Book Title: Aagam 06 GYATA DHARM KATHA Moolam evam Vrutti
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६] श्री ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रम नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः । __“ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं वृत्ति: [मूलं एवं अभयदेवसूरि रचित वृत्तिः ] [आदय संपादक: - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा.।। (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D.) 07/09/2014, रविवार, २०७० भाद्रपद शुक्ल १३ jain_e_library's Net Publications मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०६], अंग सूत्र-०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~0~ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [-] अध्ययनं [-], मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Ja Education in AARRRRRRR तयः १००० ] प्रकाशयित्री - १२५० पत्तनवास्तव्यश्रेष्ठिउत्तमचंदखीमचंद १२०० सुरतद्वंगवास्तव्यझव्हेरीमगनभाइप्रतापचंद १००० श्रेष्ठिअमीचंद खुशालचंद सव्हेरीवितीर्णपूर्णद्रव्यसाहाय्येन श्रेष्ठिवेणीचन्द्रसुरचन्द्रद्वारा श्रीआगमोदयसमितिः मोहमय्यां 'निर्णयसागर ' मुद्रणालये रामचंद्र येसु शेडगेद्वारा मुद्रयित्वा प्रकाशितम् । अर्हम् । चन्द्रकुलालङ्कारश्रीमद्भवदेवसूरित्रित विवरणयुतं श्रीमत् ज्ञाताधर्मकथाङ्गम् । ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रस्य मूल "टाइटल पेज" श्रीरसंवत् २४४५ विक्रमसंवत् १९७५ क्राइष्ट १९१९. बेतनं १-१२० [ Rs.1-12-01 wa For P&Fitn ~1~ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाका १६५ + ५७ मूलांक: ००१ ०४२ ०५५ ०६२ ०६३ ०७४ ०७५ ०७६ ११० १४१ श्रुतस्कन्धः १ अध्ययनं ०१ - उत्क्षिप्तज्ञातं ०२ - संघाटकं ०३ - अंड: ०४- कूर्म्मः ०५- शेलक ०६- तुम्बकः ०७- रोहिणी ०८- मल्ली ०९- माकंदी १०. चन्द्रमा पृष्ठांक: ००४ १५८ १८४ १९५ २०१ २२९ २३२ २४४ ३१४ ३४२ ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्रस्य विषयानुक्रम मूलांक: १४२ १४३ १४५ १४८ १५७ १५८ १८४ २०८ २१३-२२० wwwww श्रुतस्कन्धः १ अध्ययनं ११- दावद्रवः १२- उदकज्ञातः १३- दर्दुरकः १४- तैतलिपुत्र १५- नंदिफलं १६- अपरकंका १७- अश्व: १८- संसुमा १९- पुण्डरीकः पृष्ठांक ३४५ ३४९ ~2~ ३५८ ३७० ३८८ ३९४ ४५७ ४७२ ४८७ मूलांक: २२० २२५ २२६ २२७ २२८ २३४ २३५ २३६ २३७२३८-२४१ दीप- अनुक्रमाः २४१ श्रुतस्कन्धः २ वर्ग: ०१ - चमरेन्द्र अग्रमहिषि ०२ - बलिन्द्र अग्रमहिषि ०३ - धरणादि अग्रमहिषि ०४- भूतानंदादि अग्रमहिषि ०५- पिशाचादि अग्रमहिषि ०६- महाकाल अग्रमहिषि ०७- सूर्य अग्रमहिषि ०८- चन्द्र अग्रमहिषि मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र [०६] “ज्ञाताधर्मकथा” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ०९ शक्र अग्रमहिषि १०- ईशान अग्रमहिषि पृष्ठांक ४९५ ५०४ ५०५ ५०६ ५०६ ५०७ ५०७ ५०७ ५०८ ५०८ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ['ज्ञाताधर्मकथा' - मूलं एवं वृत्ति:] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले “ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्र” के नामसे सन १९१९ (विक्रम संवत १९७५) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | इसी प्रत को फिर से दुसरे पूज्यश्रीओने अपने-अपने नामसे भी छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के, अपना एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. जिसमे किसीने पूज्यपाद सागरानंदसूरिजी के नाम को आगे रखा, और अपनी वफादारी दिखाई, तो किसीने स्वयं को ही इस पूरे कार्य का कर्ता बता दिया और श्रीमसागरानंदसूरिजी तथा प्रकाशक का नाम ही मिटा दिया | * हमारा ये प्रयास क्यों? • आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर श्रुतस्कन्ध, अध्ययन, मूलसूत्र- आदि के नंबर लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा अध्ययन, उद्देशक आदि चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढ़ते हए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस [H दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-|| ऐसी दो लाइन खींची है या फिर गाथा शब्द लिख दिया है | हमने एक अनुक्रमणिका भी बनायी है, जिसमे प्रत्येक अध्ययन एवं उद्देशक लिख दिये है और साथमें इस सम्पादन के पृष्ठांक भी दे दिए है, जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते अध्ययन या विषय तक आसानी से पहुँच शकता है | अनेक पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट भी लिखी है, जिसमे उस पृष्ठ पर चल रहे खास विषयवस्तु की, मूल प्रतमें रही हुई कोई-कोई मुद्रण-भूल की या क्रमांकन सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है । अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसि को मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। ......मुनि दीपरत्नसागर. ~3~ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [?] का. घ. “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र -६ (मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [-] मूलं [१] आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित RESULTRAtestse श्रुतस्कन्ध: [१] अईम् । नवाङ्गीवृत्तिकारक श्रीमदभयदेवसूरिवरविहितवृत्तियुतं गणत्पादप्रणीतं श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गम् । ॥ नत्वा श्रीमन्महावीरं, प्रायोऽन्यग्रन्थवीक्षितः । ज्ञाताधर्मकथाङ्गस्यानुयोगः कथिदुच्यते ॥ १ ॥ तत्र च फलमङ्गलादि चर्चः स्थानान्तरादवसेयः, केवल मनुयोगद्वार विशेषस्योपक्रमस्य प्रतिभेदरूपप्रकान्तशास्त्रस्य वीरजिनवरेन्द्रापेक्षयाऽर्थतः आत्मागमत्वं तच्छिष्यं तु पञ्चमगणधरं सुधर्मखामिनमाश्रित्यानन्तरागमखं सच्छिष्यं च जम्बूखामिनमपेक्ष्य परम्परागमतां प्रतिपिपादयिषुः | अथवा अनुगमारूयस्य तृतीयस्यानुयोगद्वारस्य भेदभूताया उपोद्घातनिर्युक्तेः प्रतिभेदभूतनिर्गमद्वारखभावं प्रस्तुत ग्रन्थस्वार्थतो महावीर निर्गतखमभिधित्सुः सूत्रकारः- 'तेणं काले 'मित्यादिकमुपोद्यात ग्रन्थं तावदादावाह ॐ नमः सर्वज्ञाय । ते णं काले णं ते णं समए णं चंपानामं नयरी होत्था वण्णओ ॥ (सूत्रं १ ) तत्र योऽयं शब्दः स वाक्यालङ्कारार्थः, ते इत्यत्र च य एकारः स प्राकृतशैलीप्रभवो यथा 'करेमि भंते!' इत्यादिषु ततोऽयं वाक्यार्थो जातः - तस्मिन् काले तस्मिन् समये यस्मिन्नसौ नगरी बभूवेति, अधिकरणे चेयं सप्तमी, अथ कालसमययोः कः प्रति For Parts Only ~4~ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं -], ----------------- मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: साध्य प्रत सूत्रांक [१] जाताधर्म- विशेषः, उच्यते, काल इति सामान्यकालः अवसर्पिण्याश्चतुर्थविभागलक्षणः समयस्तु तद्विशेषो पत्र सा नगरी स राजा |१उ कथानम्. सुधर्माखामी च भून, अथवा तृतीयवेयं, ततस्तेन कालेन-अवसर्पिणीचतुर्थारकलक्षणेन हेतुभूतेन तेन समयेन-तविशेषभूतेन । हेतुना 'चंपा नाम नयरी होस्थति अभवत् आसीदित्यर्थः, ननु चेदानीमपि सास्ति किं पुनरधिकृतग्रन्थकरणकाले , तत्कथ- चम्पावर्ण॥१ ॥ मुक्तमासीदिति ?, उच्यते, अवसर्पिणीत्वात् कालस्य वर्णकान्थवर्णितविभूतियुक्ता तदानीमासीद् इदानीं नास्तीति 'वपणओ'ति नं सू.१ |चम्पानगर्या वर्णकग्रन्थोऽवावसरे वाच्यः, स चार्य-'ऋद्धस्थिमियसमिद्धा' ऋद्धा-भवनादिभिर्वद्विमुपगता स्तिमिता-भयवर्जितत्वेन स्थिरा समृद्धा-धनधान्यादियुक्ता ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः 'पमुइयजणजाणवया' प्रमुदिताः प्रमोदकारणवस्तूना| सद्भावाअनाः-नगरीवास्तव्यलोका जानपदाच-जनपदभवास्तत्रायाताः सन्तो यस्यां सा प्रमुदितजनजानपदा 'आइण्णजणम-10 गुस्सा' मनुष्यजनेनाकीणों-संकीणों, मनुष्यजनाकीर्णेति वाच्ये राजदन्तादिदर्शनादाकीर्णजनमनुष्येत्युक्तं, 'हलसयसहस्स-18 संकिट्टवियट्ठलट्ठपन्नत्तसेउसीमा' हलाना-लाङ्गलानां शतैः सहस्रैश्च शतसहा -लक्षैः संकृष्टा-विलिखिता विकृष्ट-दरं यावदविकृष्टा वा-आसना लष्टा-मनोज्ञा कपकाभिमतफलसाधनसमर्थखात् 'पण्णत्ते'ति योग्या कृता बीजवपनस्य सेतुसीमा-12 मार्गसीमा यस्याः सा तथा, अथवा संकृष्टादिविशेषणानि सेतूनि-कुल्याजलसेक्यक्षेत्राणि सीमासु यस्याः सा तथा, अनेन तजनIS पदस्थ लोकबाहुल्य क्षेत्रबाहुल्य चोक्तं 'कुकुडसंडेयगामपउरा' कुकुटा:-ताम्रचूडा पाण्डेयाः-पण्डपुत्रकाः पण्डा एव तेषां ग्रा. N ||१ ॥ |मा:-समूहास्ते प्रचुरा:-प्रभूता यस्यां सा तथा, अनेन लोकप्रमुदितत्वं व्यक्तीकृतं, प्रमुदितो हि लोकः क्रीडार्थ कुकुटान् पोषयति पण्डांच करोतीति, 'उच्छुजवसालिकलिया' अनेन च जनप्रमोदकारणमुक्तं, नोवंप्रकारवस्त्वभावेन प्रमोदो जनस्स स्यादिति, दीप अनुक्रम [१] हात चम्पा-नगर्या: वर्णनम् ~5~ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ------------------ अध्ययनं [-], -------------- मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक |'गोमहिसगलगप्पभूया' गवादयः प्रभूताः-अनुरा यस्यामिति वाक्यं गयेलका-उरभ्राः 'आयारवंतचेयजुबइविवि-18 हसपिणविट्ठबहुला' आकारवन्ति-सुन्दराकाराणि यानि चैत्यानि-देवतायतनानि युवतीनां च-तरुणीनां पण्पतरुणीमामिति हृदयं यानि विविधानि संनिविष्टानि-संनिवेशनानि पाटकास्तानि बहुलानि-बहूनि यस्यां सा तथा 'कोडियगायगंठिभेयभडतकारखंडरक्खरहिया' उकोडा उत्कोटा-लश्चेत्यर्थः तया ये व्यवहरन्ति ते उत्कोटिकाः गात्रान् मनुष्यशरीरावयव विशेषान् कव्यादेः सकाशाद्रन्थिकार्षापणादिपोहलिका भिन्दन्ति-आच्छिन्दन्तीति गात्रग्रन्थिभेदा भटाः-चारभटा बलात्कारप्रवृत्तयः तस्कराः-तदेव-चौर्य कुर्वन्तीत्येवंशीलास्तस्कराः खण्डरक्षा-दण्डपाशिकाः शुल्कपाला पा एभी रहिता या सा तथा, अनेन तत्रोपद्रवकारिणामभावमाह, 'खेमा' अशिवाभावात् 'निरुवहुवा' निरुपद्रुता अविद्यमानराजादिकतोपद्रवेत्यर्थः, 'सुमिक्षा सुष्टु-मनोज्ञा प्रचुरा भिक्षा भिक्षुकाणां यस्यां सा सुभिक्षा, अत एव पाखण्डिकानां गृहस्थानां च 'वीसत्यमुहावासा' विश्व-13 | स्तानां निभेयानामनुत्सुकाना वा सुखा-सुखखरूपः शुभो वा आवासो यस्यां सा तथा, 'अणेगकोडीकोटुंबियाइण्णनि-2 वुयमुहा' अनेकाः कोटयो द्रव्य संख्यायां खरूपपरिमाणे वा येषां ते अनेककोटयः ते कौटुम्बिकै:-कुटुम्बिभिवाकीणों-T संकुला या सा तथा सा चासो निर्वता च-संतुष्टजनयोगात् संतोषवतीति कर्मधारयोऽत एव सा चासौ मुखा च शुभा च वेति कर्मधारयः, 'नडनद्दगजल्लमल्लमुट्ठियवेलंवगकहकपवकलासकआइक्खयलंखमंखतूणहल्लतुंबवीणियअणेगतालाचराणुचरिया' नटा-नाटकानां नाटयितारो नर्चका-ये नृत्यन्ति अंकोल्ला इत्येके जल्ला-वरत्राखेलकाः राज्ञः स्तोत्रपाठका इत्यन्ये मल्ला:-प्रतीताः मौष्टिका-मल्ला एव ये मुष्टिमिः प्रहरन्ति विडम्बका-विदूषका: कथका:-प्रतीताः प्लवका-ये दीप अनुक्रम [१] viralundurary.org चम्पा-नगर्या: वर्णनम् ~6~ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं -], ----------------- मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक [१] दीप ज्ञाताधर्म उत्प्लवन्ते नधादिकं वा तरन्ति लासका ये रासकान् गायन्ति जयशब्दप्रयोक्तारो वा भाण्डा इत्यर्थः आख्यायिका-ये शुभा- १ उरिक्षकथाङ्गम्. शुभमाख्यान्ति लङ्का-महावंशानखेलका मसा:-चित्रफलकहस्ता भिक्षाका: तूणइल्ला-तूणाभिधानवाचविशेषवन्तः तुम्बवी- साध्य.. |णिका-वीणावादका अनेके च ये तालाचराः-तालादानेन प्रेक्षाकारिणस्तैरनुचरिता-आसे विता या सा तथा, 'आरामुजाण- चम्पावणे॥२॥ अगडतलायदीहियवप्पिणगुणोववेया' आरमन्ति येषु माधवीलतागृहादिषु दम्पत्यादीनि ते आरामा उद्यानानि-पुष्पा-IST नं. सू.१ दिमक्षसंकुलान्युत्सवादी बहुजनभोग्यानि, 'अगड'त्ति अवटा:-कूपास्तडागानि प्रतीतानि दीर्घिकाः-सारण्यः, 'वप्पिण'त्ति केदाराः एतेषां ये गुणा-रम्यतादयस्तैरुपपेता-युक्ता या सा तथा, उप अप इत इत्येतस्य शब्दत्रयस्य स्थाने शकन्ध्वादिदर्शनादकारलोपे उपपेतेति भवतीति, 'उबिद्धविपुलगंभीरखायफलिहा' उद्विद्ध-उण्डं विपुलं-विस्तीर्ण गम्भीरम्-अलब्धमध्यं खातम्-उपरि विस्तीर्ण अधः संकटं परिखा च अध उपरि च समखातरूपा यस्खाः सा तया, 'चक्कगयमुसुंडिओरोहसयग्घिजम-16 लकवाडघणदुप्पपेसा' चक्राणि-अरघट्टयत्रिकाचक्राणि गदाः-प्रहरणविशेषाः, मुसुण्ख्योऽप्येवं, अवरोध:-प्रतोलीद्वारेष्ववान्तर-18 प्राकारः संभाव्यते, शतभ्यो-महापाप्यो महाशिलामय्यः याः पातिताः शतानि पुरुषाणां मन्ति यमलानि-समसंस्थितद्वयरूपाणि || यानि कपाटानि धनानि च-निश्छिद्राणि ते१प्रवेशा या सा तथा, 'धणुकुटिलवंकपागारपरिखित्ता' धनु:-कुटिलं-18 कुटिलधनुः, ततोऽपि वक्रेण प्राकारेण परिक्षिता या सा तथा, 'कविसीसयवट्टरइयसंठियविरायमाणा' कपिशीर्षकैवृत्तरचितैः-वर्तुलकृतैः संस्थितैः-विशिष्टसंस्थानवनिर्विराजमाना-शोममाना या सा तथा 'अहालयचरिषदारगोपुरतोरणउन्न-INI॥२॥ यसुविभत्तरायमग्गा' अट्टालका:-प्राकारोपरिवाश्रयविशेषाः चरिका-अटहस्तप्रमाणो नगरप्राकारान्तरालमार्गः द्वाराणि अनुक्रम चम्पा-नगर्या: वर्णनम् Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं -], ----------------- मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक भवनदेवकुलादीनां गोपुराणि-प्राकारद्वाराणि तोरणानि-प्रतीतानि उन्नतानि-गुणवन्ति उच्चानि च यखां सा तथा, सुविभक्ता|विविक्ता राजमार्गा यस्यां सा तथा ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, 'छेयायरियरइयदढफलिहइंदकीला' छेकेन निपुणेनाचार्येणशिल्पिना रचितो दृढो-बलवान् परिषः-अर्गला इन्द्रकीलश्च-गोपुरावयव विशेषो यस्यां सा तथा "विवणिवणिछेत्तसिप्पियाइपणनिव्वुयसुहा' विषणीनां वणिपथानां हट्टमार्गाणां वणिजां च-वाणिजकाना क्षेत्रं-स्थानं या सा तथा शिल्पिभिः-कुम्भकारादिभिराकीर्णा सुनितैः सुखैश्च--सुखिभिर्या राजदन्तादिदर्शनात् सा तथा 'सिंघाडगतिगचउक्कचचरपणियावणविविह-18 वत्थुपरिमंडिया' शृङ्गाटक-त्रिकोणं स्थानं त्रिक-यत्र रथ्यात्रयं मिलति चतुष्कं-रध्याचतुष्कमीलक: चखरं-बहुरध्यापातस्थान | पणितानि-भाण्डानि तत्प्रधाना आपणा-हट्टाः विविधवस्तूनि-अनेकविधद्रव्याणि एभिः परिमण्डिता या सा तथा 'सुरम्माण अतिरमणीया 'नरवइपविइन्नमहिवइपहा' नरपतिना-राज्ञा प्रविकीर्णो-गमनागमनाभ्यां व्याप्तः महीपतिपथो राजमार्गों यस्यां सा तथा, अथवा नरपतिना प्रविकीगों-विक्षिप्ता निरस्ता शेषमहीपतीनां प्रमा यस्यां सा तथा, 'अणेगवरतुरगमत्तकुंजररहपहकरसीयसंदमाणीआइन्नजाणजुग्गा' अनेकवरतुरगैर्मत्तकुञ्जरैः 'रहपहयर'त्ति रथनिकरैः शिषिकाभिः स्वन्दमानाभिराकीर्णा-व्याप्ता यानयुग्यैश्च या सा तथा, तत्र शिविका:-कूटाकारेण छादिता जम्पान विशेषा खन्दमानिका:पुरुषप्रमाणजम्पान विशेषाः यानानि-शकटादीनि युग्यानि-गोल्लविषयप्रसिद्धानि द्विहस्तप्रमाणानि वेदिकोपशोभितानि जम्पाना-1 न्येवेति, 'विमउलनवनलिणिसोभियजला विमुकुलाभिः-विकसितकमलाभिनेवाभिनलिनीभिः-पद्मिनीभिः शोभितानि जलानि यस्यां सा तथा, 'पंडरवरभवणसन्निमहिया' पाण्डुरैः-सुधाधवलैर्वरभवनैः-प्रासादैः सम्यक् नितरां महितेव महिता दीप अनुक्रम [१] चम्पा-नगर्या: वर्णनम् ~8~ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं -], ----------------- मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म प्रत 6262 सूत्रांक ॥३ ॥ र्णनं सू.२ दीप पूजिता या सा तथा, 'उत्ताणनयणपेच्छणिज्जा' सौभाग्यातिशयादुत्तान:-अनिमिषैत्रेयनैः-लोचनैः प्रेक्षणीया या सा तथा १ उरिक्षकथाङ्गम्. पासाईया' चित्तप्रसत्तिकारिणी 'दरिसणिज्जा' यां पश्यञ्चक्षुः श्रमं न गच्छति, 'अभिरूपा' मनोज्ञरूपा 'पडिरूवा साध्य प्रतिरूपा द्रष्टारं द्रष्टारं प्रति रूपं यस्याः सा तथेति । पूर्णभद्रवतीसे णं चंपाए नयरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए पुण्णभद्दे नामं चेइए होत्था। वण्णओ (सूत्रं ३) तत्थ णं चंपाए नयरीए कोणिको नाम राया होत्था वण्णओ । (सूत्रं ३) कोणिकवतस्या णमित्यलङ्कारे चम्पाया नगा 'उत्तरपुरस्थिति उत्तरपौरस्त्ये उत्तरपूर्वायामित्यर्थः 'दिसीभाए'त्ति दिग्रभागे र्णनं सू.३ पूर्णभद्रं नाम चैत्यं-व्यन्तरायतनं, 'वण्णओति चैत्यवर्णको वाच्यः, स चायं-'चिराइए पुवपुरिसपन्नत्ते' चिर:-चिर-18 18| काल आदि:-निवेशो यस्य सचिरादिक, अत एवं पूर्वपुरुषैः-अतीतनरैः प्राप्त-उपादेयतया प्रकाशितं पूर्व पुरुषप्रज्ञप्तं 'पुराणे'ति चिरादिकखात् पुरातने 'सदिए' शब्द:-प्रसिद्धिः स संजातो यस्य तच्छब्दितं 'वित्तए' विर्त-द्रव्यं तदस्ति यस्य तद्वित्तिकं वृति वा आश्रितलोकानां ददाति यनद्वचिदं 'नाए न्यायनि यकखात न्यायः ज्ञातं वा-शातसामर्थ्यमनुभूततत्प्रसादेन लोकेनेति,128 'सच्छते सज्झए सघंटे सपडागाइपडागर्मडिए' सह पताकया वर्तत इति सपताकं एका पताकामतिक्रम्य या पताका सातिपताका तया मण्डितं यत्चत्तथा तच्च तच्चेति कर्मधारयः, 'सलोमहत्थे लोममयप्रमार्जनकयुक्तं 'कयवेयय(दि)ए' कृतं ४ ॥ ३ ॥ वितर्दिकं-रचितवेदिक 'लाउल्लोइयमहिए' लाइयं यद्भूमेश्छगणादिनोपलेपनं उल्लोइयं-कुड्यमालाना सेटिकादिभिः संसृष्टीकरणं ततस्ताभ्यां महितमिव महितं-पूजितं यत्तत्तथा, 'गोसीससरसरत्तचंदणदहरदिन्नपंचंगुलितले' गोशीर्षण-सरसरक्तचन्दनेन अनुक्रम 2626the26L6 कोणिक-राज्ञ: वर्णनं ~9~ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [२,३] दीप अनुक्रम [२,३] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र- ६ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [-] श्रुतस्कन्धः [१] मूलं [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः च दर्दरेण - चहलेन चपेटाकारेण वा दत्ताः पंचाङ्गुलास्तला हस्तकाः यत्र तत्तथा, 'उवचियचंद्रणकलसे' उपचिता- निवेशिताः चन्दनकलशा-मङ्गल्यघटा यत्र तत्तथा, 'चंदणघडसुकयतोरणपडिदुबारदेसभागे' चन्दनघटाव सुष्ठु कृतास्तोरणानि च द्वारदेशभार्ग प्रति यसिंस्तच्चन्दन घटसुकृततोरणप्रतिद्वारदेशभागं, देशभागाश्व देशा एव, 'आसत्तोससविपुलवद्वबग्घारियमल्लदामकलावे' आसक्तो भूमौ संबद्धः उत्सक्त- उपरि संबद्धः विपुलो- विस्तीर्ण: वृसो-वर्तुलः 'बग्घारिय'त्ति प्रलम्बमानः माल्यदामकलापः - पुष्पमालासमूहो यत्र तत्तथेति 'पंचवण्णसुरभिमुकपुप्फपुञ्जवयारकलिए' पंचवर्णेन सुरभिणा मुक्तेनक्षिप्तेन पुष्पपुञ्जलक्षणेनोपचारेण पूजया कलितं यत्तत्तथा 'कालागरुपवरकुंदुरुक्कतु रुकधूव मघमघंतगंधुद्धयाभिरामे' कालागरुप्रभृतीनां धूपानां यो मघमघायमानो गन्ध उद्भूत उद्भूतस्तेनाभिरामं यत्तत्तथा तत्र कुंदुरु-चीडा तुरुकं सिल्हकं 'सुगं| ववरगंधगंधिए सद्गन्धा ये वरगन्धा - वासास्तेषां गन्धो यत्रास्ति तत्तथा 'गंधवट्टिभूए' सौरभ्यातिशयात् गन्धद्रव्यगुटिकाकल्पमित्यर्थः 'नडनकजल्ल मल्लमुट्ठिय वेलंब गपवककहकलासक आइक्खयलंखमख तूण इल्लववीणिय भुयगमागहपरिगए' पूर्वबन्नवरं भुजगा-भोगिन इत्यर्थः भोजका वा तदचका मागधा - मट्टा: 'बहुजणजाणवयस्स विस्सुयकित्तिए' बहो र्जनस्य पौरस्य जानपदस्य च - जनपदभवलोकस्य विश्रुतकीर्त्तिकं प्रतीतख्यातिकं, 'बहुजणस्स आहुस्स आहुणिज्जे आहोतुःदातुः आहवनीयं संप्रदानभूतं 'पाहणिज्ये' प्रकर्षेण आहवनीयमिति गमनिका 'अञ्च्चणिज्जे' चन्दनगन्धादिभिः 'वंदणिज्जे' सुतिभिः 'प्रयणिज्जे' पुष्पैः 'सकारणिज्जे' वस्त्रैः 'सम्माणणिज्जे' बहुमानविषयतया 'कल्लाणं मंगलं देवयं चेहयं विणएणं पज्जुवासणिज्जे' कल्याणमित्यादिधिया विनयेन पर्युपासनीयं 'दिवे' दिव्यं प्रधानं 'सच्चे' सत्यं सत्यादेशबाद 'सच्चोवाए'' cation कोणिक- राज्ञः वर्णनं For Parts Only ~10~ Standar Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [२,३] दीप अनुक्रम [२,३] श्रुतस्कन्धः [१] मूलं [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६ ] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्. ॥ ४॥ Jan Eticat “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [-] सत्यावपातं ' सत्यसेवं' सेवायाः सफलीकरणात् 'सन्निहियपाडिहेरे' विहितदेवताप्रातिहार्य 'जागसहस्स भागपडिच्छए' यागाः- पूजा विशेषा ब्राह्मणप्रसिद्धास्तत्सहस्राणां भागम् - अंशं प्रतीच्छति आभाव्यत्वात् यत्तत्तथा 'बहुजणो अचे आगम्म पुण्णभद्दं चेइअं । से णं पुण्णभद्दे चेइए एकेणं महया वणसंडेण सङ्घओ समता संपरिखित्ते' सर्वतः सर्वदिक्षु समन्तात् विदिक्षु च 'से णं वणसंडे किण्हे किण्होभासे' कृष्णावभासः - कृष्णप्रभः कृष्ण एव वावभासत इति कृष्णावभासः, 'नीले नीलोभासे' प्रदेशान्तरे 'हरिए हरिओमासे' प्रदेशान्तर एव तत्र नीलो मयूरगलवत् हरितस्तु शुकपिच्छवत्, हरितालाभ इति वृद्धाः, 'सीए सीओ भासे' शीतः स्पर्शापेक्षया पल्ल्याद्याक्रान्तखादिति वृद्धाः, 'निद्धे निद्धोभासे' स्निग्धो न तु रूक्षः, 'तिचे तित्रोभासे' तीव्रो वर्णादिगुणप्रकर्षवान्, 'किण्हे किण्हच्छाए' इह कृष्णशब्दः कृष्णच्छाय इत्यस्य विशेषणमिति न पुनरुक्तता, तथाहि कृष्णः सन् कृष्णच्छायः, छाया चादित्यावरणजन्यो वस्तुविशेषः, एवं 'नीले नीलच्छाए हरिए हरियच्छाए सीए सीधच्छाए निद्धे निद्धच्छाएं तिचे तिवच्छाए घणकडियकडिच्छाए' अन्योऽन्यं शाखानुप्रवेशाद्वहलनिरन्तरच्छायः 'रम्मे महामेह निकुरंबभूए' महामेघवृन्दकल्पे इत्यर्थः, 'ते णं पायवा मूलमंतो कंदमंतो' कन्दो-मूलानामुपरि 'स्वधर्मतो' स्कन्धः -स्थूडं 'तथामंतो' सालमंतो शाला- शाखा 'पवालमंतो' प्रवाल:- पल्लवाङ्कुरः, 'पत्तमंतो पुप्फमंतो फलमंतो बीयमंतो' 'अणुपुव सुजावरुइलव भावपरिणया' आनुपूव्येण मूलादिपरिपाठ्या सुष्ठु जाता रुचिराः वृत्तभावं च परिणता ये ते तथा 'एकधा अणेगसाला अणेगसाहप्पसाहविडिमा' अनेकशाखा प्रशाखो विटपस्तन्मध्यभागो वृक्षविस्तारो येषां ते तथा 'अणेगणरवामसुप्पसारियअगेज्झधणविपुलवहखधा' अनेकाभिर्नरवामाभिः सुप्रसारिता भिरग्राह्यो tatond पूर्णभद्र चैत्यस्य वर्णनं For Parts Only ~ 11~ १ उत्क्षि साध्य • पूर्णभद्रवर्णनं सू. २ कोणिकव र्णनं सू. १ ॥ ४ ॥ nary org Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [२,३] दीप अनुक्रम [२,३] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [-] श्रुतस्कन्धः [१] मूलं [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः घनो- निविडो विपुलो- विस्तीर्णो वृत्तथ स्कन्धो येषां ते तथा 'अच्छिदपत्ता' नीरन्ध्रपर्णा 'अविरलपत्ता' निरन्तरदला: 'अवाईणपत्ता' अवाचीनपत्रा:- अधोमुखपलाशाः अवातीनपत्रा वा अवातोपहतः 'अणईइपत्ता' ईतिविरहितच्छदाः, 'निदुजरठपंडुरयपत्ता' अपगतपुराणपाण्डुरपत्राः, 'नवरियभिसंतपत्तभारंधकारगंभीरदरिस णिज्जा' नवेन हरितेन 'भिसन्त'चि दीप्यमानेन पत्रभारेण दलसंचयेनान्धकारा-अन्धकारवन्तः अत एव गम्भीराव दृश्यन्ते ये ते तथा 'उवनिग्गयनवतरुण पत्तपल्लवको मलउज्जल चलंत किसलय सुकुमालपवाल सोहिय वरंकुरग्गसिहरा' उपनिर्गतैर्नवतरुण पत्रपल्लवैरिति- अभिनवपत्रगुच्छेः तथा कोमोज्ज्वलद्भिः किशलयै:- पत्र विशेषैस्तथा सुकुमालप्रवाले: शोभितानि वराङ्कुराण्यग्रशिखराणि येषां ते तथा, इह चाङ्कुरप्रवालकिशलयपत्राणां अल्पव हुबहुतरादिकालकृतावस्थाविशेषाद् विशेषः संभाव्यत इति, 'निचं कुसुमिया निचं माझ्या' मयूरिताः 'निचं लवड्या' पल्लविताः 'निचं थवइया' स्तबकवन्तः 'निचं गुलइया' गुल्मवन्तः, 'निचं गोच्छिया' जातगुच्छाः, यद्यपि स्तबकगुच्छयोरविशेषो नामकोशेऽधीतस्तथाऽपीह विशेषो भावनीयः, 'निचं जमलिया' यमलतया समश्रेणितया व्यवस्थिताः, 'निचं जुयलिया' युगलतया स्थिताः 'निचं विणमिया' विशेषेण फलपुष्पभारेण नताः, 'निचं पणमिया' तथैव नन्तुमारब्धाः, 'निचं कुसुमियमाइयलवड्यथवइयगुलइयगोच्छियजमलियजुवलिय विणमियपणमियसुविभत्तपिंडिमंजरिवडेंसगधरा' केचित् कुसुमिताये के कगुणयुक्ताः अपरे तु समस्तगुणयुक्तास्ततः कुसुमिताच ते इत्येवं कर्मधारयः, नवरं सुविभक्ता- विविक्ताः सुनिष्पन्नतया पिण्ड्यो लुम्ग्यः मञ्जर्यथ प्रतीतास्ता एवावतंसकाः- शेखर कास्वान् धारयन्ति ये ते तथा, 'सुपवरहिणमयण सालको इलको भंडकभिंगारक कोमलक पूर्णभद्र चैत्यस्य वर्णनं For Penal Use Only ~ 12 ~ Arary org Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [२,३] दीप अनुक्रम [२,३] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [-] मूलं [२३] श्रुतस्कन्धः [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्. ॥५॥ जीवजीवकनंदीमुहकविलपिंगलक्खगकारंडचक्कवाय कलहंससारस अणेगसउणगणमिहुणविरइयसदुष्णइयमहुरसरनाइए' शुकादीनां सारसान्तानां अनेकेषां शकुनगणानां मिथुनैर्विरचितं शब्दोनतिकं च- उन्नतशब्दकं मधुरखरं चं नादितं लषितं यस्मिन् स तथा वनखण्ड इति प्रकृतं 'सुरम्मे संपिंडियदरियभमरमहुकरिपहकरपरिलिंतमत्तछप्पय कुसुमासवलोलमहर गुमगुमित गुंजंतदेस भागे' संपिण्डिता दृतभ्रमरमधुकरीणां वनसत्कानामेव 'पहकर 'ति निकरा यत्र स तथा तथा परिलीयमाना - अन्यत आगत्य लयं यान्तो मत्तषट्पदाः कुसुमासव लोला:- किञ्जल्कलम्पटाः मधुरं गुमगुमायमानाः गुञ्जन्तथ - शब्दविशेषं विदधानाः देशभागेषु यस्य स तथा ततः कर्मधारयः, 'अभितरपुप्फफला बाहिरपत्तुच्छन्ना पतेहि य पुष्फेहि य उच्छन्न पलिच्छन्ना' अत्यंतमाच्छादिता इत्यर्थः एतानि पुनर्वृक्षाणां विशेषणानि 'साउफले मिट्ठफले' इत्यतो वनपण्डस्य भूयो विशेषणानि 'निरोयए' रोगवर्जितः, 'नाणाविह गुच्छगुम्ममंडवगसोहिए विचितसुहके भूए' विचित्रान् शुभान् केतून ध्वजान् भूतः प्राप्तः, 'वाविपुक्खरिणीदीहियासुनिवेसियरम्मजालहरए' वापीषु चतुरस्रासु पुष्करिणीषु वृत्तासु पुष्करवतीषु वा दीर्घिकासु ऋजुसारणीषु सुष्ठु निवेशितानि रम्याणि जालगृहकाणि यत्र स तथा 'पिंडिमनीहारिमसुगंधिसुहसुरभिमणहरं महया गंधद्वाणं' भुयंता पिंडिमनिहरिमा पुगलसमूहरूपां | दूरदेशगामिनीं च सद्गन्धि-सुगन्धिकां शुभसुरभिभ्यो गन्धान्तरेभ्यः सकाशान्मनोहरा या सा तथा तां च महता मोचनप्रकारेण विभक्तिव्यत्ययात् महतीं वा गन्ध एव प्राणहेतुत्वात् - तृप्तिकारित्वाद्गन्धधाणिस्तां मुञ्चन्त इति वृक्षविशेषणमेव मितो - ऽन्यान्यपि 'नाणाविहगुच्छ गुम्म मंडवकघरक सुहसेड के बहुला' नानाविधाः गुच्छा गुल्मानि मण्डपका गृहकाणि च पूर्णभद्र चैत्यस्य वर्णनं For PaPa Lise Only ~13~ १ उत्क्षिसाध्य० पूर्णभद्रवर्णनं सू.२ कोणिकवर्णनं सु. ३ ॥५॥ jayor Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [२,३] दीप अनुक्रम [२,३] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [-] मूलं [२३] श्रुतस्कन्धः [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६] अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Erato येषां सन्ति ते तथा, तथा शुभाः सेतवो मार्ग आलवालपाल्यो वा केतवथ-ध्वजा-बहुला-बहवो येषां ते तथा ततः कर्मधारयः, 'अणेगरहजाणजोग्गसिवियपविमोयणा' अनेकेषां रथादीनामघोऽतिविस्तीर्णखात् प्रविमोचनं येषु ते तथा 'सुरम्मा पासाईया दरिस णिज्जा अभिरुवा पडिख्वा । तस्स णं वणसंडस्स बहुमज्झदेस भागे एत्थ णं महं एक्के असोगवरपायवे पण्णत्ते, कुसविकुसविमुद्धरुक्खमूले' कुशा-दर्भा विकुशा- वल्वजादयस्तैर्विशुद्धं विरहितं वृक्षानुरूपं मूलं समीपं यस्य स तथा 'मूलमंते' इत्यादिविशेषणानि पूर्ववद्वाच्यानि यावत् 'पडिरूवे, से णं असोगवरपायवे अन्नेहिं बहुहिं तिलएहिं लउएहिं छत्तोएहिं सिरिसेहिं सत्तवण्णेहिं दहिवण्णेहिं लोद्धेहिं धवेहिं चंदणेहिं अज्जुणेहिं निंबेहिं कुडएहिं कलंबेहिं सवेहिं फणसेहिं दाडिमेहिं सालेहिं तालेहिं तमालेहिं पिएहिं पियगृहिं पुरोवरहिं रायस्वस्वहिं नंदिरुक्खेहिं सबओ समता संपरिक्खित्ते, ते णं तिलया लउया जाब नंदिरुक्खा | कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला मूलमंतो' इत्यादि पूर्ववत्, यावत्, 'पडिरूवा, ते णं तिलया जाब नंदिरुक्खा अन्नाहिं बहूहिं पउमलयाहिं नागलयाहिं असोगलयाहिं चंपयलयाहिं चूयलयाहिं वणलयाहिं वासंतियलयाहिं कुंदलयाहिं सामलयाहिं सबओ समता संपरिक्खित्ता, ताओ णं पउमलयाओ निचं कुसुमियाओ जाव पडिरूवाओ, तस्स णं असोगवरपायचस्स हेट्ठा ईसिबंधंसमल्लीणे' स्कन्धासनमित्यर्थः, 'एत्थ णं महं एके पुढविसिलापट्टए पण्णत्ते' 'एत्थ णं'तिशब्दोऽशोकवरपादपस्य यदधोऽत्रेत्येवं संबन्धनीयः, 'विक्खंभायामसुप्पमाणे किण्हे अंजणकवाकुचल यह लहर को सेज्ज आगा सकेस कज्जलंगीखं जणसिंगभेय रिट्ठयजंबूफल असणक सणबंधणनीलुप्पलपत्तनिकर पूर्णभद्र चैत्यस्य आदि वर्णनं For Penal Use On ~14~ andray or Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं - ----------------- मूलं [२,३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाङ्गम् साध्य प्रत सूत्रांक [२,३] दीप अनुक्रम अयसिकुसमप्पपासे नील इत्यर्थः अञ्जनको-नस्पतिः हलधरकोशेयं-बलदेववखं कजलाङ्गी- कजलगृहं शृङ्गभेदो-महि १उत्क्षिपादिविषाणच्छेदः रिष्ठक-रलं असनको-पियकाभिधानो बनस्पतिः सनबन्धन-सनपुष्पवृन्तं 'मरकतमसारकलित्तनयणकीयरासिवन्ने' मरकत-रलं मसारो-मसणीकारका पाषाणविशेषः 'कडित'ति कडित्रं कृत्तिविशेषः नयनकीका नेत्रमध्यतारा पूर्णभद्रवतद्राशिवर्णः काल इत्यर्थः, ' निघणे' स्निग्धधनः 'अट्ठसिरे' अष्टशिराः अष्टकोण इत्यर्थः, 'आर्यसतलोवमे सुरम्मे ईहा र्णनं सू.२ मिगउसभतुरगनरमगरवालगकिन्नररुरुसरभचमरवणलयपउमलयभत्तिचित्ते' इहामृगाः-वृकाः व्यालका:-श्वापदाःकोणिका भुजगा वा 'आईणगरुयबूरणवणीयतूलफासे' आजिनक-चर्ममयं वस्त्रं रूतं प्रतीत बूरो-वनस्पति विशेषः तूलम्-अर्कतूल र्णनं सू.३ 'सीहासणसंठिए पासाईए जाव पडिरूवेति । इह ग्रन्थे वाचनाद्वयमस्ति, तत्रैकां बृहत्तरी व्याख्यास्यामो, द्वितीया || तु प्रायः सुगमैच, यच तत्र दुरवगर्म तदितरच्याख्यानतोऽवबोद्धव्यमिति । 'कूणिए नाम राय'त्ति कणिकनामा श्रेणिकराज-18 पुत्रो राजा 'होत्थ'त्ति अभवत् । 'वन्नओ'त्ति तद्वर्णको वाच्यः, स च 'महया हिमवंतमहंतमलयमंदरमहिंदसारे इत्यादि 'पसंतर्डिबडमरं रज पसासेमाणे विहरति' इत्येतदन्तः, तत्र महाहिमवानिव महान् शेषराजापेक्षया तथा मलया-18 पर्वतविशेषो मन्दरो-मेरुमहेन्द्रः-शक्रादिदेवराजस्तद्वत्सार:-प्रधानो यः स तथा, तथा प्रशान्तानि डिम्बानि-विमाः डम-18 राणि-राजकुमारादिकृतविद्वरा यसिस्तत्तथा 'प्रसाधयन्' पालयन् 'विहरति आस्ते मेति, समग्रं पुनरने व्याख्यास्यामः। Rel॥६॥ ते णं काले णं ते णं समए णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अज्जमुहम्मे नाम थेरे जातिसंपन्ने कुलसंपण्णे बलरूवविणयणाणदसणचरित्तलाघवसंपण्णे ओयंसी तेयंसी वर्चसी जसंसी जियकोहे जिय [२,३] eseseseeeee पूर्णभद्र-चैत्यस्य आदि-वर्णनं, सुधर्मस्वामिन: वर्णनं ~ 15~ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [४] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र -६ (मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [-] मूलं [४] श्रुतस्कन्ध: [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः माणे जियमाए जियलोहे जियई दिए जियनिद्दे जिगपरिसहे जीवियासमरणभयविव्यमुके तबप्पहाणे गुणप्पहाणे एवं करणचरणनिग्गह णिच्छय अज्जव मद्द वलाघव खं तिगुत्तिमुत्ति १० विज्जामंत भवयनय नियमसचसोयणाणदंसण २० चारित्त० ओराले घोरे घोरबए घोरत वस्सी घोरवं भवेरवासी उच्छूढशरीरे संखितविउलतेयल्ले से चोदसी चडणाणोवगते पंचहिं अणगारसहिं सद्धिं संपरिवुडे पुवा िचरमाणे गामाणुगामं दूतिजमाणे सुमुहेणं विहरमाणे जेणेव चंपा नयरी जेणेव पुष्ण भद्दे चेतिए तेणामेव उवागच्छ उवागच्छत्ता अहापडिवं उग्गहं उग्गहित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति । (सूत्रं ४) 'थेरे 'ति श्रुतादिभिर्वृद्धत्वात् स्थविरः, 'जातिसंपन्न' इति उत्तममातृकपक्षयुक्त इति प्रतिपत्तव्यमन्यथा मातृक पक्ष संपन्न लं पुरुषमात्रस्यापि स्यादिति नास्योत्कर्षः कचिदुक्तो भवेद्, उत्कर्षाभिधानार्थं चास्य विशेषणकलापोपादानं चिकीर्षितमिति, एवं कुलसंपन्नोऽपि, नवरं कुलं - पैतृकः पक्षः तथा बलं संहननविशेषसमुत्थः प्राणः रूपम् - अनुत्तरसुररूपादनंवगुणं शरीरसौन्दर्य विन यादीनि प्रतीतानि नवरं लाघवं द्रव्यतोऽल्पोपधित्वं भावतो गौरवमत्यागः एभिः संपन्नो यः स तथा, 'ओयंसि 'त्ति ओजोमानसोऽवष्टम्भस्तद्वानोजखी तथा तेजस्वी तेजः- शरीरप्रभा तद्वांस्तेजस्वी वचो - वचनं सौभाग्यायुपेतं यस्यास्ति स वचस्त्री अथवा वर्चः - तेजः प्रभाव इत्यर्थस्तद्वान् वर्चस्वी यशस्वी ख्यातिमान्, इह विशेषणचतुष्टयेऽपि अनुखारः प्राकृतखात्, जितक्रोध इत्यादि तु विशेषणसप्तकं प्रतीतं, नवरं क्रोधादिजय उदयप्राप्तक्रोधादि विफलीकरणतोऽवसेयः, तथा जीवितस्य - प्राणधारणस्याशा वाच्छा | मरणाच्च यद्भयं ताभ्यां विप्रमुक्तः जीविताशामरण भयविप्रमुक्तस्तदुभयोपेक्षक इत्यर्थः तथा तपसा प्रधान-उत्तमः शेषमुनिजना शा.प. २ Jain Education Tr सुधर्मस्वामिनः वर्णनं For Pale Only ~ 16~ janetary org Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं -], ----------------- मूलं [४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: Hel ज्ञाताधर्मकथाङ्गम. प्रत सुत्राक दीप पेक्षया तपो वा प्रधान यस्य स तपःप्रधानः, एवं गुणप्रधानोऽपि, नवरं गुणाः संयमगुणाः, एतेन च विशेषणद्वयेन तपासंयमौ चम्पाया पूर्ववद्धाभिनवयोः कर्मणोनिर्जरणानुपादानहेतू मोक्षसाधने मुमुक्षूणामुपादेयावुपदर्शिती, गुणप्राधान्ये प्रपञ्चार्थमेवाह-एवं करणे श्रीसुधर्मात्यादि, यथा गुणशब्देन प्रधानशब्दोत्तरपदेन तस्य विशेषणमुक्तमेवं करणादिमिरेकविंशत्या शब्दैरेकविंशतिविशेषणान्यध्येयानि, Kगमनं सू.४ तद्यथा-करणप्रधानश्चरणप्रधानो यावच्चरित्रप्रधानः, तत्र करणं-पिण्डविशुस्यादिः, यदाह-"पिंडविसोही समिह भावणे"त्यादि. चरण-महावतादि, आह च-'वयसमणधम्मसंजमवेयावच्चं चेत्यादि, निग्रहः-अनाचारप्रवृत्तनिषेधनं निश्चयः-तच्चानां निर्णयः, विहितानुष्ठानेषु वाऽयव्यंकरणाभ्युपगमः आर्जवं-मायानिग्रहो मार्दवं-माननिग्रहो लापर्व-क्रियासु दक्षत्वं शान्ति:-क्रोधनिग्रहः। | गुप्तिमनोगुप्त्यादिका, मुक्तिनिर्लोभता, विद्या:-प्रज्ञत्यादिदेवताधिष्ठिता वर्णानुपूर्दी, मत्रा-हरिणेगमिष्यादिदेवताधिष्ठितास्ता एव अथवा विद्याः ससाधनाः साधनरहिता मन्त्रा ब्रह्म-ब्रह्मचर्य सर्वमेव वा कुशलानुष्ठानं वेदः-आगमो लौकिकलोकोत्तरकुमावचनिकभेदः नया-नैगमादयः सप्त प्रत्येक शतविधाः नियमा-विचित्रा अभिग्रहविशेषाः सत्यं-बचनविशेषं शौच-द्रव्यतो निलेपता| | भावतोऽनवद्यसमाचारता शान-मत्यादि दर्शन-चक्षुर्दर्शनादि सम्यक्त्वं वा चारित्रं-बाह्यं सदनुष्ठान, यह करणचरणग्रहणेऽपि आर्जवादिग्रहणं तदार्जवादीनां प्राधान्य ख्यापनार्थ, ननु जितक्रोधस्वादीनां आर्जवादीनां च को विशेषः', उच्यते, जितक्रोधादि विशेषणेषु तदुदयविफलीकरणमुक्तं मार्दवप्रधानादिषु तु उदयनिरोधः, अथवा यत एव जितक्रोधादिरत एव क्षमादिप्रधान | इत्येवं हेतुहेतुमद्भावान विशेषः, तथा ज्ञानसंपन्न इत्यादी ज्ञानादिमच्च मात्रमुक्त ज्ञानप्रधान इत्यादी तु तद्वता मध्ये तस्य प्राधान्यमित्येवमन्यत्राप्यपौनरुत्यं भावनीयं, तथा 'ओराले'ति भीमो भयानका, कथम् -अतिकष्टं तपः कुर्वन् पाश्चैवर्तिनामल्पस-1 अनुक्रम ॥ ७ ॥ Koma सुधर्मस्वामिन: वर्णनं ~ 17~ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं -], ----------------- मूलं [४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सुत्राक चाना भयानको भवति, अपरस्त्वाह 'उराले'चि उदारः-प्रधानः 'घोरिति घोरो निघृणः परिषहेन्द्रियकषायाख्यानां रिपूणां | | विनाशे कर्तव्ये, अन्ये खात्मनिरपेक्षं घोरमाहुः, तथा 'घोरवऐत्ति घोराणि-अन्यैर्दुरनुचराणि व्रतानि-महाव्रतानि यस्य स तथा, घोरैस्तपोभिस्तपस्वीच, तथा घोरं च तमचर्य चाल्पसच्चैर्दुःखं यदनुचर्यते तस्मिन् घोरवनचर्ये वस्तुं शीलमस्येति घोरब्रह्मचर्यवासी 18'उच्दशरीरें 'उच्छ्डै ति उज्झितमिवोज्झितं शरीरं येन स तत्सत्कारं प्रति निःस्पृहत्वात् , तथा 'संखिसति संक्षिप्ता शरी-1 रान्तर्वतिनी विपुला अनेकयोजनप्रमाणक्षेत्राश्रितवस्तुदहनसमर्था तेजोलेश्या-विशिष्टतपोजन्यलन्धिविषयप्रभवा तेजोज्वाला यस्य स संक्षिप्तविपुलतेजोलेश्या, तथा चतुर्दशपूर्वीति वेदप्रधान इत्येतस्मैव विशेषाभिधानं, चतुर्ज्ञानोपगतः केवलवजेज्ञानयुक्त इत्यर्थः । अनेन च ज्ञानप्रधान इत्येतस्य विशेषोऽभिहितः, पञ्चभिरनगारशतैः-साधुशतैः 'साई' सह समन्तात्परिकरित इत्यर्थः, तथा 'पुषाणुपुषिन्ति पूर्वानुपूर्ध्या न पथानुपूर्ध्या अनानुपूर्व्या वेत्यर्थः, क्रमेणेति हृदयं, 'चरन्' संचरन् , एतदेवाह-'गामाणुगामं दूइज्जमाणे'त्ति ग्रामश्चानुग्रामश्च विवक्षितग्रामानन्तरग्रामो ग्रामानुग्रामं तत् द्रवन्-गच्छन् एकसादामादनन्तरं प्राममनुल्लङ्ग्यन्तित्यर्थः, अनेनाप्यप्रतिबद्धविहारमाह, तत्राप्यौत्सुक्याभावमाह, तथा 'सुहंसुहेणं विहरमाणे'त्ति अत एव सुर्खसुखेनशरीरखेदाभावेन संयमबाधाऽभावेन च विहरन्-स्थानात् स्थानान्तरं गच्छन् प्रामादिपु वा तिष्ठन् 'जेणेव सि यसिन्नेव देशे चम्पा नगरी यस्मिन्नेव च प्रदेशे पूर्णभद्रं चैत्य 'तेणामेवेति तस्मिन्नेव देशे उपागच्छति, कचिद्राजगृहे गुणसिलके इति दृश्यते, |स चापपाठ इति मन्यते, उपागत्य च यथाप्रतिरूपं-यथोचितं मुनिजनस्य अवग्रहम्-आवासमवगृह्य-अनुज्ञापनापूर्वकं गृहीला | संयमेन तपसा चात्मानं भावयन् विहरति-आस्ते स। दीप अनुक्रम सुधर्मस्वामिन: वर्णनं ~ 18~ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं -], ----------------- मूलं [५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत ज्ञाताधर्मकथानम् ॥८॥ सूत्राक | जम्बूखामिप्रश्न: अध्ययनो देशःसू.५ गाथा: तएणं चंपानयरीए परिसा निग्गया कोणिओ निग्गओ धम्मो कहिओ परिसा जामेव दिसं पाउन्भूया । तामेव दिसि पडिगया।तेणं कालेणं तेणं समयेणं अनसुहम्मस्स अणगारस्स जेट्टे अंतेवासी अजजंबू णामें अणगारे कासवगोत्तेणं सत्तुस्सेहे जाव अजसुहम्मस्स थेरस्स अदूरसामते उर्दूजाणू अहोसिरे झाणकोहोवगते संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति, तते णं से अनजंवूणामे जायसड्ढे जायसंसए जायकोउहल्ले संजातसड्डे संजातसंसए संजायकोउहल्ले उप्पन्नसहे उप्पन्नसंसए उत्पन्नकोउहल्ले समुप्पन्नसड्डे समुप्पन्नसंसए समुप्पन्नकोउहल्ले उडाए उद्वेति उहाए उद्वित्ता जेणामेव अजसुहम्मे धेरे तेणामेव उवागच्छति २ अनसुहम्मे थेरे तिकखुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ २ वंदति नमसति वंदित्ता नमंसित्ता अजसुहम्मस्स घेरस्स पचासन्ने नातिदूरे सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहं पंजलिउडे विणएणं पञ्जुवासमाणे एवं वयासी-जति णं भंते समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्थग० सयंसंबु पुरिसु० पुरिससी० पुरिसव पुरिसवरगं० लोगु० लोगनाहे. लोगहिएणं लोगप० लोगपतोय. अभयद सरणद. चक्खुद मग्गद० योहिद.धम्मद धम्मदेवधम्मना धम्मसाधम्मवरचा अप्पडिह दंसणध० वियदृछ। जिणेणं जाणएणं तिनेणं तार• बुद्धणं बोहएणं मुत्तेणं मोअगेणं सवण्णणं सबद सिवमयलमरुतमणंतमक्खयमवाबाहमपुणरावित्तियं सासयं ठाणमुवगतेणं पंचमस्स अंगस्स अयमढे पन्नत्ते, छहस्स णं अंगस्स णं भंते! णायाधम्मकहाणं के अट्टे पं०?, जंबूत्ति तएणं अजसुहम्मे धेरे अनजंबूणामं अणगारं एवं व० टिटव दीप अनुक्रम [५-८] जंबूस्वामिन: वर्णनं एवं प्रश्न: ~ 19~ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं ], ----------------- मूलं [५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक गाथा: एवं खलु जंबू समणेणं भगवता महावीरेणं जाव संपत्तेणं छट्ठस्स अंगस्स दो सुयखंधा पन्नत्ता, तंजहाणायाणि य धम्मकहाओ य, जति णं भंते ! समणेणं भगवता महावीरेणं जाव संपत्तेणं छहस्स अंगस्स दो सुयखंधा पं०२०-णायाणि य धम्मकहाओ य, पदमस्स णं भंते! सुयकखंधस्स समणेणं जाव संपत्तेणं णायाणं कति अज्झयणा पन्नत्ता ?, एवं खलु जंबू! समणेणं जाव संपत्तेणं णायाणं एगूणवीसं अज्झयणा पं०, तं०-उखित्तणाए १संघाडे २, अंडे ३ कुम्मे य४ सेलगे ५। तुंचे य ६ रोहिणी ७ मल्ली८, मायंदी ९चंदिमा इय १० ॥१॥ दावद्दवे ११ उदगणाए १२, मंडके १३ तेयलीविय १४ । नंदीफले १५ अवरकका १६, अतिने १७ सुंसुमा इय १८॥२॥ अवरे य पुंडरीयणायए १९ एगुणवीसतिमे। (सूत्रं ५) 'तए 'ति ततोऽनन्तरं णमित्यलंकारे चम्पाया नगर्याः परिषत्-कूणिकराजादिका निर्गता-निःसृता सुधर्मस्वामिवन्दनार्थ,18 "जामेव दिसिं पाउम्भूया तामेव दिसि पडिगए'ति यस्या दिशः सकाशात् प्रादुर्भूता-आविर्भूता आगता इत्यर्थः तामेव दिशं प्रतिगतेति । तस्मिन् काले तसिन् समये आर्यसुधर्मणोऽन्तेवासी आर्यजम्बूनामानगारः काश्यपगोत्रेण 'सत्तुस्सेहे'त्ति सप्तहस्तोच्छ्यो यावत्करणादिदं दृश्यं "समचउरंससंठाणसंठिए बजरिसहनारायसंघयणे कणगपुलगनिघसपम्हगोरे" कनकस्स-सुवर्णस्य 'पुलग'त्ति यः पुलको लवस्तस्य यो निकषः--कपपट्टे रेखालक्षणः तथा 'पम्ह'त्ति पद्मगर्भस्तद्वत् गौरो यः18 स तथा, वृद्धच्याख्या तु कनकस्य न लोहादेयः पुलका-सारो वर्णातिशयः तत्प्रधानो यो निकपो-रेखा तस्य यत्पक्ष्मबहुलत्वं 8 तद्वयो गौरः स कनकपुलकनिकषपक्ष्मगौरः, तथा 'उग्रतपा' उग्रम्-अप्रधृष्यं तपोऽस्येतिकता, तथा 'तत्ततवे' तप्त-तापितं तपो दीप अनुक्रम [५-८] जंबूस्वामिन: वर्णनं एवं प्रश्न: ~ 20~ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) ཙྩོམྦྷོཝཱ ཝཱ + ཝདྡྷིཡྻ अनुक्रम श्रुतस्कन्धः [१] अध्ययन [ - ], मूलं [५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथानम्. ॥९॥ Jan Eucator “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः ) येन स तप्ततपाः, एवं तेन तत्तपस्तप्तं येन कर्माणि संताप्य तेन तपसा स्वात्मापि तपोरूपः संतापितो यतोऽन्यस्यास्पृश्यमिव जातमिति, तथा महातपाः प्रशस्ततपा बृहत्तपा वा, तथा दीप्तं तपो यस्य स दीसतपाः, दीसं तु हुताशन इव ज्वलत्तेजः कम्र्मेन्धन दाहकत्वात्, तथा "उराले घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी घोरवंभचेरवासी उच्छूढसरी रे संखित्तविउलतेयले से" इति पूर्ववत् एवंगुणविशिष्टो जम्बूस्वामी भगवान् आर्यसुधर्म्मणः स्यविरस्य 'अदूरसामंते न्ति दूरं विप्रकर्षः सामन्तं समीपं उभयोरभावोऽदूरसामन्तं तस्मिन्नातिदूरे नातिसमीपे उचिते देशे स्थित इत्यर्थः, कथं ? - 'उजाणू' इत्यादि शुद्धपृथिव्यासनवर्जनात् औपग्र हि कनिषद्याभावाच्च उत्कटुकासनः समपदिश्यते ऊर्द्ध जानुनी यस्य स ऊर्द्धजानुः 'अधः शिराः' अधोमुखो नोर्द्ध तिर्यय वा विक्षिप्तदृष्टिः किं तु नियतभूभाग नियमितदृष्टिरिति भावना, 'झाणकोडोवगए'ति ध्यानमेव कोष्ठो ध्यानकोष्ठस्तमुपगतो ध्यानकोष्ठोपगतः, यथा हि कोष्ठके धान्यं प्रक्षिप्तमविप्रकीर्णं भवत्येवं स भगवान् धर्मध्यान कोष्ठकमनुप्रविश्येन्द्रियमनस्यधिकृत्य संवृतात्मा भवतीति भावः, संयमेन-संवरेण तपसा ध्यानेनात्मानं भावयन्- वासयन् विहरति तिष्ठति । 'तए णं से' इत्यादि, तत इत्यानन्तर्ये तस्मात् ध्यानादनन्तरं णमित्यलंकारे, 'स' इति पूर्व प्रस्तुतपरामर्शार्थः तस्य तु सामान्योक्तस्य विशेषावधारणार्थ आर्य जम्बूनामेति, स च उत्तिष्ठतीति संबन्धः किम्भूतः सनित्याह- 'जायसद्धे' इत्यादि, जाता-प्रवृत्ता श्रद्धा- इच्छाऽस्येति जातश्रद्धः, क 2- वक्ष्यमाणानां पदार्थानां तत्त्वपरिज्ञाने स तथा जातः संशयोऽस्येति जातसंशयः, संशयस्त्वनिर्द्धारितार्थं ज्ञानमुभयवस्त्वंशावलम्बितया प्रवृत्तं स खेवं तस्य भगवतो जात:- यथा भगवता श्रीमन्महावीरवर्द्धमानखामिना त्रिभुवनभवनप्रकाशप्रदीपकल्पेन पञ्चमस्यांगस्य समस्तवस्तु स्तोमव्यतिकराविर्भावनेनार्थोऽभिहित एवं पष्ठस्याप्युक्तोऽन्यथा वेति, तथा 'जातकुतू जंबूस्वामिन: वर्णनं एवं प्रश्न: For Pernal Use On ~ 21~ जम्बूस्वा मिमनः अध्ययनो देशः सू. ५ ॥ ९॥ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं ], ----------------- मूलं [५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक गाथा: हलो' जातं कुतूहलं यस्य स तथा, जातीत्सुक्य इत्यर्थः, विश्वस्यापि विश्वव्यतिकरस्य पश्चमाझे प्रतिपादितस्त्रास्पष्ठानस्य कोऽन्यो-18 ऽर्थो भगवताभिहितो भविष्यतीति, संजातश्रद्ध इत्यादौ समुत्पन्नश्रद्ध इत्यादौ च संशब्दः प्रकर्षादिवचनः, तथा उत्पन्नश्रद्ध। प्रागभूता उत्पन्ना श्रद्धा यखेत्युत्पन्नश्रद्धा, अथोत्पन्नश्रद्धवस्य जातश्रद्धवस्य च कोऽर्थभेदो, न कश्चिदेव, किमर्थं तत्प्रयोगः ।, हेतुलप्रदर्शनार्थ, तथाहि-उत्पन्नश्रद्धत्वाजातश्रद्धः प्रवृत्तश्रद्ध इत्यर्थः, अपरस्वाह-जाता श्रद्धा यस्य प्रष्टुं स जातश्रद्धः, कथं जातश्रद्धो, यस्माजातसंशयः, षष्ठानार्थः पञ्चमाङ्गार्थवत् प्रज्ञप्तः उतान्यथेति, कथं संशयोऽजनि?, यसात् जातकुतूहला, कीदृशो नाम पष्ठाङ्गस्वार्थो भविष्यति कथं च तमहमवभोत्स्थे ? इति तावदवग्रहः, एवं संजातोत्पन्नसमुत्पन्नश्रद्धादय ईहापायधारणाभेदेन वाच्या इति, 'उहाए उद्देइति उत्थानमुत्था-ऊर्ध्व वर्तनं तया उत्थया उत्तिष्ठति उत्थाय च 'जेणे'त्यादि प्रकट, 'अज्जमुहम्मे |8| धेरे' इत्यत्र पाठ्यर्थे सप्तमीति 'तिखुत्तो'त्ति निकलत्रीन् वारान् 'आदक्षिणप्रदक्षिणा दक्षिणपार्थादारभ्य परिभ्रमणतो दक्षिणपा-12 विप्राप्तिरादक्षिणप्रदक्षिणा तो 'अजसुहम्मं थेरं' इत्यत्र पाठान्तरे आदक्षिणात्प्रदक्षिणो-दक्षिणपावर्ती यः स तथा तं 'करोति' विदधाति वन्दते वाचा स्तौति नमस्खति-कायेन प्रणमति नात्यासने नातिदूरे उचिते देशे इत्यर्थः 'सुस्सूसमाणे'त्ति श्रोतुमिच्छन् | |'नमसमाणे ति नमस्सन् प्रणमन् अभिमुखः 'पंजलिउडे'त्ति कृतप्राञ्जलिः विनयेन प्रणमति-उक्तलक्षणेन 'पजुवासमाणे'त्ति18 | पर्युपासनां विदधानः 'एव'मिति वक्ष्यमाणप्रकारं वदासित्ति अवादीत, यवादीत् तदाह-'जईत्यादि प्रकटं, नवरं यदि | भदन्त ! अमणेन पश्चमाजस्थायमर्थः-अनन्तरोदितखेन प्रत्यक्षः प्रज्ञप्तस्ततः षष्ठानस्य कोऽथें: प्रज्ञप्त, इति प्रश्नवाक्याथें:, अथो-18 |त्तरदानार्थ 'जम्बूनामेत्ति हे जम्बू! इति-एवंप्रकारेणामत्रणवचसाऽऽमन्य आयसुधर्मा स्थविर आयेंजम्बूनामानं अनगारमेवम दीप अनुक्रम [५-८] avralaunciurary.org जंबूस्वामिन: वर्णनं एवं प्रश्न: ~ 22 ~ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ..------- अध्ययनं [१], ------ ---- मूल [9] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक ॥१०॥ देशः सू.५ गाथा: शाताधर्म-IVवादीत् 'नायाणि'त्ति ज्ञातानि-उदाहरणानीति प्रथमः श्रुतस्कन्धः 'धम्मकहाओ'त्ति धर्मप्रधानाः कथाः धर्मकथा इतिजम्बूस्वाकथाङ्गम्. द्वितीयः 'उकखित्ते'त्यादि श्लोकद्वयं साई, तत्र मेघकुमारजीवेन हस्तिभवे वर्तमानेन यः पाद उक्षिप्तस्तेनोत्क्षिप्तेनोपलक्षितं मेघ-18 मिप्रश्नः कुमारचरितमु धिप्तमेवोच्यते, उक्षिप्तमेव ज्ञातम्- उदाहरणं विवक्षितार्थसाधनमुक्षिप्तवातं, शातता चासैवं भावनीया-दयादि-13 | अध्ययनो गुणवन्तः सहन्त एव देहकष्ट, उक्षिप्तकपादो मेषकुमारजीवहस्तीवेति, एतदर्थाभिधायक सूत्रमधीयमानखादध्ययनमुक्त मेवं सर्वत्र |श तथा संघाटक:-श्रेष्ठिचौरयोरेकबन्धनबद्धबमिदमप्पभीष्टार्थज्ञापकलात् ज्ञातमेव, एवमौचिस्पेन सर्वत्र ज्ञातशब्दो योज्यः, यथा-16 | यथं च ज्ञातखं प्रत्यध्ययनं तदर्थावगमादवसेयमिति २ । नवरं अण्डक-मयूराण्डं ३ । कूर्मश्च कच्छपः ४ । शैलको राजर्षिः |५| तुम् च-अलायुः ६ । रोहिणी श्रेष्ठिवधः ७ । मल्ली-एकोनविंशतितमजिनस्थानोत्पना तीर्थकरी ८ । माकन्दी नाम वणिक | | तत्पुत्रो माकन्दीशब्देनेह गृहीतः ९| चंद्रमा इति च १० 'दावह'त्ति समुद्रतटे वृक्षविशेषाः ११ । उदक-नगरपरिखाजलं। | तदेव ज्ञातम्-उदाहरणं उदकज्ञातं १२ । मण्डूका नन्दमणिकारश्रेष्ठिजीवः १३ । 'तेपली इय'त्ति तेतलिमुताभिधानोमात्य | | इति च १४ । 'नंदीफल'त्ति नन्दिवृक्षाभिधानतरुफलानि १५ । 'अवरकंका' धातकीखण्डभरतक्षेत्रराजधानी १६ । आइण्णो' त्ति आकीणों-जात्याः समुद्रमध्यवर्तिनोऽश्वाः १७ । 'संसमा इय'त्ति सुसुमाभिधाना श्रेष्ठिदुहिता १८॥ अपरं च पुण्डरीक-15 ज्ञातमेकोनविंशतितममिति १९ । ॥१०॥ जति णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं णायाणं एगूणवीसा अज्ज्ञयणा पं०, तं०-उकखित्तणाए जाव पुंडरीएसि य, पढमस्स णं भंते ! अज्ज्ञयणस्स के अढे पन्नत्ते? एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं २ दीप अनुक्रम [५-८] जंबूस्वामिन: वर्णनं एवं प्रश्नः, अध्ययनानि-नामानि, अथ अध्ययन-१- "उत्क्षिप्त" आरब्ध: ~ 23~ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “जाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [६,७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६,७] इहेव जंबूहीवे दीवे भारहे वासे दाहिणभरहे रायगिहे णामं नयरे होत्था, वण्णओ, चेतिए वन्नओ, तत्य णं रायगिहे नगरे सेणिए नाम राया होत्था महताहिमवंत. वन्नओ, तस्स णं सेणियस्स रनो नंदा नाम देवी होत्था सुकुमालपाणिपाया वण्णओ (सूत्रं. ६) तस्स णं सेणियस्स पुत्ते नंदाए देवीए अत्तए अभए नामं कुमारे होत्था अहीण जाव सुरूवे सामदंडभेयउवप्पयाणणीतिमुप्पउत्तणयविहिन्नू ईहावूहमग्गणगवेसणअत्थसत्थमइविसारए उप्पत्तियाए वेणयाए कम्मियाए पारिणामिआए चउबिहाए बुद्धिए उववेए सेणियस्स रपणो बहुमु कजेसु य कुडुबेसु य मंतेसु च गुज्झेसु य रहस्सेसु य निच्छएसु य आपुच्छणिज्जे पडिपुच्छणिज्जे मेढी पमाणं आहारे आलंबणं चक्खू मेढीभूए पमाणभूए आहारभूए आलंघणभूए चकखूभूए सबकज्जेसु सबभूमियासु लद्धपच्चए विदण्णवियारे रजधुरचिंतए पावि होत्था, सेणियस्स रन्नो रजं च रहूंच कोसं च कोहागारं च बलं च वाहणं च पुरं च अंतेउरं च सयमेव समुवेक्खमाणे २ विहरति (सूत्रं. ७) यदि प्रथमथुतस्कन्धस्यैतान्यध्ययनानि भगवतोक्तानि ततः प्रथमाध्ययनस्य कोऽर्थों भगवता प्रज्ञात इति शास्त्रार्थप्रस्तावना ॥ अथैवं पृष्टवन्तं जम्बूस्वामिनं प्रति सुधर्मस्वामी यथाश्रुतमर्थ वक्तुमुपक्रमते मेति । एवं' मित्यादि सुगम, नवरं 'एव मिति वक्ष्यमाणप्रकारार्थः प्रज्ञप्त इति प्रक्रमः, खलुक्यालङ्कारे जम्बूरिति शिष्यामश्रणे 'इहैवेति देशतः प्रत्यक्षासन्ने न पुनरसंख्येयवाद । जम्बूद्वीपानामन्यत्रेतिभावः भारते वर्षे-क्षेत्रे 'दाहिणडभरहे'त्ति दक्षिणार्धभरते नोत्तरार्द्धभरते 'देवी'ति राजभार्या 'वण्णओं| दीप अनुक्रम [९,१०] SARERaininainamaina अभयकुमारस्य वर्णनं ~ 24~ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], --------------- मूलं [६,७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म थानम्. प्रत सूत्रांक [६,७] रयोर्वर्णन ॥११॥ दीप त्ति वर्णको वाच्यः, स च वक्ष्यमाणधारिण्या इव दृश्या, 'अत्तए'त्ति आत्मजः अङ्गज इत्यर्थः, 'अहीण जाव सुरू'सि इह। श्रेणिका| यावत्करणादिदं द्रष्टव्यं 'अहीणपंचिंदियसरी रे' अहीनानि-अन्यूनानि लक्षणतः स्वरूपतो वा पश्चापीन्द्रियाणि यसिंस्तत्तथा-1 भयकुमा| विधं शरीरं यस्य स तथा, 'लकवणवंजणगुणोववेए'लक्षणानि-खस्तिकचक्रादीनि व्यञ्जनानि-मपतिलकादीनि तेपी यो| गुणः-प्रशस्तता तेनोपपेतो-युक्तो यः स तथा, उप अप इत इति शब्दप्रयस्य स्थाने शकन्ध्वादिदर्शनादुपपेत इति स्वात सू. ६-७ 'माणुम्माणपमाणपडिपुण्णसुजायसवंगसुंदरंगे'तत्र मान-जलद्रोणप्रमाणता कथं ?-जलस्यातिभृते कुण्डे पुरुषे निवेशिते II | यज्जलं निस्सरति तयदि द्रोणमानं भवति तदा स पुरुषो मानप्राप्त उच्यते, तथा उन्मान-अर्द्धभारप्रमाणता, कथं, तुलारोपितः पुरुषो यद्यर्द्धभार तुलति तदा स उन्मानप्राप्त इत्युच्यते, प्रमाण-स्वाकुलेनाष्टोत्तरशतीच्यता, ततश्च मानोन्मानप्रमाणैः प्रतिपूर्णानि-अन्यूनानि सुजातानि-सुनिष्पन्नानि सर्वाणि अङ्गानि-शिरप्रभृतीनि यस्मिन् तत्तथाविधं सुन्दरमंग-शरीरं यस्य स । तथा, 'ससिसोमाकारे कंते पियदसणे' शशिवत् सौम्याकारं कान्त-कमनीयमत एव प्रियं द्रष्टणां दर्शन-रूपं यस्य स तथा, अत एव 'मुरूवेत्ति सुरूप इति, तथा सामदण्डभेदउपप्रदानलक्षणा या राजनीतयः तासां सुष्टुं प्रयुक्तं-प्रयोगो व्यापारणं यस्य स तथा, नयानां नैगमादीनां उक्तलक्षणनीतीनां च या विधा-विधयः प्रकारास्तान् जानाति यः स तथा, पश्चात्पदद| यस्य कर्मधारयः, तत्र परस्परोपकारप्रदर्शनगुणकीर्तनादिना शत्रोरात्मवशीकरणं साम, तथाविधपरिक्लेशे धनहरणादिको दण्डः, विजिगीषतशत्रुपरिवर्गस्य स्वाम्यादिस्नेहापनयनादिको भेदः, गृहीतधनप्रतिदानादिकमुपादानं, नयविधयस्तु सप्त नैगमादयो । नयाः प्रत्येक शतभेदा, नीतिभेदास्तु सामनीतेः पञ्च दण्डस्य त्रयः भेदस्य उपप्रदानस्य च पश्च कामन्दकादिप्रसिद्धा इति, 181 अनुक्रम [९,१०] अभयकुमारस्य वर्णनं ~ 25~ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ---------------- मूलं [६,७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६,७] दीप | तथा ईहा प-स्थाणुरय पुरुषो वेत्येवं सदालोचनाभिमुखा मतिचेष्टा अपोहच-स्थाणुरेवायमित्यादिरूपो निश्चयः मार्गणं च-दह वल्युत्सप्पणादयः स्थाणुधमो एव प्रायो घटन्ते इत्याद्यन्वयधर्मालोचनरूपं गवेषणं च-इह शरीरकण्ड्यनादयः पुरुषधोः प्रायो न घटन्त इति व्यतिरेकधर्मालोचनरूपं ईहाव्यूहमार्गणागवेषणानि तैरर्थशास्त्रे-अर्थोपायव्युत्पादग्रंथे कौटिल्यराजधानीत्यादौ या Sमतिर्बोधस्तया विशारदः-पण्डितो यः स ईहान्यूहमार्गणगवेषणार्थशास्त्रमतिविशारदः, तथौत्पत्तिक्यादिकया बुढ्या उपपेतो-युक्तः, तत्रौत्पचिकी अदृष्टाश्रुताननुभूतार्थविषयाऽऽकसिकी वैनयिकी गुरुविनयलभ्यशास्त्रार्थसंस्कारजन्या कर्मजा कृषिवाणिज्या-13 दिकर्माभ्यासप्रभवा पारिणामिकी-प्रायो चयोविपाकजन्या, तथा श्रेणिकस्य राज्ञः बहुषु कार्येषु च-भक्तसेवकराज्यादिदानलक्षणकृत्येषु विषयभूतेषु तथा कुटुम्बेषु च-खकीयपरकीयेषु विषयभूतेषु ये मत्रादयो निश्चयान्तास्तेषु आप्रच्छनीयः, तत्र मन्त्रामन्त्रणानि पर्यालोचनानि तेषु च गुहानीव गुद्यानि-लजनीयव्यवहारगोपितानि तेषु च रहस्यानि-एकान्तयोग्यानि तेषु निश्चयेषु वा-इत्थमेवेदं विधेयमित्येवरूपनिर्णयेषु अथवा स्वतन्त्रेषु कार्यादिषु पटसु विषयेषु चकाराः समुच्चयार्थाः आप्रच्छनीय:-सकृत् । प्रतिप्रच्छनीयो द्वित्रिकृतः, किमिति ?-यतोऽसौ मेढि'त्ति खलकमध्यवर्तिनी स्थूणा यस्यां नियमिता गोपंक्तिर्धान्यं गायति तद्वद्य-18 मालम्ब्य सकलमश्रिमडलं मन्त्रणीयार्थान् धान्यमिव विवेचयति सा मेढी, तथा प्रमाण-प्रत्यक्षादि तद्वयः तदृष्टाथानामव्यभि-18| |चारिलेन तथैव प्रवृत्तिनिवृत्तिगोचरखात् स प्रमाण, तथा 'आधारे' आधारस्पेव सर्वकार्येषु लोकानामुपकारिला तथा 'आलं-1 बन रज्ज्वादि तद्वदापद्गादिनिस्तारकलादालम्बनं तथा चक्षुः-लोचनं तल्लोकस्य मन्यमात्यादिविविधकार्येषु प्रवृत्तिनिवृत्ति| विषयप्रदर्शकसाचक्षुरिति, एतदेव प्रपश्चयति-'मेढिभूए'इत्यादि भूतशब्द उपमार्थः सर्वकार्येषु-सन्धिविग्रहादिषु सर्वभूमिका अनुक्रम [९,१०] अभयकुमारस्य वर्णनं ~ 26~ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [६,७] दीप अनुक्रम [९,१०] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र -६ (मूलं + वृत्तिः ) अध्ययनं [१], श्रुतस्कन्धः [१] मूलं [६,७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्. ॥ १२ ॥ सु-मत्रिअमात्यादिस्थानकेषु लब्धः - उपलब्धः प्रत्ययः - प्रतीतिर विसंवादिवचनं च यस्य स तथा 'विइण्णवियारे ति वितीर्णो| राज्ञाऽनुज्ञातो विचार: अवकाशो यस्य विश्वसनीयतात् असौ वितीर्णविचारः सर्वकार्यादिविति प्रकृतं, अथवा 'विष्णवियारे' विज्ञापिता राज्ञो लोकप्रयोजनानां निवेदयिता, किंबहुना ?- राज्य धुरचिन्तकोऽपि राज्यनिर्वाहकश्चाप्यभूत्, एतदेवाह - श्रेणिकस्य राज्ञो राज्यं च-राष्ट्रादिसमुदायात्मकं राष्ट्रं च जनपदं कोशं च भाण्डागारं कोष्ठागारं च धान्यगृहं बलं च-हस्त्यादिसैन्यं वाहनं च- बेसरादिकं पुरं च नगरमन्तःपुरं च अवरोधनं स्वयमेव- आत्मनैव समुत्प्रेक्षमाणो निरूपयन् समुत्प्रेक्षमाणो वा-व्यापारयन् इह च द्विर्वचनमाभीक्ष्ण्येऽवसेयं, 'विहरति' आस्ते स । तस्स णं सेणियस्स रन्नो धारिणी नामं देवी होत्था । जाब सेणियस्स रनो इट्ठा जाव विहरइ । (सूत्रं. ८) तए णं सा धारिणी देवी अन्नया कयाइ तंसि तारिसगंसि छककलट्ठमट्ठसंठियखंभुग्गयं पवरवरसालभंजियउज्जलमणिकणगरतणभूमियंबिडकजालद्धचंदणिजूहकंत रकणयालिचंद्र सालियाविभत्तिकलिते सरसच्छधाऊवलवण्णरए बाहिरओ दूमियघटुमट्ठे अभिंतरओ पत्तसुविलियिचित्तकम्मे णाणाविहपंचवण्णमणिरयणकोहिमतले पउमलयाफुल्लवलिवरपुप्फजातिउल्लोपचित्तियतले वंदणवरकणगकलससुविणिम्मियपडिपुंजियसरसपडमसोहंतदार भाए पयरगालंवंतमणिमुत्तदामसुविरइयदारसोहे सुगंधवरकुसुममउयपम्हलसयणोवयारे मणहिययनिइयरे कप्पूरलवंगमलयचंदनकालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुकधूवडज्जसंतसुरभिमघमघंतगंधुदुयाभिरामे सुगंधवरगंधिए गंधवट्टिभूते मणिकिरणपणासियंधकारे किं Education Internationa अभयकुमारस्य वर्णनं राज्ञी धारिणी एवं तस्या: स्वप्नं For Parts Only ~27~ धारण्या वर्णनं सू. ८ मेघदोह दः सू. ९ ॥ १२ ॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ---------------- मूलं [८,९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: कर प्रत सूत्रांक [८,९] दीप बहुणा?, जुइगुणेहिं सुरवरविमाणवेलंबियवरघरए तंसि तारिसगंसि सपणिजंसि सालिंगणवहिए उभओ बिब्बोयणे दुहओ उन्नए मजेणयगंभीरे गंगापुलिणवालुयाउद्दालसालिसए उयचियखोमदुगुल्लपपडिकरपणे अच्छरयमलयनयतयकुसत्तलिंबसीहकेसरपचुत्थए सुविरइयरयत्साणे रत्तंसुयसंचुए सुरम्मे आइणगरूयबूरणवणीयतुल्लफासे पुचरत्तावरत्तकालसमयंसि सुत्तजागरा ओहीरमाणी २ एगं महं सत्तुस्सेहं रययकूडसन्निहं नहयलंसि सोमं सोमागारं लीलायंतं जंभायमाणं मुहमतिगयं गयं पासित्ता णं पडिबुद्धा।तते णं साधारिणी देवी अयमेयारूवं जराल कल्लाणं सिवं धन्नं मंगलं सस्सिरीयं महासुमिणं पासित्ताणं पडिबुद्धा समाणी हहतुट्ठा चित्तमाणंदिया पीइमणा परमसोमणस्सिया हरिसवसविसप्पमाणहियया धाराहयकलंबपुप्फगंपिव समूससियरोमकूवातं सुमिणं ओगिण्हइ २ सयणिज्जाओ उट्टेति २पायपीढाप्तो पञ्चोकहइ पचोरुहइत्ता अतुरियमचवलमसंभंताए अविलंबियाए रायहंससरिसीए गतीए जेणामेव से सेणिए राया तेणामेव उवागच्छड उवागच्छइत्ता सेणियं रायं ताहिं इट्टाहिं कंप्ताहिं पियाहिं मणुन्नाहिं मणामाहिं उरालाहिं कल्लाणाहिं सिवाहिं धन्नाहिं मंगल्लाहिं सस्सिरियाहिं हिययगमणिज्जाहिं हिययपल्हायणिज्जाहि मियमहररिभियगंभीरसस्सिरीयाहिं गिराहिं संलवमाणी २ पडियोहेर पडिबोहेत्ता सेणिएणं रन्ना अब्भणुनाया समाणी णाणामणिकणगरयणभत्तिचिसि भद्दासणंसि निसीयति २त्ता आसत्था विसत्था सुहासणवरगया करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु सेणियं रायं एवं वदासी-एवं खलु अहं देवाणुप्पिया! अनुक्रम [११,१२] राज्ञी-धारिणी एवं तस्या: स्वप्नं ~ 28~ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [८,९] दीप अनुक्रम [११,१२] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र -६ (मूलं + वृत्तिः ) श्रुतस्कन्धः [१] अध्ययनं [१], मूलं [८,९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥ १३ ॥ अज तंसि तारिसगंसि सयणिज्वंसि सालिंगणवट्टिए जाव मियगवयणमहवयंतं गयं सुमिणे पासिंत्ता पडिबुद्धा, ते एयस्स णं देवाणुप्पिया! उरालस्स जाव सुमिणस्स के मन्ने कल्लाणे फलवित्तिर्विसेसे भविस्पति ? । (सू. १०) 'धरणी नाम देवी होत्था जाव सेणियस्स रनो इट्ठा जाव विहरह' इत्यत्र द्विर्यावच्छन्दकरणादेवं द्रष्टव्यं 'कु| मालपाणिपाया अहीणपंचेंदियसरीरा लक्खणवंजणगुणोववेया माणुम्माणपमाणमुजायसंवगंसुदरंगी ससिसोमाकारा कंता पियदंसणा सुरूवा करतलपरिमिततिवलियबलियमज्झा' करतलपरिमितो - मुष्टिग्राह्यखिवलीको रेखात्रयोपेतो बलितो- बलवान् मध्यो- मध्यभागो यस्याः सा तथा, 'कोमुईरयणिकरविमलपडिपुन्नसोमवयणा' कौमुदीरजनीकरवत्कार्तिकीचन्द्र इव विमलं प्रतिपूर्ण सौम्यं च वदनं यस्याः सा तथा 'कुंडलुल्लिहियगंडलेहा' कुण्डलाभ्यामुल्लिखिता घृष्टा गण्डलेखाः कपोलविरचितमृगमदादिरेखा यस्याः सा तथा 'सिंगारागारचारुवेसा' शृङ्गारस्य रसविशेषस्यागारमिवागारं अथवा शृङ्गारो-मण्डनभूषणाटोपः तत्प्रधानः आकार:-आकृतिर्यस्याः सा तथा, चारुवेंपो नेपथ्यं यस्याः सा तथा ततः कर्मधारयः, तथा 'संगयगयहसिय भणिय विहियविलाससल लियसंलावणिउणजुत्तोवयारकुसला' संगता- उचिता गतहसितभणितविहितविलासा यस्याः सा तथा, तत्र विहितं चेष्टितं, विलासो-नेत्र चेश, तथा सह ललितेन प्रसन्नतया ये संलापाः- परस्परभापणलक्षणास्तेषु निपुणा या सा तथा युक्ता-संगता ये उपचारा- लोकव्यवहारास्तेषु कुशला या सा तथा ततः पदंत्रयस्थ कर्मधारयः, 'पासाईया' चित्तप्रसादजनिका 'दरिसणिज्जा' यां पश्यचक्षुर्न श्राम्यति, 'अभिरूपा' मनोज्ञरूपा 'पंडिरूवा For Penal Use Only ***अत्र यत् (सू. १०) लिखितं तत् मुद्रण-दोषः वर्तते, (सू. ९ स्थाने सू. १० मुद्रितं ) राजी धारिणी एवं तस्या: स्वप्नं ~ 29~ धारिण्याः स्वमः सूत्र ९ ॥ १३ ॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [८,९] दीप अनुक्रम [११,१२] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र -६ (मूलं + वृत्तिः ) अध्ययनं [१], मूलं [८,९] श्रुतस्कन्धः [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः द्रष्टारं द्रष्टारं प्रति रूपं यस्याः सा तथा, 'सेणियस्स रनों इहा बल्लभा' कांता काम्यत्वात् प्रिया प्रेमविषयत्वात् मणुन्ना सुन्दरत्वात् 'नामघेज्जा' नामधेयवती प्रशस्तनामधेयवतीत्यर्थः नाम वा धार्यं हृदि धरणीयं यस्याः सा तथा, 'बेसासिया' विश्वसनीयलात् 'सम्मया' तत्कृतकार्यस्य सम्मतसाद्बहुमता - बहुशो बहुभ्यो वाऽन्येभ्यः सकाशान्मता बहुमता बहुमानपात्र वा 'अणुमया' विप्रियकरणस्यापि पश्चात्मता अनुमता 'भंडकरंडगसमाणा' आभरणकरण्डकसमानोपादेयखात् 'तेलकेला इव सुसंगोबिया' तैलकेला - सौराष्ट्रप्रसिद्धो मृन्मयस्तैलस्य भाजनविशेषः स च मङ्गभयालोच (ठ) नभयाच्च सुष्ठु संगोप्यते एवं साऽपि तथोच्यते 'चेलपेडा इव सुसंपरिगिद्दीया' वस्त्रम षेवेत्यर्थः, 'रयणकरंडगोविव सुसारविया' सुसंरक्षितेत्यर्थः कुत इत्याह, 'मां णं सीयं मा णं उन्हं मा णं दंसा मा णं मसगा मा णं वाला मां णं चोरा मा णं वाइयपित्तियसंभियसन्निवायविविहरोगायका फुसंतुतिकड सेणिएणं रन्ना सद्धिं विउलाई भोगमोगाई भुंजमाणा विहरति माशब्दा निषेधार्थः, शंकारा वाक्यालङ्कारार्थाः, अथवा 'माण'ति मैनामिति प्राकृतात्, व्याला:श्रपदभुजगाः रोगाः - कालसहाः आतङ्काः सद्योघातिनः, इतिकटु-इतिकृला इतिहेतोर्भोग भोगान्- अतिशयवद्भोगा निति, 'तए णं'ति ततोऽनन्तरं 'तंसि तारिससि सि यदिदं वक्ष्यमाणगुणं तसिंस्तादृशके यादृशमुपचितपुण्यस्कन्धानामङ्गिनामुचितं 'वरघर' ति संबन्ध: वासभवने इत्यर्थः कथंभूते ? - 'षट्काष्टक' गृहस्य बाह्यालन्दकं पड़दारुकमिति यदागमप्रसिद्ध द्वारमित्यन्ये स्तम्भविशेषणमिदमित्यन्ये, तथा लष्टा - मनोज्ञा मृष्टा-मसृणाः संस्थिता - विशिष्टसंस्थानवन्तो ये स्तम्मास्तथा उद्गता-ऊर्द्धगता स्तम्भेषु वा उद्गता-व्यवस्थिताः स्तम्भोगताः प्रवराणां वराः प्रवरवराः - अतिप्रधानां याः शालभञ्जिकाः पुत्रिकास्तथा Education Internation राज्ञी - धारिणी एवं तस्याः स्वप्नं For Parts Only ~30~ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ---------------- मूलं [८,९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८,९] दीप ज्ञाताधर्म IS उज्ज्वलानां मणीनां चंद्रकान्तादीनां कनकस्य रवानां-कर्केतनादीनां या स्तूपिका-शिखरं, तथा विटङ्क:-कपोतपाली वरण्डि- धारिण्याः कथाङ्गम. काधोवती अस्तरविशेषः जालं-सच्छिद्रो गवाक्षविशेषः, अर्द्धचन्द्रः-अर्द्धचन्द्राकारं सोपानं नि!हक-द्वारपार्श्वविनिर्गतदारु अंत-स्वमसूत्रए -अस्तरविशेष एवं पानीयान्तरमिति सूत्रधारैर्यद् व्यपदिश्यते नियूहकद्वयस्य यान्यन्तराणि तानि वा निर्वृहकान्तराणि कणकाली॥ १४ ॥ अस्तरविशेषश्चन्द्रसालिका च-गृहोपरि शाला एतेषां गृहाशानां या विभक्तिः-विभजनं विविक्तता तया कलितं-युक्तं यत्तत्तया तसिन् , 'सरसच्छवाडवडंबसरइए'त्ति स्थाप्य, कैश्चित् पुनरेवं संभावितमिदं-'सरसच्छधाउवलवन्नरइए'ति तत्र सरसेन-18 अच्छेन धातूपलेन-पाषाणधातुना गैरिकविशेषेणेत्यर्थः वणों रचितो यत्र तत्तथा 'बाहिरओ दूमियघट्ठमढे'त्ति मित-धवलितं घृष्ट-कोमलपाषाणादिना अत एव मृष्ट-मसणं यत्तत्तथा तसिन् , तथा अभ्यन्तरतः प्रशस्त खकीय २ कर्मच्यावृतं शुचि-पवित्रं लिखितं चित्रकर्म यत्र तत्तथा तस्मिन् , तथा नानाविधानां जातिभेदेन पञ्चवर्णानां मणिरलानां सत्कं कुट्टिमतलं-मणिभूमिका यसिंस्तत्तथा तत्र, तथा पौः-पद्माकाररेवं लताभिरशोकलताभिः पद्मलताभिर्वा मृणालिकाभिः पुष्पचल्लीभिः-पुष्पप्रधानाभिः पत्रवल्लिभिः तथा वराभिः पुष्पजातिभिः-मालतीप्रभृतिभिरित्रितमुल्लोकतलं-उपरितनभागो यस्मिन् तत्तथा तत्र, इह च प्राकतखेन 'उल्लोयचित्तियतले' इत्येवं विपर्ययनिर्देशो द्रष्टव्य इति, अथवा पनादिभिरुष्लोकस्य चित्रितं तलं-अधोभागो यसिमिति, तथा वन्यन्त इति वन्दना-मङ्गल्याः ये चरकनकस्य कलशाः सुष्टु-'निम्मियति न्यस्ताः प्रतिपूजिताः-चन्दनादिचर्चिताः। | सरसपमाः-सरसमुखस्थगनकमलाः शोभमाना द्वारभागेषु यस पाठान्तरापेक्षया चन्दन वरकनककलशेः सुन्यस्तैस्तथा प्रतिपुञ्जितैःपुजीकृतैः सरसपत्रैः शोभमानाद्वारभागा यस्य तत्तथा तसिन् , तथा प्रतरकाणि-खणोदिम या आभरणविशेषास्तत्प्रधानमणिमुक्तानां अनुक्रम [११,१२] राज्ञी-धारिणी एवं तस्या: स्वप्नं ~31~ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [८,९] दीप अनुक्रम [११,१२] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र -६ (मूलं + वृत्तिः ) अध्ययनं [१], मूलं [८,९ ] श्रुतस्कन्धः [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः दामभिः - स्रग्भिः सुष्ठु विरचिता द्वारशोभा यस्य तत्तथा तस्मिन् तथा सुगन्धिवरकुसुमैर्मृदुकस्य मृदोः पक्ष्मलस्य च - पक्ष्मवतः शयनस्य- तूल्यादिशयनीयस्य यः उपचारः--पूजा उपचारो वा स विद्यते यस्मिन् मण इत्यस्य मत्वर्थीयत्वात् तत् सुगन्धिवरकुसुममृदुपक्ष्मलशयनीयोपचारवतच यद् हृदयनिर्वृतिकरं च मनःस्वास्थ्यकरं तत्तथा तस्मिन् तथा कर्पूरव लवङ्गानि चफलविशेषाः मलयचन्दनं च पर्वतविशेषप्रभवं श्रीखण्डं काला गुरुव-कृष्णागरुः प्रवरकुन्दुरुक्कं च-चीडाभिधानो गन्धद्रव्य विशेषः तुरुष्कं च- सिल्हकं धूपश्च गन्धद्रव्यसंयोगज इति द्वन्द्वः, एतेषां वा संबन्धी यो धूपः तस्य दद्यमानस्य सुरभिर्यो मघमघायमान:- अतिशयवान् गन्धः उद्भूतः उद्भूतः तेनाभिरामम् - अभिरमणीयं यत्तत्तथा तस्मिन् तथा सुष्ठु गन्धवराणां -प्रधान चूर्णानां गन्धो यस्मिन् अस्ति तत् सुगन्धवरगन्धिकं तस्मिन् तथा गंधवतिः - गन्धद्रव्यगुटिका कस्तूरिका वा गन्धस्तद्गुटिका गन्धवर्त्तिस्तद्भूते-सौरभ्यातिशयात्चत्कल्पे, तथा मणि किरणप्रणाशितान्धकारे, किं बहुना वर्णकेन ?, वर्णकसर्वस्वमिदं त्या गुणैश्च सुरवरविमानं विडम्बयति जयति यद्वरगृहकं तत्तथा तत्र तथा तस्मिन् तादृशे शयनीये सहालिङ्गनवर्या-शरीरप्रमाणोपधानेन यतत्सालिङ्गनवर्त्तिकं तत्र, 'उभओ विषोयणे' ति उभयतः उभौ-शिरोऽन्तपादान्तावाश्रित्य 'विद्योयणेति उपधाने यत्र तत्तथा तस्मिन्, 'दुहओ'ति उभयतः उन्नते मध्ये नतं च तनिम्नताद्गभीरं च महत्त्वान्नतगम्भीरं अथवा मध्येन च भागेन तु गम्भीरे-अवनते गङ्गापुलिनवालुकायाः अवदात:- अवदलनं पादादिन्यासेऽधोगमनमित्यर्थः तेन 'सालिसए'ति सदशकमतिनम्रखाद्यत्तत्तथा तत्र दृश्यते च हंसतुल्यादिष्वयं न्याय इति । तथा 'उयचिय'त्ति परिकर्मितं यत् क्षौमं दुकूलं कार्पासिकमतसीमयं वा वस्त्रं तस्य युगलापेक्षया यः पट्टः एकः शाटकः स प्रतिच्छादनम्-आच्छादनं यस्य तत्तथा तत्र तथा आस्त Education Internation राज्ञी - धारिणी एवं तस्याः स्वप्नं For Peaks On ~32~ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [८,९] दीप अनुक्रम [११,१२] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र -६ (मूलं + वृत्तिः ) श्रुतस्कन्धः [१] अध्ययनं [१], मूलं [८,९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥ १५ ॥ रको मलको नवतः कुशक्तो लिम्बः सिंहकेसर चैते आस्तरणविशेषास्तैः प्रत्यवस्तृतम् - आच्छादितं यत्तत्तथा, इह चास्तरको लोकप्रतीत एव मलककुंशक्तौ तु रूढिगम्यौ नवतस्तु ऊर्णाविशेषमयो जीनमिति लोके यदुच्यते, लिम्बो बालोर अस्योर्णायुक्ता कृतिः सिंहकेसरो- जटिल कम्बला, तथा सुष्ठु विरचितं शुचि वा रचितं रजस्त्राणं- आच्छादनविशेषोऽपरिभोगावस्थायां यस्मिंस्तत्तथां तत्र, रक्तांशुकसंवृते- मशकगृहाभिधानवस्त्रावृते सुरम्ये तथा आजिनकं चर्ममयो वस्त्रविशेषः स च खभावादतिकोमलो भवति तथा रूतं- कर्पासपक्ष्म यूरो- वनस्पतिविशेषः नवनीतं प्रक्षणं एभिस्तुल्यः स्पर्शो यस्य, तूलं वा अर्कतूलं तत्र पक्षे एतेषामिव स्पर्शो यस्य तत्तथा तत्र, पूर्वरात्रश्वासावपररात्रश्च पूर्वरात्रापररात्रः स एव काललक्षणः समयः न तु सामाचारादिलक्षणः पूर्वरा त्रापररात्रकालसमयस्तत्र, मध्यरात्रे इत्यर्थः इह चार्षवादेकरेफलोपेन 'पुवरत्तावर'ते' त्युक्तं, अप[र] रात्रशब्दो वाऽयमिति, सुप्तजागरा-नातिसुप्ता नातिजाग्रती, अत एवाह 'ओहीरमाणी २त्ति वारं वारमीपनिद्रां गच्छन्तीत्यर्थः, एकं महान्तं सप्मोत्सेधमित्यादिविशेषणं मुखमतिगतं गजं दृष्ट्वा प्रतिबुद्धेति योगः, तत्र सतोत्सेधं सप्तसु - कुम्भादिषु स्थानेषूत्रतं सप्तहस्तोच्छ्रितं वा 'रय यंति रूप्यं 'नहयलंसित्ति नभस्तलान्मुखमतिगतमिति योगः, वाचनान्तरे खेवं दृश्यते- 'जाव सीहं सुविणे पासित्ता गं पडिबुद्धा' तत्र यावत्करणादिदं द्रष्टव्यं 'एकं च णं महंत पंडुरं धवलयं सेयं' एकार्थशब्दत्रयोपादानं चात्यन्तशुक्लताख्यापनार्थ, एतदेवोपमानेनाह- 'संखउल विमलदहिघणगोखीर (विमल) फेणरयणिकरपगासं' शंखकुलस्येव विमलदश इवं धनगोक्षीरस्येव विमलफेनस्येव रजनीकरस्येव प्रकाशः-प्रभा यस्य स तथा तं, अथवा 'हाररजतखीरसागरदगरयमहासेलपंडुरतरोरुरमणिजदरिसणिज्वं' हारादिभ्यः पाण्डरतरो यः स तथा, इह च महाशैलो-महाहिमवान् तथा उरुः- विस्तीर्णः रम Education Internation राज्ञी - धारिणी एवं तस्याः स्वप्नं For Pasta Lise Only ~33~ धारिण्याः स्वमः सूत्र ९ ।। १५ ।। waryra Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ---------------- मूलं [८,९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८,९] दीप Reeeeeese णीयो-रम्योऽत एव दर्शनीय इति पदचतुष्टयस्य कर्मधारयोऽतस्तं, तथा 'थिरलट्ठपउट्ठपीवरसुसिलिट्ठविसिट्ठतिक्खदाढाविडवियमुह स्थिरौ-अप्रकम्पो लष्टौ-मनोज्ञो प्रकोष्ठौ-कूर्पराग्रेतनभागौ यस्य स तथा, तथा पीवराः-स्थूला सुश्लिष्टा:-अविसर्वरा विशिष्टा-मनोहरास्तीक्ष्णा या दंष्ट्रास्ताभिः कृता 'विडंविर्य'ति विवृतं मुखं यस्य स तथा ततः कर्मधारयस्तं, तथा परिकम्मियजचकमलकोमलमाईयसोहंतलहउटुं' परिकम्मित-कृतपरिकर्मा 'माइय'ति मात्रावान् परिमित इत्यर्थः, शेष प्रवीतं, तथा रत्तुप्पलपत्तमउयसुकुमालतालुनिल्लालियग्गजीह रक्तोत्पलपत्रमिव मृदुकेभ्यः सुकुमारमतिकोमलं तालु च निलोलिताना-प्रसारितामा जिहा च यस्य स तथा तं, तथा 'महुरगुलियभिसंतपिंगलच्छं'मधुगुटिकेव-क्षौद्रवर्ति-11 रिव 'भिसंतति दीप्यमाने पिङ्गले-कपिले अक्षिणी यस्य स तथा तं, तथा 'मूसागयपवरकणयतावियआवत्तायंतवहतडियविमलसरिसनयणं मूषागतं-मृन्मयभाजनविशेषस्थं यत्प्रवरकनकं तापितमग्निधमनात् 'आवत्तायंतति आवर्च कुर्वत् तद्वत् तथा वृत्ते च तदिते -विवृत्ते विमले च सरशे च-समाने नयने यस्य स तथा तं, अत्र च बहतह' इत्येतावदेव पुस्तके दृष्ट संभावनया तु वृत्तदित इति व्याख्यातमिति, पाठान्तरेण तु 'वपडिपुण्णपसत्यनिद्धमहुगुलियपिंगलच्छं' स्फुटबाय पाठा, तथा 'विसालपीवरभमरोरुपडिपुण्णविमलखंध विशालो-विस्तीर्णः पीबरो-मांसलः 'भ्रमरोरुः' भ्रमरा-रोमावर्ता उरवी-विस्तीर्णा यत्र स तथा परिपूर्णो विमलश्च स्कन्धो यस्य स तथा तं, अथवा 'पडिपुण्णसुजायखधं तथा 'मिदुविसदसुहमलक्खणपसस्थविच्छिन्नकेसरसई' मृब्यो विशदा-अविमूढाःमूक्ष्मा लक्षणप्रशस्ताः-प्रशस्तलक्षणा विस्तीर्णाः केसरसटा:-स्कन्धकेशरजटा यस्य स तथा तं, अथवा 'निम्मलवरकेसरधरं' तथा 'ऊसियसुनिम्मियसुजायअप्फोडियलंगू अनुक्रम [११,१२] राज्ञी-धारिणी एवं तस्या: स्वप्नं ~34 ~ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ---------------- मूलं [८,९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म- कथाकम. प्रत सूत्रांक [८,९] दीप अनुक्रम [११,१२] लं'उचितम्-ऊर्द्ध नीतं सुनिर्मित सुष्छु भंगुरतया न्यस्तं सुजातं सद्गुणोपपेततया आस्फोटितं भुवि लालं-पुच्छं येन स तथा धारिण्या: , सौम्य-उपशान्तं सौम्याकार-शान्ताकृति, 'लीलायंत'ति लीलां कुर्वन्तं 'जंभायंतं' विजृम्भमाणं शरीरचेष्टाविशेषं विदधानं स्वमसूत्रए 'गगणतलाओ ओषयमाणं सीहं अभिमुहं मुहे पविसमाणं पासित्ता पडिबुद्ध'ति 'अयमेयारूवंति इमं महास्वप्नमिति | संबंधः, एतदेव-वर्णितस्वरूपं रूपं यस्य स्वप्नस्य न कविकृतमूनमधिकं वा स तथा तं, 'उरालं'ति उदारं प्रधानं कल्याण-कल्याणानां शुभसमृद्धि विशेषाणां कारणखात् कल्ये वा-नीरोगखमणति-गमयति कल्याणं तहेतुखात्, शिवम् उपद्रवोपशमहेतुखात् धन्यं 6 धनावहसात् 'मंगल्यं' मङ्गले दुरितोपशमे साधुखात्सश्रीक-सशोभनमिति 'समाणी'त्ति सती हृष्टतुष्टा अत्यर्थ तुष्टा अथवा हृष्टा-विस्मिता तुष्टा-तोषवती, 'चित्तमाणंदिय'त्ति चित्तेनानन्दिता आनन्दितं वा चित्तं यस्याः सा चित्तानन्दिता, मकारः प्राकृतखात् , प्रीतिमनसि यस्याः सा प्रीतिमनाः, 'परमसोमणस्सिया' परमं सौमनस्यं संजातं यस्याः सा परमसौमनस्थिता, हर्षवशेन विसर्पद्-विस्तारयायि हृदयं यस्याः सा तथा, सर्वाणि प्राय एकाथिकान्येतानि पदानि प्रमोदप्रकर्षप्रतिपादनाथेखात स्तुतिरूपलाच न दुष्टानि, आह च-"वक्ता हर्षभयादिभिराक्षिप्तमनास्तथा स्तुवनिन्दन् । यत्पदमसकृद्याचत्पुनरुक्तं न दोषाय | ॥१॥ इति, 'पचोरुहइत्ति प्रत्यवरोहति, अखरितं मानसौत्सुक्याभावेनाचपलं कायत: असंभ्रान्त्याऽस्स्वलन्त्या अविलम्बितया-अविच्छिन्नतया 'राजहंससरिसीए'त्ति राजहंसगमनसदृश्या गत्या 'ताहिं'ति या विशिष्टगुणोपेतास्ताभिगीभिरिति संबन्धः, इष्टाभिः तस्य वल्लभाभिः कान्ताभिः-अभिलषिताभिः सदैव तेन प्रियाभि:-अद्वेष्याभिः सर्वेषामपि मनो 11॥१६॥ वाभि:-मनोरमाभिः मन:प्रियाभिश्चिन्तयापि उदाराभिः-उदारनादवर्णोच्चारादियुक्ताभिः कल्याणाभिः-समृद्धिकारिकाभिः | राज्ञी-धारिणी एवं तस्या: स्वप्नं ~35~ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [८,९] दीप अनुक्रम [११,१२] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र -६ (मूलं + वृत्तिः ) अध्ययनं [१], • मूलं [८,९] श्रुतस्कन्धः [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः | शिवाभिः - गीर्दोषानुपद्रुताभिः धन्याभिः - धनलम्भिकाभिर्मङ्गल्याभिः मङ्गलसाध्वीभिः सश्रीकाभिः - अलङ्कारादिशोभावद्भिः हृदयगमनीयाभिः - हृदये या गच्छन्ति कोमलवात् सुबोधवाच्च तास्तथा ताभिः, हृदयप्रह्लादिकाभिः हृदयग्रह्लादनीयाभिः आह्लादजनकाभिः 'मितमधुररिभितगंभीरसश्रीकाभिः मिता:-वर्णपदवाक्यापेक्षया परिमिताः मधुराः स्वरतः रिभिताः-स्वरघोलनाप्रकारवत्यः गम्भीरा:- अर्थत शब्दतश्च सह श्रिया - उक्तगुणलक्ष्म्या यास्तास्तथा ततः पदपञ्चकस्य कर्मधारयस्ततस्ताभिः गीर्भिः वाग्भिः संलपन्ती पुनः पुनर्जल्पन्तीत्यर्थः नानामणिकनकरत्लानां भक्तिभिः - विच्छित्तिभिचित्रं विचित्रं यत्तत्तथा तत्र भद्रासने-सिंहासने आश्वस्ता गतिजनितश्रमापगमात् 'विश्वस्ता संक्षोभाभावात् अनुत्सुका वा 'सुहासणवरगय'त्ति सुखेन शुभे वा आसनवरे गता स्थिता या सा तथा, करतलाभ्यां परिगृहीतः - आत्तः करतलपरिगृहीतस्तं शिरस्यावर्त्त आवर्त्तनं परिभ्रमणं यस्य स तथा शिरसावर्त्त इत्येके, शिरसा अप्राप्त इत्यन्ये, तमंजलि मस्तके कृत्वा एवमवादीत्- 'किं मने' इत्यादि, को मन्ये कः कल्याणफलवृत्तिविशेषो भविष्यति, इह मन्ये वितर्कार्थी निपातः, 'सोच'चि थुला श्रवणतः निशम्य - अवधार्य हृष्टतुष्टो यावद्विसर्पहृदयः । तथा वाचनान्तरे पुनरिह राज्ञीवर्णके चेदमुपलभ्यते । तणं णि राया धारिणीए देवीए अंतिए एयमहं सोचा निसम्म हट्ट जाव हियये धाराहयनीवसुरभिकुसुमचुंचुमालइयतणुऊस सियरोमकृवे तं सुमिणं उग्गिण्डर उग्गहइत्ता ईहं पविसति २ अप्पणी साभाविएणं मइपुषपणं बुद्धिविन्नाणेणं तस्स सुमिणस्स अत्थोग्गहं करेति २ धारणिं देवीं ताहिं जाव हिययपहाय णिज्जाहिं मिड महुररिभियगंभीरसस्सिरियाहिं वग्यहिं अणुवहेमाणे २ एवं वयासी-उराले णं Educator Internationa राज्ञी - धारिणी एवं तस्याः स्वप्नं For Penal Lise On ~36~ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [१०,११] दीप अनुक्रम [१३, १४] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१] अध्ययनं [१], मूलं [१०, ११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥ १७ ॥ Education international स्वप्न फल कथनं तुमे देवाप्पिएं ! सुमिणे दिट्ठे कल्लाणां णं तुमे देवाणुप्पिए सुमिणे दिट्टे सिवे धन्ने मंगलले सस्सिरीए णं तुमे देवाणुप्पिए सुमिणे दिहे आरोग्गहिदीहाउय कल्लाणमंगलकारए णं तुमे देवी सुमिणे दिहे अत्थलाभों ते देवाणुप्पिए । पुत्तलाभो ते देवा० रज्जलाभो भोगसोक्खलाभो ते देवाणुप्पिएं ! एवं खलु तुम देवाप्पिए नवहं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं अट्टमाण य राद्विंदियाणं विज्ञकंताणं अम्हं कुलकेडं कुलदीवं कुलपव्वयं कुलवर्डिसयं कुलतिलकं कुलकित्तिकरं कुलवित्तिकरं कुलणंदिकरं कुलजसकरं कुलाधारं कुलपायचं कुलचिवद्धणकरं सुकुमालपाणिपायं जाव दारयं पयाहिसि, सेवि य णं दारए उम्मुकबालभावे विनाय परिणयमेत्ते जोवणगमणुपत्ते सूरे वीरे विकते विच्छिन्नविपुलयलवाहणे रज्जवती राया भविस्सर, तं उराले णं तु देवीए सुमिणे दिट्ठे जाव आरोग्गतुहिदीहा उकल्लाणकारए णं तुमे देवी! सुमिणे दिट्ठेतिक भुजो २ अणुवहेइ । (सू. १०) तते णं सा धारणी देवी सेणिएणं रन्ना एवं वृत्ता समाणी तुट्ठा जाव हिया करतलपरिग्गहियं जाव अंजलि कट्टु एवं वदासी एवमेयं देवाणुपिया । तहमेयं अवितमेयं असंदिद्धमेयं इच्छियमेयं दे० पडिच्छियमेयं इच्छियपडिच्छियमेयं सच्चे णं एसमट्टे जं णं तुज्झे वदहत्तिकहु तं सुमिणं सम्मं पडिच्छर पडिच्छत्ता सेणिएणं रत्ना अन्मणुष्णाया समाणी णाणामणिकणगरयणभत्तिचित्ताओ भद्दासणाओ अन्भुट्ठेइ अब्भुट्टेत्ता जेणेव सए सरणिजे तेणेव उवागच्छइ २ ती संयंसि यणिनंसि निसीयद्द निसीयइत्ता एवं बदासी- मा मे से उत्तमे पहाणे मंगले For Penal Use Only ~37~ स्वमकथनं फलादेशः सू. १० ११ ॥ १७ ॥ waryru Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ------------------ अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१०,११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०,११] दीप अनुक्रम [१३,१४] सुमिणे अन्नेहिं पावसुमिणेहिं पडिहमिहित्तिकट्ठ देवयगुरुजणसंबद्धवाहि पसत्थाहिं धम्मियाहि कहाहिं सुमिणजागरियं पडिजागरमाणी विहरह (स. ११) "धाराहयनीयसुरभिकुसुमचंचुमालइयतणुऊसवियरोमकूवेति तत्र नीयः-कदम्बः धाराहतनीयसुरभिकुसुममिव |'चंचुमालइय'त्ति पुलकिता तनुर्यस्य स तथा, किमुक्तं भवति ?-'ऊसविय'त्ति उत्सृता रोमकूपा-रोमरन्ध्राणि यस्य स तथा, तं स्वप्नमवगृह्णाति अर्थावग्रहतः ईहामनुप्रविशति-सदर्थप्रर्यालोचनलक्षणां ततः 'अप्पणोति आत्मसंबन्धिना खाभाविकेनसहजेन मतिपूर्वेण-आभिनिबोधिकप्रभवेन बुद्धिज्ञानेन-मतिविशेषभूतौत्पत्तिक्यादिबुद्धिरूपपरिच्छेदेन अर्थावग्रह-स्वमफलनिश्चयं करोति, ततोऽवादीन् 'उराले णमित्यादि, अर्थलाभ इत्यादिषु भविष्यतीति शेषो दृश्यः, एवं उपबृंहयन-अनुमोदयन् 'एवं खलु'ति एवंरूपादुक्तफलसाधनसमर्थात् स्वप्नात् दारकं प्रजनिष्यसीति संबन्धः, 'बहुपडिपुण्णाणं'त्ति अतिपूर्णेषु षष्ठयाः | 2 सप्तम्यर्थखात अर्द्धमष्टमं येषु तान्यष्टिमानि तेषु रात्रिन्दिवेषु-अहोरात्रेषु व्यतिक्रान्तेषु, कुलकेसादीन्येकादश पदानि, तत्र केतु-1% चिई ध्वज इत्यर्थः केतुरिख केतुरतखात् कुलस केतुः कुलकेतुः, पाठान्तरेण 'कुलहेज' कुलकारणं एवं दीप इव दीपः प्रकाश-1 कसात् पर्वतोऽनभिभवनीयस्थिराश्रयसाधम्यात् अवतंसा-शेखरः उत्तमखात्तिलको विशेषक: भूषकवात् कीर्तिकर:-ख्याति करः, कचिद्वृत्तिकरमित्यपि दृश्यते, वृत्तिश्च-निर्वाहा, नन्दिकरो-वृद्धिकरः यशः सर्वदिग्गामिप्रसिद्धिविशेषस्तत्करः पादपोS वृक्ष आश्रयणीयच्छायखात् विवर्द्धन-विविधैः प्रकारवृद्धिरेव तत्करं 'विण्णायपरिणयमेत्तेति विज्ञकः परिणतमात्रश्च कला दिष्विति गम्यते, तथा शूरो दानतोऽभ्युपेतनिर्वाहणतो वा वीरः संग्रामतः विक्रान्तो भूमण्डलाक्रमणतः विस्तीर्णे विपुले-18 स्वप्न-फल कथनं ~ 38~ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ------------------ अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१०,११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म सू. १२ प्रत सूत्रांक [१०,११] ॥१८॥ दीप अनुक्रम [१३,१४] अतिविस्तीर्णे बलवाहने-सैन्यगवादिके यस्य स तथा, राज्यपती राजा स्वतत्र इत्यर्थः । 'त'मिति यसाद तसादुदारादि विशे- नैमित्तिपणः खमः 'तुमेति खया दृष्ट इति निगमनं । 'एवमेतदिति राजवचने प्रत्ययाविष्करणम् , एतदेव स्फुटयति-तहमेय'ति काहानं तथैव तद्यथा भवन्तः प्रतिपादयन्ति, अनेनान्वयतस्तद्वचनसत्यतोक्का 'अवितहमेयं ति अनेन व्यतिरेकभावतः 'असंदिद्धमेयमित्यनेन संदेहाभावतः 'इच्छियंति इष्ट ईप्सितं वा 'पडिच्छियंति प्रतीष्टं प्रतीप्सितं वा अभ्युपगतमित्यर्थः, इष्टप्रतीष्टम् ईप्सितप्रतीप्सितं वा धर्मद्वययोगात् , अत्यन्तादरख्यापनाय चैवं निर्देशः, 'इतिकटु'त्ति इति भणिवा 'उत्तम'चि खरूपतः 'पहाणे'त्ति फलतः, एतदेवाह-मंगल्ले'ति मंगले साधुः खप्त इति 'सुमिणजागरिय'ति खमसंरक्षणार्थ जागरिका ता 'प्रति-11 जाग्रती प्रतिविदधती। तए णं सेणिए राया पचूसकालसमयंसि कोडुंबियपुरिसे सदावेह सदावइत्ता एवं वदासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! पाहिरियं उवट्ठाणसालं अज सविसेसं परमरम्मं गंधोदगसित्तसुइयसंमजिओवलितं पंचवनसरससुरभिमुकपुष्फपुंजोवयारकलियं कालागरुपवरकुंदुरुकतुरुकधूवडज्झंतमघमतगंधुद्धयाभिरामं सुगंधवरगंधियं गंधवहिभूतं करेह य कारवेह यर एवमाणसिय पचप्पिणह, तते णं ते कोटुंबियपुरिसा सेणिएणं रन्ना एवं धुत्ता समाणा हहतुट्ठा जाव पचप्पिणंति, तते णं सेणिए राया कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए फुल्लुप्पलकमलकोमलुम्मिलियंमि अहापंडुरे पभाए रत्तासोगपगासर्किसुयसुयमुहगुंजद्धरागबंधुजीवगपा रावयचलणनयणपरहुपसुरत्तलोयणजामुयणकुसुमजलियजलणतवणिजकलसहिंगुलयनिगररूवाइरंगरेह SARERainintamatuana स्वप्न-फल कथनं, ~ 39~ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१२] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२] गाथा न्तसस्सिरीए दिवागरे अहकमेण उदिए तस्स दिण [कर] करपरपरावयारपारळूमि अंधयारे बालातवकुंकुमेण स्वइयव जीवलोए लोयणविसआणुआसविगसंतविसददंसियंमि लोए कमलागरसंडबोहए उद्वियंमि सूरे सहस्सरसिमि दिणयरे तेयसा जलंते सयणिज्जाओ उद्वेति २ जेणेव अणसाला तेणेव उवागच्छइ २ अणसालं अणुपविसति २ अणेगवायामजोगवग्गणवामदणमल्लजुद्धकरणेहिं संते परिस्संते सयपाहिं सहस्सपागेहिं सुगंधचरतेल्लमादिपहिं पीणणिज्जेहिं दीवणिज्जेहिं दप्पणिज्जेहिं मदणिज्जेहिं बिहणिज्जेहिं सबिंदियगायपल्हायणिज्जेहिं अभंगएहिं अन्भंगिए समाणे तेल्लचम्मंसि पडिपुण्णपाणिपायसुकुमालकोमलतलेहिं पुरिसेहिं छेएहिं दक्खेहिं पढेहिं कुसलेहिं मेहावीहिं निउणेहिं निउणसिप्पोवगतेहिं जियपरिस्समेहि अभंगणपरिमणुषलणकरणगुणनिम्माएहि अडिसुहाए मंससुहाए तयासुहाए रोमसुहाए चाउपिहाए संथाहणाए संवाहिए समाणे अवगयपरिस्समे नरिंदे अणसालाओ पडिनिक्खमह पडिनिक्खमइत्ता जेणेव मजणघरे तेणेव उवागच्छद उवागच्छइत्ता मज्जणघरं अणुपविसति अणुपविसित्ता समंत (मुत्त) जालाभिरामे विचित्तमणिरयणकोहिमतले रमणिजे पहाणमंडपंसि णाणामणिरयणभत्तिचित्तंसि पहाणपीढंसि सुहनिसन्ने सुहोदगेहिं पुष्फोदएहिं गंधोदएहिं सुद्धोदएहि य पुणो पुणो कल्लाणगपवरमजणविहीए मजिए तत्थ कोउयसएहिं बहुविहेहिं कल्लाणगपवरमजणावसाणे पम्हलसुकुमालगंधकासाईयलूहियंगे अहतसुमहग्घदूसरयणसुसंवुए सरससुरभिगोसीसचंदणाणुलित्तगते सुइमालावन्नग दीप अनुक्रम [१५-१७] स्वप्न-फल कथनं ~ 40~ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१२] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. १ उत्क्षिसाध्ययने स्वमफलम् सूत्रांक [१२]] ॥१९॥ गाथा विलेवणे आविद्धमणिमुवन्ने कप्पियहारद्धहारतिसरयपालंबपलंयमाणकडिसुत्तसुकयसोहे पिणद्धगेवजे अंगुलेलगल लियंगल लियकयाभरणे णाणामणिकडगतुडियथंभियभुए अहियरुवसस्सिरीए कुंडलुजोइयाणणे मउदित्तसिरए हारोत्थयमुकतरइयवच्छे पालंबपलंबमाणसुकयपडउत्सरिजे मुछियापिंगलंगुलीए णाणामणिकणगरयणविमलमहरिह निउणोवियमिसिमिसंतविरइयसुसिलिट्ठविसिट्ठलट्ठसंठियपसस्थआविद्धवीरवलए, किं बहुणा, कप्परुक्खए चेव सुअलंकियविभूसिए नरिंदे सकोरिटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं उभओ चउचामरवालवीइयंगे मंगलजयसहकयालोए अणेगगणनायगदंडणायगराईसरतलवरमाइंबियकोटुंबियमंतिमहामंतिगणगदोवारियअमचचेडपीहमदनगरणिगमसेडिसेणावइसत्यवाहदयसंधिवाल सद्धिं संपरिबुडे धवलमहामेह निग्गएषिव गहगणदिपंतरिक्खतारागणाण मझे ससिव पियदसणे नरवई मजणघराओ पडिनिक्खमति पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उचागच्छद उवागच्छइत्ता सीहासणवरगते पुरत्याभिमुहे सन्निसन्ने । तते णं से सेणिए राया अप्पणो अदूरसामंते उत्तरपुरच्छिमे दिसिभागे अट्ट भहासणाई सेयवत्वपच्चुत्थुयाति सिद्धस्थमंगलोचयारकतसंतिकम्माई रयावेई रयावित्सा णाणामणिरयणमंडियं अहियपेच्छणिज्जरूवं महग्यवरपहणुग्गयं सहबहुभत्तिसयचित्तट्ठाणं ईहामियउसमतुरयणरमगरविहगवालगकिंनररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्तं सुखचियवरकणगपवरपेरंतदेसभागं अम्भितरियं जवणियं अंछावेइ अंछावइत्ता दीप अनुक्रम [१५-१७] ॥१९॥ स्वप्न-फल कथनं ~ 41~ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१२] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२] गाथा अच्छरगमउअमसूरगउच्छाइयं धवलवत्वपचत्धुयं विसिटुं अंगसुहफासयं सुमउयं धारिणीए देवीए भहासणं रयावेइ रयावइत्ता कोडुंबियपुरिसे सदाचेइ सहावेत्ता एवं वदासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! अटुंगमहानिमित्तसुत्तत्थपाढए विविहसत्यकुसले सुमिणपाढए सद्दावेह सदावहत्ता एयमाणत्तियं खिप्पामेव पचप्पिणह । तते णं ते कोटुंबियपुरिसा सेणिएणं रन्ना एवं वुत्ता समाणा हट्ट जाव हियया करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कडु एवं देवो तहत्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुगति २ सेणियस्स रन्नो अंतियाओ पडिनिक्खमंति २ रायगिहस्स नगरस्स मज्झमझेणं जेणेव सुमिणपाढगगिहाणि तेणेव उवागच्छति उवागरिछत्ता सुमिणपाढए सदावेति । तते णं ते सुमिणपादगा सेणियस्स रनो कोइंबियपुरिसहिं सद्दाविया समाणा हट्ट २ जाव हियया पहाया कयवलिकम्मा जाय पायच्छित्ता अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरा हरियालियसिद्धत्वयकयमुद्धाणा सतेहिं सतेहिं गिहेहिंतो पडिनिक्खमंति २रायगिहस्स मज्झमझेणं जेणेव सेणियस्स रन्नो भवणवडेंसगदुवारे तेणेव उवागच्छंति २ एगतओ मिलयंति २ सेणियस्स रन्नो भवणव.सगढुवारणं अणुपविसंति अणुपविसित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता सेणियं रायं जएणं विजएणं बद्धाति, सेणिएणं रन्ना अचिय बंदिय पूतिय माणिय सकारिया सम्माणिया समाणा पत्तेयं २ पुबन्नत्थेसु भद्दासणेसु निसीयंति, तते णं सेणिए राया जवणियंतरियं धारणी देवीं ठवेइ ठवेत्ता पुप्फफलप Beestoreलटलटलकर दीप अनुक्रम [१५-१७] स्वप्न-फल कथनं ~ 42 ~ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) (०६) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१२] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत ज्ञाताधर्म कथाङ्गम. सूत्रांक [१२] १ उत्क्षिताध्ययने स्वप्रफलम् सू. १२ ॥२०॥ गाथा डिपुण्णहत्थे परेणं विणएणं ते सुमिणपाढए एवं वदासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! धारिणीदेवी अज्ज तंसि तारिसयंसि सयणिजंसि जाव महासुमिणं पासित्ता णं पडिबुद्धा, तं एयस्स णं देवाणुप्पिया! उरालस्स जाव सस्सिरीयस्स महासुमिणस्स के मन्ने कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भविस्सति, तते णं ते सुमिणपाढगा सेणियस्स रन्नो अंतिए एपम8 सोचा णिसम्म हट्ट जाव हियया तं सुमिणं सम्मं ओगिण्हति २ई अणुपविसंति २ अन्नमन्नेण सद्धिं संचालेंति संचालित्ता तस्स सुमिणस्स लट्ठा गहियट्ठा पुच्छियट्ठा विणिच्छियट्ठा अभिगयट्ठा सेणियस्स रन्नो पुरओ सुमिणसत्थाई उचारेमाणा २ एवं वदासी-एवं खलु अम्हं सामी! सुमिणसत्थंसि वायालीसं सुमिणा तीसं महासुमिणाबावत्तरि सबसुमिणा दिट्ठा, तस्थ णं सामी! अरिहंतमायरो वा चक्कवद्दिमातरो वा अरहंतसि वा चक्कवाहिसि वा गम्भं वकममाणंसि एएसि तीसाए महासुमिणाणं इमे चोदस महासुमिणे पासित्ताणं पडिबुज्झति, तंजहा-गयउसभसीहअभिसेयदामससिदिणयरं झर्य कुंभं । पउमसरसागरविमाणभवणरयणुच्चय सिंहिं च ॥१॥ वासुदेवमातरो वा वासुदेवंसि गन्भं वकममाणंसि एएसिं चोद्दसण्हं महासुमिणाणं अन्नतरे चत्तारि महासुमिणे पासित्ता णं पडिबुजझंति, बलदेवमातरो वा बलदेवंसि गम्भं चकममाणंसि एएसिं चोदसण्हं महासुमिणाणं अण्णतरे चत्तारि महासुविणे पासित्ताण पडिबुझंति, मंडलियमायरो वा मंडलियंसि गन्भं वकममाणंसि एएर्सि चोहसहं महासुमिणाणं अन्नतरं एग महासुमिणं पासित्ताणं पडिबुज्झंति, इमेय णं सामी! धारणीए देवीए दीप अनुक्रम [१५-१७] ॥ २०॥ स्वप्न-फल कथनं ~ 43~ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) ཏྠཱ + ཀྑུལླཱ ཡྻ [१५-१७] ----- अध्ययनं [१], • मूलं [१२] + गाथा: श्रुतस्कन्धः [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..... . आगमसूत्र - [ ०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Educat “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) स्वप्न फल कथनं एगे महासुमि दिट्ठे, तं उराले णं सामी ! धारणीए देवीए सुमिणे दिट्ठे, जाब आरोग्गतुट्ठिदीहाउकल्लामंगलकार णं सामी ! धारिणीए देवीए सुमिणे दिडे, अत्थलाभो सामी सोक्खलाभो सामी ! भोगलाभो सामी । पुत्तलाभो, रज्जलाभो एवं खलु सामी ! धारिणीदेवी नवग्रहं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं जाव दारगं पयाहिसि, सेवि य णं दारए उम्मुकबालभावे विन्नाय परिणयमिते जोवणगमणुपत्ते सूरे वीरे विकं विच्छिन्नविउलबलवाहणे रज्जवती राया भविस्सह अणगारे वा भावियप्पा, तं उराले णं सामी ! धारिणी देवीए सुमिणे दिडे, जाब आरोग्गतुहिजावदिट्ठेतिकट्टु भुज्जो २ अणुबूर्हेति । तते णं सेणिए राया तेसिं सुमिणपादगाणं अंतिए एयम सोच्चा णिसम्म हह जाव हियए करयल जाव एवं वदासीएवमेयं देवाणुपिया जाब जन्नं तुम्भे वदहत्तिकट्टु तं सुमिणं सम्मं पडिच्छति २ ते सुमिणपाढए विपुलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थगंधमल्लालंकारेण य सकारेति सम्माणेति २ विपुलं जीवियारिहं पीतिदाणं दलयति २ पडिविसह । तते णं से सेणिए राया सीहासणाओ अब्भुद्वेति २ जेणेव धारिणी देवी तेणेव उवागच्छद्द उवागच्छत्ता धारिणीदेवीं एवं दासी एवं खलु देवाणुप्पिए । सुमिणसत्यंसि बयालीस सुमिणा जाव एवं महासुमिणं जाव भुजो २ अणुवहति, तते णं धारिणीदेवी सेणियस्स रनो अंतिए एयमहं सोचा णिसम्म हट्ठ जाव हियया तं सुमिणं सम्मं पडिच्छति २ जेणेव सए वासरे तेणेव उवागच्छति २ व्हाया कयबलिकम्मा जाव विपुलाहिं जाव विहरति (सूत्रं १२ ) For Park Use Only ~ 44~ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१२] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२]] ॥२१॥ सू.१२ गाथा ज्ञाताधर्म-RI 'पचूसेत्यादि प्रत्यूषकाललक्षणो यः समय:-अवसरः स तथा तत्र कौटुम्बिकपुरुषान्-आदेशकारिणः 'सद्दावेइति १ उत्क्षिकथाङ्गम् शब्दं करोति शब्दयति 'उपस्थानशाला' आस्थानमण्डपं 'गन्धोदकेने त्यादि गन्धोदकेन सिक्ता शुचिका-पवित्रा संमार्जिता |प्ताध्ययने कचरापनयनेन उपलिता छगणादिना या सा तथा तां, इदं च विशेषणं गन्धोदकसिक्तसंमार्जितोपलिप्तशुचिकामित्येवं दृश्य, स्वमफलम् I सिक्तायनन्तरभाविखाच्छुचिकखस्य, तथा पञ्चवर्णः सरसः सुरभिश्च मुक्त:-क्षिप्तः पुष्पपुञ्जलक्षणो यः उपचार:-पूजा तेन18। कलिता या सा तथा ता, 'काले त्यादि पूर्ववत् , 'आणत्तियं पञ्चप्पिणहति आज्ञप्तिम्-आदेशं प्रत्यर्पयत-कृतां सती निवेदयत, 'कल्ल'मित्यादि 'कल्लमिति श्वः प्रादुः-प्राकाश्ये ततः प्रकाशप्रभातायां रजन्यां 'फुल्लोल्पलकमलकोमलोन्मी-RI लितं फुल्लं-विकसितं तच्च तदुत्पलं च-पद्म फुल्लोत्पलं तच्च कमलश्च-हरिणविशेषः फुल्लोत्पलकमलौ तयोः कोमलम्-अकठोरमुन्मीलितं-दलानां नयनयोश्चोन्मीलनं यस्मिस्तत्तथा तसिन् , अथ रजनीविभातानन्तरं पाण्डुरे-शुक्ले प्रभाते-उपसि रत्तासोगे'त्यादि रक्ताशोकस्य प्रकाशः-प्रभा स च किंशुकं च-पलाशपुष्पं शुकमुखं च गुञ्जा-फलविशेपो रक्तकृष्णस्तदर्थ बंधुजीबकं च-बन्धुकं पारापतः-पक्षिविशेषः तच्चलननयने च परभृतः-कोकिलः तस्य सुरक्तं लोचनं च 'जासुमिण इति जपा वनस्पतिविशेषः तस्याः कुसुमं च ज्वलितज्वलनच तपनीयकलशश्च हिङ्गलको-वर्णकविशेषस्तत्रिकरन-राशिरिति बन्दा, तत एतेषां यद्रूपं ततोऽतिरेकेण-आधिक्येन रहंत'ति शोभमाना वा खकीया श्री:-वर्णलक्ष्मीर्यस्य स तथा तसिन्, 'दिवाकरेगा ॥२१॥ आदित्ये अथ-अनन्तरं क्रमेण-रजनीक्षयपाण्डुरप्रभातकरणलक्षणेन 'उदिते' उद्गते 'तस्स दिण[कर करपरंपरावयारपारळूमि अंधकारे'सि तस्स-दिवाकरस दिने-दिवसे अधिकरणभूते दिनाय वा य: करपरम्परायाः-किरणप्रवाहसावतार:-18 दीप अनुक्रम [१५-१७] स्वप्न-फल कथनं ~ 45~ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) ཙྪཱ + ཡྻ सूत्रांक [१२] अनुक्रम [१५-१७] श्रुतस्कन्धः [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) ----- अध्ययनं [१], • मूलं [१२] + गाथा: आगमसूत्र - [ ०६ ], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः स्वप्न फल कथनं अवतरणं तेन प्रारब्धम् आरब्धमभिभवितुमिति गम्यते अपराद्धं वा विनाशितं दिनकरपरम्परावतारप्रारब्धं तस्मिन् सति इह (च तस्येति सापेक्षत्वेऽपि समासः, तथा दर्शनादन्धकारे - तमसि तथा बालातप एवं कुङ्कुमं तेन खचिते इव जीवलोके सति, तथा लोचनविषयस्य दृष्टिगोचरस्य योऽणुयासोन्ति-अनुकाशो विकाशः प्रसर इत्यर्थस्तेन विकसंवासी वर्द्धमानो विशदश्वस्पष्टः स वासौ दर्शितथेति लोचनविषयानुकाश विशददर्शितस्तसिन्, कस्मिन्नित्याह- लोके अयमभिप्रायः - अन्धकारस्य क्रमेण हानी लोचनविषयविकाशः क्रमेणैव भवति स च विकसन्तं लोकं दर्शयत्येव, अंधकारसद्भावे दृष्टेरप्रसरणे लोकस्य संकीर्णस्येव प्रतिभासनादिति, तथा कमलाकरा-हदादयस्तेषु षण्डानि-नलिनीपण्डानि तेषां बोधको यः तस्मिन् उत्थिते-उदयानन्तरावस्थावासे 'सूरे' आदित्ये किंभूते ?- सहस्ररमौ तथा 'दिनकरे' दिनकरणशीले तेजसा ज्वलति सतीति । 'अणसाल' चि अनशाला व्यायामशालेत्यर्थः, अनेकानि यानि व्यायामानि योग्या च-गुणनिका वल्गनं च-उल्ललनं व्यामर्दनं च परस्परेण वाडायङ्गमोटनं मल्लयुद्धं च प्रतीतं करणानि च वाडुभङ्गविशेषा मल्लशास्त्रप्रसिद्धानि तैः श्रान्तः सामान्येन परिश्रान्तो अङ्गप्रत्यङ्गापेक्षया सर्वतः शतकुलो यत्पकं शतेन वा कार्षापणानां यत्पकं तच्छतपकमेवमितरदपि सुगन्धिवरतैलादिभिरभ्यंगैरिति योगः | आदिशब्दाद घृतकर्पूरपानीयादिग्रहः किम्भूतैः १- 'प्रीणनीयैः' रसरुधिरादिधातुसमता कारिभिद्दीपनीयैः - अभिजननैः दर्पणीयैः- बलकरैः मदनीयैः- मन्मथबृंहणीयैर्मासोपचयकारिभिः सर्वेन्द्रियगात्रप्रह्लादनीयैः अभ्यंगे:- स्नेहनैः अभ्यंगः क्रियते यस्य सोऽभ्यङ्गितः सन् ततस्तैलचर्मणि तैलाभ्यक्तस्य संबाधनाकरणाय यच्चर्म तत्तैलचर्म तस्मिन् संवाहिते 'समाणेत्ति योगः, कैरित्याह :- पुरुषः, कथम्भूतैः ?- प्रतिपूर्णानां पाणिपादानां सुकुमालकोमलानि - अतिकोमलानि तलानि - अधोभागा येषां ते For Parts Only ~46~ nary org Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ------------------ अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१२] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत ज्ञाताधर्म- कथाङ्गम् | सूत्रांक [१२] ॥२२॥ गाथा टिकटकर 68cleedeoटट तथा तैः, छक:-अबसर.विसप्ततिकलापण्डितैरिति च वृद्धवाः, दक्षैः-कार्याणामविलम्बितकारिभिः प्रष्टैः-वाग्मिभिरिति वृद्ध- उत्क्षिव्याख्या, अथवा प्रष्टैः-अग्रगामिभिः कुशल:-साधुभिः संचाधनाकर्मणि मेधाविभिः-अपूर्वविज्ञानग्रहणशक्तिनिष्ठैः निपुणैः- साध्ययने क्रीडाकुशलैनिपुणशिल्पोपगतैः-निपुणानि-मूक्ष्माणि यानि शिल्पानि-अङ्गमर्दनादीनि तान्युपगतानि-अधिगतानि यैस्ते तथास्वमफलम् तैर्जितपरिश्रमैः, व्याख्यान्तरं तु छेकः-प्रयोग दक्षैः-शीघ्रकारिभिः 'पत्तद्देहिंति प्राप्ताङ्करधिकृतकर्मणि निष्ठां गतः कुशलैः- सू. १२ आलोचितकारिभिः मेधाविमिः-सकृच्छृतदृष्टकर्मज्ञैः निपुणैः-उपायारम्भिभिः निपुणशिल्पोपगतैः-सूक्ष्मशिल्पसमन्वितैरिति, अभ्यङ्गनपरिमर्दनोद्वलनानां करणे ये गुणास्तेषु निर्मातः, अस्मां सुखहेतुखादस्थिसुखा तया 'संवाहनये'ति विश्रामणया अप-18 गतपरिश्रमः 'समंतजालाभिरामे'त्ति समन्तात्-सर्वतो जालकैर्विच्छित्तिभिः छिद्रवहावयव विशेषैरभिरामो-रम्यो यः स्नानमण्डपः स तथा, पाठान्तरे 'समत्तजालाभिरामेति तत्र समस्तैर्जालकैरमिरामो यः स तथा, पाठान्तरेण 'समुत्तजाला-1 भिरामे' सह मुक्ताजालयों वर्ततेभिरामश्च स तथा तत्र, शुभोदकैः पवित्रस्थानाहृतैः गन्धोदकैः-श्रीखण्डादिमिः पुष्पोदकैः-पुष्परसमिधः शुद्धोदकैश्च स्वाभाविक, कथं मजित इत्याह-तत्र' स्नानावसरे यानि कौतुकशतानि रक्षादीनि ते 'पक्ष्मले'त्यादि पक्ष्मला-पक्ष्मवती अत एव सुकुमाला गन्धप्रधाना कापायिका कषायरक्ता शाटिका तया लूपितमहं यस्य स तथा, अहत-मलमूषिकादिभिरनुपढतं प्रत्यग्रमित्यर्थः, मुमहार्य दृष्यरतं-प्रधानवसं तेन सुसंवृतः-परिगतस्तद्वा मुटु संवृतं परि-11 9 ॥२२॥ [हितं येन स तथा, शुचिनी-पवित्रे माला च-पुष्पमाला वर्णकविलेपनं च-मण्डनकारि कुङ्कमादि विलेपनं यस्य स तथा, आवि-16 द्वानि-परिहितानि मणिसुवर्णानि येन स तथा, कल्पितो-विन्यस्तो हार:-अष्टादशसरिकः अर्द्धहारो-नवसरिक: त्रिसरिकं च दीप अनुक्रम [१५-१७] स्वप्न-फल कथनं ~ 47~ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रतस्कन्ध: [१] .. . -- अध्ययनं [१], .............- मूलं [१२] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२] गाथा प्रतीतमेव यस्य स तथा, पालम्बो-झुम्बनकं प्रलम्बमानो यस्य स तथा, कटिमूत्रेण-कव्यामरण विशेषेण मुष्ठ कृता शोभा यस्य स तथा, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः, अथवा कल्पितहारादिभिः सुकृता शोभा यस्य स तथा, तथा पिनद्धानि-परिहितानि |ग्रैवेयकाहुलीयकानि येन स तथा, तथा ललिताङ्गके अन्यान्यपि ललितानि कृतानि-न्यस्तानि आमरणानि यस्य स तथा, ततः पदद्वयस्थ कर्मधारयः, तथा नानामणीनां कटकत्रुटिक:-हस्तबाहाभरणविशेषबहुसात् स्तम्भिताविव स्तम्भितौ भुजौ यस्य स तथा, अधिकरूपेण सश्रीका-सशोभो यः स तथा, कुण्डलोयोतिताननः मुकुटदीप्तशिरस्क: हारेणावस्तृतम्-आच्छादितं तेनैव सुष्ठ। कृतरतिकं वक्षः-उरो यस्खासौ हारावस्तृतसुकृतरतिकवक्षाः, मुद्रिकापिङ्गलाङ्गुलीक:-मुद्रिका-अङ्गल्याभरणानि ताभिः पिङ्गला:-1 कपिला अङ्गुलयो यस्य स तथा, प्रलम्बेन-दीपेण प्रलम्बमानेन च सुष्टु कृतं पटेनोत्तरीयम्-उत्तरासको येन स तथा, नानामणि-10 || कनकरवैविमलानि महाहाणि-महा_णि निपुणेन शिल्पिना 'उविय'ति परिकर्मितानि 'मिसिमिसंतति दीप्यमानानि यानि | विरचितानि-निर्मितानि सुश्लिष्टानि सुगन्धीनि विशिष्टानि-विशेषवन्त्यन्येभ्यो लप्टानि-मनोहराणि संस्थितानि प्रशस्तानि च आविद्धानि-परिहितानि वीरवल यानि येन स तथा, सुभटो हि यदि कश्चिदन्योऽप्यस्ति वीरव्रतधारी तदाऽसौ मां विजित्य IAS मोचयत्वेतानि बलयानीति स्पर्द्धयन् यानि परिदधाति तानि वीरवलयानीत्युच्यन्ते, किंबहुना, वर्णितेनेति शेषः, कल्पवृक्ष इव || सुष्ठु अलङ्कतो विभूषितश्च फलपुष्पादिभिः कल्पवृक्षो राजा तु मुकुटादिभिरलङ्कतो विभूपितस्तु वस्त्रादिभिरिति, सह कोरण्टकाKधानर्माल्यदामभिर्यच्छत्रं तेन नियमाणेन, कोरण्टकः-पुष्पजातिः, तत्पुष्पाणि मालान्तेषु शोभार्थ दीयन्ते, मालायै हितानि-16 माल्यानि-पुष्पाणि दामानि-माला इति, चतुर्णा चामराणां प्रकीर्णकानां वालैवीं जितमङ्गं यस्येति वाक्यं, मालभूतो जयशब्दः दीप अनुक्रम [१५-१७] स्वप्न-फल कथनं ~ 48~ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१२] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत कथाङ्गम्, सूत्रांक [१२]] गाथा कृत आलोके दर्शने लोकेन यस्य स तथा, तथा अनेके ये गणनायकाः-प्रकृतिमहत्तरा दण्डनायकाः-तत्रपाला राजामो-181१ उत्क्षिमाण्डलिकाः ईश्वरा-युवराजानो मतान्तरेणाणिमायैश्वर्ययुक्ताः तलवरा-परितुष्टनरपतिप्रदत्तपट्टवन्धविभूषिता: राजस्था-18 साध्ययने शनीयाः माडम्बिका:-छिन्नमडम्बाधिपाः कौटुम्बिका:-कतिपयकुटुम्बप्रभवोऽवलगकाः मत्रिणः प्रतीता: महाम- स्वमफलम् श्रिणो-मत्रिमण्डलप्रधानाः हस्तिसाधनोपरिका इति वृद्धाः गणका-गणितज्ञाः भाण्डागारिका इति वृद्धाः दीवारिका:प्रतीहाराः राजद्वारिका वा अमात्या-राज्याधिष्ठायकाः चेदाः-पादमूलिकाः पीठमा आस्थाने आसनासीनसेवकाः वपस्या इत्यर्थः 'नगरं नगरवासिप्रकृतयो निगमा:-कारणिकाः श्रेष्ठिन:--श्रीदेवताध्यासितसौवर्णपट्टविभूषितोसमाङ्गा: सेनापतया-नृपतिनिरूपिताधतुरासैन्यनायकाः सार्थवाहा:-सार्थनायकाः दूता:-अन्येषां गखा राजादेशनिवेदकाः सन्धि-18 पाला-राज्यसन्धिरक्षकाः एषा द्वन्द्वः ततस्तैः, इह तृतीयाबहुवचनलोपो द्रष्टव्यः, सार्द्ध-सह, न केवलं तत्सहितखमेवापि तु तैः समिति-समन्तात् परिवृतः-परिकरित इति, नरपतिर्मजनगृहात्प्रति निष्कामतीति संवन्धः, किंभूतः -प्रियदर्शनः, क इव - धवलमहामेघनिर्गत इव शशी, तथा 'ससिष'त्ति वत्करणसान्यत्र संबन्धस्ततो ग्रहगणदीप्यमानऋक्षतारागणानां मध्ये हव वन-1 |मान इति । सिद्धार्थकप्रधानो यो मङ्गलोपचारतेन कृतं शान्तिकर्म-विनोपशमकर्म येषु तानि तथा । 'णाणामणी'त्यादि. 18 यवनिकामाञ्छयतीति संबन्धः, अधिक प्रेक्षणीयं रूपं यस्यां रूपाणि वा यस्यां सा तथा तां, महार्षा चासौ वरपत्तने-परवखो-18॥२३॥ त्पत्तिस्थाने उद्गता च-च्यूता तां श्लक्ष्णानि बहुभक्तिशतानि यानि चित्राणि तेषां स्थानं, तदेवाह-ईहामृगाः-धूकाः ऋषभाः[वृषभाः तुरगनरमगरविहगाः प्रतीता: व्याला:-श्वापदभुजगाः किन्नरा-व्यन्तरविशेषाः रुरवो-मृगविशेषाः सरभा-आट दीप अनुक्रम [१५-१७] स्वप्न-फल कथनं ~ 49~ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१२] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२] गाथा व्याः महाकायपशवः पराशरेतिपर्यायाः चमरा-आटव्या गावः कुञ्जरा-दन्तिनः वनलता-अशोकादिलताः पद्मलता:पबिन्यः एतासां यका भक्तयो-विपिछत्तयस्ताभिश्चित्रा या सा तथा तां, सुष्टु खचिता-मण्डिता बरकनकेन प्रवरपर्यन्तानाम्अश्चलकर्णवर्तिलक्षणानां देशभागा-अवयवा यस्यां सा तथा तां, आभ्यन्तरिकी-आस्थानशालाया अभ्यन्तरभागवर्तिनी यवनिकां-काण्डपट 'अंछावेईत्ति आयतां कारयति, आस्तरकेण प्रतीतेन मृदुकममूरकेण च प्रतीतेनावस्तृतं यत्तत्तथा, धवलवस्त्रेण प्रत्यवस्तृतम् आच्छादितं विशिष्टं-शोभनं अङ्गस्य सुखः स्पर्शो यस्य तत्तथा, अष्टाङ्गम्-अष्टभेदं दिव्योत्पातान्तरिक्षादिभेदं यन्महानिमित्तं-शाखविशेषः तस्य सूत्रार्थपाठका ये ते तथा तान् “विणयेण वयणं पडिमुणेति'त्ति प्रतिभृण्वन्ति-अभ्युपगच्छन्ति वचनं, विनयेन किम्भूतेनेत्याह-'एव'मिति यथैव यूयं भणथ तथैव 'देवो'त्ति हे देव ! 'तहत्ति'ति नान्यथा आज्ञया-भवदादेशेन करिष्याम इत्येवमभ्युपगमसूचकपदचतुष्टयभणनरूपेणेति जाव हिययत्तिI'हरिसवसविसप्पमाणहियया' स्नानानन्तरं कृतं बलिकर्म यैः स्वगृहदेवताना ते तथा 'जाच पायपिछत्त'त्ति 'कयकोउय-18 मंगलपायच्छित्ता' तत्र कृतानि कौतुकमंगलान्येवेति प्रायश्चित्तानि दुःखमादिविघातार्थमवश्यकरणीयखाद्यैस्ते तथा, तत्र कौतुकानि-मपीतिलकादीनि मंगलानि तु-सिद्धार्थकदध्यक्षतर्वाङ्कुरादीनि हरितालिका-दूबो सिद्धार्थका अक्षताश्च कृता मूर्द्धनि | यैस्ते तथा कचित् 'सिद्धत्थयहरियालियाकयमंगलमुद्धाणा' एवं पाठः, स्वकेभ्य आत्मीयेभ्य इत्यर्थः । 'जएणं विजएणं वद्धान्ति जयेन विजयेन च बर्द्धख खमित्याचक्षत इत्यर्थः, तत्र जयः-परैरनभिभूयमानता प्रतापवृद्धिश्च विजयस्तु-18 परेषामभिभव इति, अर्चिताः-चर्चिताश्चन्दनादिना वन्दिताः सद्गुणोत्कीर्तनेन पूजिताः-पुष्पैर्मानिता-दृष्टिप्रणामतः सत्का दीप अनुक्रम [१५-१७] स्वप्न-फल कथनं ~50~ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रतस्कन्ध: [१] .. . -- अध्ययनं [१], .............- मूलं [१२] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म धर्म- कथाङ्गम. प्रत सूत्रांक [१२] ॥२४॥ गाथा रिता:-फलवखादिदानतः सन्मानितास्तथाविधया प्रतिपच्या 'समाण'त्ति सन्तः, 'अण्णमपणेण सद्धिं'ति अन्योऽन्येनं सह उरिक्षइत्येवं 'संचालति'त्ति संचालयन्ति संचारयन्तीति पर्यालोचयन्तीत्यर्थः लब्धार्थाः स्वतः पृष्टार्थाः परस्परतः गृहीतार्थाः सज्ञाते मेपराभिप्रायग्रहणतः तत एव विनिश्चितार्थाः अत एव अभिगतार्था अवधारितार्था इत्यर्थः, 'गन्भं वक्कममाणंसिति गर्ने ||घदोहदः 'व्युत्क्रामति' उत्पद्यमाने, अभिषेक इति-श्रियाः संबन्धी, विमानं यो देवलोकादवतरति तन्माता पश्यति यस्तु नरकादुद्ध- सू. १३ त्योत्पद्यते तन्माता भवनमिति चतुर्दशैव स्वमाः, विमानभवनयोरेकतरदर्शनादिति । 'विण्णायपरिणयमेत्ते' विज्ञात-विज्ञान परिणतमात्रं यस स तथा कचिद्विपणय'त्ति पाठः स च व्याख्यात एव, 'जीवियारिहंति आजन्मनिर्वाहयोग्यं तते णं तीसे धारिणीए देवीए दोसु मासेसु बीतिकतेसु ततिए मासे वट्टमाणे तस्स गम्भस्स दोहलका लसमयंसि अयमेयारूवे अकालमेहेसु दोहले पाउभवित्था-धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ सपुन्नाओ णं ताओ अम्मपाओ कयस्थाओ णं ताओ कयपुन्नाओ कयलक्खणाओ कयविहवाओ मुलद्धे णं तार्सि माणुस्सए जम्मजीवियफले जाओ णं मेहेसु अन्भुग्गतेसु अन्भुज्जुएमु अन्भुन्नतेसु अन्भुटिएम सगजिएसु सविजुएसु सफुसिएम सथणिएमु धंतधोतरुप्पपअंकसंखचंदकुंदसालिपिहरासिसमप्पमेसु चिउरहरियालभेयचंपगसणकोरंटसरिसयपउमरयसमप्पमेसु लक्खारससरसरत्तर्किमयजासुमणरत्तबधुजीवगजातिहिंगुलयसरसकुंकुमउरब्भससरुहिरइंदगोवगसमप्पभेसु बरहिणनीलगुलियसुगचासपिच्छभिंगपत्तसासगनीलुप्पलनियरनवसिरीसकुसुमणवसहलसमप्पभेसु जच्चंजणभिंगभेयरिङगभमरावलिग दीप अनुक्रम [१५-१७] ॥२४ | अकाल मेघस्य दोहद (मनोरथ) ~514 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [१३] दीप अनुक्रम [१८] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [१], श्रुतस्कन्ध: [१] मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः वलगुलियकज्जलसमप्पभेसु फुरंतविज्जुतसग जिएस वायवसविपुलगगणचवलपरिसकिरे निम्मलवरवारिधारा पगलियपर्यडमारुयसमाह्य समोत्थरंतज्वरज्वरितुरियवासं पवासिएस धारापहकरणिवायनिचाविय मेहणितले हरियगणकंचुए पल्लविय पायवगणेसु वल्लिवियाणेसु पसरिए उन्नएस सोभग्गमुवागए नगेसु नए वा वैभारगिरिप्पवायतडकडगविमुकेस उज्झरेसु तुरियपहाबियपलोहफेणाउलं सकलसं जल वहंतीसु गिरिनदीसु सज्जज्जुणनीवकुडयकंदल सिलिंधकलिए उववणेस मेहर सियह:तुट्ठचिट्ठिय हरिसवसपमुक्तकंठ केकारवं मुर्यतेसु बरहिणेस उडवसमयजणियतरुणसहयरिपणच्चितेसु नवसुरभिसिलिंधकुडयकंदलकलंबगंधद्धणिं मुयंतेसु उबवणेसु परहुयरुपरिभितसंकुलेसु उद्दायंतरत्तइंदगोवयथोवकारुन्नविलवितेसु ओणयतणमंडिएस ददुरपयंपिएस संपिंडियदरिय भमरम हुक रिपह्करपरिलिंतमत्तछप्पयकुसुमासवलोलमधुरगुंजंतदेसभासु उबवणेसु परिसामियचंदसूरगगणपण मक्खत्ततारगप इंदाहबद्धचिंधपहंसि अंबरतले उड्डीणबलागपंति सोभंत मेहविंदे कारंडगचक्रवाकलहंसउस्सुयकरे संपत्ते पाउसंमि काले पहाया कपबलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ताओं किं ते वरपायपत्तणेउरमणिमेहलहाररइयकडगखुट्टयविचित्तवरवलयर्थभियभुयाओ कुंडलउज्जोवियाणणाओ रयणभूसियंगाओ नासानीसासवायवोज्झं चक्खुदरं वण्णफरिससंजुत्तं हयलाला पेलवाइरेयं धवलकणयखचियन्तकम्मं आगासफलिहसरिसप्पभं अंसुयं पवर परिहियाओ दुगलसुकुमालउत्तरिजाओ सघोउयसुरभिकुसुमप Eaton International अकाल मेघस्य दोहद (मनोरथ) For Park Use Only ~ 52~ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ------------------ अध्ययनं [१], ---------------- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. प्रत ॥२५॥ सूत्रांक [१३] दीप अनुक्रम वरमल्लसोभितसिराओ कालागरूधूषवियाओ सिरिसमाणवेसाओ सेयणयगंधहत्थिरयणं दुरूढाओ उत्क्षिप्तसमाणीओ सकोरिटमल्लदामेणं छत्तेणं घरिजमाणेणं चंदप्पभवइरवेरुलियविमलदंडसंखकुंददगरयअमय- ज्ञाताध्य. महियफेणपुंजसन्निगासचउचामरवालवीजितंगीओ सेणिएणं रखा सद्धिं हत्थिर्खधवरगएणं पिट्ठओ सम- अकालमे णुगच्छमाणीओ चाउरंगिणीए सेणाए महता हयाणीएणं गयाणिएणं रहाणिएणं पायत्ताणीएणं सबड्डीए घदोहदः सबज्जुइए जाव निग्घोसणादियरवेणं रायगिहं नगरं सिंघाडगतियचउकचथरच उम्मुहमहापहपहेसु आसित्तसित्तसुचियसंमनिओवलितं जाव सुगंधवरगंधियं गंधवट्टीभूयं अवलोएमाणीओ नागरजणेणं अभिणंदिजमाणीओ गुच्छलयारुक्खगुम्मवल्लिगुच्छओच्छाइयं सुरम्मं वेभारगिरिकडगपायमूलं सबओ समंता आहिंडेमाणीओ २ दोहलं विणियंति, तं जइ णं अहमवि मेहेसु अन्भुवगएमु जाव दोहलं विणिज्जामि ( सूत्रं १३) 'दोहलो पाउम्भवित्थति दोहदो-मनोरथः प्रादुर्भूतवान् , तथाहि-धनं लब्धारो धन्यास्ता या अकालमेघदोहदं विनयन्तीति योगः "अम्मयाओ'त्ति अम्बाः पुत्रमातरः, त्रिय इत्यर्थः, संपूर्णाः-परिपूर्णाः आदेयवस्तुभिः (सपुण्याः) कृताचीः-९॥ कृतप्रयोजनाः कृतपुण्या:-जन्मान्तरोपातसुकृताः कृतलक्षणा:-कृतफलबच्छरीरलक्षणाः कृतविभवा:-कृतसफलसंपदः ॥२५॥ सुलब्धं तासां मानुष्यक-मनुष्यसंबन्धि जन्मनि-भवे जीवितफलं-जीवितण्यप्रयोजनं जन्मजीवितफलं, सापेक्षतेऽपि च समासः छान्दसखात् , या मेघेषु अभ्युद्गतेषु-अङ्करवत्पनेषु सत्सु, एवं सर्वत्र सप्तमी योज्या, अभ्युचतेषु-बर्दितुं प्रवृत्तेषु [१८] अकाल मेघस्य दोहद (मनोरथ) ~534 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ------------------ अध्ययनं [१], ---------------- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३] दीप अनुक्रम अभ्युनतेषु-गगनमण्डलव्यापनेनोन्नतिमत्सु अभ्युत्थितेषु-प्रवर्षणाय कृतोद्योगेषु सगर्जितेषु-मुक्तमहाध्वनिषु सविद्युत्केषु प्रतीत सफुसिएसुत्ति प्रवृत्तप्रवर्षणविन्दुषु सस्तनितेषु-कृतमन्दमन्दध्वनिषु ध्मातेन-अग्नियोगेन यो धौतः-शोधितो | रूप्यपदो-रजतपत्रकं स तथा अङ्को-रलविशेषः शचन्द्रौ-प्रतीतौ कुन्द:-पुष्पविशेषः शालिपिष्ठराशि:-श्रीहि विशेपचूर्णपुञ्ज एतत्समा प्रभा येषां ते तथा तेषु, शुक्लेष्वित्यर्थः, तथा चिकुरो-रागद्रव्यविशेष एव हरितालो-वर्णकद्रव्यं भेदस्तद्गुटिकाखण्डं चम्पकसनकोरण्टकसर्षपग्रहणात्तत्पुष्पाणि गृह्यन्ते पद्मरजा-प्रतीतं तत्समप्रभेषु, वाचनान्तरे सनस्थाने काञ्चनं सर्पपस्थाने सरिसगोत्ति पठ्यते, तत्र चिकुरादिभिः सदृशाश्च ते परजःसमप्रभाधेति विग्रहोऽतस्तेषु पीतेष्वित्यर्थः, तथा | लाक्षारसेन सरसेन सरसरक्त किंशुकेन जपासुमनोमिः रक्तबन्धुजीवकेन, बन्धुजीवकं हि पश्चवर्ण भवतीति रक्तसेन विशिष्यते, जातिहिलकेन-वर्णकद्रव्येण, स कृत्रिमोऽपि भवतीति जात्या विशेषितः, सरसफलमेन, नीरसं हि विवक्षितवर्णोपेतं न भव-I तीति सरसमुक्तं, तथा उरभ्रा-ऊरणः शश:-शशकस्तयो रुधिरेण-रक्तेन इन्द्रगोपको-वर्षासु कीटकविशेषस्तेन च समा प्रभा |येषां ते तथा तेषु रक्तपित्यर्थः, तथा वर्हिणो-मयूराः नीलं-रत्नविशेष: गुलिका-वर्णकद्रव्यं शुकचाषयोः पक्षिविशेषयोः पिच्छ पत्रं भृङ्ग:-कीटविशेषस्तस्य पत्रं-पक्षः सासको-बीयकनामा वृक्षविशेषः अथवा सामत्ति पाठः तत्र श्यामा-प्रियङ्गः नीलो| पलनिकर:-प्रतीतः नवशिरीपकुसुमानि च नवशावलं-प्रत्यग्रहरितं एतत्समप्रभेषु नीलप्रभेषु नीलवर्णेचित्यर्थः, तथा जात्यं-प्रधानं यदानं-सौवीरकं भृङ्गभेद:-भृङ्गाभिधानः कीटविशेषः विदलिताङ्गारो वा रिष्ठक-बविशेषः भ्रमरावलीप्रतीता गवलगुलिका महिपशृङ्गगोलिका कज्जलं-मषी तत्समप्रभेषु कृष्णेष्वित्यर्थः, स्फुरद्विद्युत्काश्च सगर्जिताच ये तेप, तथा [१८] | अकाल मेघस्य दोहद (मनोरथ) ~ 54~ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ------------------ मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म- कथाङ्गम. प्रत अकालमे सूत्रांक [१३] दीप अनुक्रम [१८] वातवशेन विपुले गगने चपलं यथा भवत्येवं 'परिसकिरसुत्ति परिवष्कितुं शीलं येषां ते तथा तेषु, तथा निर्मलवरवारिधाराभिः उत्क्षिप्तप्रगलित:-क्षरितः प्रचण्डमारुतसमाहतः सन् 'समोत्धरंत'त्ति समवस्तृणश्च-महीपीठमाक्रामन् उपर्युपरि च सातत्येन सरितश्च- ज्ञाताध्य. शीघ्रो यो वर्षो-जलसमूहः स तथा तं प्रवृष्टेषु वर्षितुमारब्धेषु मेघेप्षिति प्रक्रमः, धाराणां 'पहकरोति निकरस्तस्य निपातः-1 पतनं तेन निर्वापित-शीतलीकृतं यत्तत्तथा तस्मिन् , निर्वापितशब्दाच सप्तम्पेकवचनलोपो दृश्यः, कस्मिन्नित्याह-मेदिनीतले-४ घदोहदः भूतले, तथा हरितकानां-इखतृणानां यो गणः स एव कञ्चको यत्राच्छादकखात् तत्तथा तत्र, 'पल्लविय'ति इह सप्तमीच-18 सू. १३ हुवचनलोपो दृश्यः, ततः पल्लवितेषु पादपगणेषु तथा वल्लीवितानेषु प्रसूतेषु जातप्रसरेष्वित्यर्थः, तथोन्नतेषु भूप्रदेशेष्विति गम्यते सौभाग्यमुपगतेषु अनवस्थितजलसेनाकर्दमसात् पाठान्तरे नगेषु-पर्वतेषु नदेपुवा-हदेषु तथा वैभाराभिधानस्य गिरेः ये | प्रपाततटा:-भृगुतटाः कटकाश्च पर्वतैकदेशास्तेभ्यो ये विमुक्ताः-प्रवृत्तास्ते तथा तेषु, केपु ?-'उज्झरेसुचि निझरेष सरितप्रधावितेन यः 'पल्लोह'त्ति प्रवृत्त-उत्पन्नः फेनस्तेन आकुल-व्याप्तं । 'सकलुसं'ति सकालुयं जलं वहन्तीपु गिरिनदीषु सर्जाजुननीपकुटजानां वृक्षविशेषाणां यानि कन्दलानि प्ररोहाः शिलन्ध्राश्च-छत्रकाणि तैः कलितानि यानि तानि तथा तेषु उपबनेषु, तथा मेघरसितेन हृष्टतुष्टा-अतिदृष्टाश्चेष्टिताश्च कृतचेष्टा ये ते तथा तेषु, इदं च सप्तमीलोपात् , हर्षवशात् प्रमुक्तो| मुत्कलीकृतः कण्ठो-गलो यसिन् स तथा स चासौ केकारवश्च तं मुश्चत्सु बहिणेषु-मयूरेप, तथा ऋतुवशेन-कालविशेषच-16 ॥२६॥ लेन यो मदस्तेन जनितं तरुणसहचरीमिः -युवतिमयरीभिः सह प्रनुत्तं प्रनर्तनं येषां ते तथा तेषु, पहिणेवित्यन्वयः, नवः सुर-1 |भिध यः शिलीन्ध्रकुटजकन्दलकदम्बलक्षणानां पुष्पाणां गन्धस्तेन या धाणिः-तृप्तिस्तां मुश्चत्सु गन्धोत्कर्षतां विदधानेवित्यर्थः । | अकाल मेघस्य दोहद (मनोरथ) ~55~ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ------------------ अध्ययनं [१], ---------------- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: S प्रत सूत्रांक [१३] दीप अनुक्रम उपवनेषु-भवनासमवनेषु, तथा परभृतानां-कोकिलानां यद्रुतं रचो रिमितं-खरघोलनावत्तेन संकुलानि यान्युपवनानि तानि तथा तेषु, 'उहाईत'ति शोभमाना रक्ता इन्द्रगोपका:-कीटविशेषाः स्तोककानां चातकानां कारुण्यप्रधानं विलपितं च | येषु तानि तथा तेषूपवनेष्वित्यन्वयः, तथा अवनततृणमण्डितानि यानि तानि तथा तेषु, दर्दुराणां प्रकृष्टं जल्पितं येषु तानि तथा तेषु, संपिण्डिता-मिलिताः सा-दर्पिताः भ्रमराणां मधुकरीणां च 'पहकर ति निकरा येषु तानि तथा, 'परिलिन्त'त्ति परिली-| यमानाः संश्लिष्यन्तो मत्ताः पट्पदाः कुसुमासवलोला:-मकरन्दलम्पटा: मधुरं-कलं गुञ्जन्तः-शब्दायमानाः देशभागेषु येषां तानि तथा ततः कर्मधारयः ततस्तेषु उपवनेषु, तथा परिश्यामिता:-कृष्णीकृताः सान्द्रमेघाच्छादनात, पाठान्तरेण परिभ्रामिता:-कृतप्रभाभ्रंशाः चन्द्रसूरग्रहाणां यस्मिन् प्रनष्टा च नक्षत्रतारकप्रभा यसिंस्तत्तथा तस्मिन्नम्बरतले इति योगः, इन्द्रायुधलक्षणो बद्ध इव बद्धः चिहपहो-ध्वजपटो यसिंस्तत्तथा तत्राम्बरतले-गगने उड्डीनबलाकापकिशोभमानमेघवृन्देऽम्बरतले इति योगा, तथा कारण्डकादीनां पक्षिणां मानससरोगमनादि प्रत्यौत्सुक्यकरे संप्राप्ते उक्तलक्षणयोगेन समागते प्रावृषि काले, किंभूता अम्मयाओ ? इत्याह-'हायाओ'इत्यादि, किं ते इति किमपरमित्यर्थः, वरौ पादप्राप्तनपुरी मणिमेखला-II रखकाची हारश्च यासा तास्तथा रचितानि-न्यस्तानि उचितानि-योग्यानि कटकानि-प्रतीतानि खुडुकानि चअङ्गुलीयकानि यासां तास्तथा विचित्रैर्वरवलयैः स्तम्भिताविव स्तम्भिती भुजौ यासां तास्तथा ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः ।। तथा "कुंडलोज्योतितानना बरपायपत्तनेउरमणिमेहलाहाररइयचियकडगखुड्डयएगावलिकंठमुरयतिसरयवरवलयहेमसुत्तकुंडलुजोवियाणणाओ"त्ति पाठान्तरं तत्र वरपादप्राप्तनपुरमणिमेखलाहारास्तथा रचितान्युचितानि [१८] | अकाल मेघस्य दोहद (मनोरथ) ~56~ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म प्रत सूत्रांक [१३] दीप अनुक्रम कटकानि च खुड़कानि च एकावली च-विचित्रमणिकृता एकसरिका कण्ठमुरजश्च-आभरणविशेषः त्रिसरकं च वरवलयानि उत्क्षिप्तकथाङ्गम. च हेमसूत्रकं च-संकलकं यासां तास्तथा, तथा कुण्डलोद्योतिताननास्ततो वरपादप्राप्तनपुरादीनां कर्मधारयः रत्नविभूषितामः | ज्ञाताध्य. नासानिःश्वासवातेनोद्यते यल्लघुलात्तत्तथा चक्षुर्हरं दृष्ट्याक्षेपकलात्, अथवा प्रच्छादनीयाङ्गदर्शनाचक्षुहेरति धरति वा निवर्तयति | | अकालमे॥