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________________ १०२ राजप्रश्नीयसूत्रे वनषण्डस्तेषां खलु बहूनां द्विपद यावत-सरीसृपाणाम् अभिगमनीयः ? नो अयमर्थः समर्थः । कस्मात ? भदन्त ! सोपसर्गः ? एवमेव चित्र ! युष्माकमपि श्वेतविकायां नगर्या प्रदेशी नाम राजा परिवसति, अधार्मिको यावत्, नो सम्यकरभरवृत्ति प्रवर्त्तयति । तत् कथं खलु अह' चित्र ! श्वेतविकायां नगर्या समवसरिष्यामि ॥सू० ११५॥ टीका-'तएण से' इत्यादि ततः खलु स के शीकुमारश्रमणः चित्रेण सारथिना एवम् उक्त. प्रकारेण उक्तः सन् चित्रस्य सारथेः एतमर्थ ='यूयं श्वेतविकायां नगर्या का आहार करते हों, क्या ऐसी स्थिति में (से गूण चित्ता! से वणसंडे तेसि बहूण दुपय जाव सरीसिवाणं अभिगमणिज्जे ? हे चित्ते ! वह वनषण्ड उन अनेक द्विपद यावत् सरीसृपों के लिये अभिगमनीय हो सकता है ? (णो इणढे सम?) हे भदन्त ! ऐसी स्थिति में वह उनके लिये अभि गमनीय नहीं हो सकता है। (कम्हा) हे चित्र ! वह उनके लिये अभिग मनीय-प्रवेश के योग्य-क्यों नहीं हो सकता है ? (सोगसग्गे) क्यों कि हे भदन्त ! वह वनपण्ड विघ्नसहित है।(एवामेव चित्ता ! तुज्झपि से यावियाए णयरीये पएसी नाम राया परिवसइ, अहम्मिए जाव णो सम्म करभरवित्तिं पवत्ता--त कह चित्ता सेय वियाए नयरीए समोसरिस्सामि) इसी तरह से हे चित्र ! तुम्हारे लिये श्वेतांविका नगरी में प्रदेशी राजा रहता है वह अधार्मिक है यावत् प्रजाजनों से कर टेक्सले कर भी उनका अच्छी तरह से पालन पोषण नहीं करता है। तो हे चित्र! उस श्वेतांविका नगरी में हम लोग कैसे आवे भांस भने शातिना माह।२ ४२ता जाय तो शु सेवी परिस्थितिभा (से णण' चित्ता ! से वणसडे तेसि बहूण दुपय जाव सरिसिवाणं अभिगमणिज्जे ?) હે ચિત્ર ! તે વનખંડ તે ઘણું દ્વિપદે યાવત્ સરિસૃપો માટે અભિગમનીય અર્થાત विय ४२१। यो-४ी २४14 ? (णो इण हे सम टे) महत ! मेवी स्थितिમાં તે તેમના માટે અભિગમનીય થઈ શકે તેમ નથી. (૪) હે ચિત્ર ! તે તેમના भाटे म भिगमनीय-वियर ४२५० योग्य-भ नथी ? (सोवसग्गे) डेभडे मत ! ते वन विन सहित छ. (एवामेव चित्ता ! तुज्झपि सेयवियाए णयरीए पएसीनाम राया परिवसइ, अहम्मिए जाव णो सम्म करभरवित्ति पत्ता त कह णं अहं चित्ता सेयवियाए नयरीए समोसरिस्सामि) PAL प्रमाणे જ હે ચિત્ર ! તમારે માટે શ્વેતાંબિકા નગરીમાં પ્રદેશ રાજા રહે છે. તે અધાર્મિક છે યાવત્ પ્રજા પાસેથી કર-ટેકસ લઈને પણ તેમનું પાલન-રક્ષણ સારી રીતે કરતો નથી. તે એવી સ્થિતિમાં હું ધ તાંબિકા નગરીમાં કેવી રીતે જઈ શકું છું. ? શ્રી રાજપ્રશ્રીય સૂત્ર : ૦૨
SR No.006342
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages489
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_rajprashniya
File Size27 MB
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