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________________ २७६ राजप्रश्नीयसूत्रे तं पुरुषमपहतमनःसंकल्पं यावत् ध्यायन्त पश्यन्ति, एवमवादिषुः-किं खलु त्वं देवानुप्रिय ! अपहतमनःसंकल्पः यावत ध्यायसि ? ततः खलु स पुरुष एवमवादीत-यूय खलु देवानुपियाः! काष्ठोनामटवीमनुपविशन्तः मम एवमवादिषुः:-वयं खलु देवानुपिय! काष्ठानामटवीं यावत अनुभविष्टाः, सं पुरिसे तेणेव उवागच्छ ति) जहां वह पुरुष था, वहां पर आये त पुरिसं ओहयमणसंकरप जाव झियायमाण पासंति) वहां आकरके उन्होंने उस पुरुष को मानसिक अभिलाषाओं से रहित हुआ और शोक तथा चिन्तारूपी सागर में निमग्न हुआ, कपोल पर हथेली रख कर आतध्यान करता हुआ, एवं नीचे दृष्टि किये हुए देखा, देखकर फिर उन्होंने (एवं वयासो) उससे ऐसा कहा-(किं णं तुम देवाणुप्पिया! ओह यमणसंकप्पे जाव झियायसि) हे देवानुप्रिय ! तुम किस कारण से अपहतमनः संकल्प वाले बने हुए हो और यावत् चिन्ता कर रहे हो (तए ण से पुरिसे एवं वयासी) तब उस पुरुषने उनसे ऐसा कहा-(तुज्झे णं देवाणुपिया! कट्ठाण अडवि अणुपविसमाणा मम एवं वयासी) हे देवानपियों! आपलोग जब लकडी काटने के लिये अटबी में प्रविष्ट होने के लिये तैयार हुए थे-तब मुझसे ऐसा कहा था-(अम्हे ण देवाणुप्पिया! कट्ठाण अडवि जाव अणुपविट्ठा) हे देवानुप्रिय हम लोग लकडी काटने के लिये इस जंगल में आगे जाते (जेणेव से पुरिसे तेणेव उवागच्छति) यो त पु३५ हता, त्यां गया. (त पुरिस ओहयमणकप्प' जाव झियायमाण पास ति) त्यi rन तेभो ते પુરૂષને માનસિક ઈચ્છાઓ જેની નષ્ટ પામી છે એ અને શેક તેમજ ચિંતા રૂપી સમુદ્રમાં નિમગ્ન થયેલ કપિલ પર હથેળી મૂકીને આર્તધ્યાન કરતે અને નીચી e std यो लेने पछी तभए (एवं वयासी) तेने या प्रमाणे ह्यु(किं णं तुम देवाणुपिया! ओहयमणसंकरपे जाव झियायसि) हे हेवानुप्रिय ! તમે શા કારણથી અપહત મનઃસંકલ્પ વાળા થઈ ગયા છો અને યાવત ચિંતા કરી રહ્યા છે. (तएण से पुरिसे एवं क्यासी) त्यारे ते पु३ तेभने मा प्रमाणे यहां. (तुज्झण देवाणुप्पिया! कहाणं अडविं अणुपविसमाणा मम एवं वयासी) દેવાનુપ્રિયે ! તમે સૌ જ્યારે લાકડા કાપવા માટે અટવીમા પ્રવિષ્ટ થવા તૈયાર यया तो त्यारे भने l प्रमाणे ह्युडतु-(अम्हेणं देवाणुप्पिया ! कठ्ठाण अडविं जाव अणुपविठ्ठा) हेवानुप्रिय ! अमे मा यो अपना भाटे मा અટવીમાં આગળ જઈએ છીએ. તે તમે ત્યાં સુધી અગ્નિ પાત્રમાંથી અફિન લઈને શ્રી રાજપ્રશ્રીય સૂત્ર: ૦૨
SR No.006342
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages489
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_rajprashniya
File Size27 MB
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