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राजप्रश्नीयसूत्रे गनार्थो विनिश्चितार्थः अस्थिमज्जाप्रेमानुरागरक्त:-'इदम् आयुप्मन् ! नैन्य' प्रवचनम् अर्थ:, अयं परमार्थः, शेषम् अनर्थः' उच्छित-स्फाटिकः अमा वृत्तद्वारः प्रीतिकरान्त:पुरगृहप्रवेशः चतुर्दश्यष्टम्युदृिष्टपौणमासीषु प्रतिपूर्ण यणे णिस्सकिए) ऐसा निर्ग्रन्थप्रवचन में निःश कितगुण से युक्त हो गया (णिक लिए) अन्यमत की कांक्षा उसके चित्त में थोडी सी भी नहीं रही ऐसा निष्काक्षितगुण वाला वह हो गया. (णिवितिगिच्छे, लद्धहे , गहियडे, पुच्छिय?, अहिगयढे, विणि च्छि यट्ठो, अहिभिंजपेमाणुरागरत्ते) फलके प्रति संदेह उसका जाता रहा ऐसा वह निर्विचिकित्स गुण-संपन्न हो गया. इसी कारण उसने गुर्वादिकों से यथार्थ निर्ग्रन्थप्रवचन का अर्थ प्राप्त कर लिया, और इसी कारण वह पराभिप्राय के ग्रहण से अवधारित (निश्चित) अर्थतत्त्ववाला बन गया. पृष्टार्थ हो गया. निर्णीतार्थ हो गया, अधिगतार्थ हो गया, विनि श्चितार्थ हो गया, तथा उसकी अस्थि और मज्जा ये दोनो निग्रन्थ प्रव चनविषयक प्रेमरूपी रंजन द्रव्य से खूब रंग गये, अर्थात् रग रग में उसके निर्ग्रन्थप्रवचन का अनुराग भर गया. (अयमाउसो ! निग्गथे पावयणे अढे अयं परमट्ठो, सेसं अणट्टे , ऊसियफलिहे, अवगुयदुवारे, चियत्ततेउ. रघरपवेसे) हे आयुष्मन् ! यह निग्रन्थप्रवचन ही वास्तविक अर्थ से युक्त है क्यों कि यह मोक्ष का हेतु है, यही परमार्थ है क्यों कि जीवों का सध्या ना. ते (निग्गथे पावयणे णिस्सकिए) २ प्रमाणे निय अवयनमा नि:शत गुपयुइत गयो. (णिक खिए) तना भनभा भी मत भाटे ससार २७ शेष न २डी. २0 प्रमाणे ते निsiक्षित गुपयुत १७ गयो. ( णिवितिगिच्छे लद्धढे , गहियढे, पुच्छियढे , अहिगयढे, विणिच्छियडे, अद्विमिंजपेमा. गुरागरते) ३१ प्रत्ये तना भनमा सहेड रह्यो ना, मा प्रमाणे नियस ગુણ સંપન્ન થઈ ગયે. એથી જ તેણે ગુરૂ વગેરે પાસેથી યથાર્થ નિગ્રંથ પ્રવચનને અર્થ જાણી લીધું હતું. એથી જ તે પરાભિપ્રાયના ગ્રહણથી અવધારિત અર્થ તરવવાળ થઈ ગયે, પુષ્ટાર્થ થઈ ગયે નિષ્ઠીતાર્થ થઈ ગયે. અધિગતાર્થ થઈ ગયે, વિનિશ્ચિતાર્થ થઈ ગયો અને તેના અસ્થિ અને મજજા અને નિગ્રંથ પ્રવચન વિષયક પ્રેમરૂપી રંજન દ્રવ્યથી ખૂબજ રંજિત થઈ ગયા એટલે કે તેના શરીરના આએ AALHi निA प्रयन प्रत्येनी प्रीति व्यास 25 . (अयमाउसो ! निग्गथे पावयणे अढें अयं परम?, सेस अणढे, ऊसियफलिहे, अवगुयदुवारे, चियत्त तेउरघरप्पवेसे) ले मायुष्यभन् ! म निथ अपयन । वास्तव में યુકત છે કેમકે એ મેક્ષ માટે હેતુરૂપ કહેવાય છે. એ જ પરમાર્થ છે કેમકે જીવેનું
શ્રી રાજપ્રશ્રીય સૂત્ર: ૦૨