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________________ २६२ राजप्रश्नीयसूत्रे वाऽऽह-एवं खलु हे भदं त ! यावत्-यावत्पदेन 'बाह्यायामुपरथानशाला यामनेकगणनायक-दण्डनायक-राजेश्वर-तलवर-माडम्बिक-कौटुम्बिकेभ्य श्रेष्ठि-सेनापति-सार्थवाह-मन्त्रि-महामन्त्रि गणक-दौवारिकामात्य-चेट पीठमई नगरनिगमदूतसन्धिपालैः सार्द्ध संपरितः" इत्येषां पदानां सङ्ग्रहो बोध्या, एषां व्याख्या षटूत्रिंशदधिकशततमसूत्रे गता । विहरामि-तिष्ठाभि, मैं कह रहा हूं उससे इन दोनों की अभिन्नता ही प्रकट होती है, यह बात इस प्रकार से है-मै एक दिन गणनायक आदिकों के साथ अपनी बाह्य उपस्थान शाला में बैठा हुआ था. नगर रक्षक एक चोर को पकड. कर मेरे समक्ष लाये-में ने उसे पहिले तो जीवितावस्था में तोला, बाद में उसे मार कर तोला. तोलने पर उसके भार में कुछ भी न्यूनाधिकता नहीं आई. अतः इससे मैं इसी निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि उस चोर का वही जीव है और वही शरीर है. न जीव अन्य है और न शरीर अन्य है। यहां 'जाव नो उवागच्छई' में जो यावत्पद आया है उससे 'एषा प्रज्ञात उपमा, अनेन पुनः वक्ष्यमाणकारणेन' इस पाठका संग्रह हुआ है। इनका विवरण १३८वे सूत्र में किया जा चुका हैं। 'जाव विहरामि' में आये हुए यावत्पद से 'बाह्यायामुपस्थानशालाया अनेक गणनायक-दण्डनायक, राजेश्वर, तलचर. माडम्बिकेभ्य-श्रेप्ठि-सेनापति-सार्थवाह-मंत्रि-महामंत्रि गणक-दौवारिका मात्य-चेट-पीठमद नगर निगम-दूतसंधिपालैः साधसंपरिवृतः' इस पाठ का જન્ય હોવાથી અવાસ્તવિક જ છે. એથી જે વાત હું કહું છું તેથી એ બંનેની અભિન્નતા જ પ્રકટ થાય છે. એ વાત આ પ્રમાણે છે. હું એક દિવસ ગણનાયક વગેરેની સાથે મારી બાહ્ય ઉપસ્થાનશાળામાં બેઠા હતા ત્યાં નગરરક્ષકો એક ચેરને પકડીને મારી સામે લાવ્યા. મેં પહેલાં તેનું જીવતાં જ વજન કર્યું ત્યાર પછી તેને મારીને પછી તેનું વજન કર્યું. તે તેના વજનમાં કઈ પણ જાતની ચૂનાધિક્તા જણાઈ નહિ. એથી હું આ નિષ્કર્ષ પર આવ્યું છે કે તે ચોરને જીવ છે શરીર છે. અને શરીર છે તેજ જીવ છે જીવ અન્ય નથી અને શરીર અન્ય નથી અહીં 'जाव नो उवागच्छइ' भारे यावत् ५६ मावेश छ तेथी (एषा प्रज्ञातउपमा, अनेन पुनः वक्ष्यमाणकारणेन'' मा पानी सड थयो छे. मानु स्पष्टी४२६४ १३८ । सूत्र ४२वामा माव्यु छ. (बाह्यायामुख स्थानशालायां अनेकगण नायक-दण्डनायक, राजेश्वर, तलवर माडबिक, कौटुम्बिकभ्य, श्रेष्ठिसेनापति-सार्थवाह-मांत्रि-महामत्रि गणक-दोबारिकामात्य-चेट पीठ मर्द શ્રી રાજપ્રશ્રીય સૂત્ર: ૦૨
SR No.006342
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages489
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_rajprashniya
File Size27 MB
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