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________________ ४२८ राजप्रश्नीयसूत्रे यमानस्य अनन्तम अनुत्तरं कृत्स्नं प्रतिपूर्ण निरावरण निर्व्याघातं केवलवरज्ञानदर्शनं समुत्पत्स्यते। ततः खलु स भगवान अर्हन् जिनः केवली भविष्यति. सदेवमनुजा-सुरस्य लोकस्य पर्यायं ज्ञास्यति, तद्यथा-आगतिं गतिं स्थितिं च्यवनम् उपपातं तर्क कृतं मनोमानसिक खादित भुक्तं प्रतिसेवितम् आविष्कर्म रहःकर्म अरहा अरहस्य भागी तस्मिस्तस्मिन् काले मनोवाकाययोगे वर्तमानानां सर्वलोके सर्वजीवानां सर्वभावान् जानन् पश्यन् विहरिष्यति । ॥सू० १७४॥ भावित करते हुवे उस भगवान् दृढकुमार के "अणते अणुत्तरे कसिणे पडिपुण्णे निरावरणे णिब्वाघाए केवलवरनाणदंसणेन समुप्पज्जिहिइ-" अनन्त-अनुत्तर-कृत्स्नप्रतिपूर्ण-निरावरण-निव्याघात ऐसे केवल ज्ञान, और केवलदशन उत्पन्न होंगे- 'तए ण से भगवं अरहा जिणे केवली भविस्सइ-" तब ये दढकुमार भगवान् अर्हन्त जिन केवली हो जावेंगे। “सदेवमाणुयासुस्रस लोगस्स परियायं जाणिहिइ, तं जहा आगइं, गई, ठिइ चवणं, उववायं, तकं, कडं-मणामाणसियं खाइयं-भुत्त-पडि सेवियं-" मनुज-देव असुर सहित लोक की पर्याय को जान लेंगे, जैसे- आगतिक का-गति का- स्थिति को-च्यवन का-उपपात को तर्क को-कृतको मनोमा सिक को-खादित को-भुक्त को प्रतिसेवित का प्रत्यक्ष में कृत को एकान्त में कृत को, इस तरह से मनुज, देव, असुर सहित लोक की पर्याय को वे जानेंगे। "अरहा अरहस्स भागी त त काल मणवयणकायजोगे वट्टमाणाणं सव्वलोए सव्वजीवाणं सब्वभावे जाणमाणे पासमाणे विहरिस्सइ.” इस तरह वे अनगार कि जिन को अप्रत्यक्ष काई भी वस्तु नहीं रहेगी सावद्याचार से मात्माने लावित ४२di ते लापान १८ मारने "अण ते अणुत्तरे कसिणे पडिपुण्णे निरावरणे णिव्वाधाए केवलवरनाणदंसणे समुप्पजिहिइ" मनात मनुत्तर કૃતન પ્રતિપૂર્ણ નિરાવરણ નિર્ભાધાત એવાં કેવળજ્ઞાન અને કેવળદર્શન ઉત્પન્ન થશે. "तए ण से भगवं अरहा जिणे केवली भविरसइ" त्या२ ते मार लान मत CM ली थ शे. सदेवमणुय सुरस्स लेगिस्स परियायं जाणिहिइ, तं जहा आगई, गई, ठिई, चवण', उववायं, तक्कं, कडं, मणाम णसियं खाइयं भुत्तं पडिसेवियं" भडन, ३१, असुर सहित सोनी पायने onell सेशे, थेटले કે આગતિને, ગતિને, સ્થિતિને, ચ્યવનને, ઉપપાતને, તકને, કૃતને, મને માનસિકને ખાદિતને, ભુકતને, પ્રતિસેવિતને પ્રત્યક્ષમાં કૃતને, એકાત્તકૃતને, આમ તે મનુજ हेव, असुर सहित देनी पायने शे. “अर हा अरहस्स भागी तं तं काल भणवयणकायजोंगे वट्टमाणाणं सव्वलाए सव्वजीवाण सव्वभावे जाणमाणे पासमाणे विहरिस्सई" मा प्रभारी ते अनामना भाट प्रत्यक्ष देवी શ્રી રાજપ્રશ્રીય સૂત્ર: ૦૨
SR No.006342
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages489
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_rajprashniya
File Size27 MB
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