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________________ १५२ राजप्रश्नोयसूत्रे वर्तय रथम् । ततः खलु स चित्रः सारथिः रथ परावर्त यति, यत्रैव मृगवनमुद्यान तत्रैवोपागच्छति, प्रदेशिन राजानमेवमवादीत्-एष खलु स्वामिन मृगवनमुद्यान, अत्र खलु अश्वानां श्रम काम सम्यग् अपनयामः। ततः खलु स प्रदेशी राजा चित्रं सारथिमेवमवादीत-एव भवतु चित्र ! ॥स०१२५।। टीका-'त एण से चित्ते' इत्यादि-ततः खलु स चित्र: सारथि: कल्ये आगामिनिदिवसे पादुष्पभातायां प्रादु:-प्रकाशित प्रभातं यस्यां, तस्यां रजन्यां रात्रौ सत्याम्, निशावसाने इत्यर्थः, अथ-पुनःफुल्लोत्पलकमल. लते मे सरीरे परावत्तेहिं रह) हे चित्र ! मेरा शरीर थक रहा है, अतः तुम रथ को वापिस लौटा लो (तए ण से चित्ते सारही रह परावत्तेइ, जेणेव मियवणे उज्जाणे तेणेव उबागच्छइ) तब उस चित्र सारथिने रथको लौटा लिया और जहां मृगवन नामका उद्यान था उस ओर चल दिया (पए सिं राय एव' वयासी)वहां पहुंच कर उसने प्रदेशा राजा से ऐसा कहा (एस ण सामी मियेवणे उज्जाणे एत्थ ण आसाण सम किलाम सम्म अवणेमो) हे स्वामिन् ! यह मृगवन नामका उद्यान है यहां ठहरकर घोडों को श्रम को और ग्लानि को मैं अच्छी तरह से दूर किये लेता है। (तए ण से पएसी राया चित्तं सारहि एवं वयासी) तब वह प्रदेशी राजा चित्र सारथि से इस प्रकार बोला (एवं होउ चिता) हे चित्र ! भले तुम ऐसा करो। टीकार्थ-इसको बाद दूसरे दिन चित्र सारथि प्रातः काल होते ही रात्रिकी समाप्ति होते ही-अपने घर से निकला ऐसा संबंध यहां लगाना चाहिये. जब यह घर से निकला उस समयतक कमल विकसित हो चुके હે ચિત્ર! મારું શરીર શ્રમયુકત થઈ ગયું છે, એથી તમે રથને પાછા વાળી લે. (त एण से चित्त सारही रह परावत्ते इ; जेणेव मियवणे उजाणे तेणेव उवागच्छइ) त्यारे ते यत्र साथिये २थने पाछ। पाजी सीधे। अनेन्या भूभवन नाभे धान तुते त२३२थने यो. (पएसिं राय एय क्यासी) त्यां पहचाने तेणे प्रशी ने माम यु. (एसण सामी मियवणे-उज्जाणे एत्थ ण आसाण सम किलाम सम्म अवणेमो) के स्वामिन् ! मा भृगवन नाभे धान છે. અહીં રોકાઈને હું ઘોડાઓના થાકને અને ખિન્નતાને સારી રીતે મટાડી લઉં છું. (त एण' से पएसी राया चित्त सारहिं एवं वयासी) त्यारे प्रदेशी रामे यित्र साथिने या प्रमाणे ४ . (एवं होउ चित्ता) इथित्र ! सा३ तमे लदो माम ३३१. ટીકાર્થ–ત્યારપછી બીજા દિવસે રાત્રી પૂરી થતાં તેમજ સવાર થતાં જ ચિત્ર સારથિ પિતાના ઘેરથી નીકળે. એ અર્થ અહીં કર ઘટે છે. તે જયારે પિતાના શ્રી રાજપ્રશ્રીય સૂત્ર: ૦૨
SR No.006342
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages489
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_rajprashniya
File Size27 MB
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