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________________ १३० राजप्रश्नीयस्त्रे णाम् । तद् यदि खलु देवानुप्रिय ! प्रदेशिनो बहुगुणतर भवेत्, स्वक स्यापि च खलु जनपदस्य ।। मू० १२२ ॥ टीका-'तए णं से चित्ते' इत्यादि-ततः तदनन्तर खलु म चित्रः सारथिः केशिनः कुमारश्नमणस्य अन्तिके समीपे धर्म जिनोतं धुत्वाकर्ण गोचरीकृत्य निशम्य हृद्यवधार्य हृष्टतुष्ट तथैव-पूर्व व देव हृष्टतुष्टचित्तानन्दितः मीतिमनाः परमसामनस्यितः हर्षवशविसर्पहृदयः, इति सग्राह्यम् । अर्थस्तु पूर्व गतः। एवमवादीत्-किमवादीत् ? इत्याह-एवं खलु यत् हे भदन्त अस्माकं प्रदेशी राजा अधार्मिकः यावत्-यावत्पदेन-अधर्मिष्ठादीनि सर्वाणिविशेषणानि एकशततमस्त्रोक्तानि संग्राह्याणि, एषामर्थोऽपि तत्रैव विलोयदि आप हे देवानुप्रिय ! उस प्रदेशी राजा को जिनपरूपित धर्म का उपदेश देखें तो वह उस प्रदेशी राजा के लिये और परलोक में बहुत गुणकारी होगा, तश अनेक द्विपद, चतुरूपद, मृग, पशु, पक्षी एव सरीसृपसर्प आदिको का हितावह होगा (तेसिं च बहण समणमाहणभिक्खु. याण) और उन अनेक श्रमण मोहण, भिक्षुकों के लिये बहुत ही अधिक लाभदायक होगा (तं जइ ण देवाणुपिया ! पए सिस्स बहुयुणतर होजा, सयस्स वि य ण जणवयस्स) यदि वह धर्मो देश प्रदेशी राजा का हितकारक हो जाता है तो उसक जनपद-देश का इससे बडा भला होगा। टोकार्थ इसका स्पष्ट है। हतु तहेव एवं वयासी' में तथैव' पद से 'हृष्टतुष्टचित्तानन्दितः, पीतिमनाः, परमसीमनस्थितः, हर्षवशविसपदयः' इस पाठ का ग्रहण हुआ है, इन पदों का अर्थ पहिले लिखा जा चुका है। 'अहम्मिए जाव' में आगत पद से' 'अधर्मिष्ठ' आदिक विशेषणों का गृहण જે આપ દેવાનુપ્રિય તે પ્રદેશી રાજાને જિન પ્રરૂપિત ધર્મને ઉપદેશ આપે છે તે પ્રદેશી રાજાને આ લેક અને પરલેક અતીવ ગુણકારી થાય અને ઘણાં દ્વિપદ, ચતુ ૫દ, મૃગ, પશુ, પક્ષી અને સરીસૃપ એટલે કે સાપ વગેરેના માટે પણ હિતાવહ થાય. (तेसिं च बहूण समणमाहणभिक्खुयाण मने ते घा! अभए भाइ भिक्षुडाना भाटे पा अतीव हिताय थाय. (त जइ ण देवाणुप्पिया ! पएसिसम बहुगुणतर' होज्जा, सयस्स वि य ण जणवयस्स) न्ने मापने। धर्भापदेश प्रदेशी रात पोताना જીવનમાં ઉતારે તે તેનું પોતાનું અને તેના જનપદ–દેશનું પણ તેનાથી ઘણું કલ્યાણ થાય તેમ છે. मा सूत्रन टी २५०८ ०४ छ. "ह तट्ट तहे। चयासी 'मां' तथैव" १४थी "हृष्टतुष्टचित्तानन्दितः प्रोतिमनाः परमसौमनस्थितः, हर्ष वश. विसपद्धदयः" tusने सर थये। छ. मा सब पहने। म पडसा २५ट ४२वाभा माया छे. "अहम्मिए जाव" भी आवेर यावत् पहथी 'अधभिष्ठः' શ્રી રાજપ્રશ્રીય સૂત્ર: ૦૨
SR No.006342
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages489
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_rajprashniya
File Size27 MB
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