२७॥ | यधुबलात्तत्नथा, वणेस्पर्शसंयुक्त वर्णस्पर्शातिशायीत्यर्थः हयलालाया-अश्वलालायाः सकाशात् 'पेलब'लि पेलवलेन मृदु-12 घदोहद: खलघुखलक्षणेनातिरेक:-अतिरिक्तख यस्य तत् तथा धवलं च तत् कनकेन खचितं-मंडितमन्तयोः-अञ्चलयोः कर्म वान-II सू. १३ लक्षणं यस तत्तथा तच्चेति वाक्यं, आकाशस्फटिकस्य सदृशी प्रभा यस्य धवलसातत्तथा, अंशुकं-वखविशेष प्रवरमिहानुस्खारलोपो दृश्यः परिहिता:-निवसिताः दुकूलं च-वलं अथवा दुकूलो-वृक्षविशेषः तल्कलाज्जातं दुकूलं-वनविशेष एवं तत् सुकुमालमुत्तरीयम्-उपरिकायापछादनं यास तास्तथा, सर्वतकसुरभिकुसुमैः प्रवरैमाल्पेश्व-प्रथितकुसुमैः शोभितं | 18|शिरो यासा तास्तथा, पाठान्तरे 'सर्वर्तुकसुरभिकुसुमैः सुरचिता प्रलम्बमाना शोभमाना कान्ता विकसन्ती चित्रा माला यासा || तास्तथा, एवमन्यान्यपि पदानि बहुवचनान्तानि संस्करणीयानि, इह वर्णके बृहत्तरो वाचनाभेदः, तथा चन्द्रप्रभवैरवैडूर्य-10 विमलदण्डाः शकुन्ददकरजोऽमृतमथितफेनपुञ्जसन्निकाशाश्च ये चबारश्चामराः-चामराणि तद्वालैर्वीजितमङ्गं यास तास्तथा, अयमेवार्थों वाचनान्तरे इत्थमधीतः 'सेयवरचामराहिं उद्धवमाणीहिं २ 'सबिड्डीए'चि छत्रादिराजचिहरूपया, २७॥ इह यावत्करणादेवं द्रष्टव्यं 'सघज्जुइए' सर्वघुत्या-आभरणादिसंबन्धिन्या सर्वयुक्त्या वा-उचितेष्टवस्तुघटनालक्षणया 'सर्वबलेन' सर्वसैन्येन 'सर्वसमुदायेन' पौरादिमीलनेन 'सर्वादरेण' सर्वोचितकृत्यकरणरूपेण 'सर्वविभूत्या' सर्वसंपदा [१८] | अकाल मेघस्य दोहद (मनोरथ) ~57~ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ------------------ अध्ययनं [१], ---------------- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३] दीप अनुक्रम 'सर्वविभूषया' समस्तशोभया 'सर्वसंभ्रमेण' प्रमोदकृतीत्सुक्येन सर्वपुष्पगन्धमाल्यालङ्कारेण सर्वतूर्यशब्दसंनिनादेन' तूर्यशब्दानां मीलनेन यः संगतो नितरां नादो-महान् घोषस्तेनेत्यर्थः, अल्पेष्वपि प्रत्यादिषु सर्वशब्दप्रवृत्तिर्दृष्टा अत आह 'महया इड्डीए महया जुईए जुत्तीए वा महया बलेणं महया समुदएणं महया वरतुडियजमगसमगप्पवाइएणं' 'यमकसमक' युगपत्, एतदेव विशेषेणाह-संखपणवपडहभेरिझल्लरिखरमुहिहडकमुरवमुइंगदुंदुहिनिग्घो-10 सनाइयरइवेणं तत्र शङ्खादीनां नितरां घोषो निर्घोषो-महाप्रयत्नोत्पादितः शब्दो नादितं-ध्वनिमात्रमेतद्वयलक्षणो यो खःस तथा तेन, 'सिंघाडेत्यादि, सिंघाडकादीनामयं विशेषः, सिंघाडकं-जलजवीजं फलविशेषः तदाकृतिपथयुक्तं ॥ स्थानं सिंघाटकं, त्रिपथयुक्तं स्थानं त्रिकं चतुष्पथयुक्तं चतुष्कं त्रिपथमेदि चखरं चतुर्मुख देवकुलादि महापथो-राजमार्गः1॥ पथ:-पथमात्र, तथा आसिक्तं-गन्धोदकेनेपत्सितं सकूद्वा सिक्तं सिक्तं खन्यथा शुचिक-पवित्रं संमार्जितम्-अपहृत18कचवरं उपलितं च गोमयादिना यत्तत्तथा यावत्करणादुपस्थानशालावर्णकः पूर्वोक्त एव वाच्यः, एवंभूतं नगरमवलोकयन्त्यो। गुच्छा वृन्ताकीप्रभृतीनां लताः सहकारादिलता वृक्षाः सहकारादयः गुल्मा वंशीप्रभृतयः वहयः वपुष्यादिकाः एतासां ये|| II गुच्छा:-पल्लवसमूहास्तै यत् 'ओच्छवियं ति अवच्छादितं वैभारगिरेयः कटकाः देशास्तेषां ये पादा-अधोभागास्तेषां यन्मूलं-18|| समीपं तत्तथा तत्सर्वतः समन्तात् 'आहिंडन्ति'त्ति आहिण्डन्ते, अनेन चैवमुक्तच्यतिकरभाजां सामान्येन स्त्रीणां प्रशंसाद्वा-1 रेणात्मविषयोऽकालमेघदोहदो धारिण्याः प्रादुरभूदित्युक्तं, वाचनान्तरे तु 'ओलोएमाणीओ २ आहिंडेमाणीओ २ डोहलं विणिति' विनयन्त्यपनयन्तीत्यर्थः, 'तं जति णं अहमवि मेहेसु अन्भुग्गएसु जाव डोहलं विणेजामि [१८] | अकाल मेघस्य दोहद (मनोरथ) ~58~ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म- कथाङ्गम्. प्रत १उत्क्षिप्तज्ञाताध्य. श्रेणिकागमः सूत्रांक ॥२८॥ [१३] दीप अनुक्रम एलecemesetatoercera विनयेयमित्यर्थः, संगतश्चार्य पाठ इति । उक्तदोहदाप्राप्तौ यत्तस्याः संपन्नं तदाह तए णं सा धारिणी देवी तंसि दोहलंसि अविणिजमाणंसि असंपन्नदोहला असंपुन्नदोहला असंमाणियदोहला सुक्का भुक्खा णिम्मंसा ओलग्गा ओलुग्गसरीरा पमइलदुबला किलंता ओमंथियवयणनयणकमला पंडुइयमुही करयलमलियब चंपगमाला णित्तेया दीणविवण्णवयणा जहोचियपुष्पगंधमल्लालंकारहारं अणभिलसमाणी कीडारमणकिरियं च परिहावेमाणी दीणा दुम्मणा निराणंदा भूमिगयदिट्ठीया ओहयमणसंकप्पा जाव झियायह, तते णं तीसे धारिणीए देवीए अंगपडियारियाओ अभितरियाओ दासचेडीयाओ धारिणीं देवीं ओलुग्गं जाव झियायमाणि पासंति पासित्ता एवं वदासी-किण्णं तुमे देवाणुप्पिए ! ओलुग्गा ओलुग्गसरीरा जाव झियायसि, तते णं सा धारणी देवी ताहिं अंगपडियारियाहि अभितरियाहिं दासचेडियाहिं एवं बुत्ता समाणी नो आदाति णो य परियाणाति अणाढायमाणी अपरियाणमाणी तुसिणिया संचिकृति, तते णं ताओ अंगपडियारियाओ अभितरियाओ दासचेडियाओ धारिणी देवीं दोचपि तचंपि एवं बयासी-किन्नं तुमे देवाणुप्पिए! ओलुग्गा ओलुग्गसरीरा जाव झियायसि ?, तते णं सा धारिणीदेवी ताहि अंगपडियारियाहिं अभितरियाहिं दासचेडियाहिं दोचंपि तचंपि एवं वुत्ता समाणी णो आदाति णो परियाणति अणाढायमाणा अपरियायमाणा तुसिणिया संचिट्ठति, तते णं ताओ अंगपडियारियाओ दासचेडियाओ धारिणीए देवीए अणादातिजमाणीओ [१८] ॥२८॥ ~59~ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [१४-१७] + [१४- R +१५-R] दीप अनुक्रम [१९-२४] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [१४-१७] श्रुतस्कन्धः [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः SUMM Education Internation अपरिजाणिज्रमाणिओ तहेब संभंताओ समाणीओ धारणीए देवीए अंतियाओ पडिनिक्खमति २ जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छति २ करतलपरिग्गहियं जाब कट्टु जएणं विजएणं बद्धावेति बद्धावत्ता एवं व० एवं खलु सामी ! किंपि अन धारिणीदेवी ओलुग्गा ओलुग्गसरीरा जाव अहझाणोवगया झियायति, ★ तणं से सेणिए राया तासिं अंगपाडियारियाणं अंतिए एयमहं सोचा णिसम्म तहेव संभंते समाणे सिग्धं तुरियं चवलं बेइयं जेणेव धारिणीदेवी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छद्दत्ता धारणीं देवीं ओलुग्गं ओलुग्गसरीरं जाव अझाणोवगयं झियायमाणिं पासइ पासिता एवं वदासी - किन्नं तुमे देवाणुप्पिए ! ओलुग्गा ओलुग्गसरीरा जाव अझाणोचगया झियायसि ?, तते णं सा धारणी देवी सेणिएणं रन्ना एवं त्ता समाणी नो आढाइ जाव तुसिणीया संचिइति, तते णं से सेणिए राया धारिणीं देवीं दोचंपि तप एवं वदासी - किन्नं तुमे देवाणुप्पिए ओलुग्गा जाव झियायसि ?, तते णं सा धारिणीदेवी सेणिएणं रन्नादोचंपि तचंपि एवं बुत्ता समाणी णो आढाति णो परिजाणाति तुसिणीया संचिट्ठइ, तते णं सेणिए राया धारणिं देवं सहसावियं करेह २ त्ता एवं वयासी- किष्णं तुमं देवाणुप्पिए ! अहमेयस्स अहस्स अणरिहे सवणयाए ? ताणं तुमं ममं अयमेयारूवं मणोमाणसियं दुक्खं रहस्सी करेसि, तते णं सा धारिणीदेवी सेणिएणं रन्ना सवहसाविया समाणी सेणियं रायं एवं वदासी एवं खलु सामी ! मम तस्स उरालस्स जाव महासुमिणस्स तिण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं अयमेयारूचे अकालमेहेसु दोहले पाउन्भूए ★ यहाँ से दूसरा सूत्र आरम्भ होता है । For Penal Use On ~60~ ayor Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्क न्ध: [१] -----------अध्ययन [१], -------- --- मूलं [१४-१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत ज्ञाताधर्म सूत्रांक कथाङ्गम्, शाश्उत्क्षित ज्ञाताध्य. श्रेणिकागमः सू.१४ [१४-१५] +[१४-R +१५-R] ॥२९॥ धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ कयत्थाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव वेभारगिरिपायमूलं आहिंडमाणीओ डोहलं विणिति, तं जहणं अहमवि जाव डोहलं विणिज्जामि, तते णं हं सामी! अयमेयारूवंसि अकालदोहलंसि अविणिजमाणंसि ओलुग्गा जाव अट्टज्झाणोवगया झियायामि, एएणं अहं कारणेणं सामी! ओलुग्गा जाव अज्झाणोधगया झियायामि, तते णं से सेणिए राया धारिणीए देवीए अंतिए एयमढं सोचा णिसम्म धारिणि देवि एवं वदासी-माणं तुम देवाणुप्पिए ! ओलुग्गा जाव झियाहि, अहं गंतहा करिस्सामि जहाणं तुन्भं अयमेयारुवस्स अकालदोहलस्स मणोरहसंपत्ती भविस्सइत्तिक? धारिणी देवी इटाहिं कताहिं पियाहि भणुन्नाहिं मणामाहि बग्गहि समासासेह २ जेणेव बाहिरिया उवहाणसाला तेणामेव उवागच्छइ उवागच्छहत्तासीहासणवरगते पुरत्थाभिमुहे सन्निसन्ने धारिणीए देवीए एवं अकालदोहलं पहहिं आएहि य उवाएहि य उप्पत्तियाहि य वेणइयाहि य कम्मियाहि य परिणामियाहि य चविहाहि बुद्धीहिं अणुचिंतेमाणे २ तस्स दोहलस्स आयं वा उवायं वा ठिई वा उप्पत्तिं वा अविंदमाणे ओहयमणसंकप्पे जाव झियायति (सूत्रं १४) तदाणतरं अभए कुमारे पहाते कयबलिकम्मे जाव सबालंकारविभूसिए पायवंदते पहारेत्थ गमणाए, तते गं से अभयकुमारे जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छह उवागच्छइत्ता सेणियं रायं ओहयमणसंकप्पं जाव पासइ २त्ता अयमेयारूवे अन्मस्थिए चिंतिए मणोगते संकप्पे समुप्पजित्था-अन्नया य ममं सेणिए राया एजमाणं पासति पास दीप अनुक्रम [१९-२४] ॥२९॥ ~61~ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१४-१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४-१७] +[१४-R +१५-R] इत्ता आढाति परिजाणति सकारेइ सम्माणेइ आलवति संलवति अद्धासणेणं उवणिमंतेति मस्वयंसि अग्घाति, इयाणि मर्म सेणिए राया णो आढाति णो परियाणइ णो सकारेइ णो सम्माणेइ णो इटाहिं कंताहिं पियाहिं मणुन्नाहिं ओरालाहिं वग्गृहिं आलवति संलवति नो अद्भासणेणं उबणिमंतेति णो मत्थयंसि अग्घाति य किंपि ओहयमणसंकप्पे झियायति, तं भवियच णं एत्य कारणेणं, तं सेयं खलु मे सेणियं रायं एयमद्वं पुच्छित्तए, एवं संपेहेइ २ जेणामेव सेणिए राया तेणामेव उवागच्छइ २ करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु जएणं विजएणं बद्धावेद वद्धावइता एवं वदासीतुम्भे गं ताओ! अन्नया ममं एजमाणं पासित्ता आढाह परिजाणह जाव मत्थयंसि अग्घायह आसणणं उवणिमंतेह, इयाणि ताओ! तुम्भे ममं नो आढाह जाव नो आसणेणं उवणिमंतेह किंपि ओहयमणसंकप्पा जाव झियायह तं भवियचं ताओ! एत्य कारणेणं, तओ तुम्भे मम ताओ! एवं कारणं अगृहेमाणा असंकेमाणा अनिण्हवेमाणा अप्पच्छाएमाणा जहाभूतमवितहमसंदिद्ध एयमट्ठमाइक्खह, तते णं हं तस्स कारणस्स अंतगमणं गमिस्सामि, तते णं से सेणिए राया अभएणं कुमारेणं एवं बुत्ते समाणे अभयकुमारं एवं वदासी-एवं खलु पुत्ता! तव चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए तस्स गम्भस्स दोसु मासेसु अइतेसु तइयमासे वहमाणे दोहलकालसमयंसि अयमेयारूवे दोहले पाउम्भवित्थाधनाओ णं ताओ अम्मयाओ तहेव निरवसेसं भाणियचं जाय विणिति, तते णं अहं पुत्ता धारिणीए cerseseiseoccerceloenese दीप अनुक्रम [१९-२४] ~62~ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [१४-१७] + [१४- R +१५-R] दीप अनुक्रम [१९-२४] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१] अध्ययनं [१], मूलं [१४-१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥ ३० ॥ Recent semest Eucation International देवीए तस्स अकालदोहलस्स बहूहिं आएहि य उवाएहिं जाव उत्पत्तिं अविंदमाणे ओहयमणसंकष्पे जाव झियायामि तुमं आगयंपि न याणामि तं एतेणं कारणेणं अहं पुत्ता ! ओहय जाव झियामि, तते णं से अभयकुमारे सेणियस्स रन्नो अंतिए एयमहं सोचा णिसम्म हट्ट जाब हियए सेणियं रायं एवं वदासी- मा णं तुम्भे ताओ ! ओहह्यमण० जाव झियायह अहणणं तहा करिस्सामि जहा मम चुल्लमा धारिणीए देवीए अयमेयारूवस्स अकालडोहलस्स मणोरहसंपत्ती भविस्सइतिकड सेणियं रायं ताहिं इहाहिं कंताहिं जाव समासासेइ, तते णं सेणिए राया अभषेणं कुमारेणं एवं वृत्ते समाणे तुट्ठे जाव अभयकुमारं सकारेति संमाणेति २ पडिविसज्जेति (सूत्रं १५ ) तते णं से अभयकुमारे सकारियसम्माणिए पडिविसज्जिए समाणे सेणियस्स रन्नो अंतियाओ पडिनिक्खमइ २ जेणामेव सए भवणे तेणामेव उवागच्छति २ सीहासणे निसन्ने, तते णं तस्स अभयकुमारस्स अयमेयारूबे अन्भथिए जाव समुपज्जित्था - नो खलु सक्का माणुस्सरणं उवाएणं मम चुल्लमाज्याए धारिणीए देवीए अकालडोहलमणोरहसंपत्ति करेत्तए णन्नत्थ दिवेणं उवाएणं, अत्थि णं मज्झ सोहम्मकप्पवासी पुवसंगतिए देवे महिद्वीप जाव महासोक्खे, तं सेयं खलु मम पोसहसालाए पोसहियस्स बंभचारिस्स उम्मुकमणिसुवन्नस्स ववगयमालावन्नगविलेवणस्स निक्खित्तसत्यमुसलस्स एगस्स अवीयस दम्भसंधारोव यस्स अट्टमभत्तं परिगिन्त्तिा पुवसंगतियं देवं मणसि करेमाणस्स वित्तिए, तते णं पुवसं For Pale Only ~63~ १उत्क्षिप्तज्ञाताध्य. अभयप्र तिज्ञा देवाराधनं सू. १५ -१६ ॥ ३० ॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१४-१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४-१७] +[१४-R +१५-R] गतिए देवे मम चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए अयमेयारूवे अकालमेहेसु डोहलं विणेहिति, एवं संपेहेति २जेणेव पोसहसाला तेणामेव उवागच्छति २ पोसहसालं पमञ्चति २ उच्चारपासवणभूमि पडिलेहेइ २ दम्भसंधारगं पडिलेहेइ २ डन्भसंधारगं दुरूहइ २ अट्ठमभत्तं परिगिण्हइ२ पोसहसालाए पोसहिए बंभयारी जाव पुवसंगतियं देवं मणसि करेमाणे २ चिट्ठइ, तते णं तस्स अभयकुमारस्स अट्ठमभत्ते परिणममाणे पुषसंगतिअस्स देवस्स आसणं चलति, तते णं पुवसंगतिए सोहम्मकप्पन्नासी देवे आसणं चलियं पासति २ ओहि पउंजति, तते णं तस्स पुवसंगतियस्स देवस्स अयमेयारूवे अन्भस्थिए जाव समुप्पजित्था-एवं खलु मम पुवसंगतिए जंबूहीवे २ भारहे वासे दाहिणभरहे वासे रायगिहे नयरे पोसहसालाए पोसहिए अभए नाम कुमारे अट्ठमभत्तं परिगिणिहत्ता णं मम मणसि करेमाणे २ चिट्ठति, तं सेयं खलु मम अभयस्स कुमारस्स अंतिए पाउन्भवित्तए, एवं संपेहेद २ उत्तरपुरच्छिम दिसीभार्ग अवकमति २चेउवियसमुग्घाएणं समोहणति २ संखजाई जोयणाई दंड निसिरति, तंजहा-पयणाणं १ वइराणं २ वेरुलियाणं ३ लोहियक्खाणं ४ मसारगल्लाणं ५हंसगम्भाणं ६ पुलगाणं ७ सोगंधियाणं८ जोइरसाणं ९अंकाणं १० अंजणाणं ११ रयणाणं १२ जायरूवाणं १३ अंजणपुलगाणं १४ फलिहाणं १५ रिहाणं १६, अहाबायरे पोग्गले परिसाडेइ २ अहासुहमे पोग्गले परिगिण्हति परिगिण्हइत्ता अभयकुमारमणुकंपमाणे देवे पुत्वभवजणियनेहपीइबहुमाणजायसोगे तओ विमाणवरपुंडरीयाओ रयणु दीप अनुक्रम [१९-२४ Ee ~64~ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१४-१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत ज्ञाताधर्म सूत्रांक कथाङ्गम्. उरिक्षप्तज्ञात पूर्वसंगतिकृदे वागमःसू. १४ ॥३१॥ [१४-१७] +[१४-R +१५-R] समाओ धरणियलगमणतुरितसंजणितगमणपयारो वाधुण्णितविमलकणगपयरगवडिंसगमउडकडाडोवदंसणिज्जो अणेगमणिकणगरतणपहकरपरिमंडितभत्तिचित्तविणिउत्तगमणगजणियहरिसे खोलमाणवरललितकुंडलुबलियवयणगुणजनितसोमरूवे उदितोविव कोमुदीनिसाए सणिच्छरंगारउज्वलियमज्झभागत्थे णयणाणंदो सरयचंदो दिवोसहिपज्जलुज्जलियदंसणाभिरामो उजलकिछसमत्तजायसोहे पट्टगंधुदुयाभिरामो मेरुरिव नगवरो विगुवियविचितवेसे दीवसमुहाणं असंखपरिमाणनामघेजाणं मझंकारेणं वीइवयमाणो उज्जोयंतो पभाए विमलाते जीवलोगं रायगिहं पुरवरं च अभयस्स य तस्स पास उवयति दिवरूवधारी (सूत्रं १४) तते णं से देवे अंतलिक्खपडिबन्ने दसवन्नाई सखिखिणियाई पवरवत्थाई परिहिए एको ताव एसो गमो, अपणोऽवि गमो-ताए उकिट्ठाए तुरियाए चवलाए चंडाए सीहाए उद्ययाए जतिणाए छेयाए दिधाए देवगतीए जेणामव जंबुद्दीवे २ भारहे वासे जेणामेव दाहिणभरहे रायगिहे नगरेपोसहसालाए अभयए कुमारे तेणामेव उवागच्छइ २ अंतरिक्खपडिवन्ने दसद्धवन्नाई सखिखिणियाई पवरवत्थाई परिहिए अभयं कुमारं एवं वयासी-अहन्नं देवाणुप्पिया! पुवसंगतिए सोहम्मकप्पवासी देवे महहिए जपणं तुम पोसहसालाए अट्ठमभत्तं पगिण्हित्ता णं मम मणसि करेमाणे चिट्ठसि तं एस गं देवाणुप्पिया! अहं इहं हवमागए, संदिसाहिणं देवाणुप्पिया! किं करेमि किं दलामि किं पयच्छामि किंवा ते हियइच्छितं ?, तते णं से अभए कुमारे तं पुत्वसंगतियं देवं अंतलिक्खपडिवन्नं पासह TOS दीप अनुक्रम [१९-२४ ॥३१॥ अत्र यत् (सूत्रं १४) लिखितं एवं शिर्षक-स्थाने सूचितं तत् किञ्चित् मुद्रण-दोष: संभाव्यते ~65M Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [१४-१७] + [१४- R +१५-R] दीप अनुक्रम [१९-२४] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१] अध्ययनं [१], मूलं [१४-१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः KARKeecentresesex Eturation Internation पासित्ता हट्टतुट्टे पोसहं पारेइ २ करर्यल० अंजलिं कड्ड एवं क्यासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! मम चुल्लमउयाए धारिणीए देवीए अयमेयारूवे अकालडोहले पाउन्भूते धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ तहेव पुत्रगमेणं जाव विणिज्जामि, तन्नं तुमं देवाणुप्पि मम चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए अपमेयारूवं अकालडोहलं विणेहि, तते णं से देवे अभएणं कुमारेणं एवं वृत्ते समाणे हट्ट अभयकुमारं एवं वदासीतुमणं देवाणुपिया ! सुणिव्यवीसत्थे अच्छाहि, अहण्णं तव चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए अयमेयारूवं डोह विणैमीतिक अभयस्स कुमारस्स अंतियाओ पडिणिक्खमति २ उत्तरपुरच्छिमे णं बेभारपण asareमुग्धाएणं समोहण्णति २ संखेज्जाई जोयणाई दंडं निस्सरति जाव दोपि वेडवियसमुग्धाएणं समोहरणति २ खिप्पामेव सगज्जतियं सविज्जयं सफुसियं तं पंचवन्नमेहणिणाओवसोहियं दिवं पाउससिरिं विउछे २ जेणेव अभए कुमारे तेणामेव उपागच्छ २ अभयं कुमारं एवं बदासी एवं खलु देवापिया! मए तव पियट्टयाए सगजिया सफुसिया सविज्जुया दिवा पाउससिरी विधिया, तं विणेउ णं देवाणुप्पिया । तव चुलमाया धारिणीदेवी अयमेयारूवं अकालडोहलं, तते गं से अभयकुमारे तस्स पुवसंगतियस्स देवस्स सोहम्मकप्पवासिस्स अंतिए एयमहं सोचा णिसम्म हतु सयातो भवणाओ पडिनिक्लमति २ जेणामेव सेणिए राया तेणामेव उवागच्छति करयल० अंजलि कट्टु एवं वदासी एवं खलु ताओ ! मम पुवसंगतिएणं सोहम्मकप्पवासिणा देवेणं खिप्पामेव सगज्जिता सवि For Penal Use Only ~66~ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१४-१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक उत्क्षिप्त ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥३२॥ ज्ञाते दोह दपूर्तिःसू. [१४-१५] +[१४-R +१५-R] ज्जुता पंचवन्नमेहनिनाओवसोभिता दिवा पाउससिरी विउविया, तं विणेउ णं मम चुल्लमाज्या धारिणी देवी अकालदोहलं । तते णं से सेणिए राया अभयस्स कुमारस्स अंतिए एतमढे सोचा णिसम्म हट्टतुट्ठ. कोटुंबियपुरिसे सद्दावेति २ सदावइत्सा एवं बदासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! रायगिहं नपर रायागहनपर सिंघाडगतियचउक्कचचर० आसित्तसित्त जाव सुगंधवरगंधियं गंधवहिभूयं करेह य२ मम एतमाणत्तियं पचप्पिणह, तते णं ते कोडंबियपुरिसा जाव पचप्पिणति, तते णं से सेणिए राया दोचंपि कोटुंबियपुरिसे २ वदासी-खिप्पामेव भो देवाणप्पिया! हयगयरहजोहपयरकलितं चाउरंगिणिं सेनं सन्नाहेह सेयणयं च गंधहत्यि परिकप्पेह, तेवि तहेव जाव पञ्चप्पिणंति, तते णं से सेणिए राया जेणेव धारिणीदेवी तेणामेव उवागच्छति २ धारिणीं देवीं एवं वदासी-एवं खलु देवाणुप्पिए! सगजिया जाब पाउससिरी पाउन्भूता तण्णं तुम देवाणुप्पिए ! एयं अकालदोहलं विणेहि । तते णं सा धारणीदेवी सेणिएणं रन्ना एवं धुत्ता समाणी हहतुट्टा जेणामेव मजणधरे तेणेव उवागच्छति २ मजणघरं अणुपविसति २ अंतो अंतेउरंसि पहाता कतबलिकम्मा कतकोउयमंगलपायच्छित्ता किं ते बरपायपसणेउर जाव आगासफालियसमप्पभं असुयं नियत्था सेयणयं गंधहत्थि दूरूढा समाणी अमयमहियफेणपुंजसण्णिगासाहि सेयचामरबालवीयणीहि वीइज्जमाणी २ संपत्थिता, तते णं से सेणिए राया पहाए कयवलिकम्मे जाव सस्सिरीए हथिखंधवरगए सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं चउचा दीप अनुक्रम [१९-२४] ॥३२॥ SARERatininemarana अत्र यत् (सूत्र १५) शिर्षक-स्थाने सूचितं तत् किञ्चित् मुद्रण-दोष: संभाव्यते ~67~ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्क न्धः [१] ------------------ अध्य यन [१], ----------------- --- मूलं [१४-१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत - C सूत्रांक [१४-१७] +[१४-R +१५-R] मराहिं वीइज्जमाणेणं धारिणीदेवी पिढतो अणुगच्छति, तते णं सा धारिणीदेवी सेणिपणं रना हत्थिखंघबरगएणं पिट्टतो पिट्ठतो समणुगम्ममाणमग्गा हयगयरहजोहकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिघुए महता भडचडगरवंदपरिखित्ता सबिड्डीए सबजुइए जाव दुंदुभिनिग्घोसनादितरवेणं रायगिहे नगरे सिंघाडगतिगचउक्चचर जाव महापहेसु नागरजणेणं अभिनंदिनमाणा २ जेणामेव घेन्भारगिरिपवए तेणामेव उवागच्छति २ वेभारगिरिकडगतडपायमूले आरामेसु य उजाणेसु य काणणेसु य चणेसु वणसंडेसु य रुक्खेसु य गुच्छेसु य गुम्मेसु य लयासु य वल्लीसु य कंदरामु य दरीसु य चुण्डीसु य दहेसु य कच्छेसु य नदीसु य संगमेमु य विवरतेसु य अच्छमाणी य पेच्छमाणी य मजमाणी य पत्ताणि य पुप्फाणि य फलाणि य पल्लवाणि य गिण्हमाणी य माणेमाणी य अग्घायमाणी य परिभुजमाणी य परिभाएमाणी य वेभारगिरिपायमूले दोहलं विणेमाणी सबतोसमंता आहिंडति, तते गं धारिणी देवी विणीतदोहला संपुन्नदोहला संपन्नडोहला जाया याबि होत्था, तते णं से धारिणीदेवी सेयणयगंघहत्थिं दूरूढा समाणी सेणिएणं हस्थिखंधवरगएणं पिट्टओ २ समणुगम्ममाणमग्गा हयगय जाब रहेणं जेणेव रायगिहे नगरे तेणेव उवागच्छह २रायगिहं नगरं मज्झमझेणं जेणामेव सए भवणे तेणामेव उवागच्छति २त्ता विउलाई माणुस्साई भोगभोगाई जाव विहरति (सूत्रं १५) तते णं से अभए कुमारे जेणामेव पोसहसाला तेणामेव उवागच्छइ २ पुषसंगतियं देवं सकारेइ सम्माणेइ २ पडिविसज्जेति २, दीप अनुक्रम [१९-२४] OMSASS SARERatininemarana अत्र यत् (सूत्रं १४) लिखितं तत् किञ्चित् मुद्रण-दोष: संभाव्यते ~68~ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१४-१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत ज्ञाताधर्म सूत्रांक कथाङ्गम्. ॥३३॥ [१४-१७] +[१४-R +१५-R] तते गं से देवे सगज्जियं पंचवन्नं मेहोवसोहियं दिवं पाउससिरि पडिसाहरति २ जामेव दिसि पाउन्भूए उत्क्षिप्ततामेव दिसि पडिगते (सूत्रं १६)तते णं सा धारिणीदेवी तंसि अकालदोहलंसि विणीयंसि सम्मा- ज्ञाते मेघोणियडोहला तस्स गन्भस्स अणुकंपणट्ठाए जयं चिट्ठति जयं आसयति जयं सुवति आहारंपिय णं पसंहारः आहारेमाणी णाइतित्तं णातिकडयं णातिकसायं णातिअंबिलं णातिमहुरं जं तस्स गन्भस्स हियं मियं पत्थयं देसे य काले य आहारं आहारेमाणी णाइचिन्तं णाइसोगं णाइदेण्णं णाइमोहं णाइभयं णाइपरि- गर्भपोषण तासं भोयणच्छायणगंधमल्लालंकारेहिं तं गम्भं सुहंसुहेणं परिवहति । (मूत्रं १७) सू. १७ 'तए णमित्यादि, 'अविणिजमाणंसिति दोहदे अविनीयमाने-अनपनीयमाने सति असंप्राप्तदोहदा मेघादीनामजात-18 सात् असंपूर्णदोहदा तेषामजातलेनैवासंपूर्णखात अत एव असन्मानितदोहदा तेषामननुभवनादिति, ततः शुष्का मन-1|| स्तापेन शोणितशोषात् 'भुक्ख'त्ति बुभुक्षाकान्तेव अत एव निमांसा 'ओलुग्गति अवरुग्णा-जीर्णव, कथमित्याह-'ओलुग्गति अवरुग्णमिव-जीर्णमिव शरीरं यस्याः सा तथा, अथवा अवरुग्णा चेतसा अवरुग्णशरीरा तथैव प्रमलितदुर्बलाखानभोजनत्यागात् क्लान्ता-ग्लानीभूता 'ओमंथिय'ति अधोमुखीकृतं वदनं च नयनकमले च यया सा तथा, पांडुकि-1 तमुखी-दीनास्येव विचणे वदनं यस्याः सा तथा, क्रीडा-जलक्रीडादिका रमणमक्षादिभिः तरिक्रयां च परिहापयन्ती दीना ॥३३॥ दुःस्था दुःखं मनो यस्याः सा तथा यतो निरानन्दा उपहतो मनसः संकल्प:-युक्तायुक्तविवेचनं यस्याः सा तथा, यावत्करणात 'करतलपल्हत्थमुही अदृज्झाणोवगया झियाइ'त्ति आर्जध्यानं ध्यायतीति, 'नो आढाइति नाद्रियते-नादरं करोति नो दीप अनुक्रम [१९-२४] Seeहटल ~69~ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१४-१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४-१७] +[१४-R +१५-R] परिजानाति-न प्रत्यभिजानाति विचित्तवात् , 'संभंता'त्ति आकुलीभूताः, शीघ्रमित्यादीनि चखार्यकार्थिकानि अतिसंभ्रमो-18 पदर्शनार्थ 'जेणेवे' त्यादि यत्र धारिणी देवी तत्रोपागच्छति मागत्य चावरुग्णादिविशेषणां धारणी देवीं पश्यति, वाचनान्तरे तु 'जेणेव धारणीदेवी तेणेवेत्यतः पहारेत्थ गमणाएं' इत्येत दृश्यते, तत्र 'पहारस्थ' संप्रधारितवान्-विकल्पितवा-18 नित्यर्थः गमनाय-गमनार्थ, तथा 'तए णं से सेणिए राया जेणेच धारणीदेवी तेणेव उवागच्छति २ पासई'ति। पश्यति सामान्येन ततोऽवरुग्णादिविशेषणां पश्यतीति, 'दोचंपि'त्ति द्वितीयामपि वारामिति गम्यते, 'सवहसाविय'त्ति शप-11 थान्-देवगुरुद्रोहिका भविष्यसि त्वं यदि विकल्पं नाख्यासीत्यादिकान् वाक्यविशेषान् आविता-श्रोत्रेणोपलम्भिता शपथैर्वा |श्राविता शपथश्राविता शपथशापिता वा तां करोति, 'किण्हं किन्न मिति वा पाठो देवानुप्रिये ! एतस्यार्थस्थानहः श्रावणतायां। 'मणोमाणसिय'ति मनसि जातं मानसिक मनस्येव यद्वर्तते मानसिकं-दुःखं वचनेनाप्रकाशितखान्मनोमानसिकं रहस्थीकरोषि गोपयसीत्यर्थः, 'तिण्ह'मित्यादि त्रिषु मासेषु 'बहुपडिपुन्नाणं'ति ईषदूनेषु'जत्तिहामि'त्ति यतिष्ये कचित्करिष्यामीति पाठः, 'अयमेयारुवस्स'त्ति अस्वरूपस्य 'मणोरहसंपत्तीति मनोरथप्रधाना प्राप्तिर्यथा विचिन्तितेत्यर्थः, आयैः-लाभ-181 रीप्सितार्थहेतूनामुपायैः-अप्रतिहतलाभकारणैः आयं वा उवायं वा ठियं वा-स्थितं वा क्रमं वा स्थिरहेतुदोहदानां वेप्सितार्थस्य पाठान्तरे उत्पत्ति वा तस्यैवेत्यर्थः 'अविंदमाणे'त्ति अलभमानः 'अयमेयारूवे'त्ति अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकःआत्माश्रयः चिन्तितः-मरणरूपः प्रार्थितो-लब्धुमाशंसितः मनोगतः अबहिः प्रकाशितः संकल्पो-विकल्पः 'संपेहेति'त्ति संप्रेक्षते पर्यालोचयति 'ताओ'त्ति हे तातेत्यामत्रणं 'एयं कारणं'ति अपध्यानहेतुं दोहदापूर्तिलक्षणमितिभावः, दीप अनुक्रम [१९-२४] ~ 70~ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [१४-१७] + [१४- R +१५-R] दीप अनुक्रम [१९-२४] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१] अध्ययनं [१], मूलं [१४-१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥ ३४ ॥ कारणमिति कचिन्नाधीयत इति, एवं 'अग्रहमाणे ति अगोपायन्तः आकारसंवरेण अशङ्कमानाः- विवक्षितप्राप्तौ संदेहमविदधतः अनिवाना - अनपलपन्तः, किमुक्तं भवति ?-- अप्रच्छादयन्तः यथाभूतं यथावृत्तं अवितथं नत्वन्यथाभूतं असंदिग्धम् - असंदेहं 'एयमहं ति प्रयोजनं दोहदपूरणलक्षणमिति भाव: 'अंतगमणं गमिस्सामित्ति पारगमनं गमिष्यामीति, 'चुल्लमाउयाए 'ति लघुमातुः 'पुवसंगइय'ति पूर्व- पूर्वकाले संगतिः - मित्रखं येन सह स पूर्वसंगतिकः महर्द्धिको विमानपरिवारादिसंपदुपेतत्वाद्यावत्करणादिदं दृश्यं महाद्युतिकः- शरीराभरणादिदीप्तियोगान्महानुभागो वैक्रियादिकरणशक्तियुक्तत्वात् महायशाः सत्कीर्त्तियोगान्महाबलः - पर्वताद्युत्पाटनसामथ्योपेतखात् महासौख्यो विशिष्टसुखयोगादिति 'पोसहसालाए ति पौषधं - पर्वदिनानुष्ठानमुपवासादि तस्य शाला-गृहविशेषः पौषधशाला तस्यां पौषधिकस्य कृतोपवासादेः व्यपगतमालावर्णकविलेपनस्य, वर्णकं चन्दनं, तथा निक्षितं विमुक्तं शस्त्रं-धुरिकादि मुशलं च येन स तथा तस्य एकस्यआन्तरव्यक्तरागादिसहाय वियोगात् अद्वितीयस्य तथाविधपदात्यादिसहाय विरहात्, 'अट्टमभत्तं'ति समयभाषयोपवासत्रयमुच्यते, 'अट्टमभत्ते परिणममाणे ति पूर्वमाणे परिपूर्णप्राय इत्यर्थः, 'बेडधियसमुग्धारण' मित्यादि, वैक्रियसमुद्घातो वैक्रियकरणार्थी जीवव्यापारविशेषः, तेन समुपहन्यते समुपहतो भवति समुपहन्ति वा क्षिपति प्रदेशानिति गम्यते, व्यापारविशेषपरिणतो भवतीति भावः, तत्स्वरूपमेवाह-'संखेज्जाई' इत्यादि, दण्ड इव दण्डः-ऊर्द्धाध आयतः शरीरबाहल्यो जीवप्रदेशक|र्मपुङ्गलसमूहः, तत्र च विविधपुद्गलानादत्ते इति दर्शयन्नाह तद्यथा रत्नानां कर्केतनादीनां संबन्धिनः १ तथा वैराणां २ वैर्याणां ३ लोहिताक्षाणां ४ मसारगलायां ५ हंसगर्भाणां ६ पुलकानां ७ सौगन्धिकानां ८ ज्योतीरसानां ९ अङ्कानां १० अञ्जनानां ११ Eucation Internationa For Parts Only ~71~ १ उत्क्षिप्तज्ञाते मेघदोहदः सू. १७ ॥ ३४ ॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [१४-१७] + [१४-R +१५-R] दीप अनुक्रम [१९-२४] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [१४-१७] श्रुतस्कन्धः [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः रजतानां १२ जातरूपाणां १३ अञ्जनपुलकानां १४ स्फटिकानां १५ रिष्ठानां १६, किमत आह-यथाबादरान असारान् यथासूक्ष्मान-सारान् ततो वैक्रियं करोति, 'अभयकुमार मणुकंपमाणे 'ति अनुकम्पयन् हा तस्याष्टमोपवासरूपं कष्टं वर्त्तते इति विकल्पयन्नित्यर्थः, पूर्वभवे - पूर्वजन्मनि जनिता-जाता या स्नेहात्प्रीतिः प्रियखं न कार्यवशादित्यर्थः बहुमानश्च - गुणानुरागस्ताभ्यां सकाशात् जातः शोक:- चिचखेदो विरहसद्भावेन यस्य स पूर्वजनित स्नेहप्रीति बहुमानजातशोकः, वाचनान्तरे - 'पूर्वभवजनित स्नेहप्रीति बहुमानजनितशो भस्तत्र शोभा - पुलकादिरूपा, तस्मात्स्वकीयात् विमानवरपुण्डरीकात्, पुण्डरीकता च विमानानां मध्ये उत्तमखात् 'रयणुत्तमाउ'ति रत्नोत्तमात् रचनोत्तमाद्वा 'धरणीतलगमनाय' भूतलप्राप्तये त्वरितः - शीघ्रं संजनितःउत्पादितो गमनप्रचारो-गतिक्रियावृत्तिर्येन स तथा वाचनान्तरे 'धरणीतलगमन संजनितमनः प्रचार' इति प्रतीतमेव, व्याघूर्णितानि - दोलायमानानि यानि विमलानि कनकस्य प्रतरकाणि च प्रतरवृत्तरूपाणि आभरणानि च कर्णपूरे मुकुटं चमौलिः तेषामुत्कटो य आटोपः स्फारता तेन दर्शनीयः- आदेयदर्शनो यः स तथा, तथा अनेकेषां मणिकनकरलानां 'पहकर 'चि निकरस्तेन परिमण्डितो - भक्तिभिचित्रो विनियुक्तकः-कट्यां निवेशितो 'मणु'ति मकारस्य प्राकृत शैलीप्रभवत्वात् योऽनुरूपो गुणः-कटिसूत्रं तेन जनितो हर्षो यस्य स तथा प्रेङ्खोलमानाभ्यां - दोलायमानाभ्यां वरललितकुण्डलाभ्यां यदुज्ज्वलितम्उज्ज्वलीकृतं वदनं मुखं तस्य यो गुणः कान्तिलक्षणः तेन जनितं सौम्यं रूपं यस्य स तथा, वाचनान्तरे पुनरेवं विशेषणत्रयं दृश्यते "वाधुन्नियविमलकणगपयरगवडेंस गपकंपमाणचललोलललियपरिलंबमाणनर मगरतुरगमुहसयविणिग्गउग्गिनपवरम्येत्तिय विरायमाणमउडुकडा डोवदरिसणिज्जे" तत्र व्याघूर्णितानि चञ्चलानि विमलकनकप्रत रकाणि Education Internation For Parts Only ~72~ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१४-१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४-१७] +[१४-R +१५-R] ज्ञाताधर्म-18च अवतंसके च प्रकम्पमाने चललोलानि-अतिचपलानि ललितानि-शोभावन्ति परिलम्बमानानि-प्रलम्बमानानि नरमकरतु- १उत्क्षिप्तकथाङ्गम. रममुखशतेभ्यो-मुकुटाग्रविनिर्मित तन्मुखाकृतिशतेभ्यो विनिर्गतानि-निःसतानि उद्गीर्णानीव-वान्तानीवोद्गीर्णानि यानि प्रवरमौ- ज्ञाते मेष क्तिकानि-वरमुक्ताफलानि तैर्विराजमान-शोभमानं यन्मुकुटं तच्चेति द्वन्दः तेषां य उत्कट आटोपस्तेन दर्शनीयो यः स तथा, दोहदः ॥३५॥ तथा 'अनेगमणिकणगरयणपहकरपरिमंडियभागभत्तिचित्तविणिउत्तगमणगुणजणियखोलमाणवरललितकुंडलुज्जलियअहियआभरणजणियसोभे अनेकमणिकनकरत्ननिकरपरिमण्डितभागे भक्तिचित्रे-विच्छित्तिविचित्रे विनियुक्ते-कर्णयोनिवेशिते गमनगुणेन-गतिसामध्येन जनिते कृते प्रेशोलमाने-चञ्चले ये परललितकुंडले ताभ्यामुज्ज्वलितेनउद्दीपनेनाधिकाभ्यामाभरणाभ्यामुज्ज्वलिताधिकैर्वाऽऽभरणैश्च कुण्डलव्यतिरिक्त निता शोभा यस्य स तथा, तथा "गयज-18 |लमलविमलंदसणविरायमाणरूवे" गतजलमल-विगतमालिन्य विमलं दर्शनम्-आकारो यस्य स तथा, अत एव विराजमान || रूपं यस स तथा ततः कर्मधारयः, अयमेवोपमीयते-उदित इव कौमुदीनिशायां-कार्तिकपौर्णमास्यां शनीश्वराङ्गारकयो:प्रतीतयोरुज्ज्वलितः-दीप्यमानः सन् यो मध्यभागे तिष्ठति स तथा नयनानन्दो-लोचनाहादकः शरचन्द्र इति, शनीश्वरांगारकवत्कुण्डले चन्द्रवञ्च तस्य रूपमिति, तथाऽयमेव मेरुणोपमीयते-दिव्योषधीनां प्रज्वलेनेव मुकुटादितेजसा उज्ज्वलितं यद्द-18 शन-रूपं तेनाभिरामो-रम्यो यः स तथा, ऋतुलक्ष्म्येव-सर्वर्तुककुसुमसंपदा समस्ता-सा समस्तस्य वा जाता शोभा यस्य IS स तथा, प्रकृष्टेन गन्धेनोजूतेन-उद्गतेनाभिरामो यः स तथा, मेरुरिख नगवरः विकुर्वितविचित्रवेषः सनसौ वर्तते इति, |'दीवसमुदाण'ति द्वीपसमुद्राणां 'असंखपरिमाणनामधेजाणं'ति असंख्य परिमाणं नामधेयानि च येषां ते तथा तेषां दीप अनुक्रम [१९-२४] ॥३५॥ ~73~ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१४-१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४-१७] +[१४-R +१५-R] मध्यकारेण' मध्यभागेन 'बीइवयमाणे ति व्यतिव्रजन् गच्छन् उद्योतयन् विमलया प्रभया जीवलोकं 'ओवयइत्ति अवपतति अवतरति, अन्तरिक्षप्रतिपन्न:-आकाशस्थः दशार्द्धवर्णानि सकिङ्किणीकानि-क्षुद्रघण्टिकोपेतानि एकस्ताबदेष गमः पाठः, अन्योऽपि द्वितीयो गमो-वाचनाविशेषः पुस्तकान्तरेषु दृश्यते, 'ताए' तया उत्कृष्टया गत्या त्वरितया-आकुलया न खाभावि| क्या आन्तराकृततोऽप्येषा भवत्यत आह-चपलया कायतोऽपि चण्डया-रीद्रयाऽत्युत्कर्षयोगेन सिंहया-तदादास्थैर्येण उद्धतया-दपोतिशयेन जयिन्या विपक्षजेतृलेन छेकया-निपुणया दिव्यया-देवगत्या, अयं च द्वितीयो गमो जीवाभिगम| सूत्रवृत्यनुसारेण लिखितः, "किं करेमिति किमहं करोमि भवदभिप्रेतं कार्य किं वा 'दलयामिति तुभ्यं ददामि, कि वा प्रयच्छामि भवत्संगतायान्यस्सै, किंवा ते हृदयेप्सित-मनोवाञ्छितं वर्तत इति प्रश्नः, 'सुनिव्वुयवीसत्थेत्ति सष्ठ निर्धतः| स्वस्थात्मा विश्वस्तो-विश्वासवान् निरुत्सुको वा यः स तथा, 'तातो चि हे तात! । 'परिकप्पेह'त्ति सन्नाहवन्तं कुरुत 'अंतो|अंतेउरंसिति अन्तरन्तःपुरस्थ "महयाभचडगरवंदपरिखित्त"त्ति महाभटानां यबटकरप्रधान-विच्छ प्रधानं वृन्द।। तेन संपरिक्षिप्ता, वैभारगिरेः कटतदानि-तदेकदेशतटानि पादाच-तदासबलघुपर्वतास्तेषां यन्मूलं तत्र, तथा आरामेषु च | आरमन्ति येषु माधवीलतागृहादिषु दम्पत्या(दी)नि ते आरामास्तेषु पुष्पादिमद्वृक्षसंकुलानि उत्सवादी बहुजनभोग्यानि उद्या|नानि तेषु च तथा सामान्यवृक्षवृन्दयुक्तानि नगरासन्नानि काननानि तेषु च नगरविप्रकृष्टानि वनानि तेषु च तथा वनखण्डेपुच-एकजातीयवृक्षसमूहेषु वृक्षेषु चैकैकेषु गुच्छेषु च-वृन्ताकीप्रभृतिषु गुल्मेषु च-वंशजालीप्रभृतिषु लतासु-च-सहकारलतादिषु बहीषु च-नागवल्लयादिषु च कन्दरासु च-गुहासु दरीषु च-ऋगालादिउत्कीर्णभूमिविशेषेषु 'धुंढीसु यत्ति | दीप अनुक्रम [१९-२४] ~ 74~ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१४-१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक ज्ञाताधर्म- कथाङ्गम्. ॥१६॥ [१४-१७] +[१४-R +१५-R] अखाताल्पोदकविदरिकासु यूथेषु च वानरादिसम्बन्धिषु पाठान्तरेण हदेषु च कक्षेषु च गहनेषु च नदीषु च-सरित्सु संगमेषु श्उरिक्षप्त||च-नदीमीलकेषु च विदरेषु च जलखानविशेषेषु 'अच्छमाणी यति तिष्ठन्ती प्रेक्षमाणा च-पश्यन्ती व्यवस्तूनि मजन्ती ज्ञाते मेघ च-स्मान्ती 'पल्लवाणि यति पल्लवान् किशलयानि 'माणेमाणी यत्ति मानयन्ती स्पर्शनद्वारेण 'विणेमाण ति दोहलं कुमारजविनयन्ती 'तंसि अकालदोहलंसि विणीयंसित्ति अकालमेघदोहदे विनीते सति सम्मानितदोहदा पूर्णदोहदेत्यर्थः, न्म सू.१८ 'जयं चिट्ठइत्ति यतनया यथा गर्भवाधा न भवति तथा तिष्ठति ऊर्द्धस्थानेन 'आसयइति आस्ते आश्रयति बा आसनं खपिति चेति हितं-मेधायुरादिवृद्धिकारणखान्मितमिन्द्रियानुकूलखाव पथ्यमरोगकारणलात 'नाइचिंत'ति अतीव चिन्ता यर्मिस्तदतिचिन्तं तथा यथा न भवतीत्येवं गर्भ परिवहतीति संबन्धः, नातिशोकं नातिदैन्यं नातिमोहं-नातिकामासक्ति नातिभय-18 मेतदेव संग्रहवचनेनाह--'व्यपगते'त्यादि, तत्र भयं-भीतिमात्र परित्रासोऽकस्मात् , ऋतुषु यथायथं भज्यमानाः सुखायेति 18 ऋतुभज्यमानसुखाः तैः। तते णं सा धारिणीदेवी नवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं अट्ठमाणरातिदियाणं वीतिताणं अद्धरत्तका. लसमयंसि सुकुमालपाणिपादं जाव सवंगसुंदरंगं दारगं पयाया, तएणं ताओ अंगपडियारिआओ धारिणी देवीं नवण्डं मासाणं जाव दारगं पयायं पासन्ति २ सिग्धं तुरियं चवलं वेतियं जेणेव सेणिए राया | ॥३६॥ तेणेव उवागच्छति २ सेणियं रायं जएणं विजएण बद्धावति २ करयलपरिग्गहियं सिरसावतं मत्थए अंजलिं कहु एवं पदासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! धारिणीदेवी णवण्हं मासाणं जाव दारगं पयाया दीप अनुक्रम [१९-२४] मेघकुमारस्य जन्म ~ 75~ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१८-२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८-२१] दीप अनुक्रम [२५-२८] तनं अम्हे देवाणुप्पियाणं पियं णिवेदेमो पियं भे भवउ, तते णं से सेणिए राया तासिं अंगपडियारियाणं अंतिए एपमहूँ सोचा णिसम्म हहतुट्ठ ताओ अंगपडियारियाओ महुरेहिं वयणेहिं विपुलेण य पुष्फगंधमल्लालंकारेणं सकारेति सम्माणेति २ मत्थयधोयाओ करेति पुत्ताणुपुत्तियं वित्ति कप्पेति २ पडिविसजेति। तते णं से सेणिए राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेति २ एवं वदासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! रायगिह नगरं आसिय जाव परिगयं करेह २ चारगपरिसोहर्ण करेह २त्ता माणुम्माणबद्धणं करेह २ एतमाणत्तियं पचप्पिणह जाव पचप्पिणंति । तते णं से सेणिए राया अट्ठारससेणीप्पसेणीओ सद्दावेति २ एवं वदासी-गच्छह णं तुन्भे देवाणुप्पिया! रायगिहे नगरे अभितरबाहिरिए उस्सुकं उक्करं अभडप्पवेसं अदंडिमकुडंडिमं अधरिमं अधारणिजं अणुडयमुइंग अमिलायमल्लदामं गणियावरणाडइज्जकलियं अणेगतालायराणुचरितं पमुइयपक्की लियाभिराम जहारिहं ठिइवडियं दसदिवसियं करेह २ एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह तेवि करिति २ तहेव पञ्चप्पिणंति, तए णं से सेणिए राया बाहिरियाए उवट्ठाणसालाए सीहासणवरगए पुरस्थाभिमुहे सन्निसन्ने सइएहि य साहस्सिएहि यसयसाहस्सेहि य जाएहिं दाएहिं भागेहिं दलयमाणे २पडिच्छेमाणे २एवं च णं विहरति, तते णं तस्स अम्मापियरो पढमेदिवसे जातकम्मं करेंति २बितियदिवसे जागरियं करेंति २ ततिए दिवसे चंदसरदंसणियं करेंति २ एवामेव निवत्ते सुइजातकम्मकरणे संपत्ते वारसाहदिवसे विपुलं असणं पाणं खातिमं सातिम उवक्त मेघकुमारस्य जन्म ~ 76~ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१८-२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: जाताधर्मकथाङ्गम. GAON प्रत सूत्रांक [१८-२१] उत्क्षिप्तज्ञाताम्मेघकुमार जन्मकलागुहश्च ॥३७॥ दीप अनुक्रम [२५-२८] हाति २ मिसणातिणियमसयणसंबंधिपरिजणं बलं च बहवे गणणायग दंडणायग जाव आमन्तेति ततो पच्छा पहाता कयवलिकम्मा कपकोउय जाव सबालंकारविभूसिया महतिमहालयंसि भोयणमंडबंसि तं विपुलं असणं पाणं खाइम सातिम मित्सनातिगणणायग जाव सर्द्धि आसाएमाणा विसाएमाणा परिभाएमाणा परि जमाणा एवं च पं विहरति जिमितभुत्तुतरागताविय समाणा आयंता चोक्खा परमसुइभूया तं मित्तनातिनियगसयणसंबंधिपरितणगणणायगाविपुलेणं पुष्फवत्थगंधमल्लालंकारेणं सकारेंति सम्माणति २एवं वदासी-जम्हाणं अम्हं इमस्स दारगस्स गन्भत्थस्स चेव समाणस्स अकालमेहेसु होहले पाउन्भूतेतं होजणं अम्हं दारए मेहे नामणं मेहकुमारे, तस्स दारगस्स अम्मापियरो अयमेयारूवं गोणं गुणनिष्फन नामजं करेंति, तए णं तते णं से मेहकुमारे पंचधातीपरिग्गहिए, तंजहा-खीरधातीए मंडणधातीए मजणधातीए कीलावणधातीए अंकधातीए अन्नाहि य बहहिं खुजाहिं चिलाइचाहिं वामणिवडभियन्वरिबाउसिजोणियपल्हविणइसिणियाचाघोरुगिणिलासियलउसियदमिलिसिंहलिभारविपुलिदिपक्कणियहलिमकंडिसवरिपारसीहिं णाणादेसीहिं विदेसपरिमंडियाहिं इंगितत्रितियपस्थियवियाणियाहिं सदेसणेवत्वगहितसाहिं निउणकुसलाहिं विणीयाहिं चेडियाचकवालवरिसधरकंचुइअमयरगवंदपरिखित्ते इत्थाओ हत्थं संहरिज्जमाणे अंकाओ अंकं परिभुज्जमाणे परिगिजमाणे चालिजमाणे उचलालिजमाणे रम्मंसि मणिकोहिमतलंसि परिमिजमाणे २ णिवायणिवाघायंसि गिरिकंदर ~ 77~ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्क न्धः [१] ------------------ अध्य यन [१], ----------------- --- मूलं [१८-२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८-२१] दीप अनुक्रम [२५-२८] मल्लीणेच चंपगपायवे मुहं सुहेणं बहुइ, तते णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो अणुपुवेणं नामकरणं च पजेमणं च एवं चंकम्मणगं च चोलोवणयं च महता महया इट्टीसफारसमुदएणं करिंसु । तते णं तं मेहकुमारं अम्मापियरो सातिरेगट्ववासजातगं चेव गन्भट्ठमे वासे सोहणंसि तिहिकरणमुहुतंसि कलायरियस्स उवणेति, तते णं से कलायरिए मेहं कुमारं लेहाइयाओ गणितप्पहाणाओ सउणरुतपज्जवसाणाओ बावत्तरि कलाओ सुत्तओ य अत्थओ य करणओ य सेहाचेति सिक्खावेति तं०लेहं गणियं रूवं नई गीयं वाइयं सरम(ग)यं पोक्खरगयं समतालं जूयं १० जणवायं पासयं अट्ठावयं पोरेकच्चं दगमद्वियं अन्नविहिं पाणविहिं वत्थविहिं विलेवणविहिं सयणविहिं २० अजं पहेलियंमागहियं गाहं गीइयं सिलोयं हिरण्णजुतिं सुधन्नजुत्तिं चुन्नजुतिं आभरणविहिं ३० तरुणीपडिकम्मं इथिलक्खणं पुरिसलक्षणं हयलक्खणं गयलक्खणं गोणलक्षणं कुछुडलक्खणं छत्तलक्खणं डंडलक्खणं असिलक्षणं ४० मणिलक्ख ण कागणिलक्षणं वत्थुविज खंधारमाणं नगरमाणं वूहं परिवूहं चारं परिचारं चकबूहं ५० गरुलबूहं सगडयूहं जुद्धं निजुद्धं जुद्धातिजुद्ध अहियुद्धं मुहियुद्धं बाहुयुद्धं लयाजुद्धं ईसत्थं ६० छरुप्पवायं धणुवेयं हिरन्नपार्ग सुवनपागं सुत्तखेर्ड वहखेडं नालियाखेड पत्तच्छेनं कइच्छेनं सज्जीचं ७० निजीवं सऊणरुयमिति (सूत्रं १७) तते णं से कलायरिए मेहं कुमारं लेहादीयाओ गणियप्पहाणाओ-सउणरुयपज्जवसाणाओ बावत्तरि कलाओ सुत्तओ य अत्थओय करणओ य सिहावेति सिक्खावेइ सिहावेत्ता सिक्खा अम्मापिऊणं उप se अत्र यत् सूत्रं १७ लिखितं तत् मुद्रण-दोष: संभाव्यते (सूत्र १७, यह संख्या दुसरी दफ़ा छपी है, इसके पहले पृष्ठ ६९ (३३)पे भी सू.१७ हि लिखा था दवासप्तति-कलाया: नामानि ~ 78~ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्क न्धः [१] ------------------ अध्य यन [१], ----------------- -- मूलं [१८-२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्, प्रत सूत्रांक [१८-२१] ॥३८॥ णेति, ततेणं मेहस्स कुमारस्स अम्मापितरोतं कलायरियं मधुरेहिं वयणेहिं विपुलेणं वत्थगंधमल्लालंकारेणं सक्कारेंति सम्माणति २त्ता विपुलं जीवियारिहं पीइदाणं दलयंति २त्ता पडिविसति (सूत्रं१८) नते णं से मेहे कुमारे बावत्तरिकलापंडिए णवंगसुत्तपडिबोहिए अट्ठारसविहिप्पगारदेसीभासाविसारए गीइरई गंधवनहकुसले हयजोही गयजोही रहजोही बाहुजोही बाहुप्पमद्दी अलं भोगसमत्थे साहसिए बियालचारी जाते याचि होत्था, तते णं तस्स मेहकुमारस्स अम्मापियरो मेहं कुमारं बावत्तरिकलापंडितं जाव वियालचारी जायं पासंति २त्ता अट्ट पासातवडिंसए करेंति अन्भुग्गयमुसियपहसिए विव मणिकणगरयणभत्तिचित्ते वाउद्भूतविजयवेजयंतीपडागाछत्ताइच्छत्तकलिए तुंगे गगणतलमभिलंघमाणसिहरें जालंतररयणपंजरुम्मिल्लियब मणिकणगधूभियाए वियसितसयपत्तपुंडरीए तिलयरयणद्धयचंदचिए नानामणिमयदामालंकिते अंतो बहिं च सण्हे तवणिज्जरुइलवालुयापत्थरे मुहफासे सस्सिरीयस्वे पासादीए जाव पडिरूबे एगं च णं. महं भवणं करेंति अणेगखंभसयसन्निविट्ठ लीलद्वियसालभंजियागं अन्भुग्गयसुकयवहरवेतियातोरणवररइयसालभंजियासुसिलिट्ठविसिट्ठलट्ठसंठितपसत्यवेरुलियखंभनाणामणिकणगरयणखचितउज्जलं बहुसमसुविभत्तनिचियरमणिज्जभूमिभागं ईहामिय जाव भत्तिचित्तं खंभुग्गयवयरवेड्यापरिगयाभिरामं विजाहरजमलजुयलजुत्तंपिव अच्चीसहस्समालणीयं रूवगसहस्सकलियं भिसमाणं भिम्भिसमाणं चक्खुल्लोयणलेसंसुहफासं सस्सिरीयरूवं कंचणमणिरयणधूभियागं नाणाविहर्ष उत्क्षिप्तज्ञाताम्मेस्य कलाग्रहणं कलाचार्यसकारःप्रासादाश्चसू. १८-१९ दीप अनुक्रम [२५-३०] ॥३८॥ ~ 79~ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्क न्ध : [१] ----------------- अध्य यन [१], ---------------- --- मूलं [१८-२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८-२१] दीप अनुक्रम [२५-३०] चवन्नघंटापडागपरिमंडियग्गसिरं धवलमिरीचिकवयं विणिम्मुपंतं लाउल्लोइयमहियं जाय गंघवहिभयं पासादीपं दरिसणिजं अभिरूवं पडिरूवं (सूत्रं१९) तते णं तस्स मेहकुमारस्स अम्मापियरो मेहं कुमार सोहणंसि तिहिकरणनक्खत्तमुहुरासि सरिसियाणं सरिसबयाणं सरित्तयाण सरिसलावन्नरूवजोवणगुणोववेयाणं सरिसएहितो रायकुलेहितो आणिअल्लियाणं पसाहणटुंगअविहवयाओवयणमंगलमुजंपियाहिं अहहिं रायवरकपणाहिं सद्धिं एगदिवसेणं पाणिं गिण्हार्विसु । तते णं तस्स मेहस्स अम्मापितरो इमं एतारूवं पीतिदाणं दलयइ अह हिरण्णकोडीओ अट्ट सुवण्णकोडीओ गाहाणुसारेण भावियवं जाव पेसणकारियाओ, अन्नं च विपुलं घणकणगरयणमणिमोत्तियसंखसिलप्पवालरत्तरयणसंतसारसावतेज अलाहि जाव आसत्तमाओ कुलवंसाओ पकामं दाउं पकामं भोजु पकामं परिभाएG, तते णं से मेहे कुमारे एगमेगाए भारियाए एगमेगं हिरण्णकोडिं दलयति एगमेगं सुबन्नकोडिं दलपति जाव एगमेगं पेसणकारिं दलयति, अन्नं च विपुलं घणकणग जाव परिभाए दलयति, तते णं से मेहे कुमारे उप्पि पासातवरगते फुडमाणेहिं मुइंगमस्थएहिं वरतरुणिसंपउत्तेहिं बत्तीसइबद्धएहिं नाडएहिं उवगिज्जमाणे उ०२ उघलालित्रमाणे २ सहफरिसरसरूवगंधविउले माणुस्सए कामभोगे पञ्चणुभवमाणे विहरति (सूत्रं२०) तेणं कालेणं२ समणे भगवं महावीरे पुवाणुपुर्वि चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे सुहंसुहणं विहरमाणे जेणामेव रायगिहे नगरे गुणसिलए चेतिए जाव विहरति, तते णं से रायगिहे नगरे सिंघा ~80~ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्क न्ध: [१] -----------अध्ययन [१], -------- --- मूलं [१८-२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: शाताधर्म कथाजम् प्रत सूत्रांक [१८-२१] ISI २१ दीप अनुक्रम [२५-३०] ROROSecessc0000000 ग. महया बहुजणसद्देति वा जाव बहवे उग्गा भोगा जाव रायगिहस्स नगरस्स मजझमझेणं एग- उत्क्षिप्तदिसिं एगाभिमुहा निग्गच्छति इमं च णं मेहे कुमारे उर्षि पासातबरगते फुडमाणेहिं मुर्यगमत्थ- ज्ञाताम्मेएहिं जाव माणुस्सए कामभोगे मुंजमाणे रायमग्गं च ओलोएमाणे २ एवं च णं विहरति । तए णं से घवीवाहा मेहे कुमारे ते यहवे उग्गे भोगे जाव एगदिसाभिमुहे निग्गच्छमाणे पासति पासिसा कंचुइज्जपुरिसं सू. २० सदावेति २ एवं वदासी-किन भो देवाणुप्पिया ! अन्ज रायगिहे नगरे इंदमहेति वा खंदमहेति वा श्रीवीराएवं रुद्दसिववेसमणनागजक्खभूयनईतलायरुक्खचेतियपचयउज्माणगिरिजत्ताइ वा जओ णं यहवे उग्गा गमः सू. भोगा जाव एगदिर्सि एगाभिमुहा णिग्गच्छति,ततेणं से कंचुइजपुरिसे समणस्स भग०महावीरस्स गहियागमणपषत्तीए मेहं कुमार एवं वदासी-मो खलु देवाणुप्पिया! अज्ज रायगिहे नयरे इंदमहेति या जाव गिरिजत्साओ बा, जन्न एए जग्गा जाब एगदिसि एगाभिमुहा निग्गच्छन्ति एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे आइकरे तित्थकरे इहमागते इह संपसे इह समोसहे इह चेव रायगिहे नगरे गुणसिलए चेहए अहापडि जाव विहरति । (सूत्रं २१). 'मत्थयधोयाति धौतमस्तकाः करोति अपनीतदासला इत्यर्थः पौत्रानुपुत्रिका पुत्रपौत्रादियोग्यामित्यर्थः 'वृति' जीविका कल्पयतीति । 'रायगिहं नगरं आसिय' इह यावत्करणादेवं दृश्य 'आसियसंमजिओषलित' आसिक्तमुदकच्छटेन 8 |संमार्जितं कचवरशोधनेन उपलिस गोमयादिना, केषु-सिंघाडगतिगचजकचचरचउमुहमहापहपहेसु' तथा सित्तमुह-18 ~81~ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक |[१८-२१] दीप अनुक्रम [२५-३०] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१] अध्ययनं [१], मूलं [१८-२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः यसंभट्टरत्थंतरावणची हियं' सिक्तानि जलेनात एव शुचीनि पवित्राणि संमृष्टानि कचवरापनयनेन रध्यान्तराणि आपणवीथपथहमार्गा यस्मिन् तत्तथा 'मंचानिमंचकलितं मञ्चा-मालका प्रेक्षणकद्रष्टुजनोपवेशननिमित्तं अतिमश्वाः तेषामप्युपरि ये तैः कलितं 'णाणाविहरागभूसियज्झयपडागमंडियं' नानाविधरागैः कुसुम्भादिभिर्भूषिता ये ध्वजाः सिंहगरुडादिरूपकोपलक्षितगृह| स्पटरूपाः पताकाथ तदितरास्ताभिर्मंडितं 'लाडल्लोइयमहियं' लाइयं-छगणादिना भूमौ लेपनं उल्लोइयं सेटिकादिना कुब्यादिषु धवलनं ताभ्यां महितं -पूजितं ते एव वा महितं पूजनं यत्र तत्तथा 'गोसीससरसरत्तचंदणदद्दरदिन्नपंचंगुलितलं' गोशीर्षस्य - चन्दनविशेषस्य सरसस्य च-रक्तचन्दनविशेषस्यैव दर्दरेण चपेटारूपेण दत्ता न्यस्ताः पञ्चाङ्गुलयस्तला हस्तका यस्मिन् कुख्यादिषु तत्तथा 'उवचियचंद कलर्स' उपचिता-उपनिहिता गृहान्तः कृतचतुष्केषु चन्दनकलशा - मङ्गल्यघटाः यत्र तत्तथा 'बंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागं' चंदनघटाः सुष्ठुकृताः तोरणानि च प्रतिद्वारं द्वारस्य २ देशभागेषु यत्र तत्तथा 'आसत्तोसत्तविपुलवबग्घारियमल्लदामकलावं' आसक्तो भूमिलग्नः उत्सक्तथ उपरिलम्रो विपुलो वृत्तो 'वग्धारियत्ति प्रलम्बो माल्यदानां पुष्पमालानां कलापः- समूहो यत्र तत्तथा 'पंचवन्नसरससुरभिमुकपुष्फपुंजोवयारकलियं पञ्चवर्णाः सरसाः सुरभयो ये मुक्ताः - करप्रेरिताः पुष्पपुञ्जास्तैर्य उपचार:- पूजा भूमेः तेन कलितं 'कालागरुपवरकुंदुरुतुरुक धूषडज्अंतमघमघंतगंधुदुग्राभिरामं' कुंदुरुकं पीडा तुरुकं सिल्हकं 'सुगन्धवरगन्धियं गंधवहिभूयं नउनहगजलमल्लगमुद्विषवेलंबगकहकहगपवगलासग आइक्खगलंखमखतूणइल वीणिय अणेगतालावरपरिगीय' तत्र नटा-नाटकानां नाटयितारः नर्त्तका - ये नृत्यन्ति अंकिला इत्येके जल्ला - चरत्राखेलका राज्ञः स्तोत्रपाठका इत्यन्ये मल्लाः Education international For Prata Use Only ~ 82~ waryra Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१८-२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ekers प्रत सूत्रांक [१८-२१] दीप अनुक्रम [२५-३०] ज्ञाताधर्म-प्रतीताः मौष्टिका-मल्ला एव ये मुष्टिमिः प्रहरन्ति विडम्बकाः-विदूषकाः कथाकथका:-प्रतीताः प्लवका ये उत्प्लवन्तेश्उत्थितकथाङ्गम्. नद्यादिकं वा तरन्ति लासका:-ये रासकान् गायन्ति जयशब्दप्रयोक्तारो वा भाण्डा इत्यर्थः, आख्यायका-ये शुभाशुभमा- ज्ञाता. ख्यान्ति लक्षा-वंशखेलकाः मला:-चित्रफलकहस्ता भिक्षाटाः तूणइल्ला:-तूणाभिधानवाद्यविशेषवन्तः, तुम्बवीणका-वीणावा | मेघवृत्त ॥४०॥ दकाः अनेके ये तालाचरा:-तालाप्रदानेन प्रेक्षाकारिणः तेषां परि-समन्तागीत-ध्वनितं यत्र तत्तथा कुरुत खयं कारयता सू. २१ न्येस्तथा चारगशोधनं कुरुत कसा च मानोन्मानबर्द्धनं कुरुत, तत्र मान-धान्यमानं सेतिकादि उन्मानं तुलामानं कर्षादिकं । श्रेणय:-कुम्भकारादिजातयः प्रश्रेणयः-तत्प्रभेदरूपाः । 'उस्सुक्क मित्यादि, उच्छुल्का-उन्मुक्तशुल्कां स्थितिपतितां कुरुतेति संबन्धः, शुल्कं तु विक्रेतव्यं भाण्डं प्रति राजदेयं द्रव्यं, उत्करां-उन्मुक्तकरां, करस्तु गवादीनां प्रति प्रतिवर्ष राजदेयं द्रव्यं, 12 अविद्यमानो भटानां-राजपुरुषाणां आशादायिना प्रवेशः कुटुम्बिमन्दिरेषु यस्यां सा तथा ताममटप्रवेशा, दण्डेन निवृत्तं । दण्डिम कुदण्डेन निवृतं कुदण्डिमं राजद्रव्यं तन्नास्ति यस्यां सा तथा तामदंडिमकुदंडिमां, तत्र दण्डोऽपराधानुसारेण राजग्राह्य द्रव्यं कुदण्डस्तु कारणिकानां प्रज्ञायपराधान्महत्यप्यपराधिनोऽपराधे अल्पं राजग्रामं द्रव्यम् , अविद्यमानं 'धरिम'ति ऋणद्रव्यं । | यस्यां सा तथा तां, अविद्यमानो धारणीयः-अधमों यस्यां सा तथा तां, 'अणुद्धयमुइंग'चि अनुभृता-आनुरूप्येण वादनार्थIS मुत्क्षिप्ता अनुद्धता वा-वादनार्थमेव वादकैरत्यक्ता मृदङ्गा-मदेला यस्यां सा तथा ता, 'अ[म्मापमिलायमल्लदाम'न्ति अम्ला- ॥४. नपुष्पमालां गणिकावरैः-विलासिनीप्रधानैर्नाटकीयैः-नाटकप्रतिबद्धपात्रैः कलिता या सा तथा तां, अनेकतालाचरानुचरितां प्रेक्षाकारिविशेषैः सेवितां प्रमुदितैः-हृष्टैः प्रक्रीडितैश्च-क्रीडितुमारब्धैर्जनैरभिरामा या सा तथा तां, 'यथाहीं रएe ~83~ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१८-२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८-२१] दीप अनुक्रम [२५-३०] यथोचिता 'स्थितिपतितां स्थिती-कुलमर्यादायां पतिता-अन्तर्भूता या प्रक्रिया पुत्रजन्मोत्सव संबन्धिनी सा स्थितिपतिता || ता, वाचनान्तरे 'दसदिवसियं ठियपडियन्ति दशाहिकमहिमानमित्यर्थः कुरुत कारयत चा, 'सपर्हिति शतपरिमाणे, दायेहि ति दानैः, वाचनान्तरे शतिकांश्चेत्यादि, यागान्-देवपूजाः दायान-दानानि भागान् लब्धद्रव्यविभागानिति, प्रथमे दिवसे जातकर्म-प्रसवकर्म नालच्छेदननिखननादिकं द्वितीयदिने जागरिका-रात्रिजागरणं तृतीये दिवसे चन्द्रसूर्यदर्शनं उत्सवविशेष एत इति, पाठान्तरे तु प्रथमदिवसे स्थितिपतितां तृतीये चंद्रसूर्यदर्शनिको पाठे जागरिका 'निवत्ते असुइ-16 जायकम्मकरणे'त्ति निवृत्ते-अतिक्रान्ते-अशुचीनां जातकर्मणा करणे 'निबत्ते सुइजायकम्मकरणे ति वा पाठान्तरं,8 तत्र निर्वृत्ते-कृते शुचीनां जातकर्मणा करणे 'वारसाहे दिवसेति द्वादशाख्ये दिवसे इत्यर्थः, अथवा द्वादशानामहां समा-18 हारो द्वादशाहं तस्य दिवसो येन द्वादशाहः पूर्यते तत्र तथा, मित्राणि-सुहृदः ज्ञातयो-मातापितृभ्रात्रादयः निजका:खकीयाः पुत्रादयः खजनाः-पितृल्यादयः संवन्धिन:-शुरपुत्रश्वशुरादयः परिजनो-दासीदासादिः पलं च-सैन्यं च गणनायकादयस्तु प्रागभिहिताः, 'महइमहालइति अतिमहति, आस्वादयन्तावास्वादनीय, परिभाजयन्ती अन्येभ्यो यच्छन्तौ । मातापितराविति प्रक्रमः, 'जेमिय'त्ति जेमिती भुक्तवन्तौ, 'भुत्तुत्तरत्ति भुक्तोत्तर-भुक्तोत्तरकालं 'आगय'ति आगताप-18] वेशनस्थाने इति गम्यते, 'समाणे ति सन्तो, किंभूतौ भूखेत्याह -आचान्तौ शुद्धोदकयोगेन चोक्षौ लेपसिक्थाद्यपनयनेन अत एव परमशुचिभूताविति, 'अपमेयास्वेति इदमेतद्रूपं गौणं कोऽर्थो ?-गुणनिष्पन्न नामधेयं-प्रशस्तं नाम मेघ इति । क्षीरघान्या-स्तन्यदायिन्या मण्डनधान्या-मण्डिकया मज्जनधान्या-सापिकया क्रीडनधात्र्या-क्रीडनकारिण्या अवधात्र्या ~84~ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१८-२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८-२१] दीप अनुक्रम [२५-३०] शाताधर्म-उत्सङ्गस्यापिकया कुलिकाभि:-चक्रजवाभिः चिलातीभि:-अनार्यदेशोत्पन्नाभि मनाभि:-इस्खशरीरामिः वटभाभि:-18|उत्क्षिप्तकथाङ्गम्. महत्कोष्ठामिः वर्षभि:-बर्बरदेशसंभवाभिः बकुसिकाभिर्योनकाभिः पल्हविकामिः ईसिनिकाभिः घोरुकिनिकाभिः लासिकामिः ज्ञाता० लकुसिकाभिर्द्राविडीभिः सिंहलीभिः आरबीभिः पुलिन्द्रीभिः पकणीभिः बहलीभिः मुरुंडीभिः शबरीभिः पारसीमिः 'नाना- मेघवृत्तं ॥४१॥ देशीभिः' बहुविधाभिः अनार्यप्रायदेशोत्पन्नाभिरि त्यर्थः विदेशः-खकीयदेशापेक्षया राजगृहनगरदेशस्तस्य परिमण्डिकामिः, सू. २१ इङ्गितेन-नयनादिचेष्टाविशेषेण चिन्तितं च-अपरेण हृदि स्थापितं प्रार्थितं च-अभिलषितं विजानन्ति यास्ताः तथा ताभिः, खदेशे यन्नेपथ्यं परिधानादिरचना तद्वद्गृहीतो वेषो यकाभिस्तास्तथा ताभिः,निपुणानां मध्ये कुशलायास्तास्तथा ताभिः, अत एव । विनीताभिर्युक्त इति गम्यते,तथा चेटिकाचक्रवालेन अर्थात् खदेशसंभवेन वर्षधराणां वर्द्धितकरिंथनरुन्धनप्रयोगेण नपुंसकीकृताना-ISI मन्तःपुरमहलकानां 'कंचुइज्जत्ति कंचुकिनामन्तःपुरप्रयोजननिवेदकानां प्रतीहाराणां वा महत्तरकाणां च-अन्तःपुरकायेचिन्त-131 कानां वृन्देन परिक्षिप्तो यः स तथा,हस्ताद्धस्तं-हस्तान्तरं सहियमाणः अङ्कादर-उत्सङ्गादुत्सङ्गान्तरं, परिभोज्यमानः परिगीयमानः तथाविधवालोचितगीतविशेषैः उपलाल्यमानः क्रीडादिलालनया,पाठान्तरे तु 'उवणचित्रमाणे २उवगाइनमाणे २ उपलालि| जमाणे २ अवगृहिज्जमाणे' २ आलिङ्गामान इत्यर्थः, अवयासिज्जमाणे कथश्चिदालिममान एव, 'परिवंदिजमाणे |॥४१॥ २स्तूयमान इत्यर्थः, 'परिचुंविजमाणे २ इति प्रचुम्ब्यमानः चक्रम्यमाणः, निर्वाते-नियाघाते 'गिरिकन्दरे चि गिरिनिकुळे |आलीन इव चम्पकपादपः सुखसुखेन वर्द्धते स्मेति, प्रचक्रमणक-भ्रमणं चूडापनयन-मुण्डनं, 'महया इड्डीसक्कारसमुदएणीति महत्या ऋझ्या एवं सत्कारेण पूजया समुदयेन च जनानामित्यर्थः, अर्धत' इति व्याख्यानतः 'करणतः' प्रयोगतः 'सेहावर त्ति ~85~ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१८-२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८-२१] दीप अनुक्रम [२५-३०] सेधयति निष्पादयति शिक्षयति-अभ्यास कारयति 'नवंगसुत्तपडिबोहिए'त्ति नवाङ्गानि द्वे द्वे श्रोत्रे नयने नासिके जिह्नका || खगेका मनबैकं सुप्तानीव सुप्तानि-बाल्यादव्यक्तचेतनानि प्रतियोधितानि-यौवनेन व्यक्तचेतनावन्ति कृतानि यस्य स तथा, आह च व्यवहारभाष्ये-'सोसाई नव सुत्ता'इत्यादि, अष्टादश विधिप्रकाराः-प्रवृत्तिप्रकाराः अष्टादशभिर्वा विधिभि:| भेदैः प्रचार-प्रवृत्तिर्यस्याः सा तथा तखां, देशीभाषायां-देशभेदेन वर्णावलीरूपायो विशारदः-पण्डितो यः स तथा, IST गीतिरतिगंधर्वे-पीते नाटये च कुशला, हयेन युध्यत इति हययोधी, एवं रथयोधी बाहुयोधी बाहुभ्यां प्रमृद्गातीति बाहुप्रमही, IST | साहसिकवाहिकाले चरतीति विकालचारी । 'पासायवडिसएत्ति अवतंसका इवावतंसकाः शेखराः प्रासादाय तेऽवतंसकाच प्रासादावतंसका प्रधानप्रासादा इत्यर्थ: अन्भुग्गयमूसिय'त्ति अभ्युद्गतोच्छ्रितान् अत्युच्चानित्यर्थः, अत्र च द्वितीयाबहुवचनलोपो |दृश्यः, 'पहसिएविच'ति प्रहसितानिव श्वेतप्रभाप्रबलपटलतया हसन्त इवेत्यर्थः, तथा मणिकनकरलाना भक्तिभि:-विच्छितिमिश्चित्रा ये ते तथा वातोजूता याः विजयसूचिका वैजयन्त्यभिधानाः पताकाः छत्रातिच्छत्राणि च तैः कलिता येते तथा ततः कर्मधारयस्ततस्तान् , तुङ्गान् कथमिव ?-गगनतलमभिलयच्छिखरान् 'जालंतररयणपंजरुमिल्लियपति जालान्तेषुमत्तालम्बपर्यन्तेषु जालान्तरेषु वा-जालकमध्येषु रलानि येषां ते तथा ततो द्वितीयाबहुवचनलोपो दृश्यः पञ्जरोन्मीलितानि च-पृथकृत्तपञ्जराणि च प्रत्यग्रच्छायानित्यर्थः, अथवा जालान्तररत्नपञ्जरैः-तत्समदायविशेषैरुन्मीलितानीवोन्मीलितानि चोन्मी-1 IS पितलोचनानि चेत्यर्थः, मणिकनकस्तूपिकानिति प्रतीतं विकसितानि शतपत्राणि पुण्डरीकाणि च प्रतिरूपापेक्षया साक्षादा ॥ येषु ते तथा तान् , तिलकैः-पुण्दैः रत्नैः-कर्केतनादिभिः अर्द्धचन्द्रः-सोपानविशेषैः भित्तिषु वा-चन्दनादिमपैरालेख्यैः। ~86~ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१८-२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८-२१] दीप अनुक्रम [२५-३०] ज्ञाताधर्म- अचिंता येते तथा तान् , पाठान्तरेण 'तिलकरत्नार्द्धचन्द्रचित्रान्' नानामणिमयदामालकृतान् अन्तर्बहिश्च श्लक्ष्णान-IN उत्क्षिप्तकथानम्. मसणान् तपनीयस्स या रुचिरा वालुका तसा प्रस्तर:-प्रतरः प्राङ्गणेषु येषां ते तथा तान्, मुखस्पशोन् सश्रीकाणि- ज्ञाता सशोभनानि रूपाणि-रूपकाणि येषु ते तथा तान्, प्रसादीयान्-चित्ताहादकान् दर्शनीयान-यान् पश्यच्चक्षुने श्राम्यति, मेघवृत्तं अभिरूपान्-मनोज्ञरूपान् द्रष्टारं द्रष्टार प्रति रूपं येषां ते तथा तान् , एकं महद्भवनमिति, अथ भवनप्रासादयोः को विशेषः, सू. २१ उच्यते, भवनमायामापेक्षया किञ्चितन्यनोच्छायमानं भवति, प्रासादस्तु आयामद्विगुणोच्छाय इति, अनेकेषु स्तम्भशतेषु संनिविष्टं यत्तत्तथा, लीलया स्थिताः शालभञ्जिका:-पुत्रिका यसिन् तत्तथा, अभ्युद्गता-सुकता वज्रस वेदिका-द्वारमुण्डिकोपरि वेदिका तोरणं च यत्र तत्तथा, वराभिः रचिताभी रतिदाभिर्वा शालभजिकाभिः सुश्लिष्टाः संवद्धाः विशिष्टा लष्टाः संस्थिताः प्रशस्ताः वैडूर्यस्य स्तम्भा यत्र तत्तथा, नानामणिकनकरलैः खचितं च उज्ज्वलं च यत्तत्तथा ततः पदत्रयस्य | कर्मधारयः,'बहुसमति अतिसमः सुविभक्तो निचितो-निबिडो रमणीयश्च भूभागो यत्र तत्तथा, ईहामृगवृषभतुरगनरमकरविहगव्यालकिन्नररुरुसरभचमरकुञ्जरवनलतापमलताभक्तिचित्रमिति यावत्करणात् दृश्य, तथा स्तम्भोद्गतया-स्तम्भोपरिवर्तिन्या वजस्य वेदिकया परिगृहीतं-परिवेष्टितमभिरामं च यत्तत्तथा 'विजाहरजमलजुयलजंतजुतं'ति विद्याधरयोर्यत् यमलंसमश्रेणीकं युगलं-द्वयं तेनैव यत्रेण-संचरिष्णुपुरुषप्रतिमाद्वयरूपेण युक्तं यत्तत्तथा आपसाचैवंविधः समास इति, तथा अर्चिषा- ॥४२॥ | किरणानां सहस्रर्मालनीयं-परिवारणीयं 'भिसमाणं ति दीप्यमानं 'भिन्भिसमा ति अतिशयेन दीप्यमानं चक्षुः कर्तृ लोकनेIS अवलोकने दर्शने सति लिशतीव-दर्शनीयखातिशयात् श्लिष्यतीव यत्र तत्तथा, नानाविधाभिः पञ्चवर्णाभिर्घण्टाप्रधानपताकामिः ~87~ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्क न्ध: [१] -----------अध्ययन [१], -------- -- मूलं [१८-२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८-२१] दीप अनुक्रम [२५-३०] परिमण्डितमप्रशिखर यस्य तत्तथा धवलमरीचिलक्षणं कवचं-कङ्कटं तत्समूहमित्यर्थः विनिर्मुश्चन-विक्षिपन् सरशीनां शरीर-1 | प्रमाणतो मेपकुमारापेक्षया परस्परतो या सहगवयसां-समानकालकृतावस्थाविशेषाणां सहकत्वचा-सदृशच्छवीनां सरशैला-16 वण्यरूपयौवनगुणैरुपपेताना, तत्र लावण्यं-मनोज्ञता रूपम्-आकृतियोवनं-युवता गुणाः-प्रियभाषित्वादयः, तथा प्रसाध-12 नानि च-मण्डनानि अष्टासु चाङ्गेषु अविधववधूभिः-जीवत्पतिकनारीभिर्यदवपदन-प्रोजनकं तच मङ्गलानि च दध्यक्षतादीनि गानविशेषो वा सुजल्पितानि च-आशीर्वचनानीति द्वन्द्वस्तैः करणभूतैरिति, इदं चासै प्रीतिदान दचे स. तद्यथा-अष्टौ हिरण्यकोटीः हिरण्यं च-रूप्यं, एवं सुवर्णकोटी:, शेषं च प्रीतिदानं गाथाऽनुसारेण भणितव्यं यावत्प्रेक्षणकारिकाः गाथाचेह नोपलभ्यन्ते, केवलं ग्रन्थान्तरानुसारेण लिख्यन्ते-"अहिरण्णसुवनय कोडीओ मउडकुंडला हारा । अट्टहार एका-1 वली उ मुत्तावली अट्ट ॥१॥ कणगावलिरयणापलिकडगजुगा तुडियजोयखोमजुगा । वडजुगपहजुगाई दुकूलजुगलाई अद(बग्ग)ह ॥२॥ सिरिहिरिधिइकित्तीउ बुद्धी लच्छी य होंति अट्ठ । नंदा भद्दा य तला झय वय नाडाइं आसेव ॥ ३॥ इत्थी जाणा जुग्गा उ सीया तह संदमाणी गिल्लीओ। थिल्ली वियडजाणा रह गामा दास दासीओ ॥ ४ ॥ किंकरकंचुइ मयहर परिसघरे । तिविह दीव थाले य । पाई थासग पल्लग कतिविय अवएड अवपक्का ॥५॥ पावीढ मिसिय करोडियाओं पल्लंकर य पडिसिजा । हंसाईहिं विसिट्टा आसणभेया उ अहह ॥६॥ हंसे १ इंचे २ गरुडे ३ ओणय ४ पणए ५ यदीह ६ भद्दे ७२ ।। पक्खे ८ मयरे ९ पउमे १० होइ दिसासोत्थिए ११ कारे ॥७॥ तेथे कोहसमुग्गा पचे चोए य तगर एला य । हरियाले 18| हिंगुलए मणोसिला सासव समग्गे ॥८॥ खुज्जा चिलाइ वामणि वहभीओ बव्वरी उ बसिपाओ । जोणिय पढवियाओ इसि ध्रुटसललल ~88~ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१८-२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८-२१] दीप अनुक्रम [२५-३०] ज्ञाताधर्म-णिया घोरुइणिया यशालासिय लउसिय दमिणी सिंहलि तह आरबी पुलिंदी य । पकणि बहणि मुरंढी सबरीओ पारसीओ या उत्क्षिप्तकथाङ्गम् ॥१०॥ छत्तधरी चेडीओ चामरधरतालियंटयधरीओ । सकरोडियाधरीउ खीराती पंच धावीओ ॥११ ।।अटुंगमदियाओ उम्म- ज्ञाते श्रीदिगविगमंडियाओ य । वण्णयचुण्णय पीसिय कीलाकारी य दवगारी ॥१२॥ उच्छाविया उ तह नाडइल्ल कोडूंविणी महाणसिणी। वीरसम॥४३॥ भंडारि अजधारि पुष्कधरी पाणीयधरी या॥१३॥वलकारिय सेज्जाकारियाओं अभंतरी उ बाहिरिया । पडिहारी मालारी पेसणकारीउ वसरणं अट्ट॥१४॥" अत्र चायं पाठक्रमः, खरूपंच-'अट्ट मउडे मउडपबरे अट्ट कुंडले कुंडलजोयप्पवरे, एवमौचित्येनाध्येयं, हारा हारौअष्टादशनवसरिकी एकावली-विचित्रमणिका, मुक्तावली-मुक्ताफलमयी, कनकावली-कनकमाणिकमयी, कटकानि-कलाचिकामरणानि योगो-युगलं तुटिका-माहुरक्षिका क्षौम-कासिक वटकं-बिसरीमयं पट्ट-पट्टसूत्रमयं दुकूल-दुकूलाभिधानवृक्षनिष्पन | बल्क-पक्षवल्कनिष्पनं, श्रीप्रभृतयः षट् देवताप्रतिमाः संभाव्यन्ते, नन्दादीनां लोकतोऽर्थोज्यसेयः, अन्ये साहुः-नंद-वृत्तं लोहासन भर्द्र-शरासन, मूढक इति यत्प्रसिद्धं, 'तल'त्ति-अस्यैवं पाठः, "अट्ठ तले तलप्पवरे सबरयणामए नियगवरभवणकेऊ" वे च तालवृक्षाः संभाच्यन्ते, ध्वजाः-केतवो 'चए'त्ति गोकलानि दशसाहसिकेण गोत्रजेनेत्येवं व्यं 'नाडय'त्ति 'बत्तीसहबद्रेणं नाडगेण मिति दृश्य, द्वात्रिंशबर्द्ध-द्वात्रिंशत्पात्रबद्धमिति व्याख्यातार', 'आसे'ति 'आसे आसप्पवरे सवरयणामए सिरिघरपडिरूवे-श्रीगृहं भाण्डागारं, एवं हस्तिनोऽपि, यानानि-शकटादीनि युग्यानि-गोल्लविषये प्रसिद्धानि जम्पानानिद्विहस्तप्रमा, ॥४३॥ राणानि चतुरस्राणि वेदिकोपशोभितानि शिविकाः कूटाकारणाच्छादिताः सन्दमानिका:-पुरुषप्रमाणायामा जम्पानविशेषा, गिल्लय:-हस्तिन उपरि कोहररूपा मानुष गिलन्तीवेति गिल्लया, लाटानां यानि अइपल्यानानि तान्यन्यविषयेषु बिल्लीओ ~89~ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१८-२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८-२१] दीप अनुक्रम [२५-३०] अभिधीयन्ते, वियडजाणत्ति अनाच्छादितानि वाहनानि रहत्ति-संग्रामिकाः परियानिकाश्चाष्टाष्ट, तत्र संग्रामस्थानां कटीप्रमाणाफलकवेदिका भवन्ति, वाचनान्तरे स्थानन्तरमश्वा हस्तिनश्चाभिधीयन्ते तत्र ते वाहनभूताः ज्ञेयाः, 'गाम'त्ति-दशकुलसाहसिको ग्रामः तिविहदीवत्ति-त्रिविधा दीपाः अवलंबनदीपाः शृङ्गलाबद्धा इत्यर्थः, उत्कम्पनदीपा:-ऊर्ध्वदण्डवन्तः पञ्जरदीपाअभ्रपटलादिपञ्जरयुक्ताः योऽप्येते विविधाः सुवर्णरूप्यतदुभयमयखादिति, एवं स्वालादीनि सौवर्णादिभेदात त्रिविधानि || वाच्यानि, कविका कलाचिका अवएज इति तापिकाहस्तका 'अवपक्कति अवपाक्या तापिकति संभाव्यते, मिसियाओ-R आसनविशेषाः करोटिकाधारिकाः-स्थगिकाधारिकाः द्रवकारिकाः-परिहासकारिकाः, शेष रूढितोऽवसेय, 'अन्नं चेत्यादि, विपुलं-प्रभूतं धनं-गणिमधरिममेयपरिच्छेद्यभेदेन चतुर्विध कनकं च-सुवर्ण रनानि च कर्केतनादीनि स्वस्वजातिप्रधानवस्तूनि । वा मणयश्चन्द्रकान्ताया मौक्तिकानि च शङ्खाश्च प्रतीता एव शिलाप्रवालानि च-विद्रुमाणि अथवा शिलाश्व-राजपट्टा गन्धपेषणशिलाश्च प्रबालानि च-विट्ठमाणि रक्तरत्नानि च-पद्मरागादीनि एतान्येव 'संत'ति सत् विद्यमानं यत्सार-प्रधानं खाप-5 तेय-द्रव्यं तद्दन्तवन्ताविति प्रक्रमः, किंभूतं ?-'अलाहि नि अलं-पर्याप्त परिपूर्ण भवति 'यावति यावत्परिमाणं आसप्तमात् कुललक्षणे वंशे भवः कुलवंश्यस्तस्मात्सप्तमं पुरुष यावदित्यर्थः प्रकामं-अत्यर्थं दातुं-दीनादिभ्यो दाने एवं भोक्तुंखयं भोगे परिभाजयितुं-दायादादीनां परिभाजने तत्परिमाणं दत्तवन्ताविति प्रकृतं, 'उपिति उपरि 'फुहमाणेहिं मुयंगमधएहि' स्फुटद्भिरिवातिरमसाऽऽस्फालनात् मृदङ्गमस्तकैः-मर्दल मुखपुटैः 'रायगिहे नगरे सिंघाडग' इत्यनेनालापका-18 शेनेदं द्रष्टव्यं-'सिंघाडगतिगचउकचञ्चरचउम्मुहमहापहपहेसु' 'महया जणसद्देइ वा' इह यावत्करणादिदं तवयं 'जणसमूहई था|8 ~ 90 ~ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्क न्धः [१] ------------------ अध्य यन [१], ----------------- - मूलं [१८-२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: कथाक्रम. प्रत सूत्रांक [१८-२१] पाज णबोलेइ वा जणकलकलेह वा जणुम्मीइ वा जणुकलियाइ वा जणसनिवाएइ वा बहुजनो अन्नमवस्स एवमाइक्खइ एवं शिक्ष पनवेइ एवं भासइ एवं परूवेइ-एवं खलु देवाणुप्पिया! समणे ३ आइगरे तित्थगरे जाव संपाविउकामे पुवाणुशुचि चरमाणे | ज्ञाते श्री गामाणुगामं दूइजमाणे इहमागए इह संपत्ते इह समोसढे इहेव रायगिहे नगरे गुणसिलए चेइए अहापडिरूवं उग्महं उग्गि-18 वीरसम॥४४॥ हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरह-तं महाफलं खलु भो देवाणुप्पिया! तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं नाम-18वसरणं |गोयस्सपि सवणयाए किमंग पुण अभिगमणवंदणणमंसणपडिपुच्छणपत्रुवासणयाए, एगस्सपि आयरियस्स धम्मियस्सीस.२१ सुवयणस्स सवणयाए किमंग पुण विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए, तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया! समर्ण भगवं महावीरं वंदामो नमसामो सकारेमो सम्माणेमो कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जवासामो एवं नो पेञ्चमवे हियाए सुहाए खमाए निस्सेसाए। अणुवामित्ताए भविस्सइत्तिककुत्ति 'बहवे उग्गा' इह यावत्करणादिदं द्रष्टव्यं-उग्ग'चा भोगा भोगपुत्ता एवं राइना खत्तिया माहणा भडा जोहा मल्लई लेच्छाई अमेय बहवे राईसरतलवरमाडबियकोईवियइब्भसेडिसेणावहसत्यवाहप्पभियजओ अप्पेगइया NI बंदणवत्तियं अप्पेगइया पूयणवत्तिय एवं सकारवचियं सम्माणवत्तियं कोउहल्लवत्तिय असुयाई सुणिस्सामो सुबाई निस्संकियाई। करिस्सामो अप्पे० मुंडे भविता आगाराओ अणगारियं पवइस्सामो अप्पे० पंचाणुबइयं सत्चसिक्खावइयं दुवालसषिदं गिदिधम्म पडिबज्जिस्सामो अप्पेगइया जिणभत्तिरागेणं अपेगइया जीयमेयंतिकट्ठ ण्हाया कयबलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छिता सिरसाकंठेमालकडा आविद्धमणिसुवन्ना कप्पियहारहारतिसरयपालंबपलंचमाणकडिसुत्तयमुकयसोभाभरणा पवरवत्थपरिहिया चंदणीबलिचगायसरीरा अप्पेगइया हयगया एवं गयरहसिवियासंदमाणिगया अप्पेगइया पायविहारचारिणो पूरिसवग्गुरापरिखिचा 8380902 दीप अनुक्रम [२५-३०] For P OW ~91~ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१८-२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८-२१] दीप अनुक्रम [२५-३०] महया उकिडिसीहणायबोलकलकलरवेणं समुदरवभूयंपिव करेमाणा रायगिहस्स नगरस्स मज्झमझेण ति अस्थायमर्थः-शाटिकादिषु यत्र महाजनशब्दादयः तत्र बहुजनोऽन्योऽन्यमेवमाख्यातीति वाक्यार्थः, 'महया जणसदेह व'त्ति महान् जनशब्द:| परस्परालापादिरूपः इकारोवाक्यालङ्कारार्थ वाशब्द: पदान्तरापेक्षया समुच्चयार्थः अथवा सद्देइ वत्ति इह संधिप्रयोगादितिशब्दो| | द्रष्टव्यः, स चोपप्रदर्शने, यत्र महान् जनशब्द इति वा, यत्र जनव्यूह इति वा तत्समुदाय इत्यर्थः, जनबोला-अव्यक्तवर्णो | धनिः कलकल:-स एवोपलभ्यमानवचनविभागः उम्मिा -संबाधः एवमुत्कलिका-लघुतरः समुदाय एवं समिपातः-अपरापरस्थानेभ्यो जनानामेकत्र मीलनं तत्र, बहुजनोऽन्योऽन्यस्याख्याति सामान्येन प्रज्ञापयति विशेषेण, एतदेवार्थद्वयं पदद्वयेनाहभाषते प्ररूपयति चेति, अथवा आख्याति सामान्यतः प्रज्ञापयति विशेषतो बोधयति वा भाषते व्यक्तपर्यायवचनतः प्ररूपयति उपपत्तितः 'इह आगए'ति राजगृहे 'इह संपत्ते'त्ति गुणशिलके 'इह समोसढे'ति साधूचितावग्रहे । एतदेवाह'इहेष रायगिहें इत्यादि 'अहापडिरूब'ति यथाप्रतिरूपमुचितं इत्यर्थः, ''मिति तसात् 'महाफलं'ति महत्कलं-अर्थों | भवतीति गम्यं, 'तहारूयाण'ति तत्प्रकारस्वभावानां महाफलजननस्वभावानामित्यर्थः, 'नामगोयस्स'ति नानो-K यादृच्छिकस्याभिधानकस्य गोत्रस-गुणनिष्पन्नस्य 'सवणयाए'चि श्रवणेन 'किमङ्ग पुण'ति किमङ्ग पुनरिति पूर्वो-11 कार्थस्य विशेषद्योतनार्थः अङ्गत्यामत्रणे अथवा परिपूर्ण एवायं शब्दो विशेषणार्थ इति, अभिगमनं-अभिमुखगम वन्दनं-18 स्तुतिः नमस्सन-प्रणमनं प्रतिप्रच्छनं-शरीरादिवार्ताप्रश्नः पर्युपासनं-सेवा एतद्भावस्तत्ता तया, तथा एकस्याप्यायस्य आयेप्रणे-18 तकखात् धार्मिकस्य-धर्मप्रतिबद्धतात् चन्दामोचि-स्तुमो नमस्यामः-प्रणमामः सत्कारयामः-आदरं कुर्मो बनायचेनं ~ 92 ~ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१८-२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८-२१] दीप अनुक्रम [२५-३०] ज्ञाताधर्म-18 |वा सन्मानयामः-उचितप्रतिपत्तिभिः कल्याण-कल्याणहेतुं मङ्गल-दुरितोपशमहेतु दैवत-दैवं चैत्यमिव चैत्यं पर्युपासयामः- उत्क्षिप्तकथानम् सेवामहे, एतत् णो-अस्माकं प्रेत्यभये-जन्मान्तरे हिताय पथ्यानवत् सुखाय-शर्मणे क्षमाय-संगतखाय निःश्रेयसाय मोक्षाय जाते श्रीआनुगामिकखाय-भवपरम्परासुखानुबन्धि सुखाय भविष्यतीतिकखा-इतिहेतोबहव उग्रा-आदिदेवावस्थापितारक्षवंशजाः उग्रपु वीरसम॥४५॥NI त्रा:-त एव कुमाराद्यवस्था एवं भोगा:-आदिदेवेनैवावस्थापितगुरुवंशजावा: राजन्या-भगवद्वयस्यवंशजाः क्षत्रियाः-12वसरण सामान्यराजकुलीनाः भटाः-शौर्यवन्तो योधाः--तेभ्यो विशिष्टतरा मल्लकिनो लेच्छकिनश्च राजविशेषाः, यथा श्रूयन्ते सू. २१ चेटकराजस्थाष्टादश गणराजानी नव मल्लकिनो नवलेच्छकिन इति, लेच्छइत्ति कचिद्वणिजी व्याख्याताः लिप्सव इति। संस्कारेणेति, राजेश्वरादयः प्राग्वद्, 'अप्पेगइय'त्ति अप्येके केचन 'वंदणवत्तियति चन्दनप्रत्ययं वन्दनहेतोः शिरसा कण्ठे च कृता-धृता माला यैस्ते शिरसाकण्ठेमालाकृताः कल्पितानि हारार्द्धहारत्रिसरकाणि प्रालम्बध-प्रलम्बमानः कटिसूत्रकं च येषां ते तथा, तथाऽन्यान्यपि सुकृतशोभान्याभरणानि येषां ते तथा, ततः कर्मधारयः, चन्दनाबलिप्तानि गात्राणि यत्र ततधाविधं शरीरं येषां ते तथा, पुरिसबग्गुरत्ति-पुरुषाणां वागुरेख वागुरा-परिकर च महया-महता उत्कृष्टिश्च-आनन्दमहाध्वनिः गम्भीरध्वनिः सिंहनादच बोलच-वर्णव्यक्तिवर्जितो ध्वनिरेव कलकलच-व्यक्तवचनः स एव एतल्लक्षणो यो रखस्तेन समुद्रवभूतमिव-जलधिशब्दप्राप्तमिव तन्मयमिवेत्यर्थो नगरमिति गम्यते फुर्वाणाः 'एगदिसि'ति एकया दिशा ॥ ४५ ॥ पूर्वोत्तरलक्षणया एकाभिमुखा-एक भगवन्तं अभि मुखं येषां ते एकाभिमुखा निर्गच्छन्ति, 'इमं च णं'ति इतश्च 'राय-18 | मन्गं च ओलोएमाणे एवं च णं विहरह, तते णं से मेहे कुमारे ते बहवे उग्गे जाव एगदिसाभिमुहे निग्गच्छ ~93~ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक | [१८-२१] दीप अनुक्रम [२५-३०] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१] अध्ययनं [१], मूलं [१८-२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः माणे पासह पासिता इत्यादि स्फुटं, इन्द्रमहः - इन्द्रोत्सवः एवमन्यान्यपि पदानि, नवरं स्कन्दः - कार्त्तिकेयः रुद्रः प्रतीतः शिवो-महादेवः वैश्रमणो- यक्षराष्ट्र नागो-भवनपतिविशेषः यक्षो भूतश्च व्यन्तरविशेषौ चैत्यं सामान्येन प्रतिमा पर्वतः प्रतीत उद्यानयात्रा- उद्यानगमनं गिरियात्रा - गिरिगमनं 'गहियागमणपवित्तिए'त्ति परिगृहीतागमनप्रवृत्तिको गृहीतवार्त्त इत्यर्थः तणं से मे कंचुइज्जपुरिसस्स अंतिए एतमहं सोचा णिसम्म हहतुट्ठे कोडुंबियपुरिसे सहावेति २ एवं वदासी - खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! चाउरघंटं आसरहं जुत्तामेव उवहवेह, तहत्ति उवर्णेति, तते णं से मेहे हाते जाव सव्वालंकारविभूसिए चाउरघंट आसरहं दूरूढे समाणे सकोरंटमल्लदामेण छत्तेणं धरिजमाणं महया भडचडगरविंद परियाल संपरिवुडे रायगिहस्स नगरस्स मज्जनं मज्मेणं निग्गच्छति २ जेणामेव गुणसिलए चेतिए तेणामेव उवागच्छति २ त्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स छसातिछतं पडागातिपडागं विज्जाहरचारणे जंभए य देवे ओवयमाणे उप्पयमाणे पासति पासित्ता चाउरघंटाओ आसरहाओ पचोरुहति २ समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छति, तंजहा सचित्ताणं दव्वाणं विसरणयाए अचित्ताणं दव्वाणं अविउसरणयाए एगसाडियउत्तरासंगकरणेणं चक्ष्फासे अंजलिपगणं मणसो एत्तीकरणेणं, जेणामेव समणे भ० महावीरे तेणामेव उवागच्छति २ समणं ३ तिक्खुतो आदाहिणं पदाहिणं करेति २ वंदति णमंसइ २ समणस्स ३ णञ्चासने नातिदूरे सुस्समाणे नर्मसमाणे अंजलियउडे अभिमुहे विणएणं पज्जुवासति, तए णं समणे ३ मेहकुमारस्स तीसे य महतिमहा Eratin Internation For Parts Only ~94~ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [२२] दीप अनुक्रम [... ३०] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [१], श्रुतस्कन्ध: [१] मूलं [२२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥ ४६ ॥ लियाए परिसाए मजझगए विचित्तं धम्ममातिक्खति जहा जीवा बसंति मुचंति जह य संकिलिस्संति धम्मका भाणियव्वा जाव परिसा पडिगया ( सू २२ ) 'ersic आसरहं'ति चतस्रो घण्टा अवलम्बमाना यस्मिन् स तथा अश्वप्रधानो रथोऽश्वरथः, युक्तमेव अश्वादिभिरिति, 'दूरूढे 'ति आरूढः 'महया इत्यादि महद् यत् भटानां चटकरं वृन्दं विस्तारवत्समूहस्तल्लक्षणो यः परिवारस्तेन संपरिवृतो यः स तथा । जृम्भकदेवास्तिर्यगूलोकचारिणः 'ओवयमाणे ति अवपततो- व्योमाङ्गणादवतरतः 'उप्पयंते' चि भूतलादुत्पततो दृष्ट्वा 'सचिते'त्यादि सचितानां द्रव्याणां पुष्पताम्बूलादीनां 'विउसरणयाए'ति व्यवसरणेन व्युत्सर्जनेनाचितानां द्रव्याणामलङ्कारवस्त्रादीनामव्यवसरणेन - अव्युत्सर्जनेन, कचिद्वियोसरणयेति पाठः, तत्र अचेतनद्रव्याणां छत्रादीनां व्युत्सर्जनेन - परि हारेण, उक्तं च- 'अवणेइ पंच ककुहाणि रायवरवसमधिभूयाणि । छत्तं खग्गोवाहण मउडं तह चामराओ य ॥ १ ॥ सि एका शाटिका यस्मिंस्तत्तथा तच तदुत्तरासङ्गकरणं च उत्तरीयस्य न्यासविशेषस्तेन, चक्षुःस्पर्शे-दर्शने अञ्जलिप्रग्रहेण - हस्तजो|टनेन मनस एकलकरणेन एकाग्रत्रविधानेनेति भावः कचिदेगसभावेति पाठः, अभिगच्छतीति प्रक्रमः 'महइमहालया 'ति महातिमहत्याः धर्म- श्रुतचारित्रात्मकं आख्याति, स च यथा जीवा बध्यन्ते कर्मभिः मिथ्यालादिहेतुभिर्यथा मुच्यन्ते तैरेव ज्ञानाद्यासेवनतः यथा संक्लिश्यन्ते अशुभपरिणामा भवन्ति तथा आख्यातीति इहावसरे धर्म्मकथा उपपातिकोक्ता भणितथ्या, अत्र च बहुर्व्रन्थ इति न लिखितः । तते णं से मेहे कुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिर धम्मं सोना णिसम्म हट्टतुट्ठे समणं भगवं Eucation International For Parts Only ~ 95~ १ उत्क्षिप्त ज्ञाते मे घकुमारप्रतिबोध: सु. २२ ॥ ४६ ॥ waryra Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ---------------- मूलं [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३] दीप महावीरं तिक्खुत्तो आदाहिणं पदाहिणं करेति २ वंदति नमसइ २एवं वदासी-सहामि गं भंते ! जिग्गंध पावयणं एवं पत्तियामि णं रोएमि णं अन्भुमि भंते ! निग्गथं पावयणं एवमेयं भंते ! तहमेयं अवितहमेयं इकिछतमेयं पडिच्छियमेयं भंते ! इच्छितपडिच्छियमेयं भंते ! से जहेव तं तुम्मे वदह जं नवरं देवाणुप्पिया ! अम्मापियरो आपुच्छामि तओ पच्छा मुंडे भवित्ता णं पधइस्सामि, अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह, तते णं से मेहे कुमारे समणं ३ वंदति नमसति २ जेणामेव चाउग्घंटे आसरहे तेणामेष उवागच्छति २त्ता चाउरघंटं आसरह दूरूहति २ महया भडचडगरपहकरेणं रायगिहस्स नगरस्स मज्जमशेणं जेणामेव सए भवणे तेणामेव उवागच्छति २त्ता चाउग्घंटाओ आसरहाओ पचोरूहति २ जेणामेव अम्मापियरो तेणामेव उवागच्छति २त्सा अम्मापिऊणं पायवडणं करेति २एवं वदासी-एवं खलु अम्मयाओ! मए समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतिए धम्मे णिसंते सेवि य मे धम्मे इच्छिते पडिच्छिते अभिहए, तते णं तस्स मेहस्स अम्मापिपरो एवं वदासी-धन्नेसि तुमं जाया! संपुत्रो० कयत्थो० कयलक्खणोऽसि तुम जापा! जन्नं तुमे समणस्स ३ अंतिए धम्मे णिसंते सेषि यते धम्मे इच्छिते परिच्छिते अभिरुइए, तते णं से मेहे कुमारे अम्मापियरो दोचंपि तचंपि एवं बदासीएवं खलु अम्मयातो !मए समणस्स ३ अंतिए धम्मे निसंते सेवि य मे धम्मे० इच्छियपडिच्छिए अमिरुइए तं इच्छामि णं अम्मयाओ! तुम्भेहिं अन्भणुनाए समाणे समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतिए अनुक्रम [३१] For P OW ~96~ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्. प्रत सूत्रांक [२३] ॥४७॥ दीप मुंडे भवित्ताणं आगारातो अणगारियं पञ्चइत्तए, तते णं सा धारिणी देवी तमणिटुं अकंतं अप्पियं अम- उत्क्षिप्तगुन्नं अमणामं असुयपुर्व फरुसं गिरं सोचा णिसम्म इमेणं एतारूवेणं मणोमाणसिएणं महया-पुसदुक्खणं ज्ञाते दीअभिभूता समाणी सेयागयरोमकूयपगलंतविलीणगाया सोयभरपवेवियंगी णित्तेया दीणविमणवयणा भानुमति याचना करयलमलियत्व कमलमाला तक्खणउलुगदुव्यलसरीरा लावन्नसुन्ननिच्छायगयसिरीया पसिढिलभूसणपड़तखुम्मियसंचुनियधवलवलयपन्भट्ठउत्तरिजा सूमालविकिन्नकेसहत्था मुच्छावसणट्ठचेयगरुई परसुनियत्तव चंपकलया निवत्तमहिमच इंदलही विमुक्कसंधिबंधणा कोहिमतलंसि सवंगेहि धसत्ति पडिया, ततेणं सा धारिणी देवी ससंभमोवत्तियाए तुरियं कंचणभिंगारमुहविणिग्गयसीयलजलविमलधाराए परिसिंचमाणा निधावियगायलट्ठी उक्खेवणतालबंटवीयणगजणियवाएणं सफुसिएणं अंतउरपरिजणेणं आसासिया समाणी मुत्तावलिसन्निगासपवडतअंसुधाराहिं सिंचमाणी पओहरे कलुणधिमणदीणा रोयमाणी कंदमाणी तिप्पमाणी सोयमाणी विलवमाणी मेहं कुमार एवं वयासी-(सूत्रं २३) 'सदहामी'त्यादि, श्रद्दधे-अस्तीत्येवं प्रतिपये नैर्ग्रन्थं प्रवचनं-जैन शासनं, एवं 'पत्तियामिति प्रत्ययं करोम्पत्रेति भावः, ॥४७॥ रोचयामि-करणरुचिविषयीकरोमि चिकीर्षामीत्यर्थः, किमुक्तं भवति ?-अभ्युत्तिष्ठामि अभ्युपगपछामीत्यर्थः, तथा एवमेवैतव यद्भवद्भिः प्रतिपादितं तत्तथैवेत्यर्थः, तथैव तद्यथा वस्तु, किमुक्तं भवति :-अवितर्थ सत्यमित्यर्थः, अत 'इच्छिए'इत्यादि प्राग्वत् । अनुक्रम [३१] ~97~ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [२३] दीप अनुक्रम [३१] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [२३] श्रुतस्कन्ध: [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः 'इच्छिए'ति इष्टः, 'पडिच्छिए 'ति पुनः पुनरिष्टः भावतो वा प्रतिपन्नः अभिरुचितः खादुभावमिवोपगतः 'आगाराओ' ति गेहात् निष्कम्यानगारितां साधुतां प्रव्रजितुं मे, 'मणोमाणसिएणं ति मनसि भवं यन्मानसिकं तन्मनोमानसिकं तेन अबहिवृत्तिनेत्यर्थः, तथा स्वेदागताः- आगतस्वेदा रोमकूपा येषु तानि स्वेदागतरोमकूपाणि तत एव प्रगलन्ति-क्षरन्ति विलीनानि चविनानि गात्राणि यस्याः सा तथा शोकभरेण प्रवेपिताङ्गी - कम्पितगात्रा या सा तथा, निस्तेजा, दीनस्येव - विमनस इव वदनं वचनं वा यस्याः सा तथा तत्क्षणमेव प्रव्रजामीति वचनश्रवणक्षणे एव अवरुग्णं म्लानं दुर्बलं च शरीरं यस्याः सा तथा, लावण्येन शून्या लावण्यशून्या निश्छाया - गतश्रीका व या सा तथेति, पदचतुष्टयस्य कर्मधारयः, दुर्बलत्वात् प्रशिथिलानि भूषणानि यस्याः सा तथा, कृशीभूतबाहुत्वात्पतन्ति - विगलन्ति खुम्मियन्ति-भूमिपतनात् प्रदेशान्तरेषु नमितानि चूर्णितानि च-भूपातादेव भग्नानि धवलवलयानि यस्याः सा तथा प्रभ्रष्टमुत्तरीयं च यस्याः सा तथा ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः, सुकुमारो | विकीर्णः केशहस्तः- केशपाशो यस्याः सा तथा सूर्च्छाविशानष्टे चेतसि सति गुर्वी - अलघुशरीरा या सा तथा, परशुनिकृत्तेव | चम्पकलता कुट्टिमतले पतितेति संबन्धः, निवृत्तमहेवेन्द्रयष्टिः- इन्द्रकेतुर्वियुक्त सन्धिबन्धना-लथीकृतसन्धाना घसतीत्यनुकरणे ससंभ्रमं व्याकुलचित्ततया 'उवतियाए 'ति अपवर्त्तितया क्षिप्तया त्वरितं शीघ्रं काश्वनभृङ्गारमुखविनिर्गता या शीतलजलविमलधारा तया परिषिच्यमाना निर्वापिता शीतलीकृता गात्रयष्टिर्यस्याः सा परिषिच्यमाननिर्वापितगात्रयष्टिः, उत्क्षेपकोवंशदलादिमयो मुष्टिग्राह्यो दण्डमध्यभागः तालवृन्तं तालाभिधानवृक्षपत्रवृन्तं पत्तछोट इत्यर्थः, तदाकारं वा धर्ममयं वीजनकं तु-वंशादिमयमेवान्तर्ब्राह्मदण्डं एतैर्जनितो यो वातस्तेन 'सफुसिएणं' सोदकबिन्दुना अन्तःपुरजनेन समाश्वासिता सती मुक्ता Education Internation For PalPrsata Use Only ~98~ waryra Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [२३] दीप अनुक्रम [३१] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [१], श्रुतस्कन्ध: [१] मूलं [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. वलीसनिकाशा याः प्रपतन्त्योऽश्रुधारास्ताभिः सिञ्चन्ती पयोधरौ, करुणा च विमनाथ दीना च या सा तथा रुदन्ती-साधुपातं शब्दं विदधाना ऋदन्ती ध्वनिविशेषेण तेपमाना - स्वेदलालादि क्षरन्ती शोचमाना हृदयेन विलपन्ती-आर्सखरेण । तुमंसि णं जाया ! अम्हं एगे पुत्ते इट्ठे कंते पिए मणुन्ने मणामे भेजे वेसासिए सम्म बहुमए अणुमए भंडकरंडगसमाणे रयणे रगणभूते जीवियउस्सासय हिययाणंदजणणे उंवरपुष्कं व दुल्लभे सवणयाए किमंग पुणे पासणयाए ! णो खलु जाया । अम्हे इच्छामो खणमवि विप्पओगं सहितते तं भुंजाहि ताव जाया ! विपुले. माणुस्सएकामभोगे जाव ताव वयं जीवामो तओ पच्छा अम्हेहिं कालगतेहिं परिणयवए कुलवंतंतुकमि निरावयक्खे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए मुंडे भवित्ता आगारातो अणगारयं पद्मइस्ससि । तते णं से मेहे कुमारे अम्मापिऊहिं एवं कुत्ते समाणे अम्मापियरो एवं बदासीतहेब णं तं अम्मतायो । जहेब णं तुम्हे ममं एवं वदह तुमंसि णं जाया । अम्हं एगे पुते तं चैव जाब निरावयक्खे समणस्स ३ जाब पवइस्ससि, एवं खलु अम्मयाओ ! माणुस्सए भवे अधुवे अणियए असासए वसणसवहवाभिभूते विज्जुलयाचंचले अणिचे जलबुब्बुयसमाणे कुसग्गजलबिंदुसन्निभे संभरागसरिसे सुविणदंसणोवमे सडणपडणविद्धंसणधम्मे पच्छा पुरं च णं अवस्स विष्पजहणिजे से केणं जाणति अम्मयाओ के पुर्वि गमणाए के पच्छा गमणाए ?, तं इच्छामि णं अम्मयाओ ! तुब्भेहिं अन्भणुनाते समाणे समणस्स भगवतो० जाव पञ्चतित्तर, तते णं तं मेहं कुमारं अम्मापियरो Education Internation दीक्षा सम्बन्धे मेघकुमारेण सह तस्य माता- पितरः संवादः For Pass Use Only ~99~ १ उत्क्षिप्तज्ञाते दीक्षायां मातापितृरोधः सू. २४ ॥ ४८ ॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२३-R] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४] ea0ese980edeas दीप अनुक्रम एवं वदासी-जमातो ते जाया 1 सरिसियाओ सरिसत्सयाओ सरिसवपाओ सरिसलावन्नरूवजोधणगुणोवयाओ सरिसेहितो रायकुलहितो आणियल्लियाओ भारियाओ, तं भुजाहि गं जाया! एताहिं सद्धिं विपुले माणुस्सए कामभोगे तओ पच्छा भुत्तभोगे समणस्स ३ जाव पवइस्ससि, तते णं से मेहे कुमारे अम्मापितरं एवं वदासी-तहेव णं अम्मयाओ! जन्नं तुम्भे ममं एवं वदह-इमाओतेजाया! सरिसियाओ जाव समणस्स ३ पवइस्ससि, एवं खलु अम्मयाओ! माणुस्सगा कामभोगा असुई असासया चंतासवा पित्तासवा खेलासवा सुकासवा सोणियासवा दुरुस्सासनीसासा नुरूपमुत्तपुरिसपूयबहुपडिपुन्ना उच्चारपासवणखेलजल्लसिंघाणगवंतपित्तमुक्कसोणितसंभवा अधुवा अणितिया असासया सडणपडणविद्धंसणधम्मा पच्छा पुरं च णं अवस्सविप्पजहणिज्जा, से के णं अम्मयाओ! जाणंति के पुर्वि गमणाए के पच्छा गमणाए?, तं इच्छामि णं अम्मयाओ! जाच पचतित्तए । तते णं तं मेहं कुमार अम्मापितरो एवं वदासी-इमे ते जाया! अज्जयपज्जयपिउपज्जयागए सुबहु हिरने य सुवणे य कंसे य दूसे य मणिमोत्तिए य संखसिलप्पवालरत्तरयणसंतसारसावतिजे य अलाहि जाव आसत्तमाओ कुलवंसाओ पगामं दाउं पगामं भोतुं पकामं परिभाएउ तं अणुहोहि ताव जाब जाया! विपुलं माणुस्सगं इहिसकारसमुदयं तओ पच्छा अणुभूयकल्लाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए पक्षइस्ससि,तते णं से मेहे कुमारे अम्मापियरं एवं वदासी-तहेव णं अम्मयाओ! जणं तं वदह इमे ते जाया! [३२] दीक्षा-सम्बन्धे मेघकुमारेण सह तस्य माता-पितरः संवादः **अत्र शीर्षक-स्थाने सू.२४ मुद्रितं तत् सत्यम्, परन्तु सूत्रान्ते मुद्रण-दोषात् अस्य सूत्रस्य क्रम २३ मुद्रितं. तत् कारणात् मया २३R निर्दिष्टम् ~ 100~ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ------------------ मूलं [२३-R] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. प्रत सूत्रांक [२४] उक्षिप्त ज्ञाते दीक्षायां मातापितृ| रोधः ॥४९॥ सू. २४ दीप अनुक्रम अजगपज्जगपि० जाव तओ पच्छा अणुभूयकल्लाणे पवइस्ससि, एवं खलु अम्मयाओ! हिरन्ने य सुवण्णे य जाव सावतेने अग्गिसाहिए चोरसाहिए रायसाहिए दाइयसाहिए मजुसाहिए अग्गिसामन्ने जाव मधुसामने सडणपडणविद्धंसणधम्मे पच्छा पुरं च णं अवस्सविप्पजहणिज्जे से के णं जाणइ अम्मयाओ! के जाव गमणाए तं इच्छामि णं जाव पचतित्तए । तते णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो जाहे नो संचाएइ मेहं कुमारं बहहिं बिसयाणुलोमाहिं आघवणाहि य पन्नवणाहि य सन्नवणाहि य विनवणाहि य आघवित्तए वा पन्नवित्तए वा सनवित्तए वा विनवित्तए वा ताहे विसयपडिकुलाहिं सं. जमभउबेयकारियाहिं पन्नवणाहिं पन्नवेमाणा एवं वदासी-एस णं जाया! निग्गंथे पावयणे सये अणुत्तरे केवलिए पडिपुन्ने णेयाउए संसुद्धे सल्लगत्तणे सिद्धिमग्गे मुत्सिमग्गे निजाणमग्गे निवाणमग्गे सबदुक्खप्पहीणमग्गे अहीव एगंतदिट्ठीए खुरो इव एर्गतधाराए लोहमया इव जवा चावेयवा वालुयाकवले इव निरस्साए गंगा इव महानदी पडिसोयगमणाए महासमुद्दो इव भुयाहि दुत्तरे तिक्खं चंकमियत्वं गरुअं लंबेयचं असिधारव संचरियर्ष, णो य खलु कप्पतिं जाया! समणाणं निग्गंथाणं आहाकम्मिए वा उद्देसिए वा कीयगडे वा ठवियए वा रइयए वा दुम्भिक्खभत्ते वा कतारभत्ते वा वद्दलियाभत्ते वा गिलाणभत्ते चा मूलभोयणे वा कंदभोयणे वा फलभोयणे वा बीयभोयणे वा हरियभोयणे वा भोत्तए वा पायए चा, तुमं च णं जाया! सुहसमुचिए णो चेव णं दुहसमुचिए गालं सीयं णालं उण्हं णालं [३२] ॥४९॥ दीक्षा-सम्बन्धे मेघकुमारेण सह तस्य माता-पितरः संवादः **अत्र शीर्षक-स्थाने सू.२४ मुद्रितं तत् सत्यम्, परन्तु सूत्रान्ते मुद्रण-दोषात् अस्य सूत्रस्य क्रम २३ मुद्रितं. तत् कारणात् मया २३R निर्दिष्टम् ~ 101~ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२३-R] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३-R] दीप अनुक्रम [३२] खुहं णालं पिवासं णालं वाइयपित्तियसिभियसन्निवाइयविविहे रोगायके उच्चावए गामकंटए बावीसं परीसहोवसग्गे उदिने सम्मं अहियासित्तए, मुंजाहि ताव जाया! माणुस्सए कामभोगे ततो पच्छा भुत्तभोगी समणस्स ३ जाव पबतिस्ससि, तते णं से मेहे कुमारे अम्मापिऊहिं एवं वुत्ते समाणे अम्मापितरं एवं वदासी-तहेव णं तं अम्मयाओ! जन्नं तुम्भे ममं एवं वदह एस णं जाया! निग्गंथे पावयणे सचे अणुत्तरे पुणरवि तं चेव जाव तओ पच्छा भुत्तभोगी समणस्स ३ जाव पञ्चइस्ससि, एवं खलु अम्मयाओ! णिग्गंथे पावयणे कीवाणं कायराणं कापुरिसाणं इहलोगपडिबद्धाणं परलोगनिप्पिवासाणं दुरणुचरे पाययजणस्स णो चेव णं धीरस्स निच्छियस्स (च्छया) ववसियस्स एत्थं किं दुकर करणयाए ?, तं इच्छामि गं अम्मयाओ! तुन्भेहिं अन्भणुन्नाए समाणे समणस्स भगवओ० जाव पवइत्तए (सूत्रं २३) 'जाय'ति हे पुत्र! इष्टः इच्छाविषयखात् कान्तः कमनीयत्वात् प्रियः प्रेमनिवन्धनखात् मनसा ज्ञायसे उपादेयतयेति मनोज्ञः मनसा अम्यसे-गम्यसे इति मनोऽमः, खैर्य गुणयोगात स्थैर्यो वैश्वासिको-विश्वासस्थानं संमतः कार्यकरणे बहुमतः बहुष्वपि कार्येषु बहुर्याऽनल्पतयाऽस्तोकतया मतो बहुमतः, कार्यविधानस्य पश्चादपि मतोऽनुमतः, 'भाण्डकरण्डकसमानो' भाण्डं-आभरणं, | रत्नमिव रतं मनुष्यजातावुत्कृष्टलात् रजनो वा रञ्जक इत्यर्थः रत्नभूतः-चिन्तामणिरत्नादिकल्पो जीवितमस्साकमुच्छासयसि-वर्द्धयसीति जीवितोच्छासः स एव जीवितोच्छासिकः, वाचनान्तरे तु जीविउस्सइएत्ति-जीवितस्योत्सव इव जीवितोत्सवः स एवं जीवितोत्सविकः, हृदयानन्दजननः उदुम्बरपुष्पं बलभ्यं भवति अतस्तेनोपमान, 'जाव ताव अम्हेहिं जीवामो'त्ति इह भुज ताव Eefactoresaerateल्या दीक्षा-सम्बन्धे मेघकुमारेण सह तस्य माता-पितरः संवादः **अत्र शीर्षक-स्थाने सू.२४ मुद्रितं तत् सत्यम्, परन्तु सूत्रान्ते मुद्रण-दोषात् अस्य सूत्रस्य क्रम २३ मुद्रितं. तत् कारणात् मया २३R निर्दिष्टम् ~ 102~ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ------------------ मूलं [२३-R] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म ताधर्म- कथाङ्गम्. प्रत सूत्रांक [२३-R] ॥५०॥ दीप अनुक्रम [३२] भोगान् यावद्वयं जीवाम इत्येतावतैव विवक्षितसिद्धौ यत्पुनः तावत्शब्दस्योचारणं तद्भाषामात्रमेवेति, परिणतवया 'बलियकुल-18|| उत्क्षिप्त| वंसतंतुकज्जमि' वर्द्धिते वृद्धिमुपागते पुत्रपौत्रादिभिः कुलवंश एव-संतान एव तंतुः दीर्घखसाधर्म्यात् कुलवंशतन्तुः स एव 8 कार्य-कृत्यं तस्मिन्, ततो 'निरवएक्खे'त्ति निरपेक्षः सकलप्रयोजनानां 'अधुवेति न ध्रुवः सूर्योदयवत् न प्रतिनियतकाले क्षायां माअवश्यंभावी, अनियतः ईश्वरादेरपि दरिद्रादिभावात् , अशाश्वतःक्षणविनश्वरखाद् व्यसनानि-यूतचौर्यादीनि तच्छतैरुपद्रवैः खप- तापितरसंभवैः सदोपद्रवैर्वाऽभिभूतो-व्याप्तः, शटन-कुष्ठादिना अगुल्यादेः पतनं-बाहादेः खड्गच्छेदादिना विध्वंसनं-क्षयः एते एवरोधः धमा यस्य स तथा, पश्चात-विवक्षितकालात्परतः 'पुरं चति पूर्वतश्च णमलंकृतौ 'अवस्सविप्पजहणिज्जे' अवश्यत्याज्यः । 'से के णं जाणइति अथ को जानाति , न कोऽपीत्यर्थः, अंबतातक! पूर्व-पित्रोः पुत्रस्य चान्योऽन्यतः गमनाय परलोके । उत्सहते कः पवाद्गमनाय तत्रैवोत्सहते इति, कः पूर्व को वा पश्चात्मियते इत्यर्थः । वाचनान्तरे मेघकुमारभार्यावर्णक एवमु-II पलभ्यते 'इमाओ ते जायाओ विपुलकुलबालियाओ कलाकुसलसवकाललालियसुहोइयाओ मद्दवगुणजुचनिउणविणओवयारपंडियवियक्खणाओ' पण्डिताना मध्ये विचक्षणाः पण्डितविचक्षणा अतिपण्डिता इत्यर्थः 'मंजुलमियमहुरभणियहसिय-18 विप्पेक्खियगइविलासवद्वियविसारयाओ मचुलं-कोमलं शब्दतः मितं-परिमितं मधुरं--अकठोरमर्थतो यद्रणितं तत्तथाऽवथितं-विशिष्टस्थितिशेष कण्ठयं 'अविकलकुलसीलसालिणीओ विसुद्धकुलबंससंताणतंतुषद्धणपगम्भुम्भवप्पभाविणीओ'-विशु-II कुलवंश एवं सन्तानतन्तु:-विस्तारवत्चन्तुः तद्वर्द्धना ये प्रकृष्टा गर्भाः-पुत्रवरगर्भास्तेषां य उद्भवः-संभवस्तल्लक्षणो यः प्रभावो-माहात्म्यं स विद्यते यास ताः तथा 'मणोणुकूलहिययइच्छियायो'-मनोऽनुकूलाब ता हृदयेनेप्सितावेति कर्मधारयः दीक्षा-सम्बन्धे मेघकुमारेण सह तस्य माता-पितरः संवादः **अत्र शीर्षक-स्थाने सू.२४ मुद्रितं तत् सत्यम्, परन्तु सूत्रान्ते मुद्रण-दोषात् अस्य सूत्रस्य क्रम २३ मुद्रितं. तत् कारणात् मया २३R निर्दिष्टम् ~ 103~ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२३-R] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३-R] अट्ठ तुज्झगुणवल्लहाओ-गुणैवल्लभा यास्तास्तथा 'भजाओ उत्तमाओ निचं भावाणुरत्ता सांगसुंदरीओ'सि 'माणुस्सगा काम-18 भोग'त्ति इह कामभोगग्रहणेन तदाधारभूतानि स्त्रीपुरुषशरीराण्यभिप्रेतानि अशुचयः अशुचिकारणखात् वान्तं वमनं तदाश्रव-18 न्तीति वान्ताश्रवाः एवमन्यान्यपि, नवरं पित्तं प्रतीतं खेलो-निष्ठीवनं शुक्र-सप्तमो धातुः शोणित-रक्तं दूरूपाणि-विरूपाणि: यानि मूत्रपुरीपघूयानि तैर्बहुप्रतिपूर्णाः उच्चारः-पुरीष प्रस्रवर्ण-मूत्र खेलः-प्रतीतः सिंघानो-नासिकामलः वान्तादिकानि प्रतीतान्येतेभ्यः संभवः-उत्पत्चिर्येषां ते तथा 'इमे य तें'इत्यादि, इदं च ते आर्यका-पितामहः प्रार्यक:-पितुः पितामहः पितृप्रार्यक:-पितुः प्रपितामहः तेभ्यः सकाशादागतं यत्तत्तथा अथवा आर्यकार्यकपिदणां यः पर्यायः परिपाटिरित्यनर्थान्तरं तेनागतं यत्तत्तथा, 'अग्गिसाहिए'त्यादि, अनेः स्वामिनश्चं साधारणं 'दाइय'त्ति दायादाः पुत्रादयः, एतदेव द्रव्यस्यातिपा-1 रवश्यप्रतिपादनार्थ पर्यायान्तरेणाह-'अग्गिसामपणे इत्यादि, शटनं वस्त्रादेरतिस्थगितस्य पतनं-वर्णादिविनाशः विध्वंसनं च प्रकृतेरुच्छेदः धर्मो यस्य तत्तथा, 'जाहे नो संचाएतित्ति यदा न शक्नुवन्ती, 'बहूहिं विसए'त्यादि, बहीमिः विषयाणां-18 | शब्दादीनामनुलोमा:-तेषु प्रवृत्तिजनकलेन अनुकूला विषयानुलोमास्ताभिः आख्यापनाभिश्च-सामान्यतः प्रतिपादनः प्रज्ञाप-11 | नाभिश्च-विशेषतः कथनैः संज्ञापनाभिश्च--संबोधनाभिर्विज्ञापनाभिश्व-विज्ञप्तिकामिश्च सप्रणयप्रार्थनैः, चकाराः समुच्चयार्थाः, आख्यातुं वा प्रज्ञापयितुं वा संज्ञापयितुं वा विज्ञापयितुं वा न शक्नुत इति प्रक्रमः 'ताहेति तदा विषयप्रतिकूलाभिः-शब्दा-18 दिविषयाणां परिभोगनिषेधकखेन प्रतिलोमाभिः संयमाद्भयमुद्वेगं च चलनं कुर्वन्ति यास्ताः संयमभयोद्वेगकारिकाः-संयमस्य । | दुष्करखप्रतिपादनपरास्ताभिः प्रज्ञापनाभिः प्रज्ञापयन्ती एवमवादिष्टाम्-'निग्गन्थे'त्यादि, निर्ग्रन्थाः-साधवस्तेषामिदं नैन् । Rosha दीप अनुक्रम [३२] A asurary.com दीक्षा-सम्बन्धे मेघकुमारेण सह तस्य माता-पितरः संवादः **अत्र शीर्षक-स्थाने सू.२४ मुद्रितं तत् सत्यम्, परन्तु सूत्रान्ते मुद्रण-दोषात् अस्य सूत्रस्य क्रम २३ मुद्रितं. तत् कारणात् मया २३R निर्दिष्टम् ~ 104~ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [२३-R] दीप अनुक्रम [३२] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र -६ (मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [१]. मूलं [२३-R] श्रुतस्कन्धः [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम् ॥ ५१ ॥ प्रवचनमेव प्रावचनं सद्भ्यो हितं सत्यं सद्भूतं वा नास्मादुत्तरं - प्रधानतरं विद्यत इत्यनुत्तरं, अन्यदप्यनुत्तरं भविष्यतीत्याह- कैवलिकं- केवलं अद्वितीयं केवलिप्रणीतखाद्वा कैवलिकं प्रतिपूर्ण अपवर्गप्रापकैर्गुणैर्भृतं नयनशीलं नैयायिकं मोक्षगमकमित्यर्थः न्याये वा भवं नैयायिकं मोक्षगमकमित्यर्थः संशुद्धं - सामस्त्येन शुद्धमेकान्ताकलङ्कमित्यर्थः शल्यानि - मायादीनि कृन्ततीति | शल्यकर्तनं सेधनं सिद्धिः- हितार्थप्राप्तिस्तन्मार्गः सिद्धिमार्गः मुक्तिमार्ग:-अहित कर्मविच्युतेरुपायः यान्ति तदिति यानं निरुतापितृपमं यानं निर्याणं-सिद्धिक्षेत्रं तन्मार्गो निर्याणमार्गः एवं निर्वाणमार्गोऽपि नवरं निर्वाणं - सकलकर्मविरहजं सुखमिति सर्वदुःखप्रक्षीणमार्गः - सकलाशर्मक्षयोपायः अहिरिव एकोऽन्तो निश्रयो यस्याः सा एकान्ता सा दृष्टि:- बुद्धिर्यस्मिन्निर्ग्रन्थे प्रवचने-चारित्रपालनं प्रति तदेकान्तदृष्टिकं, अहिपक्षे आमिषग्रहणैकतानतालक्षणा एकान्ता- एकनिश्रया दृष्टिः- दृक् यस्य स एकान्तदृष्टिकः, क्षुरप्र इव एकधारा द्वितीयधारा कल्पाया अपवादक्रियाया अभावात् पाठान्तरेण एकान्ता - एकविभागाश्रया धारा यस्य तत्तथा लोहमया इव यवाः चर्वयितव्याः प्रवचनमिति प्रक्रमः, लोहमययवचर्वणमित्र दुष्करं चरणमिति भावः, वालुकाकवल इव निरास्वादं वैषयिक सुखास्वादनापेक्षया प्रवचनं गङ्गेव महानदी प्रतिश्रोतसा गमनं प्रतिश्रोतोगमनं तद्भावस्तत्ता तया, प्रतिश्रोतोगमनेन गङ्गेव दुस्तरं प्रवचनमनुपालयितुमिति भावः, एवं समुद्रोपमानं प्रवचनमिति, तीक्ष्णं खड्गकुन्तादिकं चंक्रमितव्यं-आक्रमणीयं यदेतत्प्रवचनं तदिति, यथा खड्गादि क्रमितुमशक्यमेवमशक्यं प्रवचनमनुपालयितुमिति भावः, गुरुकं महाशिलादिकं लम्वधितव्यं - अवलम्वनीयं प्रवचनं गुरुकलम्बनमिव दुष्करं तदिति भावः, असिधारायां सञ्चरणीयमित्येवं रूपं यद्वतं नियमस्तदसिधाराव्रतं चरितव्यं आसेव्यं यदेतत्प्रवचनानुपालनं तदेतदुष्करमित्यर्थः कस्मादेतस्य दुष्करत्वमत उच्यते- 'नो य Education Internationa For Penal Use Only १ उत्क्षिप्त ज्ञाते दी क्षायां मा ~ 105~ रोधः सू. २४ ॥ ५१ ॥ wor दीक्षा सम्बन्धे मेघकुमारेण सह तस्य माता- पितरः संवादः | ...अत्र शीर्षक -स्थाने सू. २४ मुद्रितं तत् सत्यम्, परन्तु सूत्रान्ते मुद्रण-दोषात् अस्य सूत्रस्य क्रम २३ मुद्रितं तत् कारणात् मया २३-२ निर्दिष्टम् Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ------------------ मूलं [२३-R] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३-R] दीप अनुक्रम [३२] చలంలంలంలంలంలంలంలం कप्पई 'त्यादि, 'रइए वत्ति औद्देशिकभेदस्तच्च मोदकचूर्णादि पुनर्मोदकतया रचितं भक्तमिति गम्यते, दुर्भिक्षमतं यविक्षुकार्थ दुर्भिक्षे संस्क्रियते, एवमन्यान्यपि, नवरं कान्तारं-अरण्यं वईलिका-वृष्टिः ग्लानः सन्नारोग्याय यद्ददाति तद् ग्लानभक्त, मूलानि पद्मसिनाटिकादीनां कन्दाः-सूरणादयः फलानि-आम्रफलादीनि बीजानि-शाल्यादीनि हरितं-मधुरतणकटुभाण्डादि भोक्तुं वा पातुं वा नालं-न समर्थः शीताद्यधिसोडमिति योगः रोगा:-कुष्ठादयः आतङ्का:-आशुपातिनः शूलादयः उच्चाबचान् नानाविधान् । ग्रामकण्टकान्-इन्द्रियवर्गप्रतिकूलान् , 'एवं खलु अम्मयाओ!' इत्यादि, यथा लोहचर्वणायुपमया दुरनुचरं-दुःखासेव्यं नैग्रन्थं | प्रवचनं भवद्विरुक्तमेवं-दुरनुचरमेव, केषां ?-क्लीवाना-मन्दसंहननानां कातराणां-चित्तावष्टम्भवार्जितानामत एव कापुरुषाणां-18 कुत्सितनराणां, विशेषणद्वयं तु कण्ठ्यं, पूर्वोक्तमेवार्थमाह-दुरनुचरं-दुःखासेव्यं नैग्रन्थं प्रवचनमिति प्रकृतं, कस्येत्याह-प्राकृतजनस्य, एतदेव व्यतिरेकेणाह-'नो चेव णं' नैव धीरस्य-साहसिकस्य दुरनुचरमिति प्रकृतं, एतदेव बाक्यान्तरेणाह-निश्चितंनिश्चयवद् व्यवसितं-व्यवसायः कर्म यस्य स तथा तस्स, 'एत्थति अत्र नैफेन्थे प्रवचने किं दुष्करं, न किञ्चित् | दुरनुचरमित्यर्थः, कस्यामित्याह-'करणतायां करणाना-संयमव्यापाराणां भावः करणता तस्यां, संयमयोगेषु मध्ये इत्यर्थः तत्-तस्मादिच्छाम्यम्बतात!। तते णं तं मेहं कुमारं अम्मापियरो जाहे नो संचाइंति बहहिं विसयाणुलोमाहि य विसयपडिकूलाहि य आघवणाहि य पन्नवणाहि य सन्नवणाहि य विनवणाहि य आघवित्तए वा पनबित्सए वा सन्नवित्तए वा विनवित्तए वा ताहे अकामए चेव मेहं कुमारं एवं वदासी-इच्छामो ताव जाया! एगदिवसमवि ते दीक्षा-सम्बन्धे मेघकुमारेण सह तस्य माता-पितरः संवादः **अत्र शीर्षक-स्थाने सू.२४ मुद्रितं तत् सत्यम्, परन्तु सूत्रान्ते मुद्रण-दोषात् अस्य सूत्रस्य क्रम २३ मुद्रितं. तत् कारणात् मया २३R निर्दिष्टम् ~ 106~ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्मकधाङ्गम्. प्रत उत्क्षिप्तज्ञाते मेघस्य राज्याभिषेकदीक्षे सू. ॥५२॥ सूत्रांक [२४] रायसिरिं पासित्तए, तते णं से मेहे कुमारे अम्मापितरमणुवत्तमाणे तुसिणीए संचिट्ठति, तसे णं से सेणिए राया कोडुंबियपुरिसे सहावेति २त्ता एवं वदासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! मेहस्स कुमारस्स महत्थं महग्धं महरिहं विउलं रायाभिसेयं उबट्टवेह, तते णं ते कोडंबियपुरिसा जाव तेवि तहेव उवट्ठति, तते णं से सेणिए राया बहूर्हि गणणायगदंडणायगेहि य जाच संपरिचुडे मेहं कुमारं अट्ठसएणं सोवन्नियाणं कलसाणं एवं रुप्पमयाणं कलसाणं सुवन्नरुप्पमयाणं कलसाणं मणिमयाणं कलसाणं सुवन्नमणिमयाणं० रुप्पमणिमयाणं० सुवन्नरुप्पमणिमयाणं० भोमेजाणं. सबोदएहिं सबमटियाहिं सबपुष्फेहिं सवगंधेहिं सवमल्लेहिं सवोसहिहि य सिद्धत्थएहि य सच्चिडीए सबजुईए सबबलेणं आव दुंदुभिनिग्घोसणादितरवेणं महया २ रायाभिसेएणं अभिसिंचति २ करयल जाव कटु एवं वदासी-जय जय गंदा! जय २ भद्दा! जय गंदा भई ते अ. जियं जिणेहि जियं पालयाहि जियमझे वसाहि अजियं जिणेहि सत्तुपक्वं जियूं च पालेहि मिसपक्खं जाव भरहो इव मणुयाणं रायगिहस्स नगरस्स अन्नेसिं च बहर्ण गामागरनगरजाव सन्निवेसाणं आहेवचं जाव विहराहित्ति कटु जय २ सई परांजंति, तते णं से मेहे राया जाते महया जाव विहरति, तते णं तस्स मेहस्स रन्नो अम्मापितरो एवं वदासी-भण जाया! किं दलयामो किं पयच्छामो किंवा ते हियइच्छिए सामत्थे (मन्ते), तते णं से मेहे राया अम्मापितरो एवं वदासी-इच्छामि गं दीप अनुक्रम [३३] लाल ॥५२॥ मेघकुमारस्य राज्याभिषेक एवं दीक्षा ~ 107~ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [२४] दीप अनुक्रम [३३] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [२४] श्रुतस्कन्धः [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अम्मयाओ ! कुत्तियावणाओ रयहरणं पडिग्गहगं च उवणेह कासवयं च सद्दावेह, तते गं से सेणिए राया कोटुंबियपुरिसे सहावेति सद्दावेत्ता एवं वदासी-गच्छह णं तुभे देवाणुप्पिया ! सिरिधरातो तिन्नि सयसहस्सातिं गहाय दोहिं सयसहस्सेहिं कुत्तियाषणाओ स्यहरणं पडिग्गहगं च उवणेह सयसहस्सेणं कासवयं सदावेह, तते णं ते कोनियपुरिसा सेणिएणं रन्ना एवं वृत्ता समाणा हट्टतुट्ठा सिरिघराओ तिन सयहस्सातिं गहाय कुत्तियावणातो दोहिं सयसहस्सेहिं रयहरणं पडिग्गहं च वर्णेति सयसहस्सेणं कासवयं सहावेंति, तते णं से कासवए तेहिं कोटुंबियपुरिसेहिं सद्दाविए समाणे हट्ठे जाव हयfare पहाते तबलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छित्ते सुद्धप्पावेसातिं वत्थाई मंगलाई पवरपरिहिए अप्पमहग्घाभरणालंकितसरीरे जेणेव सेणिए राया तेणामेव उवागच्छति २ सेणियं रायं करयलमंजलिं कट्टु एवं बयासी - संदिसह णं देवाणुप्पिया ! जं मए करणिजं तते णं से सेणिए राया कासवयं एवं वदासी - गच्छाहि णं तुमं देवाणुप्पिया ! सुरभिणा गंधोदरणं णिक्के हत्थपाए पक्खालेह सेयाए चडफा लाए पोतीए मुहं बंधेता मेहस्स कुमारस्स चउरंगुलवज्जे णिक्खमणपाउगे अग्गकैसे कप्पेहि, तते णं से कासवर सेणिएणं रन्ना एवं बुत्ते समाणे हट्ठ जाव हियए जाव पडिसुणेति २ सुरभिणा गंधोदरणं हत्थपाए पक्खालेति २ सुद्धवस्थेणं मुहं बंधति २ ता परेणं जत्तेणं मेहस्स कुमारस्स चउरंगुलवले णिक्मणपाउर अग्गकेसे कप्पति, तते णं तस्स मेहस्स कुमारस्स माया महरिहेणं हंसलकखणेणं पड मेघकुमारस्य राज्याभिषेक एवं दीक्षा For Penal Use Only ~ 108~ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ---------------- मूलं [२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म उत्क्षिप्त कथाङ्गम. ज्ञाते मे प्रत सूत्रांक [२४] ॥५३॥ घस्य रा. ज्याभिषे. कदीक्षे सू. दीप साडएणं अग्गकेसे पडिच्छति २ सुरभिणा गंधोदएणं पक्खालेति २ सरसेणं गोसीसचंदणेणं चञ्चाआ दलयति २ सेयाए पोतीए बंधेति २ रयणसमुग्गयंसि पक्खिवति २ मंजूसाए पक्खिवति २ हारवारिधारसिंदुवारछिन्नमुत्तावलिपगासाइं अंसूई विणिम्मुयमाणी २ रोयमाणी२ कंदमाणी २ विलवमाणी २ एवं वदासी-एस णं अम्हं मेहस्स कुमारस्स अन्भुदएमु य उस्सवेसु य पवेसु य तिहीसु य छणेसु य जनेमु य पचणीसु य अपच्छिमे दरिसणे भविस्सइत्तिकट्ट उस्सीसामूले ठवेति, तते णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापितरो उत्तरावकमणं सीहासणं रयानि मेहं कुमारं दोपि तथंपि सेयपीयएहिं कलसेहि पहाति २ पम्हलसुकुमालाए गंधकासाइयाए गायाति गृहति २ सरसेणं गोसीसचंदणेणं गापार्ति अणुलिंपति २ नासानीसासवायचोझ जाव हंसलकखणं पड़गसाडगं नियंसेंति २ हारं पिण«ति २ अद्धहारं पिणद्धति २एगावलिं मुत्तावलिं कणगावलिं रयणावलिं पालंच पायपलंवं कडगाई तुडिगाई केउराति अंगयाति दसमुद्दियार्णतयं कडिसत्तयं कुंडलातिं चूडामणि रयणुकडं मउपिणद्धति २ दिवं सुमणदाम पिणद्धति २ दद्दरमलयसुगंधिए गंधे पिणद्धति, तते णं तं मेहं कुमारं गंठिमवेढिमपूरिमसंधाइमेण चविहेणं मल्लेणं कप्परुक्वगंपिब अलंकितविभूसियं करेंति, ततेणं से सेणिए राया कोडंबियपुरि से सद्दावेति २ एवं बयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! अणेगखंभसयसन्निविडं लीलहियसालभंजियागं ईहामिगउसभतुरयनरमगरविहगवालगकिन्नररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्तं घंटा अनुक्रम [३३] ५३॥ कल मेघकुमारस्य राज्याभिषेक एवं दीक्षा ~ 109~ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४] दीप वलिमहरमणहरसरं सुभकंतदरिसणिज्जं निउणोवियमिसिमिसिंतमणिरयणघंटियाजालपरिखितं अम्भुग्गयवइरवेतियापरिगयाभिरामं विजाहरजमलजंतजुत्तंपिव अचीसहस्समालणीयं रूवगसहस्सकलियं भिसमाणं भिन्भिसमाणं चक्खुलोयणलेस्सं सुहफासं सस्सिरीयरूवं सिग्धं तुरितं चवलं वेतियं पुरिससहस्सवाहिणीं सीयं उबट्टवेह, तते णं ते कोटुंबियपुरिसा हहतुट्टा जाव उवट्ठति, तते णं से मेहे कुमारे सीयं दूरूहति २त्ता सीहासणवरगए पुरस्थाभिमुहे सन्निसन्ने, तते णं तस्स मेहस्स कुमारस्स माया पहाता कयवलिकम्मा जाय अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरा सीयं दुरूहति २ मेहस्स कुमारस्स दाहिणे पासे भद्दासणंसि निसीयति, तते णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अंबधाती रयहरणं च पडिग्गहगं च गहाय सीयं दुरूहति २ मेहस्स कुमारस्स चामे पासे भद्दासणंसि निसीयति, तते णं तस्स मेहस्स कुमारस्स पिट्ठतो एगा वरतरुणी सिंगारागारचारुवेसा संगयगयहसियभणियचेट्ठियविलाससलावुल्लाव निउणजुत्तोचयारकुसला आमेलगजमलजुयलवटियअब्भुन्नयपीणरतियसंठितपओहरा हिमरययकुंदेंदुप गासं सकोरेंटमल्लदामधवलं आयवत्तं गहाय सलीलं ओहारेमाणी २ चिट्ठति, तते णं तस्स मेहस्स कुमारस्स दुवे चरतरुणीओ सिंगारागारचारुवेसाओ जाव कुसलाओ सीयं दूरूहंति २ मेहस्स कुमारस्स उभओ पासिं नाणामणिकणगरयणमहरिहतवणिज्जुजलविचित्तदंडाओ चिल्लियाओ सुहुमवरदीहवालाओ संखकुंददगरयअमयमहियफेणपुंजसन्निगासाओ चामराओ गहाय सलीलं ओहारेमाणीओ २ चिट्ठति, अनुक्रम [३३] BAD92 मेघकुमारस्य राज्याभिषेक एवं दीक्षा ~110~ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [२४] दीप अनुक्रम [३३] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१] अध्ययनं [१], मूलं [२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥ ५४ ॥ Education internation लेणं तस मेहकुमारस्स एगा वरतरुणी सिंगारा जाव कुसला सीयं जाव दूरुहति २ मेहस्त कुमारस्स पुरतो पुरस्थिमेथं चंद्रप्पभवहरवेरुलियाबिमलवंडं तालविटं महाय चिट्ठति, तते णं तस्स मेहस्स कुमारस्स एमा घरतरुणी जाब सुरूवा सीयं दुरूहति २ मेहस्स कुमारस्स पुद्ददक्खिणेणं सेयं रययामयं विमलसलिलपुत्रं मत्तमयमहामुहाकितिसमाणं भिंगारं महाय चिद्वति, तते णं तस्स मेहस्स कुमारस्स पिया कोडुंबि पुरिसे सहावेति २ ता एवं बदासी - विप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सरिसयाणं सरिसत्ताणं सरिबयाणं एगाभरणगहितनिज्जोयाणं कोडुंबियवरतरुणाणं सहस्सं सदाबेह जाव सावंत, तए णं कोडंबियवरतरुणपुरिसा सेणियस्स रनो कोटुंबियपुरिसेहिं सदाविया समाणा हट्टा पहाया जाव एगाभरणगहितणिखोया जेणामेव सेणिए राया तेणामेव उवागच्छति २ सेणियं रायं एवं वदासी-संदिसह णं देवाणुप्पिया ! ज अम्हेहिं करणिजं तते णं से सेणिए तं कोटुंबियबरतरुण सहस्सं एवं वदासी- गच्छह णं देवाणुप्पिया ! मेहस्स कुमारस्स पुरिससहस्वाहिणिं सीयं परिवहेह, तते णं तं कोटुंबियवरतरुण सहस्सं सेणिएनं रन्ना एवं तं तं हवं तु तस्स मेहस्स कुमारस्स पुरिससहस्सवाहिणीं सीयं परिवहति तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स पुरिससहस्वाहिणि सीयं दृस्तस्स समाणस्स इमे अट्ठट्ठमंगलया तप्पढमयाए पुरतो अहाणुपुवीए संपट्टिया, तं०-सोत्थिय सिरिवच्छ दियावत्स बद्धमाणग भासण कलस मच्छ दप्पण जाव बहवे अत्थत्थिया जाब ताहिं इट्ठाहिं जाब अणवरयं अभियंता य अभिधुणंता य एवं धदासी - जय २ गंदा मेघकुमारस्य राज्याभिषेक एवं दीक्षा For Penal Use Only ~ 111~ १ उत्क्षिप्तज्ञाते मे धस्य रा ज्याभिषे कदीक्षे सू. २४ ॥ ५४ ॥ wor Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) (०६) श्रुतस्कन्ध: [१] ......... ....-- अध्ययनं [१]. ... ......- मलं [२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४] दीप अनुक्रम [३३] जय २णंदा जय २ भहा ! भई ते अजियाइं जिणाहि इंदियाइं जियं च पालेहि समणधम्म जियविग्योऽषिय वसाहि तं देव ! सिद्धिमझे निहणाहि रागदोसमल्ले तवेणं घितिधणियबद्धकच्छे महाहि य अट्टकम्मसत्तू झाणेणं उत्तमेणं सुकेणं अप्पमत्तो पावय वितिमिरमणुत्तरं केवलं नाणं गच्छ य मोक्ख परमपर्य सासयं च अयलं हंता परीसहचUणं अभीओ परीसहोवसग्गाणं धम्मे ते अविग्धं भवउत्तिकट्ठ पुणो २ मंगलजय २ सई पउंजंति, तते णं से मेहे कुमारे रायगिहस्स नगरस्स मजझमझेणं निग्गच्छति २ जेणेच गुलसिलए चेतिए तेणामेव उवागच्छति २ पुरिससहस्सवाहिणीओ सीयाओ पचोरुभति (सूत्रं २४) 'महत्थंति महाप्रयोजनं महाघ-महामूल्यं महाई-महापूज्यं महतां वा योग्य राज्याभिषेक-राज्याभिषेकसामग्री उपस्थापयत| सम्पादयत, सौवर्णादीनां कलशानामष्टौ शतानि चतुःषष्यधिकानि "भोमेजाणं'ति भौमाना पार्थिवानामित्यर्थः, सर्वोदकैःसर्वतीर्थसंभवः एवं मृतिकाभिरिति । 'जय जयेत्यादि, जय जय सं-जयं लभस्व नन्दति नन्दयतीति वा नन्दा-समृद्धः। समृद्धिप्रापको वा तदामन्त्रणं हे नन्द, एवं भद्र-कल्याणकारिन् हे जगन्नन्द भद्रं ते भवखिति शेषः, इह गमे यावत्करणादिद। दृश्यं 'इन्दो इव देवाणं चमरो इव असुराणं धरणो इव नागाणं चन्दो इव ताराण'ति, 'गामागर' इह दण्डके यावत्करणादिदं दृश्यं 'नगरखेडकब्बडदोणमुहमउंबपट्टणसंवाहसचिवेसाणं आहेवचं पोरेवचं सामि भत्तितं महत्तरगतं आणाईसरसेणावचं । कारेमाणे पालेमाणे महयाहयनहगीयवाइयतंतीतलतालतुडियघणमुइंगपडप्पवाइयरवेणं विउलाई भोगभोगाई झुंजमाणे विहराहित्ति, तत्र करादिगम्यो ग्रामः आकरो-लवणाद्युत्पचिभूमिः अविद्यमानकर नगरं धूलीप्राकारं खेटं कुनगरं कटं यत्र aa28 RELIGunintentATHREE For P OW मेघकुमारस्य राज्याभिषेक एवं दीक्षा ~112~ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ---------------- मूलं [२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म प्रत कथानम्. ॥५५॥ सूत्रांक [२४] सू. २४ दीप जलस्थलमार्गाभ्यां भाण्डान्यागच्छन्ति तद् द्रोणमुखं यत्र योजनाभ्यन्तरे सर्वतो ग्रामादि नास्ति तन्मडम्ब, पत्तनं द्विधा-जल- उरिक्षप्तपत्तनं स्थलपत्तनं च, तत्र जलपत्तनं यत्र जलेन भाण्डान्यागच्छन्ति, यत्र तु स्खलेन तत् स्थलपत्ननं, यत्र पर्वतादिदुर्गे लोका ज्ञाते मेंधान्यानि संवहन्ति स संवाहा, सार्थादिस्थान सनिवेशः, आधिपत्यं अधिपतिकर्म रक्षेत्यर्थः, 'पोरेव' पुरोवर्तिखमने I घदीक्षा सरसमित्यर्थः खामिख-नायकसं भर्तृत्व-पोषकत्वं महत्तरकत्वं-उत्तमत्वं आज्ञेश्वरस्य--आज्ञाप्रधानस सतः तथा सेनापतेभावः महोत्सवः आज्ञेश्वरसेनापत्यं कारयन् अन्यनियुक्तकः पालयन् स्वयमेव महता-प्रधानेन 'अहय'त्ति आख्यानकप्रतिबद्धं नित्यानुबन्धं वार. यन्नाट्यं च-नृत्य गीतं च-गानं तथा वादितानि यानि तत्री च-वीणा तलौ च-हस्तौ तालव-कंसिका तुडितानि च वादि-18 त्राणि तथा घनस मानध्वनियों मृदङ्गः पडुना पुरुषेण प्रवादितः स चेति द्वन्द्वः ततस्तेषां यो बस्तेनेति, इतिकट्ठ-इतिकृत्वा एवमभिधाय जय २ शब्दं प्रयुते श्रेणिकराज इति प्रकृतं, ततोऽसौ राजा जातः, 'महया' इह यावत्करणात् एवं वर्णको वाच्यः"महयाहिमवन्त महतमलयमंदरमहिंदसारे अश्चतविसुद्धदीहरायकुलवंसप्पमूए निरंतरं रायलवखणविराइयंगमंगे बहुजणबहुमाणपूइए सत्वगुणसमिद्धे खत्तिए मुदिए मुद्धाभिसित्ते' पित्रादिभिर्द्धन्यभिषिक्तत्वात् 'भाउपिउसुजाए दयपत्ते' दयावानित्यर्थः, सीमंकरे मर्यादाकारित्यात् सीमंधरे कृतमर्यादापालकत्वात् , एवं खेमंकरे खेमंधरे, क्षेम अनुपद्रवता, 'मणुस्सिदे जणवयपिया हितत्वात् 'जणवयपुरोहिए' शान्तिकारित्वात् सेउकरे-मार्गदर्शकः केउकरे अद्भतकार्यकारित्वात् केतुः-चिहं, 'नरपवरे' नराः ॥ ५५ ॥ प्रवराः यस्येतिकृत्वा, 'पुरिसवरे' पुरुषाणां मध्ये वरत्वात् , 'पुरिससीहे' शूरत्वात् , 'पुरिसासीविसे' शापसमर्थत्वात् , 'पुरिस| पुंडरीए' सेव्यत्वात् , 'पुरिसवरगंधहत्थी' प्रतिराजगजभञ्जकत्वात् 'अड्डे' आख्या दिने दर्पवान् ‘विने' प्रतीतः 'विच्छि अनुक्रम [३३] मेघकुमारस्य राज्याभिषेक एवं दीक्षा ~ 113~ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४] दीप भविउलभवणसयणासणजाणवाहणाइन्न' विस्तीर्णविपुलानि-अतिविस्तीर्णानि भवनशयनासनानि यस्य स तथा यानवाहनान्याकीर्णानि-गुणवन्ति यस्य स तथा ततः कर्मधारयः, 'बहुधणबहुजायरूवरयए' बहु धनं-गणिमादिकं बहुनी च जातरूपरजते यस्य स तथा, 'आयोगपयोगसंपउत्ते' आयोगस्य-अर्थलाभस्व प्रयोगा-उपायाः संप्रयुक्ता-व्यापारिता येन स तथा 'विच्छड्डिय| पउरभत्तपाणे विच्छर्दिते-त्यक्ते बहुजनभोजनदानेनावशिष्टोच्छिष्टसंभवात् संजातविछेद वा नानाविधभक्तिके भक्तपाने यस स तथा 'बहुदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभूए' बहुदासीदासश्चासौ गोमहिषीगवेलगप्रभूतश्चेति समासः, गवेलका-उरम्राः, 'पडि| पुण्णजंतकोसकोडागाराउहागारे' यत्राणि-पाषाणक्षेपय त्रादीनि कोशो-भाण्डागारं कोष्ठागार-धान्यगृहं आयुधागारं-प्रहरण-| शाला, 'बलवं दुब्बलपचामिचे' प्रत्यमित्रा:-प्रातिवेशिकाः, 'ओहयकंटयं निहयकंटयं गलियकंटयं उद्धियकंटयं अकंटय कण्टका:प्रतिस्पर्द्धिनो गोत्रजाः उपहता विनाशनेन निहताः समृद्ध्यपहारेण गलिताः मानभङ्गेन उद्धृता देशनिर्वासनेन अत एवाकण्ट-15 कमिति, एवं 'उवहयसत्तु'मित्यादि, नवरं शत्रचो गोत्रजा इति, 'ववगयदुभिक्खमारिभयविप्पमुकं खेम सिर्व सुभिक्खं पसंतHI डिंबडमरं' अन्वयव्यतिरेकाभिधानस शिष्टसंमतत्वात् न पुनरुक्ततादोषोऽत्र 'रज पसाहेमाणे विहरइति । 'जाया' इति हे जात! पुत्र 'किं दलयामोति भवतोऽनमिमतं किं विघटयामो विनाशयाम इत्यर्थः, अथवा भवतोऽभिमतेभ्यः किं दमः, तथा । भवते एव किं प्रयच्छामः', 'किंवा ते हियइच्छियसामत्थेति को वा तव हृदयवाञ्छितो मन्त्र इति 'कुत्तियावणाउ'ति|| देवताधिष्ठितत्वेन वर्गमर्त्यपाताललक्षणभूत्रितय संमविवस्तुसंपादक आपणो-हट्टः कुत्रिकापणः तस्मात् आनीतं काश्यपकं च-नापितं || शब्दितुं-आकारितुमिच्छामीति वर्तते, श्रीगृहात-भाण्डागारात् 'निकेत्ति सर्वथा विगतमलान् 'पोत्तियाइ'त्ति वस्त्रेण 'महरिहे। अनुक्रम [३३] मेघकुमारस्य राज्याभिषेक एवं दीक्षा ~114~ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ---------------- मूलं [२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म- कथाङ्गम्. प्रत ॥५६॥ सूत्रांक [२४] दीप अनुक्रम [३३] त्यादि, 'महरिहेणं ति महतां योग्येन महापूजेन पा हंसस्येव लक्षणं-स्वरूपं शुक्लता हंसा वा लक्षणं-चिदं यस्य स तथा तेन उत्क्षिप्तशाटको-वस्त्रमात्रं स च पृथुलः पटोभिधीयत इति पटशाटकस्तेन 'सिंदुवारे'चि वृक्षविशेषो निर्गुण्डीति केचित् तकुसुमानि ज्ञाते मेंसिन्दुवाराणि तानि च शुक्लानि । 'एस 'ति एतत् दर्शनमिति योगः णमित्यलंकारे, अभ्युदयेषु-राज्यलाभादिषु उत्सवेषु-18 घदीक्षा प्रियसमागमादिमहेषु प्रसवेषु-पुत्रजन्मसु तिथिषु-मदनत्रयोदशीप्रभृतिषु क्षणेषु- इन्द्रमहादिषु यज्ञेषु-नागादिपूजासु पर्वणीषु महोत्सवः च-कार्तिक्यादिषु अपश्चिम-अकारस्थामङ्गलपरिहारार्थखात् पश्चिम दर्शनं भविष्यति, एतत्केशदर्शनमपनीतकेशावस्थस्य मेघ- सू. २४ | मारस्य यदर्शनं सर्वदर्शनपाश्चात्यं तद्भविष्यतीति भावः, अथवा न पश्रिममपश्चिम-पौन:पुन्येन मेघकुमारस्य दर्शनमेतद्दर्शनेन । भविष्यतीत्यर्थः । 