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________________ सुबोधिनी टीका सू. ११२ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ७७ खलु स चित्रः सारथिः केशिकुमारश्रमणस्य अन्तिके पश्चाणुव्रतिक यावद् गृहिधर्मम् उपसम्पद्य खलु विहरति । ततः खलु स चित्रः सारथिः केशिकुमारश्रमण वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा यत्रैच चातुर्घण्टः अश्व. रथस्तत्रौव प्राधारयद् गमनाय, चातुर्घण्टम् अश्वरथं दूरोहति, यस्या एव दिशः प्रादुर्भूतस्तामेव दिश प्रतिगतः ॥ मू० ११२ ॥ टीका--'त एणं से इत्यादि-- ततः खलु स चित्रः सारथिः केशिनः कुमारश्रमणस्य अन्ति के देवानुप्रिय को जिस प्रकार से सुख हो वैसा करो-परन्तु विलम्ब मत करो. (तएण से चित्ते सारही केसिकुमारसमणस्स तिए पचाणुव्वइयं जाव मिहिधम्म उपसंपज्जित्ताण' विहरइ) इसके बाद उस चित्र सारथि ने केशिकुमार श्रमण के पास पांच अणुव्रतों वाले एवं सात शिक्षावतो वाले गृहस्थ धर्मको अंगीकार कर लिया (तएणं से चित्ते सारही केसि. कुमार समण वंदइ, नमसइ बदित्ता नम सित्ता जेणेव चाउग्घटे आसरहे तेणेव पहारेत्थ गमणाए, चाउग्घट आसरह' दुरुहइ) इसके बाद उस चित्र सारथिने केशिकुमार श्रमण को वन्दना की नमत्कार किया, वंदना नमस्कार कर उसने जहां चातुर्घट अश्वरथ रखा था उस ओर जाने का निश्चय किया. वहां जाकर वह उस पर चढ गया. (जामेव दिसिं पाउ भूए, तामेव दिसि पडिगए) और जिस दिशा से होकर आया था उसी दिशा तरफ चला गया। टीकार्थ--इस के बाद चित्र सारथी केशीकुमार श्रमण के पास सुम थाय ते ४. ५ विen न ४२!. (त एणं से चित्ते सारही केसिकुमारसमणस्स तिए पंचाणुव्वइय जाव गिहिधम्म उवसंपज्जित्ताण विहरइ) ત્યાર પછી તે ચિત્ર સારથિએ કેશિકુમાર શ્રમણ પાસેથી પાંચ અણુવ્રતવાળા અને सात शिक्षामता स्थधर्म ने वीारी सीधी. (त एणं से चित्त सारही केसिकुमारसमणं बदइ, नमसइ, वंदित्ता नम सित्ता जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव पहारेत्थ गमणाए, चाउग्घट आसरह' दुरुहइ) त्या२ मा त यित्र સારથીએ કેશિકુમાર શ્રમણને વંદના કરી, નમસ્કાર કર્યા. વંદના તેમજ નમસ્કાર કરીને તેણે જ્યાં ચાતુર્ઘટ અશ્વરથ હતું તે તરફ જવાનો નિશ્ચય કર્યો. ત્યાં જઈને તે રથ ५२ सवार २७ गयो. (जामेव दिसि पाउन्भूए. तामेव दिसि पडिगए) भने જે દિશા તરફ થઈને તે આવ્યું હતું તે જ દિશા તરફ પાછો જતો રહ્યો. ટીકાર્ય–ત્યાર બાદ ચિત્રસારથિ કેશિકુમાર શ્રમણની પાસે ધર્મ સાંભળીને શ્રી રાજપ્રશ્રીય સૂત્ર: ૦૨
SR No.006342
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages489
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_rajprashniya
File Size27 MB
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