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राजप्रश्नीयसूत्रे
१६८ पं. ४) । मनः पर्यवज्ञानं द्विविधं प्रज्ञप्त, तद्यथा-ऋजुमतिश्च विपुल मतिश्च तथैव केवलज्ञानं सर्वं भणितव्यम् । तत्र खलु यत्तत् आभिनिबोधिकज्ञानं तत्खलु ममास्ति १ । तत्र खलु यत्तत् श्रुतज्ञानं तदपि च ममास्ति २ । तत्र खलु यत्तत् अवधिज्ञान तदपि च ममास्ति ३ । तत्र - खलु यत्तद् मनः पर्यवज्ञानं तदपि च ममास्ति ४ । तत्र खलु यत्तत् केवलज्ञानं तत् खलु मम नास्ति, तत् खलु अर्हतां भगवताम् । इत्येतेन प्रदेशिन् ! अह ं तव चतुर्विधेन छाद्मस्थिकेन ज्ञानेन एतमेतद्रूपम् आध्यात्मिक यावत् संकल्पं समुत्पन्नं जानामि पश्यामि ।। सू० १२९ ।।
और क्षायोपशमिक के भेद से दो प्रकार का कहा गया है। इसका भी वर्णन नन्दीसूत्र में किया गया है। (मणपज्जवनाणे दुविहे पण्णत्ते) मनः पर्यव - ज्ञान दो प्रकार का कहा गया है (तं जहा - उज्जुमईय. विउलमईय) - ऋजुमति और विपुलमति, (तहेव केवलनाणं सव्वं भाणियच्व) इसी प्रकार केवलज्ञान का वर्णन भी यहां पर करना चाहिये (तत्थ ण जे से आभिणिबोहियनाणे से णं मम अस्थि) इन पांच ज्ञानों में से मुझे मतिज्ञान रूप आभिनिबोधिक ज्ञान है । (तत्थ णं' जे से सुयनाणे से वि य मम अस्थि) श्रुतज्ञान भी है (ओहियणाणे से वि य ममं अस्थि) अवधिज्ञान भी है। (तत्थ णं जे से मणपज्जवनाणे से वि य ममं अस्थि) और मुझे मनः पर्ययज्ञान भी है । (तत्थ णं जे से केवलवाणे से णं मम नत्थि) केवल ज्ञान मुझ े नहीं है (से ण अरिहंताणं भगवंताणं) यह केवलज्ञान अर्हन्त भगवन्तों के होता है। (इच्चेएण पएसी ! अहं तव चउब्बिहेण छाउ અવધિજ્ઞાન ભવપ્રત્યયિક અને ક્ષાયે પશમિકના ભેદથી એ પ્રકારનુ કહેવાય છે. આનું વર્ણન પણ નન્દીસૂત્રમાં ४२वामां आव्यु ं छे. (मणपज्जवनाणे, दुविहे पण्णत्ते) भनः पर्यवज्ञान मे प्रारनु उडेवाय छे. (त जहा उज्जुमई य बिउलमई प )
प्रेम ऋनुमति मने वियुसमति (तहेव केवलनाणं सव्वं भाणियव्वं ) या प्रमाणे
सज्ञान वार्जुन या लेणे. (तत्थ णं जे से आभिणिबोहिघनाणे से णं मम अस्थि) या पांथ ज्ञानभांथी भने भतिज्ञान३य मालिनिमोधिज्ञान छे. (तत्थणं जे से सुयनाणे से विय मम अस्थि) श्रुतज्ञान पशु छे. (ओहिय गाणे से विय मम अस्थि) अवधिज्ञान पशु छे. (तत्थ णं जे से मणपज्जव नाणे से विय ममं अस्थि) भने मनःपर्यवज्ञान पशु छे. (तत्थ णं जे से केवलनाणे सेण मम नत्थि) परंतु भने ठेवलज्ञान नथी. ( से णं अरिहंताणं भगवंताणं, या ठेवणज्ञान अर्हन्त भगवन्ताने हाय छे. (इच्चेएण पएसी ! अहं तव च उब्विण छउमत्थिएणं णाणेण इमेयारूवं अज्झत्थिय जाव संकल्प
શ્રી રાજપ્રશ્નીય સૂત્ર : ૦૨