિએ તે રથને ઘણું જ સુધી બહુજ તીવ્રવેગથી ચલાવ્યું. (तए ण से पएसी राया उण्हेण य तहाए य रहवाएणय परिकिलते समाणे चित्त' सारहिं एवं क्यासी) तथा ते अशी रात तापथी, तरसथी मने २थनी તીવ્રગતિને લીધે. સામેથી અથડાતા પવનથી ખિન્ન થઈ ગયે. એથી તેણે ચિત્ર साथिने या प्रमाणे ह्यु. (चित्ता ! परिकिलते मे सरीरे परावत्तेहि, रह)
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राजप्रश्नोयसूत्रे वर्तय रथम् । ततः खलु स चित्रः सारथिः रथ परावर्त यति, यत्रैव मृगवनमुद्यान तत्रैवोपागच्छति, प्रदेशिन राजानमेवमवादीत्-एष खलु स्वामिन मृगवनमुद्यान, अत्र खलु अश्वानां श्रम काम सम्यग् अपनयामः। ततः खलु स प्रदेशी राजा चित्रं सारथिमेवमवादीत-एव भवतु चित्र ! ॥स०१२५।।
टीका-'त एण से चित्ते' इत्यादि-ततः खलु स चित्र: सारथि: कल्ये आगामिनिदिवसे पादुष्पभातायां प्रादु:-प्रकाशित प्रभातं यस्यां, तस्यां रजन्यां रात्रौ सत्याम्, निशावसाने इत्यर्थः, अथ-पुनःफुल्लोत्पलकमल. लते मे सरीरे परावत्तेहिं रह) हे चित्र ! मेरा शरीर थक रहा है, अतः तुम रथ को वापिस लौटा लो (तए ण से चित्ते सारही रह परावत्तेइ, जेणेव मियवणे उज्जाणे तेणेव उबागच्छइ) तब उस चित्र सारथिने रथको लौटा लिया
और जहां मृगवन नामका उद्यान था उस ओर चल दिया (पए सिं राय एव' वयासी)वहां पहुंच कर उसने प्रदेशा राजा से ऐसा कहा (एस ण सामी मियेवणे उज्जाणे एत्थ ण आसाण सम किलाम सम्म अवणेमो) हे स्वामिन् ! यह मृगवन नामका उद्यान है यहां ठहरकर घोडों को श्रम को और ग्लानि को मैं अच्छी तरह से दूर किये लेता है। (तए ण से पएसी राया चित्तं सारहि एवं वयासी) तब वह प्रदेशी राजा चित्र सारथि से इस प्रकार बोला (एवं होउ चिता) हे चित्र ! भले तुम ऐसा करो।
टीकार्थ-इसको बाद दूसरे दिन चित्र सारथि प्रातः काल होते ही रात्रिकी समाप्ति होते ही-अपने घर से निकला ऐसा संबंध यहां लगाना चाहिये. जब यह घर से निकला उस समयतक कमल विकसित हो चुके હે ચિત્ર! મારું શરીર શ્રમયુકત થઈ ગયું છે, એથી તમે રથને પાછા વાળી લે. (त एण से चित्त सारही रह परावत्ते इ; जेणेव मियवणे उजाणे तेणेव उवागच्छइ) त्यारे ते यत्र साथिये २थने पाछ। पाजी सीधे। अनेन्या भूभवन नाभे धान तुते त२३२थने यो. (पएसिं राय एय क्यासी) त्यां पहचाने तेणे प्रशी ने माम यु. (एसण सामी मियवणे-उज्जाणे एत्थ ण आसाण सम किलाम सम्म अवणेमो) के स्वामिन् ! मा भृगवन नाभे धान છે. અહીં રોકાઈને હું ઘોડાઓના થાકને અને ખિન્નતાને સારી રીતે મટાડી લઉં છું. (त एण' से पएसी राया चित्त सारहिं एवं वयासी) त्यारे प्रदेशी रामे यित्र साथिने या प्रमाणे ४ . (एवं होउ चित्ता) इथित्र ! सा३ तमे लदो माम ३३१.
ટીકાર્થ–ત્યારપછી બીજા દિવસે રાત્રી પૂરી થતાં તેમજ સવાર થતાં જ ચિત્ર સારથિ પિતાના ઘેરથી નીકળે. એ અર્થ અહીં કર ઘટે છે. તે જયારે પિતાના
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सुबोधिनी टीका. सूत्र १२५ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् १५३ कोमलोन्मीलिते-फुल्लोत्पल' विकसितकमल, कमलो-हरिणविशेषश्च तयोः कोमल =मृदु उन्मीलनम्-कमलदलानां विकसन' हरिणनेत्राणामुन्मेषण च यस्मिन्, कमलविकसनसमये हरिणनेत्रोन्मीलनसमये वेत्यर्थः तथाभूते आपा. डरे-आसमन्तात् पाण्डुरे पीतधवले, तथा-कृतनियमावश्यके-नियमा: सचित्तादित्यागरूपाश्चतुर्दशसंख्यकाः, उक्तश्च-"सचित्त १ दव२ विगई३. वाणह४ तंबोल५ वत्थ६ कुसुमेसु७।
वाहण८ सयण९ विलेवण१०. बंभ११ दिसि१२ हाण१३ भत्ते सु१४॥१॥ छाया--सचित्त द्रव्य२ विकृत्यु३ पान४-ताम्बूल५ वस्त्र६ कुसुमेषु७। वाहनः
शयन९ विलेपन१० ब्रह्म११ दिक१२ स्नान१३ भक्तोषु१४ ॥ इति, आवश्यक प्रतिक्रमण तच्चोह रात्रिकं, तयोः समाहारे नियमावश्यक, कृत - विहित नियमावश्यक यस्मिन तत्तस्मिन् तादृशे प्रभाते-यातःकाले तथासहस्ररश्मी-सहस्रकिरणसम्पन्ने दिनकरे-सूयें तेजसा ज्वलति-दीप्यमाने सति स्वात् स्वकीयाद् गृहाद् निर्गच्छति, यत्रैव प्रदेशिनो राज्ञो गृह भवन यत्रैव च प्रदेशी राजा वर्तते तत्रौव उपागच्छति-समागच्छति, प्रदेशिन राजान' करतल-यावत्-करतलपरिगृहीत. शिरआवत मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा जयेन विजयेन वर्द्ध यति, वयित्वा एवमबादीत-एव खलु देवानुप्रियेभ्याघे अथवा कमल और हरिणविशेषों को नेत्र निद्रा विगत हो जाने के कारण उघड चुके थे, प्रभात का रंग पीत धवल हो चुका था लोगोंने-धार्मिक जनताने १४ नियमो ले लिया था. और रात्रिक प्रतिक्रमण भी कर लिया था. वे १४ नियमो इस प्रकार से है-'सचित्त दव्य ' इत्यादि ।
तथा सहस्रकिरण संपन्न सूर्य भी अपने तेज से दीप्यमान हो चुका था. घर से निकलकर वह पदेशी राजा के पास पहुंचा. वहां पहुच कर उसने प्रदेशी राजा को दोनों हाथ जोडकर नमस्कार किया, उन्हें बधाई दी और फिर ऐसा कहा आप देवानुपिय के लिये जो कम्बोजवासियोंने चार घोडे भेंटरूप ઘેરથી નીકળે તે વખતે કમળ વિકસિત થઈ ચૂક્યાં હતાં. અથવા કમલ હરિણ (મૃગ) વિશેષના નેત્ર નિદ્રા રહિત થઈ જવાથી ઉઘડી ચૂકહ્યાં હતાં. પ્રભાતનો વર્ણ પીતધવલ થઈ ચૂક્યું હતું. કેએ-ધાર્મિક માણસોએ-૧૪ નિયમને ધારણ કરી લીધા હતા અને રાત્રિક પ્રતિક્રમણ પણ કરી લીધું હતું. તે ૧૪ નિયમે આ પ્રમાણે છે.
'सच्चित्तं दव्व' इत्यादि.
તેમજ સહસ્ત્રકિરણ સંપન્ન સૂર્ય પણ પિતાના તેજથી દેદીપ્યમાન થઈ ચૂકો. હતે ઘરથી નીકળીને સારથિ પ્રદેશી રાજાની પાસે ગયે. ત્યાં પહોંચીને તેણે પ્રદેશી રાજાને બંને હાથ જોડીને નમસ્કાર કર્યા તેમને વધામણી આપી અને પછી આ પ્રમાણે
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राजप्रश्नीयसूत्रे भवद्भयः काम्बोजैश्चत्वारोऽश्वा उपनयमुपनीताः-प्राभृतत्वेन समानीताः ते च मया देवानुप्रियेभ्यः भवतां कृते अन्यदैव-तदैव विनयिताः विनय प्रापिताः शिक्षिताः, तत्-तस्मात्कारणात् एत आगच्छत तान् आत्मर्द्धिकान=स्वकीय. प्रशस्तगत्यादिशक्तिसम्पन्नान् अश्वान् पश्यत । ततः खलु स प्रदेशी राजा चित्र' सारथिमेवमवादीत-गच्छ खलु त्वं चित्र ! तैरेव काम्बोजमाप्त श्चतु. भिरश्वैः युक्तमेव-सज्जितमेव अश्वरथम् उपस्थापय यावत् प्रत्यर्प य, यावच्छब्देन उपस्थाप्य एतामाज्ञप्तिकां मम प्रत्यर्पय । ततः खलु स चित्रः सारथिः प्रदेशिना राज्ञा एवम् अनेन सज्जितरथोपस्थापनरूपेन प्रकारेण उक्तःकथितः हृष्टतुष्ट यावदूहृदयः, यावच्छब्देन-हृष्टतुष्टचित्तानन्दितः प्रीतिमनाः परमसौमनस्थितः हर्षवशविसर्प दुहृदयःसन् उपस्थापयति-तैश्चतुर्भिरेवाश्वैर्युक्त मेवाश्वरथमुपस्थित करोति एतां राजोक्ताम् आज्ञप्तिकाम्-आज्ञां प्रत्यर्प यति ='युक्त एव रथो मयाऽऽनीतः' इति सूचयति । ततः खलु स प्रदेशी राजा चित्रस्य सारथेः अन्तिके समीपे-युक्तरथोपस्थापनरूपम् अर्थ वाक्यं श्रुत्वा कर्णगोचरीकृत्य, निशम्य हृद्यवधार्य हृष्टतुष्ट यावत्-यावच्छब्देन-हृष्ट तुष्टचित्तानन्दितः प्रीतिमनाः परमसौमनस्यितो हर्षवशविसर्पहृदय स्नातः कृतबलिकर्मा कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्तः शुद्धमावेश्यानि माङ्गल्यानि वस्त्राणि प्रवरपरिहितः, इति साह्यम्, अल्पमहार्घाभरणालङ्कृतशरीरः एषामर्थस्तु प्रागुक्त एव, एतादृशः सन् स्वात्-स्वकीयाद् गृहादू भवनात् निगच्छति-निस्सरति । में भेजे थे उन्हें मैंने उसी दिन आपके लिये सुशिक्षित कर दिया हैं. अतः
आप आ करके उन्हें देख लेबें इस प्रकार चि सारथी के कथन को सुनकर प्रदेशी राजाने उससे कहा-तुम शीघ्र ही उन्हें रथ में जोतकर यहां ले आओ चित्र सारथीने ऐसा ही किया. जब रथ तैयार हो जाने का वृत्तान्त प्रदेशी राजा को ज्ञात हुआ तब आकर वह उसमें बैंठ गया उसके बैठते ही चित्र सारथिने उस रथ को श्वेतांविका नगरी के मध्यमार्ग से
કહ્યું કે આપ દેવાનુપ્રિય માટે કબજેદેશના નાગરિકે જે ચાર ઘોડાઓ ભેટરૂપમાં મેકલ્યા હતા તેમને તેજ દિવસે આપશ્રી માટે સુશિક્ષિત કરી દીધા છે. એથી આપ પધારીને તેમનું નિરીક્ષણ કરી લે આ પ્રમાણે ચિત્રસારથિનું કથન સાંભળીને પ્રદેશી રાજાએ તેને કહ્યું કે તમે સત્વરે તે ઘોડાઓને રથમાં જોતરીને અહીં ઉપસ્થિત કરો. ચિત્ર સારથિએ તે પ્રમાણે જ કામ પૂરું કર્યું જ્યારે રથ તૈયાર થઈ જવાની ખબર રાજાની પાસે પહોંચાડવામાં આવી ત્યારે તે રાજા તે રથમાં બેસી ગયે. રાજા જયારે સવાર થઈ
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सुबोधिनी टीका सु. १२५ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम्
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ततः खलु स चित्रः सारथिस्त' रथं नैकानि= अनेकानि बहूनि योजनानि उद्भ्रा मयति = शीघ्रगत्या धावयति । ततः खलु स प्रदेशी राजा उष्णेन = आतपेन च तृष्णया = पिपासया रथवातेन = रथगत्युद्भवेन वायुना च परिक्लान्तः = खिन्नः सन् चित्र सारथिमेचमवादीत् - हे चित्र ! परिक्लात = खिन्नं मे मम शरीरम् अतो रथं परावर्त्तय= निवर्तय । ततः खलु स चित्र : सारथिः रथं परावर्त्तयति, यत्र ैव भृगवनमुद्यानं तत्र वोषागच्छति, प्रदेशिन राजानमेवमवादीत्एतत् खलु स्वामिन ! मृगवनमुद्यानमस्ति, अत्र = अस्मिन्नुद्याने स्थित्वा अश्वानां श्रम= खेद कमलानि च सम्यक् = समीचीनतया अपनयामः दूरीकुर्मः। ततः खलु स प्रदेशी राजा चित्र सारथिमेवमवादीत् - हे चित्र ! एवं भवतु = यथा त्वया कथित तथैव भवतु अभय तिष्ठाम इति भावः || सू० १२५॥
मूलम् - तपणं से चित्ते सारही जेणेव मियवणे उज्जाणे जेणेव केसिस्स कुमारसमणस्स अदूरसामंते तेणेव उवागच्छइ, तुरए foroes रहं ठवेइ, रहाओ पच्चोरुहइ, तुरए मोएइ, पएसि रायं एवं
होकर चलाया. जब नगरी से वह रथ बाहर हो गया तब उसने कई योजनों तक उस रथको इतने अधिकरूप से चलाया कि प्रदेशी राजा परिक्लान्त हो गया, (थकगया) आतप से तप गया और पिपासा की वेदना से व्या कुल हो उठा। तब सारथि से उसने उसी समय रथको लौटाने के लिये कहा. सारथिने आज्ञानुसार रथ को लौटा लिया और मृगवन उद्यान की ओर ले चला। वहां पहुंच कर सारथिने घोडों को विश्रान्ति देने के निमित्त रथखडा कर लिया और प्रदेशी राजा से वहां ठहर कर घोड़ों को मार्गजन्य प रिश्रमको दूर करने की बात कही प्रदेशी राजाने बातको मानलिया । सू. १२५ । ગયા ત્યારે ચિત્ર સારયિએ તે રથને શ્વેતાંબિકા નગરીની મધ્યમાગ માંથી થઇને હાંકયા. આ પ્રમાણે તે રથ જયારે શ્વેતાંત્રિકા નગરીથી બહાર નીકળી ગયેા ત્યારે ઘણા ચેાજના સુધી તે રથને તીવ્ર વેગથી ચલાવ્યા કે જેથી તે પ્રદેશી રાજા પરિકલાંત થઈ ગા, તાપથી તપી ગયા અને તરસની વેદનાથી વ્યાકુળ થઇ ગયા. રાજાએ સારથિને તરત જ રથ પાછો વાળવાનો આદેશ આપ્યા, સારથિએ રાજાની આજ્ઞા પ્રમાણે રથને પાછા વાળી લીધેા અને મૃગવન ઉદ્યાનની તરફ તે રથને લઈ ગયા. ત્યાં પહોંચીને સારથિએ ઘોડાઓનો વિશ્રાંતિ આપવા માટે રથ ને ઉભા રાખો અને પ્રદેશી રાજાને ત્યાં રોકાઇને ઘોડાઓના રસ્તાના થાકને દૂર કરવાની વાત કરી, પ્રદેશી રાજાએ પણ તેની વાત માની લીધી, રાસ. ૧૨પા
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राजप्रश्नीयसूत्रे
वयासी एह णं सामी! आसाणं समं किलामं सम्मं अवणेमो ! तरणं से पएसी राया रहाओ पञ्चोरुहइ, चित्तेण सारहिणा सद्धि आसाणं समं किलामं सम्मं अवणेमाणे पासइ, जत्थ के सिकुमारसमणं महइमहालियाए परिसाए मझगयं महया सदेणं धम्ममाइक्खमाणं पासितामेवे अज्झथिए जाव समुप्पजित्था - जड्डा खलु भो ! जडुं पज्जुवासंति, मुडा खलु भो ! मुंडे पज्जुवासंति, मूढा खलु भो ! मूढ पज्जुवासंति, अपंडिया खलु भो अपंडियं पज्जुवासंति, निव्विण्णाणा खलु भो ! निव्विण्णाणं पजुवासंति, से केसणं एस पुरिसे जड्ड मुंडे मुंढे अपडिए निव्विण्णाणे सिरीए हिरीए उवगए उत्तप्पसरीरे, एस णं पुरिसे किमाहारमाहारेइ ? कि परिणामेइ ? किं खायइ ? किं पियइ ? किं दलइ ? किं पयच्छइ ? जं णं एस एमहालियाए मणुस्तपरिसाए मज्झगए महया सदेणं बूयाइ ? एवं संपेहेइ, चित्तं सारहिं एवं वयासी - चित्ता ! जड्डा खलु भो ! जड्ड पज्जुवासंति जाव बूयाइ, साए वि णं उज्जाणभूमीए नो संचाएमि सम्मं पकामं पवियरितए ॥ सू० १२६ ॥
छाया - ततः खलु सचित्रः सारथिः यत्र व मृगवनमुद्यान' यत्रव केशिनः कुमारभ्रमणस्य अदूरसामन्त तत्रैवोपागच्छति, तुरगान् निगृह्णाति, रथ
'तरण' से चित्ते सारही' इत्यादि --
सूत्रार्थ - (तएण से चिते सारही जेणेव मियवणे उज्जाणे जेणेव के सिस्स कुमारसमणस्स अदूरसाम ते तेणेव उवागच्छइ) इसके बाद वह चित्रसारथि उस मृगवन उद्यान में स्थित केशिकुमारश्रमण के अदूर सामन्त स्थान पर
'त एण' से चित्त सारही' इत्यादि ।
सूत्रार्थ : - (त एण से चित्ते सारही जेणेव मियवणे उज्जाणे, जेणेव केसिस्स कुमारसमणस्स अदूरसामं ते तेणेव उवागच्छइ) त्यार पछी ते ચિત્ર સારથિ તે મૃગવન ઉદ્યાનમાં સ્થિત કેશિકુમારશ્રવણની પાસે રથને લઈ ગયેા.
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सुबोधिनी टीका सू. १२६ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजोवप्रदेशिराजवण नम् स्थापयति, रथात् प्रत्यवरोहति, तुरगान् मोचयति, प्रदेशिन राजानमेवमवादीतअत्र खलु स्वामिन् ! अश्वानां श्रम क्लीम सम्यक अपनयामः । ततः खलु स प्रदेशी राजा रथात् प्रत्यवरोहति, चित्रेण सारथिना सार्धम् अश्वानां श्रम क्लीम सम्यक अपनयन् पश्यति यत्र केशिकुमारश्रमण महातिमहालयायाः परिषदो मध्यगत महता शब्देन धर्ममाख्यान्त दृष्ट्वा अयमेतद्रूप आध्यात्मिकः यावत् समुदपद्यत-जडाः खलु भो ! जड पर्युपासते, मुण्डाः स्थको लेकर गया (तुरए णिगिण्हइ) वहां पहुंचते ही उसने घोडों को रोक लिया (रह ठवेइ) और रथको खड़ा कर दिया (रहाओ पचोरुहइ) रथ के खडे हो जाने पर वह रथ से नीचे उतरा (तुरए मोएइ) नीचे उतर कर घोडों को रथ से खोल दिया (पएसि राय एवं वयासी) फिर उसने प्रदेशी राजा से ऐसा कहा-(एह ण सम किलाम सम्म अवणेमो) हे स्वामिन् ! रथ खडा हो चुका है आप उतर आइये, मैं यहां पर घोडों के श्रम को एवं उनकी मानसिक ग्लानि को ठीक तरह से दूर करलू (तए ण से पएसी राया रहाओ पञ्चोरुहइ) सारथि के इस कथन से वह पदेशीराजारथ से नीचे उतरा (चित्तेण सारहिणा सद्धिं आसाण सम किलाम सम्म अवणेमाणे पासइ) नीचे उतर कर उसने चित्र सारथि के साथ वहां धोडों का श्रम एवं क्लम (थकावट) अच्छी तरह से दूर करते हुए, एवं विश्राम करते हुए उस ओर देखा (जत्थ केसिकुमारसमण महइमहालियाए परि. साए मज्झगय महया सद्दे ण धम्ममाइक्खमाण पासित्ता इमेघारूवे अझथिए (तुरए णिगिण्हइ) त्यां पडायतi - तो पासमान Sell राज्या. (रह ठवेइ) भने २थने योमायो. (रहाओ पचोरुहइ) २५ यारे लो २ही गयो त्यारे ते स्थमाथी नीये तयी. (तुरए मोएइ) नीचे उतरीन घामाने २थमाथी भुत यो. (पएसि राय एवं वयासी) त्या२ पछी ते अशी Anने 20 प्रमाणे धु(एह ण सामी! आसाण सम किलाम सम्म अवणेमो) स्वाभिन ! २थ ઉભો થઈ ચૂક્યું છે. આપ નીચે ઉતરે. હું અહીં ઘોડાઓને શ્રમને અને તેમની भानसि मानिने सारीशत (२ ४N G.(तएण से पएसीरायारहाओ पच्चोरुहइ) सारथिना मा ४थनथी ते प्रदेशी २० २थमाथी नीये अत्या. (चित्तण सारहिणा सद्धिं आसाण' समकिलामं सम्मं अवणेमाणे पासइ) नीये उतरीन ते शिप्रसारથિની સાથે ત્યાં ઘોડાઓનાં શ્રમ અને કલમ સારી રીતે દૂર કરતાં તેમજ વિશ્રામ ४२ता ते त२५ यु (जत्थ केसिकुमारसमण महइमहालियाए परिसाए मज्झ. गय' महया सण' धम्ममाइक्खमाण पासित्ता इमेयारवे अज्ज्ञथिए जाव
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राजप्रश्नीयसूत्रे
खलु भो ! मुण्ड पर्युपासते, मूढाः खलु भो ! मूढ पर्युपासते, अपांण्डताः खलु भो ! अपण्डित पर्युपासते, निर्विज्ञानाः खलु भो ! निर्विज्ञानं पर्यु पासते, स कीदृशः खलु एष पुरुषो जडो मुण्डो मूढोऽपण्डितो निर्विज्ञान: श्रिया हिया उपगतः उत्तप्तशरीरः, एष खलु पुरुषः कमाहारमहारयति ? जाव समुपज्जित्था ) कि जिस और एक बहुत बडी परिषदा के बीच में बैठे हुए केशीकुमारश्रमण जोर २ से धर्म का व्याख्यान कर रहे थे. इस प्रकार से उन्हें देखकर उसको इस प्रकार का यह आध्यात्मिक यावत् मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ (जड्डा खलु भो ! जड पज्जुवासंति, मुंडा खलु भो मुंड पज्जुबास ति) अरे ! जो जन जड होते हैं वे जडकी सेवा करते हैं और जो जन मुंड होते हैं, वे मुण्ड की सेवा करते हैं (मूढा खलु भो मूढ पज्जुवास ति) तथा जो जन मूढ होते हैं, वे मूढ की सेवा करते हैं । ( अपंडिया खलु भो अपंडियां पज्जुवास ति) जो अपण्डित होते है वे अपण्डित जन की सेवा करते हैं, (निविष्णाणा खलु भो निव्विण्णा पज्जुवास ति) जो विशिष्टज्ञान से रहित होते हैं, वे विशिष्टज्ञान से रहित की सेवा करते हैं । ( से केस एस पुरिसे जडे, मुडे, मुढे, अपंडिय निर्विण्णाणे सिरीए हिरीए अवगए उत्तप्पसरी रे) परन्तु यह कैसा पुरुष है जो जड, मुंड, मूड, अपण्डित, निर्विज्ञान होता हुआ भी श्री से और ही से युक्त है ( उत्तप्पसरीरे) शरीर की कान्ति से संपन्न है। (एस गं पुरिसे किमाहारमाहारेs) यह पुरुष क्या किस प्रकार का आहार करता है ? समुपज्जित्था ) ? तर मे विशांण परिषद्वानी वय्ये मेठेला शीकुमार श्रभाणु અહુ મોટા સ્વરે ધર્મનું વ્યાખ્યાન કરી રહ્યા હતા. આ પ્રમાણે તેમને જોઈને તેને खाँ जतनो साध्यात्मिक यावत् मनोगत संदिप उत्पन्न थयो (जडा खलु भो ! जड्ड पज्जुवास ंति, मुंडा खलु भो मुड पज्जुवास ति) अरे ! ? लो!! જડ હોય છે, તેઓ જડને સેવે છે અને જે લાકે મુડ હોય છે. તેએ મુંડની સેવા अरे छे. ( मूढा खलु भो मूढं पज्जुवास ति) तेमन ने बोओ भूढ होय छे तेथे भूढनी सेवा रे छे. (अपंडिया खलु भो अप'डिय पंज्जुवास ति) ঈथे। अখ: डित होय छे तेयो अथंडिताने सेवे छे. (निविष्णाणा खलु भो ! निर्विण्णाण पज्जुवासं ति) भेो विशिष्ट ज्ञानथी रहित छे, ते विशिष्ट ज्ञान रहितने सेवे छे. (से केस एस पुरिसे जड्ड े, मुडे, मूढे, अपडिए निविष्णाणे सिरोए हिरीए उवगए उत्तप्पसरीरे) पशु सा देवो यु३ष छे ने ४९, भुंडं, भूढ, पंडित, निर्विज्ञान होवा छतां श्री तेभन ही थी युक्त छे. (उत्तप्पसरी रे) शरीरनी अंतिथी स ंपन्न छे. ( एस पुरिसे किमाहारमाहारेइ ) मा ५३ष ४४६
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सुबोधिनी टीका सु. १२६ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम्
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किं परिणमयति ? किं खादति ? किं पिबति ? किं ददाति ? किं प्रयच्छति ? यत् खलु एप एतावन्महालयाय मनुष्यपरिषदो मध्यगतो महता शब्देन ब्रवीति ? एवं संप्रेक्ष्यते, चि सारथिमेवमवादीत्-चित्र ! जडाः खलु भो ! जड पर्युपासते यावद् ब्रवीति, स्वात्यामपि खलु उद्यानभूमौ नो शक्नोमि सम्यकू प्रकामं प्रविचरितुम् ॥ ० १२६ ॥
टीका- 'तरण' से चित्ते' इत्यादि
ततः खलु स चित्रः सारथिर्यत्रैव मृगवनं = मृगवननामकमुद्यान यत्रैव केशिनं कुमारश्रमणस्य अदूरसामन्तं = नातिदूर नातिसमीपरूपं स्थलं तत्रवोप(किं परिणामेइ) किस प्रकार से खाये हुए भोजन को परिणमाता है ? ( किं खाया, किं पियइ, किं दलइ, किं पपच्छइ) कैसी रुचिर वस्तु को यह खाता है ? किस प्रकार की रुचिर वस्तु का यह पान करता है ? यह लोगों के लिये क्या देता है ? क्या विशेषरूप से यह उन्हें वितरित करता है ? (जंणं एस ए महालियाए मणुस्सपरिसाए मज्झगए महया सण ब्रूयाइ) जो यह पुरुष इतनी बडी विशाल मनुष्य परिषदा के बीच में बैठ कर बड़े जोर से बोल रहा हैं ? ( एवं सपेहेइ) ऐसा उसने विचार किया (चित्तं सारहिं एवं व्यासी) इस प्रकार विचार करके फिर उसने चित्र सारथि से ऐसा कहा - (चित्ता ! जड्डा खलु भो जङ्गु पज्जुवासंति, जान बूयाइ, साए वियणं उज्जाणभूमीए नो सम्म पकामं पवियरित्तए) हे चित्र! जड जड की पर्युपासना करते हैं यावत् यह बडे जोर से बोल रहा है। मैं अपनी भी उस उद्यानभूमि में इच्छानुसार अच्छी तरह से घूम नहीं पा रहा हू । भतनो आहार १रै छे ? (किं परिणामेइ) देवी रीते मासा लोन्नने परिभावे छे ? (किं खायइ, किं पियइ, किं दलइ, किं पयच्छइ) ४ भतनी ३यिनी वस्तुने! આ આહાર કરે છે ? કઈ જાતની રૂચિની વસ્તુનુ' આ પાન કરે છે? લેાકેાને આ शु आये छे ? विशेषज्ञथी या शु दोभना भाटे वितरित उरे छे ? ( जण एस ए महालियाए मणुस्सप रिसाए मज्झगए महया सद्दण बुधाइ) ले मा પુરૂષ આટલી મેટી લેાક પરિષદોની વચ્ચે બેસીને અહુ મેટા સાદે ખેલે છે ? (' सपेइ ) मा प्रमाणे तेथे विचार अर्यो (चित्तं सारहि एवं वयासी) आम विचार उरीने पछी तेथे चित्र सारथिने या प्रमाणे - (चित्ता ! जड्डा खलु भो जडु पज्जुवास ंति, जाव बूयाइ, साए वि यणं उज्जाणभूमीए नो संचाएमि सम्म पकाम पवियरित्तए) हे चित्र ! भन्ने सेवे छे यावत् आ मडु भोटा साहे ખેલી રહ્યો છે. હું પોતે પણ આ ઉદ્યાનભૂમિમાં સ્વસ્થતાપૂર્વક સારી રીતે હરી ફરી શકતા નથી,
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राजप्रश्नीयसूत्रे गच्छति. तुरणान-अश्वान मोचयति रथात् पृथक्करोति, प्रदेशिन राजानमेवमवादीत-हे स्वामिन् ! एत-आगच्छत अत्र अश्वानां हयानां श्रम मार्ग जन्यं शारीरंखेदं क्लम =मानसिकग्लानि च सम्यकू-किश्चित्कालावस्थानेन समीचीनतया अपनयामः दूरीकूमः । ततः पूर्वोक्त निश्चयानन्तर स प्रदेशी राजा रथात् प्रत्यवरोहति अवतरति, चित्रेण सारथिना सार्द्ध तत्राश्वानां स्वस्य च श्रम कलम च सम्यग् अपनयन्दूरीकुर्वन् विश्राम्यन् सन् पश्यति यत्र केशिकुमारश्रमण महातिमहालया: अतिमहत्याः, परिषदो मध्यगत मध्यस्थित महता शब्देन=उच्चस्वरेण धर्म जिनप्रणीतम् आख्यान्त कथयन्तम् दृष्ट्वा च अयमेतद्रूप वक्ष्यमाणमकारकः आध्यात्मिका आत्मगतोऽङ्कुरइय
टीकार्थ-इसके बाद वह चित्र सारथि मृगबन नामके उद्यान में पहुंचकर केशी कुमारश्रमण से अधिष्ठित प्रदेश के पास पहुँचा. वह प्रदेश केशीकुमारश्रमण से न अधिक दूर था, और न अधिक पास ही था. पहुंचकर उसने घोडों को खडा किया । और रथ को रोक दिया. तथा प्रदेशी राजा से ऐसा कहा हे स्वामिन् ! आईये, यहां हमलोग घोडों के मार्गजन्य शारीरिक खेद को एवं मानसिक ग्लानि को कुछ कालतक ठहर कर अच्छी तरह से दूर करले। पूर्वोक्त निश्चय के अनन्तर प्रदेशीराजा रथ से नीचे उतरा और चित्र सारथि के साथ वहां घोडों की एवं निजकी थकावट को तथा कुम-मानसिक ग्लानि को-अच्छी तरह से दूर करता हुआ, तथा विश्राम करता हुआ इधर उधर देखने लगा-देखते२ उसकी दृष्टि वहां पहुंची जहां के शिकुमारश्रमण अतिमहती (विशाल) परिषदा के बीच बैठे हुए उच्चस्वर से जिनमणीत धर्म की प्ररूपणा कर रहे थे. उन्हें
ટીકાર્ય–ત્યારપછી તે ચિત્ર સારથિ મૃગવન નામે ઉદ્યાનમાં પહોંચીને કેશીકુમાર શ્રમણ જ્યાં વિરાજમાન હતા તેની પાસે પહોંચે. તે સ્થાન કેશીકુમાર શ્રમહુથી વધારે દૂર પણ નહિ તેમજ વધારે નજીક પણ નહિ હતું ત્યાં પહોંચીને તેણે ઘોડાઓને ઉભા રાખ્યા અને રથને થેભાવ્યું. તેમજ પ્રદેશી રાજાને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે સ્વામિન્ ! પધારે, અહીં આપણે થોડા સમય સુધી કાઈને ધેડાઓના માર્ગ જન્ય શારીરિક ખેદને અને માનસિક ગ્લાનિને સારી રીતે દૂર કરવા યત્ન કરીએ આ પ્રમાણે વિચાર કરીને તે પ્રદેશ રાજા રથ પરથી નીચે ઉતર્યો અને ચિત્ર સારથિની સાથે ત્યાં ઘડાઓના અને પિતાના થાકને તેમજ કલમ-માનસિક ગ્લાનિ–ને સારી રીતે દૂર કરતાં તથા વિશ્રામ કરતાં આમતેમ જેવા લાગે. જોતાં જોતાં તેમની નજર અતિ વિશાળ પરિષદાની વચ્ચે બેસીને મોટા સાદે તે પરિષદોને જિનપ્રધિત ધર્મની
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सुबोधिनी टोका. सू. १२६ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् १६१ जडोऽयमितिरूपः यावच्छन्देन-'चिन्तितः कल्पितः, पार्थितः, मनोगतः संकल्पः' इति संग्राह्यम्, तत्र-चिन्तितः पुनः पुनः स्मरणरूपो विचारः 'मुण्डोऽय-'मितिलक्षणो द्विपत्रित इव, कल्पितः स एव विचारः 'मुण्डोऽय' मिति रूपः पल्लवितइव, मार्थितः, स एवेष्टरूपेण स्वीकृतः 'निश्चयेनायमपण्डितः इतिरूपः पुष्पितइव मनोगतः संकल्पः मनसि दृढरूपेण निश्चयः 'सत्ययं निर्विज्ञानः' इतिलक्षण: फलितइव समुदपद्यत-समुत्पन्नः। तदेव दर्शयति-'जा' इत्यादि, देखकर इसके मन में इस प्रकार का सकल्प-विचार उत्पन्न हुआ. 'यहां यावत् पद से संकल्प के आध्यात्मिक, चिन्तित, कल्पित, मनोगत ये विशेषण गृहीत हुए हैं. इनकी सार्थकता इस प्रकार से है, यह विचार उसकी आत्मा में पहिले अङ्कुर के रूप में जमा, अतः वह आध्यात्मिक हुआ बाद में वह पुनः पुनः स्मरणरूप होने के कारण चिन्तितरू हो गया अर्थात यह मुंड है यह मूढ है इस तरह बार२ स्मृति में आने के कारण यह विचार द्विपत्रित अङ्कर की तरह चिन्तितरूप बन गया-पुनः वही विचार यह मुण्डित ही है, और कोई नहीं है इसरूप से निश्चयापन्न होने के कारण पल्लवित हुए अंकुर की तरह प्रार्थित हो गया. 'अयमपण्डित एव निश्चयेन' फिर ऐसा निश्चय हो जाने से कि यह नियमतः अपण्डित ही है(पण्डित नहीं है) यह विचार पुष्पित अंकुर की तरह इष्टरूप से स्वीकृत हो जाने के कारण पुष्पित हो गया. बाद में 'यह विज्ञान रहित है' इसरूप से मनमें दृढरूप से निश्चित हो जाने के कारण मनोगत हो गया. तात्पर्य कहने का પ્રરૂપણ કરતા તે કેશિકુમારશ્રમણ પર પડી. તેમને જોઈને તેમના મનમાં આ જાતને स४८५-विया२-६सल्या. मी यावत पहथी स४८५ना माध्यामिर, यितित, दिपत, પ્રાર્થિત, મને ગત આ બધા વિશેષણે ગ્રહણ કરવામાં આવ્યાં છે. આ બધા વિશેષણ ની સાર્થકતા આ પ્રમાણે સમજવી. આ વિચાર તેના આત્મામાં પહેલાં અંકુરના રૂપમાં જન્મે. તેથી તે આધ્યાત્મિક થશે. ત્યારપછી તે વારંવાર સ્મરણરૂપ હોવા બદલ ચિંતિત રૂપ થઈ ગયે. એટલે કે આ મુંડ છે, આ મૂઢ છે આ પ્રમાણે વારંવાર
સ્મૃતિમાં આવવાથી આ વિચાર દ્વિપત્રિત અંકુરની જેમ ચિંતિતરૂપ થઈ ગયે. પછી તેજ વિચાર આ મુંડિત જ છે અન્ય નહિ, આ પ્રમાણે નિશ્ચયાપન્ન હોવા બદલ पवित थयेसा भरनी भ प्रार्थित थ गयो. "अयमपण्डित एव निश्चयेन" ત્યાર પછી આ જાતને નિશ્ચય થઈ જવાથી આ નિયમતઃ અપંડિત જ છે આ વિચાર પુષ્પિત અંકુરની જેમ ઈષ્ટ રૂપથી સ્વીકૃત થઈ જવા બદલ પુષ્પિત થઈ ગયે. ત્યાર બાદ “આ વિજ્ઞાન રહિત છે. આ પ્રમાણે મનમાં દઢરૂપમાં નિશ્ચિત થઈ જવાથી આ
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राजप्रश्नीयसूत्रे जडा: अलसा उद्योगवर्जितत्वात्, यद्वा-जडा इति विवेकविकलाः कर्तव्याकर्त्तव्यज्ञानराहित्यात् जडम्-जडपुरुषमेन पर्युपासते सेवन्ते । तथामुण्डाएतादृशा एव अनावृतमस्तकाः निर्लज्जा इत्यर्थः, त एव मुण्ड-मुण्डित. मस्तकमेन' पर्युपासते । तथा-मूढाः मूर्खा हे योपाहेयज्ञानशून्या एच मूढंसदसद्विवेकविकलमेन पयुपासते। अपण्डिताःयावहारिकबुद्धिविकलास्तत्वज्ञानरहितत्वात्, त एव अपण्डित तत्त्वज्ञानशून्यमेनं पर्युपासते । निर्विज्ञाना:= यह है कि यहां पर विचार के इन विशेषणोंने विचार की आगे२ पुष्टि होती हुई प्रकट की है। जिस प्रकार अंकुर पहिले जमता है. बाद में वह पत्रित होता है, फिर पुष्पित होता है. और अन्त में फलित होता है इसी प्रकार से यहां उसका विचार आगे२ अधिक२ पुष्ट होता गया इसी बात को 'जडा' आदिपदों द्वारा प्रकट किया गया है-उद्योगवर्जित होने से जो जड-अलस होते हैं अथवा तो कर्तव्याकर्तव्यरूप विवेक से रहित होने के कारण विवेक विकल हैं वे ही इस जड पुरुष की उपासना-सेवा करते हैं, तथा जो इसो जैसे मुण्ड-अनावृत खुल्ले मस्तक वाले-निलं ज हैं. वे ही इस मुण्डितमस्तकवाले इसकी सेवा करते हैं, तथा जो हेयोपादेय ज्ञान से शून्य मूढ जन हैं वे ही इस अच्छे बुरे के ज्ञान से विकल हुए इसकी सेवा करते हैं। तत्वज्ञान रहित होने के कारण जो व्यवहारिक बुद्धि से विकल हैं, वेही इस तत्त्वज्ञान शुन्य इस अपण्डित की सेवा करते हैं, तथा बुद्धि हीन होने से जो विशिष्टज्ञान से रहित हैं वेही इस सद्वोधरहित को મને ગત થઈ ગયા. તાત્પર્ય એ છે કે અહીં વિચારના આ વિશેષણોથી અનુક્રમે તે પછીના વિચારોની પુષ્ટિ જ થાય છે. જેમ અંકુર પહેલાં જામે છે. ત્યારપછી તે પત્રિત થાય છે, પછી પુષિત થાય છે અને છેવટે ફલિત થાય છે તેમજ અહીં પણ તેનો વિચાર અનુક્રમે અધિકાધિક પુષ્ટ જ થતો જાય છે. આ વાતને “જ્ઞા વગેરે પદો વડે પ્રકટ કરવામાં આવી છે. ઉદ્યોગ રહિત હવા બદલ જે જડ–આળસુહોય છે અથવા તે જે કર્તવ્યાકર્તવ્યરૂપ વિવેકથી રહિત હોવા બદલ વિવેક વિકલ છે, તે જ આ જડ પુરુષની ઉપાસનાં-સેવા કરે છે. તેમજ જેઓ એના જેવા જ મુંડ-અનાવૃત મસ્તકવાળા–નિર્લજજ છે તે જ આ મુંડિત મસ્તરવાળાઓની સેવા કરે છે તેમજ જેઓ દેપાદેયના જ્ઞાનથી રહિત મૂઢ જન છે તે જ આ વિવેકરહિત પુરુષને સેવે છે. તત્ત્વજ્ઞાનરહિત હોવાથી જે વ્યાવહારિક બુદ્ધિથી વિકલ છે, તે જ આ તત્ત્વજ્ઞાન શૂન્ય અપંડિતને સેવે છે. તેમજ બુદ્ધિહીન હોવાથી જે વિશિષ્ટજ્ઞાનથી રહિત છે તેઓ જ આ સબોધ રહિત પુરુષની સેવા કરે છે. આ કંઈ જાતની
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सुबोधिनी टीका. १२६ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिरजवर्ण नम् विशिष्टज्ञानरहिताः बुद्धिहीनत्वात, त एव निर्विज्ञान सद्बोधरहितमेन पयुः पासते। स एष कीदृशः पुरुषः यो जडो मुण्डो मूढोऽपण्डितो :निर्विज्ञानोऽपि श्रिया=महातिमहालयपरिषदादिशोभया, हियालजया-कुचेष्टावर्जनरूपया उपगतः संपन्नः तथा-उत्तप्तशरीर: शरीरकान्त्या दीप्यमानो वत्त ते इति किं कारणम् ? कारण चिन्तयति-एष खलु पुरुषः क =किस्प्रकारम् आहार भोजनम् आहारयति-करोति ? किं-केन प्रकारेण भुक्त भोजन परिणमयति= परिणाम प्रापयति ?, किंकीदृश रुचिर वस्तु खादति ? किं कीदृशं रुचिर पप णकादिक पिबति?, किं ददाति एभ्यो लोकेभ्यः, किं प्रयच्छति=विशेषेण ददाति यत यस्मात्कारणात् खलु एष पुरुषः एतावन्महालयायाः-महत्या: मनुष्यपरिषदो मध्यगत मध्योपविष्टःसन् महता शन्देन उच्चैःस्वरेण ब्रवीतिवदति । एवं पूर्वोक्त प्रकारेण सप्रेक्षते विचारयति, चित्र' सारथिमेवमवासेवा करते हैं। यह कैसा पुरुष है १ जो जड, मुण्ड, मूढ़, अपण्डित एवं निर्विज्ञान हुआ भी महतिमहालय परिषदा-याने विशालसभा में शोभा से एवं कुचेष्टावर्जनरूप लज्जा से संपन्न बना हुआ है.। एव शरीरकी कान्ति से देदीप्यमान हो रहा है. इसमें कारण क्या है ? क्या यह इस प्रकार के आहारको करता है जो इसके शरीर में ऐसी कान्ति प्रदान करता हैयही बात वह 'क' आहार आहारयति' इत्यादि पदों द्वारा विचार करता
है. यह किस प्रकार वे आहार को लेता है? तथा किस प्रकार से मुक्त भोजन को यह परिणमाता है? यह कैसी रुचिर वस्तु खाताहै? अगर कैसे रुचिरपान को यह पीता है? यह इन लोको के लिये क्या दे रहा है? क्या विशेषरूप से यह इन्हें प्रदान कर रहा है ? जो यह इस बडी भारी मनुष्य परिषदा के बीच में बैठा हुआ बडे जोर से बोल रहा है। इस प्रकार से उसने विचार कियाવ્યકિત છે કે જે જડ, મુંડ, મૂઢ, અપંડિત અને નિર્વિજ્ઞાન હોવા છતાં પણ મહતિમહાલય પરિષદા એટલે કે વિશાળ સભામાં શોભાથી અને કુચેષ્ટા વર્જનરૂપ લજજાથી યુકત થયેલ છે તેમજ શરીરકાંતિથી દીપ્યમાન થઈ રહ્યો છે. આનું શું કારણ છે? શું તે આ જાતને આહાર કરે છે કે જે એના શરીરમાં એવી કાંતિ ઉત્પન્ન કરે छ मे पात ते 'क आहारं आहारयति' वगेरे प?! ५४ मतावे छ. म ४ જાતને આહાર ગ્રહણ કરે છે? .તેમજ કઈ જાતના ભુક્ત ભેજનને આ પરિણમાવે છે? આ કઈ જાતની રુચિર વસ્તુને આહાર કરે છે? કેવા રુચિર પાનપદાર્થને આ પીવે છે? આ પુરુષ આ બધાને શું આપી રહ્યો છે. વિશેષરૂપથી આ બધા એકત્ર થયેલા લેકેને આ શું આપી રહ્યો છે? કે જે આ બહુ મોટી વિશાળ પરિષદાની વચ્ચે બેસીને બહુ મોટા સ્વરથી બોલી રહ્યો છે આ પ્રમાણે તેણે વિચાર કર્યો ત્યાર
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राजप्रश्नीयसूत्रे दीत्-प्रकटमवदत्-चित्र ! जडाः खलु जड पर्युपासते, यावत्-यावच्छब्देनपूर्वोक्त सर्व ग्राह्यम्, व्रवीति=उच्चस्वरेण वदति येन कारणेनाह स्वस्यामपि स्वकीयायामपि उद्यानभूमौ सम्यक् सम्यकप्रकारेण प्रकामम्-अतिशयं । प्रविचरितु सचरितुं नो शक्नोमि=न समर्थो भवामि ॥१० १२६॥
मूलम्-तएणं से चित्ते सारही पएसिरायं एवं क्यासी-एस णं सामी । पासावञ्चिजे केसा नाम कुमारसमणे जाइसंपण्णे जाव चउनाणोवगए अधोऽवहिए अण्णजीविए। तएणं से पएसी राया चित्तं सारहिं एवं वयासी-आहोहियं णं वयासि चित्ता! अण्णजीवियत्तं णं वयासि चित्ता ! ? हंता ! सामी ! आहोहियं णं वयामि अण्णजीवियत्तं णं वयामि । अभिगमणिज्जो णं चित्ता ! एस पुरिसे ? हता! सामी ! अभिगमणिज्जे । अभिगच्छामोणं चित्ता ! अम्हे एयं पुरिसं ? हंता ! सामी ! अभिगच्छामो ॥सू० १२७॥
___ छाया-ततः खलु स चित्रः सारथिः पदेशिराज मेवमवादीत-एष खलु स्वामिन् ! पार्धापत्यीयः के शो नामकुमारश्रमणः जातिस पन्नः यावत् चतु. बाद में वह चित्र सारथि से प्रकटरूप में इस तरह से कहने लगा-चित्र! जढ़ जड की उपासना करते हैं इत्यादि यहां यावत् शब्द से पूर्वोक्त सब कथन जो यह जोर२ से इस मनुष्य परिषदा के बीच में बोल रहा है यहां तक का ग्रहण हुआ है। इसी कारण मैं अपनी भी इस उद्यानभूमि में ठीक तरह से घूम नहीं पा रहा हूं ।। सू० १२६ ॥
'तए ण से चिसे सारही' इत्यादि।
सूत्रार्थ-(तए ण से चित्ते सारही पए सिराय एवं वयासी) तब પછી તે પ્રકટરૂપમાં ચિત્ર સારથિને આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યા, કે હે ચિત્ર ! જડજડની ઉપાસના કરે છે વગેરે. અહીં યાવત્ શબ્દથી પૂર્વોકત બધું કથન-કે જે આ મેટા સાદે મનુષ્ય પરિષદાની વચ્ચે બોલી રહ્યું છે. અહીં સુધીનું ગ્રહણ કરવું જોઈએ. એથી જ હું આ મારી જ ઉદ્યાન ભૂમિમાં સારી રીતે હરીફરી શકતું નથી. સૂ. ૧૨દા
'तए ण से चित्ते सारही' इत्यादि । सूत्रार्थ-(तए ण से चित्ते सारही पएसिराय एव वयासी) त्यारे
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सुबोधिनी टीका सू. १२७ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशीराजवर्णनम् १६५
आनोपगतः अधोऽवधिकः आन्नजीवितः । ततः खलु स प्रदेशी राजा चित्र सारथिमेवमवादीत-अधोऽवधिक्य खलु वदसि चित्र ! अन्नजीवितत्त्व खलु उस चित्र सारथिने प्रदेशी राजा से कहा-(एस ण सामी ! पासावञ्चिज्जे केसी नाम कुमारसमणे जाइसंपण्णे जाव च उनाणोवगए) हे स्वामिन ! ये पुरोवर्ती के शीकुमारश्रमण हैं । जो कि पार्श्वनाथ की शिष्यपरम्परा में उत्पन्न हुए हैं। इन्होंने कुमारावस्था में ही संयम ग्रहण किया है इस. लिये इन्हें कुमारश्रमण कहा गया है। ये जातिसंपन्न हैं, यावत् कुलसंपन्न हैं, इत्यादि पूर्व में कहे गये विशेषणों वाले हैं। इन विशेषणों का अर्थ वहीं पर लिखा जा चुका है. अतः यहां पर पुनः नहीं लिया है। ये मतिज्ञान, श्रुतज्ञान अवधिज्ञान और मनः पर्यवज्ञान के अधिपति हैं-चार ज्ञान के धारी हैं (अधोऽवहिए अण्णजीविए) इनका जो अवधिज्ञान है वह परमावधि से किञ्चित ही न्यून है। इनका जीवन प्रासुक एषणीय अन्नपान से है. अर्थात् ये प्रामुक एषणीय ही आहार लेते है, उद्गमादि दोष से दूषित आहार नहीं लेते हैं। (तए ण से पहीसी राया चित्त सारहिं एवं वयासी) तब प्रदेशी राजाने चित्र सारथि से ऐसा कहा-(आहोहिय णवयासी चित्ता ! अण्णजीवियत्त क्यासी चित्ता?) हे चित्र ! जो तुम ऐसा कहते हो कि इनका अवधिज्ञान परमावधि से यित्र साथिये प्रदेश २ मा प्रमाणे ४घु (ए सण सामी ! पासावञ्चिज्जे केसी नाम कुमारसमणे जाइसम्पण्णे जाव चउनाणोवगए) स्वामिन् ! मा આપણી સામે કેશીકુમાર શ્રમણ છે. કે જેઓ પાર્શ્વનાથની શિષ્ય પરંપરામાં ઉત્પન્ન થયા છે. એમણે કુમારાવસ્થામાં જ સંયમ ગ્રહણ કર્યો છે. એથી જ એમને કુમારશ્રમણ કહેવામાં આવ્યા છે. એઓ જાતિસંપન્ન છે, યાવત્ કુલસંપન્ન છે, વગેરે પહેલા કહેવાયેલાં વિશેષણોથી યુકત છે. આ બધા વિશેષણોનો અર્થ પહેલાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યું છે. તેથી અહીં ફરી કહેવામાં આવ્યો નથી, એઓ મતિજ્ઞાન, શ્રતજ્ઞાન, અવધિજ્ઞાન અને મન:પર્યવજ્ઞાનના અધિપતિ છે, ચાર જ્ઞાનધારી છે. (अधोऽवहिए अण्णजीविए) मेमनु मधिज्ञान छेते ५२भावधियी था। म છે. એમનું જીવન પ્રાસુક એષણીય અન્નપાનથી છે. એટલે કે એ એ પ્રાસુક એષણીય આહાર ગ્રહણ કરે છે. ઉદ્ગમ વગેરે દેથી દૂષિત આહાર એઓ ગ્રહણ કરતા નથી
तए ण से पएसी राया चित्तं सारहिं एवं वयासी) त्यारे प्रदेशी नये यित्र साथिन मा प्रमाणे ह्यु. (आहोहियण वयासी चित्ता! अण्णजीवि.
यत्तणं वयासी चित्ता?) 8 मित्र! ले तमे मा प्रमाणे ४। छ। मेमनु भवવિજ્ઞાન પરમાવધિ કરતાં થોડું જ અલ્પ છે તેમજ એઓ પ્રાસુક એષણીશ આહાર
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राजप्रश्नीयसूत्रे वदसि चित्र ! ?। हन्त स्वामिन् ! आधोऽवधिक्य खलु वदामि अन्नजीवि तत्व खलु वदामि । अभिगमनीयः खलु चित्र ! एष पुरुषः? हन्त ! स्वामिन ! अभिगमनीयः । अभिगच्छाम खलु चित्र !:वय एत पुरुषम् ? हन्त ! स्वा मिन् ! अभिगच्छामः ॥सू० १२७।।
टीका-'तएण से चित्त' इत्यादि-ततः खलु स चित्रः सारथिः प्रदेशि. राजमेवमवादीत्-हे स्वामिन् ! एषः अयं-पुरोवर्ती पापित्यीयः पार्श्वस्वामि शिष्यपरम्परासंजातः केशी नाम कुमारश्रमणः कुमारश्चासौ श्रमणश्च कुमारश्रमणः कुमारावस्थायामेव गृहीत संयमः, कीदृशोऽयमित्याह-जातिसंपन्नः यावत् यावच्छब्देन 'कुलसंपन्न.' इत्यादिविशेषणा नसर्वाणि पूर्वसूत्रोक्तानि संग्राह्याणि किंचित् ही न्यून है तथा ये प्रामुक एषणीय ही आहार लेते हैं सो क्या यह बात तुम सत्य कहते हो ? (हता सामी! आहोहियं णवयामि, अण्णजी. वियत्त क्यामि) हां, स्वामिन ! मैं सत्य कहता हूं कि इनको अवधिज्ञान परमावधि से किचित् न्यून है और ये प्रासुक एपणीय ही आहार लेते हैं। (अभिगमणिज्जे ण चित्ता! एस पुरिसे) तो हे चित्र ! यह पुरुष अभिगमनीय है. अर्थात् परिचय करने के योग्य है (हता सामी ! 'अभिगमणिज्जे) हां स्वामिन् । ये आपके लिये अभिगमनीय हैं अर्थात् परि चय करने के योग्य हैं। (अभिगच्छामो णचित्ता! अम्ह एवं पुरिस) तो हे चित्र ! मैं इनके साथ परिचय करलु ? (हता सामी ! अभिगच्छामो) हां स्वामिन् ! आप इनके साथ परिचय करें।
इसका टीकार्थ इस मूलार्थ के जैसा ही है। केवल विशेषता अण्णजीवियत्न' पद में है, इसका अर्थ तो मूला में लिखा जा चुका है1 ए ७२ छ तो शुावात साथी छे ? (हता सामी! आहोहियण वयामि अण्णजीवियत्तं ण क्यामी) i enभिन् ! साथी पात हु छ. मनु અવધિજ્ઞાન પરમાવધિ કરતાં થોડું કમ છે અને એ પ્રાસુક એષણીય આહાર अड ४२ छ. (अभिगमणिज्जे णचित्ता! एस पुरिसे) तो हे यित्र ! । पुरुष अभिगमनीय छ मेटाए! ४२वा योग्य छे. (हता सामी! अभिगमणिज्जे)
હાં સ્વામિન! એઓ આપના માટે અભિગમનીય છે એટલે કે ઓળખાણ કરવા યોગ્ય છે. (अभिगच्छामो ण चित्ता! अम्ह एयपुरिस)। मित्र! मेमनी सामाणमा ? (हता सामी अभिगच्छामी) । स्वामिनू तमे मेमनी साथे माणमा ४२N डा.
__सूत्रन टी भूमाथ प्रभारी छे. विशेषता त 'अण्णजीवियत्त' પદમાં છે. આને એક અર્થ તે મૂલાર્થમાં જ લખવામાં આવ્યું છે. અને બીજે
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सुबोधिनी टीका. सूत्र १२७ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् १६७ अर्थोऽपि तत एव बोध्यः । चतुर्ज्ञानोपगतः-मत्यादि ज्ञानचतुष्टयसपन्न: अधोऽवधिका अधः परमावधेरधोवी अवधिर्यस्य स तथा- परमावधेः विश्व नयूनावधियुक्तः अन्नजीवित =अन्नेन मासुकैपणीयान्नमात्रेण जीवितं जीवनं यस्य स तथा। तथा-'अन्यजीचितः' इति वा छाया तत्र-अन्धरमै न तु स्वस्मै सर्वविरतिमत्त्वात् जीवनमरणाशंसाविषमुक्तत्वाद्वा जीवितं-जीवन यस्य स तथा, तादृशो वर्तते ! ततः खलु स प्रदेशी राजा चित्र' सारथिमेवमवादीत-हे चित्र ! अस्य मुनेस्त्वम् आधोऽवधिक्यम् अधोऽवधित्व वदसि= सत्यं कथयसि? तथा-अन्नजीवितत्वम् अन्यजीवितत्व वाऽस्यमुनेः! हे चित्र ! त्वं सत्यं कथयसि ? । इति पृच्छानन्तरं चित्र ! सारथिः पाह-हे स्वामिन ! 'हन्त ! इति स्वीकारे 'हँ!' इति भाषायाम्, अस्य मुनेरहम् अाधोऽवधिक्य खलु वदामि सत्यं कथयात्रि, तथा अन्नजीवितत्वम् अन्यजीवितत्वं वा वदामि= सत्यं कथयामि ।पुनः प्रदेशी राजा प्राह-हे चित्र! एष पुरुषःकिम् अस्माकम् अभिगमनीयः परिचय योग्योऽस्ति ? हन्त हे स्वामिन ! एष मुनिः अभिगमनीयोऽस्ति। पुनःप्रदेशी राजा पृच्छति एवं तर्हि हे चित्र! एतं पुरुषं वयम अभिगच्छाम । अनेन सह परिचयं करवाम ? ! चित्रः सारथिः प्राह-हन्त हे स्वामिन् ! अभिगच्छाम=अनेन सह वयं परिचयं करवाम ॥सू० १२७॥
मूलम्-तए णं से पएसी राया चित्तण सारहिणा सद्धिं जेणेव केसीकुमारसमणे तेणेव उवागच्छइ, केसिस्स कुमारसमणस्स अदूरसामंते ठिच्चा एवं वयासी-तुब्भे णं भंते ! आहोहिया अण्णजीविया ? । तएणं केसीकुमारसमणे पएसिं रायं एवं वयासापएसी ! से जहाणामए अंकवाणियाइवा संखवाणियाइवा दंतवाणियाइवा सुक भसिउंकामा णो सम्म पंथं पुच्छंति, एवामेव पएसी ! तुन्भेवि विणयं भंसेउकामो नो सम्मं पुच्छसि, से णूणं तव
और दूसरा अर्थ 'अन्यजीवित' इस छायापक्ष में ऐसा होता है कि सर्वविरतियुक्त होने से अथवा जीवन मरण की आशंसा से रहित होने से इनका जीवन दूसरों के लिये ही है अपने लिये नहीं ॥स. १२७॥ अर्थ अन्यजीवित' PAL 'छायापक्ष'भा मा प्रभारी थाय छे. सावितियुत डोपाथी અથવા જીવનમરણની અશંસાથી રહિત હોવાથી એમનું જીવન બીજાઓના માટે જ છે પિતાના માટે નહિ. સ. ૧૨૭
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राजप्रश्नीयसूत्रे
पएसी ! मम पासित्ता अयमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पज्जित्था - जडा खलु भो ! जड जुपवासति जाव पवियरित्तए से पूर्ण पएसी ! अट्टे समत्थे ? हंता ! अस्थि ॥सू० १२८॥
छाया - ततः खलु स प्रदेशी राजा चित्रेण सारथिना सार्धं यत्रैव केश कुमारश्रमणः तत्रैव उपागच्छति केशिनः कुमारश्रप्रणस्य दूरसामन्ते स्थित्वा एवमवादीत् - यूयं खलु भदन्त ! अधोऽवधिकाः अन्नजीविता: ? । ततः खलु केशीकुमारश्रमणः प्रदेशिनं राजानमेवमवादीत- प्रदे शिन् ! तद्यथा नाम - अङ्कवणिज इति वा शङ्खवणिज इति वा दन्तवणिज -
'तए णं से पएसी गया चितेण सारहिणा सद्धि इत्यादि ।
सूत्रार्थ - (तए णं) इसके बाद ( से पएसी राया वित्तेण सारहिणा सर्द्धि) वह प्रदेशी राजा चित्र सारथि के साथ (जेणेव के सिकुमारसमणे तेणेव उवागच्छइ) जहां केशिकुमारश्रमण थे वहां पर गया (केसिस्स कुमा. रसमणस्स अदूरसामंते ठिच्चा एवं क्यासी) वहां जाकर वह केशिकुमार श्रमण से एसे स्थान पर खडा रह गया कि जो स्थान न उनसे अधिक दूर था और न अधिक पास था। वहीं से खडेर इसने उनसे ऐसा कहा(तुभे णं भंते ! आहोहिया अण्णजीविया) हे भदन्त ! आपका ज्ञान - अवविज्ञान परमावधि से किंचित् न्यून है, और आप प्रासुक एषणीय ही आहार करते हैं ? (तए णं के साकुमारसमणे पएस राय एवं वपासी) तब केशी कुमार श्रमणने प्रदेशी राजा से ऐसा कहा - पएसी ! से तहा णामए अंकवाणियाइ वा दंतवाणियाइ वा सुक भंसिउकामा णो सम्म
'तए णं' से पएसी राया चित्तेण सारहिणा सद्धिं' इत्यादि । सूत्रार्थ -- (तए ण) त्याच्छी ( से पएसी राया चित्तेण सारहिणा सद्धि) ते प्रदेशी रान्न चित्र सारथीनी साथै ( जेणेव केसि कुमारसमणे तेणेव उवागच्छइ) न्यां वैशिठुभार श्रभाणु हुता त्यां गया. ( के सिस्स कुमारसमणस्स अदूरसाम ते ठिच्चा एवं वयासी) त्यां कहने ते शिकुमार श्रमाथी सेवा स्थाने उला रह्या કે જે સ્થાન તેમનાથી વધારે દૂર પણ નહિં હતું અને વધારે નજીક પણ નહિ હતુ त्यां तुला ७ला ४ तेो तेभने या प्रमाणे धु (तुब्भे णं भते ! आहोहिया अण्णाजीविया) हे महंत ! यातु ज्ञान- परभावधि उरतां थोडु' उभ छे ? भने आप आसुः शेषणीय आहार ४ था । हो ? (तएण केसीकुमारसमणे परसि राय एवं वयासी) त्यारे शीकुमार श्रम प्रदेशी शब्लने या प्रमाणे धु
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सुबोधिनी टीका. सूत्र १२८ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् १६९ इति वा, शुल्क भ्रंशयितुकामा नो सम्यक् पन्थान पृच्छन्ति, एवमेव पदेशिन् ! त्वमपि विनय भ्रशयितुकामा नो सम्यक् पृच्छसि, अथ नून तव प्रदेशिन् ! मां दृष्ट्वा अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः यावत् समुदपद्यत-जडाः खलु भो ! जड पर्युपासते यावत् प्रविचरितुं स नून प्रदेशिन् ! अर्थः समर्थ: हन्त ! अस्ति ॥ सू० १२८ ॥ पंथ पुच्छति) हे प्रदेशिन् ! जैसे अकरत्न के व्यापारी. अथवा शंखरत्न के व्यापारी, या दन्त के व्यापारी, अर्थात् शंख शुभ भी होता है इस लिये उसको रत्न कहा है, राजदेय भाग को नहीं देने की इच्छा वाले होकर जाने के अच्छे मार्ग को नहीं पूछते हैं (एवामेव पएसी तुन्भे वि यणं भंसेउकामो नो सम्म' पुच्छसि) इसी प्रकार से हे प्रदेशिन् ! विनयरूप प्रतिपत्ति को नहीं करने की कामना वाले बने हुए तुमने भी यह अच्छेरूप से नहीं पूछा है. (से गुण तव पएसी मम पासित्ता अय. मेयाख्वे अज्झथिए जाव समुप्पजित्था) हे प्रदेशिन् ! मुझे देखकर तुम्हें इस प्रकार का यह आध्यात्मिक यावत मनोगत संकल्प हुआ है (जड खलु भो! जड्ड पज्जुवासति जाव पवियरित्तए) जड पुरुष जड पुरुषकी पर्युपासना करते हैं यावत् मैं अपनी भी इस उद्यान भूमि में अच्छी तरह से घूम नहीं पा रहा हू (से गूण पएसी! अ? समत्थे? ) हे प्रदेशिन ! कहो मैं ठीक कह रहा हूं न? (हता, अत्थि) हां, आप ठीक कह रहे हैं। (पएसी! से जहाणामए अंकवाणियाइ वा, संखवाणियाइ वा, दंतवाणि. याइ वा, सुक भसिउकामा णो सम्मं पंथं पुच्छंति) 3 प्रशिन् ! म અંકરનના વહેપારી, કે શંખરનના વહેપારી કે દન્તના વહેપારી (શંખ શુભ પણ ગણાય છે તેથી અહીં તેને રત્નરૂપે ઉલ્લેખવામાં આવ્યું છે. રાજકર આપવાની ઈચ્છા न रावता त्यांथावान सारा मार्गा भाटे ५७५२७ ४२ता नथी (एवामेव पएसी तम्भे विवियण' असेउकामो नो सम्म पुच्छसि) मा प्रमाणे प्रशिन ! વિનયરૂપ પ્રતિપત્તિને ન આચરતાં તમે પણ આ વાત શિષ્ટભાવથી-નમ્રતાથपूछी नथी. (से गुण तव पएसी मम पासित्ता अयमेयारूवे अत्झथिए जाप समुप्पज्जित्था) : प्रशिनू भने धन तमने 24 प्रमाणुनो माध्यात्मि यावत भनोगत ४८५ अत्यन्न थयो छे (जड्डा खलु भो ! जड्ड पज्जुवासति जाव पवियरित्तए) १४ पुरुषोने से छे यावत् ई मा भारी वातानी प्रधान भूमिमा पर सारी शत आरामथा इश शरतो नथी. (से गूण पएसी ! अठे समत्ये १) ई प्रशिन! मासोईसराम२ ई. छुन ? (हता. अस्थि)डi, साथ ही होछी.
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राजप्रश्नीयसूत्र टीका-'तएण से पएसी' इत्यादि-ततः खलु स प्रदेशी राजा चित्रण सारथिना सार्ध यत्र व केशीकुमारश्रमणस्तत्र वोपागच्छति समागच्छति, केशिन कुमारश्रमणस्य अदूरसामन्ते नातिदूरे नातिसमीपे स्थित्वा अनुपविश्यैव एवमवादीत-यूय खलु हे भदन्त अधोऽवधिकाः-अधोऽव. घिसम्पन्नाः ? अन्नजीविता:-प्रासुकैषणीयान्नमात्र विनः अन्यजीविनो वा? ततः खलु केशीकुमारश्रमणः प्रदेशिन राजानमेवमवादीत-हे प्रदेशिन ! तद्यथा इति दृष्टान्ते, नामेति वाक्यालङ्कारे, अङ्कवणिजः अङ्करत्नव्यापारिणः 'इति' वाक्यालङ्कारे 'वा' समुच्चये, शङ्खवणिजः शङ्खरत्नब्यापारिणः, दन्तवणिज: हस्तिदन्तव्यापारिणः उपलक्षणात्सर्व रत्नव्यापारिणः शुल्क राजदेय भाग भ्रशयितुकामा अदातुकामाः नो सम्यक-समीचीनतया पन्धोन' गम्यमार्ग पृच्छन्ति, एवमेव अनयैव रीत्या हे पदेशिन् ! त्वमपि विनय प्रतिपत्तिरूप भ्रशयितुकाम: अक काम नो सम्यकू पृच्छसि । अथ% वाक्यारम्भे नून निश्चयेन हे प्रदेशिन् । तव मां दृष्ट्वा अयमेतद्रुपः वक्ष्यमा णप्रकारकः आध्यात्मिकः आत्मगतः यावत् कल्पितः प्रार्थित, चिन्तितः मनोगतः=मनः-स्थितः सकल्पा-विचारः समुपद्यत-समुत्पन्नः, तदेव दर्श यति-जडाखलु भो ! जड पर्युपास्ते यावत् प्रविचरितुम् , यावत्यदसंग्राह्यः सर्वोऽपि पाठः पूर्वगतः, स तदर्थश्च तत एवावलोकनीयः। हे प्रदेशिन् ! सोऽर्थः-मदुक्तस्त्वहृद्गतविचाररूपोऽर्यः नून' निश्चित समर्थो वास्तविको वर्तते ? प्रदेशी राजा प्राह-हन्त ! अस्ति अयमर्थः समर्थाऽस्ति सत्य मस्तीति भावः ॥ स० १२८॥
टीकार्थ--स्पष्ट है. यहां 'इति' शब्द वाक्याल कार में और 'वा' शब्द समुच्चय अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। तथा 'तद् यथा' पद दृष्टान्त में आया है। उपलक्षण से यहां समस्त रत्न व्यापारी को ग्रहण करना चाहिये. यावत् पद से संकल्प के कल्पित, मार्थित, चिन्तित और मनोगत' ये विशेषण ग्रहण किये गये हैं। तथा-'पज्जुवासंति जाव' के यावत् पद से पूर्वगत समस्त पाठ गृहीत हुआ है। यह पाठ १२६वे सूत्र में प्रकट किया गया है।सू.१२८॥
टी -20 सूत्रन टी २५ष्ट ४ छे. मी 'इति' श६ पायां४ारमा मने 'वा' श६ सभुश्यय सभां पराये छे. तभा 'तद यथा' ५४ દૃષ્ટાન્તમાં આવેલ છે. ઉપલક્ષણ થી અહીં બધા રનના વેપારીઓનું ગ્રહણ સમજવું જોઈએ. યાવત પદથી સંક૯૫ના કલ્પિત, પ્રાર્થિત, ચિતિત અને મને ગત से विशेष प्रड ४२वा. ध्ये 'पज्जुवासति जाव' ना यावत् ५४थी पूर्वगत સમસ્ત પાઠનું ગ્રહણ સમજવું જોઈએ. આ પાઠ ૧૨૬માં સૂત્રમાં આપેલ છે. સૂ, ૧૨૮
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सुबोधिनी टीका. १२९ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिरजवर्णनम् १७१
मूलम्--तएणं से पएसी राया केसि कुमारसमणं एवं वयासी से केणं भंते ! तुझं नाणे वा दंसणे वा जेणं तुझे मम एयारूवं अज्जत्थियं जाव संकप्पं समुप्पण्णं जाणह पासह ? तएणं से केसी कुमारसमणे पएसि रायं एवं वयासी-एवं खलु पएसि! अम्हं समणाणं निग्गंथाणं पंचविहे नाणे पण्णत्ते, तं जहा-आभिणिवोहियणाणे१ सुयणाणे२ ओहिणाणे३ मणपजवमाणे४ केवलणाणे५५ । से कि तं आभिणिबोहियनाणे? अभिणिबोहियनाणे चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा-उग्गहे१ ईहार अवाए३ घारणा४। से किं तं उग्गहे ? उग्गहे दुविहे पण्णत्ते, जहा नंदीए जाव से तं धारणा, से तं आभिणियोहियणाणे। से किं तं सुयनाणे ? सुयनाणे दुविहे पण्णत्ते-अंगपविटुं च अंगबाहिरियं च, सव्व भाणियव्व जाव दिदिवाओ। ओहिणाणं भवपञ्चइयखाओवसमिय जहा नंदीए मणपज्जवनाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-उज्जुमई य विउलमई य, तहेव केवलनाणं सव्व भाणियव्व । तत्थ णं जे से आभिणिबोहिनाणे, सेणं मम अत्थि। तत्थ णं जे से सुयणाणे से वि य ममं अस्थि । तत्थ णं जे से ओहिणाणे से वि य ममं अत्थि। तत्थ णं जे से मणपजवनाणे से वि य मम अस्थि । तत्थ णं जे से केवलनाणे से णं मम नत्थि, से णं अरिहताणं भगवंताणं । इच्चेएणं पएसी! अह तव चउठिवहेणं छाउ. मथिएणं णाणेणं इमेयारूवं अज्झत्थिय जाव संकप्प समुप्पण्णं जाणाभि--पासामि ॥ सू. १२९ ॥
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राजप्रश्नीयसूत्र छाया-ततः खलु स प्रदेशी राजा केशिन कुमारश्रमणम् एवमवादीत-तत्किं खलु भदन्त ! युष्माकं ज्ञानं वा दर्शन' वा, येन यूयं मम एतद्रूपम् आध्यात्मिक यावत् संकल्प समुत्पन्न' जानीथ पश्यथ ? ततः खलु स केशीकुमारश्रमण : प्रदेशिन राजानं एवमवादीत एवं खलु प्रदे. शिन ! अस्माकं श्रमणानां निर्ग्रन्थानां पञ्चविध ज्ञान प्रज्ञप्तम्, तद्यथाआभिनिचोधिकज्ञानम् १, श्रतज्ञानम् २, अवधिज्ञानम् ३, मनःपर्यवज्ञानम्४, केवलज्ञानम् ५ । अथ किं तद् आभिनिबोधिकज्ञानम् ? आभिनिबोधिकज्ञान
'तए णं से पएसी राया' इति' इत्यादि।
सूत्रार्थ--(तए णं से पएसी राया केसि कुमारसमण एवं क्यासी) पुनः उस प्रदेशी राजाने केशी कुमारश्रमण से ऐसा कहा-(से केण भते ! तुज्झ, नाणे वा दसणे वा जेणं तुज्झ मम एयारूवं अज्झ स्थिय जाव संकप्प समुप्पण जाणह पासह ?) हे भदन्त ! ऐसा आपका वह कौनसा ज्ञान अथवा दर्शन है कि जिसके द्वारा आपने मेरे इस उत्पन्न हुए आध्यात्मिक यावत् मनोगत संकल्प को जाना है, और देखा है (लए ण से केसी कुमारसमणे पएसिं राय एवं वयासी) तब केशीकुमार. श्रमणने उस प्रदेशी राजा से ऐसा कहा-(एवं खलु पएसी अम्हें समणाण णिग्गं थाण' पंचविहे नाणे पण्णत्ते तं जहा-आभिणिबोहियनाणे, सुय नाणे, ओहिनाणे, मणपज्जवनाणे केवलणाणे)हे प्रदेशिन! हम श्रमण निर्ग्रन्थों के मत में पांच प्रकार के ज्ञान कहे गये हैं जैसे आभिनिबोधिकज्ञान,-मतिज्ञान श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान. मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान (से किं तं आभिणि.
'त एण से पएसी राया' इत्यादि ।
सूत्रार्थ-(त एण से पएसी राया केसि कुमारसमण एवं वयासी) ५॥ ते प्रदेश २ शाभार भने २॥ प्रभारी (से केण भते ! तुज्झ वाणे वा दसणे वा जेण तुज्ज्ञ मम एयारूव अज्झत्थिय जाव संकप्प समुप्पण जाणह पासह ?) महत ! पानी पासे ये ४४ तनु शान દર્શન છે કે જેના વડે આપ મારામાં ઉત્પન્ન થયેલ આધ્યાત્મિયાવત્ મનોગત સંકલ્પને one या छो. मने बने या छो. (तए णसे केसीकुमारसमणे पएसिं राय एवं वयासी) त्यारे उशीभा२ श्रमणे ते अशी रासने 20 प्रमाणे ह्यु(एवं खलु पएसी! अम्ह समणाण णिग्गथाण पंचविहे नाणे पण्णते त जहा-आभिणियोहियनणे, सुयनाणे, ओहिनाणे, मणपज्जवनाणे, केवलणाणे) હે પ્રદેશિન ! અમારા શમણ નિગ્રંથના મતમાં પાંચ પ્રકારના જ્ઞાન કહેવામાં આવ્યાં
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सुबोधिनी टीका सू १२९ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्ण' नम
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चतुर्विधं प्रज्ञप्त, तद्यथा - अवग्रहः ११, ईहा २, अवायः ३, धारणा ४ | अथ कोऽसौ अवग्रहः अवग्रहो द्विविधः प्रज्ञसः यथा नन्द्यां यावत् सेवा धारणा, तदेतद्, आभिनिबोधिक ज्ञानम् । अथ किं तत् श्रुतज्ञानम् श्रुतज्ञान द्विविधं प्रज्ञप्त, तद्यथा - अङ्गमविष्ट च अङ्गबाहय च, सर्व भणितव्य यावत्दृष्टिवादः । अवधिज्ञान' भवप्रत्ययिक क्षायोपशमिकं यथा नन्द्याम् (नं. पृ.
बोहियनाणे) हे भदन्त ! आभिनिबोधिकज्ञान का क्या स्वरूप है ? (आभिणिबोहियनाणे चउन्विहे पण्णत्ते) हे प्रदेशिन् | आभिनिबोधिकज्ञान चार प्रकार का कहा गया है। (तं जहा - उग्गहे १ ईहा २ अवाए३ धारणा ४) जैसेअवग्रह. ईहा, अवाय और धारणा । (से किं त उग्गहे) हे मदन्त ! अवग्रह ज्ञान का क्या स्वरूप है। (जहानंदीए जाव से तं धारणा, से तं आभिणि बोहिणाणे) अवग्रह से लेकर धारणापर्यन्त सब विवेचन नन्दीसूत्र में कहा गया है, इस प्रकार वह आभिनिबोधिकज्ञान का स्वरूप है। ( से किं तं सुयनाणे) हे भदन्त ! श्रुतज्ञान का क्या स्वरूप है ? (सुमना दुविहे - पण्णत्ते) हे प्रदेशिन् ! श्रुतज्ञान दो प्रकार का कहा गया है । (तं जहाअगपवि च अंगबाहिरियं च ) जैसे- अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य (सव्व' भाणि
or जाव दिट्टिवाओ) इन दोनों श्रुतज्ञानों का वर्णन भी नन्दिसूत्र में कहा गया है अतः दृष्टिवाद तक श्रुतज्ञान का समस्त वर्णन वहां से देखना चाहिये, (ओहिनाणं भवपच्चइयं खओवसमियं जहा नंदीए) अवधिज्ञान भवप्रत्ययिक છે. જેમકે આભિનિબાધિકજ્ઞાન,-મતિજ્ઞાન શ્રૃત્તજ્ઞાન, અવધિજ્ઞાન,મનઃ૫વજ્ઞાન અને કેવલજ્ઞાન, (से किं त आभिणिबोहियनाणे) हे लहंत ! मलिनिमेोधि ज्ञाननु स्व३य ठेवु छे ? (आभिणिबोहियनाणे चउब्विहे पण्णत्ते) हे प्रदेशिन् ! मालिनियोधिज्ञान यार अक्षरनु उहेवाय छे. (त जहा - उग्गहे १ ईहा २ अवाए ३ धारणा ४) २ भ अवग्रह १, ४डा २, अवाय 3, अने धारणा ४. (से कि त उग्गहे) हे लहांत ! अवग्रह ज्ञाननु ं स्व३५ ठेषु' छे ? (उग्गहे दुबिहे पण्ण से) हे प्रदेशिन् अवथह ज्ञान मे अअर नुं वा छे. (जहा नंदीए जाव से त धारणा, सेतं आभिणिबोहियणाणे) અવગ્રહથી માંડીને ધારણા સુધીનું સમસ્ત વિવેચન નંદીસૂત્રમાં સ્પર્ગો કરવામાં याव्यु ं छे. या प्रमाणे या मालिनियोधिपु साननु स्व३५ छे ? (से किं तं सुयनाणे) हे लहंत ! श्रुतज्ञाननु ं स्व३५ देवु छे ? (सुयनाणे दुविहे पण्णत्ते) हे प्रदेशिन् ! શ્રુતજ્ઞાન प्रा. (तं जहा अंगपवि च अंगवाहिरियं च) प्रेम अंग प्रविष्ट संगमाहा. (सव्वं भाणियव्वं जाव दिठ्ठियाओ) मा भन्ने श्रुतज्ञानानु वार्जुन પણ નન્તિસૂત્રમાં કરવામાં આળ્યું છે. તેથી દૃષ્ટિવાદ સુધી શ્રુતજ્ઞાનનુ બધુ વષઁન त्यांथी ४ भागी सेवु लेऽये (ओहिनाणंभवपच्चइयं खओवसमियं जहा नदीए )
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१६८ पं. ४) । मनः पर्यवज्ञानं द्विविधं प्रज्ञप्त, तद्यथा-ऋजुमतिश्च विपुल मतिश्च तथैव केवलज्ञानं सर्वं भणितव्यम् । तत्र खलु यत्तत् आभिनिबोधिकज्ञानं तत्खलु ममास्ति १ । तत्र खलु यत्तत् श्रुतज्ञानं तदपि च ममास्ति २ । तत्र खलु यत्तत् अवधिज्ञान तदपि च ममास्ति ३ । तत्र - खलु यत्तद् मनः पर्यवज्ञानं तदपि च ममास्ति ४ । तत्र खलु यत्तत् केवलज्ञानं तत् खलु मम नास्ति, तत् खलु अर्हतां भगवताम् । इत्येतेन प्रदेशिन् ! अह ं तव चतुर्विधेन छाद्मस्थिकेन ज्ञानेन एतमेतद्रूपम् आध्यात्मिक यावत् संकल्पं समुत्पन्नं जानामि पश्यामि ।। सू० १२९ ।।
और क्षायोपशमिक के भेद से दो प्रकार का कहा गया है। इसका भी वर्णन नन्दीसूत्र में किया गया है। (मणपज्जवनाणे दुविहे पण्णत्ते) मनः पर्यव - ज्ञान दो प्रकार का कहा गया है (तं जहा - उज्जुमईय. विउलमईय) - ऋजुमति और विपुलमति, (तहेव केवलनाणं सव्वं भाणियच्व) इसी प्रकार केवलज्ञान का वर्णन भी यहां पर करना चाहिये (तत्थ ण जे से आभिणिबोहियनाणे से णं मम अस्थि) इन पांच ज्ञानों में से मुझे मतिज्ञान रूप आभिनिबोधिक ज्ञान है । (तत्थ णं' जे से सुयनाणे से वि य मम अस्थि) श्रुतज्ञान भी है (ओहियणाणे से वि य ममं अस्थि) अवधिज्ञान भी है। (तत्थ णं जे से मणपज्जवनाणे से वि य ममं अस्थि) और मुझे मनः पर्ययज्ञान भी है । (तत्थ णं जे से केवलवाणे से णं मम नत्थि) केवल ज्ञान मुझ े नहीं है (से ण अरिहंताणं भगवंताणं) यह केवलज्ञान अर्हन्त भगवन्तों के होता है। (इच्चेएण पएसी ! अहं तव चउब्बिहेण छाउ અવધિજ્ઞાન ભવપ્રત્યયિક અને ક્ષાયે પશમિકના ભેદથી એ પ્રકારનુ કહેવાય છે. આનું વર્ણન પણ નન્દીસૂત્રમાં ४२वामां आव्यु ं छे. (मणपज्जवनाणे, दुविहे पण्णत्ते) भनः पर्यवज्ञान मे प्रारनु उडेवाय छे. (त जहा उज्जुमई य बिउलमई प )
प्रेम ऋनुमति मने वियुसमति (तहेव केवलनाणं सव्वं भाणियव्वं ) या प्रमाणे
सज्ञान वार्जुन या लेणे. (तत्थ णं जे से आभिणिबोहिघनाणे से णं मम अस्थि) या पांथ ज्ञानभांथी भने भतिज्ञान३य मालिनिमोधिज्ञान छे. (तत्थणं जे से सुयनाणे से विय मम अस्थि) श्रुतज्ञान पशु छे. (ओहिय गाणे से विय मम अस्थि) अवधिज्ञान पशु छे. (तत्थ णं जे से मणपज्जव नाणे से विय ममं अस्थि) भने मनःपर्यवज्ञान पशु छे. (तत्थ णं जे से केवलनाणे सेण मम नत्थि) परंतु भने ठेवलज्ञान नथी. ( से णं अरिहंताणं भगवंताणं, या ठेवणज्ञान अर्हन्त भगवन्ताने हाय छे. (इच्चेएण पएसी ! अहं तव च उब्विण छउमत्थिएणं णाणेण इमेयारूवं अज्झत्थिय जाव संकल्प
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सुबोधिनी टोका सू. १२९ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजोवप्रदेशिराजवर्ण नम्
टीका--'तए णं से पएसी' इत्यादि--ततः खलु स प्रदेशी राजा केशिनं कुमारश्रमणमू एवमवादीत्-तत् किम् कीदृशं खलु हे भदन्त ! युष्माकं ज्ञानं वा दर्शनं वा अस्ति येन ज्ञानेन वा दर्शनेन वा यूयं मम एतद्रूपं पूर्वोक्तप्रकारम् आध्यात्मिकम् आत्मगतविचारम् यावत् संकल्पम्, यावच्छन् देन-चिन्तितं, कल्पितं, प्रार्थितं मनोगतम्, इति संग्राह्यम्, संकल्पं समु त्पन्न समुद्भूतं जानीथ-ज्ञानविषयीकुरुथ पश्यथ-दर्शनविषयीकुरुथ। ततः प्रदेशि राजप्रधानन्तरं खलु स केशीकुमारश्रमणः प्रदेशिनं राजानम् एवमवादीत्एवं खलु हे पदेशिन ! अस्माकं श्रमणानां निर्ग्रन्थानां पञ्चविधं ज्ञानं पज्ञप्तं, तद्यथा-आभिनिबोधिकज्ञानम् १ श्रुतज्ञानम २, अवधिज्ञानम् ३, मनःपर्यवज्ञानम् ४, केवलज्ञानम् ५। तत्र-आभिनिबोधिक ज्ञानं चतुर्विधं प्रज्ञप्तं, त था-अवग्रहः १, ईहा २, अवायः ३, धारणा ४ । अथ कोऽसौ अवग्रहः ! थिएणणाणेणं इमेयारूब अज्झस्थियं जाव संकप्प' समुप्पणं जाणामि पासामि) इस तरह से हे प्रदेशिन् मैंने इन छानस्थिक चतुर्विधज्ञान के द्वारा तुम्हारे इस प्रकार के समुत्पन्न हुए इस संकल्प को जान लिया है और देखलिया है।
टीकार्थ-इसके बाद प्रदेशी राजाने केशी कुमारश्रमण से इस प्रकार कहा-हे भदन्त ? आपका ज्ञान दर्शन किस प्रकार का है कि जिससे आपने मेरे उत्पन्न हुए इस प्रकार के आध्यात्मिक, चिन्तित. कल्पित, पार्थित एवं मनोगत इस संकल्प को जान लिया है, और देख लिया है ? इस प्रकार के प्रदेशी राजा के पूछने पर केशीकुमारश्रमणने उससे ऐसा कहा-हे प्रदेशिन ! श्रमणनिर्गन्थों का ज्ञान पांच प्रकार का कहा गया है, अभिनिबोधिकज्ञान१, श्रुतज्ञान२. अवधिज्ञान३. मनःपर्यवज्ञान४, और केवलज्ञान५. इनमें आभिनिबोधिज्ञ अवग्रह, ईहा, अवाय, और धारणा के
समुप्पण्ण जाणामि पासामि) मा प्रमाणे प्रशिन् ! भे' मा छानस्थियार પ્રકારના જ્ઞાન વડે તમારામાં સમુત્પન્ન થયેલ સંકલ્પ જાણી લીધું છે અને જેઇલીધે છે.
ટીકાર્થ –ત્યારપછી પ્રદેશી રાજાએ કેશીકુમારશ્રમણને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે ભદંત ! આપનું જ્ઞાનદર્શન કઈ જાતનું છે. કે જેથી આપે મારામાં ઉત્પન્ન થયેલ આધ્યાત્મિક. ચિંતિત, કલિપત, પ્રાર્થિત અને મને ગત આ સંકલ્પ જાણી ગયા છો અને જોઈ ગયા છો? આ પ્રમાણે પ્રદેશ રાજાના પ્રશ્નને સાંભળીને કેશીકુમાર શ્રમણે તેમને આ રીતે કહ્યું કે હે પ્રદેશિન ! શ્રમણ નિગ્રથોનું જ્ઞાન પાંચ પ્રકારનું કહેવાય છે. આભિનિધિજ્ઞાન ૧, છતજ્ઞાન, અવધિજ્ઞાન ૩, મન:પર્યવજ્ઞાન ૪, અને કેવલજ્ઞાન ૫, આમાં આભિનિધિકજ્ઞાન અવગ્રહ, ઈહા, અવાય અને ધારણના ભેદેથી ચાર
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इति प्रश्ने आह - अवग्रहो द्विविधः प्रज्ञप्तः यथा नन्यां यावत् सैषा धारणा= अवग्रहादारभ्य धारणापर्यन्तं सर्वमाभिनिबोधिकज्ञान विवरणं नन्दी सूत्रे विलो - कनीयम् | अर्थस्तु नन्दी सूत्रस्य मत्कृतज्ञानचन्द्रिका टीकातो बोध्यः । तदेतद् आभिनिबोधिकज्ञानम् । अथ किं तत् श्रुतज्ञनम् ? श्रुतज्ञानं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा - अङ्गप्रविष्टम् १' अङ्गबाह्य च सर्व = श्रुतज्ञानविषयक सर्वं विवरणं भणितव्यं = नन्दीसूत्रोक्तमेवात्र पठितव्यं यावत् - दृष्टिवादः = दृष्टिवादविव रणपर्यन्तमिति । अवधिज्ञानं भवप्रत्यविकं क्षायोपशमिकं चेति द्विविधं, यथा नद्यां= नन्दी सूत्रे यथाकथितं तथैव सर्वं विज्ञेयम् । अर्थोऽपि तत्रैव मत्कृतज्ञानचन्द्रिकाटीकायामवलोकनीयः ३ । मनः पर्यवज्ञानं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा
भेद से चार प्रकार का कहा गया है. अवग्रह का स्वरूप क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में केशिकुमारश्रमण ने कहा कि अर्थावग्रह और व्यञ्जनावग्रह के भेद से अवग्रह दो प्रकार का कहा गया है. नन्दीसूत्र में अवग्रह से लेकर धारणा तकका पूर्ण विषय आभिनिबोधिकज्ञान के विवरणप्रकरण में बहुत ही सुंदर ढंग से स्पष्ट किया गया है। नन्दीसूत्र के ऊपर हमने ज्ञानचन्द्रिका नाम की टीका लिखी है उसमें यह सब विषय स्पष्ट रूप से समझाया गया है अतः विशेष जिज्ञासु इस विषय को वहां से देख लेवें । श्रुतज्ञान भी अङ्गमविष्ट और अङ्गबाह्य के भेद से दो प्रकार का कहा गया है. इस विषय का भी स्पष्टीकरण नन्दीसूत्र में किया जा चुका है । भवत्ययिक अवधि और क्षायोपशमिकअवधि इस प्रकार से अवधिज्ञान दो तरह का कहा गया है। इनकाभी वर्णन वहीं पर किया गया है। ऋजु
પ્રકારનુ` કહેવાય છે. અવગ્રહનું સ્વરૂપ કેવું છે? આ જાતના પ્રશ્નના ઉત્તરમાં કેશિકુમાર શ્રમણે કહ્યુ` કે અર્થાવગ્રહ અને વ્યંજનાવગ્રહના ભેદથી અવગ્રહના બે પ્રકાર કહેવાય છે; નદીસૂત્રમાં અવગ્રહથી માંડીને ધારણ સુધીની સંપૂર્ણ વિગત આભિનિધિકજ્ઞાનના વિવરણ પ્રકરણમાં ખૂબજ સારી રીતે રજૂ કરવામાં આવી છે. નદીસૂત્રની અમેએ ‘જ્ઞાનવૃન્દ્રિત્તા’ નામે ટીકા લખી છે તેમાં આ બધી બાબતેનુ સવિસ્તાર સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવ્યું છે. તેથી વિશેષ જિજ્ઞાસુ સજ્જને ત્યાંથી જ વાંચવા યત્ન કરે, શ્રુતજ્ઞાન પણ અંગ પ્રવિષ્ટ અને અંગ ખાદ્યના ભેદથી એ પ્રકારનું કહેવાય છે. આ ખાખતનું સ્પષ્ટીકરણ પણ નંદીસૂત્રમાં કરવામાં આવ્યું છે. ભવ પ્રત્યમિક અવધિ અને ક્ષાયેાપશમિદ અવિષે આ પ્રમાણે અધિજ્ઞાન એ પ્રકારનુ કહેવાય છે. આ વિષેનુ વર્ણન પણ ત્યાંજ કરવામાં આવ્યુ છે. ઋજુમતિ અને વિપુલમતિનો ભેદથી મન: પવજ્ઞાન એ પ્રકારનુ કહેવાય છે. આ વિષેનું સમસ્ત વિવરણ નંદીસૂત્રમાંથી જાણી
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सुबोधिनी टीका सू. १२९ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् १७७ ऋजुमतिश्च । विपुलमतिश्च । अस्यापि सर्च विवरणं नन्दीसूत्रे द्रष्टव्यम्। तथैव-नन्दीसूत्रोक्तप्रकारेणैव केवलज्ञानं केवलज्ञानविवरणं सर्व भणितव्यम् । तत्र-तेषु पञ्चसु ज्ञानेषु खलु यत्तद् आभिनिबोधिकज्ञान तत् खलु ममास्ति। एवं अतज्ञानम् २, अवधिज्ञानम्३, मनापर्यवज्ञानं ४ चेति ज्ञानचतुष्टयं ममास्ति। तत्र तेषु पञ्चसु ज्ञानेषु यत्तत् केवलज्ञानं तत् मम नास्तिन विद्यते तत=केवलज्ञानं खलु अर्हतां भगवतां भवति नान्येषामिति। इत्ये. तेन-पूर्वोक्तेन कारणेन हे प्रदेशिन् ! राजन्! अहं चतुर्विधेन-चतुष्पकारकेणछाद्मस्थिके नछद्मस्थसम्बन्धिना ज्ञानेन तव एतम् एतत्वदन्तःकरणस्थम्आध्यात्मिकं यावत् संकल्प मनोगतं संकल्प समुत्पन्न जानामि पश्यामिासू.१२९॥
मूलम्-तएणं से पएसी राया केसिंकुमारसमणं एवं वयासी-- अहं णं भंते ! इह उवविसामि ? पएसी ! साए उज्जाणभूमीए तुमंसी चेव जाणए, तए णं से पयसी राया चित्ते णं सारहिणासिद्धि केसिस्स कुमारसमणस्स अदूरसामंते उवविसइ, केसिकुमारसमणं एवं वयासी तुब्भे गं भंते! समणाणं णिग्गंथाणं एसा सण्णा एसा पइ. पणा एसा दिट्री एसा रुई एस हेऊ एस उवएसे संकप्पे एसा मति और विपुलमति के भेद से मनःपर्यवज्ञान दो प्रकार का कहा गया है। इसका समस्त विवरण नन्दीसूत्र से जानने योग्य है। इसी प्रकार केवलज्ञान विषयक समस्त कथन भी वहीं से जानना चाहिये। इन प्रदर्शित पांच ज्ञानों में से मुझे चारज्ञान प्राप्त हैं, आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, एवं मनःपर्य यज्ञान, केवलज्ञान मुझे नहीं है, यह ज्ञान अहन्त भग वन्तों को ही होता है। अतः हे प्रदेशिन् ! मैं इन चार छाझस्थिक ज्ञान से उत्पन्न हुए इस तुम्हारे अन्तःकरणस्थ आध्यात्मिक यावत् मनोगत संकल्प को जान गया हूँ और देख चुका हूं ॥सू. १२९ ॥ લેવું જોઈએ. આ પ્રમાણે કેવલજ્ઞાન વિષયક સમસ્ત કથન પણ ત્યાંથી જ જાણી લેવું જોઈએ. ઉપર જણાવેલ પાંચ જ્ઞાનમાંથી મને ચાર જ્ઞાન પ્રાપ્ત થયેલ છે. અભિનિ. બેધિકજ્ઞાન, (મતિજ્ઞાન) રુતજ્ઞાન, અવધિજ્ઞાન અને મન પર્યયજ્ઞાન મને કેવલજ્ઞાન પ્રાપ્ત થયેલ નથી. આ જ્ઞાન અહંત ભગવંતેને જ હોય છે. એથી હે પ્રદેશિન! હું આ ચાર છાઘસ્થિક જ્ઞાનથી ઉત્પન્ન થયેલ તમારા આ અન્તઃકરણસ્થ આધ્યાત્મિક થાવતું મને ગત સક૯૫ને જાણી ગયે છું અને જેઈ ગયે છું. ! સૂ. ૧૨૯ છે
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तुला एस माणे एस पमाणे एस समोसरणे जहा अण्णो जीवोअण्णं सरीरं, णो तं जीवो तं सरीरं ? तएणं केसीकुमारसमणे पए सिं रायं एवं वयासी- पपसी ! अम्हं समणाण णिग्गंथाणं एसा सपणा जाव एस समोसरणे जहा अण्णो जीवो अण्णं सरीरं णो तं जीवो तं सरीरं ॥ सू० १३० ॥
छाया - ततः खलु स प्रदेशी राजा केशिन कुमारश्रणमेवमवादीत् अह खलु भदन्त ! इह उपविशामि ? प्रदेशिन् ? एतस्या उद्यान भूमेस्त्वमसि एव ज्ञायकः, ततः खलु स प्रदेशी राजा चित्रेण सारथिना सार्द्ध केशिनः कुमारश्रमणस्य अदूरसामन्ते उपविशति, केशिकुमारश्रमणमेवमवादीत् युष्माकं
'तरण से पएसी राया' इत्यादि ।
सूत्रार्थ - (तए णं से पएसी राया केसि कुमारसमणं एवं वयासी) इसके वा केशीकुमार श्रमण से उस प्रदेशी राजाने ऐसा कहा (अह णं भंते! इह उधवसामि ) हे भदन्त ! मैं इस स्थान में बैठ जाऊ ? (पएसी ! साए उज्जाणभूमी तुमंस चेव जाणए) तब केशीकुमार श्रमणने उससे कहा हे प्रदेशिन ! इस उद्यानभूमि के तुम ही ज्ञायक हो अर्थात् उपवेशन के विषय में या अनुपवेशन के विषय में मैं क्या कहूं- यह तो स्वयं ही जानो (तए णं से पएसी राया चित्तेणं सारहिणा सद्धिं केसिस्स कुमार समणस्स अदूरसामंते उवविसइ) इसके बाद वह प्रदेशी राजा चित्र सारथि के साथ केशीकुमारश्रमण के समीप-न अधिक दूर और न अधिक
'त एण से पएसी राया' इत्यादि ।
सूत्रार्थ - ( त एण से पएसी राया केलिं कुमारसमण एवं वयासी) त्यारपछी देशीङ्कुभारश्रमाने ते अहेशी रामसे या प्रमाणे उर्छु - ( अहं ण' भते ! इह उवविसामि ) हे लहंत हुं मा स्थाने मेसु ? (पएसी ! साए उज्जाण भूमीए तुमसि चेव जाणए) त्यारे उशीकुमार श्रम ते शन्नने या प्रमाणे કહ્યું કે હે પ્રદેશિન ! આ ઉદ્યાનભૂમિના તમે જ જ્ઞાપક છે એટલે કે ઉપવેશન માટે કે અનુપવેશન માટે મારે તમને કહેવુ' તે અમારા સાધુકલ્પથી બહાર છે જેથી તે भाटे तभे पोतेन वियारी से. (तए णं से पएसी राया चितण सारहिणा सद्धिं केसिस्स कुमारसमणस्स अदूरसामते उवविसइ) त्यार पछी ते अहेशी રાજા ચિત્રસારથિની સાથે કેશિકુમારશ્રમની પાસે–વધારે દૂર પણ નહિ— तेमन वधारे नल था। नहि मेवा स्थाने मेसी गये. (केसि कुमारसमण एव
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सुबोधिनी टीका सू. १३० सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशीराजवर्णनम् __ १७९ खलु भदन्त ! श्रमणानां निर्ग्रन्थानाम् एषा संज्ञा एषा प्रतिज्ञा एषा दृष्टिः एषा रुचिः एष हेजुः एष उपदेशः एष सङ्कल्पः एषा तुला एतत् मानम् एतत् समवसरणम् यथा-अन्यो जीव: अन्यत् शरीरम्, नो तत् जीवः तत् शरीरम् ? ततः खलु केशीकुमारश्रमणः प्रदेशिन राजानमेवमवादीत्-प्रदेशिन अस्माक' श्रमणानां निग्रन्थानाम् एषा संज्ञा यावत् एतत् समवसरण यथाअन्यो जीवः अन्यत् शरीरम्, नो तत् जीवः स शरीरम् ॥ सू० १३०॥
पास के स्थान में बैठ गया (केसिकुमारसमणं एवं वयासी) और केशि. कुमारश्रमण से इस प्रकार बोला-(तुब्भे णं भंते ! समणाणं निग्गंथाणं एसा सण्णा एसा पइण्णा एसा दिही, एसा रुई एस हेऊ) हे भदन्त ! आप श्रमण निर्ग्रन्थों की यह संज्ञा है, यह प्रतिज्ञा है, (पदार्थ के स्वरूपका निश्चय ज्ञानरूप)यह दृष्टि है, यह रुचि है, यह हेतु है (एस उवए से एस संकप्पे एसा तुला, एस माणे, एस पमाणे. एस समोसरणे) यह उपदेश है, यह संकल्प है, यह तुला है, यह मान है, यह प्रमाण है, यह समव. सरण है (जहा अण्णोजीवो, अण्णं सरीरं) कि जीव भिन्न है और शरीर भिन्न है, (णोतं जीवो तं सरीरं) न जीव शरीररूप है और न शरीर जीवरूप है। (तए णं केसीकुमारसमणे पएसि रायं एवं वयासी) तब केशी कुमारश्रमणने प्रदेशी राजा से ऐसा कहा- (पएसी ? अम्हं समणाणं निग्गंथाणं एसा सण्णा जाव एस समवसरणे जहा अण्णो जीवो. अण्णं सरीर, णो तं जीवो तं सरीर)
एयासी) मने शिशुभा२ श्रमाने २मा प्रमाणे ४धु-(तुब्भे ण भते ! समणाण निग्ग थाण एसा सण्णा एसा पइण्णा एसा दिही, एसा रुई, एस हेऊ) હે ભદંત ! આપ શ્રમણ નિર્ચ થેની આ સંજ્ઞા છે, આ પ્રતિજ્ઞા છે, આ દૃષ્ટિ છે, मा ३यि छ, २॥ तु छ, (एस उपए से, एस संकप्पे एसा तुला, एस माणे. एस पमाणे, एस समोसरणे) मा पढेश छे, 24 स४८५ छ, म तुसा छ, मा भाए थे, २ अभाव छ, । समक्स २९ छ. (जहा अण्णो जीवो, अण्ण सरीर, जो त जीवो, त सरीर) ५ भने शरीर ii छ. न १ शरी२ ३५ छ भने न श२१२ १३५ छे. (तए णं केसीकुमारसमणे पएसिं राय एवं वयासी) त्यारे शीमा२ श्रमणे प्रदेशी २२ ने मा प्रमाणे धु: (पएसी ! अम्ह समणाणं निग्गथाण एसा सण्णा जाव एस समवसरणे जहा अण्णो जीवो अण्णं सरीरं, णो त जीवो तं सरीरं ) . प्रशिन् ! श्रम नि यानी मा
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राजप्रश्नीयसूत्र टीका--- 'तए णं से पएसी राया' इत्यादि-ततः खलुस प्रदेशीराजा केशिन कुमारश्रमणं एवम्-अनुपदं वक्ष्यमाण वचनम् अवादीतहे भदन्त! अहं खलु इह-अस्मिन् स्थाने उपविशामि ? ततः केशीकुमार. श्रमण आह-हे प्रदेशिन ! एतस्याः उद्यानभूमेः त्वमेव ज्ञायकः असि एषा उद्यानभूमिस्तवनिश्चिता, नास्माकमुपवेशनानुपवेशनविषये वक्तुं कल्पते, त्वमेव जानासीति भावः । ततः खलु स प्रदेशी राजा चित्रेण सारथिना सार्द्धकेशिनः कुमारश्रमणस्य अदूरसामन्ते नातिदूरे नातिसमीपे उपविशति, उप. विश्य स केशिकुमारश्रमणम् एवम्-अनुपद वक्ष्यमाण वचनम् अवादीत-हे भदन्त ! युष्माकं खल्ल श्रमणानां निर्ग्रन्थानाम्, एषा इयं संज्ञा-सम्य. ज्ञानम् अस्ति एवमग्रेऽपि क्रिया, एषा प्रतिज्ञा-निश्चयरूपा स्वीकारः, एषा दृष्टि:-दर्शन-स्वतत्वम्, एषा रुचिः-श्रद्धापूर्वकोऽभिलाषः, एष हेतु:हे प्रदेशिन हम श्रमण निर्ग्रन्थों की यह संज्ञा है, यावत् यह समवसरण हे किजीव भिन्न है और शरीरभिन्न है, जीव शरीररूप नहीं है और शरीर जीवरूप नहीं है।
टीकार्थ--मूलार्थ के जैसा ही है, परन्तु भावार्थ इसका इस प्रसंगमें से है-केशी कुमारश्रम की एवं प्रदेशी राजा की बातचीत के इस प्रसंग में जब प्रदेशी राजाने अपने बैठने की बात पूछी तब इसमें अपनी अनु. मति देना साधुकल्प के अनुकूल नहीं है, अर्थात् तुम बैठो-उठो इत्यादि कहना साधुओं को केल्पता नही होने से अयोग्य प्रकट किये, तब प्रदेशी राजा चित्र सारथि के साथ वहां बैठ गया, फिर उसने केशी कुमारश्रमण से ऐसा पूछा कि हे भदन्त ! आप की ऐसी जो सम्परज्ञानरूप संज्ञा है, ऐसी आपकी तत्त्वनिश्चयरूप जो प्रतिज्ञा है, ऐसी आपकी दर्शनरूप दृष्टि
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સંજ્ઞા છે, યાવતુ આ સમવસરણ છે કે જીવ અને શરીર જુદાંજુદાં છે. જીવ શરીર રૂપ નથી અને શરીર જીવરૂપ નથી.
ટીકાર્થ–મૂલાઈ પ્રમાણે જ છે પણ ભાવાર્થ આ મુજબ છે. કેશીકુમાર શ્રમણ અને પ્રદેશ રાજાના વાર્તાલાપમાં જ્યારે પ્રદેશ રાજાએ કેશીકુમાર શ્રમણને ત્યાં બેસવાની વાત પૂછી ત્યારે રીતે કહેવું તે અમારા સાધુકલ્પથી બહાર છે. જેથી તે બાબતમાં તમે સ્વયં નિર્ણય કરે તેમ કહી. તેમની ઈચ્છા પર જ છેડી ત્યાર પછી પ્રદેશ રાજા પિતાના ઉચિત સ્થાન પર ચિત્રસારથિની પાસે બેસી ગયે. અને ત્યાં બેસીને કેશીકુમાર શ્રમણને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે ભદંત! આપની જે આ જાતની સમ્યગૂજ્ઞાનરૂપ સંજ્ઞા છે, તત્ત્વ-નિશ્ચયરૂપ જે પ્રતિજ્ઞા છે, દર્શનારૂપ દષ્ટિ સ્વતત્ત્વ
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सुबोधिनी टोका. सू. १३१ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्ण' नम्
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सर्वस्यापि दर्शनप्रतिपाद्यार्थस्य- एतत्कारणम् - युष्माकं दर्शनम्, एष उपदेश:शिक्षावचनम् एष संकल्पः सर्वदैव भवतां तात्त्विकोऽध्यवसायः, एषा तुलातुलेव तव स्वीकारः, तत्र तुलासादृश्यं च मेयपदार्थपरिच्छेदकत्वेन एवम् एतत् मानम् - प्रस्थादिमानसदृशस्त वस्वीकारः, मानसादृश्यमपि मेयपदार्थ परिच्छेदकत्वेन, एतत् प्रमाणप्रत्यक्षादिप्रमाणसदृशरतव स्वीकारः, प्रत्यक्षादि सादृश्यं च स्वीकारे दृष्टेष्टाविरोधित्वेन यथा प्रत्यक्षादिप्रमाणं दृष्टेष्टं न विरुणद्धि तथा तवस्वीकारोऽपि । एतत् समवसरण - बहूनामेकत्र मिलनम् तद्वत् तव स्वीकारः, यथा समवसरणे बहवोजना आगत्य मिलन्ति तथैव तव स्वीकारे सर्वाणि तत्त्वानि समाविशन्ति तत्स्वीकारस्वरूपमाह-यथा अन्यो जीवः अन्यत् शरीरमिति - जीवः - उपयोगलक्षणः, अन्यः - शरीराद् भिन्नोऽस्ति, एवं शरीरम् अन्यत् - जीवाद्भिन्नमस्ति इत्येवं जीवशरीरयोः पार्थक्यमन्वय
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स्वतत्व हैं, ऐसी जो आपकी श्रद्धापूर्वक अभिलापरूप रुचि है, ऐसा जो दर्शन प्रतिपाद्य समस्त भी अर्थ का आपका दर्शन कारणरूप हेतु है, ऐसा जो आपका शिक्षा वचनरूप उपदेश है, ऐसा जो आपका संकल्प है, सर्वदा आपका ताविक अध्यवसाय है, तुला के जैसी मेयपदार्थ की परिच्छेदक होने से ऐसी जो आपकी मान्यता है, मस्थादिमान के जैसी आपकी ऐसी जो स्वीकृति - दृढधारणा है, आपका ऐसा जो दृष्ट-प्रत्यक्ष एवं इष्ट अनुमान से अविरोधी होने के कारण प्रत्यक्षादि प्रमाण स्वरूप जैसा मन्तव्य है, आपकी ऐसी जो कथनी समवसरणरूप है ( अर्थात् समवसरण में जैसे अनेक जन आकर के मिलते हैं उसी प्रकार से तुम्हारे स्वीकाररूप सिद्धान्त में समस्ततत्व अन्तर्हित हो जाते हैं, अतः यह समवसरणरूप है। किउपयोगलक्षणवाला जीव अन्य है-शरीर से भिन्न है-भिन्न स्वरूपवाला
છે, શ્રદ્ધાપૂર્વક અભિલાષ રુચિ છે, દનપ્રતિપાદ્ય સમસ્ત અનુ... આપનું દર્શીન કારણરૂપ હેતુ છે, શિક્ષા વાચનરૂપ ઉપદેશ છે, સંકલ્પ છે, સર્વદા તાત્ત્વિક અધ્યવસાય છે, તુલાની જેમ મેયપદાર્થની પરિચ્છેદક હાવાથી એવીજ આપની માન્યતા છે, પ્રસ્થાદિમાન જેવી આપની દૃઢધારણા છે, દૃષ્ટપ્રત્યક્ષ અને ઇષ્ટ અનુમાનથી વિરોધી હાવા બદલ પ્રત્યક્ષ વગેરે પ્રમાણરૂપ આપનું મતન્ય છે, આપની એવી જે સ્થની સમયસરણરૂપ છે (એટલે કે સમવસરણમાં જેમ ઘણા લોકો આવીને એકત્ર થાય છે તેમજ તમારા સ્વીકારરૂપ સિદ્ધાન્તમાં બધા તત્ત્વા અંતર્હિત થઇ જાય છે. એથી આ સમવસરણ છે.) કે ઉપયોગ લક્ષણવાળા જીવ અન્ય છે. શરીર કરતાં જુદા છે, જુદા સ્વરૂપ
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__राजप्रश्नीयसूत्रे मुखेनोकूत्वा व्यतिरेकमुखेन तदेवाऽऽह- णो त” इत्यादि-तत्-शरीर जीवो न जीवश्च शरीर न. 'णो त' इति वाक्ये उभावपि तच्छब्दावव्ययम् । ततः खलु केशीकुमारश्रमणः प्रदेशिनं राजानमेवमवादीत्-अस्माकं श्रमणानां निग्रन्थानाम् एषा संज्ञा यावद् एतत् समवसरण' यथा अन्यो जीवः अन्यत् शरीरं, नो तत् जीवो नो स शरीरम् ॥सू० १३०।। ___मूलम्-तए णं से पएसी राजा केसि कुमारसमणं एवं वयासीजइ णं भंते ! तुब्भं समणाणं णिग्गंथाणं एसा सण्णा जाव समोसरणे-जहा अण्णो जीवो अण्णं सरीरं णो तं जीवो तं सरीर, एवं खलु मम अज्जए होत्था, इहेव जंबूदीवे दीवे सेयवियाए णयरीए अधम्मिए जाव सयस्स वि य णं जणवयस्स नो सम्म करभरवित्ति पवत्तेइ, से णं तुभं वत्तब्वयाए सुबहु पावं कम्मं कलिकलुसं समज्जिणित्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु नरएसुणेरइयत्ताए उववण्णे । तस्स णं अजगस्स अहं णतुए होत्था-इट कंते पिए मणुपणे मणामे थेजे वेसासिए संमए बहुमए रयणकरंडगसमाणे जीवि उस्सविए हिययणंदणिज्जे-उंबरपुप्फ पिव दुल्लभे सवणायाए, किमंग है, और शरीर उससे भिन्न है (यह अन्वयमुख से कथन है)। शरीर जीव. रूप नहीं हैं (यह व्यतिरेकमुख से कथन है) सो यह सत्य है न ? इस प्रकार प्रदेशी राजा के कृत इस प्रश्न को सुनकर केशीकुमारश्नमणने उससे कहा-हां, प्रदेशिन् । हम श्रमण निग्रन्थों की ऐसी ही संज्ञा यावत सम. वसरण है कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है. जीव शरीररूप नहीं है और शरीर जीवरूप नहीं है इस प्रकार से दोनों में सर्वथा पृथक्ता हैं।सू. १३०। વાળે છે અને શરીર તેનાથી જુદું છે. (આ અન્વયમુખથી કથન છે) શરીર જવરૂપ નથી. જીવ શરીરરૂપ નથી. (આ વ્યતિરેક મુખથી કથન છે.) તે આ બધું સત્ય છે ? આ જાતના પ્રદેશી રાજાના પ્રશ્નને સાંભળીને કેશીકુમાર શ્રમણે તેને કહ્યું કે હાં પ્રદેશિન ! અમારા જેવા શ્રમણ નિર્ચ થેની એવી જ સંજ્ઞા યાવતુ સમવસરણ છે કે જીવ જુદે છે અને શરીર જુદું છે. જીવ શરીરરૂપ નથી અને શરીર જવરૂપ નથી. આ પ્રમાણે બને સાવ જુદા જુદા છે. ૧૩૦ છે
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सुबोधिनी टीका सू. १३१ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशीराजवर्णनम् १८३ पुण पासाणयाए ? तं जइ णं से । अजए णं ममं आगंतुं वएज्जाएवं खलु नत्तुया ! अहं तव अजए होत्था, इहेव सेयवियाए नयरीए अधम्मिए जाव नो सम्मं करभरवित्ति पवत्तोम, तएणं अहं सुबहुं पावं कम्म कलिकलुसं समजिणित्ता नरएसु उववण्णे त' माणं नतुया : तुमपि भवाहि अधम्मिए जाव णो सम्म करभरवित्ति पवत्तेहि, माणं तुमपि एवं चेव सुबहुं पावकम्म जाव उववजिहिसि, त जइ णं से अजए मम आगतुं वए जा तो णं अहं सदहेजा पत्तिएज्जा रोएज्जा जहा अन्नो जीवोअन्न सरीर णोतं जीवोणोतं सरीरं, जम्हा णं से अज्जए ममं आगंतु नो एवं क्यासी तम्हा सुपइट्रिया मम पइन्ना समणाउसो ! जहा तज्जीवो तं सरीरं ॥ सू० १३१ ॥ छाया-ततः खलु स प्रदेशी राजा केशिनं कुमारश्रमणमेवमवादीत् यदि खलु भदन्त ! युष्माक श्रमणानां निर्ग्रन्थानामेषा संज्ञा यावत् समवसरण यथा-अन्यो बीवः अन्यत् शरीरम् न तत् जीवः स शरीरम् एवं खलु मम आर्यकोऽभवत्, इहैव
'तए ण से पएसी राया' इत्यादि ।
सूत्रार्थ-(तए ण से पएसी राया केसिंकुमार समण एवं वयासी) तब उस प्रदेशीराजाने केशीकुमारश्रमण से ऐसा कहा-(जइ ण भंते ! तुभं समणाण निग्गयाण एसा सणा जाव समोसरणे) हे भदन्त ! यदि आप श्रमण निर्ग्रन्थों की ऐसी संज्ञा यावत् समवसरण है कि (अण्णो बीवो अण्ण सरीर) जीव अन्य है और शरीर अन्य है (णो त जीवो त
'त एणं से पएसी राया' इत्यादि ।
सूत्रार्थ-(त एणं से पएसी राया के सिकुमारसमण एव वयासी) त्यारे ते प्रदेशी २० शीभार श्रमाने भी प्रभारे (जइ णं भंते ! तुम्भं समणाणं निग्गंथाणं एसा सणा जाव समोसरणे) लत ! ने भाप २वा श्रम निर्थ यानी सेवी संज्ञा यावत् समक्स२७ छ (अण्णो जीवो अणं सरीर) ०१ मन्य छ भने शरी२ अन्य छे. (जो तं जीवो त सरीरं) ०१ ११२३५
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राजप्रश्नीयसूत्रे जम्बूद्वीपे द्वीपे श्वेतविकायां नगर्याग अधार्मिकः यावत् स्वकस्यापि च खलु जनपदस्य नो सम्यक करभरवृत्तिं पावर्त यत्, स खलु युष्माकं वक्तव्यतया सुबहु पाप कर्म कलिकलुष समय कालमासे कालं कृत्वा अन्यतरेषु नरकेषु नैरयिकतया उपपन्नः । तस्य खलु आर्यकस्य अहं नप्तकः अभवम्, इष्टः
सरीर) जीव शरीररूप नहीं है. शरीर जीवरूप नहीं हैं, (एवं खलु मम अजिए होत्था-इहेब जंबूदीवे दीये सेयवियाए णयरीए अधम्मिए जाव सयस्स वि य जजणवयस्स नो सम्म करभरवित्ति पवत्तेइ) तो इस बातको यदि मेरे पितामह आकर के पुष्ट करें-मुझ से कहे-तो मैं आपके इस कथन पर विश्वास कर सकता हूं ऐसा संबंध यहां लगाना चाहिये, इसी बात को वह इस आगे के सुत्रपाठ से प्रदर्शित करता है-वह कहता है कि इसी जम्बूद्वीप नामके द्वीप में स्थित इस श्वेतांविका नगरी में मेरे पितामह-दादा थे. ये अधार्मिक थे, यावत् अपने प्रजाजनो का टेक्स लेकर भी उनका पोषण अच्छी तरह से नहीं करते थे. (सेणं तुम बत्तव्ययाए सुबहु पाव कम कलिकलुसं समजिणित्ता कालमासे काल किच्चा अण्ण यरेसु नरएमु णेरइयत्ताए उववण्णे) वे आप के कथनानुसार बहुत पापी थे. अतिमलिन बहत से पापकर्मों का उपार्जन करके बेकालमास में काल करके किसी एक नरक में नैरयिक की पर्याय से उत्पन्न हुए हैं। (तस्स
नथी. शरीर ७१३५ नथी. (एवं खलु मम' अज्जिए होत्था इहेव जंबूदीवे दीवे सेय वियाए णयरीए अधम्मिए जाव सयरस वि य णं जणक्यस्स नो सम्म करभवित्तिं पवत्तेइ) मा पाने भा॥ पितामह मावीन भने ४ तो આપના કથન પર વિશ્વાસ મૂકી શકું તેમ છું. એ સંબંધ અહીં લગાવવો જોઈએ. એજ વાતને તે આ સુત્રપાઠવડે પ્રદર્શિત કરતાં કહે છે કે આજ જંબૂઢીપ નામના દ્વીપમાં સ્થિત તાંબિકા નગરીમાં મારા પિતામહ હતા. તેઓ અધાર્મિક હતા યાવત પિતાના પ્રજાજનો પાસેથી કર વસૂલ કરીને પણ તેમનું સરસ રીતે ભરણ પોષણ तेभ०/ २६ ४२ता न ता. (से ण तुम्भं वत्तव्ययाए सुबहु पावं कम्मं कलि. कलुसं समज्जिणित्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु नरएसु णेरइयत्ताए ૩વવો) આપશ્રીના કથન મુજબ તેઓ બહુ મોટા પાપી હતા. અતિમિલન ઘણાં પાપકર્મોનું ઉપાર્જન કરીને તેઓ કાલમાસમાં કોલ કરીને કોઈ એક નરકમાં નૈરચિકની पर्यायमा म यi छे. (तस्सणं अज्जगरस अहं गत्तुए होत्था, इ' कंते
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सुबोधिनी टीका सू. १३१ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजोवप्रदेशिराजवर्णनम १८५ कान्तः पियः मनोज्ञः मनाऽमः स्थैर्यः वैश्वासिकः संमतः बहुमतः अनुमतः रत्नकरण्डकसमानः जीवितोत्सविकः हृदयानन्दिजननः, उदुम्बरपुष्यमिव दुर्लभः श्रवणतया किमङ्ग पुनः दर्शनतया ? तद् यदि खलु स आर्यकः मम आगत्य वदेत्-एवं खलु नप्तृक ! अहं तव आर्यकोऽभवम, इहैव श्वेतविकायां नगर्याम् अधार्मिको यावत् नो सम्यक् करभरवृत्ति प्रावर्तयम्, ततः खलु
ण अजगरस अहं गतुए होत्था, इछ क ते पिए मणुष्णे मणामे, थेज्जे वेसासिए संमए बहुमए रयणकरंडगसमाणे जीविउस्सविए) उन अर्यक का मैं पौत्र हूं मैं उन्हें अभिलषित था. कान्त था, पिय था, मनोज्ञ था मनोगम्य था, स्थैर्य रूप था, विश्वासपात्र था, सन्मानपात्र था, प्रचुर मानपात्र था, हृदयपिय था. रत्नकरण्डक के जैसा था, जीवन के उत्सवरूप था. (हिययण दिजणणे उबरपुप्फविव दुल्लभे सवणयाए, किमंगपुण पासणयाए) उनके हृदय के आनन्द जनक था, उदम्बरपुष्प के समान मैं उन्हें सुनने के लिये दुर्लभ था-देखने की बात तो क्या कहनो (त जइ ण' से अजए ण मम आगंतु वएजा) तो यदि वे आर्यक आकर के मुझसे ऐसा कहे (एवं खलु नत्तूया! अहं तं अज्ज ए होत्था, इहेव सेयवियाए नयरीए अधम्मिए जाव नो सम्म करभरविर्ति पबत्तेमि) हे पौत्र ! मैं तुम्हारा आर्य क-पितामह था, इसी श्वेतांबिका नगरी में अधार्मिक बना हुआ मैं अच्छी तरह से प्रजाजन से प्राप्त देक्म से उनका पोषण नहीं करता था.
पिए मणुण्णे मणामे, थेग्जे वेसासिए संमए बहुमए रयणकर'डगसमाणे जीविउस्सविए) ते आय'ने पौत्र छुः हुँ भना भाटे अभिलषित sal, sia હત, પ્રિય હતે, મનેઝ હતો. મને ગમ્યું હતું, યરૂપ હો, વિશ્વાસપાત્ર હતા, સન્માનપત્ર હતું, પ્રચુર માનપાત્ર હતું, હૃદયપ્રિય હતેરત્ન કરંડક જેવો હતો,
नना उत्सव३५ हतो. (हिययणंदिजणणे उबरपुष्फ विव दुल्लहे सवणयाए किमंग पुण पासणयाए) तेमना यने मान आपना। तो भराना यु०पनी જેમ હું તેમના માટે જોવાની વાત તે દૂર રહી. સાંભળવા માટે પણ દુર્લભ હવે (त जइणं से अज्जए ण ममं आगंतुवएज्जा) तो वे ते सायं ४ मावान भने माम ४3 3 (एवं खलु नत्तुया ! अहंत अज्जए होत्था, इहेव सेयंबियाए नयरीए अधम्मिए जाव नो सम्म करभरवित्ति पवत्तेमि) पौत्र!हुतमारे। આર્યક-પિતામહ હતે. આજ શ્વેતાંબિકા નગરીમાં અધાર્મિક થઈને પ્રજાજનો પાસેથી ४२ वसूख ४शन ५ तमनु २क्षण-पोषण वगेरे ४२तो न तो. (तए णं अहं
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राजप्रश्नीयसूत्रे अहं सुबहु पापं कर्म कालकलुषं समय नरकेषु उयपन्नः, तद् मा खलु नप्तृक ! त्वमपि भव अधार्मिकः यावद् नो सम्यक करभरपूर्ति प्रवर्तय, मा खलु त्वमपि एवमेव सुबहु पापकर्म यावद् उपपत्स्य से, तद् यदि खलु स आर्यकः मम आगत्य वदेत-ततः खलु अहं श्रद्दध्याम् प्रतीयाम् रोचपेयं, यथा-अन्यो जीवः अन्यत् शरीरम, नो तत् जीवः स शरीरम, यस्मात् खलु स (तए णं अहं सुबहु पावं कम्मं कलिकलुसं समििणत्ता नरएमु उववण्णे) अतः मैने बहुत अधिक अतिकलुष पापो का संचय किया था-और इससे मैं नरको में से किसी एक नरक में नारक की पर्याय से उत्पन्न हुआ हूं (तमा णं नत्तुया ! तुमंपि भबाहि अधम्मिए जाव णो सम्मं करभरवित्तिं पवत्तेहिं) इसलिये हे पौत्र ! तुम अधार्मिक मत होना, और प्रजाजनों से प्राप्त टेक्स से उनके पोषण में असावधान मत रहना प्रत्युत उससे उनका पोषण अच्छी तरह से करना (मा णं तुम पि एवं चेव सुबह पावकम्मं जावं उववजिहिसि) नहीं तो तुम भी इसी तरह से बहुत अधिक पाप कर्म का यावत् उपाजन करोगे. इसलिये ऐसे पापकर्मो का उपार्जन मेरे द्वारा न हो इस तरह से (त जइ ण से अज्जए मम आगंतुं वएजा) यदि वे आर्यक आकरके मुझे समझा (तो ण अहं सद्दहेजा पत्तिएजा रोंएज्जा जहा अन्नो जीवो अन्न सरीर णो त जीवो त सरीर) तो मैं आपके इस कथन पर विश्वास करू' और उसे अपनी प्रतीति का विषय बनाऊः, तथा अपनी रुचि के भितर उसे उतारु (जहा अन्नो जीवो, अन्नं सबह पावं कम्मं कलिकलुसं समज्जिणित्ता नरएसु उवचषणे) येथी में ઘણા અતિકલુશ પાપને સંચય કર્યો છે અને એથી જ નરકોમાંથી કેઈએક નરકમાં ना२४ना पर्यायमा उत्पन्न थये। छु. (त मा णं न तुया ! तुमंपि भवाहि अधम्मिए जाव णो सम्मं करभरवित्तिं पवत्तेहि भाट र पौत्र ! तमे अधामि । નહિ અને પ્રજાજનો પાસેથી કર વસૂલ કરીને તેમના પિષણના કામમાં અસાવધાન हेश नहि पण तेभनु सरस रीते पोषण ४२. (मा ण तमं पि एच चेव सुबहु पावकम्म जाव उववजिहिसि) नाडत२ त ५ भारी म ॥ વધારે પાપકર્મનું યાવત્ ઉપાર્જન કરશે. આ પ્રમાણે આ જાતનાં પાપકર્મોનું ઉપાર્જન भा२१ वडे थाय नहि तेम (तजइ ण से अज्जए मम आगतुं वएज्जा ) तेथी ते माय भावाने भने समावे. (तो ण अहं सद्दहेज्जा पत्तिएज्जा, रोएज्जा, जहा अन्नो जीवो अन्न सरीर णो त जीवो त सरीरं) तो ईमापना २५ કથન પર વિશ્વાસ કરી શકું અને તેને મારી પ્રતીતિ તેમજ રુચિને વિષય બનાવી
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सुबोधिनी टीका. सूत्र १-१ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् १८७ श्रार्यकः मम आगत्य नो एवमवादीत, तस्मात् सुप्रतिष्ठिता मम प्रतिज्ञा श्रमणाऽऽयुष्मन् ! यथा तज्जीवः स शरीरम् ॥० १३१॥
टीका-~-त एणं से पएसी' इत्यादि-=ततः खलु स प्रदेशी राजा केशिनं कुमारश्रमणम् एवम् अनुपदं वक्ष्यमाणं वचनम् अवादीत-हे भदन्त ! यदि चेत खलु युष्माकं श्रमणानां निर्ग्रन्थानाम् एषा संज्ञा यावत् समवसरणं यथा-अन्पो जीवः अन्यत् शरीरं नो तन् जीवः स शरीरम्. एवं-वक्ष्यमाणस्वरूपः खलु मम आर्य कः पितामहः अभवत, इहैव-अस्मिन्नेव जम्बूद्वीपे-- द्वीपे श्वेतिकायां नगर्याम् अधार्मिकः धर्माचरणवर्जितः यावतः --याव. त्पदेन-अधर्मिष्ठ इत्यादीनां पदानां सह एकशततमसूत्राद् बोध्यः: अर्थोऽपि तत्रैव । स्वकस्यापि-स्वस्यापि च खल जनपदस्य-देशस्य करभरवृत्ति करेण स्वग्राह्यभागग्रहणेन यो भर:-प्रजानां भरण-पोषणं तद्पा या वृत्तिस्तां सम्यक्-सुष्ठुरीत्या नो पावर्तयत्-अत्र मूले 'पवत्तेंइ' इत्यार्षत्वाद भूतार्थे वर्तमाननिदेशः । सः-पूर्वोक्तः आर्यकः खलु युष्माकं वक्तब्यतया मतेन सुबह-प्रचुर कलिकलुषम्-अतिमलिनं पापं कर्म समय-समुपाज्य कालमासेकालं कृत्वा. अन्यतरेषु अन्यतमेषु नरकेषु नरयिकतया-नारकतया उपपन्न:समुत्पन्नः । तस्य खलु अार्यकस्य अहं नातृका पौत्रः अभवम्, कीदृशोऽहमसरीरं, णो तं जीवो तं सरीरं) कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है, जीवशरीररूप नहीं है, शरीर जीवरूप नहीं है। (जम्हा णं से अज्जए ममं नो एवं तम्हा सुपइटिया मम पइन्ना समणा उसो ! जहा तजीवो तं सरीर) परन्तु जिस कारण से आर्य कने आकर के मुझसे ऐसा कहा नहीं है, इस कारण से हे श्रमण ! आयुष्मन् ! मेरी यह प्रतिज्ञा सुप्रतिष्ठित-सुस्थिर है कि जो जीव है वही शरीर है और जो शरीर है वही जीव है.
टीकार्थ--मलार्थ के अनुरूप ही है, परन्तु जो विशेषता है वह इस प्रकार से है-प्रदेशी राजाने जो अपने को इष्टादि विशेषणों वाला प्रकट किया है सो उसका कारण यह है कि वह आर्यक की अभिलषित था शत्रु तेभ छु. (जहा अन्नो जीवो, अन्न सरीरं, णो त जीवो, तसरी) 394 मन्य छ भने शश२ अन्य छ, ०१ शरी२३५ नथी. (जम्हा ण से अज्जए मम आगतुं नो एवं वयासी, तम्हा सुपइडिया मम पइन्ना समणाउसो ! जहा तज्जीवो तं सरीर) परंतु २णने सीधे माय मावीने भने माप्रमाणे કહ્યું નથી તેથી જ હે શ્રમણ ! આયુશ્મન મારી આ પ્રતિજ્ઞા સુપ્રતિષ્ઠિત–સુસ્થિર-છે કે જે જીવ છે તેજ શરીર છે અને જે શરીર છે તે જ જીવ છે.
ટીકાર્થ–મૂલાઈ પ્રમાણે જ છે. પરંતુ વિશેષતા આટલી જ છે કે પ્રદેશી રાજાએ જે પિતાને ઈષ્ટ વગેરે વિશેષણવાળે બતાવ્યું છે. તે તેનું કારણ એ છે કે
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___ राजप्रश्नीयसूत्रे भवमित्याह-इष्टः-अभिलषितः, कान्तः-कमनीयत्वात, प्रियः-प्रेमपात्रत्वात, मनोज्ञः-मनसा सम्यगपेक्ष्यतया ज्ञातत्वात, मनोऽम:-मनोगम्यः, अतिप्रियत्वेन मनस्यवस्थितत्वात्, स्थैर्य -स्थिरतागुणसम्पन्नः, वैश्वासकः-विश्वास. पात्रम् संमतः-संमानपात्रम्, बहुमत:--प्रचुरमानपात्रम्, अनुमतः-हृदयप्रियः तदाज्ञाराधकत्वात्. रत्नकरण्डकसमान:-रत्नानां-कतनादीनां यत् करण्डक तत्समानः-रत्नकरण्डक-तुल्यत्वं चात्रात्यन्तापेक्षत्वेन बोध्यम्. जीवितोत्सविकः --जीवितस्य-जीवनस्य य उत्सव:-उत्सविक:-उत्सवरूपः, नव नव हपजनकत्वात हृदयानन्दिजनन:-हृदयानन्दकारक:. उदुम्बरपुष्पमिव-उदुम्बरपुष्प यथा दुर्लभ तथाऽहमपि श्रवणतया-श्रवणेन, अङ्ग ! हे मुने ! किं पुनः दर्शनतयादर्शनेन अपि तु दर्शनेनात्यन्त दुर्लभोऽहमित्यर्थः, तत्-तस्मात् यदि-चेत् खलु स आर्यकः मम आगत्य वदेत् कथयेत्-कथनीयस्वरूपमाह-एवं खलु नप्तक !-हे पौत्र ! अहं तव आयका पितामहः अभवम्, इहैव-अस्यामेव श्वेतांविकायां नगर्याम् अधार्मिको यावत् नो सम्यक् करभरवृत्ति प्रावर्तयम्अत्रापि मूले 'पवत्तेमि' इत्यार्षत्वादू भूतार्थे वर्तमान निर्देशः । ततः-तस्मा.
