SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०८ राजप्रश्नीयसूत्रे तएणं ते उज्जाणपालगा चित्तेणं सारहिणा एवं वुत्ता समाणा हट्ट. तुट जाव हिययो करयलपरिग्गहिय जाव एवं वयासी-तहत्ति अणाए विणएणं वयणं पडिसुणंति ॥सू० ११७॥ ___ छाया-ततः खलु स चित्रः सारथिः केशिकुमारश्रमण वन्दते नमः स्थति केशिनः कुमारश्रमणस्य अन्तिकात् कोष्ठकात् चैत्यात प्रतिनिस्कामति, यत्रोव श्रीवस्ती नगरी यत्रैव राजमार्गमवगाढः आवासस्तत्रौव उपागच्छति, कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादील-क्षिपमेव भो देवानु प्रियाः ! चातुर्घण्टम् अश्वरथ युक्तमेव उपस्थापयत, यथा श्वेतविकाया ('तएण') इसके बाद (से चित्ते सारही) उस चित्र सारथीने (केसि कुमारसमण वंदइ नमसइ) केशीकुमार श्रमण को वन्दना की और नमस्कार किया (केसिस्स कुमारसमणस्स अतियाओ कोट्टयाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ) पश्चात् में वह केशीकुमार श्रमण के पास से और उस कोष्टक चैत्य से चला आया. (जेणेव सावत्थी गयरी जेणेव रायमग्गमोगाढ आवासे तेणेव उवा गच्छइ) आकर वह जहां श्रावस्ती नगरी थी एवं उसमें जिस तरफराजमार्ग पर स्थित आवास था वहां पर आया (कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ) वहां आकर के उसने कौटुम्बिक-आज्ञाकारी पुरुषों को बुलाया (सहावित्ता एवं वयासी) बुलाकर उनसे ऐसा कहा-(खिप्पामेव भो देवाणुपिया! चाउग्घंट' आसरह जुतामेव उवट्ठवेह) हे देवानुप्रियों ! तुम लोग शीघ्र चार घंटों वाले अश्वरथ को तैयार करके ले आओ.(जहा सेयंवियाए णयरीए निग्गच्छइ, त एण से चित्ते ! सारही' इत्यादि । सूत्रार्थ -(त एणं) त्या२ ५७ (से चित्ते सारही) ते यिनसाथीये (केसिकुमारसमण वेदइ नमसइ) शीमा२ श्रमाने न तमा नभ२४।२ ४ा. (केसिस्स कुमारमणस्स अंतियाओ-कोट्टयाओ चेइयाओ पडिनिक्रनमइ) त्यार પછી તે કેશીકુમાર શ્રમણ પાસેથી અને તે કોષ્ટક મૈત્યમાંથી બહાર આવી ગયો. (जेणेव सावत्थी णयरी जेणेव रायमग्गमोगाढे आवासे तेणेव उवागज्छइ) આવીને તે જ્યાં શ્રાવસ્તી નગરી હતી અને તેમાં પણ જ્યાં રાજમાર્ગો પર સ્થિત निवासस्थान हेतु त्या मा०यो. (कोडवियपुरिसे सदावेइ) त्यां पडांयीन ते औ४ि पु३षाने-मारी पु३वाने माराव्या (सदावित्ता एवं वयासी) मातापान तभने PAL प्रमाणे ह्यु (खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! चाउरघंटे आसरह जुत्तामेव उवढवेह) वानुप्रिया ! तमे व सत्वरे या२ माथी युत શ્રી રાજપ્રશ્રીય સૂત્ર: ૦૨
SR No.006342
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages489
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_rajprashniya
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy