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सुबोधिनी टीका सु. १२१ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णनम्
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छाया -- ततः खलु स चित्रः सारथिः तेषामुद्यानपालकानामन्तिके एत मर्थ श्रुत्वा निशम्य हृष्ट तुष्ट यावद् आसनाद अभ्युत्तिष्ठति प्रापादपीठा त्प्रत्यवरोहति पादुके अवमुञ्चति एकशाटिकमुत्तरासङ्ग' करोति, अञ्जलिमुकुलिताग्रहस्तः केशिकुमार श्रमणाभिमुखः सप्ताष्टपदानि अनुगच्छति करतल परिगृहीत' शिरआवर्त्त मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा एवमवादीत् नमोऽस्तु खलु
'तण' से चित्ते सारही' इत्यादि ।
सूत्रार्थ - (तरण से चित्ते सारही तेसिं उज्जाणपालगाणं अतिए एम) इसके बाद वह चित्र सारथि उन उद्यानपालकों के पास से इस अर्थकों - वृत्तान्त को ( सोचा निसम्म हह्तुट्ठ जाव आसणाओ अन्भुट्ठेइ) सुनकर एवं उसे हृदय में धारण कर बहुत अधिक हृष्ट एवं संतुष्ट चित्त हुआ यावत् वह अपने आसन से उठा ( पायपीढाओ पञ्चोरुहइ) और पादपीठ - ( चरण रखने का आसन) के उपर पग रखकर वह नीचे उतरा ( पाउयाच ओमुयइ) पादुकाएं उसने उतार दी ( एगसाडिय उत्तरासंगं करेइ) एकशाटिक उतरासग किया । ( अजलिम उलियग्गहत्थे के सिकुमारसमणा भिहे सत्तट्टयाई अणुगच्छइ) फिर उसने अपने दोनों हाथों को जोड़कर अंजलिरूप में परिवर्तित किया और केशीकुमारश्रमण के अभिमुख होकर अर्थात् जिस ओर केशीकुमार श्रमण विराजमान थे उस ओर सात आठ पण तक आगे जाकर (करयलपरिज्गाहिय सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कहु एवं वयासी) वहां जाकर उसने अपने दोनों हाथों की बडे विनय के साथ
'तरण' से चित्ते सारहो' इत्यादि ।
सूत्रार्थ - ( त एण) से चित्ते सारही तेर्सि उज्जाण पालगाणं अंतिए एयम) त्यार पछी ते चित्रसारथि ते उद्यानपासना मुभथी या अर्थने वृत्तांत ( सोच्चा निसम्म हट्टतुट्ठ जाव आसणाओ अब्भुट्टे इ) सांलजीने अने तेने हदयभां ધારણ કરીને ખૂબજ હષ્ટ અને સંતુષ્ટ ચિત્તવાળા થયા યાવત તે પેાતાના આસન પરથી ઉભા થયે. (पाय पढाओ पच्चरुहइ) मने चाची (पण भूस्वानुं मासन विशेष ) पर या भूट्ठीने नीचे उतर्यां ( पाउयाओ ओमुयइ) अने यामां चडेरेसी चावडीओो उतारी हीधी. ( एगसाडियां उत्तरासंगं करेइ) शाटिङ उत्तरासंग ये. (अंजलिमउलियग्गहत्थे के सिकुमार समणाभिमुहे सत्तट्टपया अणुगच्छइ) त्यार पछी तेथे पोताना भन्ने हाथो જોડીને અંજલિ મનાવી અને કેશીકુમારશ્રમણની સામે મુખ કરીને એટલે કે જે દિશા તરફ કેશીકુમાર શ્રમણ વિરાજમાન હતા તે તરફ સાત આઠ પગ સુધી સામે गया. ( करयल परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्टु एवं वयासी)
શ્રી રાજપ્રશ્નીય સૂત્ર : ૦૨