इसलिये इष्ट था, कमनीय-सुंदर होने से कान्त था, प्रेमपात्र होने से प्रिय था, मनसे उसे अच्छी तरह से अपेक्षारूप से जाना था इसलिये मनोज्ञ था, अतिप्रिय होने के कारण मनमें अवस्थित था. इसलिये वह मनोऽम था, मनोगम्य था. स्थिरतागुण से संपन्न था-अत: स्थैर्यरूप था विश्वासपात्र होने से वैश्वसिक था, सन्मानपात्र होने से संमत था. प्रचुररूप में मानपात्र, होने से प्रचुर मानपात्ररूप था. उसकी आज्ञा का आराधक होने से अनुमत-हृदय प्रिय था अत्यन्त अपेक्षित होने से रत्नकरण्ड क के समान था. नव२ हर्षजनक होने से उत्सविक उत्सवरूप था, इसीलिये हृदया. हलादक था. मूल में 'पवत्तेमि' ऐसा जो वर्तमानरूप से निर्देश हुआ है
તે આર્યકને અભિલષિત હત–એથી ઈષ્ટ હતું, કમનીય હોવાથી કાન્ત હતે, પ્રેમપાત્ર હોવાથી પ્રિય હતું, અને તેને સારી રીતે અપેક્ષ્યરૂપથી જાણી લીધું હતું એથી તે મનોજ્ઞ હતું, અતિપ્રિય હોવાથી તે મનમાં અવસ્થિત હતું એથી તે મનેમ હતેમને ગમ્ય હતે. સ્થિરતાના ગુણથી સંપન્ન હતો. એથી ધૈર્યરૂપ હતે, વિશ્વાસપાત્ર હેવાથી વૈસિક હતું, સન્માનપાત્ર હોવાથી સંમત હતું, પ્રચુરરૂપમાં માનપાત્ર હોવાથી પ્રચુરમાનપાત્ર રૂપ હતા. તેની આજ્ઞાને માનનાર હોવાથી અનુમત-હદયપ્રિય હિતે, અત્યંત અપેક્ષ્ય હવાથી રત્નકરંડકની જેમ હતે. નવનવીન હર્ષજનક હોવાથી उत्सविY-Gत्स१३५ हता-मेथी या मा हतो, भूसभा 'पवत्तेमि' मेवोरे
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सुबोधिनी टाका सू. १३१ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णं नम्
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त्कारणात् खलु अहं' सुबहु - अत्यन्तं कलिकलुषम् = अतिमलिनं पापं कर्म सम=समुपा नरकेषु उपपन्नः - नारकतयोत्पन्नोऽभवम् तत् तस्मात्कारणात् नप्तृक ! - हे पौत्र ! त्वमपि तथा मा भव, अधार्मिको यावत् नो सम्यक् करभरवृत्तिं प्रवर्तय-निषेधार्थकपदद्वयं प्रकृतार्थे दृढयतीति स्वमवश्यमेव धार्मिकादिविशेषणविशिष्टो भूत्वा स्वकस्य जनपदस्य करभरवृत्तिं सम्यक् प्रवर्त्तयेति भावः । मा खलु स्वमपि एवमेव - श्रहमिव सुबहु - पापकर्म यावत् यावच्छब्देन समुपाय - नरकेषु नैरयिकतया इति संग्राह्यम्, उत्पत्स्यसे मा उत्द्यथा इत्यर्थः, तत्-तस्मात् कारणादू - यदि चेत् खलु आर्यको मम आगत्य वदेत् कथयेत्, ततः - तदा खलु अहं श्रद्दध्याम् - भवद्वचने श्रद्धां कुर्याम् प्रतीयां- विशेषतो विश्वस्याम् रोचेयं रूचि विषयीकुर्याम् यथा अन्यो जीवो ऽन्यच्छरीरम् नो तत् ज्जीवः स शरीरम इति यस्मात् हेतोः खलु सः पूर्वोक्त आर्यकः ममागत्य नो-न एवं पूर्वोक्तप्रकारेण अवादीत् - हे श्रमणायुष्मन् ! तस्मादू हेतो: मम प्रतिज्ञा सुप्रतिष्ठिता-सुस्थिरा यथा तत् ज्जीवः स शरीरम् इति ॥सू, १३१ ।
मूलम् - तरणं केसीकुमारसमणे पएस राय एव वयासी-अत्थि णं पएसी ! तव सूरियकता नाम देवी ? हंता अत्थि, जइ णं तुम पएसी त सूरियतं देवि पहाय कयबलिकम्मं कयको उयमंगलपायच्छित्त सव्वालंकारभूसिय केणइ पुरिसेण पहाएणं जाव सव्वाल :कारभूसिएण सद्धि इट्टे सफरिसरसरुवे गंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोगे पञ्चणुब्भवमाणि पासिजसि तस्स णं तुमं पएसी ! पुरिससक डंडे निव्वतेजासि ? अहंण भते ! तं पुरिसं हत्थच्छिण्णगं
वह आर्ष होने से भूत अर्थ में हुआ है 'त' माण नत्तुया ! तुमंपि' इत्यादि सूत्र में आगत दो निषेधार्थक पद प्रकृत अर्थ की पुष्टि करते हैं अर्थात् तुम अवश्य ही धार्मिक आदि विशेषणों वाले होकर अपने जनपद की करभरवृत्ति को अच्छी तरह से चलाओ यह अर्थ पुष्ट होता है ॥ १३१ ॥ વત માનરૂપમાં નિર્દેશ થયેલ છે તે આષ હોવાથી ભૂત અથમાં જ થયેલ છે આમ समन्वु, 'त' माण' नत्तुया ! तुम पि' वगेरे सूत्रमां आवेलां मे निषेधार्थ यो अत અને જ પાપે છે. એટલે કે તમે અવશ્યમેવ ધામિક વગેરે વિશેષણાથી સ’પન્ન થઈને પેાતાના જનપદની ભરવૃત્તિને સારી રીતે ચલાવા—આ અથ પુષ્ટ થાય છે. ॥ સૂ. ૧૩૧૫
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राजप्रश्नीयसूत्रे
वा सूलाइग वा सूलभिन्नगं वा पायच्छिन्नगं वा एगाहच्चं कूडाहन्चं जीवियाओ ववरोव एजा । अहणं पएसी से पुरिसे तुम एवं वदेज्जामाता मे सामी ! मुहुत्तगं हत्थच्छिष्णगं वा जाव जीवियाओ ववरोवेहि जाव तावं अहं मित्तणाइणियगसयण संबंधिपरियणं एवं वयामि एवं खलु देवाणुप्पिया । पावाइ कम्माई समायरेत्ता इमेयारूवं आवई पाविज्जामि, त मा णं देवाणुप्पिया ! तुब्भेवि केइ पावाइ कम्माई समायरइ, मा णं भे वि एवं चेव आवई पावेजाहि य जहा णं अहं, तस्स णं तुमं पएसी । पुरिसस्स खणमवि एयमट्ठ पडिसुजासि ? जो इणट्टो समट्ट, कम्हा णं ? जम्हापणं भंते! अवराही णं से पुरिसे, एवामेव पएसी ! तववि अजए होत्था इहेव सेविया यरोए अधम्मिए जाव णो सम्म करभरवित्तिं पवत्ते, सेणं अहं वतव्वयाए सुबहु जाव उवकनो, तस्स ण अजगस्स तुमं तु होत्था इट्ठे कंते जाव पासणयाए, से णं इच्चइ माणुसं लोगं हव्वमागच्छित्तए णो चेव णं संचाए हव्वमागच्छित्तए । उहि ठाणेहिं पएसी अहुणोववण्णए नरएसु नेरइए इच्छेइ माणुस लोग हव्वमागच्छित्तए नो चेव णं संचाएइ - १ अहुणोववन्नए नरसु नेरइए से णं तत्थ महन्भूयं वेयणं वेदेमाणे इच्छेजा माणुस्सं लोग हव्वमागच्छित्तए जो चेव णं संचाएइ |२| अहुणोववन्नए नरसु नेरइए नरयपालेहिं भुजो भुजो समहिट्ठिज्जमाणे इच्छइ माणुसं लोग हव्वमागच्छत्तए नो चेव णं संचाएइ | ३ | अहुणोववन्नए नरपसु नेरइए निरयवेयणिजंसि कम्मंसि अक्खीणंसि अवेइयंसि
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सुबोधिनी टीका सू. १३० सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवणं नम आनजिन्नसि इच्छइ माणुसं लोग हव्वमागच्छित्तए नो चेव णं सचाएइ हव्बमागच्छित्तए ।४। एवं निरयाउंसि अवखीणे, अचेइए, अणिज्जिपणे इच्छेज्जा माणुस्सं लोग हव्वमागच्छित्तए नो चेव णं संचाएइ । इच्चएहिं चऊ हिं ठाणेहि पएसी ! अहुणोववन्ने नरएसु नेरइएसु नेरइए इच्छइ माणुसं लोग हव्वमागच्छित्तए नो चेव णं संचाएइ । तं सदहाहि णं पएसी ! जहा-अन्नो जीवो अन्न सरीरं नो तं जीवो तं सरीरं ।।सू० १३२॥
छाया- ततः खलु केशीकुमारश्रमणः प्रदेशिनं राजानमेवमवादीत् अस्ति खलु प्रदेशिन् ! तव सूर्यकान्ता नाम देवी ? हन्त अस्ति, यदि खलु त्वं प्रदेशिन ! तां सूर्यकान्तां देवीं स्नातां कृतबलिकर्मा कृतकौतुकमलप्रा. याश्चत्तां सर्वालङ्कारभूषितां केनापि पुरुषेण स्नातेन यावत सर्वालङ्कारभषि तेन सार्द्धम् इष्टान् शब्दस्पर्श रसरूपगन्धान पञ्चविधान मानुष्यकान काम
'तए णं केसीकुमारसमणे पएसि रायं एवं वयासी इत्यादि ।
मूत्रार्थ-(तए | केसीकुमारसमणे) इसके बाद केशीकुमार भमणने (पएसि रायं एवं वयासी) पदेशी राजा से ऐसा कहा-(अस्थि णं पएसी! तव सूरियकता णामं देवी ? हे प्रदेशिन तुम्हारी सूर्यकान्ता नामकी देवी है? (हता, अत्थि) हां भदन्त ! है (जइ णं तुमं पएसी ! तं सुरियक तं देवि हाय कयब लिकम्म कयकोउयमंगलपायच्छित्त' सव्वालंकारभूसियं केण इ पुरिसेणं हाएणं. जाव सव्वालंकारभूसि एणं सद्धिं इठे सदफरिसरसरूवे गंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोगे पञ्चणुभवमाणि पासिज्जासि) यदि हे प्रदेशिन्!
'तए ण केसीकुमारसमणे परसिं राय एवं वयासी' इत्यादि ।
सूत्रार्थ-( तए ण केसीकुमारसमणे ) त्या२५छी शोभा२ श्रमणे (पएसी राय एवं वयासी) प्रदेशी २०ने मा प्रमाणे प्रद्यु. (अस्थि णपएसी ! तवं सुरियकता णाम देवी ? ) 3 प्रदेशान् ! तमा। सूर्य-ता नामे हेवी छ ? (ह ता, अस्थि) i म त ! छे. (जइणं तुम पएसी ! त सूरियकत देविं हाय कयवलिकम्म कयकोउयम गलपायच्छित सव्वालं कारभूसिय केणइ पुरिसेण हाएण', जाव सवाल कारभूसिएण' सद्धिं इट' सद्दफरिस. रसख्वगधं पंचविहे माणुस्सए कामभोगे पञ्चणुब्भवमाणि पासिज्जासि) तो ६
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राजप्रश्नीयसूत्रे भोगान् प्रत्यनुभवन्तीं पश्येः (तदा) तस्य खलु त्वं प्रदेशिन ! कं दण्ड निर्वत येः ? अह खलु भदन्त ! तं पुरुष हस्तच्छिन्नकं वा शूलातिगं वा शूलभिन्नक वा पादच्छिन्नकं वा एकाऽऽघात कुटाघात जीविताद् व्यप. रोपयेयम् अथ खलु प्रदेशिन् ! स पुरुषः त्वाम् एवं वदेत् मा यावत्
तुम स्नात, कृतबलिकर्मा-(काक आदि को अन्नादिका भाग देतेरूप उस देवीओं कि जिसने कौतुक, मंगलरूप पायश्चित्ते कर लिया है, और समस्त अलङ्कारों से जो विभूषित बनी हुई है किसी भी स्नात यावत् सर्वाङ्कार. विभूषित परपुरुष के साथ इष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गध इन पांच प्रकार के मनुष्यभव संबंधी कामभोगों का अनुभव करती हुई देखलो तो (तम्स ण तुमं पएसी! पुग्सिस्स के हंड निवृत्त जासि ?) तो हे प्रदे शिन् ! तुम उस पुरुष के लिये क्या-कैसा दण्ड दो ? (अहं गं भंते ! तं पुरिसं हस्थविणगं वा सूलाइगं वा सुलभिन्नगं वा पायच्छिन्नगं वा एगा हच्च कूडाहच्च जोवियाओ ववरोवेएजा) तब प्रदेशी राजाने कहा-हे भदन्त ! मैं' उस पुरुष का ऐसा दंड दूं कि जिससे उसके दोनों हाथ काट लिये जावे, या उसे शूली पर चढा दिया जावे, या उसके दोनों पग काट लिये जावे, या एक ही प्रहार में उसका प्राण ले लिया जावे, वा किसी पर्वत शिखर पर उसे चढाकर वहां उसे धकेल दिया जावे. कि जिससे वह अपने जीवन से रहित हा बैठे। (अहंणपएसी ! से पुरिसे
પ્રદેશિન્ ! તમે જેણે સ્નાત, કૃત બલિકર્મા-કાગડા વગેરેને અન્ન ભાગ આપે છે એવી તે દેવીને કે જેણે કૌતુક મંગલરૂપ પ્રાયશ્ચિત્તો કરી લીધા છે. અને સમસ્ત અલંકારથી જે વિભૂષિત થઈ ગયેલી છે અને ગમે તે સ્નાન યાવત્ સર્વાલંકારવિભૂષિત પરપુરૂષની સાથે ઈષ્ટ શબ્દ, સ્પર્શ, રસ, રૂપ, ગંધ આ પાંચ પ્રકારના મનુષ્યભવ संधी मला सोसवती नसते (तस्स तुमं पएसी! पुरिसस्स के डंड निव्वुत्तेज्जासि ?) प्रशिन् ! तमे ते पु३५ने ४/ ordनी शिक्षा ४२? (अहं णं भंते ! तं पुरिसं हत्यविण्णगं वा मूलाइंगं वा सूलभिन्नगं वा पायच्छि. न्नगं वा एगाहचं कूडाहच जीवियाओ ववरोवेज्जा) त्यारे प्रशी ये કહ્યું હે ભદંત ! હું તે પુરૂષને આ જાતની શિક્ષા કરીશ કે જેથી તેના બંને હાથે કાપી લેવામાં આવે કે તેને શૂળી પર ચઢાવવામાં આવે કે તેના બન્ને પગે કાપી નાખવામાં આવે કે એક જ ઘામાં તેને મારી નાખવામાં આવે અગર પર્વતશિખર પર લઈ જઈ તેને ત્યાંથી નીચે ફેંકી દેવામાં આવે કે જેથી પરિણામે તે મૃત્યુ પામે
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सुबोधिनी टीका. सू. १३२ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् १९३ स्वामिन ! मुहूर्त के हस्तच्छिन्न वा यावत् जीविताद व्यपरापय यावत् तावद् अहमित्र ज्ञाति-निजक स्वजनसम्बन्धिपरिजनम् एवं वदामि-एवं खलु देवानुप्रिया! पापानि कर्माणि समाचर्य इमामेनपाम आपत्ति प्राप्नोमि, तत् मा खलु देवानुपिया! यूयमपि केचित् पापानि कर्माणि समाचरत, मा खलु यूयमपि एवमेव आपत्ति प्राप्नुत यथा खलु अह', तस्य खलु त्वं प्रदे. तुमं एवं वएजा-मा ताव मे सामी! मुहतगं हत्थच्छिण्णगं वा जीवियाओ ववरो वेहि जाव ताव अह मित्तणाइणि यगसयणसंबंधिपरियणं एवं क्यासी) इस प्रकार से प्रदेशी राजा का कथन सुनकर केशीश्रमणने उससे ऐसा कहा-हे प्रदेशिन् ! यदि वह तुमसे ऐसा कहे-हे स्वामिन ! आप थोडी देर तक ठहरिये. मेरे हाथ पैर न काटिये यावत मुझे जीवन से रहित न कीजिये, तब तक मैं मित्र, माता आदि ज्ञाति, स्वपुत्रादिक निजक, पितृव्यादि स्वजन श्वशुर आदिक सम्बधिजन, दासी दास आदि परिजन, इन सब से ऐसा कह दूं कि( एवं खलु देवाणुरिपया ? पावाईकम्माई समाचरेत्ता इमेपारूवं आवई पाविजामि) हे देवानुप्रियो! मैं पापकर्मों की समाचरित करके इस प्रकार की आपत्ति को पा रहा है (तमा ण देवाणुप्पिया! तुम्भे वि केई पाराई कम्माई समायरइ) इसलिये हे देवानुप्रियो! आप लोग कोई
भी पापकर्म मत करना कि (मा ण में वि एवं चेव आवई पावेजाहिं य जहा णं अहं) जिससे तुमको भी ऐसी आपत्ति में पडना पडे, जैसा (अह णं पएसी ! से पुरिसे तुमं वदेज्जा मा ताव मे सामी! मुहुत्तगं हत्थ. च्छिण्णगं वा जाव जीवियाओ ववरोवेहि जाव ताव अहं मित्तणाइणियगसयणसंबंधिपरियणं एवं वयामि) मा प्रभारी प्रदेशी रानु ४थन सांगीन કેશીકુમાર શ્રમણે તેમને કહ્યું કે હે પ્રદેશિન ! જે તમને આ પ્રમાણે કહે કે સ્વામિન! આપ થોડી વખત ભી જાવ. મારા હાથપગ કાપે નહિ યાવતું મને જીવન રહિત પણ બનાવે નહિ. હું મિત્ર, માતા, પિતા વગેરે જ્ઞાતિ, સ્વપુત્રાદિક નિજક પિતૃવ્યાદિ સ્વજન, શ્વશુર વગેરે સંબંધીજન, દાસદાસી વગેરે પરિજન આ બધાને मा प्रमाणे ही ' (एवं खलु देवाणुप्पिया ! पावाईकम्माइं समायरेत्ता इमेयारूवं आवई पाविज्जामि) हे देवानुप्रिया !ई पा५४ोनु मायण ४ मा ततनी शिक्षा लागी २हो छु. (तं मा देवाणुप्पिया! तुम्भे वि केइ पावाई कम्माई समायरइ) मेथी 3 वानुप्रियो तमे ५९
तनु पाप मायरता नहि. (माण भेवि एवं चेव आवड पावेज्जाहि य जहा " अह) थी तभने Alonal शिक्षा लागी ५3 केवी लागवी रह्यो छु
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राजप्रश्नायसूत्रे
शिन् ! पुरुषस्य क्षणमापे एतमर्थ प्रतिगृणुयाः ?, नायमर्थः समर्थः, कम्मात् खलु ?, यस्मात् खलु भदन्त ! अपराधी खलु स पुरुषः, एवमेव प्रदेशिन् ! तवापि आर्यकोऽभवत् इहैव श्वेतबिकायां नगर्याम् अधार्मिको यावत् नो सम्यकूकरभरवृत्ति मावर्तयत, स खलु मम वक्तव्यतया सुबहु यावत् उपपन्नः, तस्य खलु आर्यकस्य त्वं नप्तृकोऽभवः, इष्टः कान्तः यावद् दर्शनतया, स खलु इच्छति मनुष्यं लोक शीघ्रमागन्तु नैव खलु शक़ोति शीघ्रमागन्तुम्, चतुर्भिः स्थानैः प्रदेशिन्! अधुनोपपन्नकः नरकेषु नैरयिककि मैं पड गया हूं । (तस्स णं तुम पएसी ! पुरिसस्स खणमनि एयम पडिसुजासि ? ) तो हे पदेशिन् ! तुम क्या उस पुरुष की यात का थोडी सी भी देर के लिये स्वीकार कर लोगे ? (णो इगठ्ठे सम ) हे भदन्त ! यह अर्थ समर्थ नहीं है-अर्थात् उसकी यह बात स्वीकार नहीं की जावेगा ( जम्हा) क्यों कि (णं सं भते! अवराही णं से पुरिसे) हे भदन्त ! वह पुरुष अपराधी है । ( एवामेव पएसी ! तब वि अज्जए होत्था ) तो इसी तरह से हे प्रदेशिन् ! तुम्हारे भी आर्यक हुए हैं। (एवामेव इहेव सेयबियाए णयरीए अधम्मिए णो, सम्म करभरविति पवत े इ) उन्होंने इस श्वेतांबिका नगरी में अपना जीवन अधार्मिक बनाया है, तथा प्रजाजन से प्राप्त टेक्स से उनका उन्होंने अच्छी तरह से पालनपोषण नहीं किया है। (सेणं अम्ह वक्तव्वाए सुबहु जाव उवबन्नो ) इस तरह मेरी वक्तव्यता के अनुसार वे अनेक अतिमलिन पाप कर्मों का अर्जन करके यावत् किसा एक नरक की पर्याय से उत्पन्न हुए हैं । ( तस्स णं अज्जगस्स तुमं णत्तुए होत्था, इट्ठे कते जाव पासणयाए ) उन्हीं आर्यक के तुम इष्ट कान्त ( तस्स णं तुमं पएसी ! पुरिसस्स खणमवि एयम पडिसुणेज्जासि १ ) તે હે પ્રદેશિન! શું તમે તે પુરુષની વાતને ચેાડા વખત માટે પણ સ્વીકારી લેશે? (णो इट्ठे समट्ठे ) हे लहंत ! म अर्थ समर्थ नथी भेटले तेनी या बात स्वीारवामां आवशे नहि. ( जम्हा) उभडे (ण से भंते! अवराही ण से पुरिसे) हे लत! ते पुरुष अपराधी छे. (एवामेव पएसी ! तव वि अज्जए होत्था) तो मा प्रभाणे ४ हे अहेशिन् तभारा भाटे पशु आर्य! थया छे. (एवामेव इहेव arfare rयरी अधम्मिए णो सम्म कर भरवित्ति पबत्तेइ ) तेभाणे પાંતાનું જીવન શ્વેતાંબિકા નગરીમાં અધામિ`ક રીતે પસાર કર્યું છે તેમજ પ્રજાજના पासेथी १२ वसूल पुरीने पशु तेभनु सारी पेठे घोषणा अयु नथी. (से णं अम्ह वन्तव्वाए सुबहु जाव उववन्नो) या प्रमाणे भारा स्थन मुल्य तेमाणे धां પાપકર્મોનું અર્જન કરીને યાવત્ કોઇ એક નરકમાં નારકની પર્યાયથી જન્મ પામ્યાં છે. ( तस्स णं अज्जगस्स तुमं णतुए होत्था, इहे कंते जाव पासणयाए )
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सुबोधिनो टीका. १३२ सूर्याभदेवस्य पूर्व भव जीवपदेशिराजवर्णनम् १९५ इच्छति मानुष्य लोक शीघ्रमागन्तुं नैव खलु शक्नाति-१ अधुनोपपन्नकः नरकेषु नैरयिकः स खलु तत्र महतां वेदनां बेदयन् इच्छेत मानुष्यं लोक शीघमागन्तुं नैव खलु यत्नाति । २ अधुनोपपन्नको नरकेषु नरयिको नरकपालैः भूयो भूयः समधिष्ठीयमानः इच्छति मानुष्यं लोकं शीध्रमागन्तुं
आदि विशेषणों वाले पौत्र हो (से ण इच्छइ माणुसं लोग हव्वमागच्छित्तए णा चेव णं संवाएइ, हव्वमागच्छित्तए) वे तुम्हारे आर्यक ! यद्यपि इस मनुष्यलोक में वहां से जल्दी से जल्दी आना चाहते हैं, परन्तु वे वहां से आने के लिये असमर्थ हैं। (चउहि ठाणेहि पएसी ! अहुणोववण्णए नरएसु नेरइए इच्छइ, माणुसं लोगं हवमागच्छित्तए णो चेव ण संचाएइ) क्यों की हे प्रदेशिन् ! अधुनोपपन्नक नारक चार कारणों को लेकर मनुष्यलोक में शीघ्र आने की इच्छा करता हुआ भी वह वहां से शीघ्र नहीं आ सकता है । १अहुणोववन्न ए. नरएसु नेरइए-से ण तत्थ महब्भ्य वेयणं वेदेमाणे इच्छेज्जा माणुस्सं लोग हब्वमागाच्छित्तए णो चेव णं संचाएइ) वे चार कारण इस प्रकार से हैं--अधुनोपपन्नक रयिक नरकों में बहुत बडो वेदना का अनुभव करता है, अतः वह चाहता है कि मैं मनुष्य. लोक में उत्पन्न हो जाऊ-परन्तु वह वहां से निकलने में सर्वथा असमर्थ होता है-वहां नहीं आ सकता है ? १२अहुणोववन्नए नरएसु नेरइए नरय
ते मायन। तमे Ue sin मेरे विशेषणा पौत्र छ. (से ण इच्छइ माणुसं लोग' हवमागच्छित्तए णो चेव गं संचाएइ. हव्वमागच्छित्तए) तभाश ते આર્યજે કે મનુષ્યલકમાં ત્યાંથી જલદીમાં જલદી આવવા ઈચ્છે છે, પરંતુ તેઓ त्यांथी मापामा असमर्थ छ. (चउहि ठाणेहि पएसी! अहणोववष्णए नरएसु नेरइए इच्छइ, माणुसं लोग हत्यमागच्छित्तए णो चेव ण संचाएइ) કેમકે હે પ્રદેશિન! અધુને ૫૫ન્નક નારક ચાર કારણોને લીધે મનુષ્યલેકમાં જલદી भाववानी ४२छपरावे छे छताये ते त्यांची काही मावी शो नथी. (१ अहणो. ववन्नए, नरएमु नेरइए से ण तत्थ महाभूय वेयण वेदेमाणे इच्छेज्जा माणुस्स लोग हव्वमागचिछत्तए णों चेव ण संचाएइ) ते या२ ॥२॥ मा પ્રમાણે છે. અધુનો ૫૫નકને રયિક નરકમાં તીવ્ર વેદનાને અનુભવે છે એથી તે ઇચ્છે છે કે હું મનુષ્યલોકમાં જન્મ પામું પરંતુ તે ત્યાંથી નીકળવામાં સર્વથા અસમર્થ
य छ, म त ापी ४नथी १ (२ अहुणोववन्नए नरएमु नेरइए गरयपाले हिं भुज्जो मुज्जो समहिहिज्जमाणे इच्छइ, माणुस लोग हन्वमाग.
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राजप्रश्नीयसूत्रे नैव खलु शक्नोति । ३ अधुनोपपन्नकः नरकेषु नैरयिकः निरयवेदनीये कर्मणि अक्षीणे अवेदिते अनिर्जिणे इच्छति मानुष्य लोक शीघ्रमागन्तु नैव खलु शक्नोति। ४ एवम् अधुनोपपन्नको नरकेषु नैरथिको निरयाऽऽयषि कमणि अक्षीणे अवेदिते अनिर्माण इच्छति मानुष्य लोक शीघ्रमागन्तु नैव खलु शवनाति शीघ्रमागन्तुम्' इत्येतेश्चतुर्मिः स्थानैः प्रदेशिन् ! अधुनोपपन्नकः पालेहिं भुज्जो भुज्जो समहि ट्ठिजमाणे इच्छइ, माणुसं लोगं हन्धमागच्छित्तए नो चेव ण संचाएइ) अधुनोपपन्न नारक नरकों में परमाधार्मिकरूप नरकपालों द्वारा बार बार आक्रम्यमाण होता हुआ यह चाहता है कि मैं मनुष्यलोक में शीघ्र उत्पन्न हो जाऊं, परन्तु वह मनुष्यलोकमें शीघ्र उत्पन्न नहीं होसकता है२ (३अहुणोववन्नए नरए सु नेरइए निरयवेयणिजसि कम्मंसि अवखीणसि अवेइयंसि अनिजिन्सि इच्छइ माणुस लोग हव्चमागच्छित्तए णो चेव ग संचाएइ हच्चमागच्छित्तए) अधुनोपपत्रक नारक नरक में नरकभोग्य अशातवेदनीय कर्म के अक्षीण होने पर, अननुभूत होने पर एवं अनिर्जिण नाश होने पर, मनुष्यलोक में आनेका अभिलाषी होता हुआ भी नहीं आ सकता है३ (४ एवं नेरयासि अवखीणे अवेइए अणिज्जिण्णे. इच्छेज्जा माणुस्स लोग हव्यमागच्छित्तए नो चेव ण संचाएइ) इसी प्रकार चौथा कारण यह है कि उसके नरकसंबधी आयु क्षीण नहीं हुआ है, उसका वेदन नहीं हो चुका है, तथा नारक आयु की निर्जरा भी नहीं हुई है इसी कारण से वह मनुष्यलोग में आने को इच्छाकरता हुआ भी नहीं आ सकताहै।(इच्चेच्छित्तए नो चेव ण संचाएइ) अधुनापन्न ना२४ ना२मा ५२भाषाभि४३५ નરકપાલ વડે વારંવાર આકંમ્યમાણ થઈને તે એમ ઈચ્છે છે કે હું મનુષ્યલેકમાં જલદી उत्पन्न थाG ५२तु ते मनुष्यसोभi real sपन्न | शzतो नथी, २. (३अहणोववन्नए नरएमु नेरइए निरयवेयणिज्जसि कम्मसि अक्खीणंसि अवेइयंसि अन्निज्जिन्नसि इच्छइ माणुस लोगं हवमागच्छित्तए णो चेव णं संचाएइ हव्चमागच्छित्तए) आधुना५पन्न ना२४ न२४मा लाग्य भात वेदनीय भमक्षाए। હેવાથી અનનુભૂત હોવાથી અને અનિજીણ હેવાથી મનુષ્યલકમાં આવવાની અભિલાષા रामे छे छतांये ते त्यांची भुत २६ शzal नथी. मन (४ एवं नेरइयाउंसी अवखीणे अवेइए अणिज्जिण्णे इच्छेज्जा माणुस्सं लोगं हव्वमागच्छित्तए नो चेव णं संचाएइ) मा प्रमाणे याथु १२ मा प्रभारी छ । न२४ धी તેનું આયુ ક્ષીણ થયું નથી, તેનું વેદન થયું નથી તેમજ નારક આયુની નિજ રાપણ થઈ નથી એથી જ તે મનુષ્યલકમાં આવવાની ઈચ્છા ધરાવે છે છતાંએ આવી
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सुबोधिनी टीका सु. १३२ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजी व प्रदेशोराजवर्णनम्
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नरकेषु नैरधिकः इच्छति मानुष्य लोक शीघ्रमागन्तु नैव खलु शक्नोति । तत् श्रद्धेहि खलु प्रदेशिन् ! यथा-अन्यो जीव अन्यत् शरीरम् नो तज्जीवः स शरीरम् ॥ सू. १३२ ॥
टीका--' तर ण केसीकुमारसमणे' इत्यादि - ततः - तदनन्तरम्, खलु केशीकुमारश्रमणः प्रदेशिन राजानमेवमवादीत हे प्रदेशिन ! तब सूर्यकान्तानाम देवी =राज्ञी अस्ति खलु ?, ततः प्रदेशी राजोत्तरपति-हन्त !' इति
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एहिं चउहि ठाणेहि पएसी ! अहुणावचन्ने नरएस नेरइएस नेरइए इच्छर माणुस लोग हव्वमागच्छितए नो वेव ण संवाएइ) इस प्रकार इन चार कारणों से हे पदेशिन् ! अधुनोपपन्नक नारक मनुष्यलोक में शीघ्र जाने का अभिलाषी होता हुआ भी वह वहां से शीघ्र मनुष्यलोक में नहीं आ सकता है । ( तं सद्दहाहि णं पएसी ! जहा अन्नो जीवो अन्नं सरीरं नो तं जीवो तं सरीर) इसलिये हे प्रदेशिन् ! तुम स बात पर अवश्य विश्वास करो, कि जीव भिन्न है और शरीर भिन्न है. ।
टीकार्थ - केशीकुमार श्रमणने प्रदेशी राजा से जो कहा वह इस सूत्र द्वारा प्रकट किया गया है. इसमें जीव भिन्न है और शरीरभिन्न है इस बातको उसके आर्यक - ( पितामह दादा) नरक से आकर उसे क्यों नहीं समझाते हैं इस बात को उत्तर उसे समझाया गया है. उससे केशीकुमारश्रमणने कहा हे प्रदेशिन ! तुम्हारी जो सूर्यकान्ता देवी है उससे यदि कोई मनुष्य उसी के जैसे विशेषणों वाला बन कर मनोऽनुकूल शब्द
शतो नथी. (इच्चे एहि चउहि ठाणेहि पएसी ! अहुणोववन्ने नरएसु नेरइएस नेरइए इच्छ माणुसं लोगं हवमागच्छित्तए नो चेव णं संचाएइ) આ પ્રમાણે આ ચારે ચાર કારણેાથી હે પ્રદેશ! અધુનેાપપન્નક નારક મનુષ્યલાકમાં જલદી આવવાની ઇચ્છા રાખતા હોય છતાં એ ત્યાંથી જલદી મનુષ્યલાકમાં આવી शतो नथी (तं सद्दहाहि ण पएसी ! जहा अन्नो जावो अन्नं सरीर, नो तं जीवो त सरीरं) मेथी हे अहेशिन ! तमे भा વાત પર અવશ્ય વિશ્વાસ કરી કે જીવ ભિન્ન છે અને શરીર ભિન્ન છે.
ટીકા કેશીકુમારશ્રમણે પ્રદેશી રાજાને જે કંઈ કહ્યુ છે તે બધું આ સૂત્ર વડે પ્રકટ કરવામાં આવ્યુ છે. આમાં જીવ ભિન્ન છે અને શરીર ભિન્ન છે એ વાતને તેના આક (પિતામહ-દાદા) નરકમાંથી આવીને કેમ સમજાવતા નથી એ વાત આ પ્રમાણે તેને સમજાવવામાં આવી છે. કેશીકુમારશ્રમણે કહ્યું કે હૈ પ્રદેશિન્ ! તમારી જે સૂર્યકાંતાદેવી છે તેની સાથે જો કોઇ માણસ તેના જેવા વિશેષણાથી યુકત થઈને
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राजप्रश्नीयसूत्रे स्वीकारे अस्ति-विद्यते मम सूर्यकान्तां देवीं। ततः केशाकुमारश्रमणआह-यदि-चेत् खलु त्व पदेशो राजा तां-पूर्वोक्ता सूर्यकान्तां देवीं स्नातां-कृतस्नाना. कृतवलिकर्माण-कृतवायसादि निमित्तान्न भागां, कनकोतुकमङ्गलपायश्चित्तां-कृतमषापुण्डूतिलकादि मङ्गलार्थ पापशाधनक्रियां, सर्वा. लङ्कारभूषितां-सकलाङ्गोपाङ्गाभरणालङ्कृतां केनापि केनचित् पुरुषेण सार्द, कोदृशेन ? इत्याह-स्नातेन ? इत्याह-म्नातेन यावत्-यावत्पदेन-कृतबलिकर्मणा कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्तेन' इत्येषां साहः, तथा सर्वालङ्कारभूपितेन साई इष्टान्मनोऽनुकूलान शब्द-स्पर्श रसरूप-गन्धान, पञ्चविधान-पञ्चप्रकारान मनुष्यकान्-मानुष्यलोकभवान कामभोगान्-पूर्वोक्तान् शब्दादीन्द्रियविषयान् प्रत्यनुभवन्तीम्-अनुभवविषयोकुर्वतीम् पश्येथ, तस्मिन्नवसरे हे प्रदेशिन् ! त्वं तस्य-पूर्वोक्तस्य खलु क-कीदृशं दण्डं निग्रहं निर्वत ये:-कुर्याः? । ततः प्रदेशिराज आह-हे भदन्त ! अहं खलु त-कृततादृशदुराचार पुरुष हस्तच्छिन्नक-हस्तौ छिन्नौ यस्य तादृशं वा-अथवा शूलातिगशृलारोपितं वा भिन्नक-शूलेन भिन्नः शूलभिन्नः स एव शूलभिन्नकस्तम्, वा-अथवा पादः च्छिन्नक-छिन्नौ पादौ यस्य तम् वा अथवा एकाऽऽघातम् एकः सकृत् आघात:महारो यस्मिन् , तम्,कूटाऽऽघात-कूटेन-पर्वतशिखरेण तदुपरिममारोपणद्वारा पातनेन आघात:-बधो यस्थ तं तथा, जीचितात-त्यपरोपयेय-वियोजयेयम्, जावरहित कुर्यामित्यर्थः, इति प्रदेशिराजनिवेदनानन्तरं पुनः केशीश्रमण: पृच्छति-अथ खलु हे प्रदेाशन ! यदि मः पुरुषः त्वाम् एवम् अनुपद वक्ष्यमाणं वचनं वदेत्-कथयत्-तथाहि-मे-मां हे स्वामिन् ! यावत-मित्रास्पर्श-रस-रूप गधादि पांच प्रकारक मनुष्यभव सबधा कामभोगों को भोगे और तुम इस बात को देखलो तो उस अवसर में तुम उस पुरुष के लिये क्या दण्ड दो ? तब प्रदेशी राजाने कहा-हे भदन्त ! ऐसे दुराचारी पुरुष को मैं अङ्गभङ्ग का यावत जीवरहित होने का दण्ड दूं ठीक हैइस पर यदि वह पुनः तुम से ऐसा निवेदन करे कि हे स्वामिन् ! थोडी देर आप मुझे इस दण्ड से रहित कर दीजिये इतने में मैं अपने मित्रा રમણ કરે મનનું શબ્દ સ્પર્શ રસ રૂપ ગંધ વગેરે પાંચ પ્રકારના મનુષ્યસંબંધી કામગ ભેગવે અને તમે આ બધું કરતાં જોઈ લો તે તે વખતે તમે તે પુરુષને શી શિક્ષા કરે ત્યારે પ્રદેશ રાજાએ કહ્યું કે હે ભદંતા એવા દુરાચારી પુરુષને હું અંગભંગની યાવત નિપ્રાણ કરી શકવાની શિક્ષા આપું તે યોગ્ય કહેવાય. એના પછી તે ફરી તમને એવી રીતે વિનંતી કરે કે હે સ્વામિન ! થોડા વખત માટે મને રજા આપે કે જેથી હું મિત્ર વગેરે સ્વજનેને આમ કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિયે તમારામાંથી
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सुबोधिनी टीका सू. १३२ सूर्याभदेवस्य पूभवजीवप्रदेशीराजवर्णनम्
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दीन् प्रति वक्ष्यमाणविषयनिवेदनसमयावधिमुहूर्त मुहुर्तमात्रं मां हस्तच्छिन्नकं वा यावत्-यावत्पदेनोपर्युक्तपदानां संग्रहा बोध्यः, तदर्थ थोपर्युक्त एच, जीवितात् मा व्यपरोपय-न वियोजय, मा मारयेत्यर्थः यावत्-यत्समयपर्यन्तं 'तावत' इति वाक्यालङ्कारे, अहं मित्र-जाति-निजक-स्वजन-सम्बन्धि परिजनं मित्राणि-सुहृदः, ज्ञातयः-मातापितभ्रात्रादयः, निजका:-स्वपुत्रादयः स्वजना:-पितृम्पादयः, सम्बन्धिन:-श्वशुरादयः, परिजना:-दासी दासादयः, एषां समाहारा मित्र-ज्ञाति-निजक स्वजन-सम्बन्धि-परिजनं, तत्तथा, एवम् अनुपदं वक्ष्यमाणं वचनं वदामि-कथयामि, यथा-हे देवानुपियाः! यूयम् एवं-वक्ष्यमाण शृणुत-'अहं पापानि कर्माणि समाचर्य-कृत्वा इमाम्- एतद्रूपां. पदेशिराजोपनीयमानां कुमारणया ज विताद् व्यपरोपणीयतारूपाम् आपत्तिम्आपदं प्राप्नोमि-प्राप्तोऽऽस्मि, तत्-तस्मात्कारणात-पापकर्मणामापत्तिप्राप. कत्वाद्धेतोः, हे देवानुप्रियाः ! यूयमपि-मदोयमित्रादयः केचित्-केऽपि पापानि कर्माणि मा समाचरत-न प्रकुरुत 'भेवि' इति यूयमपि एवमेव अनेनैवप्रकारेण आपत्ति मा प्राप्नुत-पथा खलु अहम् इति । तस्य खलु त्वम् एतंतत्कथनरूपम् अर्थ हे पदेशिन् ! पतिशुणुयाः-स्वीकुर्याः ? प्रदेशी कथयतिअयम्-अनन्तरोक्तोऽर्थः नो समर्थः-न युज्यते, कस्मात् खलु न समर्थः ? इति जिज्ञासायामाह-'यस्मात' इत्यादि-हे भदन्त ! यस्मात् खलु स पुरुषः मे-मम अपराधी वर्तते' इति हेतोः अयमर्थो न समर्थः, केशीकुमारश्रमणः दिजनों से ऐसा कह दू कि हे देवानुप्रियो ! तुम लोगों में से कोई भी जन ऐसा पापकर्म नहीं करना-नहीं तो मेरी जैसी आपत्ति को भोगना पडेगा तो क्या हे पदेशिन् ! तुम उसकी इस चातको मान लोगे! यदि कहा कि नहीं तो इस पर पुनः यही पूछा जा सकता है कि क्यों नहीं? तुम कह सकते हो? इसके उत्तर में वह अपराधी है। तो इसी प्रकार से हे प्रदेशिन ! तुम्हारे जो आर्यक (दादा) है वे भी अनेक मलिन पापकर्मों को कमाकर यहां से नरक में नारक की पर्याय से उत्पन्न हुए हैं-अतः जब तक वे वहां की पूरी स्थिति को नहीं भोग लेते हैं-तबतक वे अपनी इच्छा કેઈપણ એવું પાપકર્મ કરશો નહિ નહિતર મારા જેવી શિક્ષા ભેગવવી પડશે તે શું હે પ્રદેશિન્ તમે તેની આ વાત સ્વીકારી લેશે? હવે જો તમે આમ કહો કે નહિ, તે એના પર ફરી તમને પૂછવામાં આવે કે કેમ નહિ? એના ઉત્તરમાં તમે કહેશો કે તે અપરાધી છે, તે આ પ્રમાણે હે પ્રદેશિન તમારા જે આર્યક છે તેઓ પણ ઘણાં પાપકર્મોનું અર્જનકરીને અહી થી નરકમાં નારકની પર્યાયથી જન્મ પામ્યા છે એથી જયાં સુધી તેઓ ત્યાંની સંપૂર્ણ પ્રાપ્ત
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राजप्रश्रीयसूत्रे
प्राह- हे पदेशिन् ! एवमेव - अनेनैव प्रकारेण तवापि आर्यकाऽभवत्, पितामद्दो कीदृशेऽभवत् ? इत्याह- सच इहैव श्वेत विकायां नगर्यामधामिको यावत्नो सम्यक् कर भरवृत्ति प्रावर्तयत् । सः - तवार्यकः खलु मम वक्तव्यतया कथनानुसारेण सुबहु यावत् यावत्पदेन पापं कर्म प्राणातिपातादिकं समय नरकेषु" इत्येषां पदानां सङ्ग्रहः उत्पन्नः समुत्पन्नः" तस्य - पूर्वोकस्य आर्यम्य खलु स्व नप्तृकः पौत्रोऽभवः कीदृश: ? इति जिज्ञासायामाह - इष्टः कान्ता यावद, दर्शनतया । सः - नर के षूपपन्नः खलु सम्प्रति मानुष्य लोकं हव्य शीघ्रमागन्तुमिच्छति, परन्तु स शीघ्रमागन्तुं न शक्नाति । कुतो न इति जिज्ञासायां शृणु-हे प्रदेशिन ! चतुर्भिः स्थानैः कारणैः, अधुनोपपन्नः- तत्कालोत्पन्नो नरकेषु नरकमध्ये, नैरयिकः नारकः मानुष्य ं लोकं शीघ्रमागन्तुमिच्छति परन्तु शीघ्र आगन्तु नो शक्नोति तानि चत्वारि स्थानान्येवम्-अधुनोपपन्नो नरकेषु नैरयिकः सः खलु तत्र नरकेषु मह दभूतां महर्ती वेदनां वेदयन-अनुभवन मानुष्यं लोकं शीघ्रमागन्तुमिच्छेत परन्तु आगन्तुं नैव शक्नोति १ अधुनोपपन्नो नरकेषु नैरयिको नरकपालै:परमधार्मिके देवे भूयोभूयः पुनः पुनः समधिष्ठीयमानः- आक्रम्यमाणः सन इच्छति मानुष्यं लोकमागन्तुं किन्तु न शक्नोति२ । तृतीयं स्थानमाह-' अधुनोपपन्नो नरकेषु नैरयिकः, निरयवेदनीये नरक भोग्ये अशात वेदनीये कर्मणि अक्षीणे-क्षयमप्राप्ते अवेदिते- अननुभूते, श्रनिर्जीर्णे - नाशमप्राप्ते च सति इच्छति मानुष्यं लोकमागन्तुं किन्तु न शक्नोत्यागन्तुम् | ३| अनेन प्रकारेण निर. यायुषि - नरकसम्बन्धिनि आयुःकर्मणि अक्षीणेऽवेदितेऽनिजणे - निर्ज रामप्राप्ते च सति, इच्छति मनुष्यं लोकमागन्तुं किन्तु न शक्नोति |४| इत्येतैः अनन्तरोक्तैश्चतुर्भिः स्थान: हे पदेशिन् ! अधुनोपपन्न इत्यादीनां विवरणं प्राग्वत् । तत्-तम्मात्कारणात् हे प्रदेशिन् ! त्वं श्रद्धे हि मद्वचने विश्वसिहि खलु यथा- 'अन्पो जीवः अन्यत् शरीरम् नो स जीवः तत् शरीरम्' के अनुसार यहां नहीं आ सकते हैं. क्यों कि नारक जीवों को यहां आने में चार कारण बाधक हैं जो मूलार्थ में प्रकट किये जा चुके हैं। इसलिये हे प्रदेशिन ! तुम मेरे इस वचन पर कि जीव भिन्न है और शरीर भिन्न है, जीव शरीररूप नहीं हैं, और शरीर जीव रूप नहीं है विश्वास रखो,
સ્થિતિને ભાગવી લેશે નહિ ત્યાં સુધી તે પાતાની ઇચ્છા મુજબ અહીં આવી શકશે નહિ કેમકે નારકવાને અહીં આવવા માટે ચાર કારણેા ખાધક છે. જે મૂલામાં ખતાવવામાં માન્યા છે. એથી અે પ્રદેશિન્! તમે મારા આ વચન પર—કે જીવ ભિન્ન અને શરીર ભિન્ન છે, જીવ શરીરરૂપ નથી, અને શરીર જીવરૂપ નથી,
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सुबोधिनी टीका सू. १३३ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजोवप्रदेशिराजवर्णनम् २०१ इति । यदि जीव-शरारयो दो न स्यात्तदा पूर्वोक्तकारणचतुष्टयेन नरकभोगं कः कुर्यात् ? शरीरम्य तु मनुष्यलोक एव नष्टत्वात्, शरीरभिन्नत्वे तु जीवस्य शरीरनाशेऽपि सत्वादुक्तहेतुचतुष्टयेन नरकभोगं कतु जीवः शक्यो भवति ॥ सू० १३२॥
मूलम्--तएणं से पएसी राया केसि कुमारसमणं एवं क्यासाअस्थि णं भंते ! एसा पण्णाओ उवमा, इमेण पुण कारणेण नोउवागच्छइ । एवं खलु भंते ! मम अजिया होत्था इहेव सेयवियाए नयरीए धम्मिया जवि वित्ति कप्पेमाणी समणोवासिया अभिगय जीवा० सम्वो वपणओजाव अप्पाणं भावेमाणीविहरइ, साणंतुझ वत्तव्वयाए सुबहु पुन्नोवचयं समजिणित्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववण्णा, तीसेणंअजियाए अहं नत्तुए होत्था इट्टे कते जाव पासणयाए, तं जइ णं सा अजिगा मम आगंतुं एवं वएजाएवं खलु नत्तुआ ! अहः तव अज्जिया होत्था, इहेव सेयवियाए नयरीए धम्मिया जाव वित्ति कप्पेमाणी समणोवासिया जाव विह
यदि जीव और शरीर में भेद नहीं होता तो पूर्वोक्त कारण चतुष्टय में नरक भोग कौन करे? क्यों कि शरीर तो मनुष्यलोक में ही नष्ट हो जाता है उस के नष्ट होने पर तदभिन्न जीव भी नष्ट हो जावेगा। परन्तु जब शरीर से भिन्न जीव को माना जाता है तो शरीर के नाश होने पर भी जीव का सद्भाव रहता ही है। अतः उक्त हेतु चतुष्टय से नरकभोग करने के लिये जीव समर्थ होता है। इस प्रकार से यह टीका का भाव लिखा गया है ॥ सू. १३२ ॥
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વિશ્વાસ રાખે. જે જીવ અને શરીરમાં ભિન્નતા ન હોત તે પૂર્વોક્ત કારણ ચતુષ્યમાં નરકગ કરે કેણ? કેમકે શરીર તે મનુષ્ય લેકમાં જ નષ્ટ થઈ જાય છે, તેના નાશ પછી ભિન્ન જીવ પણ નષ્ટ થઈ જ જશે જ. પરંતુ જ્યારે શરીર કરતાં ભિન્ન જીવને માનવામાં આવે છે તે શરીરના વિનાશ પછી પણ જીવને સદૂભાવ રહેજ છે. ઉકત હેતુ ચતુષ્ટયથી નરકગ માટે જીવ સમર્થ હોય છે. આ પ્રમાણે આ ટીકા નો ભાવ લખવામાં આવ્યું છે. સૂ. ૧૩રા
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राजप्रश्नीयसूत्रे
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रामि । तए णं अहं सुबहु पुण्णोवचयं समजिणित्ता कालमासे कालं किच्चा देवलोएसु उववण्णा, तं तुमंपि णत्तुया ! भवाहि धम्मिए जाव विहरोहि, तएणं तुमंपि एवं चेव सुबहु पुण्णोवचयं समजिणित्ता जाव उववजिहिसि, त जइ णं आज्जया मम आगतुं एवं वएजा तो णं अहं सदहेजा पत्तिएज्जा रोएज्जा जहा अण्णो जोवो अण्णं सरीर, णो तं जीवो तं सरीरं, जम्हा सा अजिया ममं आगतु णो एवं वयासी तम्हा सुपइट्रिया मे पइण्णा जहा त जीवो तं सरीरं नो अन्नो जीवो अन्न सरीरं ॥ सू० १३३ ॥
छाया-ततः खलु स प्रदेशी राजा केशिनं कुमारश्रमणमेवमवादोत् अस्ति खलु भदंत ! एषा:प्रज्ञात उपमाः, अनेन पुनः कारणेन नो उपागच्छति,
'तएणं से पएसी राया' इत्यादि ।
सूत्रार्थ-(तए ण) इसके बाद (से पएसी राया केसि कुमारसमणं एवं वयासी) उस प्रदेशी राजाने के शीकुमारश्रमण से इस प्रकार कहा(अस्थि णं भंते ! एसा पण्णाओ उवमा इमेण पुण कारणेण नो उवागच्छ३) हे भदन्त ! जीव और शरीर को भिन्न प्रकट करने में 'मेरे आर्यक-(पितामह) इस कारण से नहीं आते हैं। यहां तक के सन्दर्भ से जो आपने उपमा दी है , सो यह उपमा प्रज्ञात-दृष्टान्त है । यह वास्तविकी उपमा नहीं है) तो भी मैं यह मान लेता हूँ कि मेरे पितामह-आर्यक आपके द्वारा प्रदर्शित कारणों की वजह से यहां नहीं आते हैं-सो भले न जावें परन्तु (एवं खलु भंते !
'त एणं से पएसी राया' इत्यादि ।
सूत्रार्थ:-(तए णं) त्यार पछी ( से पएसी राया केसि कुमारसमणं एवं वयासी) ते प्रदेशी २०ये अशीभार अभाशुने मा प्रमाणे -अस्थि ण भंते ! एसा पण्णाओ उवमा इमेण पुण कारणेण नो उवागच्छइ) लत ! જીવ અને શરીરને ભિન્ન પ્રકટ કરવામાં “મારા આર્યક (પિતામહ) આ કારણને લીધે આવતા નથી” અહીં સુધીના સંદર્ભ લગી જે કંઈ પણ તમે ઉપમા રૂપમાં કહ્યું છે તે તે ઉપમા પ્રજ્ઞાત-દષ્ટાન્ત છે, આ વાસ્તવિકી ઉપમા નથી, છતાં એ હું તમારી આ વાત સ્વીકારી લઉં કે મારા પિતામહ આર્યક તમારા વડે પ્રદર્શિત કારણોને वीधे 4 माही भावी शता नथी. तो तेमालले न माये. ५२तु (एवं खलु भते!
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सुबोधिनी टोका सू. १३३ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् २०३ एवं खलु भदंत ! मम आर्यिकाऽभवन, इहैवश्वेतविकायां नगर्या धार्मिकी यावद् वृत्ति कल्पयमाना श्रमणोपासिका अभिगतजीवा० सर्वो वर्णकः यावद् आत्मानं भावयन्ती विहरति, सा खलु तव वक्तव्यतया सुबह पुण्योपचयं समयं कालमासे कालं कृत्वा अन्यतरेषु देवलोकेषु देवतयोपपन्ना, तस्याः खलु आर्यि कायाः अहं नप्तकोऽभवम्, इष्टः कान्तः यावद् दर्शनतया, तद् यदि खलु साऽऽयिका मम आगत्य एवं वदेत-एवं खलु नप्तृक! अहं मम अजिया होत्था इहेव सेय बियाए नयरीए धम्मिया जाव वित्ति कप्पेमाणी समणोवासिया अभिगय जीवा० सव्वओ वणी जाव अप्पाण भावे. माणी विहरइ) हे भदन्त ! मेरी जो आर्यिका-(दादी) हुई है, वह तो इस श्वेतांबिका नगरी में धार्मिकथी यावत् धर्म से ही अपनी जीवनयात्रा चलाती थी, श्रमणोपासिका थी, जीवअजीव तत्व के स्वरूप को जानती थी, इत्यादि सर्व वर्णन यहां पर करना चाहिये. यावत् वह आत्मा को भक्ति करती हुई अपने समय को व्यतीत करती थी (साणं तुज्झ वत्तव्वयाए सुबहुं पुण्णोवचयं समजिणित्ता काल किच्चा अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववन्ना) वह आपके कयनानुसार बहुत अधिक पुण्य को उपचय करके कालमास में काल कर देवलोकों में से किसी एक देवलोक में देव की पर्याय से उत्पन्न हुए हैं। (तीसे गं अज्जियाए अहं नए होत्था) में उसका पौत्र हुआ हूँ (इ? कते जाव पासणयाए) में उसके लिये इष्टअभिलषित. कान्त था यावत् दर्शन के लिये भी दुर्लभ था. मम अज्जिया होत्था इहेव सेयवियाए नयरीए धम्मिया जाव वित्ति कप्पेमाणी समणोवासिया अभिगयजीवा० सवओ वण्णी जाव अप्पाण भावेमाणी विहरइ) हे महत ! भास 2 मायि। (हाही) च्या छे ते तो 21 શ્વેતાંબિકા નગરીમાં ધાર્મિક હતા યાવત્ ધર્મનું આચરણ કરીને પોતાનું જીવન પસાર કર્યું હતું. તેઓ શ્રમણે પાસિકા હતા, જીવ અજીવ તત્ત્વના સ્વરૂપને જાણતા હતા. વગેરે બધું વર્ણન અહીં સમજી લેવું જોઈએ. તેઓ પોતાના આત્માને ભાવિત ४२ता पोताना समय सा२ ४२॥ ता. (सा ण तुज्झ वत्त व्वयाए सुबह पुण्णो. वचयं समज्जिणित्ता काल किच्चा अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववन्ना) તેઓ આપના કથન મુજબ ખૂબજ પુણ્ય સંચય કરીને કાલ માસમાં કોલ કરીને हेक्सोमांथी । मे४ वटामा हेवनी पर्यायमा म पाभ्या छ. (तीसे ण अज्जियाए अहं नए होत्था) तेमना हु पौत्र थयो छु. (इट' कते जाव पासणयाए) तमना भाटे ४०ट, अमितषित, sid sal यावत ६शन भाटे पार
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राजप्रश्नीयसूत्रे तव आर्यिकाऽभवम्, इहैव श्वेतविकायां नगर्या धार्मिकी यावत् वृत्ति कल्पयमाना श्रमणोपासिका यावद विहरामि । ततः खलु अहं सुबई पुण्यो. पचयं समय कालमासे काल' कृत्वा देवलोकेषु उपपन्ना, तत् त्वमपि नप्तृक ! भव धार्मिकः यावद् विहर, ततः खलु त्वमपि एवमेव सुबहु (तं जइ णं सा अजिया मम आगंतुं एवं वएजा) वह यदि आर्यिका (दादी) मुझ से आकरके ऐसा कहे (एवं खलु नत्तया! अहं तब अज्जिया होत्था, इहेव सेंय बियाए नयरीए धम्मिया जाव वितिं कप्पेमाणी समणोवासिया जाव विहरामि) हे पौत्र! मैं तुम्हारी दादी थी. इसी श्वेतांबिका नगरी में मैं धार्मिक जीवन व्यतीत करती हुई यावत् अपनी जीवन यात्रा चलाती थी, जीव अजीव तत्व के स्वरूप को ज्ञाता थी, तथा तप और संयम से अपनी आत्माको भावित करती हुई अपने समय को व्यतीत किया करती थी. (तए णं अहं सुबहु पुष्णोवचय समज्जिणित्ता कालमासे कालं किच्चा, देवलोएसु उपवणा) इस तरह मैंने बहुत अधिक पुण्य का संचय किया और संचय करके जब में मरण के अवसर पर मरी तो देवलोकों में से किसी एक देवलोक में देव की पर्याय से उत्पन्न हुई हूं (तं तुम पि नया! भवाहि धम्मिए जाव विहराहि) इसलिये हे पौत्र ! तुम भी धार्मिक जीवन व्यतीत करो और धर्मानग आदि विशेषणों वाले बनो! तथा धर्म से ही अपनी जीवनयात्रा करते हुए यावत् श्रमणोपासक Cen sal. (त जइ ण सा अज्जिया मम आगंतु एवं वएज्जा) ते माया (l) on भने मावीन माम ४ (एवं खलु नत्तुया ! अहं तव अज्जिया होत्था, इहेव सेयावियाए नयरोए धम्मिया जाव वित्तिं कप्पेमाणी समणोवासिया जाव विहरामि) के पौत्र ! तभारी पितामही ती. मे શ્વેતાંબિકા નગરીમાં ધાર્મિક જીવન પસાર કરતી યાવત્ પિતાની જીવન યાત્રા ખેડતી હતી. હું શ્રમણોપાસિકા હતી, જીવ અજીવ તત્ત્વના સ્વરૂપને જાણતી હતી તેમજ તપ અને સંયમથી પોતાના આત્માને ભાવિત કરતી પિતાને સમય પસાર કરતી હતી. (तए ण अहं सुबहु पुण्णोवचयं समज्जिणित्ता कालमासे काल किच्चा, देवलोएसु उववण्णा) 241 रीते में ध! पुश्यने। संयय ४या भने सयम ४रीने જયારે હું મરણ કાળે મરી ત્યારે દેવલેમાંથી કોઈ એક દેવલોકમાં દેવની પર્યાયથી सन्म पाभी छु. (तंतुमपि नया! भवाहि धम्मिए जाव विहराहि) मेथी । હે પૌત્ર! તમે પણ ધાર્મિક જીવન પસાર કરે અને ધર્માનુગ વગેરે વિશેષણેથી સંપન્ન બને. તેમજ ધર્મથી જ પિતાની જીવનયાત્રા આગળ ધપાવતાં યાવત
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सुबोधिनी टीका सू. १३३ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्ण नम्
मम
पुण्योपचय समर्ज्य यावद् उपपत्स्यसे, तद् यदि खलु आर्यिका आगत्य एवं वदेत्, तदा खलु अहं श्रदध्याम् प्रतीयां रीचयेयं यथाअन्यो जीवः, अन्यच्छरीरम् नो तज्जीवस्तच्छरीरम् । यस्मात् साऽऽर्यिका ममागत्य नो एवमवादीत, तस्मात् सुप्रतिष्ठिता मे प्रतिज्ञा थथा - तज्जीवः स्सच्छरीरम्, नो अन्यो जीवः, अन्यच्छरीरम् ||मू० १३३ ||
२०५
बनो. (तए गं तुमपि एवं चेव सुबहु पुण्णोबचय सममज्जिणित्ता जाव उववज्जिहिसि ) इस तरह करके तुम भी मेरी ही तरह से पुण्य का उपचय करके यावत् देवलोका में किसी एक देवलोक में देव की पर्याय से उत्पन्न हो जाओगे. (त जइण अज्जिया मम आगंतु एवं बएज्जा, तो णं अहं सद्दहेज्जा, पत्तिएज्जा, रोइज्जा, जहा अण्णो जीवो, अण्णं सरीरं णो तं जीवो तं सरीर ) इस तरह से हे भदन्त ! वह आर्यिका आकर के मुझ से ऐसा कहे तो मैं तुम्हारे इस कथन पर कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है तथा जीव शरीररूप नहीं है और शरीर जीवरूप नहीं है विश्वास कर सकता हूं प्रतीति कर सकता हूं और उसे अपनी रुचि का विषय बना सकता हूँ । ( जम्हा सा अज्जिया ममं आगंतु णो एवं वयासी - तम्हा सुपट्टिया - मे पइण्णा - जहा त जीवो अन्नं सरीर) परन्तु जिस कारण से वह आर्यिका मुझ से आकर के ऐसा कहती नहीं है, अतः इस कारण से मेरा यह मन्तव्य है कि जीव है वही शरीर है जीव शरीर से भिन्न नहीं है और शरीर जीव से भिन्न नहीं है सुस्थिर है अर्थात् सत्य है । श्रमणोपास४ थाओ. (तए ण तुमपि एवं चेव सुबहु पुण्णोवचयं समज्जि - णित्ता जाव उववजिहिरि ) या प्रमाणे तभे पशु भारी मन पुण्योपयय हेवनी पर्यायथी बन्भ चामशी. (त जइण अज्जिया मम आगंतुं एवं वएज्ना तो णं अहं सहेज्जा. पत्तिएज्जा, जहा अण्णो जीवो, अष्ण सरीरं णोत जीवो त सरीर) मा प्रमाणे हे महंत ! ते मयि यावीने भने साम डे તે હું તમારા આ કથન પર કે જીવ અન્ય છે અને શરીર અન્ય છે તેમજ જીવ શરીરરૂપ નથી અને શરીર જીવરૂપ નથી-વિશ્વાસ કરી શકું છું. પ્રતીતિ કરી શકું ४. अने तेने पोतानी रुथिने गमतो विषय मनावी शत्रु छु मम आगंतु णो एवं वयासी तम्हा सुपइट्टिया मे तं सरीरं नो अन्नो जीवो अन्नं सरीर) परंतु ने આવીને આ પ્રમાણે કહેતા નથી તે કારણથી જ મારુ જે જીવ છે તે જ શરીર છે જીવ શરીરથી ભિન્ન નથી નથી. આ વાત સુસ્થિર છે-સત્ય છે
(जम्हा सा अज्जिया
पइण्णा - जहा तं जीवो
सीधे ते मयि । भने
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गुने
જાતનુ' મન્તવ્ય છે કે અને શરીર જીવથી ભિન્ન
આ
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राजप्रश्नीयसूत्रे
टीका-'तएण से पएसी' इत्यादि
ततः-तदन्तर, स पदेशी राजा केशिन कुमारश्रमणम, एवम्-अनु पदं वक्ष्यमाण वचनमू, अवादीत-हे भदन्त ! जीवशरीर यो) दें अनेन पुनः कारणेन नो उपागच्छति)-इत्यन्तसन्दर्भण या उपमा भवता दत्ता, एषा खलु प्रज्ञात =बुद्धिविशेषात्-बुद्धिविशेषजन्या उपमा दृष्टान्तः अस्ति, नत्वियं वास्तविकी उपमाऽस्ति, तथापि मन्ये यन्मपितामहो भवदुक्तकारणोंपागच्छत्विति। परन्तु हे भदन्त ! मम-आर्यिका-पितामही खलु एवं वक्ष्यमाणप्रकारा अभवत्-साऽभवादति जिज्ञासायामाह-इहै. वेत्यादि-इहैव-अस्यामेवश्वेतांबिकायां नगर्याम् सा कीदृशी ? इत्यत्राहधार्मिकीन्यादि-धार्मिकी-धर्माचरणशीला, यावत्-यावत्पदेन "धमनुिगा, धर्मिष्ठा धर्माख्यायिनी धर्मप्रलोकिनी धर्मप्ररञ्जना धर्मसमुदाचारा धर्म णैव" इत्येषां संग्रहः, तत्र-धर्मानुगा धर्मम् अनुगच्छति अनुसरति या सा तथा, धर्मिष्ठा-धर्मप्रिया, धर्माख्यायिनी-धर्मप्रतिपादिका, धर्मप्रलोकिनी-धर्म
टीकार्थ-इसके बाद प्रदेशी राजाने केशीकुमारश्रमण से ऐसा कहाहे भदन्त ! जीव और शरीर को भिन्नता प्रदर्शित करने के निमित्त जो आपने उपमा दी है. वह तो केवल आपकी बुद्धि से जन्य एक दृष्टान्तमात्र है. यह उपमा-दृष्टान्त सत्यार्थकोटि में नहीं आ सकती है। फिर भी आपके कथनानुसार यह मान लेता हूं कि मेरे आर्यकः प्रदर्शित चार कारणों के कारण यहां नहीं आ सकते हैं। सो वे न आवे -परन्तु मेरी जो दादी थी-जो कि इसी श्वेतांबिका नगरी में रहती थी, और धार्मिकधर्माचरण शील थी यावत् जो धर्मानुगधर्म का अनुसरण करने वाली थी, मिष्ठा-धर्मप्रिया थी, धर्माख्यायिनी-धर्म का उपदेश देनेवाली थी, धर्म
ટીકાઈ–ત્યારપછી પ્રદેશી રાજાએ કેશીકુમાર શ્રમણને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે ભદંત! જીવ અને શરીરની ભિન્નતા પ્રદર્શિત કરતા જે તમે ઉપમા આપી છે તે તે ફકત તમારી બુદ્ધિથી કપિત કરેલ એક દૃષ્ટાંત માત્ર જ છે. એથી તમારી આ ઉપમા દષ્ટાન્ત–સત્યાર્થ કોટિમાં આવી શકે તેમ નથી. છતાંએ તમારા કહ્યા મુજબ આ વાત માની લઉં છું કે મારા આર્યક તમે કહેલા ચાર કારણોને લીધે અહીં આવી શકતા નથી તે ભલે તે ન આવે પરંતુ મારા જે દાદી હતા–કે જેઓ આ
તાંબિકા નગરીમાં રહેતા હતા, અને ધાર્મિક-ધર્માચરણશીલ હતા યાવત્ જે ધર્માनु-भने अनुसरना। ता, धमिठा-भप्रिय हता, धर्माभ्यायिनी-मन ५.
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सुबोधिनी टीका. सूत्र १३४ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् २०७ दर्शिनी, धर्मपरञ्जना-धर्मानुरागिणी, धर्म समुदाचारा-धार्मिकसदाचारसंपन्ना, धमें णैव-जिनोक्तधमें वृत्ति जीवनयात्रां, कल्पयमाना कुर्वाणा, पुनःसा कीदृशी ? इति जिज्ञासायामाह-"अभिगतजीवाऽजीवे"-त्यादि-सर्वः वर्णकःवर्णनकारकपदसमूहो बोध्यः, यावद् आत्मानं भावयमाना व्यहरत् । अत्रत्य यावत्पदेन–'अभिगतजीवाजीचा' इत्यादि सर्वोऽपि पाटश्चतुर्दशाधिकैक शततमसूत्रतः स्त्रीत्वनिर्देशेन बोध्यः । अर्थोऽपि तत्रत एव विज्ञेयः । साअनन्तरोक्ता आर्यिका पितामही खलु तव वक्तव्यतया तवमतेन मुबहुम्अतिप्रचुरं, पुण्योपवयं-पुण्यकर्मसमूहं समय समुपाज्य कालमासे काल प्रलोकिनी थी, धर्म रज्जना-धर्मानुरागवाली थी, धर्म समुदाचारा-धार्मिक सदाचार से संपन्न थी. और जिनाक्तधर्म से ही अपनी जीवनयात्रा करने वाली थी. तथा जीव और अजीव तत्त्व के स्वरूप की ज्ञाता थी. अभिगतजीवाजीवा' इत्यादिरूप से वर्णन करने वाला पदसमूह और यहां यावत्पद से गृहीत पदसमूह ११४ वे सूत्र में वर्णित हुआ है, सो उसे यहां स्त्रीलिङ्ग की विभक्ति लगाकर ग्रहण कर कहना चाहिये तथा इन पदों का अर्थ भी वहां से जानना चाहिये. ऐसी वह आर्यिका-पितामहीदादी आपके मन्तव्यानुसार अतिप्रचुर पुण्य का उपचय करके कालमास में जब मरी तब वह अनेकविध देवलोकों में देव की पर्याय से उत्पन्न हुई हैं. उस आर्यिका का मैं पौत्र हूं, जो धर्म उसको बहुत अधिक इष्ट यावत कान्त था. यावत् पदसे वहां १३२ वें सूत्र में प्रोक्त इस विषय के विशेषणगृहीत हुए हैं। ये विशेषण वहां उसके पितामह के प्रकरण में दिये गये हैं।
દેશ કરનારા હતા, ધર્મપ્રલેકિની–ધર્મદશિની હતા, ધર્મપ્રરંજના-ધર્માનુરાગવાળા હતા, ધર્મસમુદાચારા-ધાર્મિક સદાચાર સંપન્ન હતા અને જિનેક્ત ધર્મ પ્રમાણે જ પિતાનું જીવન પસાર કરતા હતા. તેમજ જીવ અને અજીવ તત્ત્વના સ્વરૂપને જાણનારા હતા 'अभिगत जीवाजीवा' 4 मने अने म०१ वगेरे ३५मा वर्णन ४२॥२ ५४ समूह અને અહીં યાવત્પદથી ગૃહીત પદ સમૂહ ૧૧૪ સૂત્રમાં વર્ણિત થયેલ છે. અહીં તેને સ્ત્રીલિંગની વિભકિત લગાડીને અર્થ કરે જોઈએ તેમજ આ પદને અર્થ પણ ત્યાંથી જ જાણી લેવું જોઈએ. એવી તે આર્થિક દાદી તમારા મન્તવ્ય મુજબ અતિપ્રત્યુર પુણ્યને સંચય કરીને કાલમાસમાં જયારે મરણ પામ્યા ત્યારે તે ઘણા દેવલોકમાં દેવની પર્યાયથી જન્મ પામ્યા છે. તે આયિકાને હું પૌત્ર છું તેમને ધર્મ ખૂબજ ઈષ્ટ યાવત્ કાન્ત હો યાવત પદથી અહીં ૧૩રમાં સૂત્રમાં પ્રેકત આ વિષયના વિશેષણે ગૃહીત થયાં આ વિશેષણે ત્યાં તેના દાદાના પ્રકરણમાં
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राजप्रश्नीयसूत्र कृत्वा अन्यतरेषु-अनेकविधेषु देवलोकेषु कस्मिंश्चिदेवलोके देवतया देवत्वेन उपपन्नाः, तस्याः खलु आयि काया: अह नप्तकः-पौत्रः अभवम् कीदृशः? इत्यात्राऽऽह-इष्टःकान्तः यावत्-दर्शनतया, अत्र यावत्पदेन द्वात्रिंशदुत्तर शतैकतमसूत्रे एतत्पितामहवक्तध्यतारूपः सर्वोऽपि पाठः संग्राह्यः । व्या. ख्यापि तत्र व बिलोकनीया।
___ तत्-तस्मात् यदि खल सा-पूर्वोक्ता आर्यिका मम आगत्य-एवम्अनुपद वक्ष्यमाण वचन, वदेत-कथ येत-नतृक ! हे चौत्र ! एवं खलुवक्ष्यमाणपकारक शृणु-अह तव आर्यिकाऽभवम् कुत्र ! इत्यत्राऽऽह-इहैवअस्यामेव श्वेतविकायां नगर्या धार्मिकी, यावत-धर्मेणव वृत्ति कल्पयमाना श्रमणोपासिका-श्राविका यावत्-व्यहरम् । तत:-तस्मात्कारणात सुबहु -- प्रचुरतरं पुण्योपचयं समय कालमासे काल कृत्वा देवलोकेषु उपपन्ना, तततस्मात्कारणात् नतृक !-हे पौत्र ! त्वमपि धार्मिको यावत-धर्मानुगादि विशेषणविशिष्टो भव, तथा धर्मेणैव वृत्ति कल्पयमानः अभिगत जीवाजींचादि विशेषणविशिष्टः श्रावको भूत्वा विहर। ततः-ताशाचरणेन खलु त्वमपि अतः वहीं से इन्हें और इनके अर्थ को जानना चाहिये, ऐसी वह मेरी आर्थिकादादी आकरके मुझ से ऐसा यदि कहे कि हे नप्तृक-पौत्र ! मैं इसी वेतांबिका नगरी में तेरी दादी थी. और धार्मिक यावत धर्म से ही अपनी जीवन यात्रा चलानेवाली थी. श्रमणोपासिका-श्राविका थी. इत्यादि मैंने प्रचुरतर पुण्य का उपार्जन कर कालमास में जब मरण किया-तो मैं देवलोकों में से किसी एक देवलोक में देव की पर्याय से उत्पन्न हुई हूं. इसलिये हे पौत्र! तुम भी धार्मिक यावत् धर्मानुग आदि विशेषणों चाले बनी, तदा धर्म से ही अपनी जीवनयात्रा का निर्वाह करते हुए जीव
और अजीव तत्व के स्वरूप के ज्ञाता बनो और सच्चे अर्थ में श्रावक बनઆવેલાં છે તેથી જિજ્ઞાસુઓએ ત્યાંથી જ જાણી લેવાં જોઈએ, એવા મારા આર્થિક દાદી આવીને મને જે આ પ્રમાણે કહે કે હે પૌત્ર! હું આ તાંબિકા નગરીમાં તારી દાદી હતી અને ધાર્મિક યાવત ધર્માચરણથી જ પિતાની જીવનયાત્રા પસાર કરતી હતી. હું શ્રમણોપાસિકા-શ્રાવિકા હતી વગેરે પ્રચુરતર પુણ્યનું ઉપાર્જન કરીને કાલમાસમાં જ્યારે મૃત્યુ પામી ત્યારે દેવલેકમાંથી કઈ એક દેવલોકમાં દેવની પર્યાયથી જન્મ પામીછું. તેથી તે પૌત્ર! તમે પણ ધાર્મિક યાવત્ ધર્માનુગ વગેરે વિશેષણ વાળા તેમજ ધર્મથી જ પોતાનું જીવન પસાર કરતા જીવ અને અજીવ તત્વના સ્વરૂપને જાણનારા થાઓ, અને સાચા અર્થ માં શ્રાવક થઈને પિતાના જીવનને સફળ બનાવો જો તમે આ પ્રમાણે ધાર્મિક આચરણયુકત અન્તઃકરણવાળા થાઓ તો તમે
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सुबोधिनी टीका सू. १३३ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशीराजवर्णनम् २०९ एवमेव अहमिव सुबहु प्रचुरतरं पुण्योपचयं समय यावत्-यावत्पदेन कालमासे काल कृत्वाऽन्यतरेषु अनेकविधेषु देवलोकेषु कस्मिंश्चिद्देवलोके उपपत्स्यसे-उत्पन्नो भविष्यास, तत्-त माद् हेतोः यदि खलु आर्यिका मम
आगत्य एवं वदेत् तदा खलु अहं श्रद्दध्यां-तद्वचने विश्वस्याम्, प्रतीयांविशेषतो विश्वासं कुर्याम् , रोचये यं-रुचिविषयौं कुर्याम् थथा-अन्यो जीवः अयत् शरीरम, ना तजावःस्सशरीरम्, इति । यस्मात् कारणात् सा-पूर्वोक्ता
आर्यिका मम आगत्य एवम् अनन्तरोक्तप्रकारम् वचन नोन अवादीत-नाकथयत् तस्मात्-कारणात् मे-मम प्रतिज्ञा-स्वीकारः सुपतिष्ठिता-सत्याऽस्ति, प्रतिज्ञा विषयमाह यथेत्यादि-यथा तथाहि-तज्जीवःस्सशरीरम्, नो अन्यो जीवः, अन्यच्छरीरम्, इति ॥सू० १३३।।
कर अपने जीवन को सफल करो, यदि तुम इस प्रकार के धार्मिक आचरण से वासितान्तःकरणवाले हो जाते तो तुम मेरे जैसे ही प्रचुरतर पुण्य का उपार्जन करके यावत्-कालमास में कालकर अनेकविध देवलोकों में से किसी एक देवलोक में देवकी पर्याय से उत्पन्न हो जाओगे. इस प्रकार से मेरी आर्यिका-दादी मेरे पास आकर ऐसा कहे तो मैं आपके इस वचन पर विश्वास करूं, प्रतीति-विशेषरूप से विश्वास करूं, उस पर रुचि करूं, कि जीव भिन्न है, शरीर भिन्न है, वह शरीर जीवरूप नहीं है, और जीव शरीररूप नहीं है-परन्तु जिस कारण से वह अभीतक मुझ से आकर के ऐसा नहीं कहती है. इसी कारण से हे भदन्त ! मैं अपनी इस मन्तब्य पर कि 'जीव और शरीर एक हैं जीव भिन्न नहीं है और शरीर भिन्न नहीं है' अटल हूँ, उसे सत्य मान रहा हू. ॥ सू० १३३॥
પણ મારી જેમ જ પ્રચુરતા પુણ્યનું ઉપાર્જન કરીને યાવતુ કાલમાસમાં કોલ કરીને અનેકવિધ દેવકોમાંથી કોઈ પણ એક દેવલોકમાં દેવના પર્યાયથી જન્મ પામશે, આ પ્રમાણે જે મારા આર્થિકા-દાદી મારી પાસે આવીને આમ કહે તે હું તમારી પર વિશ્વાસ કરું, પ્રતીતિ-વિશેષરૂપથી વિશ્વાસ કરું, તેમાં રુચિ ઉત્પન્ન કરું કે જીવ ભિન્ન છે, શરીર ભિન્ન છે, અને શરીર જીવરૂપ નથી અને જીવ શરીરરૂપ નથી, પરંતુ જે કારણને લીધે હજી સુધી તેઓ મારી પાસે આવીને મને કહેતા નથી તે કારણને લીધે હે ભદત! મારા આ વિચાર પર કે જીવ અને શરીર એકજ છે જીવ ભિન્ન નથી, અને શરીર ભિન્ન નથી. દઢ છું, તેને જ સત્ય માનીને વળગી રહું छु । सू. १33 ॥
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राजप्रश्नीयसूत्रे
मूलम्-तएणं केसी कुमारसमणे पएसि रोयं एवं वयासी-जइ णं तुम पएसी! पहायं कयवलिकम्मं कयकोउयमंगलपायच्छित्तं उल्लपडसाडगं भिगारकडुच्छयहत्थगयं देवकुलमणुपविसमाणं केइ य पुरीसे वञ्चघरंसि ठिच्चा एवं वदेजा एह ताव सामी! इह मुहतग आसयह वा चिटुह वा निसीयह वा तुयह वा, तस्स णं तुम पएसी ! पुरिसस्स खणमवि एयमटुं पंडिसुणिजासि ? णो इण? समटे । कम्हा ? भंते ! असुई असुइसामंते । एवामेव पएसी ! तववि अजिया होत्था इहेव सेयवियाए णयरीए धम्मिया जाव विहरइ, सा णं अम्हं वत्तव्वयाए सुबहु जाव उववन्ना, तीसे णं अजियाए तुमं णतुए होत्था इढे जाव किमंगपुण पासणयाए ? सा णं इच्छइ माणुसं लोग हव्वमागच्छित्तए, जो चेवणं संचाएइ हव्वमागच्छित्तए।
चऊहिं ठाणेहि पएसी। अंहुणोववण्णए देवे देवलोएसु इच्छेजा माणुसं लोग हव्वमागच्छित्तए णो चेव णं संचाएइ-अहुणोववणे देवे देवलोएसु दिव्वेहि कामभोगेहि मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोववण्णे से णं माणुसे लोगे नो आढाइ नो परिजाणाइ से गं इच्छिजा माणुसं नो चेव णं संचाए-इ१। अहुणोववण्णए देवे देवलोएसु दिव्वेहि कामभोगेहि मुच्छिए जाव अज्झाववण्णे, तस्स णं माणुस्से पेम्मे वोच्छिन्ने भवइ दिव्वे पेम्मे संकंते भवइ, से गं इच्छेजा माणुसं लोगं हव्वमागच्छित्तए नो चेव संचाएइ (२] अहुणोववण्णे देवे दिव्वेहि कामभोगेहिं मुच्छिए जाव अज्झोक्वण्णे, तस्स णं एवं भवइ-इयाणि गच्छ मुहत्तणं गच्छ तेणं कालेणं इट
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सुबोधिनी टीका. १३४ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिरजवर्णनम्
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अप्पाउया नरा कालधम्मुणा संजुत्ता भवंति से णं इच्छेजा माणुस्सं लोगं हव्वमागच्छत्तए णो चेव णं संचाए । ३ । अ हुणोववण्णे देवे दिव्वेहिं जाव अज्झोववण्णे, तस्स माणुस्सए उराले दुग्गंधे पडिकूले पडिलो यावि भवइ, उडपि य णं जाव चत्तारि पत्र जोयणसए असुभे माणुस्सए गधे अभिसमागच्छइ, से णं इच्छेज्जा माणुसं लोग हव्वमागच्छित्तए णो चेव णं संचाएइ |४| इच्चे एहि चउहि ठाणेहिं पसी! अववण्णे देवे देवलोएस इच्छेजा माणुसं लोगं हव्वमागच्छित्तए णो चेव णं संचाएइ हव्वमागच्छित्तए तं सहाहि णं तुम पएसी ! जहा- अन्नो जीवो अन्नं सरीरं, नो तं जीवा तं सरीरं २ ॥ सू० १३४॥
छाया - ततः खलु केशीकुमारश्रमणः पदेशिनंराजानमेवमवादीत यदि खलु स्वं प्रदेशिन् ! स्नातं कृतबलिकर्माणं कृतकौतुकमङ्गल - प्रायश्चित्तम् आर्द्रपशाटकं भृङ्गारकटुच्छुकहस्तगतं देवकुलमनुप्रविशन्त कोऽपि पुरुषो
'तर ण केसीकुमारसमणे' इत्यादि ।
सूत्रार्थ - (तए) इसके बाद (केसी कुमारसमणे) केशीकुमारश्रमने (पसिं रायं) प्रदेशी राजा से ( एवं वयासी) ऐसा कहा - ( जइण ं तुम पसी ! व्हायं कयबलिकम्म, कयकोउयम गलपायच्छितं उल्लगड साडगं ) हे प्रदेशिन् ! जिस समय तुम कृतस्नान होकर, कृतबलिकर्मा होकर, - वायसादिकों के लिये कृत अन्नविभागवाले होकर, कृत मषीतिलकादि मांगलिक प्राय• वित्त विधि वाले होकर, जलसिक्तवस्त्रशाटकयुक्त होकर (भिगारकडुच्छुहत्थायं) एवं भृङ्गार कटुच्छुक हस्तगत होकर (देवकुलमणुपविसमाण )
'तर ण केसी कुमारसमणे' इत्यादि ।
सूत्रार्थं - (तए णं ) त्या२पछी (केसी कुमारसमणे) डेशीकुमार (पए सिं रायं) प्रदेशी रान्नने (एवं वयासी) या प्रमाणे धुं (जइण तुम पएसी ! व्हाय कलिकम्म, कपको उय मंगलपायच्छित्तं उल्लपडसाडगं ) हे प्रदेशिन જે વખતે તમે સ્નાન કરીને, ખલિકમ–એટલે કે કાગડા વગેરેને અન્ન ભાગ આપીને મથી તિલક વગેરે રૂપ માંગલિક પ્રાયશ્ચિત્ત વિધિ પતાવીને પાણીવડે પળલેળાાતવસ્ત્ર
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राजप्रश्नीयसूत्रे वों गृहे स्थित्वा एवं वदेत-एत तावत् स्वामिन् ! इह मुहूर्तकम् आस्थ्वन् वा तिष्ठत वा निषीदत वा त्वग्वतयत वा, तस्य खलु स्व प्रदेशिन ! पुरुषस्य क्षणमपि एतमर्थ प्रतिशृणुयाः ? नो अयमर्थः समर्थः । कस्मात ? भदन्त ! अशुचि अशुचिसामन्तम् । एवमेव प्रदेशिन् ! तवापि आर्यिका ऽभवत् इहवश्वेतविकायां नगर्या धार्मिकी यावत् व्यहरत्.सा खलु अस्माकं यक्षायतन में घुस रहे हो, उस समय (केइ य पुरिसे) तुम से कोई पुरुष (बच्चघरसि ठिच्चा एवं वएज्जा) विष्ठागृह में स्थित होकर ऐसा कहे (एह ताव सामी ! इह मुहत्तग आस यह, वा चिट्ठह वा निसीयह वा,तुयह वा) हे स्वामिन् ! आप आइये और एक मुहुर्त मात्र समयतक यहां बैठिये, अथवा ठहरिये, सुखपूर्वक रहिये लेटिये (तस्स ग तुमपएसी ! परिसस्स खणमवि एयम8 पडिसुजासि) हे प्रदेशिन् ! तुम उस पुरुष की उस बात को एक क्षण के लिये भी स्वीकार कर लोगे क्या ? (णो इण? समठू हे भदन्त ! उस समय उस पुरुष की यह बात स्वीकार योग्य नहीं हो सकती है (कम्हा) हे प्रदेशिन् ! किस कारण से उस पुरुष की वह बात स्वीकार योग्य नहीं हो सकती है ? (भते ! असुई असुइ सामते) हे भदन्त ! क्यों कि वह स्थान अपवित्र हैं और सब तरफ से अपवित्र वस्तु से युक्त हैं। (एवामेव पएसी ! तब वि अजिया होत्था, इहेव, सेयबियाए णयरीए धम्मिया जाव विहरइ) इसी प्रकार से हे भुत धन (भिंगारकडुच्छयहत्थगय) भने मा२ तेम ४८२७४ डायमा
ने (देवकुलमणुपविसमाण) यक्षायतन (व्य'तरायतन)मा प्रवेशता डायत समये (केइणपुरिसे) तभने ७ भास (वच्चधरंसी ठिच्चा एवं वएज्जा) ४३मां २डीने या प्रमाणे ४९ (एह ताव सामी! इइ मुहुत्तग आसयह वा चिट्ठह वा निसीयह वा, तुयह वा) है स्वामिन् ! तभे आयो भने ५४त भुत रेखा समय सुधा ही मेसे। 3 Sell २४ा, सुमेधा २९ , माराम ४२१. (तस्स ण तुम पएसी ! पुरिसस्स खणमवि एयमढे पडिसुणेज्जासि) तो प्रदेशिन! तमे ते भासनी ते वातने था। मत भाटे ५५ स्वा२।। ? (णो इण? समट्टो) महत! ते मते ते भासनी मा पात स्वामी पावरी नहि. (कम्हा) के प्रशिन् ! २॥ ४॥२४थी ते भासनी ते पात तमारामा स्वीय थरी नls ? (भंते ! असुई असुइ सामंते) & RE ! म ते स्थान पवित्र छ भने मधे पवित्र १२तुमाथी युइत छ. (एवामेव पएसी! तव वि अज्जिया होत्था, इहेव से यं. चियाए णयरीए धम्मिघा जाव विहरइ) मा प्रमाणे ॥ 3 प्रशिन 20 श्वेता
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सुबोधिनी टीका सू. १३४ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशीराजवणनम् २१३ वक्तव्यतया सुबह यावद् उपपन्ना तस्याः खलु आर्यिकायाः त्वं नप्तको ऽभवः इष्टः यावत् किमग ! पुनर्दर्शन तया ? सा खलु इच्छइ मानुष्यं लोक शीनमागन्तु, नैव खलु शक्नोति शीघ्रभागन्तुम् ।।
चतुर्भिः स्थानः प्रदेशिन ! अधुनोपपन्नो देवो देवलोकेषु इच्छेत मानुष्यं लोकं हव्यमागन्तुं नैव खलु शक्नोति । अधुनोपपन्नो देवो देव प्रदेशिन ! इस श्वेतांचिका नगरी में तुम्हारी आर्यिका-दादी भी धार्मिक यावत धर्मानुरागादि विशेषणों से विशिष्ट हुई है (सा ण अम्हवत्तव्ययाए सुबहु जाव उववन्ना, तीसे ण अजियाए तुमं ण तुए होत्था इट्टे जाव किम स पुणपासणयाए) वह हमारी वक्तव्यता के अनुसार-मान्यता के अनुसार अतिशय बहुत अधिक पुण्य का उपार्जन करके और कालमास में काल कर के देवलोकों में से किसी एक देवलोक में देव की पर्याय से उत्पन्न हो गई है। उस आर्यिका-दादी के तुम पौत्र हुए हो, जो उसे तुम इष्ट कान्त आदि विशेषणों वाले थे, और उदुम्बर पुष्य के समान उसे सुनने के लिये उस समय तुम दुर्लभ थे, फिर तुम्हारे देखने की बात ही क्या कहनो, (साण इच्छइ माणुसं लोग हव्वमागच्छित्तए णोचेव ण संचाएइ हन्धमागच्छत्तिए) वह आर्यिका-दादी मनुष्यलोक में आनेकी इच्छा तो करती है, परन्तु आ नहीं सकती है ! इसमें चार कारण हैं जो इस प्रकार से हैं-(चहि ठाणेहि पएसी• अहणोववन्नए देवे देवलोएसु इच्छेजा माणुस लोग हन्धमागच्छित्तए, जो चेव ण संचाएइ) બિકા નગરીમાં તમારા આર્થિક દાદી પણ ધાર્મિકી વાવત ધર્માનુરાગ વગેરે વિશેષણ qा थया छ. (सा णं अम्हं वत्तवयाए सुबई जाव उचवन्ना, तीसे ण
अज्जियाए तुमं णत्तुए होत्था इठे जाव किमंगपुणपासणयाए) ते अमारी વક્તવ્યતા મુજબ-માન્યતા મુજબ અતિશય પુણ્યનું ઉપાર્જન કરીને કાલમાસમાં કાલ કરીને દેવલોકમાંથી કઈ પણ એક દેવલોકમાં દેવની પર્યાયથી જન્મ પામ્યાં છે. તે આયિકા-દાદીના તમે પૌત્ર છે, તમે તેના માટે ઈષ્ટ કાન્ત વગેરે વિશેષણવાળા હતા અને ઉર્દુબર પુષ્પની જેમ તમે તેના માટે શ્રવણદુર્લભ હતા, તે પછી તમારી नेपानी तो पात ० शी ४२वी. (सा णं इच्छइ माणुसं लोगं हवमागच्छित्तए णो चेव ण संचाएइ हव्यमागच्छत्तिए)ते माया ही मनुष्यतामा भाववानी ઈચ્છા તે રાખે છે, પણ આવી શકતા નથી. આનાં ચાર કારણો છે તે આ પ્રમાણે छ. (चऊहिं ठाणेहि पएसी अहुणोववन्नए देवे देवलोएमु इच्छेजा माणुसं लोग हव्वमागच्छित्तए, णो चेव ण संचाएइ) हे प्रशिन ! ते या२ ॥२॥
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राजप्रश्नीयसूत्रे लोकेषु दिव्येषु कामभोगेषु मूर्छितो गृद्ध ग्रथितः अध्युपपन्नः स खलु मानुष्यान् भोगान नो आद्रियते नो परिजानाति. स खलु इच्छेत मानुष्यं लोगं हव्यमागन्तुं नैव खलु शक्नोति १। अधुनोपपन्नो देवो देवलोकेषु दिव्येषु कामभोगेषु मूर्छितो यावत् अध्युपपन्नः, तस्य खलु मानुष्य प्रेम हे प्रदेशिन ! वे चार कारण ऐसे हैं कि जिनके कारण से अधुनोपपन्नक देव देवलोक में तत्कालोत्पन्न देवमनुष्यलोक में शीघ्र आना चाहता है, परन्तु वह नहीं आसकता है. सो उसमें प्रथम कारण ऐसा है-(अहुणो वन्नए देवे देवलोएसु दिव्वेहि कामभोगेहिं मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झो. ववष्णे से माणुसे लोगे णो आढाइ, नो परिजाणाइ) अधुनोपपन्नक देव देवलोकों में दिव्यकामभोगों में मूर्छित हो जाता है, गृद्ध-विषयोपभोग की अभिलाषा से ग्रस्त हो जाता है, यथित-विषयों में आसक्त हो जाता है, अध्युपपन्न-उनमें अत्यन्त आसक्तिवाला बन जाता है। अत: वह मनुष्यलोक संबंधी शब्दादिक विषयों को आदर की दृष्टि से नहीं देखता है, उनकी अपेक्षा नहीं करता है, और न हे जानने की ही इच्छा करता है (से ण इच्छेजा माणुम नो चेव ण संचाएइ ) ऐसा वह देव किसी प्रकार मनुष्यलोक में आनेकी इच्छा करे तो भी देवभोगों की आसक्ति से वह यहां नहीं आना चाहता है। (अहणोववष्णए देवे देवलोएसु दिव्वेहि कामभोगेहिं मुच्छिए जाव अज्झोववणे) अधुनोपपन्न देव देवलोक આ પ્રમાણે છે કે જેને લીધે અધુને પપન્નદેવ દેવલોકમાંથી તત્કાલત્પન્ન દેવ મનુષ્યલેકમાં જલદી આવવા ઈચ્છે છે પરંતુ તે આવી શકતા નથી તેનું પહેલું
२६४ मा प्रभारी छ- (अहुणोववन्नए देवे देवलोएसु दिव्वेहि कामभोगेहिं मच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोचवण्णे सं माणुसे लोगे जो आढाइ नो परि. વાળા અધુને પપન્નક દેવ દેવલેકમાં દિવ્યકામગોમાં મૂર્શિત થઈ જાય છે, ગૃદ્ધ-વિષયભોગની અભિલાષાથી આકાંત થઈ જાય છે, ગ્રથિત-વિષયમાં આસકત થઈ જાય છે. અને અષ્ણુપયન અને તેમાં અતીવ આસકિત યુક્ત થઈ જાય છે. એથી મનુષ્યલકના શબ્દ વગેરે વિષયને સન્માનની દૃષ્ટિએ જોતું નથી, તેની તે અપેક્ષા રાખતો નથી અને તેના સંબંધમાં તે કંઈ પણ જાણવાની પણ ઈચ્છા घरावत नथी. (सेणं इच्छेज्जा माणुसं नो चेव णं संचाएइ ?) वो ते જે કદાચ મનુષ્યલેકમાં આવવાની ઈચ્છા રાખતો હોય તે પણ દેવભેગોની આસકિત नवीधे ते मी आ44। ४२७ता नथी. (अहुणोववण्णए देवे देवलोएसु दिव्वेहिं कामभोगेहि मुच्छिए जाव अज्झोववष्णे) मधुनापन्न व हेम दिव्य
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सुबोधिनी टाका सू. १३४ सूर्याभिदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम्
व्युच्छिन्नं भवति दिव्यं प्रेम संक्रान्तं भवति स खलु इच्छेत् मानुष्यं लोकं हव्यमागन्तुं नैव खलु शक्नाति २ । अधुनोपपन्नो देवो दिव्येषु कामभोगेषु मूर्च्छितो यावत् अध्युपपन्नः, तस्य खलु एवं भवति, इदानीं गमिव्यामि मुहूर्तेन गमिष्यामि तस्मिन् काले इह अल्पायुषो नराः कालधर्मण संयुक्ता भवन्ति, स खलु इच्छेत् मानुष्यं लोकं हन्यमागन्तुं नैव खलु शक्नोति में दिव्य कामभोगों में मूर्च्छित हो जाता है यावत् अध्युपपन्न हो जाता है सो (तस्स णं माणुस्से पेम्मे वोच्छिन्ने भवइ, दिव्वे पेम्मे सकते भवइ) इसका मनुष्य - संबंधि प्रेम व्युच्छिन्न- टूट जाता है और देवलोक संबंधी प्रेम उसके हृदय में संक्रान्त-प्रविष्ट हो जाता है । (से जं इच्छेला माणुस लोगं हव्वमागच्छित्तए, नो चेव संचाएइ) अतः वह मनुष्यलोक में आनेका अभिलाषी होता हुआ भी आना नहीं चाहता है. (अणोवबन्ने देवे दिव्वेहिं कामभोगेहिं मुच्छिए जाव अज्झेो ववणे, तस्स ण एवं भवइ, इयाणिं गच्छ मुहुतेण गच्छ, तेण कालेन इट अप्पाउया
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रा, कालधम्मुना संजुत्ता भवति, से णं इच्छेजा माणुस्स लोग हव्वमागन्छित्तर णो चेव णं संचाएइ) अधुनोपपन्न देव देवलोक में दिव्य कामभोगों के द्वारा मूच्छित हो जाता है यावत् अध्युपपन्न- आसक्त हो जाता है सो उसके मन में ऐसा होता है कि अब जाता हूं, थोडे काल पीछे जाऊंगा-उस काल में मर्त्यलोक में मनुष्य- माता, पिता, पुत्र, कलत्रादिक कि जिन की आयु समाप्त हो चुकी होती है, वे कालधर्म से संयुक्त हो जाते કામભોગામાં મૂતિ થઇ જાય છે યાવતુ અગ્રુપપન્ન થઇ જાય છે તે (તરજ્ઞ ण माणुस्से पेम्मे वोच्छिन्ने भवइ, दिव्वे पेम्मे संकते भवइ) तेनेो मनुष्य સબધી પ્રેમ બ્યુચ્છિન્ન થઇ જાય છે અને સ્વર્ગ લેાકમાં સબંધી પ્રેમ તેના હૃદયમાં संडांत अविष्टथ लय छे. (से णं इच्छेज्जा माणुसं लोग हब्वमागच्छित्तए नो वेव संचाएइ) मेथी ते मनुष्यलोभां भाववानी अभिलाषा रामतो हाय छतां भते ही भाववाच्छतो नथी. (अणोववन्ने देवे दिव्वेहिं कामभोगेहिं मुच्छिए जाव अज्झोववणे, तस्स णं एवं भवइ, इयाणि गच्छं, मुहुत्तेणं गच्छंतेण कालेन इट्ठ अप्पाउया णरा कालधम्मुणा संजुत्ता भवति, से णं इच्छेज्जा माणुरस लोगं हव्वमागच्छित्तए णो चेव णं संचाएइ) अधुनोपपन्न हेव देवसेो भां દિવ્ય કામભોગા વડે મૂર્ચ્છિત થઇ જાય છે યાવત અધ્યુપપન્ન થઇ જાય છે, અને એવી પરિસ્થિતિમાં તેના મનમાં આ પ્રમાણે થાય કે હવે જઇશ, થાડા વખત પછી જઈશ, તે સમયે મલેાકમાં માણસ માતા, પિતા, પુત્ર ફલત્ર વગેરે બધા
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राजप्रश्नीयसूत्रे ३। अधुनोपपन्नो देवो दिव्येषु यावत अध्युपपन्नः, तस्य मानुष्यकः उदारः दुर्गन्धः प्रतिकूलः प्रतिलोम श्चपि भवति, ऊर्ध्वमपि च खलु यावच्चतुःपञ्च योजनशतम् अशुभो गन्धोऽभिसमागच्छति, स खलु इच्छेत् मानुष्यं लोकं हव्यमागन्तुं नैव खलु शक्नोति । इत्येतैः चतुर्भिः स्थानः प्रदेशिन् ? अधुहै, सो वह देव मनुष्यलोक में आने का अभिलाषी बना रहन पर भी यहां नहीं आ सकता है। (अहुणोचवन्ने देवे दिवेहिं जाव अझोववणे. तस्स माणुस्सए उराले दुग्गधे पडिकूले पडिलोमे यावि भवइ) चौथा कारण यहां पर नहीं आसकने का ऐसा है कि-अधुनोपपन्न देव दिव्य कामभोंगों में यावत् अध्युपपन्न हो जाता है. सो उसके लिये औदारिक शरीर संबंधी गोमृतककले वरादि समुत्पन्न दुर्गन्ध-नाणेन्द्रिय के अनुकूल नहीं पड़ता है, प्रत्युत वह-उसे-प्रतिकूल-अनिष्ट कर प्रतीत होता है (उ. पि य ण जाव चत्तारि पच जोयणसए असुभे माणुस्सए गधे अभिसमा. गच्छइ, से ण इच्छेजा माणुस लोग हव्वमाच्छित्तए पो चेव ण संचाएइ) तथा वह मनुष्यलोक संबंधी अशुभ गध चारसौ या पांचसौ योजन तक ऊपर में सब तरफ फैल जाता-है-अतः मनुष्यलोक में आने का अभिलाषी बना हुआ वह देव उस दुर्गध के कारण यहां नहीं आ सकता है अर्थात् युगलियों के समय में चारसौ योजन और मनुष्य में पांचसौ योजन तक दुर्गध जाता है (इच्चे एहि चउहि ठाणेहि पएसी ! अहुणो મૃત્યુ પ્રાપ્ત કરી ચૂકે છે અને આમ તે દેવ મનુષ્ય લેકમાં આવવાની અભિલાષા समता हाय छताये मी मावी शता नथी. (अहणोववन्ने देवे दिवे हि जाव अज्झोववण्णे, तस्स माणुस्सए उराले दुग्गधे पडिकूले पडिलोमे यावि भवई) અહીં ન આવવાનું ચોથું કારણ આ પ્રમાણે છે કે અધુને પપન્નક દેવ દિવ્ય કામ ભેગોમાં યાવત્ અધ્ધપપન્ન થઈ જાય છે, તે તેના માટે ઔદારિક શરીર સંબંધી ગામૃતક કલેવરા દિ સમુત્પન દુધ ઘણન્દ્રિયના માટે અનુકૂલ કહી શકાય નહિ. ५५ सेना विरुद्ध ते तेने प्रति निष्ट४२ सा छे. (उङ्क पि य णं जाव चनारि पंच जोयणसए असुभे माणुस्सए गधे अभिसमागच्छइ, से गं इच्छेज्जा माणुस लोग हव्यमागच्छित्तए णो चेव णं संचाएइ) तेभ०४ ते મનુષ્ય લેક સંબંધી અશુભ ગંધ ચારસો કે પાંચસો જન સુધી ઉપર આકાશમાં ચોમેર પ્રસરીને રહે છે એથી મનુષ્યલોકમાં આવવાની અભિલાષા ધરાવતું હોય છતાંએ તે દેવ તે દુર્ગધને લધે અહીં આવી શકતું નથી એટલે કે યુગલીઓના સમયમાં यारसो योनने मनुष्यमा पांयसो योगन सुधी हु५ गय छे. (इच्चे एहिं
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सुबोधिनी टीका. सूत्र १३४ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् २१७ नोपपत्नो देवो देवलोकेषु इच्छेत् मानुष्यं लोकं शीघ्रमागन्तुं नैव शक्नोति हव्यमागन्तुम् तत् श्रद्धेहि खलु त्वं प्रदेशिन् ! यथा-अन्यो जीवः अन्यत् शरीरम, नो तज्जीवः स शरीरम् २ ॥सू० १३४॥
टीका-'तए णं केसीकुमारसमणे' इत्यादि-ततः खलु केश कुमारश्रवणः प्रदेशिराजम् एचम्-वक्ष्यमाण वचनमवादीत-हे प्रदेशिन् ! यदि-चेत् खलु त्वां स्तातं कृतस्नान कृतबलिकर्माण कृतवायसादिनिमित्तान्नभागं कृतकौतुक मङ्गलपायश्चित्त-कृतमषीतिलकादि माङ्गलिकप्रायश्चित्तविधिम्. आर्द्रपटशाटकंजलसिकवस्त्रशाटकयुक्तं भृङ्गारकटुच्छुकहस्तगत-हस्तगृहीतभृङ्गारदवीकम्, देव. कुलं--यक्षायतनम् अनुप्रविशन्तम्-गच्छन्तम्, कोऽपि-कश्चिदपि पुरुषो वर्चीगृहे विष्ठागृहे स्थित्वा एवम्, वदेत-कथयेत् हे स्वामिन् ! यूयमिह तावद् एत
आगच्छत इह मुहूर्त मुहूर्त मात्रसमय यावत् आस्ध्वम् उपविशत, वाअथवा तिष्ठत इहस्थिता भवत, निषीदत्त-ससुखमुपविशत, त्वग्वतयत-शयनकुरुत, अत्र वा शब्दो वाक्यालङ्कारे, तस्य पुरुषस्य खलु हे प्रदेशिन् ! स्वम् एतमर्थ किम् प्रतिशणुया:स्वीकुर्याः ? प्रदेशीपाहनायमर्थः समर्थ:-अयमर्थः स्वीकारयोग्यो नास्ति किमर्थमित्याह हे-भदन्त ! तत्स्थानम्-अशुचि-अपवित्रम्, अशुचिसामन्तम् =सर्वतोऽशुचि युक्तम. तस्माववष्णे देवे देवलोएस इच्छेजा माणुस लाम हव्वमागच्छित्तए णो चेव
संचाएइ हब्बमागच्छित्तए, त सद्दहाहि णं तुमं पएसी ! जहा अन्नो जीवो अन्न' सरीरं, नो तं जीवो त सरीरं) हे प्रदेशिन् ! ये चार कारण हैं जो अधुनोपपन्न देव को मनुष्यलोक में आने की इच्छा करने पर भी उसे यहां आने में बाधक होते हैं । इसलिये हे प्रदेशिन् ! तुम मेरे कहने में श्रद्धा करो कि जीव अन्य है और शरीर अन्य हैं जीव शरीररूप नहीं है और शरीर जीवरूप नहीं है।
टीकाथ-इस सूत्र का मूलार्थ के जैसा ही है ॥सू. १३४॥ चउहिं ठाणेहिं पएसी ! अहुणोचवण्णे देवे देवलोएस इच्छेज्जा माणुस लोगं हवमागच्छित्तए णो चेव ण संचाएइ हव्वमागच्छित्तए, तं सदहाहि णं तुमं पएसी । जहा अन्नो जीवों अन्न सरीरं नो त जीवो त सरीर) હે પ્રદેશિન્ ! આ ચાર કારણ છે કે જેથી અધુને પપન્ન દેવ મનુષ્ય લેકમાં આવવાની ઈચ્છા રાખતા હોય છતાંએ તે અહીં આવી શક્યું નથી. એટલા માટે છે પ્રદેશિન ! તમે મારી વાત પર શ્રદ્ધા રાખો કે જીવ અન્ય છે અને શરીર અન્ય છે, જીવ શરીર રૂપ નથી અને શરીર જીવ રૂપ નથી.
ટીકાર્થ:–આ સૂત્રને ટીકાથે મૂલાર્થ પ્રમાણે જ છે. ૧૩૪
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___ राजप्रश्नीयसूत्रे न्नोचितोऽयमर्थः इति बोध्यम्, केशीश्रमणः प्राइ-हे प्रदेशिन् ! एक्मेव. इत्थमेव तवापि आर्यिकाऽभवत् कुत्र साऽभवदित्यत्राऽऽह-इव श्वेतविकार्या नगर्या धार्मिकी-यावत्-यावत्पदेन-धर्मानुगादिविशेषण विशिष्टा व्यहरत. सा-आर्यिका खलु मम वक्तव्यतया-मम मतेन सुबहुं यावत्-यावत्पदेन"पुण्योपचयं समज्य कालमासे कालं कृत्वाऽन्यतरेषु देवलोकेषु देवतया उपपन्ना, तस्याः खलु आर्यिकाया: स्वं नप्तक:-पौत्रोऽभवः कीदृशः? इत्यत्राऽऽह-इष्टः यावत्-यावत्पदेन-इष्टकान्तादिविशेषणविशिष्टः उदुम्यर पुष्पमिव दुर्लभः श्रवणतया, किमङ्ग पुनदर्शनत या, एतादृशस्त्वमभूः । सा. आर्यिका खलु मानुष्य लोकमागन्तुमिच्छति किन्तु नैव शक्नोति ।
कुतो न शक्नोति ? इति जिज्ञासायामाह-हे प्रदेशिन् ! चतुर्भि:स्थानः अधुनोपपन्न:-तत्कालोत्पन्नो देवः देवलोकेषु मानुष्यं लोक शीघ्र. मागन्तुमिच्छेद्-अभिलषेत् किन्तु नैव शक्नोति-तत्र प्रथमकारणमाहअधुनोपपन्नो देवो देवलोकेषु कामभोगेषु मूर्छितः-मूछीमधिगतः, गृद्धःविषयोपभोगाभिलाषग्रस्तः, ग्रथितः आसक्तः, अध्युपपन्न:-अत्यासक्तः स खलु मानुष्यान-मानुष्यलोकसम्बन्धिनः भोगान्-शब्दादीन् विषयान् नो आद्रियते नापेक्षते, अतएव नो परिजानाति-विज्ञातु नेच्छति, स खलु देवः कथंचित् मानुष्यं लोकमागन्तुमिच्छेदपि किन्तु देवभोगासक्तया नवागन्तु शक्नोति-नेच्छ तीत्यर्थः १। द्वितीयस्थानमाह-अधुनोपपन्न इत्यारभ्य अध्युपपन्नः' इति पर्यन्तानां विवरण माग्वत्, तस्य-देवस्य मानुष्य-मनु व्यसम्बन्धि प्रेम व्युच्छिन्नं मनुष्यलोकसुखापेक्षयाऽधिकदिव्यसुखेन प्रति. हतं भवति तथा-दिव्यं-स्वर्गलोकसम्बन्धि प्रेम संक्रान्त-हृद्यनुपविष्टं भवति, तेन हेतुना स देव आगन्तु न शक्नोति २। अधुनोपपन्नो देवो दिव्येषु काममोगेषु मूञ्छितो गृद्धो ग्रथितोऽध्यु पपन्नो भवति, तस्य खलु देवस्य एवम्-अनुपद वक्ष्यमाणस्वरूपो भिलाषो भवति तथाहि-इदानीम्-अधुना गमिष्यामि, तथा मुहू तेन घटिकाद्वपा. नन्तरं गमिष्यामि । तस्मिम् काले इह-मर्त्यलोके नरा:-मातापितृपुत्र. कलत्रादयः अल्पायुष, अल्पजीविनः कालधर्मेण-मृत्युना संयुक्ताः भवन्ति, सः देव आगन्तुं न शक्नोति ३॥ अथ चतुर्थ स्थानमाह-"अधुनोपपन्नो देवो दिव्यभोगासक्तो भवति, तस्य देवस्य औदारिका औदारिकशरीरसम्बन्धी गोमृतककले वरादिसमुद्भूतो दुर्गन्धः प्रतिकूलः घ्राणेन्द्रियाननूकूलः, प्रतिलोमः घ्राणानिष्टकरश्चापि भवति । तथाअशुभः सः गन्ध ऊर्ध्वमाप उपरिप्रदेशेऽपि च
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सुबोधिनी टीका सू. १३५ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्ण नम् २१९ खलु यावच्चतुःपञ्चयोजनशत-चत्वारि वा पश्च वा योजनानां शतानि यावत् अभिसमागच्छति अभितः प्रसरति. स देवः मानुष्य लोकमागन्तुम, इच्छेत् परन्तु त गन्धवशादागन्तुं न शक्नोति ४॥ हे प्रदेशिन् । इत्येतैः चतुर्भिः स्थान:-देवा आगन्तुं न शक्नुवन्तीति । तत् तस्मात्कारणात् हे प्रदेशिन् ! त्व श्रद्धेहि-मद्वचने श्रद्धां कुरु यथा-अन्यो जीवः अन्यत् शरीरम नो तजीव: स शरीरम्, इति ॥सू. १३४॥
मूलम्-तएणं से पएसी राया केसि कुमारसमणं एवं वयासोअस्थिणं भंते ! एसा पण्णा उवमा, इमणं पुण कारणेण णो उवागच्छइ, एवं खलु भंते ! अहं अन्नया कयाई बाहिरियाए उवटाणसालाए अणेगगणणायक-दंडणायग राईसर-तलवर-माडंबिय-काडूं. बिय - इभसेटि सेणावइ - सत्थवाह-मंति-महामंति-गणगदोवारिय-अमञ्चचेड-पीढमद्द-नगर-निगम-दूय-सधिवालेहिं सद्धिं संपरिबुडे विहरामि । तएणं मम णगरगुत्तिया ससक्खं सहोढं सगेवेनं अवउडमबंधणबद्धं चोरं उवणेंति, तएणं अहं तं पुरिसं जीवत चेव अउकुंभीए पक्खिवावेमि, अउमएणं पिहाणएणं पिहावेमि,अएण य तउएण य आयावेमि, आयपच्चइएहिं पुरिसेहि रक्खावेमि, तए अह अण्णया कयाई जेणामेव सा अउकुंभी तेणामेव उवागच्छामि, उवागच्छित्ता त आउकुंभि उग्गलस्थावेमि, उग्गलस्थावित्ता तं पुरिसं सयमेव पासामि णो चेव गं तोसे अयकुंभीए केइ छिड्डुइ वा विवरेइ वो अंतरेइ वा राईवा जओ णं से जीवे अंतोहितो बहिया णिग्गए, जइ णं भते ! तीसे अउकुंभीए होजा केइ छिड्डे वा जाव राई वो जओ णं से जीवे अंतोहितो बहिया णिग्गए, तो णं अहं सदहेजा पत्तिएजा रोएज्जा जहा-अन्नो जीवो अन्न सरीर नो त
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राजप्रश्नीयसूत्रे जीवो त सरीर, जम्हा णं भते ! तीसे अउकुभीए णत्थि केइ छिड्ड वा जाव निग्गए, तम्हा सुपइट्रिया मे पइण्णा जहा-तं जीवो त सरीर, नो अन्नो जीवो अन्न सरीरं ॥सू०१३५॥
छाया-ततःखलु स प्रदेशी राजा केशिनं कुमारश्रमणमेवमवादीत अस्ति खलु भदन्त ! एषा प्रज्ञा उपमा, अनेन पुन:कारणेन नो उपागच्छति, एवं खलु भदन्त ! अहमन्यदा कदाचित् बाह्यायाम् उपस्थानशाला याम् अनेकगणनायक-दण्डनायक-राजेश्वर-तलवर-माडम्बिक-कौटुम्विकेम्य-श्रेष्ठि-सेनापति-सार्थवाह--मन्त्री-महामन्त्री-गणक-दौवारिका-ऽमात्यचेट-पीठमई-नगर-निगम-दूत-सन्धिपालैः साई संपरिवृतो विहरामि ।
'तएणं से पएसी राया इत्यादि ।
सूत्रार्थ-(तए णं) इसके बाद (पएसी राया केसिंकुमारसमण एवं वयासी) प्रदेशी राजाने के शीकुमार श्रमण से ऐसा कहा-(अत्थि णं भंते ! एसा पण्णा उवमा, इमेण पुण कारणेण णो उवागच्छइ) हे भदन्त ! यह जीव एवं शरीर में भेदरूप बुद्धि केवल उपमामात्र है, जैसा कि अभी प्रकट किया गया है-कि इस कारण से देव यहां नहीं आता है. (एवं खल भते ! अह अन्नया कयाई बाहिरियाए उचट्ठाणसालाए) हे भदन्त ! किसी एक समय मैं बाह्य उपस्थान शाला में (अणेगगणणायक, दडणायक-राईसर-तलवर-माडंबिय-कोडुबिय-इब्भ-सेटि-सेणावइ- सत्यवाह. मंति-महामंति-गणग-दोवारिय-अमच्च-चेड-पीठमद-नगर-निगम-दूयसंधिवालेहिं सद्धिं संपरिबुढे विहरामि) अनेक गणनायक, दण्डनायक, राजा,
सूत्रार्थ:-(तए ण) त्या२पछी (पएसी राया केसि कुमारसमणं एवं वयासी) प्रदेशी मे शी उभा२ श्रमाने प्रभारी ४यु- (अस्थि णं भंते ! एसा पण्णा उवमा. इमेणं पुण कारणेणं णो उवागच्छ इ) 8 महत ! तमे वने અહીં ન આવવા માટે જે કંઈ કહયું છે તેના વડે તે જીવ અને શરીરમાં ભેદરૂપ मुद्धि त अपमामात्र ४ छे माम स्पष्टपणे माषित थाय छे. (एवं खलु भंते ! अहं अन्नया कयाई बाहिरियाए उवट्ठाणसालाए) 3 महत! १४ मे १५ते मा. ९५२थानमा (अणेगगणणायकदडणायक-राइसर-तलवर-माडंविय कोंडुबिय-इन्भ-सेटि-सेणावइ-सत्यवाह-मति-महामति-गणग-दो वारिय-अमच्च-चेड-पीठभद्द-नगर-निगम-दूध-संधि-वालेहि-सद्धिं संपरि
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सुबोधिनी टीका सू. १३५ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् म २२१ ततः खलु मम नगरगुप्तिकाः समक्ष सहोढ सगैवेयकम् अवकाटकबन्धनबद्ध चौरमुपनयन्ति, ततःखलु अहं तं पुरुषं जीवन्तमेव अयःकुम्भ्यां प्रक्षेपयामि, अयामयेन पिधान केन पिघापयामि. अयसा च त्रपुणा च आतापयामि, आत्मप्रत्ययिकैः पुरुषैः रक्षयामि, ततोऽहमन्यदा कदाचित् यत्रव सा अय
ईश्वर ऐश्वर्यसंपन्न, तलवर, माडम्बिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति. सार्थवाह, मन्त्री, महामंत्री, गणक, दौवारिक, अमात्य, चेट. पीटम, नगरनिरासीजन, व्यापारिगण. दूत सन्धिपाल, इन सबके साथ बैठा हुआ था. (तएणं मम णगरगुत्तिया ससवख, सहोढं, सगेवेज', अव उडमबंध. णवद्ध चोर उवणेति) इतने में नगररक्षक मेरे समक्ष सहोद-चुराई हुई वस्तुओं सहित, सद्मवेयक-ग्रीवा में जिसने चुराई हुई वस्तुओं को बांधा है ऐसे चोर को अवकोटक-(मुसकिया) बंधन से बांधकर लाये (तएण अहं तं पुरिसं जीवतं चेव अउकुभीए पविखवावेमि) मैं उस पुरुष को जीवितावस्था में ही लोह की कोठी में बन्द करवा दिया-और (अउमएण पिहाण एणं पिहावेमि) उसके मुखको-कोठी के मुख को लोह के ढक्कन से बन्द करवा दिया-ढकवा दिया. (अएण य तउएण य अायावेमि) बाद में फिर मैंने उसे द्रवीभूत लोहे से और द्रवित रांग से अङ्कित करवा दिया, (आयपच्चइएहिं पुरिसे हिं रक्खावेमि) यह सब करवाकर फिर मैंने अपने विश्वासपात्र पुरुषों को उसकी रक्षा के नि मत्त नियुक्त करवा दिया. बुडे विहरासि) ugu नायी, नायडी, २०१, ४३२, मश्वयः, सपन्न, तस१२ भां४ि, औटुमि, Jल्य, श्रे०ी, सेनापति, सार्थवाह, भत्री, भडामत्री, ४, हो॥२४, अमात्य, 22, पाम, नानपान, पडेपारीमा, है तो, संधिपायो, सामधानी साथे मेहो तो, (तए णं मम णगरगुत्तिया ससक्ख सहोद, सगेवेज्जं, अवउडमबंधणबद्ध चोर उवणेति) भेटामा ना२२१४ भारी सामे सा –ચોરાએલી વસ્તુઓની સાથે, સરૈવેયક-જેની ડોકમાં ચેરાએલી વસ્તુઓ બાંધવામાં मापी छे सेवा थारने 24431ट-अन्न हाये ॥माधान दाव्या. (तए णं अहं त पुरिस' जीवंत चेव अउकुंभीए पक्खिवावेमि) में ते पुरुषने पते 1 सोम नामा म ४२वी घी, भने (अउमएणं पिहाणएण पिहावेमि) ते नजाने यो30 diseyथी ५ ४२वी दी. (अएण य तउएण य आयावेमि) ત્યાર પછી મેં તેને દ્રવીભૂત લેખંડ તેમજ દ્રવિત રાંગથી અંકિત કરાવી દીધ. (आयपञ्चइएहि पुरिसेहिं रक्खा वेमि) मा मधु ४२रावने पछी मैं तेना २६॥
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राजप्रश्रीयसूत्रे
स्कुम्भो तत्रैव उपागच्छामि उपागम्य तामयम् कुस्भीम् उक्षेपयामि उत्क्षेप्य तं पुरुष स्वयमेव पश्यामि नो चैव खलु तस्यां अयस्कुम्भ्यां किचित् छिद्रमिति वा विवरमिति वा अन्तरमिति वा राजिरिति वा यतः खलु स जीवः अन्तरा बहिर्निर्गतः, यदि खलु भदन्त ! तस्यां अयस्कुम्भ्यां भवेत् किमपि छिद्र वा यावद् राजिव यतः खलु स जीवः अन्तराद बहिनिर्गतः, तदा खलु अहं श्रद्दध्यां प्रतीयां रोचयेयं यथा-अन्यो जीवः अन्यत् शरीर नो तज्जीव (तए अहं अण्णा कयाई जेणामेव सा अकु भी तेणामेव उवागच्छामि ) एक दिन को बात है कि मैं उस अयःकुम्भी के लोहेकी कोठी के पास गया (उवागच्छित्तातं आउकुभिं उज्गलत्थावेमि) वहां जाकर मैंने उस लोहे की कोठो को खुलवाया (उग्गलस्थावित्ता तं पुरिसं सयमेव पासामि णो चेव णं तीसे अयकु भीए केइ छिडेइवा विवरेइ वा, अंतरेइ वा राइ वा ओण से जीवे अंतोहितोबहिया निग्गए) खुलवाकर मैंने स्वयं उस चोर को देखा तो वह यहां मरा पडा था, जब कि उस लोहे की कोठी में न कोई लिद्र था, न कोई विवर था, न अवकाश था, न कोई रेखा थी, कि जिससेहोकर उस चोर पुरुष का जीव उस लोहे की केोठी के भीतर से बाहर निकल जाता (जइ ण भंते ! तीसे अउकुंभीए- होजा केइ छिड्डे वा जाव राई वा जओ ण से जीवे अंतोहिंतो बहिया णिग्गए) हां भदन्त ! यदि उस लोहे की कोटी में, कोई छिद्र वा यावत् रेखा होती तो उससे होकर वह चोर पुरुष का जाव भीतर से बाहर भाटे विश्वासपात्र युइषोनी नियुक्ति उरी हीधी (तए अहं अण्णया कयाई जेणामेव सा अउकुंभी तेणामेव उवागच्छामि) येऊ हिवसनी बात छे हैं हुं ते बेोखंडना नजा पा गयो, ( उवागच्छित्ता तं आउकुभिं उग्गलत्थावेमि) त्यां बहाने में ते झोपडना नजाने उधडाव्या. (उग्गलस्थावित्ता तं पुरिसं सयमेव पासामि, णो aar तीसे अभीए केइ छिड्ड े वा विवरेइ वा. अंतरे वा, राई - वा, जओ से जीवे अंतोहिंतो वहिया निग्गए) उधडावीने में पोते ते थारने જોયે. તે તે તેમાં મૃતાવસ્થામાં પડેલે હતેા. જ્યારે તે લેખ’ડના નળામાં ન છિદ્ર હતું કે ન વિવર હતું કે ન અવકાશ હતા કે ન રેખા હતી કે જેથી તે ચારને कव ते सोमंउना नणामांथी महार नीजी कती रहे. (जइ ण भंते ! तोसे अउकु मीए होज्जा केइ छिड्डे वा जाव राइ वा जओग से जीवे अंतोहितो बहिया णिग्गए) 3 लहंत ! ले ते सोय उना नजामां अध छिद्र है यावत् देणा होत तो तमांथी थने ते यार पु३षनो व महस्थी महार नीडजी शस्त. (तो
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सुबोधिनी टीका सू. १३५ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् २२३ सशरीरम्. यस्माद भदन्त ! तस्या अयस्कुम्भ्याः नास्ति किश्चित् छिद्र वा यावत् निर्गतः, तस्मात् सुप्रतिष्ठिता मे प्रतिज्ञा यथा-स जीवः तत् शरीरम्, नो अन्यो जीवोऽन्यच्छरीरम् ।। सू० १३५।।
टीका-तएणं से पएसी राया' इत्यादि-तत:-केशिकुमारवचनश्रवणानन्तर खलु स प्रदेशी राजा केशिन कुमारश्रमणम् एवम्-अवादितहे भदन्त ! एषा-ज वशरोरयो भेंदरूपा प्रज्ञा बुद्धिः उपमा-उपमामात्रम् अस्ति-विद्यते, यद अनेन कारणेन देवो नो उपागच्छतोति । हे भदन्त ! एवं-पूर्वीक्तप्रकारेणान्यदपि वृत्तमस्ति यद् अहम्-अन्यदा-कदाचित्-अन्यस्मिन् कम्मिश्चित् समये-वाह्यायाम्-उपस्थानशालायाम् अनेकगणनायक दण्डनायक राजेश्वर-तलव -माडम्बिक-कौटुम्बिके-य-श्रेष्ठेि-सेनापति-सार्थवाहनिकलता (तो ण अहं सद्दहेजा पत्तिएजा-रोएजा जहा-अन्नो जीवों अन्न सरीरं नो त जीवो तं सरीर) तो मैं आपकी उस बात पर विश्वास कर लेता. प्रतीति कर लेता, उसे रुचि का विषय बना लेता कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है, जीव शरीर रूप नहीं है और शरीर जीवरूप नहीं है (जम्हा ण भते! तीसे अउकु भीए णस्थि केइ छिड़े वा जाव निग्गए. तम्हा सुपइटिया मे पइण्णा जहा-तं जीवो तं सरीरं, नो अन्नो जीवो अन्न सरीर) जिस कारण हे भदन्त ! उस लोहे की कोठी में कोई . छिद्र अथवा यावत् रेखा नहीं थी कि जिससे उसका जीव बाहर निकल जाता. अतःछिद्रादि के अभाव से निकलने में अशक्त होने के कारण मेरा ही यह मन्तव्य ठीक है कि जो जीव है, वही शरीर है, जीव शरीर से भिन्न नहीं है और शरीर जीव से भिन्न नहीं है। अहं सदहेज्जा पत्तिएज्जा रोएज्जा जहा-अन्नो जीवो अन्न सरीर नो तं जीवो त सरीर) तातभारी मा पात ५२ विश्वास री लेत. प्रतीति કરી લેત અને તેને મારી રૂચિનો વિષય બનાવી લેત કે જીવ અન્ય છે અને શરીર अन्य छ, ०१ शरी२३५ नवी मने शरीर ७१३५ नथी. (जम्हा णभते ! तीसे अउकुंभीए णस्थि केइ छिड्के वा जाव निग्गए, तम्हा सुपइडिया मे पदण्णा जहा-तं जीवो त सरीर, नो अन्नो जीवो अन्नं सरीर) ने दी है ભદંત ! તે લોખંડના નળામાં કઈ છિદ્ર કે યાવત રેખા નથી કે જેથી તેને જીવ બહાર નીકળી જતો. રહે માટે છિદ્ર વગેરેના અભાવમાં બહાર નીકળવામાં અશક્ત હોવા બદલ મારી જ આ જાતની માન્યતા ઉચિત લાગે છે કે જે જીવ છે. તેજ શરીર છે, જીવ શરીરથી ભિન્ન નથી અને શરીર જીવથી ભિન્ન નથી.
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રર૪
राजप्रश्नीयसूत्रे मन्त्रि-महामन्त्रि-गणक-दौवारिका-ऽमात्य-चेट-पीठमई- नगर -निगमदूत-सन्धिपालैः-अनेके ये गणनायका दयः-तत्र गणनायकाः-गणम्वामिनः, दण्डनायका:-दण्डविधायकाः, राजानः-प्रसिद्धाः, ईश्वरा-ऐश्वर्य समपन्नाः, तलवरा:-सन्तुष्टराजदत्तपट्टबन्धपरिभूषितराजकल्पाः, माडम्बिका:-ग्रामपञ्चशतीपतयः, यद्वा-साईक्रोशद्वयपरिमितप्रान्तरैर्विच्छिद्य विच्छिद्य स्थितानां ग्रामाणामधिपतयः, कौटुम्बिका:-बहुकुटुम्बप्रतिपालकाः, इभ्याः-इभो-हस्ती तत्प्रमाण द्रव्यमहन्तीति इभ्याः, ते च जघन्य-मध्यमोत्कृष्टभेदात् त्रि. प्रकाराः, तत्र हस्तिपरिमितमणिमुक्ता-प्रवाल-सुवर्ण रजतादिद्रव्यराशि स्वामिनो जघन्याः, हस्तिपरिमितवज्रमणिमाणिक्यराशिस्वामिनो मध्यमाः.
टीकार्थ-स्पष्ट हैं-परन्तु जो इसमें गणनायक आदि पद आये हैं उनकी व्याख्या इस प्रकार से है-गण के जो स्वामी होते हैं, वे गणनायक हैं दण्ड का जो विधान करते है, वे दण्डनायक हैं, राजा प्रसिद्ध हैं, ऐश्वर्य से जो युत होते हैं वे ईश्वर हैं, सन्तुष्ट हुए राजा द्वारा जिन्हें विशेष पोशाक दी जाती है ऐ राजतुल्य व्यक्तियों का नाम तलवर है पांच सौ ग्राम के जो अधिपति होते हैं वे माडम्बिक है, अथवा ढाई ढाई कोस के अन्तर से बसे हुए ग्रामों के जो अधिपति होते हैं वे माडम्बिक है, बहुत कुटुम्ब का पालन पोषण करनेवाले जो होते है कौटुम्बिक हैं, हस्तिप्रमाण द्रव्य-मणि-मुक्ता-प्रवाव-सुवर्ण-रजत-आदि द्रव्यराशि के जो स्वामी होते है वे जधन्य इभ्य हैं तथा-हस्तिपरिमित वज्र, मणि, माणिक्यराशि के जो स्वामी होते हैं वे मध्यम इभ्य हैं हस्तिपरिमित
ટીકાર્થ–ટીકાથ સ્પષ્ટ જ છે. પરંતુ આ સૂત્રમાં ગણનાયક વગેરે જે પદે આવેલ છે તેમની વ્યાખ્યા આ પ્રમાણે છે. ગણના જે સ્વામી હોય છે તે ગણનાયક છે. દંડનું જે વિધાન કરે છે. તે દંડનાયક છે. રાજા પ્રસિદ્ધ છે. આશ્વર્યથી જે સ પન્ન હોય છે તે ઈશ્વર છે. સંતુષ્ટ થયેલા રાજા વ? જેમને પહેરવાના વસ્ત્રો આપવામાં આવે છે એવી રાજ તુલ્ય વ્યકિતઓ તલવર કહેવાય છે. પાંચ ગ્રામના જે અધિપતિ હોય છે. તે માડંબિક છે અથવા તે અઢી અઢી કસના અંતરે વસેલા ગ્રામેના જે અધિપતિ હોય છે તે માડંબિક છે. ઘણા કુટુંબનું પાલન-પોયણ કરનાર જે હોય છે તે કૌટુંબિક છે. હસ્તિપ્રમાણુ દ્રવ્ય-મણિમુકતા–પ્રવાલ-સુવર્ણ–રજત વગેરે દ્રવ્યરાશિના જે સ્વામી હોય છે તે જઘન્ય ઇભ્ય છે તેમજ હસ્તિપરિમિત વજુમણિ, માણિક્ય રાશિના જે સ્વામી હોય છે તે મધ્યમ ઉભ્ય છે, ફકત હસ્તિ
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सुबोधिनी टीका. सूत्र १३५ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् २२५ हस्तिपरिमितकेवलवज्रराशिस्वामिन उत्कृष्टाः, अंष्ठिनः-लक्ष्माकृपाकटाक्ष प्रत्यक्षलक्ष्यमाणद्रविणलक्षलक्षणविलक्षणहिरण्यपहसमल तमूर्धानो नगरप्रधान व्यवहारकारिणः, सेनापतयः-चतुरङ्गसेनानायकाः सार्थवाहा:-गणिम-धरिम मेय-परिच्छेद्यरूप-क्रयविक्रयवस्तुजातमादाय लाभेच्छया देशान्तराणि जतां सार्थवाहयन्ति-योग-क्षेमाभ्यां परियालयन्ति दोनजनोपकराय मूलधन दत्त्वा तान् समर्द्ध यन्तीति तथा तबलाणि मम्-एक-द्वि-त्रि चतुरादिसंख्याक्रमेण यहीयते, यथा-नारिकेल-पूगीफल-कदलीफलादिकम्, परिमम्-तुलासूत्रेणो त्तोल्य यहीयते, यथा-त्रीहि-यव-लवण-सितादि मेय-शरावलघुमाण्डादिनो. त्तोल्य यद्दीयते. यधा-दुग्ध-धृत-तैल-प्रभृति. परिच्छेद्यं च-प्रत्यक्षतोनिकपादिपरीक्षया यदीयते, यथा-मणिमुक्ता-प्रबालाऽऽभरणादि, मन्त्रो-रहस्य कार्यकारी स एव महान् महामन्त्री, गणकाः ज्योतिषवेत्तार , दौवारिकाः-द्वारि. नियुक्ताः द्वारपालाः, अमात्याः राज्याधिष्टायका; सहवासिराजपुरुषविशेषाः, चेटाः-चरणसेवकाः किङ्कराः, पीठ मर्दाः-राजसमीपस्थायिनो राजवयस्काः सेवकविशेषाः, नगरेति नागरा नगरनिवासिनो जनाः, निगमाः-व्यापारिगणः, केवल वज्रराशि के जो स्वामी होते हैं वे उत्कृष्ट इभ्य हैं. लक्ष्मी की जिनपर पूरो २कृपा है, और इसी कृपा के कारण जिनके लाखों के खजाने हों, तथा जिनके मस्तक पर उन्ही को सूचित करनेवाला चान्दी का विलक्षण पह शोभायमान हो रहा हो एसे नगर के प्रधानन्यापारी श्रेष्टी कहलाते हैं । चतुरङ्ग सेना के नायक जो होते हैं वे सेनापति हैं, जो गणिम-गिनकर खरीदने बेंचने योग्य नारियल, सुपारी केला आदि मेय-शराब
आदि से नापकर खरीदने बेंचने योग्य दूध, घी, तेल, आदि वस्तुओं को तथा परिच्छेद्य-कसौटी आदि पर परीक्षा करके खरीदने में चने योग्य मणि, मोती, मूंगा, गहना आदिवस्तुओं को लेकर लाभ के लिये देशान्तर में जाने પરિમિત વજીરાશિના જે સ્વામી હોય છે તે ઉત્કૃષ્ટ ઈલ્ય છે. જેની ઉપર લક્ષમીની પૂર્ણ કૃપા છે અને એથી જ જેમની પાસે લાખોના ભંડાર ભરેલા છે તેમજ જેમના મસ્તક પર તેમને જ સૂચવતે ચાંદીને વિલક્ષણ પદ શેભાયમાન થઈ રહ્યો હોય એવા નગરના પ્રધાન વ્યાપારી બેઠી કહેવાય છે જે ચતુરંગ સેનાના નાયક હોય છે તે સેનાપતિ છે જે ગણિમ-ગણીને વેપાર કરવા ગ્ય નારિયેલ, સેપારી કેળા વગેરે વસ્તુઓને ગણિમ કહે છે મેય-શરાવા વગેરે નાના વાસણ વગેરેથી માપીને વેપાર કરવા
ગ્ય દૂધ, ઘી, તેલ વગેરે વસ્તુઓને મેય કહે છે તેમજ પરિચ્છેદ્ય કસોટી વગેરે પર પરીક્ષણ કરીને વેપાર કરવા ગ્ય મણિ, મેતી પ્રવાલ, આભૂષણે વગેરે વસ્તુઓને સાથે
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राजप्रश्नीयसूत्र दूताः-वार्ताहारिणो जनाः, सन्धिपालाः-राज्यसन्धिरक्षकोः, एतैः अनेक गणनायकादिभिः साद्ध संपरिकृतः-परिवेष्टितः विहरामि-तिष्ठामि । ततःतदनन्तरम् तस्मिन् काले नगरगुप्तिका:-नगररक्षकाः मम समक्ष सहोड़चोरितवस्तुसहितम् । सवेयकम्-ग्रीवाबद्धचोरितवस्तुकम् अवकोटकवन्धनबद्धम्-अवकोटकेन-ग्रीवायाः पश्चाद्धागेमोटनेन यत्तया सह हस्तयोबन्धन', तदवकोटकबन्धन, तेन बद्ध चौरम् उपनयन्ति-ममसमीपे आनयन्ति, ततः वाले सार्थ को ले जाते है, तथा योग-नई वस्तुकी प्राप्ति और क्षेम-माप्तवस्तु की रक्षा के द्वारा उनका पालन करते है, अनाथ की भलाई के लिये उन्हें पूजी देकर व्यापारद्वारा धनवान बनाते हैं वह सार्थवाह है. राजो के लिये उचितमंत्र सलाह देनेवाले का नाम मंत्री है इन मत्रीयों के ऊपर जो मंत्री होता है वह महामंत्री हैं,
ज्योतिषशास्त्र के वेत्ता का नाम गणक है. द्वार पर रक्षा के निमित्त नियुक्त हुए व्यक्ति का नाम द्वारपाल है, राज्य के अधिष्ठायक सहवासिराजपुरुषविशेष का नाम अमात्य है. चरण सेवक का नाम चेट है, राजा की उमर के बराबर जो व्यक्ति राजा के ही पास रहते हैं ऐसे सेवक विशेष का नाम पीठमर्द है, नगरनिवासी जनता का नाम नागरिक है. व्यापारिगण का नाम निगम है। सन्देश हर का नाम दूत है. राज्यसन्धिके रक्षक का नाम सन्धिपाल है। ग्रीवा के पश्चाद्धग में मोडने से जो उसी ग्रीवा के साथ दोनों हाथों का बांधना जिस बंधन में होता हैं उस बन्धन का नाम अवकोटक बंधन है। प्रदेशी राजा के
લઈને લાભ માટે દેશાંતરમાં જનાર સાઈને લઈ જાય છે તેમજ ગ-નવી વસ્તુની પ્રાપ્તિ અને ક્ષેમ પ્રાપ્ત વસ્તુની રક્ષા વડે તેમનું પાલન કરે છે ગરીબ માણસેના ભલા માટે તેમને દ્રવ્ય આપીને વેપારવડે તેમને ધનવાન બનાવે છે તે સાર્થવાહ કહેવાય છે. રાજાને જે ચેપગ્ય મંત્ર-સલાહ આપે છે તે મંત્રી છે. આ મંત્રિઓની ઉપર જે મંત્રી હોય છે તે મહામંત્રી છે. જ્યોતિષશાસ્ત્રને જાણનાર ગણુક કહેવાય છે. દ્વાર પર રક્ષા માટે નિયુકત કરેલ માણસને દ્વારપાલ કહે છે. રાજ્યના અધિષ્ઠાપક સહવાસિ રાજપુરૂષ વિશેષનું નામ અમાત્ય છે. ચરણ સેવકનું નામ ચેટ છે. રાજાની ઉમરની જ જે વ્યકિત રાજાની પાસે રહે છે એવી સેવક વિશેષ વ્યકિતનું નામ પીઠમ છે. નગર નિવાસી જનતા નાગરિક કહેવાય છે. વેપારી ગણનું નામ નિગમ છે. છે સંદેશહેરનું નામ દૂત છે. રાજ્યસંધિના રક્ષકનું નામ સંધિપાલ છે. ગ્રીવાને પાછળની તરફ વાળવાથી તે ગ્રીવાની સાથે બન્ને હાથે જે બંધનથી બાંધવામાં આવે છે તે બંધનનું નામ અવકેટક બંધન છે. પ્રદેશ રાજાનું કહેવું આ પ્રમાણે છે
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सुबोधिनी टोका. १३५ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिरजवर्णनम् २२७ खलु अह त पुरुष जीवन्तमेव अयस्कुम्भ्यां लोहकोष्ठिकायां प्रक्षेपयामि, तामयस्कुम्भीम् अयोमयेन-लोहमयेन पिधानेन-आच्छादनेन पिधापयामिआच्छादयामि, तामयस्कुम्भी च-पुनः अयसा-द्रवीभूतलोहेन च-पुनःत्रपुणा त्रपुद्रवेण अङ्कयामि-अङ्कितां करोमि-मुद्रितां करोमीत्यर्थः । तामयस्कुस्भीम
आत्मप्रत्ययिकैः-निजविश्वासपात्रः पुरुषः रक्षयामि-रक्षितां कारयामि, ततःतदनन्तरम्, अहम् अन्यदा कदाचित्-अन्यस्मिन् कस्मिंश्चित्काले यत्रैव चोरयुक्ता अयस्कुम्भी तत्व-उपागच्छामि, उपागम्य-तामयस्कुम्भोम् 'उग्गलस्थावेमि' ति उत्क्षेपयामि उच्चाटयामि, अत्र-उत्पूर्व कस्य विधातो गल. स्थादेशेन रूपसिद्धि बोध्याः । "हैम । ८।४।१४३।" उत्क्षेप्य-उद्घाटय तत्रस्थित त पुरुष-चोर स्वयमेव पश्यामि, नैव खलु तस्यां अयस्कुभ्यां किश्चित्-किमपि छिद्रमिति वा विवरं-विलम् इति वा अन्तरम्-अवकाशः इति वा राजिः-लेखा इति वा आसीत्, यतः-यस्मात् छिद्रादितःस जीव: चोरपुरुषजीवः अन्त:-अयस्कुभ्या अन्तरप्रदेशात् बहिः-बहिः प्रदेशे निर्गतः निस्तो भवितुम त, हे भदन्त ! यदि-चेत् खलु तस्या अयस्कुभ्याः किञ्चित् छिद्र यावत-यावत्पदेन-"विवरम, अन्तरम्, राजिः" इत्येषां सङ्ग्रहो बोध्य एवं च छिद्रादि भवेत्-स्यात् यतः यस्मात् छिद्रादितः खलु स जीव: अन्त: अयस्कुम्भीमध्यात् बहिर्निगतः स्यात, तदा-अयस्कुम्भीमध्यत. स्तचोरजीबनिस्सरणे सति खलु अहं श्रद्दध्यां तव वचने विश्वस्याम्,प्रतीयांविशेषतो विश्वस्याम्. रोचयेय रुचिविपयं कुर्याम्, यथा-अन्यो जीवः अन्यत् शरीरम् नो तत जीवः स शरीरम् । यस्मात्-कारणात् खलु भदन्त ! तस्याः कहने का अभिप्राय ऐसा है कि जब चोर को पूर्वोक्त रूप से बांधकर लोहे की कोठी में बन्द कर दिया गया और लोहे को गलाकर तथा रांग को गलाकर उसके ढकन सहित मुख को इस तरह से बन्दकर दिया गया कि उसमें थोडा सा भी छिन्द्र आदि न रहा। तब ऐसी स्थिति में वह चोर उसमें मर गया. इस पर ऐसा विचार उस प्रदेशी राजा को हुआ कि यदि जीव और शरीर भिन्न २ हैं तो उस कोठी में छिन्द्र आदि के अभाव से उसका जीव उसमें से कहां से होकर निकला, જ્યારે ચારને પૂર્વોકત રીતે બાંધીને લેખંડના નળામાં બંધ કરવામાં આવ્યું અને લેખંડને પીગળાવીને તેમજ રાંગને પીગાળીને તે ઢાંકણા સહિત મુખને એવા પ્રકારે બંધ કરવામાં આવ્યું કે તેમાં જરાએ છિદ્ર વગેરે રહ્યું નહિ. ત્યારે એવી પરિસ્થિતિમાં તે ચોર તેમાં મરણ પામે. એને લઈને તે પ્રદેશી રાજાને આ જાતને
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राजप्रश्नीयसूत्रे अयस्कुम्भ्या नास्ति, कि श्चत छिद्र' वा यावत् राजिा, यतः स जीवो. ऽन्तः मध्याद् बहिर्निर्गतःस्यात् तस्मात् कारणात् छिद्रादिविरहेण निःसर्तु. मशक्तत्वात् मे मम प्रतिज्ञा मन्तव्यरूपा सुप्रतिष्ठिता सुण्ठु समवस्थिता न तु खण्डिता यया तज्जीवः स शरीरम, नो अन्यो जीवः अन्यच्छरीरम् ॥सू.१३५॥
मूलम्-तए णं केसीकुमारसमणे पएसिं रायं एवं वयासीसे जहानामए कूडागारसाला सिया दुहओ लित्ता गुत्ता गुत्तदुवारा णिवायगंभीरा, अह णं केइ पुरिसे भेरि च दंडं च गहाय कूडागारसालाए अंतो अंतो अणुप्पविसइ तीसे कूडागारसालाए सव्वओ समंता घणणिचियनिरंतरोणेच्छिड्डाई दुवारवयणाई पिहेइ, तीसे कूडागारसालाए बहुमज्झदेसभाए ठिच्चा तं भेरि दंडएणं महया महया सदेणं तालेज्जा, से णूणं पएसी ! से सद्दे णं अंतोहितो बहिया निग्गच्छइ ? हता णिग्गच्छइ, अस्थि णं पएसी! तीसे कुडागारसालाए केइ छिद्दे वा जाव राई वा जओ णं से सद्दे अंतोहितो वहिया णिग्गए ? नो इण? सम?', एवामेव पएसी ! जीवे वि अप्पडिहयगई पुढवि भिच्चा सिलभिच्चाअतोहि ता बहिया णिग्गच्छइ, तसदहाहि णं तुम पएसी अण्णो जीवो अण्णं सरीरं, नो तं जीवो तं सरीरं ३ ॥सू, १३६॥ अतः निकलने के अभाव यही प्रतीत होता है कि जीव शरीर से भिन्न २ नहीं है जो जीव है वही शरीर है और जो शरीर है वही जीव है ।।स्.१३५॥
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વિચાર થયે કે જે જીવ અને શરીર જુદાં જુદાં તે હોય તે નળામાં છિદ્ર વગેરે ન હોવાથી તેને જીવ તેમાંથી કયાં થઈને નીકળે ? નીકળી ન શકવાને લીધે આ વાત સ્પષ્ટ રીતે જણાય છે કે જીવ શરીરથી ભિન્ન નથી. જે જીવ છે તેજ શરીર છે અને જે શરીર છે તેજ જીવ છે. એ સૂ. ૧૩૫ છે
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सुबोधिनी टीका सू. १३६ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम्
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छाया - ततःखलु केशी कुमारश्रमणः प्रदेशिनं राजानमेवमवादीत् - सा यथानामक कूटाकारशाला स्यात् द्विधातो लिप्ता गुप्ता गुप्तद्वारा निवातगम्भीरा, अय खलु कचित् पुरुषः भेरीं च दण्डं च गृहीत्वा कूटाऽऽकारशालायामन्तरन्तः अनुः प्रविशति तस्याः कूटाऽऽकारशालायाः सर्वतः समन्तात् घननिचितनिरन्तर निश्छिद्राणि द्वारवदनानि पिदधाति, तस्याः कूटाऽऽकार
'तरणं केसी कुमारसमणे' इत्यादि ।
सूत्रार्थ - (तणं केसीकुमारसमणे) इसके बाद केशीकुमार श्रमणने ( प एसिं रायं एवं वयासी) प्रदेशी राजा से ऐसा कहा (से जहा नामए कूडागारसाला सिया दुहओ लित्ता गुत्ता गुप्त दुबारा णिवायगंभीर ) हे प्रदेशिन | जैसे कोई एक कूटाकारशाला हो पर्वत की शिखर जैसी आकृति - वाला भवन हो और वह भीतर बाहर में आच्छादित हो, आच्छादित द्वार प्रदेशवालीहो, निवात गंभीर हो वायुहित होती हुई गंभीर अन्तः प्रदेशवाली हो (अहणं केइपुरिसे भेरिं च दंडं च गहाय कूडागारसाला तो अणुष्पविसइ) अब कोई पुरुष भेरी और दंडे को लेकर उस कूटाकारशाला के भीतर घुस जाता है, (तीसेकूडागा रसालाए सव्वओ समता घणनिचिय निरंतरणिच्छिड्डाइ दुवारarणाइ पिइ ) और घुसकर वह उसके दरवाजों को चारों तरफ से इस तरह से बन्दकर लेता है कि जिससे उनके किबाड आपस में बिलकुल सट जाते हैं थोडा सा भी अन्तर उनमें नहीं रहता है. छिद्र उनके बन्द हो जाते हैं,
' तरणं केसी कुमारसमणे' इत्यादि ।
सूत्रार्थ - (तए णं केसी कुमारसमणे) त्यार पछी देशी ( प रा एवं वयासी) अदेशी रामने भी प्रमाणे उधुं ( से कूडागारसाला सिया दुहओ लिता गुत्ता - गुत्तदुबारा હે પ્રદેશિન્ ! જેમ કોઇ એક ફૂટાકારશાળા હોય પર્વતના આકાર જેવુ ભવન હોય અને તે બહાર અને અંદરના ભાગમાં આચ્છાદિત દ્વાર પ્રદેશયુકત હોય, નિવાત गंभीर होय - पवन रहित तेमन गंभीर अंतः प्रदेश युक्त होय, ( अह णं केइ पुरिसे भेरि च दंडं च गहाय कूडागारसालाए अंतो अणुष्पविसइ) हवे हैं। पुरुष लेरी रमने हुंडाने सहने ते छूटाभर शाणाभां पेसी लय छे. (ती से कूडागारसाला सवओ समंता घणनिचियनिरंतर निच्छिलाई दुवारवयणाई' पिइ) भने पेसीने ते अधा द्वारीने या प्रमाणे ખારણાના કમાડો એકદમ અડીને ખંધ થઇ જાય છે.
