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________________ सुबोधिनी टीका सू. ९९ सूर्याभदेवस्य ऋद्धिविषये भगवदुत्तरम् ७ तस्याः खलु श्वेतविकाया नगर्या बहिः उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे अत्र खलु मृगवन नाम उद्यानम् आसीत-सवत्तक पुष्पफलसमृद्धं रम्यं नन्दनवनप्रकाश शुभसुरभिशीतलया छायया सर्वत एव समनुबद्ध प्रासादीयं यावत् प्रति. रूपम् । तत्र खलु श्वेतविकायां नगर्या प्रदेशी नाम राजा आसीत-महाहिमवद-यावद् विहरति । अधार्मिकः अधर्मिष्ठः अधर्मख्यातिः अधर्मानुगः उत्तरपुरथिमे दिसीभागे एत्य णं मिगवणे णामं उजाणे होत्था) उस श्वेत. विका नगरो के ईशान कोने में मृगवन नामका उद्यान था (सवो उयपुष्फफलसमिद्धे रम्मे, नंदणवणषगासे सुभं सुरभिसीयलाए छायाए सव्वओ चेव समणुबद्धे पासाईए जाव पडिरूवे) यह उद्यान छहों ऋतुओं के पुष्पों एवं फलों से युक्त था. अतः मनोरम था नन्दनवन के जैसा था. शुभ-सुखावह होने से अच्छी, एवं सुरभि-मनोज्ञ एवं शीतस्पर्श वाली ऐसी छाया से सर्वत्र यह समनुबद्ध-युक्त था, प्रासादीय था यावत प्रतिरूप था (तत्थ णं सेयवियाए णगरीए पएसी णाम राया होत्था) उस श्वेतविका नगरी में प्रदेशी नामका राजा था, (महया हिमवत जाव विहरह) इसमें महाहिमवान्, महामलय, मन्दर-(मेरुपर्वत) एवं महेन्द्र के जैसा था (अधम्मिए, अधम्मि?, अधम्मक्खाई, अधम्माणुए, अधम्मपलोई, अधम्म पजणणे अधम्मसीलसमुयायारे, अधम्मेण चेव वित्ति कप्पेमाणे) परन्तु वह धार्मिक नहीं था अधर्माचारी था, अतिशयरूप से अधर्माचरणशील था, अतएव अधर्म द्वारा ही यह जगत में प्रसिद्ध, हुआ था अधर्मानुयायी नयरीए बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसी भागे एत्थ ण मिगवणे णाम उज्जाणे होत्था) ते यतनगरीन शान शुभां भृगवन नाभे धान इतु: (सन्चो उय पुरफ.फलसमिद्धे रम्मे, नंदणवणव्यगासे सुभंसुरभिसीयलाए छायाए सव्वओ चेव समणुबद्ध पासाईए जाव पडिरूवे) मा धान परतुमान या तभी ફળથી સમૃદ્ધ હતું. એથી નન્દનવન જેવું મનેમ હતું. શુભ-સુખાવહ હવા બદલ સારી, અને સુરભિ-મને જ્ઞ–અને શીતસ્પર્શવાળી છાયાથી તે સર્વત્ર સમનુબદ્ધ-યુકત इत. प्रासाहीय . यावत् प्रति३५ तु. (त त्थ णं सेयवियाए णगरीए पएसी णामराया होत्था) ते श्वातपिता नगरीमा प्रदेशी नामे न तो. (महया हिमवत जाव विहरइ) मा भडिमपान, महाभलय, मह२ (भेरु'त) मने महेन्द्र रेटयु मम हतु: (अधम्मिए, अधम्मिटे, अधम्मक्खाई, अधम्माणुए, अधम्मपलोई, अधम्मपजणणे, अधम्मसीलसमुयायारे, अधम्मेण चेव वित्ति कप्पेमाणे) પણ તે ધાર્મિક હતું નહિ અધર્માચારી હતા, ખૂબ જ અધર્માચરણમાં પ્રવૃત્ત રહેનાર શ્રી રાજપ્રશ્રીય સૂત્ર: ૦૨
SR No.006342
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages489
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_rajprashniya
File Size27 MB
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