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________________ ४४३ सुबोधिनी टीका सू. १७५ सूर्याभदेवस्य आगामिभववर्णनम् भावः केशलोचो ब्रह्मचर्यवासः अस्नान कम् अदन्त र्णः अनुपानत्कम् भूमिशय्याः फलकशय्याः परगृहप्रवेशः लब्धापलब्धानि मानापमानाः परेषोंहीलनाः निन्दनाः खिंसनाः तजनाः ताडनाः गर्हणाः उच्चावचाः विरूपरूपाः द्वाविंशतिः परीषहा उपसर्गाः ग्रामकण्टकाः अधिसह्यन्ते, तमर्थम् आराधयिष्यति, चरमैरुच्छासनिः श्वासैः सेत्स्यत्ति भोत्स्यते मोक्ष्यते परिनिर्वास्यति सर्वदुःखानामन्तं करिप्यति।सू.१७५। का अनशन द्वारा छेदन करेंगे-अर्थात् संथारा करेंगे “जस्सहाए कीरइ, णग्गभावे केसलोए वंभचेरवासे-" इस प्रकार भक्तो का प्रत्याख्यान करके, और-अनशन द्वारा उनका छेदन करके वे दृढप्रतिज्ञ केवली जिस अर्थ को सिद्ध करने के लिये साधुजनों द्वारा नग्नभाव-अचेलत्व-परिमित-वस्त्रधारणत्व-केशलुम्चन ब्रह्मचर्यवास-" "अण्हाणगं, अदंतवणं-अणुवहाणगं, भूमिसेज्जांओ, फलहसेज्जाओ, परघरपवेसो, लद्धावलद्धाई, माणावमाणाई" स्नान नहीं करना-दन्तधावन करने का त्याग करना-पग में पगरखां मोझा आदि को नहीं पहनना-भूमिपर शयन करना-प्रस गवश पाट पर सोना-मिक्षादिके निमित्त पर घर में प्रवेश करना-लाभाऽलाभ-मानाऽपमान-"परेसिंहीलणाओ -निंदणाओ-खिसणाओ-तज्जणाओ- ताडणाओ-गरहणाओ-उच्चावया-- विरुवस्वा-" दूसगेंद्वाराकृत हीलना-निन्दना-खिंसना तर्जना-ताडना-गर्हणा-अनुकूल प्रतिकूल नाना प्रकार के -"बाबीसपरीसहा उवसग्गा गामकंटगा अहिया सिज्जंति-" वाइस परीषह, तथा-उपसर्ग एवं-इन्द्रियों के प्रतिकूल कंटक के समान शब्दादिक सहन किये जाते हैं-" तम आराहिस्सइ, चरमेहिं ऊसासनीसासेहि सणाए छेइस्सइ" घji तानु मनशन 43 छैन ४२७. "जस्सद्वाए कीरइ णग्गभावे केसलोए, वेयचेरवासे” मा प्रमाणे मतानु प्रत्याभ्यान प्रशने भने અનશન દ્વારા તેમનું છેદન કરીને તે દહપ્રતિજ્ઞ કેવલી જે અર્થની સિદ્ધિ માટે સાધુજને વડે નગ્નભાવ અચેલત્વ પરિમિત વસ્ત્ર ધારવ, કેશલુંચન, બ્રહ્મચર્યવાસ, "अण्हाणगं अदंतवणं अणुवहाणगं, भूमिसैज्जाओ फलहसज्जाओ, परघरपवेतो. लद्धावलद्धाई, माणावमाणाई-" स्नान २डित् २३, इन्तधावनना त्या ४२वो, પગરખા પહેરવા નહિ, ભૂમિપર શયન કરવું ફલક પર સુવું ભિક્ષદિ માટે પર घi valm Ree, भान २५मान-"परेसिं हीलणाओ निंदणाओ खिसणाओ तज्जणाओ ताडणाओ गरहणाओ उच्चावया विरूवरूवा" भीonो ५ ४२।येस डालना- निना, मिसना, तना, ताना. 5. मनुख प्रति भने ondनी "बावीसपरीसहा उबसग्गा गामकंटगा अहियासिज्जंति" मावीश परीपातमा उपस मनेन्द्रियाना प्रतिस २७६ वगेरे सडन ४२वामी मा छ, 'तम आराहिस्सइ, चरमेहि, ऊसासनीसासेहिं सिज्झिहिइ, बुझिहिइ, मुच्चिहिइ, શ્રી રાજપ્રશ્રીય સૂત્ર: ૦૨
SR No.006342
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages489
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_rajprashniya
File Size27 MB
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