________________
-
सुबोधिनी टीका. सूत्र १२८ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् १६९ इति वा, शुल्क भ्रंशयितुकामा नो सम्यक् पन्थान पृच्छन्ति, एवमेव पदेशिन् ! त्वमपि विनय भ्रशयितुकामा नो सम्यक् पृच्छसि, अथ नून तव प्रदेशिन् ! मां दृष्ट्वा अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः यावत् समुदपद्यत-जडाः खलु भो ! जड पर्युपासते यावत् प्रविचरितुं स नून प्रदेशिन् ! अर्थः समर्थ: हन्त ! अस्ति ॥ सू० १२८ ॥ पंथ पुच्छति) हे प्रदेशिन् ! जैसे अकरत्न के व्यापारी. अथवा शंखरत्न के व्यापारी, या दन्त के व्यापारी, अर्थात् शंख शुभ भी होता है इस लिये उसको रत्न कहा है, राजदेय भाग को नहीं देने की इच्छा वाले होकर जाने के अच्छे मार्ग को नहीं पूछते हैं (एवामेव पएसी तुन्भे वि यणं भंसेउकामो नो सम्म' पुच्छसि) इसी प्रकार से हे प्रदेशिन् ! विनयरूप प्रतिपत्ति को नहीं करने की कामना वाले बने हुए तुमने भी यह अच्छेरूप से नहीं पूछा है. (से गुण तव पएसी मम पासित्ता अय. मेयाख्वे अज्झथिए जाव समुप्पजित्था) हे प्रदेशिन् ! मुझे देखकर तुम्हें इस प्रकार का यह आध्यात्मिक यावत मनोगत संकल्प हुआ है (जड खलु भो! जड्ड पज्जुवासति जाव पवियरित्तए) जड पुरुष जड पुरुषकी पर्युपासना करते हैं यावत् मैं अपनी भी इस उद्यान भूमि में अच्छी तरह से घूम नहीं पा रहा हू (से गूण पएसी! अ? समत्थे? ) हे प्रदेशिन ! कहो मैं ठीक कह रहा हूं न? (हता, अत्थि) हां, आप ठीक कह रहे हैं। (पएसी! से जहाणामए अंकवाणियाइ वा, संखवाणियाइ वा, दंतवाणि. याइ वा, सुक भसिउकामा णो सम्मं पंथं पुच्छंति) 3 प्रशिन् ! म અંકરનના વહેપારી, કે શંખરનના વહેપારી કે દન્તના વહેપારી (શંખ શુભ પણ ગણાય છે તેથી અહીં તેને રત્નરૂપે ઉલ્લેખવામાં આવ્યું છે. રાજકર આપવાની ઈચ્છા न रावता त्यांथावान सारा मार्गा भाटे ५७५२७ ४२ता नथी (एवामेव पएसी तम्भे विवियण' असेउकामो नो सम्म पुच्छसि) मा प्रमाणे प्रशिन ! વિનયરૂપ પ્રતિપત્તિને ન આચરતાં તમે પણ આ વાત શિષ્ટભાવથી-નમ્રતાથपूछी नथी. (से गुण तव पएसी मम पासित्ता अयमेयारूवे अत्झथिए जाप समुप्पज्जित्था) : प्रशिनू भने धन तमने 24 प्रमाणुनो माध्यात्मि यावत भनोगत ४८५ अत्यन्न थयो छे (जड्डा खलु भो ! जड्ड पज्जुवासति जाव पवियरित्तए) १४ पुरुषोने से छे यावत् ई मा भारी वातानी प्रधान भूमिमा पर सारी शत आरामथा इश शरतो नथी. (से गूण पएसी ! अठे समत्ये १) ई प्रशिन! मासोईसराम२ ई. छुन ? (हता. अस्थि)डi, साथ ही होछी.
શ્રી રાજપ્રશ્રીય સૂત્ર: ૦૨