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________________ सुबोधिनी टीका सु. १६८ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ४११ ऽऽचार्यः शिक्षयिष्यतीति सम्बन्धः एवमग्रेऽपि संयोजना कर्तव्या । लेखो लिपि विषयभेदाद् द्विविधः तत्र लिपिः ब्रा-म्यादिभेदेनाष्टादशविधा. सा च समवायाङ्गसूत्रगताऽष्टादशसमवायोक्ता बोध्या। अथवा लाटादिदेशभेदतोऽनेकविधा भवति । पुनश्च वल्कलकाष्ठदन्तलोहताम्ररजतपाषाणाद्याधारेपु लेखनोत्किरणस्यूतव्यूतच्छिन्नभिन्नदग्धसंक्रान्तितोऽक्षरविन्यासरूपा लिपिरनेकविधा भवति । विषयमाश्रित्य स्वामिभृत्यपितापुत्रकलत्रपतिगुरुशिष्यशत्रुमित्रादिविषया कार्य स्थौल्यंवैषम्यपतिवक्रत्वपदच्छेदादिभेदभिन्ना चानेकविधा भवति १. गणितम्पट्टिकादि प्रसिद्धमेकद्वयादि संकलनगुणभागादिरूपम् २. रूपम् लेप्यशिलासुवर्णरजतमणिवस्त्रचित्रादिलक्षणम् ३। नाटयम्-साभिनयनिरभिनयभेदभिन्न जो विज्ञान हो जाता है वह भी लेख ही है, इस लेख में अक्षरादिके लिखने में निपुण हो जाना यह-लेखकला है, यह लेख-लिपि, एवं-विषय भेदसे दो प्रकार का है. इनमें ब्राह्मी आदि के भेद से लिपि १८-प्रकार की है. यहविषय “समवायानसूत्र में १८-वे' समवान में कहा गया है। अथवालाटादि के भेद से लिपि अनेक प्रकार भी होती है, पुनः-वल्कल-काष्ठदन्तलोह-ताम्र-रजत-पाषाण-आदि आधारों के ऊपर अक्षरों का लिखना, उन पर अक्षरों का टांकी आदि से अडित-(उकेरना) इत्यादिरूप से अक्षरविन्यासरूप लिपि अनेक प्रकार की है। विषय की अपेक्षा भी स्वामी-भृत्य-पितापुत्र-कलत्र-पति-गुरु-शिष्य-शत्रु और-मित्रादि को विशय करने वाली जो लिपि है वहभी कृशता स्थूलता आदिरूप से विन्यास की अपेक्षा अनेक प्रकार होती है १ । गणितरूप कला गुणा-भाग, वीजगणित-रेखागणित आदि होती है २ । रूपकला-लेख्य, शिला, सुवर्ण, रजत-आदि के ऊपर चित्र को उतारनेरूप याવામાં કુશળતા મેળવવી તે લેખકલા છે. આ લેખ-લિપિ અને વિષયભેદથી બે પ્રકા२ने छ. मामां ब्राह्मी वगेरेना सेहथी १८ ४२नी सिप छ. २॥ विषय 'समवायाङ' સૂત્રમાં ૧૮ મા સમવાયમાં આવેલ છે. અથવા લાટાદિના ભેદથી લિપિના ઘણા પ્રકારે છે. અને વલ્કલ, કાષ્ઠ, દંત, લેહ, તામ્ર, રજત, પાષાણ વગેરે આધારે પર અક્ષરો લખવાં, તેમની ઉપર ટાંકણથી ઢાંકવું વગેરે રૂપમાં અક્ષર વિન્યાસ લિપિ ઘણા પ્રકા२नी छे. विषयनी अपेक्षा ५६५ स्वाभी, भृत्य, पिता, पुत्र, सत्र, पति, शु३, શિષ્ય, શત્રુ અને મિત્ર વગેરેને વિશય કરનારી જે લિપિ છે તે પણ કૃશતા શૂલતા વગેરે રૂપથી વિન્યાસની અપેક્ષાએ અનેક પ્રકારની હોય છે ૧,ગણિતકલા ગુણા-ભાગ-બીજ शित; २॥ गणित पणेरे प्रारनी हाय छे. २,३५४सा-देश्य, शिक्षा, सुवर्ण, २०४d, વગેરેની ઉપર ચિત્રને ઉતારવા રૂપકે લેખન રૂપ હોય છે. ૩નાટયકલા અભિનય સહિત, વગર શ્રી રાજપ્રશ્રીય સૂત્ર: ૦૨
SR No.006342
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages489
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_rajprashniya
File Size27 MB
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