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________________ सुबोधिनी टीका सू. १३५ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् म २२१ ततः खलु मम नगरगुप्तिकाः समक्ष सहोढ सगैवेयकम् अवकाटकबन्धनबद्ध चौरमुपनयन्ति, ततःखलु अहं तं पुरुषं जीवन्तमेव अयःकुम्भ्यां प्रक्षेपयामि, अयामयेन पिधान केन पिघापयामि. अयसा च त्रपुणा च आतापयामि, आत्मप्रत्ययिकैः पुरुषैः रक्षयामि, ततोऽहमन्यदा कदाचित् यत्रव सा अय ईश्वर ऐश्वर्यसंपन्न, तलवर, माडम्बिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति. सार्थवाह, मन्त्री, महामंत्री, गणक, दौवारिक, अमात्य, चेट. पीटम, नगरनिरासीजन, व्यापारिगण. दूत सन्धिपाल, इन सबके साथ बैठा हुआ था. (तएणं मम णगरगुत्तिया ससवख, सहोढं, सगेवेज', अव उडमबंध. णवद्ध चोर उवणेति) इतने में नगररक्षक मेरे समक्ष सहोद-चुराई हुई वस्तुओं सहित, सद्मवेयक-ग्रीवा में जिसने चुराई हुई वस्तुओं को बांधा है ऐसे चोर को अवकोटक-(मुसकिया) बंधन से बांधकर लाये (तएण अहं तं पुरिसं जीवतं चेव अउकुभीए पविखवावेमि) मैं उस पुरुष को जीवितावस्था में ही लोह की कोठी में बन्द करवा दिया-और (अउमएण पिहाण एणं पिहावेमि) उसके मुखको-कोठी के मुख को लोह के ढक्कन से बन्द करवा दिया-ढकवा दिया. (अएण य तउएण य अायावेमि) बाद में फिर मैंने उसे द्रवीभूत लोहे से और द्रवित रांग से अङ्कित करवा दिया, (आयपच्चइएहिं पुरिसे हिं रक्खावेमि) यह सब करवाकर फिर मैंने अपने विश्वासपात्र पुरुषों को उसकी रक्षा के नि मत्त नियुक्त करवा दिया. बुडे विहरासि) ugu नायी, नायडी, २०१, ४३२, मश्वयः, सपन्न, तस१२ भां४ि, औटुमि, Jल्य, श्रे०ी, सेनापति, सार्थवाह, भत्री, भडामत्री, ४, हो॥२४, अमात्य, 22, पाम, नानपान, पडेपारीमा, है तो, संधिपायो, सामधानी साथे मेहो तो, (तए णं मम णगरगुत्तिया ससक्ख सहोद, सगेवेज्जं, अवउडमबंधणबद्ध चोर उवणेति) भेटामा ना२२१४ भारी सामे सा –ચોરાએલી વસ્તુઓની સાથે, સરૈવેયક-જેની ડોકમાં ચેરાએલી વસ્તુઓ બાંધવામાં मापी छे सेवा थारने 24431ट-अन्न हाये ॥माधान दाव्या. (तए णं अहं त पुरिस' जीवंत चेव अउकुंभीए पक्खिवावेमि) में ते पुरुषने पते 1 सोम नामा म ४२वी घी, भने (अउमएणं पिहाणएण पिहावेमि) ते नजाने यो30 diseyथी ५ ४२वी दी. (अएण य तउएण य आयावेमि) ત્યાર પછી મેં તેને દ્રવીભૂત લેખંડ તેમજ દ્રવિત રાંગથી અંકિત કરાવી દીધ. (आयपञ्चइएहि पुरिसेहिं रक्खा वेमि) मा मधु ४२रावने पछी मैं तेना २६॥ શ્રી રાજપ્રશ્રીય સૂત્ર: ૦૨
SR No.006342
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages489
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_rajprashniya
File Size27 MB
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