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________________ ७६ राजप्रश्नीयसूत्रे विपुल धनकनकरत्नमणिमौक्तिक शङ्खशिलामवालसत्सारस्वापतेयं विच्छ विगोप्य दान दत्त्वा परिभाज्य मुण्डा भूत्वा अगारात् अनगारितां पत्रजन्ति, नो खलु अहं तावत् शक्नोमि त्यक्त्वा हिरण्य ं तदेव यावत् प्रव्रजितम् । अह खलु देवानुप्रियाणाम् अन्तिके पञ्चाणुव्रतिक' सप्तशिक्षाव्रतिक' द्वादशविधं गृहिधर्म प्रतिपत्तुम् । यथासुखं देवानुप्रिय ! मा प्रतिबन्ध कुरु । ततः और इभ्य पुत्र हिरण्य को छोडकर, सुवर्ण को छोडकर एवं धन धान्य. बल, वाहन, कोश, कोष्ठागार, पुर और अन्तःपुर को (चिच्चा) छोडकर (विडलं धणकणगरयण मणिमोत्तिय संख सिलप्पवालस' तसार सावएज', बिग्छडिज्जा, विगोवइत्ता, दाण दाइत्ता) तथा विपुल, धन, कनक, रत्न मौक्तिक शंख शिलाप्रवाल एवं सत्सारस्वापतेय को छोड़कर तथा उन सबको विशाल प्रमाण में दीन दरिद्र आदिकों के लिये वितरित कर (परिभाइत्ता) पुत्रादिको में विभक्त (विभाग) कर (मुंडा भविता अगाराओ अणगारियं पव्वय ति) बाद में मुंडित होकर के अगार अवस्था को धारण करते हैं (जो खलु अह' ता संचाएमि, चिच्चा हिरण्णं त चेव जाव पवइन्तए) वैसा मैं हिरण्य आदि को छोडकर दीक्षा धारण करने के लिये समर्थ नहीं हूं, (अहंण देवाणुप्पियाण अतिए पंचाणुब्बइयं सत्तसिक्खावइयं दुबालस बिह गिहिधम्मं पडिवज्जितए) मैं ता आप देवानुप्रिय के पास पांच अणुव्रतवाले एवं साततशिक्षा व्रतवाले इस तरह १२ प्रकार के गृहस्थ धर्म को धारण कर सकता हूँ | ( अहासुहं देवाणुपिया ! मा पडिबंध करेहि) आप डिरएयनो त्याग उरीने मने धन, धान्य, जज, वाहन, प्रेश, श्रेष्ठागार, पुर मने भ्यतःपुर-२शुवास (चिच्चा) ना त्याग उरीने ( चिउळघणकणगरयणमणिमोतियसंखसिलप्पवालसंत सारसावएज्जं, विच्छडिज्जा, विगोवइत्ता, दाणं दाइत्ता તેમજ વિપુલ ધન, કનક, રત્ન, મૌતિક શંખ શિલા પ્રવાલ અને સત્તાર સ્વાયતૈય ના ત્યાગ કરીને તેમ જ પુષ્કળ પ્રમાણમાં દીનદરિદ્ર વગેરે લોકોને આપીને (परिभाइता ) पुत्रप्रेमां बड़ेथीने (मुंडा भवित्ता अगाराओ अगगारिय पव्वय ति) त्यार माह भुडित थर्धने अगार अवस्थामांथी अनगार व्यवस्थाने धार ४२ छे. (णो खलु अहं ता संचाएमि, चिच्चा हिरण्ण ं तं चैव जाव पव्त्रत्तए) तेभ हु' डिरएय वगेरेना त्याग उरीने दीक्षा धारा १२वामां असमर्थ छु (अहं णं देवाप्पियाण अंतिए पंचाणुब्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्मं पडिवज्जित्तए) आपश्री पासेथी हुं तो इस पांच अनुव्रतवाजा भने અને સાત શિક્ષાવ્રતવાળા આમ ૧૨ પ્રકારના ગૃહસ્થ ધર્મને સ્વીકારી શકું છું. ( अहामुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध करेहि) आप हेवानुप्रियने ने- आयभां શ્રી રાજપ્રશ્નીય સૂત્ર : ૦૨
SR No.006342
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages489
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_rajprashniya
File Size27 MB
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