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कुमार श्रमाणे जहा नामए शिवाय गंभीरा)
घरी से छे भेथी तेभना તેમની વચ્ચે થોડું પણ એના
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राजप्रश्नीयसूत्रे
शालायाः बहुमध्यदेशभागे स्थित्वा तां मेरी दण्ड केन महता महता शब्देन ताड येत्, अथ नृन प्रदेशिन् ! स शब्दःखल अन्तः बहिनिगच्छति ? हन्त निर्गच्छति । अस्ति खलु प्रदेशिन् ! तस्याः कूटाऽऽकारशालायाः किञ्चित छिद्रवा यावत राजि, यतः खलु स शब्दोऽन्तर्बहिनिर्गतः ? नायमर्थः समर्थः, एवमेव प्रदेशिन् जीवोऽपि अप्रतिहतगतिः पृथिवीं भित्वा शलं भित्वा अन्तर्वाहिनिर्गच्छति तत् श्रद्धेहि खलु त्वं प्रदेशिन् ! अन्यो जीवः अन्यच्छरीर, नो तज्जीवः स शरीरम् ॥ सू० १३६॥
टीका-'तए ण केसीकुमारसमणे' इत्यादि-ततःखलु केशी कुमारश्रमणः एवमवादीत-तद् यथा नामक यथा दृष्टान्तम् एतद्विषये दृष्टान्त प्रदर्श्य ते, काचित् कूटाऽऽकारशाला-पर्वतशिखराकृतिकभवनम् स्यात् भवेत्, सा च द्विधात:-अन्तबहि:प्रदेशयोः गुप्ता आच्छादिता, गुप्तद्वाराआच्छादितद्वारमदेशा निवातगम्भीरा निवाता पवनरहिता सती गम्भीरागम्भीरान्तःप्रदेशा स्यात् । अथ खलु तस्याः कूटाकारशालायाः अन्तरन्तः. हैं, (तीसे कूडागारसालाए बहुमज्झदेसभाए ठिच्चा तं भेरि दंडएणं महया २ सद्देणं तालेजा) इस तरह से करके अब उस कूटाकार शालाके बिल. कुल मध्यभागमें खडा होकर उस भेरी को जोर २ से उस डंडे से इस ढग से बजाता है कि जिससे उसमें से बहुत ही अधिक जोर की उँची अ.वाज निकले (सेणूणं पएसी से सद्दे अंतोहितो बहिया निग्गच्छइ) अब प्रदेशिन ! यह कहो वह उसका शब्द जो कि दण्डाघात से उत्पन्न हुआ है उस कूटाकारशाला के मध्य प्रदेश से बाहर निकलता है या नहि ? (हंता, णिग्गच्छइ) हां, भदन्त ! बाहर निकलता है। (अस्थिणं पएसी ! तीसे कूडागारसालाए केइछिद्देवा जाव राई वा जओणं से सद् अंतोहितो बहिया णिग्गए) तो हे प्रदेशिन् ! विचारो उस कूटकारशालामें न २४ती नथी. तभनi on छन्द्रो मह थ य छे. (तीसे कूडागारसालाए बहुमज्झदेसभाए ठिचा तं भेरी दंडएणं मसया महया सदेणं तालेज्जा) આ પ્રમાણે કરીને તે કૂદાકારશાળાના એકદમ મધ્યભાગમાં તે ઉભો થઈને તે ભરીને તે દંડાથી આ આ પ્રમાણે વગાડે છે કે તેમાંથી બહુ જ ભયંકર શબ્દ નીકળે. (से तेणं पएसी से सदे अंतोहितों वहया निग्गच्छइ ?) वे प्रदेशिन ! तमे भने કહો હે તે ભેરીમાંથી ઉત્પન્ન થતા શબ્દ તે કુટાકાર શાળાના મધ્ય પ્રદેશમાંથી બહાર નીકળે छ. (हंताणिग्गच्छइ) महत माडा नाणेछ.(अस्थिणं पएसी। तीसे कूडागारसालाए केइ छिद्दे वा जाई वा जओ णं सद्दे अंतो बहिया णिग्गए) ते 3 प्रहशन ! तमे वियार
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सुबोधिनी टीका सू. १३६ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् २३१ अन्यन्तमध्यपदेशे कश्चिन् कोऽपि पुरुषः भेरों च पुनः दण्ड गृहीत्वा अनुपवि शति, स प्रविष्टः पुरुषः तस्याः कूटाऽऽकारशालायाः-तत्कूटाकारशाला. सम्बन्धीनि घननिचितनिरन्तरनिश्छिद्राणि धनानि निबिडानि निचितानि-अत्यन्तमिलितानि अत एव निरन्तराणि-अन्तररहितानि च-पुनः निश्छिद्राणिछिद्ररहितानि द्वारवदनानि-द्वारमुखोनि सर्वतः-सर्वदिक्षु समन्तात्सर्व विदिक्षु पिदधाति-आच्छादयति, तस्याः पिहितायाः कूटाकारशालायाः बहु मध्यदेशभागे-अत्यन्तमध्यदेशभागे. स्थित्वा स पुरुषः तां मेरी दण्ड केन महता महता शब्देन यथा अत्युच्चः शब्दः समुत्पद्येत तथेत्यर्थः ताडयेत्-अयः नून हे प्रदेशिन् ! स:-दण्डाघातजनितः शब्दः भेरीशब्दः अन्तः-मध्य प्रदेशात वहि:-बहिप्रदेशे निर्गच्छति ?-निस्सरति ? इति प्रश्नः । प्रदेशी पाह -हन्त ! इति स्वीकारे हे भदन्त ! निर्गच्छति-केशीकुमारश्रमणः कथयति हे प्रदेशिन् ! तस्याः-कूटाऽऽकारशालाया किञ्चित् छिद्रं वा यावत् विवर वा अन्तरं वा राजिवळ अस्ति यतः यस्मात् स शब्दः अन्तः कूटाकारशालाऽ भ्यन्तरप्रदेशाद् बहिर्निगत निसृतः स्यात् ? । इति केशिना पृष्टे प्रदेशी पाहतायमर्थः समयः छिद्रादि रूपोऽर्थस्तत्र न युज्यते सर्वथाऽऽवृतत्वात् । पुनरपि केशीपाह-हे पदेशिन् ! एवमेव-एतद्देष्टान्तनुसारेणैव अप्रतिहतगति:-अंकुण्ठितगतिः जीवोऽपि पृयिवी भित्त्वा शिलां-प्रस्तरं भित्त्या पर्वतं भित्वा अन्तः मध्यप्रदेशात् बहिर्निर्गच्छति, ततू-तस्मात-उक्तदृष्टान्तेन हे प्रदेशिन ! त्वं श्रद्धेहि-मवचने श्रद्धां कुरु अन्यो जीवः अन्यत् शरीरम्, नो स जीवः तच्छरीरम् ॥ सू० १३६ ॥ कोई छिन्द्र है, यावत् न कोई रेखा है कि जिससे होकर वह शब्द उसमें से बाहर निकला हो? (णो इण सम) हे भदन्त ! यह अर्थ समर्थ नहीं है. अर्थात् वहां पर कोई छिद्रादि नहीं है. (एवामेव पएसी! जीवेविअप्पडिहयगई पुढियिं भिच्चा, सीलं भिच्चा अंतोहितो बहिया णिग्गच्छइ) इसी प्रकार हे प्रदेशिन् ! जीव भी अप्रतिहत गतिवाला है अतः वह पृथिवी को भेद करके, शिला को भेद करके उसके भीतर से होकर बाहर निकल जाता है। (तं सट्टाहि णं तुमं पएसी! अण्णो. કરે કે તે કૂટાગાર શાળામાં કઈ છિદ્ર નથી યાવત કેઇ રેખા (તરાડ) પણ નથી કે
मनाथी ते ४ तमाथी मडा नीती होय ? (णो इणढे सम?) हे मत ! मा अर्थ समय नथी भेटले तेमा छिद्र वगेरे नथी. (एवामेव पएसी ! जीवे वि अप्पडिहयगई, पुढविभिच्चा, सिलं भिच्चा, अंतोहितो बहिया णि गाछइ) मा प्रभारी र प्रहशिनू ! ०१ ५ मप्रतिहत ति यु-त छ. येथी તે પૃથિવીનું ભેદન કરીને, શિલાનું ભેદન કરીને, તેની અંદર થઈને બહાર નીકળી anय छे. (तं सद्दहाहि णं तुम पएसी! अण्णो जीवो अण्णं सरीरं जो तं जीवो
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__राजप्रश्नीयसूत्रे म्लल-तए णं पएसी राया केसिकुमारसमणं एवं वयासी अस्थिणं भंते ! एसा पण्णाओ उवमो, इमेण पुण कारणेणं णो उवागच्छइ, एवं खल्लु भंते ! अहं अन्नया कयाइ बाहिरियाए उवटाणसालाए जाव विहरामि, तएणं ममं जगरगुत्तिया ससक्खं जाव उवणे ति, तएणं अहं तं पुरिसं जीवियाओ ववरोवेमि, ववरोवेत्ता अउकुंभीए पक्खिवावेमि अउमएणं पिहाणएणं पिहावेमि जाव आयपच्चइएहिं पुरिसेहि रक्खावेमि, तएणं अहं अन्नया कयाइं जेणेव सा अउकुंभी, तेणेव उवागच्छामि, तं अउकुंभिं उग्गलस्थावेमि, तं अउकुंभि किमिकुंभिपिव पासामि, णोचेवणं तीसे अउकुंभीए केइछिड्के वा जाव राईइ वा जओ णं ते जीवा वहिवाहिता अणुप्पविहा, जई णं तीसे अउकुंभीए होजा केइ छिड्डेइ वा जाव अणुप्पविटा, तो गं अह सद्दहेज्जा, जहा-अन्नो जीवो तं चेव, जम्हा णं तीसे अउकु. भीए नस्थि केइ छिड्डेइ वा जाव अणुष्पविटा तम्हा सुष्पइटिआ मे पइण्णा जहा-तं जीवो तं सरीरं तं चेव ॥ सू० १३७ ॥
__छाया--ततःखलु प्रदेशी राजा केशीकुमारश्रमणमेवमवादीत् अस्ति खल भदन्त ! एषा प्रज्ञात उपमा अनेन पुनाकारणेन नो उपागच्छति), जीवो अण्णं सरीरं णो तं जीवी तं सरीर) अतः हे प्रदेशिन् ! तुम विश्वास करो जीव भिन्न है और शरीर भिन्न है. जीव शरीर रूप नहीं है और शरीर जीवरूप नहीं है।
टीकार्थ को लेकर ही यह मूलार्थ लिखा है. भावार्थ इसका केवल यही है कि जिस प्रकार शब्द अमतिहतगतिवाला है उसी प्रकार से गीच भी अप्रतिहतगतिवाला है अत: वह किसी भी स्थितिमें प्रतिहतमति वाला नहीं हो सकता है ॥सू० १३६ ॥
'तए णं पएसी राया' इत्यादि।
सूत्राथे-तिएणं) इसके बाद (पएसी राया) प्रदेशी राजाने (केसी. तं सरीर) मेथी 3 प्रहशिन् ! तमे विश्वास । १ लिन्न छ भने शरीर ભિન્ન છે. જીવ શરીર રૂપ નથી અને શરીર જીવ રૂપ નથી.
ટીકા–તે લક્ષ્યમાં રાખીને જ આ મૂલાર્થ લખવામાં આવ્યો છે. આને ભાવાર્થ આ પ્રમાણે છે કે જેમ શબ્દ અપ્રતિહત ગતિ યુકત હોય છે. એથી તે ગમે તે સ્થિતિમાં પણ પ્રતિહત ગતિયુકત થઈ શકે નહિ. આ સૂ. ૧૩૬ છે
'त एणं पएसी राया' इत्यादि। सूत्रा-(त एणं) त्यार पछी (पएसी राया) 3शी कुमार श्रमाने या प्रमा
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सुबोधिनी टीका सू. १३७ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् २३३ एवं खलु भदन्त ! अहमन्यदा कदाचित् बाद्यायाम् उपस्थानशालायां यावत् विहरामि, ततः खलु मम नगर गुमिकाः ससाक्ष्यं यावद् उपनयन्ति ततः खलु अहं तं पुरुष जीविताद् व्यपगेपथामि, व्यपरोष्य अयस्कुम्भ्यां प्रक्षे. पयापि अयोमयेन पिधान केन पिधापपामि यावत आत्ममत्ययिकैः पुरुषैः रक्षयामि, ततः खलु अहं अन्यदा कदाचित् यत्रैव सा अयम्कुम्मी तत्रय कुमारसमणं एवं वयासी) केशीकुमारश्रमण से ऐसा कहा-(अस्थि णं भंते ! एसा पण्णाओ उवमा) हे भदन्त ! यह आपके द्वारा कही गई उपमा-(दृष्टान्त) बुद्धि विशेष रूप है (इमेण पुण कारणेणं णो उ०) किन्तु इस वक्ष्यमाण कारण से मेरे मनमें जीव और शरीर का भेद नहीं आता है-युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता है । इसी बात को अब प्रदेशी राजा प्रकट करता है -(एवं खलु भते ! अहं अन्नया कयाई बाहिरियाए उचट्ठाण मालाए जाव विहरामि) हे भदन्त ! मैं एक दिन बाहर की उपस्थान शाला में यावत् बैठा हुआ था (तएणं ममं जगरगुत्तिया ससक्ख जाव उवणे ति) उस मेरे नगर रक्षकोंने साक्षिसहित यावत् एक चोर को उपस्थित किया (तएणं अहं तं पुरिसं जीवियाओ ववरोवेमि) मैने उन चोर को पाणरहित कर दिया (ववरीत्ता अउभीए पक्विवावेमि अउमएणं पिहाणयणं पिहावेमि) पाणरहित करके फिर मैंने उसे अयस्कुभी (लोहेकी कोठी) में अपने पुरुषों से डलवा दिया (जाव प्रायपञ्चइएहिं पुरिसे हिं रक्खाबेमि) यावत् फिर मैंने अपने आत्मरक्षक पुरूषों का वहां पहरा नियुक्त कर दिया. (तएणं अहं ४ -(अत्थिणं भंते ! एसा पण्णाओ उवमा) . ' ! I मात पडे प्रयुक्त रुपमा (Eveid) मुद्धि विशेष ३५ छ. (इमेण पुण कारणेणं णो उ०) એનાથી મારા મનમાં જીવ અને શરીરની ભિન્નતાને વિચાર ઉત્પન્ન થયે નથી મને આ વાત યુકિતયત પણ લાગી નહિ. એજ વાત હવે પ્રદેશી રાજા આ પ્રમાણે ४८ ४२ छ (एवं खलु भते ! अहं अन्नया कयाई बाहिरियाए उहाण सालाए जाव विहरामि) 3 मत ६ मारनी ५स्थान मां मेही तो. (तएणं मम जगरगुत्तिया ससक्खं जाव उवणे ति) भास નગર રક્ષકે એક સાક્ષિત સહિત યાવતું એક ચોરને મારી સામે ઉપસ્થિત ध्या (तए णं अह तं पुरिसं जीवियानो ववरोबेमि) मे ते सारने भारी नाय.. ( ववरोवेत्ता अउकुंभीए पक्खिवावेमि अउमएणं पिहाणएणं पिहावेमि) મારીને તેને મેં લેખંડના નળામાં પોતાના માણસ નંખાવી દીધે (નાવે आयपच्चइएहिं पुरिसेहिं रक्खावेमि) यावत् ५छी में त्यो भाभ२६५ देने
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२३४
राजप्रश्नीयसूत्रे
उपागच्छामि तामयस्कुम्भीमुत्क्षेपयामि, तामयस्कुम्भी क्रमिकुम्मींमिव पश्यामि नैव खलु तस्याः कुम्भ्याः किञ्चित् छिद्रमिति वा यावद् राजिरिति वा यतः खलु ते जीवा बाह्याद् अनुप्रविष्टाः, यदि खलु तस्याः अयस्कुम्भ्याः भवेत् किञ्चित् छिद्रमिति वा यावद् अनुप्रविष्ठाः तदाऽहं श्रद्दध्यां यथा - अन्यो जीवः तदेव, यस्मात् खलु तस्या अयस्कुम्भ्याः नास्ति किमपि अन्नया क्याई जेणेव सा अउकुंभी तेणेव उवागच्छामि ) कुछ दिनों के बाद फिर मैं उस अयस्कुभी के पास गया (तं अयकुभि उग्गलत्थावेमि) उस अयस्कुंभी को उघाडा (तं अकुर्भि किमिकुभिंपिव पासामि, णो चेवणं तीसे अडकुंभीए केइ छिड्डेइ वा जाव राईइ वा जओ णं ते जीवा बहियाहिंतो अणुपविट्ठा) उघाडते ही मैंने उसमें देखा कि वहां उस अयस्कुभी में कृमिकुलों को देखा कि जिससे वह अयस्कुंभी कीटमयी हो रही थी. अब विचारने की बात यहां ऐसी है कि जब उस अयस्कु भी में न कोई छिन्द्र था यावत् न कोई रेखा ही थी, कि जिससे होकर वे जीव उसमें बाहिर से आये (जड़णं तीसे अउकु भीए होजा केइ छिड वा जाव अणुपविट्ठा) यदि उसमें कोई छिन्द्रादि होता तो यह बात मान भी ली जाती कि वे उनमें होकर उसमें प्रविष्ट हो गये हैं (तो णं अहं सह हेज्जा - जहा - अन्नो जीवो तं चेव, जम्हाणं तीसे अडकुंभीए णत्थि के छिड्डेइ वा जाव अणुष्पविद्या तम्हा सुपइइट्टिया मे पइण्णा जहा-तं जीवो गोठवी हीधा. (तए णं अहं अन्नया कयाई जेणेव सा अडकुभी तेणेव उवागच्छामि ) थोडा દિવસે બાદ હું ફરી તે લેાખંડના નળાની પાસે ગયા (तं अयकुंभि उगलत्थावेमि) ते सोडना नजाने उघाडये। अयकुभिं किमिकुभिं पिव पासामि, णो चेव णं तीसे अडकु भीए htछि बा, जावई वा जओ णं ते जीवा बहिया हिंतो अणुपचिट्ठा) ઉદ્દઘાટિત કરતાંની સાથે જ મે' તે લેાખંડના નળામાં કૃમિકુલાને જોયા—તે નળે કીયુકત થઈ ગયા હતા. હવે આ વાત વિચાર કરવા યાગ્ય છે કે જ્યારે નળામાં કાઈ પણ છિન્દ્ર યાવત્ કોઈ પણ રેખા (તરાડ) નહાતી કે જેથી તે જીવા મહારથી तेभां प्रविष्ट थ शडे (जइणं तीसे आउकु भीए होजा केइ छिड्डड्इ वा जान अणुष्पविट्ठा) ले तेमां छिद्र वगेरे होत ते! यावी वात मानवामां पण भावी शडे तेमां थने ते नणाम उभियो प्रविष्ट थयां छे. (तो णं अहं सदहेजा - जहा - अन्नो जीवो तं चेव, जण्हाणं तीसे अउकुंभीए णत्थि केइ छिड्डे वा जाव अणुष्पविठ्ठा तम्हा सुपइडिया मे पइण्णा जहा तं जीवो तं सरीरं
(तं
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सुबोधिनी टोका सू. १३७ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् २३५ छिद्रमिति वा यावद् अनुपविष्टाः, तस्मात सुप्रतिष्ठिता मे प्रतिज्ञा यथा तज्जीवः स शरीरं तदेव ॥ सू० १३७ ॥
'तए णं पएसी राया' इत्यादि
टीका--ततः खलु प्रदेशी राजा पुनः केशिकुमारश्रमणम् एवं. मवादीत् हे भदन्त ! एषा-भवदुक्ता उपमा दृष्टान्तः प्रज्ञाता=बुद्धिविशे. पात, बुद्धिविशेषजन्या अस्ति, किन्तु अनेन-वक्ष्यमाणेन पुनः कारणेन मे-मम मनसि जीवशरीरयो मेंद: नोपागच्छति न संगच्छते युक्तियुक्तो नो प्रतिभातीत्यर्थः । तदेव दर्शयति-हे भदन्त ! एवम्-इत्थं खलु अहम् अन्यदा कदाचित्-अन्यस्मिन् कस्मिंश्चित्काले बाह्यायाम् उपस्थानशालायां यावत्-यावत्पदेन-अनेकगणनायकादिभिः सार्द्ध संपरित्तो विहरामि, ततः तदा खलु मम नगर गुप्तिका:-नगररक्षकाः-ससाक्षिक-साक्षिसहितम्, यावत्-याव. त्पदेन-सहोढादिविशेषणविशिष्ट' चोरम् उपनयन्ति-उपस्थापयन्ति, ततः खलु अहं तं-पूर्वोक्त चोरं जीवितात् व्यपरोपयामि-प्राणरहितं करोमि, व्यपरोप्य मारयित्वा अयस्कुम्भ्यां प्रक्षेपयामि-स्वपुरुष निधापयामि, प्रक्षेपितचोरां तामयस्कुम्भीम् अयोमयेन-लोहमयेन पिधानेन पिधापयामि-आच्छादयामि, यावत् यावत्पदेन-अयसा च त्रपुणा च अङ्कयामि, आत्मपत्ययिकः-स्ववि. तं सरीरं चेव) और इसी कारण मैं भी यह श्रद्धा करता हूँ कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है। जिस कारण से उस अयस्कुभी में कोई छिद्र आदि नहीं थे. फिर भी उसमें जीव आ गये तो इस कारण से मैंतो यही विश्वास करता हूँ कि मेरा कथन कि जीव शरीर रूप है और शरीर जीवरूप है सुप्रतिष्ठित हैं।
टीकार्थ इस मूलार्थ के जैसा ही है, यहां 'उवट्ठाणसालाए जाव' के इस यावत् पद से पूर्वोक्त अनेक गणनायक आदिकों का ग्रहण हुआ है । तथा 'ससक्खं जाव' के इस यावत्पद से सहोढा दिविशेषणों का ग्रहण જેવ) અને એથી જ મને પણ આ વાતમાં ફરી શ્રદ્ધા છે કે જીવ અન્ય છે અને શરીર અન્ય છે. જે કારણથી તે લોખંડના નળામાં છિન્દ્ર વગેરે નહોતા છતાંએ તેમાં જ પ્રવેશ પામ્યા તે કારણથી મને તો એ જ લાગે છે કે જીવ શરીર રૂપ છે. અને શરીર જીવરૂપ છે. એ કથન પર મારે સંપૂર્ણપણે વિશ્વાસ સુપ્રતિષ્ઠિત છે.
मा सूत्रन टी भूतार्थ प्रभारी ४ छे. मी 'उवट्ठाणसालाए जाव' ના આ “યાવત્' પદથી પૂર્વોકત અનેક ગણનાયક વગેરેનું ગ્રહણ થયું છે. તથા 'ससक्खं जाव' in all यावत्पथी सडdule विशेषणानु अ ययु छ. 'पिहा.
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राजप्रश्नीयसूत्रे श्वासयात्रैः पुरुषैः रक्षयाम, ततः खलु अहम् अन्यदा कदाचित यत्रैव-यस्मिन्नेव स्थाने सा-सुरक्षिता अधम्कुम्भी तत्रैव-तस्मिन्नेव स्थाने उपागच्छामितदन्तिकं गच्छामि, गत्वा ताम् उत्क्षेपयामि-उद्घाटयामि । तामयम्कुम्भो कृमिकुम्भीमिव कीटमयीमेव-कुम्भी पश्यमि नैव खलु तम्याः-सुरक्षितायाः अयम्कुम्भ्याः किञ्चित्-किमपि छिद्रमिति वा यावत्-विवरं अन्तरम् राजिवानास्ति यता-यस्मात-छिद्रादेः ते कृमिजीवाः बाह्यात-बाह्यपदेशात् अनुः पविष्टा:-अभ्यन्तरे प्रविष्टा भवेयुः । यदि-चेत् खलु तस्याः-सुरक्षितायाः, अयस्कुम्भ्याः भवेत्-स्यात् किञ्चित् छिद्रम् यावद् विवरादिकं भवेत, यतस्ते जीवाः बाह्यप्रदेशा अनुपविष्टाः स्यु तदा खलु अहं श्रद्दध्यां-तव वचने विश्वस्याम्, अन्यो जीवः तदेव-पूर्वोक्तमेव अन्यो जीवः अन्यच्छरीरं नो तज्जीवः स शरोरम इति । यस्मात्-कारणात खलु तस्याः-सुरक्षितायाः अय. स्कुम्भ्याः नास्ति किञ्चित् किमपि छिद्रादिकं यतन्ते जीवाः बाह्यप्रदेशात अनुमविष्टिाः स्युः तस्मात् मे-मम प्रतिज्ञा-स्वीकारः सु तिष्ठिता-स्थिरा थथा--तज्जीवः स शरीर तदेव-पूर्वोकमेव नो अन्यो जीवोऽन्यच्छरीरम् इति ॥ सू० १३७ ॥ __ मूलम-तए णं केसीकुमारसमणे पएसि रायं एवं वयासी ! अस्थिणं तुमे पएसी कयाइ अएधंतपुव्वे वा धमावियपुव्वे वा ? हंता अस्थि,से णूणं पएसी! अएधते समाणे सव्वे अगणिपरिणए भवइ,? हंता भवइ, अस्थिणं पएसी तस्स अयस्स केइ छिड्डइ वा जेणं से हुआ है। 'पिहावे मि जाव' में आये हुए इस यावत्पद से 'द्रवित लोहे से
और द्रवितरांग से मैंने उसे अत्यन्त करवा दिया' इस पूर्वोक्त पाठ का ग्रहण हुआ है। इस सूत्र का भावार्थ ऐसा है कि जब कि उस अयस्कुमी में किसी भी प्रकार का कोई भी छिद्रादि नहीं था तो उसमें बाहर से जीव कैसे प्रविष्ट हो गये, वहां तो केवल चोर का ही वह मृत शरीर पडा था अतः जीव और शरीर भिन्न २ नहीं है यही कथन समुचित है ।स्. १३७/ वेमि जाव' मां पास यावत् ५४थी द्रवित माथी भने प्रवित गाथी में तेन અંકિત કરાવી દીધા આ પાઠનું ગ્રહણ થયું છે. આ સૂત્રને ભાવાર્થ આ પ્રમાણે છે કે જ્યારે તે લેખંડના નળામાં કોઈપણ છિદ્ર વગેરે ન હોતા છતાંએ તેમાં બહારથી જી કેવી રીતે પ્રવેશ પામ્યા. ત્યાં તે ફકત ચારનું મૃત શરીર પડયું હતું એથી જીવ અને શરીર ભિન્ન નથી, આ વાત સમુચિત છે. સૂ.૧૩
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सुबोधिनी टीका सू. १३८ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशोराजवर्णनम् २३७ जोई बहियाहिंतो अंतो अणुप्पविटे ? णो इणटे समटे एवामेव पएसी ! जीवोऽवि अप्पडिहयगई पुढवि भिच्चा सिलं भिच्चा बहियाहितो अणुप्पविसइ, ते सदहाहि णं तुमं पएसी ! तहेव ।सू० १३८॥
छाया-ततः खलु केशीकुमारश्रमणः प्रदेशिनं राजानमेवमवादीत् अस्ति खलु त्वया प्रदेशिन् ! कदाचिद् अयोध्मातपूर्व वा ध्मापितपूर्व वा १ हन्त अस्ति, स नूनं प्रदेशिन ! अयोध्मातं सत् सर्व अग्निपरिणतं भवति ? हन्त भवति, अस्ति खलु पदेशिन् ! तस्य अयसः किन्चित् छिद्र. मिति वा येन तत् ज्योतिः बाह्यात् अन्तग्नुपविष्टम् नो अयमर्थः समर्थः, 'तए णं केसीकुमार समणे' इत्यादि।
सूत्रार्थ--(तए णं) इसके बाद (केसीकुमारसमणे पएसिं रायं एवं वयासी) केशीकुमार श्रमण ने प्रदेशी राजा से ऐसा कहा (आत्थि णं भंते ! पएसी ! कयाइ अएपंतपुवे वा धमावियपुत्वे वा) हे प्रदेशिन् । तुम्हारे पास ऐसा लोहा है कि जिसे तुमने पहिले कभी अग्नि में तपाया हो या किसी से तपवाया हो ? (हता अत्थि) हां भदन्त ! है (से गूणं पएसी अएघते समाणे सव्वे अगणि परिणए भवइ) तो हे प्रदेशिन् मैं तुमसे ऐसा पूछता हूं कि वह लोहा जब अग्निमें तपाया जाता हैं तब वह सम्पूर्णरूपसे अग्निरूप से परिणत हो जाता है न ? (हंता ? भवह ) प्रदेशीने कहा हां हो जाता है ( अस्थि णं पएसी ! तस्स अयस्स केइ छिड्डेइ वा जेणं से जोई बहियाहिंतो अंतो अणुप्पविढे?)
'त एणं केसीकुमारसमणे' इत्यादि ।
सूत्रा---(त एणं) त्या२ पछी (केसीकुमारसमणे पएसि रायं एवं क्यासी) शीमा२ श्रमो प्रदेशी राजने 24 प्रमाणे धु-(अस्थि णं भंते ! पएसी ! कयाइ अएपंतपुठवे वा धमाविय पुरवे वा) है प्रहशिन ! तभाश पासे मे ५४ सोम छे. रेने पडे मे त्यारे ADIH अनु ज्यु ४२।०यु डाय ? (हंता अत्थि) डा0 मत ! छे. (से गूणं पएसी अएघंते समाणे सत्वे अगणि परिणए भवइ ?) हे प्रशिन ! हुँ तभने माम प्रश्न
सोम જ્યારે અગ્નિ પર તપાવવામાં આવે છે. ત્યારે તે સંપૂર્ણ પણે અગ્નિ રૂપમાં પરિણુત २४ तय छे. (हंता भवइ) प्रशान्ये उत्तम प्रधु डा, मत थ६ नय छे. (अस्थिणं पएसी ! तस्स अयस्स केई छिड़ेइ वा जेणं से जोई बहियाहिंतो अंतो अणुप्पविद्वे ?) तो शु प्रहशिन ! ते समभा छिडोय छ रेया
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% 3Dम्म्म
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राजप्रश्नीयसूत्र एवमेव प्रदेशिन्। जीवोऽपि अप्रतिहतगतिः पृथिवीं भित्त्वा शैलं भिवा वाहयात् अनुपविशति, तत् श्रद्धेहि खलु त्वं प्रदेशिन् ! तथैव ४ ॥ सू० १३८ ।
'तए णं केसीकुमारसमणे' इत्यादि।।
टीका-ततः खलु केशीकुमारश्रमणः प्रदेशिनं राजानम् एवम्-वक्ष्यमाणं वचनम् अवादी हे प्रदेशिन् ! त्वया कदाचित्-कस्मिश्चित्काले अयो-लोहं ध्मातपूर्व पूर्व मातम् अग्निना संयोजितम् ? वा अथवा ध्मापितपूर्व-पूर्व केनचित्पुरुषेण ध्मापितम् अस्ति ? इति प्रश्नः, प्रदेशीप्राह-हन्त अस्ति । केशी पृच्छति-हे प्रदेशिन् ! तद्अयः लोहं नूनं निश्चितम् ध्मातं सत् सर्व अग्नि परिणतम्-अग्निस्वरूपतया परिणतं भवति । प्रदेशीमाह-हन्त भवति ! पुनः केशीपृच्छति हे प्रदेशिन् ! तस्य अयसः-लोहस्य, किञ्चित्-छिद्रमिति वा० छिद्रादिकम् अस्ति ? येन-कारणेन तत् ज्योतिः-अग्निः बाह्यात् बहि:तो क्या हे प्रदेशिन् ! उस लोहे में कोई छिन्द्र होता है कि जिससे होकर वह अग्नि बाहर से उस के भीतर घुस जाती है ? प्रदेशीने कहा(णो इणढे समढे) हे भदन्त ! यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् उस लोहे में कोइ भी छिद्रादिक नहीं है। (एवामेव पएसी ! जीवोऽवि अप्पडिहयगई पुढवि भिच्चा, सिल भिच्चा, बहियाहिंतो अणुष्पविसइ, तं सहहाहितमं पएसी तहेव) इसी तरह से हे प्रदेशिन् ! जीव भी अपतिहतगतिवाला है अतः वह पृथिवी को शिला को भेदकर बहिःप्रदेश से भीतर में घुस जाता है इस कारण हे प्रदेशिन् ! तुम मेरे वचन पर विश्वास करो कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है ।४।
टीकार्थ स्पष्ट है. इस सूत्र का भावार्थ ऐसा है कि जिस प्रकार छिद्रा दिसे रहित लोहे के गोले में अग्नि बाहर से उसके प्रत्येक प्रदेश में
अनि महारथी तभा प्रविष्ट 45 14 छ ? प्रदेशी से पु. (जो इण? समटे) ભદન્ત! આ અર્થ સમર્થ નથી એટલે કે તે લેખંડમાં કોઈ પણ છિન્દ્ર વગેરે નથી. (एवामेव पएसी! जीवोऽवि अप्पडिहयगई पुढविं भिच्चा बहियाहिती अणुप्पविसइ, तं सदहाहि णं तुमं पएसी तहेव ) प्रभारी है प्रहशिन 04 પણ અપ્રતિહત ગતિયુક્ત હોય છે એથી તે પૃથિવીને, શિલાને છેદીને બહારના પ્રદેશથી અંદરના પ્રદેશમાં પેસી જાય છે. આ કારણથી હે પ્રદેશિન્ ! તમે મારી વાત પર વિશ્વાસ કરે કે જીવ ભીન્ન છે. અને શરીર ભિન્ન છે. આ સૂ. ૪
ટીકાથ-સ્પષ્ટ જ આ સૂત્રને ભાવાર્થ આ પ્રમાણે છે કે જેમ છિદ્ર વગેરેથી સહિત લોખંડમાં અગ્નિ બહારથી તેના દરેકે દરેક પ્રદેશમાં પ્રવિષ્ટ થઈ જાય છે
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सुबोधिनी टीका सू. १३८ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशीराजवर्णनम् २३९ प्रदेशात् अन्तः-अयसोऽभ्यन्तरप्रदेशे अनुपविष्टं स्यात् ? प्रदेशी कथयति नायमर्थः समर्थः नास्ति तत्र छिद्रादिकमित्यर्थः । केशीमाह-हे प्रदेशिन् ! एव मेव-छिद्रादि विनाऽपि तज्ज्योतिषोऽयोऽभ्यन्तरेऽनुपवेशवदेव जीवोऽपि अपति. हतगतिः अकुण्ठितगतिः पृथिवीं भित्वा शिलां-पस्तरं भित्वा बाह्यात् -बहिः प्रदेशात् अन्तरनुपविशति, तत्-तस्मात् कारणात् हे प्रदेशिन ! त्वं श्रद्धेहि मद्धचने विश्वसिहि तथैव पूर्वोक्तमेव अन्यो जीवोयन्यच्छरीरम् नो तज्जीवः सशरीरम्' इति ।। सु० १३८॥
मूलम्-तए णं पएसी राया केसिकुमारसमणं एवं वयासी -अस्थि णं भंते ! एसा पण्णाओ उवमा इमेण पुण मे कारणेणं नो उवागच्छइ, अस्थि णं भंते ! से जहानामए केइपुरिसे तरुणे जाव निउणसिप्पोवगए पभू पंच कंडगं निसिरित्तए ! हंत पभू ! जइ णं भते ! से चेव पुरिसे बाले जाव मंदविन्नाणे पभू होजा पंच कंडगं निसिरित्तए, तो णं अहं सदहेजा जहा-अन्नो जीवो तं चेव, जम्हा णं भते ! से चेव पुरिसे वाले जाव मंदविन्नाणे णो पभू पंच कंडयं निसिरित्तए तम्हा सुप्पइटिया मे पइण्णा जहा तं जीवो तं चेव ॥ सू० १३९॥ __ छाया-ततः खलु प्रदेशी राजा केशीकुमारश्रमणमेवमवादीत् अस्ति खलु प्रविष्ट हो जाती है, और इस कारण वह अग्निमय बन जाता है. इसी प्रकार से उस लोहे की टंकी में भी छिद्रादिक के अभाव में भी बाहर से जीव प्रविष्ट हो जाते हैं क्यों कि जीव अकुण्ठित गतिवाला है, इसकी गति कहीं पर भी नहीं रुक सकती है ॥ सू० १३८ ॥ ___ 'तए णं पएसी राया' इत्यादि ।
सूत्रार्थ-(तए णं पएसीराया केसिकारसमणं एवं क्यासी) तब प्रदेशी राजाने અને આથી તે અગ્નિમય થઈ જાય છે. તેમજ તે લોખંડનાં નળા (કાઠી) માં છિદ્ર વગેરે ન હોવાં છતાંએ બહારથી છે પ્રવિષ્ટ થઈ જાય છે. કેમકે જીન અપ્રતિહલ ગતિવાળે છે. એટલે કે જીવની ગતિ કેઈ પણ જગ્યાએ રિકી શકાતી નથી. તેની ગતિ અંકુકિત છે. સૂત્ર ૧૩૮ !
'तए णं पएसी राया' इत्यादि। सूत्रार्थ-(तए णं पएसी राया केसिकुमारसमणं एवं वयासी) त्यारे
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२४०
राजप्रश्नीयसूत्रे
भदन्त ! एषा प्रज्ञात उपमा अनेन पुनः मे कारणेन नो उपागच्छति, अस्ति खलु भदन्त ! स यथानामकः कश्चित् पुरुषः तरुणः यावतू निपुणशिल्पोपगतः प्रभुः । पञ्च काण्डकं निस्रष्टुम् ? हन्त प्रभुः! यदि खलु भदन्त ! स एव पुरुषो बालः यावत् मन्दविज्ञानः प्रभुर्मवेत् पञ्चकाण्डकं निस्रष्टुम, तदा खलु अहं श्रद्दध्यां यथा-अन्यो जीवः तदेव, यस्मात् खलु भदन्त ! स
केशीकुमार श्रमण से ऐसा कहा (अस्थि णं भंते ! एसा पण्णाओ उवमा) हे भदन्त ! यह जो आपने उपमा दी हैवह केवल बुद्धि विशेष से जन्य होने के कारण वास्तविक नहीं है (इमेण पुण मे कारणेणं नो उवागच्छइ) क्यों कि जो कारण मैं प्रदर्शित कर रहा हूं उससे मेरे हृदय में जीव और शरीर का भेद जमता नहीं है। (अस्थि णं भंते ! से जहा नामए केइ पुरिसे तरूणे जाव निउणसिप्पोवगए पभू पंचकंडगं निसिरित्तए) वह कारण ऐसा है-हे भदन्त ! जैसे कोइ युवापुरूष हो यावत् वह निपुणशिल्पोपगत हो, तो वह पांचवाणों को एक ही साथ पांच लक्ष्योंको वेधने के लिये छोडने में समर्थ हो सकता है न ? (हंता पभू) केशीकुमार श्रमणने कहा--हां हो सकता है। (जइ णं भंते ! से चेव पुरिसे वाले जाव मंदविन्नाणे पभू होजा पंच कंडग निसिरित्तए) अब यदि वही पुरुषबाल, यावत् मन्दविज्ञान वाला अपनी अवष्यापन्न हुआ पांचकाण्डकको-पांचवाणों को छोड़ने के लिये समर्थ हो जावे तो मैं आपके वचनों को श्रद्धा के विषयभूत बनाउ और यह मानलू कि जीव भिन्न है और शरीर भिन्न है, जीव शरीर रूप नहीं
अशी २०१ये उशीभाभराने प्रमाणे ४थु (अस्थिणं भंते ! एसा पण्णाभो उवमा) लत ! 24 प्रमाणे रे तमाये ७५मा माथी छे. ते मात्र मुद्धिविशेष न्य वाथी पास्तव नथी. (इमेण पुण मे कारणेणं नो उवागच्छइ) भ જે કારણ હું બતાવી રહ્યો છું તેથી મારા હૃદયમાં જીવ અને શરીરની ભિન્નતાની વાત
मा नथी. (अस्थि णं भंते ! से जहानामए केइपुरिसे तरुणे जाव निउणसिप्पोवगए पभू पंच कंडगं निसिरित्तए ते ॥२५॥ २॥ प्रमाणे छ. है ભદૂત! જેમ કેઈ યુવક હોય યાવતુ તે નિપુણશિપગત હોય, તે તે પાંચ બાણને सेही साथे पांय सक्ष्यानु वेधन ४२वामी समर्थ थ६ शछ?(हंता पभू) शोभा२ अभो यूं , थ, श छे. (जइ णं भंते ! से चेव पुरिसे वाले जाव मंदविन्नाणे पभू होज्जा पंच कंडगं निसिरित्तए) ने ते युव माण, यावत् મંદવિજ્ઞાનવાળે પિતાની અવસ્થાપન્ન થયેલ પાંચકાંડને-પાંચ બાણને છોડવામાં સમર્થ થઈ જાય તે હું તમારા વચનોને શ્રદ્ધા ગ્ય માની શકું તેમ છું અને આ
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सुबोधिनी टीका. सूत्र १३९ सूर्याभदेवस्य सूत्र भवजीवप्रदेशिराजवणम्
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एव पुरुषो बालः यावत् मन्दविज्ञानो नो प्रभुः प वकाण्डकं निसटुन तस्मात सुपतिष्ठिता मे प्रतिज्ञा यथा-तज्जीवः तदेव ।। सू० १३९ ॥
टीकार्थ-'तए णं पएसी राया' इत्यादि।
ततः-तदनन्तरं खलु प्रदेशी राजा के शिकुमारश्रमणम् एवम्-अनेन प्रकारेण अवादीत्-हे भदन्त! एषा-इयम् उपमा-सादृश्यम् प्रज्ञात: बुद्धिविशेषाद् अस्ति न तु वास्तविकी यतः अनेन-वक्ष्यमाणेन पुन: कारणेन जीवशरीरयो दो मे-मम हृदये नोपागच्छति-न संगच्छते न स्वीकारयोग्यतामहति । तदेव दर्शयति-हे भदन्त ! अस्ति--भवेत् खलु स यथा नामकः अनिर्दिष्टनामा कश्चित् पुरुषः कीदृशः ? इत्याह-तरुणः-युवा यावत् -यावत्पदेन-"युगवान् बलवान् अल्पातङ्कः स्थिरसंहननः स्थिराग्रहस्तः प्रति. है, और शरीर जीवरूप नहीं है। अतः हे भदन्त ! जिस कारण से वह तरूणादि विशेषणों वाला पुरूष जब बाल यावत् मन्दविज्ञानवाला होता हे, तब पांच वाणों को छोड़ने के लिये समर्थ नहीं होता है इस कारण से मेरी यह प्रतिज्ञा है कि जीव और शरीर एक है, जो जीव है, वही शरीर है और जो शरीर है वही जीव है सुपतिष्ठित है।
टीकार्थ-बाद में प्रदेशी राजाने केशीकुमार श्रमण से ऐसा कहा हे भदन्त ! आपने जो अभी उपमा देकर जीव और शरीर की पृथक्ता प्रकट की है सो जब मैं अपनी इस बात का विचार करता हूँ तब यह उनकी पृथक्ता मेरे चित्त में नहीं जमती है, वह बात इस प्रकार से है-जैसे कोई एक तरूण पुरूष हो और यावत वह निपुणशिल्पोपगत हो यहां यावत् पद से 'युगवान् बलवान्. अल्पातङ्कः स्थिर संहननः स्थिराવાત પર વિશ્વાસ કરી લઉં કે જીવ ભિન્ન છે અને શરીર ભિન્ન છે. જીવ શરીર રૂપ નથી અને શરીર જીવ રૂપ નથી. એથી હે ભદંત ! જે કારણને લીધે તે તરુણ વગેરે વિશેષણોથી યુકત યુવક જ્યારે બાળ યાવત મંદવિજ્ઞાનવાળા હોય છે, ત્યારે તે પાંચ બાણને છોડવામાં સમર્થ હોતો નથી. આથી જ મારી જીવ અને શરીર એક છે. જે જીવ છે તે જ શરીર છે અને જે શરીર છે તે જ જીવ છે આ પ્રતિજ્ઞા સુપ્રતિષ્ઠિત છે.
ટીકાર્ય–ત્યાર પછી પ્રદેશી રાજાએ કેશીકુમાર શ્રમણને આ પ્રમાણે કહ્યું છે ભદત ! તમેએ જે હમણા ઉપમા વડે જીવ શરીરની પૃથતા પ્રકટ કરી છે તે વિષે હું જ્યારે મારા મનમાં વિચાર કરું છું ત્યારે આ વાત મારા મનમાં બરાબર જામતી નથી. કેમકે જેમ કે એક તરુણ પુરુષ થાય અને યાવત તે નિપુણ શિલ્પગત થાય ons यावत' ५४थी 'युगवान, बलवान, अल्पात :, स्थिरसंहननः, स्थिरा
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राजप्रश्नीयसत्रे पूर्णपाणिपादपृष्ठान्तरोरुपरिणतः घननिचितवृत्तवलितस्कन्धः चमेंप्टकदुघण. मुष्टिकसमाहतगात्र: उरस्यबलसमन्वागतः तलयमलयुगमबाहुः लवनप्लवन जवनप्रमई नसमर्थः छेकः दक्षः मष्ठः कुशलः मेधावी इत्येतेषां पदानां सङ्ग्रहः, निपुणशिल्पोपगतः, एतद्व्याख्या सप्तमसूत्रतो बोध्या । एतादृशः पुरुषः पञ्चकाण्डकं बाणपश्चक युगपत् पञ्चलक्ष्यवेधनाय निस्रष्ट-प्रक्षेप्तप्रभुः-समर्थों भवेत् ? इति प्रदेशिपश्न: केशीमाह-हे राजन् ! हन्त ! प्रभुः पञ्चकाण्डक प्रक्षेप्तुं स समर्थो भवेत् ? प्रदेशो कथयति हे भदन्त ! यदि चेत् खलु ग्रहस्तः, प्रतिपूर्णपाणिपादपृष्ठान्तरोरुपरिणतः, घननिचितवृत्तवलितस्कन्धः, चमें ष्टकद्रुघणमुष्टिकसमाहतः गात्रः, उरस्यबलसमन्वागत: तलयमलयुगलबाहः, लखनप्लवनजवनप्रमई नसमर्थः छेकः, दक्ष, पृष्ठः, कुशलः, मेधावी" इस पाठ का संग्रह हुआ है। इन पदों की व्याख्या सातवें सूत्रों को जा चुकी है अतः वहीं से इसे देखना चाहिये. ऐसा वह पुरुष पांच वाणों को एक साथ पांचलक्ष्यों को वेधन करने के लिये हे भदन्त ! छोडने में समर्थ हे सकता है न ? केशीकुमार श्रमणने तब कहा हे राजन् ! ऐसा पूर्वोक्त विशेषणों वाला वह युवा पुरुष एक साथ पांचवाणों को छोडने में समर्थ हो सकता है परन्तु हे भदन्त ! जब वही पुरुष वाल यावत् मन्दविज्ञानवाला होता है तब पांच वाणों को एक साथ पांचलक्ष्यों को वेधन करने के लिये छोड़ने में समर्थ नहीं होता है. यदि वह ऐसा करने में समर्थ होता तो मैं आपकी इस बातको कि जीव भिन्न है
और शरीर भिन्न है तथा जीव शरीररूप नहीं है शरीर जीवरूप नहीं ग्रहस्तः, प्रतिपूर्णपाणिपादपृष्ठान्तरोरूरिणतः, धननिचितवृत्तवलितस्कन्धः, चमेष्टकद्रुधणमुप्टिकसमाहतगात्र, उरस्यबलसमन्वागतः तलयमल युगलबाहुः, लखनप्लवनजवनप्रमई नसमर्थः, छेकः, दक्षः पृष्ठः कुशल: मेधावी" मा पानी सड थये। छ. २॥ अधा पहानी व्याच्या सातमा सूत्रमा કરવામાં આવી છે. એથી જિજ્ઞાસુઓ ત્યાંથી જાણી લેવા પ્રયત્ન કરે. એવા તે યુવક ને પાંચ બાણોને એકી સાથે એકજ લક્ષ્યપર છોડીને હે ભદંત શું તે લક્ષ્યધનમાં સફળ થશે ? કેશીકુમાર શ્રમણે આ સાંભળીને કહ્યું કે રાજન એ તે પૂર્વોકત વિશેષણોથી યુકત તે યુવક એકી સાથે પાંચ બાણેને છોડવામાં સમર્થ થઈ શકશે. પણ હે ભદંત ! જ્યારે તે યુવક બાળ યાવત્ મંદ વિજ્ઞાન સંપન્ન હોય છે. ત્યારે તે પાંચ બાણે વડે એકી સાથે પાંચ લનું વેધન કરવામાં સફળ થશે નહિ. જે તે એવું કરી શકતા હોય તે હું તમારી જીવ ભિન્ન છે અને શરીર ભિન્ન છે તેમજ જીવ શરીર રૂપ નથી અને શરીર જીવરૂપ નથી,
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सुबोधिनी टीका सू. १३९ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् स एव पुरुषः बालः-यावत् यावत्पदेन- अयुगवान् अबलवान आतङ्कः अस्थिरसंहनना, अस्थिराग्रहस्तः अप्रतिपूर्णपाणि पादपृष्ठान्तरोरुपरिणतः अघन निचितवृत्तवलितस्कन्धः, अचमें ष्टकद्रुघणमुष्टिकसमाहतगात्रः उरस्यवलाऽसम न्वागतः अतलयमलयुगलबाहुः लखनप्लवनजवनप्रमईनासमर्थः अच्छेकः अद क्षः अप्रष्ठः अकुशलः अमेधावी” इत्येषां संग्रहो बोध्या, एषामपि व्याख्या वैपरीत्येन सप्तमसूत्रतो बोध्या, मन्दविज्ञान:-अल्पकौशलः, एतादृशः स यदि पञ्चकाण्डकं निस्रष्टु-प्रक्षेप्तु प्रभुः-समर्थो भवेत् तदा खलु अहं श्रद्धध्यांतव वचनं श्रद्धाविषयीकुर्याम्, यथा-अन्यो जीवः तदेव-पूर्वोक्तमेव-अन्यच्छ. रीरम् नो तज्जीवः स शरीरम्, इति,। हे भदन्त ! यस्मात कारणात खलु यस्तरुणादिविशेषणविशिष्टः स एव यदा बालः यावद् मन्द विज्ञानो भवेत् तदा न पञ्चकाण्डकं निस्रष्टुं प्रभुः-समयों भवति तस्मात् सुप्रनिष्ठिता-समुचिता मे प्रतिज्ञा यथा-तज्जोवः, तदेव-पूर्वोक्तमेव तच्छरीरम् नो अन्यो जीवः अन्याछरीरम् इति ॥ सु. १३९ ॥ है श्रद्धा का विषय कर लेता "बालः यावत्" में यावत् पद से "अयु. गवान्, अबलवान् , सातङ्कः अस्थिरसंहननः, अस्थिराग्रहस्तः, अप्रतिपूर्ण पाणिपादपृष्ठान्तरोरुपरिणतः, अघतनिचितबत्तवलितस्कन्धः, अचमें ष्टकदुदुघण. मुप्टिकसमन्वागतगात्रः, उरस्थबलासमन्वागतः, अतलयमलयुगलबाहुः. लङ्घनप्लवनजवनप्रमईना समर्थः अच्छेकः, अदक्षः, अपृष्ठ, अकुशलः, अमेघावी" इनपदों का संग्रह हुआ है इसकी व्याख्या सातमें सूत्र से निषेधार्थपरक रूप में करनी चाहिये. तात्पर्य कहने का इस सूत्र का यही है कि उस युवा पुरुष का और बाल पुरुष का वही शरीर और वही जीव है उसमें कोई भिन्नता नहीं है, भिन्नता केवल उपकरणों में है क्यों कि जो बालपुरुष
मा वात ५२ विश्वास ४ी देत. 'बालः यावत' मा 'यावत्' ५४थी 'अयुगवान, अबलवान, सातङ्कः, अस्थिरसंहननः, अस्थिराग्रहस्तः, अप्रतिपूर्णपाणिपाद. पृष्ठान्तरोरुपरिणतः, अधननिचितवृत्तवलितस्कन्धः अचमें ष्टकद्रुधगमुष्टिकसमन्वागतगात्रः, उरस्यबलासमन्वागतः, अतलयमलयुगलबाहु, लधनः प्लवनजवनप्रमईनासमर्थः, अच्छेकः अदक्षः, अपष्ठ: अकुशलः, अमेधावी “આ પદને સંગ્રહ થયેલ છે. આ પદેની વ્યાખ્યા સાતમા સૂત્રમાંથી નિષેધાર્થક રૂપે કરવી જોઈએ. મતલબ આ પ્રમાણે છે કે તે યુવા પુરૂષને તેમજ બાલ પુરૂષનો તેજ જીવ છે. તેમાં કેઇ ભિન્નતા નથી. ભિાનતા તે છે ફકત ઉપકરણમાં છે.
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राजनीयसूत्रे
मूलम-तए णं केसीकुमारसमणे पएसिं रायं एवं वयासी से जहानामए केइ पुरिसे तरूणे जाव निउणसिप्पोवगए नवएणं धानवियाए जीवाए नवएणं इसुणा पभू पंचकंडग निसिरितए ? तापभू ! सो चेव णं पुरिसे तरुणे जाव निउणसिप्पोवगए कोरिलिएणं धणुणा कोरिल्लिया ए जीवाए कोरिद्धि एवं इसुणा पभू पंचकडग णिसिरित्तए ? णो इणट्टे समट्ठे । कम्हा ? भंते ! तस्स पुरिसस्स अपजत्ताई उवगरणाई हवंति, एवामेव पएसी ! सो चैव पुरिसे बाले जाव मंदविन्नाणे अप जत्तोवगरणे, णोपभू पंचकंडयं निसित्तिए, तं सद्दहाहि णं तुमं पएसी ! जहा - अन्नो जीवो तं चैव ५ ॥ सू० १४० ॥
नवन
छावा -- ततः खलु केशीकुमारश्रमणः प्रदेशिनं राजानमेवमवादीत् स यथानामकः कश्चित् पुरुषः तरुणः यावत् निपुण शिल्पोपगतः धनुषा नविकया जीवया नवकेन इषुणा प्रभुः पञ्चकाण्डक निस्रष्टुम् ? था वही तो युवा हुआ है. अतः उस जीव में और उसके शरीर में भिन्नता कैसे मानी जा सकती है || सू० १३९ ॥
'तए णं केसीकुमारसमणे' इत्यादि ।
सूत्रार्थ - (तएण केसीकुमारसमणे पएसिं रायं एवं वयासी) इसके बाद केशीकुमार श्रमणने (पएस रायं एवं क्यासी) प्रदेशी राजा से इस प्रकार कहा ( से जहानामए केइ पुरिसे तरुणे जाव निउणसिप्पोवगए ) हे भदन्त ! जैसे कोई युवा पुरुष हो और वह यावत् निपुण शिल्पोपगत हो (णव एणं धणुणा नवियाए जीवाए नवएणं इसुणा पभू पंचक डग' निसिस्तिए) કેમકે ખાલ પુરૂષ હતા તેજ યુવા થયા છે. એથી તે જીવમાં અને તેના શરીરમાં ભિન્નતા કેમ કરીને માની શકાય ાસૂ॰ ૧૩૯મા
'त एणं केसीकुमारसमणे' इत्यादि ।
सूत्रार्थ :- ( एणं केसीकुमारसमणे पएसिं राय एवं वयासी) त्यार पछी देशी ठुभार श्रम (पएसि राय एवं वयासी) प्रदेशी राजने या प्रमाणे अधु . ( से जहानामए केइ पुरिसे तरुणे जाव निउण सिप्पोवगए ) हे महांत ! प्रेम अर्ध युवा यु३ष होय मने ते यावत् नियुण शिपोपगत होय, (णव एणं धणुणा नवियाए जीवाए नवणं इसुगा पभू पंचक'डग निसित्तिए) शेवते
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सुबोधिनी टीका. १४० सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिरजवर्णनम्
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हन्त ! प्रभुः स एव खलु पुरुषः तरुणः यावत् निपुण शिल्पोपगतः जिर्णेन धनुषा जीर्णया जीवया जीर्णेन इषुणा प्रभुः पञ्च काण्डक निस्रष्टुम । नायमर्थ सः मर्यः । कस्मात् भदन्त । तस्य पुरुषस्य अपर्याप्तानि उपकरणानि भवन्ति, एवमेव प्रदेशिन ! स एव पुरुषः बालो यावत् मन्दविज्ञानः अपर्या तोपकरणः नो प्रभुः पञ्चकाण्डकं निस्रष्टुम् तत् श्रद्धेहि खलु त्वं प्रदेशिन् ! यथा अन्य जीवस्तदेव ५ ।। सू० १४० ॥
ऐसा वह पुरुष नवीन धनुष से, नवीन प्रत्यञ्चा से, नवीन बाण से पांच बाणों को एक साथ पांच लक्ष्यों का वेधन करने लिये छोड़ने में समर्थ है क्या ? (हंता पभू) तब प्रदेशीने कहा -- हां, समर्थ होता है ( सो चेवणं पुरिसे तरुणे जाव निउणसिःपोरगए कोरिल्लिएणं धणुणा कोरिल्लिए जीवाए, कोरिल्लिएणं इसुणा पभू पंचक'डगं निसिस्तिए) पुनः केशीने पूछा- हे प्रदेशिन् ! यदि वही युवा पुरुष यावत् निपुणशिल्पोपगत बना हुआ जीर्ण धनुष्य से, जीर्ण प्रत्यञ्चासे जीर्ण बाण से पांच बाणों को छोडने के लिये समर्थ हो सकता है क्या ? प्रदेशीने कहा - ( णो इट्टे समट्ठे) हे भदन्त ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । केशीने पूछा - ( कम्हा) हे प्रदेशिन् ! इसमें क्या कारण हैं कि जिससे यह अर्थ समर्थ नहीं है । (भंते ! तस्स पुरिसस्स अपजत्ताई' उवरणाइ हवंति) प्रदेशी राजाने कहा हे भदन्त ! उस पुरुषके उपकरण अपर्याप्त हैं (एवामेव पएसी ! सो चेव पुरिसे बाले जाव मंदविन्नाणे अपज्जान्तोवगरणे, णो पभू पंचकंडयं निसिरित्तए, तं सद्दहाहि णं तुमं पएसी ! जहा- अन्नो जीवो तं चेव ५ )
પુરૂષ શું નવીન ધનુષ વડે, નવીન ખાણુ વડે પાંચ ખાણેાને એકી સાથે પાંચ લક્ષ્યા ना वेधन भाटे छोडवासां समर्थ होय छे ? (हंता पभू) त्यारे अहेशिन् रामखे उह्युं-हांल, समर्थ होय छे. ( सो चेव णं पुरिसे तरुणे जाव निउणसिप्पोवगए कोरिल्लिएणं धणुणा कोरिल्लयाए जीवाए, कोरिल्लिएणं इसुणा पभू पंच निसिरिए) इशी प्रश्न हे प्रदेशिन् ! ले ते युवा पुरुष
જી
ચાવત્ નિપુણશિલ્પોગત થઈને જીણુ ધનુષથી, પ્રત્યંચાથી, જીણુ બાણથી પાંચ मशीने छोड़वाभां समर्थ थर्ध शडे तेम छे ? प्रदेश मे उधुं. ( गो इणट्टे समह ) हे लहं'त ! आा अर्थ समर्थ नथी. ( भंते! तस्स पुरिसस्स अपज्जत्ताई' उवग रणाई हवं ति) अहेशी रामये धुंडे महंत ! ते ३षना उपर पर्याप्त नथी. ( एवामेव पएसी ! सो चैव पुरिसे बाले जाव मंद विन्नाणे अपज्जतोवगरणे, णो पभू पंच कंडय निसित्तिए, तं सद्दहाहि णं तुमं पएसी ! जहा-अन्नो जीवो तं चेक ५) त्यारे देशी उधु ! आ अमाशे ४ हे प्रदेशिन् ! ते ५३ष
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राजनीयसूत्रे
'तरणं केसी कुमारसमणे' इत्यादि ।
टीका - ततः खलु केशीकुमारश्रमणः प्रदेशिनं राजानम् एवमवादीत्-स यथानामकः कश्चित - कोऽपि पुरुषः - तरुणः यावत् - यावत्पदेन - "युगवान् बल वान् अल्पातङ्कः स्थिराग्रहस्तः प्रतिपूर्णपाणिपादपृष्ठान्तरोरुपरिणतः घन निचितवृत्तवलितस्कन्धः चर्मेष्टक दुघणमुष्टिकसमाहतगात्रः उरस्पबलसम न्वागतः तलयमलयुगलबाहुः लङ्घनप्लवनजवनप्रमर्दनसमर्थः छेकः दक्षः तब केशीने कहा - इसी तरह से प्रदेशिन | वही पुरुष जब बाल यावत् मन्दविज्ञानवाला होता है तब वह अपर्याप्त उपकरणवाला होता है अतः पांच वाणों को प्रक्षिप्त करने के लिये समर्थ नहीं होता है । इस कारण हे प्रदेशिन ! तुम श्रद्धा करो कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है जीव शरीररूप नहीं है और शरीर जीवरूप नहीं हैं । ५ । टीकार्थ-तब केशीकुमार श्रमणने प्रदेशी राजा से ऐसा कहाजैसे अनिर्ज्ञात नामा कोई एक पुरुष हो, जो वह तरुण हो यावत् - युगवान हो, बलवान हो, अल्प आतङ्कवाला हो, स्थिर अग्रहाथवाला हो, पाणि, पाद, पृष्ठान्तर एवं उरु ये सब जिसके प्रतिपूर्ण हो, और परिणत विवेकशील एवं वयस्क हो. कंघे दोनों जिसके खूब भरे हुए हों गोल हों, शरीर जिसका चर्मेटिक आदि से समाहत होने से विशेषरूप में पुष्ट शारीरिक बल एवं मानसिक बल जिसका बढ़ा चढा हो, ताडवृक्ष के जैसे जिसके दोनों बाहू लम्बे हों, लांघने में, उछलने में, कूदने में दौडने
જ્યારે ખાળ યાવતુ મંદ વિજ્ઞાનવાળા હોય છે ત્યારે તે અપર્યાપ્ત ઉપકરણવાળા હોય છે. એથી જ તે પાંચ ખાણાને પ્રક્ષિપ્ત કરવામાં સમર્થ હાતા નથી. આથી હું પ્રદેશિન ! તમે મારી વાત પર વિશ્વાસ કરો કે જીવ ભિન્ન છે અને શરીર ભિન્ન છે. જીવ શરીરરૂપ નથી અને શરીર જીવરૂપ નથી. પા
ટીકા :—ત્યારે કેશીકુમાર શ્રમણે પ્રદેશી રાજાને આ પ્રમાણે કહ્યું કે- જેમ કોઈ અનિસ્તૃતનામા કોઇ એક પુરૂષ હાય, જે તરૂણ હાય યાવત્ યુગવાન હોય, अणवान होय, महपश्यात वाणी, स्थिर अग्रहस्तवाणी होय, पाशि (हाथ) पाह (પગ) પૃષ્ઠાન્તર અને ઉરૂ આ બધા જેના પ્રતિપૂર્ણ હોય અને પરિણત-વિવેક યુકત અને વયસ્ક હોય, બન્ને ખભાઓ જેના પુષ્ટ હોય, ગાળ હોય, જેનું શરીર ચર્મ ટંક વગેરેથી સમાહત હોવાથી વિશેષરૂપથી પુષ્ટ હોય, જેનું શરીર તેમજ મનની શકિત વધારે પરિપુષ્ટ થયેલી હોય. તાડવૃક્ષ જેવા જેના અને હાથ લાંખા
होय,
આળગવામાં
छजवाभा કૂદકાઓ
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सुबोधिनी टीका सू. १४० सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् २४७ प्रष्ठः कुशलः मेघावी" इत्येषां पदानां सग्रहः एषां व्याख्या सप्तमसूत्रे कृता। निपुण शिल्पोपगतः-सम्यग्विज्ञानसमन्वितः एतादृशः पुरुषः नवकेन -नूतनेन् धनुषा, नविकया-नूतनया जीवया-धनुर्गुणेन धनुर्दवरिकयेत्यर्थः नवकेन-नूतनेन इषुणा-बाणेन प्रभुः-समर्थः पञ्चकाण्डक-बाणपञ्चक युगपन् पश्चलक्ष्यवेधनाय निस्रष्टु-पक्षेप्तुम् ? । प्रदेशीपाह-हन्त ! प्रभुः समर्थः । केशी कथयति-यदि स एव खलु पुरुषस्तरुणः यावत् निपुणशिल्पोपगतः 'कोरिल्लएणं' इति देशी शब्दो जीर्णार्थ कस्तेन जीणेन-घुणखादितेन धनुषा चापेन जीर्ण या-प्रत्यञ्चया धनुर्गुणेनेत्यर्थः जीर्णेन इषुणा-बाणेन पञ्चका ण्डक-काण्डकपञ्चक निस्रष्टु-प्रक्षेप्तुं प्रभुः-समर्थः स्यात् ? इति केशिमश्नः, प्रदेशी-उत्तरयति-नायमर्थः समर्थः, केशी कारण पृच्छति-कस्मात्कारणात आदि क्रिया में जो बराबर समर्थ हो, छेक हो, दक्ष हो पष्ठ हो, कुशल हो मेधावी हो और निपुणशिल्पोपगत-सम्यग्ज्ञान समन्वित हो। इन युगवान् आदि पदों की व्याख्या सातवें सूत्र में की गई है. सो वहीं से जान लेना चाहिये। ऐसा वह पुरुष नवीन धनुष से, नवीन प्रत्यव्चा से-धनुषकीडोरीसे एवं नवीन बाण से हे प्रदेशिन् क्या बाण पंचक को युगपत् पांच लक्ष्यों का वेधन करने के लिये छोड सकता है ? तब प्रदेशीने कहा-हां, भदन्त ! छोड सकता है । पुनः केशीने उससे पूछा-यदि वही पुरुष जो कि तरुणादि पूर्वोक्त विशेषणोंवाला प्रकट किया गया हैं, कोरिल्ल-जीर्ण-घुण खादित ऐसे धनुष से, जीवा-प्रत्यञ्चा से, तथा जीणे बाण से बाण पंचक को छोडने में समर्थ हो सकता है ? तब प्रदेशीने कहा-हे भदन्त ! ऐसी स्थिति में वह इस प्रकार से करने में समर्थ नहीं हो सकता है. इस મારવામાં, દેડવામાં વગેરે ક્રિયાઓમાં જે બરાબર સમર્થ હોય, છેક હોય, દક્ષ હાય પ્રષ્ઠ હોય, કુશળ હાય, મેધાવી હોય અને નિપુણ શિપગત-સમ્યકજ્ઞાનયુકત હોય આ યુગવાન વગેરે પદની વ્યાખ્યા સાતમાં સ્ત્રમાં કરવામાં આવી છે. જિજ્ઞાસુઓએ ત્યાંથી જાણવા પ્રયત્ન કરવો જોઈએ. એ તે પુરુષ નવીન ધનુષથી, નવીન પ્રત્યેચોથી, ધનુષની દેરીથી અને નવીન બાણથી હે પ્રદેશિન્ ! શું બાણ પંચકને યુગપત પાંચ લના વેધન માટે છેડી શકશે ! ત્યારે પ્રદેશીએ કહ્યું-હાં ભદત! છોડી શકશે. ફરી કેશીએ તેને પ્રશ્ન કરતા કહ્યું–જે તેજ પુરૂષ-કે જે તરૂણ વગેરે પૂર્વે त विशेष वाणी छे, 'कोरिल्ल'-Of- 3 सपायेस धनुषथी 'जीवा'-प्रत्यચોથી તેમજ જીર્ણ બાણથી બાણ પંચકે ને છોડવામાં સમર્થ થઈ શકે તેમ છે? ત્યારે પ્રદેશીએ કહ્યું- હે ભદંત ! એવી પરિસ્થિતિમાં તે આ પ્રમાણે કરવામાં સમર્થ થઈ શકશે નહિ. આ પ્રમાણે તેના અસામર્થ્યનું કારણ શું હોઈ શકે !
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२४८
राजप्रश्नी सुत्रे
खलु सोऽर्थो न समर्थ : ? प्रदेशी माह-भदन्त ! तस्य- पूर्वोक्तपुरुषस्य उप करणानि-धनुरादि साधनानि अपर्याप्तानि जीर्णत्वादसमर्थानि भवन्ति, एवमेव-उक्तप्रकारेणैव हे प्रदेशिन् ! स एव पुरुषः बाल यावत्-याव त्पदेन अयुगवानित्यादीमामनन्तरसूत्रे संगृहीतानां पदानां सङ्ग्रहो बोध्यः, तदर्थस्तु वैपरीत्येन सप्तमसूत्रे प्रतिपादित स्ततोऽवसेयः । मन्दविज्ञान:अल्पविज्ञानयुक्तः अत एव अपर्याप्त करणः- अपर्याप्तम् - असमर्थ म् - उपकरणम् शरीरेन्द्रियबलबुद्धयादिरूप साधनं यस्य स तथा एतादृशः पुरुषः पञ्चकाण्डकं निस्रष्टुं - प्रक्षेप्तु नो प्रभुः - समर्थो न भवति, तत् तस्मात् कारणात् हे प्रदेशिन | त्वं श्रद्धेहि यथा अन्यो जीवः तदेव - पूर्वोक्तमेव. अन्यत् शरीरम् नो तज्जीवः स शरीरम् ॥ सू० १४० ॥
मूलम् - तणं पएसी राया केसिकुमारसमणं एवं वयासीअत्थि णं भंते! एसा पण्णाओ उवमा इमेण पुण कारणेणं नो प्रकार की उनकी असमर्थता का क्या कारण है । तब प्रदेशीने उत्तर दिया भदन्त ! उस पूर्वोक्त विशेषण सम्पन्न पुरुषके उपकरण - धनुरादिसाधन जीर्ण होने के कारण अपर्याप्त असमर्थ हैं । अब पुनः केशीश्रमण उससे पूछते हैं - हे प्रदेशिन् ! यदि तरुण पुरुष युगवान् आदि विशेषणों से रहित है अर्थात् बाल अयुगवान् आदि विशेषणों से विशिष्ट है और शरीर, इन्द्रिय, बल, बुद्धि आदि रूप साधन उसके अपर्यात् हैं, तो क्या वह बाणपंचक को छोडने के लिये समर्थ हो सकता है? तब प्रदेशीने कहानहीं हो सकता है । तो हे प्रदेशिन | इससे तुम्हें यही मानना चाहिये शरीर भिन्न है और जीव भिन्न है. शरीर जीवरूप नहीं है और जीव शरीररूप नहीं है | सू० १४० ॥
ત્યારે પ્રદેશીએ જવાબ આપતાં કહ્યું–હે ભદ્રંત ! તે પૂર્ણાંક વિશેષણુ ચુકત પુરૂષના ઉપકરણા-ધનુષ વગેરે સાધના-જીણુ હાવાથી લક્ષ્યવેધનમાં અસમ છે. હવે ફરી કેશીશ્રમણુ તેને પ્રશ્ન કરે છે કે હું પ્રદેશિન્ ! જો તે તરૂણ પુરૂષ યુગવાન વગેરે વિશેષણાથી રહિત એટલે કે ખાળ, અયુગવાન્ વગેરે વિશેષણાથી યુકત હોય અને શરીર, ઇન્દ્રિય, ખળ, બુદ્ધિ વગેરે રૂપ સાધના પાસે અપર્યાસ હાય તે શું તે પાંચ ખાણા છોડીને લક્ષ્યવેધન કરી શકશે ? ત્યારે પ્રદેશીએ કહ્યું-કે નહિ, તા હૈ પ્રદેશિન! એથી તમારે આ વાત માની લેવી જોઇએ કે શરીર ભિન્ન છે અને જીવ ભિન્ન છે. શરીર જીવરૂપ નથી અને જીવ શરીરરૂપ નથી. !! સૂ૦ ૧૪૦ ॥
તેની
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सुबोधिनी टीका सु. १४१ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशीराजवर्ण नम् २४९ उवागच्छइ अस्थि णं भते ! से जहानामए केइ पुरिसे तरुणे जाव निउणसिप्पोवगए पभू एगं मह अयभारगं वा तउयभारगं वा सीसगभारगं वा परिवहित्तए ? हंता पभू । से चेव णं भंते ! पुरिसे जुन्ने जराजजरियदेहे सिढिलवलिअतया विणटुगत्ते दंडपरिग्गहियग्गहत्थे पविरलपरिसडियदंतसेढी आउरे किसिए पिवासिए दुब्बले छहापरिकिलते नो पभू एगं मह अयभारगं वा जाव परिवहितए जइणं भते! सच्चेव पुरिसे जुन्ने जराजजरियदेहे जाव परिकिलंते पभू एग मह अयभाहं वा जाव परिवहित्तए तो णं सदहेजा तहेव, जम्हा णं भंते ! से चेव पुरिसे जुन्ने जाव किलंते नो पभू एग महं अयभारंवा जाव परिवहित्तए, तम्हा सुपइट्रिया मे पइण्णा तहेव ॥ सू० १४१ ॥
छाया-ततः खलु प्रदेशी राजा केशिकुमारश्रमणमेवमवादीत-अस्ति खलु भदन्त ! एषा प्रज्ञात उपमा अनेन कारणेन नो उपागच्छति, अस्ति खलु भदन्त ! स यथानामकः कश्चित् पुरुषः तरुणः यावत् निपुण शिल्पो.
'तएणं पएसी राया' इत्यादि ।
सूत्रार्थ-(तएणं पएसी राया) तव प्रदेशी राजाने (केसिकुमारसमणं एवं वपासी) के शीकुमारश्रमण से ऐसा कहा (अस्थि णं भंते ! एसा पण्णाओ उवमा इमेण कारणेणं नो उवागच्छइ) हे भदन्त ! यह उपमा प्रशा. सेजन्य है अतः वास्तविकी नहीं है, क्यों कि जो कारण में प्रदर्शित कर रहा हूँ उस कारण से मेरे हृदय में जीव और शरीर को भेद् नहीं जम
'तए णं पएसी राया' इत्यादि ।
सूत्रार्थ-(तए णं पएसी राया) त्यारे प्रदेशी २०-ये (केसिकुमारसमणं एवं वयासी) अशीभार श्रमाने २॥ प्रमाणे यु:-(अस्थि णं भंते ! एसा पणा श्रो उवमा इमेण पुण कारणेण' नो उवागच्छइ) 3 महत! 40 GH પ્રજ્ઞાથી જન્ય છે એથી વાસ્તવિક નથી. કેમકે જે કારણ હું બતાવી રહ્યો છું તેથી भास त्यमा भने २२नी भिन्नता मती नथी. (अस्थिणं भंते से जहा नामए केइ पुरिसे तरुणे जाय निउणसिप्पोवगए पभू एगं म अयभारगं
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२५०
राजप्रश्नीयसूत्रे
पगतः प्रभुः एक महान्तमयोभारक वा त्रपुकभारक वा शीशकभारक वा परिबोदुम् ? हन्त प्रभुः। स एव खलु भदन्त ! पुरुषः जीर्णः जराजरित. देहः शिथिलवलितत्वचाविनष्टगात्रः दण्डपरिगृहीताग्रहस्तः प्रविरलपरिश टितदन्त श्रेणिः आतुरः कृशः पिपासितः दुर्बलः क्षुधापरिक्लान्तः नो प्रभुरेकं पाता है (अस्थि णं भंते ! से जहानामए केइ पुरिसे तरुणे जाव निउणसि प्पोवगए पभू एगं महं अयभारगं वा तउयभारगं वा सीसगभारंग वा परिवहित्तए) वह कारण इस प्रकार से है-जैसे कोई एक पुरुष हो, और वह युवा यावद निपुणशिरूपोपगत हो, अर्थात् सम्यग्ज्ञान सम्पन्न हो तो ऐसा वह पुरूष विशाल लोहे के भार को. त्रपुक के भार को शीशा के भार को वहन करने में समर्थ हो सकता है न ? तब केशीकुमारश्रमण ने उससे (हता, पभू) हां, प्रदेशिन् ! ऐसा वह पुरुष उस लोहे आदि के विशाल भार को वहन करने में समर्थ हो सकता है। (से चेव णं भंते ! पुरिसे जुन्ने जराज जरियदेहे सिढिलवलिअतयाविणगत्ते दंडपरिग्ग हियग्गहत्थे) अब प्रदेशी राजाने केशीकुमारश्रमण से फिर ऐसा पूछाहे भदन्त ! वही पुरुष जब वृद्धावस्था को प्राप्त हो जाता है और जरा से जर्जरित शरीर वाला होने के कारण शक्ति से शिथिल हो जाता है, त्वचा जिसकी झुर्रियों से युक्त हो जाती हैं और इसी से जिसको शारीरिक शक्ति प्रतिहत हो चुकी होती है, तथा दक्षिण हाथ में जो दण्डा लेकर चलने लगता है (पविरल परिसडियदतसेढी, आउरे, वा तउयभारगं वा सीसगभारगं वा परिवहित्तए) ते ७।२५ मा प्रभारी छ. म કેઈ એક પુરૂષ હોય અને તે યુવા યાવત નિપુણ શિપગત હોય એટલે કે સભ્ય જ્ઞાન યુકત હોય તે એ તે પુરૂષ વિશાળ લોખંડના ભારને ત્રપુકના ભારને શીશાના ભારને વહન કરવામાં શું સમર્થ થઈ શકે છે? ત્યારે કેશીકુમાર શ્રમણે તેને (हता पभू) , प्रशिन मे ते १३५ ते सोम वगेरेना वि मारने १४न ४२वामा समय २४ ॥ छ. (से चेव णं भंते ! पुरिसे जुन्ने जराजज्जरियदेहे सिढिलवलिअतयाविणट्टगत्ते दंडपरिग्गहियग्गहत्थे ) वे 3शी भाभणे પ્રદેશી રાજાને આ પ્રમાણે પ્રશ્ન કર્યો કે હે ભદત! તે જ પુરૂષ જ્યારે ઘરડો થઈ જાય છે અને વૃદ્ધાવસ્થાને લીધે જર્જરિત શરીરવાળો હોવાથી અશકત થઈ જાય છે, ચામડી જેની કરચલીઓથી યુકત થઈ જાય છે અને એથી જેની શારીરિક શકિત પ્રતિહત થઈ જાય છે તેમજ જમણા હાથમાં જે લાકડી ઝાલીને ચાલવા લાગે છે. (पविरलपरिसडियद तसेढी, आउरे, किसीए, पिवासिए, दुब्बले छुहा. परिकिलते नो पभू एग मह अयभारग वा जाव परिहिवत्तए) नीत
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सुबोधिनी टीका सू. १४१ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम्
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महान्तमयोभारकं वा यावत् परिवोढुम्, यदि खलु भदन्त ! स एव पुरुषः जीर्णः जराजर्जरितदेहः यावत् परिक्लान्तः प्रभुः एकं महान्तमयोभारकं वा यावत् परिवोदुम्. तदा खलु श्रद्दध्यां तथैव, यस्मात् खल भदन्त ! स एव पुरुषः जीणों यावत् क्लान्तः नो प्रभुरेकं महान्त मयोभार वा यावत् परिवोढुं तस्मात् सुपतिष्ठता मे प्रतिज्ञा तथैव ।।सू० १४१॥
किसीए, पिवासिए, दुब्बले, छुहाकिलते पभू एग मह अयभारग वा जाव परिवहित्तए) दांतों की पाक्ति जिसकी विरल हो जाती है, शटित हो जाती है, तथा कास, श्वास आदि से जो सर्वदा पीडित बना रहता है, और इसीसे जो कृश एवं अशक्त बन जोता है, उठ करके पानी पीने तक भी शक्ति जिससे जाती रहती है, जो बिलकुल शक्ति रहित हो जाता है, भूख से जो-पीडित बन जाता है ऐसा वह पुरुष एक विशाल लोहे के भार को, त्रपुक के भार को या शीशा के भार को वहन करने के लिये समर्थ नहीं रहता है। (जइ णं भंते! सच्चेव पुरिसे जुन्ने जराजजरियदेहे जाव परिकिलंते पभू एगं महं अयभारं वा जाव परिवहित्तए तो णं सद्दहेज्जा तहेव) यदि हे भदन्त ! वही पुरुष जीर्ण होने पर. जरा से जजेरित देह होने पर यावत् क्षुधा से परिक्लान्त होने पर एक विशाल लोहमार को यावत वहन करने के लिये समर्थ बना रहता तो मैं आपके इस कथन पर कि जीव शरीर से भिन्न है और शरीर जीव से भिन्न है जीव शरीररूप नहीं हैं, शरीर जीवरूप नहीं है विश्वास कर लेता (जम्हा णं
પંક્તિ વિરલ થઈ જાય છે, શરિત થઈ જાય છે, તેમજ કાસ, શ્વાસ વગેરેથી જે હંમેશા પીડિત રહે છે અને એથી જે કૃશ અને દુર્બલ થઈ જાય છે, ઉભા થઈને પાણી પીવાની પણ જેનામાં તાકાત હોતી નથી જે સાવ અશકત થઈ જાય છે, ભૂખથી જે પીડિત થઈ જાય છે એ તે પુરૂષ એક મોટા લોખંડના ભારને કે શિશાના मारने वहन ४२वामा समय थ तो नथी. (जएण भते ! सच्चेव पुरिसे जुन्ने जराजज्जरियदेहे जाव परिकिलते पभू एग मह अयभारंवा जाव परिवहित्तए तो ण सद्दहेज्जा तहेव) ते 8 मत ! ने त ५३५ ५२॥ હોવા છતાં એ ઘડપણથી જર્જરિત શરીરવાળા હોવા છતાં એ યાવતુ ભૂખથી પરિકલાંત હોવાં છતાંએ એક ભારે લોખંડના ભારને યાવતું વહન કરવામાં સમર્થ થઈ શકત તો હું તમારા જીવ શરીરથી ભિન્ન છે અને શરીર જીવથી ભિન્ન છે, જીવ શરીર રૂપ નથી અને શરીર જીવ રૂપ નથી આ કથર પર વિશ્વાસ કરી લેત.
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राजप्रनीयसूत्रे
टीका - "तए णं पएसी इत्यादि - ततःखलु प्रदेशी राजा केशिकुमारश्रमणम् एवमवादीत् - एषा - इयम् उपमा प्रज्ञातः अस्ति अनेन वक्ष्यमाणेन पुनः कारणेन नो उपागच्छति न संगच्छति, तदेवाऽऽह - एवं खलु हे भदन्त ! स यथानामकः कश्चित् पुरुषः तरुणः यावत् - यावत्पदेन - अनन्तरसूत्रे संग्रहितानि युगवान् बलवानित्यादीनि पदानि संग्रहीतव्यानि तदर्थव सप्तमसूत्रतो बोध्यः, निपुणशिल्पोपगतः - सम्यग्विज्ञानसम्पन्नः, एतादृशः पुरुषः एक महान्त'- विशालम् अयोभारकम् - लोहमार' त्रपुकभारकं धातु विशेष भार वा शीशकमारकं वा परिवोदु - नेतुं प्रभुः समर्थः स्यात् ? इति प्रदेशिप्रश्नः केशीश्रमणः कथयति - हन्त ! - हे राजन् ! प्रभुः समर्थः स्यात् । हे भदन्त !
"
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भंते! से चेव पुरिसे जुन्ने जाव किलंते नो प्रभू एवं मह अयभार वा जाव परिवहित्तए, तम्हा सुपइठिया मे पहण्णा तहेव ) जिस कारण से हे भदन्त ! वही पुरुष जीर्ण यावत् हो जाने पर एक विशाल लोहभारको यावत वहन करने के लिये समर्थ नहीं होता है-इस कारण से मेरा यह मन्तव्य जीव और शरीर के एक होने का सुप्रतिष्ठित है अर्थात् वहीं जीव और वही शरीर है, जीव भिन्न नहीं है और शरीर भिन्न नहीं है ऐसा मेरा मन्तव्य सत्य है ।
टीकार्थ - इस मूलार्थ के जैसा ही है. 'तरुणः यावत् निपुण शिल्पोपगतः' में जो यह यावत्पद आया है. उससे अनन्तर सूत्र में संगृहीत युगबानू बलवान् इत्यादि पद यहां गृहीत हुए हैं। इन पदों का अर्थ सप्तम सूत्रकी टीका में लिखा जा चुका है, अतः वहीं से यह जानना चाहिये 'अयभारग'
( जम्हा णं भंते ! से चैव पुरिसे जुन्ने जाव किलंते नोपभू एवं मह अयभारं वा जाव परिवहित्तए, तम्हा सुपट्टिया मे पइण्णा तहेब) ने ५२ણથી હુ ભદંત ! તેજ પુરુષ જીણ (ઘરડો) યાવત્ થઈ જવાથી એક વિશાળ લેખડના ભારને યાવત્ વહન કરવામાં સમર્થ થઈ શકતા નથી તે કારણથી જ જીવ અને શરીર એકજ છે એવી મારી ધારણા સુપ્રતિષ્ઠિત જ છે. શરીર અને એકજ છે. માન્યતા ચેાગ્યજ છે.
એટલે કે જીવ અને નથી અને શરીર ભિન્ન નથી આ મારી
જીવ ભિન્ન
टीअर्थ-या सूत्रनो टीडार्थ भूसार्थ वा ४ छे. तरुणः यावत् निपुणशिल्पो पगतः 'भां ? यावत् यह आवे छे तेथी मील अन्याये संगृहीत युगवान्, અળવાન્ વગેરે પદા અહીં સંગૃહીત થયાં છે. આ પદોના અર્થ સાતમા સૂત્રની ટીકામાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યે છે. એથી ત્યાંથી જ જાણવા પ્રયત્ન
કરવા જોઈએ.
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सुबोधिनी टीका सू १४९ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशीराजवर्णनम्
२५३
"
स एव भारवाहकः पुरुषो जीर्ण:- वृद्धावस्थां प्राप्तः अत एव जराजर्जरित देहःवृद्धावस्थामन्दशरीर शक्तिकः शिथिलवलितत्वचाविनष्टगात्रः -शिथिला अतएव बलिता - बलियुक्ता त्वचा --चर्म तया विनष्टगात्रः -- प्रतिहतशरीरसामर्थ्यः दण्डपरिग्रहीताग्रहस्त- अग्रहस्तेन - हस्ताग्रभागेन परिगृहीत:धारितो दण्डो येन तथा प्रविरलपरिशटितदन्तश्रेणिः - पविरला - अत्यन्ताल्पाशटिता च दन्तश्रेणिः -- दन्तपङ्कयस्य स तथा, आतुरः कासश्वासादिपीडितः कृशः - अशक्तः, पिपासितः उत्थाय जलं पातुमप्यसमर्थः, दुर्बलः बलहीनः क्षुधापरिक्लान्तः क्षुधापरिपीडितः, एतादृशः पुरुषः एक महान्तमयोभारकं वा यावत्- 'यावत्' पदेन - त्रपुकभारकं वा शीशक भारक वा परिवोदु नो प्रभुः समर्थो न भवति पुनः प्रदेशी माह-भदन्त ! यदि खलु स एव पुरुषो जीर्णः जराजर्जरितः यावत् क्षुधापरिक्लान्तः एतादृशः पुरुष : एक महान्तमयो भार वा यावत् शीशकभार वा परिवोढुं प्रभुः स्यात् तदा खलु अहं श्रद्दध्यां तथैव अन्यो जीवः अन्यच्छरीरम् नो तज्जीवः स शरीरम् इति । अथ पुनः मदेशी माह-हे भदन्त ! यस्मात् कारणात् खलु स एव पुरुषः जीर्णः क्षुधापरिक्लान्तः एक महान्तमयोभार' वा यावत् शीशकमार' वा' इत्येतत्कारणात् परिवोडुं नो प्रभुः - समर्थो न भवति, तस्मात् कारणात् मे मम प्रतिज्ञा स्वीकारः, सुप्रतिष्ठिता - स्थिरा, तथैव तज्जीवः स शरीरम् नो अन्यो जीवोऽन्यच्छरीरमिति ॥ १४१ ॥
मूलम् - तए णं केसीकुमारसमणे पएस रायं एवं वयासीसे जहानोमए केइ पुरिसे तरुणे जाव सिप्पोवगए णवियाए विहं
-
वा जाव परिवहितए' में आये हुए यावत्पद से 'तउग भारगं' वा' सीसग भारगं वा इन पदों का संग्रह हुआ है। इस सूत्र का भावार्थ ऐसा है कि युवादि विशेषणों वाला जो जीव है वही जीव अयुवादि विशेषणों वाला भी है अतः वह वही जीव है और वही उसका शरीर है ये दोनों भिन्न२ नहीं हैं । यही बात प्रदेशीराजाने इस सूत्र से प्रमाणित की है । सू. १४१ ॥ 'अयभारगं वा जाव परिवहित्तए' भी आवेस यावत् पथी 'तउगभारगं वा सीसगभारगं वा' या होना संग्रह थयो छे. या सूत्रनो लावार्थ मा प्रभा છે કે યુવા વગેરેથી યુકત વિશેષણવાળા જે જીવ છે તેજ જીવ અપુવા વગેરે વિશે ષણાથી પણ સંપન્ન છે. એથી તે તેજ જીવ છે અને તેનું શરીર પણ તેજ છે એએ બન્ને જુદાં જુદાં નથી પ્રદેશી રાજાએ એજ વાત આ સૂત્રથી પ્રમાણિત કરી છે. પ્રસૂ૦ ૧૪૧૧
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राजप्रश्नीयसूत्रे गियाए णवएहिं सिक्कएहिं णवएहिं पच्छियपिंडएहि पह एग मह अयभार जाव परिवहित्तए ? हन्ता पभू । पएसी ? से चेव णं पुरिसे तरुणे जाव सिप्पोवगए जुन्नियाए दुबलियाए घुणक्खइयाए विहगियाए जुण्णएहिं दुब्बलएहिं घुणक्खइएहिं सिढिलतयापिणद्धए हिं सिक्कएहि जुण्णएहिं दुब्बलएहिं घुणक्खइएहिं पच्छियपिंडएहिं पभू एगं मह अयभारंवा जाव परिवहित्तए ? णो इणट्र समहो। कम्हाणं भंते! तस्स पुरिसस्स जुण्णाई उवगरणाइं भवंति । पएसी ? से चेव पुरिसे जुन्ने जाव छहाकिलंते जुन्नोवगरणे नो पभू एगं महं अयभारं वा जाव परिवहित्तए, तं सद्दहाहि णं तुमं पएसी जहाअन्नो जीवो अन्नं सरीरं ॥सू० १४२॥
छाया-ततःखलु केशीकुमार श्रमणः प्रदेशिन राजानमेवमवादीत-स यथानामकः कश्चित् पुरुषः तरुणो यावत शिल्पोपगतः नविकया विहङ्गिकया नवकाभ्यां शिक्यकाभ्यां नवकाभ्यां पक्षितपिटकाभ्यां प्रमुः एक महान्तमयोभार यावत् परिवोढुम् ? हन्त ? प्रभुः प्रदेशिन् ! स एव खलु पुरुषः
'तए णं केसीकुमारसमणे' इत्यादि।
सूत्रार्थ-(तए णं केसीकुमारसमणे पएसिं राय एवं क्यासी) केशीकुमार श्रमणने प्रदेशी राजा से ऐसा कहा-(से जहानामए केइ पुरिसे तरुणे जाव सिप्पोवगए णवियाए विह गियाए णवएहिं सिक्कएहिं णवएहिं पच्छियपिंडएहिं पहू एग मह अयभार जाव परिवहित्तए ?) जैसे कोई एक पुरुष हो और वह तरुण यावत् शिल्पोपगत हो, ऐसा वह पुरुष नवीन विहगिका
'तएणं केसी कुमारसमणे' इत्यादि ।
सूत्राथ—(तए णं केसीकुमारसमणे पएसिं राय एवं क्यासी) त्या२ पछी शभा२श्रमणे प्रशी ने मा प्रमाणे ४ -(से जहानामए केइ पुरिसे तरुणे जाव सिप्पोवगए णवियाए विहंगियाए णवएहि सिक्कए हिं, णवएहिं पच्छिय पिंड एहिं पहू एगं महं अयभारं जाव परिवहित्तए ?) भ ગમે તે-કોઈ પુરુષ હોય અને તે તરુણ યાવત્ શિ૯પપગત હોય, એવો તે પુરૂષ
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सुबोधिनो टीका सू. १४२ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् २५५ तरुणा यावत् शिल्पोपगतः जीर्ण या दुर्बलिकया घुण खादितया विहगिकया जीर्ण काभ्यां दुर्यलकाभ्यां घुणखादिताभ्यां शिथिलत्वचापिनद्धकाभ्यां शिक्य काभ्यां जीर्ण काभ्यां दुलिकाभ्यां घुण खादिताभ्यां पक्षितपिटकाभ्यां प्रभुः एकं महान्तमयोभार वा यावत् परिवोदुम् ? नो अयमर्थः समर्थः से भारयष्टि का से (कावड से), नवीन सिक्यकाओं से नवीन पक्षितपिटकाओं से एक विशाल लोहमार को यावत त्रपुभार को अथवा शीशक भार को वहन करने में समर्थ होता है न ? तब प्रदेशी राजाने कहा(हता, पभू) हां, भदन्त ! ऐसो वह पुरुष उसे वहन करने में समर्थ होता है। (पएसी ! से चेव णं पुरिसे तरुणे जाव सिप्पोवगए दुब्बलियाए घुणक्ख. इयाए विहंगियाए जुण्णएहिं दुब्बलिए हिं, घुणक्खइएहि, सिढिलतया पिणद्धएहि, सिक्कएहिं दुब्बलिएहिं जुष्णेहिं घुणवखएहिं पच्छियपिंडएहिं पभू एग मह अयभारं वा जाव परिवहित्तए) हे प्रदेशिन् ! अब मैं तुम से ऐसा पूछता हूं कि वही तरुणपुरुष जो यावत् निपुण शिल्पोपगत है जीर्ण दुबैल, घुन से खाई हुई भारयष्टि से, तथा जीण, दुबैल और घुन से खाई हई तथा शिथिल त्वचा से पिनद्ध हुई ऐसी शिक्यकाओं से, एवं दुर्बलिक, घुण खादितऐसी पक्षितपिटकाओं से एक विशाल लोहभार को अथवा त्रपुभार को या शीशक भार को वहन करने में समर्थ हो सकता है ? प्रदेशीने कहा-(णो इणेहे समठे) हे भदन्त ! यह अर्थ समर्थ નવીન વિહંગિકાથી ભારયષ્ટિકાથી (કાવડથી) નવીન સિક્યકાથી નવીન પક્ષિતપિટકાએથી એક વિશાળ લોખંડના ભારને યાવત્ ત્રપુભારને અથવા શીશક ભારને વહન ४२वाभां शु समथ 5 श छ ? त्यारे प्रशी शनये ४थु-हंता, पभू) i , महत ! वो ते ५३५ तेने पहन. ४२वामी समर्थ थ श छे. (पएसी ! से चेव णं पुरिसे तरुणे जाव सिप्पोवगए. जुन्नियाए, दुब्बलियाए घुणक्खइयाए विहंगियाए, जुण्ण एहि, दुब्बलिए हि घुणक्खइएहि, सिढिलतया पिणद्धएहि, सिक्कएहिं जुण्णेहिं दुब्यलिएहि घुणक्खइएहि पच्छियपिंडएहिं पभू एगं महं अयभार वा जाव परिवहित्तए) प्रशिन् ! इथे तभने माम प्रश्न કરું છું કે તે જ તરૂણ પુરૂષ જે યાવત્ નિપુણ શિલ્પપગત છે. જીર્ણ દુર્બળ, ઉધઈ ખાધેલી ભારયષ્ટિથી (કાવડથી) તેમજ જીર્ણ, દુર્બળ ઉઘેઈવટ ખાધેલ તેમજ શિથિલ ત્વચાઓથી પિનદ્ધ થયેલ એવી શિયકાઓથી અને દુર્બલિક, ઉધઈ ખાધેલ એવી પક્ષિતપિટકાઓથી એક મોટા લોખંડના ભારને અથવા ત્રપુભારને કે શીશકભારને વહન ४२वामा शु समर्थ 25 3 छ ? प्रदेशीये ४थु (णो इणद्वे सम हे) मत !
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राजप्रश्नीयसूत्रे कस्मात् ? भदन्त ! तस्य पुरुषस्य जीर्णानि उपकरणानि भवन्ति, पदेशिन् ! स एव पुरुषः जीर्णा यावत् क्षुधापरिक्लान्तः जीर्णोपकरणः नो प्रभुः एक महान्तमयोभार वा यावत् परिवोहुम्, तत् श्रद्धेहि खलु त्वं प्रदेशिन् ! यथा-अन्यो जीवः अन्यत् शरीरम् ६। ॥सू० १४२॥ नहीं है-अर्थात् वही युवादि विशेषणों वाला पुरुष जीर्णादि विशेषणोंवाली विहङ्गिकादि (कावड) द्वारा विशाल लोहभार को वहन नहीं कर सकता है। के शीकुमारश्नमणने पूछा-(कम्हा) वह ऐसा किस कारण से नहीं कर सकता है। तब प्रदेशीने कहा-(भंते ! तस्स पुरिसस्स जुण्णाई उचगरणाई भवति) हे भदन्त ! लोह भार आदि को वहन करने के जो उसके साधन हैं-वे जीर्ण हैं ! (पएसी से चेव पुरिसे जुन्ने जाव छुहापरिकिलंते जुन्नोवगरणे पभू एग मह अयभार वा जाव परिवहित्तए-त सद्दहाहि णं तुम पएसी अन्नो जीवो अन्न सरीर) पुनः केशी ने प्रदेशी से पूछा-हे प्रदेशिन् ! यदि वही पुरुष जीर्ण, वृद्ध यावत् १४१वे सूत्र में कथितविशेपणोंवाला एवं क्षुधा परिक्लान्त हो जाता है वह जीर्णोपकरण वाला होने से-शरीर बल बुद्धि आदि उपकरणों की जीर्णतावाला होने से-एक विशाल अयोभार को यावत् शीशक भार को वहन करने में समर्थ नहीं होता है युवावस्था और वृद्धावस्था में जीव की समानता होने पर भी उपकरण के अभाव से वृद्ध भार को वहन करने के लिये समर्थ नहीं होता है. इस कारण हे प्रदेशिन! આ અર્થ સમર્થ નથી. એટલે કે તેજ યુવા વગેરે વિશેષણથી યુકત પુરૂષ જીર્ણ વગેરે વિશેષણોથી યુકત વિહંગિક (કાવડ) વગેરે વટ વિશાળ ખંડના ભારને વહન न शश तम छ. शाहुमार श्रभारी . (कम्हा) ते माम ॥ ४॥२४थी ना श्री श ? त्यारे प्रदेशीये यु. (भंते ! तरस परिसस्स जुणाई उवगरणाई भवंति) 3 महत ! सोमना मा२ वगेरेने १४न ४२वाना साधन। छे ते ए छे. (पएसी से चेव पुरिसे जुन्ने जाय छुहापरिकिलते जुन्नोवगरणे नो पभू एगं महं अयभारं वा जाव परिवहित्तए-तं सहाहि णं तुमं पएसी अन्नो जीवो अन्न सरीरं) ५२ अशी प्रशीन. २ प्रभारी प्रश्न या प्रशिन् ! જે તે જ પુરૂષ જીર્ણ વૃદ્ધ યાવત્ ૧૪૧ માં સૂત્રમાં આવેલ વિશેષણોથી સંપન્ન હોય ક્ષુધા પરિકલાંત થઈ જાય છે તે તે જીર્ણોપકરણવાળે હોવાથી–શરીર બળ બુદ્ધિ વગેરે ઉપકરણો જીર્ણ હોવાથી એક વિશાળ લોખંડના ભારને યથાવત્ શીશકભારને વહન કરવામાં સમર્થ થઈ શકે તેમ નથી. યુવાવસ્થામાં અને વૃદ્ધાવસ્થામાં જીવની સમાનતા હોવા છતાં એ ઉપકરણના અભાવે વૃદ્ધ ભારને વહન કરવામાં સમર્થ થઈ
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सुबोधिनी टीका. सूत्र १४२ सूर्यभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम्
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टीका- "तएण केसी कुमारसमणे" इत्यादि - ततः खलु केशी कुमा रश्रमणः प्रदेशिनं राजामम् एवमवादीत् स यथानामकः कश्चित् - कोऽपि पुरुषः तरुणः यावत्- निपुणशिल्पोपगतः नविकया-नूतनया विहङ्गिकया- भार यष्टिका - शिक्यावलम्बनदण्ड विशेषरूपया नवकाभ्यां नवीनाभ्यां शिक्यकाभ्यां नवकाभ्यां नूतनाभ्यां पक्षितपिटकाभ्यां वंशवैत्रादिनिर्मित पात्रविशेषाभ्याम् एक महान्तमयोभा वा यावत् भार वा शीशकभारवा एतादृशमयो भारादिक परिवोढुं प्रभुः - समर्थः स्यात् ? इति के शिप्रश्नः, मदेशी प्राहहन्त ! प्रभुः - समर्थः स्यात् ! केशीकथयति- प्रदेशिन ! स एव खलु पुरुषः तरुणः यावत् निपुणशिल्पोपगतः, एतादृशः पुरुषः जीर्ण या दुर्बलिकयानिःसत्त्वया घुणखादितया - काष्ठकीट भक्षितया - विहङ्गिकया- भारयष्टया तथाजीर्णकाभ्यां दुर्बलिकाभ्यां घुणखादिताभ्या शिथिलत्वचापिनद्धकाभ्यांशिथिलदव रिकाबद्धाभ्यां शिक्यकाभ्यां तथा दुर्बलिकाभ्यां घुणखादिताभ्यां पक्षितपिटकाभ्याम् एकं महान्तमयोभारं वा यावत् त्रपुभार' वा शीशकभार वा परिवोढुं प्रभुः समर्थः स्यात् ? । प्रदेशी माह-नो अयमर्थ:समर्थ:- पूर्वोक्तसाधनैर्भारो वोढुं न शक्यत इत्यर्थः । केशी श्रमणो हेतु पृच्छति - कस्मात्कारणात् ? । प्रदेशी कथयति - हे भदन्त ! तस्य पूर्वोक्तस्य तरुणतादिविशिष्टस्य पुरुषस्य उपकरणानि जीर्णानि भवन्ति सन्ति, उपकरणानां जीर्णत्वादिकारणान्नायो भारादिपरिवहन योग्यता, इतिभावः । केशी
तुम मेरे वचन में विश्वास करो कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है, वह जीवरूप नहीं है और न जीव शरीररूप है. ।
टीकार्थ- स्पष्ट है यहां जो 'बिह ंगियाए, सिकएहि, ये शब्द आये हैं वे भार उठाने के अर्थ में आये हैं। से निर्मित पात्र विशेषका नाम पक्षितपिटक है. तात्पर्य
पच्छियपिंड एहिं ' वंश, वेत्र आदिकों
इस सूत्र का ऐसा
શકતા નથી. એથી હું પ્રદેશિન્ ! તમે મારી વાત પર વિશ્વાસ કરે કે જીવ અન્ય છે, અને શરીર અન્ય છે, શરીર જીવરૂપ નથી અને જીવ શરીર રૂપ નથી.
टी अर्थ - स्पष्ट ०४ छे. ('विहंगियाए. सिक्कएहिं पच्छिय पिंड एहिं मे શબ્દો આવેલ છે. તે ભાર વહન કરવા માટેના વિશેષ સાધનાના અથ॰માં પ્રયુકત કરવામાં આવ્યા છે. વંશ, વેત્ર વગેરેથી નિર્મિતપાત્ર વિશેષણનું નામ પક્ષિતપિટક છે. આ સૂત્રને સક્ષેપમાં ભાવાર્થ આ પ્રમાણે છે કે સમથ પુરૂષ જો ઉપકરણા
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राजप्रश्नीयसूत्रे पाह-हे प्रदेशिन् ! स एव पुरुषो यदि जीर्ण:-वृद्धः यावत् त्रिचत्वारिंशदधिकशततमसूत्रोक्त विशेषणविशिष्टः, पुनः क्षुधापरिक्लान्तःक्षुधाखिन्नः, एतदृशः पुरूषो, जीर्णोपकरणः शरीरबलबुद्धयाधुपकरणरहितो भवति तदा एकं महान्तमयोभार वा यावत-शीशकभार बा परिवोढुन प्रभु:-न समथों भवति, तारुण्ये वार्धक्ये च जीवस्य समानत्वेऽपि उपकरणाभावान्न वृद्धो भार वोदु समथों भवतीति भावः । तत्-तस्मात् कारणात् हे प्रदेशिन् ! त्वं श्रद्धेहि-मद्वचने विश्वसिहि-यथा अन्यो जीवः अन्यच्छरीरम् नो तज्जीवः स शरीरम्, इति ६। ॥१० १४२॥
मूलम--तए णं से पएसी केसिकुमारसमणं एवं वयासी-अस्थि णं भंते ! जाव नो उवागच्छइ, एवं खलु भते ! जाव विहरामि, तएणं मम जगरगुत्तिया जाव चोरं उवणेति, तएणं अहं तं पुरिसं जीवंतगं चेव तुलेमि, तुलेता छबिच्छेयं अकुठवमाणे जीवियाओ ववरोवेमि मयं तुलेमिणोचेवणं तस्स पुरिसस्स जीवंतस्स वा तुलियस्स वा मुयस्स वा तुलियस्स केइ आणात्ते वा नाणत्ते वा उम्मत्तत्ते वा
है कि समर्थ पुरुष उपकरणों की बलवत्ता में लोहे आदिरूप भार को उठा सकता है. तथा वही समर्थ पुरुष उपकरणों को असमीचीनता में लोहे
आदिरूप भार को नहीं उठा सकता है, तथा वही पुरुष वृद्धावस्थापन्न होने पर भी अयोभार को नहीं उठा सकता है. अतः इससे यही प्रतीत होता है कि जीव की समानता होने पर भी उपकरणों की असमानता में भारवहन नहीं होता हैं- इससे यहि मानना चाहिये कि जीव भिन्न है और शरीर भिन्न है। ६ । सू १४२ ॥
સશકત હોય તે લોખંડ વગેરેના ભારને વહન કરી શકે છે. તથા તેજ સમર્થ પુરૂષ જે ઉપકરણે અશકત અસમીચીન–હોય તે લેખંડ વગેરે રૂ૫ ભારને વહન કરિ શકે તેમ નથી. તેમજ તેજ પુરૂષ વૃદ્ધાવસ્થાપન્ન હોવાથી લેખંડના ભારને વહન કરી શકે તેમ નથી. એથી આ વાત સ્પષ્ટ થાય છે કે જીવની સમાનતા હોવા છતાં એ ઉપકરણો (સાધને)ની અસમાનતાને લીધે ભારનું વહન કરી શકાય તેમ નથી એથી આ વાત માની લેવી જોઈએ કે જીવ ભિન્ન છે અને શરીર ભિન્ન છે દા૧૪રા
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सुबोधिनी टीका सू. १४३ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम २५९ तुच्छत्ते वा गुरुयत्ते वा लहुयत्ते वा, जइ णं भते ! तस्स पुरिसस्स जीवंतस्स वा तुलियस्त मुयस्स वा तुलियस्स होज्जा केइ नाणत्ते वा जाव लहुयत्ते वा तो णं अहं सदहेजा तं चेव, जम्हा णं भंते ! तस्स पुरिसस्स जीवंतस्स वा तुलियस्स मुयस्स वा तुलियस्त नत्थि केइ नन्नत्ते वा जाव लहुयत्ते वा तम्हा सुपइट्रियो मे पइण्णा जहा तं जीवो त चेव ॥सू० १४३ ॥
छाया-ततः खलु स प्रदेशी के शिकुमारश्रमणमेवमवादीत-अस्ति खलु भदन्त! यावत् नो उपागच्छति, एवं खलु भदन्त! यावद विहरामि, ततः खलु मम नगरगुप्तिकाः यावत् चोरमुपनयन्ति, ततः खल्लु अहं त पुरुषं जीवि तकमेव तोलयामि तोलयित्वा छविच्छेदम् अकुर्वाणः जीविताद् व्यपरोप
'तए णं से पएसी इत्यादि । सूत्रार्थ--(तए णं से पएसी केसिकमारसमणं एवं बयासी) इसके
बाद उस प्रदेशीने केशीकुमारश्रमण से ऐसा कहा-(अस्थि णं भंते ! जाव नो उवागच्छइ) हे भदन्त ! यह उपमा बुद्धि जन्य है अतः वास्तविक नहीं है. मुझे इस वक्ष्यमाण कारण से जीव और शरीर का भेद प्रतीत नहीं होता है (एव खलु भते ! जाव विहरामि) वह कारण इस प्रकार से है-एक दिन की बात है कि मैं गणनायक आदिकों के साथ बाह्य उपस्थानशाला में बैठा हुआ था. (तएणं मम जगरगुत्तिया जाव चोर उव. णेति) इतने में मेरे नगररक्षक साक्षियुक्त आदि विशेषण संपन्न किसी एक चोर को पकड कर ले आए (तए णं अहं तं पुरिसं जीवितगं चेव तुलेमि)
'तएणं से पएसी' इत्यादि।
सूत्रार्थ-तए णसे पएसी केसिकुमारसमणं एवं क्यासी) त्या२ पछी ते प्रदेश २ शी हुभा२ श्रमाने २मा प्रमाणे प्रयुं. (अस्थि णं भंते जाव नो उवागच्छइ) मत ! २मा ५मा मुद्धिन्य छ मेथी पास्तवि४ नथी. पक्ष्यभाए। ॥२४थी ७१ भने शरीरनी भिन्नता भा२१ भनभा onमती नथी. (एवं खलु भंते ! जाव विहरामि) ते २९ २॥ प्रमाणे छे- सिनी बात छे नाय वगेरेनी साथै मा ७५स्थान (महा२नी ४ये)मा मह तो. (तएणं मम णगरगुत्तिया जाव चोर उवणेति) ते मते भा॥ ना२२क्ष। साक्षियुत वगेरे विशेषणेथी सपन्न 5 मे या२ने ५४ी दाव्या. (त एणं अहं तं पुरिस'
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राजप्रश्नीयसूत्रे यामि मृत तोलयामि ने चैव खलु तस्य पुरुषस्य जीवतो वा तोलितस्य मृत. स्य वा तोलितस्य किश्चित् नानात्व वा उन्मात्रत्व वा तुच्छत्व वा गुरुकत्वं वा लघुक त्वं वा, यदि खलु भदन्त ! तस्य पुरुषस्य जीवतो वा तोलितस्य मृतस्य वा तोलितस्य भवेत् किञ्चित् नानात्व वा यावत् लघुत्व वा तदा खलु अहं श्रद्दध्यां तदेव, यस्मात् खलु भदन्त ! तस्य पुरुषस्य जीवतो वा उसे मैंने जीवित ही तोला (तुलेता छविच्छेय अकुवमाणे जीवियामो ववरोवेमि, मयं तुलेमि) तोल कर फिर मैंने उसे अंग भंग किये विना जीवन से रहित कर दिया और फिर मरे हुए उसे तोला (णो चेवणं तस्स पुरिसस्स जीवंतस्स वा तुलियस्स मयस्स वा तुलियस्स केइ नाणत्तें वा उम्मत्तत्ते वा तुच्छत्ते वा गुरुयत्ते वा लघुयत्ते वा) तब जाक्तितुले हुए उसमें और मरे तुले हुए उसमें मुझे किसी भी तरह की न्यूनाधिकता नहीं दिखाई दी. न उस में भार बढा न वह उसका भार कम हुआ न उसमें गुरुता आई न उसमें लघुता आई. (जइ णं भंते। तस्स षुरिसस्स जीवंतस्स वा तुलियस्स मयस्स चा तुलियस्स वा होज्जा केई नाणते वा जाव लघुयत्ते वी) हे भदन्त! जीविततुले हुए और मरे तुले हुए उस पुरुष में यदि कोई न्यूनाधिकता हो जाती यावत् लघुता हो जाती (तो णं अहं सद्दहेजा तं चेव) तो मैं श्रद्धा कर लेता कि जीव अन्य है, और शरीर अन्य है वह जीव शरीर नहीं है. वह शरीर जीव नहीं है.
जीवितग चेव तुलेमि) में अवितावस्थामा ४ तेनु न म्यु. (तुलेताछविच्छेय अकुब्वमाणे जीवियाओ ववरोवेमि, मयं तुलेमि) तीन ५४ी में तेने અંગ ભંગ ક્યાં વગર જ જીવન રહિત બનાવી દીધો અને મર્યા પછી ३ तनुं में वन ४२२व्यु: (गो चेवणं तस्स परिसस्स जीव तस्स वा तुलि. यस्स मयस्स वा तुलियस्स केइ नाणतेब। उम्मत्तत्त वा तुच्छत्त वा गुरुयत्ते वा लधुयत्त वा) त्यारे तi - येस तेमा भने मृत्यु पाम्या પછી વજન કરાયેલા તેમાં મને કોઈ પણ જાતની ન્યૂનાધિકતા લાગી નહીં, તેમાં ભાર વધારે પણ થયે નહીં, અને તેમાંથી ભાર ઓછો પણ થયા નહીં તેમાં ગુરૂતા આવી નથી તેમ તેમાં લઘુતા પણ આવી નથી. (जइणं भंते ! तस्स पुरिसस्स जीव तस्स वा तुलियस्स मयस्स या तुलियस्स वा होज्जा केई नाणत्त वा जाव लहुयत्त वा) 3 महत! वातावस्थामा કરેલા વજનમાં અને મૃતાવસ્થાવામાં કરેલા તે ચોરના વજનમાં જે કોઈ પણ જાતની न्यूनता थ/ on यावत् सधुत थ नत. (तो णं अहं सद्दहेज्जा तचेव)
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सुबोधिनी टीका. १४० सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिरजवर्णनम्
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तोलितस्य मृतस्य वा तोलितस्य नास्ति किञ्चित् नानात्वं वा यावत् लघु कत्व वा । तस्मात् सुप्रतिष्ठिता मे प्रतिज्ञा यथा-तज्जीवः तदेव || सू० १४३ ||
टीका- 'तए णं से पएसी' इत्यादि ततः तदनन्तर ं खलु स प्रदेशी राजा केशिकुमारश्रमणम्, एवमवादीत हे भदन्त ! अस्ति खलु यावत यात्पदेन 'एषा प्रज्ञातउपमा अनेन पुनः वक्ष्यमाणेन कारणेन' इत्येषां पदानां सग्रहः एतद्विवरणं पूर्व (१४०) चत्वारिंशदधिकैशशततमसूत्रे नो उपाग च्छति - जीवशरोरयोः परस्परं भेदो मे - मम् मनसि न संगच्छते । तदे
तर
जम्हा णं भते ! तस्स पुरिसस्स जीवंतस्स वा तुलियस्स मयस्स वा तुलियस्स नत्थि केइ नन्नत्थे वा जाव लहुयत्ते वा, तम्हा सुपइडिया मे पइण्णा जहातं जीवो तं चेव ) जिस कारण हे भदन्त ! जींते हुए तोले गये उस पुरुष में और मरे हुए तोले गये उसी पुरुष में जब कोई भिन्नतान्यूनाधिकता यावत् लघुता मैं नहीं देखता हूं- उस कारण से मेरा यह मन्तव्य कि वही पूर्वोक्त जीव है और वही शरीर है, न अन्य जीव हैं, और न अन्य शरीर है सुस्थिर है ।
टीकार्थ - - केशीकुमार श्रमण का जीव शरीर भिन्नता-विषयक कथन सुनकर प्रदेशी राजाने उनसे इस प्रकार कहा- हे भदन्त ! आपने जो यह उपमा जीव शरीर की भिन्नता प्रकट करने के लिये प्रकट की है वह केवल उपमामात्र है- बुद्धिजन्य होने से वास्तविक नहीं है. अतः जो बात
તે હું આ વાત પર શ્રદ્ધા કરી શકત કે જીવ અન્ય છે અને શરીર અન્ય છે. તે જીવ શરીર નથી અને शरीर लव नथी. ( जम्हाणं भंते ! तस्स पुरिसस्स जीवः तस्स वा तुलियस्स मयस्स वा तुलियस्स नत्थि केइ नन्नत्थे वा जाव लहुत्तेवा, तम्हा सुपट्टिया मे पहण्णा जहा, त जीवो त चेव) भेथी हे ભદ ંત ! જીવીતાવસ્થામાં વજન કરાયેલ તે પુરૂષમાં અને મૃતાવરથામાં વજન કરાયેલ તેજ પુરૂષમાં જ્યારે કાઇ પણ જાતની ભિન્નતા-ન્યૂનતાધિકતા યાવત્ લઘુતા મારા ધ્યાનમાં આવતી નથી તેથી મારી એવી માન્યતા છે કે જે જીવ છે તેજ શરીર છે. જીવ અન્ય નથી તેમજ શરીર પણ અન્ય નથી.
ટીકા”—કેશી કુમારશ્રમણનું જીવ શરીર પ્રદેશી રાજાએ તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે ભિન્નતા સ્પષ્ટ કરવા માટે જે ઉપમા આપી
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ભિન્નતા સંખ`ધી કથન
સાંભળીને ભદત! તમે જીવ અને શરીરની मात्र उथमा ४ छे, ते बुद्धि
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राजप्रश्नीयसूत्रे वाऽऽह-एवं खलु हे भदं त ! यावत्-यावत्पदेन 'बाह्यायामुपरथानशाला यामनेकगणनायक-दण्डनायक-राजेश्वर-तलवर-माडम्बिक-कौटुम्बिकेभ्य श्रेष्ठि-सेनापति-सार्थवाह-मन्त्रि-महामन्त्रि गणक-दौवारिकामात्य-चेट पीठमई नगरनिगमदूतसन्धिपालैः सार्द्ध संपरितः" इत्येषां पदानां सङ्ग्रहो बोध्या, एषां व्याख्या षटूत्रिंशदधिकशततमसूत्रे गता । विहरामि-तिष्ठाभि,
मैं कह रहा हूं उससे इन दोनों की अभिन्नता ही प्रकट होती है, यह बात इस प्रकार से है-मै एक दिन गणनायक आदिकों के साथ अपनी बाह्य उपस्थान शाला में बैठा हुआ था. नगर रक्षक एक चोर को पकड. कर मेरे समक्ष लाये-में ने उसे पहिले तो जीवितावस्था में तोला, बाद में उसे मार कर तोला. तोलने पर उसके भार में कुछ भी न्यूनाधिकता नहीं आई. अतः इससे मैं इसी निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि उस चोर का वही जीव है और वही शरीर है. न जीव अन्य है और न शरीर अन्य है। यहां 'जाव नो उवागच्छई' में जो यावत्पद आया है उससे 'एषा प्रज्ञात उपमा, अनेन पुनः वक्ष्यमाणकारणेन' इस पाठका संग्रह हुआ है। इनका विवरण १३८वे सूत्र में किया जा चुका हैं। 'जाव विहरामि' में आये हुए यावत्पद से 'बाह्यायामुपस्थानशालाया अनेक गणनायक-दण्डनायक, राजेश्वर, तलचर. माडम्बिकेभ्य-श्रेप्ठि-सेनापति-सार्थवाह-मंत्रि-महामंत्रि गणक-दौवारिका मात्य-चेट-पीठमद नगर निगम-दूतसंधिपालैः साधसंपरिवृतः' इस पाठ का
જન્ય હોવાથી અવાસ્તવિક જ છે. એથી જે વાત હું કહું છું તેથી એ બંનેની અભિન્નતા જ પ્રકટ થાય છે. એ વાત આ પ્રમાણે છે. હું એક દિવસ ગણનાયક વગેરેની સાથે મારી બાહ્ય ઉપસ્થાનશાળામાં બેઠા હતા ત્યાં નગરરક્ષકો એક ચેરને પકડીને મારી સામે લાવ્યા. મેં પહેલાં તેનું જીવતાં જ વજન કર્યું ત્યાર પછી તેને મારીને પછી તેનું વજન કર્યું. તે તેના વજનમાં કઈ પણ જાતની ચૂનાધિક્તા જણાઈ નહિ. એથી હું આ નિષ્કર્ષ પર આવ્યું છે કે તે ચોરને જીવ છે શરીર છે. અને શરીર છે તેજ જીવ છે જીવ અન્ય નથી અને શરીર અન્ય નથી અહીં 'जाव नो उवागच्छइ' भारे यावत् ५६ मावेश छ तेथी (एषा प्रज्ञातउपमा, अनेन पुनः वक्ष्यमाणकारणेन'' मा पानी सड थयो छे. मानु स्पष्टी४२६४ १३८ । सूत्र ४२वामा माव्यु छ. (बाह्यायामुख स्थानशालायां अनेकगण नायक-दण्डनायक, राजेश्वर, तलवर माडबिक, कौटुम्बिकभ्य, श्रेष्ठिसेनापति-सार्थवाह-मांत्रि-महामत्रि गणक-दोबारिकामात्य-चेट पीठ मर्द
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सुबोधिनी टीका सू. १४३ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् २६३ ततः तदा खलु मम नगरगुप्तिका:-नगररक्षकाः ससाक्ष्यं-साक्षियुक्त यथा तथा यावत्-सहोढादिविशेषणविशिष्ट चौरमुप, यन्ति-मत्समीपे समान यन्ति, ततः खलु अहं तं चौरं पुरुषं जीवितकमेव तोलयामि, तोलयित्वा छविच्छेदम्-अङ्गादिभङ्गम् अकुर्वाणः अकुर्वन्नेव जीविताद व्यपरोपयामिमारयामि, मारयित्वा पुनस्तं मृत तोलयामि, नैव च खलु तस्य मारित चोरपुरुषस्य जीवतःसतः तोलितस्य वा-अथवा मृतस्य च तोलितस्य किन्चित्किमपि नानात्वं-न्यूनाधिकत्वं पश्यामि, नानात्वस्य रूपं दर्शयति-उन्मावत्वभाराधिक्यं, वा-अथवा, तुच्छत्वं-भाराल्पत्वं वा गुरुकत्वं-गुरुता वा, लघु. कत्वं-लघुता या, यदि खलु हे भदंत ! तस्य पुरुषस्य जीवतो वा तोलितस्य मृतस्य वा तोलितस्य किञ्चित् नानात्वं यावत् लघुकत्वं वा भवेत, तदा खलु अहं श्रद्दध्यां तदेव-अन्यो जीवोऽन्यच्छरीरम, नो तजीवः स शरीरम इति । हे भदन्त ! यस्मात कारणात् खलु तस्य पुरुषस्य जीवतो वा तोलितस्य मृतस्य वा तोलितस्य नास्ति किञ्चिद् नानात्व लधुकत्व
वा,तस्मात् मे सुपतिष्ठिता-सुस्थिरा प्रतिज्ञा यथा तज्जीव:, तदेव-पूतमेव-तज्जीवः स शरीरम्. नो अन्यो जीवोऽन्यच्छरीरम्, इति ॥१० १४३॥
__मलमू-तए णं केसीकुमारसमणे पएसि रायं एवं वयासीअस्थि णं पएसी ! तुमे कयाइ वत्थी धंतपुठवे वा धमावियपुव्वे वा ? हंता अस्थि । अस्थि णं पएसो! तस्स वत्थिस्स पुष्णस्स वो तुलियस्स अपुण्णस्स वा तुलियस्स केइ नाणत्ते वा जाव लघुयत्ते वा णोइण? समटे एवामेव पएसी!जीयस्स अगुरुलहुयत्तं पडुच्च जीवं तस्स वा तुलियस्स मयस्स वा तुलियस्त नत्थि केइ नाणत्ते वा जाव लहुयत्ते वा, तं सदहाहि णं तुमं पएसी! तं चेव७ ॥ सू० १४४ ॥
संग्रह हुआ है इन पदों की व्याख्या १३५वे सूत्र में की जा चुकी है। 'जाव चोरं उवणे ति' मैं ससाक्षी सहोढादि विशेषणोंका यावत् पदसे ग्रहण हुआ है ॥स्. १४३॥ -नगर-निगम दूतसंधिपाले साध संपरिवृत्तः" मा पानी सड यो छे. मा पहनी व्याभ्या 13५ मां सूत्रमा ४२वामा भावी छे. 'जाव चोर उवणेति' માં સસાક્ષી-સહેટાદિ વિશેષણનું યાવત પદથી ગ્રહણ થયું છે. સૂટ ૧૪૩
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राजप्रश्नीयसूत्रे छाया-ततःखलु केशीकुमारश्रमण : प्रदेशिनं राजानमेवमवादीत् अस्ति खलु प्रदेशिन् ! तव कदाचिद् बस्तिः ध्मातपूर्वे ध्मापितपूर्वो वा ? हन्त अस्ति । अस्ति खलु प्रदेशिन् ! तस्य वस्तेः पूर्णस्य वा तोलितस्य अपूर्णस्य वा तोलितस्य किश्चित् नानात्व वा यावत् लघुकत्वं वा । नायमर्थः समर्थः। एवमेव प्रदेशिन् जीवस्यागुरुलधुकत्व प्रतीत्य जीवतो
'तए णं से केसीकुमारसमणे' इत्यादि ।
सूत्रार्थ-- तए णं से केसोकुमारसमणे पएसिं रायं एवं वयासी) इसके बाद उन केशीकुमारश्रमणने प्रदेशी राजा से इस प्रकार कहा-- (अस्थि णं पएसी! तुमे कयाइ वत्थी धंतपुरवे वा धमावियपुग्वे वा १) हे प्रदेशिन्: ! तुमने कभी भस्त्रिका को वायु से पूरित की है, या किसी से करवाई है ? (हंता अस्थि) तब प्रदेशीने कहा-हां, भदन्त ! की है और कराई है। (अत्थि णं पएसी ! तस्स पत्थिस्स पुण्णस्स वा तुलियस्स अपु. णस्स वा तुलियस्स केइ नाणत्ते वा जाव लहुयत्ते वा) पुन: केशीकुमारश्रमणने उससे कहा-हे प्रदेशिन् ! जब तुमने उस भस्त्रिका को वायु से पूरित करके तोला तब, और वायु से अपूरितावस्था में तोला तब उसमें तुम्हे कुछ न्यूनाधिकता यावत लघुता दृष्टिगत हुइ ? प्रदेशीने कहा-(णो इणढे सम?) हे भदन्त ! यह अर्थ समर्थ नहीं है-अर्थात् उसमें न्यूनाधिकता यावत् लधुता कुछ भी दृष्टिगत नहीं हुई है (एवामेव पएसी जीवस्स अगुरुलहु
'त एणं केसीकुमारसमणे' इत्यादि।
सूत्रार्थ:-(त एणं केसीकुमारसमणे पएसि राय एवं वयासी) प्यार पछी ते शोभार भरे प्रदेशी ने 20 प्रभा ४धु-(अस्थि णं पएसी ! तुमे कयाइ वन्थी अतपुव्ये वा धमावियपुव्वे वा !) प्रशिन् ! तमे us પણ દિવસે ભસ્ત્રિકા (ધમણ) માં હવા ભરી છે. કે કોઈની પાસેથી ભરાવડાવી છે? (हता अत्थि) त्यारे प्रदेशी २० ४, i wa ! सरी छे भने सरा
वी छ. (अस्थि ण पएसी ! तस्स वस्थिस्स पूण्णस्स वा तुलियस्स अपुण्णस्स वा तुलियम्स केइ नाणते वा जाव लहुयने वा) ५२॥ शोभा२श्रमणे तेने કહ્યું- હે પ્રદેશિન્ ! જ્યારે તમે તે ધમણનું હવા ભરીને વજન કર્યું અને પછી હવા બહાર કાઢીને તેનું વજન કર્યું ત્યારે તમને તેમાં કંઈક ન્યૂનાધિકતા યાવત્ લઘુતા orus ? प्रदेशीय यु (णो इणट्टे समढे) महत ! सा अर्थ समर्थ नथीमेटले न्यूनाधिता यावत् सधुता ४४ प ४ नड (एवामेव पएसी
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सुबोधिनी टीका सू. १४४ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदे शोराजवर्णनम् २६५ वा तोलितस्य मृतस्य वा तोलितस्य नास्ति किश्चित् नानात्व वा यावत् लघुकत्व वा, तत श्रद्धेहि खलु त्वं प्रदेशिन : तदेव ७० १४४॥
टीका-"तए णं केसी कुमारसमणे" इत्यादि-ततः खलु केशीकुमार. श्रमणः प्रदेशिन राजानम् एवमवादीत-हे प्रदेशिन ! तव कदाचित्-व स्मिं. श्चित्काले बस्ति:- दृतिः--चर्मपुटरूपभस्त्रिका ध्मातपूर्व:--पूर्व मातः-वायुभिः पूरितः, वा-अथवा धमापितपूर्व : पूर्व के नापि ध्मापित:-वायुभिः पूर्णः कारित: इति केशिप्रश्नः, तत्र प्रदेशी प्राह-हन्त ! अस्ति । पुन: केशी पृच्छति हे प्रदेशिन् ! तस्य बस्तेः पूर्णस्य वायुभृतस्य तोलितस्य, वा-अथवा अपू. णस्य-वायुभिरपूरितस्य वा तोलितस्य सतः किश्चित् किमपि नानात्व यावत लघुकत्व वा अस्ति ? इति के शिप्रश्नः प्रदेशी पाह-नायमर्थः समर्थ:नानात्वसद्भावरूपोऽर्थो न विद्यते । वे शी कथयति-एवमेव हे प्रदेशिन् ! जीवस्य अगुरुलघुकत्व'-गुरुत्वलघुत्वरहितत्वं प्रतीत्य-आश्रित्य जीवतो वा नोलितस्य मृतस्य वा तोलितस्य नास्ति किश्चित् नानात्व वा यावत् लघुकत्व वा, तत् तस्मात् कारणात् हे प्रदेशिन् ! त्वं श्रद्धेहि मद्वचजे श्रद्धां कुरु, तदेव-यथा-नों तज्जीवास शरीरम्, अन्यो जीवोऽन्यच्छरीरमिति,सु. १४४।
यत्त पडुच जीवंतस्स वा तुलियस्स मयस्स वा तुलियस्स नस्थि केइ नाणं ते वा जाव लहयत्ते वा, तं सहाहि णं तुमं पएसी तं चेव७) तो इसी प्रकार से हे प्रदेशिन् ! जीव के अगुरुलधुत्व रहितपने को प्रतीत करके जीवित अवस्था में तोले गये बाद में मृत अवस्था में तोले गये उस चोर के शरीर में कुछ भी नानात्व अथवा लधुत्व नहीं है। इस कारण हे प्रदेशिन्! तुम मेरे वचन में श्रद्धा करो कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है।
टीकार्थ इसका स्पष्ट है ॥ सू० १४४ ॥
जीवस्स अगुरुलहुयत्तं पडुच्च जीव तस्स वा तुलियस्स मयस्स वा तुलियस्स नस्थि केइ नाणते चा जाव लहयत्ते वा, त सहाहि ण तुमपएसीत चेव ७) तो मा प्रभारी प्रशिन् ! अपनी माधुत्व गुणेन-१३त्वमधुत्व હિતાવસ્થાને સામે રાખીને જીવિતાવસ્થામાં કરાયેલા તે ચેરના વજનમાં અને મૃતાવસ્થામાં કરાયેલા તે ચેરના વજનમાં કોઈ પણ જાતનું નાનાત્વ કે લઘુત્વ નથી. એથી હે પ્રદેશિન ! તમે મારી આ વાત પર વિશ્વાસ કરી લે કે જીવ અન્ય છે અને શરીર અન્ય છે. આ સૂત્રને ટકાથે સ્પષ્ટ જ છે. ૧૪જા
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__ राजप्रश्नीयसत्रे मूलम्-तए णं पएसा राया केसि कुमारसमणं एव वयासी -अस्थि णं भंते! एसा जाव नो उवागच्छइ, एवं खलु भंते! अहं अन्नया जाव चोरं उवणे ति, तएणं अहंतं पुरिसं सव्वओ समंता समभिलोएमि, नो चेव णं तत्थ जीव पासामि, तएणं अहं तं पुरिसं दुहा फालिय' करेमि करित्तो सव्वओ समंता समभिलोएमि, नो चेव णं तत्थ जीवं पासामि, एवं तिहा चउहा संखेजहा फालियं करेमि, नो चेव णं तत्थ जीव पासाम, जइ णं भते! अहं तंसि पुरिसंसि दुहावा तिहा वा चउहा वा संखेजहा वा फालियंसि जीव पासेजा, तो ण अहं सद्दहेज्जा तं चेव, जम्हा णं भते! अहं तंसि दुहा वा तिहावा चउहा वासंखिजहा वा फालियंसि जीवन पासामि तम्हा सुपइट्रिया मे पइण्णा, जहा-जीवोत सरीरं तं चेवासू,१४५॥
छाया--ततः खलु प्रदेशी राजा के शिनं कुमारश्रमणमेवमवादीअस्ति खलु भदन्त ! एषा यावद् नो उपागच्छति. एवं खलु भदन्त ।
'तए णं पएसी राया' इत्यादि।
सूत्रार्थ-(तए णं पएसी राया केसि कुमारसमणं एवं क्यासी) इसके याद प्रदेशी राजाने केशीकुमारश्रमण से ऐसा कहा-(अस्थि णं भंते ! एसा जाव नो उवागच्छइ) हे भदन्त! यह उपमा बुद्धिजन्य होने से वास्तविक नहीं है इस वक्ष्यमाण कारण से मुझे जीव और शरीर का भेद प्रतीत नहीं होता है. वह वक्ष्यमाण कारण (एवं भंते !) हे भदन्त ! इस प्रकार से है
'तएणं पएसी राया' इत्यादि ।
सूत्रार्थ-(तए णं पएसी राया केसि कुमारसमण एवं वयासी) त्या२ ५७) अशी २२० उशीभार श्रमाने २॥ प्रमाणे पुं. (अस्थि णं भते ! एसा जाव नो उवागच्छइ) & Mea! U SA मुद्धि प्रति पाथी ed. વિક નથી. આ નિખ કારણથી મારા મનમાં જીવ અને શરીરની ભિન્નતાની વાત मती नथी. (एवं भंते) ME! ते मा प्रभारी छ. (अहं अन्नया जाव
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सुबोधिनी रोका. सू. १४५ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् २६७ अहमन्यदा यावत् चोरमुपनयन्ति, ततः खलु अहं त पुरुषं सवेतः समन्तात समभिलोके नैव खलु तत्र जीवं पश्यामि, ततः खलु अहं तं पुरुषं द्विधा स्फा. टितं करोमि, कन्वा सर्वतः समन्तात् समभिलोके. न चैव खल तत्र जीव पश्यामि, एवं त्रिधा चतुर्धा संख्येयधा स्फाटितं करोमि न चैव तत्र जीवं पश्यामि, यदि खलु भदन्त ! अहं तस्मिन् पुरुषे द्विधा वा त्रिधा वा चतुर्धा वा अहं अन्नया जाव चोर उवणे ति) मैं एक दिन १३५वें सूत्र में कथित अनेक गणनायक आदिकों के साथ उपस्थानशाला में बैठा हुआ था वहां पर मेरे नगर रक्षक मुसकिया बन्धन से बांधकर एक चोर को लाया (तए णं अहं तं पुरिसं सव्वओ समंता समभिलोएमि) मैंने उस पुरुष को मस्तक से लेकर चरणपर्यन्त अच्छी तरह से देखा (नो चेव णं तत्थ जीव पासामि) परन्तु मुझे वहां पर जीव देखने में नहीं आया (तए णं अहं तं पुरिसं दहा फालियं करेमि) इसके बाद मैंने उस चोर के दो टुकडे कर दिये. (करित्ता सव्वओ समंता सम भिलोएमि) दो टुकडे करने के बाद फिर मैंने उसका अच्छी तरह से सब ओर से निरीक्षण किया (नो चेव णं तस्थ जीवं पासामि) परन्तु फिर भी वहां पर मुझे जीव देखने में नहीं आया (एवं तिहा, चउहा, संखेजहा फालिय'करेमि-नो चेवणं तत्थ जीव पासामि) तदनन्तर मैंने उसके तीन टुकड़े किये, चार टुकडे किये, यावत संख्यात (सैंकडे) टुकड़े किये परन्तु फिरभी वहां मुझे जीव नहीं दिखा (जइणं भंते ! अहं तसि पुरिसंसि दुहा वा तिहा वा चउहा
चोरं उबणेति) मे से १३५ मा सूत्रमा यित धा । नायवगेरे. ની સાથે બાહ્ય ઉપસ્થાન શાળામાં બેઠા હતા. ત્યાં મારા નગરરક્ષકે એક ચેરને भुटाट मधीन भारी साम दाव्या. (त एणं अह त परिसं सचओ समंता सभिलोएमि) में ते ५३पने भस्तथी भांजन ५५ सुधी सारी शत भयो. (नो चेव णं तत्थ जीव पासामि) पर भने तेमा ७१ हेमायो न. (तएणं अहं तं पुरिसं दुहा फालियं करेमि) त्या२ ५७ मे ते यार ५३पना २१ ४२० नाघ्या. (करिता सन्चओ समता समभिलोएमि) मे ४४मा श२ पछी में तेनु सारी शत निरीक्षण यु. (नो चेव तत्थ जीवं पासामि) ५। भने त्यां पायो नही. (एवं तिहा. चउहा. संखेज्जहा फालियं करेमि-नो चेवणं तत्थ जीव पासामि) त्यारे पछी मैं तेन १५ ४४७१ या, या२ 1331 यो યાવત્ સંખ્યાત (સેંકડો) કકડા કર્યા પણ છતાં એ ત્યાં મને જવા દેખાય નહીં.
