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________________ २७२ राजप्रश्रीयसूत्र हारकः! प्रदोशन् ! ते यथानामकाः कचित् पुरुषाः वनार्थिनः वनापजीविनः बनगवेषणया ज्योतिश्च ज्याति जनं च गृहीत्वा काष्ठानामटवीमनुप. विष्टाः, ततः खलु ते पुरुषाः तस्याः अग्रामिकायाः यावत् किञ्चिद्दे शमनुप्राप्ताः सन्तः एक पुरुपमेवमवादिषु:-वयं खलु देवानुप्रिय! काष्ठाना. मटवीं प्रविशामः, इतः खलु त्वं ज्योतिर्भाजनात् ज्योतिर्गृहीत्वाऽस्माकममुझे अधिक मूर्ख प्रतात होते हा (के णं भंते ! कहरए) हे भदन्त ! वह काष्ठहर कैसा था? इस प्रकार जब प्रदेशीने कहा---तब (पएसी) केशीकुमारश्रमणने कहा-हे प्रदेशिन् ! सुनो (से जहा णामए केइ पुरिसो वण्णत्थी वणोक्जीवी वणगवेसणयाए जोइ च जोइभायणं च गहाय कट्ठाण अडवि अणुपबिहा) कितनेन बनार्थी और वनोपजीवी काष्ठहारक पुरुष थे। वन की गवेषणा करते२ किसी एक अटवी में प्रविष्ट हो गये, साथ में उन्होंने अग्नि:- रखने का आधारभूत पात्र ले रखा था. उस अटवी में इन्धन बहुत था. (तए ण ते पुरिसा सीसे अग्गमियाए अडवीए किंचि देसं अणुपत्ता समाणा) जब वे पुरुष उस ग्रामरहित अटवी में कुछ दूर तक पहुच चुके, तब (एगपुरिसं एवं वयासी) उन्होंने एक पुरुष से ऐसा कहा--(अरहे गं देवाणुप्पिया ! कट्ठ णं अडविं पविसोमो) हे देवानु. प्रिय ! हमलोग इस काष्ठप्रधान अटवी में आगे प्रविष्ट होते हैं (एत्तो. णं तुमं जोइभायणाओ जोई गहाय अम्ह असणं साहेज्जासि) तवतक तुम भूसा छे. (के गं भंते ! कहारए), लहत ४२ यो त ? मा प्रमाणे न्यारे प्रशी सतसे -त्यारे (पएसी!) अशीशुभारभरे ह्यु , प्रशिन् ! साला (से जहानामए केइ पुरिसा वण्णत्थी वणोवजीवी वणगवेसणयाए जोंच जोइभायणं च गहाय कहाणं अडविं अणुपविहा): seats વનાથી અને વને પજવી કાષ્ટાહારક પુરૂષ હતા. તેઓ વનમાં શોધતાં શોધતાં કઈ એક અટવીમાં પ્રવિષ્ટ થઈ ગયા. તેમણે પિતાની સાથે અગ્નિ તેમજ અગ્નિને મુકવામાં માટે આધારભૂત પાત્ર લઈ રાખ્યાં હતા. તે અટવીમાં લાકડાઓ પુષ્કળ प्रभाशुभा उता. (तए ण ते पुरिसा तीसे अरगमियाए अडवीए किंचिदेस अणुपत्ता समाणा) न्यारे ते मधाते आभहित नि वीमा यी ६२या त्यारे (एगं पुरिसं एवं वयासी) तभी से पुरुषने मा प्रमाणे यु: (अम्हे ण देवाणुप्पिया! कठ्ठाणं अडवि पविसामो) ३ हेपानुप्रिय ! समे 40 ४४ प्रधान 22वीभi 4g AIR प्रवेशीले छोय. (एत्तोणं तुम जोइभायणाओ जोंई શ્રી રાજપ્રશ્રીય સૂત્ર: ૦૨
SR No.006342
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages489
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_rajprashniya
File Size27 MB
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