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________________ राजप्रश्रीयसूत्रे स्कुम्भो तत्रैव उपागच्छामि उपागम्य तामयम् कुस्भीम् उक्षेपयामि उत्क्षेप्य तं पुरुष स्वयमेव पश्यामि नो चैव खलु तस्यां अयस्कुम्भ्यां किचित् छिद्रमिति वा विवरमिति वा अन्तरमिति वा राजिरिति वा यतः खलु स जीवः अन्तरा बहिर्निर्गतः, यदि खलु भदन्त ! तस्यां अयस्कुम्भ्यां भवेत् किमपि छिद्र वा यावद् राजिव यतः खलु स जीवः अन्तराद बहिनिर्गतः, तदा खलु अहं श्रद्दध्यां प्रतीयां रोचयेयं यथा-अन्यो जीवः अन्यत् शरीर नो तज्जीव (तए अहं अण्णा कयाई जेणामेव सा अकु भी तेणामेव उवागच्छामि ) एक दिन को बात है कि मैं उस अयःकुम्भी के लोहेकी कोठी के पास गया (उवागच्छित्तातं आउकुभिं उज्गलत्थावेमि) वहां जाकर मैंने उस लोहे की कोठो को खुलवाया (उग्गलस्थावित्ता तं पुरिसं सयमेव पासामि णो चेव णं तीसे अयकु भीए केइ छिडेइवा विवरेइ वा, अंतरेइ वा राइ वा ओण से जीवे अंतोहितोबहिया निग्गए) खुलवाकर मैंने स्वयं उस चोर को देखा तो वह यहां मरा पडा था, जब कि उस लोहे की कोठी में न कोई लिद्र था, न कोई विवर था, न अवकाश था, न कोई रेखा थी, कि जिससेहोकर उस चोर पुरुष का जीव उस लोहे की केोठी के भीतर से बाहर निकल जाता (जइ ण भंते ! तीसे अउकुंभीए- होजा केइ छिड्डे वा जाव राई वा जओ ण से जीवे अंतोहिंतो बहिया णिग्गए) हां भदन्त ! यदि उस लोहे की कोटी में, कोई छिद्र वा यावत् रेखा होती तो उससे होकर वह चोर पुरुष का जाव भीतर से बाहर भाटे विश्वासपात्र युइषोनी नियुक्ति उरी हीधी (तए अहं अण्णया कयाई जेणामेव सा अउकुंभी तेणामेव उवागच्छामि) येऊ हिवसनी बात छे हैं हुं ते बेोखंडना नजा पा गयो, ( उवागच्छित्ता तं आउकुभिं उग्गलत्थावेमि) त्यां बहाने में ते झोपडना नजाने उधडाव्या. (उग्गलस्थावित्ता तं पुरिसं सयमेव पासामि, णो aar तीसे अभीए केइ छिड्ड े वा विवरेइ वा. अंतरे वा, राई - वा, जओ से जीवे अंतोहिंतो वहिया निग्गए) उधडावीने में पोते ते थारने જોયે. તે તે તેમાં મૃતાવસ્થામાં પડેલે હતેા. જ્યારે તે લેખ’ડના નળામાં ન છિદ્ર હતું કે ન વિવર હતું કે ન અવકાશ હતા કે ન રેખા હતી કે જેથી તે ચારને कव ते सोमंउना नणामांथी महार नीजी कती रहे. (जइ ण भंते ! तोसे अउकु मीए होज्जा केइ छिड्डे वा जाव राइ वा जओग से जीवे अंतोहितो बहिया णिग्गए) 3 लहंत ! ले ते सोय उना नजामां अध छिद्र है यावत् देणा होत तो तमांथी थने ते यार पु३षनो व महस्थी महार नीडजी शस्त. (तो શ્રી રાજપ્રશ્નીય સૂત્ર : ૦૨ २२२
SR No.006342
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages489
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_rajprashniya
File Size27 MB
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