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________________ सुबोधिनी टीका सु. ११० सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् कृत्वा वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा नात्यासन्ने नातिदूरे शुश्रूषपाणा नमस्यन अभिमुखे प्राञ्जलिपुटो विनयेन पर्युपासते । ११० | ६९ चेइए के सिकुमारसमणे तेणेव उवागच्छइ) निकलकर वह जहां कोष्ठक चैत्य था और उसमें भी जहां केशीकुमारभ्रमण थे वहां पहुँचा (उबागच्छित्ता के सिकुमारसमणस्य अदृरसाम ते तुरए णिगिव्हइ ) वहां पहुँच कर उसने केशिकुमारश्रमण के स्थान से कुछ थोडी दूर पर घोडां को खडा कर दिया (रह ठवेs) रथको खड़ा कर दिया (ठचित्ता पच्चोरुहई ) खडा करके फिर वह उससे नीचे उतरा (पचोरुहिता जेणेव के सिकुमारसमणे तेणे व उवागच्छइ) नीचे उतर कर वह जहां केशीकुमार श्रमण थे वहां पर गया ( उवागच्छित्ता के सिकुमारसमण तिक्खुत्तो आग्राहिणपयाहिण करेइ) वहां जाकर उसने केशीकुमार श्रमण को तीनबार प्रदक्षिणा की (करिता वंदन, नमसइ) प्रदक्षिणा करके फिर उसने उनको बन्दना की, नमस्कार किया (वदिता नमसित्ता णच्चासरणे णाइदूरे सुस्सुसमाणे णर्मसमाणे अभिमुद्दे पंजलिउडे विणणं पज्जुवासइ) वन्दना नमस्कार करके फिर वह न अधिक दूर और न अधिक पास ऐसे उचित स्थान पर धर्मोपदेश सुनने की इच्छा से बैठ गया. वहां बेटे ही उसने उनके समक्ष विनय से दोनों हाथ जोडकर उनकी पर्युपासना की. ! टीकार्थ इसका स्पष्ट है ॥ ११० ॥ जेणेव केसि कुमारसमणे तेणेव उवागच्छइ) नीजीने ते ज्यां श्रेष्ठ सैत्य तु . भ्यने तेमां पशु नयां देशीकुमार श्रम हृता त्यां गयो, ( उवागच्छित्ता के सिकुमार समणस्स अदूरसाम ते तुरए णिगिण्हइ) त्यां पडथीने तेथे शिकुमार श्रमगुना स्थानथी थोड़ा अ ंतरे घोडामाने उलाराभ्या. (रह ठवेइ) स्थने थालाव्या. ( ठवित्ता पत्रोरुहई) उलो शमीने पछी ते रथ परथी नीचे उतय. (पबोरुहित्ता जेणेव के सिकुमारसमणे तेणेव उपागच्छई) नीचे उतरीने ते भ्यां शीकुमार श्रम इता त्यां गये।. (उवागच्छित्ता के सिकुमार समण तिक्खुत्तो आयाहिणययाहिणं करेइ) त्यां बर्धने तेषु शीकुमार श्रमणुनी प्रणुषार प्रदक्षिणा उरी. (करिता बंद, नमसइ) प्रदक्षिणा मरीने तेथे तेमने वहन र्या, नमस्सार र्या. ( वंदित्ता नमसित्ता पचासणे णाइदरे सुस्सुसमाणे णमसमाणे अभिमुहे पंजलिउडे विणण पज्जुवासड़) वंढना तेभन नमस्डार अरीने ते दूर पण नहि भने वधारे નજીક પણ નહિ એવા ચેાગ્ય સ્થાન પર તે ધર્મ શ્રવણની ઇચ્છાથી એસીને જ તેણે તેમની સામે વિનયપૂર્વક હાથ જોડીને તેઓશ્રીની પ`પાસના કરી. टीअर्थ – सूत्र स्पष्ट ४ हे. ॥११०॥ શ્રી રાજપ્રશ્નીય સૂત્ર : ૦૨
SR No.006342
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages489
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_rajprashniya
File Size27 MB
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