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________________ सुबोधिनी टीका सू. १३१ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजोवप्रदेशिराजवर्णनम १८५ कान्तः पियः मनोज्ञः मनाऽमः स्थैर्यः वैश्वासिकः संमतः बहुमतः अनुमतः रत्नकरण्डकसमानः जीवितोत्सविकः हृदयानन्दिजननः, उदुम्बरपुष्यमिव दुर्लभः श्रवणतया किमङ्ग पुनः दर्शनतया ? तद् यदि खलु स आर्यकः मम आगत्य वदेत्-एवं खलु नप्तृक ! अहं तव आर्यकोऽभवम, इहैव श्वेतविकायां नगर्याम् अधार्मिको यावत् नो सम्यक् करभरवृत्ति प्रावर्तयम्, ततः खलु ण अजगरस अहं गतुए होत्था, इछ क ते पिए मणुष्णे मणामे, थेज्जे वेसासिए संमए बहुमए रयणकरंडगसमाणे जीविउस्सविए) उन अर्यक का मैं पौत्र हूं मैं उन्हें अभिलषित था. कान्त था, पिय था, मनोज्ञ था मनोगम्य था, स्थैर्य रूप था, विश्वासपात्र था, सन्मानपात्र था, प्रचुर मानपात्र था, हृदयपिय था. रत्नकरण्डक के जैसा था, जीवन के उत्सवरूप था. (हिययण दिजणणे उबरपुप्फविव दुल्लभे सवणयाए, किमंगपुण पासणयाए) उनके हृदय के आनन्द जनक था, उदम्बरपुष्प के समान मैं उन्हें सुनने के लिये दुर्लभ था-देखने की बात तो क्या कहनो (त जइ ण' से अजए ण मम आगंतु वएजा) तो यदि वे आर्यक आकर के मुझसे ऐसा कहे (एवं खलु नत्तूया! अहं तं अज्ज ए होत्था, इहेव सेयवियाए नयरीए अधम्मिए जाव नो सम्म करभरविर्ति पबत्तेमि) हे पौत्र ! मैं तुम्हारा आर्य क-पितामह था, इसी श्वेतांबिका नगरी में अधार्मिक बना हुआ मैं अच्छी तरह से प्रजाजन से प्राप्त देक्म से उनका पोषण नहीं करता था. पिए मणुण्णे मणामे, थेग्जे वेसासिए संमए बहुमए रयणकर'डगसमाणे जीविउस्सविए) ते आय'ने पौत्र छुः हुँ भना भाटे अभिलषित sal, sia હત, પ્રિય હતે, મનેઝ હતો. મને ગમ્યું હતું, યરૂપ હો, વિશ્વાસપાત્ર હતા, સન્માનપત્ર હતું, પ્રચુર માનપાત્ર હતું, હૃદયપ્રિય હતેરત્ન કરંડક જેવો હતો, नना उत्सव३५ हतो. (हिययणंदिजणणे उबरपुष्फ विव दुल्लहे सवणयाए किमंग पुण पासणयाए) तेमना यने मान आपना। तो भराना यु०पनी જેમ હું તેમના માટે જોવાની વાત તે દૂર રહી. સાંભળવા માટે પણ દુર્લભ હવે (त जइणं से अज्जए ण ममं आगंतुवएज्जा) तो वे ते सायं ४ मावान भने माम ४3 3 (एवं खलु नत्तुया ! अहंत अज्जए होत्था, इहेव सेयंबियाए नयरीए अधम्मिए जाव नो सम्म करभरवित्ति पवत्तेमि) पौत्र!हुतमारे। આર્યક-પિતામહ હતે. આજ શ્વેતાંબિકા નગરીમાં અધાર્મિક થઈને પ્રજાજનો પાસેથી ४२ वसूख ४शन ५ तमनु २क्षण-पोषण वगेरे ४२तो न तो. (तए णं अहं શ્રી રાજપ્રશ્રીય સૂત્ર: ૦૨
SR No.006342
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages489
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_rajprashniya
File Size27 MB
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