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राजप्रश्नीयसूत्रे
संख्येयधा वा स्फाटिते जीवं पश्येयं, तदा खलु अहं श्रद्दध्यां तदेव, यस्मात् खलु भदन्त ! अहं तस्मिन् द्विधा वा त्रिधा वा चतुर्धा वा संख्ये यधा वा स्फाटिते जीवं न पश्यामि तस्मात् सुप्रतिष्ठिता मे प्रतिज्ञा यथातज्जीवः स शरीरं तदेव | || सू० १४५||
टीका -- 'तए णं पएसी राया' इत्यादि- ततः खलु प्रदेशी राजा केशिनं कुमारश्रमणम्, एवमवादीत् - हे भदन्त ! अस्ति खलु एषा इयम् यावत् याव स्पदेन - 'प्रज्ञात उपमा, अनेन पुनः कारणेन' इत्येषां पदाना संग्रहः, प्रज्ञप्तःबुद्धिविशेषाद् उपमाऽस्ति, किन्तु अनेन वक्ष्यमाणेन कारणेन भवदुक्तो जीवशरीरभेदो नो उपागच्छति न संगच्छते। तत्कारणं दर्शयितुमुपक मते - एवं खलु हे भदन्त ! एवं वक्ष्यमाणरीत्या अहम् अन्यदा- अन्यस्मिन काले यावत् - पावस्पदेन वाह्यायामुपस्थानशालायां षटूत्रिंशदधिकशततम सूत्रोक्त नेकगणनायकादिपदादारभ्य 'अवकोटकबन्धनबद्धं' इति पर्यन्तपाठोक्त विशेषणविशिष्ट चोरमुपनयन्ति, ततः खलु अहं तं पुरुषं सर्वतः -- आपादमस्तक, समन्तात् साङ्गोपाङ्ग समभिलोके सम्यग्र आभिमुख्येन पश्यामि किन्तु तत्र - तस्मिन् - चोरे जीव नैव पश्यामि ततः खलु अहं तं - चोर द्विधा- द्विखण्ड स्फाटित - विदारितं करोमि कृत्वा सर्वतः समन्तात् समभिलोके,
,
वा संखेज्जहा वा फालियंसि जीवं पासेज्जा तो णं अहं सदहेज्जा तं चेव ) अतः यदि भदन्त ! मुझे उस पुरुष के दो, तीन चार, अथवा संख्यात टुकडे करने पर उसका जीव दिखता तो मैं आपके इस कथन पर विश्वास कर लेता कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है. जीव शरीररूप नहीं है, शरीर जीवरूप नहीं है (जम्हा णं भंते! अहं तेसिं दुहा वातिहा वा चहा वा संखिज्जा वा फालियंसि जीवं न पासामि - तम्हा सुपइडिया मे पइण्णा - जहा तं जीवो तं सरीर तं चेव) जिस कारण से हे भदन्त ! मैंने
(जइणं भंते ! अहं तंसि पुरिसंसि दुहा वा तिहावा चउहा वा संखेज्जहा वा फालियंसि जीवं पासेज्जा तो णं अहं सद्दहेज्जा तं चेव) मेथी ले लहंत ! મને તે પુરૂષના બે ત્રણ ચાર અથવા સંખ્યાત કકડા કરવાથી તે ના જીવ જોવામાં આવ્યાહાત તે હું તમારા આ કથન પર વિશ્વાસ કરી લેત કે જીવ અન્ય છે. અને શરીર અન્ય છે. જીવ शरी२३५ नथी मने शरीर लव३५ नथी. ( जम्हा णं भंते ! अहं तोसि दुहा वा तिहावा चउहा वा संखिज्जहा वा, फालियंसि जीवं न पासामि - तम्हा सुपर द्विया मे पइष्णा जहा तं जीवो तं सरीरं तं चैव) ने अरथी हे महंत ! में
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सुबोधिनी टोका सू. १५५ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् २६९ किन्तु तत्र जाव नैंव खलु पश्यामि-अनेन प्रकारेण त्रिधा-त्रिखण्ड स्फाटितं, चतुर्धा-चतु:खण्डं स्फाटितं संख्येयधा-संख्यातवःड स्फाटित करोमि, किन्तु तत्र तस्मिन् द्वित्रिचतुःसंख्येयधा स्फाटिते चोरे जीव नैव पश्यामि, हे भदन्त! यदि खलु अह तस्मिन्-चोरपुरुषे द्विधा वा त्रिधा वा चतुर्धा वा संख्येयधा वास्फाटिते जीव पश्येयं तदा-जीवदर्शने खलु अह श्रदध्यां भवतोक्ने विश्वस्याम् तदेव-नो तज्जीवः स शरीरम् अन्यो जीवोऽन्यच्छरीरम्, इति, यस्मात् खलु हे भदन्त ! अह तस्मिन् चोरे द्विधा वा त्रिधा वाचतुर्धा वा संख्ये. यधा वा स्फाटिते जी। न पश्यामि, तस्मात-जीवादर्शनकारणात् मे-मम प्रतिज्ञा-स्वीकारः, सुप्रतिष्ठिता-सुस्थिरा यथा--तजीवः स शरीर तदेव-- नो अन्यो जीवोऽन्यच्छरीरमिति । ॥ सू० १४५ ।। म्लम्-तए णं केसिकुमारसमणे पएसिं रायं एवं वयासी-मूढतराए णं तुमं पएसी ताओ कट्ठहोराओ, ! के णं भते कटहारए ? पएसी! से जहाणामए केइपुरिसो वणत्थी वणोवजीवी वणगवेसणयाए जोई च जोइभायणं च गहाय कटाणं अडवि अणुपविटा, तए णं ते पुरिसा तीसे अगामियाए अडवीए-किंचिदेसं अणुपत्ता समाणा एगं पुरिसं एवं वयासी-अम्हे गं देवाणुप्पिया! कटाणं अडवि पविसामो, एत्तो णं तुम जोइभायणाओ जोइं गहाय अम्ह असणं साहेज्जासि, अह तं जोइभायणे जोई विज्झवेज्जा एत्तो णं तुम कट्राओ जोइं गहाय
उसके दो तीन चार अथवा संख्यात टुकड़े कर देने पर भी जीव नहीं देखा उस कारण से मेरा मन्तव्य कि जीव शरीररूप है और शरीर जीवरूप है. जीव भिन्न नहीं है, शरीर भिन्न नहीं है सुस्थिर है.।
टीकार्थ स्पष्ट है ॥ सू० १४५॥
તેના બે ત્રણ ચાર અથવા સંખ્યાત કકડાઓ કર્યા પછી પણ જીવ જે નહિ તે તે કારણથી મારી જીવ શરીરરૂપ છે અને શરીર જવરૂપ છે, જીવ ભિન્ન નથી અને શરીર ભિન્ન નથી એવી માન્યતા સુસ્થિર છે.
ટીકાઈ સ્પષ્ટ જ છે. સુદ ૧૪પા
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राजप्रश्नीयसूत्रे
अम्ह असणं साहेज्जासित्ति कट्टु कटुाणं अडविं अणुपविट्ठा। तए णं से पुरिसे तओ मुहुत्त तराओ तेसिं पुरिसाणं असणं साहेमित्ति क जेणेव जोइभायणे तेणेव उवागच्छइ जोइभायणे जोई विज्झायमेव पासइ, तरणं से पुरिसे जेणेव से कट्ठे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता तं कटुं सव्वओ समंता समभिलोएइ नो चेव णं तत्थ जो पासइ, तए णं से पुरिसे परियर बंधइ फरसुं गिन्हइ त कट्टु दुहा फालियं करेइ सव्वओ समंता समभिलोएइ नो चेव णं तत्थ जोड़ पासइ एवं जाव संखेज्जहा फालिय करेइ सव्वओ समंता समभिलोएड नो चेव णं तत्थ जो पासइ, तए णं से पुरिसे तसि दुहा फालिए वा जाव सखे जहा फालिए वा जोई अपासमाणे भंते तंते परितंते निव्विण्णे समाणे फरसु एगते एडेइ, परियरं मुयइ एवं वयासीअहो! मए तेसिं पुरिसाणं असणे नो साहिएत्ति कहु ओहयमणसकप्पे चिता सोगसागरसंपविट्टे करयलपहृत्थमुहे अज्झाणो गए भूमि दिट्टिए झियाय तए णं ते पुरिसा कट्टाई छिंदति जेणेव से पुरिसे तेणेव उवागच्छति, त पुरिसं ओहमयणसंकल्प जाव झियायमाण पासंति एवं वयासी- किं णं तुमं देवाणुप्पिया ! ओहयमणसं कप्पे जाव झियायसि ? तए णं से पुरिसे एवं वयासी - तुज्झणं देवाणुप्पिया कट्टा णं अडवि अणुपविसमाणा मम एवं वयासी- अम्हे णं देवाणुप्पिया ! कटुाणं अडवि जाव अणुपविट्ठा, तए णं अहं तत्तो मुहुत्तंतराओ तुज्झ असणं साहेमित्ति जेणेव जोइभायणे जाव झियामि, तए णं
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सुबोधिनी टोका सू. १४६ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशीराजवर्णनम् २७९ तेसि पुरिसाणं एगे पुरिसे छेए दक्खे पत्तट्रे जाव उवएसलहे ते पुरिसे एवं वयासी-गच्छह णं तुज्झे देवाणुप्पिया! व्हाया कयबलिकम्मा जाव हव्वमागच्छेह जा णं अहं असणं साहेमित्ति कटु परिवरं बंधइ फरसु गिण्हइ सरं करेइ सरेण अरणिं महइ जोइं पाडेइ जोइं संधुवखेइ तेसिं पुरिसाणं असणं साहेइ, तए णं ते पुरिसा पहाया कयबलिकम्मा जाव पोयच्छित्ता जेणेव से पुरिसे तेणेव उवागच्छंति, तए णं से पुरिसे तेसिं पुरिसाणं सुहासणवरगयाणं तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवणेइ। तए णं ते पुरिसा तं विउल असणं पाणं खाइम साइमं आसाएमाणा वीसाएमाणा जाव विहरति । जिमियभुत्तुत्तरागयावि य णं समाणा आयंता चोक्खा परमसुइभूय। तं पुरिसं एवं वयासी-अहो ! णं तुमं देवाणुप्पिया जड्ड मूढे अपंडिए णिविण्णाणे अणुवएसलद्धे जे णं तुम इच्छसि कट्टसि दुहा फालियसि वा जाव जोइ पासित्तए, से एएणट्रेणं पएसी! एवं वुच्चइ मूढतराए णं तुमं पएसी ! ताओ कटुहाराओ ८ । सू० १४६ ।
छाया--ततः खलु के शिकुमारश्रमणः प्रदेशिनं राजानमेवमवादीतमूढतरकः खलु त्वं प्रदेशिन् ! ततः काष्ठहारात, कः खलु भदन्त ! काष्ठ
'तए णं केसिकुमारसमणे' इत्यादि।
सूत्रार्थ-(तए णं केसिकुमारसमणे पएसि राय एवं वयासी) इसके बाद केशीकुमारश्रमणने प्रदेशी राजा से इस प्रकार कहा (मूढतराए णं तुमं पएसी। ताओ कट्टहाराओ) हे प्रदेशिन् ! तुम उस काष्ठहर से भी
'तएणं केसिकुमारसमणं' इत्यादि ।
सूत्रार्थ-(तए णं केसिकुमारसमणपएसि रार्थ एवं क्यासी) त्यार मा उशीभाभले प्रशी ने 20 प्रभारी ४j (मूढतराए णं तुमं पएसी! ताओ कट्ठहाराओ ) हे प्रशिन् ! तमे भने पेसा 133२ ४२ai ५५ धारे
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राजप्रश्रीयसूत्र हारकः! प्रदोशन् ! ते यथानामकाः कचित् पुरुषाः वनार्थिनः वनापजीविनः बनगवेषणया ज्योतिश्च ज्याति जनं च गृहीत्वा काष्ठानामटवीमनुप. विष्टाः, ततः खलु ते पुरुषाः तस्याः अग्रामिकायाः यावत् किञ्चिद्दे शमनुप्राप्ताः सन्तः एक पुरुपमेवमवादिषु:-वयं खलु देवानुप्रिय! काष्ठाना. मटवीं प्रविशामः, इतः खलु त्वं ज्योतिर्भाजनात् ज्योतिर्गृहीत्वाऽस्माकममुझे अधिक मूर्ख प्रतात होते हा (के णं भंते ! कहरए) हे भदन्त ! वह काष्ठहर कैसा था? इस प्रकार जब प्रदेशीने कहा---तब (पएसी) केशीकुमारश्रमणने कहा-हे प्रदेशिन् ! सुनो (से जहा णामए केइ पुरिसो वण्णत्थी वणोक्जीवी वणगवेसणयाए जोइ च जोइभायणं च गहाय कट्ठाण अडवि अणुपबिहा) कितनेन बनार्थी और वनोपजीवी काष्ठहारक पुरुष थे। वन की गवेषणा करते२ किसी एक अटवी में प्रविष्ट हो गये, साथ में उन्होंने अग्नि:- रखने का आधारभूत पात्र ले रखा था. उस अटवी में इन्धन बहुत था. (तए ण ते पुरिसा सीसे अग्गमियाए अडवीए किंचि देसं अणुपत्ता समाणा) जब वे पुरुष उस ग्रामरहित अटवी में कुछ दूर तक पहुच चुके, तब (एगपुरिसं एवं वयासी) उन्होंने एक पुरुष से ऐसा कहा--(अरहे गं देवाणुप्पिया ! कट्ठ णं अडविं पविसोमो) हे देवानु. प्रिय ! हमलोग इस काष्ठप्रधान अटवी में आगे प्रविष्ट होते हैं (एत्तो. णं तुमं जोइभायणाओ जोई गहाय अम्ह असणं साहेज्जासि) तवतक तुम
भूसा छे. (के गं भंते ! कहारए), लहत ४२ यो त ? मा प्रमाणे न्यारे प्रशी सतसे -त्यारे (पएसी!) अशीशुभारभरे ह्यु , प्रशिन् ! साला (से जहानामए केइ पुरिसा वण्णत्थी वणोवजीवी वणगवेसणयाए जोंच जोइभायणं च गहाय कहाणं अडविं अणुपविहा): seats વનાથી અને વને પજવી કાષ્ટાહારક પુરૂષ હતા. તેઓ વનમાં શોધતાં શોધતાં કઈ એક અટવીમાં પ્રવિષ્ટ થઈ ગયા. તેમણે પિતાની સાથે અગ્નિ તેમજ અગ્નિને મુકવામાં માટે આધારભૂત પાત્ર લઈ રાખ્યાં હતા. તે અટવીમાં લાકડાઓ પુષ્કળ प्रभाशुभा उता. (तए ण ते पुरिसा तीसे अरगमियाए अडवीए किंचिदेस अणुपत्ता समाणा) न्यारे ते मधाते आभहित नि वीमा यी ६२या त्यारे (एगं पुरिसं एवं वयासी) तभी से पुरुषने मा प्रमाणे यु: (अम्हे
ण देवाणुप्पिया! कठ्ठाणं अडवि पविसामो) ३ हेपानुप्रिय ! समे 40 ४४ प्रधान 22वीभi 4g AIR प्रवेशीले छोय. (एत्तोणं तुम जोइभायणाओ जोंई
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सबोधिनी टोका. १४६ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् २७३ शन साधयेः इति कृत्वा काष्ठानामटवीमनुप्रविष्टाः. ततः खलु स पुरुषः ततो मुहूर्तान्तरात् तेषां पुरुषाणामशन साधयामीति कृत्वा यत्रैव ज्योति र्भाजनं तत्रैव उपागच्छति, ज्योतिर्भाजने ज्योतिर्विध्यातमेव पश्यति, ततः खलु स पुरुषः यत्र व तत् काष्ठ तत्र व उपागच्छति, उपागम्य तत् यहीं पर रह कर अग्नि के इस पात्र से अग्नि को लेकर हम लोगों के लिये भोजन तैयार करलो (अह तं जोइ भायणे जोई विज्झवेत्त) यदि उस पात्र में अग्नि बुझ जावे (एत्तो गं तुम कट्ठाओ जोई गहाय अम्हं असणं साहेज़्जासि तिक कठ्ठाण अडविं अणुपविठ्ठा) तो देखो जो यह लकडी पडी है सो इसमें से अग्नि को उत्पन्न कर लेना और हमलोगों के लिये भोजन बना लेना इस प्रकार कह कर वे उस इन्धन वाली अटवी में आगे प्रविष्ट हो गये (तएणं से पुरिसे तओ मुहुत्त तराओ तेसिं पुरिसाण असणं माहे मित्ति क? जेणेव जोइभायणे तेणेव उवागच्छइ) उनके चले जाने पर उस पुरुषने ऐसा विचार किया-कि चलो जल्दी से उन लोगों के लिये भोजन तैयार करलू-ऐसा विचार करके वह जहां पर वह अग्नि का पात्र रखा था वहां पर गया (जोइभायणे जोई विज्झायमेव पासइ) वहां जाकर उसने उस ज्योतिपात्र में अग्नि को बुझा हुआ ही देखा. (नए णं से पुरिसे जेणेव से कह तेणेव
गहाय अम्ह असणं साहेज्जासि) त्यां सुधा तमे मही हीन भनिना ॥ पात्रमाथी भनिने S अमा। भाटे लान तैयार ४२. (अह तं जोडभायणे जोई विज्झवेत्ता) ने l पात्रमा मन मेणाoय. (एत्तो ग तुम कहाश्रो जोई गहाय अम्ह असण साहेज्जासि त्ति कद्दु कहाण अडवि अणुपविठ्ठा) तो गुभो, मसाई ५७यु छ, तमाथी मन उत्पन्न १ सेन અને અમારા માટે ભોજન તૈયાર કરે છે. આ પ્રમાણે બધી વિગત સમજાવીને તેઓ ते पु वाणी 42वीभा मा प्रविष्ट 2 गया. (तए णं से पुरिसे तओं मुहुत्त तराओ तेसि पुरिसाणं साहेमित्ति कटु जेणेव जोइभायणे तेणेव उवागच्छद) तो मया न्यारे त्यांथी l २६ त्यारे तेरे मा प्रमाणे વિચાર કર્યો કે–સારૂં જલદી તેઓ બધા માટે જમવાનું તૈયાર કરી લઉં. આમ विया२ ४शन न्यो अनि पात्र हतु त्यां गया. (जोडभायणे जोई विज्झायमेव पोसइ) त्यां न तेणे ते निपामा मनिने सो गये यो. त एण से पुरिसे जेणेव से कट्टे तेणेव उवागच्छइ) त्या२ पछी ते ३५
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राजप्रश्नीयसूत्रे काष्ठ सर्वतः समन्तात् समभिलोकते, नो चैव खलु तत्र ज्योतिः पश्यति, ततः खलु स पुरुषः परिकर बध्नाति, गृह्णाति तत् काष्ठ द्विधा स्फाटित करोति सर्वतः समन्तात् समभिलोकते नो चैव खलु तत्र ज्योतिः पश्यति, एवं यावत संख्येयधा स्फाटित करोति सर्वतः समन्तात् समभिलोकते नो चैव खलु तत्र ज्योतिः पश्यति, ततः खलु स पुरुषः तस्मित् काष्ठे द्विधा स्फाटिते वा यावत् संख्येयधा स्फाटिते वा ज्योतिरपश्यन् श्रान्तः तान्तः परितान्तः निर्विण्णाः सन पर
उवागच्छइ) इसके बाद वह पुरुष वहां गया जहां वह काष्ठ पडा हुआ था (उवागच्छित्ता तं कट्ठ सव्वओ समंता समभिलोएइ) वहां जाकर के उसने उस काष्ठ को चारों ओर से अच्छी तरह से देखा (णो चेवणं जोइ पासेइ) परन्तु उसमें उसे अग्नि दिखाई नहीं दी (तए णं से पुरि से परियर बंध) तब उस पुरुषने अपनी कमर बांधी (फरसु गिण्हइ) कुल्लाडी उठाई और (त कटुं दुहा फालिह करेइ) उस काष्ठ के दो टुकडे कर दिये (सव्वओ समता समभिलोएइ) फिर उसे चारों ओर से अच्छी तरह से उसने देखा (णो चेव णं तत्थ जोइ पासइ) परन्तु उसमें उसे अग्नि दिखाई नहीं दी ( एवं जाव संखेज्जहा फालिह करेइ ) इसी प्रकार से फिर उसके यावत् संख्यात टुकड़े तक कर दिये (सव्वओ समता समभिलोएइ) परन्तु सब तरफ से अच्छी तरह देखने पर भी (णो चेव ण* तत्थ जोड़ पासइ) उसे उनमें अग्नि दिखाई नहीं दी ( तए णं से पुरिसे सिकसि दुहा फालिए वा जाव संखेज्जहा फालिए वा जोई अपास
त्यां गयो नयां पेसु श्रेष्ठ (साइडु) पडेसु तु (उवागच्छित्ता त कट्टु सव्वओ समता समभिलोएइ) त्यां न्हाने तेथे ते लाउडाने यारे मनुथी सारी रीते लेयु (णो चेवणं जो पासेइ) | तेमां तेने अग्नि यायो नहि. (तएण से पुरिसे परियरं बंधइ) त्यारे ते पुरुषे पोतानी डेडगांधी. (फरसु गिण्हर) डुहाडी हाथभां सीधी ने (तक दुहा फालिह करेइ) ते लाउडाना मे अडा ४२री नाभ्या. (सओ समता समभिलोएइ) पछी तेथे न्यारे तरइथी तेने लेयु: (नो चेवणं तत्थ जो पास ) भए। तेमां तेने अग्नि लेवामां आव्यो नहि. (एवं जाव सखेज्जहा फालिह करेई) या प्रमाणे पछी तेथे तेना यावत् से उडे । उडायो उरी नाम्या (सव्वओ समता समभिलोएइ) पशु तेमने यारे तर३ सारी रीते लेवा छतां (णो चेव णं तत्थ जोइ पासइ) तेने तेमनामां अग्नि देणायेो नहि. (तरण से पुरि से तसिंव सि दुहा फालियं वा जाव सखेज्जहा फालिए
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सुबोधिनोटीका. सूत्र १४६ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् २७५ शुमेकान्ते एडति (मुन्चति) परिकर मुञ्चति एवमवादीत् अहो ! मया तेषां पुरुषाणामशन नो साधितमिति अपहतमनःसंकल्पचिन्ताशोकसागरसपविष्टः करतलपर्यस्तमुखः आत ध्यानोपगतः भूमिगतष्टिको ध्यायति ततः खलु ते पुरुषाः काष्ठानि छिन्दन्ति, यत्र व स पुरुषः तत्र वोपागच्छन्ति, माणे संते परितंते निविष्णे समाणे परसु एगते एडेइ) इसके बाद जब उस पुरुष को उस काष्ठ के दो टुकडे यावत् संख्यात् टुकडे करने पर भी जब अग्नि दिखाई नहीं दी, तब वह थक कर, लान्त होकर, परितान्त होकर विशेष दारिवत हआ और उसने उस कुल्हाडी को किसी एकान्त स्थान में रख दिया (परियर मुयइ) कमर का बंधन भी खोल दिया (एवं वयासी) इस प्रकार कहने लगा (अहो मए तेसिं पुरिसाणं असणे नो साहिए त्तिक आ हयमणसंकप्पे चिंतासोगसागरसंपविढे करतलपलस्थमुहे अझोणोवगए भूमिगयदिट्ठीए झियाई) अरे ! मैं उन पुरुषों के लिये भोजन तैयार नहीं कर सका अब क्या करूं! इस प्रकार विचार कर वह बडा ही दुःखित हुआ उसकी समस्त मानसिक अभिलाषाएँ नष्ट हो गई
और वह चिन्ता, एवं शोक रूपी समुद्र में निमग्न हो गया. कपोल पर हथेली रख कर आत ध्यान करने लगा दृष्टि उसकी नीचे जमीन की ओर हो गई -इस प्रकार वह चिन्ता में फंस गया (तए णं ते पुरिसा कहाइ छिदंति) अब उन पुरुषोंने जब लकड़ियों को काटलिया- तब वे (जेणेव
वा जोइ अपासमाणे संते तंते निविण्णे समाणे परसु एगते एडेइ) ત્યાર પછી જ્યારે તે પુરૂષને તે કાષ્ઠના બે કડાઓ યાવત્ સંખ્યાત કકડા કર્યા પછી પણ જ્યારે અગ્નિ જેવામાં આવ્યું નહિ, ત્યારે તે થાકીને, કલાન્ત થઈને, પરિતાન્ત થઈને વિશેષ દુખિત થયો અને તેણે તે કુહાડીને કોઈ એકાંત સ્થાને મૂકી हीधी (परियर' मुयइ) ४भरनु मन ५५५ साली नाभ्यु (एव वयासी) पछी ते 20 प्रभाये यो. (अहो मए तेसिं पुरिसाण असणे नो साहिए त्ति कट्ट ओहयमणस कप्पे चिंतासोगसागरस पविट करतलपल्लत्थमुहे अट्टझाणोवगए भूमिगयदिट्टीए झियायइ) अरे ! ते भाणुसो भाटे मान બનાવી શક્યું નહિ. હવે શું કરું ? આ પ્રમાણે વિચાર કરીને તે ખૂબ જ દુ:ખી છે. તેની બધી માનસિક ઇચ્છાઓ નષ્ટ થઈ ગઈ, અને તે ચિંતા અને શોકરૂપી સમુદ્રમાં નિમગ્ન થઈ ગયે. કપાળ પર હથેળી મૂકીને તે આર્તધ્યાન કરવા લાગ્યો. तेनी न०४२ भान त२५ नीय थ ४, माम ते वितामा भी गयी. (तएण ते पुरिसा कठ्ठाई छिदंति) हवे ते भासाम दामी पी सीधा त्यारे तमा
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राजप्रश्नीयसूत्रे तं पुरुषमपहतमनःसंकल्पं यावत् ध्यायन्त पश्यन्ति, एवमवादिषुः-किं खलु त्वं देवानुप्रिय ! अपहतमनःसंकल्पः यावत ध्यायसि ? ततः खलु स पुरुष एवमवादीत-यूय खलु देवानुपियाः! काष्ठोनामटवीमनुपविशन्तः मम एवमवादिषुः:-वयं खलु देवानुपिय! काष्ठानामटवीं यावत अनुभविष्टाः,
सं पुरिसे तेणेव उवागच्छ ति) जहां वह पुरुष था, वहां पर आये त पुरिसं ओहयमणसंकरप जाव झियायमाण पासंति) वहां आकरके उन्होंने उस पुरुष को मानसिक अभिलाषाओं से रहित हुआ और शोक तथा चिन्तारूपी सागर में निमग्न हुआ, कपोल पर हथेली रख कर आतध्यान करता हुआ, एवं नीचे दृष्टि किये हुए देखा, देखकर फिर उन्होंने (एवं वयासो) उससे ऐसा कहा-(किं णं तुम देवाणुप्पिया! ओह यमणसंकप्पे जाव झियायसि) हे देवानुप्रिय ! तुम किस कारण से अपहतमनः संकल्प वाले बने हुए हो और यावत् चिन्ता कर रहे हो (तए ण से पुरिसे एवं वयासी) तब उस पुरुषने उनसे ऐसा कहा-(तुज्झे णं देवाणुपिया! कट्ठाण अडवि अणुपविसमाणा मम एवं वयासी) हे देवानपियों! आपलोग जब लकडी काटने के लिये अटबी में प्रविष्ट होने के लिये तैयार हुए थे-तब मुझसे ऐसा कहा था-(अम्हे ण देवाणुप्पिया! कट्ठाण अडवि जाव अणुपविट्ठा) हे देवानुप्रिय हम लोग लकडी काटने के लिये इस जंगल में आगे जाते
(जेणेव से पुरिसे तेणेव उवागच्छति) यो त पु३५ हता, त्यां गया. (त पुरिस ओहयमणकप्प' जाव झियायमाण पास ति) त्यi rन तेभो ते પુરૂષને માનસિક ઈચ્છાઓ જેની નષ્ટ પામી છે એ અને શેક તેમજ ચિંતા રૂપી સમુદ્રમાં નિમગ્ન થયેલ કપિલ પર હથેળી મૂકીને આર્તધ્યાન કરતે અને નીચી
e std यो लेने पछी तभए (एवं वयासी) तेने या प्रमाणे ह्यु(किं णं तुम देवाणुपिया! ओहयमणसंकरपे जाव झियायसि) हे हेवानुप्रिय ! તમે શા કારણથી અપહત મનઃસંકલ્પ વાળા થઈ ગયા છો અને યાવત ચિંતા કરી રહ્યા છે. (तएण से पुरिसे एवं क्यासी) त्यारे ते पु३ तेभने मा प्रमाणे यहां. (तुज्झण देवाणुप्पिया! कहाणं अडविं अणुपविसमाणा मम एवं वयासी)
દેવાનુપ્રિયે ! તમે સૌ જ્યારે લાકડા કાપવા માટે અટવીમા પ્રવિષ્ટ થવા તૈયાર यया तो त्यारे भने l प्रमाणे ह्युडतु-(अम्हेणं देवाणुप्पिया ! कठ्ठाण अडविं जाव अणुपविठ्ठा) हेवानुप्रिय ! अमे मा यो अपना भाटे मा અટવીમાં આગળ જઈએ છીએ. તે તમે ત્યાં સુધી અગ્નિ પાત્રમાંથી અફિન લઈને
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सुबोधिनी टीका सू. १४६ सूयभिदेवस्य पूर्व भवजीव प्रदेशिराजवर्ण नम ततः खलु अहं ततो मुहुर्तान्तरात् युष्माकमशन साधयामि' इति कृत्वा नव ज्योतिर्भाजन यावत् ध्यायामि ततः खलु तेषां पुरुषाणामेकः पुरुषः
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हैं-सो तुम तब तक अग्नि के पात्र से अग्नि को लेकर हम लोगों के लिये भोजन बनाना. यदि उस पात्र में अग्नि बुझ जावे तो तुम इस काष्ठ से ज्योति-अग्नि को तैयार कर लेना और हम लोगों के लिये भोजन बनाना, इस प्रकार कह कर आपलोग अटवी में प्रविष्ट हो गये, (तएण अहं चतो मुहुत्त तराओ तुज्झे असणं साहेमि त्तिकहु जेणेव जोइभायणे जाव झियामि) इसके बाद मैंने ऐसा विचार किया कि चलो बहुत जल्दी आप लोगों के लिये भोजन बनादूं ऐसा विचार कर ज्यों ही मैं जहां वह ज्योति भाजन (अग्निपात्र) रखा था. वहां पर गया तो क्या देखता हूं कि उसमें अग्नि बुझी पडी है. फिर मैं जहां वह काष्ठथा वहां पर गया. वहां जाकर मैं ने उस काष्ठ को अच्छी तरह से सब ओर से देखा, परन्तु मुझे बहां अग्नि दिखाई नहीं दी, फिर मैं ने अपनी कमर कसी और कुठार को लेकर उस काष्ठ के दो टुकड़े किये फिर मैंने उसे सब ओर से अच्छी तरह देखा परन्तु फिर भी मुझे वहां अग्नि के दर्शन नहीं हुए इस तरह फिर मैंने उसके तीन चार यावत् सैकडो तक टुकडे कर डाले और उन सब को अच्छी तरह से चारों ओर से देखा. परन्तु वहां कहीं भी
અમારા માટે ભાજન તૈયાર કરેા. તે પાત્રમાં અગ્નિ એળવાઇ જાય તે! તમે તે કાષ્ઠમાંથી અગ્નિ ઉત્પન્ન કરી લેજો. અને અમારા માટે ભાજન તૈયાર કરો. આમ उन्होंने तमे अधा मटवीमां प्रविष्ट या गया हता. (त एणं अहं तत्तो मुहुत्त तराओ तुझे असणं साहेमित्ति कहु जेणेव जोइभायणे जाव झियामि) ત્યાર પછી મેં આ જાતના વિચાર કર્યાં કે ચાલેા, બહુ જ જલદી તમારા માટે ભાજન તૈયાર કરી લઉ. આમ વિચાર કરીને હું જ્યારે અગ્નિપાત્ર જયાં રાખ્યું હતું ત્યાં ગયા તા તેમાં મને અગ્નિ આળવઇ ગયેલ દેખાયા. ત્યાર પછી હું જ્યાં લાકડું હતું ત્યાં ગયા. ત્યાં જઇને મેં તે કાષ્ઠને સારી રીતે જોયુ, ચારે તરફ જોયુ પણ મને તેમાં અગ્નિ દેખાયા નહિ. પછી મેં કમ્મર બાંધી અને કુહાડી લઈને તે કાષ્ઠ (લાકડા)ના એ કકડાએ કર્યાં. પછી તે કકડાઓને ચારે તરફથી સારી રીતે જોયા મને તેમાં પણ અગ્નિ દેખાયા નહિ. આમ મેં તેના ત્રણ ચાર વખત્ સંખ્યાત કકડાએ કરી નાખ્યા બધા કકડાઓને ચારે તરફથી સારી રીતે જોયા પણ ત્યાં મને જરા પણ અગ્નિ દેખાયા નહિ. ત્યારે હું થાકીને, તાન્ત, પરિતાન્ત થઈને અને ખેદ
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राजप्रश्नीयसूत्रे छेकः दक्षः प्राप्तार्थः यावत् उपदेशलब्धः तान् पुरुषान् एवमवादीत्-- गच्छत खलु यूयं देवानुपियाः ! स्नाताः कृतबलिकर्माणः यावत् शीवमागच्छत यावत् खलु अहमशन साधयामीति कृत्वा परिकर बध्नाति परशु मुझे अग्नि का नामतक भी नहीं पाया. तब मैंने थककर तान्त, परि. तान्त होकर और खेद खिन्न होकर कुल्हाडी को एकान्त में एक ओर रख दिया और कमर को खोल दिया-फिर मैंने ऐसा विचार किया-मैं अपहतमनः संकल्पवाला बना हुआ शोक एवं चिन्तारूपी समुद्र में डूवा हू'. कपोल पर हथेली रखकर बैठा हुआ हूँ, आत ध्यान कर रहा हू
और लज्जा के मारे जमीन की ओर देख रहा हूं (तएण तेसिं पुरिसाण एगे पुरिसे छेए दक्खे, पत्तट्टे जाव उवा सलद्धे ते पुरि से एवं वयासी) इस के बाद उन पुरुषों के बीच में एक पुरुष ऐसा था नो छेक-अवसर का ज्ञाता था, दक्ष-कार्यकशल था, पानार्थ-अपनी कुशलता से जिसने साध्यार्थ-को अधिगत कर लिया था, यावत् गुरूपदेश जिसने प्राप्त किया था. उसने उन काष्टहारक पुरुषों से ऐसा कहा-(गच्छह ण तुज्झ देवाणुपिया ! हाया, कयबलिकम्मा जाव हव्वमागच्छेह, जा ण अहं असण साहेमि त्ति कटु परिकरं बंधइ) हे देवानमियों ! आप लोग जाइये, स्नान कीजिये, बलिकर्म-काक आदि को अन्नादि का भाग देने
ખિન્ન થઈને કુહાડીને એક તરફ મૂકી દીધી અને બાંધેલી કેડ ખોલી નાખી પછી
મેં આ જાતનો વિચાર કર્યો. હું તે માણસ માટે ભોજન બનાવી શકશે નહિ. આ કેવી દુ:ખ અને આશ્ચર્યની વાત છે. આ પ્રમાણે વિચાર કરીને હું અપહત મનઃ સંક૯પવાળ થઈને શોક અને ચિંતારૂપી સમુદ્રમાં મગ્ન થઈને, કપોલ પર હથેલી મૂકીને બેઠો છું, અને આર્તધ્યાન કરી રહ્યો છું. શમથી મારી નજર નીચી
मीन त२५ qणी गई छ. (तएणं ते सिं पुरिसाणं एगे पुरिसे छेए दक्खे, पत्तट्टे जाव उचएस लद्धे ते पुरिसे एवं वयासी) त्या२ पछी ते भासामा मे भास એ પણ હતું કે જે એક યોગ્ય સમયને પિછાણનાર, દક્ષ–કાર્યકુશળ પ્રાસાર્થપોતાની કુશળતાથી–જેણે સાધ્યાર્થી પ્રાપ્ત કરિ લીધો છે, એ યાવતુ ગુરુપદેશ જેણે प्रात यो छ मेवो इतो. तो ४४९।२४ भाणसाने । प्रमाणे ४. (गच्छह णं तुज देवाणुप्पिया! हाया, कयबलिकम्मा जाव हव्वमागच्छेह, जाण अह. असण साहेमि त्ति कटु परिकर बंधइ) है वानुप्रिया (तमेसो स्नान ।, બલિકમ-કાગડા વગેરે અન્ન વગેરેને ભાગ આપીને નિશ્ચિત્ત થઈ જાવ. યાવતું
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सुबोधिनी टीका सू. १४६ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् २७९ गृह्णाति गृहीत्वा शर कराति शरेण अरणि मथ्नाति ज्योतिः पातयतिः ज्योतिः संधुक्षते तेषां पुरुषाणामशन साधयति. ततः खलु ते पुरुषाः स्नाता: कृतबलिकर्माणः यावत् प्रायश्चित्ताः यत्रैव स पुरुषः तत्र व उपागच्छन्ति, ततः खलु स पुरुषः तेषां पुरुषाणां सुखासनवरगतानां तद् विपुलमशन पान खादिम रूप कार्य से निश्चिन्त हो जाइये, यावत कौतुक मंगलरूप प्रायश्चित्त कर लीजिये और फिर जल्दी आजाइये तबतक मैं आपलोगों के लिये भोजन तैयार करता हूं । ऐसा कहकर उसने अपनी कमर कसी आर (फरसु गिण्हइ) कुल्हाडी को उठाया (सर करेइ, सरेण अरणिं महेइ) उससे पहिले उसने लडकी को इतना छोला कि जिससे वह बाण के जैसी शलाई के रूप में हो गई. फिर उससे उसने अरणिकाष्ठ का मंथन किया (जोई पाडेई) मथन करने से अग्नि उसमें प्रकट हो गई (जोइं संधुक्खेः ) प्रकट हुइ उस अग्नि को उसने पवन वगैरह आदि साधनों से विशेष चैतन्य किया. अर्थात् धोंका (तेसि पुरिसाण असण साहेइ) अग्नि के तैयार हो जाने पर फिर उसने उन सब पुरुषों का भोजन बना दिया (तएण ते पुरिसा हाया कयबलिकम्मा जाव पायच्छित्ता जेणेव से पुरिसे तेणेव उवागच्छइ) इतने में वे पुरुष स्नान करके, बलिकर्म-काकआदि को अन्नादि का भाग दे करके यावत्-कौतुक मंगलरूप प्रायश्चित्त करके उस स्थान पर आये.
કૌતુક મંગળરૂપ પ્રાયશ્ચિત્ત કરી લે. અને પછી જલદી અહીં ઉપસ્થિત થઈ જાવ, આટલામાં હું તમારા માટે ભેજન તૈયાર કરૂં છું. આમ કહીને તેણે પોતાની કેડ मांधी भने (फरसु गिह इ) ४ी हाथमा सीधी. (सरं करेइ सरेण अरणि महेइ) तेरे सौ पडलi anाने मेवी शत छादयुथी ते मा की शा
थयु पछी तेनाथी तेरे A२६ टर्नु भयन यु (जोइ पाडेइ) मंथन ४२वाथी तमाथी भनि ४८ थ६ गयी. (जोइ संधुक्खेइ) ५४८ थयेस ते भनिने ५वन २ साधनाथी तेने विशेष प्रruled या. (तेसिं पुरिसाण' असणं साहेइ) मनि न्यारे प्रचलित थ६ गयो त्या३ तेणे ते अधा सी भाटे सोन तैया२ ४यु (त एण ते पुरिसा हाया कयवलिकम्मा जाव पायच्छित्ता जेणेव से पुरिसे तेणेव उवागच्छइ) मादाम ते मधा भासे २नान सेन, मलिभકાગડા વગેરેને અન્ન વગેરેનો ભાગ આપીને વાવત કૌતુક મંગળરૂપ પ્રાયશ્ચિત્ત કરીને त यामे भावी आया. यो त ५३५ हतो. तए णं से पुरिसे तेसिं पुरिसाणं सुहासणवरगयाणं तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइम उवणेइ तएणं ते पुरिसा
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राजप्रश्नीयसूत्रे
स्वादिमम उपनयति, ततः खलु ते पुरुषाः तद् विपुलमशनं पानं खादि मं स्वादिमम् आस्वादयन्तो विस्वादयन्तो यावद् विहरन्ति, जिमितभुक्तो, त्त रागता अपि च खलु सन्तः आचान्ताः चोक्षाः परमशुचिभूताः तं पुरुषमेवमादिषुः - अहो !! खलु त्वं देवानुप्रिय ! जडः मूढः अपण्डितः निर्विज्ञानः अनुपदेशलब्धः यः खलु त्वामच्छसि काष्ठे द्विधा स्फाटिते वा यावत्
जहां कि वह पुरुष था. (तरण से पुरिसे तेसिं पुरिसाणं सुहासणवरगया णं तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवणे, तएण ते पुरिसात विल' असण पाणखाइम साइमं आसाएमाणा बिसाएमाणा जाव विहरति ) वहां आकरके वे सबके सब पुरुष अपने२ सुखासन पर बैठ गये. उनके बैठ जाने पर फिर उस पुरुष ने उस प्रचुर खाद्य आदि सामग्री को लाकर उनके समक्ष रख दिया और परोस दिया, उन सबने उस भोजन सामग्री चारों प्रकार के आहार को उसका स्वाद जानने के लिये पहिले तो चखा रुचि से उसे खाया (जिमियमुत्तुत्तरागया वि य णं समाणा आयंता चोक्खा परमसुइया त पुरिस एवं वयासी) खा पीकर जब वे निश्चिन्त हो गये- तब वहां से उठे, और उठकर आचमन किया, आचमन - कुल्ला करने के बाद फिर उन्होने अपने हाथ मुह आदि को अच्छे प्रकार से धोकर साफ किया. इस तरह परम शुचियुक्त होकर फिर उन्होंने उस पहिले पुरुष से ऐसा कहा - ( अहो णं तुम देवाणुप्पिया ! जड्डे, मूढे, अपंडिए निव्विण्णाणे, अणुवएसलद्वे, जेणं तुम इच्छसिकसि दुहा तं विलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणा विसाएमाणा जाव विहरति ) त्यां न्हाने तेथे मधा ३षा पोतपोताना स्थाने सुभासन पर मेसी ગયા. તેએ જ્યારે એસી ગયા ત્યારે તે પુરૂષે તે પ્રચુર ખાદ્ય વગેરે સામગ્રીને લાવીને તેમની સામે મૂકી દીધી અને પીરસી દીધી. તેઓ બધાએ તે ભેાજન સામગ્રીને ચારે પ્રકારના આહારને-તેના સ્વાદને જાણવા માટે પહેલાં તે તેને ચાખ્યા પછી च्यूज इथियुर्वड तेने लभ्या. (जिमियमुत्तुत्तरागया वियणं समाणा आयंता चोक्खा परमसुइभूया तं पुरिसं एवं वयासी) मा-पीने न्यारे तेयो निश्चत થઈ ગયા ત્યારે તેઓ ત્યાંથી ઉભા થયા અને ઉભા થઇને આચમન—કાગળા–કરીને પછી તેમણે પોતાના હાથ માં વગેરેને સારી રીતે ધાઇને સ્વચ્છ કર્યાં. આ પ્રમાણે चरम शुथियुक्त थाने पछी तेभो ते पहेला पुरुषने या प्रभागे उर्धु. ( अहोणं तुमं देवाणुपिया । जड्डे । मूढे अपंडिए निविष्णाणे, अणुवएसलद्वे, जेणं
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सुबोधिनी टीका सू. १४६ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशोराजवर्णनम् २८१ ज्योतिद्रष्टुम्, तदेतेनार्थेन प्रदेशिन् ! एवमुच्यते मूढतरकः खलु त्वं प्रदेशिन् ! ततः काष्ठहारकात् । ॥ सू० १४६ ॥
टीका--'तए णं केसिकुमारसमणे' इत्यादि-ततः खलु के शिकुमारश्र. मणः प्रदेशिन राजानमेवमवादोत्-हे प्रदेशिन् ततः-तस्मात् काष्ठहारात् पुरुषात् त्वं मृढतरकः-अतीव मूर्खः खलु प्रतिभासि! तत्र प्रदेशी हेतू पृच्छति-हे भदन्त ! कः खलु असौ काष्ठहारकः ? केशी पाह-हे प्रदेशिन् ! फलियांसि वा जाव जोई पासित्तए) हे देवानुप्रिय ! तुम जड हो, अग्नि को उत्पन्न करने के साधन से अनभिज्ञ हो, मूर्ख हो-विवेक रहित हो, अपण्डित हो-प्रतिभा से युक्त नहीं हो, निर्विज्ञान-कुशलता तुम में नहीं है, अनुपदेशलब्ध-तुम ने इस विषय में गुरू का उपदेश प्राप्त नहीं किया है, अर्थात् अशिक्षित हो, इसीलिये लकडी में अग्नि को पाने के लिये तुमने उसे फाडा है, दो टुव डे कि ये हैं, तीन टुकड़े किये हैं, चार टुकडे किये हैं. यावत् संख्यात टुकड़े किये हैं, फिर भी तुम उसमें अग्नि नहीं देख सके-अतः तुम सच्चे रूप में मुदत्वादि पूर्वोक्त विशेषणों से शन्य नहीं हो. (से एएण देणं पए सी ! एवं बुच्चइ मूहतराए ण तुमपएसी ! ताओ कठ्ठहाराओ) इस प्रकार से मूढ़तरत्वसाधक दृष्टान्त का कथन कर उपस हार करते हुए अब केशी प्रदेशी से कहते हैं-हे प्रदेशिन् ! तुम इस दृष्टान्तोक्त पुरुष की अपेक्षा भी अधिक मूर्ख हो जो तुम पुरुष के शरीर को छिन्न भिन्न करके उसके जीव को देखने के लिये अभिलाषी बने हो। तुम इच्छसि कट्ठसि दुहा फालियंसि वा जाव जोई पासित्तए) हेवानुપ્રિય ! તમે જડ છો, અગ્નિ ઉત્પન્ન કરવાના સાધનથી અનભિજ્ઞ છે, મૂર્ખ છે, વિવેક રહિત છે, અપંડિત છે, પ્રતિભા રહિત છો, નિવિજ્ઞાન-કુશળતા રહિત છે, અનુપદેશલબ્ધ-તમોએ આ બાબતમાં ગુરૂનો ઉપદેશ પ્રાપ્પ કર્યો નથી, એટલે કે તમે આશિક્ષિત છો, એથી જ લાકડીમાંથી અગ્નિ મેળવવા માટે તમે તેના કકડા કરી નાખ્યા છે. બે કકઠા કરી નાખ્યા છે. ત્રણ કકડા કરી નાખ્યા છે, ચાર કકડા કરી નાખ્યા છે યાવત્ સંખ્યાત કકડા કરી નાખ્યા છે. છતાં એ તમને તેમાં અગ્નિ દેખાય નહિ. એથી તમે ખરેખર મૂઢત્વ વગેરે પૂર્વોક્ત વિશેષણોથી રહિત નથી. (से एएण? णं पएसी ! एवं वुच्चइ मूढतराए ण तुमं पएसी ! ताओ कट्ठहाराओ) मा प्रमाणे भत२त्व साध दृष्टांत डीन सहा२ ४२०i 3शी प्रशान કહેવા લાગ્યા કે હે પ્રદેશિન ! તમે આ દષ્ટાન્તમાં આવેલ પુરૂષ કરતાં પણ વધારે મૂખ છે. કેમકે તમે માણસના શરીરના કકડા કરીને તેમના જીવને જેવા તત્પર થયા હતા,
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राजप्रश्नीयसूत्रे ते यथानामकाः अनिर्दिष्टनामानः केचित पुरुषाः वनार्थिन:-वनमेवार्थोऽस्त्येषामिति वनार्थिन:-बनयोजनयुत्ता: वनोपजीविनः वनेन वन्यकाष्ठादिना उपजीविनः जीवननिर्वाहकारिणः काष्ठहारका इत्यर्थः, बनगवेषणया-चनजिज्ञा सया ज्योति:-अग्नि च ज्योतिर्भाजनम्-अग्निपात्र च गृहीत्वा काष्टानाम्इन्धनानाम् स्थानभूताम् अटवीम् अनुपविष्टाः, ततः-तदनन्तरम् ते पुरुषाः तस्याः अग्रामिकाया:-जनवसतिरहितायाः, अटव्याः किञ्चिद्देश-स्वल्पदेशम् अनुप्राप्ता:-क्रमेण गताः सन्तः एक पुरुषम् एवमवादिषुः-हे देवानुप्रिय ! वय काष्ठानामटवीं पविशामः, इतः खलु व ज्योतिर्भाजनात्-अग्निपात्रात् ज्योतिः अग्नि गृहीत्वा अस्माकमशनं साधये:-निष्पादयेः. अथ-भोजननिष्पादनसमये ज्योतिर्भाजने तत्-पूर्व तो रक्षित ज्योतिः विध्यायेत्-- शाम्येत् तदा इतः-एतस्मात् काष्ठात् खलु त्वं ज्योति:-अग्नि गृहीत्वा अस्माकमशन साधयेः इति कृत्वा-इत्याज्ञाप्य ते काष्ठहारकाः काष्ठाना मटचीमनुप्रविष्टाः, ततः तेषां गमनानन्तर खलु स पुरुषः ततः-मुहूर्तान्तरात्-किञ्चित्कालोनन्तरम् तेषां-वन प्रविष्टानां पुरुषाणाम् अशन साधयामीति कृत्वा-इत्यभिप्रेत्य यत्र व-यम्मिन्नेव स्थाने ज्योतिर्भाजनमासीत् तत्रव-तस्मिन्नेव स्थाने उपागच्छति, परन्तु ज्योतिर्भाजने-अग्निपात् ज्योतिःअग्निम् विध्यातमेव-प्रशान्तमेव पश्यति, ततः खलु सः-अशननिष्पादनार्थी पुरुषः यत्रैव तत् काष्ठ तत्रैव उपागच्छति. उपागत्य तत् काष्ठं सर्वतः समन्तात् समभिलोकते नो चैव-नैव खलु तत्-काष्ठे ज्योति:-वहिं पश्यति, ततः तदनन्तरम् स पुरुषः परिकर कटिन्धनं बध्नाति परशु-कुठार गृह्णाति तत् काष्ठं द्विधा स्फाटित-विदारित करोति-सर्वतः समन्तात स्मभिलोकते नो चैव खलु तत-काष्ठे ज्योतिः-वहिं पश्यति, एवम्-अनेन प्रकारेण यावत्-- यावत्पदेन 'त्रिधा स्फाटित चतुर्धा स्फाटितम्' इत्येषां पदानां सङ्ग्रहो बोध्यः, सख्येयधा-संख्यातखण्ड' स्फाटित करोति कृत्वा सर्वतः समन्तात् समभिलोकते, नो चैव तत् ज्योतिः पश्यति, ततः तदनन्तरम् खलु स पुरुषः तस्मिन्-कृतकुठारमहारे काष्ठे द्विधा स्फटिते यावत् संख्येयधासंख्यातखण्डशः स्फाटिते वा ज्योतिः अपश्यन भान्त:-श्रम माप्तः, तान्तः -क्लान्तः, परितान्तः-विशेषतःक्लान्तः, निर्विणिः-खिन्नः सन् परशु-कुठारम् एकान्ते-रहसि एडति-देशीयोऽयमेडधातुर्मोचनार्थः, तेन 'मुञ्चति' इत्यर्थः. मुक्त्वा परिकर-कटिबन्धन मुश्चति, मुक्तवा एवमवादीत-अहो!! -
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सुबोधिनी टीका. सू. १४६ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्ण' नम्
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विस्मयोऽत्र यत् मया मन्दभाग्येन तेषां पुरुषाणामशन - भोजनं नो साधितम् इति कृत्वा - इति विचिन्त्य अवहतमनः संकल्पः - नष्टमनोऽभिलाषः, चिन्ताशोकसागरसंप्रविष्टः -- चिन्ताशोकसमुद्रनिमग्नः, करतलपर्यस्तमुख:कातलनिहित कपोलः, मुख शब्दस्य मुवावयवकपोलपरत्वात्, आर्तध्यानोपगतः - आतध्यानयुक्तः, भूमिगतदृष्टिकः - पृथिवीतल निरीक्षणतत्परः - अधोमुखः, ध्यायति-चिन्तां करोति तत इतश्व ते अटवीमनुप्रविष्टाः पुरुषाः काष्ठानि छिन्दन्ति, छित्वा यत्रैव सः अशननिष्पादनार्थी पुरुषः तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागत्य तं पुरुषम् अपहतमनः संकल्प यावत् - यावत्पदेन “चिन्ताशोकसागरसं प्रविष्ट करतलपर्यस्तसुखम्, आर्तध्यानोपमत, भूमि गतदृष्टिकम्" इत्येषां पदानां सङ्ग्रहो बोध्यः, ध्यायन्त - चिन्तां कुर्वन्त
टीकार्थ स्पष्ट है - इस सूत्र का भावार्थ ऐसा है कि जिस प्रकार प्रथम पुरुष को काठ में अग्नि के दर्शन नहीं हुए और द्वितीय पुरुष को हो गये. उसी प्रकार तुम्हें भी उस चोर पुरुष के शरीर में छिन्नभिन्न करने पर भी उसको जीव के दर्शन नहीं हो सके एतावता यह कैसा कहा जा सकता है कि जीव दिखाई नहीं देने से जीव नाम का कोई स्वतंत्र पदार्थ नहीं है. इसलिये जीव और शरीर एक हैं ऐसी तुम अपनी मान्यता का परित्याग कर यह मानो कि जीव भिन्न है और शरीर भिन्न है. ये दोनों एक नहीं हैं। यहां मूत्र में जो ' करतलपर्यस्तमुखः' ऐसा पद आया है - उनमें मुखशब्द मुख के अवयवभूत कपोल अर्थ में आया है 'अपहतमनःसंकल्प जाव' में जो यह यावत् पद आया है उससे 'चिन्ताशोकसागरसंप्रविष्टः करतल पर्यस्तमु वः, आर्त्तध्यानोवगतः, एवं भूमिगतदृष्टिकः'
"
१
ટીકા આ સૂત્રનો સ્પષ્ટ જ છે. આ સૂત્રનો ભાવા આ પ્રમાણે છે કે જેમ પહેલા માણસને કાષ્ઠમાં અગ્નિના દૃન થયા નથી અને બીજા માણસને થયા તેમજ તે ચાર પુરૂષના શરીરના ક કકડા કરવા છતાંએ તેના જીવના દન તમને થયા નથી. એનાથી આ કેવી રીતે કહી શકાય કે જીવ દેખાતા નથી. તેથી જીવ નામના કાઇ સ્વતંત્ર પદાર્થ જ નથી. એથી જીવ અને શરીર એક જ છે. એવી તમારી જે માન્યતા છે તેને તમે છોડી દે અને આ વાત સ્વીકારી લેાકે જીવ लिन्न छे भने शरीर भिन्न छे मेयो भन्ने ये नथी. यहीं सूत्रमां ने करतल पर्यस्तमुखः' या लतनुं यह छे तेमां भुख शह भुमना अवयवभूत प्रयोस अर्थभां आवे छे “अपहतमनः संकल्प जाव" भां ने यावत् यह मावेस छे, तेथी 'चिन्ताशोकसागरसंप्रविष्टः करतलपर्यस्तमुखः आतध्यानोपगतः एवं
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राजप्रश्नीयसूत्रे
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पश्यन्ति, दृष्ट्वा एवम् अनुपदं वक्ष्यमाणं वचनम्, अचादिषुः- किं-कारण खलु ? हे देवानुपिय ! त्वम् अपहृतमतः संकल्पः यावत् - ध्यायसि ? - चिन्तां करोषि ?, ततः - तदनन्तरम् खलु स पुरुषः एवमवादीत - हे देवानुप्रियाः । यूयं खलु काष्ठानामटवीमनुप्रविशन्तः मम एवमवादिष्ट - कथि तवन्तः किमित्याह - हे देवानुप्रिय ! वयं खलु कोष्ठानामटवीं यावत्-याव पदेन “ प्रविशामः इतः खलु त्वं ज्योतिर्भाजनात ज्योतिगृहीत्वाऽस्माकमशन साधयेः, अथ तज्जयोतिर्भाजने ज्योतिर्विध्यायेत् इतः खलु त्वं काष्ठात ज्योतिगृहीत्वाऽस्माकमशन साधयेरिति कृत्वा काष्ठानामढवीम" इत्येष पदानां सङ्ग्रहो बोध्यः, अनुपविष्टाः, ततः - तदनन्तरं खलु अह ततो- मुहूतन्तिरात् युष्माकमशन' साधयामीति कृत्वा यत्रैव ज्योतिर्भाजनं यावत्-याव त्पदेन "तत्रैव उपागच्छामि ज्योतिर्भाजने ज्योतिर्विध्यात्तमेव पश्यामि, ततः खलु अहं यत्रैव तत् काष्ठं तत्रैव उपागच्छामि, उपागम्य तत् काष्ठं सर्वतः समन्तात् समभिलोके नो चैव तत्र ज्योतिः पश्यामि ततः खलु अह परिकरं वन्नामि परशु गृह्णामि तत् काष्ठं द्विधा स्फाटितं करोमि कृत्वा सर्वतः समन्तात् समभिलोके. नो चैव तत्र ज्योतिः पश्यामि एवं यावत् त्रिधा चतुर्धा संख्येयधा स्फाटितं करोमि सर्वतः समन्तात् समभिलो के नो चैव तत् ज्योतिः पश्यामि तत् खलु अह तस्मिन् काष्ठे द्विधा स्फाटिते वा यावत् त्रिधा चतुर्धा संख्येयधा वा स्फाटिते ज्योतिरपश्यन श्रान्तः तान्तः परितान्तः निर्विण्णः सन् परशुमेकान्ते (एडामिदे०) मुश्चामि मुक्त्वा इन पदों का ग्रहण हुआ है। 'काष्ठानामटवीं यावत्' में आये हुए यावत्पद से 'प्रविशामः इतः खलु त्वं ज्योतिर्भाजनात् ज्योतिर्गृहीत्वाऽस्माकमशन' साधयेः, अथ तज्जयोतिर्भाजने ज्योतिर्विध्यायेत् - इतः खलु त्वं काष्ठात् ज्योतिगृहीत्वा अस्माकमशन' साधयेरिति कृत्वा काष्ठानामटवीम्' इस पाठ का संग्रह हुआ है। 'एवं यावत संख्येयधा' में आये हुए यावत्पद से त्रिधा स्फाटित, चतुर्धा स्फाटितम्' इन पदों का संग्रह हुआ है। 'एडति' यह शब्द देशीय
भूमिगत दृष्टिक" या यहोनु' भए। थयुं छे. 'काष्टानामटवीं यावत्' भां मावेस यावत् पहथी 'प्रविशामः इतः खलु त्वं ज्योतिर्भाजनात् ज्योतिर्गृहीत्वाऽस्माकमशनं साधयेः, अथ तज्ज्योति भजने ज्योतिर्विध्यायेत् - इतः खलु त्व काष्ठात् ज्योतिर्गृहीत्वा अस्माकमशनं साधयेरिति कृत्वा काष्टानामटवों ' या पाहनो संग्रह थयो छे. ' एवं यावत् संख्येयधा' भां भावेल यावत् चहथी 'त्रिधा स्फाटितं चतुर्घास्फाटितं' मा होना संग्रह थयो छे, "एडत्ति' आ
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सुबोधिनी टीका सू. १४५ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवणं नम् २८५ परिकर मुश्चामि एवमवादिषम्-अहो !! मया तेषां पुरुषाणामशन' नो साधितमिति कृत्वा अपहतमनः संकल्पः चिन्ताशोकसागरसंपविष्टः करतल. पर्यस्तमुखः आतध्यानोपगतो भूमिगतदृष्टिकः' इत्येर्षा सङ्ग्रहो बोध्यः, एषां व्याख्याऽस्मिन्नेव सूत्रे पूर्व कृता, घ्यायामि-चिन्तां करोमि, ततः-तदनन्तरं तेषां पुरुषाणां मध्याद एकः कोऽपि पुरुषः छेक:-अवसरज्ञः, दक्षः-कार्यकुशलः, प्राप्तार्थ:-निजकौशलेनाधिगतसाध्यरूपार्थः, यावत-यावत्पदेन"बुद्धः, कुशलः, महामतिः विनीतः विज्ञानप्राप्तः” इत्येषां पदानां सङ्ग्रहो बोध्यः, एषां व्याख्या पूर्वगता, तथा उपदेशलब्धः-प्राप्तगुरूपदेशः, शिक्षित इति यावत्, एतादृश एकः पुरुषः तान-काष्ठहारकान् पुरुषान एवमवा दीत्-हे देवानुप्रियाः ! यूयं गच्छत खलु स्नाता:-कृतस्नानाः कृतबलिकर्माण:-कृतवायसादिनिमित्तान्नदानाः, यावत्-प्रायश्चित्ता:-यावत्पदेनकृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्ताः" इत्येतत्पदसङ्ग्रहो बोध्यः, एतादृशाः सन्तः शीध्रमागच्छत, कियता कालेन ? इति जिज्ञासायामाह-यावत् -यावत्कालेन खलु अहम् अशन-भोजन साधयामि- नष्पादयामि. इति कृत्वा-इत्युक्त्वा पारकर बनाति-कटिबन्धनं करोति, परशु-कुठारं गृह्णाति, गृहीत्वा शरबाणसदृशं प्रतनुकाष्ठं करोति तेन शरेण-तनूकृतकाष्ठेन अरणि-काष्ठ विशेष म नाति-संघर्षति, ज्योति:-अग्निं पातयति-निष्काशयति, पातयित्वा जयतिः-वह्नि संघुक्षते-संदीपयति, संदीप्य तेषां पुरुषाणामशनं साधयति, तत:-अशननिष्पादनानन्तरम् खलु ते पुरुषाःस्नाता: कृतवलिकर्माणः यावत् प्रायश्चित्ता:-कृतकोतुकमङ्गलप्रायश्चित्ताः सन्तः यत्र व स पुरुषं आसीत तत्र व उपागच्छन्ति, ततः खलु स पुरुषः तेषां पुरुषाणाम, सुखासनवरगतानांहै. इसमें एड धातू मोचन अर्थ में है। 'अहो' शब्द वि.मयार्थक है। 'पत्तट्र जाव' में जो यावत्पद आया है-उससे यहां 'बुद्धः, कुशलः, महामतिः, विनीतः, विज्ञानप्राप्तः' इन पदों का संग्रह हुआ है। इन पदों की व्याख्या पहिले की जा चुकी है। ‘क यब लिकम्मा जाव' में आये हुए यावत् पद से 'कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्ताः' इस पद का संग्रह हुआ है। 'दुहा फालियंसि श०४ देशीय छे. मामा "एड' धातु 'मोचन' अर्थमा छ. 'अहो' २० विस्मयाथं छे. 'पत्तडे जाव" भांजे यावत् ५६ मावेस छे. तेथी मी 'बुद्धः, कुशलः, महामतिः विनीतः, विज्ञानप्राप्तः,' ॥ ५होना स थयो छे. या पहनी प्याच्या पडसी ४२वामां मावी छे. 'कयबलिकम्मा जाव' भां आवेत यावत् पहथी 'कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्ताः' मा पहने। स थयो छे. 'दुहा फालियसि
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राजप्रश्नीयसूत्रे
सुखदोत्तमासनोपविष्टानाम, सताम् पुरतः तत्-साधित, विपुलं-पुष्कलम, अशन पान खादिम स्वादिमम् उपनयति-परिवेशयति, ततः खलु ते पुरुषाः तद्विपुलमशन पान खादिम स्वादिमम् आस्वादयन्त:-सामान्यतः स्वादयन्तः, विस्वादयन्त:-विशेषेण स्वादयन्तः, यावत-यावत्पदेन-"परिभा. जयन्तः परिभुञ्जाना' इत्यनयोःपदयो सग्रहो बोध्यः, तत्र परिभाजयन्त:परितो वण्टयन्तः, परिभुञ्जाना:-परित-आतरित भुञ्जाना, विहरन्ति-तिष्ठन्ति । जिमितभुक्तोत्तरागताः-जिमितं चतुर्विधमशनं तस्यःय झुक्तं-भोजनं तदुत्तरंतदनन्तरं कालम् आगता प्राप्ताः अपि च सन्त : आचान्ता-कृताऽऽचमनाः, चोक्षाः सामान्यतः शुद्धाः, परमशुचिभूताः-गण्डषादिभिर्विशेषतः शुद्धाः तम् पुरुषम्, एवम्-अनुपदं वक्ष्यमाणं वचनम् अवादिषु:- अहो ! ! देवानुपिय ! त्व खलु जडः जडसहश:-विशिष्ट चेतनारहितत्वात् , मूढ:-मूर्खः, अपण्डित:सदसद्विवेकविकलत्वात्, निर्विज्ञान: कौशलरहितः, अनुपदेशलब्धः अप्राप्त गुरूपदेशः अशिक्षितश्चासि, यरत्वम् खल द्विधा स्फटिते काष्ठे यावत् त्रिधा चतुर्धा संख्येयधा वा स्फटिते काष्ठ ज्योतिः वढि द्रष्टुमिच्छसि, इति मूढ तरत्वसाधकदृष्टान्तमुक्त्वोपसंहरति-हे प्रदेशिन् तदेतेन-अनन्तरोत्ते न अर्थेनदृष्टान्तरूपेण, एवम् इत्यम् उच्यते- वथ्यते यद हे पदेशिन् ! तस्मात अपाचकात् काष्ठहारात मूढ़तर:-अतिमूर्खः असि ॥ सू० १४६।।
मूलम--तए णं पएसी राया केसिकुमारसमणं एवं वयासीजुत्तए णं भंते ! अइदक्खाणं बुद्धाणं कुसलाणं महामई ण विणयाणं विण्णाणपत्ताणं उवएसलद्धाणं अहं इमीसाए महइ महालयाए परिसाए मज्झे उच्चावएहिं आउसेहि आउसित्तए, उच्चावयाहिं उद्धसणाहिं उद्धसित्तए, एव उच्चावयाहिं निब्भछणाहिं निब्भछित्तए, उच्चावयाहिं निच्छोडणाहिं निच्छोडित्तए ? ॥सू० १४७॥ वा जाव' में यावत् पद से 'त्रिधा, चतुर्धा, संख्येयधा वा स्फाटिते काष्ठे" इन पदों का संग्रह हुआ है ॥ सू. १४६॥
वा जाव' मा मास यावत् प४थी 'विधा, चतुर्धा, संख्येयधा वा स्फाटिते काष्ठे' આ પદેને સંગ્રહ થયે છે. સૂત્ર ૧૪૬
શ્રી રાજપ્રશ્રીય સૂત્ર: ૦૨.
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सुबोधिनी टीका सू. १४७ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशीराजवर्णनम् २८७
छाया-ततः खलु प्रदेशी राजा केशिकुमारश्रमणमेवमवादीत-युत्त : खलु भदन्त ! युस्माकम् अतिच्छेकानां दक्षाणां बुद्धानां कुशलानां महामतीनां विनीतानां विज्ञानप्राप्तानाम् उपदेशलब्धानाम् अहम् अस्याः महाति महालयाः परिषदो मध्ये उच्चावचैः आक्रोशैः अक्रोष्टुम, उच्चावचाभिरुद्धर्षणाभिरुद्धर्षयितुम, उच्चावचाभिनिर्भसं नाभिनिर्भत्सयितुम्, उच्चावचा भिनिश्छोटनाभिर्निश्छोटयि तुम ? । सू० १४७।।
'तए णं पएसी राया' इत्यादि ।
सूत्रार्थ-(तए णं पएसी राया के सिकुगारसमणं एव' वयासी) इसके बाद प्रदेशी राजाने केशीकुमारश्रमण से ऐसा कहा-(जुत्तएण भंते ! अइदक्खाण' बुद्धाण कुसलाण महामईण विणीयाण, विण्णाणपत्ताण, उव एसलद्धाणं) हे भदन्त ! अतिच्छेक-अवसरज्ञ, दक्ष-चतुर, बुद्ध-तत्वज्ञ, कुशलकर्तव्या-कर्तव्य निर्णायक. महामति औत्यत्तिको आदिबुद्धियों से युक्त, विनीत-शिष्ट, विज्ञानप्राप्त-सत् असत के विवेक से संपन्न, एवं उपदे
शलब्ध-गुरु के उपदेश को प्राप्त करने वाले ऐसे आपके लिये (अह इमी साए महइमहालियाए परिसाए मु झ) मुझ से इस अतिविशाल परिषदा के बीच में (उच्चावरहिं आउसे हिं आउसित्तए, उच्चावयाहिं उद्धसणाहिं उद्धसित्तए) उच्चावच-नाना प्रकार के कठिनवचनरूप आक्रोशों से संलाप करना नानाप्रकार की अनादर सूचक बचनरूप उद्धर्पणाओं से मुझे उद्धर्षित करना, (एवं उच्चावयाहिं निभंछणाहिं निब्भंछित्तए, उच्चावयाहिं
'तए णं पएसी राया' इत्यादि ।
सूत्रार्थ-तएणं पएसी राया केसिकुमारसमणं एवं वयासी) त्या२ पछी प्रदेश २-ये शोभा२ श्रमाने या प्रमाणे पु-(जुत्तएणं भंते ! अइदवखाणं बुद्धाणं कुसलाणं महामईणं बिणीयाणं, विण्णाण पत्ताणं, उवएसलद्धाणं) हे मत ! मतिरछे४-२०१५२२, ४क्ष-यतु२, मुद्ध-तत्वज्ञ, पुराण-तव्यातव्य निયક, મહામતિ-ઔત્પત્તિકી વગેરે બુદ્ધીઓથી યુકત, વિનીત-શિષ્ટ, વિજ્ઞાન પ્રાપ્ત– સત અસતના વિવેકથી યુકત અને ઉપદેશલબ્ધ-ગુરૂના ઉપદેશને પ્રાપ્ત કરનાર એવા तभा॥ ५3 (अहं इमीसाए महइमहालियाए परिसाए मझे) भारी साथ मा अतिविपरिषहानी थ्ये (उच्चावर हि आउसे हि आउसित्तए, उच्चावयाहिं उदसणाहिं उद्धसित्तए) प्यावय-मने तना २ क्यन३५ भा-शिथी સંલાપ કરવું–અનેક પ્રકારના અપમાન સૂયક વચનરૂપ ઉદૂઘર્ષણાઓથી ઉદૂધર્ષિત કરવું
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राजप्रश्नीयसूत्रे टीका--"तए णं पएसी" इत्यादि-ततः खलु स प्रदेशी राजा केशिकुमारश्रमणमेवमवादीत्-हे भदन्त ! अतिच्छेकानाम्-अवसरज्ञानां, दक्षाणाम्चतुराणां, बुद्धानाम्-तत्वज्ञानां, कुशलानाम्-कर्तव्यावर्तव्यनिर्णायकानां, महामतीनाम्-औत्पत्तिक्यादिबुद्धियुक्तानां विनीतानाम् शिष्टानां, विज्ञानप्राप्ता. नाम्-सदसद्विवेकसम्पन्नानाम, उपदेशलब्धानां प्राप्तगुरूपदेशानाम, युष्माकम अस्याः उपस्थितायाः, महाति महालयाया:अतिविशालायाः परिषदः सभाया मध्ये उच्चावचैः-नानाविधैः, ओक्रोशैः- कठिनवचनरूपैः, आक्रोष्टुम्-संलपितुम्, उच्चावचाभिः-नानाविधाभिः उद्घर्षणाभिः-अनादर सूचकवचनलक्षणाभिः, उद्घर्षयितुम्-चक्तम्, उच्चावचाभिः- नानाविधाभिः, निर्भर्त्सनाभिः-अवहेलनाभिः, निर्भर्त्सयितुम् अवहेलहितुम-उच्चावचाभिः-नानापकाराभिःनिश्चोटनाभिः-नीरसवचनावलीभिः, निश्छोटयितुम्-संभाषितुम, अहं किं युक्तकः ?युक्तोऽस्मि-योग्योऽस्मि ? सभासमक्षमेताहरवचनरूपी व्यवहारो मत्कृते भवादृशानां महापुरुषाणां नोचित इति भावः ।। सू० १४७ ॥
मूलम्-तए णं केसी कुमारसमणे पएसिं राय एवं वयासीजाणासि णं तुमं पएसी ! कइ परिसाओ पण्णत्ताओ?। जाणामि चत्तारि परिसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-खत्तियपरिसा १, गाहावइपरिसार, माहणपरिसा ३, इसिपरिसा ४ । जाणासि णं तुमं पएसी! एयासि चउण्हं परिसाणं कस्स का दंडणीई पण्णता ? हता ! ! जाण मि-जे णं खत्तियपरिसाए अवस्ज्झइ से णं हत्थच्छिण्णए वा निच्छोडणाहिं निच्छोडित्तए) नाना प्रकार की अवहेलनारूप निर्भर्त्सनाओं द्वारा मेरी निभर्त्सना करना तथा नानायकार की नीरसवचनरूप निश्छोटनाओं द्वारा मुझ से बोलना क्या योग्य है ? अर्थात् आप जैसे महापुरुषों को सभा के समक्ष ऐसा वचनरूप व्यवहार मेरे साथ करना उचित नहीं है।
टीकार्थ-स्पष्ट है ॥ सू० १४७ ॥ (एवं उच्चाबयाहिं निभंछणाहिं निभंछित्तए, उच्चावयाहिं निच्छोडणाहिं निच्छोडित्तए) भने प्रा२ना मवासना३५ निर्भत्सनायव भारी सत्सना ४२वी तमा भने પ્રકારની નીરસવચનરૂપ નિકોટનાઓ વડે મને ગમે તેમ બોલવું શું થગ્ય છે? એટલે તમારા જેવા મહાપુરૂષોને સભાની વચ્ચે આ જાતના વચનનું ઉચ્ચારણ ઉચિત નહિ કહેવાય. ટીકાર્થ સ્પષ્ટ જ છે. સૂટ ૧૪૭ છે
श्री २॥४प्रश्नीय सूत्र : ०२
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सुबोधिनीटीका. सूत्र १४८ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् २८९ पायच्छिण्णए वा सीसच्छिण्णए वा सूलाइए वा एगाहच्चे कूडाहच्चे जीवियाओ ववरोविज्जइ ? जे णं गाहावइपरिसाए अवरज्झइ से णं तरण वा वेढेण वा पलालेणं वा वेढित्ता अगणिकाएणं झामिज्जइ २। जे णं माहणपरिसाए अवरज्झइ से णं अणिट्राहि अकं. ताहि जाव अमणामाहिं वग्गूहि उवालंभित्ता कुंडियालंछणए वा सुणगलंछणए वा कीरइ, निविसए वा आणविज्जइ ३। जे णं इसिपरिसाए अवरज्झइ से णं गाइअणिट्राहि जाव गाइ अमणामाहिं वग्गूहि उवालब्भइ ४ । एवं च ताव पएसी! तुमं जाणासि तहावि णं तुमं ममं वामं वामेणं, दंडं दडेणं, पडिकूलं पडिकूलेणं, पाडलोम पडिलोमेणं, विवजासं विवज्जासेणं वदृसि ? ॥सू० १४८॥
छाया-ततः खलु के शी कुमारश्रमणः प्रदेशिन राजानमेवमवादीत्जानासि खलु त्वं प्रदेशिन् ! कतिपरिषदः प्रज्ञप्ताः? | जानामि चतस्रः परिपदः प्रज्ञानाः, तद्यथा-क्षत्रियपरिषत् १, गाथापतिपरिषत् २, ब्राह्मणपरिषत
'तए णं केसीकुमारसमणे' इत्यादि।।
सूत्रार्थ-(तए णं) इसके बाद (केसी कुमारसमणे) केशीकुमारश्रमणने (पएसिं राय एवं वयासो) प्रदेशी राजा से ऐसा कहा-(जाणासि गं तुम पएसी! कइ परिसाओ पण्णत्ताओ १,) हे प्रदेशिन् ! तुम जानते होकितनी परिषदाएँ कहो गई हैं ? प्रदेशीने कहा-(जाणामि चत्तारि परिसाओ पण्णताओ) हां भदन्त ! जानता हूं-चार परिषदा कही गई है। (त जहा
तएणं केसीकुमारसमणे' इत्यादि ।
सूत्रा-(तएणं) त्या२ पछी (केसी कुमारसमणे) 3शी उभार भरे (पएसिं रायं एवं वयासी) प्रशी सजने 241 प्रमाणे हा. (जाणासिणं तमं पएसी ! कइ परिसाओ पण्णताओ ?) प्रशिन् ! तभे ! छे परिषहासो सी वाय छे ? प्रदेशीये 3g: (जाणामि चत्तारि परिसायो पण्णत्ताओ) હા જી, ભદત! જાણું છું કે ચાર જાતની પરિષદાઓ કહેવામાં આવી છે. (तं जहा, खत्तियपरिसा १, गाहावइपरिसा २, माहणपरिसा ३, इसि. परिसा ४) २ मा प्रभारी छ-क्षत्रिय परिषदा, १ थापत्ति पश्षिह२, प्रामा
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राजप्रश्नीयसूत्रे ३, ऋषिपरिषत ४। जानासि खलु त्वं प्रदेशिन् ! एतासां चतसृणां परिषदां (मध्ये) कस्य का दण्डनीतिः प्रज्ञप्ता: ? हन्त ! ! जानामि-यः खलु क्षत्रिय. परिषदि अपराध्यति स खलु हस्तच्छिन्नको वा पादस्छिन्नको वा शीर्ष च्छिन्नको वा शूलायितो वा एकाहत्य कूटाहत्यं जीविताद् व्यपरोप्यते । यः खलु गाथापतिपरिषदि अपराध्यति स खलु त्वचा वा वेष्टेन वा पला लेन वा वेष्टयित्वा अग्निकायेन धमाप्यते २। यः खलु ब्राह्मणपरिषदि खत्तियपरिसा१ गाहावइपरिसार, माहणपरिसा३, इसिपरिसा४) जो इस प्रकार से है. क्षत्रियपरिषदा१, गाथापतिपरिषदार, ब्राह्मणपरिषदा३ और ऋषिपरिषदा४, (जाणासि णं तुमं पएसी! एयासिं चउण्ह परिसाण कस्स का दंडणीई पण्णत्ता) हे प्रदेशिन् ! तुम जानते हो-इन चार परिषदाओं के बीच में किस अपराधी के लिये किस प्रकार दण्डनीति कही गई हैं ? (हता, जाणामि-जेणं खत्तियपरिसाए अवरजइ से णं हत्थच्छिण्णए वा पायच्छिण्णए वा, सीसच्छिण्णए वा सूलाइ वा एगाहच्चे, कूडाहच्चे जीवियाओ ववरो. विजइ)हां जानताहू-क्षत्रियपरिषदामें-क्षत्रिय वर्ग जो कोई क्षत्रीय अपने वर्ग में जिस किसी का भी अपराध करता है उसका या तो हाथ काट दिया जाता है, अथवा पग काट दिया जोता है, या शिर काट दिया जाता है, या शूली पर उसे चढ़ा दिया जाता है, या उसे एक ही घाव से या पर्वत ऊपर से गिरा देने से प्राणरहित कर दिया जाता है। (जे णं गाहावइपरि. साए अवरजइ-से णं तएण वा वेढेण वा पलालेणं वा वेढित्ता अगणिकाए गंजामिज्जइ२) गाथापति परिषदा में गृहपतिवर्ग में जो कोई गाथापतिः जिस किसी क पपिहा 3, भने ऋषि परिषा ४, (जाणासि णं तुम पएसी ! एयासिं चउहं परिसाणं कस्स का दंडणीई पण्णत्ता) हे प्रशिन ! तमे । छ। मा या परिपायाभो तनी नीति वाम मावी छे ? (हता, जाणामिजेण खात्तियपरिसाए अवरज्जइ सेण हच्छिष्णए वा पायच्छिण्णए वा सीसच्छिण्णए वा मूलाइवा, एगाहरचे कूडाहरचे जीवियाओ ववरोविज्जइ) હાજી, જાણું છું. ક્ષત્રિય પરિષદામાં ક્ષત્રિયવર્ગમાં જે કઈ ક્ષત્રિય પિતાની જાતિમાં કે પરજાતિમાં ગમે તેને અપરાધ (ગુને) કરે છે તે તેને કાં તે હાથ કાપી નાખવા માં આવે છે, અથવા પગ કાપી નાખવામાં આવે છે, કે માથું કાપી નાખવામાં આવે છે કે તેને એક જ ઘામાં મારી નાખવામાં આવે છે કે પર્વત પરથી તેને ધકેલીને प्रा२हित ४ नमामा भावे छे. (जे णगाहावइ परिसाए अवरज्जइ-से ण तएण वा, वेदेण वा, पलालेण वा वेहित्ता अगणिकाएण जामिज्जइ २)
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सुबोधिनी टीका सू. १४८ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्ण' नम् २९१
अपराध्यति स खलु अनिष्टाभिः अकान्ताभिः यावत् अमनोऽमाभिः वाग्भिः उपालभ्य कुण्डिलान्छनको वा शुनवलाच्छनको वा क्रियते निर्विषयो वा श्राज्ञाप्यते ३ | यः खलु ऋषिपरिषदि अपराध्यति स खलु नात्यनिष्टाभिः यावत - नात्यमनयामाभिः वाग्भिः उपलभ्यते ४ । एवं च तावत् प्रदेशिन ! भी अपराध करता है, वह वृक्षादि की छाल से अथवा तृणादिनिर्मित रस्सी से, या पलाल से परिवेष्टित किया जाकर अग्नि से जला दिया जाता है(जे ण माहणपरिसाए अवरज्जर, से णं अणिट्ठयाहिं अताहिं जाव अमणामाहिं वग्गूहिं उबालभित्ता कुडियालछणए वा सुणगलंछणए वा कीरइ, निव्विस वा आणविज) ब्राह्मण परिषदा में जो ब्राह्मण जिस किसी का भी अपराध करता है, वह अनिष्ट - सामान्यरूप से अनभिलषित, अकान्तविशेषरूप से अनभिलषित -अप्रिय - प्रमवर्जित, अमनोज्ञ असुन्दर एवं अमन आम - मनः प्रतिकूल ऐसी वाणियों से उपालंभ युक्त किया जाता है, तथा लोहे के तकुये द्वारा कमण्डलु के जैसे आकार वाले लांछन से ललाट में चिह्नित किया जाता है, अथवा कुत्ते के पग के जैसे आकारवाले चिह्न से लांछित किया जाना है, अथवा देश से बाहर निकाल दिया जाता है. तुम हमारे देश से निकल जाओ ऐसी आज्ञा उसके लिये दी जाती है३. ( जेणं इसिरिसाए अवरज्जर से णं णाइ अगिट्ठाहिं जाव णाइ अमणामाहि गृहं उबाल भई ४) तथा जो ऋषि परिषदा में ऋषिवर्ग में ऋषि ગાથાપતિ પરિષદામાં-ગૃહપતિ વમાં જે કાઇ ગાથાપતિ અમે તેના અપરાધ કરે તે તે વૃક્ષ વગેરેની છાલથી અથવા તૃણ વગેરેથી નિર્મિત ઢારી કે પલાલથી પિ वेष्टित अशाने अग्निवडे सजणाववामां आवे छे. (जे णं माहणपरिसाए अवरज्जइ, सेणं अणिट्टयाहिं अकंताहिं जान अमणा माहिं वग्गूहिं उबालभित्ता कुडिया लंछणए वा सुणगलंछणए वा कीरह. निव्विसए वा आणचिज्जइ) श्राह्मशु परिષદામાં જે બ્રાહ્મણ ગમે તેના અપરાધ કરે છે તે તે અનિષ્ટ—સામાન્ય રૂપથી અનलिसाषित, अंत- विशेष३पथी मनभिलषित, यावत् स्यप्रिय-प्रेभवन्ति, अमनोज्ञ અસુંદર અને અમન આમ મન:પ્રતિકૂલ એવી વાણુીઓથી ઉપાલ ભયુકત કરવામાં આવે છે તેમજ તપ્ત થયેલ લોખડન! સળિયા વડે કમડલ જેવા આકારથી ચુત ચિહ્નથી લલાટમાં ચિન્દ્રિત કરવામાં આવે છે. અથવા કૂતરાના પગ જેવા આકારવાળા ચિન્હથી લાંતિ કરવામાં આવે છે. અથવા દેશ બહાર કરવામાં આવે છે. તમે અમારા हेशथी भता रहो. मेवी आज्ञा तेने आपवामां आवे छे. 3, (जेण इसिपरिसाए अवरज्जह से णं णाइ अणिहाहि जाव णाइ श्रमणामाहिं कम्गूहिं उबाल भइ ४)
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___ राजप्रश्नीयसूत्रे त्वं जानासि तथापि खलु त्वं मां वामवामेन, दण्डदण्डेन. प्रतिकुलपतिकूलेन, प्रतिलोम प्रतिलोमेन, विपर्यास विपर्यासेन वर्तसे ॥ २० १४८॥ ___टीका-"तए ण केसी" इत्यादि-ततः तदनन्तरं खलु केशी कुमारश्रमणः प्रदेशिन राजानम् एव-वक्ष्यमाणप्रकार वचनम् अवादीत्-कथित वान-हे प्रदेशिन् ! त्वं जानासि किं परिषदः-वर्गाः कति-कतिसंख्यकाः प्रज्ञप्ताः ? । प्रदेशी राजा प्राह-जानामि-परिषदश्चतस्रः-चतु: ख्यकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-ता यथा-क्षत्रियपरिषत् १, गाथापतिपरिषत् २, ब्रह्मण परिषत् ३, ऋषिपरिषत् ४। केशी कुमारश्रमणः पृच्छति-हे प्रदेशिन् ! जानासि खलु
जिस किसी का भी अपराध करता है वह न अति अनिष्ट, यावत-न अति अकांत, न अति अमिय, न अति अमनोज्ञ और न अति अमन आम ऐसी वाणियों द्वारा उपालंभयुक्त किया जाता है, (एवं ताव पएसी! तुम जाणासि-तहा वि णं तुम मम वाम वामेणं. दंड दडेणं, पडिकूल पडिकूलेणं,पडिलोमं पडिलोमेणं, विबज्जासं विवज्जासेणं वास) हे प्रदेशिन तुम इस पूर्वोक्त प्रकारवाली नीति को-दण्ड नीति को-निश्चय से जानते हो, फिर भी तुम मेरे प्रतिवामवामरुप से अति विरुद्धव्यवहार से, दण्ड दण्डरूप से-दण्डवत् स्तब्धरूप व्यवहार से-अति अहङ्कार युक्त व्यवहार से, प्रतिकूल प्रतिकूलरूप से अति विपक्षी भूत व्यवहार से, प्रतिलोम पतिलोम से-अतिविपरीतरूप व्यवहार से और विपर्यास विपर्यास से-सर्वथा विरुद्धरूप व्यवहार से प्रवृत्त हो रहे हो।
टीकार्थ स्पष्ट है ॥१४८।।
તેમજ જે ઋષિ પરિષદામાં-ષિવર્ગમાં કોઈ પણ ઋષિ અપરાધ કરે છે તે ન અતિ અનિષ્ટ યાવતુ ન અતિ એકાંત ન અતિ અમનેશ અને ન અતિ અમન આમ એવી वाणीमा १3 SIMयुत ४२वामां मावे छे. (एवं ताव पएसी! तुम जाणासि -तहा विण तुम मम वाम वामेण दंड दंडेण पडिकूल, पडिकूलेण, पडिलोम पडिलोमेण, विवज्जासं वियज्जा सेणं वहसि & टेशिन् ! तभे આ પૂર્વોકત નીતિને–દંડનીતિને–સારી રીતે જાણે છે, છતાં એ તમે મારા પ્રતિ વામ વામરૂપથી-અતિ વિરૂદ્ધ વ્યવહારથી, દડ દલ્ડરૂપથી-દડવત્ સ્તબ્ધરૂપ વ્યવહારથી અતિ અહંકારયુકત વ્યવહારથી, પ્રતિકૂળ, પ્રતિકૂળરૂપથી અતિ વિપક્ષિ વ્યવહારથી પ્રતિમ પ્રતિમથી-અતિ વિપરીતરૂપ વ્યવહારથી અને વિપર્યાસથી સર્વથા વિરૂદ્ધરૂપ વ્યવહારથી પ્રવૃત્ત થઈ રહ્યા છે. ટીકાર્યું સ્પષ્ટ જ છે. જે સૂ. ૧૪૮
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सुबोधिनी टीका सु. १४८ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् २९३ त्वं १ एतासां चतसृणां परिषदां मध्ये कस्य अपराधिनः का-किप्रकारा दण्डनीतिः-दण्डविधानरूपा ज्ञप्ता-कथिता ? । प्रदेशी पाह-हन्त ! जानामि तदेवाह-क्षत्रियपरिषदि-क्षत्रियवर्ग यः खलु कश्चित क्षत्रियः स्ववर्ग परवगें: वा स्य कस्यापि, अपराध्यति-अपराध करोति स खलु हम्तच्छिन्नकःछिन्नहस्तः क्रियते, वा-अथवा पादच्छिन्नकः, अथवा शीर्षच्छिन्नकः, वा. अथवा शूलायितः-शूलारोपितःा वा-अथवा एकाहत्यम्-एकाघातेन, कूटाहत्यपर्वतपातेन जीवितात्-प्राणेभ्यः त्यपरोप्यते- पृर्था क्रयते १। गाथापतिपरिषदि गृहपतिवर्ग यः खलु कश्चिद् गाथापति यस्य कस्यापि अपराध्यति स खलु त्वचा-वृक्षादिच्छलिना वा अथवा वेष्टेन तृणादिनिर्मितरज्ज्वा, वा अथवा पलालेन-प्रसिद्धेन वेष्टयित्वा-परिवेष्टय अग्निकायेन-अग्निना ध्माप्यते-ज्वा. ल्यते २। ब्राह्मणपरिषदि-ब्राह्मणवर्ग यः खलु कश्चिद ब्राह्मणो यस्यकस्यापि अपराध्यति स खलु अनिष्टाभिः-सामान्यतोऽनमिलपिताभिः अकान्ताभिः विशेषतोऽनभिलषिताभिः, यावच्छब्देन- "अपियाभिः-प्रेमवर्जिताभिः-असु. न्दरीभिः” इति संग्राह्यम्. अमनोऽमाभिः मनप्रतिकूलाभिः वाग्भिःचाणीभिः उपालभ्य उपालम्भं दत्त्वा कुण्डिकालान्छनकः-कुण्डिका-कमण्डलु तदाकारक लाञ्छन-तप्तशलाकया ललाटे चिह्न यस्य स तथाभूतः, वा. अथवा शुनकलाञ्छनकः-ललाटे शुनकपदाकारक चिह्न यस्य स तथाभूतः क्रियते, वा-अथवा निर्विषयः-निर्वासितो यथा भवेत्तथा आज्ञाप्यते-'स्वमस्माद्देशान्निर्गच्छ' इत्याज्ञा तस्मै दीयत इति भावः ।३। ऋषपरिषदिऋपिवर्गे यः खलु कश्चित ऋषिर्यस्य कस्यापि अपराध्यति स खलु नात्य निष्टाभि यावत्-यावच्छब्देन-नात्यकान्ताभिः नात्यप्रियाभिः, नात्यमन ज्ञाभिः" इति संग्राह्यम्, नान्यमनोऽमाभिः वाग्भिः-वाणीभिः उपलभ्यतेतस्मै उपालम्भो दीयते इति भावः ४ । केशी कुमारश्रमणः कथयति-हे प्रदेशिन एवं-पूर्वोक्तप्रकारां दण्डनीति तावत्-निश्चयेन त्वं जानासि तथापि त्व मां प्रति वामवामेन- अतिशयवामेन-अतिविरुद्धेन व्यवहारेण. एवं दण्ड. दण्डेन-अतिदण्डरूपेण-दण्डवत्स्तब्धरूपेण-अत्यह रियुक्त नेत्यर्थः प्रतिकूल पतिकूलेन-अप्रतिकूलेन-विपक्षीभूतेनेत्यर्थः प्रतिलोमप्रतिलोमेन-अतिप्रतिलो मेन-अतिविपरीतेनेत्यर्थः विषयसिविपर्यासेन अतिविपर्यासेन-सर्वथा विरुदोनेत्पर्थः, एतादृशेन व्यवहारेण वर्तसे ॥सू० १४८॥
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____ राजप्रश्नीयसूत्रे मूलम्-तए णं पएसी राया केसि कुमारसमणं एवं वयासीएवं खलु अहं देवाणुप्पिएहिं पढमि एणं चेव वागरणेणं संलते तए णं मम इमेयारूवे अज्झस्थिए जाव संकप्पे समुप्पजित्था-जहा जहा णं एयस्स पुरिसस्स वामं वामेणं जाव विवच्चासं विवच्चासेणं वहिस्सामि तहा तहा णं अहं नाणं च नाणोवलंभं च चरणं च चरणोवलभ च दसणं च दंसणोवलभं च जीवं च जीवोवलंभं च उवलभिस्सामि, त एएणं अहं कारणेणं देवाणुप्पियाणं वामं वामेणं जाव विवच्चासं विवच्चासेणं वट्टिए ॥सू० १४९॥
छाया-ततः खलु प्रदेशी राजा केशिनं कुमारश्रमणमेवमवादोद एवं खलु अहं देवानुपियैः प्राथमिकेनैव व्याकरणेन संलपितः तदा खलु मम अयमेव र आध्यात्मिकः यावत् संकल्पः समुदपद्यत, यथा यथा खलु
'तए णं पएमी राया' इत्यादि ।
सूत्रार्थ-(तए ण) इसके बाद (पएसी राया) प्रदेशी राजाने केसिं. कुमारसमणं एवं बयासी) केशी कुमारश्रमण से ऐसा कहा-(एवं खलु अह देवाणुप्पिएहिं पढमिल्लुएणं चेव वागरण संलत्ते) हे भदन्त ! आप देवानुप्रिय के द्वारा मैं सर्व प्रथम बोला गया हूं अर्थात्-आप देवानुपिप ! मुझ से सब से पहिले ब ले हैं-आप के साथ मेरी यह सब से प्रथम भेट हैं, इसके पहिले हमारा आपका कोइ मिलन नहीं हुआ है (तए ण मम इमेयारूवे अज्झथिए जाव सकप्पे समुप्पजित्था) अतः जब
'तए णं पएसी राया' इत्यादि ।
सूत्रार्थ-(तए ण) त्या२५७। (पएसी राया) प्रदेश नम्मे (केसि कुमार समण एवं यासी) उशीभा२ श्रमाने मा प्रभाए धु-(एवं खलु अहं देवाणुप्पिएहि पढमिल्लुएण चेव वागरणेण संलते) इ लत ! ५ हेपाનુપ્રિયવડે હું સાથી પહેલાં બોલાયે છું એટલે કે આપ દેવાનુપ્રિય! મારી સાથે સૌથી પહેલાં બેલ્યા છે. આપની સાથે આ મારી પહેલી મુલાકાત છે. એના પહેલાં मापनी भारी साथ लेट नहाती थ७. (तए णं मम इमेयारूचे अज्झस्थिए जाव संकप्पे ससुपज्जित्था) मेथी न्यारे तमे भारी साथै सब प्रथम मा प्रभारी
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सुबोधिनी टीका. १४९ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् २९५ पतस्य पुरुषस्य वामवामेन यावत् विपर्यासविपर्यासेन वर्तिध्ये तथा तथा खलु अहं ज्ञानं च ज्ञानोपालम्भं च चरणं च चरणोपालम्भं च दर्शन च दर्शनोपालम्भं च जीवं च जीवोपालम्भ च उपलप्स्ये. तत् एतेनाहं काणेन देवानुप्रियाणां वामवामेन यावद विपर्यासविपर्यासेन वर्तितः ॥०१४९।।
टीका-'तए णं पएसी' इत्यादि-ततः खलु प्रदेशी राजा के शिनं कुमारश्रमणमेवमवादी-एवं खलु अहं देवानुपियैः-भवद्भिः प्राथमिकेनैवव्याकरणेन-संलापेन, संलपिनः-संभाषितः, तदा खलु मम अयमेतद्रूपःआप मुझ से सर्व प्रथम इस प्रकार से बोलेतो मेरे मन में यह इस प्रकार का यावत् संकल्प उत्पन्न हुआ कि (जहा २ ॥ एयस्स पुरिसस्स वाम वामेण जाव विवच्चासं विवच्चासेण बहिस्सामि, तहा २ ण अह नाणं च नाणोवलंभं च चरणोलंबभ च, दमणच दमणोवलभं च जीव च जीवोवलंभं च उचलंभिस्सामि) मैं जैसा इस पुरुष के साथ वाम वामरूप से यावत्-दण्ड दण्डरूप से, प्रतिकूल प्रतिकूलरूप से प्रतिलोम प्रतिलोमरूप सं एवं विपर्यास विपर्यासरूप से व्यवहार करूगा, वैसा वैसा २ मैं ज्ञान को-पदार्थ ज्ञान को ज्ञानोपालम्भको-ज्ञान की प्राप्ति को, चारित्र को, चारि. त्रके लाभ को, तत्त्वार्थश्रद्धानरूप सम्यत्त व को, दर्शनलाभ को जीव के स्वरूप को, और जीव के स्वरूपकी प्राप्ति को पा जाऊंगा (तं एएण अहं कारणेण देवाणुप्पियाणं वामं वामेणं जाव विवचासं विवचासेणं वहिए) अतः इसी कारण से आप देवानुपिय के साथ मैं अतिविरुद्धरूपन्यवहार से यावत् सर्वथा विरुद्धरूप न्यवहार से प्रवर्तित हुआ है। माल्या ते भा। मनभा Alondit यापत ४८५ पन्न, थय। ॐ (जहा २ णं एयरस पुरिसम्स वामं वामेण जाव विवच्चास विवञ्चासेणं वहिस्सामि, तहा २ णं अहं नाणं च नाणोवलंभं च चरणं च चरणोवलंभ च, दंसणं च दंसणो. वलंभं च जीवंच, जीवोवल भं च उवलंभिस्सामि) दुभम मा ५३पनी સાથે વામ વામરૂપથી યાત-દંડદંડરૂપથી, પ્રતિકૂળ પ્રતિકૂળ રૂપથી, પ્રતિમ પ્રતિલેમરૂપથી અને વિપર્યાસ વિપર્યાસરૂપથી વ્યવહાર કરીશ-આચરણ કરીશ તેમ તેમ હતું જ્ઞાનને, પદાર્થ જ્ઞાનને, જ્ઞાનપતંભને જ્ઞાનપ્રાપ્તિને ચારિત્રને, ચારિત્ર લાભને, તત્વાર્થ શ્રદ્ધાનરૂપ સમ્યકત્વને, દર્શનલાભને, જીવના સ્વરૂપને અને જીવના સ્વરૂપની प्रालितने मेणवीश. (त एएणं अहं कारणेणं देवाणुप्पिया णं वामं वामेण जाव विवच्चास बिच्चासेण वहिए) मेटदा भाटे भा५ हेवानुप्रियनी साथ में मति વિરૂદ્ધરૂપ વ્યવહારથી યાવત્ સર્વથા વિરૂદ્ધરૂપ વ્યવહારથી પ્રવર્તિત થયે છું.
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राजप्रश्नीयसूत्रे वक्ष्यमाणप्रकारकः, आध्यात्मिकः-आत्मगतो विचारः यावत्-यावच्छब्देनचिन्तितः, कल्पितः, प्रार्थितः, मनोगतः' इति संग्राह्यम् । संकल्पः-विचारः समुदपद्यत-संजातः, तदेवाह-यथा यथा खलु अहम् एतस्य पुरुषस्य वामवामेन-अतिविरुद्धेन व्यवहारेण यावत्-यावच्छब्देन-दण्डदण्डेनः प्रतिकूलप्रतिकूलेनः प्रतिलोमप्रतिलोमेन' इति संग्राह्यम् , विपर्यासं-विपर्यासमेन' एषा मर्थोऽव्यवहितपूर्वसूत्रे गतः, वर्तिये तथा तथा खलु अहं ज्ञानं च-पदार्थज्ञानं च ज्ञानोपालम्भ-ज्ञानप्राप्ति च च पुनः चरणं चारित्रं चरणोपालम्भ चारित्रलाभ-पुनः दर्शन-तत्वार्थश्रद्धानरूपं सम्यक्त्वं दर्शनोपालम्भं दर्शनलाभ च-पुन जीवो जीवस्वरूप-जीवोपालम्भं जीवस्वरूप प्राप्तिम् उपलप्स्येप्राप्स्यामि तद् एतेन खलु कारणेन अहं देवानुप्रियाणां समीपे वामवामेनप्रतिविरुद्धेन व्यवहारेण यावत् विपर्यासविपर्यासेन-सर्वथाविरुद्धेन व्यवहारेण वर्तितः-अहं वामवामादिकं व्यवहारं वर्तितवानिति भावः ॥ सू० १४९ ॥
मूलम्-तए णं केसीकुमारसमणे पएसिं रायं एवं वयासीजाणासि णं ! कइ ववहारगा पण्णता ? हंता ! जाणामि चत्तारि ववहाग्गा पण्णत्ता, तं जहा-देइ नामेगे णो सण्णवेइ १, सण्णवेइ नामगे नो देइ २। एगे देइ वि सण्णवेइवि ३। एगे णो देइ णो
___टीकार्थ स्पष्ट हैं. इस सूत्र का भावार्थ ऐसा है कि प्रदेशी राजाने केशी कुमार श्रमण से अपने द्वारा किये गये प्रतिकूल व्यवहार के प्रति ऐसा कहा हे भदन्त ! जाप की और हमारी यह प्रथम भेंट है. इसमें जो आपने मुझसे संभाषण किया-उससे मैंने यह निष्कर्ष निकाला कि मै इनके प्रति जैसा २ टेडा चलूंगा-विरुद्ध व्यवहार करूंगा-वैसा २ मुझे इनसे ज्ञान आदि प्राप्त होगा अतः मैने आपके साथ इस प्रकार का व्यवहार किया है ॥ सू० १४९ ।।
ટીકાથે સ્પષ્ટ જ છે. આ સૂત્રને ભાવાર્થ પ્રમાણે છે કે પ્રદેશ રાજાએ કેશીકુમાર શ્રમણને પિતાના વડે આચરેલ પ્રતિકૂલ વ્યવહારને લઈને આ પ્રમાણે કહ્યું છે કે હે ભદંત! આપની અને મારી આ પહેલી ભેટ છે. આમાં જે આપશ્રીએ મારી સાથે સંભાષણ કર્યું તેથી મને નિષ્કર્ષરૂપે આ જાતની પ્રતીતિ થઈ કે હું તમારા પ્રતિ જેમ જેમ વિરૂદ્ધ બેલીશ તેમ તેમ મને તમારાથી જ્ઞાન વગેરેની પ્રાપ્તિ થશે. આ કારણથી જ મેં આપની સાથે આ જાતનું આચરણ કર્યું છે. જે સૂ૦ ૧૪
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सुबोधिनी टीका सु. १५० सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् सणवेइ ४ | जाणासि णं तुमं पएसी ? एएसि चउन्हं पुरिसाणं के ववहारी के अववहारी ? ! हंता !! जाणामि तत्थ णं जे से पुरिसे देइ णो सण्णवेइ सेणं पुरिसे ववहारी, तत्थ णं जे से पुरिसे णो देsaणवे से णं पुरिसे ववहारी २, तत्थ णं जे से पुरिसे देवि सणवे वि से पुरिसे ववहारी ३, जे से पुरिसे णो देइ णो सण्णवेइ से णं अववहारी ४ । एवामेव तुमपि ववहारी, णो चेव णं तुमं पएसी ! अववहारी ॥सू० १५०॥
तत्थ णं
छाया - ततः खलु केशीकुमारश्रमणः प्रदेशिराजमेवमवादीत्-जानासि खलु त्व प्रदेशिन् ! कति व्यवहारकाः प्रज्ञप्ताः ? | हन्त ! ! जानामिचत्वारो व्यवहारकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - ददाति नामकः नो संज्ञापयति १, सज्ञापयति नामैको नो ददाति २, एको ददाति अपि संज्ञायति अपि ३,
'तए णं केसीकुमारसमणे' इत्यादि ।
सूत्रार्थ - (तए णं) इसके बाद (केसी कुमारसमणे) के शीकुमार श्रमणने (पसि रायं एवं वयासी) प्रदेशी राजा से ऐसा कहा - ( जाणासि णं तुमं पएसी ! कइ ववहारगा पण्णत्ता ?) हे प्रदेशिन् ! व्यवहार कितने होते हैं. क्या तुम इस बात को जानते हो ? (हंता, जाणामि) हां, भदंत ! जानता हुं ( चत्तारि ववहारगा पण्णत्ता) व्यवहार चार कहे गये हैं । (तं जहा - देइ. नायेगे, णो सण्णवेइ १ सण्णवेइ नामेगे णो देइ २, एगे देइ वि, सण्णवेइ
' तरणं केसीकुमारसमणे' इत्यादि ।
सूत्रार्थ – (तए णं) त्यार पछी (के सीकुमारसमणे) देशी कुमार श्रमागे ( एसिं राय एवं वयासी) अहेशी शन्नने या प्रभागे उर्छु - ( जाणासि णं तुमं पसी ! कइ वबहारगा पण्णत्ता ?) हे अहेशिन् ! शुं तमे लगो छ। व्यवहार डेंटली लतना होय छे ? (हंता, जाणामि) हां, महंत ! लागू छ ( चत्तारि व हारगा पण्णत्ता) व्यवहार यार उहेवाय छे. (तं जहा देइ, नामेगे, णो सण१, सण्णवे नामेगे णो देइ २, एगे देइ वि, सण्णबेइ वि ३, एगे
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राजप्रनीयसूत्रे
एक नो ददाति नो संज्ञापयति ४ । जानासि खलु त्वं प्रदेशिन् ! एतेषां चतुर्णां पुरुषाणां को व्यवहारी ? कोऽव्यवहारी ? हन्त !! जानामि । तत्र खलु यः स पुरुषो ददाति नो संज्ञापयति स खलु पुरुषो व्यवहारी । तत्र खलु यः स पुरुषो नो ददाति संज्ञापयति स खलु पुरुषो व्यवहारी । तत्र खलु यः स पुरुषो ददात्यपि संज्ञापयत्यपि स पुरुषो व्यवहारी । तत्र खलु वि ३, एगे जो देइ णो सण्णवेइ ४, जो इस प्रकार से हैं - एक कोइ पुरुष किसी वस्तु को किसी के लिये देता तो है. पर उसके साथ वह मिष्ट भाषण द्वारा अच्छा संतोषप्रदव्यवहार नहीं करता है १, एक पुरुष मिष्ट भाषण द्वारा दूसरे के प्रति संतोषप्रद व्यवहार तो करता है, परन्तु देता कुछ भी नहीं है २, एक पुरुष देता भी है और लेने वाले के प्रति मिष्टवचनद्वारा संतोषप्रद व्यवहार भी करता है ३, एक पुरुष ऐसा होता है जो न देता है और न मिष्टवचन द्वारा संतोषप्रद व्यवहार ही करता है ४, ( जाणासि णं तुमं पएसी ! एएसि चउन्हं पुरिसाणं के ववहारी के अववहारी ? ) केशी ने प्रदेशी से पूछा- हे प्रदेशिन् ! तुम जानते हो इन चार व्यवहारी पुरुषों के बीच में कौन व्यवहारी है और कौन अव्यवहारी है? तब प्रदेशीने के शिकुमार श्रमण से कहा - (हंता, जाणामितत्थ णं जे से पुरिसे देइ णो सण्णवेह से णं पुरिसे बवहारी ?) हां, जानता हुं, इनमें जो पुरुष देता है और सम्यग् श्रालाप से संतोष उत्पन्न नहीं कराता है वह पुरुष व्यवहारी कहा जाता है (तत्थ णं जे से पुरिसो णो णो देइ णो सण्णवेइ ४ ) मे आ प्रमाणे छे. मे भाणुस अध पशु वस्तु अने આપે તે છે પણ તેની સાથે તે મિષ્ટ સંભાષણુવડે અચ્છે સત્તાષપ્રદ વ્યવહાર કરતા નથી ? એક માણુસ મિષ્ટ ભાષણવડે ખીજાની સાથે સત્તાષપ્રદ વ્યવહાર તા કરે છે પણ આપતા કંઇ નથી ૨, એક માણુસ આપે પણ છે અને લેનાર માણસને મિષ્ટ વચનો વડે સતાષ પણ આપે છે. ૩, એક માણુસ એવા પણ હોય છે કે જે કંઇ પણ આપતા નથી અને મિષ્ટ વચનોથી સ ંતાષજનક વ્યવહાર પણ કરતા નથી ( जाणासि तुमं पएसी ! एएसिं चउन्हें पुरिसाण के बवहारी के के अववहारी ?) शी अहेशीने प्रश्न ये हे अहेशिन् ! तमे लगो छो श्या यार व्यवहारी छे ? त्यारे प्रदेशीये उधुं (हंता, जाणामि, तत्थणं जे से पुरिसे देइ णो सण्णवेइ से णं पुरिसे वबहारी ?) हां, भागु छु आमां ने માણસ આપે છે અને સારા વચનોથી સાષ આપતા નથી તે પુરૂષ વ્યવહારી કહેवाय छे. (तत्थ णं जे से पुरिसे णो देइ सण्णवेइ से णं पुरिसे ववहारी २)
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सुबोधिनी टीका सू. १५० सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् यः स पुरुषो नो ददाति नो संज्ञापयति स खलु अव्यवहारी। एवमेव त्वमपि व्यवहारी, नो चैव खलु त्वं प्रदेशिन् ! अव्यवहारी ॥मू. १५०॥
टीका-"तए णं केसीकुमारसमणे" इत्यादि--तत:--अनन्तरोक्त. पकारेण वर्तनानन्तरं खलु केशी कुमारश्रमणः प्रदेशिराजम् एवमवादीदेइ सणवेह से णं पुरिसे ववहारी२) तथा जो पुरुष देता नहीं है किन्तु सम्यग् आलाप से संतोप उत्पन्न करता है वह पुरुष व्यवहारी है। (तत्थ णं जे से पुरिसे देइ वि, सणवेइ वि, से पुरिसे ववहारी३) तथा जो पुरुष देता भी है और सम्यक आलाप द्वारा संतोष भी उत्पन्न कराता है वह पुरुष व्यवहारी है। (तत्थ णं जे से पुरिसे णो देइ णो सणवेइ से पुरिसे से णं अववहारी) तथा जो पुरुष न देता है और न सम्यक संभा. षण द्वारा संतोष उत्पन्न करता है वह पुरुष अव्यवहारी है। (एवामेव तुम पि ववहारी णो चेव णं तुमं पएसी ! अपवहारी) इसी तरह से अर्थात् भङ्गत्रयोक्त पुरुष, के बीच में एक भंग विशेष की तरह हे प्रदेशिन् ! तुम भी व्यवहारी हो, चतुर्थ भङ्गोक्त पुरुष की तरह तुम अव्यवहारी नहीं हो-तात्पर्य कहने का यह है कि यद्यपि हे प्रदेशिन् ! तुमने सम्यक् आलाप द्वारा सन्तुष्ट कर मुझसे व्यवहार नहीं किया है-फिर भी मेरे विषय में भक्ति
और बहुमान तो किया ही है-अतः तुम आधभङ्गोक्त पुरुष की तरह व्यवहारी ही हो-अव्यवहारी नहीं हो।
તેમજ જે પુરૂષ આવતું નથી પણ સારા સંભાષણથી સંતોષ ઉત્પન્ન કરે છે તે ०यवहारी छ. (तत्थ गंजे से पुरिसे देइ, वि, सणवेइ वि, से पुरिसे ववहारी.३) તેમજ જે પુરૂષ આપે પણ છે અને સમ્યક આલાપવડે સંતોષ પણ ઉત્પન્ન કરે छे ते ५३५ ०यवहारी छे. (तत्थ णजे से पुरिसे णो देइ णो सणवेइ से पुरिसे गं अववहारी) मा २ ३५ मापता नथी तभ० सभ्य मासा५ ५५ ४२ता नथी એટલે કે સારા સંભાષણથી સંતોષ ઉત્પન્ન કરતો નથી તે પુરુષ અવ્યવહારી છે. (एवामेव तुमं पि ववहारी णो चेव णं तुमं पएसी ! अववहारी) 0 प्रभारी હે પ્રદેશિન્ તમે પણ વ્યવહારી છો. ચતુર્થ ભંગમાં કહ્યા મુજબ તમે અવ્યવહારી નથી. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે હે પ્રદેશિન્ ! તમે એ સમ્યક્ આલાપરૂપ સારો વ્યવહાર મારી સાથે કર્યો નથી છતાંએ મારા વિષયમાં ભકિત અને બહુમાન તે તમે કર્યા છે. એથી તમે આઘભંગત પુરૂષની જેમ વ્યવહારી જ છે. અવ્યવહારી નથી.
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राजप्रश्नीयसूत्रे हे प्रदेशिन् त्वं जानासि खलु यत् कति-कियन्तो व्यवहारकाः-व्यवहारा:-प्रवृत्तयः प्रज्ञप्ता:?" इति प्रश्नानन्तर प्रदेशी पाह-हन्त ! जानामि, तत्र ज्ञायमानविषय प्रकाशयति-चत्वारः-चतुःसंख्यका व्यवहाराःप्रज्ञप्ताः, तद्यथा-एक:-कश्चित् पुरुषः ददाति-किञ्चिद् वस्तु कस्मैचित् समर्पयति किन्तु न संज्ञापयति-सम्यगालापेन संतोष नोत्पादयति १ । एकः संज्ञा पयति किंतु नो ददाति २ ।एको ददात्यपि सज्ञापयत्यपि ३। एको नो ददाति नो संज्ञापयति ४। इति चत्वारो भङ्गाः । तत्र केशी प्रदेशिन पृच्छ. ति-हे प्रदेशिन् ! त्वं जानासि खलु एतेषां चतुर्णा पुरुषाणां दान-तद. संज्ञापन १-सज्ञापनाऽदान २-दानसंज्ञापनोभय ३-तदुभयराहित्यरूप ४ वृत्तिसम्पन्नानां मध्ये कः पुरुषो व्यवहारी ? इति जानासि ? इति प्रश्ने प्रदेशी प्राह-हन्त !! जानामि-तदेव दर्शयति "तत्थ ण" इत्यादिना-तत्रभनचतुष्टये खलु यः सः-प्रथमभङ्गोक्तः पुरुषः 'ददाति नो संज्ञापयति' सःदान-तदसंज्ञापनसम्पन्नः खलु पुरुषः व्यवहारी कथयते १ । एवं तत्र खलु यः सः-द्वितीयभङ्गोक्तः, 'नो ददाति नो संज्ञापयति'-सज्ञापनाऽदानसम्प
टीकार्थ-जब केशिकुमारश्रमणने प्रदेशी राजा से ऐसा पूछा कि हे प्रदेशिन् ! तुम जानते हो कि व्यवहार कितने प्रकार का होता है ? इस प्रकार से पूछने का कारण यह हुआ कि प्रदेशी राजाने १४९वें सत्र में अपने द्वारा कृतव्यवहार के विषय में सफाई उपस्थित की है. केशीकुमारश्रमण के प्रश्न को सुनकर उसने कहा हां, भदन्त! जानता हूं व्यव. हार चार प्रकार का होता है. एक व्यवहार में देनेवाला पुरुष किसी के लिये कोई वस्तु देता है. परन्तु अपने सम्यकू आलाप से-बातचीत से वह उसके लिये संतोष उत्पन्न नहीं कराता है, दूसरे व्यवहार में देनेवाला
ટીકાર્થ–જ્યારે કેશી કુમાર પ્રમાણે પ્રદેશી રાજાને આ પ્રમાણે પ્રશ્ન કર્યો કે હે પ્રદેશિન્ ! તમે જાણો છો કે વ્યવહાર કેટલા પ્રકાર હોય છે? આ પ્રમાણે જે પ્રશ્ન કરવામાં આવે છે તેનું કારણ એ છે કે પ્રદેશી રાજાએ ૧૪૯ મા સૂત્રમાં જે જાતનું આચરણ કર્યું છે તેના સંબંધમાં સપષ્ટીકરણ કરવામાં આવ્યું છે. કેશી કુમાર શ્રમણના પ્રશ્નને સાંભળીને તેણે કહ્યું હાં ભદંત ! જાણું છું. વ્યવહાર ચાર પ્રકારના હોય છે. પ્રથમ વ્યવહારમાં દાનકર્તા પુરુષ કેઈના માટે કઈ વસ્તુ આપે છે, પણ પિતાના સમ્યફ આલાપથી–સારી મીઠી વાતચીતથી તે સામેના માણસને સંતેષ આપતે નથી દ્વિતીય વ્યવહારમાં દાનક્ત પુરૂષ પોતાની મીઠી વાણીથી બીજાને
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सुबोधिनी टीका सू. १५० सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवण नम् ३०१ न्नः सः खलु पुरुषो व्यवहारी २, एवं तत्र यः सः तृतीयभङ्गोक्तः पुरुषः ददात्यपि संज्ञापयत्यपि' सा-दान-तत्संज्ञापनसम्पन्नः पुरुषो व्यवहारी ३ । पुरुष अपनी मिष्ट भाषणरूप प्रवृत्ति से दूसरे को संतोष तो उत्पन्न करा देता है, परन्तु अपनी वस्तु उसे देता नहीं है. तृतीय व्यवहार में देने वाला अपनी वस्तु दे भी देता है और अपनी मिष्ट भाणणरूप प्रवृत्ति से उसे संतोष भी उत्पन्न करदेता है, चतुर्थ व्यवहार में कोई देता भी नहीं है और संतोष भी उत्पन्न नही कराता है इस प्रकार ये चार भग हैं। इन में केशीकुमारश्रमण प्रदेशी राजा से पूछते हैं-हे प्रदेशिन् ! तुम जानते हो कि इन चार-दान-तदसंज्ञापन, संज्ञापन दाने संज्ञापन उभय एवं तदुभय रहितरूप वृत्तिसंपन्न पुरुषों के मध्य में कौन पुरुष व्यवहारी है? तब प्रदेशीने कहा हां, भदन्त ! जानता हूं, इस भङ्गचतुष्टय में नो प्रथम भङ्गोक्त पुरुष है-देता तो है मिष्टभाषण द्वारा संतोष उत्पन्न नहीं कराता है-वह दान तदसंज्ञापन सम्पन्न पुरुष व्यवहारी कहा जाता हैं अर्थात जो 'ददाति नो संज्ञापयति' इस भगवाला है वह व्यवहारी है इसी तरह जो द्वितीयभङ्ग में कहा गया है सज्ञापयति, नो ददाति' वह संज्ञापना अदान संपन्नपुरुष व्यवहारी है. इसी प्रकार जो तृतीय भंग में कहा गया है 'ददात्यपि' संज्ञापयत्यप्ति' ऐसा वह दान तत्स'ज्ञासम्पन्न पुरुष व्यवहारी સંતોષ આપી દે છે પણ પિતાની વરતુ સામેવાળા માણસને આપતું નથી. તૃતીય
વ્યવહારમાં દાનકર્તા પિતાની વરતુ આપી પણ દે છે અને પિતાની મધુર ભાષણરૂપ પ્રવૃત્તિથી તે સામેના માણસને સંતુષ્ટ પણ કરી દે છે. ચતુર્થ વ્યવહારમાં તે કઈ પણ વરતુ યાચકને આપતે પણ નથી અને મધુર સંલાપથી સામેના માણસને સંતુષ્ટ પણ કરતું નથી. આ પ્રમાણે આ ચાર ભંગ છે. એના સંબંધમાં કેશી કુમારશ્રમણ પ્રદેશી રાજાને પ્રશ્ન કરે છે કે હે પ્રદેશિના તમે જાણે છે કે આ ચાર-દાન તદસંજ્ઞાપન, સંજ્ઞાપન, દાને સંજ્ઞાપન ઉભય અને તદુભવ રહિતરૂપ વૃત્તિ સંપન્ન પુરૂ
માં કોણ વ્યવહારી છે ? ત્યારે પ્રદેશીએ કહ્યું-હાં ભરંત ! જાણું છું. આ ભંગ ચતુષ્ટયમાં જે પ્રથમ ભંગકત પુરૂષ છે–તે આપે તે છે પણ મિષ્ટ ભાષણવડે સંતોષ ઉત્પન્ન કરતો નથી તે દાન તદસંજ્ઞાપન સમ્પન્ન પુરૂષ વ્યવહારી કહેવાય છે. એટલે
2 'ददाति नो संज्ञापयति' मा लगवाणी ते ०यपडा छ प्रभा २ द्वितीय हेम छ 'संज्ञापयति, नो ददाति' ते सज्ञापन महान सपन्न पुरुष व्यवहारी छे. या प्रमाणे ने तृतीय समा ४९स छ-'ददात्यपि संज्ञापयत्यपि' मेवो ते हान तसशापना सम्पन्न ५३५ ०यपहारी छे. पारे यतुर्थ
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राजनीयसूत्रे
तत्र खलु यः सः - चतुर्थ भङ्गोकः पुरुषः 'नी ददाति नो संज्ञीपयति' सःअदानास ज्ञापनोभयसम्पन्नः पुरुषः उभयविधव्यवहाररहिततया अव्यबहारी । एवमेव भङ्गत्रयोक्तपुरुा णां मध्ये एकभङ्ग विशेषवदेव हे प्रदेशिन ! त्वं खलु अव्यवहारी चतुर्थ भङ्गोक्त पुरुषवत् नो चैव नैवासि । यद्यपि त्व सम्यक संलापेन मां संतोष्य न वर्तसे, तथापि मम विषये भक्ति- बहुमान च करोषि अतस्त्वमाद्यभोक्तपुरुषवद् व्यवहार्ये व नश्वव्यवहारीति भावः । सु. १५० ॥ मूलम - - तए णं पएसी राया केसिकुमारसमणं एवं वयासी - तुब्भे णं भंते! अइच्छेया दक्खा जाव उवएसलद्धा समत्था णं भंते! मम करयल सि वा आमलय जीवं सरीराओ अभिनिवट्टित्ता णं उवदंसित्तए ?
-
तेनं कालेणं तेणं समएणं पएसिस्स रण्णो अदूरसामंते वाउया संवृत्ते, तणवणसइकाए एयइ वेयइ चलइ, फंदइ घटइ उदीरइतं तं भाव परिणमइ, तए णं केसीकुमारसमणे पएसिं रायं एवं वयासी- पाससि णं तुमं पएसिराया ! एयं तणवणस्सई एयंत है परन्तु जो चतुर्थ भंगोक्तपुरुष है 'नो ददाति नो संज्ञापयति' वह आदान असंज्ञापनारूप उभयवृत्ति संपन्न पुरुष उभयविधव्यवहार रहित होने के कारण अव्यवहारी है । इसी तरह से हे प्रदेशिन ! इन तीन भंगो में कहे गये पुरुषों के बीच में एकभङ्गोक्त पुरुष विशेष की तरह तुम भी हो. चतुर्थ भङ्गोक्त पुरुष की तरह अव्यवहारी नहीं हो. यद्यपि तुमने सम्यक् आलाप द्वारा मुझे संतोष उत्पन्न कराकर प्रवृत्तिरूप व्यवहार नहीं किया है फिर भी मेरे विषय में भक्ति और बहुमान तो किया ही है, इसलिये तुम आद्यभङ्गोक्त पुरुष की तरह व्यवहारी ही हो, अव्यवहारी नहीं हो ||सु. १५०॥ लगोउत यु३ष छे. 'नो ददाति नो संज्ञापयति' ते सहान અસ જ્ઞાપના ३५ ઉભયવૃત્તિ સ’પન્ન પુરૂષ ઉભયવિધ વ્યવહાર રહિત હાવાથી અવ્યવહારી છે. આ પ્રમાણે હૈ પ્રદેશિન ! આ ત્રણ ભગેામાં કહેલ પુરૂષોમાં પ્રથમ ભંગાત પુરૂષ વિશેષની જેમ તમે પણ છે. ચતુર્થાં ભંગાકત પુરુષની જેમ તમે અવ્યહારી નથી. તમે સમ્યક આલાપદ્વારા મને સાષ આપીને પ્રવૃત્તિરૂપ વ્યવહાર કર્યાં નથી છતાંએ મારા વિષયમાં ભકિત અને બહુમાન તે તુમાએ કર્યા જ છે. એથી તમે આદ્ય ભંગાકત પુરૂષની જેમ વ્યવહારી જ છે, અવ્યવહારી નથી. ાસૢ૦ ૧૫ના
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सुबोधिनी टीका सू. १५१ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशोराजवर्णनम् ३०३ जाव त त भाव परिणमंत ? हंता!! पासामि । जाणासि णं तुम पएसी! एयं तणवणस्सइं कार्य कि देवो चालेइ असुरो बा चालेइ णोगो चालेइ किनरो वा चालेइ किंपुरिसो वा चोलेइ महोरगो वा चालेइ गंधब्बो वा चालेइ ? हंता जाणामि-णो देवो चालेइ जाव णो गधव्वो चालेइ। वाउकाए चालेइ पाससि णं तुमपएसी! एयस्स वाउकायस्स सरूविस्स सकम्मस्स सरागस्ससमोहस्स सवेयस्स्स सलेसस्स स सरीरस्स रूव?। णो इणटे समझे। जइ गं तुमं पएसिराया ! एयस्स वाउकायस्स सरूविस्स जाव स सरीरस्स रूवं न पाससि तं कह णं पएसी! तब करयल सि वा आमलग जीव उवदंसिस्सामि ?। एवं खल पएसी : दसट्राणाई छउमत्थे मणुस्से सब्वभावेणं न जाणइ न पासइ, तं जहा-धम्मत्थिकायं १, अधम्मत्थिकायं२, आगासस्थिकायं३, जीवं असरीरबद्धं४, परमाणुपोग्गल ५, सदंद, गधं७, वायं अयं जिणे भविस्सइ वा जो भविस्सइ९, अयं सव्वदुक्खाणं अंतं करिस्सइ वा नो वा करिस्सइ १०। एयाणि चेव उत्पन्ननाणदसणधरे अरहा जिणे केवली सव्वभावेणं जाणइ पासइ, तं जहा धम्मस्थिकायं जाव नो वा करिस्सइ, तं सदहाहि णं तुम पएसा !जहा अन्नो जीवो तं चेव? (सू१५१,
छाया-ततः खलु प्रदेशी राजा केशिकुमारश्रमणमेवमवादीत्-यूयं खलु भदन्त ! अतिच्छेकाः दक्षाः यावत् उपदेशलब्धाः समर्थाः खलु भदन्त !
'तएणं पएसी राया' इत्यादि ।
मुत्रार्थ--(तए णं) इसके बाद (पएसी राया) प्रदेशीने (केसिकुमारसमणं एवं वयासी) केशीकुमारश्रमण से ऐसा कहा-(तुब्भे णं भते ! अइच्छेया
'तए णं पएसी राया' इत्यादि ।
(सूत्राथ-(तए णं) त्यार पछी (पएसी राया) प्रदेशी नये (केसिकुमार समण एवं वयासी) अशी छुमार श्रम ने PAL प्रमाणे यु-(तुब्भे णं भंते !
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राजप्रश्नीयसूत्रे मम करतले वा आमलकजीव शरीराद् अभिनिवयं खलु उपदर्शयितुम्?।
तस्मिन् काले तस्मिन् समये प्रदेशिनो राज्ञः अदूरसामन्ते वायुकायः संवृत्तः, तृणवनस्पतिकायः एजते व्यजते चलति स्पन्दते घडते उदीते तं तं भाव परिणमते । ततः खलु केशीकुमारश्रमणः प्रदेशिराजमेवमवादीत्-पश्यसि
दक्खा जाव उवएसलद्धा समत्था णं भते ! मम करयल सि वा आमलय जीव सरीराओ अभिनिवट्टित्ता ण उवद सित्तए) हे भदन्त ! आप अवसर के ज्ञान में अतिनिपुण हैं दक्ष हैं-कार्य के सम्पादन में कुशल हैं, यावत् उपदेशलब्ध हैं-गुरु के उपदेश को प्राप्त किये हुए हैं. इसलिये हे भदन्त ! शरीर से जीव को निकाल कर क्या आप हस्ततल में स्थित
आंबले की तरह उसे मुझे दिखा सकते हैं ? (तेण कालेण तेण समएणपए. सिस्स रण्णो अदूरसाम ते वाउयाए सबुत्ते) उस काल और उस समय में प्रदेशी राजा के नजदीक-न अतिदूर और न अतिपास स्थान पर वायुकायप्रवृत्त हुआ (तणवणस्सइकाए एयई, वेयइ, चलेइ, फंदइ, घट्टइ, उदीरइ, तंत भाव परिणमइ) इससे तृणवनस्पतिकाय सामान्यतः एवं विशेषतः कंपित होने लगा, इधर से उधर रूकने लगा. परस्पर में संघर्षित होने लगा एवं कोई२ जमीन ऊपर ही रूक गया, इस तरह वह तृणवनस्पतिकाय एजनादिरूप भिन्न२ प्रकार के व्यापार में परिणत हो गया (तए ण
अइच्छेया दक्खा जाव उवएसलद्धा समत्था णं भंते ! ममं करयलंसि वा आमलयं जीवं सरीराओं अभिनिवद्वित्ता णं उवदंसित्तए) महत! मा५ અવસરને સરસ રીતે જાણવામાં અતિ નિપુણ છે, કાર્યના સંપાદનમાં કુશળ છે, યાવત્ ઉપદેશ લખ્યું છે, ગુરૂના ઉપદેશને પ્રાપ્ત કરેલ છે. એથી જ હે ભદન્ત! શરીરમાંથી જીવને બહાર કહાડીને શું તને હસ્તામલકવ મને બતાવી શકે છે? (ते णं कालेणं तेणं समएणं पएसिस्स रणो अदरसामंते वाउयाए संयुत्ते) તે કાળે અને તે સમયે પ્રદેશ રાજાની પાસે ન અતિ દૂર અને ન અતિ પાસેના स्थान ५२ वायुय प्रवृत्त थयो. (तणवणस्सइकाए एयइ, वेयइ, चलइ. फंदा, घटइ, उदीरइ, तं तं भावं परिणमइ) मेनाथी तृगुवनस्पतिय सामान्यत: અને વિશેષત: કંપિત થવા માંડે. આમથી તેમ નમવા માંડે, પરસ્પર સંઘર્ષિત થવા માંડે, અને કેઈક જમીન પર જ નમી ગયે. આ પ્રમાણે તે તૃણ વનસ્પતિ जय नाहि३५ मिन्न लिन्न, andन ०यापा२ मा परिणत 25 गयी. (तए णं
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सुबोधिनी टीका सू. १५१ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशोराजवर्णनम् ३०५ खलु त्वं प्रदेशिराज ! एत तृणवनस्पतिकायम् एजमान यावत् ततौं भाव परिणममानम् ! हन्त ! पश्यामि। जानासि खलु त्वं प्रदेशिन् ! एत' तृणवनस्पतिकाय किं देवश्चालयति असुरो वा चालयति नागो वा चालयति किन्नरो वा चालयति किंपुरुषो वा चायति महोरगो वा चालयति गन्धर्वो वा चालयति ! हन्त ! ! जानामि-नो देवश्चालयति जाव नो गन्धर्वश्वालयति
केसीकुमारसमणे पएसिराय एवं क्यासी-पाससि ण तुमपएसी राया! एयं तणवणस्सई एयंत जाव तत भाव परिणमत) तब केशीकुमारभ मणने प्रदेशी राजा से इस प्रकार कहा-हे प्रदेशिन् ! तुम इस तृणवनस्पतिकाय को सामान्य विशेष रूप से कपित होते हुए यावत् एजनादिरूप भिन्न२ प्रकार के व्यापार में परिणत होते हुए देख रहे हो न? तब प्रदेशी राजाने कहा (हता, पासामि) हां, भदन्त ! देख रहाई (जाणासि णं तुमं पएसी! एयंतणव
णस्सइकायं कि देवो चाले इ, असुरोवाचालेइ, णागो वा चालेइ, किन्नरो वा चालेइ, किंपुरिसो वा चालेइ, महोरगो वा चालेइ, गधन्वो वा चालेइ) तब केशीकुमारश्नमणने उससे कहा हे प्रदेशिन् ! तुम जानते हो कि इस तृणवनस्पतिकाय को कौन चलाता है? क्या देव चलाता है, या नाग चलाता है या किन्नर चलाता है, या किंपुरुष चलाता है, या महोरग चलाता है या गंधर्व चलाता है ? प्रदेशीने कहा-(हता, जाणामि) हां, भदन्त ! जानता हूं (णो देवो चालेइ जाव णो गंधयो चालेइ चाउकाए
केसी कुमारसमणे पएसिं रायं एवं क्यासी-पाससि ण तुमं पएसि राया । एयं तणवणस्सइ एयंतं जाव ततभाव परिणमंति) त्यारे 3शी मा२ श्रम પ્રદેશી રાજાને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે પ્રદેશિન ! તમે આ તૃણવનસ્પતિકાયને સામાન્ય ન્ય વિશેષરૂપથી કંપિત થતાં યાવત્ એજનાદિરૂપ ભિન્ન પ્રકારના વ્યાપારમાં પરિशुतमा छ। ? त्यारे प्रदेशी २०१२ये यु (हता पासामि) i महत ! Rो छु (जाणासि ण तुम पएसी! एयं तणवणस्सइकायं कि देवो चालेइ, असुरो वा चालेइ, णागो वा चालेइ, किन्नरो वा चालेइ, किपुरिसो वा चालेइ, महोरगो वा चालेइ, गंधवो वा चालेइ) त्यारे शीमा२ श्रम तन હે પ્રદેશિન્ ! તમે જાણે છે કે આ તૃણવનસ્પતિકાયને કોણ ચલાવે છે? શું દેવ ચલાવે છે? કે અસુર ચલાવે છે ? કે નાગ ચલાવે છે? કે કિનર ચલાવે છે? B५३५ यताव छ, गधन्यता छ ? प्रशी २० -(हता, जाणामि) i महंत ! छु. (णो देवो चालेइ, जाव णो गंधवो चालेइ, वाउकाए
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वायुकाः चालयति । पश्यसि खलु त्वं प्रदेशिन् ! एतस्य वायुकायस्य स - पिणः सकर्मणः सरागस्य समोहस्य सवेदस्य सलेश्यस्य रूपम् ! नायमर्थः समर्थः । यदि खलु त्वं प्रदेशिराज एतस्य वायुकायस्य सरूपिणो यावत् सशरीरस्य रूप न पश्यसि तत् कथं खलु प्रदेशिन ! तव करतले इव आमलकं जीवमुपदर्शयिष्यामि ! | एवं खलु प्रदेशिन् ! दश स्थानानि छद्मस्थो मनुष्यः सर्वभावेन न जानाति, न पश्यति, तद्यथा-धर्मास्तिकायम् १, अधर्मास्तिकायम् २, आकाश
चालेइ) इसे न देव चलाता है, यावत् न गंधर्व चलाता है । (पाससि ण' तुम परसि ! एयस्स वाउकायस्स सरूविस्स सरागस्स समोहस्स सवेयस्स ससस्स ससरीरस्स रूब) केशीकुमारश्रमणने तब उससे कहा- हे प्रदेशिन् ! तुम इस सरूपी, सकर्मा, सराग, समोह, सवेद, सलेश्य, सशरीर वायुकाय के रूप को देखते हो ? ( णो इट्ठे समट्ठे ) तब प्रदेशीने कहा- हे भदन्त ! यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् वायुकाय के रूप को मैं नहीं देखता हू तब उससे केशीकुमारश्रमणने कहा - ( जइ णं तुम पएस राया ! एयरस वाउकायस्स सरूविस्स जाव ससरीस्स रूवं न पाससि त कहाँ णं पएसी ! तब करय ंसि वा आमलगं जीव उवद सिस्सामि) हे प्रदेशिराजन् ! जब तुम इस सरूपी यावत् सशरीर वायुंकाय के रूप को नहीं देख पा रहे हो तो फिर मैं हे प्रदेशिन् ! कैसे तुम्हें करतलस्थित आंवले की तरह जीव दिखा सकता हूँ | ( एवं खलु पएसी ! दसठ्ठाण छउमत्थे मणुस्से चालेइ) माने न हेव यावे छे, यावत् न गंधर्व असावे छे. वायुडाय यसावे छे. ( पाससि णं तुम पएसि ! एयस्स वाउकायस्स सरूविस्स सकम्मस्स सरागस्स समोहस्स सवेयस्स सलेसस्स ससरीरस्स रूवं ) शीङ्कुभार श्रमो त्यारे तेने उधु - हे अहेशिन् ! तभे या सइची, सम्र्भा, सराग, समोह, सवेह, सोश्य सशरीर, वायुभयना उपने लुग्यो हो ? ( जो इणट्ठे समट्ठे ) त्यारे अद्देशीय अधु - ભર્યંત ! આ અર્થ સમર્થ નથી. એટલે કે વાયુકાયના રૂપને હુ જોતા નથી. त्यार पछी दूरी ऐशी ठुभार श्रभागे तेने उधुं (जइ णं तुमं पएसि राया ! एय स चाउकायस्स सरूविस्स जाव ससरीरस्स रूवं न पाससि तं कह ण पसी ! तव करयलंसि वा आमलगं जीवं उवद सिस्सामि) हे अहेशि રાજન્ ! જ્યારે તમે આ સરૂપી યાવત્ સશરીર વાયુકાયનારૂપને જોઇ શકતા નથી તે પછી હે પ્રદેશિન્ હું કેવી રીતે તમને કરતલ સ્થિત આમળાની જેમ જીવને हेयाडी शङ्कु छु. (एवं खलु पएसी ! दसहाणाई छउमत्थे मणुस्से सच्चभावेण न जाणइ न पासइ) उभडे हे अहेशिन् ! छमस्थ व मा हश स्थानाने
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सुबोधिनी टीका सू. १५१ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशोराजवर्णनम् ३०७ स्तिकायम३, जीवमशरीरबद्धम्४ परमाणुपुद्गलं५, शब्दं६, गन्ध, वातम्८, अयं जिनो भविष्यति वा नो भविष्यति९, अयं सर्वदुःखानामन्त करिध्यति वा नो वा करिष्यति१०। एतानि चैव उत्पन्नज्ञानदर्श नधरः अहन जिन: केवली सर्वभावेन जानाति पश्यति, तद्यथा-धर्मास्तिकाय यावत् नो वा करिष्यति, तत् श्रद्धेहि खलु त्व प्रदेशिन् ! यथा-अन्यो जीवः तदेव९ ॥ सू० १५१॥ सव्वभावेण न जाणइ, न पासइ) क्यों कि हे प्रदेशिन् ! छद्मस्थ जीव इन इन दश स्थानों को सर्वभाव से नहीं जानता है और नहीं देखता है (त' जहा) वे दशस्थान इस प्रकार से हैं (धम्मत्थिकाय१, अधम्मत्थिकाय२, आगासस्थिकाय ३, जीव असरीरबद्ध ४, परमाणुपोग्गल५, सद्द६, गंध, वाय८ अयं जिणे भविस्सइ वा णो भविस्सइ९, अयं सव्वदुक्खाण अंतो करिस्सइ नो वा करिस्सइ१०) धर्मास्तिकाय १, अधर्मास्तिकाय२, आकाशा स्तिकाय३, अशरीर बद्ध जीव४, परमाणुपुदगल५, शब्द६, गध७, बात८ यह जिन होगा, या नहीं होगा९, और यह समस्त दुखों का अन्त करेगा या नहीं करेगा१० (एयाणि चेव उप्पण्णनाणदसणधरे अरहा जिणे केवली सवभावेण जाणइ पासइ) इन्हें तो उत्पन्न ज्ञान दर्शन धारी अर्हन्त जिन केवली सर्व भाव से जानते हैं। (त जहा धम्मस्थिकाय जाव नो वा करिस्सइ-त सदहाहि ण तुम पएसी! जहा अन्नो जीवो तं चेव) अत: जब अर्हन्त जिन केवली धर्मास्तिकायादि१० स्थानों को जानते देखते हैं समाथी तो नथी भने नतो नथी. (त जहा) ते शस्थानी या प्रभारी छ (धम्मत्थिकायं १, अधम्मस्थिकायं २, आगासत्थिकायं ३, जीव असरीरबद्धं ४, परमाणुपोग्गल ५. सद६ गंधं ७. वाय ८. अय जिणे भविस्राइ वा णो भविस्ताइ ९, अयं सव्वदक्खाणं अंतो करिस्सइ १०.) मास्तिय ૧, અધર્માસ્તિકાય ૨, આકાશાસ્તિકાય ૩, અશરીર બદ્ધ જીવ ૪, પરમાણુ પુદ્ગલ ૫, શબ્દ ૬, ગંધ ૭, વાત ૮. આ જિન થશે કે નહિ થશે. ૯. અને આ સમસ્ત हुमान। मन्त ४२शे नडि ४२शे. १०. (एयाणि चेव उप्पण्णनाणदसणधरे
अरहा जिणे केवली सम्वभावेण जाणइ पासइ) मेमने तो Gurt ज्ञान हर्शनधारी मत लिन पक्षी समाथी and छ भने तुवे छे. (तं जहा धम्मस्थिकायं जाव नो वा करिस्सइ त सद्दहाहि णं तुमं पएसी! जहा अन्नो जीवो त चेव) मेथी न्यारे माह तनि ठेवली धमस्ति४ाय वगेरे १० स्थान। ને જાણે છે જુવે છે અને છરથ એમને જાણતા નથી તેમજ જોતા પણ નથી. તે હે પ્રદેશિન્ ! તમે શ્રદ્ધા કરે કે જીવ અન્ય છે અને શરીર અન્ય છે. ઇત્યાદિ.
