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सुबोधिनी टीका सू. १५१ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशोराजवर्णनम् ३१५ स प्रदीपः तद् इडुरकम् अन्तरन्तः अवभासयति४, नो चेव खलु इड्डरकस्य बहिः, नो चैव खलु कूटाऽऽकारशालायाः बहिः। एवं गोकिलिम्जेन. पक्षिपिट. केन, गण्डमाणिकया आढकेन, अर्धाढ केन, प्रस्थकेन, अर्ध प्रस्थकेन, कुडवेन, अर्द्धकुडवेन, चतुर्भागिकया, अष्टभागिकया, षोडशिकया, द्वात्रिंशत्कया, दिखाने से उसे प्रभासित करता है। ( अहण से पुरिसे तं पई इड्डरएणं पिहेज्जा, तएण से पईचे त' इड्रय' अंतो२ ओभासेइ४) यदि वह पुरुष उस दीपक को किसी बडे ढकन से ढक देता है तो वह दीपक उस बडे ढक्कन के भीतरी भाग को ही प्रकाशित करता है यावत् उसे प्रभासित करता है (णो चेव ण इड्डरगस्स बाहिं णो चेव ण कूडागारसालाए बाहिँ) उस बडे ढक्कन के बाहिरी भाग को एवं कूटाकारशाला के बाह्यदेश को प्रकाशित यावत् प्रभासित नहीं करता है। (एवं गोकिलिंजेण, पच्छिपिंडएण, गडमणियाए, आढएण, अद्धाढएण, पत्थएण, अद्धपत्थएण कुलवेण, वाउभाइ याए, अट्ठभाश्याए, सोलसियाए) इसी तरह उस दीप को गोकिलिञ्ज से-गाय को खाना जिसमें रखा जाता है ऐसी कुण्डिका से, तथा पक्षी के आकरवाले वंशशलाका निर्मित पात्र विशेष से, गण्ड. मणिका से-धान्य नापनिका से, आढक से, अर्धाढक से, प्रस्थक से, अर्ध प्रस्थक से, कुडवसे, अर्धकुडव से, न सब देश विशेष में प्रसिद्ध धान्यमापक पात्र विशेषों से ढक देता है तथा चतुर्भागिका से, अष्टभागिका १८५८ वगैरे पदार्थाने मतावान तभने प्रतिभाषित ५९] ४२तो नथी. (अहं णं से पुरिसे तं पईवं इड्डरएणं पिहेज्जा, तए ण से पर्व त इड्डय' अंतो २
ओभासेइ ४) वे ने ते ५३५ ते टीपने भाटा ढizथी ढil हे तेते ५ તે મેટા ઢાંકણાના અંદરના ભાગને જ પ્રકાશિત કરે છે, યાવત્ તેને પ્રતિભાસિત કરે छ. (णो चेव णं इरगस्स बाहि णो चेव णं कूडागारसालाए बाहि) તે મેટા ઢાંકણાના બહારના ભાગને તેમજ તે કુટાકાર શાળાના બાહ્ય પ્રદેશને પ્રકાશિત यावत् तेने प्रतिभासित ४२ नथी. (एवं गोकिलिजेण' पच्छिपिंडएण, गंडमणियाए, आढएण', अद्धाढएण, पत्थएण, अद्धपत्थएणं, कुलवेण, चाउब्भाइयाए, अभाइयाए, सोलसियाए) 21 प्रमाणे ते भास ते दीपने गा. લિંજથી-ગાયને જેમાં ખાણ મૂકવામાં આવે છે. એવી કુંડીથી, તેમજ પક્ષીના આકારવાળા વંશ શલાકાનિર્મિત પાત્ર વિશેષથી, ગંડ મણિકાથી-ધાન્ય માપનિકાથી, આઢકથી, અર્વાઢકથી, પ્રસ્થકથી, અર્ધપ્રસ્થકથી, કુડવથી, અર્ધકુડવથી, આ બધા દેશ વિદેશમાં પ્રસિદ્ધ ધાન્યમાપક પાત્ર વિશેથી તેને ઢાંકી દે છે તેમજ ચતુર્ભાગીકાથી,
શ્રી રાજપ્રશ્રીય સૂત્ર: ૦૨