'उत्तरावकमणं'ति उत्तरस्यां दिश्यपक्रमणं-अवतरणं यस्मात्तदुत्तरापक्रमण-उत्तराभिमुखं राज्याभिषेककाले पूर्वाभिमुखं तदासीदिति, 'दोचंपि' द्विरपि 'तचंपि' त्रिरपि 'श्वेतपीतैः' रजतसौवर्णैः 'पायपलब'ति पादी यावद् यः प्रलम्बते| उलङ्कारविशेषः स पादप्रलम्बा, 'तुडियाईति बाहुरक्षकाः, केयूराङ्गदयोयद्यपि नामकोशे पाहाभरणतया न विशेषः तथापीहाकारभेदेन भेदो दृश्यः, 'दशमुद्रिकानन्तक' हस्ताङ्गलिसंबन्धि मुद्रिकादशकं 'सुमणदाम ति पुष्पमाला पिनयता-परिधत्तः दर्दरः-चीवरावनद्धकुण्डिकादिभाजनमुखं तेन गालितास्तत्र पका वा ये 'मलय'ति मलयोद्भवं श्रीखण्डं तत्संबन्धिनः सुगन्धयोगन्धास्तान् पिनयतः, हारादिवरूपं प्राग्वत् , ग्रन्थिम-यथ्यते सूत्रादिना वेष्टिमं-यथितं सद्वेष्ट्यते यथा पुष्पलम्बूसकः गेन्दुक ॥५६॥ | इत्यर्थः, पूरिमं येन वंशशलाकामयपञ्जरकादि कूर्चादि वा पूर्यते सांयोगिक-यत्परस्परतो नालसंघातनेन संघात्यते अलकृतकतालङ्कार, विभूषितं-जातविभूषं । 'सदावेह जाव सद्दाविति' 'एगा वरतरुणी'त्यादि शृङ्गारस्यागारमिव कारागारं अथवा । मेघकुमारस्य राज्याभिषेक एवं दीक्षा ~115~ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४] दीप अनुक्रम [३३] शृङ्गारप्रधान आकारो यस्यावारुश्च येषो यस्याः सा तथा, सङ्गतेषु गतादिषु निपुणा युक्तेषूपचारेषु कुशला च या सा तथा, तत्र विलासो-नेत्रविकारो, यदाह-"हावो मुखविकारः स्याद्भाववित्तसमुद्भवः । विलासो नेत्रजो ज्ञेयो, विभ्रमो भ्रूसमुद्भवः ॥१॥" संलापो-मिथो भाषा उल्लापः काकुवर्णनं, आह च-"अनुलापो मुहुर्भाषा, प्रलापोऽनर्थकं वचः । काका वर्णनमुल्लापः, संलापो भाषणं मिथः॥१॥" इति । 'आमेलग'चि आपीड:-शेखरः स च स्तन:-प्रस्तावाचुचुकस्तत्प्रधानौ आमेलको वा-परस्परमीपल्सम्बद्धौ यमलौ-समणिस्थिती युगलौ-युगलरूपी द्वावित्यर्थः वर्तितौ-वृत्ती अभ्युनती-उषी पीनौ-स्थली रतिदौ- सुखप्रदौ संस्थिती-विशिष्टसंस्थानवन्ती पयोधरी-स्तनी यस्याः सा तथा, हिमं च रजतं च कुन्दश्वेन्दुश्चेति द्वन्द्वः, एपामिव प्रकाशो यस्य तत्तथा, सकोरेण्टानि-कोरेण्टकपुष्पगुच्छयुक्तानि माल्यदामानि-पुष्पमाला यत्र तत्तथा, धवलमातपत्रं-छत्रं, नानामणिकनकरवानां महार्हस्य महास तपनीयस्य च सत्काबुज्ज्वलो विचित्रौ दण्डौ ययोस्ते तथा, अत्र कनकतपनीययोः को विशेषः, उच्यते, कनकं पीतं तपनीयं रक्तं इति, 'चिल्लियाओ'त्ति दीप्यमाने लीने इत्येके मूक्ष्मवरदीर्घवाले शकुन्ददक-13 | रजसा अमृतस्य मथितस्य सतो यः फेनपुंजस्तस्य च सन्निकाशे-सदृशे ये ते तथा, चामरे चन्द्रप्रभवजवैयविमलदण्डे, इह चन्द्र-1 प्रभा-चन्द्रकान्तमणिः, तालवृन्त-व्यजनविशेषः मत्तगजमहामुखस्य आकृत्या-आकारण समानः-सदृशो यः स तथा तं भृङ्गारं, 'एगे'त्यादि, एकः-सदृशः आभरणलक्षणो गृहीतो निर्योगः-परिकरो यैस्ते तथा तेषां कौटुम्पिकवरतरुणानां सहस्रमिति । 'तएणं ते कोडुपियवरतरुणपुरिसासदाविय'ति शब्दिताः 'समाणति सन्तः, 'अदृहमंगलय'त्ति अष्टावष्टाविति वीप्सायां द्विर्वचनं मङ्गलकानि-माङ्गल्यवस्तूनि, अन्ये साहुः-अष्टसंख्यानि अष्टमङ्गलसंज्ञानि वस्तूनीति 'तप्पढमयाए ति तेषां विवक्षितानां मेघकुमारस्य राज्याभिषेक एवं दीक्षा ~116~ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४] सू. २४ दीप अनुक्रम [३३] जाता मध्ये प्रथमता तत्प्रथमता तया 'बद्धमाणय'ति शरावं, पुरुषारूढः पुरुष इत्यन्ये, स्वस्तिकपश्चकमित्यन्ये, प्रासादविशेष इत्यन्येा उत्क्षिप्तकथाजमादप्पण'ति आदर्शः, इह यावत्करणादिदं दृश्य-'तयाणंतरं च णं पुण्ण कलसभिंगारा दिवा य छत्तपडागा सचामरा दंसणरइय-18 आलोइयदरिसणिज्जा वाउद्दयविजयंती य ऊसिया गगणतलमणुलिहंती पुरओ अहाणुपुबिए संपट्टिया, तयाणतरं च वेरुलियमिसं-18 घदीक्षातविमलदंडं पलंबकोटमालदामोक्सोहियं चंदमंडलनिभं विमलं आयवत्तं पवरं सीहासणं च मणिरयणपायपीढं सपाउयाजोयसमा-18 महोत्सवः उत्तं बहुकिंकरकम्मकरपुरिसपायनपरिखित्तं पुरओ अहाणुपुबिए संपट्टियं, तयाणंतरं च णं वहवे लडिग्गाहा कुंतग्गाहा चावग्गाहार धयग्गाहा चामरग्गाहा कुमरग्गाहा पोत्थयग्गाहा फलयग्गाहा पीढयग्गाहा वीणग्गाहा कूवग्गाहा हडफग्गाहा पुरओ अहाणुपुबीए |संपट्ठिया, तयाणतरं च णं वहये दंडिणो मुंडिणो सिहंडिणो पिछिणो हासकरा डमरकरा चाइकरा कीडता य वार्यता य|| गायंता य नचंता य हासता य सोहिंता य साविता य रक्खंता य आलोयं च करेमाणा जयजयसई च पउंजमाणा पुरओ अहा-18 |णुपुबिए संपहिया, क्याणतरं च णं जच्चाणं तरमलिहायणाणं थासगअहिलाणाणं चामरगंडपरिमंडियकढीणं अट्ठसय वरतुरगाणं पुरओ अहाणुपुविए संपट्ठियं, तयाणतरं च णं इसिदन्ताणं इसिमत्ताणं ईसिउच्छंगविसालधवलदंताणं कंचणकोसिपविट्ठदंताणं| अट्ठसयं गयाणं पुरओ अहाणुपुबीए संपट्टियं, तयाणतरं च णं सछत्ताणं सज्झयाणं सघंटाणं सपडागाणं सतोरणवराणं सनदिघोसाणं सखिखिणीजालपरिखित्ताणं हेममयचित्ततिणिसकणकनिज्जुत्तदारुयाण कालायससुकयनेमिजंतकम्माण सुसिलिट्ठ-18 वित्तमंडलधुराण आइण्णवस्तुरगसंपउचाणं कुसलनरछेयसारहिसुसंपरिग्गहियाणं बत्तीसतोणपरिमंडियाणं सकंकडवडंसकाणं | सचावसरपहरणावरणभरियजुद्धसज्जाणं अट्ठसयं रहाणं पुरओ अहाणुपुबीए संपडियं, तयाणतरं च णं असिसचिकोततोमरसूल RELIGunintentATHREE मेघकुमारस्य राज्याभिषेक एवं दीक्षा ~117~ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४] दीप लउडभिंडिमालधणुपाणिसजं पायत्ताणीयं पुरओ अहाणुवीए संपट्ठियं, तए णं से मेहे कुमारे हारोत्थयसुकयरइयवच्छे कुंडलुओइयाणणे मउडदिचसिरए अमहियरायतेयलच्छीए दिप्पमाणे सकोरेंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं सेयवरचामराहिं उडुबमाणी[हिं हयगयपवरजोहकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए समणुगम्ममाणमग्गे जेणेव गुणसिलए चेहए तेणेच पहारेत्थ गमणाए, तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स पुरओ महं आसा आसघरा उभओ पासे नागा नागधरा करिवरा पिट्टओ रहा रहसंगेली, तए णं से मेहे कुमारे अब्भागभिंगारे पग्गहियतालियंटे उसवियसेयरछत्ते पवीजियवालवियणीए सबिड्डीए सबजुईए सबबलेणं सबसमुदएणं सबा-1 &दरेणं सबविभूईए सबविभूसाए सबसंभमेणं सवगंधपुष्फमल्लालंकारेणं सबतुडियसहसन्निनाएणं महया इड्डीए महया जुईए महया | बलेणं महया समुदएणं महया वरतुडियजमगसमगषवाइएणं संखपणवपडहभेरिझहरिखरमुहि हुडुकमुरखमुइंगदुंदुभिनिग्धोसनाइयरवेणं रायगिहस्स नगरस्स मझमझेणं णिग्गच्छइ, तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स रायगिहस्स नगरस्स मॉमजलेणं निग्ग च्छमाणस्स बहवे अत्थत्थिया कामस्थिया भोगत्थिया लाभत्थिया किदिबसिया करोडिया कारवाहिया संखिया चकिया लंगकालिया मुहमंगलिया पूसमाणवा बद्धमाणगा ताहिं इवाहि कंताहिं पियाहि मणुनाहि मणामाहिं मणाभिरामाहि हिययगमणि-18 आर्हि वगृहि'ति, अयमस्वार्थ:-सदनन्तरं च छत्रस्योपरि पताका छत्रपताका सचामरा-चामरोपशोभिता तथा दर्शनरतिदादृष्टिसुखदा आलोके-रष्टिविषये क्षेत्रे स्थिताऽत्युच्चतया दृश्यते या सा आलोकदर्शनीया, ततः कर्मधारयः, अथवा दशेने-- रष्टिपथे मेघकुमारस्य रचिता-धृता या आलोकदर्शनीया च या सा तथा, वातोद्भुता विजयभूचिका च या वैजयन्ती-पताका-1 विशेषः सा तथा, सा च ऊसिया-उच्छ्रिता ऊकृता पुरत:-अग्रतः यथानुपूर्वी-क्रमेण सम्पस्थिता-प्रचलिता, 'भिसंत'त्ति अनुक्रम [३३] मेघकुमारस्य राज्याभिषेक एवं दीक्षा ~118~ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [२४] दीप अनुक्रम [३३] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [२४] श्रुतस्कन्धः [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्. ॥ ५८ ॥ Jain Etication दीप्यमानः, मणिरत्नानां सम्बन्धि पादपीठं यस्य सिंहासनस्य तत्तथा, स्वेन स्वकीयेन मेघकुमारसम्बन्धिना पादुकायुगेन समा युक्तं यत्तत्तथा, बहुभिः किङ्करैः किंकुर्वाणैः कर्मकरपुरुषैः पादातेन च पदातिसमूहेन शस्त्रपाणिना परिक्षिप्तं यत्तत्तथा 'कूय'ति कुतुपः 'हडप्फो'ति आभरणकरण्डकं 'मुंडिणो' मुण्डिताः 'छिडिणो' शिखावन्तः 'डमरकरा:' परस्परेण कलहविघायकाः 'चाटुकरा:' प्रियंवदा 'सोहंता यत्ति शोभां कुर्वन्तः 'सावंता य'त्ति श्रावयन्तः आशीर्वचनानि रक्षन्तः न्यायं आलोकं च कुर्वाणाः- मेघकुमारं तत्समृद्धिं च पश्यन्तः, जात्यानां काम्बोजादिदेशोद्भवानां तरोमल्लिनो - बलाधायिनो वेगाधायिनो वा हायनाः संवत्सरा येषां ते तथा तेषां अन्ये तु 'भायल'चि मन्यन्ते, तत्र भायला जात्यविशेषा एवेति गमनिकैवैषा, थासका दर्पणाकाराः अहिलाणानि च कविकानि येषां सन्ति ते तथा, मतुब्लोपात्, 'चामरगंडा' चामरदण्डात्तैः परिमण्डिता कटी येषां ते तथा तेषां ईषदान्तानां मनागू ग्राहितशिक्षाणामीषन्मत्तानां नातिमत्तानां ते हि जनमुपद्रवयन्तीति, ईषत् - मनागुत्सङ्ग: इवोत्सङ्गः - पृष्ठिदेशस्तत्र विशाला - विस्तीर्णा धवलदन्ताच येषां ते तथा तेषां, कोशी-प्रतिमा, नन्दिघोष:तूर्यनादः, अथवा सुनंदी - सत्समृद्धिको घोषो येषां ते तथा तेषां, सकिङ्किणि समुद्रपण्टिकं यआलं-मुक्ताफलादिमयं तेन परिक्षिप्ता ये ते तथा तेषां तथा हैमवतानि हिमवत्पर्वतोद्भवानि चित्राणि तिनिशस्य वृक्षविशेषस्य सम्बन्धीनि कनकनियुकानि-हेमखचितानि दारूणि काष्ठानि येषां ते तथा तेषां कालायसेन- लोहविशेषेण सुष्ठु कृतं नेमेः- गण्डमालायाः यत्राणां च-रथोपकरणविशेषाणां कर्म येषां तथा तेषां सुश्लिष्टे वित्तत्ति-वत्रदण्डवत् मण्डले वृत्ते धुरौ येषां ते तथा तेषां, आकीर्णा- वेगादिगुणयुक्ताः ये वरतुरगास्ते संप्रयुक्ता - योजिता येषु ते तथा तेषां कुशलनराणां मध्ये ये छेकाः- दक्षाः सारथयस्तैः मेघकुमारस्य राज्याभिषेक एवं दीक्षा For Penal Use Only ~ 119~ १ उत्क्षिष्ठ ज्ञाते मेघदीक्षामहोत्सवः सू. २४ ॥ ५८ ॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४] IS सुसंप्रगृहीता ये ते तथा तेषां, तोणत्ति-शरभखाः सह कण्टकैः-कवचैवेशैश्च वर्तन्ते ये ते तथा तेषा, सचापा:-धनुर्युक्ता ये शराः। प्रहरणानि च-खगादीनि आवरणानि च-शीपेकादीनि तेर्ये भृता युद्धसआश्र-युद्धप्रगुणाच ये ते तथा तेषां, 'लउड'ति लकुटाः। अस्वादिकानि पाणौ हस्ते यस्य तत्तथा तच्च तत्सऊंच-प्रगुणं युद्धस्खेति गम्यते, पादातानीक-पदातिकटकं हारावस्तृत सुकृतरतिकंविहितसुखं वक्षो यस्य स तथा, मुकुटदीप्तशिरस्का, 'पहारेत्थ गमणयाए'ति गमनाय प्रधारितवान्-संप्रधारितवान्, 'मह'ति महान्तः अश्वाः, अश्वधराः ये अश्वान् धारयन्ति, नागा-हस्तिनः, नागधरा ये हस्तिनो धारयन्ति, कचिद्वरा इति पाठः, तत्रावा नागाश्च किंविधाः १-अश्ववरा अश्वप्रधानाः, एवं नागवराः, तथा रथा स्थसंगिणेल्ली-रथमाला कचित् रहसंगेल्लीति पाठः तत्र रथसङ्गेली-रथसमूहः । 'तए णं से मेहे कुमारे अभागभिंगारे इत्यादिवर्णकोपसंहारवचनमिति न पुनरुक्तं 'सबिड्डीए'त्यादि दोहदावसरे व्याख्यातं, शहः प्रतीतः, पणवो-भाण्डानां पटहः पटहस्तु प्रतीत एव भेरी-ढकाकारा झल्लरी-वलयाकारा खरमुही-1 काहला हुडका-प्रतीता महाप्रमाणो मईलो मुरजः स एव लघुर्मृदङ्गो दुन्दुभिः-भेर्याकारा सङ्कटमुखी एतेषां निर्घोषो-महाध्वानो नादितं च-घण्टायामिव वादनोत्तरकालभावी स तथा तद्ध्वनिस्तल्लक्षणो यो बस्तेन, अर्थाथिनो-द्रव्यार्थिनः कामार्थिन:-शब्दरू-18 पार्थिनः भोगाधिनः-गन्धरसस्पर्शार्थिनः लाभार्थिनः-सामान्येन लाभेप्सवः किल्विपिका:-पातकफलवंतो निःखान्धपवादयः कारोटिका:-कापालिकाः करो-राजदेयं द्रव्यं तद्वहन्ति येते कारवाहिकाः करेण वा बाधिताः पीडिता येते करबाधिताः, शंखवादनशिल्पमेषामिति शालिकाः शो चा विद्यते येषां मङ्गल्यचन्दनाधारभूतः ते शालिकाः, चक्रं ग्रहरणमेषामिति चाकिका:--1|| योद्धारः चक्र वाऽस्ति येषां ते चाक्रिका:-कुम्भकारतैलिकादयः चक्र वोपदर्य याचन्ते ये ते चाक्रिकाः चक्रधरा इत्यर्थः, Se30092eraara दीप अनुक्रम [३३] मेघकुमारस्य राज्याभिषेक एवं दीक्षा ~ 120~ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ---------------- मूलं [२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४] दीप ज्ञाताधर्म- लाङ्गलिकाः हालिकाः लागलं वा प्रहरणं येषां गले वा लम्बमानं सुवर्णादिमयं तद्येषां ते लाङ्गालिकाः-कार्पटिकविशेषाः, मुखम-18 उत्क्षिप्तकथाङ्गम्लानि-चाटुवचनानि ये कुर्वन्ति ते मुखमालिकाः, पुष्पमाणवा-ननाचार्या वर्द्धमानका:-स्कन्धारोपितपुरुषाः, 'इट्टाही त्यादि ज्ञाते मे पूर्ववत्, 'जियबिग्घोविय वसाहित्ति इहैव सम्बन्धः, अपि च जितविघ्नः त्वं हे देव! अथवा देवानां सिद्धेश्व मध्ये वस- घदीक्षा आख, 'निहणाहित्ति विनाशय रागद्वेषी मल्लौ, केन करणभूतेनेत्याह-तपसा-अनशनादिना, किंभूतः सन् -धृत्या-चित्तखा- सू. २५ स्थ्येन 'धणिय'ति अत्यर्थ पाठान्तरेण वलिका-दृढा बद्धा कक्षा येन स तथा, मलं हि प्रतिमल्लो मुख्यादिना करणेन वस्त्रादि-ISH घढबद्धकक्षः सनिहन्तीति एवमुक्तमिति, तथा मर्दय अष्टी कर्मशत्रून ध्यानेनोनमेन-शुलेनाप्रमत्तः सन् , तथा 'पावय'त्ति प्राप्नुहि । वितिमिरं-अपगताज्ञानतिमिरपटलं नास्मादुस्तरमस्तीति अनुत्तरं-केवलज्ञानं, गच्छ च मोक्षं परं पदं शाश्वतमचलं चेत्येवं चकारस्य सम्बन्धः, किं खा-हखा परीषहचम-परीपहसैन्यं, णमित्यलंकारे अथवा किंभूतस्वं-हन्ता-विनाशकः परीपहचमूनां । तते णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो मेहं कुमारं पुरओ कटु जेणामेच समणे भगवं महावीरे तेणामेव उवागच्छति २त्सा समणं भगवं महावीरं तिखुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेंति २त्ता वंदंति नमसंति २त्ता एवं वदासी-एस णं देवाणुप्पिया! मेहे कुमारे अम्हं एगे पुत्ते इढे कंते जाव जीवियाउसासए हिययणदिजणए उंबरपुष्पंपिय दल्लहे सवणयाए किमंग पुण दरिसणयाए, से जहा नामए उप्पलेति वा ॥ ५९॥ पउमेति वा कुमुदेति वा पंके जाए जले संवडिए नोवलिप्पड़ पंकरएणं णोवलिप्पइ जलरएणं एवामेव मेहे कुमारे कामेसु जाए भोगेसु संवुड्ढे नोवलिप्पति कामरएणं नोवलिप्पति भोगरएणं, एस णं देवाणुप्पिया! अनुक्रम [३३] मेघकुमारस्य दीक्षा ~121~ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [२५] दीप अनुक्रम [३४] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] अध्ययनं [१], मूलं [२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ereststreet 66 ह Education Internation मेघकुमारस्य दीक्षा संसारभवि भीए जम्मणजरमरणाणं इच्छइ देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता आगाराओ अनगारियं पतिए, अम्हे णं देवाणुप्पियाणं सिस्सभिक्खं दलयामो, पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया ! सिस्सभिक्खं, तते से समणे भगवं महावीरे मेहस्स कुमारस्स अम्मापि एहिं एवं वृत्ते समाणे एयमहं सम्मं पडिसुणेति, तणं से मेहे कुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिपाओ उत्तरपुरच्छिनं दिसिभागं अवकमति २ ता सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयति, तते णं से मेहकुमारस्स माया हंसलक्खणेणं पडसाइएणं आभरणमल्लालंकारं पडिच्छति २ हारवारिधारसिंदुवार छिन्नमुत्तावलिपगासातिं अंसूणि विणिम्मुयमाणी २ रोयमाणी २ कंदमाणी २ बिलवमाणी २ एवं वदासी-जतियवं जाया ! घडियां जाया ! परकमियां जाया! अस्सि चणं अद्वे नो पमादेयवं अम्हेपि णं एमेव मग्गे भवउत्तिकट्टु मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो समणं भगवं महावीरं वंदति नमसंति २ जामेव दिसिं पाउन्भूता तामेव दिसिं पडिगया (सू २५ ) 'एगे पुते' इति धारिण्यपेक्षया श्रेणिकस्य बहुपुत्रलात् जीवितोच्छ्रासको हृदयनंदिजनकः, उत्पलमिति वा नीलोत्पलं पद्ममिति वा आदित्यबोध्यं कुमुदमिति वा चन्द्रबोध्यं । 'जय' मित्यादि प्राप्तेषु संयमयोगेषु यतः कार्यों हे जात !- पुत्र ! घटितव्यं- अप्राप्तप्राप्तये घटना कार्या पराक्रमितव्यं च पराक्रमः कार्यः, पुरुषत्वाभिमानः सिद्धफल: कर्तव्य इति भावः, किमुक्तं भवति ?- एतस्मिन्नर्थे प्रव्रज्यापालनलक्षणे न प्रमादयितव्यमिति । तते णं से मेहे कुमारे सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेति २ जेणामेव समणे ३ तेणामेव उवागच्छति २ For Panalyse On ~122~ arg Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] -----------------अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२६,२६-R] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. सूत्रांक शक्षिप्तज्ञाते श्रीवीरकृतः | शिक्षोपदे|शःसू.२६ ॥६ ॥ [२६, २६R] समणं भगवं महावीरं तिखुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेति २ बंदति नमसति २ एवं वदासी-आलिते णं भंते ! लोए पलिते णं भंते ! लोए आलित्तपलिते णं भंते! लोए जराए मरणेण य, से जहाणामए के गाहावती आगारंसि झियायमाणंसि जे तत्थ भंडे भवति अप्पभारे मोल्लगुरुए त गहाय आयाए एगंतं अवकमति एस मे णित्धारिए समाणे पच्छा पुरा हियाए सुहाए खमाए णिस्सेसाए आणुगामियत्ताए भविस्सति एवामेव ममवि एगे आयाभंडे इट्टे कंते पिए मणुन्ने मणामे एस मे नित्थारिए समाणे संसारवोच्छेयकरे भविस्सति तंइच्छामि णं देवाणुप्पियाहिं सयमेव पवावियं सयमेव मुंडा. वियं सेहावियं सिक्खावियं सयमेव आयारगोयरविणयवेणइयचरणकरणजायामायावत्तियं धम्ममाइक्खियं, तते णं समणे भगवं महावीरे मेहं कुमारं सयमेव पवावेति सयमेव आयारजाव धम्ममातिक्खइ-एवं देवाणुप्पिया! गंतवं चिहितवं णिसीयचं तुयहियवं भुजियवं भासियचं एवं उठाए उठाय पाणेहिं भूतेहि जीवेहि सत्तेहिं संजमेणं संजमितवं अरिंस च णं अहे णो पमादेयचं, तते णं से मेहे कुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए इमं एयारूवं धम्मियं उवएसं णिसम्म सम्म पडिवजह तमाणाए तह गच्छइ तह चिट्ठइ जाव उट्ठाए उट्ठाय पाणेहिं भूतेहिं जीवेहिं सत्तेहिं संजमह (सूत्रं २६) जं दिवसं च णं मेहे कुमारे मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पवइए तस्स णं दिवसस्स पुवावरण्हकालसमयंसि समणाणं निग्गंथाणं अहारातिणियाए सेज्जासंधारएसु विभजमाणेसु मेहकुमारस्स दारमूले दीप अनुक्रम [३५,३६] मेघकुमारस्य दीक्षा एवं शिक्षा ~123~ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२६,२६-R] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६, २६R] सेजासंधारए जाए यावि होत्या, तते णं समणा णिग्गंधा पुष्वरत्तावरत्तकालसमयंसि वायणाए पुच्छणाए परिपट्टणाए धम्माणुजोगचिंताए य उच्चारस्स य पासवणस्स य अगच्छमाणा य निग्गच्छमाणा य अप्पेगतिया मेहं कुमारं हत्थेहिं संघति एवं पाएहिं सीसे पोहे कार्यसि अप्पेगतिया ओलंडेति अप्पेगइया पोलंडेइ अप्पेगतिया पायरयरेणुगुंडियं करेंति, एवंमहालियं च ण रयणी मेहे कुमारे णो संचाएति खणमवि अछि निमीलित्तए, ततेणं तस्स मेहस्स कुमारस्स अयमेयारूवे अम्भत्थिए जाय समुप्पजित्था-एवं खलु अहं सेणियस्स रनो पुत्ते धारिणीय देवीए अत्तए मेहे जाव समणयाए तं जया णं अहं अगारमझे वसामि तया णं मम समणा णिग्गंथा आहायति परिजाणंति सकारेंति सम्माणति अट्ठाई हेऊति पसिणातिं कारणाई वाकरणाई आतिकखंति इटाहिं कताहिं वग्गृहिं आलवेति संलवेंति, जप्पभितिं चणं अहं मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पवइए तप्पभितिं च णं मम समणा नो आढायंति जावनो संलवंति, अदुत्तरं च णं मम समणा णिग्गंथा राओ पुधरत्तावरत्तकालसमयंसि बायणाए पुच्छणाए जाव महालियं च णं रत्ति नो संचाएमि अच्छि णिमिलावेत्तए, तं सेयं खलु मज्झं कलं पाउप्पभायाए रयणीए जाव तेयसा जलंते समण भगवं महावीरं आपुच्छित्ता पुणरवि आगारमज्झे वसित्तएत्तिकहु एवं संपेहेति २ अदुहवसमाणसगए णिरयपडिरूवियं च णं तं रयणि खवेति २ कल्लं पाउप्पभायाए सुचिमलाए रयणीए जाव दीप अनुक्रम [३५,३६] मेघकुमारस्य दीक्षा एवं शिक्षा ~124~ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२६,२६-R] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६, २६R] ज्ञाताधर्मतेयसा जलते जेणेव समणे भगव० तेणामेव उवागच्छति २ तिखुत्तो आदाहिणं पदाहिणं करेइ २ वंदइ उत्क्षिप्ताकथाङ्गम्. नमसइ २ जाव पजुवासइ (सूत्रं २६) ध्यय.मेषआदीप्त ईषदीतः प्रदीप्त:-प्रकर्षण दीप्त आदीप्तप्रदीप्तोऽत्यन्तप्रदीप्त इति भावः, 'गाहावईत्ति गृहपतिः, 'झियायमाणंसिति स्थावधाव" मायमाने भाण्डं-पण्यं हिरण्यादि अल्पभारं पाठान्तरे अल्पं च तत्सारं चेत्यल्पसारं मूल्यगुरुकं, 'आयाए'त्ति आत्मना 'पच्छा नानुप्रेक्षा पुरा यत्ति पश्चादागामिनि काले पुरा च पूर्वमिदानीमेव लोके-जीवलोके अथवा पश्चाल्लोके-आगामिजन्मनि पुरालोके-इहैव जन्मनि, | सू. २७ पाठान्तरे 'पच्छाउरस्स'ति पश्चादमिभयोचरकाल आतुरस्य-बुभुक्षादिभिः पीडितखेति । 'एगे भंडे'सि एक-अद्वितीय भाण्डमिव भाण्डं 'सयमेवे'त्यादि स्वयमेव प्रब्राजितं वेषदानेन आत्मानं इति गम्यते भावे वा क्तः प्रत्ययः प्रजाजनमित्यर्थः मुण्डितं शिरो-18 लोचेन सेधितं-निष्पादित करणप्रत्युपेक्षणादिग्राहणतः, शिक्षितं सूत्रार्थग्राहणतः, आचारो-शानादिविषयमनुष्ठान कालाध्यय-| नादि गोचरो-भिक्षाटनं विनयः-प्रतीतो पैनयिक-तत्फलं कर्मक्षयादि चरण-प्रसादि करणं-पिण्डविशुद्यादि यात्रा-संयम यात्रा मात्रा-तदर्थमेवाहारमात्रा ततो द्वन्द्वः तत एषामाचारादीनां वृतिः-वर्णनं यसिबसी आचारगोचरविनयवेनयिकचर-1|| कणकरणयात्रामात्रावृत्तिकस्तं धर्ममाख्यात-अभिहितं, ततः श्रमणो भगवान् महावीरः स्वयमेव प्रवाजयति यावत् धम्मेमा-18 | ख्याति, कथमित्याह-एवं गन्तव्यं-युगमात्रभून्यस्तदृष्टिनेत्यर्थः, 'एवं चिट्ठिय'ति शुद्धभूमौ ऊद्देस्थानेन स्थातव्यं, एवं निपीदितव्यं-उपवेष्टव्यं संदंशकभूमिप्रमार्जनादिन्यायेनेत्यर्थः, एवं बग्वर्तितव्यं-शयनीयं सामायिकायुचारणापूर्वकं शरीरप्रमार्जनां विधाय संस्तारकोत्तरपट्टयोर्चाहूपधानेन वामपार्श्वत इत्यादिना न्यायेनेत्यर्थः, भोक्तव्यं-वेदनादिकारणतो अमारा दीप अनुक्रम [३५,३६] SARERatininemarana मेघकुमारस्य दीक्षा एवं शिक्षा ~125~ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२६,२६-R] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६, २६R] दिदोषरहितमित्यर्थः भाषितव्यं-हितमितमधुरादिविशेषणतः, एवमुत्थायोत्थाय-प्रमादनिद्राव्यपोहेन विबुध २ प्राणादिषु | विषयेषु संयमो-रक्षा तेन संयंतव्यम्-संयतितव्यमिति, तत्र-"प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ताः, भूतास्तु तस्वः स्मृताः । जीवाः पञ्चे|न्द्रिया झेयाः, शेषाः सत्त्वा उदीरिताः ॥१॥" किंबहुना?-अस्मिन् प्राणादिसंयमे न प्रमादयितव्यमुद्यम एव कार्य इत्यर्थः । प्रत्यपराहकालसमयो-विकाला, 'अहाराइणियाए'त्ति यथारत्नाधिकतया यथाज्येष्ठमित्यर्थः, शय्या-शयनं तदर्थ संस्तारक-10 भूमयः अथवा शय्यायां-वसती संस्तारकाः शय्यासंस्तारकाः, वाचनायै-वाचनार्थ धर्मार्थमनुयोगस-ग्याख्यानस्य चिन्ता धम्मोनुयोगस्य वा-धर्मव्याख्यानस्य चिन्ता धर्मानुयोगचिन्ता तखै अतिगच्छन्तःप्रविशन्तो निर्गच्छन्तवालयादिति गम्यते, 'ओलंर्डि-18 तित्ति उल्लङ्घयंति 'पोलंडेन्तिति प्रकर्येण द्विस्त्रिोल्लघयंतीत्यर्थः, पादरजोलक्षणेन रेणुना पादरयाद्वा-तद्वेगात् रेणुना गुण्डितो यः स तथा तं कुर्वन्ति । एवंमहालियं च णं रयणि न्ति इतिमहतीं च रजनी यावदिति शेषः, मेघकुमारो 'नो संचाएति'चि न शक्नोति क्षणमप्यक्षि निमीलयितुं निद्राकरणायेति, आध्यात्मिक:-आत्मविषयविन्तित:सारणरूपः प्रार्थितः-अभिलापात्मकः | मनोगतः-मनखेव वर्तते योन बहिः स तथा सङ्कल्पो-विकल्पः समुत्पन्नः आगारमध्ये-गेहमध्ये वसामि-अधितिष्ठामि, पाठान्तरतो अगारमध्ये आवसामि, 'आदति' आद्रियन्ते 'परिजानन्ति' यदुतायमेवंविध इति 'सकारयति सत्कारयन्ति च वस्त्रादि-1 भिरभ्यर्चयन्तीत्यर्थः 'सन्मानयन्ति' उचितप्रतिपत्तिकरणेन, अर्थान-जीवादीन् हेतून-तद्गमकानन्वयव्यतिरेकलक्षणान् प्रश्नान्-16 पर्यनुयोगान् कारणानि-उपपत्तिमात्राणि व्याकरणानि-परेण प्रश्ने कृते उत्तराणीत्यर्थः, आख्यान्ति-ईषत् संलपन्ति-मुहुमुहुः 'अदुसरं च णं'ति अथवा परं एवं संपेहेइ'त्ति संप्रेक्षते-पर्यालोचयति 'अदृदुहवसहमाणसगए'ति आर्तेन-ध्यानवि-11 दीप अनुक्रम [३५,३६] Else मेघकुमारस्य दीक्षा एवं शिक्षा ~ 126~ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्क न्ध: [१] ..............-- अध्य यन [१], ---............-- मलं [२६,२६-R] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत उत्क्षिप्त ज्ञाताधर्मकथाङ्गम. सूत्रांक ज्ञाते मेपपूर्वभवो दितिः सू. [२६, २६R] शेषेण दुःखार्त-दुःखपीडितं वशार्त-विकल्पवशमुपगतं यन्मानसं तद्गतः प्राप्तो यः स तथा, निरयप्रतिरूपिकां च-नरकसरशी दुःखसाधर्म्यात् ता रजनी क्षपयति-गमयति । तते णं मेहाति समणे भगवं महावीरे मेहं कुमार एवं वदासी-से गुणं तुम मेहा ! राओ पुषरतावरत्तकालसमयंसि समणेहिं निग्गंथेहिं वायणाए पुच्छणाए जाव महालियं च णं राई णो संचाएमि मुहुत्तमवि अच्छि निमिलावेत्तए, तते णं तुभं मेहा! इमे एयारूवे अन्भस्थिए०समुपजित्था-जया णं अहं अगा. रमझे बसामि तया णं मम समणा निग्गंथा आढायति जाच परियाणंति, जप्पभितिं च णं मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पचयामि तप्पभितिं च णं मम समणा णो आढायंति जाव नो परियाणंति अदत्तरं च णं समणा निग्गंधा राओ अप्पेगतिया वायणाए जाच पायरयरेणुगुंडियं करेंति, तं सेयं खलु मम कलं पाउप्पभायाए समणं भगवं महावीरं आपुच्छित्ता पुणरवि आगारमझे आवसित्तएत्तिक? एवं संपेहेसि २ अहदुहवसहमाणसे जाव रयणी खवेसिरजेणामेव अहं तेणामेव हवमागए, से गूणं मेहा! एस अत्थे समढे ?, हंता अत्थे समढे, एवं खलु मेहा ! तुम इओ तच्चे अईए भवग्गहणे वेयङगिरिपायमूले वणपरेहि णिवत्तियणामधेजे सेते संखदलउज्जलविमलनिम्मलदहियणगोखीरफेणरयणियरप्पयासे सत्तुस्सेहे णवायए दसपरिणाहे सत्तंगपतिहिए सोमे समिए सुरूवे पुरतो उदग्गे समूसियसिरे सुहासणे पिट्टओ वराहे अतियाकुच्छी अच्छिद्दकुच्छी अलंबकुच्छी पलंबलंबोदराहरकरे घणुपट्टागिइविसिट्ट दीप अनुक्रम [३५,३६] enesdeedeos मेघकुमारस्य पूर्वभवा: ~127~ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [२७] दीप अनुक्रम [३७] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [२७] श्रुतस्कन्ध: [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ৫৯৬৬৯৩১৬ अल्लीपमाणजुत्तवहियापीवरगत्तावरे अल्लीणपमाणजन्तपुच्छे पडिपुन्नसुचारुकुम्मचलणे पंडुरसुबिसुद्विरुिवर्विसतिणद्दे छते सुमेरुष्पभे नामं हत्थिराया होत्था, तत्थणं तुमं मेहा! बहहिं हत्थीहि य हत्याह य लोएहि य लोहियाहि य कलभेहिय कलभियाहि य सद्धिं संपरिबुडे हत्थिसहस्सणायर देस पागट्टी पट्टए जूहबई बंदपरियहए अन्नेसिं च बहूणं एकल्लाणं हत्थिकलभाणं आहेबचं जाव विहरसि, तते गं तुम मेहा ! णिचप्पमते सई पललिए कंदप्परई मोहणसीले अवितण्ड़े कामभोगतिसिए बहिस्थीह य जाव संपरिवुडे बेयगिरिपायमूले गिरीसु य दरीसु य कुहरेसु य कंदरासु य उज्झरेसु य निज्झरेसु य वियरपुमु य गद्दासु य पल्लवेसु य चिल्ललेसु य कडयेसु य कडयपल्ललेय तडीसु विडीय टंकेसु य कूडेसु य सिहरेसु य पन्नारेसु य मंचेसु य मालेमु य काणणेसु य वणे य संडेय वणराईस य नदीसु य नदीकच्छेसु य जूहेसु य संगमेसु य चावीसु य पोक्खरिणीसु य दीहियासु य गुंजालियासु य सरेसु य सरपंतिषासु य सरसरपंतियासु य वणयरएहिं दिन्नवियारे बहूहिं हत्थीहि य जाब सद्धिं संपरिवुडे बहुविहतरुपल्लवपउरपाणियतणे निभए निरुविग्गे सुहंसुहेणं विहरसि । तते गं तुमं मेहा ! अन्नया कयाई पाउसवरिसारत्तसरयहेमंत वसंतेसु कमेण पंचसु उक्सु समतिर्कतेसु गिम्हकालसमयंसि जेट्टामूलमासे पायवधंससमुट्ठिएणं सुकतणपत्तकयवरमा रुत संजोगदीविएणं महाभयंकरेणं हुयवहेणं वणद्वजाला संपलित्तेसु वर्णते धूमाउलासु दिसासु महावायवेगेणं Eucation International मेघकुमारस्य पूर्वभवाः For Parts Only ~128~ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [२७] दीप अनुक्रम [३७] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [२७] श्रुतस्कन्ध: [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥ ६३ ॥ Eucation International मेघकुमारस्य पूर्वभवा: संघडिएस छिन्नजालेसु आवयमाणेसु पोल्लरुक्खेसु अंतो २ झियायमाणेसु मयकुहितविणिविठ्ठकिमियकद्दमनदीवियरगजिण्णपाणीयंतेसु वर्णतेसु भिंगारकदीणकंदियरवेसु खरफरुस अणिहरिद्ववाहितविहुम मेसु हासमुक्क पक्खपयडियाजिन्भतालुयअसंपुडिततुं पक्खिसंधेसु ससंतेसु गिम्हउम्हउ - पहवायखरफरुसचंडमारुयमुक्तणपत्तकय वरवाउलिभमंतदित्तसंभंतसावया उलमिगतण्हाबद्ध चिण्हपहेसु गिरिवरे संवसु तत्थमियपसवसिरीसिवेसु अवदालियवयणविवरणिल्लालियग्गजीहे महंत - बइव पुन्नकन्ने संकुचियथोरपीवरकरे ऊसियलंगूले पीणाइयविरसरडियसद्देणं फोडयंतेव अंबरतलं पायदहरएणं कंपयंतेव मेहणितलं विणिम्मुयमाणे य सीयारं सघतो समंता वलिवियाणाई छिंदमाणे रुक्खसहस्सातिं तत्थ सुबहणि गोल्लायंते विणद्वरद्वेद णरवरिंदे बायाइद्वेव पोए मंडलवाएव परिभमंते अभिक्खणं २ लिंडणियरं पहुंचमाणे २ बहूहिं हत्थीहि य जाब सद्धिं दिसोदिसिं विप्पलाइस्था, तत्थ णं तुमं मेहा! जुन्ने जराजजरियदेहे आउरे झंझिए पिवासिए दुब्बले किलते नद्वसुइए मूढदिसाए सयातो जूहातो विप्पहूणे वणवजालापारद्धे उण्हेण तव्हाए य छुहाए य परम्भाहए समाणे भीए तत्थे तसिए उचि संजातभए सहतो समता आधावमाणे परिधायमाणे एगं च णं महं सरं अप्पोदयं पंकबहुलं अतित्थेणं पाणियपाए उन्नो, तत्थ णं तुमं मेहा । तीरमतिगते पाणियं असंपत्ते अंतरा चैव सेयंसि विसन्ने, तत्थ पण तुमं मेहा ! पाणियं पाइस्सामित्तिकट्टु हत्थं पसारेसि, सेवि य ते हत्थे उद्गं न पावति, तते णं तुमं मेहा ! For Parts Only ~ 129~ १ उत्क्षिप्त ज्ञाते मेघपूर्वभवोदितिः सू. २७ ॥ ६३ ॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७] 20seesasaragrapa दीप अनुक्रम [३७] पुणरवि कार्य पद्धरिस्सामीतिकटु बलियतरायं पंकसि खुत्ते । तते णं तुमे मेहा! अन्नया कदाइ एगे चिरनिज्जूढे गयवरजुवाणए सगाओ जहाओ करचरणदंतमुसलप्पहारेहि विप्परद्धे समाणे तं चेव महदहं पाणीयं पादे समोयरेति, तते णं से कलभए तुमं पासति २२ पुषवरं समरति २ आसुरुते रहे कुविए चंडिकिए मिसिमिसेमाणे जेणेव तुमं तेणेव उवागछति २ तुमं तिक्खेहिं दंतमुसलेहिं तिक्खुत्तो पिट्टतो उच्छुभति उफहभित्ता पुषवेरं निज्जाएति २ हहतुढे पाणियं पियति २ जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए, तते णं तव मेहा ! सरीरगंसि वेयणा पाउन्भवित्था उज्जला विउला तिउला कक्खडा जाव दुरहियासा पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवकंतीए यावि विहरित्था । तते णं तुम मेहा ! तं उज्जलं जाव दुरहियासं सत्तराईदियं वेयर्ण वेदेसि सवीसं वाससतं परमाउं पालहत्ता अहवसहदह कालमासे कालं किचा इहेब जंबुद्दीवे भारहे चासे दाहिणहभरहे गंगाए महाणदीए दाहिणे कूले विंझगिरिपायमूले एगेणं मत्तवरगंधहस्थिणा एगाए गयवरकरेणूए कुच्छिसि गयकलभए जणिते, तते णं सा गयकलभिया णवण्हं मासाणं वसंतमासंमि तुम पयाया, तते णं तुम मेहा! गम्भवासाओ विप्पमुक्के समाणे गयकलभए यावि होत्था, रनुप्पलरत्तसूमालए जासुमणारत्तपारिजत्तयलक्खारससरसकुंकुमसंझन्भरागवन्ने इहे णिगस्स जूहवइणो गणियायारकणेरुकोत्थहत्थी अणेगहस्थिसयसंपरिबुडे रम्मेमु गिरिकाणणेसु सुहंसुहेणं विहरसि । तते गं तुम मेहा! उम्मुक्कबालभावे जोवणगमणुपत्ते जूहब मेघकुमारस्य पूर्वभवा: ~130~ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाङ्गम् ॥ प्रत उत्क्षिप्तज्ञाते मेपूर्वभवोदितिः सू. सूत्रांक [२७] २७ दीप इणा कालधम्मुणा संजुत्तेणं तं जूहं सयमेव पडिवज्जसि, तते णं तुम मेहा ! वणयरेहिं निवत्तियनामधेजे जाव चउदंते मेरुप्पभे हत्थिरयणे होत्या, तत्थ णं तुम मेहा! सत्संगपइट्टिए तहेब जाव पडिरूवे, तत्थ णं तुम मेहा ! सत्तसइयस्स जूहस्स आहेब जाव अभिरमेत्या, तते णं तुमं अन्नया कचाइ गिम्हकालसमयंसि जेट्ठामूले वणदवजालापलितेसु वर्णतेसु सुधूमाउलासु दिसामु जाच मंडलवाएव तते णं परिभमंते भीते तत्थे जाव संजायभए बहहिं हत्थीहि य जाव कलभियाहि य सद्धिं संपरिबुडे सघतो समंता दिसोदिसिं विप्पलाइत्था, तते गं तव मेहा! तं वणवं पासित्ता अयमेयारूपे अज्झस्थिए जाव समुप्पज्जित्था कहिणं मन्ने मए अयमेयारूवे अग्गिसंभवे अणुभूयपुवे?, तव मेहा ! लेस्साहिं विसुज्झमाणीहिं अज्झवसाणेणं सोहणणं सुभेणं परिणामेणं तयावरणिजाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापूहमग्गणगवेसणं करेमाणस्स सन्निपुत्वे जातिसरणे समुपन्जित्था, तते णं तुम मेहा! एयमटुं सम्मं अभिसमेसि, एवं खलु मया अतीए दोचे भवग्गहणे इहेब जंबुरीये २ भारहे वासे वियद्दगिरिपायमूले जाव तत्वणं महया अयमेयारूवे अग्गिसंभवे समणुभूग, तते णं तुम मेहा! तस्सेव दिवसस्स पुत्वावरण्हकालसमयंसि नियएणं जूहेणं सद्धिं समन्नागए यावि होत्था, तते णं तुम मेहा! सत्तुस्सेहे जाव स. निजाइस्सरण चाईते मेरुप्पमे माम हत्थी होत्था, तते गं तुझं मेहा अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पजित्था-तं सेयं खलु मम इयाणि गंगाए महानदीए दाहिणिल्लंसि कूलंसि विंझगिरिपायमूले दवग्गि अनुक्रम [३७] ॥६४॥ मेघकुमारस्य पूर्वभवा: ~ 131~ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७] दीप संताणकारणहा सएणं जूहेणं महालय मंडलं घाइत्तएत्तिकटु एवं संपेहेसि २ मुहंसुहेणं विहरसि, तते णं तुम मेहा! अन्नया कदाई पढमपाउसंसि महाबुट्टिकायंसि सन्निवइयंसि गंगाए महानदीए अदूरसामंते बहहिं हत्थीहिं जाव कलभियाहि य सत्तहि य हत्थिसएहिं संपरिबुडे एगं महं जोयणपरिमंडलं महतिमहालयं मंडलं घाएसि, जं तत्थ तणं वा पत्तं वा कटुं वा कंदए वा लया वा वल्ली वा खाणुं वा रुक्खे वा खुवे वा तं सचं तिखुत्तो आहुणिय एगते एडेसि२पाएण उट्ठवेसि हत्थेणं गेण्हसि [२त्ता ततेणं तुम मेहावस्सेव मंडलस्स अदरसामंते गंगाए महानदीए दाहिणिल्ले कूले विंझगिरिपायमले गिरीस य जाव विहरसि, तते गं मेहा! अन्नया कदाइ मज्झिमए वरिसारत्तंसि महाविट्ठिकार्यसि सन्निवइयंसि जेणेव से मंडले तेणेव उवागच्छसि २दोचंपि तपि मंडलं घाएसि २ एवं चरिमे वासारत्तसि महाबुद्धिकायंसि सन्निवइयमाणंसि जेणेव से मंडले तेणेव उवागच्छसि २ तचंपि मंडलघायं करेसि जं तत्थ तणं वा जाव सुहंसुहेणं विहरसि, अह मेहा! तुमं गइंदभावंमि वहमाणो कमेणं नलिणिवणविवहणगरे हेमंते कुंदलोद्धउद्धृततुसारपउरंमि अतिकते अहिणवे गिम्हसमयसि पत्ते वियदृमाणेसु वणेसु वणकरेणुविविहदिण्णकयपंसुघाओ तुम उज्यकुसुमकयचामरकन्नपूरपरिमंडियाभिरामो मयवसविगसंतकडतडकिलिन्नगंधमदवारिणा सुरभिजणियगंधो करेणुपरिवारिओ उउसमत्तजणितसोभो काले दिणयरकरपयंडे परिसोसियतरुवरसिहरभीमतरदसणिज्जे भिंगाररवंतभेरवरवे गाणाविहपत्तकट्टतणकयवरुद्धतपइ अनुक्रम [३७] मेघकुमारस्य पूर्वभवा: ~ 132~ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [२७] दीप अनुक्रम [३७] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१] अध्ययनं [१], मूलं [२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥ ६५ ॥ Education Internation मेघकुमारस्य पूर्वभवाः मारुयाइद्ध हलदुमगणे वाउलियादारुणतरे तण्हाव सदसदूसिय भमंतविविहसावयसमाउले भीमदरिसणिजे बहते दारुणंमि गिम्हे मारुतवसपसरपसरियवियंभिएणं अन्भहिय भीमभैरवरवप्पगारेणं महुधारापडियसित उद्धायमाणधगधगधगंतसदुदुएणं दित्ततरसफुलिंगेणं धूममालाउलेणं सावयसयंतकरणेणं अन्भहियवणद्वेणं जालालोवियनिरुद्ध धूमंधकार भीयो आयवालोयमर्हततुंबइयपुन्नकन्नो आकुंचियथोरपीवरकरो भयवसभयंतदित्तनयणो वेगेण महामे होव पवणोल्लियमहल्लरूवो जेणेव कओ ते पुरा दवग्गिभयभीयहियएणं अवगयतणप्पएसरुक्खो रुक्खोदेसो दवग्गिसंताणकारणट्ठाए जेणेव मंडले तेणेव पहारेत्थ गमगाए, एको ताव एस गमो । तते णं तुमं मेहा ! अन्नया कदाई कमेणं पंच समतिक ते गिम्हकालसमयंसि जेट्ठामूले मासे पायवसंघससमुट्ठिएणं जाव संघट्टिएल मियपसुपक्खिसिरीसिवे दिसो दिसिं विप्पलायमाणेसु तेहिं बहुहिं हत्थीहि य सद्धिं जेणेव मंडले तेणेव पहारेत्थ गमणाए, तत्थ णं अण्णे बहवे सीहा य वग्धा य विगया दीविया अच्छा य तरच्छा य पारासरा य सरभा य सियाला विराला सुणहा कोला ससा कोकंतिया चित्ता चिल्लला पुवपविट्ठा अग्गिभयविया एगयाओ विम्मेण चिति, तए णं तुमं मेहा! जेणेव से मंडले तेणेव उवागच्छसि २ त्ता तेहिं बहिं सीहेहिं जाव चिल्ललहि य एगयओ बिलधम्मेणं चिट्ठसि, तते गं तुमं मेहा! पाएणं गत्तं कंडुइस्सामीतिक पाए उक्ते तसिं चणं अंतरंसि अन्नेहिं बलवन्तेहिं सत्तेहिं पणोलिजमणे २ ससए अणुपविट्टे । For Penal Use On ~ 133~ seatstseese cecesee Se १ उत्क्षिप्तज्ञाते मे घपूर्वभवो दितिः सू. २७ ॥ ६५ ॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७] दीप तते णं तुम मेहा ! गायं कंडुइत्ता पुणरवि पायं पडिनिक्खमिस्सामित्तिकटुतं ससयं अणुपविटु पाससि २ पाणाणुकंपयाए भूपाणुकंपाए जीवाणुकंपाए सत्ताणुकंपयाए सो पाए अंतरा चेव संधारिए, नो चेवण णिक्खित्ते, तते गं तुम मेहा ! ताए पाणाणुकंपयाए जाव सत्ताणुकंपयाए संसारे परित्तीकते माणुस्साउए निबद्धे, तते णं से वणदवे अहातिजाति रातिदियाइं तं वर्ण झामेइ २ निहिए उवरए उवसंते विज्झाए याचि होत्था, तते गं ते बहवे सीहा य जाब चिल्लला य तं वणवं निद्वियं जाव विज्झायं पासंति २त्ता अग्गिभयविप्पमुका तण्हाए य छुहाए य परम्भाहया समाणा मंडलातो पडिनिक्खमंति २सव्वतो समंता विप्पसरित्था, [लए णं ते बहवे हस्थि जाच छुहाए य परम्भाहया समाणा तओ मंडलाओ पडिनिक्खमंति २ दिसो दिसिं विप्पसरित्था,] तए णं तुम मेहा! जुन्ने जराजजरियदेहे सिढिलवलितयापिणिद्धगत्ते दुबले किलंते जॅजिए पिवासिते अत्थामे अबले अपरकमे अचंकमणो वा ठाणुखंडे वेगेण विप्पसरिस्सामित्तिकट्ठ पाए पसारेमाणे विज्जुहते विव रयतगिरिपन्भारे धरणितलंसि सपंगेहि य सन्निवहए, सते णं तव मेहा ! सरीरगंसि वेयणा पाउन्भूता उजला जाव दाहवकंतिए यावि विहरसि, तते णं तुम मेहा! तं उज्जलं जाच दुरहियासं तिन्नि राइंदियाई वेयणं वेएमाणे बिहरित्ता एगं वाससतं परमाउं पालइत्ता इहेव जंबुद्दीवे २ भारहे वासे रायगिहे नयरे सेणितस्स रन्नो धारिणीए देवीए कुञ्छिसि कुमारत्ताए पञ्चायाए । (सूत्र २७) अनुक्रम [३७] मेघकुमारस्य पूर्वभवा: ~ 134~ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाङ्गम् प्रत सूत्रांक ॥६६॥ [२७] दीप 'मेहाइति हे मेघ इति, एवमभिलाप्य महावीरस्तमवादीत् । 'से गूण मित्यादि, अथ नूनं-निधितं मेध! अस्ति उत्क्षिप्तएषोऽर्थः', 'हंतति कोमलामन्त्रणे अस्त्येपोर्थ इति मेधेनोत्तरमदायि, वनचरकैः-शबरादिभिः, 'संखे'त्यादि विशेषणं ज्ञाते मेप्रागिव सत्तुस्सेहे-सप्तहस्तोच्छ्रितः, नवायतो-नवहस्तायतः, एवं दशहस्तप्रमाणः मध्यभागे सप्ताङ्गानि-पादकरपुच्छलिङ्ग- पपूर्वभवोलक्षणानि प्रतिष्ठितानि भूमौ यस्य स तथा सम:-अविषमगात्र: मुसंस्थितो-विशिष्टसंस्थानः पाठान्तरेण सौम्यसम्मितः दितिःसू. तत्र सोम्यः-अरौद्राकारो नीरोगो वा सम्मितः-प्रमाणोपेताङ्गः, पुरतः-अग्रतः उदग्रः-उच्चः समुच्छ्रितशिराः शुभानि मुखानि वा आसनानि-स्कन्धादीनि यस्य स तथा, पृष्ठतः-पश्चाद्भागे वराह इस-शूकर इव बराह: अवनतसाद, अजिकाया इबोबतखात् कुक्षी यस्य स तथा, अच्छिद्रकुक्षी मांसलखात् अलम्बकुक्षिरपलक्षणवियोगात् पलम्बलंबोयराहरकरेत्ति-प्रलम्यं च लम्बी च क्रमेणोदरं च-जठरमधरकरौ च-ओष्ठहस्तौ यस्य स तथा, पाठान्तरे [प्रलम्बी लम्बोदरखेव-18 गणपतेरिव अधरकरौं यस्य स तथा, धनु:पृष्ठाकृति-आरोपितज्यधनुराकारं विशिष्ट-प्रधानं पृष्ठं यस्य स तथा, आलीनानि-18|| सुश्लिष्टानि प्रमाणयुक्तानि वर्तितानि-वृत्तानि पीवराणि-उपचितानि गात्राणि-अङ्गानि अपराणि-वर्णितगात्रेभ्योज्यानि अपर-1 भागगतानि वा यस्ख स तथा, अथवा आलीनादिविशेषणं गात्रं-उरः अपरश्न-पश्चाद्भागो यस्य स तथा, वाचनान्तरे विशेषणयमिदं-अभ्युद्गता-उन्नता मुकुलमल्लिकेव-कोरकाबस्थविचकिलकुसुमवद्धवलाच दन्ता यस्य सोऽभ्युद्गतमुकुलमल्लिकाध- ॥६६॥ वलदन्तः आनामितं यचाप-धनुस्तखेव ललितं-विलासो यस्याः सा तथा सा च संवेल्लिता च-संवेल्लन्ती सोचिता वा अग्रसुण्डा-सुण्डाग्रं यस्य स आनामितचापललितसंवेल्लिताग्रसुण्डः, आलीनप्रमाणयुक्तपुच्छः प्रतिपूणोंः सुचारवः कूम्मेवचरणा यस्य स] अनुक्रम [३७] मेघकुमारस्य पूर्वभवा: ~135~ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [२७] दीप अनुक्रम [३७] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [२७] श्रुतस्कन्धः [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः तथा पाण्डुरा :- शुक्लाः सुविशुद्धा: - निर्मलाः स्त्रिग्धाः - कान्ता निरुपहताः- एफोटादिदोषरहिता विंशतिर्नखा यस्य स तथा, तत्र त्वं हे मेघ ! बहुभिर्हस्त्यादिभिः सार्द्ध संपरिवृतः आधिपत्यं कुर्वन् विहरसीति सम्बन्धः । तत्र हस्तिन:- परिपूर्ण प्रमाणाः लोट्टकाः कुमारकावस्थाः कलभाः - बालकावस्थाः हस्तिसहस्रस्य नायकः- प्रधानः न्यायको वा देशको हितमार्गादेः प्राकर्षीप्राकर्षको अग्रगामी प्रस्थापको - विविधकार्येषु प्रवर्तको यूथपतिः- तत्स्वामी वृन्दपरिवर्द्धकः - तद्वृद्धिकारकः 'सई पललिए 'ति सदा प्रललितः प्रक्रीडितः कन्दर्परतिः - केलिप्रियः मोहनशीलो - निधुवनप्रियः अवितृप्तो मोहने एवानुपरतवाञ्छ:, तथा सामान्येन कामभोगेऽतृषितः गिरिषु च पर्वतेषु दरीषु च कन्दरविशेषेषु कुहरेषु च पर्वतान्तरालेषु कन्दरासु च गुहासु उज्झरेषु च- उदकस्य प्रपातेषु निर्झरेषु च स्यन्दनेषु विदरेषु च क्षुद्रनथाकारेषु नदीपुलिनस्यन्दजलगतिरूपेषु वा गर्तासु च प्रतीतासु पल्बलेषु च प्रह्लादनशीलेषु चिललेषु च चिक्खिलमिश्रेषु कटकेषु च पर्वततटेषु कटकपल्वलेषु - पर्वततटन्य स्थितजलाशय विशेषेषु तटीषु च नद्यादीनां तटेषु वितटीषु चतास्येव विरूपासु अथवा वियडिशन्देन लोके अटवी उच्यते, टकेषु च -एकदिशि छिन्नेषु पर्वतेषु कुटकेषु च अघोविस्तीर्णेषूपरि संकीर्णेषु वृत्तपर्वतेषु हस्त्यादिवन्धन स्थानेषु वा शिखरेषु च पर्वतोपरिवर्त्ति कूटेषु प्राग्भारेषु च - ईषदवनतपर्वतभागेषु मचेषु च स्तम्भन्यस्तफलकमयेषु नद्यादिलङ्घनार्थेषु मालेषु च श्वापदादिरक्षार्थेषु तद्विशेषेष्वेव मश्चमालकाकारेषु पर्वतदेशेष्वित्यन्ये काननेषु च स्त्रीपक्षस्य पुरुषपक्षस्य चैकतरस्य भोग्येषु वनविशेषेषु अथवा यत्परतः पर्वतोऽटवी वा भवति तानि काननानि जीर्णवृक्षाणि वा तेषु वनेषु च एकजातीयवृक्षेषु वनखण्डेषु च अनेकजातीयवृक्षेषु वनराजीषु च एकानेकजातीयवृक्षाणां पतिषु नदीषु च प्रतीतासु नदीकक्षेषु च तद्गहनेषु यूथेषु च वानरादियू Education intention मेघकुमारस्य पूर्वभवाः For Pass Use Only ~ 136~ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म- कथाइम्. प्रत सूत्रांक [२७] दीप थाश्रयेषु सङ्गमेषु च नदीमीलकेषु वापीषु च-चतुरखासु पुष्करिणीषु च-वर्तुलासु पुष्करवतीषु वा दीर्घिकासु च-ऋजुसा- उत्क्षिप्तरिणीषु गुंजालिकासु च-वक्रसारिणीषु सरस्सु च-जलाशयविशेषेषु सरपत्रिकासु च-सरसा पद्धतिषु सर सर पत्रिकासु च-यास ज्ञाते मेसरस्पतिषु एकसात्सरसोऽन्यसिन्नन्यसादन्यत्रैवं सञ्चारकपाटकेनोदकं संचरति तासु बहुविधास्तरुपल्लवाः प्रचुराणि पानीय- पूर्वभवोतृणानि च यस भोग्यतया स तथा, निर्भयः शूरखात् , निरुद्विग्नः सदैव अनुकूलविषयप्राप्ते, सुखसुखेन-अकृच्छ्रेण । 'पाउसेत्यादि, दितिःसू. प्रावृद्-आषाढश्रावणौ वर्षारात्रो-भाद्रपदाश्वयुजौ शरत्-कार्चिकमार्गशीर्षों हेमन्तः-पोषमाघौ वसन्तः-फाल्गुनचैत्रौ एतेषु | पञ्चसु ऋतुषु समतिक्रान्तेषु, 'ज्येष्ठामूलमासे'त्ति ज्येष्ठमासे पादपघर्षणसमुत्थितेन शुष्कतृणपत्रलक्षणं कचवरं मारुतश्च तयोः । संयोगेन दीप्तो यः स तथा तेन 'महाभयंकरेण अतिभयकारिणा 'हतबहेन अग्निना यो जनित इति हृदयस्थं, 'वनदवो. वनाग्निः, तस्य ज्वालाभिः संप्रदीप्ता येते तथा तेषु च वनान्तेषु सत्सु अथवा 'पायवर्घससमुद्विएण'मित्यादिषु णकाराणां वाक्या-IST लङ्कारार्थवात्सप्तम्येकवचनान्तता व्याख्येया, तथा धूमाकुलामु दिक्षु, तथा महावायुवेगेन संघट्टितेषु छिन्नज्वालेषु-त्रुटित-IN ज्वालासमूहेषु आपतत्सु-सर्वतः संपतत्सु तथा 'पोल्लरुक्खेसु'त्ति शुषिरवृक्षेषु अन्तरन्त:-मध्ये मध्ये ध्मायमानेषु-दह्यमानेषु तथा मृतैर्मुगादिभिः कुथिता:-कोथमुपनीता विनष्टा:-विगतस्वभावाः 'किमिणकहमति कमिवत्कर्दमाः नदीनां विनर-1 काणां च क्षीणपानीयाः अन्ता:-पर्यन्ता येषु, कचित् 'किमवत्ति' पाठः तत्र मृतैः कुथिताः विनष्टकृमिकाः कर्दमाः-नदीवि- ॥६७ ॥ | दरकलक्षणाः क्षीणा जलक्षयास्पानीयान्ता-जलाशया येषु ते तथा तेषु बनान्तेषु बनविभागेषु सत्सु, तथा भृङ्गारकाणांपक्षिविशेषाणां दीनः क्रन्दितरवो येषु ते तथा तेषु बनान्तेष्विति वर्तते, तथा खरपरुष-अतिकर्कशमनिष्ट रिष्ठाना-काकानां च्या अनुक्रम [३७] कर मेघकुमारस्य पूर्वभवा: ~ 137~ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७] eas दीप अनुक्रम [३७] हत-शब्दितं येषु ते तथा, विद्रुमाणीव-प्रवालानीच लोहितानि अग्नियोगात्पल्लवयोगाद्वा अग्राणि येषां ते विद्वमानास्ततः पदद्वयस्य २ कर्मधारयः, ततस्तेषु द्रुमाग्रेषु वृक्षोत्तमेषु सत्सु, वाचनान्तरे खरपरुषरिष्ठव्याहृतानि विविधानि द्रुमाग्राणि येषु ते खरपरुषरिष्ठव्याहृत विविधद्रुमारास्तेषु वनान्तेष्विति, तथा तृष्णावशेन मुक्तपक्षा:-लथीकृतपक्षाः प्रकटितजिहातालुकाः असंघटिततुण्डाय-असंवृतमुखाः ये पक्षिसङ्कास्ते तथा तेषु 'ससंतसु'त्ति श्वसत्सु-श्वासं मुश्चत्सु, तथा ग्रीष्मस्य ऊष्मा च-उष्णता उष्ण|पातश्च-रविकरसन्तापः खरपरुषचण्डमारुतश्च-अतिकर्कशप्रबलवातः शुष्कतृणपत्रकचवरप्रधानवातोली चेति द्वन्द्वः ताभिभ्रेमन्तः-अनवस्थिता दृप्ताः संभ्रांता ये श्वापदाः-सिंहादयः तैराकुला येते तथा, मृगतृष्णा-मरीचिका तल्लक्षणो बद्धः चिह्नपट्टो येषु | |ते तथा, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयोऽतस्तेषु सत्सु, गिरिवरेषु-पर्वतराजेषु, तथा संवर्तकितेपु-संजातसंवर्तकेषु त्रस्ता-भीता ये मृगाश्च प्रसयाध-आटव्यचतुष्पदविशेषाः सरीसृपाश्च-गोधादयस्तेषु, ततश्चासौ हस्ती अवदारितवदनविवरो निलोलिताग्रजितश्च य इति कर्मधारयः 'महंततुंबइयपुण्णकपणे महान्तौ तुम्बकितौ-भयादरघट्टतुम्बाकारौं कृतौ स्तब्धावित्यर्थः, पुण्यौ-व्याकुलतया शब्दग्रहणे प्रवणौ कौँ यस्य स तथा, संकृचितः 'थोर'त्ति स्थूलः पीबरो-महान् करो यस्य स तथा उच्छितलाकुलः 'पीणाइय'ति पीनाया-मडा तया निर्वृत्तं पैनायिकं तद्विधं यद्विरसं रटितं तल्लक्षणेन शब्देन स्फोटयनिवाम्बरतलं पादददरेण-16 पादपातेन कम्पयमिव मेदिनीतल'मित्यादि, कण्ठयं 'दिसो दिसिंति दिक्षुचापदिक्षु च विपलायितवान् , आतुरो-ग्याकुलः 'जु-II जिए'त्ति बुभुक्षितः दुर्बलः कान्तो ग्लानः नष्टश्रुतिको-मूढदिकः 'परम्भाहए'त्ति पराभ्याहतो बाधितो भीतो-जातभया प्रस्तोजातक्षोभः 'तसिए'ति शुष्क आनन्दरसशोषात उद्विमः-कथमितोऽनर्थान्मोक्ष्येऽहमित्यध्यवसायवान, किमुक्तं भवति ?-संजात मेघकुमारस्य पूर्वभवा: ~ 138~ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म प्रत कथाङ्कम् ॥६८॥ सूत्रांक [२७] दीप अनुक्रम भयः-सर्वात्मनोत्पन्नभयः आधावमान-ईषत् परिधावमानः-समन्तात् 'पाणियपाए ति पानं पायः पानीयस्य पायः पानी-1| उत्क्षिप्त| यपायस्तस्मिन् , जलपानायेत्यर्थः, 'सेयंसि विसनेत्ति पक्के निमग्नः, कार्य प्रत्युद्धरिष्यामीतिकृत्ला कायमुद्धर्जुमारब्ध इति शेषः, ज्ञाते मे'बलियतरापंति गाढतरं । 'तए ण'मित्यादि, इहैवमक्षरघटना-खया हे मेघ ! एको गजवरयुवा करचरणदन्तमुशलप्रहारै-पापपूर्वेभवो[विप्रालब्धो विनाशयितुमिति गम्यते, विपराद्धो वा-इतः सन् अन्यदा कदाचित् खकाय्थात् चिरं 'निज्जूढे ति निर्धाटितो यः18 दितिः सू. स पानीयपानाय तमेव महाइदं समवतरति स्मति, 'आसुरुत्तेति स्फुरितकोपलिजः रुष्ट-उदितक्रोधः कुपिता-प्रवृद्धकोपोदयः २७ चाण्डिक्यिता-संजातचाण्डिक्यः प्रकटितरौद्ररूप इत्यर्थः 'मिसिमिसीमाणे'त्ति क्रोधामिना देदीप्यमान इव, एकाथिका वैते |शब्दाः कोपप्रकर्षप्रतिपादनार्थ नानादेशजविनेयानुग्रहार्थ वा, 'उच्छाई' अवष्टनाति विध्यतीत्यर्थः, 'निजाए'चि निर्यातयति समापयति, वेदना किंविधा ?-उज्ज्वला विपक्षलेशेनापि अकलङ्किता विपुला शरीरव्यापकलात् कचित्तितुलेत्ति पाठस्तत्र त्रीनपि । मनोवाकायलक्षणानर्थास्तुल यति जयति तुलारूढानिच वा करोतीति त्रितला कर्कशा-कर्कशद्रव्यमिवानिष्टेत्यर्थः, प्रगाढा-प्रक-18 पवती चण्डा-रौद्रा दुःखा-दुःखरूपा न सुखेत्यर्थः, किमुक्तं भवति ?-दुरधिसहा, 'दाहवतीए'चि दाहो व्युत्क्रान्त उत्पन्नो यस्य स तथा स एव दाहव्युत्क्रान्तिकः 'अहवसहदुहहे'त्ति आर्चवर्श-आध्यानवशतामृतो-गतो दुःखातेश्च यः स तथा, | 'कणरुपति करेणुकायाः 'रनुपल्ले त्यादि रक्कोत्पलबद्रक्तः सुकुमारकच यः स तथा जपासुमनश्च आरक्तपारिजातकश्च ॥६ ॥ | वृक्षविशेषों लाक्षारसब सरसकुमं च सन्ध्यारागश्चेति द्वन्द्वः एतेषामिव वर्णो यस्य स तथा, 'गणियार'ति गणिकाकारा:समकायाः करेणवस्तासां 'कोत्थंति उदरदेशस्तत्र हस्तो यस कामक्रीडापरायणलात् स तथा, इह चेत्समासान्तो द्रष्टव्यः । [३७] मेघकुमारस्य पूर्वभवा: ~139~ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७] दीप अनुक्रम [३७] 'कालधंमुण'चि काल:-मरणं स एव धर्मो-जीवपर्यायः कालधर्मः 'निवत्तियनामधेजो इह यावत्करणेन यद्यपि समग्र पूर्वोक्तो हस्तिवर्णकः सूचितस्तथापि श्वेततावर्णकवों द्रष्टव्यः, इह रक्तस्य तस्य वर्णितखादत एवाग्रे 'सत्तुस्सेहे इत्यादिक-18 मतिदेशं वक्ष्यति यत् पुनरिह दृश्यते 'सत्संगे'त्यादि तद्वाचनान्तरं, वर्णकापेक्षं तु लिखितमिति । 'लेसाही'त्यादि तेजोले| श्याघन्यतरलेश्यां प्राप्तस्पेत्यर्थः अध्यवसान-मानसी परिणतिः परिणामो-जीवपरिणतिः, जातिस्मरणावरणीयानि कर्माणि| मतिज्ञानावरणीयभेदाः क्षयोपशमः-उदितानां क्षयोऽनुदितानां विष्कम्भितोदयलं ईहा सदर्थाभिमुखो वितर्क इत्यादि प्राग्वत्, संज्ञिनः पूर्वजाति:-प्राक्तनं जन्म तस्या यत् स्मरणं तत्संक्षिपूर्वजातिस्मरणं व्यस्त निर्देशे तु संज्ञी पूर्वो भवो यत्र तत्संक्षिपूर्व | संज्ञीति च विशेषणं स्वरूपज्ञापनार्थ, न झसंझिनो जातिविषयं स्मरणमुत्पद्यत इति, 'अभिसमेसिति अवयुध्यसे प्रत्यपरा का-अपराकः, 'तए ण'मित्यादिको ग्रन्थो जातिस्मरणविशेषणमाश्रित्य वर्णितः, 'दवग्गिजायकारणहति दवाने: संजातस्य | कारणस्य-भयहेतोनिवृत्तये इदं दवाग्निसंजातकारणार्थ, अर्थशब्दस्य निवृत्त्यर्थखात्, कचित् 'दवग्गिसंताणकारणट्ठति दृश्यते, तत्र दवाग्निसत्राणकारणायेति व्याख्येय, 'मंडलं घाएसि वृक्षाद्युपपातेन तत्करोतीत्यर्थः 'खुवेतयति वति क्षुवो-TAI इखशिखः शाखी 'आहुणिय'त्ति २ प्रकम्प्य चलयितेत्यर्थः, 'उववेसित्ति उद्धरसि 'एडेसिति छईयसि, 'दोचंपि' द्वितीयं तस्यैव मण्डलस्य घातं, एवं तृतीयमिति, नलिनीवनविवधनकरे, इह विवधनं-विनाशः, 'हेमंते'ति शीतकाले कुन्दा:-पुष्पजातीयविशेषाः लोधाश्च-वृक्षविशेषास्ते च शीतकाले पुष्प्यन्त्यतस्ते उद्धता:-पुष्पसमृद्ध्या उद्धरा इव यत्र | स तथा, तथा तुषारं-हिमं तत् प्रचुरं यत्र स तथा, ततः कर्मधारयः ततस्तत्र, ग्रीष्मे-उष्णकाले विवर्तमानो-विचरन् वनेषु वन मेघकुमारस्य पूर्वभवा: ~140~ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [२७] दीप अनुक्रम [३७] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१] अध्ययनं [१], मूलं [२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥ ६९ ॥ करेणूनां ताभिर्वा विविधा 'दिन'त्ति दत्ताः कजप्रसवैः पद्मकुसुमैर्घाताः प्रहारा येषु यस्य वा स तथा 'वणरेणुवि विहदिन्नकयपसुधाओ ति पाठान्तरे तु बनरेणवो-वनपांशको विविधं अनेकधा 'दिन'त्ति दत्ता दिक्ष्वात्मनि च क्रीडापरतया क्षिप्ता येन ४ स तथा, तथा क्रीडयैव कृताः पांशुधाता येन स तथा ततः पदद्वयस्य कर्म्मधारयः, 'तुम'ति त्वं, तथा कुसुमैः कृतानि यानि चामरवत्कर्णपूराणि तैः परिमण्डितोऽभिरामश्च यः स तथा कचित् 'उज्यकुसुम' ति पाठः, तत्र ऋतुजकुसुमैरिति व्याख्येयं, तथा मदवशेन विकसन्ति कटतटानि गण्डतटानि क्लिन्नानि - आद्रीकृतानि येन तत्तथा तच तद्गन्धमद्वारि च तेन सुरभिजनितगन्धः - मनोज्ञकृतगन्धः करेणुपरिवृतः ऋतुभिः समस्ता समाप्ता वा परिपूर्णा जनिता शोभा यस्य स तथा काले किंभूते ?दिनकरः करप्रचण्डो यत्र स तथा तत्र, परिशोषिताः- नीरसीकृताः तरुवरा : श्रीधराः - शोभावन्तो येन परिशोषिता वा तरुवराणां श्री:- संपद्धरायां- भुवि वा येन, पाठान्तरे परिशोषितानि तरुवरशिखराणि येन स तथा स चासौ भीमतरदर्शनीयश्चेति, तत्र, भृङ्गाराणां पक्षिविशेषाणां स्वतः खं कुर्वतां भैरवो भीमो वः- शब्दो यस्मिन् स तथा तत्र, नानाविधानि पत्रकाष्ठतृणकचवराण्युद्धतानि - उत्पाटितानि येन स तथा स चासौ प्रतिमारुतश्च प्रतिकूलवायुस्तेन आदिग्धं व्याप्तं नभस्तलं व्योम 'पडम| माणे ति पडसादुपतापकारि यस्मिन् पाठान्तरे उक्तविशेषणेन प्रतिमारुतेनादिग्धं नभस्तलं द्रुमगणश्च यस्मिन् स तथा तत्र वातोल्या - वात्यया दारुणतरो यः स तथा तत्र, तृष्णावशेन ये दोषा-वेदनादयस्तैर्दोषिता जातदोषा दूषिता वा भ्रमन्तो | विविधा ये श्वापदास्तैः समाकुलो यः स तथा तत्र, भीमं यथा भवत्येवं दृश्यते यः स भीमदर्शनीयः तत्र वर्तमाने दारुणे ग्रीष्मे, केनेत्याह- मारुतवशेन यः प्रसरः- प्रसरणं तेन प्रसृतो विजृम्भितथ - प्रबलीभूतो यः स तथा तेन, वनदवेनेति योगः अभ्यधिकं Education Internation मेघकुमारस्य पूर्वभवाः For Parks Use Only ~ 141 ~ १ उत्क्षिप्त ज्ञाते मेघपूर्वभवोदितिः सू. २७ ॥ ६९ ॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७] दीप । यथा भवत्येवं भीमभैरव:-अतिभीष्मो रवप्रकारो यस्य स तथा तेन, मधुधाराया यत्पतित-पतनं तेन सिक्त उद्धावमानः-प्रवर्द्ध-8 मानो धगधगायमानो-जाज्वल्यमानः स्पन्दोद्धतच-दह्यमानदारुस्पन्दप्रबल: पाठान्तरे शब्दोद्धतश्व यः स तथा तेन दीप्ततरो यः सस्फुलिङ्गश्च तेन, धूममालाकुलेनेति प्रतीतं, श्वापदशतान्तकरणेन-तद्विनाशकारिणा ज्वालाभिरालोपितः कृताच्छादनो निरुद्धश्चविवक्षितदिग्गमनेन निवारितो धूमजनितान्धकारागीतश्च यः स तथा, आत्मानमेव पालयतीत्यात्मपालः, पाठान्तरण 'आय| वालोय'ति तत्र आतपालोकेन-हुतवहतापदर्शनेन महान्तौ तुम्बकिती स्तब्धतया अपहतुम्पाकृती ससंश्रमी कौँ यस स तथा,13 आकुश्चितस्थूलपीवरकर: भयवशेन भजन्ती दिश इति गम्यते दीप्ते नयने यस्य स तथा 'आकुंचियथोरपीवरकराभोयसबभयंतदित्त-18 नयणो'त्ति पाठान्तरं तत्राभोगो-विस्तरः सर्वो दिशो भजन्ती दीप्ते नयने यस्येति, वेगेन महामेघ इव वातेनोदितमहारूपः, किमित्याह-येन यस्यां दिशि कृतो-विहितस्ते-खया पुरा-पूर्व दवाग्निभयभीतहृदयेन अपगतानि तृणानि तेषामेव च प्रदेशा-1 मूलादयोऽवयवा वृक्षाश्च यस्मात्सोऽपगततृणप्रदेशवृक्षः कोऽसौ ?-वृक्षोदेश:-वृक्षप्रधानो भूमेरेकदेशो रूक्षोदेशो वा, किमर्थ -18 | दवामिसबाणकारणार्थ-दवाग्निसत्राणहेतुरिदं भवखित्येतदर्थ, तथा येनैव-यस्यामेव दिशि मण्डलं तेनैव-तत्रैव प्रधारितवान् 18 1% गमनाय, कथं बहुभिर्हस्त्यादिभिः सार्द्धमित्ययमेको गमः । यत् पुनः 'तए णं तुम मेहा! अण्णया कयाई कमेण पंचसु' इत्यादि दृश्यते तद्गमान्तरं मन्यामहे, तच्च एवं द्रष्टव्यं 'दुश्चपि मंडलघायं करेसि जाव सुहंसुहणं विहरसि, तए णं तुम मेहा ! | अनया कयाइ पंचसु उऊसु अइकतेसु'इत्यादि, यावत् 'जेणेव मण्डले तेणेव पहारेत्थ गमणाए'त्ति, सिंहादयः प्रतीताः नवरं बृका-परुषाः द्वीपिका:-चित्रकाः अच्छत्ति-रिक्षाः तरच्छा-लोकप्रसिद्धाः परासरा:शरभा शगालविरालशु-18 eSecemesesecseeeeeese अनुक्रम [३७] मेघकुमारस्य पूर्वभवा: ~142~ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ------------------ मूलं [२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७] दीप ज्ञाताधर्म- नकाः प्रतीताः कोला:-शूकराः शशका:-प्रतीताः कोकन्तिका-लोमटकाः चित्राः चिल्ललगा-आरण्या जीवविशेषाः, एतेषां क्षिप्तकथाङ्गम्- मध्येऽधिकृतवाचनायां कानिचिन्न दृश्यन्ते, अमिभयविद्रुता:-अग्निभयाभिभूताः 'एगओ'त्ति एकतो बिलधर्मेण-बिलाचारेण ज्ञाते मे यथैकत्र बिले यावन्तो मर्कोटकादयः संमान्ति तावन्तस्तिष्ठन्ति एवं तेऽपीति, ततस्वया हे मेघ! गात्रेण गात्रं कण्हयिष्ये इति- घस्य संवे॥७०॥ कृत्वा-इतिहेतोः पाद उक्षिप्तः-उत्पाटितः, तंसि च णं अंतरंसि-तस्मिश्चान्तरे पादाक्रान्तपूर्वे अन्तराले इत्यर्थः । गप्रत्यागहापादं निक्खेविस्सामित्तिक?' इह भुवं निरूपयन्निति शेषः, 'प्राणानुकम्पयेत्यादि पदचतुष्टयमेकार्थ दयाप्रकर्षप्रतिपाद-तिः सू.२८ नार्थे, 'निहिए'ति निष्ठां गतः कृतखकार्यों जात इत्यर्थः, उपरतोऽनालिङ्गितेन्धनादू व्यावृत्तः उपशान्तो-ज्यालोपशमात् विध्यातोऽङ्गारमुर्मुरायभावात् 'वापी'ति समुच्चये 'जीर्ण'इत्यादि शिथिला बलिप्रधाना या त्वक् तया पिनदं गात्रं-शरीरं यस्य । स तथा अस्थामा-शारीरवलविकलत्वात् अबल:-अवष्टम्भवर्जितत्वात् अपराक्रमो-निष्पादितखफलामिमानविशेपरहितत्वात् , अचंक्रमणतो वा 'ठाणुखंडे'चि ऊर्द्धस्थानेन स्तम्भितगात्र इत्यर्थः 'रययागिरिपन्भारे'त्ति इह प्राग्भार-ईषदवनतं खण्ड, INI उपमा चानेनास्य महत्तयैव, न वर्णतो, रक्तत्वात्तस्य, वाचनान्तरे तु सित एवासाविति । । । तते णं तुम मेहा! आणुपुषेणं गन्भवासाओ निक्खते समाणे उम्मुकपालभावे जोवणगमणुपत्ते मम अंतिए मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पचइए, तं जति जाव तुमे मेहा! तिरिक्खजोणियभावमुवगएणं अपडिलद्धसंमत्तरपणलंभेणं से पाणे पाणाणुकंपयाए जाव अंतरा चेव संधारिते नो चेव णं निक्खित्ते किमंग पुण तुमं मेहा! इयाणि विपुलकुलसमुन्भवेणं निरुवहयसरीरदंतलद्धपंचिंदिएणं एवं उठाणवल अनुक्रम [३७] ॥७ ॥ FarPurwanaBNamunoonm मेघकुमारस्य पूर्वभवा: ~143~ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) (०६) श्रुतस्कन्धः [१] ............--- अध्ययनं [१], . ..