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टीका- 'तएण पएसी राया' इत्यादि - ततः खलु प्रदेशी राजा केशिकुमारश्रमणम् एवमवादीत् - हे भदन्त ! यूय खलु अतिच्छेका :- अवसरज्ञानातिनिपुणाः, दक्षा - कार्यसम्पादन कुशलाः, यावत्- यावत्पदेन 'प्रासार्थाः बुद्धाः कुशलाः महामतयः विनीताः विज्ञानप्राप्ताः' इत्येषां पदानां सङ्ग्रहः एषां व्याख्या पूर्व गता । उपदेशलब्धा: - प्राप्त गुरूपदेशा:, अतो हे भदन्त यूयं शरीरातू जीवमभिनिवर्त्य - - निष्काश्य करतले - हस्ततले स्थितम् आमलकमिव मम उपदर्शयितुं समर्था: - - शक्ताः ।
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और छद्मस्थ इन्हे जानता देखता नहीं है तो हे प्रदेशिन् ! तुम श्रद्धा करो कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है, इत्यादि ।
टीकार्थ स्पष्ट है - ' दुक्खा जाव उपएसलद्ध |' में जो यावत् पद आया है उससे यहां 'प्राप्तार्थाः, बुद्धाः, कुशलाः, महामतयः, विनीताः, विज्ञानप्राप्ता:' इन पदों का संग्रह हुआ है, इन पदों की व्याख्या पहिले की जा चुकी है। उस काल और उस समय में का तात्पर्य है जब प्रदेशी राजाने केशीकुमारश्रमण से शरीर से निकालकर जीव को हस्तामलकवत् दिखाने की बात कही तब । 'एयंत जाव तं त' में जो यावत् पद आया है उससे यहां 'व्येजमानं, चलन्तः स्पन्दमानं, घट्टमानम्' इन पदों का संग्रह हुआ है । इन पदोंकी व्याख्या इसी सूत्र में पहिले की जा चुकी है. इन पदों में वायुकाय एकेन्द्रिय जीव है-3 -अतः वह रूप युक्त है, कर्म सहित है, रागसहित है, मोहसहित है, नपुंसक वेद सहित है, औदारिक, वैक्रिय, तैजस और कार्मण इस चार
टीअर्थ स्पष्ट ०४ छे. 'दुक्खा जाव उपएसलद्वा' भां ? यावत् यह आवेक्ष छे तेथी अहीं' 'प्राप्तार्थाः बुद्धाः कुशलाः महामतयः, विनीताः विज्ञानમાં, આ પદોના સ ંગ્રહ થયા છે. આ પદોની વ્યાખ્યા પહેલાં કરવામાં આવી છે. તે કાળે અને તે સમયે જે કહેવામાં આવ્યુ' છે તેની સ્પષ્ટતા આ પ્રમાણે છે કે જ્યારે પ્રદશી રાજાએ કેશી કુમાર શ્રમણને શરીરમાંથી બહાર કાઢીને જીવને હસ્તાभावत् मताववानी वात उड्डी त्यारे (एयंत जाव तं त) भांने यावत् यह छे तेथी अही ""येजमानं. चलन्त स्पन्दमान, घट्टमानम्" या होना संग्रह થયા છે. આ પદોની વ્યાખ્યા આ જ સૂત્રમાં પહેલાં કરવામાં આવી છે. આ પદોમાં પ્રત્યયકૃત જ વિશેષતા છે. ધાવ કૃત વિશેષતા નથી વાયુકાય એકેન્દ્રિય જીવ છે. એથી તે રૂપયુકત જીવ છે. કસહિત છે, રાગસહિત છે, માહસહિત છે, નપુસક વેદ સહિત છે, ઔદ્યારિક, વૈક્રિય, તેજસ અને કાણુ આ ચાર શરીરવાળા છે. કૃષ્ણ
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तस्मिन् काले-केशिकुमारश्रमण प्रति जीवस्य शरीरान्निष्काशनपू. चक कराऽऽमलकवदुपदर्श नपार्थनाकाले तस्मिन् समये-अवसरे प्रदेशिनो राज्ञः अदूरसामन्ते नातिदूरे-नातिसमीपे वायुकायः संवृत्तः-प्रवृत्तोऽभवत्, तेन तृणवनस्पतिकायः एजते-सामान्यतः कम्पते, ततो व्येजते-विशेषतः कम्पते, चलति-चपली भवति, स्पन्दते-ईषच्चलति, घट्टते-परस्परं संघर्ष प्राप्नोति, उदीर्ते-उत्कम्पते एवं तं तं भावम्-एजनादिरूपं व्यापारं परिण मते-प्राप्नोति, ततः-वायुकायसंवर्तनवशात् तृणवनस्पतिकायस्यैजनादिभावोपगमनानन्तरम् खलु केशी कुमारश्रमणः प्रदेशिराज मेवमवादीत-हे प्रदेशिराज! त्वं पश्यसि-चक्षुर्गोचरं करोषि खलु एतम्-इमम् तृणवनस्पतिम्, एजमानं यावत्-यावत्पदेन -'व्येजमानं चलन्ते स्पन्दमानं घट्टमानम उदीराणम्' इत्येषां पदानां सङ्ग्रहो बोध्यः एषां व्याख्याऽत्रैव सूत्रे पूर्व कृता, तत्र प्रत्ययकृतो विशेषः, धात्वर्थस्त्वविशेष एव द्रष्टव्यः । तं तं भावं परिणममानम्. । इति केशिप्रश्ने प्रदेशी प्राह-हन्त ! पश्यामि । पुनः केशी कुमारश्रमणः प्रदेशिराज पृच्छति-हे प्रदेशिन् ! त्वं खलु जानासि एतं वनस्पतिकायं किं देवश्चालयति? किं वा असुरश्चालयति ? किं वा नागः-नागदेवश्चालयति ! कि वा किन्नरःतदाख्यदेवविशेषश्चोलयति ! किं वा किंपुरुषश्चालयति ! किं वा महोरगःव्यन्तरविशेषो देवश्चालयति । किं वा गन्धर्वचालयति ! । प्रदेशी पाह-हन्त!! जानामि-नो देवश्चालयति, यावत्-नो गन्धर्वश्चालयति, तर्हि कचालयति ! इति जिज्ञासायामह-वायुकायचालति । केशी पृच्छति-हे प्रदेशिन् ! त्वमेतस्य स्वकीयेऽदूरसामन्ते संप्रवृत्तस्य वायुकायस्य रूप पश्यसि, तस्य कीदृश. स्येत्यत्राऽऽह सरूपिणः-रूपयुक्तस्य सकण:-कर्म सहितत्य सरागस्य-रागस हितस्य समोहस्य-मोहसहितस्य सवेदस्य-नपुसक वेदसम्पन्नस्य सलेश्यस्यकृष्णनीलकापोतलेश्यात्रययुक्तस्य सशरीस्य-औदारिकवैक्रियतेजप्तकार्मण शरीरचतुष्टययुक्तस्य एतादृशस्य वायुकायस्य रूप किं पश्यसि। इति पूर्वे: णान्वयः। इति प्रश्ने प्रदेशी पाह-नायमर्थः समर्थ:-ताशस्थ वायुकायस्य दर्शनरूपोऽर्थः न समर्थ:- न तस्य रुप पश्यामीति भावः। केशीकुमारशरीरोंवाला है. कृष्ण, नील एवं कापोत इन तीन लेश्याओंवाला है यही बात सरूपी आदि विशेषणों द्वारा वायुकाय में प्रकट की गई है। अब शिष्ट सूत्ररथ पदों का अर्थ स्पष्ट है । सू. १५१॥ નીલ અને કાપત આ ત્રણ લેયાઓવાળે છે. એ જ વાત સરૂપી વગેરે વિશેષણ વડે વાયુકામાં પ્રકટ કરવામાં આવી છે. બાકી રહેલા પદોને અર્થ સ્પષ્ટજ છે ૧૫ના
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राजप्रश्नीयसूत्रे
श्रमणो वायुकास्थाशक्यदर्श नत्वे प्रदेशिनमाह-हे प्रदेशिराज ! यदि त्व खलु एतस्य वायुकायस्य सरूपिणः यावत्-सशरीरस्य रूपं न पश्यसि तत्-तदा कथं-केन प्रकारेण खलु करतले आमलक वा-इव जीव तव उपदर्शयि च्यामि ? वायुकायस्य तव जीवस्य च समानरूपत्वादेकस्या शक्यदर्शनत्वेऽपरस्यापि अशक्यदर्शनत्वात् । बक्ष्यमाणच्छद्मस्थमनुष्यस्य जीवादिस्थानानां सर्व भावेन ज्ञानदर्श नाऽयोग्यत्वात् कथं चक्षुर्गोचर कारयिष्यामीति भावः। तदेव दर्शयति-हे प्रदेशिन्! एवम् वक्ष्यमाणमकारेण खलु छद्मस्थो मनुष्यः दशस्थानानि वक्ष्यमाणानि धर्मास्तिकायादीनि सर्वभावेन सम्पूर्णतया न जानाति,न पश्यति । कानि तानीत्याह तद्यथा-धर्मास्तिकायम् ?, अधर्मास्तिकायम्२, आकाशास्तिकायम३, जीवशरीरबद्धम-शरीरतोऽसंस्पृष्टम्४, परमाणुपुग्दलम५, शब्दम्६, गन्धम७, वात-वायुम् ८, अयं जिनो भविष्यति वा-अथवा नो-न भविष्यतीति? ९, अयौं सर्वदुःखानामन्त करिष्यति वा नो करिष्यती ति१०॥ एतानि दशस्थानानि उत्पन्नज्ञानदर्शनधरः अर्हन जिनः केवली एव सर्व भावेप-साकल्येन जानाति तथा पश्यति, तद्यथा-धर्मास्तिकाय' यावत्-नो वा करिष्यति तत्तस्मात्कारणात हे प्रदेशिन् ! त्व श्रद्धेहि, यथा-अन्यो जीवः तदेवपूर्वोक्तमेव-अन्यच्छरीरम्. नो तज्जीवास्स शरीरम् इति ।। सू० १५१ ।।
म्लम्-तए णं से पएसी राया केसि कुमारसमणं एवं वयासी से नूर्ण भंते ! हथिस्स य कुंथुस्स य समे चेव जीवे ? हंता पएसी हत्थिस्स य कुंथुस्स य समे चेव जीवे। से णूणंभंते! हथिउ कुंथू अप्पकम्मतराए चेव अप्पकिरियतराए चेव अप्पासवतराए चेव एवं अप्पाहारनीहारउस्सासनीसासइड्डियतराए अप्पजुइयतराए चेव, एवं कुंथुओ हत्थी महाकम्मतराए चेव महाकिरियतराए चेव जाव ?, महज्जुइयतराए चेव । हंत ? हत्थीओ कुथ अप्पकम्मतराए चेव कुंथुओ वा हत्थी महाकम्मतराए चेव महाकिरियतराए चेव तं चेव । कम्हा णं भंते! हत्थिस्स कुंथुस्स य समे चेव जीवे। पएसी से जहाणामएकूडागारसाला सिया जाव निवायगंभीरा, अह णं केइ पुरिसे जोइं च
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सुबोधिनी टीका. १५२ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशोराजवर्णनम् ३११ पदीवं च गहाय तं कूडागारसालं अंतो२ अणुपविसइ, तीसे कूडागारसालाए सव्वओ समंता घणनिचियनिरंतराइं णिच्छिड्डाई दुवारवयणाई पिहेइ, तीसे कूडागारसालाए बहुमज्झदेसभाए तं पईवं पलीवेज्जा, तए णं से पईवे तं कूडागारसालं अंतोर ओभासइ उज्जो वेइ तावइ पभासइ, णो चेव णं बाहिं । अह णं से पुरिसे तं पईवं इड्रएणं पिहेजा, तए णं से पईवे तं इड्डरय अंतो२ ओभासेइ४, णो चेव णं इड्ड रगस्स बाहिं णों चेव णं कूडागारसालाए बाहिं। एवं गोकिलिंजेणं, पच्छियपिडएणं गंड मणियाए, आढएणं, अद्धाढएणं, पत्थएणं, अद्धपत्थएणं, कुलवेणं चाउब्भाइयाए, अटुभाइयाए, सोलसियाए, बत्तीसियाए; चउसट्रियाए, दीवचंपएण, तए णं से पईवे दीवचंपगस्स अंतो२ ओभासेइ४, नो चेव णं दीवचंपगस्स बाहिं नो
चेव णं चउसट्टियं नो चेव णं चउसट्टियाए बाहि, णो चेवणं कूडागारसालं णो चेव णं कूडागारसालाए बाहिं, एवामेव पएसी ' जीवे वि ज. जारिसय पुत्वकम्मनिबद्ध बोंदि णिवत्तेइ तं असंखेज्जेहिं जीवपएसेहिं सचित्तं करेइ खुड्डिय' वा महालिय वा, तं सदहाहि णं तुम पएसी ! जहा-अण्णो जीवो त चेव णं १० ॥ सू. १५२ ॥
छाया-ततः खलु स प्रदेशी राजा केशिनं कुमारश्रमणमेवमवादीस नून भदन्त ! हस्तिनः कुन्थोः वा सम एव जोवः ? हन्त ! ! प्रदेशिन् !
'तए णं से पएसी राया' इत्यादि।
सूत्रार्थ--(तए णं) इसके बाद (ते पएसी राया केसि कुमारसमणं एव वयासी) उस प्रदेशी राजाने (केसि कुमारसमणं एवं वयासी) केशी
'तए णं से पएसी राया' इत्यादि।
सूत्रार्थ-(तए णं) त्या२ पछी (ते पएसी राया केसि कुमारसमणं एवं वयासी) ते प्रदेशी २२०-3शी सुभा२ श्रमाने सा प्रमाणे ४. (से नूण
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राजप्रनीयसूत्रे
हस्तिनञ्च कुन्थोश्च सम एव जीवः । अथ नूनं भदन्त ! हस्तिनः कुन्थुः अल्पकर्मतर एव अल्पक्रियतर एव अल्पास्रवतर एव. एवम् अल्पाहारनीहारोवासनिः श्वासऋद्धिकतरः अल्पद्युतिकतर एव एवं च कुन्धुतः हस्ती महाकर्मतर एव महाक्रियतर एव यावत् महाद्युतिकतरएव ? हन्त ! प्रदेशिन् !
३१२
कुमारश्रमण से ऐसा कहा - ( से शृणं भते ! हस्थिस्स य कुथुस्सय समे चेव जीवे) हे भदन्त ! हाथी का जीव और कुथु का जीव क्या तुल्यपरिमाण वाला है या न्यूनाधिक परिमाणवाला है? तब केशीकुमार श्रमण ने उससे कहा - (हंता, पएसी ! हथिस्स य कुथुस्स य समे चैव जीवे) हां प्रदेशिन ! हाथी का और कुथुका जीव तुल्यपरिमाणवाला है, न्यूनाधिक परिमाणवाला नहीं है । ( से णूण भरते ! हत्थीउ कुंथू अप्पकम्मतराए चेव, अपकिरियतराए चेव, अप्पासवतराए चेव) हे भदन्त ! हस्ती की अपेक्षा कुन्थु क्या अल्पकर्मवाला ही होता है ? अत्यल्प कायिकादि क्रिया वाला ही होता है ? अत्यल्प आस्रव वाला ही होता है ? ( एवं अप्पाहार नीहारउस्सासनीसासइयतराए, अप्पजुइयतराए चैव ) अल्पतर आहारवाला ही होता है ? अल्पतर नीहार वाला ही होता है ? अल्पतर उच्चास निश्वास वाला ही होता है ? अल्पतर ऋद्धिवाला ही होता है ? अल्पतर ति शरीर की कान्ति वाला ही होता है । ( एवं कुंथुओ हत्थी महाकम्मतराए चेव, महाकिरियतराए चेव जाव महज्जुइयतराए चेव) इसी प्रकार से
ब
भंते! हत्थिस्सय कुथुस्स य समे चेव जीवे) हे लहंत ! हाथीनेो કુથુના જીવ શુ તુલ્ય પરિણામ વાળા છે કે ન્યૂનાધિક પરિમાણવાળા છે ? ત્યારે કેશી कुमार नभागे तेने उह्यु-(हंता, परसो ! हत्थिस्स य कुंथुस्स य समे चेव जीवे) हां प्रहेशिन ! हाथीना भने हुंथुनो व तुझ्य परिणामवाणी छे. न्यूनाधिः परिणाभवाणो नथी. (से णूणं भंते ! हत्थिउ थुकुंथू अष्पकम्मतराए चेव, अपकिरियतराए चेव, अप्पासवतराए चेव) हे लहंत ! हाथीनी अपे ક્ષાએ શુ કુંથુ અલ્પકમ વાળું જ હોય છે ? અત્યલ્પકાયિક વગેરે ક્રિયાવાળું હોય छे ? मत्यस्य भावयुक्त होय छे ! ( एवं अप्पाहार नीहार उस्सासनीसासइडियतराए, अप्पजुइयतराए चेव ) अस्तर आहारवाणु તર નીહારવાળું જ હોય છે કે અપતર ઉચ્છવાસ નિશ્વાસ कुथुओ हत्थी महाकम्मतराचेव, महाकिरियतराए इतराए चेव ) या प्रमाणे हुंथुनी अपेक्षाओ शु हाथी
होय छे ! अथ
હાય છે! (i
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યુકત
चेव जाव महज्जु महाउत्तर होय छे.
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सुबोधिनी टीका. १५२ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशोराजवर्णनम् हस्तितः कुन्थुश्च अल्पकर्मतर एव, कुन्थुतो वा हत्ती महाकर्मतर एव तदेव।। कस्मात् खलु भदन्त ! हस्तिनश्च कुन्थोश्च सम एव जीवः । प्रदेशिन् । तद यथानामक कूटाऽऽकारशाला स्यात्, यावत् निर्वातगम्भीरा, अथ खलु कश्चित् पुरुषः ज्योतिर्वा प्रदीपं वा गृहीत्वा तां कूटाऽऽकारशालाम् अन्तरन्तरनुप
कुन्थु की अपेक्षा हाथी क्या महाकर्मतर ही होता है, महाक्रियातर ही होताहै? यावत् महाद्युतितर ही होता है ? इस प्रदेशी के प्रश्न के उत्तर में केशी कुमारश्रमणने कहा-(हत, पएसी! हथिओ कुंथू अप्पकम्मतराए चेव, कुंथुओं वा हत्थी महाकम्मतराए चेव महाकिरियतराए चेव-त चेव) हां, प्रदेशिन! ऐसी ही बात है-हाथी से कुन्थु अल्पतर कर्मवाला ही होता है, इत्यादि इसी प्रकार कुन्थु की अपेक्षा से हाथी महाकर्मतरवाला ही होता है, महाक्रियावाला ही होता है इत्यादि। (कम्हा णं भंते ! हस्थिस्स य कुंथुस्स य समे चेव जीवे) अब प्रदेशी इस प्रकार पूछता है कि-हे भदन्त ! आपने जो हाथी और कुन्थु के जीव को समानपरिमाणवाला कहा है सो इसका क्या कारण है ? केशीकुमारश्रमणने उससे कहा-(पएसी! से जहा नामए कूडागारसाला सिया जाव निवायगभीरा) हे प्रदेशिन् । जैसे एक कुटाकारवाली पर्वत के शिखर के आकार जैसी शाला हो और यावत् वह निर्वात-वायुमवेश रहित होने के कारण गभीर हो. (कहणं केइ पुरिसं जोई पदीव' च गहाय तं कूडागारसाल अंतो२ अणुपविसइ) अब कोई
મહાકિયાતર હોય છે? યાવત્ મહાતિતર જ હોય છે ? પ્રદેશના આ પ્રશ્નના उत्तरमा शी उभार श्रमणे ह्यु- (हता पएसी! हत्थीओ कुथू अप्प कम्मतराए चेव, कुथुओ वा हत्थी महाकम्मतराए चेव महाकिरियतराए चेव तंचेव) i, हशिन ! वात मेवी छ. हाथी ४२त थु १८५७२ भरता डोय છે. વગેરે. આ પ્રમાણે કુન્થ કરતાં હાથી મહાકર્મ કર્તા હોય છે, મહાકિયા ચુત डाय छे. वगेरे. (कम्हाणं भंते ! हस्थित्स य कुंथुस्स य समे चेव जीवे) हवे પ્રદેશી આ પ્રમાણે પ્રશ્ન કરે છે કે હે ભદંત ! તમે જે હાથી અને કુંથુના જીવને સમાન પરિણામવાળો કહ્યો છે તે એનું શું કારણ છે? કેશી કુમાર મણે તેને કહ્યું(पएसी ! से जहानामए कूडागारसाला सिया जाव निवायगंभीरा) હે પ્રદેશિન ! જેમ કે કઈ એક કુટાકારવાળી–પર્વતના શિખરની આકૃતિ જેવીशीय मने यावत् ते निति-पायु प्रवेश हित हवाथी गलीय, (अहं णं केइ पुरिसे जोइ च पइव च गहाय तं कूडागारसालं अंतो २ अणु.
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राजप्रश्नीयसूत्रे विशति, तस्याः कूटाकारशालायाः सर्वतः समन्तात् घननिचितनिरन्तराणि निश्छिद्राणि द्वारवदनानि पिदधाति, तस्याः कूटाऽऽकारशालाया बहुमध्यदेशभागे त प्रदीप प्रदीपयेत्, ततः खलु स प्रदीप: तां कूटाऽऽकारशा लाम् अन्तरन्तः अवभासयति उद्योतयति तापयति प्रभासयति, नो चैव खलु बहिः अथ खलु स पुरुषः त प्रदीपम् इड्डुरकेण पिदध्यात्, ततः खलु पुरुष अग्नि और दीपक को लेकर उस कूटाकारशाल के भीतर घुसकर बिलकुल ठीकमध्यभाग में जाकर खडा हो जाता है (तीसे कडागारसालाए सव्वओ समता घणनिचियनिरंतराई णिच्छिङ्डाइ दुवारवयणाई पिहेइ) फिर वह उस कुटाकारशाला के चारों ओर के सब दरवाजों को इस तरह से बन्द कर देता हैं कि जिससे उनके आपस में किबाड इस प्रकार से सट जाते हैं कि उनमें जरासा भी छिद्र नहीं रहने पाता है. इस तरह से दरवाजों को अच्छी तरह से बन्द कर (तीसे कूडागारसालाए बहुमज्जदेसभाए तं पईवं पलीवेज्जा) फिर वह उस कूटाकारशाला के बहुमध्य देशभाग में उस प्रदीप को प्रज्जवलित करता है. (तए णं से पईवे त कूडागारसाल तो२ ओभा सइ) इस तरह वह दीपक उस कूटाकारशाला के पूरे भागको ही प्रकाशित करता है (उज्जोवेइ, तावइ पभावइ) उद्योतित करता है, तापित करता है एवं घटपटादि पदार्थों को दिखाने से उसे प्रभासित करता है (णो. चेवण बाहि) उस कूटाकारशाला के बाहिरी भाग को वह न प्रकाशित करता है, न उद्योतित करता है, न तापित करता है और न घटपटादिकों को पविसइ) डवे ४ ५३५ अनि तेस. ही५४ सधन ते फूट।४।२।४ानी मह२ प्रविष्ट थईन म तना मध्यभागमा ने लो 25 01य छे. (तीसे कडागारसालाए सव्वओ समता घणनिचियनिरंतराई णिच्छिङ्काई दुवारवयणाई पिहेइ) પછી તે માણસ તે કુટાકાર શાળાના ચારે તરફના બધા દ્વારને એવી રીતે બંધ કરી દે છે તેના પરસ્પર એકદમ બંધ થયેલા કમાડામાંથી નાનું સરખું પણ કાણુ रहेतु नथी. (तीसे कूडागारसालाए बहुमज्झदेसभाए तं पईवं पलीवेज्जा) પછી તે માણસ તે કૂટાકારશાળાના બહુમધ્ય દેશભાગમાં તે દીપકને પેટાવે છે. (तए णं से पईवे तं कूडागारसाल अंतो २ ओभासइ) Pal प्रमाणे ते टी५४ ते २ ॥णाना -म'४२ना भागने प्रशित ४३ छ, (उज्जोवेइ, तावइ पभावड) Gधोतित ४२ छ, तापित ४२ छ, भने ५८५८ वगेरे पहायाने मतावान तेभने प्रतिभासित ४२ छ (णो चेव ण वाहि) ते १२ जाना महा२न। ભાગને તે પ્રકાશિત કરતું નથી, ઉદ્યોતિત કરતો નથી, સંતાપિત કરતું નથી અને
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सुबोधिनी टीका सू. १५१ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशोराजवर्णनम् ३१५ स प्रदीपः तद् इडुरकम् अन्तरन्तः अवभासयति४, नो चेव खलु इड्डरकस्य बहिः, नो चैव खलु कूटाऽऽकारशालायाः बहिः। एवं गोकिलिम्जेन. पक्षिपिट. केन, गण्डमाणिकया आढकेन, अर्धाढ केन, प्रस्थकेन, अर्ध प्रस्थकेन, कुडवेन, अर्द्धकुडवेन, चतुर्भागिकया, अष्टभागिकया, षोडशिकया, द्वात्रिंशत्कया, दिखाने से उसे प्रभासित करता है। ( अहण से पुरिसे तं पई इड्डरएणं पिहेज्जा, तएण से पईचे त' इड्रय' अंतो२ ओभासेइ४) यदि वह पुरुष उस दीपक को किसी बडे ढकन से ढक देता है तो वह दीपक उस बडे ढक्कन के भीतरी भाग को ही प्रकाशित करता है यावत् उसे प्रभासित करता है (णो चेव ण इड्डरगस्स बाहिं णो चेव ण कूडागारसालाए बाहिँ) उस बडे ढक्कन के बाहिरी भाग को एवं कूटाकारशाला के बाह्यदेश को प्रकाशित यावत् प्रभासित नहीं करता है। (एवं गोकिलिंजेण, पच्छिपिंडएण, गडमणियाए, आढएण, अद्धाढएण, पत्थएण, अद्धपत्थएण कुलवेण, वाउभाइ याए, अट्ठभाश्याए, सोलसियाए) इसी तरह उस दीप को गोकिलिञ्ज से-गाय को खाना जिसमें रखा जाता है ऐसी कुण्डिका से, तथा पक्षी के आकरवाले वंशशलाका निर्मित पात्र विशेष से, गण्ड. मणिका से-धान्य नापनिका से, आढक से, अर्धाढक से, प्रस्थक से, अर्ध प्रस्थक से, कुडवसे, अर्धकुडव से, न सब देश विशेष में प्रसिद्ध धान्यमापक पात्र विशेषों से ढक देता है तथा चतुर्भागिका से, अष्टभागिका १८५८ वगैरे पदार्थाने मतावान तभने प्रतिभाषित ५९] ४२तो नथी. (अहं णं से पुरिसे तं पईवं इड्डरएणं पिहेज्जा, तए ण से पर्व त इड्डय' अंतो २
ओभासेइ ४) वे ने ते ५३५ ते टीपने भाटा ढizथी ढil हे तेते ५ તે મેટા ઢાંકણાના અંદરના ભાગને જ પ્રકાશિત કરે છે, યાવત્ તેને પ્રતિભાસિત કરે छ. (णो चेव णं इरगस्स बाहि णो चेव णं कूडागारसालाए बाहि) તે મેટા ઢાંકણાના બહારના ભાગને તેમજ તે કુટાકાર શાળાના બાહ્ય પ્રદેશને પ્રકાશિત यावत् तेने प्रतिभासित ४२ नथी. (एवं गोकिलिजेण' पच्छिपिंडएण, गंडमणियाए, आढएण', अद्धाढएण, पत्थएण, अद्धपत्थएणं, कुलवेण, चाउब्भाइयाए, अभाइयाए, सोलसियाए) 21 प्रमाणे ते भास ते दीपने गा. લિંજથી-ગાયને જેમાં ખાણ મૂકવામાં આવે છે. એવી કુંડીથી, તેમજ પક્ષીના આકારવાળા વંશ શલાકાનિર્મિત પાત્ર વિશેષથી, ગંડ મણિકાથી-ધાન્ય માપનિકાથી, આઢકથી, અર્વાઢકથી, પ્રસ્થકથી, અર્ધપ્રસ્થકથી, કુડવથી, અર્ધકુડવથી, આ બધા દેશ વિદેશમાં પ્રસિદ્ધ ધાન્યમાપક પાત્ર વિશેથી તેને ઢાંકી દે છે તેમજ ચતુર્ભાગીકાથી,
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राजप्रश्नीयसूत्रे
चतुष्षष्टया, दीपचम्पकेन, ततः खलु स प्रदीपः दीपचम्पकस्य अन्तरन्तः अवभासयति४, नो चैव खलु दीपचम्पकस्य बहिः नो चैव खलु चतुष्पष्टिका, नो चैव खलु चतुष्पष्टिकाया बहिः, नो चैव खलु कूटाऽऽकारशालां, नो
चव खलु कूटाऽऽकारशालाया बहिः, एवमेव प्रदेशिन् ! जीवोऽपि यां यादृशीं पूर्व कर्म निबद्धां बोन्दि निर्वतयति तामसंख्येयैर्जीवप्रदेशैः सचित्तां करोति क्षुद्रिकां वा महतीं वा, तत् श्रद्धेहि खलु त्वं प्रदेशिन् ! यथा अन्यो जीवः तदेव खलु१० सू. १५२।
से, षोडशभागिका से इन सब चतुर्भागिका से चतुष्षष्टिकापर्यन्त के मगधदेशप्रसिद्ध रसमापक पात्र विशेषों से ढक देता है तथा दीप के ढंकने से ढंक देता है (तए ण से पईवे दीवपंचगस्स अंतो २ ओभासेइ) तो वह प्रदीप जिन २ से ढंका गया है उन्हीं २ के भीतरी को ही प्रका. शित करता है, उनके बाहिरी भाग को नहीं इसी तरह से वह दीपचम्पक के ही भीतरी भाग को प्रकाशित करता है, (णो चेव ण दीवचगस्स बाहिं नो चेव ण चउसट्टिय', नो चेव ण चउसट्टियाए बाहिं, जो चेव ण कूडागारसाल, कूडागारसालाए बाहि) दीपचम्पक के बाहिरी भाग को नहीं-या दीपक के बाहिर के प्रदेश को नहीं, चतुष्षष्टिका को नहीं, चतुष्पष्टिका के बाहिर के प्रदेश को नहीं, कूटाकारशाला को,
और कूटाकारशाला के बाहर के प्रदेश को नहीं प्रकाशित करता है (एवामेव पएसी! जीवे वि जे जारिसयं पुवकम्मनिबद्ध' बोदि णिवत्तेइ) मष्ट evilstथी, पो७२ माilथी (बत्तीसियाए, चउसट्टियाए, दीवचंपएणं) બત્તીસિકાથી, ચતુષ્ટિકાથી, આ બધી ચતુર્ભાગિકાથી ચતુષષ્ટિકા પર્યન્તના મગધ દેશ પ્રસિદ્ધ રસમાપક પાત્ર થશેથી ઢાંકી દે છે તેમજ દીપચંપકથી-દીપકના ઢાંક
थी dil हे छे. (तए ण से पईवे दीवच पगस्स अंतो २ ओमासेइ) તે તે પ્રદીપ જે જે વસ્તુથી ઢાંકવામાં આવે છે તે તે વસ્તુના અંદરના ભાગને જ પ્રકાશિત કરે છે. તેમના બહારના ભાગને પ્રકાશિત કરતું નથી. આ પ્રમાણે તે हीपय ५४ना मरना सामने प्रशित ४२ छे. (णो चेव ण दीवचं पगस्स बाहिं, नो चेव ण चउसहिय, नो चेव ण चउसठियाए बाहिं, णो चेव ण कूडागारसाल. णो चेव ण कूडागारसालाए बाहि) वीपय ५४॥ બહારના ભાગને નહીં, કે દીપક ચંપકના બહારના પ્રદેશને નહીં, ચતુષષ્ટિકાને નહીં, ચતુષષ્ટિકાના બહારના પ્રદેશને નહીં, કુટાકાર શાળાને નહીં, અને ફૂટકારશાળાના महा२ना प्रशने प्रोशित ४२ते। नथी. एवामेव-पएसी! जीवे वि जे जारि. सय पुवकम्मनिबद्ध बोंदि णिवत्तेइ) -AL प्रमाणे से प्रदेशिन प प पूर्व
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सुबोधिनी टीका सू. १५१ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशोराजवर्णनम् ३१७
टीका-'तए णं से पएसी राया' इत्यादि-ततः खलु स प्रदेशी राजा केशिनं कुमारश्रमणम एवमवादीत-हे भदन्त ! स शरीराद्भिन्नः जीवः नूननिश्चयेन हस्तिनः कुन्थोः-त्रीन्द्रियक्षुद्रप्राणिविशेषस्य च समः-तुल्यपरिमाण एव न न्यूनाधिकपरिमाणः इति प्रश्नः । केशी पाह-हन्त ! हे प्रदेशिन ! इसी तरह से हे प्रदेशिन् ! जीव भी पूर्व भवोपार्जित कर्मद्वारा निबद्ध जैसे शरीर को उत्पन्न-प्राप्त करता है (तअसंखेज्जेहि जीवपएसेहि सचित्तं करेइ खुड्डियं वा महालियौं वा) चाहे वह छोटा हो या बडा उसे अपने असंख्यात प्रदेशों से सचित्त-जीव युक्त कर लिया करता है. (तं सदहाहिण तुम पएसी ! जहा अण्णो जीवो त चेव ग१०) इसलिये हे प्रदेशिन्! तुम इस बात पर विश्वास करो कि जीव अन्य है और शरीर अन्य हैं इत्यादि।
टीकार्थ-इस मूलार्थ के ही अनुरूप है-परन्तु जो विशेषता है-वह इस प्रकार से है-कुन्थु वह तीन इन्द्रियों वाला-ते इन्द्रिय जीव है. और हाथी पांच इन्द्रियों वाला-पंचेन्द्रिय जीव है. जबकेशीकुमार श्रमणने १५१वे' सूत्र में प्रदेशी से ऐसा कहा कि वायुकायिक जीव में और तुम्हारे जीव में समानता है-तो प्रदेशी के चित्त में ऐसी आशंका का उठना स्वभाविक ही हैं कि कुन्थु के जीव में और हाथी के जीव में समानता है या असमानता है ? इसीलिये उसने ऐसा प्रश्न पूछा है. इसके समा. धान में केशीने उससे ऐसा कहा कि हे प्रदेशिन् ! जीव में-चाहे वह सापान मा निम शश२२ SH-H-आते ४२ छ. (तं असंखेज्जेहिं जीवपएसेहिं सचित्त करेइ खुड्डिय वा महालियौं वा) पछी लसे पछी નાનું હોય કે મેટું-લઘુ હોય કે મહાન તેને પિતાના અસંખ્યાત પ્રદેશથી સચિત્ત
युत ४री से छे. (तं सहाहि णं तुम पएसी ! जहा अण्णोजीबी त चेव णं १०) मेटा माटे है प्रहशिन् ! तमे भारी मा पात ५२ विश्वास रे। જીવ અન્ય છે અને શરીર અન્ય છે. વગેરે!
ટીકાઈ—આ સૂત્રને ટીકાર્થ મૂલાર્થ પ્રમાણે જ છે. પણ સવિશેષ સ્પષ્ટતા આ પ્રમાણે છે-કુંથુ–એ ત્રણ ઇન્દ્રિય યુકત-તે ઈન્દ્રિય જીવ છે. અને હાથી પાંચ ઇનિદ્ર યુકત પંચેન્દ્રિય જીવ છે. જ્યારે કેશી કુમાર શ્રમણે ૧૫૧ મા સૂત્રમાં પ્રદ. શીને આ પ્રમાણે કહ્યું કે વાયુકાયિક જીવમાં અને તમારા જીવમાં સમાનતા છે તે પ્રદેશને ચિત્તમાં એવી આશંકા ઉદ્દભવે કે કુંથુના જીવમાં અને હાથીના જીવમાં સમાનતા છે કે અસમાનતા? એ વાત સ્વાભાવિક છે. એટલા માટે જ તેણે આ જાતને પ્રશ્ન કર્યો છે, એના સમાધાનમાં કેશીએ તેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે પ્રદેશિન!
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राजनीयसूत्रे
हस्तिनः कुन्थोश्च जीवः सम एव । प्रदेशी कथयति - हे भदन्त ! तत्र - हस्तिकुन्थ्वोर्मध्ये हस्तितः- हस्तिनमपेक्ष्य, अत्र स्यलोपे कर्मणि पञ्चमी कुन्थुः नून - निश्चयेनाल्पकर्मतर:- अत्यल्पाऽऽयुरादिरूपकर्मवान् एव अल्पक्रियतरःअत्यल्पकायिकादिक्रियावान एव, अल्पास्रवतरः- अत्यल्पप्राणातिपातादिरूपा स्रववान् एव एवम् अनेन प्रकारेण अल्पाऽऽहारनीहारोच्या सनिःश्वासऋद्धि कतरः अल्पद्युतिकतरः अल्पशब्दस्य सर्वत्र सम्बन्धात् अल्पोहारतर एव अल्पंनीहारतर एव अल्पोच्छ्वासतर एव अल्पऋद्धिकतर एव अत्र ऋद्धिः परिवारादिरूपा ग्राह्या अल्पद्युतिकतर एवेत्यर्थः, घुतिश्च शरीरकान्तिरूपा । एवं - यथा - हस्तिनमपेक्ष्य कुन्थुग्ल्पतरकर्मत्वादिविशिष्ट उक्तस्तथा, कुन्थुत:कुन्थुमपेक्ष्य हस्ती - महाकर्म तर :- अधिकायुरादिकरूपकर्मवान्, एव, महाक्रितर याव यावत् - यावत्पदेन - महास्रवतर एव महानीहारतर एव महोच्छ्वा सतर एव महर्द्धिकतर एवं महाद्युतिकतर एव' इत्येषों सङ्ग्रहो बोध्यः । इति प्रश्ने केशी प्राह-हन्त ! प्रदेशिन् ! हस्तितः कुन्थुरल्पकर्मतर एव कुन्थुतो वा हस्ती महाकर्मतर एव तदेव पूर्वोक्तमेव कुन्थुपक्षे अल्पक्रियतर एव अल्पास्रवतर: हस्तिपक्षे - महाक्रियतर एव महास्रवतर एवेत्यादि बोध्यम् । इति हस्ति - कुन्थ्वोः परस्परं कर्मादिभेदं श्रुत्वा प्रदेशी तयोर्जीवसाम्ये कारणं पृच्छति - 'कस्मात् खलु भदन्त ! इत्यादि - हे भदन्त ! कस्मात् कारणात् खलु हस्तिनः कुन्थोश्च जीवः सम एव ?, केशी माह- हे प्रदेशिन् ! तद् यथानामक - यथादृष्टान्तम् कूटाऽऽकारशाला - पर्वतशिखराकारा स्यात् यावत्-याव त्पदेन द्विधातो लिप्ता गुप्ता गुप्तद्वारेति पदानां सङ्ग्रहो बोध्यः, निर्वात
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कुन्धु का हो चाहे हाथी का हो सब में समानता है एक जीव में असख्यात प्रदेश होते हैं. इन प्रदेशों की अपेक्षा सब समान है. कोई भी जीव ऐसा नहीं है कि जिसमें इन प्रदेशों की समानता न हो. पूर्वोपार्जित शरीर नाम कर्म आदि के द्वारा जिस जीव को जैसा शरीर प्राप्त होता है वह जीव उसमें अपने प्रदेशों को संकोच विस्तारवाला बना लेता है
જીવમાં-પછી ભલે તે કુન્થુ ના હાય કે હાર્થીના સમાનતા છે. એક જીવમાં અસ ખ્યાત પ્રદેશા હાય છે. આ પ્રદેશાની અપેક્ષાએ આપણે વિચાર કરીએ તે બધા જીવા સમાન જ છે. કોઈ પણ આવા નથી કે જેમાં આ પ્રદેશેાની સમાનતા હાય નહિ પૂર્વપાર્જિત શરીર નામકર્મ વગેરે વડે જે જીવને જેવુ શરીર પ્રાપ્ત થાય છે તે જીવ તેમાં પેાતાના પ્રદેશેાને સાચ વિસ્તારયુકત ખતાવી લે છે, દાખલા તરીકે
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सुबोधिनी टीका सु. १५२ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ३१९ गम्भीरा, अथ खलु कोऽपि पुरुषः 'ज्योतिः-अग्नि च दीप च गृहीत्वा तां-कूटाकारशालाम्, अन्तरतः-अत्यन्ताभ्यन्तरे अनुप्रविशति। तस्याः कूटा कारशालाथाः सर्वत-सर्वदिक्ष, समन्तात-सर्वविदिक्ष घननिचितनिरन्तराणिघन-निबिड यथा स्यात्तथा निचितानि-संघातितानि निरन्तराणि-अन्तरर. हितानि तानि तथा, अस्य 'द्वारवदनानी'-त्यनेन सम्बन्धः, पुनः निश्छिद्राणि छिद्रर. हितानि द्वारवदनानि-द्वारमुखानि, पिदधाति-आच्छादयति, तस्याः-कूटाऽऽ काटशालायाः बहुमध्यदेशभागे--अत्यन्तमध्यप्रदेशे तपदीप प्रदीपयेत्-प्रज्वालयेत्, ततः खलु स प्रदीपः तां कूटाकारशालाम् अन्तरन्तः-सर्वान्तर्भागेसर्वान्तर्भागावच्छेदेनेति भावः। अवभासयति-प्रकाशयति, उद्योतयतिउत्कर्षेण प्रकाशयति, तापयति-संतप्तां करोति प्रभासयति-घटपटादि दर्शनया प्रकर्षण प्रकाशमानां करोति, किन्तु वहि:-कूटाकारशालाया बहिभांग नो चैव-नैव अवभासयति उदद्योतयति तापयति प्रभासयति । अथ खलु स पुरुषः तं प्रदीपम् इड्डर केण-महापिटकेन-प्रावरणविशेषेण पिद. ध्यात्-आच्छादयेच्चेत्, ततः खलु सः-पिहितः प्रदीपः तत्-प्रदीपपिधानभूतम् इडुरकम् अन्तः आभ्यन्तरावच्छेदेन अवभासयति किन्तु इडरकस्य बहिः:-बहिःप्रदेश नो चैव-नैव खलु अवभासयति तथा कूटाकारशालायाः बहिः नो चैव अवभासयति, एवम्-अनेन प्रकारेण गोकिलिजेन-गोकिलि जं-गवां भक्ष्यस्थापनकुण्डिका, तेन, तथा पक्षिपिटकेन-पक्षिपिटक-पक्ष्याकारो वंशशिलाकानिर्मितपात्रविशेषः, तेन, तथा गण्डमाणिकाया-गण्डमा. णिका-धान्यमापनिका, तया, आढकेन, अर्धाढ़केन, पस्थकेन, अर्धप्रस्थकेन, कुडवेन, अर्धकुडवेन, आढकादारभ्या कुडवपर्यन्तानि धान्यमापकानि देश. विशेषपसिद्धानि पात्रविशेषाणि तैः प्रदीप पिदध्यादिति पूर्वेण सम्बन्धः, तथा चतुर्भागिकया, अष्टभागिकया पोडशिकया द्वात्रिंशत्कया चतुष्पष्टिकयाचतुर्भागिकादि चतुष्पष्टिकापयर्यन्ता मगधदेशप्रसिद्धा एव रसमापकपात्र. विशेषास्तैः प्रदीप पिदध्यादिति पूर्वेणान्वयः, एवं दीपचम्पकेन-दीपपिधानेन प्रदीप पिदध्यादिति पूर्वेणान्वयः, ततः खलु सः-पिहितः प्रदीपः दीपजैसे दीप का एक कोडे (एक घर) में रख दिया जावे तो वह उस कोठे भर को जहां तक उसका प्रकाश फैल सकता है प्रकाशित करता है और उसी दीपक को यदि मिट्टी के छोटे बर्तन के अन्दर बन्द कर रख दिया દીપકને એક ઘરમાં મૂકવામાં આવે છે તે સંપૂર્ણ ઘરને જયાં સુધી તેને પ્રકાશ જઈ શકે ત્યાં સુધી પ્રકાશિત કરે છે અને તેજ દીપકને જે માટીના નાના વાસણની અંદર મૂકવામાં આવે છે તે તેના અંદરના ભાગને જ પ્રકાશિત કરે છે. વગેરે વગેરે,
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राजप्रश्नीयसूत्रे चम्पकस्य अन्त:-मध्यभागम् अवभासयति उद्योतयति तापयति प्रभासयति नो चैव खलु दीपचम्पकस्य बहिः, नो चैव खलु चतुष्टिका नो चैव खलु चतुष्पष्टिकाया बहिः, एवं दीपचम्पकाच्छादितो दीपः, नो चैव खलु द्वात्रिं. शिकां, नो चैव खलु द्वात्रिंशिकायाः बहिः, इत्यादि पश्चादानुपूर्व क्रमेण यावत् नो चैव कुटाकारशालाम, नो चैव क्टाकारशालाया बहिः अवभासयति उद् द्योतयति तापयति प्रभासयति' इति योजना कार्या एवमेव-प्रदीपदृष्टान्तानु सारेणैव हे प्रदेशिन् ! जीवोऽपि यां कांचित्-यादृशी-पूर्वकर्मनिबद्धां-पूर्व भवोपार्जितकर्मनिबद्धां बोन्दि-तनु निर्वर्तयति-उत्पादयति तो बोन्दिम् असंख्येय असंख्यातैः जीवप्रदेशैः सचित्ता-जीवयुक्तां करोति-सम्पादयति, तो बोन्दि कीदृशीम् ! इति जिज्ञासायामाह क्षुद्रिकाम्-अतिलध्वीम्, महती -विशालाम् वा सचितां करोति' इति पूर्वेणान्वयः । तत्-तस्मात्-दीपदृष्टा. न्तेन जीवस्य पूर्वभवकृतकर्मनिबद्धातिलघुमहाशरीरानुप्रवेशनकारणा,त् हे प्रदेशिन् ! त्वं श्रद्धेहि-मद्वचने श्रद्धां कुरु, यथा-अन्यो जीवः तदेव-पूर्वोक्तमेव अन्यच्छरीरम् नो तज्जीवः स शरीरम, इति । ॥ सू० १५२॥
मूलम-तए णं पएसी राया केसि कुमारसमणं एवं वयासी-एवं खल भंते ! मम अजगस्स एसा सन्ना जाव समोसरणं जहातज्जीवो तं सरीर, नो अन्नो जीवो अन्न सरीरं। तयाणंतरं च णं मम पिउणो वि एसा सण्णा जाव समोसरणं। तयाणंतरं च णं मम
जाता है तो वह उसके भीतरी भाग को ही प्रकाशित करता हैं. आदि तो जिस प्रकार से दीपक के प्रकाश में संकोच विस्तार करने का स्वभाव है, उसी प्रकार से जीव में भी अपने प्रदेशों को संकोच विस्तार करने का स्वभाव है यहो सब विषय इस सूत्र में स्पष्ट किया गया है. 'हत्थीउ कुंथू' इसका अर्थ है हस्ती की अपेक्षा करके । ऋद्धि शब्द से यहां परिवारादिरूप ऋद्धि गृहीत हुई हैं ।। सू० १५२ ॥
તે. જેમ દીપકના પ્રકાશમાં સંકોચ વિસ્તાર કરવાને સ્વભાવ છે તેમજ જીવમાં પણ પિતાના પ્રદેશને સંકુચિત કે વિસ્તૃત કરવાને સ્વભાવ છે. આ બધી વાતો આ सूत्रमा २५८ ४२वामी मवी छ. 'ह त्थी उ कुंथ' मेने अर्थ 'हाथीनी अपेक्षाये' એવા છે. અદ્ધિ શબ્દથી અહીં પરિવારાદિરૂપ ઋદ્ધિનું ગ્રહણ થયું છે. સૂ૦ ૧૫રા
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सुबोधिनी टीका सू. १५३ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशोराजवर्णनम् ३२१ वि एसा सण्णा जाव समोसरणं, त नो खलु अह बहुपुरिस परंपरागयं कुलनिस्सियं दिलि छंडेस्सामि ॥ सू० १५३ ॥
__ छाया-ततः खलु प्रदेशी राजा केशिनं कुमारश्रमणम्-एवमवादीत् एव खलु भदन्त ! मम आर्यकस्य एषा संज्ञा यावत् समवसरणं यथा-तज्जीवस्तच्छरीरम्, नो अन्यो जीवोऽन्यच्छरीरम्, तदनन्तरं च खलु मम पितुरपि एपा संज्ञा यावत् समवसरणम् । तदनन्तरं ममापि एषा संज्ञा यावत् समवसरणम्, तत् नो खलु अहं बहुपुरुषपरम्परागतां कुलनिश्रितां दृष्टिं मोक्ष्मामि ॥ सू० १५३ ॥
'तए णं पएसी राया' इत्यादि।
सूत्रार्थ—(तएणं) इसके बाद (पएसी राया) प्रदेशी राजाने (केसि कुमारसमणं एवं वयासी) केशीकुमारश्रमण से ऐसा कहा (एवं खलु भंते ! मम अञ्जगस्स एसा सन्ना जाव समोसरणं जहा तज्जीवो तं सरीरं, नो अन्नो जीवो अन्नं सरीरं) हे भदन्त मेरे आर्यक-पितामह की यह संज्ञाथी, यावत समवसरण था-कि वही जीव है वही शरीर है-जीव शरीर से भिन्न नहीं है शरीर जीव से भिन्न नहीं है (तयाणंतरंच णं ममं पिउणो वि एसा सण्णा जाव समोसरणं,) उनके बाद मेरे पिताकी भी ऐसी ही संज्ञा यावत् ऐसा ही समवसरण रहा, (तयाणंतरं च णं मम वि एसा सण्णा जाव समोसरण तं नो खलु बहुपुरिसपर परागयं कुलनिस्सियं दिहिं ठंडेस्सामि) बाद में मेरी भी यही संज्ञा यावत ऐसा ही समवसरण है-अतः अनेक पुरुष परम्परा से चली आई हुई इस कुलाधीनमान्यता को नहीं छोडुंगा, इसलिये जीव और शरीर एक ही है भिन्न २ नहीं है।
'तए णं पएसी राया' इत्यादि।
सूत्रार्थ-(तए णं) त्या२मा (पएसी राया) प्रदेशी २०१२ये (केसि कमारसमणं एवं वयासी) अशी भा२ श्म शुने मा प्रमाणे ४धु-(एवं खलु भंते ! मम अज्जगस्स एसा सन्ना जाव समोसरणं जहा तज्जीवो तं सरीरं, नो अन्नो जीवो अन्नं सरीरं) महत! भा२६ माय:-पितामनी 0 संज्ञा હતી યાવત્ સમવરણ હતું કે તેજ જીવ છે, તેજ શરીર છે, જીવ શરીર કરતાં भिन्न नथी. (तयाणंतरं च णं मम पिउणो वि एसा सण्णा जाव समोसरणं) ત્યાર પછી મારા પિતાની પણ એવી જ સંજ્ઞા યાવતુ એવું જ સમવસાણ રહ્યું. (तयाणंतरं च णं मम वि एसा सण्णा जाव समोसरणं तं नो खलु बहुपुरिसपरंपरागयं कुलनिस्सियं दिहि छंडेस्सामि) त्या२ पछी भारी ५ मेवी ०४ संज्ञा થાવત્ સમવસરણ છે. એટલા માટે અનેક પુરૂષ પરંપરાથી ચાલી આવતી આ કુલાધીન માન્યતા ને હું ત્યજીશનહીં એથી જીવ અને શરીર એકજ છે ભિન્ન ભિન્ન નથી.
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राजप्रश्नीयसूत्रे
खलु प्रदेशी राजा आर्यकस्य - पिता
टीका- 'तए णं पएसी राया' इत्यादि ततः केशिनं कुमारभ्रमणम्, एवमवादीत् एवं खलु हे भदन्त ! मम महस्य एषा संज्ञा यावत् - यावत्पदेन एषा प्रतिज्ञा एषा दृष्टिः एषा हेतुः एष उपदेशः एपः संकल्पः एषा तुला एतद् मानम् एतत् प्रमाणम्" इत्येषां पदानां संग्रहो बोध्यः समवसरणमासीत् । एषां व्याख्या - एकत्रिंशदधिकैकशततमसूत्रतो विज्ञेया । यथा - तञ्जीवः तच्छरीरम् नो अन्यो जीवोऽन्यच्छरीरम् इति मम पितामहस्य मन्तव्य - मासीत् । तदनन्तरं च खलु मम पितुरपि एषा - अनन्तरोक्ता संज्ञा यावत् समवसणमासीत् । तदनन्तरं च खलु ममापि एषा संज्ञा यावत् समवसरणमस्ति, तत्—तस्मा । कारणात् खलु अहं बहुपुरुषपरम्परागतां - पितामहादिपरम्परासमागतां कुलनिश्रितां कुलनिश्रया समागतां दृष्टिम् नो मोक्ष्यामि न त्यक्ष्यामि - अपि तु तजीवः स शरीरं नो अन्यो जीवोऽन्यच्छरीरमिति मतमेव स्वीकरिष्यामि ||० १५३ ।।
३२२
मूलम् - तए णं केसी कुमारसमणे पएस रायं एवं वयासी- माणं तुमं पएसी ! पच्छाणुताविए भवेज्जासि, जहा व से पुरिसे अयहारए । के णं भंते ! से अयहारए ? । पएसी ! से जहाणामए केई पुरिसा अत्थत्थिया अत्थगवेसिया अत्थलद्धया अत्थकंखिया अत्थपिवासिया अत्थगवेसणयाए विउलं पणियभंडमायाए सुबहु भत्तपाण पत्थयणं गहाय एवं महं अगामियं छिन्नावायं दीहमद्धं अडवि अणुपविट्ठा ।
टीकार्थ - - स्पष्ट है- 'सन्ना जाव समोसरणं' में जो यह यावत् पद आया है उस से यहां - एषा प्रतिज्ञा एषा दृष्टिः एषा रुचिः, एष हेतुः, एषः उपदेशः, एषः संकल्पः, एषा तुला, एतद् मानम् एतत् प्रमाण ) इन पदों का संग्रह हुआ है. इन सब पदों की व्याख्या तथा 'समवसरण' इस पद की व्याख्या १३० वें सूत्र में की जा चुकी है । अतः मैं जीव शरीर की अभिन्नता को ही स्वीकार करूंगा, भिन्नता को नहीं || सू० १५३ ||
टीडअर्थ-स्पष्ट ४ छे. 'सन्ना जाव समोसरणं' भां ? यावत् यह छे तेथी यही 'एषा प्रतिज्ञा एषा दृष्टिः एष उपदेशः एषः संकल्पः एषा तुला, एतत् मानम् एतद् प्रमाणम्" या होना संग्रह थयो छे. या सर्व यहोनी व्या ખ્યા ૧૩૦ મસૂત્રમાં કરવામાં આવી છે. એથી હું જીવ તેમજ શરીરની અભિન્નતાને જ સ્વીકારીશ ભિન્નતાને નહિ. ઘસૢ૦ ૧૫૩ા
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सुबोधिनी टीका सू. १५४ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशीराजवर्णनम् ३२३ तए णं ते पुरिसा तोसे अगामियाए अडवीए जाव कंचिदेसं अणुप्पत्ता समाण। एगं महं अयागरं पासंति, असणं सव्वओ समंता आइण्णं वित्थिणं सच्छड उवच्छड फुड अणुगाडं पासंति, पासित्ता हटा तुटा जाव हियया अन्नमन्नं सदावेंति, एव क्यासी-एस णं देवाणुप्पिया! अयागरे इडे कंते जाव मणामे, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं अयभारग बंधित्तएत्ति कटु अन्नमन्नस्स एयम? पडिसुणेति, अयभारं बंधंति अहाणुपुवीए संपत्थिया। तए णं से पुरिसा अगामि याए जाव अडवीए किंचिदेसं अणुपत्ता समाणा एगंमहं तउआगर पासंति, तउएणं सवओ समंता आइणं तं चेव जाव सदावेत्ता एवं वयासी-एस र्ण देवाणुप्पिया ! तउआगरे इठे जाव मणामे, अप्पेणं चेव तउएणं सुबहु अए लब्भइ, तं सेयं खल्लु अम्ह देवाणुप्पिया अयभारगं छड्डेत्ता तउयभारग बंधित्तएत्तिकटु अन्नमन्नस्स अंतिए एयम; पडिसुणेति अयभारं छड्डेति तउयभार बंधति। तत्थ एगे पुरिसे णो संचाएइ अयभारं छड्केत्तए तउयभार बंधित्तए, तए णं ते पुरिसा तं पुरिसं एवं वयासी-एस णं देवाणुपिया ! तउआगरे जाव सुबहुँ अए लब्भइ, तं छड्डेहि, णं देवाणुप्पिया ! अयभारग, तउयभारगं बधाहि । तए णं से पुरिसे एव वयासी-दूराहडे मए देवाणुप्पिया ! अए, चिराहडे मए देवाणुप्पिया ! अए, अइगाढबंधणबद्ध मए देवाणुप्पिया ! अए, असिढिलबंधणबद्ध मए देवाणुप्पिया ! अए, धणियबंधणबद्धे मए देवाणुपिया! अए णो संचाएमि अयभारगं छत्ता तउयभारगं बंधित्तए। तए | ते
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राजप्रश्नीयसूत्रे
पुरिसा तं पुरिसं जाहे णो संचायंति बहूहिं आघवणाहिय पण्णवणाहि य परूवणाहिय आधवित्तए वा पण्णवित्तए वा परुवित्तए वा तया अहाणुपुवीए संपत्थिया ! एवं तंवागर रुप्पागर, सुवण्णागरं रयणागर, वइरागर । तए णं ते पुरिसा जेणेव सया जणवया जेणेव साई साइ नगराइ तेणेव उवागच्छति, वयरविक्किणणं करे ति, सुबह दासीदास गोमहिसगवेलगं गिण्हति अटूतलमूसिय पासायवडिंसगे, कारावेति, व्हाया कयबलिकम्मा कायकोउयमंगलपायच्छित्ता उपि पासायवरगया फुट्टमाणेहिं मुइंगमत्थएहिं बत्तीसइबद्धएहिं नाडए हि वरतरुणी संप उत्तेहिं उवणच्चिजमाणा उवगिजमाणा उवलालिज्जमाणा इट्ठे सदफरिसर सरूव-गंधे पंचविहे माणुस्सए कामभागे पच्चभवमाणाविहरति । तए णं से पुरिसे अयभारेण जेणेव सए नयरे तेणेव उवागच्छइ, अयभारगं गहाय अयविकिणणं करेs तंसि अप्पमसि निट्टियंसि खीणपरिव्वए ते पुरिसे उपि पासाय वरगए जाव विहरमाणे पासइ, पासित्ता एव वयासी - अहो ! णं अहं अण्णो अपुन्नो अकयत्थो अकयलक्खणो हिरिसिरिवजिओ हीणपुण्णचाउ से दुरंतपंतलक्खणे । जइ णं अहं मित्ताण वा नाईण, वा नियगाण वा वयणं सुणे तओ तो णं अहं पि एवं चेव उपि पासायवरगए जाव विहरे तओ । से तेणट्टेणं पएसी ! एवं बुच्चइमा तुमं पएसी ! पच्छाणुताविए भविज्जासि, जहा व से पुरिसे अयभारए || सू० १५४ ॥
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सुबोधिनी टीका सू. १५४ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशीराजवर्णनम् ३२५
छाया-ततः खलु केशी कुमारश्रमणः प्रदेशिं राजानमेवमयादी 1 मा खलु त्वं प्रदेशिन् ! पश्चादनुतापिको भवेः, यथा वा स पुरुषोऽयोहारकः । कः खलु भदन्त ! सोऽयोहारकः ?। प्रदेशिन् ! ते यथा नामकाः केचित् पुरुषा अर्थार्थिकाः अर्थगवेषकाः अर्थलुब्धकाः अर्थकांक्षिनः अर्थपिपासिताः अर्थगवेषणायै विपुलं पणितभा डमादाय सुबहुभक्तपानपथ्यदनं गृहीत्वा एकां महतीम् अग्रामिकां छिन्नाऽऽपातां दीर्घावान अटवीमनुप्रविष्टाः । ततः खलु ते पुरुषः तस्याः अग्रामिकाया यावत्
'तए ण केसीकुमारसमणे' इत्यादि।
सूत्रार्थ-(तएणं) इसके बाद (केसीकुमारसमणे) केशीकुमार श्रमणने (पएर्सिरायं एवं वयासी) प्रदेशी राजा से एसा कहा (माणं तुमं पएसी ! पच्छाणुताविए भवेज्जासि-जहा व से पुरिसे अप्पहारए) हे प्रदेशिन् ! तुम पश्चात्तापयुक्त मत बनो जैसा कि वह अयोहारक-लोहवणिक-पश्चात्तापयुक्त बना,
अब प्रदेशी उससे परिचय को जानने के अभिप्राय से पूछता है (केणं भंते ! से अयहारए) हे भदन्त ! वह अयोहारक कौन था ? इस पर केशीकुमारश्रमण कहते हैं-(पएसी ! से जहाणामए केई पुरिसा अत्यत्थिया अत्थगवेसिया अत्थलुद्धया, अत्थकंखिया, अत्थपिवासिया, अत्थगवेसणयाए विउलं पणियभंडमायाए सुबहुँ भत्तपाणपत्थयणं गहाय एगं महं अग्गामियं छिन्नावायं दीहमद्धं अडविं अणुपविट्ठा) हे प्रदेशिन् । अनिर्दिष्ट नामवाले कितनेक पुरुष जो कि धन के अर्थी थे, धन के गवेषक थे, धन के लोलुप थे, धनकी काक्षा से युक्त थे, धनकी प्यासवाले थे, धनकी गवेषणा के लिये विपुल क्रयाणक
'तए णं केसीकुमारसमणे' इत्यादि।
सूत्रार्थ - (तए णं) त्या२ पछी (केसीकुमारसमणे) अशी सुभा२श्रमाणे (पएसिं रायं एवं वयासी) प्रदेशी ने मा प्रमाणे ह्यु. (मा णं तुमं पएसी ! पच्चाणुताविए भवेज्जासि-जहाव से पुरिसे अयभारए) प्रशन् ! तमे પેલા અહારક-લેહ વણિરૂની જેમ, પશ્ચાત્તાપ ન કરે. હવે પ્રદેશી તેના સંબંધમાં 4धी विगत on भाट मा प्रमाणे पूछे छ-(किं णं भंते ! से अयहारए) हे ભરંત તે અહારક લેખંડને વેપારી કોણ હતો ? તેના જવાબમાં કેશી
भा२ श्रम ४३ छ-(पएसी ! से जहाणामए केई पुरिसा अत्थत्थिया अत्थगवेसिया अत्थलुद्धया, अत्थकंखिया, अत्थपिवासया, अस्थगवेसणयाए विउलं पणियभंडमायाए सुबहुं भत्तपाणपत्थयणं गहाय एगं महं अग्गामियं छिन्नावायं दीहमद्धं अडवि अणुपविठ्ठा) हशिन् ! नट नामा કેટલાક પુરૂષ કે જેઓ ધનાથી હતા, ધનના ગવેષક હતા, ધનનાં લેપ હતા
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राजनीयसूत्रे
अटव्याः कंचित् देशमनुप्राप्ताः सन्तः एकं महान्तम् अयआकारं पश्यति, अयसा सर्वतः समन्ताद् आकीर्ण विस्तीर्ण सच्छटम् उपच्छटं स्फुटम् अनुगाढं पश्यन्ति, दृष्ट्वा हृष्टाः तुष्टाः यावत् हृदयाः अन्योऽन्यं शब्दयन्ति एवमवादिषुः- एष खलु देवानुप्रियाः ! अयआकरः इष्टः कान्तः यावत् मनआमः, तत् श्रेयः खलु देवानुप्रियाः वस्तु समूह को लेकर तथा साथ में पर्याप्त अशनपानरूप पाथेयलेकर एक विशाल अटवी में जो वसति से रहित थी, हिंसक जंतुओं के भय से मनुष्यों का गमनागमनरूप संचार जिसमें बिलकुल नहीं था और दीर्घमार्गयुक्त थी जा पहुँचे (तए णं से पुरिसा तीसे अग्गमियाए अडवीए कचिदेसं अणुपपत्ता समाणा एगं महं अयागरं पासंति) इसके बाद वे पुरुष जब उस अग्रामिका, छिन्नापातयुक्ता एवं दीर्घावावाली अटवी के और आगेके प्रदेश में आ चुके तब उन्होंने वहां पर एक लोहे की खान को देखा (अएणं सव्वओ समता आइणं सच्छडं उवच्छडं फुडं अणुगाढं पासंति] यह खान सब तरफ से लोहेसे आकीर्ण बनी हुई थी. स्पष्टरूप में नहीं थी बहुत विस्तारख ली थी समीचीन छटा-चाकचिक्यवाली थी. छटायुक्त थी. स्पष्टरूप में नहीं थी. ( पासित्ता हट्टतुट्ठा जाव हियया अन्नमन्नं सहावे ति) इस लोहे की खान देखकर वे बहुत अधिक हृष्ट एव तुष्ट यावत हृदयवाले हुए और फिर उन्होंने आपस मे एक दूसरे को बुलाया ( एवं वयासी) बुलाकर ऐसा कहा (एस णं देवाणुप्पिया ! अयागरे इट्ठे कंते, ધનની કાંક્ષાથી યુક્ત હતા, ધનની તરસવાળા हता, ધનની ગવોષણા માટે વિપુલ ક્રિયાક વસ્તુ સમૂહને લઈને તેમજ સાથે પર્યાપ્ત અશનપાનરૂપ પાથેય લઈને એક વિશાળ અટવીમાં-કે જે એક્દમ નિર્જન હતી, હિંસક જંતુઓના ભયથી માણસાની અવરજવર જેમાં સદંતર બંધ હતી અને દીર્ઘ મા યુકત હતીहा यहांस्या. (त एणं ते पुरिसा तीसे अग्गमियाए अडवीए कंचिदेसं अणुपत्ता समाणा एगं महं अयागारं पासंति) त्यार पछी ते भाणुसोने अथाમિકા, છિન્નાપાત યુક્ત અને દીર્યાપ્વાવાળી અટવીની અંદર ખૂબ આગળ જતા रह्या त्यां तेभागे सोम्डनी भोटी खाए मेह. (अएणं सव्वओ समंता आइण्ण वित्थिष्ण सच्छडं उवच्छडं फुडं अणुगाढं पासंति) मा ખાણુ ચામેર લાખ ડથી આકી હતી. બહુ જ વિસ્તાર યુકત હતી. સમીચીન છુટા એટલે કે ચાકચિય વાળી હતી, છટાયુકત હતી. સ્પષ્ટરૂપથી દેખાતી હતી- અને એક પુજ રૂપમાં હતી. छिन्नलिन्न ३५भां न हती. (पासित्ता हट्टुतुट्ठा जाव हियया अन्नमन्नं सहावेंत्ति) તે લેાખંડની ખાણુને જોઇને બહુજ વધારે હતુષ્ટ યાવત્ હૃદયવાળા થયા અને પછી ते भागे परस्पर सोमीलने खोदाव्या. (एवं वयासी) गोसावीने આ પ્રમાણે કહ્યું. ( एस ण देवाशुप्पिया ! अयागरे इहे, कंते, जाव मणामे)
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सुबोधिनी टीका सु. १५४ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ३२७ अस्माकम् अयोभारकं बद्धम्, इति कृत्वा अन्योऽन्यस्य एतमर्थ प्रतिशृण्वन्ति, अयोभारं वनन्ति, यथाऽनुपूर्वि प्रस्थिताः । ततः खलु ते पुरुषाः अग्रामिकाः यावत् अटव्याः किञ्चिदेशम् अनुप्राप्ताः सन्तः एकं महान्तं त्रप्वाकरं पश्यन्ति, त्रपुणा सर्वतः समन्तात् आकीर्ण तदेव यावत् शब्दयित्वा एवमवादिषुः-एष खलु देवानुप्रियाः ! त्रप्वाकरः इष्टः यावत् मनओमः, अल्पेनैव त्रपुणा सुबहु अयो लभ्यते, तत् श्रेयः जाव मणामे] हे देवानुप्रियो ! यह लोहे की खान इष्ट है, यावत् मनोज्ञहै(तं सेयं खलु देवाणुप्पिया।अम्हं अयभारगंबंधित्तए त्ति कटुअन्नमन्नस्स एयम पडि-सुणेति) अतः उचित है कि हम लोग इस लोहे के भार यहां से ले लेवे इस प्रकार विचार करके उन्होंने आपसके इस विचार को निश्चय का रूप दे दिया (अयभारं बंधेति) और लोहे को वहां से ले लिया (अहाणुपुविए संपत्थिया) और लेकर वहां से क्रमशः चल दिया (तए ण से पुरिसा अगामियाए जाव अडवीए कंचिदेस अणुपत्ता समाणा एगं महं तउआगरं पासंति) इसके बाद वे चलते २ जब और अधिक आगे निकल गये तब उन्होंने उस अग्रामिक आदि विशेषणवाली अटवी में एक बहुत बडी त्रपु-रांगा की खान को देखा (तएणं सव्वओ समंता आइण्णं तं चेच जाव सदावेत्ता एवं वयासी) संतुष्ट यावत् हृदय वाले हुए बाद में उन्होंने आपस में एक दूसरे को बुलाया बुलाकर ऐसा कहा(एस णं देवानुप्पिया ! तउआगारे इट्टे जाव मणामे] हे देवानुप्रिया ! यह रांगा ते सोमनी मा ४८ छ, xiत यावत् भनाश छे. (तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं अयभारगं बंधित्तए त्ति कटु अन्नमन्नस्स एयमहं पडिसुणे ति) એથી અમારા માટે આ વાત બરાબર છે કે અમે બધા આ લોખંડના ભારને અહીંથી લઈ જઈએ આ પ્રમાણે વિચાર કરીને તેમણે પરસ્પર કરેલ આ વિચારને નિશ્ચયા(म४३५ मायु. (अयभारं :बधंति) मने सामने त्यांथी सीधु. (अहाणुपुचिए संपत्थिया) भने दाने त्यांची उभश: माण यासता थया. (तए णसे पुरिसा अगामियाए जाव अडवीए कंचिदेस अणुपत्ता समाणा एग मह तउआगरं पास ति) त्यार पछी तेथेnai rai न्यारे भूम २ नीजी गया ત્યારે તેમણે અગ્રામિકા વગેરે વિશેષણોથી યુક્ત અટવીમાં એક બહુ વિશાળ ત્રપુ
॥ (४थी२नी माने . (त एणं सव्वओ समंता आइण्णं तं चेवजाघ सद्दावेत्ता एवं वयासी) ते रानी मा याभेर समाथी मा २७, यावत् એક પુંજ રૂપમાં હતી. આ ખાણને જોઈને તેઓ સર્વે ખૂબજ દુષ્ટ અને સંતુષ્ટ યાવત્ હદયવાળા થયા. ત્યાર પછી તેમણે એક બીજાને બોલાવ્યા અને બોલાવીને मा प्रमाणे धु-(एस गं देवाणुप्पिया ! तउआगारे इहे जाव मणामे) हे वा.
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राजप्रश्नीयसूत्रे
खलु देवानुप्रियाः ! अस्माकम् अयोभारकं मुक्त्वा त्रपुकभारकं बद्धुंम्, इतिकृत्वा अन्योऽन्यस्थ अन्तिके एतमर्थ प्रतिव्यन्ति अयोभारं मुञ्चन्ति त्रपुकभारं वधन्ति ! तत्र खलु एकः पुरुषो नो शक्नोति अयोभार मोक्तुम् त्रपुकभार बद्धुम् । ततः खलु ते पुरुषाः तं पुरुषमेवमवादिपुः - एष खलु देवानुप्रिय ! त्रष्वाकरः यावत् सुबहुअयो लभ्यते, तद् मुञ्च खलु देवानुप्रिय ! अयोभारकम, त्रपुकभारकं बधान । ततः स पुरुषः एवमवादीत् - दूराऽऽहृतं मया देवानुप्रियाः ! अयः, चिराऽऽहृतं मया खान इष्ट यावत् मन आम-अर्तिहर होने से मनः गम्य है [अप्पे णं चेव तउरण सुबह अए लब्भर) थोडे से ही रांगा से बहुत अधिक लोहा हमें मिल सकता है ( तं सेयं खलु अम्ह देवाणुप्पि ! अपभारगं छत्ता तउयभारगं fare तिकडे अन्नमन्नस्स अंतिए एयमहं पडिसणे ति) अतः हमारी भलाई अब इसी में है कि हम इस लोहे के भार को छोडकर इस रांगा को यहां से बांध ले, इस प्रकार का विचार करके उन्होंने आपस के इस कृत विचार को निश्चय का स्थान दे दिया. (अयभार छड्ड ति, तउययारं बंधे ति) और लोहके भार को छोड़कर रांगा के भार को बांध लिया (तत्थ ण एगे पुरिसे णो संचाइ, अयभारं छड्डत्तए, तर भारं बं धत्तए) परन्तु इनमें एक पुरुष ऐसा भी था - जो लोहे के भार को छोडने में और रांगा के भार को ग्रहण करने में बांधने में असर्थथा, अर्थात वह ऐसा करना नहीं चाहता था. (तरण ते पुरिसा નુપ્રિયા ! આ રાંગાની ખાણુ ઇષ્ટ યાવત્ મન આમ-અર્તિહર હાવા બદલ મનગમ્ય છે. ( अप्पे णं चेव तउएणं सुबहु अए लब्भइ) थोडा रांगाथी अमने धागु सोखंड भजी रा छे. (तं सेयं खलु अम्हं देवाणुपिया ! अयभारगं, छडेत्ता तउयभारगं बंधि त कट्टु अन्नमन्नस्स अंतिए एयमहं पडिसुर्णेति) बी અમારા માટે એ જ સારૂ છે કે અમે લેાખંડના ભારને ત્યજીને આ રાંગાને અહીં થી બાંધી લઇએ. આ પ્રમાણે વિચાર કરીને તેમણે પરસ્પર કૃત આ ४३५ याची हीधु. (अयभारं छडेंति, तउयभारं बंधति) भने बोडना लारने भूडीने तांमाना लाग्ने साथै सह सीधे (तत्थ णं एगे पुरिसे णो संचाएइ, अयभारं छडेत्तए, तउए भार बंधित्तए) पशु ते धामां थे! माणुस खेवी पशु हतो ने सोमडना लाग्ने त्यकने रांगाने ग्रहण उरवानी वातने उचित मानतो न हतो. (तएणं ते पुरिसा तं पुरिस एवं वयासी) त्यारे ते पुरषो तेने या प्रमाणे ( एस ण देवाणुपिया ! तउआगरे जाव सुबहु अए लब्भइ ) हे देवानुप्रिय ! આ રાંગાની ખાણ છે, ઇષ્ટ કાંત વગેરે વિશેષણાથી યુકત છે. થાડા રાંગાથી પણ भाषाशे धागु लोभउ भेजवी शहीये तेम छीये. (तं छड्डेहि णं देवाणुप्पिया !
વિચારને નિશ્ચયા
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सुबोधिनी टीका सू. १५४ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशोराजवर्णनम् ३२९ देवानुप्रियाः ! अयः, अतिगाढबन्धनबद्धं मया देवानुप्रियाः ! अयः, अशिथिलबन्धनबद्धं मया देवानुप्रियाः ! अयः, अत्यन्तगाढबन्धनबद्धं देवानुप्रियाः! अयः, नो शक्नोमि अयोभारकं त्यक्त्वा पुकभारकं बद्धम् । ततः खलु ते पुरुषाः तं तं पुरिसं एवं वयासी) तब उन पुरुषोंने उस पुरुष से ऐसा कहा-(एस णं देवाणुप्पिया ! तउ आगरे जाव सुबहु अए लब्भइ) हे देवानुप्रिय ! यह रांगे की खान है. इष्ट कान्त आदि विशेषणोंवाली है. थोडे से रांगा से ही बहुत अधिक लोहा प्राप्त किया जा सकता है। (तं छड्डेहि णं देवाणुप्पिया ! अयभारगं, तउयभारगं बंधाहि) इसलिये ! तुम हे देवानुप्रिय ! इस लोहे के भार को छोड दो और रांगा के भार को बांध लो-लेलो (तएणं से पुरिसे एवं वयासी) तब उस पुरुषने ऐसा कहा (दूराहडे मए देवाणुप्पिया ! अए, चिराहडे मए, देवाणुप्पिया! अए अगाढवंधणबद्धे मए देवाणुप्पिया! अए, असिढिलब धणबद्धे मए देवाणुप्पिया ! अए, धणियबंधणबद्धे मए देवाणुप्पिया ! अए, णो संचाएमि अयभारंग छड्ड त्ता तउयभारगं बंधित्तए) हे देवानुप्रियो ! इसलोहके भारको मैं बहूत दूर से लाया हूं, बहुत समय से इसे लादे हुए हूं, हे देवानुप्रियो ! मैने इसे बहुत ही गाढ बंधन से बांधा है अर्थात बहुत अधिक कसकर बांधा हुआ है. अशिथिल बंधन से-अब खुल सके ऐसे बन्धन से नहीं बांधा है किन्तु हे देवानुप्रियो ! मैंने इस लोहे को प्रचुर बंधन से बांधा है, अतः अब मैं अयोभार को छोडकर त्रपुक भारको ग्रहण करने के लिये समर्थ नहीं है अर्थात् लोहे के भार को छोड कर रांगा के भार को नहीं लूं । (तएणं ते अयभारग, तउयभारग बंधाहि) मेटा भाटे तमे है देवानुप्रियो ! २॥ सामना मारने भूडी | मने गाना मारने मांधी सो. (त एण से पुरिसे एवं वयासी) त्यारे ते ५३षे 20 प्रमाणे ४यु-(दूराहडे मए देवाणुप्पिया! अए, चिराहडे मए, देवाणुप्पिया अए गाढवंधणबद्धे मए देवाणुप्पिया! अए, धणिअबंधणबद्धे मए देयाणुप्पिया ! अए, णो संचाएमि अयभारग छ डेता तउयभारग बधित्तए) : हेवानुप्रियो ! २मा सोमना मारने हुमा ४ हस्थी साव्यो છું, ઘણું સમયથી મેં આને ઉપાડી રાખે છે હે દેવાનુપ્રિયે ! આને મેં સખત ગાઢ બં ધન બાંધ્યો છે એટલે કે મેં આને કસીને બાંધે છે. હવે ખોલી શકાય એવા બંધનથી બાંધ્યું નથી પણ હે દેવાનુપ્રિયે ! મેં આ લેખંડના ભારને પ્રચુર બંધનથી બાંધ્યું છે. એટલા માટે હવે હું આ લેખંડના ભારને ત્યજીને ત્રપુકભારને ગ્રહણ કરવામાં સમર્થ નથી. એટલે કે લોખંડના ભારને મૂકીને રાંગના ભારને હવે
60 नी. (तए ण ते पुरिसा तं पुरिसं जाहे णो संचाएंति बहुाह
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राजप्रश्नीयसूत्रे पुरुषं यदा नो शक्नुवन्ति बहुभिः आख्यापनाभिश्च प्रज्ञापनाभिश्च प्ररूपणाभिश्च आख्यापयितु वा प्रज्ञापयितुवा प्ररूपयितुवा तदा यथाऽऽनुपूर्वि संप्रस्थिताः। एवं ताम्राऽऽकर रूप्याऽऽकरं सुवर्णाऽऽकरं वज्राऽऽकर । ततः खलु ते पुरुषाः यत्रैव स्वानि स्वानि नगराणि तत्रैव उपागच्छन्ति, वज्रविक्रयण कुर्वन्ति, सुबहु पुरिसा तं पुरिसं जाहे णो संचायंति बहूहिं आघवणाहि य, पण्णवणाहि य, परूवणाहि य, आघवित्तए वा पण्णवित्तए वा परूवित्तए वा तया अहाणुपुबीए संपत्थिया) तब उन पुरुषों ने जब कि उसे अनेक दृष्टान्तरूप आख्यापनाओं द्वारा, हेयोपादेय-प्रतिबोधक प्रज्ञापनाओं द्वारा, तथा यथार्थ स्वरूपनिरूपक प्ररूपणाओं द्वारा समझाया परन्तु वह नहीं समझा, वहां से आगे क्रमशः प्रयाण करना ग्रारंभ कर दिया. (एवं तंबागरं, रुप्पागरं, सुवण्णागरं, वइरागरं) ज्यों २ वे आगे चले उन्होंने वैसे २ ताम्र की खान को, रूप्य की खान को सुवर्ण की खान को, रत्न की खान को और हीरे की खान को देखा (तएणते पुरिसा जेणेव सया जणवया जेणेव साइंसाई नगराइ तेणेव उवागच्छति) वहां २ से अल्प मूल्य की उन २ ताम्रादिरूप वस्तुओं का परित्याग करते हुए और लोह भारग्रहण करने में ही आदर बुद्धिवाले बने हुए उस पुरुष को उन २ वस्तुओं के भरने के विषय में समझाने पर भी उसकी हढाग्राहिता को छुडवाने में असमर्थ बने हुए वे सब पुरुष जहां अपने २ जनपद-देश थे और उनमें जहां २ अपने २ नगर थे वहां पर वज्रमणियों को लिये हुए आये (वइरविकिणणं करेंति) वहां आध णाहि य पण्णवणाहि य, परु णाहि य आधवित्तए वा पण्णवित्तए वा परूवित्तए वा, तया अहाणुपुचीए सपत्थिया) त्या२ पछी ते ५३षा घgi ein રૂપ આખ્યા૫નાઓ દ્વારા, હે પાદેય પ્રતિબોધક પ્રજ્ઞાપનાઓ દ્વારા, તેમજ યથાર્થ સ્વરૂપ નિરૂપક પ્રરૂપણુઓ દ્વારા સમજાવ્યું, પણ તે માન્ય નહિ, ત્યાંથી બધાએ मश: याला भांडयु. (एवं तवागर , रुप्पागरं, सुवण्णागर, स्यणागर, वइरागर) જેમ જેમ તેઓ આગળ વધતા ગયા તેમ તેમ તેમણે તાંબાની ખાણોને, ચાંદીની ખાણોને સુવર્ણની ખાણને, રતનની ખાણેને અને હીરાની ખાણને જોઈ (तए ण ते पुरिसा जेणेव सया जणवया जेणेव साई साई नगराइ तेणेव उवागच्छति) त्यांथी २०६५भूयनी ते ताम्राहि वस्तुमाने भूटीन अन सोडमार ગ્રહણ કરવામાં જ પ્રવૃત્ત થયેલા તે માણસને તેઓએ મૂલ્યવાન વસ્તુઓને લેવા માટે આગ્રહ કર્યો છતાંએ તેના હઠાગ્રાહિતાને છોડાવવામાં અંતે નિષ્ફળ ગયા. અને આમ તેઓ બધા જ્યાં પિતાપિતાને જનપદ-દેશ હતું અને તેમાં પણ જયાં પોતપોતાનું नगर इतु त्यां धामणमा गरे ६ पडांयी गया. (वइरविकिणण करेंति)
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सुबोधिनी टीका सू. १५४ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशोराजवर्णनम् ३३१ दासीदासगोमहि गवेलक' गृह्णन्ति, अष्टतलोच्छ्रितप्रासादावत सकान् कारयन्ति, स्नाताः कृतबलिकर्माणः कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्ताः उपरिप्रासादवरगताः स्फुटद्भिमुंदङ्गमस्तकैः द्वात्रिंशद्वद्धकैर्नाटकैर्वरतरुणीस प्रयुक्तरुपनय॑माना उपगीयमानाः उपलाल्यमानाः इष्टान् शब्द-स्पर्श-रसरूपगन्धान पञ्चविधान् मानुरु कान कामभोगान प्रत्पनुभवातो
आकरके उन्होंने वज्रमणियो का विक्रय किया. (सुबहुदासीदासगोमहिसगवेलगं गिण्हंति और उसे प्राप्त द्रव्य से अनेक दासी, दास, गो महिष तथा गवेलको को खरीदा अर्थात् इनका संग्रह किया (अट्ठतलमूसियपासायवडिंसगे कारावे ति) और आठ खण्डों से सुशोभित ऊंचे २ श्रेष्ठ प्रासादों का निर्माण कराया (व्हायाकयवलिकम्मा, कयकोउयमंगलपायच्छित्ता) स्नान करके बलिकर्म-वायसादिको अन्नादि का भाग देने रूप बलिंकर्म करके एवं कौतुक, मंगलरूप प्रायश्चित्त करके वे उन (उप्पि पासायवरगया) प्रासादों के ऊपर ही रहते (फुट्ठमाणेहिं, मुइंगमत्थएहिं, बत्तीसइबद्धएहिं नाडएहिं, वरतरुणी संपउत्तहिं) और वहीं रहकर वे अतिवेग से ताडित किये गये मृदङ्गां के निनादों से तथा सुन्दर २ तरुणियों द्वारा अभिनीत किये गये बत्तीस प्रकार के नाटकों से (उवणच्चिज्जमाणा) उपनर्त्यमान (उवगिज्जमाणा, उवलालिजमाणा) उपगीयमान और उपलाल्यमान होते हुए (इटे सद्दफरिस-रस-रूव-गंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोगे पचणुभवमाणा विहरति) इष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गंध इन पांच प्रकार के मनुष्यसंबधी कामभोगों को भोगते २ आनन्दपूर्वक अपना समय व्यतीत करने लगे (तएणं से त्यां पहचान तभणे माणसानु वेया अयु (सुबहुदासीदासगोमहिसगवेलग गिण्हति) मने रे द्रव्य भज्यु तेनाथी | हासी. पास, गो, भडिप तम गवसोनी भरीही . मेटले भनी सड यो. (अद्वतलमसियपासायवर्डिसगे कारावे ति) मने 218 मामायाथी सुशामित या श्रेष्ट प्रासाहानु निभाए ४२।०यू. (हाया कयबलिकम्मा, कयकोउयम गलपायच्छित्ता) સ્નાન કરીને, બલિકમ-કાગડા વગેરેને અન્ન વગેરેને ભાગ આપીને અને કૌતુક મંગલ ३५ प्रायश्चित्त रीने तेसो ते (उपि पासायवरगया) प्रासाहोनी ५२ ०४ २९॥ साया. (फूट्टमाणेहि, मुइंगमथएहि, बत्तीसइबद्धएहिं नाडएहिं, वर तरुणी सपउत्तेहि) मने त्यां४ २डीन ते मतिवेगथी प्रताडित ४२८॥ भृगाना નિનાદથી તેમજ સુંદર સુંદર તરૂણ સ્ત્રીઓ દ્વારા અભિનીત કરાયેલ બત્રીસ પ્રકારના नाटाथी (उवणच्चिज्जमाणा) उपनृत्यमान (उवगिज्जमाणा, उवलालिज्जमाणा) 6गीयमान मने प्यमान थता (इटे सद्द फरिस-रस-रूव-गधे पचविहे माणुस्सए कामभोगे पच्चणुभवमाणा विहरंति) श४, २५श, २स, ३५, બંધ આ પાંચ પ્રકારના મનુષ્ય સંબંધી કામને ઉપલેગ કરતા આનંદપૂર્વક
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राजप्रश्नीयसूत्रे विहरन्ति । ततः खलु स पुरुषः अयोभारेण यत्रैव स्वं नगरं तत्रैव उवागच्छन्ति, अयोभारक गृहीत्वाःयोविक्रयणं करोति, तस्मिन अल्पमूल्यनिष्ठिते क्षीणपरिव्ययः तान् पुरुषान् उपरि प्रासादवरगतान यावद् विहरतः पश्यति, दृष्ट्वा पुरिसे अयभारेण जेणेव सए नयरे तेणेव उवागच्छइ) अब वह पहिला पुरुष कि जिसने हित वचनों की अबहेलना की और लाह के भार को ही अच्छा समझा उस लोहमार के साथ ही अपने नगर में आया (अयभारगं गहाय अयविकिणणं करेइ) वहां आकारके उसने उस लोहे के भार को लेकर बेचना प्रारंभ किया (तंसि अप्पमोल्लंसि, निद्वियंसि, हीणपरिव्वए ते पुरिसे उप्पिं पासायवरगए जाव विहरमाणे पासइ) जब वह पूरा बिक चुका-तो उससे जो उसे द्रव्य प्राप्त हुआ, वह बहुत थोडा सा प्राप्त हुआ-क्यों कि वह लोह उसका अल्पमूल्य में बिका अतः उससे प्राप्त द्रव्य आहार वस्त्र आदि के लाने में ही समाप्त हो गया. इस तरह क्षीणपरिव्ययवाले बने हुए उस पुरुष ने उन वज्रविक्रयी पुरुषों को जो कि अपने २ रम्य प्रासादों में रहकर यावत्-अतिवेग से ताडित (बजाते) हुए मृदङ्गों के निनादों से एवं ३२ प्रकार के सुन्दर २ तरुण युवतियों द्वारा अभिनीत किये गये नाटकों से उपनय॑मान थे और उपलाल्यमान थे एवं इष्ट शब्द-स्पर्श रस, रूप, गंध, इनपांचप्रकार के मनुष्यभव संबंधी कामभोगों को भोगते हुए आनन्द के साथ अपना समय व्यतीत पोतानसमय पसार ४२१। ज्या. (तए ण से पुरिसे अयभारेण जेणेव सए नयरे तेणेव उवागच्छइ) वे ते पेसो सोना लावाणे भास हो मान्न લેકના હિત વચન સાંભળ્યા નહિ અને લોખંડના ભારને ઉત્તમ માન્ય હો --- नगरमा माव्या. (अयभारग गहाय अयविक्विणण करेइ) त्यां मावाने तर ते सोमनमारने साधन या प्रा२ल यु (तसि अप्पमोल्ल सि निट्ठियंसि हीणपरिधए ते पुरिसे ऊप्पिं पासायवरगए जाब विहरमाणे पासइ)
જ્યારે તે લોખંડનો ભાર વેચાઈ ગયા ત્યારે તેનાથી જે દ્રવ્ય મળ્યું હતું તે અત્ય૫ હતું કેમકે તે લેખંડ અપ મૂલ્યમાં જ વેચાયુ હતું. તેનાથી જે અ૫ધન પ્રાપ્ત થયું હતું. તે તે આહાર વસ્ત્ર વગેરેની ખરીદીમાં જ પૂરું થઈ ગયું હતું. આ પ્રમાણે તે ક્ષીણ પરિતાપવાળા તે પુરૂષો તે વજી વિક્રમી પુરૂષોને કે જેઓ પિતપિતાના રમ્ય પ્રાસાદામાં રહીને યાવત્ અતિવેગથી પ્રતાડિત થયેલ મૃદંગના નિનાદોથી અને ૩૨ પ્રકારના સુંદર સુંદર તરૂણ સ્ત્રીઓ દ્વારા અભિનીત કરાયેલા નાટકોથી ઉપમર્યમાન હતા, ઉપગીયમાન હતા, અને ઉપલાલ્યમાન હતા અને ઈષ્ટ, શબ્દ, સ્પર્શ રસ, રૂપ, ગંધ, આ પાંચ જાતના મનુષ્ય ભવ સંબંધી કામ ભોગેની ઉપગ કરતા भानपूर्व पाताना सभय ५सार ४॥ २॥ त नया. (पासित्ता एवं वयासी
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सुबोधिनी टीका सू. १५४ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशोराजवर्णनम् ३३३ एवमवादीत्-अहो !! खलु अहम् अधन्यः अपुण्यः अकृतार्थः अकृतलक्षणः हीश्रीवर्जितः हीनपुण्यचातुर्दशो दुग्न्तप्रान्तलक्षणः । यदि खलु अहं मित्राणां वा ज्ञातीनां वा निजकानां वा वचनम् अश्रोष्यं तदा खलु अहमपि एवमेव उपरि प्रासादवरगतः यावद् व्यहरिष्यम् । तत् तेनार्थेन प्रदेशिन् ! एवमुच्यते-मा त्वं ! प्रदेशिन् ! पश्चादनुतापितो भवेः, यथा वा स पुरुषोऽयोहारकः । ॥ सू० १५४ ॥ कर रहे थे देखा(पासित्ता एवं वयासी-अहाणं अहं अधन्ना, अपुन्ना, अकयत्था, अकयलक्षणो हिरिसिरिवजिओ हीणपुण्णचाउद्दसे दुरंतपंतलक्खणे) तो देखकर इस प्रकार विचार किया-अरे! मैं कितना अधन्य हूं, पुण्यहीन हूं, अकृतार्थ हूं, शुभलक्षण रहित हूं. लज्जा लक्ष्मी दोनों से वर्जित हूं, हीनपुग्यचातुर्दश हूं अर्थात् हीनपु यवाला हू इसी लिये कृष्णपक्ष की चतुर्दशी में जन्मा हूँ, दुरन्त पान्तलक्षणवालाहूं-दुष्टावसानवाले अमनोज्ञ लक्षणों से युक्त हूं (जइ णं अहं भित्ताण वा णाईण वा णियगाण वा वयण सुणे तओ तो णं अह पि एवं चेच उप्पिं पासायवरगए जाव विहरतओ) यदि मैं साथ गये हुए मित्रों के, अथवा पितृव्यादि ज्ञातिजनों के वा अपने हितैषियों के वचनों को मान लेता, तो मैं भी इन्हीं साथ के आये हुए वज्रविक्रेता पुरुषों की तरह ही प्रासादों में रहता हुआ विविध सुख सम्पन्न बनकर अपने समय का आनन्दपूर्वक व्यतीत करता (से तेणेट्टणं पएसी ! एवं वुच्चइ, मा तुमं पएसी ! पच्छाणुताविए भविजासि, जहा व से पुरिसे अयभारए) इसी कारण हे प्रदेशिन् ! मैंने ऐसा कहा है कि अहो ण अहं अधन्नो, अपुन्नो अकयत्थो, अकयलक्खणो हिरिसिरिवज्जिओ हीणपुण्णचाऊद्दसे दुर तप तलक्खणे) तेभने ने प्रमाणे विया२ કર્યો કે અરે ! હું કેટલે અભાગિયો છું. અધન્ય છું. પુણ્યહીન છું, અકૃતાર્થ છું શુભલક્ષણ રહિત છું, લજજા લયમી બન્નેથી વર્જિત છુ હિનપુણચાતુર્દશ છું, એટલે કે હીન પુણ્યવાળો છું. એથી જ કૃષ્ણ પક્ષની ચતુર્દશીના દિવસે જન્મ પામે છે, દુરંત પ્રાન્ત લક્ષણવાળો છુ, દુષ્ટાવસાવવાળા અમનેશ લક્ષણોથી યુક્ત છું. (जइण अहमित्ताण वा णाईण वा णियगाण वा वयण सुणे तओ तो ण अह' पि एव चेव उप्पि पासायवरगए जाव विहरेंतओ) साथवा भित्राना કે ષિતૃવ્યાદિ જ્ઞાતિજનેના કે પિતાના હિતેચ્છુઓના વચને માની લેતે તો હું હું પણ મારી સાથે આવેલ વાવિકેતા પુરૂષોની જેમ જ પ્રાસાદમાં રહીને વિવિધ सुभ सपन मनीन पोताना समयने भान पूर्व पसार ४२त. (से सेण?णं पएसी ! एवं वुच्चइ, मा तुमं पएसी ! पच्छाणुताविए भविज्जासि, जहाव से पुरिसे अयमारए) मेथी प्रशिन् ! मैं 20 प्रणेमारधु छ रेभ अयो
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राजप्रश्नीयसूत्रे टीका-"तए णं केसीकुमारसमणे" इत्यादि-ततः खलु केशीकुमारश्रमणः प्रदेशिराजम् एवमवादीत्-हे प्रदेशिन् ! त्वं खलु पश्चादनुतापिकः-पश्चात्तापयुक्तो मा भवेः, यथा-येन प्रकारेण सः-वक्ष्यमाणः अयोहारकः-लोहवणिक पश्चादनुतापिकोऽभूत् ।, प्रदेशी तत्परिचयं पृच्छति-कः खलु हे भदन्त ! सः अयोहारकः ? इति प्रश्नः । केशीकुमारश्रमण आह-ते यथानामकाः अनिर्दिष्टनामानः केचित् पुरुषाः अर्थार्थिकाः-धनार्थिनः, अर्थगवेषिका -धनान्वेषिणः, अर्थलुब्धकाः-धनलोलुपाः अर्थकाङ्किताः-धनकालायुक्ताः, अर्थपिपासिताः-धनपिपासायुक्ताः, अर्थगवेषणायै-धनगवेषणार्थ विपुलं पणितभाण्डं-क्रयाणकवस्तुजातम् आदाय तथा-सुबहु-पर्याप्तं भक्तपानपथ्यदनम् अशनपानरूपं पाथेयं गृहीत्वा एकां जैसा यह अयोहारक पुरुष पश्चात्तापयुक्त हुआ है-इसी प्रकारसे तुम्हें न होना पडे-अतःतुम मेरे कहे हुए पर श्रद्धा करो और माना किजीव और शरीर मिन्न है इत्यादि।
टीकार्थ-इसी मूलार्थ के जैसा है-परन्तु जहां पर विशेषता है-वह इस प्रकार से है "हद्वतुट्ठा जाव :हियया" में जो यावत पद आया है उससे"चित्तानन्दिताः, परमसौमनस्थिताः, हर्षवशविसर्पद्" इन पदों का संग्रह हुआ है. इन पदों की व्याख्या पूर्णोक्त जैसी ही है. "इटे, कंते जाव" में जी यह यावत-पद आया है-उससे यहां पर "प्रियः, मनोज्ञः' मन आमः" इन पदांका ग्रहण हुआ है. इष्ट शब्द का अर्थ-मनोरथ को पूरा करनेवाला है. कान्त शब्द का अर्थ-सहायकारी होने से अभिलषणीय है, पिय शब्द का अर्थ-उपकारक होने से प्रेम का उत्पादक है, तथा-मनोज्ञ शब्द का अर्थ-हितकारी होने से मनोहर ऐसा है और मन आम शब्द का अर्थ आतिहर होने से मनोगम्य ऐसा હારક પુરૂષ પશ્ચાત્તાપ-યુકત થયે છે તેમ તમારી પણ સ્થિતિ થાય નહિ, એથી તમે મારી વાત પર શ્રદ્ધા રાખે અને મારી વાત માની લે કે જીવ અને શરીર मिन्न भिन्न छे. त्याहि.
ટીકાળું—આ મૂલાર્થ છે. પણ જયાં વિશેષતા છે તે આ પ્રમાણે છે. "हद्वतुट्ठा जाव हियया"
५६ छे तेथी 'चित्तानन्दिताः, परमसौमनस्थिताः हर्षवशविसर्पद' मा पानी सड थये। छ. २. पहानी व्याच्या पाया भु०४५ ४ छे. 'इटे, कते जाव" यापत् ५४ छे तेथी 2ी 'प्रियः, मनोज्ञः, मनः आम" २५ पहानु अहए थयु.ट शहना अर्थ मनोरथ ने પૂરનાર છે. કાંત શબ્દનો અર્થ સહાયકારી હોવાથી અભિલષણીય છે, પ્રિય શબ્દને અર્થ-હિતકારી હોવાથી પ્રેમને ઉત્પાદક છે, તથા મને શબ્દને અર્થ-હિતકારી હોવાથી મનહર એ થાય છે. મને આમ શબ્દનો અર્થ આહિર લેવાથી મને
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सुबोधिनी टीका सू. १५४ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशोराजवर्णनम् ३३५ महतीं-विशालाम् अग्रामिकाम्-वसतिरहितां, छिन्नाऽऽपाताम-छिन्न-हिंसकजन्तुभयेनोपहतः आपात -मनुष्याणां गमनागमनं यत्र ताम् दीर्घावां-दीर्घमार्गाम्, अटवीय अनुप्रविष्टाः । ततः खलु ते पुरुषाः तस्याः अग्रामिकायाः यावत छिन्नाऽऽपातायाः दीर्धाध्वाया अटव्याः कंचिद्देशम-अटवीविभागम, अनुप्राप्ताः सन्तः तत्र एकस अयआकरं-लोहखनिम्, पश्यन्ति-दष्टवन्तः, तमाकरम् अयसा-लोहेन सर्वत्रश्-सर्वदिक्ष, समन्ता -सर्वविदिक्ष आकीर्ण-व्याप्तं, विस्तीर्ण-विस्तारप्राप्तम, सच्छटं सती-समीचीना छटा-चाकचिक्यं यत्र तम्, उपच्छटं-छटायुक्तम, स्फुट-प्रकटम, अनुगाढं-पुञ्जरूपं पश्यति-दृष्टवन्तः, दृष्ट्वा हृष्टतुष्ट याव -यावत्पदेन “चित्तानन्दिताः, परमसौमनस्थिताः, हर्षवशविसपद्" इत्येवां सङ्ग्रहो बोध्यः, हर्षवशविसपंद्" इत्यस्य "हृदया" इत्यनेन योगाद् "हर्षवशविसर्पदयाः" इति, एतद्वयाख्या प्राग्वत्, एतादृशाः सन्तः अन्योऽन्य-परस्परं, शब्दयन्ति-आयन्ति, शब्दयित्वा एवम्वादिषुः-उक्तवन्तः-हे देवानुप्रियाः ! एषः-अयं खलु अयआकरःलोहाऽऽकरः इष्टः कान्तः यावत् यावत्पदेन-"प्रियः, मनोज्ञः मनआम" इति पदानां संग्रहः, तत्र इष्ट:-मनोरथपूरकः, कान्तः सहायकारित्वादभिलपणीयः, प्रियःउपकारिकत्वेन प्रमोत्पादकः, मनोज्ञः-हितकारित्वान्मनोहरः. मनआमः-आतिहरत्वान्मनोगम्यः, अस्ति तत्-तस्मात् कारणात हे देवानुमियाः । अस्माकम् अयोभारं-लोहमारं बद्धं ग्रहीतुं श्रेयः-प्रशस्तम् इति कृत्वा-इति निश्चित्य अन्योऽन्यस्यपरस्परस्य एतम्-अयोभारग्रहणरूपम् अर्थम्-प्रतिशृण्वन्ति-कर्तव्यतया स्वीकुर्वन्ति. प्रतिश्रुत्य अयोभारं-लोहमारं बध्नन्ति, बङ्घा यथानुपूर्वि-यथाक्रमं संप्रस्थिताः-अग्रे गन्तु प्रवृत्ताः । ततः खलु ते पुरुषाः अग्रामिकायाः यावत्-"छिन्नाऽऽपातायाः दीर्धाध्यायाः अटव्याः किञ्चिद्देशं-किञ्चिरप्रदेशम् अनुप्राप्ताः सन्तः एकं महान्तं त्रप्वाकरं-त्रपु-धातुविशेषस्तस्याऽऽकरं, पश्यन्ति-दष्टवन्तः तम् त्रपुकेण सर्वतः समन्ताद् आकीर्ण तदेव-पूर्वोक्तमेव “विस्तीर्ण , सच्छटम, उपच्छटं स्फुटं गाढं पश्यन्ति, दष्ट्वा हृष्टतुष्टाः. चित्तानन्दिताः, परमसौमनस्थिताः, हर्षवशविसर्पबृदयाः. हैं। 'अग्गामियाए जाव" में जाये हुए इस यावत्पद से “छिन्नापाताया" दीर्घाध्वायाः" इन पदों का संग्रह हुआ है. "तं चेव" इस पाठ से "विस्तीर्ण : सच्छटम् उपच्छटं स्फुटं गाढं पश्यन्तिः दृष्ट्वाहृष्ट तुष्टाः, चित्तानन्दिताः, परमसौमनस्थिताः, हर्षवशविसर्पहृदयाः अन्योन्यं शब्दयति" इस पाठ का यहां ग्रहण
न्य मेवे। थाय छे. 'अग्गमियाए, जाव' मा मावेस 24t यावत् पहथी छिन्नापातायाः,दीर्घाध्यायाः, मा पहानी संग्रह थये। छ. 'तंचेव' मा ५४थी 'विस्तीर्ण सच्छटम्, उपच्छटम्, स्फुटं, गाढं पश्यन्ति, दृष्टा हृष्टतुष्टाः, चित्तानन्दिताः, परमसौमनस्पिताः, हर्षवशविसर्पहृदयाः अन्योन्यं शब्दयन्ति" l पा४ अडए
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राजप्रश्नीयसूत्रे अन्योऽन्यं शब्दयन्ति, शब्दयित्वा, एवम अवादिषुः-हे देवानुप्रियाः ! एष खलु त्रप्वाकरः यावत्-यावत्पदेन “इष्टः, कान्तः, प्रियः, मनोज्ञः" संग्राह्यम् मनआमः अल्पेनैव त्रपुकेण सुबहु-अतिप्रचुरम् अयः-लोहंः लभ्यते-प्राप्यते, तत्-तस्मात् कारणात हे देवानुपियाः ! अयोभारं मुक्त्वा-विहाय त्रपुकभारं बर्बु श्रेयः, इति कृत्वा अन्योऽन्यस्य अन्तिके-सर्मापे एतम्-त्रपुभारग्रहणरूपम् अर्थम् प्रतिशृण्यन्ति कर्तव्यतया स्वीकुर्वन्ति, प्रतिश्रुत्य अयोभार मुञ्चन्ति-त्यजन्ति त्रपुकभार बनन्ति -गृहन्ति, तत्र-त्रपुभारग्रहणविषये खलु एकः-कश्चित् पुरुषः अयोभार मोक्तुंत्यक्तुं नो शक्नोति, तथा-त्रपुकभार बछ-ग्रहीतुं नो शक्नोति, ततः खलु ते पुरुषाः तम्-लोहमारवन्तं पुरुषम् एवमवादिषुः-हे देवानुप्रिय ! एष खलु त्रप्वाकरः, यावत्-यावत्पदेन-"इष्टः, कान्तः. प्रियः, मनोज्ञः, मनआम अल्पेनैव त्रपुकेण" इत्येषां सहो बोध्यः, सुबहु अतिप्रचुरस अय:-लोहः लभ्यते तत्तस्मात कारणात् हे देवानुप्रिय ! अपोभारकं-लोहमार मुञ्च-त्यज तथा ,त्रपुकभारकं बधान-गृहाण, ततः खलु सः - लोहभारवाहकः पुरुषः एवमवादीत-हे देवानुपियाः-मया अयः-लोहः दूराऽऽहृतं-दूरात-दूरपदेशाद् आहृतम्-आनीतम्, हे देवानुप्रियाः ! मया अय:-चिराऽऽहृतम्-चिरात-बहुकालाद आहृतम्.ऊढम्, हे देवानुप्रियाः ! मया अयः अतिगाढ-बन्धनबद्धम्-अत्यन्तदृढबन्धनेन बद्धम् अत एव हे देवानुपियाः! मया अयः अशिथिलबन्धनबद्धम्-अशिथिलबन्धनेन दृढवन्धनेन बद्धम् हे देवानुप्रियाः! मया अयः प्रचुरबन्धनबद्धम्-“घणि" इति प्रचुरार्थो देशीयः शब्दः, अतोऽहम् अयोभारं स्थक्त्वा त्रपुकभारकं बढ़-ग्रहीतुं नो चैव शक्नोमि । ततः खलु ते पुरुषाः तम-लोहभारवाहकं पुरुषं यदा बहुभिः-बह्वीभिः आख्यापनाभिः-दृष्टान्तरूपाभि" च पुनः प्रज्ञापनाभिः हेयोपादेयप्रतिबोधिकाभिश्च किया गया है। "इट्टे जाव मणामे" में आये हुए पावत्पद से 'इष्टः. कान्तः प्रियः, मनोज्ञः" इन पदों का संग्रह हुआ है ! "तउ आगरे जाव" पद से भी इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मन आम” इन पदों का संग्रह किया गया है। "घणीय" यह शब्द देशीय है और प्रचुर अर्थ का वाचक है ॥ १५४ ॥ थयो छ. "इढे जाव मणामे भां मावेत यावत् ५४थी 'इष्टः, कान्तः, प्रियः, मनोज्ञः
या पहना सय थयो छ. 'तउआगरे जाव' ५४थी पशु 'इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मन आम' मा पहनु अडए थ्यु छे. 'पणिय' 240 श६ देशीय छे भने પ્રચુર અર્થને વાચક છે. સૂ. ૧૫૪
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सुबोधिनी टीका सू. १५४ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशोराजवर्णनम् ३३७ प्ररूपणाभिः-यथार्थस्वरूपनिरूपिकाभिश्च आख्यापयितुं वा प्रज्ञापयितुं वा प्ररूपयितुं वा नो शक्नुवन्ति-समर्था नाभवन् , तदा यथानुपूर्वि-यथाक्रमम्, संप्रस्थिताःततोऽग्रे प्रयाताः। एवम्-अनेन प्रकारेण ताम्राऽऽकरं, रूप्याऽऽकरं, सुवर्णाऽऽकरं, रत्नाऽऽकरं, वज्राऽऽकरं, हीरकखनिं पश्यन्ति इत्यादि लोहनप्वाकरदर्शनवदेव सर्व वर्णन बोध्यम् । ततः-लोहमारग्रहणकृताऽऽदरदुर्बुद्धिपुरुषस्यानेकक्था प्रबोधकवाकयप्रपञ्चैः प्रबोधनाःसामर्थ्यानन्तरं खलु ते अल्पमूल्यकपूर्व पूर्ववस्तुपरित्यागपूर्व कबहुमूल्योत्तरोत्तरवस्तुग्रहणवद्धाऽऽदरतया गृहीतवज्रमणिभाराः पुरुपाः यत्रैव स्वाः- स्वकीयाः जनपदाः-देशाः, यत्रैव स्वानि स्वानि-निजानिःनिजानि नग. राणि तत्रैव उपागच्छन्ति । वज्रविक्रयण-वज्रमणिविक्रय कुर्वन्ति-कृतवन्तः। तद्विक्रयेण लब्धबहुद्रव्यैः सुबहुदासीदासगामहिषगवेलकं-सुबहु-अतिप्रचुरं यद् दासी-दास-गो महिष-गवेलकः-तत्र दासी-दास-गो-महिषाः प्रसिद्धाः, गवेलकाः-मेषाश्चेत्येषां समाहारस्तथा, तत् गृह्णन्ति, अष्टतलोच्छित प्रासादावन्तंसकान -अष्टौ तलानि यत्र ते अष्टतलाः-अष्टभूमिकाः, ते च ते उच्छ्रिताः-उन्नताः गगनचुम्बिनः प्रासादावतंसकाः-श्रेष्ठप्रासादास्तान कारयन्ति, तत्र च स्नाताः कृतस्नानाः, कृतबलिकर्माणः-कृतवायसादिनिमित्तानविभागाः, कृतकौतुलमङ्गलप्रा श्चित्ताः दुःस्वमादिफलविघाताय धृतदध्यक्षताश्रयाः सन्तः उपरि-उध्वं प्रासादबरगताः--मनोहर प्रासादस्थिताः विहरन्तीत्युत्तरेणान्वयः, किं कुर्वन्तो विहरन्तीत्याह-स्फुटद्भिः-अतिरभसा स्फालनात् स्फुटद्भिरिवः, मृद्गमस्तकैः मृदङ्गमुखपुटैः, द्वात्रिंशद्वद्धकैः- द्वात्रिंशत्प्रकाररचना युक्तः नाटकैः, ते कीदृशैः ? इत्यत्राऽऽह-वरतरुणीसंप्रयुक्तः-विशिष्ट स्त्रीसम्पादितः, उपनय॑मानाः, नृत्यंदृश्यमानाः, उपगीयमानाः गानं श्राव्यमाणाः, उपलाल्यमानाः पिलास्यमानाः, इष्टान अभिलषितान, शब्दस्पर्श रसरूपगन्धान, पञ्चविधान् मानुष्यकान् कामभोगान् प्रत्यनुभव तो विहरति तिष्ठन्ति । ततः खलु इतश्च सः-अवहेलितहितवचनो लोहभारवाहकः पुरुषः अयोभारेण सह यत्रैव स्वं-निज नगरं, तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य तत्र अयोभारकं गृहीत्वा अयोविक्रयणं करोति । तस्मिन-लोहविक्रयलब्धे, अल्पमूल्ये-स्वल्पद्रव्ये आहारवस्त्राद्यानयनेन निष्ठिते-समाप्ते सति स लोहवणिक्ः पुरुषः क्षीणपरिव्ययः-क्षीणःमन्दः परिव्ययः-परितो व्ययः-द्रव्योपयोगो यस्प तथाभूतः, तान्-वज्रविक्रयिणपुरुषान् उपरि-ऊर्ध्व भागे, प्रासादवरगतान्-रम्यप्रासादस्थितान् यावद् विहरमाणान् स्फुटद्भिर्मृदङ्गमस्तकः द्वात्रिंशद्धद्वैः नाटकैः वरतरुणीसंप्रयुक्तैः उपनय॑मानान् उपगीयमानान् उपलाल्यमानान् इष्टान् शब्द-स्पर्श-रस-रूप-गन्धान् पञ्चविधान् मानु
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राजप्रश्नीयसूत्रे
tयकान कामभोगान प्रत्यनुभवन्तो विहरमाणान् पश्यन्ति । दृष्टा एवम् - अनुपदं बक्ष्यमाण ं वचनम् अवादीत् - अहो ! वित्मयः खलु अहम् अधन्यः - धन्यो न, अपुण्य:पुण्यहीनः, अकृतार्थः अकृतेष्ट सिद्धिकः, अकृतलक्षणः- शुभलक्षणहीनः, ही श्रीवर्जितःलज्जालक्ष्मीहीन, हीनपुण्यचातुर्दशः - हीनपुण्य :- क्षीणपुण्यः, अत एव चातुर्दश:कृष्ण चतुर्दश्यां जातः, दुरन्तप्रान्त लक्षण:- दुरन्तं - दुष्टायसानम् अत एव प्रान्तम् अमनोज्ञ लक्षण ं यस्य स तथा - कुलक्षणयुक्तः, अहमस्मि । यदि - चेत् खलु अहं मित्राणां - सहगतानां वा-अथवा ज्ञातीनां - पितृव्यादीनां वा निजकानांहितैषिणां वा वचनम् अश्रोष्थ - श्रवणपथमानेष्यम् तदा तर्हि खलु अहमपि एव - मेव-मत्सहागतवज्रमणिविक्रयि पुरुषवदेव, उपरि- ऊर्ध्वभागे, मासादवरगतः - सुन्दरप्रासादस्थितः वज्रमणिविक्रयिसदृशो भूत्वा यावद् व्यहरिष्यम् - अस्थास्यम् विविधसुखसम्पन्नोऽभविष्यम् | तत् - त माद्धेतोः, तेन अनन्तरोक्तेन अर्थेन-लोहवणिगूरूपेण दृष्टान्तेन, हे प्रदेशिन ! एवम् इत्थम्, उच्यते- कथ्यते यत् हे प्रदेशिन ! त्वं पश्चादनुतापिको मा भवेः, यथा येन प्रकारेण सः - अन्तरोक्तः, अयोहारकः पश्चादनुतापिकोऽभृत् । । सू० १५४ ॥
मूलम् - तए णं से पएसी राया संबुद्धे के सिकुमारसमणं वंदन जाव एवं वयासी - णो खलु भंते अहं पच्छाणुताविए भविस्सामि जहा चेव से पुरिसे अयभारए । त इच्छाम णं देवाणुप्पियाणं अतिए केवलिपन्नत्त धम्मं निसामित्तए । अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा परिबंध करेह | धम्मकहा, जहा चित्तस्स तहेव जाव गिहिधम्मं पडिवज्जइ, जेणेव सेयविया नयरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए । १५५ ॥
छाया - - ततः खलु स प्रदेशी राजा संबुद्धः केशिकुमारश्रमणं वन्दते यावत् एवमवादीत्-नो खलु भदन्त ! अहं पश्चादनुतापिको भविष्यामि यथैव स पुरुषो
'तए णं से पएसी राया' इत्यादि ।
सूत्रार्थ - (तणं से पएसी राया संबुद्धे) इस तरह से बहुत समझाने पर वह प्रदेशी राजा बोध को प्राप्त हो गया (के सिकुमारसमणं जाव बंदइ
'तए णं से पएसी राया' इत्यादि ।
सूत्रार्थ - (तएण से पएसी राया संबुद्धे) या अभागे हुन समभववाथी ते प्रदेशी राजने बोध प्राप्त थयो ! (केसि कुमारसमगं जाव वंदइ एवं वयासी) पछी ते
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सुबोधिनी टीका सू. १५५ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशीराजवर्णनम्
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ऽयोहारकः । तदिच्छामि खलु देवानुप्रियाणामन्तिके केवलिप्रज्ञप्त धर्म निशमयितुम् । यथासुखं देवानुप्रियाः ! मा प्रतिबन्धं कुरुत्त धर्मकथा, यथा :चित्रस्य तथैव यावत् गृहिधर्म प्रतिपद्यते, यत्रैव श्वेतांबिका नगरी तत्रैव प्राधारयद् गमनाय ॥ सू० १५५॥ एवं वयासी) फिर उसने वंदना की यावत् केशिकुमारश्रमण से ऐसा कहा-(णो खलु भंते। अहं पच्छाणुताविए भविस्साभि, जहा चेव से पुरिसे अपहारए) हे भदंत ! मैं उस अयोहारक-लोहवणिक पुरुष की तरह पश्चादनुतापित नहीं होऊंगा (तं इच्छामि णं देवाणुप्पियाणं अंतिए केवलिपन्नत्तं धम्मं निसामित्तए) अतः मैं आप देवानुप्रिय से केवलिप्रज्ञप्त धर्म सुनने का अभिलाषी हो रहा हूँ (अहा सुहं देवानुप्पिया ! मा पडिबध करेह) तब केशीकुमारश्रमण ने उससे कहा-हे देवानुप्रिय ! आप को जिससे सुख ऊपजे एसा करो परन्तु इस विषय में विलम्ब करना उचित नहीं है। (धम्म कहा) प्रदेशी राजाको तब केशीकुमारश्रम ने मुनिधर्म और गृहस्थधर्म का ऊपदेश दिया, (जहा चित्तस्स तहेव गिहिधम्म पडिवजइ) यहां वह धर्मकथा १११वें सूत्र में जैसी कही गई है वैसी जाननी चाहिये तब प्रदेशी राजाने द्वादशविधरूप गृहीधर्म स्वीकार करलिया (जेणेव सेय विया णयरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए) इस प्रकार गृहिधर्म धारणकर वह प्रदेशी राजा जहां श्वेतांविका नगरीथी उस ओर चलदियासी भा२श्रमाने हा ४२ यावत् शिमा२ श्रमाने या प्रभा अयु-(णो खलु भंते ! अहं पच्छाणुताविए भविस्सामि, जहा चेव से पुरिसे अयहारए) हे महत ! ई. ते अयो.२४ सोडवा ५३पनी म पश्चाहनुतोष २७ नहि. (तं इच्छामि णं देवाणुप्पियाणं अंतिए केवलिपन्नत्तं धम्मं निसामित्तए) मेथी भाप हेवानुप्रिय पासेथी वलि प्रशस धर्मन सामवानी मलिदाषा रामु छु. (अहासहं देवानुप्पिया ! मा पडिबध करेइ) त्यारे भा२ श्रमणे तेने धुंड हेवानुप्रिय! તમને જેમાં આનંદ થાય તેમ કરો. પણ આ વિષયમાં વિલંબ ઉચિત નથી. (धम्मकहा) प्रदेश राने त्यारे उशी भा२ श्रम भुनिधर्म भने गृहस्थयमना अपहेश माथ्यो. (जहा चित्तस्स तहेव गिहिधम्म पडिवज्जइ) मही ते यथा ૧૧ મા સૂત્ર પ્રમાણે કહેવામાં આવી છે. ત્યારે પ્રદેશી રાજાએ દ્વાદશ વિધરૂપ pधना स्वी1२ यो. (जेणेव सेयंविया णयरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए) આ પ્રમાણે ગૃહીધર્મ ધારણ કરીને તે પ્રદેશી રાજા જ્યાં તાંબિકા નગરી હતી તે તરફ રવાના થઈ ગયે.
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राजप्रश्नीयसूत्रे टीका-'तए ण से पएसी राया" इत्यादि-ततः खलु स प्रदेशी राजा संबुद्धः बोधं प्राप्तः, सन् केशिकुमारश्रमणम् वन्दते-स्तौति, यावत्-यावत्पदेन 'नमस्यति सत्करोति सम्मानयति कल्याण मङ्गलं दैवतं चैत्यं पर्युपास्ते" इत्येषां पदानां सङ्ग्रहो बोध्यः। एषां व्याख्या गता। वन्दनाद्यनन्तरम् एवमवादीत-हे भदन्त ! अहं खलु पश्चादनुतापिको नो भविष्यामि, यथा येन मकारेण सः-अनन्तरोक्तः अयोहारकः-लोहवणिक, पुरुषः पश्चादनुतापिकोऽभवत्, तत् तस्मात् कारणाद् अहं खलु देवानुप्रियाणां भवाम् अन्तिके पावें केवलिप्रज्ञप्त, धर्म भवसागरनिमज्जत्प्राणिगणोद्धरणधुरीण' श्रुतचरित्रलक्षण निशमयितुं श्रोतुम्, इच्छामि अमिलपाभि । केशी पाऽऽह-हे देवानुप्रिय ! यथासुखं यथातुभ्यं रोचते तथा कुरु इति भावः. किन्तु प्रतिबन्धं विलम्ब मा कुरु । धर्मकथा अनगारागारधर्मकथा यथा चित्रस्य. द्वादशाधिकैकशततमसूत्रोक्ता तथैव तद नुसारिण्येव विज्ञेया। ततः प्रदेशी गृहिधर्म द्वादशविधं पतिपद्यते स्वीकरोति, प्रतिपद्य स यत्रैव श्वेतांबिका नगरी तत्रैव गमनाय प्राधारयत् मनसि निश्चितवान ।।।सू०१५५।।
मूलम--तए णं केसी कुमारसमणे पएसिं रायं एवं वयासीजाणासि णं तुम पएसी ! कइ आयरिया पन्नत्ता ?, हंता जाणामि,
टीकार्थ-स्पष्ट है “वंदइ जाव एवं क्यासी" में ओ-यावत्पद आया है उससे-"नमस्यति-सत्करोति-सम्मानयति-कल्याणं मङ्गलं दैवतं-चैत्थं पर्युपास्ते' इन पदों का संग्रह हुवा है, तात्पर्य-कहने का यह है कि-जब प्रदेशी राजा बोध को प्राप्त हो गया. तब उसने केशी कुमार श्रमण की स्तुति की, उन्हे नमस्कार किया उनका सत्कार किया सन्मान किया और कल्याणरूप मङ्गलरूप एवं-देवस्वरूप उन चैत्य ज्ञान प्रदाता गुरुदेव की ऊसने पर्युपासना की, फिर उसने भवसागर में डूबते हुवे प्राणियों का ऊद्धार करने में समर्ध ऐसे श्रुत चारित्ररूप धर्म को सुनने की अपनी अमिलाषा प्रकट की ॥ सू. १५५ ॥ ___ -२५०८०४ छ. 'वंदइ जाव एवं वयासी' भारे यावत् प६ मावत छ. तेथी 'नमस्यति-सत्करोति सम्मानयति कल्याणं-मङ्गलं-दैवतं-चैत्यं-पर्युपास्ते' આ પદને સંગ્રહ થયેલ છે. તાત્પર્ય આમ છે કે જ્યારે પ્રદેશી રાજાને બેધ પ્રાપ્ત થઈ ગયે. ત્યારે તેણે કેશ કુમાર શ્રમણની સ્તુતિ કરી. તેમને નમસ્કાર કર્યા, તેમને સત્કાર કર્યો, સન્માન કર્યું અને કલ્યાણરૂપ, મંગલરૂપ અને દેવસ્વરૂપ તે ત્યજ્ઞાન પ્રદાતા ગુરૂદેવની તેમણે પર્યું પાસના કરી. ત્યાર પછી તેમણે ભવસાગરમાં ડૂબતા પ્રાણીઓના ઉદ્ધારમાં સમર્થ એવા શ્રત ચારિત્રરૂપ ધર્મને સાંભળવાની પિતાની ઈચ્છા પ્રકટ કરી. સૂ, ૧પપા
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सुबोधिनी टीका सू. १५६ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशोराजवर्णनम् ३४१ तओ आयरिआ पण्णत्ता, तं जहा-कलायरिए१, सिप्पायरिए२, धम्मायरिए३ । जाणासि णं तुम पएसी ! तेसिं तिण्हं आयरियाणं कस्स का विणयपडिवत्ती पउंजियव्वा ? । हंता ! जाणामि, कलायरियस्स प्पिायरियस्स उवलेवणं संमजणं वा करेजा, पुरओ पुष्पाणि वा आणवेज्जा मंडावेजा भोयावेज्जा वा विउलं जीवियारिह पीइदाणं दलएज्जा पुत्ताणुपुत्तियं वित्तिं कष्पेजा। जत्थेव धम्मायरियं पासिज्जा तत्थेव वंदेज्जा णमंसेज्जा सकारेजा सम्माणेजा कल्लाणं मंगलं देवय चेइय पज्जुवासेजा फासुएसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभेजा पाडिहारिएणं पीढफलगसिज्जासंथारएणं उवनि मतेजा३ । एवं जाणासि तहाविणं तुमं मम वामं वामेणं जाव वट्टि त्ता ममं एयमझे अक्खामित्ता जेणेव सेयविया णयरी तेणेव पहा रस्थ गमणाए । सू० १५६ ॥
छाया-ततः खलु केशीकुमारश्रमणः प्रदेशिनं राजानम् एवम् अवादीत्जानासि खलु त्वं प्रदेशिन् ! कति आचार्याः प्रज्ञप्ताः १, हन्त ! जानामि त्रय
"तएणं केसी कुमारसमणे" इत्यादि ।
सूत्रार्थ-"तएण" इसके बाद "केसी कुमारसमणे" केशीकुमारश्रमणने "पएसिं" रायं एवं क्यासी" प्रदेशी राजा से ऐसा कहा "जाणासि णं तुम पएसी ? कइ आयरिया पणत्ता-” हे प्रदेशिन्-! तुम जानते हो कितने आचार्य कहे गये हैं-? प्रदेशीने कहा-"हंता ? जाणामि-तओ आ रिया
'तएणं केसीकुमारसमणे' इत्यादि।
सूत्राथ–'तएणं' त्या२ पछी 'केसी कुमारसमणे' अशी भा२ श्रमणे 'पएसि रायं एवं वयासी' प्रदेशी Anने मा प्रमाणे ४ह्यु 'जाणासि णं तुमं पएसी ! कह आयरिया पण्णत्ता" उ प्रशिन तमे Med! छ। 3 मायायो टा ४२॥ ४:पाय छ ? प्रदेशी-ये 'हंता ? जाणामि-तओ आयरिया पण्णत्ता" si ata
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राजप्रश्नीयसूत्रे आचार्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-कलाऽऽचार्यः १, शिल्पाऽऽचार्यः २, धर्माऽऽचार्यः ३ । जानासि खलु त्वं प्रदेशिन् ! तेषां त्राणामाचार्याणां कस्य का विनयप्रसिपत्तिः प्रयोक्तव्या ? हन्त ! जनामि-कलाऽऽचार्यस्य शिल्पाऽऽचार्यस्य उपलेपनं संमार्जन वा कुर्यात, पुरतः पुष्पाणि वा आनयेत् मार्जयेत् माडयेत भोजयेत वा विपुलं जीविताह प्रीतिदानं दद्यात् पौत्रानुपुत्रिकी वृत्ति कल्वयेत् २ । यत्रैव धर्माऽचार्य पश्येत् पणत्ता-" हां भदन्त-! जानता हू-तीन आचार्य कहे गये हैं। "तं जहाकलायरिए-सिप्पायरिए-धम्मायरिए" जो इस पकार से हैं-कलाचार्य-१ शिल्पाचार्य-२ और तीसरा धर्माचार्य । 'जाणामि ण तुमं पएसी-" तेसिं तिण्हं आयरियाणं कस्स का विणयपडिवत्ती पउंजियव्वा " हे प्रदेशिन्-! तुम जानते हो, इन तीन आचार्यों में किस आचार्यका कैसा विनय प्रकार करने को कहा गया है-! प्रदेशीने कहा-"हंता ? जाणामि हां भदन्त ३ जानता हूं कलायरियस्स सिप्पायरियस्स : उवलेवणं समज्जण वा व रेज्जा पुरओ पुष्पाणि वा आणवेज्जा मंडावेज्जा भोयाविज्जा वा विउलं जीवियारिहं पीइदाणं दलएज्जा पुत्ताणुपुत्तिय वित्ति कप्पेज्जा-" कलाचार्य और-शिल्पाचार्य के शरीर में तेल का मद न करना, उन्हें स्नान कराना, तथा-उनके समक्ष पुष्पों वा ला र भेटके रूप में रखना, पुष्पमाला आदिसे उन्हें अलकृत करना भोजन कराना उनकी आजीविका के योग्य सहर्ष प्रीतिदान देना वस्त्रादि प्रदान करना. एवं-पुत्र
onा छु'- मायायो उपाय छे. "तं जहा-कलयरिए सिप्पायरिए धम्मायरिए" ते 20 प्रमाणे जे-४सायार्थ १ शिपायाय २ भने घयाय 3, " णासि ण' तुमं पएसी तेसिं तिण्हं आयरियाण कस्स का विणथपडिवत्तो पउंजियव्या" હે પ્રદેશિનું તમે જાણે છે કે આ ત્રણ આચાર્યોમાં ક્યા આચાર્યને કઈ જાતને विनय ४२ ४२१। हेवामा माव्यो छ. १, प्रदेशीये धु-"हं । ? जाणामि" si, महन्त ? only छु. “कलायरियस्स सिप्पायरियस्स उवलेवण समज्जण वा करेज्जा पुरओ पुष्पाणि वा आणवेजा भंडावेजा भोयावेजा वा विउलं जीवियारिहं पीइदाण दलएज्जा पुत्ताणु पुत्तियं वित्तिं कप्पेज्जा' सायार्थ अने शिपायाना शरीरमा ततनी भारी४२वी, તેમને સ્નાન કરાવવું તેમજ તેમની સામે પુષ્પોની ભેટ મૂકવી, પુષ્પમાળા વગેરેથી તેમને અલંકૃત કરવા ભેજન કરાવવું, તેમની આજીવિકા માટે યોગ્ય સહર્ષ પ્રીતિદાન આપવું અને પુત્ર-પૌત્ર વગેરેના ભરણપોષણ એગ્ય આજીવિકાની વ્યવસ્થા
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सुबोधिनी टीका सू. १५६ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशीराजवर्णनम् ३४३ तत्रैव वन्देत नमस्येत सत्कुर्यात् सम्मानयेत् कल्याणं मङ्गलं दैवतं चैत्य पर्युपासीत, प्रासुकैषणीयेन अशन पान खादिमस्वादिमेन प्रतिलम्भयेत, प्रातिहारिकेण पीठफलकशय्यासंस्तारकेण उपनिमन्त्रयेत, एवं च तावत् त्वं प्रदेशिन ! एवं जानासि तथापि खलु त्वं मम वाम वामेन यावद् वर्तित्वा :मम एतमर्थम् अक्षामा त्वा यत्रैव श्वेतविका नगरी तत्रैव प्राधारयत् गमनाय । ॥ सू० १५६ ॥ । पौत्रादि के निर्वाह योग्य आजीविका लगा देना. इस प्रकार से यह कलाचार्य ७२ -प्रकार की कलाओं को सिखानेवालों की, और-शिल्पाचार्य विज्ञान सिखानेवालों का विनयप्रतिपत्ति है। "जत्थेव धम्मायरिय पासिज्जा, तत्थेव वंदेज्जा, णमंसेज्जा, सकारेज्जा, सम्माणेज्जा, कल्लाणं-मंगलं-देवय चेइयं पज्जुवासे ज्जा-' तथा-धर्माचाय की विनय प्रतिपत्ति इस प्रकारसे है-जहा पर भी धर्माचार्य को देखलिया जावे, वहीं पर उनकी वन्दना करना, नमस्कार करना, सत्कार करना, सन्मान करना. कल्याण-मङ्गल-देवस्वरूप उन चेत्य ज्ञानदायक' की पर्युपासना रना, तथा-"फासुएसणिज्जेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं पडिलाभेज्जा, पाडिहारिएवं पीढ-फलग-सिज्जा संथारएणं उवनिमंतेज्जा-" प्रासुक एषणीय अशन पान खादिम स्वादिम रूप चारों प्रकारके आहार से उन्हें प्रति लाभित करना, पडिहारिपीठफलक शय्या संस्तारक को ग्रहण करने के लिये उनसे प्रार्थना करना-३ इस प्रकार की यह धर्माचार्य की विनयप्रतिपत्ति है"एवं ताव तुम पएसी-? एवं जाणासि तहावि ण तुमं मम वामं वामेण કરવી. આ પ્રમાણે આ કલાચાર્યું કે જે ૭ર પ્રકારની કલાઓનું શિક્ષણ આપે છે भने शिपायार्थ विज्ञान शिक्षए मापानी विनयप्रति पत्ति 'जत्थेव धम्मायरियं पासिज्जा, तत्थेव वंदेज्जा, णमंसेज्जा सक्कारेज्जा, सम्माणेज्जा, कल्लाण मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासेज्जा" तेभ यायायनी विनयप्रतिपत्ति ॥ પ્રમાણે છે-જયાં ધર્માચાર્ય દેખાય કે તરતજ ત્યાં તેમને વન્દન કરવા, નમસ્કાર કરવા સત્કાર કરવો, સન્માન કરવું, કલ્યાણ-મંગળ દેવસ્વરૂપ તે જ્ઞાનદાયકની પર્યુંપાસના ४२वी तेम "फासुएसणिज्जेण असणपाणखाइमसाइमेण पडिलाभेज्जा, पाडिहारिएण पीढफलगसिज्जा संथारएण उवनिमंतेज्जा" प्रासु मेषीय 24शनપાન ખાદિમ સ્વાદિય રૂ૫ ચાર પ્રકારના આહારથી તેમને પ્રતિલાભિત કરવા, સમપણીય પીઠફલક, શાસંસ્તાર ને ગ્રહણ કરવા માટે તેમને વિનંતી કરવી ૩, આ सतनी २मा मायायनी विनय प्रतिपत्ति छ. "एवं ताव तुम पएसी ? एवं जाणासि तहावि ण तुमं मम वामं वामेण जाव वट्टित्ता मम एयम8 अक्खामित्ता जेणेव सेयविया णयरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए" है प्रशिन् ! न्यारे तमे मा प्रमाणे
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राजप्रश्नीयसूत्रे टीका-"तए णं केसीकुमारसमणे" इत्यादि-ततः खलु केशाकुमारश्रमणः प्रदेशिनं राजानम् एवमवादीत्-हे प्रदेशिन् ! त्वं जानासि यत् कति-कियन्त आचार्याः प्रज्ञप्ताः ? । इति प्रश्ने प्रदेशा प्राह हन्त ! जानामि, यत् त्रयः-त्रिसंख्यकाः आचार्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-कलाऽऽचार्यः-द्वासप्तति प्रकारकलाशिक्षकः १, शिल्पाऽऽचार्यः-विज्ञानशिक्षकः २, धर्माऽऽचार्यः-धर्मोपदेशकः ३। पुनः केशी पृच्छति-हे प्रदेशिन् ! त्वं जानासि खलु यत् तेषाम्-अनन्तरोक्तानां त्रयाणामाचार्याणां मध्ये कस्याऽऽचार्यस्य का-कीर्शा? विनयप्रतिपत्तिः-विनयप्रकारः प्रयोक्तव्या कर्तव्या ? । हन्त ! जनामि, तत्र कलाऽऽचार्यस्य शिल्पाऽऽचार्यस्य च उपलेपनं तैलाभ्यङ्गः, तथा-संमज्जनं-स्नपनं कुर्यात्-स्नपये दित्यर्थः, तथा पुरतःतयोरग्रे, पुष्पाणि वा समानयेत्, मण्डयेत्-पुष्पमाल्यादिनाऽलकुर्यात्, भोजयेतभोजनं कारयेत्, विपुलं-बहु जीविताह -जीवनयोग्यं प्रीतिदान - सहर्ष वस्त्रादिदानं. दद्यात्, तथा पुत्रानुपौत्रिकी-पुत्रपौत्रादि निर्वाहयोग्यां वृत्तिं जीविकां कल्पयेत्-सम्पादयेत् २ । इति कलाऽऽचार्य-शिल्पाऽऽचार्ययोविनयप्रतिपत्तिमुक्त्वा धर्माऽऽचार्यस्य तां कथयितुं प्रक्रमते-यत्रैव-यस्मिन्नेव स्थले धर्माऽऽचार्य पश्येत् जाव वट्टित्ता मम एयमटं अक्खाभित्ता जेणेव सेयविया गयरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए-" हे प्रदेशिन ३ जब तुम इस प्रकार से विनयप्रतिपत्ति को जानते हो तब भी तुमने मेरे प्रति प्रतिकूलरूप व्यवहार से यावत् प्रवृत्ति करके उस प्रतिकूल व्यवहार जनित अपराध को क्षमा कराये विना जहांश्वेतविका नगरीथी वहीं पर जाने निश्चय किया ॥ सू० १५६ ॥
टीकार्थ-स्पष्ट हैं, "कल्लाणं-मंगलं-देवयं-चेइयं पज्जुवासेज्जा-" इन पदों की व्याख्या चतुर्थ सूत्रमें की जा चुकी है । “वामं वामेणं-" इस यावत् पदसे"दण्ड दण्डेन-प्रतिकूल प्रतिकूलेन-प्रतिलोम प्रतिलोमेन-विपर्यासं विपर्यासेन" इन पदों का संग्रह हुवा है, इन पदोंकी व्याख्या पीछे की जा चुकी है. सू० १५६।। વિનય પ્રતિપત્તિ ને જાણે છે છતાં એ તમે એ મારા પ્રત્યે પ્રતિકૂલ રૂપ વ્યવહારથી યાવત્ પ્રવૃત્તિ કરીને પ્રતિકૂલ વ્યવહાર જનિત અપરાધને ક્ષમા કરાવ્યા વગર જ્યાં શ્વેતાંબિકા નગરી છે ત્યાં જવાને તમે નિશ્ચય કર્યો. સૂ. ૧૫૬
-२५ष्ट छ. "कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासेन्जा" मा पानी व्याच्या याथा सूत्रमा साक्षी छे. “वामं वामेण" मा मावस यावत् ५४थी "दण्ड दण्डेन प्रतिकूलप्रतिकूलेन प्रतिलोम प्रतिलोमेन विपर्यासं विपर्यासेन" 20 पहने। સંગ્રહ થયા છે. આ પદોની વ્યાખ્યા પહેલાં કરવામાં આવી છે. મે ૧૫૬ !
