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________________ ३७० राजप्रनीयसूत्रे प्रदेशिनो राज्ञः इमं रहस्यभेद करिष्यति, इति कृत्वा प्रदेशिनो राज्ञः छिद्राणि च मर्माणि च रहस्यानि च विवराणि च अन्तराणि च प्रतिजाग्रती प्रतिजाग्रती विहरति ।। सू० १६२ ॥ टीका - "तए णं तीसे" इत्यादि - दे - ततः खलु तस्याः सूर्यकान्ताया देव्या प्रदेशिराजस्य पराज्ञ्या अयमेतद्रूपः - वक्ष्यमाणप्रकारक : आध्यात्मिकः - आत्मगतो विचार: यावत् - यावत्पदेन “चिन्तितः कल्पितः प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः” इति संग्राह्यम् अर्थस्तु पूर्घसूत्रे गतः, समुदपद्यत - संजातः, तदेव दर्शयति-यत्प्रभृति - प्रद्दिनादारभ्य च खलु प्रदेशी राजा श्रमणोपासकः - श्रावको जातः, तत्प्रभृति तद्दीनादारभ्य च खलु राज्यं - स्वाम्यमात्य - सुहृत् - कोष -राष्ट्र - दुर्ग - सूरियकंते कुमारे पएसि स रण्णो रहस्सभेयं करिरस त्ति कहु पए सिस्स रणो छिंद्दाणिय-मम्माणिय-रहस्साणिय-विवराणिय- अंतराणिय पडिजागरमाणी पडिजागरमाणी विहरs - " सूर्यकान्तकुमार प्रदेशी राजा के पास, अर्थात् - प्रदेशी राजा से मेरी इस मन्त्रणा को प्रकाशित न करदे ? अतः - वह इस विचार से प्रदेशी राजा के छिद्रों को, दोषों को, मर्मों को, कुकृत्यरूप लक्षणों को - रहस्यों को एकान्तस्थान में सेवित निषिद्ध आचरणों को, विवरों को, निर्जनस्थानों को, और - अवकाश लक्षणरूप अन्तरों को बडी सावधानी के साथ बार- २ देखने लगी - अर्थात् - इन सब पर वह कडी दृष्टि रखने लगी. ॥ टीकार्थ — स्पष्ट है. “अज्झत्थिए जाव' में आगत इस यावत् पदसेचिन्तित कल्पित प्रार्थित मनोगत संकल्प, इन पदों का संग्रह हुवा है । इन विचार के विशेषणों का अर्थ पहले प्रकट किया जा चुका है । " रज्ज' च जाव अंतेउर च - " में आगत यावत् पद से - " बलं वाहनं कोष कोष्ठागार एसिस रण्णो रहस्सभेयं करि सह त्ति कटु पएसिस्स रण्णो छिद्दक्षणिय मम्म:णिय रह साणिय, विवराणिय अंतराणिय पडिजागरमाणी पडिजागरमाणी विहरइ" सूर्यांत भार प्रदेशी राज्यनी पासे भेटले } अहेशी रामने भारी मा વાત કહી દે નહિ એથી તે પ્રદેશી રાજાના છિદ્રોને, દોષોને, માને, કુષ્કૃત્યરૂપ લક્ષણાને, રહસ્યાને, એકાન્ત સ્થાનમાં સેવિત નિષિદ્ધિ આચરણાને, વિવાને, નિર્જન સ્થાનાને અને અવકાશ લક્ષણુરૂપ અન્તરાને બહુજ સાવધાનીપૂર્વક વારંવાર જોવા લાગી. એટલે કે બધી હિલચાલ પર ષ્ટિ રાખવા માંડી. टीडार्थ–स्पष्ट ०४ छे. “अज्झत्थिए जाव" भां आवेला यावत् पहथी “चिन्तितः, कल्पितः प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः " या पहोनो संग्रह थयो छे, या महोना समर्थ पहेलां स्पष्ट ४श्वामां आव्यो छे. "रज्ज' च जाव अंतेउरं च" भां यावेत यावत् पहथी શ્રી રાજપ્રશ્નીય સૂત્ર : ૦૨
SR No.006342
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages489
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_rajprashniya
File Size27 MB
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