- मलं [२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८] वीरियपुरिसगारपरकमसंजुत्तेणं मम अंतिए मुंडे भवित्ता आगारातो अणगारियं पवतिए समाणे समणाणं निग्गंधाणं राओ पुखरत्तावरत्तकालसमयंसि चायणाए जाव धम्माणुओगचिंताए य उच्चारस्स वा पासवणस्स वा अतिगच्छमाणाण य निग्गच्छमाणाण य हत्यसंघहणाणि य पायसंघट्टणाणि य जाव रयरेणुगुंडणाणि य नो सम्मं सहसि खमसि तितिक्खसि अहियासेसि । तते णं तस्स मेहस्स अणगारस्स समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतिए एतमझु सोचा णिसम्म सुभेहिं परिणामेहिं पसत्थेहि अज्झवसाणेहि लेस्साहिं विसुज्नमाणीहिं तयावरणिजाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहावूहमग्गणगवेसणं करेमाणस्स सन्निपुछे जातीसरणे समुप्पन्ने, एतमढे सम्म अभिसमेति । तते णं से मेहे कुमारे समणेणं भगवया महावीरेणं संभारियपुषजातीसंभरणे दुगुणाणीयसंवेगे आणंदयंसुपुनमुहे हरिसवसेणं धाराहयकदंबक पिच समुस्ससितरोमकूवे समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति २त्ता एवं वदासी-अज्जप्पमिती णं भंते ! मम दो अच्छीणि मोत्तुणं अवसेसे काए समणार्ण णिग्गंधाणं निसहेत्तिकट्ठ पुणरवि समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति २ एवं वदासी-इच्छामि णं भंते ! इयाणि सयमेव दोचंपि सयमेव पवावियं सयमेव मुंडावियं जाव सयमेव आयारगोयरं जायामायावत्तियं धम्ममातिक्खह, तए णं समणे भगवं महावीरे मेहं कुमारं सयमेव पवावेइ जाव जायामायावत्तियं धम्ममाइक्खइ, एवं देवाणुप्पिया! गन्तवं एवं चिट्ठियचं एवं णिसीयचं एवं तुपहियवं एवं भुंजियवं भासियवं उट्ठाय २ पाणाणं भूयाणं जीवाणं दीप अनुक्रम [३८] ~144~ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [२८] दीप अनुक्रम [३८] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१] अध्ययनं [१], मूलं [२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥ ७१ ॥ सत्ताणं संजमेणं संजमितवं तते णं से मेहे समणस्स भगवतो महावीरस्स अयमेयारूवं धम्मियं उवएसं सम्मं पडिच्छति २ तह चिट्ठति जाब संजमेणं संजमति, मते णं से मेहे अणगारे जाए ईरियासमिए अणगारवन्नओ भाणियचो, तते णं से मेहे अणगारे समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतिए एतारूवाणं थेराणं सामातियमातियाणि एक्कारस अंगाति अहिज्जति २त्ता बहूहिं चउत्थछमदसमवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं अप्पाणं भावेमाणे विहरति, तते णं स० भ० महावीरे रायगिहाओ नगराओ गुणसिलाओ चेनियाओ पढिनिक्खमति २ बहिया जणवयविहारं विहरति ( सू २८ ) 'अपडिलद्ध संमत्तरयणलं भेणं'ति अप्रतिलब्धः - असंजातः, 'विपुलकुलसमुन्भवेण' मित्यादौ णंकारा वाक्यालङ्कारे निरुपहतं शरीरं यस्य स तथा दान्तानि - उपशमं नीतानि प्राकाले लन्धानि सन्ति पञ्चेन्द्रियाणि येन स तथा ततः कर्म्मधारयः, पाठान्तरे निरुपहृतशरीरप्राप्तश्चासौ लब्धपञ्चेन्द्रियश्चेति समासः, 'एव' मित्युपलभ्यमानरूपैरुत्थानादिभिः संयुक्तो यः स तथा, तत्र उत्थानं - चेष्टाविशेषः बलं - शारीरं वीर्य - जीवप्रभवं पुरुषकार : - अभिमानविशेषः पराक्रमः स एव साधितफल इति । नो सम्यक सहसे भयाभावेन क्षमसे क्षोभाभावेन तितिक्षसे दैन्यानवलम्बनेन अध्यासयसि अविचलितकायतया, एकार्थिकानि वैतानि पदानि, तस्य मेघस्यानगारस्य जातिस्मरणं समुत्पन्नमिति सम्बन्धः, समुत्पन्ने च तत्र किमित्याह - एतमर्थ - पूर्वोक्तं वस्तु सम्यक् 'अभिसमे 'ति अभिसमेति अवगच्छतीत्यर्थः । 'संभारियपुवजाईसरणेत्ति संस्मारितं पूर्वजात्योः शतनजन्मनोः सम्बन्धि सरणं गमनं पूर्वजातिसरणं यस्य स तथा पाठान्तरे संस्मारितपूर्वभवः, तथा प्राकालापेक्षया द्विगुण आनीतः संवेगो Eaton International For Par Lise On ~ 145~ १ उत्क्षिप्तज्ञाते मे घस्य संवेगप्रत्याग तिः सू.२८ ॥ ७१ ॥ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८] दीप अनुक्रम | यस्य स तथा, आनन्दाथुभिः पूर्ण भृतं प्लुतमित्यर्थों मुखं यस्य स तथा, 'हरिसवस'त्ति अनेन 'हरिसबसविसप्पमाणहियए'त्ति द्रष्टव्यं, धाराहतं यत्कदम्बकं-कदम्भपुष्प तद्वत् समुच्छ्रितरोमकूपो रोमाश्चित इत्यर्थः, 'निसट्टे'ति निःसृष्टो दत्तः । अनगारवर्णको वाच्यः, स चाय-'ईरियासमिए भासासमिए एसणासमिए आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए उच्चारपासवणखेलसिं| घाणजल्लपरिद्वावणियासमिए मणसमिए वयसमिए कायसमिए मणगुत्ते ३' मनाप्रभृतीनां समितिः-सत्प्रवृत्तिः गुप्तिस्तु| निरोधः अत एव 'गुत्ते गुत्तिदिए गुत्तभयारी' बझगुप्तिमिः चाई-सङ्गानां वण्णे लज्जू-रज्जुरिवावक्रव्यवहारात् लज्जालुवों संयमेन लौकिकलज्जया वा 'तवस्सी खंतिखमें क्षान्त्या क्षमते यः स तथा 'जिइंदिए सोही' शोधयत्यात्मपराविति शोधी शोभी वा 'अणिदाणे अप्पुस्मए' अल्पौत्सुक्योऽनुत्सुक इत्यर्थः, 'अवहिल्लेसे' संयमादबहिर्भूतचित्तवृत्तिः 'सुसामण्यारए इण18|| मेव निग्गथं पावयणं पुरओत्तिकट्ठ विहरई' निर्ग्रन्धप्रवचनानुमार्गेण इत्यर्थः । तते णं से मेहे अणगारे अन्नया कदाइ समणं भगवं वंदति नमसति २ एवं वदासी-इच्छामि गं भंते ! तुम्भेहिं अन्भणुन्नाते समाणे मासियं भिक्खुपडिम उवसंपजित्ताणं विहरित्तए, अहासुहं देवाणुप्पिया! मा परिवन्धं करेह. तते णं से मेहे समणेणं भगवया० अन्भणुनाते समाणे मासियं भिक्खुपडिम उवसंपजित्ताणं विहरति, मासियं भिक्खुपडिमं अहासुतं अहाकप्पं अहामग्गं० सम्मं कारणं फासेति पालेति सोभेति तीरेति किट्टेति सम्मं कारण फासेत्ता पालित्ता सोभेत्तातीरेत्ता किटेत्ता पुणरवि समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति २त्ता एवं वदासी-इच्छामि णं भंते ! तुम्भेहिं अन्भणुन्नाते समाणे [३८] मेघकुमारस्य तपोमय-संयम-जीवनं ~146~ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ------------------ अध्ययनं [१], ------------------ मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधम कथाङ्गम्. प्रत | श्उत्क्षिप्त ज्ञाते प्रतिSमावहनादि सू. २९ सूत्राक ॥७२॥ Seaseeneeta [२९] दीप दोमासियं भिक्खुपडिमं उवसंपजित्ता णं बिहरित्तए, अहासुहं देवाणुप्पिया! मा परिवन्धं करेह, जहा पढमाए अभिलावो तहा दोच्चाए तच्चाए चउत्थाए पंचमाए छम्मासियाए सत्तमासियाए पढमसत्तराईदियाए दोचं सत्सरातिदियाए तइयं सत्तरातिदियाए अहोरातिदियाएवि एगराईदियाएवि, तते णं से मेहे अणगारे बारस भिक्खुपडिमाओ सम्म कारणं फासेत्ता पालेत्ता सोभेत्ता तीरेत्ता कित्ता पुणरवि वंदति नमसइ २ त्ता एवं वदासी-इच्छामि णं भंते! तुन्भेहिं अन्भणुझाए समाणे गुणरतणसंवच्छरं तवोकम्मं उवसंपज्जिता णं विहरित्तए, अहामुहं देवाणुप्पिया। मा पडिबंधं करेह, तते णं से मेहे अणगारे पढमं मासं चउत्थंचउत्थेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं दिया ठाणुफुडए सूराभिमूहे आयावणभूमीए आयावेमाणे रसिं बीरासणेणं अवाउडएणं दोचं मासं छटुंछट्टेणं तचं मासं अहमंअट्टमेणं. चउत्थं मासं दसमं २ अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं दिया ठाणुकुहूए सूराभिमूहे आयावणभूमीए आयावेमाणे रत्तिं वीरासणेणं अपाउडएणं पंचमं मासं दुवालसमं २ अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं दिया ठाणुफएए सूराभिमुहे आयावणभूमिए आयावेमाणे रर्सि धीरासणेणं अवाउडतेणं, एवं खलु एएणं अभिलावेणं छठे चोद्दसम २ सत्तमे सोलसमं २ अट्ठमे अट्ठारसम २ नवमे वीसतिमं २ दसमे बावीसतिमं २ एकारसमे चउबीसतिम २ बारसमे छबीसतिनं २ तेरसमे अट्ठावीसतिम २ चोइसमे तीसहमं २ पंचदसमे बत्तीसतिम २ चउत्तीसतिम २ सोलसमे अनुक्रम [३९] ॥७२॥ मेघकुमारस्य तपोमय-संयम-जीवनं ~147~ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९] अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं दिया ठाणुकडएणं सूराभिमूहे आयावणभूमीए आयावेमाणे रति वीरासणेण य अवाउडतेण य, तते णं से मेहे अणगारे गुणरयणसंवच्छरं तवोकम्मं अहासुतं जाव सम्मं कारणं फासेइ पालेइ सोभे तीरेइ किहह अहासुतं अहाकप्पं जाव किमुत्ता समर्ण भगवं महावीर बंदति नर्मसति २ बहहिं छहमदसमवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं विचित्तेहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे विहरति (सूत्रं २९) 'अहासुहंति यथासुखं सुखानतिक्रमेण मा पडिबन्धं विघातं विधेहि विवक्षितस्येति गम्यं, 'भिक्खुपडिम'ति अभि| ग्रहविशेषः, प्रथमा एकमासिकी एवं द्वितीयाचाः सप्तम्यन्ताः क्रमेण द्वित्रिचतुष्पश्चषट्सप्तमासमाना:, अष्टमीनवमीदशम्यः । प्रत्येक सप्ताहोरात्रमानाः एकादशी अहोरात्रमाना द्वादशी एकरात्रमानेति, तत्र 'पडिचजइ एयाओ संघयणधिइजुओ महासत्तो।। पडिमाओ भावियप्पा सम्म गुरुणा अणुनाओ॥१॥ गच्छेच्चिय निम्माओ जा पुवा दस भवे असंपुष्णा । नवमस्स तइय वत्थू होइ जहन्नो सुयाहिगमो ॥२॥वोसट्टचत्तदेहो उवसग्गसहो जहेव जिणकप्पी । एसण अभिग्गहिया भत्तं च अलेवर्ड | तस्स ॥ ३ ॥ दुस्सहत्थिमाइ तओ भएणं पयंपि नोसरह । एमाइ नियमसेवी विहरह जाऽखंडिओ मासो ॥ ४॥ [प्रतिपद्यते एताः संहननधृतियुतो महासत्त्वः । प्रतिमा भावितात्मा सम्यग् गुरुणाऽनुज्ञातः॥१॥ गच्छ एव निमोतो यावत्पूवाणि दश भवन्ति असंपूणोनि नवमस तृतीयं वस्तु भवति श्रुताधिगमो जघन्यः ॥२॥ व्युत्सृष्टत्यक्तदेह उपसगेसहो यथेंब जिनकल्पी । एषणाभिग्रहयुता भक्तं चालेपकृत्तस्य ॥ ३ ॥ दुष्टाश्वहस्त्यादयः (आगग्छेयुः) ततो भयेन पदमपि नापसरति । एवमादि SANSAR दीप अनुक्रम [३९] मेघकुमारस्य तपोमय-संयम-जीवनं ~148~ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [२९] दीप अनुक्रम [३९] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१] अध्ययनं [१], मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥ ७३ ॥ नियमसेवी विहरति यावदखण्डितो मासः ॥ ४ ॥ ] इत्यादिग्रन्थान्तराभिहितो विधिरासां द्रष्टव्यः । यचेह एकादशाङ्गविदोऽपि मेघानगारस्य प्रतिमानुष्ठानं भणितं तत्सर्ववेदिसमुपदिष्टवादनवद्यमवसेयमिति, 'यथासूत्रं' सूत्रानतिक्रमेण 'यथाकल्प' प्रतिमाचारानतिक्रमेण 'यथामार्ग' ज्ञानाद्यनतिक्रमेण क्षायोपशमिकभावानतिक्रमेण वा कायेन न मनोरथमात्रेण 'फासे 'ति उचितकाले विधिना ग्रहणात् 'पालयति' असकृदुपयोगेन प्रतिजागरणात् 'शोभयति' पारणकदिने गुरुदत्तशेष भोजनकरणात १ शोधयति वा अतिचारपङ्कक्षालनात् 'तीरयति' पूर्णेऽपि काले स्तोककालमवस्थानात् 'कीर्त्तयति' पारणकदिने इदं चेदं चैतस्याः ४ | कृत्यं कृतमित्येवं कीर्त्तनात् । गुणानां निर्जराविशेषाणां रचना करणं संवत्सरेण सत्रिभागवर्षेण यसिंस्तत्तपो गुणरचनसं वत्सरं गुणा एव वा रत्नानि यत्र स तथा गुणरत्नः संवत्सरो यत्र तपसि तद्गुणरत्नसंवत्सरमिति, इह च त्रयोदश मासाः सप्तदश दिनाधिकास्तपः कालः, त्रिसप्ततिश्व दिनानि पारणककाल इति, एवं चायं-"पण्णरस वीस चडवीस चैव चउवीस पण्णचीसा य । चउवीस एकवीसा चडवीसा सतवीसा य ॥ १ ॥ तीसा तेत्तीसावि य चउवीस छवीस अट्ठावीसा य । तीसा बत्तीसावि य सोलस मासेसु तवदिवसा ||२|| पनरसदसट्ट छप्पंच चउर पंचसु य तिष्णि तिष्णिति । पंचसु दो दो य तहा सोलसमासेसु पारणगा || ३ ||" इह च यत्र मासे अष्टमादितपसो यावन्ति दिनानि न पूर्यन्ते तावन्त्यप्रेतनमासादाकृष्य पूरणीयान्यधिकानि चाग्रेतनमासे क्षेतव्यानीति । 'उत्थमित्यादि, चखारि भक्तानि यत्र त्यज्यन्ते तच्चतुर्थ, इयं चोपवासस्य संज्ञा, एवं षष्ठादिरूपवासद्वयादेरिति, 'अणिक्खिन्तेणं'ति अविश्रान्तेन 'दिया ठाणुकुटुएणं' दिवा दिवसे स्थानं-आसनमुत्कुटुकं आसनेषु पुवालगनरूपं यस्य स तथा आतापयन्- आतापनां कुर्वन् 'वीरासणेणं' ति सिंहासनोपविष्टस्य भुवि न्यस्तपादस्यापनीतसिंहासनस्येव यदव - Education inte मेघकुमारस्य तपोमय-संयम- जीवनं For Park Use Only ~ 149~ | १३त्क्षिप्त ज्ञाते मे घकुमारस्य प्रतिभावनादिसू. ३९ ॥ ७३ ॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९] दीप स्थानं तद्वीरासनं तेन व्यवस्थित इति गम्यते । किंभूतेन अप्रावृतेन-अविद्यमानप्रावरणेन स एव वा अप्राकृतः, णकारस्तु अलङ्कारार्थः । तते णं से मेहे अणगारे तेणं उरालेणं विपुलेणं सस्सिरीएणं पयत्तेणं पागहिएणं कल्लाणेणं सिवेणं धन्नेणं मंगल्लेणं उदग्गेणं उदारएणं उत्तमेणं महाणुभावेणं तवोकम्मेणं सुके भुक्खे लुक्खे निम्मंसे निस्सोणिए किडिकिडियाभूए अढिचम्मावणद्धे किसे धमणिसंतए जाते यावि होत्था, जीवं जीवेणं गच्छति जीवं जीवेणं चिट्ठति भासं भासिता गिलायति भासं भासमाणे गिलायति भासं भासिस्सामित्ति गिलायति से जहा नामए इंगालसगडियाइ वा कट्ठसगडियाइ वा पत्तसगडियाइ वा तिलसगडियाइ वा एरंडकट्ठसगडियाइ वा उण्हे दिन्ना मुका समाणी ससई गच्छा ससई चिट्ठति एवामेव मेहे अणगारे ससई गच्छह ससई चिट्ठइ उवचिए तवेणं अवचिते मंससोणिएणं हुयासणे इच भासरासिपरिच्छन्ने तवेणं तेएणं तवतेयसिरीए अतीव अतीव उवसोभेमाणे २ चिट्ठति । तेणं.कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे आइगरे तित्वगरे जाव पुवाणुपुर्वि चरमाणे गामाणुगामं दुतिजमाणे मुहंसुहेणं विहरमाणे जेणामेव रायगिहे नगरे जेणामेव गुणसिलए चेतिए तेणामेव उवागच्छति २त्ता अहापडिरूवं जग्गहं उग्गिणिहत्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति, तते णं तस्स मेहस्स'अणगारस्स राओ पुषरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झस्थिते जाव समुपज्जित्था-एवं खलु अहं इमे] अनुक्रम [३९] RELIGunintentATHREE मेघकुमारस्य तपोमय-संयम-जीवनं ~150~ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ---------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [३०,३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधमेकथानम्, | १उत्क्षिप्त| ज्ञाते मे प्रत सूत्रांक [३०,३१] पकुमार ॥७४॥ स्यानशनं गतिश्च सू. ३०-३१ दीप अनुक्रम उरालेणं तहेच जाव भासं भासिस्सामीति गिलामि तं अस्थि ता मे उहाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसक्कारपरकमे सद्धा धिई संवेगे तं जाव ता मे अस्थि उट्ठाणे कम्मे बले बीरिए पुरिसगारपरकमे सद्धा घिई संवेगे जाव इमे धम्मायरिए धम्मोवदेसए समणे भगवं महावीरे जिणे सुहत्थी विहरति ताव ताव मे सेयं कलं पाउप्पभायाए रयणीए जाव तेयसा जलंते सूरे समणं ३ वंदित्ता नमंसित्ता समणेणं भगगता महावीरेणं अन्भणुन्नायस्स समाणस्स सयमेव पंच महत्वयाई आकहित्ता गोयमादिए समणे निर्गधे निम्गंधीओ य खामेत्ता तहारूवेहि कडाईहिंधेरेहिं सद्धिं विउलं पचयं सणियं सणिर्ष दुरूहित्ता सयमेव मेघणसन्निगासं पुढविसिलापट्टयं पडिलेहेत्ता संलेहणाझूसणाए झुसियस्स भत्तपाणपडियाइक्खितस्स पाओवगयस्स कालं अणवखमाणस्स विहरित्तए, एवं संपेहेति २ कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव जलते जेणेष समणे भगवं महावीरे तेणेच स्वागच्छति २ समणं ३ तिक्खुत्तो आदाहिणं पदाहिणं करेह २त्ता वंदति नमसति २ नचासन्ने नातिदूरे सुस्सुसमाणे नमसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलियपुडे पज्जुवासति, मेहेति समणे भगवं महावीरे मेहं अणगारं एवं वदासी-से पूर्ण तव मेहा! राओ पुवरसावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अजमस्थिते जाव समुपज्जित्था एवं खलु अहं इमेणं ओरालेणं जाव जेणेव अहं तेणेच हवमागए, से शृणं महा अट्टे समडे, हता अस्थि, अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेह, तते णं से मेहे अणगारे समणेणं भगवया. अन्भणुनाए [४०,४१] ॥७४॥ SAREnatunnintamanna मेघकुमारस्य तपोमय-संयम-जीवनं ~151~ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ---------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [३०,३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०,३१] दीप अनुक्रम समाणे हट्ट जाव हियए उट्ठाइ उडेर २त्ता समणं ३ तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ २त्ता चंदर नमंसह २त्सा सयमेव पंच महच्वयाई आरुभेइ २त्ता गोयमाति समणे निग्गंधे निग्गंधीओ य खामेति खामेत्ता य तहारूवेहि कडाई हिं धेरेहिं सद्धिं विपुलं पवयं सणियं २ दुरूहति २ सयमेव मेहघणसन्निगासं पुढविसिलापट्टयं पडिलेहति २ उच्चारपासवणभूमि पडलेहति र दम्भसंधारगं संथरति २दन्भसंधारगं दुरूहति २ पुरत्याभिमुहे संपलियंकनिसने करयलपरिग्गहियं सिरसावतं मत्थए अंजलि कट्ट एवं पदासीनमोऽत्थु णं अरिहंताणं भगवंताणं जाव संपत्ताण, णमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव संपाविउकामस्स मम धम्मायरियस्स, वंदामि णं भगवंतं तस्थगयं इहगए पासउ मे भगवं तत्थगते इहगतंतिकटु वंदति नमसह २त्ता एवं वदासी-पुर्विपिय णं मए समणस्स ३ अंतिए सधे पाणाइवाए पच्चक्खाए मुसावाए अदिन्नादाणे मेहुणे परिग्गहे कोहे माणे माया लोभे पेजे दोसे कलहे अभक्खाणे पेसुन्ने परपरिवाए अरतिरति मायामोसे मिच्छादसणसल्ले पञ्चक्खाते, इयाणिंपिणं अहं तस्सेव अंतिए सर्च पाणातिवायं पञ्चक्खामि जाव मिच्छादसणसल्लं पथक्वामि, सर्व असणपाणखादिमसातिमं चउचिहंपि आहारं पचक्खामि जावजीवाए, जंपि य इमं सरीरं इदं कंतं पियं जाव विविहा रोगायंका परीसहोवसग्गा फुसंतीतिकटु एयंपिय णं चरमेहिं ऊसासनिस्सासेहिं वोसिरामित्तिकटु संलेहणाझूसणासिए भत्तपाणपडियाइक्खिए पाओवगए कालं अणवकंखमाणे विहरति, तते णं ते थेरा भगवंतो मेहस्स अणगा [४०,४१] मेघकुमारस्य तपोमय-संयम-जीवनं ~ 152~ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [ ३०,३१] दीप अनुक्रम [ ४०, ४१] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] अध्ययनं [१], मूलं [ ३०, ३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥ ७५ ॥ रस्स अगिलाए बेयावडियं करेंति । तते णं से मेहे अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहारूवाणं राणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जित्ता बहुपडिपुन्नाई दुवालस वरिसाई सामन्नपरियागं पाणिता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झोसेत्ता सहि भत्ताइं अणसणाए छेदेत्ता आलोतियपडिते उद्धियसले समाहिपत्ते आणुपुत्रेणं कालगए, तते णं ते थेरा भगवंतो मेहं अणगारं आणुपुकालयं पाति २ परिनिवाणवत्तियं काउस्सर्ग करेंति २ मेहस्स आयारभंडयं गेण्हति २ विउलाओ पवयाओ सणियं २ पचोरुति २ जेणामेव गुणसिलए चेइए जेणामेव समणे भगवं महावीरे तेणामेव उवागच्छंत २ ता समणं ३ वंदति नर्मसंति २ ता एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेबासी मेहे णामं अणगारे पगइभदए जाव विणीते से णं देवाणुप्पिएहिं अन्भणुन्नाए समाणे गोतमाrिe समणे निग्iधे निग्गंधीओ य खामेत्ता अम्हेहिं सद्धिं विउलं पचयं सणियं २ दुरुहति २ सयमेव मेघघणसन्निगासं पुढविसिलं पहयं पडिलेहेति २ भप्तपाणपडियाइक्खिते अणुपुत्रेणं कालगए, एस णं देवापिया मेहस्स अणगारस्स आधारभंडए । (सूत्रं ३०) भंतेति भगवं गोतमे समणं उ वंदति नम॑सति २ ता एवं वदासी एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी मेहे णामं अणगारे से णं भंते ! मेहे अणगारे कालमासे का किया कहिं गए कहिं बबन्ने ?, गोतमादि समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासीएवं खलु गोयमा ! मम अंतेवासी मेहे णामं अणगारे पगतिभद्दए जाव विणीए से णं तहारूवाणं मेघकुमारस्य तपोमय- संयम- जीवनं For Pal Pal Use Only ~ 153~ १ उत्क्षिप्त ज्ञाते मेधकुमारस्थानशनं गतिश्च सू. ३०-३१ ॥ ७५ ॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ---------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [३०,३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०,३१] थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाति एकारस अंगाति अहिज्जति २ बारस भिक्खुपडिमाओ गुणरयणसंवच्छरं तवोकम्मं कारणं फासेत्ता जाव कित्ता मए अन्भणुन्नाए समाणे गोयमाइ धेरे खामेइ २तहारू. वेहिं जाव विउलं पवयं दुरूहति २ दन्भसंधारगं संथरति २ दन्भसंधारोवगए सयमेव पंच महबए उच्चारेइ वारस वासातिं सामण्णपरिगाय पाउणित्ता मासियाए सलेहणाए अप्पाणं झूसित्ता सहि भत्ताति अणसणाए छेदेत्ता आलोइयपडिकते उद्धियसल्ले समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा उद्धं चंदिमसूरगहगणणक्खसतारारूवाणं यहुई जोयणाई यहूई जोपणसयाई बहूई जोयणसहस्साई वहुई जोयणसयसहस्साई बहूइ जोयणकोडीओ बहूइ जोअणकोडाकोडीओ उहुं दूरं उप्पइसा सोहमीसाणसणंकुमारमाहिंदवंभलंतगमहासुफसहस्साराणयपाणयारणच्चुते तिपिण य अट्ठारसुत्सरे गेवेजविमाणावाससए वीइवइत्ता विजए महाविमाणे देवत्ताए उबवण्णे, तस्थ णं अत्धेगइयाणं देवाणं तेत्तीसं सागारोवमाई ठिई पण्णता, तत्थ णं मेहस्सवि देवस्स तेत्तीसं सागरोवमाति ठिती पं०, एस णं भंते । मेहे देवे ताओ देवलोयाओ आउक्खएणं टितिक्खएणं भवक्खएणं अणंतरं चर्ष चहत्ता कहिं गच्छिहिति कहिं उववजिहिति', गो ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति बुझिहिति मुचिहिति परिनिवाहिति सबदुक्खाणमंतं काहिति। एवं खलु जंबू समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्थगरेणं जाव संपत्तेणं अप्पोपालंभनिमित्तं पढमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते त्तिवेमि (सूत्रं ३१) पढमं अज्झयणं समत्तं । दीप अनुक्रम [४०,४१] मेघकुमारस्य तपोमय-संयम-जीवनं ~154~ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ---------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [३०,३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाङ्गम प्रत सूत्रांक [३०,३१] ॥७६॥ दीप 'उरालेणमित्यादि, उरालेन-प्रधानेन विपुलेन-बहुदिनखाद्विस्तीर्णेन सश्रीकेण-सशोभेन पयत्तेणं ति गुरुणा प्रदत्तेन प्रयत्न-19 उरिक्षववता वा प्रमादरहितेनेत्यर्थः प्रगृहीतेन-बहुमानप्रकर्षागृहीतेन कल्याणेन-नीरोगताकरणेन शिवेन शिवहेतुखात् धन्येन धनावह-IN ज्ञाते मेखात् मङ्गल्येन दुरितोपशमे साधुखात् उदग्रेण-तीवेण उदारेण-औदार्यवता निःस्पृहखातिरेकात् 'उत्तमेणं'ति ऊर्दू तमसः- घकुमारअज्ञानाद्यत्तत्तथा तेन अज्ञानरहितेनेत्यर्थः महानुभागेन-अचिन्त्यसामर्थेन शुष्को नीरसशरीरखात, 'भुक्खे'त्ति बुभुक्षावशेन | स्थानशनं रूक्षीभूतत्वात् किटिकिटिका-निर्मासास्थिसम्बन्धी उपवेशनादिक्रियाभावी शब्दविशेषः तां भूत:-प्राप्तो यः स तथा, अस्थीनि गतिश्च सू. चर्मणाऽवनद्धानि यस्य स तथा, कशो-दुर्वलो धमनीसन्तत:-नाडीव्याप्तो जातचाप्यभूत, 'जीवं जीवेणं गच्छति' जीवब्लेन|81 ३०-३१ |शरीरबलेनेत्यर्थ: 'भासं भासित्ता इत्यादौ कालत्रयनिर्देश: 'गिलायति तिग्लायति ग्लानो भवति 'सेइति अथा: अपशब्दश्च || वाक्योपक्षेपार्थः यथा दृष्टान्तार्थः नामेति संभावनायां एवेति वाक्यालकारे अङ्गाराणां भृता शकटिका-गत्री अङ्गारशकटिका, एवं काष्टानां पत्राणां पणोंनां तिलनि तिलदण्डकानां, एरण्डशकटिका-एरण्डकाष्ठमयी, आतपे दत्ता शुष्का सतीति विशेषणद्वयं आद्रेकाष्ठपत्रभृतायाः तस्सा न (शब्दः) संभवति, इतिशब्द उपप्रदर्शनार्थः वाशब्दा विकल्पार्थाः, सशब्दं गच्छति तिष्ठति वा, एवमेव मेघोऽनगारः सशब्दं गच्छति सशब्द तिष्ठति हुताशन इव भसाराशिप्रतिच्छन, 'तवेर्णति तपोलक्षणेन तेजसा, अयमभिप्रायो-यथा भसच्छन्नोऽग्निर्बहिर्वृत्या तेजोरहितोऽन्तच्या तु ज्वलति एवं मेघोजगारोऽपि बहिवृत्त्याऽपचितमांसादित्वानिस्तेजा ॥७६॥ अन्ततच्या तु शुभध्यानतपसा ज्वलतीति, उक्तमेवाह-तपस्तेजःश्रिया अतीवातीव उपशोभमानः २ तिष्ठतीति । 'तं अस्थि ता मेति तदेवमस्ति तावन्मे उत्थानादिन सर्वथा क्षीणं वदिति भावः तं जाव ता में चि तत्-तस्मात् यावन्मेऽस्ति उत्थानादि अनुक्रम [४०,४१] मेघकुमारस्य तपोमय-संयम-जीवनं ~155~ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ---------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [३०,३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०,३१] दीप अनुक्रम ता इति भाषामात्रेण यावच मे धर्माचार्यः 'सुहस्थीति पुरुषवरगन्धहस्ती शुभाः वा क्षायिकज्ञानादयो यस्य स तथा 'ताव ताव'चि तावच तावचेति वस्तुद्वयापेक्षा द्विरुक्तिः 'कहाईहिंति कृतयोग्यादिभिः, 'मेहघणसन्निगासंति घनमेघसदृशं | कालमित्यर्थः, 'भत्तपाणपडियाइक्खियस्सति प्रत्याख्यातभक्तपानस्य, कालं'ति मरणं 'जेणेव इहंति इहशब्दविषयं स्थान इदमित्यर्थः, संपलियंकनिसपणे ति पद्मासनसनिविष्टः पेज्जे ति अभिष्वङ्गमात्र दोस'त्ति अप्रीतिमात्र अभ्याख्यान-असदोषारो पणं पैशून्यं-पिशुनकर्म परपरिवादः-विप्रकीर्णपरदोषकथा अरतिरती धर्माधर्माङ्गेषु मायामृषा-वेषान्तरकरणतो लोकविप्रतारणं 18 संलेखना-कषायशरीरकशतां स्पृशतीति संलेखनास्पर्शकः, पाठान्तरेण 'संलेहणाझूसणाझसियत्ति संलेखनासेवनाजुष्टः इत्यर्थः। 'मासियाए'ति मासिक्या मासपरिमाणया 'अप्पाणं झूसितेत्ति क्षपयित्वा पष्टिं भक्तानि 'अणसणाए'ति अनशनेन छिच्चा-व्यवच्छेद्य, किल दिने २ द्वे द्वे भोजने लोकः कुरुते एवं च त्रिंशता दिनैः पष्टिभक्तानां परित्यक्ता भवतीति, 'परिनियाणवत्तियति परिनिर्वाणमुपरतिर्मरणमित्यर्थः तत्प्रत्ययो-निमित्तं यस स परिनिर्वाणप्रत्ययः मृतकपरिष्ठापनाकायोत्सर्ग इत्यर्थः, तं कायोत्सर्ग कुर्वन्ति, 'आयारभंडगं'ति आचाराय-ज्ञानादिभेदभिनाय भाण्डकं-उपकरणं वर्षाकल्पादि आचारभाण्डक, 'पगइभद्दए'इत्यत्र यावत्करणादेवं दृश्यं 'पगइउबसन्ते पगइपयणुकोहमाणमायालोमे मिउमद्दवसंपन्ने आलीणे मद्दए विणीए'त्ति तत्र प्रकृत्यैव-स्वभावेनैव भद्रका-अनुकूलवृत्तिः प्रकृत्यैवोपशान्तः-उपशान्ताकारः, मृदु च तन्माईवं च मृदुमाईव-अत्यन्तमार्दवं इत्यर्थः, आलीन:-आश्रितो गुर्वननुशासनेऽपि सुभद्रक एवं यः स तथा 'कर्हि गए'ति कस्यां गतो गतःच देवलोकादौ उत्पनी ? जातः, विजयविमानमनुत्तरविमानानां प्रथमं पूर्वदिगभागवर्ति, तत्रोत्कृष्टादिस्थिते वादाह [४०,४१] Santauratondom मेघकुमारस्य तपोमय-संयम-जीवनं ~156~ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ---------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [३०,३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्, प्रत सूत्रांक [३०,३१] ॥७७॥ 'तत्थे त्यादि, आयुःक्षयेण-आयुर्दलिकनिर्जरणेन स्थितिक्षयेण-आयुःकर्मणः स्थितेर्वेदनेन भवक्षयेण-देवभवनिवन्धनभूतक-18 उत्क्षिप्त| मेणां गत्यादीनां निजेरणेनेति । अनन्तरं देवभवसम्बन्धिनं चर्य-शरीरं 'चइत्त'त्ति त्यक्त्वा अथवा च्यव-पयवनं कृता सेत्स्यति ज्ञाते मेंनिष्ठितार्थतया विशेषतः सिद्धिगमनयोग्यतया महर्द्धिप्राप्त्या वा भोत्स्यते केवलालोकेन मोक्ष्यते सकलकौशः परिनिर्वास्थति-शकुमारखस्यो भविष्यति सकलकर्मकृतविकारविरहिततया, किमक्तं भवति -सर्वदुःखानामन्तं करिष्यतीति । 'एवं खल्वि'त्यादि। स्थानशन निगमनं 'अप्पोपालंभनिमित्त आप्तेन हितेन गुरुणेत्यर्थः उपालम्मो-विनेयस्याविहितविधायिनः आप्तोपालम्भः स निमित्तं गतिश्च सू. यस्य प्रज्ञापनस तत्तथा । प्रथमख ज्ञाताध्ययनसायं-अनन्तरोदितः मेघकुमारचरितलक्षणोऽर्थोऽभिधेयः प्रज्ञप्त:-अभिहितः ।। १०-११ | अविधिप्रवृत्तस्य शिष्यस्य गुरुणा मार्गे स्थापनाय उपालम्भो देयो यथा भगवता दत्तो मेघकुमारायेत्येवमर्थ प्रथममध्ययनमित्यभिप्रायः। इह गाथा-महुरेहिं निउणेहि वयणेहि चोययंति आयरिया । सीसे कहिचि खलिए जह मेहमुणि महावीरो ॥१॥1॥ [मधुरैनिपुणैर्वचनैः स्थापयन्ति आचार्याः। शिष्यं कचित् स्खलिते यथा मेघमुनि महावीरः ॥१॥] इतिशब्दः समाप्ती, अधीमीति-प्रतिपादयाम्येतदहं तीर्थकरोपदेशेन, न खकीयबुद्ध्या, इत्येवं गुरुवचनपारतव्यं सुधर्मखामी आत्मनो जम्बूखामिने | प्रतिपादयति, एचमन्येनापि मुमुक्षणा भवितव्यमित्येतदुपदर्शनार्थमिति । ज्ञाताधर्मकथायां प्रथमं ज्ञातविवरण मेघकुमार ॥७७॥ कथानकाल्यं समाप्तं । दीप अनुक्रम [४०,४१] SAREastatinintenmational अत्र अध्ययन-१ परिसमाप्तम् ~ 157~ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [२], ---------------- मूलं [३२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अथ संघाटाख्यं द्वितीयं ज्ञाताध्ययनं व्याख्यायते ॥ प्रत सूत्रांक See [३२]] दीप अनुक्रम [४२] अस्ख च पूर्वेण सहाय सम्बन्धः, पूर्वमिन्ननुचितप्रवृत्तिकस्य शिष्यस्य उपालम्भ उक्तः, इह खनुचितप्रवृत्तिकोचितप्रवृत्ति| कयोरनर्थार्थप्रातिपरम्पराऽभिधीयते इत्येवंसम्बन्धस्यास्पेदमुपक्षेपसूत्र जति णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं पढमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते वितीयस्स णं भंते ! नायज्झयणस्स के अढे पन्नते, एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णाम नयरे होत्था वन्नओ, तस्स णं रायगिहस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए गुणसिलए नामं चेतिए होत्था बन्नओ, तस्स णं गुणसिलयस्स चेतियस्स अदूरसामंते एत्थ णं महं एगे जिण्णुज्जाणे याबि होत्था विण?देवउले परिसडियतोरणघरे नाणाविहगुच्छगुम्मलयावल्लिवच्छच्छाइए अणेगवालसयसंकणिजे यावि होत्या, तस्स णं जिन्नुज्वाणस्स बहुमज्झदेसभाए एत्य णं महं एगे भग्गकृवए यावि होत्या, तस्स णं भग्गकूवस्सं अदूरसामंते एत्थ णं महं एगे मालुयाकच्छए याचि होत्या, किण्हे किण्होभासे जाव रम्मे महामेहनिउरंवभूते बहूहि रुक्नेहि य गुच्छेहि य गुम्मेहि य लयाहि य वल्लीहि य कुसेहि य खाणुएहि य संच्छन्ने पलिच्छन्ने अंतो मुसिरे बाहिं गंभीरे अणेगवालसयसंकणिज्ने यावि होत्था । (सूत्रं ३२) अथ अध्ययन- २ "संघाट: आरभ्यते ~ 158~ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [३२] दीप अनुक्रम [४२] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र -६ (मूलं + वृत्तिः) अध्ययनं [२], मूलं [३२] श्रुतस्कन्ध: [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्. ॥ ७८ ॥ 'जण 'मित्यादि, कण्ठ् 'एवं खल्वि'त्यादि तु प्रकृताध्ययनार्थसूत्रं सुगमं चैतत्सर्वं नवरं जीर्णोद्यानं चाप्यभूत्, चापीति समुच्चये अपिचेत्यादिवत्, विनष्टानि देवकुलानि परिसटितानि तोरणानि प्राकारद्वारदेवकुलसम्बन्धीनि गृहाणि च यत्र तत्तथा, नानाविधा ये गुच्छा-वृन्ताकीप्रभृतयः गुल्मा वंशजालीप्रभृतयः लताः - अशोकलतादयः वल्पः - पुपीप्रभृतयः वृक्षाः - सहकारादयः तैः छादितं यत्तत्तथा, अनेकैर्व्यालशतैः- श्वापदशतैः शङ्कनीयं भयजनकं चाप्यभूत्, शङ्कनीयमित्येद्विशेषणसम्बन्धतात्क्रियावचनस्य न पुनरुक्तता, 'मालुकाकच्छप'चि एकास्थिफलाः वृक्षविशेषाः मालुका: प्रज्ञापनाभिहितास्तेषां कक्षो गहनं मालुकाकक्षः, चिर्भटिकाकच्छक इति तु जीवाभिगमचूर्णिकारः । 'किण्हे किन्होभासे' इह यावत्करणादिदं दृश्यं, "नीले नीलोभासे, हरिए हरिओभासे सीए सीओभासे निद्वे निदोभासे तिचे तिवोभासे किन्हे किण्हच्छाए नीले नीलच्छाए हरिए हरियच्छाए सीधे सीयच्छाए निद्धे निदूच्छाए तिबेतिबच्छाए घणक डियडच्छाए "त्ति कृष्णः कृष्णवर्णः अञ्जनवत् स्वरूपेण कृष्णवर्ण एवावभासते - द्रष्टृणां प्रतिभातीति कृष्णावभासः, किल किञ्चिद्वस्तु स्वरूपेण भवत्यन्यासं प्रतिभासते तु सन्नि धानविप्रकर्षादेः कारणादन्यादृशमिति, एवं कचिदसौ नीलो मयूरग्रीवेव कचित् हरितः शुकपिच्छवत्, हरितालाभ इति वृद्धाः, तथा | शीतः स्पर्शतः वल्याद्याक्रान्तत्वादिति च वृद्धाः, स्निग्धो न रूक्षः तीव्रो वर्णादिगुणप्रकर्षवान् तथा कृष्णः सन् वर्णतः कृष्णच्छायः, छाया च-दीप्तिरादित्य करावरणजनिता वेति, एवमन्यत्रापि 'घणकडियडच्छाए ति अन्योऽन्यशाखा प्रशाखानुप्रवेशात् घननिरन्वरच्छायो रम्यो महामेघानां निकुरम्बः- समूहस्तद्वद् यः स महामेघनिकुरम्बभूतः, वाचनान्तरे त्विदमधिकं पठ्यते-'पत्तिए पुष्फिए फलिए हरियगरेरिजमाणे ' हरितकथासौ रेरिअमाणेति भृशं राजमानश्व यः स तथा “सिरीए अईव २ उनसोमेमाणे चिट्ठ ेत्ति Education Internationa For Park Use Only ~159~ २ संघाट ज्ञातं सू. ३२ 11 12 11 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [२], ----------------- मूलं [३२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३२]] श्रिया-वनलक्ष्म्या अतीव २ उपशोममानस्तिष्ठति 'कुसेहि यति दभैः कचित् 'कूविएहि यचि पाठः तत्र कूपिकामिः लिङ्गव्यत्ययात् 'खाणुएहिन्ति स्थाणुभिश्च पाठान्तरेण 'खत्तएहिति खातैर्गतरित्यर्थः, अथवा 'कूविएहिति चोरगवेषकैः खत्तएहिति खातकै क्षेत्रखेति गम्यते चौररित्यर्थः, अयमभिप्रायो-गहनत्वात् तस्य तत्र चौराः प्रविशन्ति तद्गवेषणार्थMS मितरे चेति, संछनो-व्याप्तः परिच्छन्नः-समन्तात् अन्तः-मध्ये शुषिरः सावकाशवात् बहिगंभीरो दृष्टेरप्रक्रमणात् । तत्थ णं रायगिहे नगरे धपणे नाम सत्यवाहे अहे दित्ते जाव विउलभत्तपाणे, तस्स णं धण्णस्स सत्थवाहस्स भद्दा नामं भारिया होत्था सुकुमालपाणिपाया अहीणपडिपुण्णपंचिंदियसरीरा लक्खणवंजणगुणोववेया माणुम्माणप्पमाणपडिपुनसुजातसवंगसुंदरंगी ससिसोमागारा कंता पियदसणा सुरूवा करयलपरिमियतिवलियमझा कुंडलल्लिहियगंडलेहा कोमुदिरयणियरपडिपुण्णसोमवयणा सिंगारागारचारवेसा जाव पडिरूवा वंझा अवियाउरी जाणुकोप्परमाया यावि होत्था। (सूत्रं ३३) तस्स णं धण्णस्स सत्थवाहस्स पंथए नाम दासचेडे होत्था सवंगसुंदरंगे मंसोवचिते बालकीलावणकुसले याषि होत्था, तते णं से घण्णे सत्यवाहे रायगिहे नयरे बहणं नगरनिगमसेडिसत्थवाहाणं अट्ठारसण्ह य सेणियप्पसेणीणं बहुसु कजेसु य कुडंबेसु य मंतेमु य जाव चक्खुभूते यावि होत्या, नियगस्सवि य णं कुडंबस्स बहुसु य कज्जेसु जाव चक्खुभूते याचि होत्था (सूत्रं ३४)तत्य रायगिहे नगरे विजए नामं तकरे होत्था, पावे चंडालरूवे भीमतररुद्दकम्मे आरुसियदित्तरत्तनयणे खरफरुसमहल्लविगयबीभत्थदाढिए असंपु cceserverececeaeseseseatree दीप अनुक्रम [४२] ब्ल SAREnatinintamanand | धन्यसार्थवाहः एवं विजयस्तेनस्य कथा ~160~ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [३३-३५] दीप अनुक्रम [४३-४५] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] अध्ययनं [२], मूलं [३३-३५ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाक्रम्. ॥ ७९ ॥ डितउट्टे उदुपपन्नलंबतमुद्धए भ्रमरराहुवन्ने निरणुकोसे निरणुतावे दारूने पहभए निसंसतिए निर अहित एतदिट्ठिए खुरेव एगंतधाराए गिद्वेव आमिसतलिच्छे अग्गिमिव सबभकरले जलमिव सहाही उक्कंचणवंचणमायानियडिकूटकवडसा इसपओगबहुले चिरमगरविणद्दुसीलायारचरिते जूयपनी मज्जपसंगी भोजपसंगी मंसपसंगी दारुणे हिययदारए साहसिए संधिच्छेयए उवहिए विस्संभवाती आलीयगतित्थभेलहुहत्यसंपत्ते परस्स दहरणंमि निचं अणुबद्धे तिङ्घवेरे रायगिहस्स नगरस्स बहूणि अइगमणाणि य निग्गमणाणि य दाराणि य अवदाराणि य छिंडिओ य खंडीओ य नगरनिद्धमाणि यहणाणि य निघणाणि य जूवखलयाणि य पाणागाराणि य वेसागाराणि य तद्दारद्वाणाणि य तकरद्वाणाणि य तकरचराणि व सिंगाडगाणि य तिथाणि य चउकाणि य चचराणि य नागघराणिव भूयधराणि य जक्खदेउलाणि य सभाणि य पवाणि य पणिचसालाणि य सुन्नधराणि य आभोरमाणे २ मग्नमा समाणे बहुजणस्स छिद्देसु य विसमेसु य विहरेतु य वसणेसु य अच्मुदएसु य उत्सवे य पस यतिहीसु यछणेसु य जत्रेसु व पडणीस व मापमसस्स व वक्विसस्स य वाउलस्स य हितस्स यदुवियस्स विदेसत्यस्स य विश्ववसियस्स व मग्गं च छिदं च विरहं च अंतरं च मम्गमाणे गयेसमाणे एवं चनं विहरति, बहियादि य णं रायगिहस्स मगरस्स आरामेसु य उज्जामेव वाषियोंक्खरणीचीहियागुंजा लियासरेसु प सत्प॑तिसृ व सरसरपंतियासु व जिष्णुजासु य अस् व धन्यसार्थवाहः एवं विजयस्तेनस्य कथा For PanalPrata Use Only ~161~ २ संघाटज्ञाते ध न्यपन्थकविजयाधि सू. ३३३४-३५ ।। ७९ ।। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [३३-३५] दीप अनुक्रम [४३-४५] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१] अध्ययनं [२] मूलं [३३-३५ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः मालपाकच्छ व सुसाणएसु च गिरिकंदर लेणउपहाणेसु य बहुजणस्स छिदेसु य जाब एवं चणं विहरति (३५) 'अड्डे दिसे' इह यावत्करणादिदं द्रष्टव्यं “विच्छिष्णविउलभवणसयणासण जाणवाहणाइने बहुदासदासीगोमहिलाप्यभूए बहुधणबहुजावरूवरवर आओगपओगसंपत्ते बिच्छयविउलभत्तपाणे "त्ति व्याख्या तस्य मेघकुमारराजवर्धकवर भद्रावर्णकस्य तु धारिणीवर्णकवनवरं 'करयल' ति अनेन करयलपरिमियतिवलियमज्झा इति मं 'वंझ'त्ति अपत्यफलापेक्षया निष्फला 'अविचाउरि'ति प्रसवानन्तरमपत्यमरणेनापि फलतो बन्ध्या भवतीत्यत उच्यते-अविद्याउरित्ति-अविजननशीला अपत्यानामत एवाह जानुकूर्पराणामेव माता-जननी जानुकूर्परमाता, एतान्येव शरीरांशभूतानि तस्याः स्तनौ स्पृशन्ति नापत्यमित्यर्थः, अथवा जानुकूर्पराण्येव मात्रा - परप्रणोदे साहाय्ये समर्थ उत्सङ्गनिवेशनीयो वा परिकरो वा न पुत्रलक्षणः सा जानुकूर्परमात्रा । 'दासचेडे 'ति दासस्य-भृतकविशेषस्य चेट:- कुमारकः दासचेटः अथवा दासश्वासौ चेटवेति दासचेटः 'तकरे' ति चौर: 'पापस्य' पापकर्मकारिणः चाण्डालस्येव रूपं स्वभावो यस्य स तथा, चण्डालकर्मापेक्षया भीमतराणि - रौद्राणि कर्माणि यस्य स तथा, 'आरुसिय'त्ति आरुष्टस्येव दीप्ते रक्ते नयने यस्य स तथा, खरपरुषे- अतिकर्कशे महत्यौ विकृतेबीभत्से दंष्ट्रिके उत्तरोष्ठकेशपुच्छरूपे दशनविशेषरूपे वा यस्य स तथा, असंपुटितो असंवृतौ वा परस्परालाय तुच्छत्वादशनदीर्घखाच ओष्ठौ यस्य स तथा उद्भूता वायुना प्रकीर्णा लम्बमाना मूर्द्धजा यस्य स तथा अमरराहुवर्णः कृष्ण इत्यर्थः, 'निरनुक्रोशो' निर्दयो 'निरमुतापः ' पथाचापरहितः अत एव 'दारुणो' रौद्रः अत एव 'प्रतिभयो' भयजनकः 'निःसंश धन्यसार्थवाहः एवं विजयस्तेनस्य कथा For Parata Use Only ~ 162~ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ------------------ अध्ययनं २], ----------------- मूलं [३३-३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाङ्गम. प्रत सूत्रांक [३३-३५]] ॥to दीप यिक' शौर्यातिशयादेव तत्साधयिष्याम्येवेत्येवंप्रवृत्तिकः पाठान्तरे 'निसंसे'ति नून-नरान् शंसति-हिनस्तीति नृशंसः निःशंसो संघात वा-विगतश्लाघः, 'निरणुकंपत्ति विगतप्राणिरक्षः निर्गता वा जनानामनुकम्पा यत्र स तथा, अहिरिव एकान्ता-प्रायमेवेदं मये- जाते - त्येवमेवनिश्चया दृष्टिर्यख स तथा 'खुरेव एगंतधाराए'त्ति एकत्रान्ते-वस्तुभागेऽपहतेव्यलक्षणे धारा परोपतापप्रधानवृत्ति-18न्यपन्थकलक्षणा यस स तथा, यथा क्षुरप्रः एकधारः, मोषकलक्षणैकप्रवृश्चिक एवेति भावः, 'जलमिव सबगाहित्ति यथा जलं सर्व खवि-विजयाधि षयापनमभ्यन्तरीकरोति तथाऽयमपि सर्व गृहातीति भावः, तथा उत्कञ्चनवञ्चनमायानिकृतिकूटकपटैः सह योऽतिसंप्रयोगो- सू. ३३गायं तेन बहुल:-प्रचुरो यः स तथा, तत्र ऊर्द्ध कश्चन मूल्याधारोपणार्थ उत्कञ्चनं हीनगुणस्य गुणोत्कर्षप्रतिपादनमित्यर्थः ३४-३५ वश्चनं प्रतारणं माया-परवञ्चनबुद्धिः निकृतिः-यकश्या गलकर्तकानामिवावस्थानं कूट-कापोपणतुलादेः परवञ्चनार्थे न्यूना-II धिककरणं कपट-नेपथ्यभाषाविपयर्यकरणं एभिरुत्कश्शनादिभिस्सहातिशयेन यः संप्रयोगो-योगस्तेन यो बहुलः स तथा, यदिवा | सातिशयेन द्रव्येण कस्तूरिकादिना परस्य द्रव्यस्य संप्रयोगः सातिसंप्रयोगः, ततश्चोत्कश्चनादिभिः सातिसंप्रयोगेण च यो। बहुलः स तथा, उक्तं च सातिप्रयोगशब्दार्थाय-"सो होई साइजोगो दवं जं छुहिय अन्नदोसु । दोसगुणा वयणेसु य अत्थविसंवायणं कुणइ ॥१॥" चि एकीय व्याख्यानं, व्याख्यानान्तरं पुनरेवं-उत्कोचनं उत्कोचः निकृतिः वश्चनप्रच्छादनार्थ कमें| साति:-अविश्रम्मः एतत्संप्रयोगे बहला, शेष तथैव, चिरं-वहकालं यावत् नगरे नगरस्य वा विनष्टो-विप्लुतः चिरनगरविनष्टः, बहुकालीनो यो नगरविनष्टो भवति स किलात्यन्तं धृों भवतीत्येवं विशेषितः, तथा दुष्टं शील-स्वभावः आकार:-आकृति १ स भवति सातियोगो यद् द्रव्यमन्यद्रव्येषु क्षिप्ता । दोषगुणान् बचनेषु च अर्थविसंवादनं करोति ॥१॥ अनुक्रम [४३-४५]] SAREarattin international | धन्यसार्थवाहः एवं विजयस्तेनस्य कथा ~ 163~ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ------------------ अध्ययनं २], ----------------- मूलं [३३-३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३-३५]] Co90s09200000 दीप अरित्रं च-अनुष्ठानं यस्य स तथा ततः कर्मधारयः, यूतप्रसङ्गी-धूतासक्तः एवमितराणि, नवरं भोज्यानि-खण्डखायादीनि, पुनर्दा-18 रुणग्रहणं हृदयदारक इत्यस्य विशेषणार्थेखान पुनरुक्तं, लोकानां हृदयानि दारयति-स्फोटयतीति हृदयदारकः, पाठान्तरेण जण-18 हियाकारए' जनहितस्याकर्तेत्यर्थः, 'साहसिका' अवितर्कितकारी 'सन्धिच्छेदका' क्षेत्रखानकः 'उपधिको' मायिलेन प्रच्छमचारी विश्रम्भघाती' विश्वासघातकः आदीपक:-अग्निदाता तीर्थानि-तीर्थभूतदेवद्रोण्यादीनि भिनत्ति-द्विधा करोति तद्रव्यमोषणाय तत्परिकरभेदनेनेति तीर्थभेदः, लघुभ्यां-क्रियासु दक्षाभ्यां हस्ताभ्यां संप्रयुक्तो यः स तया, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः, परस्प द्रव्यहरणे नित्यमनुषद्धः प्रतिबद्ध इत्यर्थः, 'तीववैर अनुबद्धविरोधः 'अतिगमनानि प्रवेशमार्गान् 'निर्ग-18॥ मनानि' निस्सरणमार्गान् 'द्वाराणि' प्रतोल्यः 'अपरद्वाराणि' द्वारिकाः 'छिण्डी' छिण्डीका:-वृत्तिच्छिद्ररूपाः 'खण्डी प्राकारच्छिद्ररूपाः नगरनिर्द्धमनानि-नगरजलनिर्गमक्षालान् 'संवर्तनानि मार्गमिलनस्थानानि 'निवर्तनानि' मार्गनिर्घटनस्था-11 | नानि 'यूतखलकानि' यूतस्थण्डिलानि 'पानागाराणि' मद्यगेहानि 'वेश्यागाराणि' वेश्याभवनानि 'तस्करस्थानानि' शून्यदेवकुलागारादीनि 'तस्करगृहाणि' तस्करनिवासान् शुझाटकादीनि प्राग् व्याख्यातानि सभाः-जनोपवेशनस्थानानि अपा:जलस्थानानि, लिङ्गव्यत्ययश्च प्राकृतखात्, 'पणितशालाः' हटान् शून्यगृहाणि-प्रतीतानि 'आभोगयन्' पश्यन् 'मार्गपन्' अन्वयधर्मपर्यालोचनतः 'गवेषयन्' व्यतिरेकधर्मपर्यालोचनतः बहुजनस्य 'छिद्रेषु' प्रविरलपरिवारत्वादिषु चौरप्रवेशाव-18 काशेषु 'विषमेषु' तीव्ररोगादिजनितातुरत्वेषु 'विधुरेपु' इष्टजनबियोगेषु 'व्यसनेषु' राज्यायुपप्लवेषु तथा 'अभ्युदये। राज्यलक्ष्म्यादिलाभेपु 'उत्सवेषु' इन्द्रोत्सवादिषु 'प्रसवेषु' पुत्रादिजन्मसु 'तिथिषु' मदनत्रयोदश्यादिषु 'क्षणेषु' बहुलो अनुक्रम [४३-४५]] | धन्यसार्थवाहः एवं विजयस्तेनस्य कथा ~164~ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ------------------ अध्ययनं २], ----------------- मूलं [३३-३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३-३५]] ८१॥ दीप भोजनदानादिरूपेषु यज्ञेषु' नागादिपूजासु 'पर्वणीषु कौमुदीप्रभृतिषु अधिकरणभूनासु मत्तः पीतमयतया बमत्तब-18 संघाटप्रमादवान् या स तथा तस्य बहुजनस्येवि मोगः, 'व्याक्षिप्तस्य' प्रयोजनान्तरोपयुक्तस्य व्याकुलस्य च नानाविधकार्याक्षेपेण 8 ज्ञाते ध. सुखितस्प दुःखितस्य च विदेशस्वस्य च-देशान्तरस्थस्य विमोषितस्य च-देशान्तरं गन्तुं प्रवृत्तस्य 'मार्ग च' पन्थानं निंन्यपन्थक ' अपद्वार 'चिरहं च विजन अन्तरं च-अवसरमिति आरामादिपदानि प्राग्वत् 'सुसाणेसु यति श्मशानेषु 'गिरिकन्द- विजयाधि रेषु' गिरिरन्धेषु 'लयनेषु' गिरिवर्तिपाषाणगृहेषु 'उपस्थानेषु' तथाविधमण्डपेषु बहुजनस्य छिद्रवित्यादि पुनरावर्तनीयं सू. ३३यावद् एवं च णं विहरति । तते णं तीसे भाए भारियाए अन्नया कयाई पुवरत्तावरत्तकालसमयसि कुटुंबजागरियं जागरमाणीय अयमेपारूचे अजमथिए जाव समुपज्जित्था-अहं धपणेण सत्यवाहेण सद्धिं बहणि चासाणि सरफरिसरसगंधरूवाणि माणुस्सगाई कामभोगाई पचणुभवमाणी विहरामि, नो चेच णं अहं दारगं वा दारिणं वा पवायामि, तं घनाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव मुलद्धे णं माणुस्सए जम्मजीवियफले तार्सि सम्म याणं जार्सि मणिगयकुच्छिसंभूयाति धणदुद्धलद्धयाति महरसमुल्लावगार्ति मम्मणवर्णवियार्मि थम मूलकक्खदेसभागं अभिसरमाणाति मुद्धयाई थणयं पिवंति, ततो य कोमलकमलोवमेहि हत्थेदि मिसिहकर्म उच्छंगे निवेसियाई देति समुल्लापए पिए सुमहुरे पुणो २ मंजुलप्पमणिते, तं अहन्नं अपना अनुमा अलक्षणा अकयपुन्ना एतो एगमवि न यता, तसेयं मम कहलं पापभायाए श्यणीए जाब जलंचे अनुक्रम [४३-४५]] Georea | धन्यसार्थवाहः एवं विजयस्तेनस्य कथा ~165~ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [३६-३७] दीप अनुक्रम [४६-४७] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] अध्ययनं [२], मूलं [३६-३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः घणं रथवा आपुच्छित्ता घण्णेर्ण सत्थवाहेणं अन्भवाया समाणी सुबहं विपुलं असणातिम सातिम उवखडावेत्ता सुबहं पुप्फवत्थगंध मल्लालंकारं गहाय वहहिं मित्तनातिनियमसयणसंबंधिपरिजण महिलाहिं सर्दि संपरिबुडा जाई इमाई रायगिहस्स नगरस्स बहिया प्यागाणि य भूयाणि य जक्खाणि य इंद्राणिय दाणि च रुद्दाणि य सेवाणि य वेसमणाणि य तत्थ णं बहूणं नागपडिमाण य जाव बेसमणपरिमाण य महरिहं पुष्पचणियं करेत्ता जाणुपायपडियाए एवं वहत्तए-जह णं अहं देवाणुपिया ! दारमं वदारिगं वा पाया तो णं अहं तुम्भं जायं च दायं च भायं च अक्खयणिहिं च अणुवहेमित्ति क उबातियं उवाइत्तए, एवं संपेहेति २ कलं जाव जलते जेणामेव घण्णे सत्थवाहे तेणामेव उवागच्छति उवागच्छिता एवं बदासी एवं खलु अहं देवाणुप्पिया । तुम्भेहिं सद्धिं बहूई वासातिं जाव देति समुल्लावर सुमहुरे पुणो २ मंजुलप्पभणिते तण्णं अहं अहन्ना अपुन्ना अकलक्खणा एतो एगमवि न पत्ता, तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया! तुन्भेहिं अन्भणुन्नाता समाणी विपुलं असणं ४ जाव अणुबम उवाइयं करेतर, तते णं धण्णे सत्थवाहे भई भारियं एवं बदासी-ममपि य णं खलु देवाणुप्पिए! एस चेव मणोरहे- कहं णं तुमं दारणं दारियं वा पयाएजसि ?, भद्दाए सत्थवाहीए एयमहमणुजाणति, तते णं सा भद्दा सत्थवाही धणेणं सत्थवाहेणं अन्भणुन्नाता समाणी हट्ट जाव यहियया विपुलं असणपाणखातिमसातिमं उबक्खड़ावेति २ ता सुबहु पुप्फगंधवत्थमल्लालंकारं मेहति २ सयाओ गिहाओ धन्यसार्थवाहः एवं विजयस्तेनस्य कथा For Parts Only ~166~ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [२], ----------------- मूलं [३६-३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: शाताधर्मकथानम्. प्रत सूत्रांक [३६-३७] ॥८२॥ दारकजन्म दीप अनुक्रम निग्गच्छति २ रायगिह नगरं मझमझेणं निग्गच्छति २त्ता जेणेव पोखरिणी तेणेव उवागच्छति २ K२ संघादपुक्खरिणीए तीरे सुबहुं पुष्फजावमल्लालंकारं ठवेइ २ पुक्खरिणिं ओगाहइ २ जलमजणं करेति जलकीडं क- ज्ञाते भरेति २ पहाया कयवलिकम्मा उल्लपडसाडिगा जाई तत्थ उप्पलाइं जाव सहस्सपत्ताई ताई गिण्हइ २ पुक्ख- द्राकृतमुरिणीओ पचोरुहइ २ तं सुबहुं पुष्फगंधमल्लं गेण्हति २ जेणामेव नागघरए य जाव वेसमणधरए य तेणेव पयाचन उवागच्छति २ तत्थ णं नागपडिमाण य जाव वेसमणपडिमाण य आलोए पणामं करेइ ईसिं पचुन्नमइ सू. ३६ २ लोमहत्थग परामुसइ २ नागपडिमाओ य जाव वेसमणपडिमाओ य लोमहत्थेणं पमज्जति उदगधाराए अन्भुक्खेति २ पम्हलसुकुमालाए गंधकासाईए गायाईलूहेइ २ महरिहं वत्थारुहणं च मल्लारु सू.१७ हणं च गंधारुहणं च चुन्नारुहणं च वन्नारुहणं च करेति २ जाव घूवं डहति २ जानुपायपडिया पंजलिउडा एवं वदासी-जइ णं अहं दारगं वा दारिगं वा पयायामि तो णं अहं जायं च जाव अणुवड्डेमित्ति कटु उचातियं करेति २ जेणेव पोक्खरिणी तेणेव उवागच्छति २ विपुलं असणं ४ आसाएमाणी जाव विहरति, जिमिया जाव सुइभूया जेणेव सए गिहे तेणेव उवागया अदुत्तरं च णं भद्दा सत्यवाही चाउद्दसहमुदिडपुन्नमासिणीसु विपुलं असण ४ उचक्खडेति २ वहवे नागा यजाव वेसमणा य उवायमाणी जाव एवं च णं विहरति (सूत्रं ३६)।ततेणंसा भद्दा सत्यवाही अन्नया कयाइ केणति कालंतरेणं आवनसत्ता जाया यावि होत्या,तते णं तीसे भद्दाए सत्यवाहीए दोसु मासेसु बीतिकतेसु ततिए मासे वहमाणे Receaesese [४६-४७] | धन्यसार्थवाहः एवं विजयस्तेनस्य कथा ~167~ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ------------------ अध्ययनं २], ----------------- मूलं [३६-३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३६-३७] दीप अनुक्रम इमेयारूवे दोहले पाउन्भूते-धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव कयलक्खणाओणं ताओ अम्मयाओ जाओणं विउलं असणं ४ सुबहुयं पुष्फवत्वगंधमल्लालंकारं गहाय मित्तनातिनियगसयणसंबंधिपरियणमहिलियाहि य सर्द्धि संपरिडाओरायगिह नगरं मझमझेणं निग्गच्छति २ जेणेव पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छंति २ पोक्खरिणी ओगाहिति २ पहायाओ कयबालिकम्माओ सघालंकारविभूसियाओ विपुलं असणं ४ आसाएमाणीओ जाव पडिभुंजेमाणीओ दोहलं विणेति एवं संपेहेति २ कल्लं जाव जलते जेणेव धणे सत्यवाहे तेणेव उवागच्छति २ धपणं सत्यवाहं एवं वदासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! मम तस्स गन्भस्स जाव विणेति तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया! तुम्भेहि अन्भणुन्नाता समाणी जाव विहरित्तए, अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडियधं करेह, तते णं सा भद्दा सत्यवाही धण्णेणं सत्यवाहेणं अन्भणुन्नाया समाणी हहतुट्ठा जाव विपुलं असणं ४ जाव पहाया जाव उल्लपडसाडगा जेणेव नागघरते जाव धूवं दहति २ पणामं करेति पणार्म करेत्ता जेणेव पोक्खरिणी तेणेव उवागच्छति २ तते णं ताओ मित्तनाति जाव नगरमहिलाओ भई सत्थवाहिं सवालंकारविभूसितं करेति, तते णं सा भद्दा सत्यवाही ताहि मित्तनातिनियगसयणसंबंधिपरिजणणगरमहिलियाहिं सद्धिं तं विपुलं असणं ४ जाव परिभंजमाणी य दोहलं विणेति २जामेव दिर्सि पाउन्भूता तामेव दिसि पडिगया, तते णं सा भद्दा सत्यवाही संपुन्नडोहला जाव तं गन्भं सुहंसुहेणं परिवहति, तते णं सा भद्दा सत्यवाही [४६-४७] | धन्यसार्थवाहः एवं विजयस्तेनस्य कथा ~168~ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ------------------ अध्ययनं २], ----------------- मूलं [३६-३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथानम्. प्रत सूत्रांक [३६-३७] ॥८३॥ दीप अनुक्रम णवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं अट्ठमाण राइंदियाणं सुकुमालपाणिपादं जाव दारगं पयाया, तते संघाटतस्स दारगस्स अम्मापियरो पढमे दिवसे जातकम्मं करेंति २ तहेव जाव विपुलं असणं ४ उवक्ख- ज्ञाते भडाति २ तहेव मित्तनाति भोयावेत्ता अयमेयारूवं गोन्नं गुणनिष्फन्नं नामधेज़ करेंति जम्हा णं अम्हें द्राकृतमुइमे दारए बट्टणं नागपडिमाण य जाच बेसमणपडिमाणा य उवाइयलद्धे णं ते होउ णं अम्हं पयाचन इमे दारए देवदिन्ननामेणं, तते णं तस्स दारगस्स अम्मायियरो नामधिज करेंति देवदिन्नेत्ति, सू. २६ तते णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो जायं च दायं च भायं च अक्खयनिहिं च अणुबड्डेति (सूत्र ३७) रदारकजन्म 'कुटुंबजागरियं जागरमाणीए'ति कुटुम्बचिन्ताया जागरणं-निद्राक्षयः कुटुम्बजागरिका, द्वितीयायास्तृतीयार्थखात् सू. ३७ तया 'जाग्रत्या' विबुध्यमानया, अथवा कुटुम्बजागरिकां जाग्रत्याः पयायामिति प्रजनयामि 'यासि मो' इत्यत्र तासां। |सुलब्धं जन्म जीवितफलं अहं 'मन्ये' वितर्कयामि यासां निजककुक्षिसंभूतानीत्येवमक्षरघटना कायों, निजकृक्षिसंभूतानि | डिम्मरूपाणि इति गम्यते, स्तनदुग्धलुब्धकानि मधुरसमुल्लापकानि मन्मन-स्खलत्प्रजल्पितं येषां तानि तथा स्तनमूलात्कक्षादेशभागमभिसरन्ति-संचरन्ति स्तनजं पिबन्ति, ततश्च कोमलकमलोपमाभ्यां हस्ताभ्यां गृहीत्वा उत्सङ्गे निवेशितानि ददति | समुल्लापकान् सुमधुरान् , 'एत्तो एगमवि न पस'त्ति इतः पूर्व एकमपि-डिम्भकविशेषणकलापादेकमपि विशेषणं न प्राप्ता, ॥८३ 'बहिया नागघराणि येत्यादि प्रतीतं, 'जण्णुपायवडियोति जानुभ्यां पादपतिता जानुपादपतिता जानुनी भुवि विन्यस्य | प्रणति गतेत्यर्थः । 'जायं वे'त्यादि, यागं-पूजा दाय-पर्वदिवसादौ दान भाग-लाभांश अक्षयनिधि-अव्ययं भाण्डागारं अक्ष [४६-४७] | धन्यसार्थवाहः एवं विजयस्तेनस्य कथा ~169~ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ------------------ अध्ययनं २], ----------------- मूलं [३६-३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: 130000 प्रत सूत्रांक [३६-३७] दीप अनुक्रम यनिधि या-मूलधनं येन जीर्णीभूतदेवकुलस्योद्धारा करिष्यते अक्षीणिका वा प्रतीता पर्द्धवामि-पूर्वकाले अल्प पन्तं महान्त । करोमीति भाषः 'उषघाइयति उपयाच्यते मृन्यते स यत्तत् उपयाचितं-ईप्सित वस्तु 'उपवाचितुं प्रार्थयितुं 'उल्लपडसाइपति स्नानेनार्दै पटशाटिके-उत्तरीयपरिधानवखे यस्याः सा तथा 'आलोएति दर्शने नामादिप्रतिमानां प्रणाम करोति, तवः प्रत्युबमति, लोमहसं-प्रमार्जनीकं 'परामशप्ति' गृहाति, ततस्तेन साः प्रमार्जयति 'अम्मुक्खेइति अभिपिचति वखारोपणादीनि प्रतीतानि । 'चापसी'त्यादौ 'उदिहि'ति अमावस्या 'आवनसते ति आपत्र:-उत्पन्न सच्चो-जीवो मर्ने यस्याः सा तथा । ततेणं से पंधए दासचेडए देवदिन्नस्स दारगस्स बालग्गाही जाए, देव दिन्नं दारयं कडीए गेण्हति २ बहहि डिंभएहि य डिंभगाहि य दारएहि यदारियाहि य कुमारियाहि य सद्धिं संपरिबुडे अभिरममाणे अभिरमति। ततेणंसा भद्दा सत्यवाही अन्नयाकयाई देवदिन्नं दारयंण्हायं कयवलिकम्म कयकोउयमंगलपायच्छित्तं सचालंकारभूसियं करेति पंथयस्स दासचेडयस्स हत्थयंसिदलयति,ततेणं से पंथए दासचेडए भद्दाए सत्यवाहीए हत्थाओ देवदिन्नं दारगं कडिए गिण्हतिर सयातो गिहाओ पडिनिक्खमतिर यहूहि डिभएहि य डिभियाहि य जाव कुमारियाहि य सद्धिं संपरिघुडे जेणेव रायमग्गे तेणेव उवागच्छइ२ देवदिन्नं दारगं एगते ठावेति २ वहहिं डिंभएहि य जाव कुमारियाहि य सद्धिं संपरिबुडे पमत्ते यावि होत्था विहरति, इमं च णं विजए तकरे रायगिहस्स नगरस्स बहूणि बाराणि य अवदाराणि य तहेच जाच आभोएमाणे मग्गेमाणे गवेसे [४६-४७] 000000 | धन्यसार्थवाहः एवं विजयस्तेनस्य कथा ~170~ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [ ३८ ३८] दीप अनुक्रम [४८-४९] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र -६ (मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [२], श्रुतस्कन्ध: [१] मूलं [ ३८-३८R] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥ ८४ ॥ Eaton Inte माणे जेणेव देवदिने दारए तेणेव उवागच्छर २ देवदिनं दारगं सवालंकार विभूसियं पासति पासिता देवदिन्नस्स दारगस्स आभरणालंकारेसु मुच्छिए गढिए गिद्धे अज्झोषवने पंथयं दासचेडं पमत्तं पासति २ दिसालोयं करेति करेता देवदिनं दारगं गेण्हति २ कक्वंसि अलियावेति २ उत्तरिणं पिहेइ २ सिग्धं तुरियं चवलं चेतियं रायगिहस्स नगरस्स अवदारणं निग्गच्छति २ जेणेव जिष्णुजाणे जेणेव भग्गकूबए तेणेव उवागच्छति २ देवदिनं दारयं जीवियाओ बबरोवेति २ आभरणालंकारं गेण्हति २ देवदिन्नस्स दारगस्स सरीरगं निप्पाणं निचेहूं जीवियविप्पजढं भग्गकृबए पक्खिवति २ जेणेव मालुयाकच्छए तेणेव उवागच्छति २ मालुयाकच्छयं अणुपविसति २ निचले निष्फंदे तुसिणीए दिवस लिवेमाणे चिट्ठति ( सू ३८) तते णं से पंथए दासचेडे तओ मुद्दत्तंतरस्स जेणेव देवदिने दारए ठबिए तेणेव उवागच्छति २ देवदन्नं दारगं तंसि ठाणंसि अपासमाणे रोयमाणे कंदमाणे विलवमाणे देवदिन्नदार. गस्स सबतो समंता मग्गणगवेसणं करेइ २ देवदिनस्स दारगस्स कत्थइ सुतिं वा खुर्ति वा पतिं वा अलभमाणे जेणेव सए गिहे जेणेव घण्णे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छति २ घण्णं सत्यवाहं एवं बदासीएवं खलु सामी ! भद्दा सत्थवाही देवदिन्नं दारयं पहायं जाव मम हृत्यंसि दलयति तते णं अहं देवदिन्नं दारयं कडीए गिण्हामि २ जाव भग्गणगवेसणं करेमि तं न णञ्चति णं सामि ! देवदिने दारए For Parts Only *** अत्र सूत्रान्ते मुद्रण-दोषात् अस्य सूत्रस्य क्रम ३८ द्वि-वारान् मुद्रितं. तत् कारणात् मया शिर्षक-स्थाने ३८, ३८-२ निर्दिष्टम् धन्यसार्थवाहः एवं विजयस्तेनस्य कथा ~ 171 ~ २ संघाट ज्ञाते देवदत्तापहारः सू. ३८ 11 28 11 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [ ३८ ३८] दीप अनुक्रम [४८-४९] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र- ६ (मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [२], श्रुतस्कन्ध: [१] मूलं [ ३८-३८R] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः TRENTIN Eucation Internation केह हले वा अबहिए वा अवखित्ते वा पायवडिए धण्णस्स सत्यवाहस्स एतम निवेदेति, तते णं से धणे सत्थवाहे पंथयदासचेडयस्स एतमहं सोचा णिसम्म तेण य महया पुत्तसोएणाभिभूते समाणे परसुणिय व चंपगपायवे धसन्ति धरणीयलंसि सर्वगेहिं सन्निवइए, तते णं से धण्णे सत्थवाहे ततो मुहुत्तंतरस्स आसत्थे पच्छागयपाणे देवदिन्नस्स दारगस्स सबतो समता मग्गणगवेसणं करेति देवनिस्स दारगस्स कत्थइ सुई वा खुई वा पउत्तिं वा अलभमाणे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छ २ महत्थं पाहुडं गेण्हति २ जेणेव नगरगुत्तिया तेणेव उवागच्छति २ तं महत्थं पाहुडं उवणति उवणतित्ता एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! मम पुत्ते भद्दाए भारियाए अत्तए देवदिने नाम दारए इट्ठे जाव बपुष्प दुलहे सवणयाए किमंग पुण पासणयाए ?, तते णं सा भद्दा देवदिन्नं हायं सवालंकारविभूसियं पंथगस्स हत्थे दलाति जाव पायवडिए तं मम निवेदेति तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया! देवनिदारगस्स सङ्घओ समता मग्गणगवेसणं कथं । तए णं ते नगरगोतिया घण्णेणं सत्थवाहेणं एवं ता समाणा सन्नद्धबद्धवम्मियकबया उप्पीलिपसरासणवहिया जाव गहियाउहपहरणा घण्णेणं सत्थवाणं सद्धिं रायगिहस्स नगरस्स बहूणि अतिगमणाणि य जाव पवासु य मग्गणगवेसणं करेमाणा रायगिहाओ नगराओ पडिनिक्खमति २ जेणेव जिष्णुनाणे जेणेव भग्गकूवए तेणेव उवागच्छंति २ For Par Lise Only *** अत्र सूत्रान्ते मुद्रण-दोषात् अस्य सूत्रस्य क्रम ३८ द्वि-वारान् मुद्रितं. तत् कारणात् मया शिर्षक-स्थाने ३८, ३८-२ निर्दिष्टम् धन्यसार्थवाहः एवं विजयस्तेनस्य कथा ~ 172~ waryru Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ------------------ अध्ययनं २], ----------------- मूलं [३८-३८ R] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक ॥८५॥ [३८ मासू. ३८ 3CR] ज्ञाताधर्म- देवदिनस्स दारगस्स सरीरगं निप्पाणं निच्चे जीवविप्पजड़े पासंति २ हा हा अहो अकजमितिकट्टा | मामातकटु २संघाटकथाङ्गम. देवदिन्नं दारगं भग्गकूवाओ उत्तारेंति २ घण्णस्स सत्यवाहस्स हत्थेणं दलयंति (सूत्रं ३८) ज्ञाते देव दत्तापहारः डिम्भदारककुमारकाणामल्पबहुबहुतरकालकृतो विशेषः मूञ्छितो-मूढो गतविवेकचैतन्य इत्यर्थः 'ग्रथितो लोभतन्तुभिः संदर्भितः 'गृद्ध' आकाडावान् 'अभ्युपपन्नः' अधिकं तदेकाग्रतां गत इति, शीघ्रादीनि एकाथिकानि शीघ्रतातिशयख्यापनार्थानि निष्प्राणं-उच्छासादिरहित निश्चेष्ट-व्यापाररहितं 'जीवविप्पजदंति आत्मना विप्रमुक्त निश्चलो-गमनागमनादिवर्जितः निष्पन्दो हस्तायवयवचलनरहितः तूष्णीको-वचनरहितः क्षेपयन्' प्रेरयन् 'श्रुति' वार्तामात्रं 'क्षुतं' तस्यैव संबन्धिनं शब्दं तचिदं वा%8 |'प्रवृत्ति' व्यक्ततरवार्ता, नीतो मित्रादिना स्वगृहे अपहृतचौरेण आक्षिप्तः-उपलोभितः । 