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सुबोधिनी टीका सू. १५७ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशी राजवर्णनम्
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तत्रैव - तस्मिन्नेव स्थले वन्देत नमस्येत सत्कुर्यात् सन्मानयेत् कल्याणं मङ्गलं दैवतं चैत्यं पर्युपासीत" एतेषां व्याख्या चतुर्थसूत्रतो बोध्या, तथा तं धर्माचार्य प्रासुकै पणीयेन - अचित्तकल्पनीयेन अशन-पान खादिम-खादिमेन - अशनादि चतुर्विऽऽधाहारेण प्रतिलभ्येत् - चतुर्विधाहारं तस्मै दद्यादिति भावः, तथा तं प्रातिहारिकेण - पुनः समर्पणीयेन पीठफलकशय्यासंस्तारकेण उपनिमन्त्रयेत् - तद्ग्रहणे प्रार्थयेत् ३ । एवं तावत प्रथमं प्रदेशिन् ! त मेवम् - अनन्तरोक्तप्रकारां विनयरूपां प्रतिपत्तिं जानासि, तथाऽपि खलु त्वं मम वामवामेन - प्रतिकूलतरेण व्यवहारेण यावत् - यावत्पदेन " दण्डदण्डेन, प्रतिकूलप्रतिकूलेन, प्रतिलोम - प्रतिलोमेन विपर्यासविपर्यासेन" इत्येषां पदानां सङ्ग्रहो बोध्यः, व्याख्याऽपि तत्रैव विलोकनीया, वर्तित्वा-उक्तव्यवहारेण युक्तो भूत्वा मम एतं - मया सह प्रतिकूलव्यवहारजनितम् अर्थम्अपराधम् अक्षामयित्वा यत्रैव श्वेतोंबिका नगरी तत्रैव गमनाय प्राधारयत्निश्चयं कृतवान् । ॥ सू० १५६ ।।
मूलम-तए णं से पएसी रायो केसि कुमारसमणं एवं वयासी एवं खलु भंते ! मम एयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पज्जित्था - एवं खलु अहं देवाणुप्पियोणं वामंवामेणं जाव वट्टिए तं सेयं खलु मे कल्ले पाउप्पभाए रयणीए फुल्लुप्पलकमलकोमलुम्मिलियम्मि अहापंडुरे पभाए रत्तासोगकिंसुय - सुयमुह - गुंजद्ध - रागसरिसे कमलागरनलिणिसंडवोहए उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दियरे तेयस । जलते अंतेउरपरियालसद्धि संपरिवुडे देवाणुप्पिए बंदि - तए नमंत्तिए एयम भुजो भुज्जो सम्म विणएणं खामित्तपत्ति कट्टु जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव दिसिं पडिगए ।
तणं से पएसी राया कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव तेयसा जलते हट्ट जाव हियए जहेव कूणिए । तहेव निग्गच्छइ, अंतेउरपरियालसद्धि संपरिवुडे पंचविहेणं अभिगमेणं वंदइ नमसइ, एयम भुजो भुजो सम्म विणएणं खामेइ ॥ सू० १५७ ॥
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राजप्रश्नीयसूत्रे
छाया-ततः खलु स प्रदेशी राजा केशिनं कुमारश्रमणमेवमवादीत्-एवं खलु भदन्त ! मम एतद्रूषः आध्यात्मिकः यावत् समुदपद्यत-एवं खलु अहं देवानुप्रियाणां वामवामेन यावत् वर्तितः, तत् श्रेयः खलु मे कल प्रादुष्प्रभातायां रजन्यां फुल्लोत्पलकमलकोमलोन्मीलिते अथाऽऽपाण्डुरे प्रभाते रक्ताशोक-किंशुकशुकमुख-गुजार्द्धरागसदृशे कमलाकरनलिनीषण्ड-बोधके उत्थिते सूरे सहस्ररश्मा दिनकरे तेजसा ज्वलति अन्तःपुरपरिवारैः सार्द्ध संपरिवृतो देवानुपियान् बन्दि
मूलार्थ-"तए ण से पएसी राया-" इत्यादि।
"तएणं से पएसी राया केसि कुमारसमण एवं वयासी-" ३५९ इसके बाद-प्रदेशी राजाने केशी कुमारसमण से सा कहा-"एवं खलु भंते !मम एयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था" हे भदन्त-३ मुझे ऐसा आध्यात्मिक यावत् संकल्प उत्पन्न हुवा. “एवं खलु अहं देवाणुप्पियाणं वाम वामेण जाव वट्टिए. तं सेयं खलु मे कल्लं पाउप्पभायाए रयणाए फुल्लुप्पलकमलकोमलुम्मिलियम्मि अहा पांडुरे पभायाए रत्ता साव रिंसुय-सुयमुह गुंजद्धरागसरिसे, कमलागरनलिणिसंडबोहए-" मैंने आप देवानुप्रिय के साथ प्रतिकूल रूप से यावत् व्यवहार किया है, अतः-मुझे यही श्रेयस्कर है कि-मैं कल जब रजनी प्रभातयुक्त हो जावेंगी, अर्थात्-रात्रि समाप्त हो जावेगी.
और कमल तथा-हरिणविशेषके नेत्र ये दोनों विकसित हो जायेंगे, अर्थात् कमल जब खिल जावेगा. और-हरिणविशेष की आंखे शयन करलेने के बाद खुल जावेगी. तथा-प्रभातका रङ्ग जब पीत घवल हो जावेगा. रक्ताशोक-किंशुक
'तएणं से पएसी गया' इत्यादि।
सूत्रार्थ-'तएणं से पएसी राया केसिं कुमारसमणं एवं वयासी ॥१५७॥ त्या२ ५छी प्रशी ये शोभा२ श्रमाने २॥ प्रभाएंगे ४थु 'एव खलु भंते! मम एयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था' B RE ! मेवो माध्यात्म यावत् ४८५ 64-1 थयो. "एव खलु अहं देवाणुप्पियाण वामं वामेण जाव वट्टिए तं सेयं खलु मे कनल पाउप्पभाया ए रयणीए फुल्लुप्पलकमलकोमलुम्मिलियम्मि अहापांडुरे पभाए रतासोकिंसुयसुयमुहगुजद्धरागसरिसे कमलागार नलिणिसंडबोह ए" में आप पानुप्रियता साथे प्रति॥३५थी यावत् વ્યવહાર કર્યો છે. તેથી મારા માટે એજ વાત શ્રેયસ્કર છે કે હું આવતી કાલે જયારે રાત્રિ પ્રભાત યુકત થઈ જશે, એટલે કે રાત્રિ પૂરી થઈ જશે, અને કમળ તથા હરિણ વિશેષના નેત્રે વિકસિત થઈ જશે, એટલે કે કમળ જ્યારે વિકસિત થઈ જશે અને હરિણ વિશેષની આંખે નિદ્રા ત્યાગ કર્યા બાદ ઉઘડી જશે તેમજ પ્રભાતને રંગ જયારે પતિ ધવલ (પીળા અને સફેદ) થઈ જશે, રકતાશક, કિંશુકે
श्रीशराप्रश्नीय सूत्र:०२
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सुबोधिनी टीका सू. १५७ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशोराजवर्णनम् ३४७ त्वा नमस्यित्वा एतमर्थ भूयो भूयः सम्यग् विनयेन क्षामयितुम्, इति कृत्वा यामेव दिशं प्रादुर्भूतः, तामेव दिशं प्रतिगतः ।
ततःखलु स प्रदेशी राजा कल्य प्रादुष्प्रभातायां रजन्यां यावत् तेजसा ज्वलति हृष्टतुष्ट यावद् हृदयः यथैव कूणिकः तथैव निर्गच्छति अन्तःपुरपरिपलाश-शुकमुख एवं-गुजा-रत्ती के अघस्तन का अर्घभाग जैसा लाल. तथा-सरोवरों में कमलिनी कुल का विकाशक, "उद्रियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलंते-" ऐसा सहस्रकिरणोंवाला एवं-दिनकर्ता सूर्य जब अपने तेज से प्रज्वलित होता हुवा आकाश में उदित हो जावेगा, तब-"अते उर परियालसद्धिं संपरिवुडे देवाणुप्पिए वंदित्तए नमंसित्तए एयमटुं भुज्जो-२ सम्मं विणएणं-खामित्तए त्ति कटु जामेव दिसिं पाउब्भूए. तामेव दिसिं पडिगए" मैं अन्तःपुर परिवार से युक्त होकर आप देवानुग्रिय की वन्दना-नमस्कार औरपूर्वोक्त अपराध रूप अर्थ को विनय के साथ प्रशस्त नम्र भावसे बार-२ क्षमापना के लिये आऊंगा. इस प्रकार केशी स्वामी से निवेदन कर वह जिस दिशा से आया था-उसी दिशा की ओर चला गया. “तएणं से पएसी राया कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव तेयसा जलंते-" इसके बाद दूसरे दिन जब रजनी रात्री प्रभातप्राय समाप्त हो चुकी और-प्रभात हो गया यावत् सूर्य अपने तेज से देदीप्यमान हो उठा-तब वह-"हट्ट तुट्ठ जाव हियए जहेव कूणिए तहेव निग्गच्छ:-" हृष्टतुष्ट यावत् हृदयवाला होकर कूणिक नरेश की तरह अपने स्थान से निकला પલાશ, શુકમુખ અને ગુંજાના નીચેના અર્ધા ભાગ જેવો લાલ તેમજ સરોવરમાં કમલીની કલને वीनाश 'उद्वियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलंते" सेवा सहस्त्र કીરણવાળો અને દીનí સૂર્ય જયારે પિતાના તેજથી પ્રજવલીત થતો આકાશમાં
ध्य पाभशे, त्यारे अंतेउरपरियालसद्धिं संपरिखुडे देवाणुप्पिए व दित्तए नम सित्तए एयमट्ठ भुज्जो २ सम्म विणएण' खामित्तए ति कठु जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव दिसिं पडिगए" त्यारे अत:५२ परिवारनी साथ मा५ देपानुપ્રિયને વંદન અને નમસ્કાર કરવા માટે અને પૂર્વોકત અપરાધરૂપ અર્થને સવિનય પ્રશસ્ત નમ્ર ભાવથી વારંવાર ક્ષમાપના માટે આવીશ. આ પ્રમાણે કેશીકુમારને વિનંતી કરીને તે જે દિશા તરફથી આવ્યું હતું તેજ દિશા તરફ જતો રહ્યો. "तएण से पएसी राया कल्ल पाउप्पभायाए रयणीए जाव तेयसा जलते" ત્યાર પછી બીજા દિવસે જ્યારે રાત્રિ પૂરી થઈ અને પ્રભાત થયું યાવતુ સૂર્ય પિતાના तेथी प्रशित 45 गया. त्यारे ते "हट्टतुट्ठ जाव हियए जहेव कूणिए तहेव निग्गच्छई" हट तुष्ट यावत् स्याण यन यु िरानी भ पाताना स्थानथी
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राजप्रनीयसूत्रे
वारैः सार्द्ध संपरिवृतः पञ्चविधेन अभिगमेन वन्दते नमस्यति, एतमर्थ भूयोभूयः सम्यग् विनयेन क्षामयति ॥ सू० १५७ ॥
टीका - "तए णं पएसी राया" इत्यादि - ततः खलु स प्रदेशी राजा केशिनं कुमारश्रमणम्, एवमवादात् - हे भदन्त ! एवं खलु मम एतद्रूप :- अनुपदं वक्ष्यमाणस्वरूपः आध्यात्मिकः - आत्मगतः क्षमापनारूपोर्थोङ्कुर इव, यावत् यावत्पदेन "चिन्तितः, कल्पितः प्रार्थितः, मनोगतः संकल्पः' इत्येषां पदानां सङ्ग्र हो बोध्यः, तत्र "अंतेउर परियालसद्धि संपरिवुडे पंचविहेणं अभिगमेण व दइ-नमंसइ" निकल ते ही वह अन्तःपुर परिवार से परिवेष्टित हो गया इस तरह से प्रदेशी राजाने पांच प्रकारके अभिगम से केशीकुमार श्रमण की बन्दनाकी उनकी स्तुति की. " एयमहं भुज्जो भुज्जो सम्मं विणएणं खामेइ - " स्तुति नमस्कार करके फिर उसने अपने प्रतिकूल आचरण से जनित अपराध की बार- २ अच्छी तरह से विनम्र भावसे युक्त हो कर क्षमा कराई, अर्थात् क्षमा मांगी
टीकार्थ — प्रदेशी राजाने केशीकुमारश्रमण से इस प्रकार कहा- हे भदन्त ! अब मुझे इस प्रकार का यह आध्यात्मिक विचार उत्पन्न हुवा. कि- मैं अपने प्रतिकूल आचरण से जनित अपराध की आप से बार-बार क्षमा करावे, ग्रहविचार आत्मगत होने से पहले तो अङ्कुर की तरह उत्पन्न हुवा. अतः - - उसे आध्यात्मिक रूपसे प्रकट किया गया है. बाद में यावत् पदसे चिन्तितः कल्पितः - प्रार्थितः- मनोगतः इन विशेषणों वाला हुवा है कि वह विचार स्मरणरूप बन नीज्येा. “अते उरपरियालसाड संपरिवुडे पंचविहेण अभिगमेण वदइनमसइ " नीउजतां ते पोताना अंतःपुर परिवारथी वीटा गया. આ પ્રમાણે તૈયાર થયેલા પ્રદેશી રાજાએ કેશી કુમારશ્રમણની પાસે જઇને પાંચ પ્રકારના અભિગમથી કેશી કુમારશ્રમણની વન્દના કરી તેમની સ્તુતિ કરી, નમસ્કાર કર્યાં. " एयमट्ठ भुज्जो २ सम्म बिणएण खामेई" स्तुति तेभन नमस्सार रीने च्छी તેણે પેાતાના પ્રતિકૂળ આચરણથી થયેલ અપરાધની વારંવાર સારી રીતે વિનમ્ર ભાવથી યુકત થઈને ક્ષમા માંગી.
ટીકા”—પ્રદેશી રાજાએ કેશીકુમારશ્રમણને આ પ્રમાણે કહ્યું-હે ભદ ંત! હવે મને આ જાતના આધ્યાત્મિક વિચાર ઉત્પન્ન થયા છે કે હું મારા પ્રતિકૂળ આચરથી થયેલ અપરાધ ખદલ આપશ્રી પાસેથી વારવાર ક્ષમા માંગું. આ વિચાર આત્મગત હાંવાથી પહેલાં તે અંકુરની જેમ ઉત્પન્ન થયા. એથી તેને આધ્યાત્મિક રૂપે પ્રકટ કરવામાં આન્યા છે. त्यार पछी यावत् पहथी " चिन्तितः, कल्पितः, प्रार्थितः मनोगतः', या विशेषोथी युक्त थयो छे, विचारने ने चिंतित चहथी
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सुबोधिनी टीका सू. १५७ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशोराजवर्णनम् ३४९ चिन्तितः-पुनः पुनः स्मरणरूपो विचारो द्विपत्रित इव, ततः कल्पितः स एव व्यवस्थायुक्तः 'क्षामयेयम्' इति परिणमो विचारः पल्लवित इच, स एव प्रार्थितःइष्टरूपेण स्वीकृतः पुष्पित इव, मनोगतः मससि दृढरूपेण निश्चयः “इ थमेव मया कर्तव्यम्' इति विचारः फलित इव समुदपद्यत-समुत्पन्नः-एवं खलु अहं देवानुप्रियाणां-भवतां वामवामेन यावत्-यावत्पदेन "दण्डदण्डेन प्रतिकूलपतिकूलेन प्रतिलोम प्रतिलोमेनविपर्यासविपर्यासेन' इत्येषां सङ्ग्रहो बोध्यः, एषां व्याख् । पूर्व गता, वर्तितः-प्रवृत्तः तत्-तस्मात्कारणात् मे मम श्रे:-प्रशस्तं यत् गया. अर्थात्-मुझे अपने अपराध की आपसे क्षमा कराना है. ऐसी स्मृति मुझे बार-बार आने लगी. इसलिये-यह विचार द्विपत्रित अङ्कुर की तरह प्रथम अवस्था की अपेक्षा कुछ विशेष पुष्ट होने से चिन्तित प्रकट किया गया है। तथा वही विचार जब व्यवस्थायुक्त हो गया. कि मुझे अवश्य ही इस रूपसे क्षमा कराना है तो द्वितीय अवस्थाकी अपेक्षा और अधिक पुष्ट हो जाने के कारण यह पल्लवित हुवे अङ्कर की तरह कल्पित पद से विशेषित किया गया है. तथा जब वही विचार इष्ट रूप से स्वीकृत कर लिया गया. तो वह पुष्पित हुवे अङ्कुर की तरह हो गया. और जब वही विचार मनमें दृढ रूपसे निश्चय की स्थिति में परिणत हो गया के ऐसा ही मुझे करना है. तो फलित हुवे अङ्कुर की तरह वह हो गया. क्या विचार उत्पन्न हुवा इसी बात को वह अब प्रकट करता है कि हे भदन्त-! मैंने आप देवानुप्रिय के साथ बहुत अधिक प्रतिकूलरूपसे. यावत् दण्ड दण्डरूपसे. अतिशय प्रतिकूलरूपसे व्यवहार किया है. વિશેષિત કરવામાં આવ્યું છે. તેનું કારણ આ છે કે તે વિચાર મરણરૂપ થઈ ગયે હતે. એટલે કે મને મારા અપરાધની આપશ્રીના પાસેથી ક્ષમા કરાવવી છે, એવી સ્મૃતિ વારંવાર આવવા લાગી, એથી આ વિચાર દ્ધિ પત્રિત અંકુરની જેમ પ્રથમ અવસ્થા કરતાં કંઈક વિશેષ પુષ્ટ હોવાથી ચિંતિત રૂપમાં પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે. તથા તેજ વિચાર જયારે વ્યવસ્થાયુકત થઈ ગયું કે મારે ચોક્કસ આવિને ક્ષમા યાચના કરવી છે તે દ્વિતીય અવસ્થા કરતાં વધારે તે વિચાર પુષ્ટ થઈ જવાથી એ પલ્લવિત થયેલા અંકુરની જેમ કર્ષિત પદથી વિશેષિત કરવામાં આવ્યો છે. તેમજ જ્યારે તે જ વિચાર ઈષ્ટ રૂપથી સ્વીકૃત થઈ ગયા છે તે પુષિત થયેલ અંકુરની જેમ થઈ ગયે અને જ્યારે તે વિચાર મનમાં દદરૂપથી નિશ્ચયની સ્થિતિમાં પરિણત થઈ ગયો કે એવું જ મારે કરવું છે તે ફલિત થયેલ અંકુરની જેમ તે થઈ ગયા. શે વિચાર ઉત્પન્ન થયે? એજ વાતને હવે સ્પષ્ટ કરતાં કહે છે કે-હે ભદંત! આપી દેવાનુપ્રિયની સાથે બહુજ પ્રતીકૂળ રૂપથી યાવત દંડ દંડ રૂપથી-અતિશય પ્રતિકૂળરૂપથી અતિશય પ્રતિલેમરૂપથી અને અતિશય વિપરીત રૂપથી વ્યવહાર કર્યો છે, એથી મારા
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राजप्रश्नीयसूत्रे कल्य-श्वः प्रादुष्प्रभातायां प्रकाशप्रकाशितायाम्, रजन्यां रात्रौ फुल्लोत्पलकमलकामलोन्मीलिते-फुल्लं विकसितं यद् उत्पलं-कमलं, तच्च करलं च हरिणविशेषश्चेति फुल्लोत्पलकमलौ, तयोर्यत् कोमलं मृदु उम्मीलनं तत्र फुल्लोत्पलपत्राणां विकसनं हरिणनयनयोः शयनानन्तरं पुटमोचनम् च यस्मिन् तत् फुल्लोत्पलकमलकामलोन्मीलितं तस्मिन्, अथ प्रभातानन्तरम् आ-समन्तात् पाण्डुरे पीतधवले प्रभाते प्रातःकाले रक्ताशोककिंशुक शुकमुख गुजार्द्धरागसदृशे तत्र रक्तांशोकः रक्तवर्णों शोकः, त्रिशुकः पलाशः, शुकमुखं, गुजार्द्धरागः गुजायाअधम्तनार्द्धस्य रागः, एतै. रक्तवर्णैः सदृशे तुल्ये, अस्य "सूरे” इति परेण सम्बन्धः, एवमग्रेतनानामपि, कमलाकरनलिनीषण्डबोधके सरोवरगतकमलिनीकुलविकाशके सूरे सूर्ये उत्थिते इसलिये मेरा कल्याण अब इसी मे है कि मैं दूसरे दिन जबकि रात्रि प्रभात के रूप में परिणत हो जावे. अर्थात्-प्रातःकाल हो जाय और इसमें कमल उत्पल एवं हरिण विशेष की आंखें निद्राविगम के बाद प्रफुल्लित हो जाय कमल विकसित हो जाय एवं-हरिणों के नेत्र अच्छी तरह से खुल जाय तथा वह प्रभात समन्तात पीत धवल प्रकाशवाला हो जावे, एवं सहस्रकिरणों से सम्पन्न तथा दिवस विधायक सूर्य जो कि कमलाकर सरोवर में नलिनी कुलकाबोधक विकाश करनेवाला होता है जब रक्ताशोक किशुक शुकमुख और गुजार्ध गुंजा के सदृश उदित हो जावे तथा उसका प्रकाश अच्छी तरह से फैल जावें तब मैं अन्तःपुर परिजनों से परिवृत होकर आप देवानुप्रिय, की वन्दना के लिये नमस्कार के लिये आऊ और अपने पूर्वोक्त अपराधरूप अर्थकी आपसे बार २ विनम्र भाव युक्त हो कर क्षमा मांगू, इस प्रकार से वह प्रदेशी राजा केशीश्रमणकुमार के प्रति निवेदन कर अपने स्थान पर गया.। दूसरे दिन जब पूर्वोक्तरूप से प्रभात માટે હવે એજ શ્રેયકર છે કે હું આવતી કાલે જ્યારે રાત્રે પ્રભાતમાં પરિણત થઈ જાય એટલે કે સવાર થઈ જાય, કૅમળ ઉત્પલ અને હરિણ વિશેની આંખે નિદ્રા રહિત થઈને પ્રકુલિત થઈ જાય. કમળ વિકસિત થઈ જાય અને હરિના નેત્રો સારી રીતે ઉઘડી જાય તથા પ્રભાત સમંતાતુ પીતધવલ પ્રકાશયુક્ત થઈ જાય અને સહસ્ત્ર કિરણેથી સંપન્ન તેમજ દિવસ વિધાયક સૂર્ય કે જે કમલાકર સરોવર માં નલિની કુલને વિકસિત કરનાર છે. રકતાશક, કિંશુઠ, શુક મુખ અને મુંજાની સદશ તે ઉદિત થઈ જાય તેમજ તેને પ્રકાશ સારી રીતે પ્રસરી જાય, ત્યારે હું અંતઃપુર પરિજનોથી પરીવૃત્ત થઈને આપ દેવાનુપ્રિયને વંદન તેમજ નમસ્કાર કરવા માટે અહીં આવું. અને પૂર્વોક્ત અપરાધ બદલ આપશ્રી પાસેથી વિનમ્ર થઈને વારંવાર ક્ષમા યાચના કરૂં. આ પ્રમાણે તે પ્રદેશ રાજા કેશીકુમારશ્રમણને વિનંતી કરીને સ્વસ્થાને ગો. બીજા દિવસે જયારે પૂર્વોક્તરૂપથી પ્રભાત પૂર્ણરૂપે વિકસિત થઈ ગયું ત્યારે તે
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सुबोधिनी टीका सू. १५७ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशी राजवर्णनम्
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उदिते सति, पुनः कीदृशे तस्मिन ? सहस्ररश्मौ - किरणसहस्रसम्पन्ने दिनकरेदिवसकरणशीले तेजसा - दीप्त्या ज्वलति - देदीप्यमाने सति, अन्तःपुरपरिवारैः राज्ञी परिवारैः संपरिवृतः - युक्तः सन् अहं देवानुप्रियान् वन्दितुं नमस्यितुम्, एतमर्थ - पूर्वोक्तापराधरूपमथ भूयोभूयः पुनः पुनः सम्यम् विनयेन - प्रशस्तनम्रभावेन क्षामयितुम् । इतिकृत्वा-केशिस्वामिने इति निवेद्य यामेव दिशं समाश्रित्य प्रादुर्भूतः तामेव दिशं प्रतिगतः ।
-
परम
ततः खलुस प्रदेशी राजा कल्यं श्वः प्रादुष्प्रभाताया रजन्यां यावत्यावत्पदेन अनन्तरप्रोक्तोरितनपदानां फुल्लोत्पलादीनां सङ्ग्रहो बोध्यः, तदर्थश्व तत्रैव ज्ञेयः । तेजसा ज्वलति हृष्टतुष्ट यावत् - यावत्पदेन चित्तानन्दितः, सौम स्थितः, हर्षवश विसर्पद्धद : इत्येतत्पदस हो बोध्यः । यथा येन प्रकारेण कृणिकः - तन्नामा श्रेणिकराजपुत्र औपपातिकसूत्रे वर्णितो निर्गतः तथैव तेनैव प्रकारेण निर्गच्छति - स्वभवनान्निःसरति, तन्निर्गमनवर्णनमौपपातिकसूत्रतो बोध्यमिति तात्पर्यम् । निर्गत्य अन्तःपुरपरिवारैः संपरिवृतः - वेष्टितः पञ्चविधेनपञ्चप्रकारेण स्वचितानां द्रव्याणां व्युत्सर्जनेन १, अचित्तानां द्रव्याणामव्युत्सर्जनेन २, काल का सूर्य उदित हो गया. तब वह हृष्टतुष्ट यावत् चित्तानन्दित हुवा. परमसौमति हुवा हर्षवश विसर्पत् हृदयवाला (पत्म आनंदयुक्त हुवा) औपपातिकसूत्र में वर्णित श्रेणिक राजपुत्र कूणिक नरेशकी तरह अपने भवन से निकला. कूणिक नरेश के निकने का वर्णन औपपातिक सूत्र में किया गया है। निकलते ही वह अन्तःपुर परिवार जनों से परिवेष्टित कर लिया गया. और पांच प्रकार के अभिगम से युक्त हो कर वह प्रदेशी राजा केशीकुमारश्रमणकी वन्दना आदि करने के लिये चल दिया. वहां पहुंचकर उसने उनका वन्दना की नमस्कार किया. और स्वकृते तिकूल आचरणजनित अपराध की बड़े विनम्रभावयुक्त होकर क्षमा मांगी. | पांच प्रकार के अभिगम इस प्रकारसे ? सचित्तद्रव्यों का परित्यागकर
હું તુષ્ટ્ર યાવત્ ચિત્તાન'દિત થયા, પરમસૌમનાસ્મિત થયા, હર્ષી વિસત હૃદયવાળા થયા. ઔપપાતિકસૂત્રમાં વર્ણિત શ્રેણિક રાજપુત્ર કૂણિક નરેશની જેમ પેાતાના ભવનથી તે નીકળ્યા. કૂણિક નરેશના નીકળવાનુ વર્ણન ઔપપાતિક સૂત્રમાં કરવામાં આવ્યુ છે. અહાર નીકળતાં જ તે અન્ત:પુર પરિવાર જનાથી વીટળાઇ ગયા-ઘેરાઇ ગયા અને પાંચ પ્રકારના અભિગમથી યુકત થઈને તે પ્રદેશી રાજા કેશી કુમારશ્રમણની વંદના વગેરે કરવામાં માટે નીકળી પડયા. ત્યાં પહોંચીને તેણે તેમને વંદન અને નમસ્કાર કર્યાં અને વકૃત પ્રતિકૂળ આચરણજ જનિત અપરાધા બદલ તેણે વિનમ્રભાવ ચુકત થઇને ક્ષમા માંગી. પાંચ પ્રકારના અભિગમ આ પ્રમાણે છે. ૧, સચિત્ત દ્રવ્યાના
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राजप्रश्नीयसूत्रे एकशाटिकोत्तरासङ्गकरणेन३, चक्षुःस्पर्श अजलिकरणेन४, मनस एकत्वकरणेन५, चेत्येव रूपेण अभिगमेन-विनयविधिविशेषेण, वन्दते-स्तौति. नमस्यति-नमस्करोति वन्दित्वा नमस्यित्वा च एतमर्थ-प्रतिकूलाचरणजनितापराधरूपं भूयोभूयः-वारवारम् सम्यग् विनयेन-प्रशस्ततरविनम्रभावेन क्षामयति-क्षमां कारयति । ॥स.१५७।।
___ मूलम्-तए णं केसी कुमारसमणे पएसिस्स रणो सूरिकतप्पमुहाणं देवीणं तोसे य महइमहालयाए परिसाए चाउज्जामं धम्म परिकहेइ । तए णं से पएसी राया धम्म सोच्चा निसम्म उटाए उठेइ केसिकुमारसमणं वंदइ नमसइ जेणेव सेयविया नयरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए ॥ सू० १५८ ।।
छाया-ततः खलु केशी कुमारश्रमणः प्रदेशिनो राज्ञः सूर्यकान्ता-पमुखानां देवीनां तस्यां च महाऽतिमहालपायां परिषदि चातुर्याम धर्म परिकथयति । ततः खलु स प्रदेशी राजा धर्म ध्रुत्वा निशम्य उत्थया उत्तिष्ठति केशिकुमारश्रमणं वन्दते नमस्यति यत्रैव श्वेतविका नगरी तत्रैव प्राधारयद् गमनाय ॥स.१५८॥ देना, ण अचित्त द्रव्यों का पदित्याग नहीं करना, २ एक शाटिका उत्तरायङ्ग करना-विना सीये वस्त्रसे उत्तरासग करना, है-देखते ही हाथ जोड लेना, और-५. मनकी एकाग्रता करना. ॥सू. १५७॥
सूत्र-“तए ण केसीकुमारसमणे-' इत्यादि-॥१५८॥ __मूलार्थ-"तएण" इसकेबाद “केसीकुमारसमणे" केशीकुमारश्रमणने “पए. सिम्स रणोसू रिकंतप्पमुहाणं देवीणं तीसेय. महइ महालयाए परिसाए-" प्रदेशी राजा के समक्ष एवं उसकी सूर्यकान्ता आदि प्रमुख गवियां के समक्ष उस विशाल परिषदा में "चाउज्जाम धम्म” अहिंसा-सत्य-अस्तेय, एवं-अपरिग्रह रूप चातुर्याम धर्मका उपदेय दिया. "तएण से पएसी राया धम्म सोच्चा પરિત્યાગ કરે, ૨, અચિત્ત દ્રવ્યોને પરિત્યાગ નહિ કર, ૩ એક શાટિકા ઉત્તરાસડગ કરે, ૪ વગર સીવેલા વસ્ત્ર થી ઉત્તરાસડગ કર. જેતાની સાથે જ હાથ જોડી લેવા અને ૫, મનની એકાગ્રતા કરવી છે સૂ. ૧૫૭ છે
सूत्रार्थ -"तए ण केसीकुमारसमणे इन्यादि"
भूसा -"त एण" त्या२ पछी "केसी कुमारसमणे" अशी सुमार श्रम "पएसिस्स रणो सूरिकप्प मुहाण देवीण तीसेय महइ महाकयाए परिसाए" પ્રદેશી રાજાની સામે તેમજ તેની સૂર્યકાન્તા વગેરે પ્રમુખ રાણુઓની સામે તે विशा परिषदामा 'चाउज्जाम धम्म" मासा, सत्य, अस्तेय भने म परिया३५ यातुर्याम धर्मनेG५श आध्येो. "तएण से पएसी राया धम्म सोचा निसम्म
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सुबोधिनी टीका सू. १५८ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशोराजवर्णनम् ३५३
टीका-"तए णं केशिकुमारसमणे" इत्यादि-ततः खलु केशिकुमारश्रमणः प्रदेशिनो राज्ञः सूर्य कान्ता प्रमुखानां देवीनां तस्यां तत्र स्थितायां च महाऽतिमहालयायाम् अतिबृहत्याम्, परिषदि चातुर्यामम्-अहिंसा-सत्या ऽस्त्येयाऽपरिग्रहैर्विभक्त चतुर्महाव्रतरुषं धर्म परिकथयति-प्ररूपयति । उपलक्षणाद् द्वादशविधं गृहिधर्म परिकथयति ततः खलु स प्रदेशी राजा धर्मम् अनगारागारधर्म ध्रुत्वा सामान्यतः श्रवणगोचरं कृत्वा निशम्य-विशेषतो हृद्यवधार्य उत्थया-उत्थानप्रयासेन उत्तिष्ठति, उन्याय केशिकुमारश्रमण वन्दते-स्तौति, नमस्यति-नम: स्करोति, वन्दित्वा नमस्थित्वा च यत्रैव श्वेतांबिका नगरी तत्रैव गमनाय आधारयत्-निश्चितबात । ॥सू. १५८ ॥
मूलम्-तएणं केसी कुमारसमणे पएसिराय एवं क्यासी-मा णं तुमं पएसी! पुब्बि रमणिज्जे भवित्ता पच्छा अरमणिज्जे भविजासि, जहा से वणसंडेइ वा णट्टसालाइ वा इक्खुवाडएइ वा खलवाडएइ वा । कहं णं भंते ! वणसंडे पुर्दिव रमणिज्जे भवित्ता पच्छा अरमणिजे भवइ ? पएसी ! जहा णं वणसंडे पत्तिए निसम्म उठाए उठेइ-" इसके बाद प्रदेशी राआ धर्म सुन कर और उसे हृदय में धारणकर अपने आप वहां से उठा-"केसीकुमारसमणं वंदइ नमसइ-” उठकर उसने केशीकुमार श्रमण की वन्दना की उन्हें नमस्कार किया. "जेणेव सेयंविया नयरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए-' वन्दना नमस्कार कर फिर वह अपनी नगरी की ओर चलदिया। टीकार्थ-स्पष्ट है-केशीकुमारश्रमणने चातुर्याम धर्म के उपदेश और-साथ-साथ १२ प्रकाररूप गृहस्थ धर्म का भी उपदेश दिया. ऐसा कथन उपलक्षण से जान लेना चाहिये ॥ सू. १५८ ॥ उद्याए उठेइ" त्या२ ५४ी प्रदेशी २in 4 सामान भने तेने यमा पा२९ ४शन पोतानी भेणे ४ त्यांथी लो थयो. "केसीकुमारसमण वंदइ नमसइ SHI धन तेथे अशी उभा२श्रमानी ना री तेमने नम२४१२ या. “जेणेव सेय विया नयरी तेत्रैब पहात्रेथ गमणाए" वह तमा नभ॥२ शन पछी તે પિતાની નગરી તરફ રવાના થઈ ગયે.
ટીકાર્થ–સ્પષ્ટ છેકેશકુમારશ્રમણે ચાતુર્યામ ધર્મને ઉપદેશ અને તેની સાથે સાથે ૧૨ પ્રકારરૂપ ગૃહિધર્મને પણ ઉપદેશ આવ્યું હતું, એવું કથન ઉપલક્ષણથી ore सन्नध्ये. ॥ सू. १५८ ।।
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राजप्रश्नीयसूत्रे पुफिए फलिए हरिए हरियगरेरिजमाणे सिरीए अईव उवसोभेमाणे चिटइ, तया णं वणसंडे रमणिजे भवइ, जया णं वणसडे नो पत्तिए नो पुरिफए नो फलिए नो हरिए नो हरियगरेरिजमाणे णो सिरीए अईव उवसोमेमाणे चिटइ जया णं जुन्ने झडे परिसडियपंड्डपत्ते सुक्रुक्खे इव मिलायमाणे चिट्टइ तयाणं वणसंडे अरमणिज्जे भवइ १। जया णं णटुसाला वि गिज्जइ वाइज्जइ नच्चिजइ हासज्जइ रमिजइ तयाणं णसाला रमणिज्जा भवइ, जया णं नदृसाला णो गिजइ जाव णो रमिज्जइ, तया णं णसाला अरमणिजा भवइ २ । जया णं इक्खुवाडे छिज्जइ भिज्जइ पीलिजइ खज्जइ पिज्जइ दिजइ तया गं इक्खुवाडे रमणि जे भवइ, जया णं इक्खुवाडे णो छिज्जइ जाव तया इक्खुवाडे अरमणिज्जे भवइ ३, जयाणं खलवाडे उच्छ्रब्भइ मलिज्जइ खज्जइ दिज्जइ तया णं खलवाड' रमणिज्जे भवइ, जयाणं खलवाडे नो इच्छुब्भइ जाव अरमणिज्जे भवइ ४ । से तेण?णं पएसी! एवं वुच्चइ मा गं तुम पएसी! पुटिव रमणिज्जे भवित्ता पच्छा अरमणिज्जे भविजासि जहा वणसंडेइ वा जाव खलवाडइ वा ॥ सू०१५९॥
छाया-ततः खलु केशिकुमारश्रमणः प्रदेशिराजमेवमवादीत-मा खलु त्वं प्रदेशिन ! पूर्व रमणीयो भूत्वा पश्चाद् अरमणीयो भवेः, यथा स वनषण्ड इति
"तए णं केसीकुमारसमणे-" इत्यादि-॥ सू. १५९ ॥
मूलार्थ-"तए णं-" इसके बाद "केसी कुमारसमणे-" केशी कुमारश्रमणने पएसी रायं एवं वयासी-" प्रदेशी राजा से ऐसा कहा-“मा णं तुमं पएसी ?
सूत्रार्थ-"तए ण केसीकुमारसमणे' इत्यादि ॥ सू..१५९ ॥
भूसाथ-"तएण" त्यार पछी "केसीकुमारसमणे" अशी कुमार श्रभो "पएसी राय एवं वयासी" प्रदेशी ने मा प्रभारी ४-"मा ण तुमपएसी ! पुच्चि
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सुबोधिनी टीका सू. १५९ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशोराजवर्णनम्
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वा नाटयशाला इति वा इक्षुवाटकम् इति वा खलवाटकम् इति वा कथं खलु भदन्द ! वनषण्डः पूर्व रमणीयो भूत्वा पश्चाद् अरमणीयो भवति ? । प्रदेशिन् ! यथा खलु वनषण्डः । पत्रितः पुष्पितः फलितः हरितः हरितकराराज्यमानः श्रिया अतीव उपशोभमानः तिष्ठति, तदा खलु वनषण्डो रमणीयो भवति, यदा खलु पुचि रमणीए भवित्ता पच्छा-अरमणिज्जे भविज्जासि-" हे प्रदेशिन्-! तुम पहले रमणीय होकर बाद में अरमणीय मत बनना. अर्थात्-धार्मिक होकर अधार्मिक मत बन जाना “जहा से वणसंडेइवा-णसालाइवा-इक्खुवाडएइवाखलवाडएइ वा-" जैसे पूर्व में रमणीय होकर वनषण्ड अरमणीय बन जाता है, अथवा नाटयशाला, या इक्षु पीडन स्थान या-खलवाटक पूर्व में रमणीय होकर अरमणीय बनजाते हैं. अब प्रदेशी पूछता है-"कहं णं भंते ? वणसंडे पुचि रमणिज्जे भवित्ता पच्छा अरमणिज्जे भवइ-" हे भदन्त ? वनषण्ड पूर्व में रमणीय होकर बाद में अरमणीय किस प्रकार से हो जाता है-३ "उत्तर में प्रभु कहते हैं-"पएसी जहा णं वणसंडे पत्तिए-पुष्फिए-फलिए हरियगरेरिज्जमाणे सिरीए अईव उवसोभेमाणे-तयाणं वणसंडे रमणिज्जे भवइ-" हे प्रदेशिन् ? वनषण्ड जब पत्रों से युक्त होता है-पुष्प सम्पन्न होता है-फलित फलों से सहित होता है, हरियाली से युक्त होता है. हरे हरे पत्ते आदि से अतिशय सुहावना होता है तब वनषण्ड अपनी शाभासे सुशोभित होता हुवा रमणीय होता है, रमणीए भवित्ता पच्छा अरमणिज्जे भविज्जासि" हे प्रशिन् ! तमे पडला २भણીય થઈને પછી અરમણીય બનશે નહિ, એટલે કે ધાર્મિક થઈને અધાર્મિક બનશો नड, “जहा से वणस डेइ वा पट्टसरलाइवा इवखुवाडएइवा खल वाडइबा" भ पाहता રમણીય થઈને વનખંડ પછી અરમણીય થઈ જાય છે. અથવા નાટયશાળા કે ઈશુપીડનસ્થાન કે ઇક્ષનાટક પહેલા રમણીય થઈને પછી અરમણીય થઈ જાય છે. હવે प्रदेशी प्रश्न ४२ छ. "कहणं भंते ! वणसंडे पुबि रमणिल्जे भवित्ता पच्छा अरमणिज्जे भवई" लत! वन' पडसा २मणीय थने पछी २५२माय ४४ शत थ य के 3, उत्तरमा ४ छ “पएसी जहाणं वणसंडे पत्तिए पुष्फिए फलिए हरिए हरियगरेरिज्जमाणे सिरीए अईव उसोभेमाणे तयाण वणसंडे रमणिज्जे भव" उ प्रशिन वन न्यारे पत्राथी युत डाय छ, पु०५ સંપન્ન હોય છે, ફળ યુકત હોય છે. હરીતિમાથી યુક્ત હોય છે તેમજ લીલા પાંદડાઓ વગેરેથી આ અતિશય સેહામણું હોય છે, ત્યારે તે વનખંડ પિતાની ભાથી સુશોભિત થતે રમણીય હોય છે. એટલે કે આ પ્રમાણે વનખંડ રમણીય કહેવાય છે.
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राजप्रश्नीयसूत्रे वनषण्डा नो पत्रितो नो पुष्पितो नो फलितो नो हरितः नो हरितकराराज्यमाना नो श्रिया अतीव उपशोभमानः तिष्ठति, यदा खलु जीर्णः शन्नः परिशटित पाण्डुपत्रः शुष्कवृक्ष इव म्लायन् तिष्ठति तदा खलु वनषण्डो नो खलु रमणीयो भवति ।
यदा खलु नाटयशालाऽपि गीयते वाद्यते नय॑ते हस्यते रम्यते तदा खलु नाटयशाला रमणीया भवति, यदा खलु नाटयशाला नो गीयते यावत् नो रम्यते तदा खलु नाटयशाला अरमणीया भवति । अर्थात-इस प्रकार से वनषण्ड रमणीय कहा जाता है. जयाणं वणसंडे ना पत्तिए-नो पुष्फिए-ना फलिए नो हरिए-नो हरियगरेरिज्जमाणे, णा सिरीए अईव उव सोममाणे चिट्ठइ-परन्तु-जब वही वनषण्ड पत्रित (पत्रवाला) नहीं रहता है. पुष्पित (पुष्पवाला) नहीं रहता है-फलित नहीं रहता है-हरा नहीं रहता है, एवं-हरे २ पत्तों आदिसे अतिशय सुहावना नहीं रहता है, तब अपनी शोभा से रहित हो जाता है, तथा-"जयाणं जुन्ने झड़े पडिसडियपंडुपत्ते सुक्करुवखे इव मिलायमाणे चिट्ठइ-'" जब वही वन जीर्ण पत्रादिकों से रहित हो जाता है, पत्ते आदि सब जब झर जाते हैं, विकृत पाण्डुवर्णवाले पत्र जब उसमें हो जाते हैं, तथा-शुष्क वृक्ष की तरह जब वह म्लान हो जाता है. "तयाण वणसंडे अरमणिज्जे भवई-" तब वह वनखण्ड अरमणीय बन जाता है-? “जयाणं णसाला विगिज्जइ-वाइज्जइ-नच्चिज्जइ-हसिज्जइ रमिज्जइतयाणं णट्टसाला रमणिज्जा भवइ-' इसी तरहसे-हे प्रदेशिन् ? जब तक नाटय शाला गानयुक्त होती रहती है, वादित्रों की ध्वनि से वाचालित होती है, "जया णं वणसंडे नो पत्तिए-न' पुफिए-नो फलिए नो हरिए-नो हरियगरेरिजमाणे, णो सिरीए अईव उवसोभमाणे चिट्टई" પણ તેજ વનખંડ જ્યારે પત્રિત રહેતું નથી, પુષિત રહેતું નથી, ફલિત રહેતું નથી, લીલું રહેતું નથી અને લીલા લીલા પાંદડાઓ વગેરેથી અતિશય શોભાયમાન રહેતું નથી ત્યારે તે પિતાની ભાથી રહિત થઈ જાય છે તથા "जया णं जुन्ने झडे पडिसडियपंडुपत्ते सुक्करक्खे इस मिलायमाणे चिटई" જ્યારે તે વન જીર્ણપત્રાદિકથી યુકત થઈ જાય છે, પાંદડાઓ વગેરે બધા ખરી પડે પડે છે, તેમાં પાંદડાઓ વિકૃત તેમજ પાંડુવર્ણવાળા થઈ જાય છે તેમજ શુષ્ક વૃક્ષની रेम न्यारे ते दान 25 Mय छे “तयाण वणसंडे अम्मणिज्जे भवइ" त्यारे ते १५ मभ२७॥य थ य छे. "जयाण णट्टसाला विगिज्जइ वाइज्जइ नच्चिज्जइ हसिज्जइ रमिज्जइ तयाणं णट्ठसाला रमणिज्जा भवइ' मा प्रमाणे हे प्रशिन
જ્યાં નાટયશાળામાં સંગીત ચાલતું રહે છે, તેમાં વાજિંત્રે વાગતા રહે છે, તેમાં નાચ થતું રહે છે, પાત્રોના હાસ્યથા જયાં સુધી તે મુખરિત થતી રહે છે અને વિવિધ
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सुबोधिनी टीका सू. १५९ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ३५७
यदा खलु इक्षुवाटकं छिद्यते भिद्यते पीडयते खाद्यसे पीयते दीयते तदा खलु इक्षुवाटक रमणीयं भवति, यदा खलु इक्षुवाटक नो छिद्यते यावत् तदा इक्षुवाटकम् अरमणीय भवति ।
यदा खलु खलवाटकम् अवक्षिप्यते मद्यते उड्डाय्यते खाद्यते दीयते तदा खलु खलवाटकं रमणीयं भवति तत् तेनार्थेन प्रदेशिन ! एवमुच्यते मा खलु त्वं उसमें नांच होता रहता है. पात्रों की हस्सी से जब तक वह खिल खिलाती रहती है, एवं विविध प्रकार की क्रीडाओ की क्रीडास्थला बनी रहती है. तब तक वह नाटयशाला सुहावनी लगती है. "जयाणं णसाला णा गिज्जइ, जाव. जो रमिज्जइ तयाणं णसाला अरमणिज्जा भवइ-२" और-जब वह नाटयशाला गीतों से रहित हो जाती है. बादित्रों की तुमुल ध्वनि से विहीन हो जाती है. यावत्-विविध प्रकार की क्राडाओं से वह शून्य हो जाती है, तब वही नाटयशाला अरमणीक हो जाती है-२। "जयाण इक्खुवाडे छिज्जइ - भिज्जइ-पीलिज्जइ-खज्जइ-पिज्जइ-दिज्जइ, तयाण इक्खुवाडे रमणिज्जे भवइ, जयाण इक्खुवाडे णो-छिज्जइ-जाव तया इक्खुवाडे अरमणिज्जे भवइ-३" इसी तरह जब तक हे प्रदेशिन् ? इक्षु-सेलडी क्षेत्रमें इक्षु कटते रहते हैं पत्ते आदि उनसे दूर किये जाते रहते हैं उन्हें यन्त्रद्वारा पीडित कर उनका रस निकाला जाता रहता है बना हुवा गुड वहां चखा जाता रहता है लोग वहां निकाले हुवे रस को पीते रहते हैं, तथा-मिलने जुलने वालों को इक्षु दिया जाता रहता है. तब तक तो वह इक्षुवाट रमणीय बना रहता है और जब तक इक्षुપ્રકારની ક્રીડાઓની તે ક્રીડા સ્થલી રહે છે. ત્યાં સુધી તે નાટયશાળા સહામણી લાગે છે "जयाणं गट्टसाला णो गिज्जइ, जाव णो रमिज्जइ तयाणं णसाला अरमणिज्जा भवइ २" अने न्यारे नाटय गीतहत 25 छ, पानी तुभुत તુમુલ ધ્વનિ રહિત થઈ જાય છે યાવત વિવિધ પ્રકારની કીડાઓથી શૂન્ય થઈ જાય छ, सारे ते ४ नापशाणा स२भए ४ ५ छ.२ "जयाणं इक्खुवाडे छि ज्जइ भिजइ, पीलिज्जइ खज्जइ पिज्जइ, दिज्जइ, तयाण इक्खुवाडे रमणिज्जे भवइ, जयाणं इक्खुवाडे णो छिज्जइ जाव तजा इक्खुवाडे अरमणिज्जे भवइ ३" २॥ પ્રમાણે હે પ્રદેશિન્ ! જ ચાં સુધી ઈશ્ન શેરડીના ખેતરમાં શેરડી કપાતી રહે છે, પાંદડાઓ વગેરેની સાફસૂફી થતી રહે છે, યંત્રમાં નાખીને તેમાંથી રસ નીકળતું રહે છે, તૈયાર થયેલ ગેળ ત્યાં લેકે વડે ચખાતે રહે છે, ત્યાંથી પસાર થતા લેકો શેરડીમાંથી નીકળેલ રસ પીતા રહે છે, તથા મળવા માટે આવનારાઓને શેરડી અપાતી રહે છે ત્યાં સુધી તે તે ઈબ્રુવાટ રમણીય રહે છે અને જયારે તે ઈક્ષવાટમાં પૂર્વોક્ત
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राजपनी सूत्रे प्रदेशिन् ! पूर्व रमणीयो भूत्वा पश्चाद् अरमणीयी भवेः यथा वनपण्ड इति वा यावत् खलवाटम् इति वा ॥सू. १५९ ।।
टीका-"तए ण केसी कुमारसमणे" इत्यादि-ततः खलु केशी कुमारश्रमणः प्रदेशिरानम् एवमवादीत-मा खलु प्रदेशिन ! त्वं पूर्वम्-आदौ रमणीयः-धामिको भूत्वा पश्चाद् अरमणीयः-अधार्मिको मा भवेः, यथा-येन प्रकारेण वनपण्ड इति वा नाट्यशाला-नाटयभवनम् इति वा इक्षुवाटकम्-इक्षुपीलनस्थानम् वाटमें ये पूर्वोक्त सब काम बन्द कर दिये जाते है, अर्थात्-इन कार्यों से वह रहित बन जाता है. तब वही इक्षुबाट अरमणीय लगने लगता है "जयाणं खलवाडे उच्छुब्भइ-मलिज्जइ उडिज्जइ खज्जइ-दिज्जइ, तयाण खलवाडे रमणिज्जे भवइ, जयाणं खलवाडे णो उच्छुब्भइ, जाव-अरमणिज्जे भवइ ४ ' इसी प्रकार से हे प्रदेशिन्-? खलिहान जबतक धान्य के ढेर लगे रहते हैं. दाय कण मर्दन होती रहती है, उडावनी होती रहती है, वहीं पर उसकी रक्षार्थ रक्षक के निमित्त लाया हुवा भोजन खाया जा रहा है. दूसरों की वहीं पर जब तक अनाज वगै ह दिया जाता रहता है. तबतक तो वह खलिहान रमणीय लगता रहता है, और जब यह सब काम होना उममें बन्द हो जाता है तब वह अरमणीय लगने लगता है-४ "से तेणटेण पएसी-? एवं वुच्चइ-मा णं तुम पए-सी? पुब्बि रमणिज्जे भवित्ता पच्छा-अरणिज्जे भविज्जासि जहा वणसंडे वा जाव खलवाडेइ वा-" इसी लिये हे प्रदेशिन-? मैंने ऐसा कहा है कि-तुम पहले रमणीय होकर अरमणीय मत बन जावो, जैसे-कि वनपण्ड यावत् खलवाट हो जते हैंબધી ક્રિયાઓ બંધ થઈ જાય છે ત્યારે તે ઈક્ષુવાટ અરમણીય લાગવા માંડે છે. "जयाण' खलवाडे उच्छुब्भइ-मलिज्जइ, उड्डिज्जइ, खजइ, दिजइ, तयाण खलवाडे रमणिज्जे भवइ, जयाण खलवाडे णो उच्छब्भइ, जाव-अरमणिज्जे भवइ ४' આ પ્રમાણે તે પ્રદેશિન્ ! ખળામાં જ્યાં સુધી ધાન્યના ઢગલાઓ રહે છે, કણસલાં ગૂંદીને અનાજ કઢાતું રહે છે, અનાજ ઉપણાતું રહે છે, ત્યાંના રખેવાળ માટે ત્યાં પહોંચાડેલું ભેજન જમાતું રહે છે, બીજાઓને ત્યાં જ્યાં લગી અનાજ વગેરે અપાતાં રહે છે ત્યાં સુધી તે ખળું રમણીય લાગે છે. અને જ્યારે આ બધું કામ બંધ થઈ 14 छ, त्यारे ते २५२माय an भांडे छ. ४ “से तेणटेण पएसी ! एवं वुच्चइ-मा ण तुम पएसी ! पुराव्य रमणिज्जे भवित्ता पच्छा-अरमणिज्जे भविजासि जहा वणसंडेइवा जाव खलवाडेइ वा" मेरा भाटे, प्रहशिन् ! में माम ह्यु છે કે તમે પહેલાં રમણીય થઈને પછી અરમણીય બનશો નહિ. જેવી રીતે વનખંડ યાવત मणु थाय छे.
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सुबोधिनी टीका सू. १५९ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशीराजवर्णनम् ३५९ इति वा खलवाटकम् इति वा पूर्व रमणीयं भूत्वा पश्चादरमणीयं भवतीति ! तत्र प्रदेशी पृच्छति-हे भदन्त ! कथं-केन प्रकारेण वनषण्डः पूर्व रमणीयो भूत्वा पश्चादरमणीयो भवति । एवं नाटयशालेञ्जवाट-खलवाटविषयेऽपि प्रश्नयोजना कर्तव्या। तत्र क्रमेण तेषां रमणीयत्वारमणीयत्वे प्रदर्शयितु केशी प्राह-'पएसी' इत्यादि-हे प्रदेशिन् ! यथा वनषण्डः पत्रितः-पत्रसम्पन्नः, पुष्पित:-पुष्पसम्पन्नः फलितः-फलसम्पन्नः, हरितः-हरितत्वसम्पन्नः हरितकराराज्यमानः-हरितवणे पत्रपल्लवादिभिरतिशयेन शोभमानः, अत एव श्रिया-शोभया, अतीव-अत्यन्तम् उपशोभमानः-शोभां प्राप्नुवन् यदा तिष्ठति-वर्तते, तदा-तस्मिन् काले च स बनषण्डो नो पत्रितः नो पुष्पितः नो फलितः नो हरितः नो हरितक ज्यमानः अत एव नो श्रियाऽतीवोपशोभमानो भवति, यदा च जीर्णः-जीर्णपत्र पल्लवादियुक्तः शन्नः-प्रपतितपत्रादिकः, अत्र शदा झडादेशः, परिशटितपाण्डुपत्रःविकृतपाण्डुवर्णपत्रयुक्तः शुष्कवृक्ष इव म्लायन्-म्लानतां गच्छन् सन तिष्ठते, तदा खलु वनषण्डो नो रमणीयो भवति १। प्रदेशी पृच्छति-हे भदन्त ! नाटयशाला कथं रमणीया भूत्वा चारमणीया भवति ? केशी प्राह-हे प्रदेशिन ! यदा खलु नाटयशालाऽपि गीयते-गानयुक्ता भवति वाद्यते-वाद्यवादनयुक्ता भवति नृत्यते-नृन्ययुक्ता भवति, हस्यते-हास्ययुक्ता भवति, रम्यते-क्रीडनयुक्ता भवति, तदा खलु सा रमणीया भवति, यदा खलु नो गीयते-यावत् नो वाद्यते ना नयते नो हस्यते नो रम्यते, तदा खलु सा अरमणीया भवति २ । __अथेक्षुवाटविषयकप्रश्ने केशी प्राह-हे प्रदेशिन ! यदा खलु इक्षुवाटम् इक्षुक्षेत्रे इक्षुः छिद्यते-द्विधा क्रियते, भिद्यते-विदार्य ते, पीडयते-यन्त्रेण रसो निःसार्यते, खाद्यते-गुडादिकम्, पीयते-रसः, दीयते-इक्ष्वादिकं, तदा खलु इक्षुवाट रमणीयं भवति। यदा खलु इक्षवाट नो छिद्यते यावत् नो पीडयते नो खाद्यते नो पीयते नो दीयते, तदा इक्षुवाटम् अरमणायं भवति । ३।।
टीकार्थ-स्पष्ट है, "झ." यहांपर शद् के स्थान में झड आदेश हुवा है. संस्कृत में इस की छाया "शन्नः" ऐसी होती हैं। केशाने-इस सूत्र द्वारा प्रदेशी राजा को पहिले रमणीय होकर अरमणीय बन जाने वाले वनषण्ड आदिचार को दृष्टांतरूप में रखकर यह समझाया है कि-तुम ऐसे मत बन जाना. ॥१५९॥
सार्थ-२५ट छ. 'झेड' ही 'शदना स्थाने 'झड' माहेश थयो छे. संस्कृत માં એની છાયા “શન” હોય છે. કેશીએ આ સૂત્ર વડે પ્રદેશી રાજાને પહેલાં રમણીય થઈને પછી અરમણીય થઈ જનારા વનખંડ વગેરેને દૃષ્ટાંત રૂપમાં આપીને આ સમજાવવામાં આવ્યુ છે કે તમે એવા થશો નહિ. સૂ. ૧૫લા
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३६०
राजप्रश्नीयसूत्रे
अथ खलवाटविषयप्रश्ने केशी पाह-हे प्रदेशिन् ! यदा खलु खलपाटं सस्यकणमर्दनपरिष्करणस्थानम् तत्र धान्यम्-अवक्षिप्यते-पुनीक्रियते, मद्यते-बलीवर्दादिभिः, उड्डारयते-पवने पूयते, खाद्यते, दीयते तदा खलु खलवाट रमणीयं भवति । यदा खलु नो अवक्षिप्यते यावत् नो मद्यते नो उड्डाय्यते, नो खाद्यते नो दीयते तदा अरमणीयं भवति ।। तत् हे प्रदेशिन ! तेन-वनषण्डादि दृष्टान्तरूपेण अर्थेन एवम् उच्यते-कथ्यते यत् हे प्रदेशिन ! त्वं पूर्व रमणीयो भृत्वा पश्चादरमणीयो मा भवेः, यथा वनषण्ड इति वा यावत्-नाट शालेति वा इक्षुवाटम् इति वा खलवाटम् इति वा ॥स्. १५९॥
मूलम--तए णं पएसी केसि कुमारसमणं एवं वयासी-णो खलु भंते ! अहं पुटिव रमाणज्जे भवित्ता पच्छा अरमणीज्जे भविस्सामि जहा वणसंडेइ वा जाव खलवाडेइ वा, अहं सेयविया नयरीपमुक्खाइं सत्त गामसहस्साई चत्तारि भागे करिस्सामि, एगं भागं बलवाहणस्स दलइस्सामि, एगं भागं कुटागारे छभिस्सामि, एगं भागं अंतेउरस्स दलइस्सामि, एगेणं भागेणं महइमहालयं कूडागारसालं करिस्सामि, तत्थ णं बहुहिं पुरिसेहिं दिन्नभइभत्तवेयणेहिं विउलं असणं पाणं खाइमं उवक्खडावेत्ता बहूणं समणमाहणभिक्खुयाणं पंथियवहियाणं परिभाएमाणे बहूहिं सीलव्वयगुणव्वयवेरमणध्वयपच्चक्खाणपोसहोववासेहिं अप्पाणं भावेमाणे विहस्स्सिामित्ति कटु जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिसं पडिगए। ॥ सू० १६० ॥
___ छाया-ततः खलु प्रदेशी केशिनं कुमारश्रमणम् एवमवादीत-नो खलु भदन्त ! अहं पूर्व रमणीयो भूत्वा पश्चादरमणीयो भविष्यामि, यथा वनषण्ड इति वा यावत् खलवाटमिति वा, अहं खलु श्वेतविकानगरी प्रमुखानि सप्त ग्रामसहस्राणि चतुरो भागान् करिष्यामि, एकं भागं बलवाहनस्य दास्यामि, एकं भागं कोष्ठागारे क्षेप्स्या म, एकं भागमन्तःपुराय दास्यामि, एकेन भागेन महाऽतिमहालयां कूटाऽऽकारशालां करिष्यामि, तत्र खलु बहुभिः पुरुषैः दत्तभृतिभक्त
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सुबोधिनी टीका सू. १६० सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशोराजवर्णनम् ३६१
"तए ण पएसी के-सिं" इत्यादि ॥१६० सूत्र।।
सूत्रार्थ–'तएणं' इसके बाद 'पएसी' प्रदेशी राजाने-“केसि कुमारसमणं एवं वयासी-" केशीकुमारथ्रमण से ऐसा कहा-"णो खलु भंते-? अहं पुब्धि रमणिज्जे भवित्ता पच्छा अरमणिज्जे भविस्सामि जहा वणसंडेइ वा जाव-खलवाडेइ वा-" हे भदन्त ? मैं पहले रमणीय होकर अब वनषण्ड, अथवा यावत् खलवाट सेलडीका खेत की तरह अरमणीय नहीं बनूंगा. "अहं सेयविया नयरी पमुक्खाइ' सत्त गामसहस्साई चत्तारिभागे करिस्सामि-"मैं श्वेतांबिंका नगरी प्रमुख सातहजार ग्रामों को चार विभागों में विभक्त करूंगा. "एक भागं बलवाहणस्स दलइस्सामि-" इन में से एक भाग तो बल-और वाहन के लिये दूंगा. “एगे भागे कुट्ठागारे छुभिस्सामि-" दूसरा भाग काष्ठागार में प्रजापालन के लिये रक्खूगा. “एगं भागं अंतेउरस्स दलइस्सामि-" एक भाग को तीसरेको मैं अन्तःपुर रक्षा के लिये दूंगा. "एगण-भागेणं महइमहालय कूडागारसालं करिस्सामि-' एक भाग से चौथे से मैं एक बहुत ही विशाल कूटागारशाला बनवाऊंगा - "तत्थ ण बहूहिं पुरिसेहिं दिन्नभइभत्तवेयणेहिं विउल असणं पाणं खाइमं साइम उवकरवडावेत्ता बहूणं समण-मारहण-भिकखुयाणं पंथिय पहियाण परिभाएमाणे-" उसमें जनेक पुरुषो को सवेतनिक रूपमें रक्खूगा.
"तए ण पएसी केसिं " इत्यादि ॥१६॥
सूत्रार्थ-'तए ण' त्या२ पछी 'पएसी' प्रशी सजये 'केसि कुमारसमणं एवं वयासी' अशी भार भने मा प्रभा यु. “णो खलु भते ! अहं पुचि रमणिज्ज भवित्ता पच्छा अरमणिज्जे भविस्सामि जहा वणसंडेइ वा जाव खलवाडेइ वा" है महत! ई पडदा २भीय ने हवे वनडे यावत् मानी
म मरभणीय नहि. "अहं सेविया नयरी पमुक्खाइं सत्तगामसह. स्साइं चत्तारि भागे करिस्सामि" ई aalat नगरी प्रभु सात २ ॥भाने यार लागाभा विमानत शश, “एकं भागं बलवाहणस्स दलइस्सामि" मामाथी मे: An स (सेना) भने वाहन माटे माधीश. "एगे भागे कुट्ठागारे छभिस्सामि" भी भाग ४२मा प्रत पासन भाटे हो रामाश. "एगं भाग अंतेउरस्स दलइस्सामि" श्रील 23 माने अन्त:पुरनी २क्षा भाटे माधीश. “एगेणं भागेणं महइमहालयं कूडागारसालं करिस्सामि" याथा मे लागथी ये विशाण ॥२ ॥ मनावावी. "तत्थ णं वहूहिं पुरिसेहिं दिन्नभइभत्तवेयणेहिं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेत्ता बहूणं समणमाहणभिक्खुयाणं पंथियपहियाणं परिभाएमाणे" तमां ! ५३षाने ५॥२ सापान નીમીશ. તેઓ ત્યાંજ જમશે. તે માણસ પાસેથી હું વિપુલ માત્રામાં અશન-પાન
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राजप्रश्नीयसूत्रे वेतनैः विपुलम् अशनं पानं खादिमं स्वादिमम् उपस्कार्य बहुभ्यः श्रमण ब्राह्मणभिक्षुकेभ्यः पथिकप्राघुणेभ्यः परिभाजयन् वहुभिः शीलवतगुणव्रतविरमणव्रतप्रत्याख्यानपोषधोपवासैः आत्मानं भावयमानो विहरिष्यामि, इति कृत्वा यामेव दिशं प्रादुर्भूतः तामेव दिशं प्रतिगतः ॥सू. १६०॥
टीका-"तए णं पएसी" इत्यादि-ततः खलु प्रदेशी राजा केशिनं कुमारश्रमणम् एवमवादीत-हे भदन्त ! अहं पूर्व रमणीयो भूत्वा पश्चादरमणीयो नो भविष्यामि यथा-येन प्रकारेण वनषण्ड इति वा यावत् नाटयशालेतिवा इक्षुवाटमिति वा खलवाटमिति वा, वनषण्डादिवत् पूर्व रमणीयो भूत्वा पश्चादरमणीयो नो भविष्यामीति, तदेव स्पष्टयति अहं खलु श्वेतांविकानगरी प्रमुखानि सप्त ग्रामसहस्राणि-सप्त सहस्रपरिमितग्रामान् चतुगे भागान-चतुर्धा विभक्तान वही वे भोजन करेंगे. उनसे मैं विपुल मात्रा में अशन-पान-खादिम स्वादिम रूप चारों प्रकारके आहार को तैयार कराऊंगा फिर-अनेक श्रमण माहण भिक्षकों के लिये. तथा पथिकरूप प्राधूर्णिकों के (अतिथिविशेष) लिये उस आहार को देता हुवा, एवं- 'बहूहिं सीलव्वयगुणव्वयवेरमणव्वयपच्चक्खाण पोसहोववासेहिं अप्पाणं भावेमाणे विहरिस्सामि तिकटु जामेव दिसं पाउभूए तामेव दिसं पडिगए-" अनेकशील व्रतों से गुणव्रतों से प्रत्याख्यान और पौपधोपवासोंसे आत्मा को मैं वासित करता हवा. इस प्रकार कह कर वह प्रदेशी राजा जिस दिशा से आया थाउसी दिशा को चला गया.
टीकार्थ-स्पष्ट है प्रदेशी राजाने जो इस सूत्र द्वारा अपना अभिप्राय प्रकटित किया है वह में वनषण्डादि कों की तरह पूर्वमें रमणीय होकर अरमणीय नहीं होने की पुष्टि के निमित्त प्रगट किया है इसी बात की पुष्टि अपने सात हजार ग्रामों को चार विभागों में विभक्त करने की है. इसमें एक-२ ખાદિમ-સ્વાદીમરૂપ ચારે પ્રકારના આહારે તૈયાર કરાવડાવીશ. પછી ઘણુ શ્રમણ भाइ भिक्षुछ। भाट तमा पथि:३५ प्रा. अन ते मा.२ मापतो एवं बहहिं सीलव्वयगुणव्वयवेरमणव्वयपच्चक्रवाणपोसहोंववासेहिं अप्पाणं भावमाणे विहरिस्सामि त्ति कटु जामेव दिसं पाउब्भूए तामेव दिसं पडिगए" ugu Allaવતેથી ગુણવ્રતાથી, પ્રત્યાખ્યાન અને પૌષધોપવાથી આત્માને હું વાસિત કરતા રહીશ. આ પ્રમાણે કહીને પ્રદેશી રાજા જે દિશા તરફથી આવ્યું હતું તે દિશાએથી જ જતો રહ્યો.
ટીકાર્થ–સ્પષ્ટ જ છે. પ્રદેશી રાજાએ આ સૂત્રવડે જે પિતાનો અભિપ્રાય પ્રકટ કર્યો છે તે વનખંડ જેમ પહેલાં રમણીય થઈને પછી અરમણીય થઈ જાય છે તેમ તે થશે નહિ એ વાતને સ્પષ્ટ કરવામાં આવી છે. પિતાના સાત હજાર ગામને ચાર ભાગોમાં જે રાજાએ વિભાજિત કર્યા છે તે પણ એ વાતને જ પુષ્ટ કરે છે એમાં
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सुबोधिनी टीका सू. १६० सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशोराजवर्णनम् ३६३ करिष्यामि, तत्र भागान् इत्यत्र 'भज्यन्त इति भागाः' इति कर्मव्युत्पत्तिर्बोध्या, भावव्युत्पत्त्या तु कर्मणि षष्ठयापत्तिः स्यात् । तेषु चतुर्यु भागेषु एकं भागं पादोनसहस्रद्वयरूपं बलवाहनाय-तत्र वलाय-सैन्याय-वाहनाय-हस्त्यश्वाद्यर्थ दास्यामि १, एकं-द्वितीय भाग कोष्ठागारे-प्रजापालनाय कोशे क्षेप्स्यामि२, मूले क्षिपे छुभादेशः, एक-तृतीय भागम् अन्तः पुराय-अन्तःपुररक्षणाय दास्यामि३, चतुथेन भागेन महातिमहालयाम्-अतिमहती-परमविशालाम्, कूटाऽऽकारशालां करिष्यामि, तत्र कूटाऽऽकारशालायां बहुभिः-बहुसंख्यैः पुरुषैः, कीदृशैः ? दत्तभृतिभक्तवेतनैः-दत्ताः भृतयो-जीविकाः, भक्तानि-आहाराः, वेतनानि-मासिक वृत्तयश्च येभ्यस्ते दत्तभृतिभक्तवेतनास्तैः पुरुषैरिति सम्बन्धः, विपुलं-प्रचुरम् अशनं पानं खादिनं स्वादिमम्' इति चतुर्विधाऽऽहारम् उपस्कार्य-सम्पादय बहुभ्यः श्रमणब्राह्मणभिक्षुकेभ्यः, तथा-पथिकप्राघुणेभ्यः-पथिकरूपाः प्राघुणाः पथिकप्राघुणाः, न तु सम्बन्धमाश्रित्य प्राघुणाः, तेभ्यः, परिभाजयन्-ददत्, बहुभिः शीलव्रतगुणव्रत-विरमणव्रत-प्रत्याख्यान-पोषधोपवासैः आत्मानं भावयमानो विहरिष्यामि, इति कृत्वा-इति कथयित्वा यामेव दिशं समाश्रित्य प्रादुर्भूतः तामेव दिशं प्रतिगतः । ॥सू० १६०॥
भाग में पोते दो-दो हजार ग्राम आते हैं। सैन्यका नाम-बल, और हस्ती अश्व आदिका नाम वाहन है। प्रजाओं की अच्छी तरह से पालन हो इस अभिप्राय से उसने एक भाग कोश-भण्डार में रखदिया “छुभिस्सामि" की संस्कृत छाया "क्षेप्स्यामि' है क्षिप् को प्राकृत में छुभादेश हुवा है. भृति शब्द का अर्थ जीविका. भक्त शब्द का अर्थ आहार एवं-वेतन शब्द का अर्थ पगार है । पयिक प्रघूर्ण से पथिकरूप से प्राघुण लिये गये हैं नकि-सम्बन्ध का आश्रित करके प्राघूर्ण लिये गये हैं ॥सू० १६०॥
દરેકે દરેક વિભાગમાં પણ બે-બે હજાર ગામ છે. સૈન્યનું નામ બલ અને હાથી ધડા વગેરેનું નામ વાહન છે. પ્રજાનું સારી રીતે પાલન થઈ શકે તેટલા માટે तरी ४ माश- भूयो छे. "छभिस्सामि" नी संस्कृत छाया "क्षेप्स्यामि" छ. क्षिप ने प्राकृतमा छमाहेश थयो छ मृति शहना अर्थ लावा ભકત શબ્દનો અર્થ આહાર અને વેતન શબ્દનો અર્થ પગાર છે. પથિક પ્રાઘણ(અતિથિરૂપ મહેમાન)થી પથિક રૂપથી પ્રાપૂર્ણ (મહેમાન) લેવામાં આવ્યાં છે. સંબંધને આશ્રિત કરીને પ્રાધૂર્ણ લેવામાં આવ્યાં નથી. સૂ. ૧૬ના
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राजप्रश्नीयसूत्रे मूलम्----तए णं से पएसी राया कल्लं जाव तेयसा जलंते सेयावि पामोक्खाइं सत्त गामसहस्साइं चत्तारि भाए कीरइ, एगं भागं बल. बाहणस्स दलइ जाव कूडागारसालं करेइ, तत्थ णं बहू हिं पुरिसे हिं जाव उवक्खडावेत्ता बहणं समण० जाव परिभाएमाणे विहरइ ।
तए णं से पएसी राया समणोवासए जाए अभिगयजीवाजीवे जाव विहरइ, जप्पभिई च णं पएसी राया समणोवासए जाए तष्पभिई च णं रजच रटू च बलं च वाहणं च कोसं च कोटागारं च पुरं च अतेउरं च जणवयं च अणाढायमाणे यावि विहरइ। ॥ सू० १६१ ॥
छाया-ततः खलु स प्रदेशी राजा कल्यं यावत् तेजसा ज्वलति श्वेतांबिकाप्रमुखानि सप्त ग्रामसहस्राणि चतुरो भागान करोति, एक भाग बलवाहनाय ददाति यावत कूटाऽऽकारशालां करोति, तत्र खलु बहुभिः पुरुषैः यावत् उपस्काय बहुभ्यः श्रमण० यावत् परिभाजयन् विहरति ।
"तए ण पएसी राया-" इत्यादि ।
सूत्रार्थ-"तएणं" इसके बाद "पएसी राया कल्लं" प्रदेशी राजाने दूसरे ही दिन "जाव तेयसा जलंते." यावत् तेजसे सूर्य प्रकाशित होजाने पर “सेयंविया पामेाकखाई सत्तगामसहस्साइ चतारि भाए किरइ-" श्वेतांविका प्रमुख सातहजार ग्रामों को चार विभागो में विभाजित कर दिया. “एगे भागे बलवाहणस्स दलयइ" इनमें एक भाग बल वाहन के लिये वितरण करदिया. "जाव-कूडागार सालं करेइ-" यावत् चतु र्भाग कूटागारशाला को बनवाने के निमित्त दे दिया. "तत्थ ण बहूहिं पुरिसे हिं जाव उवकूरवडावेत्ता बहूण समण० जाव परिभाए माणे विहरइ-" जब
'तएणं पएसी राया' इत्यादि
सूत्राथ–'तएणं' त्या२ माह (पएसी राया कल्लं) प्रशी २।०४ाये भी हिवसे जाव तेयसा जलं ते' यावत् तेथी न्यारे सूर्य प्रोशित थ६ गयो त्यारे "सेयंबिया पामोक्खाइं सत्तगामसहस्साई चत्तारि भाए कीरइ" aailast प्रभु सात ४२ गाभाने यार भागोमा यी नाभ्या. "एगे भागे वलवाहण स्स दलयह" साभा मे लाम-स-पाउन माटे मान्यो "जाव कूडागारसालं करेड" यावत् याथो लास टा॥२॥ मनावा भाट मा०या. “तत बहहिं पुरिसेहिं जाव उवक्खडावेत्ता बहूण समण० जाव परिभाएमाणे विहरइ”
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सुबोधिनी टीका सु. १६१ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ३६५
ततः खलु स प्रदेशी राजा श्रमणोपासको जातः अभिगत-जीवाजीवः यावद् विहरति, यत्प्रभृति च खल्ल प्रदेशी राजा श्रमणोपासको जातः, तत्प्रभृति च खलु राज्य च राष्टं च बलच वाहन च कोशच कोष्ठागार' च अन्तःपुरं च जनपदं च अनाद्रियमाणश्चापि विहरति । ॥सू० १६१॥
____टीका-"तए णं से पएसी" इत्यादि-ततः खलु स प्रदेशी राजा कल्प यावत् एकोनषष्टयधिकैकशततम १५९ सूत्रोक्तपाठानुसारेण सूर्ये तेजसा-दीप्त्या ज्वलति-प्रकाशमाने सति श्वेतांविकाप्रमुखानि सप्त ग्रामसहस्राणि-ग्रामाणां सप्त कूटागार शाला बनकर तैयार हो गई तब उसमें उसने अनेक पुरुषों द्वारा यावत् चारों प्रकार का अशन-आहार निष्पन्न कराकर उससे अनेक श्रमणादि जनोंको प्रतिलाभित करता था याने देता था "तएणसे पएसी राया समणोवासए जाए अभिगयजीवाजीवे जाव विहरइ-" इसके बाद वह प्रदेशी राजा श्रमणोपासक हो गया. जीव तच्च और अजीव तत्व के स्वरूप का भलीमांति से ज्ञाता बन गया. इत्यादि. जप्पभिइ च ण पएसी राया समणोवासए जाए तप्पभियं च णं रज्ज च रटु च बलं च वाहण च-कासं च काटागारं च-पुरं च अंतेउरं च जणवयं च अणाढायमाणे यावि विहरइ--" अब वह प्रदेशी राजा जिस दिन से श्रमणापासक बना. उसी दिन से अपने राज्य के प्रति. राष्ट्र के प्रति बल के प्रति. वाहन के प्रति, कोष के प्रति, काष्ठागार के प्रति अंतःपुर के प्रति और जनपद के प्रति उपेक्षाभाव धारण करलिया. इस सूत्र का टीकार्थ-स्पष्ट है, यहां यावत्पद से"कल्लं जाव" के इस यावत् पदसे १५९ वें सूत्र है जो पाठ इसके विषय में જ્યારે કૂટાગારશાળા તૈયાર થઈ ગઈ ત્યારે તેમાં તેણે ઘણા પુરૂષો વડે યાવત્ ચારે જાતને અશન આહાર બનાવ ાવ્યા અને તેનાથી ઘણું શ્રમણ વગેરેને પ્રતિલાભિત કર્યા. "तए ण' से पएसी राया समणावास ए जाव अभिगयजीवाजीवे जाव विहरइ" ત્યાર પછી તે પ્રદેશ રાજા શ્રમણોપાસક થઈ ગયે, જીવતત્વ અને અજીવત્વના २१३५ने। सारी ते ज्ञाता थ६ गया वगेरे. "जप्पभिई च ण पएसी राया समणोवासए जाए तप्पभियं च ण रज च रहें च, बलं च वाहणं च, कासं च, काहागारं च, पुरं अंतेउरं च, जणवयं च अणाढायमाणे यावि विहरई" હવે તે પ્રદેશી રાજાએ જે દિવસથી શ્રમણોપાસક થયે, તે જ દિવસથી પોતાના રાજ્ય त२३, राष्ट्र त२३, सेना त२५, पाडन त२३, म १२ (आप) त२५ ॥२ प्रति, અંતઃપુર પ્રતિ અને જનપદ પ્રતિ ઉપેક્ષા ભાવ ધારણ કરી લીધો.
साथ-सा सूत्रनी स्पष्ट छे. मही यावत पहथी "कल्लं जाव" ना मा યાવત પદથી ૧૫૯ મા સૂત્રમાં જે પાઠ એના વિષે ગૃહીત થયેલ છે તે જાણવો.
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राजनीयसूत्रे
सहस्राणि चतुरो भागान् - चतुर्धा विभक्तानि करोति, कृत्वा तेषु चतुर्षु भागेषु एकं प्रथमं भागं बलवाहनाय ददाति, द्विषष्ट्यधिकशततम- सूत्रोक्तानुसारेण कूटाऽऽकारशालां करोति । तत्र खलु बहुभिः पुरुषैः यावत् उपस्कार्थ बहुभ्यः श्रमण ० यावत् द्विषष्ट्यधिकैकशततमसूत्रोक्तानुसारेण श्रमणब्राह्मणभिक्षुकेभ्यः पथिकप्राघुणेभ्यः परिभाषयन् विहति ।
ततः खलु स प्रदेशी राजा श्रमणोपासकः - श्रावको जातः कीदृश: ? इत्याह-अभिगतजीवाजीवः चतुर्दशोत्तरशततमसूत्रोक्त विशेषण विशिष्टो भूत्वा विहरति । यत्प्रभृति च यद्दिनादारभ्य खलु प्रदेशी राजा श्रमणोपासको जातः, तत्प्रभृति - तद्दिनादारभ्य च खलु राज्यं - राष्ट्र, बलं, वाहनं, कोश, कोष्ठागारम् पुरम् जनपदं च अनाद्रियमाण: - उपेक्षमाणः चापि विहरति । सू० १६१ ||
मूलम् - तए णं तीसे सूरियकंताए देवीए इमेयारूवे अज्झतिथए जाव समुप्पज्जित्था - जप्पभिइ चणं पएसी राया समणोवासए जाए तप्पभि चणं रजं च रटू च जाव अते उरं च ममं च जणवयं च अणाढायमाणे विहरइ, तं सेयं खलु मे पएसिरायं केवि सत्थपओगेण वा अग्गिप्पओगेण वा मंतप्पओगेण वा विसप्पओगेण वा उद्दवेत्ता सूरियकंतं कुमारं रज ठवित्ता सयमेव रज्ज - सिर कारेमाणीए पालेमाणीए विहरित्तपत्ति कट्टु एवं संपेहेइ, संपे - हित्ता सूरियकंतं कुमार सहावेइ सद्दावित्ता एवं वयासी-ज पभिड़ं चणं पएसी राया समणोवासए जाए तप्पभिइ चणं रजं च जाव अंतेउरं च जणवय च माणुस्सए च कामभोगे अणाढायमाणे विह
कहा गया है वह गृहीत किया गया है " जाव कूडागारसालं - " में आगच यावत् पद से १६२ सूत्र में जो पाठ कहा गया है वह यहां गृहीत किया गया है । इसी तरह से “पुरिसेहिं जाव - " में आगत यावत् पद से भी ३६२ ये सूत्र में कथित इस विषय का पाठ ग्रहण किया गया है || १६१ ॥
"जाव कूडागारसालं" भां आवेल यावत् यथी १९२ भां सूत्रमां के थाह हो तेनु ं ग्रहण १२वामां आव्यु छु म प्रमाणे “पुरिसेहिं जाव" भां मावेल यावत् પદ્મથી ૧૬૨માં સૂત્રમાં કથિત આ વિષયોના પાઠનુ ગ્રહણ થયું છે. ૫૧૬૧૫
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सुबोधिनी टीका सू. १६२ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशोराजवर्णनम् ३६७ रइ त सेय खलु तव पुत्ता ! पएसिं रायं केणइ सत्थप्पओगे वा जाव उद्दवित्ता सयमेव रजसिरि कारेमाणस्स पालेमाणस्स विहरित्तए। तए णं सूरियक ते कुमारे सूरियकताए देवीए एव' वुत्ते समाणे सूरियकताए देवीए एयमलु णो आढाइ णो परियाणाइ तुसिणीए संचिटइ, तए णं तीए सूरियकंताए देवीए इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पजित्था-मा णं सूरियकंते कुमारे पएसिस्स रण्णो रहस्सभेयं करिस्सइत्ति कटु पएसिस्स रणो छिद्दाणि य मम्माणि य रहस्साणिय य विवराणिय अंतराणि य पडिजागरमाणी पडिजागरमाणी विहरइ ॥ सू० १६२॥
छाया-ततः खलु तस्याः सूर्य कान्ताया देव्याःअयमेतद्रूप आध्यात्मिकः यावत् समुदपद्यत-प्रत्प्रभृति च खलु प्रदेशी राजा श्रमणोपासको जातस्तत्प्रभृति च खलु रा य च राष्ट्रं च यावत् अन्तःपुरं च मां च जनपद च अनाद्रियमाणो विहरति, तच्छ्रेयः खलु मे प्रदेशिन राजानं केनापि शस्त्रप्रयोगेण वा अग्निप्रयो
"तएणं तीसे सूरियकंताए देवीए'' इत्यादि ॥
मूलार्थ–'तए णं-' इसके बाद 'तीसे सूरियकताए देवीए-' उस मूर्यकान्ता देवी को 'इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पन्जित्था-' यह इस प्रकार का आध्यात्मिक यावत् विचार उत्पन्न हुवा-'जप्पभिई च ण पएसी राया समणोवासए जाए-' जिस दिन से प्रदेशी राजा श्रमणोपासक हुवे हैं 'तप्पभियं च ण रज्जच-' उसी दिन से उन्होंने राज्य के प्रति, राष्ट्र के प्रति. यावत् अन्तःपुर के प्रति, तथा—मेरे प्रति, और-जनपद देश के प्रति उपेक्षा
"तएण तीसे सूरियकताए देवीए” इत्यादि।
भूखा-"तए ण'' त्या२ ५छी "तीसे सूरियकंताए देवीए" ते सूत। देवीन "इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पन्जित्था' 20 तनो माध्यामि यावत (क्यारे उत्पन्न थयो. "जभियं च ण पएसी राया समणावासए जाए" हिवस थी प्रदेशी २।०४श्रमापास या छ, “तप्पभियं च ण रज्जं च" ते हिसथी તેમણે રાજય પ્રતિ, રાષ્ટ્રના પ્રતિ, યાવત અંતપુર પ્રતિ તેમજ મારા પ્રતિ અને अनपढ-देशना प्रति अपेक्षा धा२१ ४२दीधी छे. "तं सेयं खलु मे पएसिं रायं
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राजप्रश्नीयसूत्रे गेण वा मन्त्रप्रयोगेण वा विषप्रयोगेण वा उपद्रूत्य सूर्यकान्त कुमार राज्ये स्थापयित्वा स्वयमेव राज्यश्रिय कारयन्त्याः पालयन्त्या विहर्तुम, इतिकृत्वा एवं संप्रेक्षते, संप्रेक्ष्य सूर्यकान्तं कुमार शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत्-यत्प्रभृति च खलु प्रदेशी राजा श्रमणोपासको जातः, तत्प्रभृति च खलु राज्य च यावत् अन्तःपुरं च खलु जनपदं च मानुष्यकांश्च कामभोगान् अनाद्रियमाणो विहरति धारण कर रवखा है "तं सेयं खलु मे पएसिं रायं केणवि सत्थप्पओगेण वाअग्गिप्पओगेण वा-मंतप्षओगेणवा-विसप्पओगेण वा-उद्दवेत्ता सूरियकंतं कुमार रज्जे ठवित्ता-” अतः-अब मुझे यही उचित है कि मैं प्रदेशी राजा को किसी अस्त्र के प्रयोग से अथवा-अग्नि के प्रयोग से. मारकर सूर्यकान्त पुत्र को राज्य में स्थापित करके "सयमेव रज सिरिं कारेमाणीए पालेमाणीए विहरित्तए त्ति क8 एवं संपेहेइ-' अपने आप स्वयं ही राज्य लक्ष्मी का भोग करती हुई, उसका पालन करती हुई, आनन्द से रहूं-? इस प्रकार का उसने विचार किया-'संपेहित्ता-सूरियकंतं कुमार सद्दावेइ-' ऐसा विचार करके फिर उसने अपने सूर्यकान्त पुत्रको बुलाया. “सद्दावित्ता एवं वयासी-" बुलाकर उससे ऐसा कहा-"जप्पभिई च ण पएसी राया समणोवासए जाए तप्पभिई च णं रज्ज' च जाव अंतेउरं च जणवयं च मणुस्सए च कामभोगे अणाढायमाणे विहरइ-जिस दिन से प्रदेशी राजा श्रमणोपासक बने हैं उस दिन से उन्होंने रा य की ओर-यावत् अन्तःपुर की ओर और जनपद की ओर, एवं-मनुष्य भवकेण वि सत्थप्पओगेण वा अग्गिप्पआगेण वा-मंतप्पआगेण वा विसप्पओगणवा उद्दवेत्ता सरियकंत कुमारं रज्जे ठवित्ता” मेथी भारा भाटे वे ०४ ઉચિત છે કે હું પ્રદેશ રાજાને કોઈ શસ્ત્રના પ્રયોગથી કે અગ્નિના પ્રયોગથી કે મંત્રના પ્રવેગથી કે વિષના પ્રયોગથી મારી નાખીને સૂર્યકાંત પુત્રને રાજપાલને असाडीने 'सयमेव रज्जसिरिं कारेमाणीए पालेमाणीए विहरित्तइ त्ति कटु एवं संपेहेई" पोते. २०य सभीन। यो शने तेतु २६९५ ४२त मानपूर्व समय ५सा२ ४३. 241 प्रमाणे तेथे विया२ ज्यो. “सपेहित्ता सूरियकंतं कुमारं सदावेई" मा त विया२ शने पछी तो पोताना सूयत पुत्रने गावाव्या. "सद्दावित्ता एवं वयासी” मासावीने तेने या प्रमाणे यु. "जप्पभिई च ण पएसी राया समणोवासए जाए तप्पभिई च ण' रज्जं च जाव अंतेउरं च जणवयं च माणुस्सए च कामभोगे अणाढायमाणे विहरइ” 2 हिवसथी प्रशी રાજા શ્રમણોપાસક થયા છે તે દિવસથી તેમણે રાજય તરફ, યાવત્ અંત:પુર તરફ જનપદ તરફ, મનુષ્યભવ સંબંધી કામગો તરફ ધ્યાન આપવું બંધ કર્યું છે.
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सुबोधिनी टीका सु. १६२ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णनम्
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तच्छ्रेयः खलु तव पुत्र ! प्रदेशिनं राजानं केनापि शस्त्रप्रयोगेण वा यावत् उपद्रुत्य स्वयमेव राज्यश्रिय कारयतः पालयतो विहर्तुम् । ततः खलु सूर्यकान्तः कुमारः सूयं कान्तया देव्या एवमुक्तः सन् सूर्यकान्ताया देव्या एतमर्थ नो आद्रिते नो परिजानाति तूष्णीकः संतीष्ठते । ततः खलु तस्याः सूर्यकान्तायाः देव्या अयमेतद्रूप आध्यात्मिकः यावत् समुदपद्यत - मा खलु सूर्यकान्तः कुमारः
अर्थात् - इन सब
खलु वि
सम्बन्धी कामभोग की ओर लक्ष्य देना बन्द करदिया है, बातों को अब वे आदर की दृष्टि से नहीं देखते हैं "त सेय पुत्ता ? पर्सि राय केणइ सत्थप्पओगेण वा जाव उद्दवित्ता सयमेव रज्जसिरिं कारेमाणस्स पालेमाणस्स विहरितए - " अतः - हे पुत्र - ३ अब यही योग्य है कि तुम प्रदेशी राजा को किसी भी शस्त्र के प्रयोग से अथवा अग्निप्रयोग से - यावत् विषय के प्रयोग से मारकर स्वयं राज्यश्री का भोग करो उसका पालन करो 'तणं सूरियकंते कुमारे वरियताए देवीए एवं बुत्ते समाणे सूरियकंताए देवीए एयम णो आढाइ, णो परियाणाइ तुसिणीए संचिट्ठइ - " इस प्रकार सूर्य कान्ता देवी द्वारा कहे गये सूर्यकान्तकुमारने उसकी इस बात को आदर की दृष्टि से नहीं देखा और न तो उसकी उसने अनुमोदना ही की, किन्तु इस बात को सुनकर वह केवल चुपचाप ही रहा - " तरणं तीए सूरियकंताए इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था - " इसके बाद उस सूर्यकान्ता देवी को इस प्रकार का यह आध्यात्मिक यावत् संकल्प - विचार उत्पन्न हुवा - " मा णं
भेटले } तेथे हवे मा अघी वस्तुमाने याहरनी दृष्टियो लेता नथी. "तं सेयं खलु वि पुत्ता ? एसिं राय केणइ सत्थप्पओगेण वा जाव उद्दवित्ता सयमेव रज्जसिरिं कारेमाणरस पालेमाणरस विहरित्तए" मेथी हे पुत्र ! हवे मे ઉચિત જણાય છે કે તમે પ્રદેશી રાજાને કોઇ પણ શસ્ત્રના પ્રયાગથી કે યાવત્ વિષ પ્રયાગથી મારી નાખેા અને પોતે રાજયલક્ષ્મીના ઉપભાગ કરો, તેનુ રક્ષણ કરા. "तएण सूरियकंते कुमारे स्वरियकंताए देवीए एवंबुत्ते समाणे स्वरिय - कंताए देवीए एयमहं णो आढाइ, णो परियाणा, तुसिणीए संचिट्ठ" આ પ્રમાણે સૂર્યકાન્તા દેવી વડે કહેવાયેલ સૂર્યકાંત કુમારે તેની વાત પ્રત્યે આદર ખતાબ્યા નહિ અને તેની વાતની તેણે અનુમેદના પણ કરી નહિ પણ તે તેની सामे भूगो थाने उलो ४ रह्यो “तए ण तीए सूरियकंताए इमेयावे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था " त्यार પછી તે સૂર્યકાંતા દેવીને આ જાતના आध्यात्मिङ यावत् समुदय-विचार उत्पन्न थयो “माणं सूरियकंते कुमारे
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राजप्रनीयसूत्रे
प्रदेशिनो राज्ञः इमं रहस्यभेद करिष्यति, इति कृत्वा प्रदेशिनो राज्ञः छिद्राणि च मर्माणि च रहस्यानि च विवराणि च अन्तराणि च प्रतिजाग्रती प्रतिजाग्रती विहरति ।। सू० १६२ ॥
टीका - "तए णं तीसे" इत्यादि - दे - ततः खलु तस्याः सूर्यकान्ताया देव्या प्रदेशिराजस्य पराज्ञ्या अयमेतद्रूपः - वक्ष्यमाणप्रकारक : आध्यात्मिकः - आत्मगतो विचार: यावत् - यावत्पदेन “चिन्तितः कल्पितः प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः” इति संग्राह्यम् अर्थस्तु पूर्घसूत्रे गतः, समुदपद्यत - संजातः, तदेव दर्शयति-यत्प्रभृति - प्रद्दिनादारभ्य च खलु प्रदेशी राजा श्रमणोपासकः - श्रावको जातः, तत्प्रभृति तद्दीनादारभ्य च खलु राज्यं - स्वाम्यमात्य - सुहृत् - कोष -राष्ट्र - दुर्ग - सूरियकंते कुमारे पएसि स रण्णो रहस्सभेयं करिरस त्ति कहु पए सिस्स रणो छिंद्दाणिय-मम्माणिय-रहस्साणिय-विवराणिय- अंतराणिय पडिजागरमाणी पडिजागरमाणी विहरs - " सूर्यकान्तकुमार प्रदेशी राजा के पास, अर्थात् - प्रदेशी राजा से मेरी इस मन्त्रणा को प्रकाशित न करदे ? अतः - वह इस विचार से प्रदेशी राजा के छिद्रों को, दोषों को, मर्मों को, कुकृत्यरूप लक्षणों को - रहस्यों को एकान्तस्थान में सेवित निषिद्ध आचरणों को, विवरों को, निर्जनस्थानों को, और - अवकाश लक्षणरूप अन्तरों को बडी सावधानी के साथ बार- २ देखने लगी - अर्थात् - इन सब पर वह कडी दृष्टि रखने लगी. ॥
टीकार्थ — स्पष्ट है. “अज्झत्थिए जाव' में आगत इस यावत् पदसेचिन्तित कल्पित प्रार्थित मनोगत संकल्प, इन पदों का संग्रह हुवा है । इन विचार के विशेषणों का अर्थ पहले प्रकट किया जा चुका है । " रज्ज' च जाव अंतेउर च - " में आगत यावत् पद से - " बलं वाहनं कोष कोष्ठागार एसिस रण्णो रहस्सभेयं करि सह त्ति कटु पएसिस्स रण्णो छिद्दक्षणिय मम्म:णिय रह साणिय, विवराणिय अंतराणिय पडिजागरमाणी पडिजागरमाणी विहरइ" सूर्यांत भार प्रदेशी राज्यनी पासे भेटले } अहेशी रामने भारी मा વાત કહી દે નહિ એથી તે પ્રદેશી રાજાના છિદ્રોને, દોષોને, માને, કુષ્કૃત્યરૂપ લક્ષણાને, રહસ્યાને, એકાન્ત સ્થાનમાં સેવિત નિષિદ્ધિ આચરણાને, વિવાને, નિર્જન સ્થાનાને અને અવકાશ લક્ષણુરૂપ અન્તરાને બહુજ સાવધાનીપૂર્વક વારંવાર જોવા લાગી. એટલે કે બધી હિલચાલ પર ષ્ટિ રાખવા માંડી.
टीडार्थ–स्पष्ट ०४ छे. “अज्झत्थिए जाव" भां आवेला यावत् पहथी “चिन्तितः, कल्पितः प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः " या पहोनो संग्रह थयो छे, या महोना समर्थ पहेलां स्पष्ट ४श्वामां आव्यो छे. "रज्ज' च जाव अंतेउरं च" भां यावेत यावत् पहथी
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सुबोधिनी टीका सु. १६२ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णनम्
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वाहनं - रथादि
पुरं- नगरम्
बलरूपेण सप्ताङ्गम् राष्ट्रं - देशं यावत् - यावच्छब्देन " बलं - शैन्यं, कम्, कोषं - रत्नादिभाण्डागारम्, 'कोष्ठागारं - घा यस्थापन गृहम् इति संग्राह्यम्, अन्तःपुरम् - अन्तःपुर थपरिवारम् च पुनः मां च - तथा जनपदं विजितदेशं च अनाद्रियमाणः - तच्चिन्तामकुर्वाणा विहरति- तिष्ठति, तत् तर्हि मे मम श्रेय - समीचीन खलु प्रदेशिनं राजनं केनापि शस्त्र योगेण - खङ्गादिप्रयोगेण, वा - अथवा अग्निप्रयोगेण - अग्निना दाहनरूपेण, - मन्त्र प्रयोगेण-मन्त्रजापरूपेण, वा- अथवा, विषप्रयोग - विषमदानरूपेण, उपद्रुत्य - - मारथि वा सूर्यकान्तं सूर्यकान्तनामकं, कुमारं मम पुत्रं राज्ये स्थापयित्वा संनिवेश्य स्वयमेव - अहं स्वयं राज्यश्रियं - राज्यलक्ष्मीं कारयन्त्याः - बलवाहनादिभिः संवर्धयन्त्याः पालय. त्याः-विहर्तु - स्थातुम । इतिकृत्वा - इति वितकार्य एवं पूर्वोक्तानुसारेण संप्रेक्षते निर्धारयति निर्धाय सूर्यकान्तं कुमारं शब्दयति आह्वयति, शब्दयित्वा एवमवादीत् - या प्रभृति च खलु प्रदेशी राजा श्रमणोपासको जात
रक्षयन्त्याः
1
ܕ ܐ
पुर- " इन पदों का संग्रह हुवा है । अन्तःपुर शब्द से अन्तःपुरस्थ परिवार का ग्रहण किया गया है । तथा - जनपद से विजित देश लिया गया है, इस सूत्र का भावार्थ ऐसा है कि जब सूर्यकान्ता देवीने यह जान लिया कि प्रदेशी राजा श्रमणोपासक बन चुका है, और अपने बल - वाहन आदि की संभाल करने आदि की ओर उसका जैसा ध्यान होना चाहिये अब वैसा नहीं रहा है, और न वह मेरी भी अब कुछ चाहना करता है, तब उसके मनमें इस को दूर करने के लिये ऐसा विचार उठाकि जैसे भी बने, चाहे - अग्निप्रयोग से हो, या शस्त्रादि से हो, अवश्य ही इस प्रदेशी राजा का विनाश कर देना चाहिये, तथा — सके स्थान पर सूर्यकान्त पुत्र को स्थापित कर देना चाहिये. इसी में अब भलाई है। एसा विचार कर उसने पुत्र को बुलाया
"बल वाहन कोष कोष्ठागारं पुरं" मा होना संग्रह थयो मन्तःपुर शहथी અન્તઃપુરસ્થ પરિવારનુ ગ્રહણ થયું છે. તેમજ જનપદથી વિજિત (જીતેલા)દેશના અર્થ લેવામાં આવ્યા છે. આ સૂત્રના ભાવાર્થ આ પ્રમાણે છે કે જયારે સૂર્યકાંતા દેવીએ આ વાત જાણી લીધી કે પ્રદેશી રાજા શ્રમણાપાસક થઈ ગયા છે અને પેાતાના અલવાહન વગેરેની સભાળ રાખતા નથી અને મારી તરફ પણ તેનું ધ્યાન નથી ત્યારે તેના મનમાં તે કાંટાને દૂર કરવાના વિચાર ઉત્પન્ન થયા કે ગમે તે રીતે અગ્નિપ્રયાગથી, કે શસ્ત્રાદિ પ્રયાગથી આ રાજાને મારી નાખવા જોઇએ તથા તેની ખાલી પડેલી જગ્યાપર સૂર્યકાંત પુત્રને ગાદીએ બેસાડવા જોઇએ. આમાં જ હવે રાજયની ભલાઈ છે, આમ વિચાર કરીને તેણે પુત્રને ખેલાવ્યે. અને પાતાના આ જાતના
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राजप्रश्नीयसूत्रे
स्तत्भृति च खलु राज्यं च यावत् अन्तःपुर च जनपदे च तथा मानुष्यकान्मनुष्यसम्बन्धिनः कामभोगान्-अनाद्रियमाण :- अनादरदृष्टया पश्यत् विहरति, तच्छ्रेयः खलु तव हे पुत्र ! प्रदेशिनं राजानं केनापि शस्त्रप्रयोगेण वा यावत् अग्न्यादिप्रयोगेण वा उपद्रुत्य-मारयित्वा स्वयमेव राज्यश्रियं कारयतः पालयतो विहर्तुम् । ततः खलु स सूर्यकान्तः कुमारः सूर्यकान्ताया देव्याः स्वमातुः एतमर्थ नो आद्रियते-कामपि स्वीकृतिचेष्टां न दर्शयति, नो परिजानाति-नानुमोदयति । तर्हि किं करोति ? इत्याह-तूष्णीक:-किञ्चिदप्यवदन्नेव सतिष्ठते । ततः खलु तस्याः सूर्यकान्तायाः देव्या अयमेतद्रूपः वक्ष्यमाणप्रकारकः आध्यात्मिकः-आ मगतो विचारः यावत् चिन्तितः कल्पितः प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः समुदपद्यत-समुत्पन्नः, तदेवाऽऽह-सूर्यकान्तः खलु कुमारः प्रदेशिनो राज्ञः समीपे इमं मत्कथितं रहस्यभेद-गुप्तमन्त्रणाप्रकाशनं मा करिप्यति-मा कुर्यात्, इति कृत्वा-इति विचार्य प्रदेशिनो राज्ञः छिद्राणि-दूषणानि, मर्माणि-कुकृत्यलक्षणानि, एकान्तस्थानसेवितनिपिद्धाचरणानि, विवराणि-निर्जनस्थानरूपाणि, अन्तराणि-अवकाशलक्षणानि प्रतिजाग्रती प्रतिजाग्रती-अन्वेषयन्ती २ विहरतितिष्ठति ॥सू० १६२॥
मूलम्-तए णं सा सूरियकंता देवी अन्नया कयाइं पएसिस्स रणो अंतरं जाणइ असण-पाण-खाइम-साइम-सव्ववत्थगंधमल्लालंकारेसु विसप्पओग पउंजइ । पएसिस्स रपणो पहायस्स जाव सुहासणवरगयस्स ते विससंजुत्ते असण-पाण-खाइम-साइम-सव्ववत्थगंधमल्लालंकारे निसिरेइ। तए णं तस्स पएसिस्स रणो तं विससंजुत्तं असणं-पाणं-खाइम-साइमं आहारेमाणस्स समाणस्स
और-अपने इस प्रकार के विचारों को उसे सुनाया, पर उस विचार को पुत्रने अच्छा नहीं समझा. तब-सूर्यकान्ता के हृदय को उस विचारने आलोडित करदिया की-कहीं ऐसा न हो कि मेरे इस विचार को सूर्यकान्त, प्रदेशी राजा से प्रकट कर दे, अतः-वह प्रदेशी राजा के छिद्रादिकों को देखने की ताकमें रहनेलगी.॥३६२ વિચારે તેની સામે સ્પષ્ટ કર્યા. પણ પુત્રે આ વાતને સારી માની. નહિ ત્યારે સૂર્યકાન્તાના મનમાં આ જાતને વિચાર થયે કે મારી આ વાત એ પ્રદેશી રાજા સામે પ્રકટ કરી દેશે તે શું થશે? એટલા માટે તે હવે પ્રદેશ રાજાના છિદ્રો વગેરે જેવા લાગી. સૃ. ૧૬રા
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सुबोधिनी टीका सू. १६३ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ३७३ सरीरंसि वेयणा पाउठभूया उज्जला विउला पगाढा कक्कसा कडया फरुसा निहुँरा चंडा तिव्वा दुक्खा दुग्गा दुरहियासा पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक ते यावि विहरइ ॥ सू० १६३ ॥
छाया-ततः खलु सा सूर्यकान्ता देवी अन्यदा कदाचित् प्रदेशिनो राज्ञः अन्तरं जानाति अशन-पान-खादिम-स्वादिम- सर्ववस्त्रगन्धमाल्यालङ्कारेषु विष प्रयोगं प्रयुनक्ति, प्रदेशिने राज्ञे स्नाताय यावत् सुखासनवरगताय तान् विषसंयुक्तान अशन-पान-खादिम-स्वादिम-सर्ववस्त्रगंन्धमाल्यालङ्कारान् निसृजति । ततः खलु तस्य
"तएणं सूरियकतादेवी" इत्यादि
मूलार्थ---'तएणं' इसके बाद 'सरियकंतादेवी' सूर्यकान्तादेवीने 'अन्नयाकयाइ" किसी एकदिन 'पएसिस्स रन्नो' प्रदेशी राजाके 'अंतर जाणई' षष्ठपारणा के अवसररूप अन्तर को जान लिया और असण-पाणखाइम- साइम सव्ववस्थगंधमल्लालंकारेसु विसप्पओगं पउंजइ-" अशन-पान खाद्यरूप आहारों में, तथा-वस्त्र-गन्ध-माला अलङ्कारों में विष का संप्रयोग करदिया. पएसिस्स रणो ह ए जाव सुह सणवरगयस्स ते विससंजु-ते असण पाण खाइमसाइमसव्ववस्थगंधमल्लालंकारे निसिरेइ--'' प्रदेशी राजा जब स्नान करके यावत् सुनदरूप श्रेष्ठ आसनपर आसीन था. तब उसके लिये उसने-उन विषसंप्रयुक्त अशन पान-खाद्य-स्वाद्यरूप आहार को परोसा. तथा-पहिरने के लिये वस्त्र-गन्ध-माला. एवं-अलङ्कारों को दिया. “तए णं तस्स पएसिस्स रणो ते विससंजुत्तं असण
"तए णं सरियकंता देवी" इत्यादि।
भूदार्थ -"तएणं' त्या२ पछी "सूरियकता देवी" सूर्य तो वीमे"अन्नया कयाइ"। ये हिवसे “पएसिस्स रनो” प्रदेशी रागने "अंतरं जाणइ" ५०४ पाणाना भवस२ ३५ मत२ (as) onet सीधी भने “असणपाणखाइमसाइमसव्वब थगंधमल्लालंकारेसु विसप्पओग पउंजइ' मशन, पान, माघ અને રવાદરૂપ આહારમાં તેમજ વસ્ત્ર ગબ્ધ માલા અલંકારમાં વિષ સંપ્રયાગ કરી દીધું. "पएसिरस रप्णो व्हायरस जाव सुहासणवरगयस्स ते विससंजुत्ते असणपाणखाइमसाइमसव्ववत्थगंधमल्लाल कारे निसिरेइ" प्रदेशी २ion न्यारे स्नान કરીને યાવત સુખદરૂપ શ્રેષ્ઠ આસન પર આસીન હતા ત્યારે તેમના માટે તેણે તે વિષસંપ્રયુકત અશન, પાન, ખાદ્ય, સ્વાદ્યરૂપ આહાર પીરસ્યું, તેમજ પહેરવા માટે १२--मामा भने म ३। माया. "तए णं तस्स पएसिस्स रणो ते विस
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राजप्रश्नीयसूत्रे प्रदेशिनो राज्ञः तद्विषसंयुक्तम् अशनं पान खादिमं स्वादिमम् आहरतः सतः शरीरे वेदना प्रादुर्भूता-उज्जवला विपुला प्रगाढा कर्कशा कटुका परुषा निष्ठुरा चण्डा तीव्रा दुःखा दुर्गा दुरध्यासा पित्तज्वरपरिगतशरीरो दाहव्युत्क्रान्तश्चापि विहरति ॥ सू० १६३ ॥ पाणं-खाइम-साइम-आहारेम णस्स समाणस्स सरीरंसि वेयणा पाउभूवा. उज्जलाविउलः-पगाढा-कक्कसः-कडया-फरुस-निठुरा-चंडा-तिव्वा दुकखा दुग्गः -दु - हियासा-पित्तज्जरपरिग सरीरे-दाह कंते यावि विह इ-" इसके बाद उस प्रदेशी राजा के शरीर में उस विषसं प्रयुक्त आहार के करने से वेदना उत्पन्न हो गई । यह वेदना उज्ज्वलथी दुःखदाई होने से सुख लेश से रहितथी-विपुलथी. सकल शरीर में व्याप्त होने से विस्तीर्ण थी, अतएव-प्रगाढ थी. कर्कशकठोर थी.। जैसे-कर्कशपाषाण का संघर्ष शरीर की सन्धियों को तंड देता है. उसी प्रकार इसे कर्कश कहा गया है. अप्रीति जनक होने से यह कटुक थी. मन में अति रूक्षता की जनक होने से दुर्भेद्य थी. चण्ड-रौद्र थी तीव्रतीक्ष्ण थी. दुःखद स्वरूप होने से दुःख थी. चिकित्सा से भी दुर्गम्य होने के कारणे दुर्गथीं. दुस्सह होने से दुरास थी इस प्रकार की वेदनाउत्पन्न हो ने के कारण वह राजा पित्तपर से अक्रान्त शरीरवाला हो गया. और-समस्त शरीर भामें उसको दाह पड़ने लगी. । टीकाथ-स्पष्टहै-॥१६३।। संजुत्तं असण पाणखाइम साइम आहाग्माणस्स समाणस्स सरिरंसि वेयणा पाउब्भू उजला विउला पगाढा कक्कसा- डुया-परुसा-नि-चंडा तिवा-दुक्खादग्गा-दुरहियासा-वित्तज्जरपरिग सरीरे दाहववकंते याविं विहरइ' त्या२પછી તે પ્રદેશ રાજાના શરીરમાં તે વિષ સંપ્રયુકત આહાર કરવાથી વેદના ઉત્પન્ન થઈ ગઈ. આ વેદના ઉજજવળ હતી,દુ:ખદ હોવાથી સુખ રહિત હતી, વિપુલ હતી, સમસ્ત શરીરમાં વ્યાપ્ત હેવાથી વિસ્તીર્ણ હતી, પ્રગાઢ હતી; કર્કશકરી હતી જેમ કઠેર પથ્થરની રગડ શરીરના સંધિ ભાગોને તોડી નાખે છે, તેમ તે વેદના પણ આત્મ પ્રદેશને તેડતી હતી. એથી જ એને કર્કશ કહેવામાં આવી છે. અપ્રીતિજનક હોવાથી એ કટુક હતી, મનમાં અતિ રૂક્ષતાજનક હવાથી પુરૂષ હતી, ૨ નિષ્ફર હતી, અશકય હતી, ચંડ રૌદ્ર તીવ્ર તીણ હતી, દુઃખદ સ્વરૂપ હોવાથી દુ:ખરૂપ હતી, ચિકિત્સાથી પણ દુર્ગય હતી એથી તે દુર્ગ હતી, હંસહ હોવાથી દુરધ્યાસ હતી, આ જાતની વેદના ઉત્પન્ન થઈ હોવાથી તે રાજા પિત્તજવરાકાન્ત શરીરવાળે થઈ ગયે. અને તેના આખા શરીરમાં બળતરા થવા માંડી.
ટીકાર્થ–સ્પષ્ટ જ છે. જે સૂ. ૧૬૩
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सुबोधिनी टीका सू. १६३ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ३७५
____टीका-"तए णं सा" इत्यादि-ततः खलु सा सूर्यकान्ता देवी अन्यदा कदाचित्-कस्मिंश्चित् काले प्रदेशिनो राज्ञः अंतरम्-अवकाश-षष्ठपारणावसरमित्यर्थः, जानाति, अशन-पान-खादिम-सर्ववस्त्र-गन्ध-माल्यालङ्कारेषु-अशनादिसर्ववस्तुषु विषप्रयोग-विषस योग, प्रयुनक्ति-करोति एवं कृत्वा स्नाताय-कृतस्नानाय, यावत्-सुखासनवरगताय-सुनदरूपश्रेष्ठासनोपविष्टाय प्रदेशिने राज्ञे तान् विषसंयुक्तान् अशनपान-खादिम स्वादिम-सर्व वस्त्र-गन्ध-माल्या-ऽलङ्कारान् निसृजति-ददाति । ततः तदन्तरं खलु तस्य प्रदेशिनो राज्ञः तं विषसंयुक्तम् अशनंपानं-खादिमं स्वादिममिति चतुर्विधाऽऽहारम् आहरतः गृह्णतः सतः शरीरे वेदना प्रादुर्भूता-समुत्पन्ना, सा कीदृशी ? इ याह-उज्जवला-दुःखदतया उग्रा सुखलेशरहितेत्यर्थः, विपुला-प्तकलशरी व्यापकत्वाद् विस्तीर्णा, अतएव प्रगाढा-अतिशयिता, कर्कशा कठोरा, यथा कर्कशपाषाणसंघर्षः शरीरसन्धींस्त्रोटयति तथैवात्म प्रदेशांस्त्रोटयन्ती या वेदना जायते साः कर्क शेत्युच्यते, कटुका-अप्रीतिजनिका, परुषा मनसोऽतीव रूक्षत्वोत्पादिका निष्ठुरा-अशकयाप्रतीतिरत्वेन दुर्भ द्या, अत एव चण्डा-रौद्रा, तीवा-तीक्ष्णा दुःखा-दुःखदस्वरूपा, दुर्गा-चिकित्सादुर्गम्या, दुरध्यासा-दुःसहा, एवम्भूता वेदना समुद्भूता, तेन कारणेन स राजा पित्तज्वर परिगतशरीरः-पित्तज्वरेण परिगतम्-आक्रान्त शरीर यस्य स तथा, अत एव दाहव्युत्क्रान्तः-दाहव्याप्तः सन् चापि विहरति-तिष्ठति । ॥ मू० १६३ ॥
मूलम--तए णं से पएसी राया सूरियकताए देवीए अत्ताणं संपलद्धं जाणित्ता सूरियकताए देवीए मणसावि अप्पदुस्समाणे जे
व पोसहसाला तेणेक उवागच्छइ, पोसहसालं पमज्जेइ, उच्चारपासवणभूमि पडिलेहेइ दब्भसंथारगं संथरेइ, दब्भसंथारगं दुरुहइ, पुरत्थाभिमुहे संपलियंकनिसन्ने करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कहु एवं वयासी-नमोत्थुणं अरहंताणं जाव संप. ताणं नमोत्थुणं केसिस्स कुमारसमणस्स मम धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगस्स वंदामि गं भगवंतं तत्थगयं इहगए, पासउ मे भगवं तत्थगए इहगयं-त्तिकटु वंदइ नमसइ, पुस्विपिणं मए केसिस्स कुमारसमणस्स अंतिए थूलपाणाइवाए पच्चक्खाए जाव थूल
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राजप्रश्नीयसूत्रे परिग्गहे पच्चक्खाए तं इयाणि पिणं तस्सेव भगवओ अंतिए सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खामि जाव सव्वं परिग्गहं पच्चक्खामि सव्वं कोहं जाव मिच्छादसणसल्ले पच्चक्खामि अकरणिज्जं जोगं पच्चक्खामि, सव्व असणं० चउब्विह पि आहार जावजीवाए पच्चक्खामि, जंपि य मे सरीर इद जाव फुसंतुत्ति एवंपि य णं चरिमेहिं ऊसासनीसासेहिं वोसिरामि-त्ति कटू आलोइयपडिकते सभाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सेहम्मे कप्पे सूरियाभे विमाणे उववायसभाए देवत्ताए उववन्ने । ॥सू० १६४॥
इति पएसिरायरस वष्णणं समत्तं ।
छाया-ततः खलु प्रदेशी राजा सूर्यकान्ताया देव्या आत्मानं संप्रलब्धं ज्ञात्वा सूर्यकान्ताया देव्या मनसाऽपि अप्रद्विषन् यत्रैव पोषधशाला तत्रैव उपागच्छति पोषधशाला प्रमार्जयति, उच्चारप्रस्रवणभूमि प्रतिलेखयति, दर्भसरतारकं सरतण ति, दर्भस तारकम् दृरोहति पौररत्याभिमुखः संपल्यंङ्कनिषण्णः करत्लपरिगृहीतं
"तए णं से पएसी राया' इत्यादि ।
मूलार्थ-"तए णं-' इसके बाद “से पएसी राया-" वह प्रदेशी राजा "मूरियकंताए-देवीए अत्ताणं संपलद्धं, जाणित्ता-” सूर्यकान्ता देवी की यह उत्पात (करामत) है इस प्रकार जान कर भी-"मूरियकंताए देवीए मणसा वि अप्पदुस्समाणे जेणेव पोसहसाला तेण व उवागच्छर-" उस सूर्यकान्ता देवी के प्रति मनसे भी द्वेषभाव नहीं करता हुवा जहां पौषधशाला थी वहां पर गया-"पोसहसाल' पमज्जेइ-" वहां जा करके उसने पोषधशाला की प्रमार्ज की "उच्चारषासवणभूमि पडिलेहेइ-" उच्चार प्रस्रवण भूमि की प्रतिलेखना
"तए णं से पएसी राया' इत्यादि
भूदार्थ 'तएणं' त्या२ पछी से पएसी राण' ते अशी २०n 'सूरियकं ए देवीए अत्ताण सपलद्धं जाणित्ता" सूर्यान्ता हेवी 240 ५५ यु छ माम oneyan छतां "सरियक'ताए देवीए मणसा वि अप्यदुम्समाणे जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ" ते सूर्य Bidu वी प्रत्ये भनथी ५५ पलाव न ४२तi ज्यां पोष५॥ हती त्यां गया. (पोसहसालं पमज्जेइ) त्यां न तेणे पोषयशाजानी प्रभा ना ४३. "उच्चारपास व ण भूमि पडिलेहेइ "प्यार-प्रस१५ सूभिनी
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सुबोधिनी टीका सु. १६४ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ३७७ शिर आवर्त मस्तके अञ्जलिं कृत्वा एवमवादीत्-नमोऽस्तु खलु अहंद्भयः यावत् संप्राप्तेभ्यः नमोऽस्तु खलु केशिने कुमारश्रमणाय मम धर्माऽऽचार्याय धर्मोपदेशकाय, वन्दे खलु भगवन्तं तत्रगतम् इहगतः, पश्यतु मां भगवान् तत्रगतः इह गतम्' इति कृत्वा वन्दते नमस्यति, पूर्वमपि खलु मया केशिन: कुमारश्रमणग्यानिके स्थूलप्राणातिपातः प्रत्याख्यातः यावत् स्थूलपरिग्रहः प्रत्याख्यातः, की-"दब्भसंथारगं संथरेइ-" और फिर दर्भ का संथारा बिछाया "दब्भसंथारगं दुरूहइ-” उसे बिछा कर वह उस पर बेठ गया. "पुरस्थाभिमुहे संपलियंकनिसन्ने-" वहां आरूढ होकर वह पूर्व दिशा की ओर मुह करके पर्यङ्कासन से बैठ गया. "करयलपरिग्गहिय सिरसावत्तं मत्थए अजलिं कट्ट एवं वयासी-" और दोनों हाथों की अंजली बनाकर एवं-उसे मस्तक पर घुमाकर इस प्रकार से कहने लगा. “नमो थुणं अरहताणं जाव संपत्ताणं, नमो थुणं केसिस्स कुमारसमणरस मम धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगस्स-" अर्हन्त भगवन्तों के लिये नमस्कार हो, मेरे धर्मोपदेशक धर्माचार्य केशीकुमार श्रमण के लिये नमस्कार हो, “वंदामि णं भगवंतं त थ य इहगए-" यहां रहा हवा मैं वहां पर रहे हुवे भगवान् को वन्दना करता हूं, "-पासउ मे भगवं तत्थगए इहगय त्ति कटु वंदइ. नमसइ-" वहां पर रहे हुवे वे भगवान् यहां रहे हुवे मुझे देखें-इस प्रकार कह कर उस प्रदेशी राजाने उनकी वन्दना की नमस्कार किया. 'पुचि पि णं मए केसिस्स कुमारसमणस्स अंतिए थूलपाणाइवाए पच्चवखाए, जाव थूलपरिरगहे पच्चक्रवाए " पहलेभी मैंने केशी प्रतिसेमना ४२. "दब्भसंथारगं संथरेई" भने पछी मनु मासन त्या पाययुः "दब्भसंथारग दरूहह" तेने पाथरीने ते तेना ५२ Sो गयी. "परस्थाभिमुहे संपलिथंकनिस ने" त्या मा३८ थने ते पूर्व दिशा त२५ भुम ४शने ५ सनथी सी गयी. 'करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं म थए अंजलिं कट्ट एवं वयासी" मने मन्ने हायानी संलि मनावीने अने तेने भरत४ ५२ ३२वी ते मा प्रमाणे ४३१॥ साय. "नमोत्थुणं अरहंता ण जाव संपत्ताण नमोत्थुण केसिप स कुमारसमणस्स मम धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगरस" म त Mn. વંતને મારા નમસ્કાર છે, મારા ધર્મોપદેશક ધર્માચાર્ય કેશીકુમાર શ્રમણને મારા नम२४॥२ छ. "वंदामि गं भगवतं तत्थगय इहगए" 2487 २डीने त्यां वर्तमान सापानने बहन ४३ छ. "पासउ मे भगवं तत्थगए इहगय त्ति कटु वंदइ, नमसई" त्या २हतi सपान भने महानु. 40 प्रमाणे डीने ते प्रदेशी
तथे तभने बहन ४ो, नभ४।२ ४ा. "पुद्वि पि ण मए केसिस्सकुमारसमणस्स अंतिए थूलपाणाइवाए पञ्चक्खाए, जाव थूल परिग्गहे पञ्चक्खाए"
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राजप्रश्नीयसूत्रे तद् इदानीमपि खलु तस्यैव भगवतः अन्तिके सर्व प्राणातिषात प्रत्याख्याभि यावत् सर्व परिग्रहम् प्रत्याख्यामि, सर्व क्रोध यावत् मिथ्यादर्शनशल्यं प्रत्याख्यामि अकरणीयं योगं प्रत्याख्यामि, सर्वम् अशन० चतुर्बिधमपि आहार यावज्जीव प्रत्याख्यामि, यद पि च मे शरीरम् इष्टं यावत् स्पृशन्तु इति एतदपि च खलु चरमैः उच्छासनिःश्वासैः व्युत्सृजामि, इति कृत्वा आलोचितप्रतिक्रान्तः समाधिकुमारश्रमण के पास स्थूल प्राणातिपातका यावत् स्थूल परिग्रह का प्रयाख्यान किया है-'तं इयाणि पिणं तासेव भगवओ अतिए सव्वं पाणाइवाय पचक्वामि-” अब भी मैं उन्ही भगवान् के पास उसी सब प्रा प्रतिपात का प्रत्याख्यान करता हूं, "जाव सव्वं परिग्गहं पच्चक्खामि-" यावत् समस्त परिग्रह का प्रत्याख्यान करता हूं। सच्चं कोहं जाव मिच्छादसणसल्लं पञ्च क्वामि-" समस्त क्रोध का प्रत्याख्यान करता हू. यावत् भिथ्यादर्शन शल्य का प्रत्याख्यान करता हूं। "अकरणिज्ज जोगे पञ्चवरवामि-" अकरणीय योग (अशुभयोगका) का प्रयाख्यान करता हूं, "सव्व असणं० चउविहं वि आहार जाव ज्जीवाए पच्चक्वाभि-" अशन-पान आदिरूपचारों प्रकार के आहार का यावज्जीव त्यागकरता हूं “जं पिय मे सरीरं इट्ट जाव फुसंतु त्ति एवं पि य णं चरिमेहिं उसासनीसासेहिं वोसिरामि त्ति कटु-" मैंने पहले जिस इष्टादि विशेषण विशिष्ट शरीर की रक्षा की इस अभिप्राय से कि-इसे शीत उष्ण आदि परिग्रह तथा-सादिकृत उपसर्ग आदिकी बाधा न पहुंचाये -जब मैं उसी शरीर का अन्तिम उच्छास-निश्वासों तक परि या। करता हू, इस प्रकार विचार करके-"आलोપહેલાં પણ મેં કેશીકુમારશ્રમણની પાસે સ્થૂલ પ્રાણાતિપાતનું યથાવત સ્થૂલ પરિગ્રહનું प्रत्याभ्यान यु तु "त इणिं पि णं तस्सेव भगवओ अंतिए सव्वं पाणाइवायं पञ्चक्रवामि' वे ५ ते ४ लावाननी पासे ते समस्त प्राए पाति नुं प्रत्याज्यान ४३ ७. "जाव सव्वं परिग्गहं पच्चक्वामि” यावत समस्त परि. अनु प्रत्याभ्यान ४३ छ. “सव्वं कोहं जाव मिच्छादसणसल्लं पच्चवखामि" સમસ્ત ક્રોધનું પ્રત્યાખ્યાન કરૂં છું. યાવત મિથ્યાદર્શન શલ્યનું પ્રત્યાખ્યાન કરૂં છું. "अकरणिज्जं जोगे पञ्चक्रवामि" ५४२९१५ यारानु प्रत्याभ्यान ३ छ. "सव्वं असणं० चउविह वि आहारं जावज्जीवाए पञ्चकखामि" "शन-पान वगेरे ३५ यार ५२ना मारना यावत पन त्या ४३ छु" पि य मे सरीर इदं जाव फुसंतु ति एवं पिय ण चरिमेहिं उसासनीसासेहिं वोसिरामि ति कट्ट' में પહેલાં જે ઈષ્ટ વગેરે વિશેષણ વિશિષ્ટ શરીરની રક્ષા કરી તે આ પ્રયોજનથી કે આને શીતઉણ વગેરે પરીષહ તથા સર્પાદિકૃત ઉપસર્ગ વગેરે બાધા પહોંચાડે નહિ. હવે હું તે જ શરીરને અંતિમ ઉચ્છવાસ નિ:શ્વાસ સુધી પરિત્યાગ કરું છું. આ
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सुबोधिनी टीका सू. १६४ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ३७९ प्राप्तः कालमासे कालं कृत्वा सौधर्म कल्पे सूर्याभे विमाने उपपातसभायां देवतया उपपन्नः ॥ सू० १६४ ॥
इति प्रदेशिराजस्य वर्णन समाप्तम् ।
टीका-"तए णं से पएसी” इत्यादि-ततःखलु स प्रदेशी राजा सूर्यकान्ताया देव्या-स्वराज्या आत्मानं-स्व संप्रलब्धं-विषप्रदानेन वञ्चितं सूर्यकान्तया मा णार्थ महाविषं दत्तमिति ज्ञात्वा सूर्यकान्ताया देव्या मनसाऽपि-मनोमात्रेणापि अप्रद्विपन्-द्वेषमकुर्वन् यत्रैव पौषधशाला तत्रैवोपागच्छति, पौषधशालां प्रमार्जयति, उच्चारप्रस्रवणभूमि प्रतिलेखयति, दर्भसंरतारकं सस्तृणाति दर्भस स्तारकं दूरोहति-अधिरोहति दर्भसंस्तारकोषयुपविशतीत्यर्थः, पौरस्त्याभिमुख:-पूर्वदिगभिइ पडिकंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे सूरिया विमाणे उबवाय भाए देवत्ताए उववन्ने-" उसने पहले गुरू को सम्मुख करके जिन अतिचारों वा प्रायाख्यान किया था अब उन्हें पुनः अकरण विषय से अतिक्रान्त करके, अर्थात्-आलोचनापूर्वक मिथ्यादुष्कृत देकरके चित्त की समाधि प्राप्त करता हूं. और इसी स्थिति में वह कालमास में काल करके सूर्याभविमान में उपपात सभा में देव पर्याय से उत्पन्न हो गया. ॥
टीकार्थ-प्रदेशी राजाने जब जाना कि- मेरी रानी सूर्यकान्ताने ही मुझे मारने के लिये विष प्रदान कर इस स्थिति पर पहुंचाने का निमित्त उपस्थित किया है तो वह इस हालत में भी उसके प्रति द्वेषभाव से रहित बना रहकर जहां पौषधशाला थी वहां पर चला गया. वहां जाकर उसने पौषधशाला की प्रमार्जना की उच्चार प्रस्रवण भूमि की प्रतिलेखना की. और-दर्भ का सं तारक बिछाया बिछाकर फिर वह उसपर पूर्व दिशा की ओर मुँह करके प्रभारी विया२ ४शन 'आलोइयपडिकंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे सूरियाभे विमाणे उववायसभाए देवत्ताए उववन्ने" तेणे पद ગુરૂની સામે જે અતિચારાનું પ્રત્યાખ્યાન કર્યું હતુ હવે તેમને ફરી અકરણ વિષયથી અતિક્રાંત કરીને-એટલે કે “આલેચનાપૂર્વક મિથ્યા દુષ્કૃત આપીને ચિત્તની સમાધિ પ્રાપ્ત કરું છું. અને આવી સ્થિતિમાં તે કાલમાસમાં કોલ કરીને સૂર્યાભવિમાનમાં ઉપપાત સભામાં દેવ પર્યાયથી જન્મ પામે.
