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राजप्रश्नोयसूत्रे एतेन स्थानेन चित्र ! जीवः केवलि प्रज्ञप्त धर्म नो लभते श्रवणताय । (२) उपश्रयगत श्रमण वा तदेव यावत् एतेनापि स्थानेन चित्र ! जीवः केवलि प्रज्ञप्त धर्म नो लभते श्रवणतायै । (३) गोचराग्रणत श्रमण वा माहन वा सन्मुख सत्कार आदि करने के निमित्त जो नहीं जाता है, मधुर वचनों से जो सुखशातादि प्रश्नपूर्वक उनकी स्तुति नहीं करता है, उनके समक्ष अपने मस्तक को जो नहीं झुकाता है, अभ्युत्थानादि द्वारा जो उनका सत्कार नहीं करता है, वसति आदि के देने से जो उनका सन्मान नहीं करता है, तथा कल्याणस्वरूप, मगलस्वरूप, धर्म देवस्वरूप मानकर एवं विशिष्टज्ञान वाला मानकर जो उनकी पर्युपासना नहीं करता है, (नो अट्ठाइ , हेऊई पसिणाई कारणाई', वागरणाई पुच्छेइ) अर्थ को-जीवाजीवादिक पदार्थों को, हेतुओं को-अन्यथानुपपत्तिरूप साधनों को, प्रश्नों को, कारणों को, व्याकरणों को, नहीं पूछता है, (एएणं ठाणेणं चित्ता ! जीवे केवलिपन्नत्त धम्म नो लभइ सवणयाए) इस कारण से हे चित्र ! जीव के वलिपजप्त धर्म को सुन नहीं सकता है। यह प्रथम कारण है। (१) (उवस्सगय समणं वातचेव, जाव एएणं वि ठाणेणं चित्ता! नोबे केलिपन्तत्तं धम्म नो लभइ सवयण याए) उपाश्रग में आये हुए श्रमण के सत्कार आदि करने के निमित्त जो उनके समक्ष नहीं जाता है यावत् उनसे व्याकरणों को नहीं पूछता है, ऐसा जीव. इस द्वितीय कारण से भी केवलि प्रज्ञप्त धर्म को सुन नहीं सकता है । (२) સામે જે સત્કાર વગેરે કરવા માટે જતો નથી, મધુર વચનોથી સુખશાતાદિ પ્રશ્નપૂર્વક તેમની સ્તુતિ કરતા નથી, તેમની સામે પિતાનું મસ્તક નમ્ર ભાવે નમાવતો નથી, અભ્યથાન વગેરે વડે જે તેમને સત્કારતો નથી, વસતિ વગેરે આપીને તેમનું સન્માન કરતું નથી તેમજ કલ્યાણ સ્વરૂપ, મંગળસ્વરૂપ, ધર્મદેવસ્વરૂપ માની અને વિશિષ્ટशान सपन्न मानीन तेमनी पथुपासना ४२तेनथी. (नो अट्ठाई, हेऊई, पसि णाइ', कारणाइ वागरणाइ, पुच्छेइ) अर्थान-७१ म वगेरे पहायाने, तु. माने मन्यथानु५५त्ति३५ साधनाने,प्रश्नाने ।२।ने, व्य४ि२णाने पूछतो नथी,(एएण ठाणेग चित्ता ! जीवे केवलिपन्नत्त धम्म'नो लभइ सवणयाम्) 8 थिa! All २४ने લીધે જ જીવ કેવલિ પ્રજ્ઞપ્ત ધર્મનું શ્રવણ કરી શકતો નથી. આ પહેલું કારણ છે. (૧) (उवस्सयगयं समर्ण वा तं चेव, जाव एए णं वि ठाणेण' चित्ता !जीवे केवलिपन्नत्तं धम्म नो लभइ सवणयाए) उपाश्रयमा धारेसा श्रमाय 3 भाशुने। સત્કાર વગેરે કરવા માટે જે તેમની સામે જ નથી. યાવત્ તેમને વ્યાકરણ વિષે પ્રશ્ન કરતો નથી. આ જાતને જીવ આ બીજા કારણથી પણ કેવલિપ્રજ્ઞપ્ત ધર્મનું
શ્રી રાજપ્રશ્રીય સૂત્ર: ૦૨