'परसुनियत्तेध'त्ति परशुना-कुठारेण निकृत्ता-छिन्नो यः स तथा तद्वत् 'नगरगोत्तिय'ति नगरस्य गुप्ति-रक्षां कुर्वन्तीति नगरगुप्तिका:-आरक्षकाः 'सन्नद्धबद्धव |म्मियकवय'त्ति सनद्धाः-संहननीभिः कृतसन्नाहाः बद्धाः-कसाबन्धनेन वर्मिताश्च-अङ्गरक्षीकृताः शरीरारोपणेन कवचाःIS कङ्कटा यस्ते तथा ततः कर्मधारयः, अथवा बर्मितशब्दः कचिन्नाधीयत एव, 'उप्पीलियसरासणपट्टिया' उत्पीडिता आक्रान्ता गुणेन शरासनं-धनुस्तल्लक्षणा पट्टिका यस्ते तथा, अथवा उत्पीडिता-बद्धा शरासनपष्टिका-बाहुपट्टको यैस्ते तथा, ISI दृश्यते च धनुर्धराणां चाही चर्मपट्टबन्ध इति, इह स्थाने यावत्करणादिदं दृश्यं "पिणद्धगेवेजा बद्धआविद्धविमलवरचिंधपट्टा"TRI पिनद्धानि-परिहितानि अवेयकाणि-ग्रीवारक्षाणि यैस्ते तथा, बद्धो गाढीकरणेन आविद्धा-परिहितो मस्तके विमलो वरचितपट्टो दीप अनुक्रम [४८-४९] *"*अत्र सूत्रान्ते मुद्रण-दोषात् अस्य सूत्रस्य क्रम ३८ द्वि-वारान् मुद्रितं. तत् कारणात् मया शिर्षक-स्थाने ३८, ३८R निर्दिष्टम् धन्यसार्थवाहः एवं विजयस्तेनस्य कथा ~173~ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [ ३८ ३८] दीप अनुक्रम [४८-४९] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र- ६ (मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [२], श्रुतस्कन्ध: [१] मूलं [ ३८-३८R] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः यैस्ते तथा ततः कर्मधारयः 'गहियाउहपहरणा' गृहीतान्यायुधानि प्रहरणाय - प्रहारदानाय यैस्ते तथा, अथवाऽऽयुधप्रहरणयोः क्षेप्याक्षेप्यकृतो विशेषः, 'ससक्ख'ति ससाक्षि ससाक्षिणोऽध्यक्षान् विधायेत्यर्थः । Education Internation तते णं ते नगरमुत्तिया विजयस्स तक्करस्स पथमग्गमणुगच्छमाणा जेणेव मानुयाकच्छए तेणेव उवागच्छति २ मालुयाकच्छपं अणुपविसंति २ विजयं तकरं ससक्खं सहोढं सगेवेचं जीवग्गाहं गिण्हंति २ अट्टिमुट्ठिजाणुकोप्परपहारसं भग्गमहियगत्तं करेंति २ अवउडाबन्धणं करेंति २ देवदिन्नगस्स दारगस्स आभरणं गेहति २ विजयस्स तकरस्स गीवाए बंर्धति २ मालुयाकच्छगाओ पडिनिक्खमति २ जेणेव रायगिहे नगरे तेणेव उवागच्छति २ रायगिहं नगरं अणुपविसंति २ रायगिहे नगरे सिंघाडगतियचकचचरमहापहृपहेसु कसप्पहारे व लयप्पहारे व छिवापहारे य निवाएमाणा २ छारं च धूलिं च कयवरं च उवरिं परिमाणा २ महया २ सद्देणं उग्घोसेमाणा एवं वदंति - एस णं देवाणुप्पिया ! विजए नाम तक जाच गिद्धे विव आमिसभक्खी बालघायए बालमारए, तं नो खलु देवाणुप्पिया ! एयस्स केति राया या रायपुते वा रायमचे वा अवरज्झति एत्थट्टे अप्पणी सयातिं कम्माई अवरज्यंतित्तिक जेणामेच चारगसाला तेणामेव उवागच्छति २ हटिबंधणं करेंति २ भत्तपाणनिरोहं करेंति २ तिस कसप्पहारे य जाव निवाएमाणा २ विहरंति, तते णं से धण्णे सत्थवाहे मित्तनातिनियगसपण संबंधिपरियणं सद्धिं रोयमाणे जाव विलवमाणे देवदिन्नस्स दारगस्स सरीरस्स महया इहीसकारसमुदएणं निह धन्यसार्थवाहः एवं विजयस्तेनस्य कथा For Parts Only ~ 174~ wor Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [३९, ४०] दीप अनुक्रम [५०,५१] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] अध्ययनं [२], मूलं [ ३९,४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६ ] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्. ॥ ८६ ॥ रण करेंत २ बहु लोतियातिं मयगकिचाई करेंति २ केणइ कालंतरेणं अवगयसोए जाए यावि होत्था । ( सू ३९ ) । तते णं से घण्णे सत्थवाहे अन्नया कयाई लहससि रायावराहंसि संपलत्ते जाए यावि होत्था, तते णं ते नगरगुत्तिया घण्णं सत्थवाहूं गेण्हति २ जेणेव चारगे तेणेव उवागच्छति २ चारगं अणुपवेति २ विजएणं तकरेणं सद्धिं एगयओ हडिबंधणं करेंति । तते णं सा भद्दा भारिया कल्लं जाव जलते विपुलं असणं ४ उवक्खडेति २ भोषणपिंडए करेति २ भोयणाई पक्खिवति लंछियमुद्दियं करेह २ एवं च सुरभिवारिपडिपुन्नं दगवारयं करेति २ पंथयं दासचेडं सहावेति २ एवं वदासी- गच्छ णं तुम देवाप्पिया ! इमं विपुलं असणं ४ गहाय चारगसालाए घण्णस्स सत्यवाहस्स उवणेहि, तते णं से पंथए भद्दा सत्यवाही एवं वृत्ते समाणे हट्टतुट्टे तं भोयणपिंड्यं तं च सुरभिवरवारिपडिपुन्नं दगवारयं हति १२ सयाओ गिहाओ पडिनिक्खमति २ रायगिहे नगरे मज्झमज्झेणं जेणेव चारगसाला जेणेव धन्ने सत्यवाहे तेणेव उवागच्छति २ भोयणपिडयं ठावेति २ उल्लंछति २ सा भायणाई गेण्हति २ भायणाई घोवेति २ हत्थसोयं दलपति २ घण्णं सत्थवाहं तेणं विपुलेणं असण० ४ परिवेसति, तते णं से विजए तकरे धणं सत्थवाहं एवं वदासी-तुमण्णं देवाणुप्पिया ! मम एयाओ विपुलातो असण० ४ संविभागं करेहि, तते णं से घण्णे सत्थवाहे विजयं तकरं एवं बदासी- अवि याई अहं विजया एयं विपुलं असणं ४ कायाणं वा सुणगाणं वा दलएजा उकुरुडियाए वा णं छला नो चेव णं तव पुत्तधायगस्स पुत्तमार Education Internationa धन्यसार्थवाहः एवं विजयस्तेनस्य कथा For Park Use Only ~ 175 ~ संघाटज्ञाते विज यस्य बन्धः सू. ३९ विजयतस्करसंविभागः स्. ४० ॥ ८६ ॥ yor Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ---------------- अध्ययनं [२], ----------------- मूलं [३९,४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३९,४०] Nasee दीप गस्स अरिस्स वेरियस्स पडिणीयस्स पचामित्तस्स पत्तो विपुलाओ असण०४ संविभागं करेजामि, तते ण से धणे सत्यवाहे तं विपुलं असणं ४ आहारेति २तं पंथयं पडिविसज्जेति, तते णं से पंथए दासचेडे तं भोयणपिडगं गिण्हति २जामेव दिसि पाउन्भूते तामेव दिसि पडिगए, तते णं तस्स धण्णस्स सत्थवाहस्स तं विपुलं असणं ४ आहारियस्स समाणस्स उच्चारपासवणे णं उद्याहित्था, तते णं से धपणे सत्थवाहे विजयं तकरं एवं वदासी-एहि ताव विजया! एगंतमवकमामो जेणं अहं उचारपासवर्ण परिहवेमि, तते णं से विजए सफरे धणं सत्यवाहं एवं वयासी-तुभं देवाणुप्पिया! विपुलं असणं ४ आहारियस्स अस्थि उच्चारे वा पासवणे वा ममन्नं देवाणुप्पिया ! इमेहिं वहूहिँ कसप्पहारेहि यजाव लयापहारेहि यतण्हाए य छुहाए य परम्भवमाणस्स णधि केइ उच्चारे वा पासवणेघा तं देणं तुम देवाणुप्पिया ! एगते अवक्कमित्ता उच्चारपासवणं परिढवेति, तते णं से धणे सत्यवाहे विजएणं तकरणं एवं बुत्ते समाणे तुसिणीए संचिट्ठति, तते णं से धणे सत्धवाहे मुहत्तरस्स बलियतराग उचारपासवणेणं उबाहिज्जमाणे विजयं तकरं एवं वदासी-एहि ताव विजया ! जाव अवकमामो, तते णं से विजए धणं सत्यवाह एवं वदासी-जइ णं तुम देवाणुप्पिया! ततो विपुलाओ असण०४ संविभागं करेहि ततोऽहं तुमेहिं सद्धिं एगतं अवकमामि, तते णं से धण्णे सत्यवाहे विजयं एवं बदासी-अहन्नं तुम्भं ततो विपुलाओ असण०४ संविभागं करिस्सामि, तते णं से विजए धण्णस्स सत्यवाहस्स एपमह पडिसुणेति, तते णं से अनुक्रम [५०,५१] | धन्यसार्थवाहः एवं विजयस्तेनस्य कथा ~ 176~ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ---------------- अध्ययनं [२], ----------------- मूलं [३९,४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३९,४०] दीप अनुक्रम [५०,५१] शाताधर्म- विजए धणेणं सद्धिं एगते अवकमेति उच्चारपासवणं परिहवेति आयंते चोक्खे परमसुइभूए तमेव ठाणं २ संघादकधानम्. उघसंकमित्ता णं विहरति, तते णं सा भद्दा कल्लं जाव जलंते विपुलं असणं ४ जाव परिवेसेति, तते णं ज्ञाते विजसे धपणे सत्थवाहे विजयस्स तक्करस्स ततो विपुलाओ असण०४ संविभागं करेति, तते णं से धण्णे यस्य बन्धः सत्धवाहे पंधयं दासचेडं विसज्जेति, तते णं से पंधए भोयणपिडयं गहाय चारगाओ पडिनिक्खमति २ 18 सू. ३९ रायगिहं नगरं मझमज्झेणं जेणेव सए गेहे जेणेव भद्दा भारिया तेणेव उवागच्छह २ ता भई सस्थ विजयतबाहिणि एवं चयासी-एवं खलु देवाणुप्पिए! धपणे सत्यवाहे तव पुत्तधायगस्स जाय पञ्चामित्तस्स स्करसंविताओ विपुलाओ असण०४ संविभागं करेति (सूत्रं ४०) भागः सू. 'सहोदति समोषं 'सगेवेजति सह प्रैवेयकेण-ग्रीवाबन्धनेन यथा भवति तथा गृहन्ति 'जीवग्गाहं गिण्हंति'त्ति जीवतीति जीवस्तं जीवन्तं गृह्णन्ति अस्थिमुष्टिजानुकूपरेस्तेषु वा ये प्रहारास्तैः संभग्न-मथितं मोटितं-जर्जरितं गात्रं-शरीरं यस्य स तथा तं कुर्वन्ति 'अवउहगवंधणं'ति अवझोटनेन-अवमोटनेन कृकाटिकायाः बाहोष पश्चाद्धागनयनेन बन्धनं यस्य स तथा तं कुर्वन्ति 'कसप्पहारे यति वर्धताडनानि 'छिच'त्ति श्लक्ष्णः कषः 'लता' कम्बा 'बालघातक' प्रहारदानेन 'पालमा-11 वारकः' प्राणवियोजनेन । 'रायमचेति राजामात्यः 'अवरज्झाईचि अपराध्यति अनर्थ करोति नन्नत्यत्ति नत्वन्यत्रेत्यर्थः 18 वाचनान्तरे खिदं नाधीयत एव, खकानि निरुपचरितानि नोपचारेणात्मनः सम्बन्धीनि 'लहुस्सगंसिति लघुः ख-आत्मा खरूपं यस्य स लघुखक:-अल्पस्वरूपः राशि विषये अपराधो राजापराधस्तत्र 'संप्रलप्तः' प्रतिपादितः पिशुनैरिति गम्यते । | धन्यसार्थवाहः एवं विजयस्तेनस्य कथा ~ 177~ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ---------------- अध्ययनं [२], ----------------- मूलं [३९,४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३९,४०] दीप 'भोयणपडियति भोजनस्थालाद्याधारभूत वंशमयं भाजन पिटकं तत् करोति, सञ्जीकरोतीत्यर्थः, पाठान्तरेण 'भरेह'ति पूरयति पाठान्तरेण भोजनपिटके करोति अशनादीनि 'लाञ्छितं' रेखादिदानतो मुद्रितं कृतमुद्रादिमुद्र 'खलंगति विग-18 तलाञ्छनं करोति 'परिवेशयति' भोजयति, 'आवि याई ति अपिः संभावने आईति भाषायां अरे:-शोर्वैरिणः-सानुबन्ध-18 शत्रुभावस्य प्रत्यनीकस्य-प्रतिकूलवृत्तेः प्रत्यमित्रस्य-वस्तु २ प्रति अमित्रस्य 'धण्णस्स'त्ति कर्मणि षष्ठी उच्चारप्रश्रवणं करें णमित्यलङ्कारे 'उच्चाहित्य'त्ति उद्बाधयति सा, 'एहि तावे'त्यादि, आगच्छ तावदिति भाषामात्रे हे विजय! एकान्त-विजन-1 मपक्रमामो-यामः 'जेणं ति येनाहमुच्चारादि परिष्ठापयामीति 'छदेणं'ति अभिप्रायेण यथारुचीत्यर्थः। तते णं सा भद्दा सत्यवाही पंचयस्स दासचेडयस्स अंतिए एयम सोचा आसुरुत्ता रहा जाब मिसिमिसेमाणा घण्णस्स सत्यवाहस्स पओसमावजति, तते णं से धणे सत्यवाहे अन्नया कयाई मित्तनातिनियगसयणसंबंधिपरियणेणं सएण य अस्थसारेण रायकज्जातो अप्पाणं मोयावेति २ चारगसालाओ पडिनिक्खमति २ जेणेव अलंकारियसभा तेणेव उवागच्छति २ अलंकारियकम्मं करेति २ जेणेव पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छति २ अह धोयमहियं गेण्हति पोखरिणी ओगाहति २ जलमजणं करेति २ पहाए कयवलिकम्मे जाव रायगिह नगरं अणुपविसति २रापगिहनगरस्स मज्झमजमेणं जेणेव सए गिहे तेणेच पधारेत्थ गमणाए। तते णं तं धपणं सत्यवाहं एजमाणं पासित्ता रायगिहे नगरे बहवे नियगसेद्विसत्यवाहपभितओ आदति परिजाणंति सकारेंति सम्माणेति अन्भुढेति सरीरकुसलं पुच्छंति । तते णं अनुक्रम sesesesese [५०,५१] | धन्यसार्थवाहः एवं विजयस्तेनस्य कथा ~178~ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [२], ----------------- मूलं [४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: जाताधर्म कधाहम्. प्रत सूत्रांक २ संघाटज्ञाते दृष्टा तोपसंहारसू.४१ ॥८८ [४१] दीप अनुक्रम [१२] से धणे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छति २ जाविय से तत्थ बाहिरिया परिसा भवति तं०-दा- साति वा पेस्साति वा भियगाइ वा भाइल्लगाइ वा, सेवि य णं धपणं सत्यवाहं एजंतं पासति २ पायवडियाए खेमकुसलं पुच्छंति, जावि य से तत्थ अन्भंतरिया परिसा भवति तं०-मायाइ वा पियाइ. वा भायाति वा भगिणीति वा, सावि य णं धणं सत्यवाहं एजमाणं पासति २ आसणाओ अन्भुतुति २ कंठाकंठियं अवयासिय पाहप्पमोक्खणं करेति, तते णं से धपणे सत्यवाहे जेणेव भद्दा भारिया तेणेव उवागच्छति, तते णं सा भद्दा धणं सत्ववाह एज्जमाणं पासति पासित्ता णो आढाति नो परियाणाति अणाढायमाणी अपरिजाणमाणी तुसिणीया परम्मुही संचिट्ठति, तते णं से धपणे सत्यवाहे भई भारियं एवं वदासी-किन्नं तुन्भं देवाणुप्पिएन तुट्ठी वा न हरिसे वा नाणंदे वा जं मए सएणं अत्यसारेणं रायकजातो अप्पाणं विमोतिए, तते णं सा भद्दा धणं सत्थवाहं एवं वदासी-कहनं देवाणुप्पिया! मम तुही वा जाव आणंदे वा भविस्सति जेणं तुम मम पुत्तघायगस्स जाव पञ्चामित्तस्स ततो विपुलातो असण०४ संविभागं करेसि, तते णं से धपणे भई एवं वदासी-नोखलु देवाणुप्पिए ! धम्मोसि वा तवोत्ति वा कयपडिकइया चा लोगजत्ताति वा नायएति वा घाडिएति वा सहाएति वा सुहितिवा ततो विपुलातो असण.४ संविभागे कर नन्नत्थ सरीरचिंताए, तते णं सा भद्दा घपणेणं सत्यवाहेणं एवं बुत्ता समाणी हट्ट जाव आसणातो अन्भुढेति कंठाठिं अवयासेति खेमकुसलं पुच्छति २ पहाया ॥८८ | धन्यसार्थवाहः एवं विजयस्तेनस्य कथा ~179~ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ------------------ अध्ययनं [२], ------------------ मूलं [४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: 800 प्रत सूत्रांक [४१] दीप अनुक्रम [५] जाव पायच्छित्ता विपुलार्ति भोगभोगाई भुंजमाणी विहरति । तते णं से विजए तकरे चारगसालाए तेहिं बंधेहिं बहेहिं कसप्पहारेहि य जाव तण्हाए य छुहाए य परन्भवमाणे कालमासे कालं किचा नरएसु नेरइयत्ताए उववन्ने । से पं तत्थ नेरइए जाते काले कालोभासे जाव वेयणं पञ्चणुभवमाणे विहरह, से णं ततो उबट्टित्ता अणादीयं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतसंसारकंतारं अणुपरियहिस्सति एवामेव जंबू । जे णं अम्हं निग्गंधो वा निग्गंधी वा आयरियउवझायाणं अंतिए मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पचतिए समाणे विपुलमणिमुत्तियधणकणगरयणसारेणं लुम्भति सेविय एवं चेव । (सूत्रं ४१) "अलंकारियसहन्ति यस्यां नापितादिभिः शरीरसत्कारो विधीयते अलङ्कारिककर्म-नखखण्डनादि दासा-गृहदा-1 सीपुत्राः प्रेष्या-ये तथाविधप्रयोजनेषु नगरान्तरादिषु प्रेष्यन्ते भृतका-ये आबालखात्पोषिताः 'भाइल्लग'त्ति ये भागं लाभस्य लभन्ते ते, क्षेमकुशलं-अनर्थानुद्भवानर्थप्रतिधातरूपं, कण्ठे च कण्ठे च गृहीला कण्ठाकण्ठि, यद्यपि व्याकरणे युद्धविषय | एवैवंविधोऽव्ययीभाव इष्यते तथापि योगविभागादिभिरेतस्य साधुशब्दता दृश्येति, 'अवयासिय'चि आलिङ्गय बाप्पप्रमो.| क्षणं-आनन्दाश्रुजलप्रमोचनं । 'नायए 'त्यादि, नायका-प्रभुयायदो वा-न्यायदर्शी जातको वा स्वजनपुत्रक इतिरुपदर्शने | वा विकल्पे 'घाडिय'चि सहचारी सहायः-साहाय्यकारी सुहृद्-मित्रं । 'बंधेहि यत्ति बन्धो रज्ज्वादिबन्धनं 'वो' यल्पादिताडनं कशप्रहारादयस्तु तद्विशेषाः 'काले कालोभासे इत्यादि काल:-कृष्णवर्णः काल एवावभासते द्रष्टृणां कालो चाऽवभासोदीप्तिर्यस्य स कालावभासः, इह यावत्करणादिदं दृश्यं 'गम्भीरलोमहरिसे भीमे उत्तासणए परमकण्हे वणेण, से णं तत्थ निच्चं SARERatantramatana | धन्यसार्थवाहः एवं विजयस्तेनस्य कथा ~180~ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ------------------ अध्ययनं [२], ------------------ मूलं [४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: शाताधर्म- कथाङ्गम्. प्रत सूत्राक ॥८९॥ [४१] दीप अनुक्रम [१२] भीए निर्थ तत्थे निचं तसिए निच्च परमसुहसम्बद्धं नरगति तत्र गम्भीरो-महान् रोमहर्षो-भयसंभूतो रोमाञ्चो यस्य यतो वार संघाटसकाशात् स तथा, किमित्येवमित्याह-'भीमो भीष्मः, अत एवोत्रासकारिखादुधासका, एतदपि कुत इत्याह-परमकृष्णो|ज्ञाते दृष्टावर्णेनेति, परां-प्रकृष्टां अशुभसंबद्धां-पापकर्मणोपनीता 'अणाइय'मित्यादि, अनादिकं 'अणवदग्ग'ति अनन्तं 'दीहमद्धं तितोपनयः दीर्घार्दू-दीर्घकाल दीर्घाध्वं वा-दीर्धमार्ग चातुरंत-चतुर्विभागं संसार एवं कान्तारं-अरण्यं संसारकान्तारमिति । इतोऽधिकृतं सू.४२-४३ ज्ञातं ज्ञापनीये योजयबाह-एवमेव-विजयचौरवदेव 'सारे 'ति सारे णमित्यलकारे करणे तृतीया वेयं, लुभ्यते-लोभी भवति, 'सेवि एवं चेव'ति सोऽपि प्रबजितो विजयवदेव नरकादिकमुक्तरूपं प्राप्नोति । .. तेणं कालेणं तेणं समएणं धम्मघोसा नाम थेरा भगवंतोजातिसंपन्ना २ जाव पुधाणुपुर्षि चरमाणे जाव जेणेव रायगिहे नगरे जेणेव गुणसिलए चेतिए जाव अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तबसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति, परिसा निग्गया धम्मो कहिओ, तते तस्स धण्णस्स सत्थवाहस्स बहुजणस्स अंतिए एतमहूँ सोचा णिसम्म इमेतारूवे अज्झस्थिते जाव समुपज्जित्था-एवं खलु भगवंतो जातिसंपन्ना इहमागया इह संपत्ता तं इच्छामि णं थेरे भगवंते बंदामि नमसामि पहाते जाव सुद्धप्पावेसाति मङ्गल्लाई बधाई पवरपरिहिए पायविहारचारेणं जेणेव गुणसिले चेतिए जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छति २ का॥८९॥ वंदति नमसति। तते गं थेरा धण्णस्स विचित्तं धम्ममातिक्खंति, तते णं से धपणे सत्यवाहे धम्मं सोया एवं वदासी-सदहामि णं भंते ! निग्गंथे पावयणे जाव पवतिए जाव यहूणि वासाणि सामनपरियागं A asurary.com | धन्यसार्थवाहः एवं विजयस्तेनस्य कथा ~ 181~ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ---------------- अध्ययनं [२], ----------------- मूलं [४२,४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४२,४३] दीप अनुक्रम [५३,५४] पाउणित्ता भत्तं पञ्चक्खातित्ता मासियाए संलेहणाए सहि भत्ताई अणसणाए छेदेइ २ सा कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे देवत्ताए उववन्ने, तत्थ णं अस्थेगतियाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाई ठिती पन्नता, तत्थ णं धपणस्स देवस्स चत्तारि पलिओचमाई ठिती पण्णत्ता, से णं घण्णे देवे ताओ देवलोयाओ आउक्खएणं ठितीक्खएणं भवक्खएणं अर्णतरं चयं चइत्सा महाविदेहे वासे सिजिाहिति जाव सबदुक्खाणमंतं करेहिति (सूत्रं ४२) जहा णं जंबू! धपणेणं सत्थवाहेणं नो धम्मोत्ति वा जाव विजयस्स तकरस्स ततो विपुलाओ असण०४ संविभागे कए नन्नत्थ सरीरसारक्खणहाए, एवामेव जंबू! जेणं अम्हं निग्गंधे वा २जाव पञ्चतिए समाणे ववगयण्हाणुम्मणपुष्पगंधमल्लालंकारविभूसे इमस्स ओरालियसरीरस्स नो बन्नहउँ वा रूवहे वा विसयहेउं वा असणं ४ आहारमाहारेति, नन्नस्थ णाणदसणचरित्ताणं बहणयाए, से णं इहलोए चेव बहूर्ण समणार्ण समणीणं सावगाण य साविगाण य अचणिजे जाव पज्जुवासणिज्जे भवति, परलोएवि य शं नो बहूणि हत्थच्छेयणाणि य कन्नच्छेयणाणि य नासाडेयणाणि य एवं हिययउप्पायणाणि य बसणुप्पाडणाणि य उलंबणाणि य पाविहिति अणातीयं च णं अणवदग्गं दीहं जाव वीतिवतिस्सति जहा व से धण्णे सत्यवाहे । एवं खलु जंबू! समणेणं जाव दोचस्स नायज्झयणस्स अयमढे पपणत्तेत्तिमि ॥ (सूत्रं ४३) वितीयं अज्झयणं समर्स ॥२॥ 'जहा णमित्यादिनाऽपि ज्ञातमेव ज्ञापनीये नियोजितं, 'नन्नत्य सरीरसारक्षणवाएं'चि न शरीरसंरक्षणार्थीदन्यत्र ~ 182~ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ------------------ अध्ययनं [२], ---------------- मूलं [४२,४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म कथानम्. प्रत सूत्रांक [४२,४३] ॥९॥ तदर्थमेवेत्यर्थः 'जहा व से घण्णे'त्ति दृष्टान्तनिगमनं । इह पुनर्विशेषयोजनामिमामभिदधति बहुश्रुताः-इह राजगृहनगरस्था-1||२ संघाट|नीयं मनुष्यक्षेत्रं धन्यसार्थवाहस्थानीयः साधुजीवः विजयचौरस्थानीयं शरीरं पुत्रस्थानीयो निरुपमनिरन्तरानन्दनिबन्धनलेन ज्ञाते विशेसंयमो, भवति यसत्प्रवृत्तिकशरीरात्संयमविघात, आभरणस्थानीयाः शब्दादिविषयाः, तदर्थप्रवृतं हि शरीर संयमविपाते। प्रवर्तते, हडिबन्धस्थानीय जीवशरीरयोरविभागेनावस्थानं राजस्थानीयः कर्मपरिणामः राजपुरुषस्थानीयाः कर्मभेदाः लघुखकापराधस्थानीया मनुष्यायुष्कबन्धहेतवः, मूत्रादिमलपरिस्थानीयाः प्रत्युपेक्षणादयो ग्यापाराः, यतो भक्तादिदानाभावे यथासौ विजयः प्रश्रवणादिव्युत्सर्जनाय न प्रवर्तितवान् एवं शरीरमपि निरशनं प्रत्युपेक्षणादिषु न प्रवर्तने, पान्धकस्थानीयो मुग्धसाधुः, सार्थवाहीस्थानीया आचार्याः, ते हि विवक्षितसाधुं भक्तादिभिः शरीरमुपष्टम्भयन्तं साध्वन्तरादुपश्रुत्योपालम्भयन्ति |8| विवक्षितसाधुनैव निवेदिते वेदनावैयावृत्त्यादिके भोजनकारणे परितुष्यन्ति चेति, पठ्यते च "सिवसाहणेसु आहारविरहिओ जन बट्टए देहो । तम्हा धण्णोद विजय साहू तं तेण पोसेजा।।" [शिवसाधनेषु आहारविरहितो यन्त्र प्रवर्तते देहः । तसात धन्य इव विजयं साधुस्तत् तेन पोषयेत् ॥१॥] 'एवं खल्वि'त्यादि निगमनं' इतिशब्दः समाप्तौ ब्रवीमीति पूर्ववदेवेति ॥ ज्ञाताधर्मकथायां विवरणतो द्वितीयमध्ययनं समाप्तमिति दीप अनुक्रम [५३,५४] ॥ ९ ॥ अत्र अध्ययन-२ परिसमाप्तम् ~ 183~ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) (०६) श्रुतस्कन्ध: [१] ---------------अध्ययनं [३], .....-- मूलं [४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४४] दीप अथ तृतीयमण्डकाख्यमध्ययनं, तस्य च पूर्वेण सहायं सम्बन्धः-अनन्तराध्ययने सामिष्यकास निरभिष्वङ्गस्य च दोषगुणानभिदधता चारित्रशुद्धिविधेयतयोपदिष्टा, इह तु शक्तिस्य निशस्य च तानभिदधता संयमशुद्धेरेव हेतुभूता सम्यक्त्वशुद्धि विधेयतयोपदिश्यते इत्येवंसंबन्धस्यास्पेदमुपक्षेपसूत्र जतिणं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं दोचस्स अज्झयणस्स णायाधम्मकहाणं अयमढे पन्नत्ते तइअस्स अजायणस्स केअढे पण्णसे?, एवं खलु जंबतेणं कालेणं २ चंपा नाम नयरी होत्था बन्नओ, तीसे गं चंपाए नयरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए समिभाए नाम उजाणे होत्था सबोउय सुरम्मे नंदणवणे इव सुहसुरभिसीपलच्छायाए समणुबद्धे, तस्स णं सुभूमिभागस्स उजाणस्स उत्तरओ एगदेसंमि मालुयाककछए धन्नओ, तत्व णं एगा वरमऊरी दो पुढे परियागते पिट्डीपंडुरे निवणे निरुवहए भिन्नमुट्ठिप्पमाणे मऊरी अंडए पसबति २ सतेणं पक्खवाएणं सारक्खमाणी संगोवमाणी संविट्ठमाणी विहरति, तत्थ णं चंपाए नयरीए दुवे सत्यवाहदारगा परिवसंति तं०-जिणदत्तपुते य सागरदत्तपुत्ते य, सहजायया सहवडियया सहपंसुकीलियया सहदारदरिसी अन्नमनमणुरत्तया अन्नमनमणुवयया अन्नमनच्छंदाणुवत्तया अन्नमन्नहियतिच्छियकारया अन्नमन्नेसु गिहेसु किच्चाई करणिज्जाई पच्चणुभवमाणा विहरन्ति (सूत्रं ४४) "जह ण'मित्यादि 'एवं खल्वि'त्यादि, प्रकृताध्ययनसूत्रं च समस्तं कण्ठ्यं नवरं 'सबोउए'ति सर्वे ऋतवो-वसन्तादयः तत्संपायकसुमादिभावानां वनस्पतीनां समुद्भवात् यत्र तचथा, कचित् 'सबोउय'ति दृश्यते, तेन च 'सबोउयपुष्फफलसमिद्धे अनुक्रम [१५] अथ अध्ययन- ३ "अण्ड: आरभ्यते ~ 184~ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ------------------ अध्ययनं [३], ---------------- मूलं [४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: జటe प्रत सुत्राक [४४] दीप ज्ञाताधर्मइत्येतत्सूचितं, अत एव सुरम्यं नन्दनवनं-मेरोद्वितीयवनं तद्वत् शुभा सुखा वा सुरभिः शीतला च या छाया तया समनुबद्धं ३ अण्डककथाङ्गम्. व्याप्तं 'दो पुढे इत्यादि, द्वे-द्विसंख्ये पुष्टे-उपचिते पर्यायेण-प्रसवकालक्रमेणागते पर्यायागते प्राकृतखेन यकारलोपात् परि- ज्ञाते मित्रे यागएत्ति भणितं, पिष्टस्य-शालिलोदृस्य उण्डी-पिण्डी पिष्टोण्डी तद्वत् पाण्डुरे ये ते तथा, निव्रणे-अणकै रहिते निरुपहते- सू.४४ वातादिभिरनुपहते भिन्ना-मध्यशुषिरा या मुष्टिः सा प्रमाणं ययोः ते भिन्नमुष्टिप्रमाणे मयूर्या अण्डके मयूराण्डके न कुर्कुच्या संकेतः सू. | अण्डके प्रमते-जनयति. संरक्षयन्ती-पालयन्ती सङ्गोपायन्ती-स्थगयन्ती संवेष्टयन्ती-पोषयन्ती, सहजातौ जन्मदिनस्यै-IRL ४५ | कखात् सहबद्धौ-समेतयोद्धिमुपगतखात् सहपाशुक्रीडितको समानवालभावसात् सहदारदर्शिनी समानयौवनारम्भत्वात्। सहैव एकावसर एव जातकामविकारतया दारान्-खकीये २ भार्ये तथाविधदृष्टिभिर्देष्टवन्तौ अथवा सह-सहितौ सन्तो| अन्योन्यगृहयोद्वारे पश्यतः तत्प्रवेशनेनेत्येवंशीलौ यौ तौ तथा, एतच्चानन्तरोक्तं खरूपमन्योऽन्यानुरागे सति भवतीत्याहअन्योऽन्यमनुरक्तौ-नेहवन्तौ अत एवान्योऽन्यमनुव्रजत इत्यन्योऽन्यानुव्रजी, एवं छन्दोऽनुवर्चको-अभिप्रायानुवर्जिनौ एवं हृदयेप्सितकारको 'किच्चाई करणीयाई ति कर्तव्यानि यानि प्रयोजनानीत्यर्थः अथवा कृत्यानि-नैत्यिकानि करणीयानि-कादा चित्कानि 'प्रत्यनुभवन्तौ' विदधानौ । RI तते णं तेसिं सत्यवाहदारगाणं अन्नया कयाई एगतओ सहियाणं समुवागयाणं सन्निसन्नाणं सन्निविट्ठाण Q ॥११॥ इमेयारवे मिहोकहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था-जन्नं देवाणुप्पिया! अम्हं सुहं वा दुक्खं वा पञ्चज्बा वा विदेसगमणं वा समुप्पजति तन्नं अम्हेहि एगयओ समेचा णित्थरियचंतिकटु अन्नमन्त्रमेयारूवं संगारं पडिसुणेति अनुक्रम [१५] ~185~ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ---------------- अध्ययनं [३], ----------------- मूलं [४५,४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४५,४६]] दीप अनुक्रम [५६,५७] २सकम्मसंपत्ता जाया यावि होत्था। (सूत्रं ४५)तस्थ णं चंपाए नयरीए देवदत्ता नामंगणिया परिवसइ अड्डा जाव भत्तपाणा चउसटिकलापंडिया चउसहिगणियागुणोववेया अउणत्तीसं विसेसे रममाणी एकवीसरतिगुणप्पहाणा बत्तीसपुरिसोवयारकुसला णवंगसुत्तपडियोहिया अट्ठारसदेसीभासाविसारया सिंगारागारचारुवेसा संगयगयहसिय० ऊसियझया सहस्सलंमा विदिन्नछत्तचामरबालवियणिया कन्नीरहप्पयाया यावि होत्था बहूणं गणियासहस्साणं आहेवच्चं जाव विहरति, तते णं तेसिं सत्यवाहदारंगाणं अन्नया कदाइ पुवावरण्हकालसमयंसि जिमियभुत्तुत्तरगयाणं समाणाणं आयन्ताणं चोक्खाणं परमसुतिभूयाणं सुहासणवरगयाणं इमेयारूवे मिहोकहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था, तं सेयं खलु अम्हें देवाणुप्पिया ! कल्लं जाव जलते विपुलं असणं ४ उवक्खडावेत्ता तं विपुलं असणं ४ धूवपुष्फगंधवस्थं गहाय देवदत्ताए गणियाए सद्धिं सुभूमिभागस्स उजाणस्स उजाणसिरिं पचणुभवमाणाणं विहरित्तएत्तिकटु अन्नमन्नस्स एयमह पडिसुणेति २ कलं पाउन्भूए कोडुबियपुरिसे सद्दावेंति २ एवं वदासी-च्छह णं देवाणुप्पिया! विपुलं असणं ४ उवक्खडेह २ तं विपुलं असणं ४ धूवपुष्पं ग़हाय जेणेव सुभूभिभागे उजाणे जेणेव गंदापुक्खरिणी तेणामेव उवागच्छह २ नंदापुक्खरिणीतो अदूरसामंते थूणामंडवं आहणह २ आसितसम्मज्जितोवलितं सुगंध जाव कलियं करेह २ अम्हे पडिवालेमाणा रचिट्ठह जाच चिट्ठति, तए णं सत्थवाहदारगा दोचंपि कोढुंबियपुरिसे सद्दावेंति २ एवं वदासी-खिप्पामेव लहुकरणजुत्तजो ~186~ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ---------------- अध्ययनं [३], ----------------- मूलं [४५,४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म कथानम्. प्रत सूत्रांक [४५,४६]] अण्डकज्ञाते देवदत्तासंगमः सू. ४६ ॥९२॥ दीप अनुक्रम [५६,५७] तियं समखुरवालिहाणं समलिहियतिक्खग्गसिंगएहिं रययामयघंटमुत्तरज्जुपवरकंचणखचियणस्थपग्गहोवग्गहितेहिं नीलुप्पलकयामेलएहिं पवरगोणबाणएहिं नाणामणिरयणकंचणघंटियाजालपरिक्खित्तं पवरलक्खणोववेयं जुत्तमेव पवहर्ण उवणेह, तेऽवि तहेव उवणेति, तते णं से सत्यवाहदारगा पहाया.जाव सरीरा पवहणं दुरूहंतिरजेणेवदेवदत्ताए गणियाए गिहं तेणेव उवागच्छति २त्ता पवहणातो पचोरुहति २ देवदत्ताए गणियाए गिहं अणुपविसेंति, तते णं सा देवदत्ता गणिया सत्यवाहदारए एजमाणे पासति २ हह २ आसणाओ अन्भुतुति २ सत्तट्ट पदाति अणुगच्छति २ते सत्यवाहदारए एवं वदासी-संदिसंतुणं देवाणुप्पिया! किमिहागमणप्पतोयणं, तते णं ते सत्थवाहदारगा देवदत्तं गणियं एवं वदासी-छामो णं देवाणुप्पिए! तुम्हेहिं सद्धिं सुभूमिभागस्स उजाणस्स उज्वाणसिरिं पञ्चणुन्भवमाणा विहरित्तए, तते णं सा देवदत्ता तेसिं सत्यवाहदारगाणं एतमट्ठ पडिमुणेति २ण्हाया कयकिचा किं ते पवर जाव सिरिसमाणवेसा जेणेव सत्यवाहदारगा तेणेव समागया, तते गं ते सत्यवाहदारगा देवदत्ताए गणियाए सद्धिं जाणं दुरूहति २चपाए नयरीए मझमजोणं जेणेव सुभूमिभागे उजाणे जेणेव नंदापुक्खरिणी तेणेव उवागच्छंति २ पवहणातो पचोकहति २नंदापोक्खरिणी ओगाहिंति २ जलमजणं करेंति जलकीडं करेंति बहाया देवदत्ताए सद्धिं पञ्चुत्तरंति जेणेव थूणामंडवे तेणेव उवागच्छति २ थूणामंडवं अणुपविसंति २ सवालंकारविभूसिया आसस्था बीसस्था सुहासणवरगया देवदत्ताए सद्धिं तं विपुलं असणं ४ धूवपु ~ 187~ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [३], ----------------- मूलं [४५,४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४५,४६]] दीप अनुक्रम [५६,५७] फगंधवत्थं आसाएमाणा वीसाएमाणा परिभुजेमाणा एवं च णं विहरंति, जिमियमुत्तुत्तरागयाविय ण समाणा देवदत्ताए सद्धिं विपुलार्ति माणुस्सगाई कामभोगाई भुंजमाणा विहरति । (सूत्र ४६ ) 'एगउ'त्ति कचिदेकस्मिन् देशे सहितयोः-मिलितयोः समुपागतयोरेकतरस गृहे सनिषण्णयोः-उपविष्टयोः संनिविष्टयोः-11 सिंहततया स्थिरसुखासनतया च व्यवस्थितयोमिथःकथा-परस्परकथा तस्यां समुल्लापो-जल्यो यः स तथा समुदपद्यत, "समे-४ चति समेत्य पाठान्तरे 'संहिचति संहत्य सह संभूय 'संगारंति सङ्केतं 'पडिसुणेति'त्ति अभ्युपगच्छतः । 'चउसट्ठीत्यादि, चतुःषष्टिकलाः गीतनृत्यादिकाः खीजनोचिता वात्स्यायनप्रसिद्धाः चतुःषष्टिगणिकागुणाः आलिङ्गनादिकानामटानां क्रियाविशेषाणां प्रत्येकमष्टभेदखात्, एतेऽपि वात्स्यायनप्रसिद्धाः, एवं विशेषादयोऽपि, 'नवंगसुसपडियोहियोति प्राग्वत् नवयौवनेति भावः 'संगयगयहसिय'इत्येनेनेदं मूचितं 'संगयगयहसियभणियविहियविलाससललियसलावनिउणजुत्तोवयारकुसला' व्याख्या खस्स पूर्ववत्, वाचनान्तरे विदमधिकं सुंदरपणजघणवयणचरणनयणलावण्णरूवजोबणविलास-15 कलिया' उच्छ्रितध्वजा सहाव्या लाभो यस्याः सा तथा, वितीर्णानि राजा छत्रचामराणि वालवीजनिका च-चामरविशेषो यस्याः सा तथा, कीरथा-प्रवहणविशेषस्तेन प्रयात-गमनं यस्याः सा तथा, कीरथो हि ऋद्धिमतां पांचिदेव भवतीति सोऽपि तस्सा अस्तीत्यतिशयप्रतिपादनार्थोऽपिशब्द इति, स्घृणाप्रधानो वस्त्राच्छादितो मण्डपः स्थूणामण्डपः 'आहणहति निवेशयतेति भावः, 'लघुकरणे'त्यादि, लघुकरणं गमनादिका शीघ्रक्रिया दक्षत्वमित्यर्थः तेन युक्ता ये पुरुषास्तर्योजित--पत्रयूपादिभिः सम्बन्धितं यत्तत्तथा प्रवहणमिति सम्बन्धः, पाठान्तरेण 'लहुकरणसिपहिति तत्र लघुकरणेन-दक्षत्वेन युक्तो ~ 188~ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [४५,४६] दीप अनुक्रम [५६,५७] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययन [ ३ ], मूलं [ ४५,४६] श्रुतस्कन्ध: [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥ ९३ ॥ योजितो यौ तौ तथा ताभ्यां ककार इह स्वार्थिकः, गोयुवभ्यां युक्तमेव प्रवहणमुपनयतेति सम्बन्धः समखुरवालधानौ समानशफपुच्छौ समे-तुल्ये लिखिते शस्त्रेणापनीतबाह्यत्व के तीक्ष्णे शृङ्गे ययोस्तौ तथा, ततः कर्मधारयः, ताभ्यां वाचनान्तरे 'जंबूणयमयक लावजुतपचिसिएहिं' जम्बूनदमयौ सुवर्णमयौ कलापो कण्ठाभरणविशेषौ योके च यूपेन सह कण्ठसंयमनरज्ज् | प्रतिविशिष्टे ययोस्ती च तथा ताभ्यां रजतमयाँ- रूप्यविकारौ घण्टे ययोस्तौ तथा, सूत्ररज्जुके कार्पासिकमूत्रदवरकमय्यौ वरकनकखचिते ये नस्ते - नासिकान्यस्तरज्जुके तयोः प्रग्रहेण - रश्मिना अवगृहीतकौ - बद्धौ यौ तथा ततः कर्मधारयोतः ताभ्यां नीलोत्पलकृतापीडाभ्यां आपीड:- शेखरः, प्रवरगोयुवभ्यां नानामणिरत्नकाञ्चनघण्टिकाजालेन परिक्षितं प्रवरलक्षणोपेतं, वाचनान्तरेऽधिकमिदं 'सुजातजुगजुत्तउज्जुगपसत्थ सुविरइयनिम्मियं ति तत्र सुजातं सुजातदारुमयं युगं-यूपः युक्तं संगतं ऋजुकं सरलं प्रशस्तं शुभं सुविरचितं सुघटितं निम्मितं- निवेशितं यत्र तत्तथा युक्तमेव- सम्बद्धमेव प्रवहणं - यानं परिदक्षगत्रीत्यर्थः 'किन्ते जाब सिरी'त्यादि व्याख्यातं धारिणीवर्णके । Education International तते णं ते सत्थवाहदारगा पुवावरण्हकालसमयंसि देवदत्ताए गणियाए सद्धिं थूणामंडवाओ पडिनिक्खति २ हत्थसंगेलीए सुभूमिभागे बहुसु आलिधरएमु य कयलीघरेसु य लयाघरए य अच्छणघरएसु य पेच्छणघरएसु य पसाहणघरएसु य मोहणघरएसु य सालधरपसु य जालघरएसु य कुसुमघरपसु य उज्जाणसिरिं पचणुभवमाणा विहरंति (सूत्रं ४७) तते णं ते सत्थवाहदारया जेणेव से मालुयाकच्छप तेणेव पहारेत्थ गमणाए, तते णं सा वणमऊरी ते सत्धवाहदारए एजमाणे पासति २ भीया For Parts Only ~ 189~ ३ अण्डकज्ञाते उद्यानश्रीअनुभवः सू. ४७ अण्ड कगुहः सू. ४८ ॥ ९३ ॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ------------------ अध्ययनं [३], ----------------- मूलं [४७-५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४७-५० तत्था. महया २ सद्देणं केकारवं विणिम्मुयमाणी २ मालुयाकच्छाओ पडिनिक्खमति २ एगंसि रुक्खमालयंसि ठिच्चा ते सत्यवाहदारए मालुयाकच्छयं च अणिमिसाए दिट्ठीए पेहमाणी २ चिट्ठति । तते णं ते सत्यवाहदारगा अण्णमन्नं सदाति २ एवं वदासी-जहा णं देवाणुप्पिया। एसा वणमऊरी अम्हे एज्जमाणा पासित्ता भीता तत्था तसिया उबिग्गा पलाया महता २ सदेणं जाव अम्हे मालुयाकच्छयं च पेच्छमाणी२ चिट्ठति तं भवियत्वमेध कारणेणंतिकट्ठ मालुयाकच्छयं अंतो अणुपविसंति २ तत्थ णं दो पुढे परियागये जाव पासित्ता अन्नमन्नं सहाति २ एवं वदासी-सेयं खलु देवागुप्पिया! अम्हे इमे वणमऊरीअंडए साणं जाइमंताणं कुकुडियाणं अंडएसु अ पक्खिवावेत्तए, तते णं ताओ जातिमन्ताओ कुकुडियाओताए अंडए सए य अंडए सएणं पक्खवाएणं सारक्खमाणीओ संगोवेमाणीओ विहरिस्संति, तते णं अम्हं एत्थं दो कीलावणगा मऊरपोयगा भविस्संतित्तिकटु अन्नमन्नस्स एतमहूं पडिसुणेति २सए सए दासचेड़े सद्दाति २ एवं वदासी-गच्छह गं तुम्मे देवाणुणुप्पिया! इमे अंडए गहाय सगाणं जाइमंताणं कुकुडीणं अंडएसु पक्खियह जाव तेवि पक्खि-ति, तते णं ते सत्यवाहदारगा देवदत्ताए गणियाए सद्धिं सुभूमिभागस्स उजाणस्स उज्जाणसिरि पचणुभवमाणा विहरित्ता तमेव जाणं दुरुढा समाणा जेणेव चंपानयरीए जेणेव देवदत्ताए गणियाए गिहे तेणेव उवागच्छति २ देवदत्ताए गिर्ह अणुपविसंति २ देवदत्ताए गणियाए विपुलं जीवियारिहं पीइदाणं दल दीप अनुक्रम [५८-६१] gandurary.orm ~190~ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ------------------ अध्ययनं [३], ----------------- मूलं [४७-५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्. ॥१४॥ प्रत सूत्रांक [४७-५० |३अण्डकज्ञाते सागरदत्तनिराशा सू.४९ । दीप अनुक्रम यंति २ सकारेंति २ सम्माणति २ देवदत्ताए गिहातो पडिनिक्खिमंति २ जेणेव सयाई २ गिहाई तेणेव उवागच्छंति २ सकम्मसंपउत्ता जाया यावि होत्था (सूत्रं ४८) तते गंजे से सागरदत्तपुसे सत्यवाहदारए से णं कलं जाव जलते जेणेव से वणमऊरीअंडए तेणेव उवागच्छति २ तंसि मऊरीइयंसि संकिते कंखिते वितिगिच्छासमावन्ने भेयसमावन्ने कलुससमावन्ने किन्नं ममं एस्थ किलावणमऊरीपोयए भविस्सति उदाहु णो भविस्सइत्तिकट्ठ तं मउरीअंडयं अभिक्खणं २ उच्चत्तेति परियत्तेत्ति आसारेति संसारेति चालेति फंदेह घहेति खोभेति अभिक्खणं २ कन्नमूलसि टिहियावेति, तते णं से मऊरीअंडए अभिक्खणं २ उपत्तिजमाणे जाव टिहियावेजमाणे पोचडे जाते यावि होत्या, तते णं से सागरदत्तपुत्ते सत्यवाहदारए अन्नया कयाई जेणेव से मकर अंडए तेणेव उवागच्छति २ते मऊरीअंडयं पोचडमेव पासति २ अहोणं मम एस कीलावणए मऊरीपोयए ण जाएत्तिकटु ओहतमण जाव झियायति। एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंधो वा निग्गंधी वा आयरियउवझयाणं अंतिए पबतिए समाणे पंचमहत्वएसु जाव छज्जीवनिकाएसु निग्गंथे पावयणे संकिते जाव कलुससमावन्ने से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं बहणं समणीणं सावगाणं साविगाणं हीलणिज्जे निंदणिज्जे खिसणिजे गरहणिजे परिभवणिज्जे परलोएविय णं आगछति बहणि दंडणाणि य जाव अणुपरियहए (सूत्रं ४९) तते णं से जिणदसपुते जेणेव से मऊरीअंडए तेणेच उवागच्छति २तंसि मउरीअंडयंसि निस्संकिते,सुबत्तए णं मम एत्थ [५८-६१] ॥१४॥ FarPuraaNamunom. ~191~ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ------------------ अध्ययनं [३], ----------------- मूलं [४७-५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४७-५० कीलावणए मऊरीपोयए भविस्सतीतिकटु तं मरीअंडयं अभिक्खणं २ नो उत्तेत्ति जाव नोटिहियावेति, तते णं से मरीअंडए अणुवत्तिज्जमाणे जाव अटिहियाविज्जमाणे तेणं कालेणं सेणं समएणं जन्भिन्ने मऊरिपोयए एस्थ जाते, तते णं से जिणदत्तपुत्ते तं मऊरपोययं पासति २ हट्ट तुढे मऊरपोसए सहावेति २ एवं वदासी-तुम्भे णं देवाणुप्पिया! इमं मऊरपोययं बहहिं मारपोसणपाउग्गेहिं दबेहि अणुपुरणं सारक्खमाणा संगोवेमाणा संवह नदुल्लगं च सिक्खावेह, तते णं ते मऊरपोसगा जिणदत्तस्स पुत्तस्स एतमढे पडिमुणेति २तं मउरपोययं गेण्हति जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छंति २तं मयूरपोयगं जाव नठुल्लगं सिक्खावेति । तते णं से मऊरपोयए उम्मुक्कपालभावे विनाय० जोबणग० लक्खणर्वजण माणुम्माणप्पमाणपडिपुत्र पक्खपेहुणकलावे विचित्तपिच्छे सतचंदए नीलकंठए नचणसीलए एगाए चप्पुडियाए कयाए समाणीए अणेगाति नडल्लगसयाति केकारवसयाणि य करेमाणे विहरति, तते णं ते मऊरपोसगा तं मऊरपोयग उम्मुक्कजाच करेमाणं पासित्ता २तं मऊरपोयगं गेहंति २ जिणदत्तस्स पुत्तस्स उवणेति, तते णं से जिणदत्तपुत्ते सत्यवाहदारए मउरपोयगं उम्मुक जाव करेमाणं पासित्ता हडतुडे तेसिं विपुलं जीवियारिहं पीतिदाणं जाव पडिविसज्जेह, तए णं से मऊरपोतए जिणदत्तपुत्तेणं एगाए चप्पुखियाए कयाए समाणीए गंगोलाभंगसिरोधरे सेयावंगे गिण्हइ अवयारियपइन्नपक्खे उक्खित्तचंदकातियकलावे के काइयसयाणि विमुच्चमाणे णच्चइ, तते णं से जिणदत्तपुत्ते हरुख दीप अनुक्रम [५८-६१] ~192~ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [४७-५०] दीप अनुक्रम [५८-६१] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१] अध्ययनं [ ३ ], मूलं [ ४७-५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥ ९५ ॥ तेणं मडरपोयएणं चंपाए नयरीए सिंघाडग जाब पहेसु सतिएहि य साहस्सिएहि य सयसाहस्सिएहि जय पणिएहि य जयं करेमाणे विहरति । एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंधी वा पक्षतिए समाणे पंच महएस छसु जीवनिकाएसु निग्गंधे पावयणे निस्संकिते निर्कखिए निधितिगच्छे से इह भवे चैव बहूणं समणाणं समणीणं जाव वीतिवतिस्सति । एवं खलु जंबू ! समणेणं० णायाणं तस्स अज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्तेति बेमि (सूत्रं ५०) तवं नायज्झयणं समन्तं ॥ ३ ॥ 'हत्य संगेलीए 'ति अन्योऽन्यं हस्तावलम्बनेन, 'आलिघरसु य कयलिधरपसु य' आलीकदल्यौ वनस्पतिविशेषौ, 'लताघरऐसु य' लताः - अशोका दिलता 'अच्छणघरएसु य' अच्छांति- आसनं, 'पेच्छणघरएसु य' प्रेक्षणं प्रेक्षणकं, 'पसाहणघरएसु य' प्रसाधनं मण्डनं, 'मोहणघर एसु य' मोहनं निधुवनं, 'सालघर एसु य' साला :- शाखाः अथवा शाला-पृक्षविशेषा:, 'जालघ रएसुय' जालगृहं-जालकान्वितं 'कुसुमघरएस य' कुसुमप्रायवनस्पतिगृहेष्वित्यर्थः, कचित्कदलीगृहादिपदानि यावच्छब्देन सूच्यन्त इति, शङ्कितः किमिदं निष्पत्स्यते न वेत्येवं विकल्पवान् काङ्क्षितः- तत्फलाकाङ्क्षावान् कदा निष्पत्स्यते इतो विवक्षि फलमित्यौत्सुक्यवानित्यर्थः विचिकित्सितः - जातेऽपीतो मयूरपोतेऽतः किं मम क्रीडालक्षणं फलं भविष्यति न वेत्येवं फलं प्रति शङ्कावान्, किमुक्तं भवति - भेदसमापन्नो मतेर्वेधाभावं प्राप्तः सद्भावासद्भावविषयविकल्पव्याकुलित इति भावः, कलुषसमापन्नो मतिमालिन्यमुपगतः, एतदेव लेशत आह- 'किन्न' मित्यादि, उद्वर्तयति-अधोदेशस्योपरिकरणेन परिवर्तयतितथैव पुनः स्थापनेन ' आसारयति' ईपत्स्वस्थानत्याजनेन 'संसारयति' पुनरषत्स्वस्थानात् स्थानान्तरनयनेन चाल For Parata Lise Only ~ 193~ ३ अण्डक ज्ञाते जि नदत्तस्था शापूर्तिः सू. ५० ॥ ९५ ॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक |[४७-५०] दीप अनुक्रम [५८-६१] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययन [ ३ ], मूलं [ ४७-५० ] श्रुतस्कन्धः [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः यति - स्थानान्तरनयनेन स्पन्दयति- किंचिच्चलनेन घट्टयति-हस्तस्पर्शनेन क्षोभयति- ईषद्भूमिमुत्कीर्य तत्प्रवेशनेन 'कण्णमूलंसिचि स्वकीयकर्णसमीपे धृत्वा 'टिट्टियावेति' शब्दायमानं करोति 'पोचर्ड' ति असारं, हीलनीयो गुरुकुलादहनतः निन्दनीयः कुत्सनीयो- मनसा खिंसनीयो- जनमध्ये गर्हणीयः- समक्षमेव च परिभवनीयोऽनभ्युत्थानादिभिः, मयूरपोषका ये मयूरान् पुष्णन्ति । 'नडुल्लगं ति नाव्यं 'विन्नाये'त्यादौ 'विन्नायपरिणयमेत्ते जोवणगमणुपत्ते लक्खणर्वजणगुणोववेए' इत्येवं दृश्यं, मानेन - विष्कम्भतः उन्मानेन बाहल्यतः प्रमाणेन च आयामतः परिपूर्णौ पक्षौ 'पेहुणकलाविति मयूराङ्गकलापश्च यस्य स तथा विचित्राणि पिच्छानि शतसंख्याथ चन्द्रका यस्य स तथा, वाचनान्तरे विचित्रा:- पिच्छेष्ववसक्ताः संबद्वान्द्रका यस्य स विचित्रपिच्छावसक्तचन्द्रकः नीलकण्ठको नर्त्तनशीलकः चप्पुटिका-प्रतीता केकायितं मयूराणां शब्दः एकस्यां चप्पुटिकायां कृतायां सत्यां 'गंगोला मंगसिरोहरि'त्ति लाकुलाभङ्गवत् - सिंहादिपुच्छवक्रीकरणमित्र शिरोधरा - ग्रीवा यस्य स तथा, स्वेदापन्नो जातवेदः श्वेतापाङ्गी वा सितनेत्रान्तः अवतारितौ – शरीरात्पृथकृतौ प्रकीर्णी - विकीर्णपिच्छौ पक्षौ यस्य स तथा ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, उत्क्षिप्तः - ऊङ्घकृत शन्द्रकादिकः- चन्द्रकप्रभृतिकमयूराङ्गक विशेषोपेतचन्द्रकै रचितैर्वा कलाप:- शिखण्डो येन स तथा, केकायितशतं शब्दविशेषशतं 'पणिएहिं'ति पणितैः - व्यवहारैर्होद्दादिभिरित्यर्थः 'एवमेवेत्यादि उपनयवचनमिति, भवन्ति चात्र गाथा: - 'जिणवर भासियभावेसु भावसच्चेसु भावओ मइमं । नो कुजा संदेहं संदेहोऽणत्थउत्ति ॥ १ ॥ निस्संदेहत्तं पुण गुणहेउं में तओ तयं कर्ज । एत्थं दो सिट्टिसुया अंडयगाही उदाहरणं ॥ २ ॥ तथा 'कत्थई महदुब्बल्लेण तविहायरिथविरहओ या वि । नेयगहणत्तणेणं नाणावरणोदणं च || ३ || हेऊदाहरणासंभवे य Education International For Pasta Use Only ~ 194~ arra Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [४७-५०] दीप अनुक्रम [५८-६१] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] अध्ययनं [३], मूलं [ ४७-५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्. ॥ ९६ ॥ Eticati सह सुद्रु जं न बुज्झिज्जा | सहन्नुमयमवितहं तहावि इह चितए मइमं ॥ ४ ॥ अणुत्रकयपराणुग्गहपरायणा जं जिणा जगप्प| वरा । जियरागदोसमोहा य णन्नहावाइणो तेण ॥ ५ ॥" [ जिनवरभाषितेषु भावेषु भावसत्येषु भावतो मतिमान् । न कुर्याद संदेहं संदेहोऽनर्थहेतुरिति ॥ १ ॥ निस्संदेहत्वं पुनर्गुणहेतुर्यत्ततस्तकत् कार्य अत्र द्वौ श्रेष्ठितौ अण्डकग्राहिणावुदाहरणं ॥ २ ॥ कचित् मतिदौर्बल्येन तद्विधाचार्यविरहतो वापि । ज्ञेयगहनत्वेन ज्ञानावरणोदयेन च ॥ ३ ॥ हेतूदाहरणासंभवे च सति सुष्ठु यन्न बुध्येत । सर्वज्ञमतमवितथं तथापि इति चिन्तयेत् मतिमान् ॥ ४ ॥ अनुपकृतपरानुग्रहपरायणा यद् जिना जगत्प्रवराः । जितरागद्वेषमोहाच नान्यथावादिनस्तेन ॥ ५ ॥ ] तृतीयमध्ययनं विवरणतः समाप्तं ॥ -99969 अथ कूर्माभिधानं चतुर्थमध्ययनं विव्रियते, अस्य चायं पूर्वेण सहाभिसम्बन्धः - अनन्तराध्ययने प्रवचनार्थेषु शङ्किताशङ्कि तयोः प्राणिनोर्दोषगुणानुक्ता विह तु पञ्चेन्द्रियेषु गुप्तागुप्तयोस्तावेवाभिधीयेते इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमुपक्षेपादिसूत्रंजति णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं नायाणं तबस्स नायज्झयणस्स अयम पन्नते चउत्थस्स णाया के अट्ठे पक्ष १, एवं खलु जंबू । तेणं कालेणं २ वाणरसी नामं नयरी होत्था वन्नओ, तीसे णं वाणरसीए नयरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसिभागे गंगाए महानदीए मयंगतीरदहे नामं दहे होत्या, अणुपुवसुजायवप्पगंभीरसीयलजले अच्छविमलसलिलपलिच्छन्ने संछन्नपत्तपुप्फपलासे बहुउप्पलपउमकुमुयनलिणसुभगसोगंघियपुंडरीयमहापुंडरीय सयपत्तसह सपत्तकेसरपुप्फोवचिए पासादीए ४, तत्थ अत्र अध्ययन - ३ परिसमाप्तम् अथ अध्ययनं ४ "कूर्मः" आरभ्यते For Parts Only ~195~ ४ कूर्मज्ञातं सू. ५१ ॥ ९६ ॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [५१] दीप अनुक्रम [६२] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र -६ (मूलं + वृत्तिः) श्रुतस्कन्धः [१] अध्ययनं [४], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ........ . आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६ ] 9 tattetcectresses Education Inte बहूणं मच्छाय कच्छभाण य गाहाण य मगराण व सुंसुमाराण य सइयाण य साहस्सियाण घ साहस्सियाण य जूहाई निन्भयाई निरुविग्गाई सुहंसुहेणं अभिरममाणगातिं २ विहरंति, तस्स णं मयंगतीरद्दहस्स अदूरसामंते एत्थ णं महं एगे मालुयाकच्छए होरथा वन्नओ, तत्थ णं दुवे पावसियालगा परिवसंति, पावा चंडा रोद्दा तलिच्छा साहसिया लोहितपाणी आमिसत्थी आमिसाहारा आमिसपिया आमिसलोला आमिसं गवेसमाणा रतिं विद्यालचारिणो दिया पच्छन्नं चावि चिह्नंति, तते पणं ताओ मयंगतीरद्दहातो अन्नया कढाई सूरियंसि चिरत्थमियंसि लुलियाए संझाए पविरलमाणुसंसि णिसंतपडिणिसंतंसि समाणंसि दुवे कुम्मगा आहारत्थी आहारं गवेसमाणा सणियं २ उत्तरंति, तस्सेव मयंगतीरद्दहस्स परिपेरंतेणं सङ्घतो समंता परिघोलेमाणा २ वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति, तयणंतरं च णं ते पावसियालगा आहारत्थी जाब आहारं गवेसमाणा मालुयाकच्छयाओ पडिनिक्खमंति२ ता जेणेव मयंगतीरे दहे तेणेव उवागच्छति तस्सेव मयंगतीरदहस्स परिपेरतेणं परिघोलेमाणा १२ वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति, तते णं ते पावसियाला ते कुम्मए पासंति २ जेणेव ते कुम्मए तेणेव पहारेत्थ गमणाए, तते णं ते कुम्मगा ते पावसियालए एज्जमाणे पासंति २ भीता तस्था तसिया उबिरगा संजातभया हत्थे य पादे य गीवाए य सएहिं २ काएहिं साहति २ निचला निष्कंदा तुसिणीया संचिति, तते णं ते पावसियालया जेणेव ते कुम्मगा तेणेव उवागच्छंति २ ते कुम्मगा सबतो For Parts Only मूलं [५१] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~ 196 ~ Sentence Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [४], ------------------ मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म कूर्मज्ञातं कथाङ्गम्। प्रत सूत्रांक [५१] ॥९७॥ दीप अनुक्रम समन्ता उच्चतंति परियति आसारैति संसारेति चालेंति घटेति फंदेति खोभेति नहेहिं आलुपंत्ति दंतेहि य अक्खोडेंति नो चेव णं संचाएंति तेसिं कुम्मगाणं सरीरस्स आवाहं वा पवाहं वा बाबाहं वा उप्पाएत्तए छविच्छेयं वा करेत्तए, तते णं ते पावसियालया एए कुम्मए दोचंपि तचंपि सघतो समंता उच्चतंति जाव नो चेवणं संचाएन्ति करेत्तए, ताहे संता तंता परितंता निविना समाणा सणियं २ पचोसकेंति एगंतमवक्रमति निचला निष्फंदा तसिणीया संचिट्ठति, तत्थ णं एगे कम्मगे ते पावसियालए चिरंगते दूरंगए जाणित्ता सणियं २ एगं पायं निच्छुभति, तते णं ते पावसियाला तेणं कुम्मएणं सणियं २ एगं पायं नीणियं पासंति २ ताए उक्किटाए गईए सिग्धं चवलं तुरियं चंडं जतिणं वेगितं जेणेव से कुम्मए तेणेव उवागच्छति २ तस्सणं कुम्मगस्स तं पायं नहिं आलुंपति दंतेहिं अक्खोडेंति ततो पच्छा मंसं च सोणियं च आहारेंति २ तं कुम्मगं सबतो समंता उच्चति जाव नो चेवणं संचाइन्ति करेत्तए ताहे दोघंपि अवकमंति एवं चत्तारिवि पाया जाव सणिर्घ २ गीवं जीणेति, तते णं ते पावसियालगा तेणं कुम्मएणं गीवं णीणियं पासंति २ सिग्घं चवलं ४ नहेहिं दंतेहिं कवालं विहाडेंति २तं कुम्मगं जीवियाओ ववरोति २ मंसं च सोणियं च आहारेंति, एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं निग्गंथो वा २ आयरियउबज्झायाणं अंतिए पचतिए समाणे पंच(से) इंदिया अगुत्ता भवंति से णं इह भवे चेव बहणं समणाणं ४ हीलणिज्जे परलोगेऽविय णं आगच्छति बढणं दंडणाणं जाव अणुपरि [६२] S ॥९७॥ ~197~ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [४], ------------------ मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५१] यति, जहा से कुम्मए अगुतिदिए, तते णं ते पावसियालगा जेणेष से दोथए कुम्मए तेणेव उवागच्छति २तं कुम्मगं सघतो समंता उघतेति जाव दंतेहिं अक्खुडेति जाव करेत्तए, तते णं ते पावसियालगा दोचंपि तचंपि जाव नो संचाएन्ति तस्स कुम्भगस्स किंचि आवाहं वा विवाहं वा जाव छविच्छेयं वा करेत्तए ताहे संता तंता परितंता निविना समाणा जामेव दिसि पाउन्भूता तामेव दिसिं पडिगया, तते णं से कुम्मए ते पावसियालए चिरंगए दूरगए जाणित्ता सणियं २ गी नेणेति २ दिसावलोयं करेइ २जमगसमगं चत्तारिवि पादे नीणेति २ताए उकिटाए कुम्मगईए वीइवयमाणे २ जेणेव मयंगतीरहहे तेणेव उवागच्छइ २ मित्तनातिनियगसयणसंबंधिपरियणेणं सद्धि अभिसमन्नागए यावि होत्था, एवामेव समणाउसो! जो अम्हं समणो वा२पंच से इंदियाति गुत्ताति भवंति जाव जहा उसे कुम्मए गुतिदिए । एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं चउत्थस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्तेत्ति बेमि ॥ (सूत्र ५१) चउत्थं नायऽज्झयणं समत्तं ॥४॥ 'जई'त्यादि, सुगम सर्व, नवरं 'मयंगतीरद्दहे'त्ति मृतगङ्गातीरहदा मृतगङ्गा यत्र देशे मङ्गाजलं ध्यूढमासीदिति, 'आनुपूर्येण' परिपाट्या सुष्टु जाता वप्राः-तटा यत्र स तथा गम्भीरं-अगाधं शीतलं जलं यत्र स तथा ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, कचिदिदमधिकं दृश्यते 'अच्छविमलसलिलपलिच्छन्ने प्रतीतं नवरं भृतखात्प्रतिच्छन्न:-आच्छादितः कचित्तु 'संछने त्यादिसूचनादिदं दृश्यं 'संछन्नपउमपत्तभिसमुणाले' संछनानि-आच्छादितानि पझैः पत्रैश्व-पभिनीदलैः विशानि-पमिनीमूलानि दीप अनुक्रम [६२] ~ 198~ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ------------------ अध्ययनं [४], ------------------ मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म कथाकम्. प्रत सूत्रांक Steelee [५१] मृणालानि च-नलिननालानि यत्र स तथा, कचिदेवं पाठः 'संछनपतपुष्पलासे' संछन्नैः पत्रैः-पभिनीदलैः पुष्पपलाशै- कर्मज्ञातं श्व-कुसुमदलैयः स तथा 'बहुउप्पलकुमुयनलिणसुभगसोगंधियपुंडरीयमहापुंडरीयसयपत्सहस्सपचकेसरफुल्लोवइए' बहुभिरुत्प-18 सू.५१ लादिभिः केसरप्रधानः फुल-जलपुष्परुपचिता-समृद्धो यः स तथा, तत्रोत्पलानि-नीलोत्पलादीनि कुमुदानि-चन्द्रपोथ्यादीनि पुण्डरीकाणि-सितपमानि शेषाणि लोकरूढ्याऽवसेयानि 'छप्पयपरिभुजमाणकमले अच्छविमलसलिलपत्थपुषणे अच्छंच विमलं च यत्सलिलं-जलं पथ्यं-हितं तेन पूर्णः 'परिहत्यभमंतमच्छकच्छभअणेगसउणगणमिहुणपविचरिश 'परिहत्थ'त्ति दक्षा भ्रमन्तो मत्स्याः कच्छपाश्च यत्र स तथा अनेकानि शकुनगणानां मिथुनानि प्रविचरितानि यत्र स तथा, ततः। पदद्वयस्य कर्मधारयः, 'पासाईए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे' इति प्राग्वत् , 'पावेत्यादि, पापी पापकारितात् चण्डौ क्रोधनखात् रौद्री भीपणाकारतया तत्तद्विवक्षितं वस्तु लन्धुमिच्छत इति तल्लिप्मू साहसिकौ-साहसात् प्रवृत्तौ लोहितौ पाणी-अग्रिमी पादौ ययोस्ती तथा, लोहितपानं वा अनयोरस्तीति लोहितपानिनौ, आमिषं-मांसादिकमर्थयतः प्रार्थयतो यौ तौ तथा, आमिषाहारौ-मांसादिभोजिनौ आमिषप्रियौ-बल्लभमांसादिको आमिषलोलो-आमिषलम्पटी आमिषं गवेषयमाणो सन्तौ रात्रीरजन्यां विकाले च सन्ध्यायां चरत इत्येवंशीलौ यौ तौ तथा, दिवा प्रच्छन्नं चापि तिष्ठतः । 'मृरिए'इत्यादि, सूर्ये-भास्करे। 'चिरास्तमिते' अत्यन्तास्त गते 'लुलितायाँ' अतिक्रान्तप्रायायां सन्ध्यायां 'पविरलमाणुस्ससि निसंतपडिनिसंतसिनि ॥९८॥ कोऽर्थः-प्रविरलं किल मानुषं सन्ध्याकाले यत्र तत्र देशे आसीत् तत्रापि निशान्तप्रतिनिशान्ते-अत्यन्तं भ्रमणाद्विरते निशान्तेषु वा-गृहेषु प्रतिनिश्रान्ते-विश्रान्ते निलीने अत्यन्तजनसञ्चारविरह इत्यर्थः 'समाणंसित्ति सति आवाधा-ईपद्भाधां प्रबाधा-प्रकृष्टां बटलesee दीप अनुक्रम [६२] ~199~ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [४], ------------------ मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५१] बाधां व्याबाधा वा छविच्छेद-शरीरच्छेदं, श्रान्ती-शरीरतः खित्री तान्ती-मनसा परितान्ती-उभयतः, 'ताए उफिट्टाए' इहए एवं दृश्यं 'तुरिमाए चवलाए चंडाए सिग्याए उद्धुयाए जयणाए छेयाए'त्ति तत्र उत्कृष्टा-कूर्माणां यः स्वगत्युत्कर्षः तद्वती सरितत्वं मनस औत्सुक्यात् चपलखं कायस्य चण्डवं संरम्भारब्धखात् शीघ्रखं अत एव उद्धृतवं अशेषशरीरावयवकम्पनात् , जयनीलं शेषकूर्मगतिजेतृखात् छेकलमपायपरिहारनपुण्यादिति । ज्ञातोपनयनिगमने च कण्ठो, केवलं 'आयरियउबज्झायाणं 81 |अंतिए पाइए समाणे' इत्यत्र विहरतीति शेषो द्रष्टण्या, विशेषोपनयनमेवं कार्य-दह कर्म स्थानीयौ साधू शूगालस्थानीयी राग-12 द्वेषौ ग्रीवापञ्चमपादचतुष्टयस्थानीयानि पश्चेन्द्रियाणि पादग्रीवाप्रसारणस्थानीयाः शब्दादिविषयेष्विन्द्रियप्रवृत्तयः शृगालप्राप्तिस्थानीयो रागद्वेषोद्भवः पादादिच्छेदकूर्ममरणस्थानीयानि रागादिजनितकर्मप्रभवानि तिर्यगनरनरकजातिभवेषु नानाविधदुःखानिश पादादिगोपनस्थानीया इन्द्रियसलीनता शृगालाग्रहणलक्षणा रागाद्यनुत्पतिः मृतगङ्गानदप्रवेशतुल्या निर्वाणप्राप्तिरिति । इह गाथा-'विसएम इंदिआई रंभता रागदोसनिम्मुका । पार्वति निवुइसुहं कुम्मुव मयंगदहसोक्खं ॥१॥ अवरे उ अणत्थपरंपरा उ पाति पापकम्मवसा । संसारसागरगया गोमाउग्गसियकुम्मोच ।। २॥" [विषयेभ्य इन्द्रियाणि रुन्धन्तो रागद्वेषविमुक्ताः। प्राघुवन्ति निवृतिसुखं कूर्म इव मृतगङ्गाहदसौख्यम् ॥ १॥ अपरे त्वनर्थपरम्परास्तु प्राप्नुवन्ति पापकर्मवशाः । संसारसागर|गता गोमायुग्रस्त कूर्म इव ॥२॥] इति ज्ञातधर्मकथायां चतुर्थमध्ययनं विवरणतः समाप्तम् ॥ ४॥ दीप अनुक्रम [६२] SSS Taurasurary.com अत्र अध्ययन-४ परिसमाप्तम् ~200~ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [५], ----------------- मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म- कथाङ्गम्, प्रत सूत्रांक ॥१९॥ [१२] दीप अनुक्रम अथ पञ्चमं शैलकाख्यं ज्ञाताध्ययनं वित्रियते, अस्य च पूर्वेण सहार्य सम्बन्धः-पूर्वत्रासलीनेन्द्रियेतरयोरनार्थावुक्तौ इह काह५ शैलकत पूर्वमसंलीनेन्द्रियो भूत्वाऽपि यः पवात्सलीनेन्द्रियो भवति तस्यार्थप्राप्तिरभिधीयत इत्येवंसम्बन्धस्थास्येदं सूत्र ज्ञाते द्वाजतिणं भंते समणेणं भगवया महावीरेणं चउत्थस्स नायज्झणस्स अपमष्टे पन्नत्ते पंचमस्सणं भंते ! णाय रिकावर्णन ज्झयणस्स के अढे पन्नत्ते?, एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं २ बारवती नामं नयरी होत्था पाईणपडीणायया सू. ५२ उदीणदाहिणविच्छिन्ना नवजोयणविच्छिन्ना दुवालसजोयणायामा धणवहमति निम्मिया चामीयरपवरपागारणाणामणिपंचवनकविसीसगसोहिया अलयापुरिसंकासा पमुतियपक्की लिया पञ्चक्खं देवलोपभूता, तीसे णं वारवतीए नयरीए यहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए रेवतगे नाम पञ्चए होत्था तुंगे गगणतलमणुलिहंतसिहरे णाणाविहगुरुछगुम्मलयावल्लिपरिगते हंसमिगमयूरकोंचसारसचकवायमयणसालकोइलकुलोषवेए अ गतडकडगवियरउजारयपवायपन्भारसिहरपउरे अच्छरगणदेवसंघचारणविजाहरमिटुणसंविचिन्ने निच्चच्छणए दसारवरवीरपुरिसतेलोकवलवगाणं सोमे सुभगे पियदंसणे सुरूवे पासातीए ४, तस्स णं रेवयगस्स अदूरसामंते एत्थ णं गंदणवणे नामं उज्जाणे होत्था, सबोउयपुष्फफलसमिद्धे रम्मे नंदणयणप्पगासे पासातीए ४, तस्स णं उज्नाणस्स बहुमजादेसभाए सुरप्पिए नामं जक्खाययणे होत्या दिवे वन्नओ, तत्थ णं चारवतीए नयरीए कण्हे नामं वासुदेवे राया परिवसति, सेणं तत्थ समुद्दविजयपामोक्खाणं दसण्हं दसाराणं बलदेवपामोक्खाणं पंचण्डं महावीराणं उग्गसेणपामोक्खाणं सोलसण्हं [६३] ॥९९।। REarama अथ अध्ययनं-५"शेलक: आरभ्यते ~ 201~ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [५], ---------------- मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: yoeae प्रत सूत्रांक [१२] दीप राईसहस्साणं पज्जुन्नपामोक्खाणं अदुवाणं कुमारकोडीणं संवपामोक्खाणं सहीए दुईतसाहस्सीणं वीरसेणपामोक्खाणं एकवीसाए वीरसाहस्सीर्ण महासेनपामोक्खाणं छप्पनाए बलबगसाहस्सीणं रुप्पिणीपामोक्खाणं वत्तीसाए महिलासाहस्सीणं अणंगसेणापामोक्खाणं अणेगाणं गणियासाहस्सीणं अन्नर्सि च बहूणं ईसरतलवर जाव सत्यवाहपभिईणं वेयङगिरिसायरपेरंतस्स य दाहिणड्डभरहस्स [य] वारवतीए नयरीए आहेबच्चं जाव पालेमाणे विहरति । (सूत्रं ५२) 'जह णमित्यादि, सर्व सुगम, नवरं 'धणवइमइनिम्माय'चि धनपतिः-वैश्रमणस्तन्मत्या निर्मापिता-निरूपिता अलकापुरी-वैश्रमणपुरी प्रमुदितप्रक्रीडिता तद्वासिजनानां प्रमुदितप्रक्रीडितखात् रैवतक:-उजयन्तः 'चकवाग'चि चक्रवाक: 'मयणसाल'ति मदनसारिका अनेकानि तदानि कटकाच-गण्डशैला यत्र स तथा, 'विअर'त्ति विवराणि च अवजाराचनिर्झरविशेषाः प्रपाताच-भृगवः प्रारभाराच-ईषदवनता गिरिदेशाः शिखराणि च-कूटानि प्रचुराणि यत्र स तथा, ततः कर्मधारयः । अप्सरोगणैः-देवसङ्घः चारणैः-जङ्गाचारणादिभिः साधुविशेष विद्याधरमिथुनच 'संविचिण्णेति संविचरित| आसेवितो यः स तथा, 'नित्यं सर्वदा 'क्षणा' उत्सवा यत्रासौ नित्यक्षणिका, केषामित्याह-दशारा' समुद्रविजयादयः तेषु मध्ये परास्त एव वीरा-धीरपुरुषा येते तथा 'तेलोकबलवगाणं त्रैलोक्यादपि बलवन्तोऽतुलबलनेमिनाथयुक्तत्वात् ये ते | तथा ते च ते चेति तेषां। । तस्स णं बारवईए नयरीए थावचा णाम गाहावतिणी परिवसति अड्डा जाव अपरिभूता,तीसे णं थावचाए अनुक्रम eaeeeare [६] ~ 202~ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [५], ----------------- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म शैतकजाते वामदेवनिर्वषः प्रत सूत्रांक [१३] ॥१०॥ दीप गाहावतिणीए पुत्ते थावचापुत्ते णाम सत्यवाहदारए होत्था सुकुमालपाणिपाए जाप सुरूवे, तते णं सा थावच्चागाहावाणी तं दारयं सातिरेगअहवासजाययं जाणित्ता सोहणंसि तिहिकरणणक्खत्तमुहुतंसि कलायरियस्स एवणेंति, जाव भोगसमत्थं जाणित्ता बत्तीसाए इन्भकुलबालियाणं एगदिवसेणं पाणि गेण्हावेति बत्तीसतो दाओ जाव पत्तीसाए इन्भकुलबालियाहिं सद्धि विपुले सदफरिसरसरूपवन्नगंधे जाव भुंजमाणे विहरति । तेणं कालेणं २ अरहा अरिहनेमी सो चेव वण्णओ दसवणुस्सेहे नीलुप्पलगवलगुलियअयसिकुसुमप्पगासे अट्ठारसहिं समणसाहस्सीहिं सद्धिं संपरिबुडे चत्तालीसाए अजियासाहस्सीहिं सद्धिं संपरिबुडे पुषाणुपुर्षि चरमाणे जाव जेणेव बारवती नगरी जेणेव रेवयगपचए जेणेव नंदणवणे उजाणे जेणेव सुरप्पियस्स जक्खस्स जक्खाययणे जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छद २ अहापडिरूचं उग्गहं ओगिण्हित्सा संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति, परिसा निग्गया धम्मो कहिओ। तते णं से कण्हे वासुदेवे इमीसे कहाए लट्टे समाणे कोटुंबियपुरिसे सहावेति २ एवं वदासीखिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! सभाए सुहम्माए मेघोघरसियं गंभीरं महुरसई कोमुदितं भेरि तालेह, तते णं ते कोटुंबियपुरिसा कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्तासमाणा हट्ट जाव मत्थए अंजलिं कड-एवं सामी! तहत्ति जाव पडिसुणेति २ कण्हस्स वासदेवस्स अंतियाओ पडिनिक्खमंति २ जेणेव सहा सुहम्मा जेणेच कोमुदिया भेरी तेणेव उवागच्छति तं मेघोघरसियं गंभीरं महुरसई कोमुदितं भेरि तालेति । अनुक्रम [६४] Breesese ॥