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________________ सुबोधिनी टीका सु. ११८ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् अन्तिकात् प्रतिनिष्क्रामति, य व चातुर्घष्टः अश्वरथस्तत्रैव उपागच्छति, चातुर्घम् अश्वरथं दूरोहति, श्वेतविकाया नगर्या मध्यमध्येन यत्रैव स्वक गृहं तत्रैव उपागच्छति, तुरगान निगृह्णाति, रथं स्थापयति, रथात् प्रत्यबरोहति स्नातो यावत् उपरि प्रासादवरगतः स्फुटद्भिर्मृदङ्गमस्त कैर्द्वात्रिंशङ्खकर्नाटक व तरुणी संयुक्त उपनर्त्य मानः उपगायमानः उपलालयमान इष्टान् शब्दस्पर्श- यावद् विहरति ॥ सू० ११८|| ११५ " परसिणा रण्णा विसज्जिए समाने हट्ट जाब हियए पएसिस्स रन्नो अतियाओ पडिनिक्खमइ जेणेव चाउघंटे आसरहे तेणेव उवागच्छ इस प्रकार प्रदेशी राजा द्वारा विसर्जित किया गया वह चित्र सारथि हृष्ट यावत् हृदय वाला होकर मदेशी राजा के पास से चला आया और जहां चातुर्बेट अश्वरथ था वहां पर आ गया (चाउग्घंटं आसरहं दुरुहइ, सेयं वियाए नयरी मज्झमज्झे णं जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छ इ) वहां आकर वह उस चार घंटेवाले अश्वरथ पर सवार हो गया और श्वेतांबिका नगरी के ठीक मध्यमार्ग से होता हुआ अपने भवन की और चल दिया, (तुरगे foroes, रह ठवे रहाओं पचोरुहर, हाए जाब उपि पासायवरगए) वहां आकर के उसने चोडों को रोका, रथ को खड़ा किया, फिर रथ से नीचे उतरा, स्नान किया यावत् उत्तम प्रासाद के उपरिभाग में जाकर बैठ गया, (हमाणेहिं मुइगमत्थए हिं बत्तीसइबद्ध एहिं वरतरणी संपतेहिं उवण चिज - माणेर उबगाइज्नमाणेर उचला लिजमाणे२ इट्ठसद्दफरिस जाब बिहरइ) वहां पर हियए पए सिस्स रन्नो अतियाओ पडिनिवखमइ, जेणेव चाउघरे आसरहे तेणेव उवागच्छइ) या प्रमाणे अहेशी राम बडे विसन्ति पुरायेलो ते चित्रસારથિ હૃષ્ટ યાવત્ હૃદયવાળા થઈને પ્રદેશી રાજાની પાસેથી આવતા રહ્યો અને જ્યાં यातुर्धट अश्वरथ हतो त्यां माव्या. (चाउग्घंटं आसरह दुरुहइ, सेयं बियाए नय री मज्झमज्झेण जेणेव सए गहे तेणेव उवागच्छइ) त्या भावाने ते यातुध वाणा અધરથ પર સવાર થયે। અને શ્વેતામિકા નગરીના ઠીક મધ્ય માર્ગોમાંથી પસાર थर्धने पोताना लवन त२३ खाना थयो. (तुरगे णिगिण्हइ, रह उबेइ, रहाओ पच्चीरुहर हाए जाव उपि पासायचरगए ) त्यां आवीने तेथे घोडामाने उला राज्या, स्थ થાભાવ્યા અને ત્યારપછી રથમાંથી નીચે ઉતર્યાં. સ્નાન કર્યું" થાવત્ ઉત્તમ પ્રાસાદના उपरिभागमां कहने मेसी गये. (फुडमाणेहिं मुइगमत्थए हिं वत्ती सहबद्ध एहिं नाडए हिं वरतरणी संपतहिं उणचिज्जमाणे२ उवगाइज्जमाणे२ उबला लिज्जमाणे इट्ठे सद શ્રી રાજપ્રશ્નીય સૂત્ર : ૦૨
SR No.006342
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages489
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_rajprashniya
File Size27 MB
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