ટકાથ–પ્રદેશી રાજાએ જ્યારે આ વાત જાણું કે મારી રાણી સૂર્યકાન્તાએજ મને મારવા માટે વિષ આપ્યું છે અને મારી આ દશા કરી છે. તે તે પરિસ્થિતિ માં પણ સૂર્યકાન્તા પ્રત્યે અઢષભાવથી વ્યવહાર કરીને જ્યાં પૌષધશાળા હતી ત્યાં ગયા. ત્યાં જઈને તેણે પૌષધશાળાની પ્રમાર્જના કરી. ઉચારપ્રસવણુ ભૂમિની પ્રતિ લેખના કરી અને દર્ભસસ્તારક પાથર્યો ત્યારપછી તે તેની ઉપર પૂર્વ દિશા તરફ
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राजप्रश्नीयसूत्रे मुखः स पल्यङ्कनिषणः-पर्यङ्कासनेन समुपविष्टः सन करतलपरिगृहीतं शिरआवर्त मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा एवमवादीत्-नमोऽस्तु खलु अर्हद्भयः यावत् संप्राप्तेभ्यः । अत्र यावत्-शब्देन नमोऽत्थु गं” पाठः सर्वोऽपि वाच्यः। तथा नमोऽ तु खलु केशिने कुमारश्रमणाय मम धर्माचार्याय धर्मोपदेशकाय, वन्ते खलु भगवन्तं तत्र गतम् इह गतः-अत्र स्थितोऽहम्, पश्यतु मे-मम मामित्यर्थः, भगवान् केशिकुमारश्रमणस्तत्रगत इहगतम्, इति कृत्वा वन्दते नम यति, कथयति-पूर्वमपि खलु मया केशिनः कुमारश्रमण य अन्तिके समीपे स्थूलप्राणातिपातः प्रत्याख्यातः ? यावत्-यावच्छब्देन “स्थूलम्षावादः प्रत्याख्यातः२ थूलादत्ताऽऽदानं प्रत्याख्यातम् ३, इति संग्राह्यम, स्थूलपरिग्रहः प्रत्याख्यातः४, तद् इदानीमपि खलु तस्यैव पल्यङ्कासन से बैठ गया, दोनों हाथो को जोड़ा-और-आवर्तकर इस प्रकार कहने लगा. अर्हन्तों को नमस्कार हो. यहां-यावत् शब्द से “नमोत्थुणं " पाढ पूरा उसने पढा यह समझ लेना चाहिये । इस प्रकार कहते कहते उसने ऐसा भी कहा कि-मुझे धर्म का उपदेश देने बाले जो मेरे धर्माचार्य केशी कुमार श्रमण हैं- उन्हें भी मेग नमस्कार हो, वे यद्यपि यहां पर मेरे पास वर्तमान में नहीं हैं अत जहां पर भी वे विराजमान हों मैं यहां रहा हुवा उ हे नमस्कार करता हूं, वहां रहे हुवे वे भ वान् केशीकुमा श्रमण यहां रहे हुवे मुझे देखे इस प्रकार कहकर उस में उन को वन्दना की-नमस्कार किया, वन्दना-नमस्कार कर फिर वह इस प्रकार से कहने लगा-मैने पहले भी केशीकुमा श्रमण के समीप स्थूल प्राणातियात का प्रत्याख्यान किया है-यावत् स्थूल मृषावाद का प्रत्याख्यान किया है, स्थूल अदत्तादान का प्रत्याख्यान किया है. और-स्थूल परिग्रह का प्रत्याख्यान किया મુખ કરીને પર્યકાસનની મુદ્રામાં બેસી ગયા ત્યાર બાદ તેણે બંને હાથની અંજલિ બનાવી અને તેને મસ્તક પર ફેરવીને આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યા. અહીં તેને નમસ્કાર छ, मही यावत् पहथी "नमोणं" ५३१५ा त माया ये बात समावीमध्ये. આ પ્રમાણે કહેતાં કહેતાં તેણે આ પ્રમાણે કહ્યું કે મને ધર્મોપદેશ આપનાર મારા ધર્માચાર્ય કેશીકુમાર શ્રમણને મારા નમસ્કાર છે. તેઓ અહીં હમણા વિદ્યમાન નથી છતાંએ તેઓશ્રી જ્યાં વિરાજતા હોય હું અહીં રહીને તેમને નમસ્કાર કરૂં છું. ત્યાં રહેતા તે ભગવાન કેશીકુમારશ્રમણ અહીં રહેલા મને જુવે. આ પ્રમાણે કહીને તેણે તેમને વંદન કરી નમસ્કાર કર્યા. વંદન તેમજ નમસ્કાર કરીને તે આમ કહેવા લાગ્યું કે પહેલાં પણ કેશકુમારશ્રમણની પાસે સ્થૂલ પ્રાણાતિપાતનું પ્રત્યા
ખ્યાન કર્યું છે. યાવત સ્થૂલ મૃષાવાદનું પ્રત્યાખ્યાન કર્યું છે, રસ્થૂલ અદત્તાદાનનું પ્રત્યાખ્યાન કર્યું છે અને સ્થૂલ પરિગ્રહનું પ્રત્યાખ્યાન કર્યું છે. હવે હું તેજ કેશી
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सुबोधिनी टीका सू. १६४ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ३८१ भगव :- केशिकुमारश्रमणस्यैव अन्तिके तदाज्ञावर्तित्वेन तस्मिन् भगव त विद्यमाने सति समीपे इव समीपे सम्प्रति सर्व प्राणातिपातं प्रत्याख्यामि यावत्-यावच्छब्देन सवं मृषावादं प्रत्याख्यामि, सर्वमदत्तादानं प्रत्याख्यामि, इति सग्राह्यम्, सर्व परिग्रहं प्रत्याख्यामि तथा क्रोधं यावत् यावच्छब्देन-मान-मायां लोभं राग द्वेषं कलहमभ्याख्यान पैशुस्य परपरिवादं रत्यरती माया-मृषा' इति संग्राह्यम्, मिथ्यादर्शनशल्यं प्रत्याख्यामि, सर्वम् अशनमिति- अशन खाद्यं स्वाद्यं चतुर्विधमाहारं यावज्जीवं-प्राणधारणान्तं प्रत्याख्यामि यद पि च मे शरीरम् इष्टं यावत् पृशातु अत्र यावच्छब्देन का तत्वादि विशेषणविशिष्टं शरीर शीतोष्णादयः परी पहाः सादिकृता उप र्गाः कर्कशकठोरादयः स्पर्शाश्च मा स्पृश तु इत्यन्तं संग्राहै. अब मैं उसी केशीकुमारश्रमण के पास उनकी आज्ञा के वशवर्ती होने के कारण उन्हें अपने समीप रहा हुवा जैसा मानकर समात प्राणातिपात वा प्रत्याख्यान करता हूं. समात मृषावाद का प्रत्याख्यान करता हूं और समात अदत्तादान का प्रत्याख्यान करता हूं और समस्त परिग्रह का प्रत्याख्यान करता हूं. । तथा क्रोधको यावत् मान माया लोभका राग-द्वेष, कलह का प्रत्याख्यान पैशून्य परिवाद अरति माया मृषा का, एवंमिथ्यादर्शनशल्य का प्रत्याख्यान करता हूं। तथा-समस्त अशनका पानका खाद्यका स्वाद्यका, याच ीव-प्राणधा ण पर्यन्त परित्याग करता हूं, तथा-कान्तत्वादि विशेषणों से युक्त जिस शरीर की मैंने शीतोष्ण आदिपरीपहों से सर्पादिकृत उपसर्गो से एवं-कर्कश कठोर आदि स्पर्धा से ये सब इसे स्पर्श न करें इस ख्याल से रक्षा की इसका भी मैं अब अन्तिम श्वासोच्छास तक यावज्जीव तक परित्याग करता हू । तात्पर्य इसका इस प्रकार से है-मैने इस शरीर કુમારશ્રમણની પાસે તેમની આજ્ઞાને વશ હોવાને લીધે તેઓ મારી પાસે જ છે એમ માનીને સમસ્ત પ્રાણપતતનું પ્રત્યાખ્યાન કરૂ છું. સમસ્ત મૃષાવાદનું પ્રત્યાખ્યાન કરૂં છું. સમસ્ત અદત્તાદાનનું પ્રત્યાખ્યાન કરૂં છું અને સમસ્ત પરિગ્રહનું પ્રત્યાખ્યાન કરૂં છું. તેમજ કંધનું યાવત્ માન માયા લાભ રાગ દ્વેષ કલહનું પ્રત્યા ખ્યાન કરૂં છું, શિન્ય પરિવાર અરતિ માયા મૃષા અને મિથ્યાદશનશલ્યનું પ્રત્યાખ્યાન કરૂં છું. તેમજ સમસ્ત અશનનું પાનનું, ખાદ્યનું, સ્વાદ્યનું, યાવત્ જીવન પ્રાણ ધારણ પર્યન્ત વિસર્જન કરું છું. તેમજ કાન્ત ઈત્યાદિ વિશેષણેથી યુક્ત જે શરીરની મે શીતોષ્ણ વગેરે પરીષહથી સર્પાદિકૃત ઉપસર્ગોથી અને કર્કશ કઠેર વગેરે સ્પર્શીથી-એઓ આ શરીરને સ્પર્શે નહિ એ ઇચ્છાએ રક્ષા કરી આને પણ હું હવે અંતિમ શ્વાસે છવાસ સુધી પરિત્યાગ કરૂં છું. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે
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__राजप्रश्नीयसूत्रे ह्यम, तथाहि-का-तं, प्रियं मनोज्ञं, मनआम, धैर्य-धैर्यस्वरूपं वैश्वसिकं विश्वास योग्यं, संमतम्, अनुमतं बहुमतं, भाण्डकरण्डकसमानं, रत्नकरण्डकभूतमिदं शरीर मा खलु शीतं मा खलु उष्णं, मा खलु क्षुधा मा खलु पिपासा, मा खलु व्यालाः-सर्पाः, मा खलु चोराः, मा खलु दंशाः, मा खलु मशकाः, मा खलु बातिकः-बातसम्बन्धी रोगातङ्कः एवं पैत्तिकः श्लैष्मिकः सान्निपातिकः इत्यादि का विविधा रोगातङ्काः, तत्र रोगाः-ज्वरादयः, आतङ्काः-सद्योघातिशूलादयः, तथा परीषहा:-क्षुधादयः, उपसर्गाः सर्षादिकृता उपद्रवाः, स्पर्शा:-कर्कशकठोरा दयः मा स्पृशन्तु-मे शरीरे मा संलग्ना भव तु इति-इति बुद्धया सरक्षितम् एतदपि च खलु शरीरं चरमैः-अन्तिमैः उच्छासनिःश्वासैः व्युत्सृजाभि-त्यजामि, को कान्त पिय-मनोज्ञ मन आम, धैर्यस्वरूप विश्वासयोग्य, संमत-अनुमान, तथा-बहुमत माना एवं रत्न रखने के पिटारे के जैसा बहुमूल्य माना। अतः-इस की तरह से मैने संभाल रखखी इसे शीत से बाधा न हो जावे, उष्णसे संताप न हो जावे, क्षुधा से कष्ट न हो जावे, पिपासा से यह आकुलित न हो जावे. सर्षादि कृत उपद्रवों से यह पीडित न हो जावे. चोरों द्वारा इसे आपत्ति में पडना न पडे, दंश-मशक इसे काट न लेवे. बात सम्बन्धी रोगातङ्को-ज्वरादि रोगों सद्योघाति शूलादिकों से यह दुःखित न हो जावे पैत्तिक-श्लेष्मिक-सान्निपातिक रोगातङ्क इसे मलिन न करदे कर्कश-कठोर आदि स्पर्श करके इसके सौन्दर्य का अपहरण न करे, इस प्रकार से मैने इसकी हरतरह के खूब रक्षाकीथी, परन्तु-अब मैं ऐसे प्रिय इस शरीर के साथ अपना सम्बन्ध जीवन के अन्तिमक्षण तक यावज्जीव तक बिच्छेद કે મેં આ શરીરને કાંત, પ્રિય, મનોજ્ઞ, મન આમ, ધીર્યસ્વરૂપ, વિશ્વાસ , સંમત-અનુત્તમ તેમજ બહુમત જાણે અને રત્ન મૂકવાની પેટીની જેમ બહુ મૂલ્યવાન માન્યું એથી જ આની મેં બધી રીતે સંભાળ રાખી. આને ઠંડીથી પીડા ન થાય, ઉષ્ણતાથી સંતાપ ન થાય, સુધાથી કષ્ટ ન થાય, તરસથી વ્યાકુળ ન થાય સર્પાદિકૃત ઉપદ્રથી આ પીડિત ન થાય રે વડે આ આફતમાં ન ફસાઈ પડે, દંશ-મશક આને કષ્ટ ન આપે વાત સંબંધી રોગાત કે-જવરાદિ રોગો, સઘોઘાતિ ચૂલાદિકેથી આ શરીર દુ:ખિત ન થાય, પૈતિક ફ્લેમ્બિક, સાન્નિપાતિક ગાતંક આ શરીરને મલિન ન કરે, કર્કશ કઠેર વગેરેના સ્પર્શથી એના સૌન્દર્યનું અપહરણ ન કરે આ પ્રમાણે મે બધી રીતે આ શરીરની ખૂબ રક્ષા કરી હતી પણ હવે હું આ એવા પ્રિય શરીરની સાથે પિતાને સંબંધ જીવનના અંતિમ ક્ષણ સુધી છોડી દઉં છું. આમ વિચાર કરીને તે પ્રદેશી
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सुबोधिनी टीका सू. १६४ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णनम्
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इति कृत्वा - इत्यालोच्य स प्रदेशी राजा आलोचितप्रतिक्रान्तः - आलोचिताः -पूर्व गुरुमभिमुखीकृत्य प्रकाशिताः अतिचा : ते पश्चात् प्रतिक्रान्ताः - पुनरकण विषयी - कृता येनासौ तथा आलोचनापूर्व क. प्रदत्त मिथ्या दुष्कृत इत्यर्थः समाधि प्राप्तचित्त समाधिकः : सन् कालमासे - कालावसरे कालं कृत्वा - मृत्युं प्राप्य सूर्यामे विमाने उपपातसभायां देवतया - देव वेन उपपन्नः - स्मुत्पन्नः । || सू० १६४ || इति प्रदेशिराजस्य वर्णनं माप्तम् ॥
अथ देशराजजीवस्य सूर्याभदेव याssगामिभववर्णनमाह
मूलम् - तणं सूरियाभेदेवे अहुणोववन्नमए चेव समाणे पंचविहाए पत्तीए पज्जत्तिभावं गच्छइ, तं जहा - आहारपजत्तीए सरीरपजत्तीए इंदियपजत्तीए आणपाणपजत्तीए भासमणपजत्तीए, त एवं खलु भो ! सुरियाभेणं देवेणं दिव्वा देविड्डी दिव्वा देवजुई दिच्वे देवाणुभावे लद्धे पत्ते अभिसमन्नागए । ॥ सू० १९६५ ॥
छाया -- ततः खलु स सूर्याभो देवः अधुन पपन्नक एव सन् पञ्चविधया पर्याप्ति भावं गच्छति, तद्यथा आहारपर्याप्त्या १, शरीरपर्याप्त्या २, इन्द्रियपर्याया३, आन
करता हूँ. इस तरह विचार कर वह प्रदेशी राजा आलोचित प्रतिक्रान्त होकर समाधि में तल्लीन हो गया. और-काल मास में मरण प्राप्त कर सूर्याभविमान मैं- - उपपात सभा में देव पर्याय से उत्पन्न हो गया. || सू० १६४ || ( प्रदेशी राजा वर्णनसमाप्त. )
"प्रदेशी राजा के जीव- सूर्याभ देव के आगामी भवका वर्णन "तए णं से सूरियाभे देवे अहुणोववन्नए- " इत्यादि मूलार्थ - "तए णं सरियामे देवे -" इसकेबाद तत्काल उत्पन्न हुवा ही वह सूर्याभदेव पांच प्रकार की पर्याप्तियों से पर्याप्त हो गया. "तं जहा - आहार
રાજા આલેાચિત પ્રતિક્રાંત થઈને સમાધિમાં તલ્લીન થઇ ગયા અને કાલ માસમાં મરણ પામીને સૂર્યભવિમાનમાં ઉપપાત સભામાં દેવ પર્યાયથી ઉત્પન્ન થયા. સૂ.૧૬૪ા પ્રદેશી રાજાનું વર્ણન સમાપ્ત.
“પ્રદેશી રાજાના જીવ-સૂર્યાભદેવનુ આગામી ભવનું વર્ણન.” "तएण से सरिया देवे अहुणोववन्नए" इत्यादि. भूसार्थ - “तणं सूरियाभे देवे" त्यार पछी उत्पन्न थतां न ते सूर्यालहेव चांथ प्रारनी पर्याप्तिमोथी युक्त थ गयो. "तं जहा - आहार पज्जत्तीए, सरीर
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राजप्रश्नीयसूत्रे पाणपर्याप्त्या४, भाषाननःपर्याप या ५, तद् एवं खलु भो ? सूर्याभेन देवेन दिव्या देवर्द्धिः, दिव्या देवद्युतिः. दिव्यो देवानुभावः लब्धः प्राप्तः अभिसमन्वागतः ॥ सू० १६५॥
टीका-"तए णं से सूरियाभे देवे” इत्यादि-ततः खलु स सूर्याभो देवः अधुनोपपन्नक एव-तत्कालात्पन्नक एव सन् पञ्चविधया पर्याप्त्या पर्धाप्तिभाव गच्छति. पर्याप्तिपञ्चकस्पार्थः पूर्व ज्यशीतितमसूत्रे गतः । एवम अनेन कारणेन प्रदेशिराजभवं आस्मिकभावपूर्व कश्रावकधर्माराधनरूपेण आलोचितप्रतिलोचित्वसमाधिमरणादिरूपेण च कारणेन भो-हे गौतम ! सूर्यामदेवेन इयं दिव्या देवाद्धिः-विमानादिरूपा दिव्या देवद्युतिः-शरीराभरणादिकान्तिः, दिव्यो देवा नुभावः-देवप्रभावः, लब्धः उपार्जि :, प्राप्तः-स्वायत्तीभूतः अभिसमन्वागत:भोग्यत्वेन सम् गभिमुखमागतः ॥सू० १६५॥ पज्जत्तीए, सरीरपजत्तीए. इंदि पज्जत्तीए, आण- पणपज्जत्तीए, भासमणपज्जत्तीए-" वे पांच पर्याप्ति । इस प्रकार से हैं-आहारपर्याप्ति-शरीरपर्याप्त-इन्द्र. - पर्याप्ति-श्वासो-मास पर्याप्ति और-भाषा मनःपर्याप्ति, "तं एवं खलु भो? सूरियाभेणं देवेणं दिव्वा देविदी-दिव्या देवजुई-दिव्वे देवाणुभावे-लद्धे पत्ते अभिसमन्नागए-" इस तरह से इस सूर्याभदेवने प्रदेशी राजा के भवमें अन्तिम भवपूर्वक श्रावक धर्म की आराधना की थी. फिर-आलोचित प्रतिक्रान्त होकर यह समाधि प्राप्त हुवा था. इन्ही सब कारणों से इसने सूर्याभदेव के पर्याय में यहदिव्यदेवद्धि-विमानादि-दि० देवय त-शरीराभरणादि कान्ति और दिव्यदेवानुभाव-देवप्रभाव उपार्पित किया है प्राप्त किया है. अपने अधीन किया है. और उसे योग्यरूप होने के कारण अच्छी तरह से उसे भोगा है
टीकार्थ-स्पष्ट है. पांच प्रकार की पर्याप्तियों का स्वरूप पहिले ८३-वे सूत्रमें प्रगट किया गयां है ॥सू० १६५॥ पज्जत्तीए. इंदियपज्जत्तीए, आणपाण पजत्तीए, भासमणपजत्तीए" ते पांय પતિઓ આ પ્રમાણે છે-આહાર પર્યાપ્તિ, શરીર પર્યાપ્તિ, ઈન્દ્રિય પ્રર્યાપ્તિ, શ્વાસો२७पास पालि मने भाषा मन: पाति "तं एवं खलु भो ! सूरियाभेणं दवेणं दिव्वादेबिङ्कि-दिव्वा देवजुई-दिव्वे देवाणुभावे लद्धे पत्ते अभि सम नागए" प्रमाणे
તે સૂર્યાભદેવે પ્રદેશ રાજાના ભવમાં આસ્તિક ભાવપૂર્વક શ્રાવક ધર્મની આરાધના કરી હતી અને પછી આલોચિત પ્રતિકાત થઈને તે સમાધિ પ્રાપ્ત થયો હતો. આ બધા કારણથી તેણે સૂર્યાભદેવના પર્યાયમાં દિવ્ય દેવદ્ધિ વિમાનાદિ દિવ્યદેવતિ શરીરાભરણુદિ કાંતિ અને દિવ્ય દેવાનુભાવ દેવપ્રભાવ ઉપાર્જિત કર્યા છે, મેળવ્યાં છે. સ્વાધીન બનાવ્યાં છે. અને તેને ભાગ્યરૂપ હોવાથી સારી રીતે તેનો ઉપભોગ કર્યો છે.
ટીકાર્થ સ્પષ્ટ છે. પાંચ પ્રકારની પર્યાપ્તિનું સ્વરૂપ પહેલા ૮૩ માં સૂત્રમાં પ્રકટ કરવામાં આવ્યુ છે. ૧૬પા
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सुबोधिनी टीका स. १६६ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ३८५
मूलम्-सूरियाभस्स णं भते ! देवस्स केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता । से णं भंते ! सूरियाभे देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता कहिं गमिहिइ ? कहि उववजिहिइ ? गोयमा ! महाविदेहे वासे जाणि इमाणि कुलाणि भवंति तं जहा-अढाइ दित्ताइ विउलाई विस्थिपणविउलभवणसयणासणजाणवाहणाई बहुधणबहुजायरूवरययाइ आओगपओगसंपउत्ताइ विच्छड्डियपउरभत्तपाणाइ बहुदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभूयाइ बहुजणस्स अपरिभ्याइ, तत्थ अन्नयरम्मि कुलम्मि पुत्तत्ताए पच्चायाइस्सइ ॥सू० १६६ ॥
छाया-सूर्याभस्य खलु भदन्त ! देवस्य कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! चत्वारि पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता । स खलु भदन्त ! सूर्याभो देवः तस्माद्देवलोकाद् आयुःक्षयेण भवक्षयेण स्थितिक्षयेण अनन्तरं चयं त्यक्त्वा कुत्र
सरियाभस्स णं भंते-? देवस्स केवलयं कालं ठिई पण्णत्ता-" इत्यादि ___ मूलार्थ-प्रश्न-"सूरियाभस्स णं भंते-? देवस्स केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता-" हे भदन्त-? सूर्याभ देव की स्थिति कितनी कही गई है-३ उत्तर-"गोयमा-? चत्तारि पलिओवमाइ टिई पण्णत्ता-" हे गौतम-? चार पल्योपम की सूर्याभदेव की स्थिति कही गई है । प्रश्न-“से ण भंते-? सूर्याभे देवे ताओ देवलोगाओ आउ रखएणं भवक्खएणं ठिइक्वएण अणंतर चय चइत्ता कहिं गभिहिइ कहिं उपवजि हिइ-' हे भदन्त-? वह सूर्याभ देव उस देवलोकसे आयु क्षय
"मृरियाभस्स णं भंते ! देवस्स केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता" इत्यादि.
भूतार्थ-प्रश्न "सरियाभ स णं भंते! देवस्स केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता" हे महन्त ! सूर्याभवनी स्थिति सी डेवामा मावी छ ? उत्तर--गोयमा? चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता-" गौतम ! सूर्यालवनी स्थिति या२५८या ५ टक्षी ४ामा मावी छ प्रश्न-' से ण भंते ! सूरियामे देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएण भवक्रखएण ठिइक्खएण अणतर चयं चइत्ता कहिं गमिहिइ कहिं उववज्जिहिइ-" लत ! ते सूर्यालहे ते पाथी मायुक्षय-मक्षय
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राजप्रनीयसूत्रे
गमिष्यति ? कुत्रोत्पत्स्यते ? महाविदेहे वर्षे यानि इमानि कुलानि भवन्त, तद्यथा - आढ्यानि दीप्तानि विपुलानि विस्तीर्णविपुलभवनशयनासनयानवाहनानि बहुधन - बहुजातरूपरजतानि आयोगप्रयोग संप्रयुक्तानि विच्छर्दितप्रचुरभक्तपानानि बहूदासीदास गोमहिषग वेलकप्रभृतानि बहुजनस्य अपरिभृतानि, तत्र अन्यतमस्मिन् कुले पुत्रतया यास्यति ॥ सू० १६६ ॥
भवक्षय, एवं-स्थितिक्षय के बाद अनन्तर देव शरीर को छोड़कर कहां जावे गा-३ कहां उत्पन्न होवेगा - १३ उत्तर - " गोयमा ? महाविदेहे बासे जाणि इमाणि कुल णि भवति, त जहा अढाइ दित्ताइ विउलाहिं वित्थिन्नविउलभवणस्यणास जाणवाहणा बहुघण बहुजा यरू परययाइं - " है गौतम - ? महाविदेह क्षेत्र में जो ये कुल हैं, कि जो-3 - आढय हैं - दीप्त हैं - विपुल हैं, विस्तीर्णfaya Haran है विस्तीर्ण विपुलशयनासन वाले हैं विस्तीर्ण विपुल यानवाहन वाले हैं, बहुधनवाले हैं बहुतर जातरूपवाले है बहुरजतवाले हैं' 'अओगपओगसंपत्ता विच्छड्डियपउरभत्तपाणाई बहु दासीदास गो महिस गवेलगप्पभूयाह, बहुजणस्स अपरिभूयाइ " आयोग प्रयोग जिन से व्यापृत होते रहते हैं, दीनजनों के लिये जहां से प्रचुर मात्रा में भक्तपान प्राप्त होता है, जिन के पास दासी दास अनेक संख्या में सेवा करने के लिये उपस्थित रहता है, प्रचुर मात्रा में जहां गो-महिष, एवं - अजा मेष आदि पशु कायम बने रहते हैं, तथा - कोईभी जन जिनका तिरस्कार नहीं कर सकता है, " तत्थ अन्नयर सि कुलम्मि पुत्तताए पच्चायाइरस - " उन कुलां में से किसी एक कुल में पुत्ररूप से उत्पन्न होगा. ॥
અને સ્થિતિક્ષય પછી દેવ શરીરને ત્યજીને કયાં જશે ? કયાં ઉત્પન્ન થશે ? ઉત્તર - "गोयमा ! महाविदेहे वासे जाणि इमाणि कुलाणि भवंति, तं जहा - अढाई दित्ताई
लाहिं वित्थिन्न विउलभवणसयणासणजाणवाहणाई बहुधण बहुजायरूव ग्ययाई” हे गौतम! महाविद्वे क्षेत्रमां ने सोछे ? माढ्य छे, हीस छे, वियुस छे, विस्तीर्ण ભવનાવાળા છે, વસ્તી વિપુલ શયનાસનવાળાએ છે, વિસ્તીર્ણ વિપુલ યાન-વાહન વાળાએ છે, બહુધન સંપન્ન છે, અહુતર જાતરૂપવાળા છે, અહુરજતવાળા છે. "आओगपओगसंपनाइ विच्छड्डियपउर भत्तपाणाई', वहुदासीदासगा महिसग वेलगप्पभूयाई, बहुजणस्स अपरि भूयाइ" तेमनाथी आयोग प्रयोग વ્યાવૃત થતા રહે છે, દીનજના માટે જયાંથી પ્રચુર માત્રામાં ભકત-પાન પ્રાપ્ત થતાં રહે છે, જેમની પાસે દાસીદાસ ઘણી સંખ્યામાં સેવા-ચાકરી કરવા ઉપસ્થિત રહે છે, જયાં પુષ્કળ માત્રામાં ગાય મહિષ અને અન્ય, મેષ વગેરે પશુએ વિદ્યમાન રહે छे, तेन पशु माणूस मेमनो मनाहर उरी शतो नथी. " तत्थ अन्नयरंसि कुलम्मि पुतत्ता पच्चायाइस्सह" ते सोभांथी ते अर्ध च मे सभां पुत्र३ये उत्पन्न थशे.
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सुबोधिनी टीका सू. १६६ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ३८७
___टीका-"सूरियाभस्स जे" इत्यादि-गौतमस्वामी पृच्छति-हे भदन्त ! सूर्याभस्य खलु देवस्य कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? । भगवानाह-हे गौतम ! सूर्याभस्य देवस्य सौधर्मदेवलोंके चत्वारि पल्योपमानि-चतुःपल्योपमपरिमिता स्थितिः प्रज्ञप्ता । गौतमस्वामी प्राह-हे भदन्त ! स खलु सूर्याभो देवस्तस्माद् देवलोकात् आयुःक्षयेण-देवसम्बन्ध्यायुः कर्मदलिकनिर्जरणेन, भवक्षयेण-देवभवगत्यादिकर्मनिर्जरणेन स्थिति क्षयेण-सौधर्म कल्पे सूर्याभे विमाने देवानां या दशसागरोपमस्थितिः प्रोक्ता तत्क्षयेण, अनन्तरं-त पश्चात् चयं-देवशरीरं त्य कृत्वा कुत्र गमिष्यति ? कुत्रोत्पत्स्यते ? भगवानाह हे गौतम ! स सूर्याभदोवजीवः सौधर्मदवलोकाच्च्युत्वा महाविदहे वर्षे यानि इमानि-वक्ष्यमाणानि कुलानि भवन्ति, तद्यथा तान्येव दर्शयति आढयानि-समृद्धानि, दीप्तानि-प्रशंसनीय वादुज्ज्व
____टीकार्थ-गौतम स्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है कि हे भदन्त-? सूर्याभदेव की कितने काल की स्थिति कही गई है-३ इसके उत्तर में प्रभुने उन से कह -गौतम-? सूर्याभदेवकी चा पल्योपम की स्थिति सौधर्म देवलोक में कही गई है। उसके बाद गौतमने पुनः प्रभु से एसा पूछा है कि हे भदन्त-? जब सूर्याभदेव के देव सम्बन्धी आयुकर्म के दलिकों की निर्जरा हो जावेगी, देव भयरूप गत्यादि कर्म की निर्जरा हो जावेगी, तथा स्थितिक्षय-सौधर्म कल्प में सूर्याभविमान में कितनेक देवों की चार पल्योपम की स्थिति कही गई है, उनमें-सूर्याभदेव की भी चार पल्योपम की स्थिति वह भी जब क्षपित हो जावेगी तब वह देव शरीर से चवकर कहां जावेगा-३ कहां उत्पन्न होगा -३ इसके उत्तर में प्रभुने कहा-हे गौतम ? सूर्याभदेव जीव सौधर्म देवलोक से चक्कर महाविदेह क्षेत्र मे जो ये कुल हैं कि जो-आढय-समृद्ध है , दीप्त
ટીકાઈગૌતમ સ્વામીએ પ્રભુને આ જાતનો પ્રશ્ન કર્યો કે હે ભદંત ! સૂર્યાસ દેવની સ્થિતિ કેટલા કાલની કહેવાય છે? એના ઉત્તરમાં પ્રભુએ કહ્યું-ગૌતમ ! સૌ ધર્મ દેવલોકમાં સૂર્યાભદેવની સ્થિતિ ચાર પલ્યોપમ જેટલી કહેવામાં આવી છે. ત્યારપછી ગૌતમે ફરી પ્રભુને પ્રશ્ન કર્યો કે હે ભદંત ! જયારે સૂર્યાભદેવના દેવ સંબંધી આયુકર્મના દલિકેની નિર્જ રા થઈ જશે. ભવક્ષય-દેવભવરૂપ ગત્યાદિ કર્મની નિજર થઈ જશે, તેમજ સ્થિતિક્ષય સોધર્મ ક૫માં સૂર્યાભવિમાનમાં કેટલાક દેવની ચાર૫ઘેપમ જેટલી સ્થિતિમાં કહેવાય છે, તેમાં સૂર્યાભદેવની પણ ચારપત્રેપમ જેટલી સ્થિતિ કહેવાય છે તે પણ જ્યારે પીત થઈ જશે, ત્યારે તે દેવ શરીર ત્યજીને કયાં જશે ? ક્યાં ઉત્પન્ન થશે? એના જવાબમાં પ્રભુએ કહ્યું હે ગૌતમ! સૂર્યાભદેવને જીવ સૌ ધર્મ દેવ લેકથી ચવીને મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં જે કુલે આય–સમૃદ્ધ છે,
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राजप्रश्नीयसूत्रे लानि, विपुलानि परिवारादिना विशालानि, तथा विस्तीर्णविपुलभवनशयनाऽऽसनयानवाहनानि, तत्र विस्तीर्णानि-क्षेत्रेण महान्ति, विपुलानि-संख्यया प्रचुराणि भवनानि-गृहाणि शयनानि-शयनीयानि, आसनानि-पीठफलकादीनि, यानानि-रथशकटादीनि, बाहनानि गजाश्वादीनि येषु (कुलेषु) तानि, तथा बहुधनबहुजात रूपरजतानि-तत्र-बहूनि-प्रचुराणि धनानि-गरिम धरिम-मेय-परिच्छेद्यरूपाणि, बहूनि-प्रचुराणि जातरूपाणि-सुवर्णानि रजतानि-रूप्पाणि येषु तानि, तथाआयोगप्रयोगसंप्रयुक्तानि, तत्र आयोगस्य-अर्थलाभ य प्रयोगाः उपायाः, संयुक्ताव्यापृता यै स्तानि, तथा-विच्छर्दितप्रचुरभक्तपानानि विच्छदि नि-उदारबुद्धया बहुपाचनेनावशिष्टानि, अथवा-विच्छर्दितानि-त्यक्तानि दीनेभ्यो दत्तानि प्रचुराणि बहूनि भक्तपानानि- यैस्तानि, तथा- बहुदासीदासगोमहिषगवेलकप्रभूतानि-तत्र बहवो दासी-दासाः प्रसिद्धाः, प्रभूताः-प्रचुराः गो महिषगबेलकाः-तत्र गोमहिष्यः प्रसिद्धाः गवलेका -अजा मेषाश्च येषां तानि, तथा-बहुजनस्य अपरिभूतानि-अपरिभवनीयानि एतादृशानि यानि कुलानि सन्ति तत्र-तेषां कुलेषु मध्ये प्रशंसनीय होने से उज्ज्वल है , विपुल-परिवार आदि जनों की अपेक्षा विशाल हैं. क्षेत्र की अपेक्षा विस्तीर्ण, एव संख्या की अपेक्षा प्रचुर गृहो वाले हैं, विस्तीर्ण विपुल शयन शय्या-एवं-आसनों वाले है, पीठ-फलक दिवाले है, स्थशकट-आदिरूप यानों वाले हैं-एवं-गज अश्वादिरूप वाहनों वाले हैं, तथा-प्रचुर गरिम धरिम मेय परिच्छेद्यरूप धनवाले हैं, प्रचुर जातरूप-सुवर्णवाले हैं, प्रचुर रजत-चान्दीवाले हैं, तथा-अर्थ के लाभरूप प्रयोग जिनसे व्याप्त हुवे हैं. उदार बुद्धि से जिनमें बहुतसा अन्न पान बनवाया जाता है, और खाने के बाद अवशिष्ट बचता है। अर्थात्-दीनों को देने के लिये जिनमें प्रचुर अन्न-पान तैयार किया जाता है, जिस में बहुत दासी-दास हैं, बहुतही गो-महिष-और
દીસ-પ્રશંસનીય હોવાથી ઉજજવળ છે, વિપુલ–પરિવાર વગેરેના લેકની દૃષ્ટિએ વિશાળ છે. ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ વિસ્તીર્ણ છે, સંખ્યાની દષ્ટિએ પ્રચુર ગ્રહવાળા છે, વિસ્તર્ણ વિપુલ શયન શય્યા અને આસને વાળા છે, પીઠ ફલક વગેરેવાળા છે, ગજ અવ વગેરે રૂપ વાહને વાળા છે, તેમજ પ્રચુર ગરિમ ધરિમ મેય પરિછેદ્યરૂપ ધનવાળા છે, પ્રચુર જાતરૂપ-સુવર્ણવાળા છે, પ્રચુર રજત-ચાંદીવાળા છે, તથા અર્થલાભારૂપ પ્રયોગ જેમનાથી વ્યાકૃત થયેલ છે, ઉદાર બુદ્ધિથી જે પુષ્કળ અન્નપાન બનાવડાવે છે અને જમ્યા પછી પણ ત્યાં અવશિષ્ટ રહે છે એટલે કે ગરીબોને આપવા માટે જેઓ પ્રચુર અન્નપાન તૈયાર કરાવડાવે છે જેમની પાસે ઘણાં દાસી
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सुबोधिनी टीका सु. १६७ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ३८९ अन्यतमस्मिन्-कस्मिंश्चिदेकस्मिन् कुले पुत्रतया-पुत्रत्वेन पुत्रो भूत्वेत्यर्थः प्रत्या यास्यति प्रत्यागमिष्यति पुनर्मानुष्यभवे जन्म ग्रहीष्यतीत्यर्थः ॥सू० १६६॥
मूलम् -तए णं तंसि दारगसि गब्भगयसि चेव समाणंसि अम्मापिऊणं धम्मे दढा पइण्णा भविस्सइ। तए णं तस्स दारगस्स माया नवण्ह मासाणं बहुपडि पुण्णाणं अटुमाणं राइंदियाणं विइकताणं सुकुमालपाणपाय अहीणपडिपुण्णपचिंदियसरीरं लक्खणवंजणगुणोववेयं माणुम्माणप्पमाणपडिपुण्णसुजायसव्वंगसुदरंग ससिसोम्माकारं कंत पियदंसण सुरूवं दारय पयाहिसि ॥सू०१६७॥
छाया-ततः खलु तस्मिन् दारके गर्भगते एव सति अम्बा पित्रोः धर्मे दृढा प्रतिज्ञा भविष्यति । ततः खलु तस्य दारकस्य माता नवसु मासेषु बहुप्रतिपूर्णेषु अर्धाष्टमेषु रात्रिन्दिवेषु व्यतिका तेषु सुकुमालपाणिपादम् अहीनप्रतिपूर्णगवेलक अजा-मेष हैं, एवं-जो अनेक जनों द्वारा भी अपरिभूत हैं ऐसे कुलों में से किसी एक कुल में पुत्ररूप से-उत्पन्न होगा. ॥सू० १६६॥
"तएणं तंसि दारगंसिं गब्भगयंसिं चेव समाणंसि” इत्यादि ।
मूलार्थ-"तएणं तेसिं द रगेसिं गभगय सिं चेव समाणंसि-" जब वह दारक गर्भ में आवेगा-तब इस को गर्भ में आते ही-"अम्मापिउण धम्मे दढा पइण्णा भविस्सइ-" माता-पिताको-धर्म में दृढ प्रतिज्ञा होगी "तएण तस्स दारगस्स माया नवण्हं मासाणं बहुपडिपुष्णाणं अट्ठमाणं राइंदियाणं विइकंताणं सुकुमालपाणिपायं-' नौ मास साढे सात दिन जब पूरा हो जावेंगे तब उस दारक की माता सुकुमार हाथ-पग वाले-"अहीणपडिपुण्णपंचिंदियદાસો છે, ઘણી ગાયે તેમજ મહિષ, ગવેલક અજા, મેષ છે અને જે ઘણા માણસો વડે પણ અપારભૂત છે એવાં કુલેમાંથી તે કઈ એક કુળમાં પુત્રરૂપે જન્મ પામશે સૂ૦૧૬
"त एणं तेसिं दारगंसिं गमगय सि चेव समाणंसि इत्यादि।
भूसा -"त एणं तसिं दारगंसिं गभगय सि चेव समाणसि” न्यारे ते ६।२४ मा मावशे-त्यारे तेने समां मातi on "अम्मापिउणं धम्मे दढा पइण्णा भाविस्सई" मातापिताने भो १० प्रतिज्ञा थशे. "तएणं तस्स दारगरस माया नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अट्ठमाण राई दियाण विइक्कंताण सुकुमालपाणियायं" नव भास मने सादा सात हिवसे न्यारे ५२। थ नशे त्यारे ते ६।२४नी माता सुभा२ हाथपात "अहीणपडिपुष्णपंचिंदिय सरीर"
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राजप्रश्नीयसूत्रे पञ्चेन्द्रियशरीरं लक्षणव्यञ्जनगुणोपपेतं मानोन्मानप्रमाणप्रतिपूर्ण सुजातसर्वाङ्ग सुन्दराङ्ग शशिसौम्याऽऽकारं कान्तं प्रियदर्शनं सुरूपदारकं प्रजनिष्पते ॥सू० १६७।।
टीका-"तए णं तंसि दारगंसि” इत्यादि-व्याख्या निगदसिद्धा ।मू. १६७।
मूलम्-तए णं तस्स दारगस्स अम्मा-पियरो पढमे दिवसे ठिइवडियं करेहिंति, तइयदिवसे चंदसूरदंसावणियं करिस्सति, छ ट्रे दिवसे जागरियं जागरिस्संति, एकारसमे दिवसे वीइक्ते संपत्ते बारसाहे दिवसे णिव्वित्ते असुइजायकम्मकरणे चोक्खे समजिओवलित्ते विउलं असणपाणखाइमसाइमं उवक्खडाविस्संति, मित्तणाइणियगसयणसंबंधिपरिजणं आमंतेत्ता तओ पच्छा पहाया कयबलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाई वत्थाई पवरपरिहिया अष्यमहरधाभरणालंकियसरीरा भोयणमंडवंसि सुहासणवरगया तेणं मित्तणाइणियगसयणसंबंधिपरिजणेणं सद्धि विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणा विसाएमाणा परिभुजेमाणा परिभाएमाणा एवं चेव णं विहरिस्संति, जिमियभुत्तत्त
सरीर" अहीन परिपूर्ण पांचों इन्द्रियों से युक्त शरीवाले-"लकरवा वंजण गुणोववेय, माणुस्माणप्पमाणपडिपुण्णसुजायसव्वंगसुंदरगं ससिसोमाकारकंत पियदंसणं सुरूवं दारथं पयाहिसि-" लक्षणव्यन्जन गुणों वाले, मानोन्मान प्रमाण प्रतिपूर्ण सुजात सर्वाङ्ग सुन्दर शरीरवाले, चन्द्रमा के जैसे सौम्य आकारवाले, कान्त-प्रियदर्शनयुक्त, एवं सुरूप सम्पन्न ऐसे, पुत्र को जन्म देगी. टीकार्थ-स्पष्ट है. ॥मू० १६७॥
महीन परिपूर्ण पाये धन्द्रियोथी युत शरी२ पाप "लक्वणवंजणगुणोबवेयं, माणुभ्माणप्पमाणपडिपुण्णसुजायसव्वंगसु दरगं ससिसामाकार कंतं पियदसण सुरुवं दारय पयाहिसि" सक्ष व्यन गुणवाा, भानामान પ્રમાણ પ્રતિપૂણ સુજાત સર્વાગ સુંદર શરીરવાળા ચદ્ર જેવા સૌમ્ય આકારવાળા, કાંતપ્રિયદર્શન યુકત અને સુરૂપ સંપન્ન એવા પુત્રને જન્મ આપશે.
ટકાર્થ સ્પષ્ટ છે. સૂ૦ ૧૬૭
श्रीशन प्रश्नीय सूत्र:०२
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सुबोधिनी टीका स. १६८ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ३९१ रागयावि य णं समाणा आयंता चोवखा परमसुइभूयात मित्तणाइणियगसयणसंबंधिपरिजणं विउलेणं वत्थगंधमल्लालंकारेणं सकारिस्संति, सम्माणिस्सं ति, तस्सेव मित्तणाइ णियगसयणसंबंधिपरिजणस्स पुरओ एवं वइस्संति-जम्हा गं देवाणुपिया! अम्ह इमं सि दारगसि गब्भगय सि धम्मे दढा पइण्णा जाया त होउ णं अम्हं एस दारए दढपइण्णे णामेणं। तए णं तस्स दारगस्स अम्मा पियरो नामधेज करिस्संति-दढपइण्णेति । तए णं तस्स अम्मापियरो अणुपुट्वेण ठिइवडियं च १, चंदसूरियदंसणावणियं च २, धम्मजागरियं च ३, नामधिजकरणं च ४, परंगमणं च ५, पचंकमणं च ६, पच्चक्खाणयं च ७, जेमंणगं च ८, परिवद्धावणगं च ९ पजं पावणगं च १०, कन्नवेहणं च ११, सवच्छरपडिलेहणेगं घ १२ चूडावयायणं च १३, उवणयणं च १४, अन्नाणि च बहूणि गब्भाहाण जन्मणाइयाइं कोउगाई महया इढिसकारसमुदएणं करिस्संति ॥ सू० १६८॥
छाया-ततः खलु तस्य दारकस्य अम्बापितरौ प्रथमे दिवसे स्थितिपतितां करिष्यतः, तृतीयदिवसे चन्द्रसूरदर्शनिकां करिष्यतः, षष्ठे दिवसे
'तएणं तस्स दारगस्स अम्मापियरो--” इत्यादि
मूलार्थ-"तएणं-" इसके बाद "तस्स दारगस्स-' उस दारकके, "अम्मापियरो-" मातापिता-"पढमे दिवसे-" प्रथम दिवस "ठिइवडिय-" कुलपरम्परा से आगत पुत्र जन्मोत्सव रूप क्रिया-“करेहिति-" करेंगे-तइयदिवसे "तृतीय दिवस-"चंदसूर दंसणावणिय करिस्संति-" चन्द्रदर्शनरूप एवं-सूर्यदर्शनरूपक्रिया
"तए णं तस्स दारगम्स अम्मापियरो" इत्यादि।
भूनाथ - "तए णं" त्या२ पछी "तस्स दारगरस' ते ॥२४ना "अम्मापियरो" भातापिता “पढमे दिवसे" प्रथम हिवसे "ठिइपडिय' पुस ५२ पत पुत्र
भोत्सव ३५ विधि। "करेहिंति" ४२शे. "तइयदिवसे" त्रीत से "चंद सूर दसणावणियं करिसंति" यन्द्रहशन ३५ भने सूर्यन३५ (या-या रे
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राजप्रश्नीयसूत्रे जागरिकां जागरिष्यतः, एकादशे दिवसे व्यतिक्रान्ते, संप्राप्ते द्वादशाहे दिवसे, निवृत्ते अशुचिजातकर्मकरणे चोक्षे संमार्जितोपलिप्ते (गृहे) विपुलम् अशनपानखाद्यस्वाद्यम् उपस्कारयिष्यतः, मित्रज्ञातिनिजकस्वजनसम्बन्धिपरिजनम् आमन्न्य जो कि-पुत्र जन्मोत्सव पर की जाती है-करेंगे, “छठे दिवसे जागरिय जागरि संति-" छठे दिन रात्रि जागरणरूप किया करेंगे। “एक्कारसमे दिवसे वीइक्व से संपत्ते बारसाहे दिवसे णिन्विते असुइ जायकम्मकरणे-" ग्यारहवां दिन जब व्यतीत हो जावेगा. और-१२-वों दिन जब प्रारम्भ होगा तब उस दिन जन्म सम्बन्धी अशुचिता की निवृत्ति हो चुकने के बाद-“चोक्खे समज्जि
ओवलित्ते विउल असण पाण खाइम साइमं उवक्खडाविस्संति-" गृह को शुद्धि क्रिया करेंगे। पहले उस वे सम्मार्जनी-बुहारी से कूड़ा-कचरा निकाल कर साफ करे गे और फिर उसे गोमय-आदि से लीपे-पोते करेंगे। इस प्रकार शद्धिक्रिया हो जाने पर फिर वे अशन-पान-खाद्य, एवं-स्वाद्यरूप चार प्रकार के आहार को पकावेंगे-“मित्तणाइणियगसयणसंबंधिपरिजणं आमंतेत्ता, तओ पच्छा व्हाया कयबलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता-" इसके बाद वे मित्रजनों को ज्ञाति के जनों को-मातापिता आदिकों को, अपने पुत्रादिकों को. पितव्यादिक स्वजनों को स्वश्वशुर-पुत्रश्वशुर आदिको दासी-दास आदिरूप परिजनों को आमन्त्रित करेंगे, फिर-स्नानकर बलिकर्म-काक आदि को अन्न पुत्र मोत्सव समये ४२वामां आवे छे ४२शे, “छठे दिवसे जागरिय जागरिसंति" ७४ हिवसे रात्रि ||२९५ ४२शे. “एक्कारसमे दिवसे वीइक्कते संपत्ते बारसाहे दिवसे णिव्वित्ते असुइ जायकम्म करणे" ज्या२। हिवस न्यारे पूरी थरी અને બારમે દિવસ પ્રારંભ થશે ત્યારે તે દિવસે જન્મ સંબંધી અશુચિતાની નિવૃત્તિ थ नशे ते पछी "चोक्खे समज्जिओवलित्ते विउलअसणपाणखाइम साइम उवक्खडा विस्संति' धरने शुद्ध ४२वानां या ७२. पहा तसा સમ્માર્જની-સાવરણીથી કચરો સાફ કરશે અને પછી તેને ગોમય વગેરેથી લીપીને સ્વચ્છ બનાવશે. આ પ્રમાણે શુદ્ધિ ક્રિયા થઈ જવા બાદ પછી તે અશન, પાન, माध भने स्वाध३५ या२ प्र४।२ना माहाराने मनावशे. मित्तणाइ पियग सयण संबंधि परिजणं आम तेत्ता, तओ पच्छा व्हाया कयवलिकम्मा कय कोउय मंगल पायच्छित्ता" त्या२ पछी तेया मित्रानाने ज्ञातिनाने, मातापिता वगैरेने, पाताना પુત્રાદિકને, પિતૃવ્યાદિક સ્વજનેને, સ્વશુર-પુત્ર-વસુર વગેરેને, દાસી દાસ વગેરે પરિજનોને આમંત્રિત કરશે. પછી સ્નાન કરીને બલિકર્મ-કાગડા વગેરે પક્ષીઓને अन्न वगेरेना, मा माशे. अतु: म प्रायश्चित्त ४२शे. सुद्धप्पावेसाई
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सुबोधिनी टीका सू. १६८ सूर्याभदेवस्य आगामिभववर्णनम्
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शुद्धप्रवेश्यानि
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ततः पश्चात् स्नातौ कृतवलिकर्माणौ कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्तौ माङ्गल्यानि वस्त्राणि प्रवरपरिहितौ अल्पमहार्घाभरणालतशरीरौ भोजनमण्डपे सुखासनवर गतौ तेन मित्रज्ञातिनिजक स्वजनसम्बन्धिपरिजनेन सार्धं विपुलम् अशनं पानं वाद्यं स्वाद्यम् आस्वादयन्तौ विस्वादयन्तौ परिभुजानौ परिभाजयन्तौ एवमेव खलु विहरिष्यतः । जिमितभुक्तोत्तरागतावपि च खलु सन्तौ आचान्तौ चोक्षौ परमशुचिभूतौ तं मित्रज्ञातिनिजक स्वजन सम्बन्धिपरिजनं विपुलेन वस्त्रगन्धमाल्यालङ्कारेण सत्करिष्यतः सम्मानयिष्यतः, तस्यैव मित्रज्ञातिनिजकर वजनआदिका भाग करेंगे कौतुक - मङ्गलप्रायश्चित्त करेंगे - "सुद्धप्पावेसाई' मंगलाई वत्थाई पवरपरिहिया अप्पमहग्धाभरणालंकियसरीरा भोयणमंडवसि - ' फिर शुद्ध माङ्गलिकवस्त्रों को जो कि - राजसभा में जानेके लिये पहिरने योग्य होते हैं उन्हें पहिरेंगे, बाद में अल्प वजनवाले - और - विशेष मूल्यवाले ऐसे अलडूकारों को धारण करेगे, इस तरह सब प्रकार से सजधजकर फिर - भोजनमण्डप में - भोजनशाला में - " सुहासणवरगया - " अपने-अपने श्रेष्ठ आसन पर बैठ कर" तेणं मित्तणाईणियगसयण संबंधिपरिजणेणं सद्धिं विउलं असणं पाणं खाइम साइमं आसाएमाणा विसाएमाणा परिमुंजे माणा परिभाए माणा एवं चेव णं विहरिस्संति - " उन मित्र ज्ञाति निजक स्वजन सम्बन्धिजन एवं परिजन के साथ उस विपुल अशन-पान खाद्य एवं स्वाद्यरूप चतुर्विध आहार का पहले आस्वादन करेंगे - फिर विशेष आस्वादन करेंगे, उसे रुचिपूर्वक खायेंगे, एक दूसरे को देगे - " जिमियभुतत्तरागया वि य णं समाणा आयंता चोक्खा, परमसुइभूया तं मित्तणाइणियगसयण संबंधिपरिजणं विउलेणं वत्थगंधमल्लालंकारेणं सकारिस्संति, मंगलाइ वत्थाई पवरपरिहिया अप्पमहग्धाभरणालंकियसरीरा भोयणम डव सि" પછી રાજયસભામાં જવા માટે પહેરવા યાગ્ય શુદ્ધ માંગલિક વસ્ત્રો ધારણ કરશે. ત્યાર ખાદ અલ્પભારવાળાં અને વિશેષ કીમતી એવાં અલંકારા ધારણ કરશે. આ પ્રમાણે સર્વ રીતે સુસજ્જ થઈને પછી તે ભાજન મંડપમાં-ભોજનશાળામાં"सुहासणवर गया" पोतपोताना श्रेष्ठ आसन पर मेसीने "ते णं मित्तणाइ णियगसयण संबंधिपरिजणेणं सद्धिं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणा विसाएमाणा परिभुजे माणा परिभाएमाणा एवं चेव णं विहरिस्संति" ते मित्र, જ્ઞાતિ, નિજક, રવજન સંધિજના અને પરિનાની સાથે તે વિપુલ અશન પાન ખાદ્ય અને સ્વાદ્યરૂપ ચતુવિધ આહારનાં પહેલાં આસ્વાદન કરશે પછી વિશેષ આ સ્વાદન કરશે. તેને સુરૂચિપૂર્ણ થઈને જમશે. પરસ્પર એક બીજાને આપશે. जिमियतत्तरागया वि य णं समाणा आयंता चोक्खा, परमसुइभूयात मित्तणाइधिग सयण संबंधि परिजणं विउलेणं वत्थंगंधमल्लालंकारेण सक्का रिस्संति,
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राजप्रश्नीयसूत्रे म्बन्धिपरिजनस्य पुरत एवं वदिष्यतः-यस्मात् खलु देवानुप्रियाः ! आवयोः अस्मिन् दारके गर्भगते एवं सति धर्म दृढा प्रतिज्ञा जाता तद् भवतु खलु आवयोः एष दारको दृढपतिज्ञो नाम्ना। ततः खलु तस्य दारकस्य अम्बापितरौ नामधेयं करिष्यतः दृढप्रतिज्ञ इति । ततः खलु तस्य अम्बापितरौ अनुपूर्वेण स्थितिपतितां च १, चःद्रसूर्यदर्शनिकां च २, धर्मजागरिकां च ३, नाम समाणिस्संति-" भोजन कर चुकने के अनन्तर फिर वे अपने-अपने उपवेशन (वेटने के) स्थानपर बैठ कर शुद्ध जल से आचमन कर चोखे होंगे, इस तरह परमशुचिभूत हुवे वे-मित्र, ज्ञाति, निजक स्वजन, सम्बन्धि परिजनों को विपुल वस्त्र गन्ध माल्य अलङ्कारों से सत्कृत करेंगे । एवं-मानपूर्वक उनका आदर करेंगे-"त सेव मित्तणाइणियगसयणसंबंधिपरिजणरस पुरओ एवं वइस्सति-" फिर वे-उन्हीं मित्र-ज्ञा त-निजक-स्वजन-सम्बन्धी परिजनों के समक्ष इस प्रकार कहेंगे-"जम्हाणं देवाणुप्पिया ? अम्हं इमंसि दारगसि गम्भगयंसि चेव समाणंसि धम्मे दृढा पइण्णा जाया-" हे देवानुप्रियों ? जिस कारण से इस दारक के गर्भ में आते ही हम लोगों की धर्म में दृढ प्रतिज्ञा हुवी, "ते होऊण अम्हं एस दारए दढपइण्णे णामेणं-" इस कारण यह हमारा दारक दृढप्रतिज्ञ इस नामवाला हो-“तएणं तस्स दारगस्स अम्मा पियरो नामधेनं करिस्संति दढपइण्णेत्ति-' इस तरह उस दारक के मातापिता उसका दृढ प्रतिज्ञ ऐसा नाम करेंगे। "तएणं तस्स अम्मापियरो अणुपुव्वेणं टिइवडियं च-१ चंदसूरियदंसणावणियं च संमाणिस्सति" मोसन माह तमा पातपाताना पवेशन स्थान५२ मेसीन शुद्ध જળથી આચમન કરીને પવિત્ર થશે. આ પ્રમાણે પરમશુચિભૂત થયેલા તે મિત્ર, જ્ઞાતિ, નિજક, સ્વજન, સંબંધી પરિજનોને વિપુલ વસ, ગંધ, માલ્ય અલંકારથી सकृत ४२२. मने सम्मानपूर्व तेभने। मा६२ ४२शे "तस्सेव मित्तणाइणियग सयणसबंधिपरिजणस्स पुरओ एवं वइस्संति" पछी तेसो त भित्र-शाति firs वन-
संधी पनिानी सामे या प्रमाणे ४30-"जम्हाणं देवाणुप्पिया ! अम्हं इमंसि दारगसि गभगयसि चेव समाणंसि धम्मे दृढा पइण्णा जाया." હે દેવાનુપ્રિયે ! આ દારક જયારથી અમારા ગર્ભમાં આવ્યું છે ત્યારપછી અમારી मनमा धर्म प्रत्ये १० प्रतिज्ञा भी छे. "तं होऊ णं अम्हं एस दारए दृढपइण्णे णामेण' माथी सभा। मा हा२४ ४८ प्रतिज्ञ मा नामवाण थाय. "तएणं तस्स दारगरस अम्मांपियरो नामधेज्जं करिस्संसि दढपइण्णोत्ति" मा प्रमाणे ते ॥२४ना भातपिता तेनु प्रतिश मे नाम रामश. "तएण तस्स अम्मापियरो अणुपुव्वेणं ठिड्वडियं च १ चंदररियदसणावणियं च २ धम्मजागरिय
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सुबोधिनी टीका स्व. १६८ सूर्याभदेवस्य आगामिभववर्णनम्
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धेयकरणं च ४, परगमनं च ( पर्यङ्गनं च ) ५ प्रच मणकं च ६ प्रत्याख्यानकं च ७ जेमनकं च ८ प्रतिवर्धापनकं च ९ प्रजल्पनकं च १० कर्णवेधनं च ११ संवत्सर प्रतिलेखनकं १२ चूडापनयनं च १३ उपनयनं च १४ अन्यानि च बहूनि गर्भाधानजन्मादिकानि कौतुकानि महता ऋद्धिसत्कार समुदयेन करिध्यतः ।। सू० १६८ ।।
टीका - "तए णं तस्स" इत्यादि - ततः खलु तस्य दारकस्य अम्बापितरौ प्रथमे दिवसे - जन्मदिने स्थितिपतितां - स्थित्या-कुलमर्यादा पतिता- समागता -२ धम्मजागरियं च-३ नामधिज्जकरणं च - ४ परंगमणं च - ५ पचकमणं च - ६ पच्चक्खाणयं च - ७ जेमणगं च ८ पडिबद्धावगणं च -९ पजंपावणगं च -१० कनवेहण च - ११ संवच्छरपढिलेहणगं च - १२" क्रमशः - जब वे स्थितिप्रतिज्ञ - १ चंद्रसूर्यदर्शन - २ धर्मजागरण- ३ नामकरण-४ इन उत्सवों को करचुकेंगेतब इनके बाद - परमगमन५ प्रचमण-६ प्रत्याख्यान- ७ अन्नप्राशन-८ प्रतिवर्धापन - ९ प्रजल्पनक - १० कर्णवेधन- ११ संवत्सर प्रतिलेखनक - १२ "चूडावणवण - १३ उबणयणं च - १४ अन्नाणिय बहूणि गव्भाहाणजम्मणाइयाइं कोउ - गाई महया सिक्कारसमुद एणं करिस्संति-" चूडानपयन, और - १४ उपनयन इन अवशिष्ट उत्सवों को करेंगे. तथा इनके अतिरिक्त और भी बहुत से गर्भाधानादि सम्बन्धी अपनी ऋद्धि के अनुरूप सत्कार करने आदिरूप से करेंगे- 1
टीकार्थ-उस दारक के बालक मातापिता प्रथम जन्मदिवस के समय कुल मर्यादासे चली आई पुत्रजन्मोत्सव क्रिया करेंगे, इसी के निमित्त तीसरे दिन वे च ३ नामधिज्जकरणं च ४, परंगमणं च ५, पचकमणं च ६, पच्चक्खाणय च ७, जेमणगं च ८, पडिबद्धावणं च ९, पजंपावणगं च १०, कनवेहणं च ११, सवच्छर पडिलेहणग' च १२," अनुभे क्यारे तेथे स्थिति प्रतिज्ञ १ ચન્દ્ર સૂદન ૨, ધર્મ જાગરણ ૩, નામકરણ ૪, આ ઉત્સવે ઉજવી લેશે ત્યાર ખાદ પરગમન ૫, પ્રચંડક્રમણ દ્, પ્રત્યાખ્યાન ૭, અન્ન પ્રાશન ૮, પ્રતિવર્ષાપન ૯, अस्थनः १० अणुवेधन ११, संवत्सर प्रतिलेखन १२, "चूडावणपणं १३, उचraणं च १४, अन्नाणिय बहूणि गन्भाहाण जम्मणाइयाई कोउगाई महया इडि सकारसमुदपणं करि सति" यूडापनयन याने १४ उपनयन मा अवशिष्ट उत्सवा ઉજવશે તેમજ બીજા પણ ઘણા ગર્ભાધાન સંબંધી સત્કાર કરવારૂપ કાર્યાં પોતાની ઋદ્ધિ અનુસાર કરશે.
ટીકા :—તે દારકના માતાપિતા જન્મને પહેલે દ્વિવસે જન્માત્સવ ક્રિયાએ કરશે. એ નિમિત્તે જ ત્રીજા દિવસે તેઓ
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કુલપર પરાગત પુત્ર ચન્દ્ર-સૂર્ય દર્શન કરશે.
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राजप्रश्नीयसूत्रे पुत्रजन्मोत्सवरूपा क्रिया, तां करिष्यतः, तृतीयदिवसे चन्द्रसूर्यदर्शनिकां-चन्द्रदर्शन-सूर्यदर्शनरूपां पुत्रज-मोत्सव विशेषलक्षणां प्रक्रियां करिष्यतः, षष्ठे दिवसे जागरिका रात्रिजागरणरूपां क्रियां जागरिष्यतः-करिष्यतः, एकादशे दिवसे व्यतिक्रान्ते-व्यतीते स प्राप्ते-समागते द्वादशाहे-द्वादशम् अहो यस्मिन् तस्मिन् तादृशे दिवसे द्वादशाहे दिवसे इत्यर्थः, अशुचिजातकर्मकरणे-अशुचीतां-जन्माशौचवतां कुटुम्बितां जातकर्मणः-नवजातशिशुसम्बन्धिसंस्कारस्य करणं-विधानं, तस्मिन् निवृत्ते समाप्ते सति जन्माशौचनिवर्तनानन्तरमित्यर्थः, चोक्षे-स्वच्छ, संमार्जितोपलिप्ते-संमार्जिते-मार्जन्या कचवरापनयनेन संशोधिते उपलिप्ते-गोमयादिना कृतलेपे गृहे, विपुलं-प्रचुरम् अशनपानखाद्यस्वाद्यम् उपस्कारयिष्यतः-पाचयिष्यतः मित्र-ज्ञाति-निजक-स्वजन-सम्बन्धि-परिजन-तत्र मित्राणि-सुहृदः,ज्ञातयःमातापिताभ्रात्रादयः, निजका:-स्वकीयाः पुत्रादयः, स्वजनाः-पितृव्पादयः सम्बनिधनः-स्वश्वशुरपुत्रश्वशुरादयः, परिजनो-दासी-दासादिः, एतेषों समाहारे तत् आमन्त्र्य, ततः पश्चात् स्नातो-कृतस्नानौं कृतबलिकर्माणौ-काकादिभ्यः कृताचन्द्र-सूर्य दर्शनरूप क्रिया करेंगे। अर्थात-नव जात शिशु को चन्द्र-सूर्यका दर्शन करावे गे| जब ग्यारहवां दिन व्यतीत हो जावेगा, और-१२ बारहवां दिन प्रारम्भ हो जावेगा. तब वे जातकर्म क्रिया करेंगे, इस क्रिया में-नव जात शिशु के उत्पन्न हो जाने से अशुचिता कुटुम्ब के लोगों में मानी जाती है, अर्थात् जन्म सम्बन्धी अशुचिता इस दिन समाप्त हो जाती है, घर वगैरे है की लिपाइ- पोताई की जाती है. वस्त्रों को धुलवाकर स्वच्छ कराया जाता है। इस तरह अशुचि व्यपरोपण करके फिर ने अशन आदिरूपचारों प्रकार के आहार को बनवावेंगे. और-अपने मित्र-सुहृज्जनों को माता-पिता-भाइ आदिरूप ज्ञातिजनों को, पुत्रादिरूप निजजनों को, पितृव्य-आदिरूप-स्वजनों को, अपनेश्वशुर एवं-पुत्र खशुर आदि सम्बन्धिजनोंको, एवं-दासीदास आदि परिचारक એટલે કે નવજાત શિશુને ચન્દ્ર-સૂર્યના દર્શન કરાવશે. જ્યારે અગિયારમે દિવસ પૂરે થશે અને બારમે દિવસ પ્રારંભ થશે ત્યારે તેઓ જાતકર્મ વિધિ કરશે. આ વિધિમાં નવજાત શિશુના જન્મથી કુટુંબના લેકમાં જે અશુચિતા મનાય છે તેને સાફ-સફાઈ વગેરે કરીને દૂર કરવામાં આવે છે. એટલે કે જન્મ સંબંધી અશુચિતા આ દિવસે મટી જાય છે. ઘર વગેરે લીપવામાં આવે છે. વસ્ત્રો ધોવડાવી સ્વરછ કરવામાં આવે છે. આ પ્રમાણે અશુચિ વ્યપરોપણ કરીને પછી તેઓ અશન-પાન વગેરે રૂપ ચાર પ્રકારના આહારે બનાવડાવશે અને પિતાના મિત્ર સહદ જન, માતા પિતા, ભાઈ વગેરે રૂપ જ્ઞાતિજને, પુત્રાદિરૂપ નિજજનોને, પિતૃવ્ય વગેરે રૂપ સ્વજનેને, પિતાના શ્વશુર અને પુત્ર શ્વશુર વગેરે સંબંધીજનોને અને દાસીદાસ વગેરે
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सुबोधिनी टीका सू. १६८ सूर्याभदेवस्य आगामिभववर्णनम् ३९७ नभागौ कृतकौतुकमङ्गलपायश्चित्तौं-कृतानि सम्पादितानि कौतुकानि-मषीतिलकादीनि मङ्गलानि-मङ्गलकराणि दुःखप्नादिफलनिवारणार्थ सर्षपदध्यक्षतादीनि तान्येव प्रायश्चित्तानि अवश्यकरणीयत्वात् याभ्यां तौ तथा, शुद्धप्रवेश्यानि-शुद्धानि पवित्राणि स्वच्छानि च प्रवेश्यानि राजसभाप्रवेशयोग्यानि, मङ्गल्यानि-मङ्गलजनकानि वस्त्राणि प्रवरपरिहितौ-सुष्टुतया यथारीति धारितवन्तौ, अल्पमहार्धा भरणालकृतशरीरौ-तत्र अल्पानि-स्तोकभाराणि महा_णि-महामूल्यानि आभराणिनिभूषणानि, तैः अलङ्कृत-भूषितं शरीरं ययोस्तौ तथा, भोजनमण्डपे-भोजनशालायां, सुखासनवरगतौ-निजनिजश्रेष्ठासने सुखरूपेण समुपविष्टौ सन्तौ तेन मित्र ज्ञातिनिजकस्वजनसम्बन्धिपरिजनेन सार्थ विपुलम् अशनं पानं खाद्यं स्वाद्यम् आस्वादयन्तौ, परिभुआनौ-रुचिपूर्वकं भुजानौ, परिभाजयन्तौ-अन्येभ्यः प्रयच्छन्ती. एवमेव-अनयैव रीत्या खलु विहरिष्यतः-स्थास्यतः । जिमितभुक्तोत्तरागतावपि-जिमिती भुक्तवन्तौ भुक्तोत्तरं-भोजनोत्तरकालम् आगती-निजनिजोपवेशन थाने समागतौ परिजनों को जीमने के लिये आमन्त्रित करेंगे । फिर-स्नान से, काकआदि कों के लिये कृतान्न विभागसे मपीतिलकादिकरूप कौतुकों से, मङ्गलकर दुःरवम आ द अवाञ्छनीय फल की निवृत्ति के लिये सरसों-दधि-अक्षतरूप प्रायश्चित्त से निपटकर राजसभा मे प्रवेश के समय पहनने योग्य स्वच्छ-पवित्र -माङ्गलिकवस्त्रों को अच्छी तरह पहनकर, एवं-अल्पभारवाले अमोल अलङ्कारों से शरीर को सुशोभित करनेके बाद भोजनशालामें आवेंगे, और-वहांपर अपने योग्य स्थापित श्रेष्ठ आसनपर बैठकर आमन्त्रित होकर आये हुवे उन मित्र-ज्ञाति-निजक -स्वजन-सम्बन्धीजन के साथ रुचिपूर्वक भोजन करेंगे, एक दूसरे के लिये मनोविनोद करते हुवे भोजन करलेने की क्रिया समाप्त हो जावेगी, तब वे हाथ मुख धोकर अपने स्थानपर आकर बिराजमान हो जायेंगे, वहां शुद्वोदक પરિજનેને જમવા માટે આમંત્રિત કરશે. પછી સ્નાનથી, કાગડા વગેરેને અન્ન ભાગ આપવાથી મીતિલક વગેરરૂપ કૌતુકેથી મંગલ કરીને સ્વપ્ન વગેરે અવાંછનીય ફળની નિવૃત્તિ માટે સરસવ, દધિ, અક્ષતરૂપ પ્રાયશ્ચિતથી નિવૃત્ત થઈને રાજસભામાં જવા યોગ્ય વસ્ત્રો સારી રીતે પહેરીને અને અ૫ભારયુકત બહુ કીમતી અલંકારોથી શરીરને સુશોભિત કરીને પછી તે ભોજનશાળામાં જશે, અને ત્યાં પિતાને યોગ્ય સ્થાપિત શ્રેષ્ઠ આસન પર બેસીને આમંત્રિત મહેમાને-મિત્ર-જ્ઞાતિ-નિજક સ્વજનસંબંધીજન અને પરિજનની સાથે રૂચિપૂર્વક જમશે. મને વિનેદ કરતાં એકબીજાને પીરસાવશે. આ પ્રમાણે આનંદપૂર્વક જમવાનું કામ પૂરું થઈ જશે. ત્યાર પછી તેઓ હાથ, મુખ પેઈને પિતા પોતાના સ્થાન પર આવીને વિરાજમાન થઈ જશે. ત્યાં શુદ્ધોદ
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राजप्रश्नीयसूत्रे
सन्तौ आचान्तौ शुद्धोदकयोगेन कृताऽऽचमनौ चोक्षौ - लेपसिक्थाद्यपनयनेन स्वच्छौ, अत एव परमशुचिभूतौ अतीव पवित्रौ त मित्रज्ञातिनिजक स्वजनसम्बधिपरिजनं विपुलेन प्रचुरेण, वस्त्रगन्धमाल्यालङ्कारेण -तत्र वस्त्राणि-क्षौ मक-कार्पासिकदुकूलरूपाणि गन्धाः पुष्पनिय सामोदपरिमलरूपाणि सुगन्धद्रव्याणि माल्यानि - पुष्पमालाः, अलङ्काराणि कटककुण्डलाद्याभरणानि तेषां समाहारः, तेन सत्करिष्यतःतत्प्रदानेन सत्कार करिष्यतः, सम्मान यष्यतः - मानपूर्वकमादरिष्येते, ततः तस्यैव मित्रज्ञातिनिज कस्वजन सम्बन्धिपरिजनस्य पुरत:- अग्रे एवं वक्ष्यमाणप्रका रेण वदिष्यतः - कथ ष्यतः, तदेवाह - हे देवानुप्रियाः ! मित्रादयः ! यस्मात् खलु कारणात् अस्मिन् नवजाते दारके शिशौ गर्भगते एक्सति - गर्भ सते सति आवयोः धर्में - जिनप्ररूपिते धर्मे प्रतिज्ञा-मतिः दृढा-निश्चला जाता, तत्-तस्मात् कारणात् आवयोः एष दारको नाम्ना दृढप्रतिज्ञो भवतु । ततः - तदन्तरं खलु तस्य दृढप्रतिज्ञ य दारकस्य अम्बा पितरौ अनुपूर्वेण-अनुक्रमेण स्थितिपतितां १, चन्द्र
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से आचमन कर परमशुचि बने हुवे वे अपने मित्रजनों का, ज्ञातिजनों का, निजकजनों का, स्वजनों का, सम्बन्धिजनों का, और परिजनों का विपुल - प्रचुर वस्त्रसे, रेशमी-एवं-सूतीवस्त्रों से गन्धसे, पुष्परस के आमोद परिमल से, पुष्पमालाओं से, कटककुण्डल आदिरूप अलङ्कारों से सत्कारकरेंगे एवं मानपूर्वक उनका आदर करेंगे । फिर वे उन्हीं मित्र-ज्ञाति-निजक- स्वजन -सम्बधी परिजनों के समक्ष ऐसा कहेंगे - हे देवानुप्रिय ? मित्रादिको ? जिस कारण से यह दारक जब गर्भ में आया था तब से हमलोगों की धर्ममें- जित प्ररूपित मार्ग में मति दृढ-निश्चल हो गई थी, इस कारण हमलोगों का यह - पुत्र नाम से दृढप्र तज्ञ हो" ऐसा कहकर वे ल उसका "दृढ प्रतिज्ञ - " नाम रक्खेगे उस दृढप्रतिज्ञ बालक के मातापिता क्रमशः - स्थिति पतिता - १ चन्द्र-सूर्य દકથી આચમન કરીને પરમશુચિ થયેલા તેઓ પેાતાના મિજનાના, નિજકજનાને સ્વજનાના, સંધીજનાના અને પરિજનાના વિપુલ-પ્રચુર વસ્ત્રોથી, રેશમી અને સૂતી વસ્ત્રોથી, પુષ્પરસના આમેદ પરિમલથી; પુષ્પમાલાએથી, કટક કુંડળરૂપ અલકારથી સત્કાર કરશે, અને સન્માનપૂર્વક તેમના આદર કરશે. પછી તેઓ પેાતાના મિત્ર, જ્ઞાતિ, નિજક, સ્વજન, સંબંધી પરિજનાની સામે આ પ્રમાણે કહેશે કે હે દેવાનુપ્રિયે ! મિત્રવર ! જ્યારથી આ દારક ગર્ભ માં આવે છે. ત્યારથી અમારી ધમમાંજિન પ્રરૂપિત માર્ગમાં મતિ દૃઢ નિશ્ર્ચલ થઇ ગઇ છે. આથી અમારે આ પુત્ર દૃઢ પ્રતિજ્ઞ નામથી સમાધિત થાય. આમ કહીને તે લેાકેા ‘પ્રતિજ્ઞ’ એ પ્રમાણે તેનુ નામ રાખશે. તે દૃઢ પ્રતિજ્ઞદારકના માતાપિતા અનુક્રમે સ્થિતિ પતિતા ૧, ચન્દ્રસૂર્ય દર્શનિકા ૨,
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सुबोधिनी टीका लू, १६८ सूर्याभदेवस्य आगामिभववर्णनम्
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सूर्य दर्शनिकां२, धर्मजागरिकां३, नामधेयकरणं४, 'पर'गमण' इत्यस्य षरगमनं पर्यङ्गन चेतिच्छाया, तत्र परगमनं - वगृहाद् बहिर्गमनम्, पर्यङ्गनम्, - अङ्गुलिग्रहणपूर्वकं भवनाङ्गणे भ्रामणं ५, प्रचक्रमणं स्वतोभ्रमणम् ६, प्रत्याख्यानकम् - अ -आरोग्याद्यर्थं व्रतादिकरणम् ७, जेमनकम् - अन्नप्राशनम् ८, प्रतिवर्धापनकम् - आशीर्वाददायकेभ्यो द्रव्यादिदानम् ९ प्रजल्पन कं- 'माता, पिता' इत्यादिशब्दपाठनम् १०, कर्णवेधनम् ११, संवत्सरप्रतीलेखनकम् जन्मदिनोत्सवम् १२, चूडापनयनं- मुण्डनोत्सवम१३, उपनयनम्-अध्ययनार्थं कलाचार्य समीपे नयनम् १४, एताश्चतुर्दशोत्स वान् करिष्यतः अन्यानि च बहूनि गर्भाधानजन्मादिकानि गर्भाधा नदिसम्बन्धीनि कौतुकानि - उत्पवजातानि महता ऋद्धिसत्कार समुदयेन - ऋद्धिः वस्त्रसुवर्णादिसम्पत् तथा सत्कार:-जनसत्कार करणं, तस्य समुदयः - समूहः तेन करिष्यतः | ०१६८। मूलम - - तए णं से दढपइण्णे दारगे पंचधई परिक्खित्ते, तं जहा खीरधारईए१, मज्जणधाईए२, मडणधाईए३. अकधाईए४. किलादर्शनिका - २ धर्म जागरिका - ३ नामकरण - ४ परंगमण - ५ परगृहगमन - अपने घर से बाहर निकलने रूप परगमन, अथवा - अङ्गुलिग्रहणपूर्वक भवनाङ्गणमें फिरने रूप पर्यङ्गमन, प्रचंक्रमण – स्वतःनमण-६ प्रत्याख्यान - आरोग्य आदिके लिये व्रतादिकरण- ७ जेमनक- अन्नप्राशन-८ प्रतिवर्धापनक- आशीर्वाददायकों के लिये द्रव्यादि देना - ९ प्रजल्पनक - मातापिता- इत्यादि शब्दों का उच्चारण करानां - १० कर्णवेधन - ११ संवत्सर प्रतिलेखनक - जन्म दिनोत्सव - वर्षगांठ, १२ चूडा - मुंण्डनोत्सव - १३ और उपनयन, अध्ययनार्थ कलावार्थ के पास ले जाना १४ इन चौदह प्रकारके उत्सवों को, तथा - इनसेभिन्न और भी अनेक गर्भाधानादि सम्बन्धी कौतुकों को उत्सवों को, ऋद्धि सत्कार समुदायसे करे गे । सू० १६८।
पनयन
ધર્મ જાગરિકા ૩, નામકરણ ૪, પર’ગમણુ ૫, પરગમન—પ મન-પોતાના ધરથી ખીન્દ્ર ઘેર જવું તે પરગમન, અથવા અંગુલિ ગ્રહણપૂર્વક ભવનાં ગણમાં જ ફરવું તે પયગમન, પ્રચંક્રમણ-સ્વત:ભ્રમણ ૬, પ્રત્યાખ્યાન આરગ્ય વગેરે માટે તાક્રિકરણ છ, જેમનક અન્નપ્રાશન ૮, પ્રતિવર્ષાષનક આશીર્વાદ આપનારાઓને દ્રવ્ય વગેરે આપવું. ૯; પ્રજપન-માતાપિતા વગેરે શબ્દોનું ઉચ્ચારણ કરવું. ૧૦, કર્ણવેધન ૧૧, સંવત્સર પ્રતિલેખનક જન્મ દિપોત્સવ—વર્ષ’ગાંઠ, ચૂડાપનયન, મુંડનેાત્સવ ૧૩ અને ઉપનયન અધ્યયન કલાચા પાસે લઇ જવું તે ૧૪, આ ચૌદ પ્રકારના ઉત્સવાને તેમજ એમનાથી ભિન્ન ખીજા પણ ઘણા ગર્ભાધાન સંબધી કૌતુકાને ઉત્સવાને ઋદ્ધિ સત્કાર સમુદાયપૂર્વક કરશે. પ્રસૂ૦ ૧૬૮૫
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राजप्रश्नीयसूत्रे वणधाईए५, अन्नाहि य बहूहिं खुजाहि चिलाइयाहिं वामणियाहिं१, वडभियाह२, बव्वरिहिं३, बाउसियाहिट जोण्हियाहिं ५, पल्हवियाहिं ६, ईसिणियाहि७, वासिणियाहिं८, लासियाहि९, लउसियाहि १०, दविडीहिं११, सिंहलीहिं१२, आरबीहिं १३, पकणीहि १४, विहलीहिं १५, मुरुंडीहिं १६, सब्वरीहिं१७, पारसीहिं१८, णाणादेसीहिं विदेसपरिमंडियाहिं सदेसनेवस्थगहियवेसाहिं इंगियचितियपत्थियवियाणियाहि निउणकुसलाहिं विणीयाहिं चेडियाचकवालतरुणीवंदपरियालपरिवुडे वरिसधरकंचुइज्जमहत्तरगवंदपरिक्खित्ते हत्थाओ हत्थ साहरिजमाणे २ अंकाओ अंकं परिभुजमाणे २ उवच्चिज्जमाणे २ उवगाइजमाणे २ उवलालिजमाणे २ उवगूहिज्जमाणे २ अवयासिज्जमाणे २ परियंदिजमाणे २ परिचुविजमाणे २ रम्मेसु मणिकुट्टिमतलेसु परागज्जमाणे २ गिरिकंदरमल्लीणेविव चपगवरपायवे निव्वाधायंसि सुहसुहेणं वरिवड्डिस्सइ ॥ सू० १६९॥
छायाः-ततः खलु स दृढप्रतिज्ञा दारकः पञधात्रिभिः परिक्षिप्तः, तद्यथाक्षीरधाच्या१, मज्जनधाच्या२, मण्डनधाच्या ३ अङ्कधाच्या४ क्रीडनघाच्या ५
"तए णं से दढपइण्णे दा गे-इत्यादि
मलार्थ-"तए णं-" इसके बाद-“से ददपइण्णे- दृढप्रतिज्ञ बालक"पंचधाई परिविवत्ते-" इन पांच धायमाताओं से युक्त- “तं जहा-खीरधाइए-मज्ज णधाइए-मंडणधाइए-अंकधाइए-किलावणधाइए-" जैसे-क्षीरधायमाता से, दूध पिलानेवाली उप माता से, मज्जनधायमाता से, स्नान करानेवाली उप
"तए णं से दढपइण्णे दारगे" इत्यादि ।
भूसाथ-'तए णं" त्या२ पछी “से दढपइण्णे" ते प्रतिज्ञ भा४ "पंच धाई परिविखत्ते" मा पांय याय भातामाथी "तं जहा-खारधाए-मज्जणधाइएमंडणधाइए-अंकधाइए, किलावणधाइए" भ. क्षीराय माताथी विना२ ઉપમાતાથી, મજજનધાય માતાથી, સ્નાન કરાવનાર ઉપમાતાથી, મંડનધાયમાતાથી,
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बोधिनी टीका सु. १६९ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णनम्
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अन्याभिश्च बहुभिः कुब्जाभिश्चिलातिकाभिःर्वामनिकाभिः १ वटमिकाभिः २, बरीभिः ३. बकुशिका भः ४ यौनिकाभिः५, पल्हविकाभिः ६, इसिनिकाभिः ७, वासिनिकाभिट लासिकाभिः ९, लाकुशिकाभिः १० द्राविडीभिः ११. सिंहलीभिः १२, आरवीभिः १३, पक्कणीभिः १४, वहलीभिः १५, मुरुण्डीभिः १६, शबरीभिः १७, पारसीभिः १८, नानादेशीयाभिः विदेशपरिमण्डिताभिः स्वदेशनेपथ्य गृहीतवेषाभिः इङ्गितचिन्तितप्रार्थित विज्ञापिकाभिः
माता से, मण्डन धाय माता से - मषीतिलक आदि द्वारा मण्डन 'अलङ्कृत' करानेवाली उपमाता से अङ्कधात्री माता से उत्सङ्ग-गोद में लेकर खिलाने वाली - उपमाता से, क्रीडनधात्री माता से - विविध प्रकार की क्रीडाएं करानेवाली उप माता से इन पांच प्रकार की धात्रियों से युक्त हुवा - " अन्नाहिय बहूहिं खुज्जाहिं चिलाइयाहि वामणयाहि वडभियाहिं बब्वराहिं बाउसयाहिं जोव्हियाहि पल्हवियाहि ईसिणियाहिं वासिणियाहिं लासियाहिं- " तथा - इन से अतिरिक्त और भी अनेक प्रकार की वक्रपृष्टवाली एवं अनार्यदेशोत्पन्न ठुमकी- हम्बशरीरवाली -१ वटभिका - २ हीन एकपार्श्व भागवाली बर्बरा - ३ बब रेदेशोत्पन्ना बकुशिका - ४ यौनिका- ५ पल्हविका - ६ –ईसिनिका- ७ वासिनिका- ८ लासिका-९ " लउसियाहि " लकुशिका १० “दविडीहिं - " द्राविडी - ११ “सिंहलीहिं आरवीहि - पक्कणीहिं- बहलीहि - मुरुडीहि-सम्बरीहिं-" पारसीहिं सिंहिली - १३ आरबी, पक्कणी - १४ बहली - १५ मुरण्डी - १६ शर्बरा - १७ पारसी - १८ 'णाणा देसीहिं-' अपने - अपने नामानुरूप देशों में उत्पन्न हुवी - तथा - " विदेसपरिमंडियाहिं- " મષીતિલક વગેરે દ્વારા મડન કરાવનાર ઉપમાતાથી, અંધાત્રી માતાથી, ઉત્સંગ पोणाभां खेसाडीने रमाउनार उपभाताथी युक्त थयेो। " अन्नाहिय बहूहिं खुज्जा हिं चिलाइयाहिं वामणियाहिं वडभियाहिं ब्राहि बउसियाहिजोहियाहि पल्हवियाहि ईसिणियाहिं वासिणियाहिं लासियाहिं" तेभन બીજી પણ અનેક પ્રકારની વક્રપૃષ્ઠવાળી અને અનાર્ય દેશાત્પન્ન ઠીંગણી ૧; ટમિકા ૨, હીન એક પાશ્ર્વભાગવાળી, ખખરા ૩ ખબર દેશાત્પન્ના, બકુશિકા ૪ યૌનિકા च, यहविडा ६, सिनिअ ७, वासिनिअ ८, बासि ८. " लउसिया हिं" सङ्कुशीअ १०, “दविडीहि” द्राविडी ११, “सिंहलीहिं आरवीहिं पक्कणीहिं-बहली हिंमुरुंडिहिँ सब्वरीहिं पारसीहिं" सिडिसी १३. आरणी. थडगी १४. वहसी १५. भा३डी १६. शर्मश १७. पारसी १८. “ णाणादेसीहि” તપેાતાના દેશોમાં उत्पन्न थयेली. तथा ' विदेसपरिमंडियाहिं" वीहेशी वेशभूषाभां सुसन्न "सदेसनेवत्थगहियवे साहिं इंगिय चितिपत्थियवियाणियाहिं, निउणकुसलाहिं,
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राजप्रश्नीयसूत्रे निपुणकुशलाभिः विनीताभिः चेटिकाचक्रवालतरुणीवृन्दपरिवार-परिवृतः वर्षध कञ्चुकिमहत्तरकवृन्दपरिक्षिप्तः हस्ताद् हस्ते संहियमाणाः २ अङ्काद् अङ्क परिभोज्यमानः २ उपनृ यमानः २ उपगीयमानः २ उपलाल्यमानः २ उपगृह्यमानः २ श्लिप्यमाणः २ परिवन्धमानः २ परिचुम्ब्यमानः २ रम्येषु मणिकुट्टिमतलेषु पर्यङ्गयमाणः २ गिरिकन्दरालीन इव चम्पकवरपादपः निर्व्याघाते सुखसुखेन परिवर्धिष्यते ॥ सू० १६९ ॥ विदेश के वेष से सजी हुवी, 'सदेसनेवस्थगहियवेसाहिं, इंगिय चिंतियप िथयवि ाणियाहिं निउणकुसलाहिं, विणीयाहिं-' और अपने देश में वस्त्राभूषणों को जिस तरह से पहिरा जाता है, उस तरह से वेष को धारण करनेवाली, तथा-इङ्गित-चिन्तित-प्रार्थित को अच्छी तरह से समझ लेने वाली, नारियों के बीच कुशल, विनय सम्पन्न, स्त्रियों से, तथा "चेडिया चक्कवालतरुणीवंदपरियालपरिपुडे, वरिसघरकंचुइजमहत्तरगवंदपरिविखते-" और भी दासियों के समूह से एवं युवतियों के समूह से परिवेष्टित हुवा, तथा वर्ष घर, कञ्चुकी, और महत्तरक इन के समूह से परिवेष्टित हुवा, एवम्-"हत्थाओ हत्थं साहरिजमाणे-२ उपलालिज्जमाणे-२ उवगूहिज्जमाणे-२ अवयासिज्जमाणे-परियदिज्जमाणे २ परिचुंबिज्जमाणे-२ रम्मेसु मणिकुट्टिमतलेसु परंगिज्जमाणे २” एक हाथ से दूसरे हाथों में बार बार जाता हुवा, एक गोदी से दूसरी गोदी में बारबार नृत्य क्रिया दिखाने से संतुष्ट किया गया. बारवार-मधुर वचनादि द्वारा लाड लडाया गया, बारवार-२ दृष्टि दोष को दूर करने के लिये वस्त्रादिकोंद्वारा ढांका गया, बारबार हृदय से लगाकर आलिविणीयाहि ' मने पातपाताना हेशमा १२त्राभूषण। २ शत पराय छ त रीते વેષ ધારણ કરનારી તથા ઇ ગિત ચિંતિત અને પ્રાર્થિત ને સારી રીતે જાણનારી. સ્ત્રી
मां शण. विनय संपन्न. स्त्रीमोथी तभा 'चेडियाचक्कवालतरुणीवंद परियालपरिवुडे, वरिसधरकंचुइज्जमहत्तरगवंदपरिक्वित्ते" मी पासीઓના સમૂહથી અને યુવતીઓના સમૂહથી પરિવેષ્ટિત થયેલ મજ વર્ષધર ક ચુકી भने महत्त२४ मेमना समूहाथी पश्विष्टित थयेसो भने “हत्थाओ हत्थं साहरिज्जमाणे २ उपलालिज्जमाणे २, उवगूहिज्जमाणे २, अवपाहिज्जमाणे २, परियदिज्जमाणे २ परिचुंविज्जमाणे २, रम्मेसु मणिकुट्टिमतलेसु परगिज्ज-णे २" એક હાથેથી બીજા હાથમાં વારંવાર તે એકના ખેાળામાંથી બીજાના ખોળામાં વારંવાર લઈ જવાતો, વારંવાર નૃત્ય કિયા બતાવીને સંતુષ્ટ કરાયેલ, વારંવાર મધુર વચન વડે લાડ કરીને, વારંવાર દષ્ટિ દેષને દૂર કરવા માટે વસ્ત્રાદિકથી ઢાંકેલો,
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सुबोधिनी टीका सू. १६९ सूर्याभदेवस्य आगामिभववर्णनम् टीकाः-"तए णं से दृढपइण्णे' इत्यादि-ततः खलु स दृढप्रतिज्ञो दारकः पञ्चधात्रीभिः-बालस्य स्तन्यपानादिकारिकाभिः पञ्चभिर्धात्रीभिः रिक्षिप्तःपरिवृतः, मूले “पंचधाईपरिविखत्ते" इत्यत्र 'पंचधाई' इति लुप्ततृतीयान्तं पदं, तेन 'पञ्चधात्रीभिः' इतिच्छाया, तद्यथा-क्षीरधात्र्या- स्तन्यपायिकया १, मज्जनधात्र्या-स्नपनकारिकया २, मण्डनधाच्या-मपीतिलकादिभिर्मण्डन सारिकया
३, अङ्कधाच्या उत्सङ्गस्थापिकया ४, क्रीडनधान्या-क्रीडनकारिकया ५। एवं प्रकाराभिः पञ्चभिर्धात्रीभिः परिवृतः-युक्तः। तथा अन्याभिः-एतदतिरिक्ताभिरां बहुभिः-बहुप्रकारामिः, कुब्जाभिः-वक्रपृष्ठाभिः, चिलातिकाभिः-अनार्यदेशोत्पन्नाभिः, काभिः ? इत्याह-वामनिकाभिः-हस्वकायाभिः१, वटभिकाभिः-मडहकोष्ठाभिः-हीन कपार्श्वभागाभिरित्यर्थः२, बर्वरीभिः-वर्व देशोद्भवाभिः३, बकुशिकाभिः४, यौनिकाभिः५, पल्हविकाभिः ६, इसिनिकाभिः ७, वासिनिकाभिः ८ लासिकाभिः ९, लकुशिकाभिः १०, द्राविडीभिः ११, सिंहिलीभिः ९२, आरवीभिः १३, पक्कणीभिः १४, बहलीभिः १५ मुरुण्डीमिः १६, शबरीभिः १७, पारसीभिः १८, एवमेताभिः तत्तत्रामानुरूपनानादेशीयाभिः-अनेकदेशोद्भवाभिः विदेशपरिमण्डिजन किया गया 'चिरकाल तक जीवित रहो-" इस तरह के शुभाशीर्वादो से वधाया गया वारंवार चुम्बन किया गया-"रमेसु मणिकुटिमतलेसु पर गिज्जमाणे-२ गिरिकंदरमल्लीणे विव चंपगवरपायवे निव्वाघायंसि, सुह सुहेणं परिवसिइ-" तथा रम्य-रमणीय मणिकुट्टिमतलों में रत्न जडित- अङ्गणों में बार-२ चलता हुवा. गिरिगुहा में स्थित चपकवृक्ष की तरह निराबाध स्थान में सुस्त्रपूर्वक वृद्धि को प्राप्त करेगा.
टीकार्थ-मूलार्थ जैसा ही है, परन्तु फिर भी जो विशेषता है वह ऐसी है-"पंचधाई परिक्खित्ते-' यहां-पंचधाई पद लुप्त तृतीयाविभक्ति वाला है, अतः-इसकी छाया-पंच धात्रीभिः ऐसी करनी चाहिये। “विदेशप रमण्डिવારંવાર હૃદયને ચાંપીને આલિંગન કરેલ “ઘણું ” આ જાતના શુભાશીર્વાદથી qधामी मापेतो पा२ वा२ युमित ४२सा, "रंमेसु मणिकुट्टिमतलेसु परंगिज्जमाणे २ गिरिकंदरमल्लीण विव चंपगबरपायवे निव्वाधायंसि सुहंसुहेणं परिवहिस्सइ" તેમજ રમ્ય-રમણીય મણિકટિંમતમા, રત્નજડિત આંગણામાં વારે વાર ચાલને, ગિરિગુહામાં સ્થિત ચંપક વૃક્ષની જેમ સુખપૂર્વક માટે તે ગયે
ટકાથ–મૂલાર્થ પ્રમાણે જ છે. પણ છતાંએ જે વિશેષતા જણાય છે તે આ प्रमाणे छ. "पंचधाई परिक्वित्ते" ही "पंचधाई" ५६ सुततृतीया विमतियुत छ. मेथी "पंचधात्रीभिः" सेवी छाया ४२वी नये. "विदेशपरिमण्डिताभिः"
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ताभिः:- विदेश इति विदेशवेषः, तेन परिमण्डिताभिः विभूषिताभिः स्वदेशनेपथ्यगृहीतवेषाभिः - स्वदेशे निजदेशे यन्नेपथ्यैवस्वाऽऽभूषणानां परिधानादिरचना तद्वद् गृहीतो वेषो याभिस्ताग्तथा, ताभिः इङ्गितचिन्तितप्रार्थितविज्ञायिकाभिः तत्र इङ्गितं निपुणमतिगम्यं अभिप्रायरूपं प्रवृत्तिनिवृत्तिसूचकमीषद् श्रू शिरःकम्पादिकं, चिन्तितं- हृदयगतं, प्रार्थितम् - अभिलषितं च विजानन्ति यास्तास्तथा ताभिः, निपुण - कुशलाभिः निपुणानां चतुरनारीणां मध्ये याः कुशलाः- दक्षास्ताभिः, विनीताभिः- विनयसम्पन्नाभिः परिक्षिप्त' इति पूर्वेण सम्बन्धः । पुनश्च चेटिकाचक्रबालतरुणीवृन्दपरिवारपरिवृतः चेटिकाचक्रवालः दासीसमूहः, तरुणीवृन्द युवति मूहः, तस्य परिवारेण परिवृतः परिवेष्टितः, पुन वर्ष धरकञ्चुकि महत्तर कवृन्द परिक्षिप्तः, तत्र वर्षं धराः अन्तःपुरकार्यकारिणो नपुंसकाः, कञ्चुकिनः अन्तःपुरप्रयोजन निवेद काः अन्त पुरप्रतीहारा वा, महत्तरकाः अन्तःपुरकार्य चिन्तकाः, तेषां वृन्देन- - समूहेन परिक्षिप्तः परिवृतः स ह ताद् हस्तम् एकं हस्ताद् अन्यहस्तं संह्रियमाण २ = वारं वार नीयमानः अत्र विप्सायां द्वित्वम्, एवमग्रेऽपि, एवम् अङ्काद् अङ्कम् एकस्या उत्सङ्गादू अन्य या उत्सङ्गं परिभोज्यमानः - पाल्यमानः, उपनृत्यमानः, नर्तन दर्शनेन परितोष्यमाणः, उपगीयमानः गानं श्राव्यमानः, उपलाल्यमान: ललित मधुरवचनादिना लाल्यमानः उपगूह्यमानः दृष्टिदोषादिनिवारणार्थ वस्त्रादिभिरा
मानः, श्लिष्यमाणः हृदयसंलगनेन आलिङ्गयमानः परिखन्द्यमानः “चिरं जीव्याद्" इत्याद्याशीर्वचनैः : स्तूयमानः, प रचुम्ब्यमानः परिचुम्ब्यमानः, रम्येषु ताभिः " में जों विदेश शब्द आया है वह “विदेश वेष अर्थ में है, इङ्गित वह चेष्टा विशेष है जो निपुणमतिद्वारा ही जाना जाता है, यह प्रवृत्ति निवृत्ति का सूचक होता है, तथा इस में थोडे से रूपमें शिरःकम्पाना द किया जाता है । हृदयङ्गत अभिप्राय का नाम चिन्तित हैं, तथा - अभिलषित का नाम - प्रार्थित है । अन्तःपुर में जो कार्य करने के लिये नियुक्त किये जाते हैं, एवं जो नपुंसक होते हैं इनका नाम वर्ष घर हैं । अन्तःपुर सम्बन्धी प्रयोजनों का निवेदक होते हैं, अथवा अन्तःपुर में जो प्रतिहारका काम करते हैं वे कञ्चुकी માં જે વિદેશ શબ્દ આવેલ છે તે વિદેશ વેષ અર્થમાં વપરાયેલ છે. ઇગિત-તે તે ચેષ્ટા વિશેષ છે. જે નિપુણમતિ વડે જ જાણી શકાય છે. આ પ્રવૃત્તિ નિવૃતિ સૂચક હોય છે. તથા એમાં ધીમેધીમે શિરકમ્પનાદિ કરવામાં આવે છે. હૃદય ગત અભિપ્રાય ને ચિંતિત કહે છે. તથા અભિલષિતને પ્રાતિ કહે છે. અંતઃપુરમાં જે કામ કરે છે અને જે નપુસક હાય છે તે વધર છે. અ ત:પુર સબધી પ્રયાજના ને જે નિવેદક હાય છે, અથવા અત:પુરમાં જે પ્રતિહારનુ` કામ કરે છે તે કચુકી
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सुबोधिनी टीका सु. १६९ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ४०५ रमणियेषु मणिकुट्टीमतलेषु रत्नजटिताङ्गणेषु पर्यङ्गमाणः२-पुनः पुनश्चङक्रभ्यमाणः, सन् गिरी इन्दरालीनः गिरिगुहास्थितः चम्पकवरा दिप इव श्रेष्ठ चम्पकवृक्ष इव नीर्व्याधाते नीरावाचे स्थाने सुखपूर्वकं परिवर्धिष्यते वृद्धि प्राप्त्यति ।।सू० १६९।।
मूलम्-तए णं तं दढपइण्णं दारगं अम्मापियरो साइरेग अटवासजायगं जाणित्ता सोभणंसि तिहिकरणणक्खत्तमुहुत्तसि हायं कयबलिकम्मं कयकोउयमंगलपायच्छित्त सव्वालंकारविभूसियं करेत्ता महया इडिस्कारसमुदएणं कलायरियस्स उवणेहिति । तए णं से कलायरिए तं दृढपण्णं दारग लेहाइयाओ गणियप्पहाणाओ सउणरुयपज्जवसाणाओ बावत्तरि कलाओ सुत्तओ य अत्थओ य गंथओ य करणओ य सिक्खावेहिइ य, सेहावेहिइ य तं जहा-लेहं १ गणियं २ रूवं ३ नट्ट ४ गीय५ वाइयं६ सरगयं७ पुक्खरगयं८ समतालं ९ जूयं १० जणवाय ११ पासग १२ अट्रा यं १३ पोरेवच्च १४ दगमट्टियं १५ अन्नविहिं १६ पाणविहिं १७ वत्थविहिं १८ विलेवणविहि १९ सयणविहिं २० अज २१ पहेलियं २२ मागहिय २३ णिहाइय २४ गाहं २५ गीइय २६ सिलोग २७ हिरणजुत्ति २८ सुवण्णजुति २९ आभरणविहिं ३० तरुणीपडिकम्म ३१ इत्थिलवखणं ३२ पुरिसलक्खणं ३३ हयलक्खणं ३४ गयलक्खणं ३५ कुडलक्खणं ३६ छत्तलक्खणं ३७ चकलक्खणं ३८ डलक्खणं ३९ असिलक्खणं ४० मणिलक्खणं ४१ कागणिलक्खणं ४२ वत्थुविज ४३ णगरमाणं ४४ कहलाते हैं, अत:-पुर में क्या क्या कार्य होता है, इत्यादिका चिन्त्वन करने वाले होते हैं. वे-महत्तरक हैं ॥ सू० १६९ ॥ કહેવાય છે. અંતઃપુરમાં શું શું કામ થવાનું છે, તેની વિચારણા કરનારા મહત્તરક કહેવાય છે. એ સૂ૦ ૧૬૯ છે
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खंधावारमाणं ४५ चारं ४६ पडिचार ४७ वूह ४८ चक्कवूहं ४९ गरुलवूह ५० सगडवूह ५१ जुद्धं ५२ नियुद्धं ५३ जुद्धजुद्धं ५४ अजुद्ध ५५ मुट्टिजु ५६ बाहुजु ५७ लयाजुद्ध ५८ ईसत्थं ५९ छरुष्पवाय ६० धणुवेयं ६१ हिरण्णपागं ६२ सुवण्णपागं ६३ मणिपागं ६४ धाउपागं ६५ सत्तखेड ६६ वद्वखेड ६७ णालियाखेड ६८ पत्तच्छेनं ६९ कडगज्छेजं ७० सजीवनिज्जीवं ७१ सउणरुय ७२ इति । ॥सू० १७० ॥
छाया - ततः खलु तं ददप्रतिज्ञ दा कम् अम्बापितरौ सातिरेगाष्टवर्ष जातकं ज्ञात्वा शोभने तिथिकरण नक्षत्रमुहूर्ते स्नातं कृतबलिकर्माण कृत कौतुकमलप्राय चित्तं सर्वालङ्कारविभूषितं कृत्वा महता ऋद्धिसत्कारसमुदयेन कलाचार्यस्य उप"तए णं तं दृढपइण्णं " इत्यादि
मूलार्थ – “तए णं” इसके बाद - "दद पइणं - " दढ प्रतिज्ञ "दारगं" दारक बालक को - "अम्मायरो" मातापिता "साइरेगअहवासजायगं जाणित्ता - ' आठ वर्ष से कुछ अधिक का हुवा जानकर - "सोभणंसि तिहिकरणणक्खत्तमुहुत्तंसि हायं " शोभनतिथि नक्षत्र मुहूर्त में उसे स्नान कराकर - ' कयबलिकम्मं कयकोउयमंगलपायच्छित्त, सव्वालंकार विभूसिय करेत्ता -" उससे बलिकर्म काकआदि को अन्नादि का भाग देकर, कौतुकमङ्गलरूप प्रायश्चित्त कराकर, एवं - उसे समस्त अलङ्कारों से विभूषितकर - " महया सकारसमुदपणं कलायरियस्स उवणेहिंति—” अपनी विशाल ऋद्धि के अनुरूप सत्कारपूर्वक कला
"तए णं तं दढपणं" इत्यादि ।
भूसार्थ – 'तए णं' त्यार पछी 'दडपणं' दृढप्रतिज्ञ 'दारगं' हा२४ - भाणउने 'अम्मा पियरो' भातापिताओ "साइरेगअट्ठवासजायगं जाणित्ता' आठ वर्ष १२तां थोडो भोटो थयेस लगीने 'सोभर्णसि तिहिकरणक्खत्तमुहुत्तंसि व्हाय' शोलनतिथि नक्षत्र मुहूर्त भां तेने स्नान उशवशे, 'कयवलिकम्मं, कयकोउयमंगलपायच्छित्तं, सव्वाल कारविभूसिय करेता' तेना वडे असिम - झगडा वगेरेने અન્ન વગેરેના ભાગ અપાવડાવીને, કૌતુક મંગલરૂપ પ્રાયશ્ચિત્ત કરાવીને અને તેને समस्त असाथी विभूषित श्ररीने 'महया इड्ढसक्कारसमुदपणं कलायरियस्स उवणेहिंति' पोतानी विशाण ऋद्धिना अनु३य सत्हारपूर्व उसायार्यानी पासे भोसरी,
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सुबोधिनी टीका सू. १६९ सूर्याभदेवस्य अगामिभववर्णनम्
४०७ नेष्यतः। ततः खलु स कलाऽऽचार्यः तं दृढप्रतिज्ञं दारकं लेखादिका गणितप्रधानाः शकुनरुतपर्यवसाना: द्वासप्तति कलाः सूत्रतश्च अर्थतश्च करणतश्च शिक्षयिष्यति च साधयिप्यति च, तद्यथा-लेखं १, गणितं २, रूपं ३, नाटयं ४, गीतं ५, वादितं ६, स्वरगतं ७ पुष्करगतं ८, समतालं ९, द्यूतं १९, जनवादं ११, पाशकम् १२, अष्टापदं १३, पौरकृत्यं १४, दकमृत्तिकाम् १५, अन्नविधि १६, पानविधि १७, वस्त्रविधि १८, विलेपनविधिं १९, शयनविधिम् २०, आर्या २२, प्रहेलिका २२, मागघिका २३, निद्रायिकां २४, गाथां २५, चार्य के पास भेजेंगे। “ तए णं से कलायरिए तं दढपइण्णं दारगं लेहाइयाओ गणितपहाणाओ सउणरुयपज्जवसाणाओ वाबत्तरि कलाओ सुत्तओ य अत्थओ य गंथओ य करणओ य सिक्नावेहिइ य सेहावेहिइ य-" वह कलाचार्य उस दृढप्रतिज्ञ दारक को लेखादिक गणित प्रधान कलासे लेकर शकुनरूत तक की ७२ कलाओं को सूत्र-अर्थ और-तदुभय, एवं-करणरूप सिखावेगा, एवं इन्हें सिद्ध भी करावेगा, "तं जहा-लेहं १ गणितं २ रूवं ३ नर्से ४ गीयं५-बाइयं-६ सरगयं-७ पुक्खरगयं-८ समतालं-९-" वे वहत्तरकला इस प्रकार से हैं लेखन-१ गणित-२ रूप-३ नाटय-४ गीत-९ वादित्र-७ स्वरगत-७ पुष्करगत-८ समताल-९ “जूयं-" द्यूत -१० "जणवायं-" जनवाद-११ "पासगं" षाशक-"अट्ठावय." अष्टापद-"पोरेवञ्च-" पौरकृत्य-"दगमट्टियं-" दकमृत्तिका- "अन्नविहि" अन्नविधि-पाणविहि-पानविधि-वत्थविहि' वस्त्रविधि 'चिलेवण विहि-' विलेपनविधि-'सयणविहिं-' शयनविधि-'अजं-' आर्या-'पहेलियं' प्रहेलिका-'मागहियं-' मागधिका-णिदाइयं-' निद्रायिका-'गाहं.' गाथा-गीइयं-' मे।सशे, 'तए णं से कलायरिए त दढपइण्ण दारगं लेहाइयाओ गणियप्पहाणाओ सउणरुयप्पज्जवसाणाओ वावत्तरि कलाओ सुत्तओय अथओय गंथओय करणओय सिक्खावेहिइय सेहावेहिइय' ते सायाय" ते दृढप्रतिज्ञा२४ने मा६ि४ शित પ્રધાન કલાથી માંડીને શકુનરૂત સુધીની ૭૨ કલાઓને સૂત્ર અર્થ અને તદુભા भने ४२६५३५थी २५१. मने मेमने सिद्ध ५५५ ४२।१२. 'तं जहा लेह १; गणियं २, रूवं ३, नटुं ४, गीयं ५, वाइयं ६, सरगयं ७, पुनरगयं ८, समतालं ૨, તે ૭૨ કલાએ આ પ્રમાણે છે લેખન ૧, ગણિત ૨, ૫ ૩, નાટ્ય ૪, ગીત ५, पात्रि ६, ८१२॥ ७, ५४२ गत ८, समतात, 'जूयं' धूत १० जणवायं' नपा ११, ‘पासगं' ५२४, ‘अट्टावयं' ५४.५४ ‘पोरेवच' पौरकृत्य 'दगमट्टियं' भृत्तिा , 'अन्नविहिं ' मन्नविधि, 'पाणविहि' पानविधि ‘वत्थविहि' पविधि, 'विलेवणविहिं ' विपनविधि, 'सयणविहि' शयनविधि, 'अज्ज' आर्या, 'पहेलियं' प्रतिशत, 'मागहियं' माणधि, णिद्दाइय' निद्राया, 'गाह'
था, गीइयं जाति,
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राजप्रश्नीयसूत्रे गीतिका २६, श्लोकं २७, हिरण्ययुक्तिं २८, सुवर्णयुक्तिम् २९, आभरणविधि ३०, तरुणीप्रतिकम ३१. स्त्रीलक्षणं ३२, पुरुषलक्षणं ३३, हयलक्षणं ३४, गजलक्षणं ३५, कुक्कुटलक्षणं ३६, छत्रलक्षणं ३७, चक्रलक्षणं ३८, दण्डलक्षम् ३९, असिलक्षण ४०, मणिलक्षण ४१ काकिणीलक्षण ४२, वास्तुविद्या ४३, नगरमानं ४४, स्कन्धावारमानं ४५, चारं ४६, प्रतिचार ४७ व्यूह ४८, चक्रव्यूह ४९, गरुडव्यूहं ५०, शकटव्यूह ५१, युद्ध ५२ नियुद्ध ५३ युद्धयुद्धम् ५४, अस्थियुद्ध ५५ मुष्टियुद्ध ५६ बाहुयुद्ध ५७ लतायुद्धम् ५८, इष्वस्त्रं ५९, सरुप्रवादं ६० घनुर्वेदं ६१ हिरण्यपाकं ६२ सुवर्णपाकं ६३ मणिपाकं ६४, गीतिया-'सिलोग-' श्लोक-'हिरण्णजुत्ति-' हिरण्ययुक्ति-'सुवण्णजुत्ति' सुवर्णयुक्ति 'आभरणविहिं-' आभरणविधि-'तरुणीपडिकम्मं-' तरुणीप्रतिकर्म-'इस्थिलवरखणं-' स्त्रीलक्षण-'पुरिसलक्षणं' पुरुषलक्षण 'हयलक्वणं-' हयलक्षण-'गयलक्खण-' गजलक्षण 'कुक्कुडलक्वणः कुक्कुटलक्षण-'छत्तलक्षण-' छत्रलक्षण-'चक्कलक्खण' चक्रलक्षण-'दंडलक्षण -' दण्डलक्षण 'असिलक्खण' असिलक्षण-'मणिलवखण - मणिलक्षण-'कागणिलक्रवण' काकिणीलक्षण-'वत्थु जं-' वास्तुविद्या-'णगरमाण'-'नगरमानं-'खंधावारमाण-' स्कन्धावारमान-'चार-पडिचार-वृह-चक्कवूह' चार-प्रतिचार-व्यूह-चक्रव्यूह, 'गरुडवूह-सगडवूह-जुद्धं-निजुद्धं जुद्धजुद्धे-अटिजुद्धंमुट्ठिजुद्ध-बाहुजुद्धं-लयाजुद्ध-इसत्थे-छरुप्पवाय-' गरुडव्यूह-युद्ध-नियुद्ध-युटुयुद्ध-अस्थि युद्ध-मुष्टियुद्ध-बाहुयुद्ध-लतायुद्ध-इष्वख-त्सरुमवाद, धणुव्वेय-हिरण्णपागं-सुवण्णषागं मणिपागं-धाउपाग-सुत्तखेडं-चट्टखेडं-जालियाखेडं-पत्तच्छेज्जं-' धनुर्वेद-हिरण्यपाक'सिलोग' , 'हिरण्णज्जुत्ति डि२५ययुति 'सुवण्णजुत्ति सुवर्ण युति, आभरणविहिं मालविधि, 'तरुणीपडिकम्म' ती प्रतिभा 'इथिलक्वणं' स्त्रीलक्षण 'पुरिसलक्खणं' ५३५सक्ष. 'हयलक्रवणं' यसक्ष. 'गयलक्खणं' . 'कुक्कुडलक्षणं' टसक्ष. 'छत्त लक्खणं' छत्र सक्ष. 'चक्कलक्वणं' यसक्षाय. 'दंडलक्रवण सक्ष'असिलक्खणं' मसि सक्ष. 'मणिलक्खणं' भतिक्षY 'कागणिलक्खणं' silied ARJ. 'वत्थुविज्ज' वास्तुविधा. 'णगरमाणं' नाभान. 'खंधावारमाणं' २४ धावा२ भान. 'चारं पडिचारं वूह-चक्कवूह' या२-प्रतिया२०५-२४०यू. 'गरुडवूह-सगडवूह-जुद्धं-निजुद्धं-जुद्ध जुद्ध-अटिजुद्ध-मुद्विजुद्ध - वाजुद्ध लयाजुद्ध-इसत्थे-छरुप्पबाय" ३७ ०यूड. शट न्यूड. युद्ध. नियुद्ध. युद्ध-युद्ध. अस्थि युद्ध. भुटियु. मायुद्ध, सतायुद्ध. ४०८१२त्र. ५३ प्रवाह. "धणुव्वेय हिरण्णपाग सुवण्णपाग मणिपाग धाउपाग सुत्तखेडं बखेडं णालियाखेडं पत्तच्छेज्जं" धनु (२९या४. सुवा पा४. मणिपा४. सूत्रमे वत
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सुबोधिनी टीका स. १७० सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ४०९ धातुपाकं ६५ सूत्रखेलं ६६ वर्तखेलं ६७ नालिकाखेलं ६८ पत्रच्छेद्य ६९, कटकच्छेद्यं ७० सजीवनिर्जीव ७१ शकुनरुतम् ७२, इति ॥ सू० १७० ॥
टीका-'तए णं तं दढपइण्णं' इत्यादि-ततः खलु तं दृढप्रतिज्ञ दारकम् अम्बा-पितरो-तन्माता-पितरौ, सातिरेकाष्टवर्ष जातकंसंजातकिञ्चिदधिकाष्टवर्ष कं ज्ञात्वा-परिभाव्य शोभने तिथिकरणनक्षत्रमुहूर्ते-तिथिश्च करणं च नक्षत्रं च मुहूर्त चेत्येतेषां समाहारः तिथिकरणनक्षत्रमुहूर्त, तत्र शोभनशब्दस्य सर्वत्र सम्बन्धात् शोभनायां तिथौ-नन्दा जया पूर्णारूपायां, शोभने करणे-स्थिरसंज्ञके, शोभने नक्षत्रे-विद्याऽध्ययनयोग्ये ज्ञानवृद्धिकारके मूगशीर्षाऽऽ पुष्यः-अश्लेषा-मूल, पूर्वाफाल्गुनी,-पूर्वाषाढा,-पूर्वाभाद्रपद,हस्त-चित्रा-रूपे नक्षत्रदशकेऽन्यतमे-शोभने मुहूर्ते-शुभायां वेलायां स्नातं-कृत स्नानं कृतबलिकर्माणं-काकादिभ्यः कृतान्नभागं कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्तं-कृतानि-,म्पादितानि कौतुकानि-मपीतिलकादीनि मङ्गलानि-मङ्गलविधायकानि दध्यक्षतादीनि तान्येव प्रायश्चित्तानि-दुःस्वप्नादि विधातार्थमवश्यकरणीयत्वात् प्राय
सुवर्णपाक-मणिपाक-धातुषाक-सूत्रखेल वर्त्तखेल-नालिकाखेल-पत्रच्छेद्य. 'कडग च्छेज्ज-सजीवनिज्जीवं-सउणरुयं-७२-त्ति-' कटकच्छेद्य सजीवनिर्जीव-और शकुनरुत.७२।
टीकार्थ-जब दढप्रतिज्ञ दारक आठ वर्ष से अधिक वय का हो जावेगा-तब उसके मातापिता उसे शुभ तिथि में-नन्दा-जया-पूर्णारूप तिथि में, शुभकरण में-स्थिरनामके शुभकरण में, तथा-विद्याध्यनयोग्य-ज्ञानवृद्धिकारक मृगशीर्वा-आर्द्रा-पुष्य-अश्लेषा-मूल-फाल्गूनी-पूर्वापाढा-पूर्वाभाद्रपद-हस्त-और चित्रा रूप नक्षत्र दशकमें, और शुभवेलामें कलाचार्य के पास ले जायेंगे। इसके पहले बे उस बालक को स्नान करावेंगे, बायस -काक आदिकों को देने के लिये उससे अन्न का विभाग कराकर वितरित करावेंगे. वह मषी तिलक आदि रूप कौतुक को तथा-दुःस्वप्न आदिरूप अमंगल के विघातक होने से अवश्य करणीय ऐसे दध्यक्षतादिरूप प्रायश्चित्तको करेगा. और फिर वह समस्त मेस. नासि गेल पत्र-छे"कडगच्छेज्ज सजीवनिज्जीवं सउणरुयं ७२ तिं કટકછે. સજીવનિજીક અને શકુન રૂત ૭૨.
