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________________ सुबोधिनी टीका सू. १४६ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् २७९ गृह्णाति गृहीत्वा शर कराति शरेण अरणि मथ्नाति ज्योतिः पातयतिः ज्योतिः संधुक्षते तेषां पुरुषाणामशन साधयति. ततः खलु ते पुरुषाः स्नाता: कृतबलिकर्माणः यावत् प्रायश्चित्ताः यत्रैव स पुरुषः तत्र व उपागच्छन्ति, ततः खलु स पुरुषः तेषां पुरुषाणां सुखासनवरगतानां तद् विपुलमशन पान खादिम रूप कार्य से निश्चिन्त हो जाइये, यावत कौतुक मंगलरूप प्रायश्चित्त कर लीजिये और फिर जल्दी आजाइये तबतक मैं आपलोगों के लिये भोजन तैयार करता हूं । ऐसा कहकर उसने अपनी कमर कसी आर (फरसु गिण्हइ) कुल्हाडी को उठाया (सर करेइ, सरेण अरणिं महेइ) उससे पहिले उसने लडकी को इतना छोला कि जिससे वह बाण के जैसी शलाई के रूप में हो गई. फिर उससे उसने अरणिकाष्ठ का मंथन किया (जोई पाडेई) मथन करने से अग्नि उसमें प्रकट हो गई (जोइं संधुक्खेः ) प्रकट हुइ उस अग्नि को उसने पवन वगैरह आदि साधनों से विशेष चैतन्य किया. अर्थात् धोंका (तेसि पुरिसाण असण साहेइ) अग्नि के तैयार हो जाने पर फिर उसने उन सब पुरुषों का भोजन बना दिया (तएण ते पुरिसा हाया कयबलिकम्मा जाव पायच्छित्ता जेणेव से पुरिसे तेणेव उवागच्छइ) इतने में वे पुरुष स्नान करके, बलिकर्म-काकआदि को अन्नादि का भाग दे करके यावत्-कौतुक मंगलरूप प्रायश्चित्त करके उस स्थान पर आये. કૌતુક મંગળરૂપ પ્રાયશ્ચિત્ત કરી લે. અને પછી જલદી અહીં ઉપસ્થિત થઈ જાવ, આટલામાં હું તમારા માટે ભેજન તૈયાર કરૂં છું. આમ કહીને તેણે પોતાની કેડ मांधी भने (फरसु गिह इ) ४ी हाथमा सीधी. (सरं करेइ सरेण अरणि महेइ) तेरे सौ पडलi anाने मेवी शत छादयुथी ते मा की शा थयु पछी तेनाथी तेरे A२६ टर्नु भयन यु (जोइ पाडेइ) मंथन ४२वाथी तमाथी भनि ४८ थ६ गयी. (जोइ संधुक्खेइ) ५४८ थयेस ते भनिने ५वन २ साधनाथी तेने विशेष प्रruled या. (तेसिं पुरिसाण' असणं साहेइ) मनि न्यारे प्रचलित थ६ गयो त्या३ तेणे ते अधा सी भाटे सोन तैया२ ४यु (त एण ते पुरिसा हाया कयवलिकम्मा जाव पायच्छित्ता जेणेव से पुरिसे तेणेव उवागच्छइ) मादाम ते मधा भासे २नान सेन, मलिभકાગડા વગેરેને અન્ન વગેરેનો ભાગ આપીને વાવત કૌતુક મંગળરૂપ પ્રાયશ્ચિત્ત કરીને त यामे भावी आया. यो त ५३५ हतो. तए णं से पुरिसे तेसिं पुरिसाणं सुहासणवरगयाणं तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइम उवणेइ तएणं ते पुरिसा શ્રી રાજપ્રશ્રીય સૂત્રઃ ૦૨
SR No.006342
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages489
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_rajprashniya
File Size27 MB
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