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________________ सुबोधिनी टीका. सू. १४६ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्ण' नम् २८३ विस्मयोऽत्र यत् मया मन्दभाग्येन तेषां पुरुषाणामशन - भोजनं नो साधितम् इति कृत्वा - इति विचिन्त्य अवहतमनः संकल्पः - नष्टमनोऽभिलाषः, चिन्ताशोकसागरसंप्रविष्टः -- चिन्ताशोकसमुद्रनिमग्नः, करतलपर्यस्तमुख:कातलनिहित कपोलः, मुख शब्दस्य मुवावयवकपोलपरत्वात्, आर्तध्यानोपगतः - आतध्यानयुक्तः, भूमिगतदृष्टिकः - पृथिवीतल निरीक्षणतत्परः - अधोमुखः, ध्यायति-चिन्तां करोति तत इतश्व ते अटवीमनुप्रविष्टाः पुरुषाः काष्ठानि छिन्दन्ति, छित्वा यत्रैव सः अशननिष्पादनार्थी पुरुषः तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागत्य तं पुरुषम् अपहतमनः संकल्प यावत् - यावत्पदेन “चिन्ताशोकसागरसं प्रविष्ट करतलपर्यस्तसुखम्, आर्तध्यानोपमत, भूमि गतदृष्टिकम्" इत्येषां पदानां सङ्ग्रहो बोध्यः, ध्यायन्त - चिन्तां कुर्वन्त टीकार्थ स्पष्ट है - इस सूत्र का भावार्थ ऐसा है कि जिस प्रकार प्रथम पुरुष को काठ में अग्नि के दर्शन नहीं हुए और द्वितीय पुरुष को हो गये. उसी प्रकार तुम्हें भी उस चोर पुरुष के शरीर में छिन्नभिन्न करने पर भी उसको जीव के दर्शन नहीं हो सके एतावता यह कैसा कहा जा सकता है कि जीव दिखाई नहीं देने से जीव नाम का कोई स्वतंत्र पदार्थ नहीं है. इसलिये जीव और शरीर एक हैं ऐसी तुम अपनी मान्यता का परित्याग कर यह मानो कि जीव भिन्न है और शरीर भिन्न है. ये दोनों एक नहीं हैं। यहां मूत्र में जो ' करतलपर्यस्तमुखः' ऐसा पद आया है - उनमें मुखशब्द मुख के अवयवभूत कपोल अर्थ में आया है 'अपहतमनःसंकल्प जाव' में जो यह यावत् पद आया है उससे 'चिन्ताशोकसागरसंप्रविष्टः करतल पर्यस्तमु वः, आर्त्तध्यानोवगतः, एवं भूमिगतदृष्टिकः' " १ ટીકા આ સૂત્રનો સ્પષ્ટ જ છે. આ સૂત્રનો ભાવા આ પ્રમાણે છે કે જેમ પહેલા માણસને કાષ્ઠમાં અગ્નિના દૃન થયા નથી અને બીજા માણસને થયા તેમજ તે ચાર પુરૂષના શરીરના ક કકડા કરવા છતાંએ તેના જીવના દન તમને થયા નથી. એનાથી આ કેવી રીતે કહી શકાય કે જીવ દેખાતા નથી. તેથી જીવ નામના કાઇ સ્વતંત્ર પદાર્થ જ નથી. એથી જીવ અને શરીર એક જ છે. એવી તમારી જે માન્યતા છે તેને તમે છોડી દે અને આ વાત સ્વીકારી લેાકે જીવ लिन्न छे भने शरीर भिन्न छे मेयो भन्ने ये नथी. यहीं सूत्रमां ने करतल पर्यस्तमुखः' या लतनुं यह छे तेमां भुख शह भुमना अवयवभूत प्रयोस अर्थभां आवे छे “अपहतमनः संकल्प जाव" भां ने यावत् यह मावेस छे, तेथी 'चिन्ताशोकसागरसंप्रविष्टः करतलपर्यस्तमुखः आतध्यानोपगतः एवं શ્રી રાજપ્રશ્નીય સૂત્ર : ૦૨
SR No.006342
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages489
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_rajprashniya
File Size27 MB
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