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सुबोधिनी टीका' सू. १२० सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् १२३ सोरथेहं यत्र व चित्रः सारथिस्तत्र वोपागच्छन्ति चित्रं सारथिं करतल. यावद् वर्द्धयन्ति, ए वनवादिषुः-पस्य खलु देशानुपियाः दर्शन कान्ति, यावत्-अभिलषन्ति, यस्य खलु नामगोत्रस्यापि श्रवणतया हृष्ठ यावद् भवन्ति म खल्वयं के शीकुमारश्रमणः पूर्वानुपूर्वी चरन् ग्रामानुग्राम द्रवन् इहैव उद्याने मृगवने समवसृतः यावद् विहरति ॥ सू० १२० ॥
टीका-'तएण सेयवियाए' इत्यादि । व्याख्या निगदसिद्धा ॥म. १२०॥ इस प्रकार की बातचीत को वे स्वीकार कर लेते हैं। बाद में (जेणेव सेयंबिया णयरी, जेणेव चित्तस्स सारहिस्स गिहे जेणेव चित्ते सारही तेणेव उवागच्छति) वे जहां श्वेतांबिका नगरी थी और उसमें भी जहां चित्र सारथि का गृह था एवं वहां पर भी जहाँ चित्र सारथी था वहां पर आये (चिन सारहि करयल जाव बद्धावे ति, एव वयासी) वहां आकर के उन्होंने चित्र सारथि के प्रति बडे विनय के साथ अपने दोनों हाथों को अंजलि बनाकर उसे मस्तक पर से घुमाते हुए नमग्कार किया. तथा जयविजय शब्दों का उच्चारण कर उसे बधाई दी और फिर ऐंसा कहा-'जस्स ण देवाणुप्पिया ! दसण क खति, जाव अभिलसंति, जस णं णामगोयस्स वि सवयाए हट्ट जाव भवंति, से ण' अयं केसीकुमारममणे पुरवाणुपुचि चरमाणे गामानुगाम दृहज्जमाणे इहेव मियवणे उज्जाणे समोसह जाब विहरइ) हे देवानुप्रिय! आप जिसके दर्शन की चाहना रखते हैं, यायत् अभिलाषा रखते हैं तथा जिसके नामगोत्र के भी श्रवण से भी आप हृष्टतुष्ट यावत् हृदय वाले हो जाते हैं वे ये केशीकुमारश्रमण पूर्वानुपूर्वो से विचरते हुए, एक ग्राम से सेय बिया णयरी, जेणेव चित्तस्स सारहिस्स गिहे जेणेव चिन सारही तेणेव उवागच्छति) तो यi inst नगरी ती मने तेभा पन्या थिसारथी
तो त्यां गया. (चित्तं सारहिं करयल जाव बद्धाति, एवं वयासी) त्या पडत्याने તેમણે ચિત્રસારથિને બહુજ નમ્રપણે બન્ને હાથની અંજલિ બનાવીને અને તેને મરતક પર ફેરવીને નમસ્કાર કર્યા તેમજ જયવિજ્ય શબ્દોનું ઉચ્ચારણ કરીને તેને qधामी -पापी. मने पछी तेने २प्रभा ह्यु. (जस्सण' देवाणुप्पिया ! दसण'
खति. जाव अभिलसति, जस्स ण णामगोयस्स वि सवणयाए हट जाव भवति, से ण अय केसीकुमारसमणे पुवाणुपुचि चरमाणे गामानुगाम दुइज्जमाणे इहेव मियवणे उज्जाणे समोसढे जाव विहरई) ७ वानुप्रिय ! તમે જેઓશ્રીના દર્શનની ઈચ્છા ધરાવતા હતા, યાવત્ અભિલાષા રાખતા હતા. તેમજ જેઓશ્રીના નામગોત્રના શ્રવણ માત્રથી જ તમે હૃષ્ટ-તુષ્ટ યાવત હૃદયવાળા
શ્રી રાજપ્રશ્રીય સૂત્ર: ૦૨.