ટીકાર્થ –જ્યારે દઢપ્રતિજ્ઞદારક આઠ વર્ષ કરતાં મોટે થઈ જશે ત્યારે તેના માતાપિતા તેને શુભૂતિથિમાં નંદા જ્યા પૂર્ણરૂપ તિથિમાં, શુભકરણમાં, સ્થિર નામના શુભકરણમાં, તથા વિદ્યાધ્યયન ગ્ય જ્ઞાનવૃદ્ધિકારક મૃગશીર્ષા-આદ્ર પુષ્ય અશ્વોઢા મૂલ-પૂર્વાફાલ્ગની પૂર્વાષાઢા પૂર્વાભાદ્રપદ હસ્ત અને ચિત્રા એ નક્ષત્રદશકમાં અને શુભવેલામાં લાચાર્યની પાસે લઈ જશે. અને પહેલાં તેઓ તે બાળકને સ્નાન કરાવશે, વાયસ વગેરેને આપવા માટે તેની પાસેથી અન્નવિભાગ કરાવીને વિતરિત કરશે. તે મલીતિલક વગેરે રૂપ કૌતુકને તેમજ :ખસ્વપ્ન વગેરે રૂપ અનંગલના વિધાતક હોવાથી અવશ્યકરણીય એવા દધ્યક્ષતાદિ રૂપ પ્રાયશ્ચિત્તને કરશે અને
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राजप्रश्नीयसूत्रे श्चित्तरूपाणि येन स तम्, सर्वालङ्कारविभूषितं-परिधृतकटककुण्डलाद्याभरणम् सवे-समस्ताः हस्तचरणकण्ठादिसमस्तावयवयोग्या अलङ्काराः-वस्राभरणरूपाः तैः विभूषितं-सज्जितं परिहितशुद्धप्रवेश्यवस्त्र परिधृतकटककुण्डलाद्याभरणं च, एतादृशं सुसज्जितं दृढपतिज्ञ दारकं कृत्वा महता ऋद्धिसत्कारसमुदयेन-ऋद्धिः वस्त्रसुवर्णादिसम्पत् तया सत्कारः सत्कारयुक्तः समुदयः--समागतजनसमुदायो यत्र स तेग-महोत्सवपूर्वकमित्यर्थः कलाचार्यस्य-कलाशिक्षकस्य समीपे उपनेष्यतः। ततः खलु स कलाऽऽचार्यः त दृढप्रतिज्ञदारकं लेखादिकाः गणितप्रधानाः शकुनरुत पर्यवसानाः द्वासप्ततिं कलाः सूत्रतः-मूलतः अर्थतः-अर्थोपदर्शनतः. ग्रन्थतःग्रन्थरूपेण तासां लेखनतः करणतः-प्रयोगतश्च शिक्षयिष्यते-अध्यापयिष्यति साधयिष्यति साध्याः कारयिष्यतिश्च । तद्यथा-ताः कला यथा-लेखम् लेखः-अक्षरविन्यासः तद्विषया कलाविज्ञानं लेखएवोच्यते त लेखम्-लेखविज्ञानम् कलाअलङ्कारों से कटक-कुण्डलादिरूप आभरणों से अपने को सुसज्जित करेगा. तत् पश्चात्-वह सभा में प्रवेश योग्य शुद्ध वस्त्रों को धारण करेगा. इस प्रकार से सुसज्जित हुवे उस दृढप्रतिज्ञ कुमार को वे मातापिता अपनी ऋद्धि के अनुसार वस्त्र सुवर्णादि सम्पत्ति के अनुरूप समागत जन-समुदाय के साथ सत्कारपूर्वक-महोत्सव पूर्वक उसे कलाचार्य के पास ले जावेंगे। तब वह-कलाशिक्षक उस दृढप्रतिज्ञ दारक को गणितप्रधान लेखादिक कलाओं को शकुनिरुतान्त (पक्षिके शुकुन देखने तककी) कलातक यथावत् सिखावेगा. ये सब कलाएँ ७२-होती है। सूत्र से तथा अर्थोपदर्शन से, एवं तदुभय से-अर्थात् सूत्र और अर्थ दोनों प्रकार से और-प्रयोगरूप से वह इन सब कलाओं के। उसे पढावेगा. पढाकर वह इन कलाओं में क्रियात्मकरूप से उसे निपुण भी करदेगा. । उन ७२ कलाओं के नाम इस प्रकार से हैं-लेख अक्षरविन्यास, इस विषय का પછી તે સમસ્ત અલંકારથી કટક કુંડલાદિ રૂપ આભરણોથી પિતાના શરીરને સુસજિજત કરશે. ત્યાર પછી તે શુદ્ધ વસ્ત્રો ધારણ કરશે. આ પ્રમાણે સુસજિજત થયેલા તે દઢપ્રતિશ કુમારને તેના માતાપિતા પિતાની દ્ધિ મુજબ વસ્ત્રસુવર્ણ વગેરે સંપત્તિના અનુરૂપ આવેલ જનસમુદાયની સાથે સત્કારપૂર્વક, મહત્સવપૂર્વક તેને કલાચાર્ય પાસે લઈ જશે. ત્યારે તે ક્લાશિફાક તે દઢપ્રતિજ્ઞદારકને ગણિત પ્રધાન લેખાદિક કલાઓથી શકુનિરૂતાર સુધીની સમસ્ત કલાઓને યથાવત શીખવાડશે. આ બધી કલાઓ ૭૨ છે. સૂત્રરૂપે, અર્થોપદર્શનરૂપે, ગ્રન્થરૂપે અને પ્રગરૂપે તે કલાચાર્ય તેને સમસ્ત કલાઓને અભ્યાસ કરાવશે. અભ્યાસ કરાવીને તે તેને ક્રિયાત્મક રૂપમાં પણ નિપુણ બનાવશે. તે ૭૨ કલાઓના નામ આ પ્રમાણે છે. લેખ-અક્ષરવિન્યાસ આ વિષયનું જે વિજ્ઞાન હોય છે તે પણ લેખ” જ છે આ લેખમાં અક્ષર વગેરે લખ
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सुबोधिनी टीका सु. १६८ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ४११ ऽऽचार्यः शिक्षयिष्यतीति सम्बन्धः एवमग्रेऽपि संयोजना कर्तव्या । लेखो लिपि विषयभेदाद् द्विविधः तत्र लिपिः ब्रा-म्यादिभेदेनाष्टादशविधा. सा च समवायाङ्गसूत्रगताऽष्टादशसमवायोक्ता बोध्या। अथवा लाटादिदेशभेदतोऽनेकविधा भवति । पुनश्च वल्कलकाष्ठदन्तलोहताम्ररजतपाषाणाद्याधारेपु लेखनोत्किरणस्यूतव्यूतच्छिन्नभिन्नदग्धसंक्रान्तितोऽक्षरविन्यासरूपा लिपिरनेकविधा भवति । विषयमाश्रित्य स्वामिभृत्यपितापुत्रकलत्रपतिगुरुशिष्यशत्रुमित्रादिविषया कार्य स्थौल्यंवैषम्यपतिवक्रत्वपदच्छेदादिभेदभिन्ना चानेकविधा भवति १. गणितम्पट्टिकादि प्रसिद्धमेकद्वयादि संकलनगुणभागादिरूपम् २. रूपम् लेप्यशिलासुवर्णरजतमणिवस्त्रचित्रादिलक्षणम् ३। नाटयम्-साभिनयनिरभिनयभेदभिन्न जो विज्ञान हो जाता है वह भी लेख ही है, इस लेख में अक्षरादिके लिखने में निपुण हो जाना यह-लेखकला है, यह लेख-लिपि, एवं-विषय भेदसे दो प्रकार का है. इनमें ब्राह्मी आदि के भेद से लिपि १८-प्रकार की है. यहविषय “समवायानसूत्र में १८-वे' समवान में कहा गया है। अथवालाटादि के भेद से लिपि अनेक प्रकार भी होती है, पुनः-वल्कल-काष्ठदन्तलोह-ताम्र-रजत-पाषाण-आदि आधारों के ऊपर अक्षरों का लिखना, उन पर अक्षरों का टांकी आदि से अडित-(उकेरना) इत्यादिरूप से अक्षरविन्यासरूप लिपि अनेक प्रकार की है। विषय की अपेक्षा भी स्वामी-भृत्य-पितापुत्र-कलत्र-पति-गुरु-शिष्य-शत्रु और-मित्रादि को विशय करने वाली जो लिपि है वहभी कृशता स्थूलता आदिरूप से विन्यास की अपेक्षा अनेक प्रकार होती है १ । गणितरूप कला गुणा-भाग, वीजगणित-रेखागणित आदि होती है २ । रूपकला-लेख्य, शिला, सुवर्ण, रजत-आदि के ऊपर चित्र को उतारनेरूप याવામાં કુશળતા મેળવવી તે લેખકલા છે. આ લેખ-લિપિ અને વિષયભેદથી બે પ્રકા२ने छ. मामां ब्राह्मी वगेरेना सेहथी १८ ४२नी सिप छ. २॥ विषय 'समवायाङ' સૂત્રમાં ૧૮ મા સમવાયમાં આવેલ છે. અથવા લાટાદિના ભેદથી લિપિના ઘણા પ્રકારે છે. અને વલ્કલ, કાષ્ઠ, દંત, લેહ, તામ્ર, રજત, પાષાણ વગેરે આધારે પર અક્ષરો લખવાં, તેમની ઉપર ટાંકણથી ઢાંકવું વગેરે રૂપમાં અક્ષર વિન્યાસ લિપિ ઘણા પ્રકા२नी छे. विषयनी अपेक्षा ५६५ स्वाभी, भृत्य, पिता, पुत्र, सत्र, पति, शु३, શિષ્ય, શત્રુ અને મિત્ર વગેરેને વિશય કરનારી જે લિપિ છે તે પણ કૃશતા શૂલતા વગેરે રૂપથી વિન્યાસની અપેક્ષાએ અનેક પ્રકારની હોય છે ૧,ગણિતકલા ગુણા-ભાગ-બીજ शित; २॥ गणित पणेरे प्रारनी हाय छे. २,३५४सा-देश्य, शिक्षा, सुवर्ण, २०४d, વગેરેની ઉપર ચિત્રને ઉતારવા રૂપકે લેખન રૂપ હોય છે. ૩નાટયકલા અભિનય સહિત, વગર
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राजप्रश्नीयसूत्रे नर्तनम् ४ । गीतम्-गन्धर्वकलाज्ञानविज्ञानरूपम् ५ । वादितम्-ततविततादि मेदभिन्नं वाद्यम् ६ । स्वरगतम-षड्जऋषभादिस्वरज्ञानम् ७। पुष्करगतम्-मृद
मुरजादिभेदयुक्तं विज्ञानम्. अस्य वाद्यान्तर्गतत्वेऽपि यत्पृथकथनं तत् परमसङ्गीताङ्गत्वख्यापतार्थम् ८। समतालम्-समः-अन्यूनाधिकमात्रकः तालः-गीतादिमानकालो यत्र तत् समतालविज्ञानमित्यथः ९। द्यूत-प्रसिद्धम् १० । जन वाद-बूतविशेषः ११ । पाशकम्-पाशैः खेलनरूपं द्यूतम् १२ । अष्टापदम्-सारि फलधतमेव १३। पौरकृत्यम-पुरस्य कृतिः-निर्माणं तद्विषयं विज्ञान पौरकृत्यपुरनिर्माणकलेत्यर्थः. तत् अत्र त्रिविधः पाठ उपलभ्यते तयाहि-पोरेकच्च' 'पोरेवच्चं' 'पोरेकव्वं' इति । प्रत्येकस्य छायापि तदनुसारेणैव भवति–'पोरेकृत्यम्' पौरपत्यम् 'पुर काव्यम्' इति । तत्र पोरेकच्च" इत्यस्य व्याख्याऽत्र कृता 'पोरेवच्चं' पौरपत्यम्नगररक्षककला, 'पोरेकव्वं' पुरःकाव्यम्-पुरतःपुरतः काव्यरूपवाणी निस्सारणं शीघ्रकवित्वमित्यर्थः ।१४। दकमृत्तिकम्-उदक संयुक्तमृत्तिका विवेकद्रव्यप्रयोगलिखने रूप होती है. ३। नाटयकला-अभिनयसहित, विना अभिनय के भेद से दो प्रकार की होती है ४ । गीतकला-गाने आदि में निपुणता प्राप्त करनेरूप होती है. ५। वादित्रकला-तत, वितत आदिरूप वादित्रों के बजाने रूप होती है ६ । स्वरकला-षड्ज, ऋषम-आदि के ज्ञान करानेरूप होती है । पुष्करगतकला-मृदङ्ग, मुरज आदि के बजानेरूप होती है । यद्यषि-यह कला वादित्रकला में अन्तर्भूत हो जाती है, फिर भी-इसे जो स्वतन्त्ररूप से अलग कला कही गई है सो-यह सङ्गीतकलामें उसका उत्कृष्ट अङ्ग है. इस बात को प्रकट करने के लिये कहा गया है ८। गीतादिकों का मान काल जहां होता है, उसका नाम ताल है, इस ताल का जो विज्ञान है वह समताल विज्ञान है ९। जूआ खेलने की चतुराइ का नाम यतकला है १० । जनवाद-यह भी एक प्रकार का विशेष जूआहै, ११। पाशों से घृत खेलने की विशेषनिपुणता का नाम पाशकला है. १२। सारिफल इतरूप अष्टापद कला होती है १३। नगर के निर्माण करने की कला का नाम पौरकृत्यकलाઅભિનય આમ બે પ્રકારની હોય છે. ગીતકલા-સંગીત વગેરેમાં નિપુણતા પ્રાપ્ત કરવી તે છે ૫. વાદિત્રકલા તત, વિતત વગેરે વાજિત્રને વગાડવા તે છે ૬. સ્વરકલા-ષડજ, ઋષભ વગેરેનું જ્ઞાન મેળવવું તે છે ૭. પુષ્કરગત કલા-મૃદંગ, મુરજ વગાડવા તે છે, જો કે આ કલા વાજિંત્રકલાની અન્તભૂત થઈ જાય છે પણ છતાંએ આને જે સ્વતંત્ર રૂપમાં જુદી કલા ગણે છે તેનું કારણ આ છે કે આ કલાનું સંગીત કલામાં અતીવ મહત્ત્વપૂર્ણ સ્થાન છે ૮. ગીત વગેરેને જે માનકાલ હોય છે તેનું નામ તાલ છે, આ તાલનું જે વિજ્ઞાન છે તે સમતાલ વિજ્ઞાન છે ૯ જુગાર રમવાની કુશળતાનું નામ - કલાઈ ૧૦. જનવાદ પણ એક જાતને વિશેષ જુગાર છે ૧૧. પાસાઓથી જુગાર રમવામાં વિશેષ નિપુણતા મેળવવાનું નામ “પાશકલા” છે ૧૨. સારિકલ ધ્રતરૂપ અષ્ટાપદકલા હોય છે૧૩. નગરની નિર્માણકલા પકૃત્યકલા છે ૧૪, ઉદક (પાણી)માં મળેલી માટીને જે
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सुबोधिनी टीका स. १७० सूर्याभदेवस्य आगामिभववर्णनम् ४१३ पूर्विका तत्पृथक्करणकलाऽप्युपचाराद् दकमृत्तिका ताम् १५ । अन्नविधिम-अन्न पाककलाम १६ । पानविधि-जलोत्पादनकलां तत्संशोधनकलां वा १७ । वस्त्रविधिम् - वस्त्रोत्पादन कलां तद्धारणकलां वा १८ । विलेपनविधि-शरीरोपरिचन्दनादिलेपकलां यक्ष कर्दमादिलेप परिज्ञानम् १९ । शयनविधिम् शयन-शय्या पल्यङ्कादि. तद्विषया कला ताम् २० । आर्याम्-मात्राच्छन्दो विशेषनिर्माणकलाम् २१ । प्रहेलिकाम्-गूढाश पपधरूपाम् २२। मागधिकाम्-भाषाच्छन्दोविशेषाम् २३ । है. १४ । उदक में मिली हुई मिट्टी को दूर करनेवाले द्रव्य का ज्ञान होना, औरउसका सम्बन्ध कराकर पानी और मिट्टी को दर कर देना यह-दकमृत्तिका कला है जैसे-निर्मली-फिटकिडी डालकर गन्दे पानी को निर्मल करदिया जाता है. १५ । भोजन बनाने की चतुराई का नाम अन्नविधि कला है, १६। भूमि का देखकर यहां जलनिकलेगा इस प्रकारके विज्ञान का नाम पानविधि कला है. १७ । वस्त्रों का निर्माण करने की चतुराई का नाम, या-वस्त्रों को सुन्दर ढंग से पहनने की चतुराई का नाम वस्त्रविधि कला है. १८। शरीर के ऊपर चन्दनादि का लेप करने की चतुराई का नाम-विलेपनविधि है, १९। पल्यङ्कआदि विषयक ज्ञान होना-अर्थात् इस प्रकारका पल्यङ्क शुभ होता है-इस प्रकार का पल्यङ्क शुभ नहीं होता है, ऐसा ज्ञान होना इसका नाम-शयनविधि कला है २० । मात्रावाले छन्दों का निर्माण करना. यह-आर्या कला हैं, २१। गूढ आशयवाले पद्यों की निर्माणकला प्रहेलिका कला है. २२॥ भाषाछन्द विशेष का नाम-मागधिका है, इसके निर्माण की चतुराई का नाम मागधिकाकला है, २३। निद्रा लाने की विद्या
દ્રવ્યથી જુદી પાડી શકાય તેનું જ્ઞાન થવું અને તેને સંબંધ કરાવીને પાણી અને માટીને જુદા જુદા કરવા આ દકમૃત્તિકા કલા છે. જેમકે નિર્મલી-ફટકડી નાખીને ગંદા પાણીને સાફ કરવામાં આવે છે ૧૫. ભેજન તૈયાર કરવાની કુશળતાનું નામ અન્નવિધિ કલા છે ૧૬ જમીનને જોઈને અહીંથી પાણી નીકળશે આ જાતના વિજ્ઞાનનું નામ “પાનવિધિ કલા છે. ૧૭ વસ્ત્રોના નિર્માણની કુશળતાનું નામ અથવા તે વસ્ત્રને સુંદર ઢંગથી પહેરવાની કળાનું નામ વસવિધિ કળા છે. ૧૮ શરીરની ઉપર ચન્દન વગેરેને લેપ કરવાની કુશળતાનું નામ વિલેપનવિધિ છે. ૧૯ પર્ઘકાદિ વિષયકજ્ઞાન થવું એટલે કે આ જાતને પથ્ય શુભ હોય છે, આ જાતનો પત્યેક શુભ નથી હોતે આવું જ્ઞાન થવું, આનું નામ શયનવિધિ કલા છે. ૨૦માત્રાવાળા છંદેનું નિર્માણ કરવું તે આર્યાકલા છે.૨૧ ગૂઢ આશયયુક્ત પદ્યની નિર્માણકળા પ્રહેલિકા-કલા” છે. ર૨ ભાષા છન્દ વિશેષનું નામ માગધિકા છે. એની નિર્માણ કુશળતા માગધિકા કલા છે. ૨૩ નિદ્રા આવવાની વિદ્યાનું
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राजप्रश्नीयसूत्रे निद्रायिकाम्-अवस्वापनी विद्यारूपां कलाम् २४ । गाथागीतिका चेति कलाद्वयमार्या मेदरूपाम् २५ २६ । श्लोकम्-श्लोकरचनाकलाम् कवित्वकलामित्यर्थः २७ । हिरण्ययुक्तिम्-हिरण्यस्य-रजतस्य युक्तिः-निर्माणविधिस्ताम् २८ । सुवर्ण युक्तिम् सुवर्णस्य युक्तिः-निर्माणविधिस्ताम् २९ । आभरणविधिम्भूषणनिर्माणकलाम् ३० । तरुणीपरिकम-स्त्रीणां वर्णादिवृद्धिरूपाम् ३१ । स्त्रीलक्षणम, पुरुषलक्षणम्, एतब्दयं सामुद्रिकशास्त्रप्रसिद्धं विज्ञानम् ३२-३३ । हयगज-कुकुट-च्छत्र-चक्र-दण्डानां प्रसिद्धानां सप्तानां तत्तल्लक्षणज्ञानकलाः ३४-४० । मणिलक्षणम्-रत्नादि-परीक्षणम् ४१। काकिणीलक्षणम्-काकिणी-चक्रवर्तिनो का ज्ञान होना उसका नाम-निद्रायिका कला है, इस कलावाला दूसरे को इस कला के प्रभाव से निद्रा में मग्न कर देता है २४। गाथा-और गीतिका ये दोनों कलाएं आर्या का ही मेदरूप होती है,२५-२६ श्लोकरचना करने की चतुराई का नाम-लोककला है, इसका दूसरानाम-कवित्वकला मी है २७ । हिरण्य युक्ति-चान्दी बनाने की कला २८ सुवर्णयुक्ति-सोना बनाने की कला २९ भूषणों के निर्माण की विधि का जानना. आभरणविधि कला है. ३०। स्त्रियों के वर्णादिक में विधान का जानना. तरुणीपरिकमकला है. ३१॥ स्त्रीयों के शुभाऽशुभ लक्षणो को जानना. स्त्रीलक्षणकला है. ३२। पुरुषलक्षणों का जानना यह पुरुष लक्षणकलाहै ३३। दोनों कलाएँ सामुद्रिकशास्त्र से सम्बन्धित हैं । घोडा-हाथी-कुकूट-छत्रचक्र-दण्ड असि (तलवार) इन सातों के शुभाशुभ लक्षणों को जानना इसका नाम उस उस नाम की कला है ३४-४०। रत्नादिकों की परीक्षा करना इसका नाम मणिलक्षण कला है.४१। काकिनी कला में-चक्रवर्ती के रत्न विशेष की परीक्षा જ્ઞાન થવું તે “નિદ્રાયિક કલા છે. આ કલાને જાણનારને બીજાને આ કલાના પ્રભાવ થી નિદ્રામગ્ન કરે છે૨૪. ગાથા અને ગીતિકા આ બંને કલાઓ આર્યાનાજ ભેદરૂપમાં છે. ૨૫-૨૬.શ્લેક રચનામાં કુશળતાનું નામ લેક કલા છે. આનું બીજુ નામ કવિત્વકલા પણ છે ૨૭ હિરણ્ય યુકિત ચાંદી બનાવવાની કલા, ૨૮ સુવર્ણને યુકિત-સોનું બનાવવાની કળા ૨૯ આભરણવિધિ-આભૂષણેને બનાવવાની વિધીને જાણવી તે આભરણવિધિ કલા છે ૩૦. સ્ત્રીઓના વર્ણાદિકમાં વૃદ્ધિવિધાન જાણવું તે તરૂણી પરિકર્મકલા છે૩૧. સ્ત્રીઓના શુભાશુભ લક્ષણે જાણવાં તે સ્ત્રીલક્ષણ કલા છે. પુરૂષ લક્ષણે જાણવા એ પુરૂષ લક્ષણ કલા છે૩૩. એ બન્ને કલાઓ સામુદ્રિકશાસ્ત્રની સાથે समय रामेछ. धो-हाथी- ट-छत्र-य-3-मासि-(तरवार) मे सहितना शुलाશુભ લક્ષણે જાણવા તેના નામે છે તે કલા વિશિષ્ટ સમજવા ૩૪-૪૦રત્નાદિકની પરીક્ષા તે મણિલક્ષણ કલા છે૪૧. કાકિ કલામાં-ચક્રવતીના રત્નવિશેષની પરીક્ષા તેના લક્ષણોના
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सुबोधिनी टीका सू. १७० सूर्याभदेवस्य आगामिभववर्णनम् ४१५ रत्नविशेषस्तस्य लक्षणम् ४२। वास्तुविद्याम्-गृहभूमेगुणदोषज्ञानरूपाम् ४३ । नगरमानन्-नगरस्य दशयोजनाऽऽयाम-नवयोजनव्यासादि-प्रमाणज्ञानम् ४४ । स्कन्धावारमानम्-सेनानिवेशप्रमाणज्ञानम् ४५। चारम्-चारो-ज्योतिश्चारः, तद्विज्ञानम् ४६ । प्रतिचारम्-प्रतिचरणं प्रतिचार:-रोगिणः प्रतीकारकरणं, तद्विषयकज्ञानम् ४७ । व्यूहम्-सामान्यतः सैन्यरचनं, तद्विषयज्ञानम४८ चक्रब्यूहम्-चक्राऽऽकृतिकसैन्यरचनाम् ४९ । गरुडव्यहम-गरुडाऽऽकृतिकसैन्यरचनाम् ५० । शकटब्यूहम्-शकटाऽऽकृतिकसैन्यरचनाम् ५१ । युद्धम्-युद्धकलाम् ५२ । नियुद्धम्मल्लयुद्धकरणकलाम ५३। युद्धयुद्धम्-खङ्गादिप्रक्षेपणपूर्वकमहायुद्धकलाम् ५४ । अस्थियुद्धम-अस्थिभिः-कूपरादिभिः प्रहरणं, तत्कलाम् । यद्वा 'दृष्टियुद्धम्' इति करने के लक्षणों को जानना ४२ । गृहभूमि के गुण दोषों का ज्ञान होना इसका नाम बास्तु विद्या कला है,४३ नगरकी दशयोजन लम्बाई और नौ योजन चौडाई आदि प्रमाण का ज्ञान होना यह नगरमान कला है ४४। सेनानिवेश के प्रमाण का होना-स्कन्धावार मानकला है ४५। नक्षत्रादिक ज्योतिष्कों की चाल का ज्ञान होना चारककला है.४६ । रोगों के प्रतिकार करने के उपायों का ज्ञान होना प्रतिचारकला है. ४७। सामान्यरूप में सैन्यरचना का ज्ञान होना, यह व्यूह कला है. ४८। चक्राकाररूप में सैन्य की रचना करना चक्रव्यूहकला है. ४९॥ गरुड के आकार में सैन्य की रचना करना यह गरुड व्यूहकला है. ५० शकट के रूप में सैन्य की रचना करने का ज्ञान होना यह शकटव्यूहकला है ५१। युद्ध करने का ज्ञान होना यह युद्धकला है, ५२ । मल्लयुद्ध करने का ज्ञान होता यह मल्लयुद्ध या नियुद्धकला है ५३। तलवार आदि चलाते हुवे घमासान युद्ध करना यह युद्धयुद्धकला है. ५४। अस्थि-टोहनी आदि से प्रहार करने की चतुराई का આધારે કરવામાં આવે છે કર ગૃહભૂમિના ગુણદોષનું જ્ઞાન થવું તે વાસ્તુવિદ્યાકલા છે.૪૩ નગરની દશ એજન લંબાઈ અને નવજન પહોળાઈ વિગેરે પ્રમાણનું જ્ઞાન થવું તે “નગરમાન કલા” છે.૪૪ સેનાનિવેશના પ્રમાણનું જ્ઞાન થવું તે સ્કંધાવારમાન કલા છે.૪૫ નક્ષત્રાદિક જ્યોતિષ્કની ગતિનું જ્ઞાન થવું તે ચાર કલા છે ૪૬ રેગોને મટાડવાના ઉપાયાનું જ્ઞાન તે પ્રતિચાર કલા છે.૪૭ સામાન્ય રૂપથી રીન્યરચનાનું જ્ઞાન થવું તે ચક્ર બૃહ કલા છે. ૪૮ચક્રાકારકરૂપમાં સૌન્યરચના કરવી ચક્રમૂહ કલા છે. ૪૯ ગરૂડના આકારથી સન્યની રચના કરવી તેનું નામ ગરૂડબૃહ કલા છે. ૫૦ શકટના રૂપમાં રસૈન્યની રચના કરવાનું જ્ઞાન થવું તે શકટયૂહ કલા છે. ૫૧ યુદ્ધ કરવાનું જ્ઞાન થવું તે યુદ્ધ કલા છે.પર મલયુદ્ધ કરવાનું જ્ઞાન થવું તે મલયુદ્ધ કે નિયુદ્ધકલા છે. ૫૩ તરવાર વગેરે ફેરવતાં ભયંકર યુદ્ધ કરવું તે યુદ્ધ યુદ્ધ કલા છે.૫૪ અસ્થિ-ટેની વગેરેથી પ્રહાર કરવાની કુશળતાનું નામ અસ્થિયુદ્ધ કલા છે. અથવા “દૃષ્ટિ યુદ્ધ’ આ પાઠમાં
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राजप्रश्नीयसूत्रे पाठः प्रतिद्वन्द्विनोश्चक्षुषो निनिमेषावस्थानं, तत्कलाम् ५५। मुष्टियुद्धम्-मुष्टिभिः प्रहरणम् ५६ । बाहुयुद्धम् बाहुभिः प्रहरणम् ५७ । लतायुद्धम्-लताक्षमिव शत्रु गाढं परिवेष्य्य प्रहरणम् ५८ । इष्वस्त्रम् नागवाणादिदिव्यास्त्रप्रक्षेपणम् ५९ । सरुपवादम्-त्सरुः-नगमुष्टिः, अवयवे समुदायोपचारात् त्सरुशव्देनात्र खगो गृह्यते, तस्य प्रवादो यत्र शास्त्रे तत् त्सरुपवाद-खङ्ग शिक्षाशास्त्रमित्यर्थः ६० । धनुर्वेदम-धनुःशिक्षणशास्त्रम् ६१ । हिरण्यपाक-सुवर्णपाकौ-रजत-सुवर्णयो रसायन क्रिया तद्विषयकवलाद्वयम् ६२-६३ । मणिपाकम्-मणिनिर्माणकलाम ६४ । धातुपाकम्रजत ताम्रादिधातुनिर्माण लाम् ६५ । सूत्रखेल-वर्त्तखेल-नालिकाखेलाः लोकतः प्रत्येतव्याः ६६-६८ । पत्रच्छेद्यम-अनेकपत्रेषु विवक्षित पत्रच्छेदभकलाम् ६९ । कटकनाम अस्थियुद्धकला है.। अथवा 'दृष्टियुद्ध' इस पाठ में प्रतिस्पर्धी की आंखों को अपनी चितवन से निमेषरहित कर देना सो दृष्टियुद्ध है. ५५ । मुष्टियों से प्रहार करना. इसका नाम मुष्टियुद्धकला है ५६ । बाहुओं से प्रहार करना. इसका नाम-बाहु युद्धकला है. ५७। लता जैसे वृक्षों को लपेट लेती है. इसी प्रकार से शत्रु को धेरे में डालते हुवे गाढरूप से लपेटकर फिर उस पर प्रहार करना लतायुद्ध है. ५८। नागबाण आदि दिव्यरत्नों का प्रक्षेपण करना, इसका नाम-इब्वस्त्रकला है. ५९।
सरुशब्द का अर्थ तलवार की मूठ है. यहां अवयव में समुदाय के उपचार से त्सरुशव्द से खन का ग्रहण किया गया है-इस खङ्ग-तलवार को चलाने में निपुण होना इसका नाम--त्सरु प्रवाद है ६०। धनुष चलाने की क्रिया में निपुणता प्राप्त करना यह-धनुर्वेद कला है, ६१। रजत और सोना को रसायन क्रिया जानना वह हिरण्यरूप, सुवर्ण पाक कला है ६२-६३ । मणियों का निर्माण विधान को जानना मणि निर्माण कला है, ६४ अथवा-रजत ताम्रादि धातुओं का निर्माण શત્રુની આંખોને પિતાની દષ્ટિથી નિમેષ રહિત કરવી તે દૃષ્ટિયુદ્ધ છે પપ. મુષ્ટિકાઓથી પ્રહાર કરીને લડવું તે મુષ્ટિ યુદ્ધ કલા છે. ૫૬ બાહુઓથી લડવું તે બાહ યુદ્ધ કલા છે. ૫૭ લતા જેમ વૃક્ષને પરિવેષ્ટિત કરી લે છે તેમજ શત્રુને ચારે તરફ ઘેરીને ગાઢરૂપથી તેને વચ્ચે લઈને તેના પર હુમલે કરે તે લતાયુદ્ધ છે ૫૮. નાગબાણ વગેરે દિવ્યરત્નનું પ્રક્ષેપણ કરવું તેનું નામ ઈધ્વસ્ત્રકલા છે ૫૯ સરૂ શબ્દનો અર્થ તરવીરની મૂઠ છે. અહીં અવયવમાં સમુદાયના ઉપચારથી સરૂ શબ્દથી ખહનું ગ્રહણ કર્યું છે. અને ચલાવવામાં કુશળતા મેળવવી તેનું નામ સરૂકવાદ છે ૬૦. ધનુષ ચલાવવામાં નિપુણુતા
મેળવવી તે ધનુર્વેદ કલા છે ૬૧. રજત અને સુવર્ણના રસાયણની ક્રિયા જાણીને રજત અને હિરણ્ય પાક કલા છે દર ૬૩. મણિઓના નિર્માણની કલા જાણવી તે મણિ નિર્માણકલા છે ૬૪. અથવા
રજત તામ્ર વગેરે ધાતુઓનું નિર્માણ કરવું આ ધાતુપાકકલા છે ૬પ.નટેની જેમ સૂત્રપર
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सुबोधिनी टीका सू. १७१ सूर्याभदेवस्य आगामिभववर्णनम्
४१७ च्छेद्यम शत्रुसैन्येषु विवक्षित शत्रुहननम् ७० सजीवनिर्जीव-सजीव' मृतधात्वादीनां सजीवकरणं सहजस्वरूपापादनम्, निर्जीवम् सुवर्णादिधातूनां प्रयोगविशेषेण मारणम्, पारदस्य मूर्छाप्रापणं वा ७१ । शकुनस्तम-पक्षिशब्दम् :, पक्षिशब्दज्ञानम, यद्वा 'शकुनरुत'-शब्देन शकुनशास्त्रं गृह्यते, तेन वसन्तराजादिशकुनशास्त्रोक्तसर्वशकुनज्ञानं वा ७२ । इति आसां द्वासप्ततिकलानां क्रमन्यासः, कुत्रचिन्नामनिर्देशोऽपि च संग्रहसमयविपर्यासेन पृथक् पृथगुपलभ्यतेऽतो यत्र यद्रूपः पाठो लभ्यते तत्र
करना यह-धातुपाक कला है, ६५ । नटों की तरह सूत्रपर-वर्तपर, और-नालिका पर चढ कर खेलना-ये तत्-तत् नामवाली कलाएं हैं ६६-६८। अनेकपत्रों में से किसी विवक्षित पत्र का छेदन करना पत्रच्छेद्य कला है. ६९। शत्रु की सेना में रह कर फिर विवक्षित शत्रु को मार देना यह कटकच्छेद्य कला है. ७०। भस्मसात् किये गये सुवर्णादि धातुओं को निरुत्थ भस्म होने से पहले तक प्रयोजन विशेष के आजाने पर उस भस्म को पुनः सुवण कर देना, तथा-एक राज्य से दूसरे राज्य में सुवर्ण को ले जाने का राजकीय प्रतिबन्ध रहने पर उन वाञ्छनीय सुवर्णादिधातुओं को प्रयोगविशेष से मारना, अथवा-पारे को मूच्छित करनाअर्थात्-अजीर्णत्व-नपुंसकत्व आदि अट्ठारह दोषों को पारों से निकाल देना यह सजीव निर्जीव कला है. ७१। पक्षियों की बोली को पहिचान लेना. अर्थात्वसन्त राज आदि कृत शकुनशास्त्रदृष्टि से सब पक्षियों का ज्ञान होना यहशकुनरुत कला हैं ७२ । इन बहत्तर कलाओं का क्रम और कहीं कहीं उनका नाम निर्देश भी संग्रह समय की भिन्नसा से पृथक् पृथक् रूपसे उपलब्ध-प्राप्त
વર્ત પર અને નાસીકાપર ચઢીને રમવું એ તત્ તત્ નામવાળી કળાઓ છે. ૬૬-૬૮અનેક પત્રોમાંથી કઈ ખાસ પત્રનું છેદન કરવું પત્રચ્છેદ્યકલા છે. ૬૯ શત્રની સેનામાં રહીને પછી કઈ વિશેષ શત્રુને જ મારવું કટછેદ્ય કલા છે.૭૦ ભસ્મરૂપમાં પરિણત થયેલા સુવર્ણ દી ધાતુઓને નિરૂત્થ ભસ્મ હોવાથી પહેલાં પ્રયજન વિશેષને લીધે ફરી ભસ્મ ને સુવર્ણ વગેરે બનાવવું તેમજ એક રાજ્યમાંથી બીજા રાજયમાં સુવર્ણને લઈ જવાને રાજકીય પ્રતિબંધ હોવા છતાં એ તે વાંછનીય સુવર્ણાદિ ધાતુઓને પ્રયોગ વિષયથી મારવી કે પારાને મૂછિત કરે એટલે કે અજીર્ણત્વ વગેરે અઢાર દેને પારામાંથી કાઢવા આ સજીવ નિજીવકલા છે.૭૧ પક્ષીઓની બેલીને સમજી લેવી એટલે કે વસંતરાજ વગેરે કૃત શકુન શાસ્ત્રની દૃષ્ટિએ બધા પક્ષીઓની બેલીને સમજવી શુભાશુભ જાણવું તે શકુનરુત કલા છે. ઉર આ બોતેર કલાઓને ક્રમ અને તેના નામ નિર્દેશ
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राजप्रश्नीयसूत्रे तद्रूपेण व्याख्या बिधेयेति तत्त्वम् । पूर्वोक्तप्रकारा द्वासप्ततिकलाः कलाचार्या दृढप्रतिज्ञ शिक्षयिष्यतीति भावः । ॥ मू० १७० ॥ ___ मूलम--तए णं से कलायरिए तं दृढपइण्णं दारगं लेहाइयाओ गणियप्पहाणाओ सउणरुयपज्जवसाणाओ बावतरि कलाओ सुत्तओ य अत्थओ य गंथओ य करणओ य सिक्खावेत्ता सेहावेत्ता अम्मापिऊणं उवणेहिइ । तए णं तस्स दढपइण्णस्स दारयस्स अम्मापियरो तं कलायरियं विउलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थगधमल्लालंकारेणं सकारिस्संति, सम्माणिस्संति, विउलं जीवियारिहं पीइदाणं दलइस्संति, दलइत्ता पडिविज्जेहिति ॥ सू० १७१ ॥
छाया-ततः खलु स कलाचार्यस्तं दृढप्रतिज्ञ दारकं लेखादिकाः गणितप्रधानाः शकुनरुतपर्यसानाः द्वासप्ततिं कला सूत्रतश्व अर्थतश्च ग्रन्थतश्च करणतश्च शिक्षयित्वा साधयित्वा अम्बा-पित्रोः उपनेष्यति । ततः खलु तस्य दृढप्रतिज्ञस्य होता हैं इसलिये जहां जहां जिस जिस रूप से पाठ भिले वहां । उस उस रूपसे व्याख्या समजनी चाहिए ॥ मू० १७० ॥ ___ "तए णं से दृढपइण्णे -"दारए इत्यादि
मूलार्थ—'तए णं' इसके बाद 'कलायरिय-' कलाचार्य ने 'तं दृढपइण्णं-' उस दृढप्रतिज्ञकुमार को 'लेहाइयाओ गणियप्पहाणाओ-' गणित प्रधान लेखादिक कलाएं-'सउणरुयपज्जवसाणाओ बावत्तरि कलाओ सुत्तओ अत्थओ गंथओ य करणओ य-सिक्खावेत्ता सेहावेत्ता अम्मापिऊणं उवणेहिइ-' पहली लेह कला से लेकर अन्तिम शकुनरुत कलातक जिन की संख्या ७२-प्रगट की जा चुकी है, પણ સંગ્રહ સમયના ભિન્નપણથી જુદાજુદારૂપે પ્રાપ્ત થાય છે. જેથી જયાં જયાં જે જે રૂપથી પાઠ મળેલ છે ત્યાં ત્યાં તે તે રૂપથી તેની વ્યાખ્યા સમજવી. સૂ૦૧૭માં
"तएणं से कलायरिए-इत्यादि ।
भूदार्थ-'तए णं' त्यार पछी 'कलायरिए' ४६यार्थे 'तं दढपइण्ण' ते १८ प्रतिज्ञ मारने 'लेहाइयाओ गणियप्पहाणाओ' मत प्रधान Quiles ४ामे। 'सउणरुयपज्जवसाणाओ बाबत्तर्रि कलाओ सुत्तओ अत्थओ गंथओ य करणओ य सिक्नावेत्ता सेहावेत्ता अम्मापिऊणं उवणेहिइ"तिम शनरत ४८॥ सुधानी સમસ્ત ૭૨ કલાઓને સૌથી પહેલાં સૂત્ર રૂપમાં, ત્યારપછી અર્થરૂપમાં ગ્રંથરૂપમાં
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सुबोधिनी टीका सू. १७१ सूर्याभदेवस्य अगामिभववर्णनम्
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दारकस्य अम्बा पित्रोः उपनेष्यति । ततः खलु तस्य दृढप्रतिज्ञस्य दारकस्य अम्बापितरौ तं कलाचार्य विपुलेन अशनपानस्त्रादिमस्त्रादिमेन वस्त्रगन्धमाल्यालङ्कारेण सत्कारयिष्यतः, सम्मानयिष्यतः, विपुलं जीविकाई प्रीतिदानं दास्यतः दत्त्वा प्रतिविसर्जयिष्यतः ।। सू० १७१ ।।
टीका- 'तए णं' इत्यादि- - ततः खलु स कलाचार्यः तं दृढप्रतिज्ञं दारकं लेखादिकाः - लेख:- अक्षर विन्यासः आदौ - प्राथम्ये यासां ताः - लेखप्रथमा इत्यर्थः, तथा - गणितप्रधानाः - गणित प्रधान यासु ता- गणित मुख्या इत्यर्थः, तथा शकुनरुतपर्यवसानाः - शकुनरुत पक्षिशब्दः पर्यवसाने अन्ते यासां तास्तथा — पक्षिशब्दपरिज्ञानान्ताः, द्वासप्ततिं द्वासप्ततीसंख्यकाः पूर्वोक्ताः कला सूत्रतः शब्दतश्च, अर्थतश्च ग्रन्थतः ग्रन्थरूपेण तासां लेखनतश्च, करणतः प्रयोगतश्च शि क्षयित्वाअध्याप्य, साधयित्वा साध्याः कारयित्वा तस्य दृढप्रतिज्ञस्य, अम्बापित्रोरन्तिके उपनेष्यति प्रापयिष्यति । ततः खलु तस्य दृढप्रतिज्ञस्य दारकस्य अम्बा पितरौ तं कलाचार्य' बिपुलेन प्रचुरेण अशनपानखादिमस्वादिमेन वस्त्रगन्धः माल्यालङ्कारेण च सत्कारयिष्यतः सम्मानयिष्यतः, विपुलं प्रचुरं जिवितर्ह यावज्जीवं जीवितयेोग्यं प्रीतिदानम् उपहार, दास्यतः, दत्वा प्रतिविसर्जयिष्यतः ॥ सु. १७१ ॥ प्रथमतः सूत्र रूप से - बाद में अर्थ रूप से - ग्रन्थरूप से, एवं तदुभय-सूत्र और अर्थ दोनों रूप से सिखलाकर, एवं उन्हें पहले उन्हीं के हाथ से सिद्ध कराकर उसके मातापिता के पास उसकौ ले आवेगा-तिए णं तस्स दढपइण्णस्स दारयस्स अम्मापियरो तं कलायरियं विउलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थ-गंधमल्लाल' कारेणं सक्कारिस्संति - ' तब उस दृढप्रतिज्ञ कुमार के मातापिता उस कलाचार्य का विपुल अशन - पान - खादिम, एवं स्वादिमरूप चार प्रकार के आहार से, तथा - वस्त्र - गन्ध - माला और - अलङ्कारों से सत्कार करेंगे - 'सम्माणेस्संति-' विउलं जीवियारिहं, पीइदाणं दलइस्संति, दलइत्ता पडिविसिज्जेहिंति - ' અને કરણરૂપમાં પ્રયાગરૂપમાં શીખવી અને તે કલાઓને પહેલાં તેના જ હાથવડે प्रयोगश्यभां सिद्ध उशवीने च्छी तेने तेना भातापितानी पासे वह नशे. 'तए णं तस्स दढपइण्णस्स दारयस्स अम्मापिपरो त कलायरियं विउलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं बत्थगंधमल्लालंकारेणं सक्कारिस्संति" त्यारणा ते दृढप्रतिज्ञ કુમારના માતાપિતા તે કલાચાર્યને વિપુલ અશન-પાન-ખાદિમ–અને સ્વાદિમરૂપ ચાર अारना महारथी तेमन वस्त्र गन्ध भासा भने असारोथी स तुट्टत थे. "सम्माणेस्संति विउलं जीवियारिहं, पीइयाणं दलइस्संति, दलइत्ता पडिविसिज्जेहिंति"
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राजप्रश्नीयसूत्रे
मूलम् - तए णं से दढपइण्णे दारए उम्मुकबालभावे विष्णायपरिणयमित्ते जोव्वणगमणुपत्ते बावत्तरिकलापंडिए णवंग सुत्तपडिबोए अट्ठारस विदेसिप्पगार भासाविसारए गायरई गंधब्वणकुसले सिंगारागार चारुवेसे संगय गय हसियभणिय चेट्टिय विलास संलावुल्लावनिउणजुत्तोवयारकुसले हयजोही गयजोही रहजोही बाहुजोही बाहुप्पमद्दी अलंभोग समत्थे साहस्सिए विद्यालयारी यावि भविस्स । सू. १७२ ।
छाया - ततः खलु स दृढप्रतिज्ञो दारक उन्मुक्तबालभावो विज्ञातपरिणतमात्रो यौवनकमनुप्राप्तो द्वासप्ततिकलापण्डितो नवाङ्गसुप्तप्रतिबोधकः अष्टादशसत्सम्मान करेंगे, फिर - विपुल प्रीतिदान जो कि उनको जीवनभर के लिये जीविका का योग्य हो सकेगा - देंगे, यह सब कुछ करके, फिर वे उस कला चार्य को विसर्जित कर देंगे । टीकार्थ - स्पष्ट हैं || सू० १७१ ॥ "तए णं से ददपइण्णे दारए-इत्यादि
४२०
DEN
मूलार्थ - " तणं से दढपणे -" इसके बाद वह दृढप्रतिज्ञ कुमार जिसका "उमुकबालभावे विण्णायपरिणयमिते-" बालभाव व्यतीत हो चला है, और - विज्ञान जिसका शीघ्रता से परिपक्व अवस्था में पहुंच गया है. "जोब्वणगमणुपत्ते - " यौवनावस्थाशाली हुवा. " बाबत्तरि कलापंडिए - णबंगसुत्तपडिबोहएअट्ठारस विहदेसिप्पगारभासाविसारए - " ७२ - कलाओं में विशेषरूपसे निष्णात हुवा. सुप्त अपने नवाङ्गो को दो कान - दो नेत्र - दो नासिका छिद्र - एक जीभ સમ્માનીત કરશે પછી તેમની જીવિકા માટે પર્યાપ્ત થાય તેટલું પ્રીતિજ્ઞાન તેમને આપશે. આ બધુ કરીને પછી તેઓ તેમને વિસર્જિત કરશે.
ટીકા સ્પષ્ટ છે. શાસૂ॰ ૧૭૧૫
"तए णं से दढपणे दारए" इत्यादि ।
भूसार्थ - तए णं से दढपइयो" त्यार पछी ते दृढप्रतिज्ञ कुमार-डे भेअनु “उम्मुक्कबालभावे विष्णायपरिणयमित्ते" भाजप पसार था गयु छे भने भेभनु विज्ञान म्हभ परियहुवावस्था सुधी पोथी गयुं छे. "जोव्वणगमणुपत्ते' युवावस्था संपन्न थशे. "वावत्तरिं कलापंडिए णवंगमुत्तपडिवो हए - अट्ठारसविहदेसिप्पगारभासाविसारए" ७२ लाखमां विशेष३५थी निष्णात थयेले। ते पोताना सुप्त नवाङ्गोने मे अन, में नेत्र, में नासिछिद्र, थोड कुल, ये स्थर्शन धन्निय, अने
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सुबोधिनी टीका स. १७२ सूर्याभदेवस्य आगामिभववर्णनम् ४२१ विधदेशीप्रकारभाषाविशारदो गीतरतिः गान्धर्वनाटयकुशलः शृङ्गारागारचारुवेषः संगतगतहसितभणितचेष्टितविलाससंलापोल्लापनिपुगयुक्तोपचारकुशलो हययोधी रथयोधी। बाहुयोधी बाहुप्रमर्दी अलंभोगसमर्थः साहस्रिको विकालचारी चापि भविष्यति ।सू०१७२ एक स्पर्शन, एवं-एक मन-इनको ब्यक्त-जागृत करता हुवा, अट्ठारह प्रकारकी भाषाओं में विशारद हुवा. "गीयरई-गंधव्बणढकुसले-सिंगारागारचारुवेसेसंगयगयहसियभणियचेष्ठियबिलाससंलावुल्लावनिउणजुत्तोबयारकुसले-" गीतएवं-रति में अनुरागयुक्त हुवा, गान्धर्व गान में-एवं नाटय क्रिया में पारङ्गत हुवा, तथा-शृङ्गारके गृह की तरह सुन्दर वेष से युक्त हुवा, समुचित गमनमें-समुचितहास में-समुचित बोलने में बातचीत करने में-समुचित चेष्टा में समुचित विलास में-नेत्र जनित विकार में-समुचित संलाप में-एवं समुचित काकुभाषण में-दक्ष हुवा, तथा-समुचित व्यवहारों में कुशल हुवा, तथा-"हय जोही गयजोही-रहजोही बाहुजोही-बाहुप्पमदी-अलं भोगसमत्थे-साहरिसए-वियालयारी यावि भविस्सइ-" हययुद्ध करने में कुशल हुवा गजयुद्ध करने में कुशल हुवा, रथयोधी हुवा, बाहुप्रयोधी हुवा, बाहुप्रमदीं हुवा, बाहु से कठिन भी वस्तु को चूर-२ करने में समर्थ हुवा, भोग में समर्थ हुवा. । अकेलाही सहस्र ख्यक भटों के साथ युद्ध करने में समर्थ हुवा, । अथवा-साहसिकअधिक साहस से युक्त हुवा, मध्यरात्रि में भी विचरण करनेवाला होगा. । એકમત-વ્યકત જાગૃત કરતે અઢાર પ્રકારની દેશીય ભાષાઓમાં વિશારદ થશે. "गीयरई-गंधव्वणट्ठकुसले सिंगारागारचारुवेसे संगयगयहसियभणियचेट्ठिय विलाससंलावुल्लावनिउणजुत्तोवयारकुसले" old भने २तिमा मनुयुत येतो, ગાંધર્વગાનમાં અને નાટયક્રિયામાં પારંગત થયેલે તેમજ શંગાર ગૃહની જેમ સુદર વેષથી સુસજજ થયેલે તે દઢપ્રતિજ્ઞ સમુચિત ગમનમાં, સમુચિત હાલમાં સમુચિત બેલવામાં વાતચીત કરવામાં, સમુચિત ચેષ્ટામાં, સમુચિત વિલાસમાં નેત્રજનિતવિકારમાં, સમુચિત સંલાપમાં અને સમુચિત કાકુ-ભાષણમાં પણ દક્ષ થઈ જશે. मा प्रमाणे ते समुयित व्यवहारामा शण थशे. तेभ०८ “हयजोही-गयजोही-रहजोही-बाहुजोही बाहुप्पमदी-अलंभोगसमत्थे-साहरिसए विद्यालयारी याचि भवि, स्सई" ययुद्ध ४२पामा ४ युद्ध ४२वामा सुश थशे. ते २थयोधी थरी, माइयाधी થશે, બહમદી થશે, બાહથી અતિ કઠેર વસ્તુને ચૂર્ણ વિચૂર્ણ કરવામાં સમર્થ થશે. ભેગમાં સમર્થ થશે. એટલે જ તે સહસ્ત્ર સંખ્યક ભટેની સાથે યુદ્ધ કરવામાં સમર્થ થશે. અથવા સાહસિક-અધિક સાહસયુકત થશે. આમ તે મધ્યરાત્રિમાં પણ વિચરણ કરનાર થશે.
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राजनीसूत्रे
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टीका - "तए णं से' इत्यादि - ततः खलु स दृढप्रतिज्ञौ नाम दारकः उन्मुक्तबालभावः-व्यतिक्रान्तबाल्यावस्थो विज्ञातपरिणतमात्रः - विज्ञातं - विज्ञानं परिणतमात्रं - सद्यः परिपक्व यस्य स तथा परिपक्व विज्ञान इत्यर्थः, यौवनकम् - युवावस्थाम् अनुप्राप्तः - अनुगतो द्वासप्ततिकलापाण्डतः पूर्वक्तिसप्ततिकलाऽभिज्ञो नवाङ्ग सुप्तप्रतिबोधकः - 'द्वे श्रोत्रे, द्वे नेत्रे, द्वे, नासिके, एका जिह्वा एका त्वगू एकं मनः' इत्येतेषां नवानां - नवसंख्यकानाम् - अङ्गानाम् - अवयावानां सुप्तानां बाल्यादब्य क चेतनावत्वात् सुप्तसदृशानां प्रतिबोधकः यौवनाऽऽगमेन व्यक्तं चैतन्य यस्य स तथा = स्वस्व विषयग्रहणसमर्थ नवाङ्गयुक्त इत्यर्थः, तथा अष्टादशविध देशीप्रकारभाषाविशारदः - अष्टादशविधायाम् - अष्टादशभेदायां देशीप्रकारायां- देशीस्वरूपाया भाषायां विशारदः-निष्णातः - अष्टादशभाषाऽभिज्ञ इत्यर्थः, तथा - गीतरतिः गीते गाने रति: अनुरागो यस्य स तथा = गीतानुरागयुक्त इन्यर्थ:, तथा गान्धर्व नाटय कुशल:गान्ध - गन्धर्वस्येदं गा धर्व तस्मिन - गाने, नाटये-नटकर्मणि च कुशल:- गान्धर्वविद्यायां च पारङ्गत इत्यर्थः, तथा-शृङ्गारागार चारुवेषः - शृङ्गारः - अलङ्कारादिकृता शोभा तस्य अगारमिव - गृहमिव चारुवेषः - रुचिरवेषो यस्य स तथा - सवि च्छित्यलङ्कारालङ्कृतशरीर इत्यर्थः तथा - संगतगत हसितभणितचेष्टितविलास संलापोल्लापनिपुणयुक्तोपचारकुशल :- संगतेषु तत्र गतं गमनं हसितं - हासः भणितम् - उक्तिः चेष्टितं - चेष्टा, विलासः - नेत्रजन्यो विकारः, तदुक्तं - " विलासी नेत्रजो ज्ञेयः " इति, संलापः - परस्परभाषाणम् उक्तं च- “संलापो भाषणं मिथा" इति, उल्लापःकाका भाषणम्, उक्तं च- 'उल्लापः काकुभाषणम्" इति एतेषामितरेतरयोगद्वन्द्वः,
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टीकार्थ - उसका स्पष्ट है. “नवाङ्गसुप्तप्रतिबोधक - " का - मतलब ऐसा है कि बाल्यावस्था में जो - श्रोत्र आदि अङ्ग अव्यक्त चेतनावाले होने से सुप्त जैसे रहते हैं, वेही - यौवन अवस्था में व्यक्त चेतनावाले हो जाने से जागृत जैसे हो जाते हैं । तात्पर्य कहने का यह है कि यौवनावस्था में अपने अपने विषय को ग्रहण करने में ये समर्थ हो जाते हैं । “विलासी नेत्र जो ज्ञेयः - संलापो भाषण मिथ:- " इस कथन के अनुसार नेत्र विकास का नाम विलास, औरभाषण का नाम-संलाप है । "उल्लापः काकुभाषणम्" के अनुसार काकुभाषण
टीडार्थ - - सूत्रार्थं स्पष्ट छे. "नवा सुप्त प्रतिबोधकः "नो अर्थ स्मा છે કે બાળપણમાં શ્રોત્ર (કાન) વગેરે અગા સુપ્ત જેવાં હાય છે તેજ યુવાવસ્થામાં જાગૃત જેવાં થઈ જાય છે. તાત્પર્ય આ છે કે યુવાવસ્થામાં એ અંગેા પેતપાતાના विषयने श्रणु उरवामां समर्थ था लय छे. "विलासो नेत्रजो ज्ञेयः संलापो भाषणं मिथः” या स्थन भुभ्ण नेत्र विहार नाम विलास रमने लाषानु नाम सजाय छे. "उल्लापः काकुभाषणम्" भुल्भ अड्डलाभाणु सारगर्भित व्यंगपूर्ण वयनाने आहे
શ્રી રાજપ્રશ્નીય સૂત્ર : ૦૨
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सुबोधिनी टीका सू. १७२ सूर्याभदेवस्य आगामिभववर्णनम्
४२३ तेषु निपुणः-दक्षः, तथा-युक्तोपचारकुशलः–युक्तेषु-समुचितेषु उपचारेषु-व्यवहारेषु कुशलः-चतुरः, पदद्वयाय कर्मधारयः, तथा-हययोधी-हयेन युध्यते इत्येवंशील:हययुद्धकलाकुशल इत्यर्थः, एवं गजयोधी-रथयोधी बाहुयोधी-इतिपदत्रयमुन्नेयम्, तथा बाहुप्रमर्दी-बाहुभ्यां प्रमर्दतीत्येवंशीलः-बाह्वाघातेन कठिनस्यापि वस्तुन श्वीकरणशील इत्यर्थः, तथा-अलम्भोगसमर्थ:-अत्यर्थ भोगानुभवस्मर्थः साहस्रिकः-सहस्रेण युध्यते इति-सहस्रसंख्यकभटैः सह एकाकये व युद्धकर्ता, 'साहसिकः इतिच्छायापक्षेतु अतिसाहसयुक्तः, तथा-विकालचारी-विकालेऽपि मध्यरात्रेऽपि चरती त्येवं शीलः अतिसाहसवत्त्वाद् मध्यरात्रेऽपि विचरणशीलश्चापि भविष्यतीति ।सू०१७२।
मूलम्-तए णं तं दढपइण्णं दारगं अम्मापियरो उम्मुक्कबालभावं जाव वियालयारिं च वियाणित्ता विउलेहि अन्नभोगेहि य पाणभोगेहि य लयणभोगेहि य वत्थभोगेहि य सयणभोगेहि य उवनिमंतिहिति । ॥ सू९ १७३ ॥
छाया-ततः खलु तं दृढप्रतिज्ञां दारकम् अम्बापितरौ उन्मुक्तबालभावं यावद् विकालचारिणं च विज्ञाय विपुलैः अन्नभोगैश्च पानभोगश्च लयनभोगेश्च वस्त्रभोगैश्च शयनभोगैश्च उपनिमन्त्रयिष्यतः । ॥ सू० १७३ ॥ सारगर्भित व्यङ्गवचन को कहते हैं, या-बच्चों के द्वार का-का, क-कु आदि तोतली बली को भी काक भाषण कहते हैं । ॥सू० १७२ ॥
"तए णं दढपइणं दारगं-' इत्यादि
मूलार्थ - "तए णं-" इसके बाद "तं दढपइण्णं दारगं-" उस दृढ प्रतिज्ञ दारक को "अम्मापियरो-" मातापिता “उम्मुक्कवालभावं जाव वियालचारिं च वियाणित्ता-" उन्मुक्तबालभाववाला यावत्-विकालचारी जानकर-"विउलेहि अन्नभोगेहिंय-पाणभोगेहिं-" विपुल अन्न भोगों से विपुल पानभोगों से"लयणभोगेहिं य वत्थभोगेहिय सयणभोगेहिय उवनिमंतिहिंति-" विपुल लयनછે. અથવા બાળકો વડે કા-કા-કુ કુ વગેરે જે તેતડી બોલીને પણ કાકુ ભાષણ કહે છે. સુ. ૧૭૨ છે
"तए णं दढपइण्णं दारगं" इत्यादि ।
भूदार्थ-"तए " त्या२ ५७। "तं दृढपइण्णं दारगं" ते प्रतिज्ञ ॥२४ने "अम्मापियरों" माता पिता 'उम्मुक्कबालभावं जाव वियालयारिं च वियाणित्ता" G-भुत मासात यावत् (१४सयारी otela 'विउलेहिं अन्नभोगेहिं य पाणभोगेहि'
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४२४
राजप्रश्नीयसूत्रे टीका-"तए णं" इत्यादि-ततः खलु तं दृढप्रतिज्ञं दारकं अम्बा-पितरौ-मातापितरौ उन्मुक्तबालभावं-व्यतिक्रान्तबाल्यावस्थं यावत्-यावत्पदेन 'विज्ञातपरिणतभात्र यौवनकमनुप्राप्तं द्वासप्ततिकलापण्डितं-नवाङ्गसुप्तप्रतिबोधकम् अष्टादशविधदेशीप्रकारभाषाविशारद गीतरतिं गान्धर्वनाटयकुशल शृङ्गारागारचारवेष सङ्गतगतहसितभणितचेष्टितविलाससंलापोल्लापनिपुणयुक्तोपचारकुशलं हययोधिनं गजयोधिनं रथयोधिनं बाहुयोधिनं बाहुप्रमर्दिनम् अलम्भोगसमर्थ साहस्रिकम्' इत्येतानि षदानि संग्राह्याणि, तथा विकाल वारिणं च विज्ञाय विपुलैः-प्रचुरैः अन्नभोगैः-अन्नरूपभोग्यपदार्थ, पानभोगे:-पेयरूपभोगपदार्थैः, लयनभोगे:-प्रासादरूपभोग्य पदाथैः, वस्त्रभोगैः-वसनरूपभोग्यपदाथैः शयनभोगैः-शयनरूपभोग्पपदार्थ श्च उपनिमन्त्रयिष्यत इति । दृढप्रतिज्ञं दारकं यौवनोन्मुख' दृष्ट्वा तन्मातापितरौ अन्नादिभोगानुभोक्तुंप्रेरयिष्यत इति सूत्राशय इति । सू० १७३।। तनुभोगों से विपुलवस्त्ररूप भोग्य पदार्थों से उपनिमन्त्रित करेंगे । अर्थात् उसे अब अन्नादि भोग्य विषय के लिये स्वतन्त्रता देंगे।
टीमार्थ-पष्ट हैं, "उम्मुक्कबालभाव जाव-” में जो यह यावत् पद आया है, उससे-"विज्ञातपरिणतमात्रं, यौवनकमनुप्राप्तम, द्वादश प्रतिकला पण्डितम, नवाङ्गसुप्तप्रतिबोधकम, अष्टादशविधदेशी प्रकार भाषाविशारद गीतरति, गन्धर्वनाटय कुशलम्. शृङ्गारागारचारवेष, संगतगतहसितभणितचेष्टितविलाससंलापो-ल्लाप निपुण युक्तोपचार कुशलं, हययोधिनम्, गजयोयिनम् रथयोधिन, बाहुयोधिन, बाहुप्रमादिनम् अलंभोगसमर्थम् , साहस्रिकम् साहसिकम्, इन् पीछे के पाठों का ग्रहण हुवा है. ॥ सू० १७३॥ विधुर भन्न मोजायी, विधुरस पान लोगोथी 'लयणभोगेहि य वत्थभोगेहिं य सयणभोगेहिं य उवनिमंतिहिति' विधुत लयन तनुलोगोथी, विधु १५३५ लाग्य પદાર્થોથી ઉપનિયંત્રિત કરશે એટલે કે તેને અન્ન વગેરે લેગ્ય વિષયક પદાર્થોને ભેગવવાની છૂટ આપશે.
-२पष्ट छ. 'उम्मुक्कबालभावं जाव' मां यावत् प६ मावेस छ तेथी "विज्ञातपरिणतमात्र, यौवनकमनुप्राप्तम्, द्वादशप्रतिकलापंडितम् नवाङ्गसुप्तप्रतिबोधकम , मटशविध १२॥ ४॥२ साषा विशा२६, भातति, व नाटय કુશલમ શૃંગારાગાર ચારુષ, સંગતગતહસિત ભણિત ચેષ્ટિત વિલાસ સંલ્લાપલ્લાપ નિપુણ યુક્તપચારકુશલ, હયધિનમ, ગજધિનમ, રધિનમ, બાધિનમ, બાહપ્રમાર્દિનમ, અલગ સમર્થમૂ, સાહસિકમૂ, સાહસિકમ્ આ પાછળનું ગ્રહણ यु छ. ॥ १७ ॥
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सुबोधिनी टीका सू. १७४ सूर्याभदेवस्य आगामिभववर्णनम्
४२५ मूलम्-तए णं दृढपइण्णे दारए तेहिं विउलेहिं अन्नभोएहिं जाव सयणभोएहि णो सजिहिइ णा गिज्झिहिइ णो मुच्छिहिइ णो अज्झोवजिहिइ । से जहा णामए पउमुप्पलेइ वा पउमेइ वा जाव सयसहस्तपत्तेइ वा पंके जाए जले संवुड्डे णोवलिप्पइ पंकरएणं, णोवलिष्पइ जलरएणं, एवामेव दढपइण्णे वि दारए कामेहिं जाए भोगेहि संवुड्ढे णोवलिप्पिहिइ कामरएणं, णोवलिप्पिहिइ भोगरएणं, णोवलिप्पिहिइ मित्तणाइणियगसयणसंबधिपरिजणेणं । से णं तहारूवाणं थेराणं अंतिए केवलं बोहिं बुज्झिहिइ, मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइस्सइ । से गं अणगारे भविस्सइ-ईरिया समिए जाव सुहुययासणो इव तेयसा जलंते । तस्स णं भगवओ अणुत्तरेणं णाणेणं, एवं दंसणेणं चरित्तेणं आलएणं विहारेणं अज्जवेणं महवेणं लाघवेणं खंतीए गुत्तीए अणुत्तरेणं सव्वसंजमसुचरिय तवफलणिव्वाणमग्गेणं अप्पाणंभावमाणस्स अणंते अणुत्तरे कसिणे पडिपुण्णे निरावरणे णिव्वाघाए, केवलवरनाणदंसणे समुप्पजिहिइ। तए णं से भगवं अरहा जिणे केवली भविस्सइ, सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स परियायं जाणिहिइ, तं जहा-आगई गई ठिइ चवणं उववायं तकं कड मणोमाणसियं खइयं भुत्तं पडिसेविय आवीकम्म रहोकम्मं अरहा अरहस्सभागी तं तं कालं मणवयकायजोगे वहमाणाणं सव्वलोए सव्वजीवाणं सव्वभावे जाणमाणे पासमाणे विहरिस्सइ । ॥ सू० १७४ ॥
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राजप्रश्नीयसूत्रे छाया-ततः खलु स दृढप्रतिज्ञो दारक स्तेषु विपुलेषु अन्नभोगेषु यावच्छयनभोगेपु नो सङक्ष्यति, नो गर्षिष्यति, ना मूछिष्यति, नो अध्युपपत्स्यते । तद्यथानाम-पद्मोत्पलभिति वा पद्ममिति वा यावत् शतसहस्रपत्रमिति वा पङ्के जातं जले वृद्धं नापलिप्यते पङ्करजसा, नोपलिप्यते जलरजसा, एवमेव दृढ प्रतिज्ञोऽपि दारकः कामैर्जातो भोगैः संवर्द्धितो नोपलेप्स्यते कामरजसा, नो पलेप्स्यते भोगरजसा, नोपले प्स्यते प्रियज्ञातिनिजक वजनसम्बन्धिपरिजनेन ।
"तए णं दढपइण्णे दारए-" इत्यादि
मूलार्थ-'तए णं' उसके बाद- 'दढपइण्णे दारए तेहिं बिउलेहिं अन्नभोगेहि जाव सयणभोगेहि-' वह दढप्रतिज्ञ दारक उन विपुल अन्नरूप भोग्य पदार्थों में यावत्-शयनरूप भोग्य पदार्थों में-"णो सज्जिहिइ, णो गिज्झिहिइ, णो मुच्छिहिइ, णो अज्झोववज्जिहिइ-"आसक्ति नहीं करेगा, गृद्धिभावको प्राप्त नहीं होगा, मूर्छाभाव को प्राप्त नहीं होगा, उनमें-एक मनवाला नहीं बनेगा। ‘से जहाणामए पउमुप्पलेइ वा, पउमेइ वा, जाव सयसहस्सपत्तेइ वा पके जाए जले सबु णोवलिप्पइ पंकरयेणं णोबलिप्पइ जलरएणं-" जैसे-पद्म, अथवाउत्पल, यावत्-शत सहस्रपत्रोंवाला कमल षङ्क में पैदा होता है, जल में बढता है, परन्तु-वह कीचड से जरा भी अंश में लिप्त नहीं होता है, पानीसे लिप्त नहीं होता है, “एवामेव दढपइण्णे वि दारए कामेहिं जाए भोगेहिं संवुड्डू, णो. बलिप्पिहिइ-कामरएणं, णोवलिप्पिहिइ भोगरएणं, गोवलिप्पिहिइ मित्तणाइ णियगसयणसंबंधिपरिजणेणं-" इसी तरह से वह दढप्रतिज्ञ दारक भी काम
"तए ण दढपइण्णे दारए” इत्यादि ।
भूदार्थ-'तए णं' ५५ "दढपइण्णे दारए ते हिं विउलेहिं अन्नभोगेहिं जाव सयणभोगेहिं" प्रतिज्ञ ४२४ ते विधुत अन्न३५ लाय पहार्थोभा यावत शय न३५ लाय पर्यो भने 'यो सज्जिहिइ, णो गिज्झिहिइ, णो मुच्छिहिइ, णो अज्झोववज्जिहिड" मासहित मताशे नहि, गृद्धला प्राप्त ४२0 नड, भूमाप प्राप्त ४२शे ना, तीन थशे नहि. -'से जहाणामए पउमुप्पलेइवा, पउभेइवा जाव सयसहस्सपत्तेइवा पंके जाए जले संवुड्ढे णोवलिप्पइ पंकर येणं णोवलिप्पइ जलरएणं" भ प ५६, यावत् शत समपत्र भ७ ५४ (६१)मा उत्पन्न હોય છે, પાણીમાં વૃદ્ધિ પ્રાપ્ત કરે છે, પણ તે સહેજ પણ કાદવથી Cam थतु नथी “एवामेव दढपइण्णे वि दारए कामेहिं जाए भोगेहिं संवुड्डे, णावलिप्पहिइ कामरएणं, जोवलिप्पिहिइ भोगरएण णावलिप्पिहिइ, मित्त णाइ-णियगसयणसंबंधिपरिजणेणं" मा प्रमाणे ते प्रतिज्ञ २४५५४ मथा
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सुबोधिनी टीका स. १७४ सूर्याभदेवस्य आगामिभववर्णनम्
४२७ स खलु तथारूपाणां स्थविराणाम् अन्तिके केवलां बोधि भत्स्यते, मुण्डो भूत्वा आगारात् अवगारितां प्रव्रजिष्यति । स खलु अनगारो भविष्यति ईर्या समिता यावत् सुहुतहुताशन इव तेजसा ज्वलन् । त य खलु भगवतोऽनुत्तरेण ज्ञानेन, एवं दर्शनेन चरित्रण आलयेन विहारेण. आजेवेन मादेवेन लाधवेन क्षान्त्या गुप्त्या मुक्त्या अनुत्तरेण सर्व संयमसुचरिततपः फल निर्वाणमार्गेण आत्मानं भावसे उत्पन्न होगा-भोगों से वर्धित होगा, फिर भी वह काम से लिप्त नहीं होगा, भोगों से लिप्त नहीं होगा, मित्र-ज्ञाति-निजक-सम्बन्धि जन, और-परिजनों में लिप्त नहीं होगा. । “से ण तहाख्वाणं थेराणं अंतिए केवल बोहिं बुझिहिइ मुंडे भवित्ता अगाओ अणगारियं पव्वइस्सइ-" वह तो केवल तथारूपवाले स्थविरों के पास केवल बोधि को प्राप्त होगा “से णं अणगारे भविस्सई ईरियासमिए जाव सुहुय हुयासणो इव तेयसा जलंते-" इस अगारावस्था में बह ईर्यासमिति आदि पांच समिति का पालन करेगा, यावत् अच्छीतरह जलती हुवी अग्नि की तरह वह अपने तेज से चमकेगा "तस्स णं भगवओ अणुत्तणं णाणेणं एवं दंसणेणं चरित्तोणं आलएणं विहारेणं अज्जवेणं मद्दवेणं लाघवेणं खंतीए गुत्तीए मुत्तीए अणुत्तरेणं सव्वसंजम सुचरियतवफलणिब्वाणमग्गेणं अप्पाणं भावेमाणस्स-" अनुत्तरज्ञान से-अनुत्तरदर्शन से-अनुत्तरचारित्र से-अप्रतिबद्ध विहार से-आजवसे–मार्दव से लाघव से-क्षमा से गुप्ति से-त्यागसे. अनुत्तर सर्व संयम से सुचरित्र से-तप से फल से-एवं निर्वाण मार्ग से आत्मा को ઉત્પન્ન થશે, લેગથી વદ્વિત થશે, છતાં એ કામથી લિપ્ત થશે નહિં, ભેગથી લિપ્ત થશે નહિ, મિત્ર જ્ઞાતિ, નિજક સંબંધિજન અને પરિજનમાં લિપ્ત થશે નહિ” "से ण तहाल्वाणं थेराणं अंतिए-केवल बोहिं बुझिहिइ-मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइस्सई" ते तो ३४त तथा३५ स्थाविशनी पासे र माधिन પ્રાપ્ત કરશે. મુંડિત થશે એટલે કે અગારાવસ્થામાંથી અનગારાવસ્થા પ્રાપ્ત કરશે. से ण अणगारे भविस्सइ ईरिया समिए जाव सुहुयहुयासणा इव तेयसा जलंते" આ અણગારાવસ્થામાં તે ઈસમિતિ વગેરે પાંચ સમિતિનું પાલન કરશે. યાવત सारी शत प्रसित भनिनी २५ ते पाताना तेथी यमशे. "तस्स णं भगवओ-अणुत्तरेणं णाणेणं एवं दंसणेण चरित्तेणं आलएणं विहारेणं अज्जवेणं मद्दवेणं लाघवेण खंतीए गुत्तीए मुत्तीए अणुत्तरेण सव्वसंजमसुचरिय तव फल णिव्वाणभग्गेण अप्पाणं भावमाणस्स" अनुत्तर ज्ञानथी, अनुत्तर शनथी, मनुत्तर ચારિત્રથી, અપ્રતિબદ્ધ વિહારથી, આજીવથી, માર્દવથી, લાઘવથી, ક્ષમાથી, ગુપ્તિથી ત્યાગથી, અનુત્તર સર્વ સંયમથી, સુચરિત્રથી, તપથી, ફળથી, અને નિર્માણ માર્ગથી
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राजप्रश्नीयसूत्रे यमानस्य अनन्तम अनुत्तरं कृत्स्नं प्रतिपूर्ण निरावरण निर्व्याघातं केवलवरज्ञानदर्शनं समुत्पत्स्यते। ततः खलु स भगवान अर्हन् जिनः केवली भविष्यति. सदेवमनुजा-सुरस्य लोकस्य पर्यायं ज्ञास्यति, तद्यथा-आगतिं गतिं स्थितिं च्यवनम् उपपातं तर्क कृतं मनोमानसिक खादित भुक्तं प्रतिसेवितम् आविष्कर्म रहःकर्म अरहा अरहस्य भागी तस्मिस्तस्मिन् काले मनोवाकाययोगे वर्तमानानां सर्वलोके सर्वजीवानां सर्वभावान् जानन् पश्यन् विहरिष्यति । ॥सू० १७४॥ भावित करते हुवे उस भगवान् दृढकुमार के "अणते अणुत्तरे कसिणे पडिपुण्णे निरावरणे णिब्वाघाए केवलवरनाणदंसणेन समुप्पज्जिहिइ-" अनन्त-अनुत्तर-कृत्स्नप्रतिपूर्ण-निरावरण-निव्याघात ऐसे केवल ज्ञान, और केवलदशन उत्पन्न होंगे- 'तए ण से भगवं अरहा जिणे केवली भविस्सइ-" तब ये दढकुमार भगवान् अर्हन्त जिन केवली हो जावेंगे। “सदेवमाणुयासुस्रस लोगस्स परियायं जाणिहिइ, तं जहा आगइं, गई, ठिइ चवणं, उववायं, तकं, कडं-मणामाणसियं खाइयं-भुत्त-पडि सेवियं-" मनुज-देव असुर सहित लोक की पर्याय को जान लेंगे, जैसे- आगतिक का-गति का- स्थिति को-च्यवन का-उपपात को तर्क को-कृतको मनोमा सिक को-खादित को-भुक्त को प्रतिसेवित का प्रत्यक्ष में कृत को एकान्त में कृत को, इस तरह से मनुज, देव, असुर सहित लोक की पर्याय को वे जानेंगे। "अरहा अरहस्स भागी त त काल मणवयणकायजोगे वट्टमाणाणं सव्वलोए सव्वजीवाणं सब्वभावे जाणमाणे पासमाणे विहरिस्सइ.” इस तरह वे अनगार कि जिन को अप्रत्यक्ष काई भी वस्तु नहीं रहेगी सावद्याचार से मात्माने लावित ४२di ते लापान १८ मारने "अण ते अणुत्तरे कसिणे पडिपुण्णे निरावरणे णिव्वाधाए केवलवरनाणदंसणे समुप्पजिहिइ" मनात मनुत्तर કૃતન પ્રતિપૂર્ણ નિરાવરણ નિર્ભાધાત એવાં કેવળજ્ઞાન અને કેવળદર્શન ઉત્પન્ન થશે.
"तए ण से भगवं अरहा जिणे केवली भविरसइ" त्या२ ते मार लान मत CM ली थ शे. सदेवमणुय सुरस्स लेगिस्स परियायं जाणिहिइ, तं जहा आगई, गई, ठिई, चवण', उववायं, तक्कं, कडं, मणाम णसियं खाइयं भुत्तं पडिसेवियं" भडन, ३१, असुर सहित सोनी पायने onell सेशे, थेटले કે આગતિને, ગતિને, સ્થિતિને, ચ્યવનને, ઉપપાતને, તકને, કૃતને, મને માનસિકને ખાદિતને, ભુકતને, પ્રતિસેવિતને પ્રત્યક્ષમાં કૃતને, એકાત્તકૃતને, આમ તે મનુજ हेव, असुर सहित देनी पायने शे. “अर हा अरहस्स भागी तं तं काल भणवयणकायजोंगे वट्टमाणाणं सव्वलाए सव्वजीवाण सव्वभावे जाणमाणे पासमाणे विहरिस्सई" मा प्रभारी ते अनामना भाट प्रत्यक्ष देवी
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सुबोधिनी टीका सू. १७४ सूर्याभदेवस्य आगामिभववर्णनम्
४२९
टीका-तणं से" इत्यादि - ततः खलु स दृढप्रतिज्ञो दारकः तेषु पूर्वोक्तेषु विपुलेषु प्रचुरेषु अन्नभोगेषु 'यावत्' - यावत्पदेन - पानभोगेषु लयनमोगेषु बखभोगेष " इति सङ्गृह्यते, तथा-शयनभोगेषु च नो सङ्घयति आसक्ति न करिष्यति नो गति- गृद्धिमान् न मविष्यति, नोमूच्छियति मूर्च्छाभावं नो करिष्यति ना अध्युपपत्स्यते - तदेकमना नो भविष्यति । अमुमेवार्थ स दृष्टान माह - " से जहा णाम" इत्यादि - यथा येन प्रकारेण उत्पलं लोकप्रसिद्धं 'नामकं' इति वाक्यालकारे, पद्मोत्पलमिति वा, पद्ममिति वा 'यावत्' - यावत्पदेन - 'कुसुममिति वा नलिनमिति वा सुभगमिति वा सुगन्धमिति वा पुण्डरीकमिति वा महापुण्डरीकमिति वा शतपत्रमिति वा सहस्रपत्रमिति वा' इति सङ्गृह्यते, तथा-श सहखमिति वा - अत्र इतिशब्दः स्वरूपनिर्देशे, वा शाब्दो विकल्पे, पडे-कर्दमे जातं
वर्जित होने के कारण सुस्पष्ट सकल आचारवाले हो ते हुवे उस उस काल में मन-वचन-काय योग में वर्तमान इस लोक के समस्त जीवों के समस्त भावों का जानते हुवे, और देखते हुवे भ्रमण्डल में विहार करेंगे ।
टीकार्थ -- स्पष्ट है, परन्तु - इस में जो विशेषता है, वह इस प्रकार से है - वे दृढप्रतिज्ञदारक उन पूर्वोक्त विपुल अन्नभोगों में यावत् - पानभोगों में, तथा-लयनयोगों में वस्त्रभोगों में आसक्ति नहीं करेंगे, गृद्धियुक्त नहीं बने गे, मूर्च्छाभाव को नहीं धारण करेंगे, और न उन में तल्लीन मन वाले होंगे, इस बात को दृष्टान्त द्वारा यों समझाया गया है- जैसे- पद्मोत्पल अथवा पद्म, यावत् कुसुम, अथवा नलिन या सुभग, या सुगन्ध, या पुण्डरीक, या - महापुण्डरीक, या शतपत्र, या - सहस्रपत्र, ये सब कमलजाति के भेदरूप कमल
વસ્તુ ખાકી રહેશે નહિ સાવદ્યાચારથી ર્જિત હાવા બદલ સુસ્પષ્ટ સકલ આચારવાળા થઇને તે તે કાલમાં મનવચન, કાય, ચેાગમાં વર્તમાન આ લાકના સમસ્ત જીવાને સમસ્ત ભાવાને જાણતાં અને જોતાં ભૂમડલમાં વિહાર કરશે.
ટીકાઃ સ્પષ્ટ છે. પણ આમાં જે વિશેષતા છે તે આ પ્રમાણે છે. તે દૃઢપ્રતિજ્ઞ દ્વારક તે વિપુલ અન્નક્ષેાગામાં યાવત્ પાનભોગામાં, લયભોગામાં, વસ્ત્રભોગમાં તેમજ શયનભોગામાં આસક્ત થશે નહિં, ગૃદ્ધિયુકત ખની નહિ, મૂર્છાભાવયુકત થશે નહિ અને તેમાં તલ્લીન પણ થશે નહિ. એજ વાતને દૃષ્ટાંત વડે આ પ્રમાણે સમજાવવામાં આવી છે કે જેમ પદ્મોત્પલ અથવા પદ્મ યાવત્ કુસુમ; અથવા નલિન કે સુભગ, કે સુગંધ, કે પુંડરીક, કે મહાપુડરીક, કે શતપત્ર, કે સહસ્રપત્ર આ બધા કમલ જાતિના કમળા કમ (કાદવ)માં ઉત્પન્ન હાય છે, પાણીમાં વૃદ્ધિ પામે છે,
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राजप्रश्नीयसूत्रे समुत्पन्न, जले संदृद्धं-वृद्धिं गतमपि नोपलिप्यते-ने पलिप्तं भवति, पङ्करजसा, नोपलिप्यते जलरजसा, इत्थ दृष्टान्तमुक्त्वा दार्टान्तिकमाह-'एवमेव' इत्यादि । एवमेव-अनेन प्रकारेणैव दृढप्रतिज्ञोऽपि दारकः कामैः जातोऽपि भोगैः संवृद्धो वृद्धिं गतोऽपि कामरजसा नोपलेप्स्यते-उपलिप्तो न भविष्यति, भोगरजसा नोपलेप्स्यते-उ लिप्तो न भविष्यति, तथा मित्रज्ञातिनिजकस्वजनसम्बन्धि परिजनेन-तत्र मित्राणि-सुहृदः, ज्ञातयः माता-पिता-भ्रात्रादयः निजकाः स्वकीयाः पुत्रादयः, स्वजना:-पितृव्यादयः सम्बन्धिन:-स्वश्वशुरपुश्वशुरादयः, परिजना:दासीदासादयः एतेषां समाहारस्तेन सह नोपलेप्स्यते-उपलिप्तो नो भविष्यति । अपितु स खलु दृढप्रतिज्ञः अन गारो भविष्यति, कीदृशोऽनगारो भविष्यति? 'ईरियासमिए इत्यादि । ईर्यासमित ईसिमि त युक्तः, 'यावत् यावत्पदेन-भासासमिए एसणासमिए आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए उच्चारपासवणखेलसिंधाणजल्लपरिहावणियासमिए मणगुत्ते वयगुत्ते कायगुत्ते गुत्ते गुतिदिए गुत्तब भयारी अममे अकिंचणे छिण्णगधे यद्यपि-कीचड से उत्पन्न होते हैं, जल में वृद्धिपाते हैं, परन्तु फिर भी कीचड रज से लिप्त नहीं होते हैं। जलरज से सम्बन्धित नहीं होते हैं, इसी प्रकार से. दृढप्रतिज्ञ भी दारक काम से उत्पन्न हुवा है भोगों से संबधित हुवा है, फिर भी वह काम ज से उपलिप्त नहीं बनेगा, मित्रजनों से ज्ञातिजनों से माता पिता, भ्राता आदि कों से निजजनों से पुत्रादिकों से स्वजनों से पितृव्यादि को से सम्बन्धित जनों से श्वशुर पुत्रश्वशुर आदि से, एवं परिजनों से दासीदास आदि कों से सम्बद्ध नहीं होगा. । किन्तु वह दृढप्रतिज्ञ अनगार होगा. । ईर्यासमिति का पालन करेगा, यावत् भाषा समिति का एषणा समिति का, आदानभाण्डमात्र निक्षेपणसमिति का उच्चारपत्रवण खेल सिंधाण जल्ल परिष्ठापनिका समिति का पालन करेगा, मनोगुप्ति का वचन गुप्ति का कायगुप्तिका पालन करेगा यहां ऐसा समझना चाहिये । हित मित प्रिय वचन बोलना इसका नाम भाषासमिति है। इस પણ છતાં એ કાદવથી લિપ્ત થતાં નથી. આમ તે દઢપ્રતિજ્ઞ દારક પણ કામથી ઉત્પન્ન થશે ભોગોથી સંવદ્વિત થશે છતાં તે કામરજથી ઉપલિપ્ત નહિ થશે, મિત્રજનથી પુત્રાદિકથી સ્વજનથી પિતૃભ્યાદિકથી સંબંધીજનેથી શ્વશુર, પુત્ર શ્વશુર વગેરેથી અને પરિજનથી, દાસીદાસ વગેરેથી સમ્બદ્ધ થશે નહિ. પણ તે દૃઢપ્રતિજ્ઞ અનગાર થશે. ઈર્યાસમિતિનું પાલન કરશે, યાવત્ ભાષા સમિતિનું, એષણ સમિતિનું, આદાન ભાંડમાત્ર નિક્ષેપણસમિતિનું ઉચ્ચાર પ્રસવણ-ખેલ, સિંધાણ જલ-પરિસ્થાનિકા સમિતિનું પાલન કરશે. મને ગુપ્તિનું, વગુપ્તિનું, કાયમુર્તિનું પાલન કરશે. આમ અહીં સમજવું જોઈએ, હિત–મિત પ્રિયવચન બોલવું તેનું નામ “ભાષા સમિતિ છે.
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सुबोधिनी टीका सू. १७४ सूर्याभदेवस्य आगामिभववर्णनम्
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छिण्णसेre निरुवलेवे कंसपाईव मुकतोए संखे इव निरंजणे जीवे विव अप्पाड - हाई जच्ववण पिव जामरूवे आदरिसफलगे इव पगडभावे कुम्मे इव गुतिदिए, पुक्खरपत्तं व निवलेवे, गगणमिव णिरालवेणे, अणिला इव निरालए, चंदोव सोमलेसे, सूरो इव दित्ततेए, सागरो इव गंभीरे, विहग इव सव्वआ विषमुक्के, मंद इव अप्पकंपे, सारथसलिलं इव सुदहियए, खग्गिविसाणं इव एगजाए, भारंडपक्खीव अप्पमत्ते, कुंजरो इव सोंडीरो, वसभो इव जायत्थामे, सीहो इव दुद्धरि से, बसुन्धरा इव सव्वकासविसहे' इति संग्राह्यम् । एतच्छाया च-भाषासमित एषणासमित आदानभाण्डमात्रनिक्षेपणास मितः उच्चारप्रस्रवणखेलशिङ्खाणजल्ल परिष्ठाप निकास मितो मनोगुप्तो वचोगुप्तः कायगुप्ता गुप्तो गुप्तेन्द्रियो गुप्तब्रह्मचारी अममः अकिञ्चनः, छिन्नग्रन्थः, छिन्नस्रोतः, निरुपलेपः, कांस्यपात्रीव मुक्ततोय:, शङ्ख इव निरञ्जनः, जीव इव अप्रतिहतगतिः, जात्यकनकमिव जातरूपः, आदर्शफलक इव प्रकटभावः, कूर्म इव गुप्तेन्द्रियः पुष्करपत्रमिव निरुपलेपः गगनमिव निरालम्बनः अनिल इव निरालयः चन्द्र व सोमलेश्यः, सूर इव दीप्ततेजाः, सागर इव गम्भीरः, विहग इव सर्वतो विप्रमुक्तः, मन्दर इव अप्रकम्प: शारदसलिलमिव शुद्धहृदय:, खङ्गविषाणमिव एकजातः, भारण्डपक्षीव अप्रमत्तः, कुज्जर इव शोष्डीरः, वृषभ इव जातस्थामा, सिंह इव दुर्द्धर्षः, वसुन्धरेव सर्वस्पर्शविषहः इति । तत्र भाषासमित - भाषा समितियुक्तः, एषणा समितः - एषणायां-भक्ताद्येषणायाम् उद्गमादिदोषवर्जनपूर्व कँ समितः - समिति युक्तः, विशुद्वाहारादिग्रहणान्वेषणोपयोगयुक्त इत्यर्थः । तथा आदानभाण्डमात्रनिक्षेपणासमितः - आदाने ग्रहणे - अस्य भाण्डामात्र योरित्यनेन सम्बन्धः, प्रत्यासत्तिन्यायत् साहचर्यात् देहली दीपन्यायाद् वा, भाण्डस्य - पात्रस्य मात्रस्य - वस्त्राद्युपकरणस्य च निक्षेपणायाम - अवस्थापन समितः - प्रतिलेखनप्रमार्जनपूर्वकं प्रवृत्तिसमिति से युक्त होना इसका नाम भाषासमिति युक्त है, । भक्त आदि की एषणा में उद्गमादि दोषवर्जनपूर्वक जो समित हे न इसका नाम एषणासमिति है, अर्थात् विशुद्ध आहार आदि का ग्रहण करने और अन्वेषण करने में उपयोगयुक्त होना, उसका नाम - एषणासमित है । भाण्ड - पात्र मात्र वस्त्रादि उपकरण का निक्षेपण रखने में एवं अवस्थापन में समित होना. इसका ભકત વગેરેની એષણામાં ઉર્દૂગમાદિ દોષવર્જનપૂર્વક સમિત થશે, તેનું નામ એષણા સમિતિ છે. એટલે કે વિશુદ્ધ આહાર વગેરે ગ્રહણ કરવા અને અન્વેષણ કરવામાં ઉપયોગ યુકત થવુ તેનું નામ એષણા સમિતિ છે. ભાંડ-પાત્ર-માત્ર-વસ્ત્રાદિ ઉપકરણના નિક્ષેપણમાં અને અવસ્થાનમાં સમિતિયુક્ત થવું તેનું નામ આદાનભાંડમાત્ર નિક્ષેપણા
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राजप्रश्नीयसूत्रे युक्त इत्यर्थः, तथा-उच्चारप्रस्त्रवणखेलशिवाणजल्लपरिष्ठापनिकासमित:-तत्र उच्चारः-पुरीष, प्रस्रवण-मूत्रं, खेल:-श्लेष्मा-उपलक्षणत्वान्निष्ठीवनस्यापि धूंकइति भाषाप्रसिद्धस्यापि ग्रहणम् शिवाणं नासिकामलं, जल्लः-स्वेदजमलम्, एतेषां परिष्ठापनिका, परिष्ठापना-परित्यागः, सैव परिष्ठापनिका, तस्या समितः-सम्यगुपयुक्तः, तथा-मनोगुप्तः-मनोगुिप्तस्त्रिधा-तत्र आतरौद्रध्यानानुबन्धि कल्पनाजालवियोगरूपा प्रथमा १, शास्त्रानुसारिणी परलोकसाधिका धर्मध्यानानुबन्धिनी माध्यस्थ्यपरिणतिर्द्वितीया २, मनोवृत्तिनिरोधेन योगनिरोधावस्थाभाविनी आत्मरमणरूपा तृतीया ३, तदुक्त योगशाखे
"विमुक्तकल्पनाजालं समत्वे सुप्रतिष्ठितम् ।
आत्मारामं मनस्तज्ज्ञ मनोगुप्तिरुदाहृता ।१।" इति । नाम-आदानभाण्डमात्रनिक्षेपणासमिति है, अर्थात् -प्रतिलेखन, प्रमार्जनपूर्व क प्रवृत्ति से युक्त होना. इसका नाम आदानभाण्डमात्रनिक्षेपणा समिति है। उच्चार नाम-पुरिषका है, प्रस्रवण नाम-मूत्र का हैं, खेल नाम श्लेष्मा का है, उपलक्षण से थूक का मी यहां ग्रहण किया गया है. । शिवाणनाम से यहां नासिका का मल गृहीत होता है, (नासामलं तु सिंधाणं इति अमरः)। स्वेदज मैल का नाम-जल्ल है, इनकी परिष्ठापनिका में त्यागमें समित होना, उसका नाम-उच्चारप्रस्रवणखेलशिवाणजल्लपरिष्ठापनसमिति है । मनोगुप्ति-तीन प्रकार की हैं, इनमें-आत रौद्र ध्यानानुबन्धी कल्पनाज़ाल का परित्याग करना इसका नाम प्रथम मनोगुप्ति है-१ शास्त्रानुसारिणी-परलोक साधिका-धर्मध्यानानुबन्धिनी. एवं माध्यस्थ परिणतिरूप द्वितीय मनोगुप्ति है-२ मनोवृत्ति के निरोध से योग निरोधकरनेवाली भाविनी जो-आ मरमणरूप गुप्ति है. वह तृतीय मनोगुप्ति है,। योगशास्त्र में कहा हैસમિતિ છે. એટલે કે પ્રતિલેખન, પ્રમાર્જનપૂર્વક, પ્રવૃતિત થવું તે આદાન-ભાંડ માત્ર નિક્ષેપણું સમિતિ છે. પુરીષનું નામ ઉચ્ચાર મૂત્રનું નામ પ્રશ્નવણ, લેમાનું નામ ખેલ છે. ઉપલક્ષણથી થકનું પણ અહીં ગ્રહણ કરવામાં આવ્યું છે. શિંઘાણ नाम ही नासिl मल माटे प्रयुत प्य छे. (शिंघाण काचपात्रे च लाहनासिकये मले इति मेदिनी कोषः) स्व भानु नाम ८८ छ, मेमनी परी! પનિકામાં-ત્યાગમાં સમિત થવું તેનું નામ ઉચ્ચાર પ્રસ્ત્રવણ ખેલ શિંઘાણ જલ પરિઝાપન સમિત છે. મને ગુપ્ત ત્રણ પ્રકારની છે. આમાં આર્તરોદ્રધ્યાનાનુબન્ધી કલ્પનાઓને પરિત્યાગ કરવો તે પ્રથમ મનગુપ્તિ છે. શાસ્ત્રાનુસારિણી પરલેક સાધિકા ધર્મધ્યાનાનુબંધિની અને માધ્યસ્થ પરિણતિરૂપ દ્વિતીય અનેગુપ્તિ છે. ૨, મનવૃત્તિ ના નિરોધાવસ્થાભાવિની જે આત્મરક્ષણ ગુપ્તિ છે તે તૃતીય મણિ છે. યોગશાસ્ત્રમાં
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एवंविधया त्रिविधयाऽपि मनोगुप्त्या युक्त इत्यर्थः, तथा - बचोगुप्तः -वचनगुप्तियुक्तः, वचनगुप्तिश्चतुर्विधा तथाहि सत्या १, मृषा २, सत्यामृषा ३, अस यामृषा चेति । उक्तं च
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सच्चा तहेव मोसा य, सच्चा - मोसा तहेव य ।
चउत्थी असच्चमोसाय, क्यगुत्ती चउब्विहा । ( उत्त० २४२२ गा० ) इति, छाया - "सत्या तथैव मृषा च सत्यामृषा तथैव च चतुर्थ्यसत्यमृषा च बचोगुप्तिश्चतुर्विधा । इति ।
तथा - काय गुप्तः कायगुप्तियुक्तः, कायगुप्तिस्तु गमनागमनप्रचलनादि क्रियाणां गोपनम्, सा द्विविधा - चेष्टानिवृत्तिरूपं १, यथागमं
जिसमें - कल्पना जाल विमुक्त हों, और - समत्व में जो सुप्रतिष्ठित हो - ऐसा मन आत्माराम है- आत्मारूपी उद्यान (बाग) है. इसमें रमण करना मनोगुप्ति है । इस प्रकार की तीन गुप्तियों से मनका युक्त होना इसका नाम मनोगुप्ति से गुप्त होना है । इसी प्रकार से वचनगुप्ति से युक्त होना सो- वचनगुप्ति से गुप्त होना है, वचनगुप्ति चार प्रकार की है, -सत्या - बचोगुप्ति - १ मृषावचोगुप्ति-२ सत्यामृषावचोगुप्ति-३ और असत्यामृषायचो. गुप्ति है -४ उक्तञ्च - " सच्चा तहेव मोसाय सच्चामोसा तहेवय. ।
उत्थी असच्च मोसा-य वयगुत्ती चउबिहा - ॥१॥ (उत्त० २४-२२ गाथा-) कायगुप्ति से युक्त होन। इसका नाम - काय गुप्त है -१ गमनागमनादिरूप प्रचलनादि क्रियाओं का गोपन करना काय गुप्ति है - २ यह काय गुप्ति चेष्टानिवृत्तिरूप एवं - यथागम चेष्टा नियमनरूप से दो प्रकार की કહ્યુ' છે કે જેમાં કલ્પનાજાલ વિમુક્ત હાય અને સમત્વમાં જે સુપ્રતિષ્ઠિત હાય એવુ મન આત્મારામ છે. આત્મારૂપી ઉદ્યાન છે. આમાં રમણ કરવુ' તે મનેાપ્તિ છે. “विमुक्त कल्पनाजाल समत्वे सुप्रतिष्ठितम् । आत्मारामं मनरतज्ज्ञैर्मने । गुप्तिरुदाहृता ॥१॥ ॥ भतनी त्रशु गुप्तियोथी मनयुक्त थवु तेनुं नाम मनोगुप्तिथी ગુપ્ત થવુ છે. આ પ્રમાણે વચનગુપ્તિથી યુક્ત થવું તે વચનગુપ્તિથી ગુપ્ત થવુ' છે. વચનગુપ્તિ ચાર પ્રકારની છે. સત્યામના ગુપ્તિ ૧, મૃષા મનપ્તિ ૨, સત્યામૃષામનેગુપ્તિ ૩, અને અસત્યામૃષામના ગુપ્તિ ૪.
धुं छे; - "सच्चा तहेव मोसाय सच्चामोसा तहेव य ।
चउत्थी असच्चमासाय वय गुत्तीच उव्विहा ॥१॥
(उत्त० २४-२२ गाथा) अयगुप्तिथी युक्त थवु तेनु नाम अयगुप्त छे. १, जमनाગમન–વગેરે રૂપ પ્રચલન વિગેરે ક્રિયાઓનું ગેાપન કરવુ अयगुप्ति छे. २. आ કાય-ગુપ્તિ ચેષ્ટા નિવૃત્તિરૂપ અને યથાગમ ચેષ્ટા નિયમનરૂપથી બે પ્રકારની હાય છે.
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राजप्रश्नीयसूत्रे चेष्ठानियमरूपा च २। तत्र परीषहोपसर्गादि संभवेऽपि यत्कायोत्सर्गादिकरणादिना कायस्य निश्चलताकरणम् सर्वयोगनिरोधावस्थायां वा सवथा यत् कायचेष्टानिराधनं सा प्रथमा। गुरुमापृच्छय शरीरसंस्तारकभूम्यादिप्रतिलेखना प्रमाजनादिसमयोक्तक्रियाकलापपुरस्सरशयनासनादिविधेयम्, ततः शयनासननिक्षेपादानादिषु स्वेच्छया चेष्टापरिहारेण नियता-शास्त्रनियमानुसारिणी या कायचेप्टा सा द्वितीयेति । उक्तं च
"उपसर्गप्रसङ्गेऽपि कायोत्सर्गजुषो मुनेः । स्थिरीभावः शरीरस्य कायगुप्तिर्निगद्यते । १॥ शयनाऽऽसननिक्षेपाऽऽदानसङ्क्रमणेषु च ।
स्थानेषु चेष्टानियमः कायगुप्तिस्तु सा परा । २। इति, होती है। इनमें परीपह-और उपसर्ग के आने पर भी कायोत्सर्ग करणरूप क्रिया से शरीर को निश्चल कर देना होता है, अथवा-सर्वयोग निरोधावस्था में सर्वथा जो काय की चेष्टा का निरोध किया जाता है वह चेष्टा निवृत्तिरूप प्रथम कायगुप्ति है। गुरू को पूछ कर शरीर. सस्तारक, भूमि आदि की प्रतिलेखना प्रमार्जना आदि के समय में उक्त क्रियाकलाप पुरस्सर जो-शयनआसन आदि करना होते हैं-सो उन शयनासनादिकों के निक्षेपन रखने में, एवंआदान आदि कों में अपनी इच्छा से चेष्टा के परिहार से नियत(रखने में) अर्थात् गुरु को पूछकर के शयनआदि करना-शास्त्रनियमानुसारिणी जो काय चेष्टा है वह-यथागमचेष्टा नियमनरूप द्वितीयकायगुप्ति है.। २ उक्त भी है-"उपसर्गप्रसङ्गेऽपि" इत्यादि
अर्थात्-"उपसर्ग आने पर कायात्संग में मनको
स्थिर रखना यह कायगुप्ति है। तथा. આમાં પરીષહ અને ઉપસર્ગની સ્થિતિમાં પણ કાર્યોત્સર્ગકરણરૂપ કિયાથી શરીરને નિશ્ચલ કરવામાં આવે છે. અથવા સવગ નિષેધાવસ્થામાં જે સર્વથા કાયચેષ્ટાને નિરોધ કરવામાં આવે છે. અથવા સર્વાગ નિરોધાવસ્થામાં જે સર્વથા કાયચેષ્ટાને નિધિ કરવામાં આવે છે તે ચેષ્ટા નિવૃત્તિરૂપ પ્રથમ કાયગુપ્ત છે. ૧, ગુરુની આજ્ઞા મેળવીને શરીર સંસ્કારક, ભૂમિ વગેરેની પ્રતિલેખના, પ્રમાજના વગેરેના સમયે ઉપર્યુક્ત ક્રિયાકલાપ પુરસ્સર જે શયન આસન વગેરે વિધેય હોય છે તો તે શયનાદિકના નિક્ષેપમાં અને આદાન આદિકમાં પિતાની ઈચ્છાથી ચેષ્ટાના પરિહારથી નિતતા-શાસ્ત્રનિયમાનુસારણ જે કાયચેષ્ટા છે તે દ્વિતીય યથાગમ ચેષ્ટા નિયમનરૂપ द्वितीय यति छ, २. बुधु छ:-उपमर्ग प्रसङ्गेऽपि कायोत्सर्गजुषोमुनेः ।
स्थिरीभावः शरीरस्य कायगुप्तिनिंगद्यते ॥१॥
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तथा - गुप्तः - अशुभयोगनिग्रहरूपगुप्त्या युक्तः, गुप्तब्रह्मचारी - गुप्तं नवभिब्रह्मचर्यगुप्तिभी रक्षितं ब्रह्म = मैथुनबिरमणं चरति तच्छीलः, अममः - ममत्वरहितः, अकिञ्चनः - धर्मोपकरणातिरिक्तवस्तुरहितः, छिन्नग्रन्थः - प्रश्नाति - बध्नाति आत्मानं कर्मणेति ग्रन्थः, स द्विविधो द्रव्यभावभेदात् द्रव्यतो- हिरण्यादि, भावतो मिथ्यात्वादिः, स द्विविधो मन्थरिछन्नो येन स तथा, छिन्नस्रोताः - छिन्नसंसारप्रवाहः, निरुपलेपः - कर्मबन्धहेतुरुपले पो रागादिस्तेन रहितः निरुपलेपत्वमेव सदृष्टान्तमाह- कांस्यपात्रीव मुक्ततायः - मुक्त-त्यक्त तोयमिव तोयं संसारबन्ध
शयनासन इत्यादि - शयन में, आसन में, लेने में रखने में, चलने में काय को यतनापूर्वक रखना यह कायगुप्ति है।
इस प्रकार से वे दृढप्रतिज्ञ अनगार इन पूर्वोक्त समितियों का तथा-गुप्तियों का पालन करनेवाले होंगे । तथा - वे गुप्त होंगे, अशुभ योगनिग्रहरूप गुप्ति से युक्त बनेंगे, गुप्तब्रह्मचारी होंगे, नौ वाटिका ( वाड) द्वारा मैथुन विरमणरूप ब्रह्म की रक्षा करेंगे उत्तम - ममत्व रहित होंगे, वे अकिञ्चन होंगे, धर्मोपकरण से अतिरिक्त अन्य वस्तुओं से विहीन होंगे। जो आत्मा को कर्म के साथ बान्धता है. वह ग्रन्थ है, यह - ग्रन्थ द्रव्य-ग्रन्थ, और-भावग्रन्थ के भेद से दो प्रकार का है । हिरण्य- सुवर्ण आदि बाह्यग्रन्थ है, एवं - मिथ्यात्व आदि भावग्रन्थ है. इन दोनों प्रकार के ग्रन्थ से वे रहित होंगे। संसारप्रवाह जिनका नष्ट हो चुका है. ऐसे होंगे, निरुपलेप होंगे, कर्मबन्धन का हेतु जो रागादिक उपलेप हैं उससे रहित होंगे। इसी बात को सूत्रकार दृष्टान्तद्वारा पुष्ट करते
शयनासननिक्षेपादाऽऽन समणेषु च ।
स्थानेषु चेष्टा नियमः कायगुप्तिस्तु सऽपरा ॥२॥
આ પ્રમાણે તે દૃઢપ્રતિજ્ઞ અનગાર આ પૂર્વકત સમિતિએના તથા ગુપ્તિનુ પાલન કરશે. તેમજ તેએ ગુપ્ત થશે. અશુભગ નિગ્રહરૂપ ગુપ્તિથી યુકત ખનશે. ગુપ્ત બ્રહ્મચારી થશે, નવ વાટિકાદ્વારા મૈથુન વિરમણુરૂપ બ્રહ્મની રક્ષા કરશે ઉત્તમ મમત્વરહિત થશે, તે અકિંચન હશે. ધર્મોપકરણાતિરિકત વસ્તુઓથી રહિત થશે. જે આત્માને કર્મની સાથે ખાંધે છે તે ગ્રન્થ છે. આ ગ્રંથ દ્રવ્યગ્રંથ અને ભાવથના રૂપમાં એ પ્રકારના છે. હિરણ્ય-સુવર્ણ વગેરે બાહ્ય ગ્રંથ છે અને મિથ્યાત્વ વગેરે ભાવથ છે. આ બન્ને પ્રકારોના ગ્રંથાથી તે રહિત થશે. જેમના સ’સારપ્રવાહ નાશ પામ્યા છે એવા તેએ થશે. નિરૂપલેપ થશે. કખ ધનના હેતુરૂપ રાગાદિક ઉપલેાપાથી તેએ રહિત થશે.એજ વાતને સૂત્રકાર દૃષ્ટાંત દ્વારા પુષ્ટ કરે છે કે
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राजप्रश्नीयसूत्रे हेतुत्वात स्नेहा येन स तथा। यथा-कांस्यपान्यां पतितमपि जलं लिप्तं न भवति तथा संसारबन्धहेतुस्तस्मिन्नुपलिप्ता न मविष्यतीत्यर्थः, शङ्ख इव निरञ्जनःअञ्जनमिवाञ्जनं-द्वेषादिकं तस्मानिर्गतः-तद्रहितः, यथा-शङ्ख किमपि कज्जलादिद्रव्यं स्थितिं न लभते तथैव तस्मिन्ननगारे द्वेपादिकं न स्थास्यतीत्यर्थः, जीव इव अप्रतिहतगतिः-जीवो यथा अब्याहतगत्या सर्वत्र याति, तथाऽसौ देशनगरादिषु अप्रतिबन्धविहारित्वेन वादादिषु कुतीथिकमतनिराकरणसामो पेतत्वेन च अस्खलितगतिर्भविष्यतीति। जात्यकनकमिव जातरूपः-तपःसंयमादिसमुद्भूतनैमल्यः यथा शोधितं सुवर्ण निर्मलं भवति तथैवासौ रागादिरहितत्वेन निर्मला भविष्यतीति, आदर्शफलक इव प्रकटभावः-आदर्श फलका यथा प्रतिबिम्बितान् मुखाद्यवयवान् यथाऽवस्थितं प्रकटी करोति, तथा तत्कृतधर्मदेशहै-“कांस्यपात्रीव मुक्ततोय:-" कांसे के पात्र में पड़ा हुवा पानी जिस प्रकार पात्र में लिप्त नहीं होता है-उसी प्रकार से संसार बन्धन का हेतु राग-द्वेष इनमें-उपलिप्त नहीं होंगे। शक की तरह वे निरञ्जन होंगे, जैसे-शङ्खमें कजलादि द्रव्य ठहर नहीं सकता है, उसी प्रकार से इनमें राग द्वेषादिक नहीं ठहरेंगे जीव की तरह ये अप्रतिहतगतिवाले होंगे, जीव जिस प्रकार अपनी अव्याहतगतिद्वारा सर्वत्र चला जाता है, उसी प्रकार से-देश नगरादिकों में अप्रतिबन्धविहारी होने से, एवं-वादादिकों में कुतीर्थिक मत निराकरण करने की सामथ्र्य से युक्त होने से अस्खलित गतिवाले होंगे। वे जातिमान कनक के प्रकार होंगे, जिस प्रकार जात्यकनक-श्रेष्ठ सुवर्ण निर्मल होता है-उसी प्रकार से ये तपः संयमादि से समुत्पन्न निर्मलतावाले होंगे, । आदर्श-दर्पण जिस प्रकार अपने में प्रतिबिम्बित हुवे मुखादि अवयवों को यथाऽवस्थित प्रकट करता "कांस्यपात्रीव मुक्ततोय" साना पात्रमा ५ पाणी मतमा लिप्त थ नथी. તેમજ સંસાર બંધન હેતુ રાગદ્વેષમાં તેઓ ઉપલિપ્ત થતા નથી શંખની જેમ તેઓ નિરંજન થશે. જેમ શંખમાં કાજલ વગેરે દ્રવ્ય સ્થિર થતાં નથી. તેમજ તેઓમાં રાગ દ્વેષાદિક સ્થિર થશે નહિ. જીવની જેમ તેઓ અપ્રતિહત ગતિવાળા થશે. જીવ જેમ પિતાની અવ્યાહત ગતિ દ્વારા સર્વત્ર ગતિશીલ હોય છે, તેમજ દેશનગરાદિકમાં અને પ્રતિબંધ વિહારી હોવાથી અને વાદાદિકમાં કુતીર્થિકમત નિરાકરણમાં સામર્થ્યયુકત હોવાથી તેઓ અખલિત ગતિવાળા થશે. તેઓ જાત્યકનકની જેમ થશે. જેમ જાત્ય કનક–શ્રેષ્ઠ સુવર્ણ નિર્મળ હોય છે, તેમ તેઓ તપ સંયમ વગેરેથી સમુત્પન્ન નિર્મલતાયુકત થશે આદર્શ—દર્પણ જેમ સ્વપ્રતિબિંબિત મુખાદિ અવયવે તે યથાવસ્થિત પ્રકટ કરે છે તેમ તેઓશ્રીની ધર્મદેશનાથી મનુષ્યચિત્તરૂપ દર્પણમાં જીવાજીવાદિ
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सुबोधिनी टीका सू. १७४ सूर्याभदेवस्य आगामिभववर्णनम् ४३७ नया जनानां चित्तदर्पणे जीवाजीवादिसकलपदार्थाः प्रकाशिष्यन्ते, इत्यर्थः, कूर्म इव गुप्तेन्द्रियः-कूर्मः-कच्छपः, यथा कूमो भयकारणे समुपपागते संवृतसर्वेन्द्रियो भवति, तथैवासौ संसारभ्रमणभयाद् विषयकषायसंरक्षितसकलेन्द्रियो भविष्यतीति । पुष्करपत्रमिव निरुपलेपः-यथा कमलपत्रं जलसंयोगेऽपि जलेन लिप्तं न भवति, तथैवासौ जलतुल्यस्वजनविषये वसन्नपि तत्सम्वन्धरहितो भविष्यतीति, गगनमिव निरालम्बनः-यथाऽऽकाशो निरवलम्बस्तिष्ठति तथैवासौ कुलग्रामनगराधालम्बनवर्जितो भविष्यतीति, अनिल इव निरालयः पवन-इव गृहरहितः, अप्रतिबन्धविहारित्वात्, चन्द्र इव सौम्यलेश्यः-अनुपतापपरिणामसम्पन्नः, सूर इव दीप्ततेजाः द्रव्यतः शरीरदीप्या, भावतस्तपःप्रभृतिना देदीप्यमानः, सागर इव गम्भीर - है. उसी प्रकार उनकी धर्मदेशना से मनुष्यों के चित्तरूप दर्पण में जीवा जीवादिरूप सकलपदार्थ प्रकाशित होंगे,। कूर्म-कच्छप जिस प्रकार भयकारणों के उपस्थित होने पर अपनी इन्द्रियों को गुप्त कर लेता है, उसी प्रकार से यह भी संसारपरिभ्रमणभयसे-विषय तापों से अपनी इन्द्रियों की रक्षा करने वाले होंगे. । जैसे-कमलपत्र जल के संयोग में भी उस से लिप्त नहीं होता है.उसी प्रकार से ये जल तुल्य स्वजनों के बीच में रहते हुवे भी उनके विषय में सम्बन्ध विहीन होंगे. । गगन की तरह ये निरालम्ब होंगे.। अनिल-वायु की तरह ये निरालय होंगे, अनिल को जैसे काई गृह नहीं होता है, उसी प्रकार से अप्रतिवन्धबिहारी होंगे। चन्द्र के समान ये सौम्यलेश्यावाले होंगे सूर्य की तरह दीप्ततेज होगे तेज द्रव्य-और भाव की अपेक्षा दो प्रकार का कहा गया है. इनमें शरीरादि की दीप्तिख्य द्रव्य तेज. और तप-आदि से होनेवाला तेज भावतेज है. । सागर की तरह ये गम्भीर होंगे, हर्ष-शोक રૂપ સકલ પદાર્થ પ્રકાશિત થશે. કર્મ-કચ્છપ જેમ ભવ ઉપસ્થિત થાય ત્યારે પિતાના અંગને સંકેચી લે છે તેમ તેઓ પણ સંસાર-પરિભ્રમણ ભયથી વિષયતાપથી પિતાની ઇન્દ્રિની રક્ષા કરનાર થશે. જેમ કમલપત્ર પાણીની સંગાવસ્થામાં પણ તેથી લિપ્ત થતું નથી તેમ તેઓ પાણીની જેમ સ્વજનેની વચ્ચે રહેવા છતાં તેમના વિષયમાં સંબંધ વિહીન થશે. ગગનની જેમ તેઓ નિરાલંબ થશે. આકાશ જેમ અવલંબન વગર છે તેમ તેઓ કુલ, ગ્રામ નગર વગેરે અવલંબથી રહિત થશે. અનિલવાયુની જેમ તેઓ નિરાલય થશે અનિલને જેમ કેઈ ઘર નથી તેમ તેઓ પણ અપ્રતિબંધ વિહારી થશે. ચન્દ્રની જેમ એ સૌમ્ય લેશ્યાયુકત થશે. સૂર્યની જેમ તેઓ દીસ તેજવાળા થશે તેજ દ્રવ્ય અને ભાવની અપેક્ષાએ બે પ્રકારનું છે. આમાં શરીરાદિની દીપ્તિરૂપ દ્રવ્યતેજ અને તપઃપ્રકૃતિથી જાયમાન તેજ ભાવતેજ છે.
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राजप्रश्नीयसूत्रे हर्ष शोकादिकारणसंयोगेऽपि निर्विकारचित्तः, विहग इव सर्वतो विप्रमुक्तःपक्षिवत्सङ्गरहितः, परिवारपरित्यागात् नियतवासरहितत्वाच्च, मन्दर इव अप्रकम्पः-मेरुवत् परिषहोपसर्गपवनैरविचलितः, शारदसलिलमिव शुद्धहृदयः-यथा शरवृतौ जलं निर्मलं भवति तथा रागद्वेषरहितत्वान्निर्मलचित्तो भविष्यतीति, खजिविषाणमिव एकजातः खड्गी-आरण्यजीवः तस्य विषाणं-शृङ्गं तद्वद् एकजातः-एकाकी रागादिसहायरहितः । तथा-भारण्डपक्षीव-भारण्डश्चासौ पक्षी च भारण्डपक्षी, अयं द्विजीवकखिचरणवान् द्वाभ्यां ग्रीवाम्यां द्वाभ्यां मुखाभ्यां च युक्तः, द्वयोर्जिवियोरेकमेवोदरं भवति, स चाप्रमत्त एव विहरति, तद्वत् आदि कारणों के मिलने पर भी इनके चित्त में काई क्षोभ उत्पन्न नहीं हो सकेगा. निर्विकार चित्तवाले होंगे। पक्षी की तरह सर्वतः विषमुक्त होंगे, सर्वसङ्ग से रहित रहेगे, परिवार आदि के परित्याग से और-नियत आवास से रहित होने से इनका ममत्वरूप सम्बन्ध किसी के साथ नहीं रहेगा. । मेरू-मन्दर की तरह ये अप्रकम्प होंगे, अर्थात् परीषह-उपसर्गरूप पवन इन्हें विचलित नहीं कर सकेगा, शारद सलिल की तरह शुद्ध होंगे-जिस प्रकार शारदऋतु में जल निर्मल रहता है उसी प्रकार राग-द्वेष रहित से ये निर्मल चित्त रहेंगे. खङ्गी विषाण-गेंडोंकाशृङ्ग की समान ये एकजात होंगे रागादिरूप सहायकों से रहित होने के कारण एकाकी रहेंगे। तथा-भारण्ड पक्षी की तरह अप्रमत्त हांगे, भारण्डपक्षी दो जीववाला होता है, इसके चरण तीन होते हैं-दो ग्रीवाओं से-दो मुखों से यह युक्त होता है, इन दो जीवों का पेट एक होता है. यह अप्रमत्त होकर विचरणशील होता है, इसी સાગરની જેમ તેઓ ગંભીર થશે. હર્ષ શોક વગેરે કારણો હોવા છતાં એ તેમના ચિત્તમાં કઈપણ જાતને વિકાર ઉત્પન્ન થશે નહિં. તેઓ નિર્વિકાર ચિત્તવાળા થશે, વિહગની જેમ તેઓ સર્વતઃ વિપ્રમુક્ત થશે. તેઓ સર્વસંગથી રહિત થશે. પરિવાર વગેરેના ત્યાગથી અને નિયત આવાસથી રહિત હોવાથી તેઓ મમત્વરૂપ સંબંધ કોઈની સાથે બાંધશે નહિ. મેરૂ-મંદરની જેમ તેઓ અપ્રકંપ થશે. એટલે કે પરીપહ ઉપસર્ગરૂપ પવન તેમને વિચલિત કરી શકશે નહિ. શારદ સલીલની જેમ તેઓ શુદ્ધ થશે. જેમ શરદઋતુમાં પાણી નિર્મળ રહે છે તેમ તેઓ પણ રાગદ્વેષ રહિત હોવાથી નિર્મળ ચિત્તવાળા થશે. ખડી વિષાણુ-ગુંડાઓના શીંગડાની જેમ તેઓ એક જાત થશે. રાગાદિપ સહાયકથી રહિત હોવા બદલ એકાકી રહેશે. તેમજ ભારંડ પક્ષીની જેમ અપ્રમત્ત થશે, ભારંડપક્ષી બે જીવયુકત હોય છે. તેને ત્રણ પગ હોય છે, બી ગ્રીવાઓ, બે મુખેથી તે યુકત હોય છે. આ બને એનું પેટ એકજ હોય છે,
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सुबोधिनी टीका सू. १७४ सूर्याभदेवस्य आगामिभववर्णनम् अप्रमत्तः-तपःसंयमादिधर्मरक्षणे प्रमादरहितः । कुञ्जर इव शौण्डीरः-हस्तीव शूरः-कषायादिरिपुभञ्जनशीलः । वृषभ इव जातस्थामा-वृषभवत् संजातपराक्रमः। सिंह इव दुर्घर्षः-सिंहवत् परीपहादि मृगैर्दुरतिक्रमः। वसुन्धरेव सर्वस्पर्शविषहःवसुन्धरा-पृथ्वी यथा सर्व सह्यमसह्य वा स्पर्श सहते तथैवायम् अनुकूलपतिकूलपरीपहोपसर्गसहनशीलः । तथा-सुहुतहुताशन इव तेजसा ज्वलन्-यथा धृताचाहुतिभिरग्निः प्रदीप्तो भवति तथैवायमपि तपःसंयमतेजसा ज्वलन्-दीप्यमानोऽनगारो भविष्यतीति पूर्वेण सम्बन्ध , तस्य-पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टस्य खलु भगवतोऽनगारस्य अनुत्तरेण-सर्वोत्कृष्टेन ज्ञानेन, एवम्-अनेन प्रकारेण-अनुत्तरत्वविशिष्टेन दर्शनेन 'अनुत्तर' शब्दस्य चारित्रादौ प्रत्येकत्र सम्बन्धः, ततश्च अनुप्रकार ये भी तपसंयम आदिके संरक्षण में प्रमाद रहित होंगे। कुअर-हाथी के समान ये शूर होंगे, अर्थात्-ईप आदि रिपुपुञ्जो का भजन शील होगे। वृषभ की तरह ये जात स्थामा होंगे-उत्पन्न पराक्रमवाले होंगे, सिह की तरह दुर्घर्ष परीषहादिमृगो द्वारा दुर्धर्ष होंगे, पृथवि की तरह सर्व स्पर्श सह होंगे-पृथ्वी जिस प्रकार सर्वसहा एवं-असह्य स्पर्श को भी सहन करती है-उसी प्रकार से अनुकूल-प्रतिकूल परीषह एवं-उपसर्ग का ये सहन कर्ता होंगे । सुहुत हुताशन की तरह ये तेज से सदा जाज्वल्यमान रहेंगे। जिस प्रकार घृतादिक आहुति से अग्नि अधिकाधिक प्रज्वलित हो जाती है. उसी प्रकार ये भी तप-संयम के तेज से देदीप्यमान अनगार होंगे, इस प्रकार से इन पूर्वोक्त विशेपणां से विशिष्ट हुवे उन अनगार भगवान् दृढपतिज्ञ के सर्वोत्कृष्ट ज्ञानसे-सर्वोत्कृष्ट दशन से सर्वोत्कृष्ट चारित्र से-सर्वोत्कृष्ट
આ અપ્રમત્ત થઈને વિરણશીલ હોય છે. તેમ તેઓ પણ તપ સંયમ વગેરેનું રક્ષણ કરવામાં પ્રમાદ રહિત થશે, કુંજર-હાથી ની જેમ તેઓ શૂર હશે. એટલે કે કષાય વગેરે રિપુઓને નષ્ટ કરવામાં સમર્થ થશે. વૃષભની જેમ તેઓ જાતસ્થામા થશે. ઉત્પન પરાક્રમવાળા થશે. સિંહની જેમ દઈર્ષ-પરીષહાદિરૂપ મૃગ વડે દુર્ઘર્ષ હશે. વસુંધરાની જેમ સર્વસ્પર્શ સહ થશે, પૃથ્વી જેમ સર્વે સહા-અસહ્મ સ્પર્શને પણ સહન કરે છે તેમ અનુકૂલપ્રતિકૂલ પરીષહ અને ઉપસર્ગને તેઓ સહન કરતા થશે. સુહત હતાશનની જેમ તેઓ તેજથી સદા જાજ્વલ્યમાન રહેશે. જેમ ધૃત વગેરેની આતિથી અગ્નિ વધારે અને વધારે પ્રજવલિત થઈ જાય છે તેમ તેઓ પણ તપ સંયમના તેજથી દૌદીપ્યમાન અનગાર થશે. આ પ્રમાણે આ પૂર્વોકત વિશેષણથી વિશિષ્ટ થયેલા તે ભગવાન અનગાર દઢપ્રતિજ્ઞ સર્વોત્કૃષ્ટ જ્ઞાનથી, સર્વોત્કૃષ્ટ દશનથી, સર્વોત્કૃષ્ટ ચારિત્રથી સર્વોત્કૃષ્ટ
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राजप्रश्नीयसूत्रे त्तरेण चारित्रेण अनुत्तरेण आलयेन-सीपशुपण्डकादिरहितवसतिसेवनेन, अनुतरेण विहारेण-विचरणेन, अनुत्तरेण आजवेन-सारल्येन, अनुत्तरेण मार्दवेन-मृदुत्वेन, अनुत्तरेण-लाघवेन द्रव्यतोऽल्पोपकरणरूपेण, भावतः-कषायतनुत्वरूपेण, अनुत्तरया क्षान्त्या-क्षमागुणेन, अनुत्तरया गुप्त्या-मनोवाकायगुप्त्या अनुत्तरया मुक्त्वा निर्लोभतया, अनुत्तरेण सर्वसंयमसुचरिततपः फलनिर्वाणमार्गेण-सर्वसंयमस्य सर्वथा मनोवाकायानां निरोधस्य, तथा सुचरितस्य-आशंसादिदोषरहितस्य तपसो यत्फलं निर्वाणं-निर्वाणरूप फलं तस्य मार्गेण आत्मानं भावयमानस्य अनन्तम्-निररबसानम् अनुत्तरम्-सर्वोत्कृष्टं कृत्स्नं-सकलं, प्रतिपूर्ण-निश्शेपं, निरावरणम्-आवरणवर्जितम्, निर्व्याघातम्-अव्याहतम् केवलव ज्ञानदर्शनं-केवलं-सौंत्कृष्टत्वात् सहायवर्जितम् अतएव वरं-श्रेष्ठं यद् ज्ञानदर्शन तत्-केवलज्ञानं केवल दर्शनं च समु पत्स्यते । ततः खलु स भगवान् अर्हन जिनः केवली भविष्यति, तथा सोऽनगारः सदेवमनुजासुरस्य लोकस्य पर्यायं ज्ञास्यति, तद्यथा-आगति-देवलोका निखद्य स्थान से-पशु पण्डकादि वर्जित वसति के सेवन से-अनुत्तर विहार से अनुत्तर आर्जव से-सरलता से अनुत्तर अल्पोपकरणरूप द्रव्य से, एवं-कषाय तनूकरणरूप भाव से-अनुत्तरक्षमागुण से -अनुत्तरगुप्ति से अनुत्तर निर्लोभतारूप मुक्ति से अनुत्तर सर्वसंयम के-मन वचन काय केविरोध के तथा-सुचरित-आशंसादि दोष रहित तप के निर्वाणरूप फलके मार्ग से आत्मा को भावित करने से अनन्त निर्जरा से उभयलोक की भावना रहित मोक्षामार्ग से आत्मा को भावित करने से अनुत्तर, सर्वोत्कृष्ट, कृत्स्न-सकल, पतिपूर्ण, आचरण वर्जित, और-अव्याहत एसा सर्वोत्कृष्ट होने से सहायवर्जित, अतएव-श्रेष्ठ केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त करेंगे, तब-वे भगवान् अर्हन् जिन केवली हो जावेगे, तथा सदेव मनुजासुर लोककी पर्याय का ज्ञाता हो जावेंगे, तथा वे आगति को-देवलोकादि से मनुष्य गति આલાપથી, પશુપડકાદિ વર્જિત વસતિકાના સેવનથી, અનુત્તર વિહારથી, અનુત્તર આર્જવથી, સરલતાથી. અનુત્તર અપકરણરૂપ દ્રવ્યથી અને કષાય તનુકરણરૂપ ભાવથી અનુત્તર ક્ષમાગુણથી અનુત્તર ગુપ્તિથી અનુત્તર નિર્લોભતારૂપ મુકિતથી. અનુત્તર સર્વ સંયમથી. મન વચન કાયના વિરાધના તેમજ સુચરિત-આશંસાદિ દેષરહિત તેમના નિર્વાણરૂપ ફળના માર્ગથી આત્માને ભાવિત કરવાથી. અનંત નિરવસાન, અનુત્તર, સર્વોત્કૃષ્ટ, કૃત્ન સકલ. પ્રતિ પૂર્ણ. આવરણ વર્જિત અને અવ્યાહત એવા સંકષ્ટ હોવાથી સહાય વર્જિત એથી શ્રેષ્ઠ કેવળજ્ઞાન અને કેવળદર્શનને પ્રાપ્ત કરશે. ત્યારે તે ભગવાન અહંન જિન કેવલી જઈ જશે, તથા સદેવ મનુજાસુરલોકની
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सुबोधिनी टीका सू. १७४ सूर्याभदेवस्य आगामिभववर्णनम्
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दिभ्यो मनुजगताबागमनं, गर्ति - मनुष्यलोकाद् देवादिगतिषु गमनम् स्थितिदेवलोकादिष्ववस्थितिम् च्यवनं देवलोकादायुःक्षयेण पतनम, उपपातं - देवनारकयोर्जन्म. तर्क - विचारम् कृत विहितं मनोमानसिकम् - मनस्यैव व्यवस्थितं मानसिकं - मनोगतं विचारं, क्षयितं क्षयं प्राप्तं भुक्तं खादितं प्रतिसेवितंभोग्य वस्तुजातसेवनम्, आविष्कर्म - प्रत्यक्षे कृतम्, रहःकर्म - एकान्ते कृतम् । एवं स सदेवासुरमनुजस्य सर्वान् पयार्यान् ज्ञास्यतीति । अत एव सोऽनगारः अरहानास्ति रहः-अप्रत्यक्षं किमपि यस्य स तथा - सर्वज्ञः, तथा अरहस्यभागी - सा वद्याचरणवर्जितत्वेन न रहस्यम् - एकान्तं भजते यः स तथा = सुस्पष्टस कलाचारव सन् तस्मिंस्तस्मिन् काले मनोवाक्काययोगवर्तमानानां सर्वलोके स्थितानां सर्व जीवानां सर्वभावान् - समस्तान् भावान् जानन् पश्यंश्च विहरिष्यति - विहारं करिष्यतीति । ।। सू० १७४ ॥
में आगमन को गति को मनुष्य लोक से देवादिगतियों में गमन को, स्थिति को - देवलोकादिकां में अवस्थिति को च्यवन को देवलोक से आयुःक्षय के बाद चवन को, उपपात को - देवनारकों के जन्म को तर्क को- विचार को कृतकिये हुवे को, मनोमानसिक को, मन में व्यवस्थित विचारधारा को, क्षपित को क्षयप्राप्त को, भुक्त को - खादित को, प्रतिसेवित को - भोग्यवस्तु जात के सेवन को, आविष्कर्म को प्रत्यक्ष में किये हुवे को, रहःकर्म को - एकान्त में किये गये को - इस तरह से वे देव - मनुजाऽसुर सहित लोक की सब पर्यायों को जानें गे। अतएव - वे अनगार अरहाजिन की दृष्टि में अप्रत्यक्ष कुछ भी नहीं रहेगा. सर्वज्ञ अरहस्यभागी - सावद्याचरणवर्जित होने के कारण सुस्पष्ट सकलाचार के पालक बने हुवे, उस उस काल में मनोवाक्काय योग में वर्तमान इसलोक सम्बन्धी सर्वजनों के सर्व भावों को जानते हुवे और देखते हुवे विहार करेंगे। सू० १७४। પર્યાયના જ્ઞાતા થશે. ત્યારે તે આગતિને-દેવ લાકાદ્રિથી મનુષ્ય ગતિમાં આગમનને મનુષ્ય લેાકમાંથી દેવદ્ઘિ ગતિએમાં ગમનને. સ્થિતિને-દેવલાકાર્દિકામાં અવસ્થિતિને ચ્યવનને દેવલાકથી આયુક્ષપ પછી પતનને ઉપપાતને-દેવનારકાના જન્મને-તનેવિચારને. મૃત– કહેલાઓને. મનેામાનસિકને મનમાં વ્યવસ્થિત વિચારધારાને. क्षपितने-क्षय आसने, लुम्तने माहितने प्रतिसेवितने लोग्यवस्तु लतना સેવનને. આવિષ્કમ ને પ્રત્યક્ષમાં કરેલા કર્મોને રહક ને, એકાન્તમાં આચરેલાં કર્માને. આ પ્રમાણે તે દેવ મનુજ અસુર સહત લાકની સર્વ પર્યાા તે જાણશે તેથી તે અનગાર અરહાજીનની દૃષ્ટિમાં અપ્રત્યક્ષ એવુ કંઇ રહેશે નહિ તેમને સ–પ્રત્યક્ષ થઇ જશે. સર્વૈજ્ઞ અરહસ્યભાગી સાવદ્યાચરણ વર્જિત હાવાથી સુસ્પષ્ટ સકલાચારાના પાલક થયેલા કાળમાં મનાવાકકાય યાગમાં વર્તમાન ઇહલેાક સંબંધી સજનાના સભાવાને જાણતાં અને જોતાં વિહાર કરશે. ૫૧૭૪ા
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राजप्रश्नीयसूत्रे मूलम्-तए णं दढपइन्ने केवली एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणे वहई वासाई केवलिपरियायं पाउणित्ता अप्पणो आउसेसं आभोएत्ता बहूई भत्ताई पच्चक्खाइस्सइ, बहूई भत्ताई अणसणाए छेइस्सइ-जस्सट्टाए कीरइ णग्गभावे केसलोए बंभचेरवासे अण्हाणगं अदंतवणं अणुवहाणगं भूमिसेजाओ फलहसेजाओ परघरपवेसो लद्धावलद्धाइं माणावमाणाइं परेसिं हीलणाओ निंदणाओ खिसणाओ तजणाओ ताडणाओ गरहणाओ उच्चावया विरूवरूवा बावीसपरीसहा उवसग्गा गामकंटगा अहियासिज्जति तम आराहिस्सइ, चरिमेहि ऊसासनीसासेहि सिज्झहिइ, बुज्झिहिइ, मुच्चिहिइ परिनिव्वाहिइ सव्वदुक्खणमंतं करेहिइ । ॥ सू० १७५ ॥
छाया-ततः खलु दृढप्रतिज्ञः केवली एतपेण विहारेण विहरन् बहूनि वर्षाणि केवलिपर्याय पालयित्वा आत्मन आयुश्शेपम् आभुज्व बहूनि भक्तानि प्रत्याख्यास्यति बहूनि भक्तानि अनशनेन छेत्स्यति, यस्यार्थाय क्रियते नग्न
"तए णं दढपइण्णे केवली-' इत्यादि
मूलार्थ-"तए णं" इसके बाद-"दढपइन्ने केवली-" वे दृढप्रतिज्ञ केवली"एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणे-" इस प्रकार के विहार से विहार करते हुवे"बहूई वासाइ केवलिपरियायं-" अनेक वर्षों तक केवलीपर्याय को"पाउणित्ता-" पालकर के-"अप्पणो आउसेसं आभोएत्ता-" एवं अपने आयु के अन्त को जान करके–“बहूई भत्ताई पच्चक्खाइस्सइ-" अपने अनेक भक्तों का प्रत्याख्यान करेंगे-"बहूई भत्ताई अणसणाए छेइस्सइज्ञ-" अनेक भक्तो
"तए णं दढपइण्णे केवली" इत्यादि।
भूदार्थ--"तएणं" त्या२ ५४ी “दढपइन्ने केवली” से ६४प्रतिज्ञ डेवली "एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणे" मा प्रमाणे विडार ४२di "बहई वासाइ केवलि परियायं" धए। वर्षी सुधी ठेवली पर्यायनु “पाउणित्ता" पासन ४२शे. "अप्पणो आउसेसं आभोएता" मन पाताना सायुज्यना मत समयने oीने "बहुइ भत्ताई पच्चक्खाइस्सई" पोताना ! तानु प्रत्याभ्यान४२शे बहुइ भत्ताई अण
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सुबोधिनी टीका सू. १७५ सूर्याभदेवस्य आगामिभववर्णनम् भावः केशलोचो ब्रह्मचर्यवासः अस्नान कम् अदन्त र्णः अनुपानत्कम् भूमिशय्याः फलकशय्याः परगृहप्रवेशः लब्धापलब्धानि मानापमानाः परेषोंहीलनाः निन्दनाः खिंसनाः तजनाः ताडनाः गर्हणाः उच्चावचाः विरूपरूपाः द्वाविंशतिः परीषहा उपसर्गाः ग्रामकण्टकाः अधिसह्यन्ते, तमर्थम् आराधयिष्यति, चरमैरुच्छासनिः श्वासैः सेत्स्यत्ति भोत्स्यते मोक्ष्यते परिनिर्वास्यति सर्वदुःखानामन्तं करिप्यति।सू.१७५। का अनशन द्वारा छेदन करेंगे-अर्थात् संथारा करेंगे “जस्सहाए कीरइ, णग्गभावे केसलोए वंभचेरवासे-" इस प्रकार भक्तो का प्रत्याख्यान करके, और-अनशन द्वारा उनका छेदन करके वे दृढप्रतिज्ञ केवली जिस अर्थ को सिद्ध करने के लिये साधुजनों द्वारा नग्नभाव-अचेलत्व-परिमित-वस्त्रधारणत्व-केशलुम्चन ब्रह्मचर्यवास-" "अण्हाणगं, अदंतवणं-अणुवहाणगं, भूमिसेज्जांओ, फलहसेज्जाओ, परघरपवेसो, लद्धावलद्धाई, माणावमाणाई" स्नान नहीं करना-दन्तधावन करने का त्याग करना-पग में पगरखां मोझा आदि को नहीं पहनना-भूमिपर शयन करना-प्रस गवश पाट पर सोना-मिक्षादिके निमित्त पर घर में प्रवेश करना-लाभाऽलाभ-मानाऽपमान-"परेसिंहीलणाओ -निंदणाओ-खिसणाओ-तज्जणाओ- ताडणाओ-गरहणाओ-उच्चावया-- विरुवस्वा-" दूसगेंद्वाराकृत हीलना-निन्दना-खिंसना तर्जना-ताडना-गर्हणा-अनुकूल प्रतिकूल नाना प्रकार के -"बाबीसपरीसहा उवसग्गा गामकंटगा अहिया सिज्जंति-" वाइस परीषह, तथा-उपसर्ग एवं-इन्द्रियों के प्रतिकूल कंटक के समान शब्दादिक सहन किये जाते हैं-" तम आराहिस्सइ, चरमेहिं ऊसासनीसासेहि सणाए छेइस्सइ" घji तानु मनशन 43 छैन ४२७. "जस्सद्वाए कीरइ णग्गभावे केसलोए, वेयचेरवासे” मा प्रमाणे मतानु प्रत्याभ्यान प्रशने भने અનશન દ્વારા તેમનું છેદન કરીને તે દહપ્રતિજ્ઞ કેવલી જે અર્થની સિદ્ધિ માટે સાધુજને વડે નગ્નભાવ અચેલત્વ પરિમિત વસ્ત્ર ધારવ, કેશલુંચન, બ્રહ્મચર્યવાસ, "अण्हाणगं अदंतवणं अणुवहाणगं, भूमिसैज्जाओ फलहसज्जाओ, परघरपवेतो. लद्धावलद्धाई, माणावमाणाई-" स्नान २डित् २३, इन्तधावनना त्या ४२वो, પગરખા પહેરવા નહિ, ભૂમિપર શયન કરવું ફલક પર સુવું ભિક્ષદિ માટે પર घi valm Ree, भान २५मान-"परेसिं हीलणाओ निंदणाओ खिसणाओ तज्जणाओ ताडणाओ गरहणाओ उच्चावया विरूवरूवा" भीonो ५ ४२।येस डालना-
निना, मिसना, तना, ताना. 5. मनुख प्रति भने ondनी "बावीसपरीसहा उबसग्गा गामकंटगा अहियासिज्जंति" मावीश परीपातमा उपस मनेन्द्रियाना प्रतिस २७६ वगेरे सडन ४२वामी मा छ, 'तम आराहिस्सइ, चरमेहि, ऊसासनीसासेहिं सिज्झिहिइ, बुझिहिइ, मुच्चिहिइ,
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राजप्रनीयसूत्रे टीका - "तए णं" इत्यादि - ततः खलु दृढप्रतिज्ञः केवली एतद्रूपेणपूर्वोक्तविधेन विहारेण विहरन् -- विचरन् बहूनि वर्षाणि केवलिपर्यायं पालयित्वा आमनः - स्वस्थ, आयुश्शेषम् - आयुषोर वसानम् आभुज्य - परिज्ञाय बहूनि भक्तानि प्रत्याख्यास्यति, ततो बहूनि भक्तानि अनशनेन छेत्स्यति । इत्थं भक्तानि प्रत्याख्याय अनशनेन छित्त्वा च स दृढप्रतिज्ञः केवली, यस्यार्थाय यन्मोक्षनिमित्तं क्रियते साधुमिः - नग्नभावः - अचेलत्वं - परिमितवस्त्रधारित्वं केशलोच:स्वपरहस्तेन केशोत्पाटनं, ब्रह्मचर्य वासः - ब्रह्मचर्यधारित्वम्, अस्नानकम् - स्नानाभावः अदन्तवर्ण:- दन्तोज्ज्वलीकरणाभावः, अनुपानत्कम् - उपानत्परिधानाभावः, सिज्ज्ञिहि, बुज्झिहि, मुच्चिहिर, परिनिव्वाहिर, सव्वदुक्खाणमंतं करेहिइ-" उसमोक्षरूपी अर्थ की आराधना करेंगे. और - आराधना कर के अन्तिमश्वासोच्छ्वास से सिद्ध हो जायेंगे, बुद्ध हो जा वेंगे, मुक्त हो जायेंगे, परिनिर्वात शिथिलीभूत हो जावेंगे, एवं समस्त दुःखों का अन्त करेंगे ।
टीकार्थ - इस प्रकार के विहार से विचरते हुवे वे दृढप्रतिज्ञ केवली अनेक वर्षो तक केवली पर्याय में विराजमान रहेंगे । जब उनके आयुकर्मका पूर्णरूप से अन्त होने का समय आ जावेगा, तब वे इस बात को जानकर अनेक भक्तों का प्रत्याख्यान करदेंगे, अनशन द्वारा अनेक भक्तों का छेदन करदेगे । इस प्रकार भक्त प्रत्याख्यान करके एवं अनशन द्वारा उसका छेदन करके, वे दृढप्रतिज्ञ केवली जिसके लिये साधुजन नग्नभाव धारण करते हैं । अर्थात् - परिमित वस्त्रों को रखते हैं - अपने हाथों से केशों का लुम्चन करते हैं पूर्णरूप से ब्रह्मचर्यावस्था में रहते हैं. मनवचनकाय से स्नान करने का परित्याग करते हैं - दन्तधावन का सर्वथा परिहार करते हैं, पगरखे- मोजा का पहिरना परिनिव्वाहि सव्वदुक्खाणमंतं करेहिइ" ते अर्थनी आराधना अरीने अतिभ શ્વાસેાચ્છવાસથી સિદ્ધ થઈ જશે. યુદ્ધ થઇ જશે. મુકત થઇ જશે. પરિનિર્વાંતાશથલીભૂત થઈ જશે. અને સમસ્તદુઃખાનો અંત કરશે.
ટીકા”—આ પ્રમાણે વિહરતા ઢપ્રતિજ્ઞ કેલી ઘણાં વર્ષો સુધી કેવલી પર્યાવમાં વિરાજમાન રહેશે. જ્યારે તેમના આયુષ્યની સમાપ્તિના-સમય આવશે ત્યારે તેએ આ વાત જાણીને અનેક ભકતાનુ પ્રત્યાખ્યાન કરશે. અનશન વડે ઘણા ભકતાનુ છેદન કરશે. આ પ્રમાણે ભકતપ્રત્યાખ્યાન કરીને અને અનશન વડે તેમનું છેદન કરીને તે દૃઢપ્રતિજ્ઞ કેવલી જેના માટે સાધુજન નગ્નભાવ ધારણ કરે છે એટલે કે પરિમિત વસ્ત્રો રાખે છે, પેાતાના હાથા વડે કેશલુંચન કરે છે. પૂર્ણરૂપથી બ્રહ્મચર્યાવસ્થામાં રહે છે. મન, વચન. કાયથી સ્નાન કરવાના પરીત્યાગ કરે છે. દંતધાવનના સર્વ થા
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सुबोधिनी टीका सू. १७५ सूर्याभदेवस्य आगामिभववर्णनम्
४४५ उपलक्षणात् शकटाश्वादि वाहनराहित्यम्, भूमिशय्याः-भूमौ शयनानि, फलकशय्याःफलकेषु शयनानि, आहाराद्यर्थ परगृहप्रवेशश्च । 'भूमिशय्या:-फलकशय्याः' इति पदद्वये 'क्रियते' इति बहुत्वेन विपरिणमय्य समन्वेतव्यमिति । तथा-तैः साधुभिः लब्धापलब्धानि-लाभालाभाः, मानापमानाः-सम्मानतिरस्काराः, तया-परेषाम्-अन्ये पाम् परकृता इत्यर्थः, हीलनाः-मर्मोद्घाटनानि, निन्दनाः-निन्दाः-जुगुप्साभाषणरूपाः, खिसनाः-धिक त्वां मुण्ड !' इत्यादिरूपाः, तर्जनाः- अलि-प्रदर्शनपूर्वकं 'ज्ञारयसि रे जाल्म !' इत्यादिक्वचनरूपाः, गहणाः-'चौरोऽयं लम्पटोऽयम्' इत्यादिवचनरूपाः-तथा-उच्चावचा -अनुकूलप्रतिकूलाः, विरूपरूपाः-नाना प्रकाराः, द्वाविंशतिः-द्वाविंशतिसंख्यकाः परीषहाः-क्षुधादिरूपाः, उपसर्गाःछोड देते हैं । उपलक्षण से गाडी की सवारी करना, घोडे आदि वाहन पर बैठना आदि-आदि को छोड़ देते हैं, भूमि पर शयन करते हैं, अथवा काठ के पहियो-तकथा आदिपर शयन करते हैं, आहार आदि प्रयोजन से परघर प्रवेश करते हैं, लाभाऽलाभ में जो समान भाव रखते हैं, मानाऽपमान की जो थोडी सी भी अपेक्षा नहीं रखते हैं। तथा दूसरों द्वारा कृत हीलनाओं को-मौद्धाटन वचनों को-निन्दाओं को जुगुप्सा भाषणरूप वचनों को-खिसनाओं को-'हे मुण्ड-? तुझे धिक्कार" इत्यादिरूप वचनो को तजनाओं को, अर्जुली प्रदर्शनपूर्वक "हे जाल्म ? तुझे खबर पडेगी-" इत्यादि रूप वचनों को-गर्हणाओं को, "यह चोर है, यह-लम्पट है-" इत्यादिरूप वचनों को तथा-अनुकूल प्रतिकूल नाना प्रकार के क्षुधादिरूप २२ बाईस-परीषहों को, तथा देवादिकृत उपसर्गों को, एवं ग्रामकण्टकों को-ग्रामों को-इन्द्रिय समूह
ત્યાગ કરે છે. પગરખા મોજા પહેરતા નથી. ઉપલક્ષણથી ગાડીની સવારી કરવી. ઘોડા વગેરે વાહન પર બેસવું વગેરેને ત્યજી દે છે. ભૂમિ પર શયન કરે છે. લાકડાના પાટિયા વગેરે પર સૂવે છે. આહાર આદિ પ્રજનને લીધે જ પરઘરમાં પ્રવેશ કરે છે. લાભ અલાભમાં. સમાનભાવ રાખે છે. માન અપમાનની જે લગીરે દરકાર રાખતા નથી. તેમજ બીજાઓ દ્વારા કરાયેલ હીલનાઓને. મર્મોદ્દઘાટક વચનેને. નિંદાઓને જુગુપ્સા ભાષણરૂપ વચનને ખિંસનાઓને હે મુણ્ડ તને ધિકકાર છે !” વગેરે રૂપ વચનેને. તર્જનાઓને અંગુલી પ્રશનપૂર્વક હે જાહ્મ! પછી તને ખબર ખબર પડશે” વગેરે રૂ૫ વચનને. ગીંણાઓને. આ ચાર છે. આ લંપટ છે” ઈત્યાદિરૂ૫ વચનને તેમજ અનુકૂલ પ્રતિકલનાના પ્રકારની સુધાદિરૂપ ર૨ પ્રકારના પરિ. બહેને તથા દેવાદિકૃત ઉપદ્રવને અને ગ્રામકંટકને. ગ્રામને ઈન્દ્રિયસમૂહને દુઃખોત્પાદક
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राजप्रश्नीयसूत्रे देवादिकृतोपद्वाः , ग्रामकण्टका:-ग्रामः इन्द्रियसमूहस्तस्य कण्टका इव कण्टका:इन्द्रियप्रतिकूलशब्दादयः, दुःखोत्पादकत्वान्मुक्तिमार्गे विघ्नहेतुत्वादेषां कण्टकत्वम् क्षुद्रजनरूक्षाऽऽलापा वा यस्य कुते अधिसहन्ते, तं-मोक्षरूपम् अर्थम् आराधयिष्यति, आराध्य चरमै अन्तिमैः उच्छासनिश्वासैः सेत्स्यति,सवलकार्यकारितया सिद्धों भविष्यति, भोत्स्यते-विमलकेवलाऽऽलोकेन सकललोकालोकं ज्ञास्यति. मोक्ष्यते-पर्वकर्मभ्यो मुक्तो भविष्यति-परिनिर्वास्यति समस्तकर्मकृतविकाररहितत्वेन स्वस्थो भविष्यति. सर्वदुःखानां-शरीरमनःसम्बन्धिसमस्तक्लेशानाम् अन्तं नाश करिष्यति-अव्यापाधसुखभाग् भविष्यतीत्यर्थः । ॥मू० १७५॥
शास्त्रमुपसंहान् प्राह
मूलम--सेवं भंते ! सेवं भंते ! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता संजमेणं तपसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । ॥सू० १७६॥
__ छाया-तदेव भदन्त ! तदेवं भदना ! इति भगवान् गौतमः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा संयमेन तपसा आत्मानं भावयमानो विहरति ॥मू० १७६॥ को- दुःखात्पादक होने से एवं-मुक्तिमार्ग में विन के हेतुभूत होने से कष्टकरूप प्रतिकुल शब्दादिकों को, अथवा-क्षुद्रजपों के रूक्षालापों को, जिसके निमित्त सहते हैं उस मोक्षरूप अर्थ की आराधना करके फिर वे अन्तिम श्वासोच्छास से सकल कार्य को कर चुकने से-कृतकृत्य हो जाने से सिद्ध हो जावे गे, विमल केवल ज्ञानालाक से सकल लोकालोक का ज्ञाता बन जावेंगे, समस्त कर्मों से छूट जावेंगे, स्वस्थ हो जायेंगे, और-शरीरसम्बधी एवं-मन सम्बन्धी समरत क्लेशों का नाश करेंगे, अर्थात्-अव्याबाधसुख का मोक्ता बनेगे. ॥ सू० १७५ ॥ હેવાથી અને મુકિતમાર્ગમાં વિદ્ધના હેતુભૂત હોવાથી અને કંટકરૂપ પ્રતિકૂલ શબ્દાદિકને અથવા ક્ષુદ્રજનના રૂક્ષ આલાપોને જેના માટે સહન કરે છે તે મોક્ષરૂપ અર્થની આરાધના કરશે. આરાધના કરીને પછી તેઓ અંતિમ શ્વાસોચ્છવાસથી સકલ કાને કરી લેવાથી કૃતકૃત્ય થઈ જવાથી સિદ્ધ થઈ જશે, વિમલ કેવલજ્ઞાનાલાકથી સકલ કાલેકના જ્ઞાતા થઈ જશે સમસ્ત કર્મોથી મુક્ત થઈ જશે. સ્વસ્થ થઈ જશે અને શરીર સંબંધી અને મનસંબંધી સસૃસ્ત કલેશને નાશ કરશે. એટલે કે તેઓ અવ્યાબાધ સુખ જોકતા થઈ જશે. સૂ૦ ૧૭પ
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सुबोधिनी टीका सू. १७५ सूर्याभदेवस्य आगामिभववर्णनम्
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टीका - "सेव भूते" इत्यादि - हे भदन्त । यद् भवद्भिरुक्तं तत् एवम्इत्थम्, वास्तविकमिति यावत्, तदेवं भदन्त ? इति विप्सा भगवद्वचने श्रद्धातिशय प्रकटयति, इति - अनेन प्रकारेण उक्त्वा भगवान् गौतमः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा संयमेन तपसा आत्मानं भावयमातो विहरतीति ।। सू० १७६॥
श्री
॥ १ ॥
अर्थ राजप्रश्नीयसूत्र य प्रशस्तिः गुर्जराभिधदेशेऽस्मिन् पुरं वीरमगामकम् । आरण-श्रावक श्रेणिसौधमण्डित वीथिकम् ग्रामाद् ग्रामान्तरं पङ्किः साधुभिर्विहरन्निह । निर्वोढुं सांगमीं यात्रां परुद्वैशाख आगमम् ॥ २ ॥ 'सेवं भंते - ? सेवं भंते - ?" भगवं योग मे - " इत्यादि
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मूलार्थ - 'सेव भंते ? सेव भंते ? ' हे वह वैसा ही है, अर्थात् — आपने जो अपनी है वह वास्तविक ही है सर्वथा सत्य ही है । इस प्रकार कहकर - "भगव गोयमे - " भगवान् गौतमने “समणं भगव वदइ नमसइ - " श्रमण भगवान् को वन्दना की गुणस्तुति की, और उन्हें नमस्कार किया - " वंदित्ता नर्मसित्ता संजमेण तपसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ - " वन्दना नमस्कार कर फिर - वे संयम से और — तप से आत्मा को भावित करते हुवे अपने स्थान पर विराजमान हो गये । टीकार्थ - स्पष्ट है - " से व भते ? सेव भते ?" ऐसा जो दो बार कहा गया है वह भगवद्वचन में श्रद्धातिशय प्रगट करने के लिये कहा गया है. । सू० १७६
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भदन्त ? जैसा आपने कहा है दिव्यध्वनि द्वारा प्रकट किया
"सेवं भंते ? सेवं भंते ? भगवं गोयमे इत्यादि ।
भूसार्थ - “ सेवं भंते ! सेवं भंते !" हे लहंत ! के प्रमाणे आपश्री છે તે તેમજ છે એટલે કે આપશ્રીએ પેાતાની દિવ્યધ્વનિદ્વારા જે કઈ કહ્યું છે તે वास्तविकु छे. सर्वथा सत्य छेमा प्रमाणे उडीने "भगव' गोयमे" लगवान गौतमे समणं भगवं वदइ नमसइ" श्रमण लगवानने वहना री; गुए। स्तुति डरी अने तेमने नमस्र अर्ध्या “वंदिता नमसित्ता संजमेणं तपसा अप्पाणं भावेमाणे विहरह" વંદના તેમજ નમસ્કાર કરીને તેઓ સંયમ અને તપશ્રી આત્માને ભાવિત કરતાં પેાતાના સ્થાને બિરાજમાન થઈ ગયા.
टीडअर्थ स्पष्ट छे. "सेव' भंते ! सेवं भंते !" आम ४ मे वयत अहेवामां આવ્યું છે તે ભગવદ્ વચનમાં અતિ શ્રદ્ધા પ્રગટ કરવા માટે છે. ૫ ૧૭૬ ॥
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राजप्रश्नीयसूत्रे पुरे वी मगामेऽस्मिन् सङ्घमार्थ नया व्यधाम् । राजप्रश्नीयसूत्रस्य टीकामेतां सुबोधिनीमू ॥ ३ ॥ वैशाखस्य सिते पक्षे तृतीयायां गुरोदिने । त्रयोदशाधिके वर्षे द्विसहस्र च वैक्रमे ॥ ४ ॥ अत्रत्यः सदयो मिलत्समुदयः श्री जैनसतो मिथःप्रेमाऽभक्तहृदः सदा निजकृतौ धौ च बद्धाऽऽदरः ॥ शुद्धस्थानकवासिधर्ममहिमप्रोद्भावकः श्रावकाऽऽचारैः ख्यातिमुपागतो विजयते सम्यक्त्वसंशोभितः ॥५॥
“प्रशस्ति का अर्थ " गुजरात प्रान्त में वीरमगाम नामका शहर है, यहां के माग दूकानों एवं श्रावकजनों के सुन्दर-सुन्दर घरों से युक्त हैं। एक गाम से दूसरे गाम में विहार करते हुवे छह मुनियों के साथ-यहां संयम यात्रा का निर्वाह करने के लिये गतवर्ष के वैशाख मास में अर्थात वि.संवत २०१२ के वैशाखमें आये । यहां के श्रीसंघ की यहीं पर विराजने की विनन्ती से यहां मैंने राजप्रश्नीय सूत्र की इस सुबोधिनी टीका को सम्पूर्ण किया. । यह समय वैशाख शुक्ला अक्षय तृतीया गुरुवार विक्रम संवत् २०१३ का था. । यहां का जैन श्रीसंघ शुद्ध स्थानकवासी धर्म में तत्पर है, धर्म के प्रति इसके हृदय से बहुत अधिक आदरभाव है, औरयह श्री संध प्रेमालु है, तथा शुद्ध स्थानकवासी धर्म का दिपाने वाला है. हृदय में इसके अति अधिक दयाभाव बना रहता है। श्रावक सम्बन्धी आचार विचार से यह प्रसिद्धि को प्राप्त कर लिया है, जैनधर्म के प्रति अधिक
प्रशस्तिनी अथ:ગુજરાત પ્રાંતમાં વિરમગામ નામક એક નગર છે આ નગરની શેરીઓ અને દુકાનો શ્રાવકજનેના ભવ્ય મકાનેથી યુક્ત છે એક ગામથી બીજે ગામ વિહાર કરતાં કરતાં છે મુનિઓની સાથે વૈશાખ માસમાં અહીં સંયમયાત્રાના નિર્વાહ માટે આવ્યા અહીંના “શ્રીસંઘે આપશ્રીને અહીંજ બિરાજવાની વિનંતી કરી કે તે સમયમાં જ મેં ત્યાં રહીને રજપ્રશ્નીય સૂત્રની આ સુબોધિની ટીકા સ પૂર્ણ કરી આ સમય વૈશાખ શુકલ અક્ષય તૃતીયા ત્રિક્રમ સંવત ૨૦૧૩ ગુરૂવારને હવે અહીંને જૈન શ્રીસંઘ શુદ્ધ સ્થાનકવાસી છે, ધર્મ પ્રત્યે એના હદયમાં ખૂબજ આદરભાવ છે આ શ્રી સંઘ” પ્રેમાળ છે તેમજ શુદ્ધ સ્થાનકવાસી ધર્મને દીપાવનાર છે એના હદય માં અત્યધિક દયાભાવ નિવાસ કરે છે શ્રાવક સંબધી આચારવિચારથી એ જગતમાં પ્રસિદ્ધ છે જૈન ધર્મ પ્રત્યે અધિકાધિક અનુરાગી હોવા બદલ સમ્યકાવથી સુશોભિત
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________________ सुबोधिनी टीका सू. 175 सूर्याभदेवस्य आगामिभववर्णनम् 449 देवाधिदेवे भुवनकनाथे तीर्थकरे तत्कथिते च धर्म / श्रद्धां दधानं प्रतिवेश्म भाति सुश्राविकाश्रावकवृन्दमत्र // 6 // आचारपूताः समदृष्टिभूता जैनागमाऽऽचार निदर्श रूपाः // अस्मिन् पुरे सन्ति मृदुस्वाभावा जैनाः समस्ता गुरुभक्तिभाजः॥७॥ इतिश्री विश्वविख्यात-जगदल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थ-निर्मापक-वादिमानमर्दक श्री शाहू छत्रपति-कोल्हापुरराजपदत्त 'जैनशास्त्राचार्य' पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु - बालब्रह्मचारि - जैनशास्त्राचार्य-जैनधर्म दिवाकर-पूज्यश्रीघासीलालव्रतिविरचितायां सुबोधिन्याख्यायां व्याख्यायां "राजप्रश्नीयसूत्रम्" सम्पूर्णम् अनुरागी होने के कारण यह सम्यक्तत्व से सुशोभित है. / भुवनैकनाथ देवाधिदेव तीर्थंकर के ऊपर, एवं-तीर्थङ्कर प्रतिपादित धर्म के ऊपर श्रद्धाशील श्रावकएवं-श्राविकाएं हरएक घर में यहां हैं। इन सवों का आचार-विचार जनमर्यादा के अनुरूप है दूसरों के लिये ये-इस विषय में सर्वथा अनुकरनीय हैं। इनका स्वभाव मृदु है. यहां के श्रावको काचित्त गुरु की धर्मभक्ति में सदा प्रेमयुक्त बना रहता है, इन्ही सब कारणों से ये समदृष्टि हैं। श्री जैनाचार्य-जैनधर्म दिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराजकृत राजप्रश्नीयसूत्र की 'सुबोधिनी' व्याख्या समाप्त // // राजप्रश्नीयसूत्र समाप्त // છે ભુવનેકનાથ-દવાધિદેવ તીર્થકર પર અને તીર્થંકર પ્રતિપાદિત ઘર્મ પર શ્રદ્ધાશીલ શ્રાવક અને શ્રાવિકાઓ અહીં દરેકેદરેક ઘરમાં નિવાસ કરે છે આ સર્વનાં આચારવિચારે જૈન મર્યાદાનરૂપ છે બીજાઓના માટે એઓ આ બાબતમાં સંપૂર્ણપણે અનુકરણીય છે એમને સ્વભાવ મૃદુ છે અહીંના શ્રાવકેનું ચિત્ત ગુરૂની ઘર્મભકિતમાં સદા પ્રેમયુકત બની રહે છે આ બધા કારણથી એ બઘા સમદૃષ્ટિ છે " શ્રી જૈનાચાર્ય–જૈનધર્મદિવાકર-પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત રાજપ્રશ્નીયસૂત્રની સુબોધિની વ્યાખ્યા સમાપ્ત परुद्वैशाखो इति गतवर्षवैशाखे इत्यर्थः શ્રી રાજપ્રશ્રીય સૂત્ર: 02