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________________ सुबोधिनी टीका स्. ११३ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ८३ छाया-ततः खलु स चित्रः सारथिः श्रमणोपासको जातः अभिगत जीवाजीव उपलब्धपुण्यपाप आस्रवस वरनिर्जराक्रियाऽधिकरणबन्धमोक्षकुशलः असाहाय्यो देवासुरनागयक्षराक्षसकिन्नरकिम्पुरुषगरुडगन्धर्व महोरगादिभिः देवगणैः नँग्रन्थात् प्रवचनात् अनतिक्रमणीयः, नैर्ग्रन्थे प्रवचने निश्शङ्कितो निष्काङ्गितो निर्विचिकित्सो लब्धार्थो गृहीतार्थः पृष्टार्थः अधि 'तएणं से चित्र सारही' इत्यादि। सूत्रार्थ-(तएण से चित्ते सारही समणोवासए जाए) अब वह चित्रसारथि श्रमणोपासक हो गया. (अहिगय जीवाजीवे. उवलद्धपुण्णपावे, आसवसंवनिज्जरकिरियाहिगरणबंधमोक्खकुसले ) जीव और अजीव तत्त्व के वह ज्ञाता बन गये, पुण्य एवं पाप के स्वरूप को जानने लगे, आस्रव. संबर, निजरा, क्रिया, अधिकरण, बंध और मोक्ष इनमें कुशल हो गये, अर्थात् इनके स्वरूप का उसे बोध हो गया. (असहिज्जे) कुतीर्थिकों के कुतर्क के खण्डन में पर की सहायता की अपेक्षा वाला नहीं रहा (देवा सुरणागजक्खरक्खसकिन्नर किंपुरिसगरुलगधश्वमहोरगाईहिं देवगहे हिं निग्ग'थाओ पावयणाओ अणइकमणिज्जे, निग्गथे पावयणे निस्स किए) देवों से अमरों से नागों से, यक्षों से राक्षमों से, किंपुरुषों से, गरुडों से, गंधर्वो से, महोरगों से-इन सब देवगणों से-वह निर्गन्ध प्रवचन की श्रद्धा आदि से, अनतिक्रमणीय हो गया अर्थात् ये सब देवगण भी उसे निर्गन्थप्रवचन से थोडा सा भी विचलित करने के लिये समर्थ नहीं हो सके, वह (निग्ग थे पाच 'तए ण से चिते सारहो' इत्यादि। सूत्रार्थ-(तए ण से चित्ते सारही समगोवासए जाए) वे चित्र सारथि अभपास ५ गया तो. (अहिगयजीवाजीवे, उबलद्धपुण्णपावे, आसवस'वरनिज्जरकिरियाहिगरणबंधमोक्खकुसले) ७५ भने १० तत्वात જ્ઞાતા થઈ ગયે. પુણ્ય અને પાપના સ્વરૂપને તે જાણવા લાગ્યા, આસવ, સંવર, નિર્જરા, ક્રિયા, અધિકારણ. બંધ અને મોક્ષમાં તે કુશળ થઈ ગયો એટલે 3 मा मधान! २१३५४ शान तेने 45 गथु (असहिजे) gillथ ना तs ना ५नम तेरे lonनी भनी अपेक्षा न २७. (देवासुरणागजक्खरक्खसकिनरकिंपुरिसगरुलगधव्वमहोरगाइहिं देवगहेहिं निग्गथाओ पाथणाओ अणइक्कमणिज्जे, निग्ग थे पावयणे निस्स किए) हेवोथी, मसुशथी, नागाथी, યથી રાક્ષસેથી કિન્નરોથી પુિરૂથી ગરુડોથી ગંધથી મહરગોથી-આ બધા દેવગણેથી તે નિગ્રંથ પ્રવચન પર અતી શ્રદ્ધાને લીધે અનતિ મણીય થઈ ગયે એટલે કે આ બધા દેવગણે પણ તેને નિગ્રંથ પ્રવચન પરથી જરાએ વિચલિત કરી - શ્રી રાજપ્રશ્રીય સૂત્ર: ૦૨
SR No.006342
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages489
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_rajprashniya
File Size27 MB
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