१०॥ ~203~ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [५], ----------------- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५३] दीप अनुक्रम ततो निमहुरगंभीरपडिसुएणपिव सारइएणं बलाहएणंपिव अणुरसियं भेरीए, तसे णं तीसे कोमुदि. याए भेरियाए तालियाए समाणीए बारवतीए नयरीए नवजोयणविच्छिन्नाए दुवालसजोयणायामाए सिंघाडगतियचउकचच्चरकंदरदरीए विवरकुहरगिरिसिहरनगरगोउरपासातदुवारभवणदेउलपडियासयसहस्ससंकुलं साई करेमाणे बारवर्ति नगरि सम्भितरबाहिरियं सबतो समंता से सद्दे विपसरिस्था, तते ण बारवतीए नयरीए नवजोयणविच्छिन्नाए बारसजोयणायामाए समुद्दविजयपामोक्खा दसद. सारा जाव गणियासहस्साई कोमुदीयाए भेरीए सई सोचा णिसम्म हतुट्टा जाच पहाया आविद्धवग्धारियमल्लदामकलावा अहतवत्थचंदणोक्किन्नगायसरीरा अप्पेगतिया हयगया एवं गयगया रहसीयासंदमाणीगया अप्पेगतिया पायबिहारचारेणं पुरिसवग्गुरापरिखिसा कण्हस्स वासुदेवस्स अंतियं पाउन्भवित्था । तते णं से कण्हे वासुदेवे समुद्दविजयपामोक्खे दस दसारे जाव अंतियं पाउम्भवमाणे पासति पासित्ता हतु जाच कोटुंबियपुरिसे सद्दावेति २ एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! चाउरिंगिणीं सेणं सजेह विजयं च गंधहत्थिं उबट्टवेह, तेवि तहत्ति उवट्ठति,जाव पज्जुवासंति(मूत्रं५३) 'बत्तीसओ दाओ' द्वात्रिंशत्प्रासादाः द्वात्रिंशद्धिरण्यकोट्यः द्वात्रिंशत्सुवर्णकोट्य इत्यादिको दायो-दानं वाच्यो, यथा मेषकुमारस्य 'सो चेव वण्णओ'ति आइगरे तित्थगरे इत्यादिर्यो महावीरस्य अभिहितः । 'गवल'त्ति महिष्य गुलिकानीली गवलस्य वा गुलिका गवलगुडिका अतसी-मालवकप्रसिद्धो धान्यविशेषः, 'कोमुइयं ति उत्सववाद्यं वचित्सामुदा [६४] ~ 204~ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [ ५३ ] दीप अनुक्रम [६४] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र -६ (मूलं + वृत्तिः) श्रुतस्कन्ध: [१] अध्ययनं [५], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६ ] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः मूलं [ ५३ ] ॥१०१॥ ज्ञाताधर्म - २) विकीमिति पाठः तत्र सामुदायिकी जनमीलकप्रयोजना | 'निद्धमहुरगंभीरपडिसु एणंपिव' ति त्रिग्धं मधुरं गम्भीरं प्रति- १५ शैलककथाङ्गम् श्रुतं प्रतिशब्दो यस्य स तथा तेनेव, केनेत्याह- 'शारदिकेन' शरत्कालजातेन 'बलाहकेन' मेघेनानुरसितं शब्दायितं भेर्याः, ज्ञाते स्थाशृङ्गाटकादीनि प्राम्बत्, गोपुरं नगरद्वारं प्रासादो- राजगृहं द्वाराणि प्रतीतानि भवनानि - गृहाणि देवकुलानि - प्रतीतानि तेषु पत्यापुत्रया: 'पडिय'ति प्रतिश्रुताः प्रतिशब्दकास्तासां यानि शतसहस्राणि - लक्षास्तैः संकुला या सा तथा तां कुर्वन्, कामि-दीक्षा सू. त्याह- द्वारकावर्ती नगरीं, कथंभूतामित्याह- 'सम्भितरबाहिरियं' ति सहाभ्यन्तरेण-मध्यभागेन बाहिरिकया च- प्राकाराद्रहिर्नगरदेशेन या सा तथा साभ्यन्तरवाहिरिका तां, 'से' इति स भेरीसम्बन्धी शब्द: 'विप्पसरित्थ'त्ति विप्रासरत 'पामोक्खाई'ति प्रमुखाः 'आविद्वबग्घारियमलदामकलावत्ति परिहितप्रलम्बपुष्पमालासमूहा इत्यादिर्वर्णकः प्राग्वत् 'पुरिसवग्गुरापरिखित्ता' वागुरा- मृगबन्धनं वागुरेव वागुरा समुदायः । ५४ धावचापुतेवि णिग्गए जहा मेहे तहेव धम्मं सोचा णिसम्म जेणेव थावचा गाहावतिणी तेणेव उवागच्छति २ पायरगहणं करेति जहा मेहस्स तहा चेव णिवेयणा जाहे नो संचाएति विसयाणुलोमाहिय विसयपडकूलेहि य बहूहिं आघवणाहि य पन्नवणाहि य सन्नवणाहि य विन्नवणाहि य आघवितए वा ४० ताहे अकामिया चैव धावचापुत्तदारंगस्स निक्खमणमणुमन्नित्था नवरं निक्खमणाभिसेयं पासामो, तर णं से धावचापुते तुसिणीए संचिह्न, तते णं सा थावच्चा आसणाओ अन्भुट्टेति २ महत्वं महग्धं महरिहं रायरिहं पाहुडं गेण्हति २ मित्त जाव संपरिवडा जेणेव कण्हस्स वासुदेवस्स भवणवर थावच्चापुत्रस्य दिक्षायाः प्रसंग: For Parts Only ~ 205~ ॥१०१॥ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) བྷྱཿལླཱ ཡྻ [ ५४ ] अनुक्रम [ ६५ ] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र -६ (मूलं + वृत्तिः) अध्ययनं [ ५ ], मूलं [ ५४ ] श्रुतस्कन्धः [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६ ] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Educatni Internation पडिदुवारदेसभाए तेणेव उवागच्छति २ पडिहारदेसिएणं मग्गेणं जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छति २ करावेत २ तं महत्थं महग्धं महरिहं रायरिहं पाहुडं उचणेइ २ एवं वदासी एवं खलु देवाप्पिया ! मम एगे पुत्ते थावच्चापुत्ते नामं दारए इट्ठे जाव से णं संसारभयउद्विग्गे इच्छति अरहओ अरिनेमिस्स जाव पवतित्तए, अहण्णं निक्खमणसकारं करेमि इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! धावञ्चापुतस्स निक्खममाणस्स छत्तमउडचामराओ य विदिन्नाओ, तते णं कण्हे वासुदेवे धावचागादावतिणीं एवं वदासी - अच्छाहिणं तुमं देवाणुप्पिए । सुनिच्या बीसत्था, अहृण्णं सयमेव धाव चान्तरस दारगस्स निक्खमणसक्कारं करिस्सामि, तते णं से कण्हे वासुदेवे चाउरंगिणीए सेणाए विजयं हत्थिरयणं दुरूढे समाणे जेणेव थावथाए गाहावतिणीए भवणे तेणेव उवागच्छति २ थावचापुतं एवं वदासीमाणं तु देवाणुपिया ! मुंडे भवित्ता पञ्चयाहि भुंजाहि णं देवाणुप्पिया ! विउले माणुस्सर कामभोए मम बाहुच्छायापरिगहिए, केवलं देवाणुप्पियस्स अहं णो संचाएमि बाउकायं उवरिमेणं गच्छमाणं निवारित्तए, अपणे णं देवाप्पियस्स जे किंचिवि आवाहं वा वाबाहं वा उप्पापतितं सर्व्वं निवारेमि, तते णं से धावचापुत्ते कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वृत्ते समाणे कण्हं वासुदेवं एवं वयासी-जइ णं तुमं देवाणुप्पिया ! मम traineri jaमाणं निवारेसि जरं वा सरीररूवविणासिणिं सरीरं वा अइवयमाणि निवारेसि तणं अहं तव बाहुच्छायापरिग्ाहिए विउले माणुस्सर कामभोगे भुंजमाणे विहरामि तते णं से कण्हे थावच्चापुत्रस्य दिक्षायाः प्रसंग: For Park Use Only ~206~ yor Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [ ५४ ] दीप अनुक्रम [६५] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र -६ (मूलं + वृत्तिः) अध्ययनं [ ५ ], मूलं [ ५४ ] श्रुतस्कन्धः [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..... . आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्. ॥१०२॥ वासुदेवे थावचापुतेणं एवं वृत्ते समाणे धावथापुत्तं एवं वदासी - एए णं देवाणुप्पिया दुरतिकमणिजा 'णो खलु सक्का सुबलिएणावि देवेण वा दाणवेण वा णिवारित्तए णन्नत्थ अप्पणो कम्मक्खणं, तं इच्छामि णं देवाणुपिया ! अन्नाणमिच्छत्त अविरइकसायसंचियरस अत्तणो कम्मक्खयं करित्तए, तते से कहे वासुदेवे थावचापुत्तेणं एवं बुत्ते समाणे कोटुंबियपुरिसे सहावेति २ एवं वदासी-गच्छह णं देवाप्पिया ! वारवतीए नगरीए सिंघाडगतियगचक्कचथर जाब हत्थिधवरगया महया २ सद्देणं उग्घोसेमाणा २ उग्घोसणं करेह एवं खलु देवा० थावच्चापुते संसारभविग्गे भीए जम्मणमरणाणं इच्छति अरहतो अरिनेमिस्स अंतिए मुंडे भवित्ता पचइत्तए तं जो खलु देवाणुप्पिया ! राधा चा पराया वा देवी वा कुमारे वा ईसरे वा तलवरे वा कोटुंबिय० मांडविय० इन्भसेहिसेणावइसत्थवाहे वा धावतं पयंत मणुपश्यति तस्स णं कण्हे वासुदेवे अणुजाणति पच्छातुरस्सविय से मित्तना. तिनियगसंबंधिपरिजणस्स जोगखेमं वहमाणं पडिवहतित्तिकट्टु घोसणं घोसेह जाव घोसंति, तते णं धावचापुत्तस्स अणुराएणं पुरिससहस्सं निक्खमणाभिमुहं ण्हायं सवालंकारविभूसियं पत्तेयं २ पुरिसहस्वाहिणी सिवियासु दुरूढं समाणं मित्तणातिपरिवुडं थांवचापुत्तस्स अंतियं पाउन्भूयं तते णं से कहे वासुदेवे पुरिससहस्समंतियं पाउ भवमाणं पासति २ कोटुंबियपुरिसे सदावेति २ एवं बदासीजहा मेहस्स निक्खमणाभिसेओ तहेव सेयापीएहिं पहावेति २ जाव अरहतो अरिनेमिस्स छत्ताइच्छत्तं Jucaton Internationa थावच्चापुत्रस्य दिक्षायाः प्रसंग: For Pernal Use On ~207~ ५ शैलक ज्ञातै स्थापत्यापुत्रदीक्षा सू. ५४ ॥१०२॥ r Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [५], ----------------- मूलं [१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत 9trashatra सूत्रांक [५४] दीप अनुक्रम [६५] पडागातिपडागं पासंति २ विजाहरचारणे जाव पासित्ता सीवियाओ पचोरुहंति, तते णं से कण्हे वासुदेवे थावच्चापुत्तं पुरओ काउं जेणेव अरिहा अरिहनेमी सवं तं चैव आभरणं, तते णं से थावच्चागाहावाणी हंसलक्खणेणं पडगसाडएणं आभरणमल्लालंकारे पडिच्छह हारवारिधारछिन्नमुत्तावलिप्पगासाति अंसूणि विणिम्मुंचमाणी २ एवं वदासी-जतियत्वं जाया! घडियचं जाया! परिक्कमियचं जाया ! अस्सिं च णं अढे णो पमादयवं जामेव दिसि पाउन्मूता तामेव दिसि पडिगया, तते णं से थावच्चापुत्ते पुरिससहस्सेहि सद्धिं सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेति जाव पचतिए । तते णं से थावचापुत्ते अणगारे जाते ईरियासमिए भासासमिए जाव विहरति, तते णं से थावच्चापुत्ते अरहतो अरिहनेमिस्स तहारूवाणं घेराणं अंतिए सामाइयमाझ्याति चोइस पुवाई अहिजति २ बहहिं जाव चउत्थेणं विहरति । तते णं अरिहा अरिङ्गनेमी थावचापुत्तस्स अणगारस्स तं इन्भाइयं अणगारसहस्सं सीसत्ताए दलयति, तते णं से थावचापुत्ते अन्नया कयाई अरहं अरिहनेमि वंदति नमसति २ एवं बदासी-इच्छामि गं भंते! तुन्भेहि अन्मणुनाते समाणे सहस्सेणं अणगारेणं सद्धिं बहिया जणवयविहारं विहरित्तए, अहासुहं देवाणुपिआ! तते णं से थावच्चापुत्ते अणगारसहस्सेणं सद्धिं तेणं उरालेणं [उरालेणं] उग्गेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं बहिया जणवयविहारं विहरति । (सूत्रं ५४) 'नन्नत्य अप्पणो कम्मखएणति न इति यदेतन्मरणादिवारणक्तनिषेधनं तदन्यत्रात्मना कृतात् आत्मनो वा सम्ब a enerateasradhaSSC | थावच्चापुत्रस्य दिक्षाया: प्रसंग: ~ 208~ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [ ५४ ] दीप अनुक्रम [६५] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र -६ (मूलं + वृत्तिः) श्रुतस्कन्ध: [१] अध्ययनं [५], मूलं [ ५४ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥१०३॥ न्धिनः कर्मक्षयात्, आत्मना क्रियमाणं आत्मीयं वा कर्मक्षयं वर्जयित्वेत्यर्थः, 'अज्ञाने'त्यादि 'अप्पणा अप्पणी वा कम्मक्खयं करितर ति कर्मण इह पट्टी द्रष्टव्या, 'पच्छाउरस्से' त्यादि, पञ्चाद् अस्मिन् राजादौ प्रब्रजिते सति आतुरस्यापि १६ च द्रव्याद्यभावाद्दुःस्थस्य 'से' तस्य तदीयस्येत्यर्थः मित्रज्ञातिनिजकसम्बन्धिपरिजनस्य योगक्षेमवार्त्तमानीं प्रतिवहति, ४. तत्रालब्धस्येप्सितस्य वस्तुनो लाभो योगो लब्धस्य परिपालनं क्षेमस्ताभ्यां वर्त्तमानकालभवा वार्त्तमानी वार्ता योगक्षेमवार्त्तमानी तां- निर्वाहं राजा करोतीति तात्पर्य, 'इतिकडु' इतिकृत्वा इतिहेतोरेवंरूपामेव वा घोषणां घोषयत-कुरुत, 'पुरिससहस्स' मित्यादि, इह पुरुषसहस्रं स्नानादिविशेषणं थावचा पुत्रस्यान्तिके प्रादुर्भूतमिति सम्बन्धः । 'विज्जाहरचारणे' ति इह 'जंभए य देवे बीइवयमाणे इत्यादि द्रष्टव्यं एवमन्यदपि मेघकुमारचरितानुसारेण पूरयित्वाऽध्येतव्यमिति । 'ईरियास| मिए' इत्यादि, इह यावत्करणादिदं दृश्यं, "एसणासमिए आयाण मंडमत्त निवखेवणासमिए" आदानेन ग्रहणेन सह भाण्डमा त्राया-उपकरण लक्षणपरिच्छदस्य या निक्षेपणा-मोचनं तस्यां समितः सम्यक्प्रवृत्तिमान् 'उच्चारपास वणखेलसिंघाणजलपारि द्वावणियासमिए' उच्चारः- पुरीषं प्रश्रवणं-मूत्रं, खेलो निष्ठीवनं सिङ्घानो-नासामलः, जल:- शरीरमलः, मणसमिए वयसमिए कामसमिए' चित्तादीनां कुशलानां प्रवर्तक इत्यर्थः, 'मणगुप्ते वहगुते कायगुप्ते' चित्तादीनामशुभानां निषेधकः, अत एवाइ गुत्ते-योगापेक्षया गुलिदिए - इन्द्रियाणां विषयेष्वसत्प्रवृत्तिनिरोधात् 'गुप्तवंभचारी' वसत्यादिनवब्रह्मचर्यगुप्तियोगात्, अकोहे ४, कथमित्याह-सन्ते-सौम्यमूर्तिलात् पसन्ते- कषायोदयस्य विफलीकरणात् उपसन्ते- कषायोदयाभावात् परिनिबुडेस्वास्थ्यातिरेकात्, अणासवे-हिंसादिनिवृत्तेः अममे-ममेत्युल्लेखस्याभिष्वङ्गतोऽप्यसद्भावात्, 'अकिंचणे' निर्द्रव्यखात्, छिन्नग्र्गथे Eucation Internationa थावच्चापुत्रस्य दिक्षायाः प्रसंग: For Parks Use Only ~209~ ५ शैलक ज्ञाते स्थावञ्चापुत्रदीक्षादि सु. ५४ ॥१०३॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [५], ----------------- मूलं [१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५४] दीप अनुक्रम [६५] 18 मिथ्याखादिभावग्रन्थिच्छेदात् निरुवलेवे-तथाविधबन्धहेलभावेन तथाविधकर्मानुपादानात् , एतदेवोपमानरुच्यते-'कसपाईव मुक| तोए' बन्धहेतुलेन तोयाकारस्थ स्नेहसाभावात् , 'संखो इच निरंजणे' रञ्जनस्य रागस्य कर्तुमशक्यखाव, 'जीवो विच अप्पडिहयगई सर्वत्रौचित्येनास्खलितविहारिखात् , 'गगणमिव निरालंबणे देशग्रामकुलादीनामनालम्बकत्वात् 'वायुरिव अपडिबढे' क्षेत्रादौ प्रतिबन्धाभावेनौचित्येन सततविहारित्वात् , 'सारयसलिलंब सुद्ध हियए' शाठ्यलक्षणगडुलत्ववर्जनात, 'पुक्खरपत्तंपिव निरुले। पथपत्रमिव भोगामिलापलेपाभावात 'कुम्मो इव गुत्तिदिए कूर्म:-कच्छपः, 'खग्गिविसाणं व एगजाए खनि:-आरण्यः पशुविशपः तस्य विषाण-रातदेकं भवति तदेकीजातो योऽसंगतः सहायत्यागेन स तथा, 'विहग इव विष्पमुके' आलयाप्रतिबन्धेन । IT'भारंडपक्खीव अप्पमते भारण्डपक्षिणो हि एकोदराः पृथग्ग्रीवा अनन्यफलमक्षिणो जीवद्वयरूपा भवन्ति, ते च सर्वदा चकि तचित्ता भवन्तीति, 'कुंजरो इव सोंडीरे' कर्मशत्रुसैन्यं प्रति शूर इत्यर्थः 'वसभो इव जायथामे' आरोपितमहावतभारवहन प्रति जातवलो निर्वाहकत्वात् , 'सीहो इव दुद्धरिसे' दुईपणीयः उपसर्गमृगैः, 'मंदरो इव निप्पकंपे' परीषहपवनैः, 'सागरो इव |गंभीरे' अतुच्छचित्तत्वात् , 'चंदो इव सोमलेसे' शुभपरिणामत्वात् , 'सूरो इव दित्ततेए परेषां क्षोभकत्वात् , 'जचकंचर्ण व जायसवे' अपगतदोषलक्षणद्रव्यत्वेनोत्पन्नस्वस्वभावः, 'वसुंधरा इव सबकासविसहो' पृथ्वीवत् शीतातपायनेकविधस्पर्शक्षमः, 'सुहृयहुयासणोद तेजसा जलते' घृतादितपितवैश्वानरवत् प्रभया दीप्यमानः, 'नथि णं तस्स भगवंतस्स कत्थइ पटिबंधो भवइ' नास्त्ययं पक्षो यदुत तस्य (भगवतः) प्रतिबन्धो भवति 'सेय पडिबंधे चउबिहे पण्णते, तंजहा-दवओ४, दवभो सचित्ताचित्तमीसेसु खेत्तओ गामे | वा नगरे वारणे वा खले वा अंगणेवा, खलं-धान्यमलनादिस्थण्डिलं 'कालओ समए वा आवलियाए वा-असंख्यातसमयरूपायां, aaneeeeeeeee | थावच्चापुत्रस्य दिक्षाया: प्रसंग: ~210~ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) བྷྱཿཡྻཱཡྻ [ ५४ ] अनुक्रम [ ६५ ] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र -६ (मूलं + वृत्तिः) अध्ययनं [५], मूलं [५४] श्रुतस्कन्धः [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥१०४॥ 'आणापाणू वा' उच्छ्वासनिश्वासकाले धोवे वा - सप्तोच्छ्वासरूपे खणे वा चडुतरोच्छ्वासरूपे लवे वा - सप्तस्तोकरूपे मुटु वा लवसप्तसप्ततिरूपे 'अहोरते वा पक्खे वा मासे वा अयने वा' दक्षिणायनेतररूपे प्रत्येकं पण्मासप्रमाणे संवत्सरे वा, 'अन्नतरे वा दीहकालसंजोए' युगादौ । 'भावओ कोहे वा ४ भये वा हासे वा' हास्ये हर्षे वा 'एवं तस्स न भव' एवमनेकधा तस्य प्रतिबन्धो न भवति, से णं भगवं वासीचंदणकप्पे' वास्यां चन्दनकल्पो यः स तथा अपकारिणोऽप्युपकारकारीत्यर्थः, वासीं वा अङ्गच्छेदनप्रवृत्तां चन्दनं कल्पयति यः स तथा 'समतिणमणिलेडुकंचणे समसुहदुक्खे' समानि उपेक्षणीयतमा तृणादीनि यस्य स तथा, 'इइलोगपरलोगऽपविद्धे जीवियमरणे निरवकंखे संसारपारगामी कम्मनिग्धायणट्ठाए अन्सट्ठिए एवं च णं विहरह'ति, ते काणं तेणं समएणं सेलगपुरे नाम नगरं होत्था, सुभूमिभागे उज्जाणे, सेलए राया परमावती देवी मंडुए कुमारे जुबराया, तस्स णं सेलगस्स पंथगपामोक्खा पंच मंतिसया होत्था उप्पत्तियाए वेणइयाए ४ उबवेया रजधुरं चिंतयंति । थावच्चापुरते सेलगपुरे समोसढे राया णिग्गतो धम्मकहा, धम्मं सोचा जहा णं देवाणुप्पियाणं अंतिए बहवे जग्गा भोगा जाव चहत्ता हिरन्नं जाव पवइत्ता तहा णं अहं नो संचामि पद्दत्तिए, अहनं देवाणुप्पियाणं अंतिए पंचाणुवइयं जाब समणोवासए जाव अहिगयजीवाजीवे जाव अप्पार्ण भावेमाणे विहरति, पंथगपामोक्खा पंच मंतिसया समणोवासया जाया, धावच्चापुते बहिया जणवयविहारं विहरति । तेणं कालेणं २ सोगंधिया नाम नयरी होत्था वन्नओ, नीलासोए उज्जाणे वनओ, तत्थ णं सोगंधियाए नगरीए सुदंसणे नामं नगरसेट्ठी परिवसति अड्डे जाव अपरिभूते । थावच्चापुत्रस्य दिक्षायाः प्रसंगः, शुक्रपरिव्राजकस्य दिक्षायाः प्रसंग: For Pasta Use Only ~ 211~ ५ शैलक ज्ञाते शुकपरिवाजकदीक्षा सू. ५५ ॥१०४॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ---------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [५५,५६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५५,५६] तेणं कालेणं २ सुए नाम परिवायए होत्या रिउच्वेयजजुधेयसामवेयअधवणवेयसद्वितंतकुसले संखसमए लद्धढे पंचजमपंचनियमजुत्तं सोयमूलयं दसप्पयारं परिचायगधम्म दाणधम्मं च सोयधम्मच तित्थाभिसेयं च आघवेमाणे पन्नवेमाणे धाउरत्तवत्थपवरपरिहिए तिदंडकुंडियउत्तग्लु(करोडियळपणाल)यंकृसपविसयकेसरीहत्थगए परिवायगसहस्सेणं सद्धिं संपरिखुडे जेणेव सोगंधियानगरी जेणेव परिवायगावसहे तेणेव उवागच्छह २ परिवायगावसहंसि भंडगनिक्खेवं करेइ २त्ता संखसमएणं अप्पाणं भावेमाणे विहरति । तते णं. सोगंधियाए सिंघाडग. बहुजणो अन्नमनस्स एवमाइक्खइ-एवं खलु सुए परिवायए इह हवमागते जाव विहरद, परिसा निग्गया सुदंसणो निग्गए, तते णं से सुए परिवायए तीसे परिसाए सुदस्सणस्स य अन्नेसिं च यहूर्ण संखाणं परिकहेति-एवं खलु सुदसणा ! अम्हं सोयमूलए धम्मे पन्नसे सेऽविय सोए दुविहे पं०, तं०-दवसोए य भावसोए य, दषसोए य उदएणं मट्टियाए य, भावसोए दन्भेहि य मंतेहि य, जन्नं अम्हं देवाणुप्पिया! किंचि असुई भवति तं सर्व सज्जो पुढवीए आलिप्पति ततो पच्छा सुद्धेण वारिणा पक्खालिज्जति ततो तं अमुई मुई भवति, एवं खलु जीवा जलाभिसेयपूपप्पाणो अविग्घेणं सगं गच्छति, तते णं से सुदंसणे सुथस्स अंतिए धम्मं सोचा हढे सुयस्स अंतियं सोयमूलयं धम्मं गेण्हति २ परिवायए विपुलेणं असण ४ वत्थ पडिलाभेमाणे जाव विहरति । तते णं से सुए परिवायगे सोगंधियाओ नगरीओ निगच्छति २त्ता बहिया जणवयविहारं विहरति । तेणे seseeeeeeeees दीप अनुक्रम [६६-६८] For P OW शुक्रपरिव्राजकस्य दिक्षाया: प्रसंग: ~ 212~ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ---------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [५५,५६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत ज्ञाताधर्म कथानम्. सूत्रांक ज्ञाते शुकपरिव्राजकदीक्षा ॥१०५| [५५,५६]] दीप अनुक्रम [६६-६८] कालेणं २ थावञ्चापुत्तस्स समोसरणं, परिसा निग्गया, सुदंसणोवि णीइ, थावच्चापुत्तं चंदति नमसति २ एवं वदासी-तुम्हाणं किंमूलए धम्मे पन्नत्ते ,तते गं थावच्चापुत्ते सुदंसणेणं एवं वुत्ते समाणे सुदंसणं एवं वदासी-सुदंसणा! विणयमूले धम्मे पन्नत्ते, सेविय विणदुविहे पं0 तं०-अगारविणए अणगारविणए य, तत्थ णं जे से अगारविणए से णं पंच अणुवयातिं सत्त सिक्खावयाति एक्कारस उवासगपडिमाओ, तत्थ णं जे से अणगारविणए से णं पंच महत्वयाई, तंजहा-सवातो पाणातिवायाओ वेरमणं सवाओ मुसावायाओ बेरमणं सत्वातो अदिनादाणातो बेरमणं सहाओ मेहुणाओ वेरमणं सपाओ परिग्गहाओ वेरमणं सबाओ राइभोयणाओ बेरमणं जाव मिच्छादंसणसल्लाओ बेरमणं, दसविहे पञ्चकम्वाणे बारस भिक्खुपडिमाओ, इच्चेएणं दुविहेणं विणयमूलएणं धम्मेणं अणुपुवेणं अट्ठकम्मपगंठीओ खपेत्ता लोधग्गपइट्टाणे भवंति, तते णं थावच्चापुत्ते सुर्वसणं एवं वदासी-तुब्भे णं सुदंसणा। किमूलए धम्मे पन्नत्ते', अम्हाणं देवाणुप्पिया! सोयमूले धम्मे पत्ते जाव सग्गं गच्छति, तते णं थावचापुत्ते सुदंसणं एवं वदासी-सुदंसणा! से जहा नामए केइ पुरिसे एग महं रुहिरकर्य बत्थं रुहिरेण चेव धोवेजा तते णं सुदंसणा! तस्स रुहिरकयस्स बत्थस्स रुहिरेण चेव पक्खालिजमाणस्स अस्थि काइ सोही?, णो तिणट्टे समढे, एवामेव सुदंसणा! तुम्भंपि पाणातिवाएणं जाव मिच्छादसणसल्लेणं नत्थि सोही जहा तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स रुहिरेणं चेव पक्खालिज्जमाणस्स नत्थि सोही, सुदंसणा! ॥१०५॥ Coesटे SAREastatinintennational शुक्रपरिव्राजकस्य दिक्षायाः प्रसंग: ~213~ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [५५,५६ ] दीप अनुक्रम [६६-६८] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययन [ ५ ], मूलं [५५,५६ ] श्रुतस्कन्ध: [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Jain Eucator से जहा णामए के पुरसे एगं महं रुहिरकथं वत्थं सज्जियाखारेणं अणुलिंपति २ पयणं आरुहेति २ हं गाहे २ ता ततो पच्छा सुद्धेणं वारिणा धोवेजा, से णूणं सुदंसणा ! तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स सज्जियाखारेणं अणुलित्तस्स पर्याणं आरुहियस्स उपहं गाहितस्स सुद्धेणं वारिणा पक्खालिज़माणस्स सोही भवति !, हंता भवइ, एवामेव सुदंसणा ! अम्हंपि पाणाइवायवेरमणेणं जाव मिच्छादंसणसल्लरमण अन्धि सोही, जहा चीयस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स जाव सुद्धेणं वारिणा पक्खालिज माणस अस्थि सोही, तत्थ णं से सुदंसगे संबुद्धे थावच्चापुत्तं वंदति नम॑सति २ एवं वदासी - इच्छामि णं भंते ! धम्मं सोबा जाणित्तए जान समणोवासए जाते अहिगयजीवाजीवे जाव समुप्पज्जित्था एवं खलु सुदंस सोयं धम्मं विष्पजहाय विणयमूले धम्मे पडिवन्ने, तं सेयं खलु मम सुदंसणस्स दिहिं वामेत्तप० पुणरवि सोयमूल धम्मे आघवित्तएतिकड एवं संपेहेति २ परिधायग सहस्सेणं सद्धिं जेणेव सोगंधिया नगरी जेणेव परिवायगावसहे तेणेव उवागच्छति २ परिघायगावसहंसि भंडनिक्खेवं करेति २ धाउरतवत्थपरिहिते पविरल परिद्वायगेणं सद्धिं संपरिवुडे परिधायगावसहाओ पडिनिक्खमति २ सोगंधियाए नयरीए मझंमज्झेणं जेणेव सुदंसणस्स गिहे जेणेव सुदंसणे तेणेव उवागच्छति तते णं से सुदंसणे तं सुर्य एखमाणं पासति २ नो अब्भुद्वेति नो पग्गच्छति णो आढाइ नो परियाणाइ नो वंदति तुसिणीए संचिति तए णं से सुए परिवायए सुदंसणं अणभुट्ठियं० पासित्ता एवं वदासी- तुमं णं सुदं शुक्रपरिव्राजकस्य दिक्षायाः प्रसंग: For Penal Lise On ~ 214~ janesbrary org Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ---------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [५५,५६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. सूत्रांक ॥१०६॥ ज्ञाते शुकपरिव्राजकदीक्षा सू.५५ [५५,५६]] दीप अनुक्रम [६६-६८] सणा! अन्नदा मम एज्जमाणं पासित्ता अन्भुट्टेसि जाव वंदसि इयाणि सुदंसणा! तुम मम एजमाणं पासित्ता जाव णो वंदसि तं कस्स णं तुमे सुदंसणा! इमेयारूवे विणयमूलधम्मे पडिवन्ने, तते णं से सुदंसणे सुएणं परिवायएणं एवं कुत्ते समाणे आसणाओ अन्भुढेति २ करयल सुयं परिवायगं एवं वदासीएवं खलु देवाणुप्पिया ! अरहतो अरिहनेमिस्स अंतेवासी थावचापुत्ते नाम अणगारे जाव इहमागए इह घेव नीलासोए उजाणे विहरति, तस्स णं अंतिए विणयमूले धम्मे पडिवन्ने, तते णं से सुए परिवायए सुदंसणं एवं वदासी-सं गच्छामो णं सुदंसणा! तव धम्मायरियरस धावचापुत्तस्स अंतिय पाउन्भवामो इमाई च णं एपारूवातिं अट्ठाई हेऊई पसिणाति कारणातिं वागरणाति पुच्छामो, तं जाणं मे से इमाई अट्ठातिं जाव वागरति तते णं अहं बंदामि नमसामि अह मे से इमार्ति अट्टाति जाव नो सेवाकरेति तते णं अहं एएहिं चेव अहिं हेऊहिं निष्पहपसिणवागरणं करिस्सामि, तते णं से सुए परिवायगसहस्सेणं सुदसणेण य सेटिणा सर्द्धि जेणेव नीलासोए उज्जाणे जेणेव थावचापुत्ते अणगारे तेणेव उवागच्छति २ सा थावचापुतं एवं वदासी-जत्ता ते भंते! जवणिज्जं ते अबाचाहंपि ते फासुयं विहारं ते, तते णं से थावचापुत्ते सुएणं परिवायगेणं एवं बुत्ते समाणे सुर्य परिवायगं एवं वदासी-सुया! जत्तावि मे जवणिज्जंपि मे अवाबाहंपि में फासुपविहारंपि मे, तते णं से सुए थावचापुत्तं एवं बदासी-किं भंते ! जत्ता, सुया! जन्नं मम णाणदंसणचरित्ततवसंजममातिएहिं जोएहिं जोयणा से तं जत्ता, से किं तं भंते! जवणिज, १. शुक्रपरिव्राजकस्य दिक्षाया: प्रसंग: ~215~ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ---------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [५५,५६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५५,५६] दीप अनुक्रम [६६-६८] 'सुया ! जवणिजे दुविहे पं०, तं०-इंदियजवणिजे य नोइंदियजवणिजे य, से कितं इंदियजवणिज!, सुया! जन्नं मम सोतिदियचक्खिदियघाणिदियजिभिदियफासिंदियाई निरुवहयाई घसे वहति से तं इंदियजवणिज,से किं तं नोइंदियजवणिजे ?, सुया !जन्नं कोहमाणमायालोभा खीणा उवसंता नो उदयंति से तं नोइंदिपजवणिज्जे, से कितं भंते अबाबाहं,सुया जन्नं मम वातियपित्तियसिभियसन्निवाइया विविहा रोगातका णो उदीरेंति सेत्तं अवाबाहं, से किं तं भंते ! फासुयविहारं ?, सुया ! जन्नं आरामेसु सज्जाणेसु देवउलेसु सभासु पचासु इत्थिपमुपंडगविचज्जियासु वसहीसु पाडिहारियं पीठफलगसेज्जासंथारयं उग्गिणिहत्ताणं विहरामि सेतं फासुयविहारं । सरिसवया ते भंते ! किं भक्खेया अभक्खेया ?, सुया ! सरिसवया भक्खेयावि अभक्खेयावि, से केण?णं भंते! एवं बुचई-सरिसवया भक्खेयावि अभक्खेयावि, सुया! सरिसवया दुविहा पं०, तं०-मित्तसरिसवया धनसरिसवया य, तत्थ णं जे ते मित्तसरिसचया ते तिविहा पं०, तं०-सहजायया सहवडियया सहपंसुकीलियया, ते णं समणाणं णिग्गाणं अभक्खेया, तत्थ णं जे ते धन्नसरिसबया ते दुचिहा पं०, तं०-सत्थपरिणया य असत्यपरिणया य, तत्थ पंजे ते असत्थपरिणया ते समणाणं निग्गंधाणं अभक्खया, तत्थ णं जे ते सत्थपरिणया ते दुविहा पं०, तं०-फासुगा य अफासुगा य, अफासुया णं सुया! नो भक्खेया, तत्थ णं जे ते फासुया ते दुविहा पं०,०-जातिया य अजातिया य, तत्थ णं जे ते अजातिया ते अभक्खेया, Portunaturary.com शुक्रपरिव्राजकस्य दिक्षायाः प्रसंग: ~ 216~ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [५५,५६] दीप अनुक्रम [६६-६८] श्रुतस्कन्ध: [१] अध्ययन [ ५ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६ ] ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्.. ॥१०७॥ “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) Eucation Internationa तत्थ णं जे ते जाइया ते दुबिहा पं० तं०-एसणिज्जा य अणेसणिज्जा य, तत्थ णं जे ते अणेस णिज्जा लेणं अभक्खया, तत्थ णं जे ते एसणिज्जा ते दुबिहा पं० [सं० - लद्धा य अलद्धा य, तत्थ णं जे ते अद्धा ते अभक्खेया, तत्थ णं जे ते लद्धा ते निग्गंथाणं भक्त्रेया, एएणं अद्वेणं सुया ! एवं बुच्चतिसरिसवा भक्यावि अभक्वेयावि, एवं कुलत्थावि भाणियधा, नवरि इमं णाणसं - इत्धिकुलत्था य धन्नकुलत्था य, इत्थिकुलत्था तिविहा पं० तं०- कुलवधुया य कुलमाज्या इ य कुलधूया इ य, धन्नकुलत्था तहेव, एवं मासावि, नवरि इमं नाणन्तं मासा तिविहा पं० तं० - कालमासा य अत्थमासा य नमासा य, तत्थ णं जे से कालमासा ते णं दुवालसविहा पं०, तंजहा-सावणे जाव आसाढे, ते णं अभ क्या, अत्थमासा दुबिहा- हिरन्नमासा य सुवण्णमासा य, ते णं अभक्वेया धन्नमासा तव । एगे भवं दुवे भवं अगे भवं अक्खए भवं अवए भवं अवट्टिए भवं अगेगभूयभावे भविएवि भवं ?, सुया ! एगेवि अहं दुबेवि अहं जाव अणेगभूयभावभविएवि अहं, से केणद्वेणं भंते! एगेवि अहं जाव सुया ! दधट्टयाए एगे अहं नाणदंसणट्टयाए दुबेवि अहं एएसट्र्याए अक्खवि अहं अवएवि अहं अवट्टिएवि अहं जबओ शुक्रपरिव्राजकस्य दिक्षायाः प्रसंग: या अणे भूयभावभविएवि अहं, एत्थ णं से सुए संबुद्धे धावचापुत्तं वंदति नम॑सति २ एवं वदासीइच्छामि णं भंते! तुम्भे अंतिए केवलिपन्नन्तं धम्मं निसामित्त धम्मका भाणियवा, तए णं से सुए परिक्षायए थावच्चापुत्तस्स अंतिए धम्मं सोचा णिसम्म एवं वदासी-इच्छामि णं भंते! परिधायगसहस्सेणं सद्धिं मूलं [५५,५६ ] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः For Parts Use Only ~ 217~ ५ शैलकज्ञाते शुकपरिव्राज कदीक्षा सू. ५५ ॥१०७॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [५५,५६] दीप अनुक्रम [६६-६८] श्रुतस्कन्ध: [१] अध्ययन [ ५ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६ ] Education Intonation “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) शुक्रपरिव्राजकस्य दिक्षायाः प्रसंग: परिडे देवापियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता पचइत्तए, अहासुहं जाव उत्तरपुरच्छिमे दिसीभागे तिडंयं जाब धाउरताओ य एगते एडेति २ सयमेव सिहं उप्पाडेति २ जेणेव धावच्चापुत्ते० मुंडे भविता जब पति सामाइयमातियाई चोट्स पुवातिं अहिज्जति, तते णं थावच्चापुते सुयरस अणगारस्सहस् सीसत्ता विरति, तते गंथावचापुत्ते सोगंधियाओ नीलासोयाओ पडिनिक्खमति २ बहिया जणवयविहारं विहरति, तते णं से थावचापुते अणगारसहस्सेणं सद्धिं संपरिवुडे जेणेव पुंडरीए पछए तेणेव उवागच्छ २ पुंडरीयं पचयं सणियं २ दुरुहति २ मेघघणसन्निगासं देवसन्निवार्य पुढविसिलापट्ट्यं जाव पाओगमणं णुवन्ने, तते णं से धावदापुत्ते बहूणि वासाणि सामन्नपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहएस भत्ता अणसणाए जाव केवलवरनाणदंसणं समुप्पादेत्ता ततो पच्छा सिद्धे जाब पहीणे । (सूत्रं ५५) तते णं से सुए अन्नया कयाई जेणेव सेलगपुरे नगरे जेणेव सुभूमिभागे उज्जाणे समोसरणं परिसानिया सेलओ निग्गच्छति धम्मं सोचा जं नवरं देवाणुप्पिया ! पंथगपामोक्खातिं पंच मंतिसयातिं आपुच्छामि मण्डुयं च कुमारं रज्जे ठावेमि, ततो पच्छा देवाणुप्पियाणं अन्तिए मुंडे भवित्ता आगाराओ अगरियं पञ्चयामि, अहासुहं, तते णं से सेलए राया सेलगपुरं नयरं अणुपविसति २ जेणेव सए गिहे जेणेव बाहिरिया उबट्टाणसाला तेणेव उवागच्छइ २ सीहासणं सन्निसन्ने, तते णं से सेलए राया पंथयपामोक्खे पंच मंतिसए सदावेइ सदावेत्ता एवं वदासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! मए सुयस्स अंतिए घम्मे णिसंते For Parts Only मूलं [५५,५६ ] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~ 218~ statatatatatatatatatata wor Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ---------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [५५,५६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत ज्ञाताधर्म ५ शैलक कथाङ्गम्. सूत्रांक राजदीक्षा ॥१०८॥ [५५,५६]] दीप अनुक्रम [६६-६८] सेवि य धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुतिए अहं गं देवाणुप्पिया ! संसारभयउनिग्गे जाव पक्वयामि, तुम्भेणं देवाणुप्पिया किं करेह किं ववसह किंवा ते हियइच्छति?, ततेणंत पंथयपामोक्खा सेलगं रायं एवं वदासी-जहणं तुन्भे देवा० संसार जाव पचयह अम्हाणं देवाणुप्पिया! किमन्ने आहारे वा आलंबे वा अम्हेविय णं देवा० संसारभयाउविग्गा जाव पचयामो, जहा देवाणुप्पिया! अम्हं बहुसु कजेसु य कारणेसु य जाव तहाणं पचतियाणवि समाणाणं बहुसु जाव चक्खुभूते, तते णं से सेलगे पंधगपामोक्खे पंच मंतिसए एवं व-जति णं देवाणु० तुम्भे संसार जाव पचयह तं गच्छह णं देवा० सएसु २ कुडंबेसु जेट्टे पुत्ते कुइंचमझे ठावेत्ता पुरिससहस्सवाहिणीओ सीयाओ दुरूढा समाणा मम अंतियं पाउम्भवहत्ति, तहेय पाउन्भवति, तते णं से सेलए राया पंच मंतिसयाई पाउम्भवमाणातिं पासति रहट्ठतुट्टे कोटुंबियपुरिसे सद्दावेति २ एवं वदासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! मंडयस्स कुमारस्स महत्थं जाव रायाभिसेयं उबट्ठयेह. अभिसिंचति जाव राया विहरति । तते णं से सेलए मंडयं रायं आपुच्छह, तते णं से मंडुए राया कोडंबियपुरिसे० एवं वदासी-खिप्पामेव सेलगपुरं नगरं आसित जाव गंधवधिभूतं करेह प कारवेह य २ एवमाणत्तियं पञ्चप्पिणह, तते णं से मंडुए दोचंपि कोडंपियपुरिसे सदावेइ २ एवं वदासी-खिप्पामेव सेखगस्स रनो महत्थं जाव निक्खमणाभिसेयं जहेव मेहस्स तहेव णवरं पउमावतीदेवी अग्गकेसे पडिच्छति सदेवि पडिग्गह गहाय सीयं दुरूहंति, अवसेसं तहेव ॥१०८॥ शुक्रपरिव्राजकस्य दिक्षायाः प्रसंग: ~219~ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ---------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [५५,५६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५५,५६] दीप अनुक्रम [६६-६८] जाव सामातियमातियाति एक्कारस अंगाई अहिजति २ पाहिं चउस्थ जाव विहरति,प्तए णं से सुए सेलयस्स अणगारस्स ताई पंथयपामोक्खाति पंच अणगारसयाई सीसत्ताए चियरति, तते णं से सुए अन्नया कयाई सेलगपुराओ नगराओ सुभूमिभागाओ उजाणाओ पडिनिक्खमति २त्ता पहिया जणवयविहारं विहरति, तते णं से सुए अणगारे अन्नया कयाई तेणं अणगारसहस्सेणं सद्धि संपरिचुर पुवाणुपुर्षि घरमाणे गामाणुगाम विहरमाणे जेणेच पोंडरीए पथए जाव सिद्धे (सूत्रं ५५) एवमीयोसमित्यादिगुणयोगेनेति । 'पंचाणुवइयं इह यावत्करणात् एवं दृश्य 'सत्चसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवञ्जिचए, अहामुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबधं काहि सि । तए णं से सेलए राया थापच्चापुत्तस्स अणगारस्स अंतिए पंचाणुबइयं जाव उवसंपञ्जा, तए णं से सेलए राया समणोवासए जाए अभिगयजीवाजीवे' इह यावत्करणादिदं दृश्यं 'उबल-11 Sदपुण्णपाचे आसवसंवरनिअरकिरियाहिगरणवंधमोक्खकुसले' क्रिया-कायिक्यादिका अधिकरण-खगनिवेत्तेनादि, एतेन च ज्ञानितोक्ता, 'असहेज्जे' अविद्यमानसाहाय्यः कुतीर्थिकरितः सम्यक्सविचलनं प्रति न परसाहाय्यमपेक्षते इति भावः, अत एवाह 'देवासुरनागजक्खरक्खसकिन्नरकिंपुरुसगरुलगंधवमहोरगाइपहिं देवगणेहिं निग्गंथाओ पावयणाओ अगतिकमणिले देवा-पैमानक-II ज्योतिष्काः शेषा भवनपतिव्यन्तरविशेषाः गरुडाः-सुवर्णकुमाराः एवं चैतवतो 'निम्गंधे पावयणे निस्संकिए' निःसंकया। निखिए-मुक्तदयोनान्तरपक्षपातो निश्चितिगिच्छे-फलं प्रति निःशः लद्धहे-अर्थश्रवणतः गहियट्टे-अोवधारणेन पुच्छिक 8 संशये सति अहिंगयटे-बोधात् , विणिच्छियडे-ऐदम्पर्योपलम्भात अत एव अद्विमिंजपेम्माणुरागरसेसि-अस्वीनि शुक्रपरिव्राजकस्य दिक्षायाः प्रसंग: ~220~ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ---------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [५५,५६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म- कथाङ्गम. प्रत सूत्रांक [५५,५६]] ॥१०॥ दीप अनुक्रम [६६-६८] सिद्धानि मिझा च-तन्मध्यवर्ती धातुरस्विमिजास्ताः प्रेमानुरागेण-सर्वज्ञप्रवचनप्रीतिलक्षणकुसुम्भादिरागेण रक्ता इव रक्ता यस्स५ शैलकस तथा, केनोल्लेखेनेत्याह--'अयमाउसो ! निग्गंथे पावयणे अढे अयं परमट्टे सेसे अण्णडे' 'आउसो ति आयुष्ममिति पुत्रादेरा- राजदीक्षा मन्त्रणं शेष-धनधान्यपुत्रदारराज्यकुप्रवचनादि, उस्सियफलिहे-उचित स्फटिकमिव स्फटिक-अन्तःकरणं यस्य स तथा, मौनीन्द्रप्रवचनावाप्त्या परितुष्टमना इत्यर्थः इति वृद्धव्याख्या, केचिचाहुः उच्छ्रिता-अर्गलास्थानादपनीय ऊवीकृतो न तिरश्चीन: कपाटपश्चाद्भागादपनीत इत्यर्थः उत्सृतो वा-अपगतः परिधः-अर्गला गृहद्वारे यस्थासौ उत्सृतपरिषः उच्छ्रितपरिघो वा औदार्यातिरेकादतिशयदानदायित्वेन भिक्षुप्रवेशार्थमनर्गलितगृहद्वार इत्यर्थः, 'अवंगुयदुवारे' अप्रावृतद्वारः कपाटादिभि-21 भिक्षुकप्रवेशार्थमेव अस्थगितगृहद्वार इत्यर्थः इत्येकीयं व्याख्यानं, वृद्धानां तु भावनावाक्यमेवं यदुत सदर्शनलोभेन करसाच्चिपापण्डिकान बिभेति शोभनमार्गप्रतिग्रहेणोद्घाटशिरास्तिष्ठतीति भावः, 'चियत्तंतेउरघरदारप्पवेसे' चियचत्ति-नाप्रीतिकर: अन्तःपुरगृहे द्वारेण प्रवेशः शिष्टजनप्रवेशनं यस्य स तथा, अनीर्ष्यालुखं चास्यानेनोक्तं, अथवा चियचोत्ति-लोकानां प्रीतिकर एव अन्तःपुरे गृहद्वारे वा प्रवेशो यस्य स तथा, अतिधार्मिकतया सर्वत्रानाशनीयखादिति 'चाउद्दसट्टमुद्दिद्वपुणिमासिणीम पडिपुण्ण पोसह सम्म अणुपालेमाणे उद्दिष्टा-अमावास्या पौषध-आहारपौषधादिचतूरूपं 'समणे निग्गंथे फासुएणं एसणि ॥१०॥ जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थपडिग्गहकंबलपायछणेणं पतदहा-पात्रं पादप्रोञ्छनं-रजोहरणं 'ओसहमेसजेणं' भेषजं-10 पध्यं 'पाडिहारिएणं पीढफलगसेजासंथारएणं पडिलामेमाणे प्रातिहारिकेण-पुनःसमर्पणीयेन पीठ:-आसनं फलकम्-अवष्ट-13 म्भार्थ शय्या-वसतिः शयनं वा यत्र प्रसारितपादैः सुष्यते संस्तारको लघुतरः 'अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं शुक्रपरिव्राजकस्य दिक्षायाः प्रसंग: ~221~ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [५५,५६ ] दीप अनुक्रम [६६-६८] श्रुतस्कन्ध: [१] अध्ययन [ ५ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६ ] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) Education Internation भावेमाणे विहरइ 'सुए परिधायगे त्ति शुको व्यासपुत्रः ऋग्वेदादयश्चखारो वेदाः षष्टित साङ्ख्यमतं सांख्यसमये - साङ्ख्यसमा चारे लब्धार्थों, वाचनान्तरे तु यावत्करणादेवमिदमवगन्तव्यं ऋग्वेदयजुर्वेद सामवेदाथर्वणवेदानामितिहासपञ्चमानां इतिहास:पुराणं 'निर्घण्टुपष्ठानां' निर्घण्टुः - नामकोश: 'साङ्गोपाङ्गानां' अङ्गानि - शिक्षादीनि उपाङ्गानि तदुक्तप्रपञ्चनपराः प्रबन्धाः सरहस्यानां ऐदम्पर्ययुक्तानां सारक:- अध्यापनद्वारेण प्रवर्तकः सारको वा अन्येषां विस्तृतस्य स्सारणात् वारकोऽशुद्धपाठनिषेधकः पारगः- पारगामी षडङ्गवित् पष्टितन्त्रविशारदः षष्टित- कापिलीयशास्त्रं, पडङ्गवेदकत्वमेव व्यनक्ति- सयाने गणितस्कन्धे 'शिक्षाकल्ये' शिक्षायां अक्षरस्वरूपनिरूपके शास्त्रे कल्पे - तथाविधसमाचारप्रतिपाद के व्याकरणे - शब्दलक्षणे छन्दसि पद्यवचनलक्षणनिरूपके निरुक्ते शब्दनिरुक्तप्रतिपादके ज्योतिषामयने - ज्योतिःशास्त्रे अन्येषु च ब्राह्मणकेषु शास्त्रेषु सुपरिनिष्ठित इति, वाचनान्तरं 'पश्चयमपञ्चनियमयुक्तः तत्र पश्च यमाः - प्राणातिपातविरमणादयः नियमास्तु-शौचसंतोषतपःखाध्यायेश्वरप्रणिधानानि शौचमूलकं यमनियममीलनाद्दशप्रकारं, धातुरक्तानि वस्त्राणि प्रवराणि परिहितो यः स तथा त्रिदण्डादीनि सप्त हस्ते गतानि यस्य स तथा तत्र कुण्डिका- कमण्डलुः कचित्काञ्चनिका करोटिका वाऽधीयेते ते च क्रमेण रुद्राक्षकृतमाला मृद्भाजनं चोच्यते छष्णालकं-त्रिकाष्ठिका अङ्कुशो-वृक्षपल्लवच्छेदार्थः पवित्रकं ताम्रमयमङ्गुलीयकं केसरी-चीवरखण्डं प्रमार्जनार्थ, 'संखाणं'ति साज्ञयमतं 'सज्जपुढवित्ति कुमारपृथिवी 'पयणं आरुहेड' पाकस्थाने चुल्ह्यादावारोपयति उष्माणं उष्णत्वं ग्राहयति 'दिहिं वमित्त' मतं वमयितुं त्याजयितुमित्यर्थः । 'अट्ठाई' ति अर्थान् अर्यमाणखादधिगम्यमानखादित्यर्थः, प्रार्थ्यमानत्वाद्वा याच्यमानखादित्यर्थाः, वक्ष्यमाणयात्रायापनीयादीन् तथा तानेव 'हेई'ति हेतून्, अन्तर्वर्त्तिन्यास्तदी शुक्रपरिव्राजकस्य दिक्षायाः प्रसंग: For Pass Use Only मूलं [५५,५६ ] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~ 222~ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ---------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [५५,५६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म कथानम्. प्रत सूत्रांक [५५,५६]] ॥११॥ Sea दीप अनुक्रम [६६-६८] यज्ञानसम्पदो गमकखात् , 'पसिणाईति प्रश्नान् पृच्छ्यमानत्वात् 'कारणाईति कारणानि विवक्षितार्थनिश्चयस्य जनकानि५ शैलक'वागरणाई'ति व्याकरणानि प्रत्युत्तरतया व्याक्रियमाणत्वादेषामिति, 'निप्पट्ठपसिणवागरणं ति निर्गतानि स्पष्टानि-18राजदीक्षा स्फुटानि प्रश्नव्याकरणानि-प्रश्नोत्तराणि यस्य स तथा 'खीणा उवसंतति क्षयोपशममुपगता इत्यर्थः, एतेषां च यात्रादिषदानामागमिकगम्भीरार्थत्वेनाचार्यस तदर्थपरिज्ञानमसम्भावयताऽपभ्राजनार्थ प्रश्नः कृत इति, 'सरिसवय'ति एकत्र सदृशवयसः-समानवयसः अन्यत्र सर्षपा:--सिद्धार्थकाः 'कुलस्थिति एकत्र कुले तिष्ठन्तीति कुलखाः, अन्यत्र कुलत्थाः धान्यवि-1 शेषाः, सरिसवयादिपदप्रश्नः छलग्रहणेनोपहासाथ कृत इति । 'एगे भवंति एको भवान् इति, एकत्वाभ्युपगमे आत्मनः कृते मरिणा श्रोत्रादिविज्ञानानामवयवानां चास्मनोऽनेकतोपलब्ध्या एकत्वं दुपयिष्यामीतिबुद्धा पयेनुयोगः शुकेन कृतः, 'दुबे भवंति द्वौ भवानिति च, द्वित्वाभ्युपगमे अहमित्येकत्वविशिष्टस्वार्थस्य द्वित्वविरोधेन द्वित्वं दूषयिष्यामीतिसुख्खा पर्यनुयोगो विहितः, अक्षयः अव्ययः अवस्थितो भवाननेन नित्यात्मपक्षः पर्यनुयुक्तः, अनेके भूता-अतीता भाषा:-सनाः परिणामा वा भव्याश्च-भाविनो यस्य स तथा, अनेन चातिक्रान्तभाविसत्ताप्रश्नेन अनित्यात्मपक्षः पर्यनुयुक्तः, एकतरपरिग्रहे अन्यतरस्य दुषमायेति । तत्राचार्येण स्थाद्वादस्य निखिलदोषगोचरातिक्रान्तत्वातमवलम्योत्तरमदायि-एकोऽप्यह, कथं, द्रव्याथेतया जीवद्रव्यस-16 कत्वात्, न तु प्रदेशार्थतया, तथा बनेकत्वान्ममेत्यवयवादी (मश्रोत्राद्यवयवा) नामनेकत्वोपलम्भो न बाधकः, तथा कश्चित् स-18 ॥११०॥ |भावमाश्रित्यैकत्वसमाविशिष्टिस्यापि पदार्थस्य खभावान्तरद्वयापेक्षया द्वित्वमपि न विरुद्धमित्यत उक्तं-द्रावयह शानदर्शनार्थ-| तया, न चैकखभावे भेदो म दृश्यते, एको हि देवदनादिपुरुषः एकदैव तत्तदपेक्षया पितृत्वपुत्रत्वभ्रातृत्वपितन्यत्वमातुलत्वमा-RI शुक्रपरिव्राजकस्य दिक्षायाः प्रसंग: ~223~ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ---------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [५५,५६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५५,५६] दीप अनुक्रम [६६-६८] गिनेयत्वादीननेकान् स्वभावांल्लभत इति, तथा प्रदेशार्थतया असङ्ख्यातान् प्रदेशानाश्रित्याक्षयः, सर्वथा प्रदेशानां क्षयामा-18 वाद, अव्ययः कियतामपि च व्ययाभावात् , किमुक्तं भवति ?-अवस्थितो नित्यः, असायप्रदेशता हि न कदाचनापि व्यपैति । अतो नित्यताभ्युपगमेऽपि न दोषः, उपयोगार्थतया-विविधविषयानुपयोगानाश्रित्य अनेकभूतभावभविकोऽपि, अतीतानाग|तयोहि कालयोरनेकविषयबोधानामात्मनः कथंचिदभिन्नानामुत्पादाद्विगमाद्वानित्यपक्षो न दोषायेति । पुण्डरीकेण-आदि| देवगणधरेण निर्वाणत उपलक्षितः पर्वतः तस्य तत्र प्रथमं निर्धतत्वात्पुण्डरीकपर्वतः-शत्रुनयः । तते णं तस्स सेलगस्स रायरिसिस्स तेहिं अंतेहि य पंतेहि य तुच्छेहि य लहेहि य अरसेहि य विरसेहि य सीएहि य उण्हेहि य कालातिकतेहि य पमाणाइकतेहि य णिचं पाणभोयणेहि य पयइमुकुमालयस्स सुहोचियरस सरीरगंसि वेयणा पाउन्भूता उज्जला जाव दुरहियासा कंडयदाहपित्तज्जरपरिगयसरीरे याचि विहरति, तते णं से सेलए तेणं रोयायंकेण मुके जाए यावि होत्या, तते णं सेलए अन्नया कदाई पुराणुपुर्वि चरमाणे जाव जेणेव सुभूमिभागे जाव विहरति, परिसा निग्गया, मंडुओऽवि निग्गओ, सेलयं अणगारं जाव बंदति नम०२ पज्जुवासति, तते णं से मंडुए राया सेलयस्स अणगारस्स सरीरयं सुकं भुकं जाव सहावाहं सरोगं पासति २ एवं वदासी-अहं णं भंते! तुम्भं अहापवित्तेहिं तिगिच्छएहिं अहापवित्तेणं ओसहभेसजेणं भत्तपाणणं तिगिच्छं आउंटावेमि, तुम्भे गं भंते! मम शैलकराजर्षे: पार्श्वस्थता ~ 224~ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [५७-६१] दीप अनुक्रम [६९-७३] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [ ५ ], मूलं [ ५७-६१] श्रुतस्कन्ध: [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥ १११॥ जाणसालासु समोसरह का सुअं एसणिजं पीढफलग से जासंधारगं ओगिण्हिताणं विहरह, तते गं से सेलए अणगारे मंडयस रनो एयमहं तहत्ति पडिसुणेति, ततेणं से मंदुए सेलयं बंदति नम॑सति २ जामेव दिसिं पाउन्भूते तामेव दिसिं पडिगए। तते णं से सेलए कलं जाव जलते सभंडमत्तोवगरणमायाए पंथयपामोक्खेहिं पंचहि अणगारसएहिं सद्धिं सेलगपुरमणुपविसति २ जेणेव मंडयस्स जाणसाला तेणेव उवागच्छति २ फासूयं पीढ जाव विहरति, तते णं से मंडुए चिच्छिए सहावेति २ एवं बदासी-तुम्भे णं देवाप्पिया ! सेलयस्स फासुएसणिज्जेणं जाव तेगिच्छं आउद्देह, तते णं तेगिच्छया मंदुएणं रन्ना एवं बुत्ता ० सेलग्रस्स अहापवितेहिं ओसह मेसज भत्तपाणेहिं तेगिच्छं आउहेंति, मजपाणयं च से उबदिसंति, तते णं तस्स सेलयस्स अहापवतेहिं जाव मजपाणेण रोगायंके उबसंते होत्था हट्टे मल्लसरीरे जाते aarयरोगायके, तते गं से सेलए तंसि रोयायकंसि उवसंतंसि समाणंसि तंसि विपुलंसि असण ४ मज्जपाणए य मुच्छिए गढिए गिद्धे अज्झोववन्ने ओसन्नो ओसन्नविहारी एवं पासत्थे २ कुसीले २ पत्ते संसत्ते उबद्धपीढफलगसेज्या संधारए पमन्ते यावि विहरति, नो संचाएति फासुएसणिज्जं पीढं पञ्चपिणित्ता मंडुयं च रायं आपुच्छित्ता बहिया जाव (जणवयविहारं अग्भुजएण पवत्तेण परगहिएण) विहरत्तए (सूत्रं ५७) तते णं तेर्सि पंथयवज्जाणं पंचण्डं अणगारसयाणं अन्नया कमाई एगयओ सहियाणं जाव पुरत्तावर त्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणाणं अयमेयारूवे अम्भस्थिए जाब समुप्प Jale Education Internationa शैलकराजर्षेः पार्श्वस्थता For Pernal Use Only ~225~ ५ शैलकज्ञाते शैलकस्य पार्श्वस्थता सू. ५७ ॥ १११ ॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [५७-६१] दीप अनुक्रम [६९-७३] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] अध्ययनं [ ५ ], मूलं [ ५७-६१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Eaton ज्जित्था एवं खलु सेलए रायरिसी चइता रज्जं जाव पञ्चतिए, विपुलेणं असण ४ मज्जपाणए मुच्छिए नो संचाएति जाव विहरित्तए, नो खलु कप्पर देवाणुप्पिया ! समणाणं जाव पमत्ताणं विहरित्तए, तं सेयं खलु देवा० अम्हं कल्लं सेलयं रायरिसिं आपुच्छिता पाडिहारियं पीढफलगसेज्जासंधारगं पञ्चपणत्ता सेलगस्स अणगारस्स पंथयं अणगारं बेयावच्चकरं ठवेत्ता बहिया अन्भुज्जरणं जाव विहरित्तए, एवं संपेर्हेति २ कलं जेणेव सेलए आपुच्छित्ता पाडिहारियं पीड० पचप्पिति २ पंथयं अणगारं वेयावचकरं ठावंत २ बहिया जाव विहरंति (सूत्रं ५८ ) तते गं से पंथए सेलयस्स सेवासंथारडञ्चार पासवणखेसंघाणमत्तओसह मेसज भत्तपाणएणं अगिलाए विणएणं वेयावडियं करे, तते णं से सेलए अन्नया काई कत्तियचाउमा सियंसि विपुलं असण० ४ आहारमाहारिए सुब मज्जपाणयं पीए पुवावरण्हकालसमयंसि सुहष्पमुत्ते, तते णं से पंथए कत्तियचा उम्मासिसि कयकाउस्सग्गे देवसियं पडिकमणं पडिक चाउम्मासियं पडिक्कमिडंकामे सेलयं रायसिं खामणट्टयाए सीसेणं पाए संघ, तते से सेलए पंथरणं सीसेणं पाएसु संघहिए समाणे आसुरुते जाव मिसिमिसेमाणे उद्वेति २ एवं वदासीसे केस णं भो एस अप्पत्थियपस्थिए जाव परिवजिए जेणं ममं सुहपसुतं पाएस संघट्टेति ? तते णं से पंथ सेलणं एवं वृत्ते समाणे भीए तत्थे तसिए करयल कट्टु एवं बदासी अहणणं भंते! पंथए कयका उस्सग्गे देवसियं पडिकमणं पडिकंते चाउम्मासियं पडिते चाउम्मालियं खामेमाणे देवाणु शैलकराजर्षेः पार्श्वस्थता For Parts Only ~226~ Varr Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ------------------ अध्ययनं [५], ----------------- मूलं [१७-६१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. प्रत सूत्रांक [५७-६१] ॥११२॥ ज्ञाते पन्ध| कवर्जानां विहारःस. ५८ शैलकबोधःसू. ५९ शेष दीप अनुक्रम [६९-७३] SoSaee प्पियं बंदमाणे सीसेणं पाएमु संघमि, तं खमंतु ण देवाणुप्पिया! खमन्तु मेऽवराहं तुमण्णं देवाणुप्पिया! णाइभुजो एवं करणयाएत्तिकटु सेलयं अणगारं एतमटुं सम्मं विणएणं भुज्जो २ खामेति, तते णं तस्स सेलयस्स रायरिसिस्स पंथएणं एवं वुत्तस्स अयमेयारूवे जाव समुपज्जित्था-एवं खलु अहं रजं च जाव ओसन्नो जाच उउवद्धपीढविहरामि, तं नो खलु कप्पति समणाणं णिग्गंधाणं अपसस्थाणं जाव विहरित्तए, तं सेयं खलु मे कल्लं मंडयं रायं आपुच्छित्ता पाडिहारियं पीढफलगसेज्जासंधारयं पञ्चप्पिणित्ता पंथएणं अणगारेणं सद्धिं पहिया अन्भुजएणं जाव जणवयविहारेणं विहरित्तए, एवं संपेहेति २ कल्लं जाव विहरति (सूत्र ५९) एवामेव समणाउसो ! जाव निग्गंथो बा २ ओसने जाव संधारए पमत्ते विहरति से णं इह लोए चेव बहणं समणाणं ४ हीलणिज्जे संसारो भाणियघो। तते णं ते पंथगवजा पंच अणगारसया इमीसे कहाए लदहा समाणा अन्नमन्नं सदाति २ एवं वयासी-सेलए रायरिसी पंधएणं बहिया जाव विहरति, सेयं खलु देवा! अम्हं सेलयं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, एवं संपेहेंति २त्ता सेलयं रायं वसंपज्जित्ताणं विहरंति (सूत्र ६०)तते णं ते सेलयपामोक्खा पंच अणगारसया बहुणि वासाणि सामनपरियाग पाउणित्ता जेणेव पोंडरीये पवए तेणेव उवागच्छंति २ जहेव थावच्चापुत्ते तहेच सिद्धा । एवामेव समणाउसो! जो निग्गंधो वा २ जाव विहरिस्सति एवं साध्वाग मासू.६. निवाणं 10॥११॥ | शैलकराजर्षे: पार्श्वस्थता, सद्बोधप्राप्ति:, सिद्धिः ~ 227~ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ------------------ अध्ययनं [५], ----------------- मूलं [१७-६१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५७-६१] दीप अनुक्रम [६९-७३] खलु जंबू ! समणेणं पंचमस्स णायज्झयणस्स अयमहे पण्णत्तेत्तिवेमि ॥ (सूत्रं ६१)॥ पंचमं नाय ज्झयणं समत्तं ॥ 'अंतेहि'इत्यादि, अन्तः-वडचणकादिभिः प्रान्तैः-तैरेव भुक्तावशेषैः पर्युषितैर्वा रुक्षः-निःस्नेहैस्तुच्छैः-अल्पैः अरसैः-हिमादिभिरसंस्कृतैर्विरसैः-पुराणवाद्विगतरसैः शीतैः-शीतलैः उष्णैः-प्रतीतैः कालातिक्रान्तः-तृष्णाबुभुक्षाकालाप्राप्त प्रमाणाति-18 क्रान्तैः-पुभुक्षापिपासामात्रानुचितैः, चकाराः समुचयार्थाः, एवंविधविशेषणान्यपि पानादीनि निष्ठुरशरीरस्य न भवन्ति । बाधायै अत आह-'प्रकृतिसुकुमारकस्य त्यादि, वेयणा पाउम्भूया इत्यस्य स्थाने रोगायंकेत्ति कचित् दृश्यते, तत्र रोगावासावातच कृच्छजीवितकारीति समासः, कण्डू:-कण्डूतिः दाहा-प्रतीतस्तत्प्रधानेन पित्तश्चरेण परिगतं शरीरं यस्य स तथा, 'तेइच्छं'ति चिकित्सां 'आउद्दावेमि'ति आवर्त्तयामि कारयामि । 'सभंडमत्तोवगरणमायाए'चि भाण्डमात्रापतद्ग्रहं परिच्छदव उपकरणं च-वर्षाकल्पादि भाण्डमात्रोपकरणं स्वं च-तदात्मीयं भाण्डमात्रोपकरणं च स्वभाण्डमात्रो-181 |पकरणं तदादाय-गृहीता, 'अभ्युद्यतेन' सोद्यमेन 'प्रदत्तेन' गुरुणोपदिष्टेन 'प्रगृहीतेन' गुरुसकाशादङ्गीकृतेन 'विहा-11 रेण' साधुवर्त्तनेन 'विहर्तु' वर्तितुं पार्श्व-ज्ञानादीनां बहिस्तिष्ठतीति पार्श्वस्थः-गाढम्लानबादिकारणं विना शय्यातरा-1 भ्याहुतादिपिण्डभोजकत्वाचागमोक्तविशेषणः, स च सकृदनुचितकरणेनाल्पकालमपि भवति तत उच्यते-पाश्वेस्थानां यो। |विहारो-बहूनि दिनानि यावत्तथा वर्त्तनं स पार्श्वस्तविहारः सोऽस्खास्तीति पार्श्वस्थ विहारी, एवमवसन्नादिविशेषणान्यपि, नव-11 cer शैलकराजर्षे: पार्श्वस्थता, सद्बोधप्राप्ति:, सिद्धिः ~ 228~ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [५], ----------------- मूलं [५७-६१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म- कथाजम्, प्रत सूत्रांक [५७-६१] ॥११॥ रमवसनो-विवक्षितानुष्ठानालसः, आवश्यकखाध्यायप्रत्युपेक्षणाध्यानादीनामसम्यक्कारीत्यर्थः, कुत्सितशील: कुशील:-181५ शैलककालविनयादिभेदभिन्नानां ज्ञानदर्शनचारित्राचाराणां विराधक इत्यर्थः, प्रमत्तः पञ्चविधप्रमादयोगात् , संसक्तः कदाचित्सं- ज्ञातोपनविनगुणानां कदाचित्पार्श्वस्थादिदोषाणां सम्बन्धात् गौरवत्रयसंसजनाचेति, ऋतुबद्धेऽपि-अवर्षाकालेऽपि पीठफलकानि शय्या- य:तुम्बसंस्तारकार्थ यस्य स तथा 'नाइभुज्जो एवं करणयाए'ति नैवः भूयः-पुनरपि एवं-इत्थंकरणाय प्रवतिष्ये इति शेषः, कज्ञातं सू. 'एवमेवेत्यादिरुपनयः, इह गाथा-"सिढिलियसंजमकजापि होइउं उञ्जमंति जइ पच्छा । संवेगाओ तो सेलउब आराया होति ॥१॥" [शिथिलितसंयमकार्या अपि भूत्वोद्यच्छन्ति यदि पश्चात् । संवेगात् तर्हि शैलक इव ते आराधका भवन्ति ॥१॥ | इति पञ्चमशैलकज्ञातविवरणं समाप्तमिति ।। दीप अनुक्रम [६९-७३] पश्चमानन्तरं षष्ठं व्याख्यायते, तस्य च पूर्वेण सहायं सम्बन्धः-अनन्तराध्ययने प्रमादबतोऽप्रमादवतधानर्थेतरावुक्ती, इहापि तयोरेव तावेवीच्येते इत्येवसम्बद्धमिदम् - जति णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं पंचमस्स णायज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते छहस्स णं भंते ! नायज्झयणस्स समणेणं जाव संपत्तेणं के अढे पन्नत्ते?, एवं खलु जनतेणं कालेणं रायगिहे समोसरणं परिसा निग्गया, तेणं कालेणं २ समणस्स जेट्टे अंतेवासी इंदभूती अदूरसामंते जाव सुक्कज्झा ॥११३॥ FarPranaswamincom अत्र अध्ययनं-५ परिसमाप्तम् अथ अध्ययनं- ६ "तुम्बक:" आरभ्यते ~229~ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [६], ----------------- मूलं [६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सत्राक [६२] दीप अनुक्रम [७४] णोवगए विहरति, तते णं से इंदभूती जायसहे० समणस्स ३ एवं वदासी-कहपणं भंते! जीवा गुरुयत्तं वा राहुयत्तं वा हवमागच्छति', गोयमा ! से जहा नामए केइ पुरिसे एग महं सुकं तु णिच्छिाई निरुवहयं दन्भेहिं कुसेहिं वेटेइ २ महियालेवेणं लिंपति उण्हे दलयतिर सुकं समाणं दोचंपि दहिय कसेहि य वेढेति २ महियालेवेणं लिंपति २ उण्हे सुकं समाणं तचंपि दन्भेहि य कुसेहि य वेदेति २ मडियालेवेणं लिंपति, एवं खलु एएणुवाएणं अंतरा वेढेमाणे अंतरा लिंपेमाणे अंतरा सुकवेमाणे जाव अट्टहिं महियालेवेहिं आलिंपति, अत्याहमतारमपोरिसियंसि उदगंसि पक्षिवेजा, से पूर्ण गोयमा! से तुंबे तेसिं अट्ठण्हं महियालेवेणं गुरुययाए भारिययाए गुरुयभारिययाए उप्पिं सलिलमतिवइत्ता अहे धरणियलपइट्ठाणे भवति, एवामेव गोयमा! जीवावि पाणातिवाएणं जाव मिच्छादसणसल्लेणं अणुपुवेणं अट्ठ कम्मपगडीओ समजिणन्ति, तार्सि गरुययाए भारिययाए गरुयभारिययाए कालमासे कालं किचा धरणियलमतिवतित्ता अहे नरगतलपट्टाणा भवंति, एवं खलु गोयमा! जीचा गुरुयत्तं हवमागच्छंति । अहण्णं गोतमा! से तुंबे तंसि पढमिल्लुगंसि महियालेवंसि तिनंसि कुहियंसि परिसडियंसि ईसिं धरणियलाओ उप्पतित्ता णं चिट्ठति, ततोऽणतरं च णं दोचंपि मटियालेवे जाब उप्पतिताणं चिट्ठति, एवं खलु एएणं उवाएणं तेसु अट्ठसु मट्टियालेबेसु तिनेसु जाव विमुकबंधणे अहेवरणियलमइवइत्ता उपि सलिलतलपइट्ठाणे भवति, एवामेव गोयमा ! जीवा पाणाति 099999 हर ~230~ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [६], ----------------- मूलं [६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ५ शैलक प्रत ज्ञाताधर्मकथानम्. सत्राक ॥११४॥ [६२] दीप अनुक्रम [७४] वातवेरमणेणं जाव मिच्छादसणसल्लवेरमणेणं अणुपुत्रेणं अट्ठ कम्मपगडीओ खवेत्ता गगणतलमुप्पहसा उप्पि लोयग्गपतिहाणा भवंति, एवं खलु गोयमा! जीचा लहुपत्तं हवमागच्छंति । एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं छहस्स नायज्झयणस्स अयमढे पन्नत्तेत्तियेमि ॥ (सूत्र ६२) छटुं नायज्झयणं समत्तं ॥६॥ सर्व सुगम, नवरं, निरुपहतं वातादिभिः दभैः-अग्रभूतैः कुशैः-मूलभूतैः, जात्या दर्भकुशभेद इत्यन्ये, 'अस्थाहंसिति अस्थाये अगाघे इत्यर्थः, पुरुषः परिमाणमस्येति पौरुषिकं तनिषेधादपीरुषिक, मृल्लेपाना सम्बन्धात् गुरुकतया, गुरुकतैव कुतः -भारिकतया, मृल्लेपजनितभारवचनेति भावः, गुरुकमारिकतयेति तुम्बकधर्मद्वयस्थाप्यधोमज्जनकारणताप्रतिपादनायोक्तं, 'उप्पि' उपरि 'अइवइत्सा' अतिपत्यातिक्रम्प 'तिनंसिति स्तिमित आर्द्रता मते ततः 'कुचिते' कोथमुपगते ततः 'परिसटिते' पतिते इति । इह गाथे-"जह मिउलेबालित्तं गरुयं तुंब अहो वयइ एवं । आसवकयकम्मगुरू जीवा वचंति अहरगयं ॥१॥ चेव तविमुकं जलोवरिं ठाइ जायलहुभावं । जह तह कम्मविमुक्का लोयग्गपइडिया हॉति ॥ २॥" यथा मुल्लेपलिम गुरु तुम्बमधो ब्रजति एवं । आश्रवकृतकर्मगुरुत्वा जीवा ब्रजन्ति अधोगति ॥१॥ तदेव तद्विमुक्तं जलोपरि तिष्ठति जातलघुभावं । यथा तथा कर्मविमुक्ता लोकाग्रे प्रतिष्ठिता भवन्ति ॥ २॥] पष्ठतुम्बकज्ञातविवरणं समाप्तमिति ॥६॥ ११॥ | अत्र अध्ययनं-६ परिसमाप्तम् ~231~ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [७], ---------------- मूलं [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६३] दीप अनुक्रम अथ सप्तमं विबियते, अस्य च पूर्वेण सहायं सम्बन्धः, इहानन्तराध्ययने प्राणातिपातादिमतां कर्मगुरुताभावेनेतरेषां च लघुताभावेन अनर्थप्राप्तीतरे उक्ते, इह तु प्राणातिपातादिविरतिभञ्जकपरिपालकानां ते उच्यते, इत्येवंसम्बद्धम् जति णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं घट्टस्स नायज्झयणस्स अयम पन्नते सत्तमस्स णं भंते ! नायज्झयणस्स के अहे पन्नते ?, एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं २रायगिहे नाम नयरे होत्था, सुभूमिभागे उजाणे, तत्थ णं रायगिहे नगरे धपणे नामं सत्यवाहे परिवसति, अड्डे०, भदा भारिया अहीणपंचदिया जाव सुरूवा, तस्स णं धण्णस्स सत्यवाहस्स पुत्ता भदाए भारियाए अत्तया चशारि सत्यवाहदारया होत्था, तंजहा-धणपाले धणदेवे धणगोवे धणरक्खिए, तस्सणं धण्णस्स सस्थवाहस्स चउण्डं पुत्ताणं भारियाओ चत्तारि सुण्हाओ होत्था, तं-उज्झिया भोगवतिया रक्वतिया रोहिणिया, तते णं तस्स धष्णस्स अन्नया कदाई पुखरत्तावरत्तकालसमयंसि इमेयारूवे अब्भस्थिए जाव समुप्पज्जित्था-एवं खल्लु अहं रायगिहे यहणं ईसर जाव पभिईणं सयस्स कुटुंबस्स बहसु कज्जेसु य करणिज्जेसु कोडंवेसु य मंतणेसु य गुजसे रहस्से निच्छए ववहारेसु य आपुच्छणिज्जे पडिपुच्छणिज्जे मेढी पमाणे आहारे आलंबणे चक्खुमेढीभूते कजवायए, तं ण णजति जमए गयंसि वा चुयंसि वा मयंसि वा भग्गंसि वा लुग्गंसि वा सडियंसि वा पडियंसि वा विदेसत्थंसि वा विष्पवसियंसि वा इमस्स कुटुंबस्स किं Peramrpermomeraeader20Rahe [७५] अथ अध्ययनं-७"रोहिणी आरभ्यते ~232~ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) (०६) श्रुतस्कन्ध: [१] .............-- अध्ययनं [७], .. .-- मलं [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म प्रत सूत्रांक रोहिणीज्ञातं कथाङ्गम् ॥११५॥ [६३] दीप अनुक्रम [७५] मन्ने आहारे वा आलंये वा पडिबंधे वा भविस्सति ?,तं सेयं खलु मम कलं जाव जलते विपुलं असणं ४ उबक्खडावेता मित्तणाति०चउण्हं सुण्हाणं कुलघरवर्म आमंतेत्तातं मित्तणाइणियगसपण य चउण्ह सपहाणं कलघरवग्गं विपुलेणं असणं ४ धुवपुष्फवस्थगंध जाव सकारेत्तासम्माणेत्ता तस्सेव मित्तणातिक चण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स पुरतो चउपहं सुण्हाणं परिक्षणट्ठयाए पंच २ सालिअक्खए दलइत्ता जाणामि ताव का किहं चा सारक्खेह वा संगोवेइ वा संबड्डेति वा ?, एवं संपेहेड २ कलं जाव मित्तणाति. चउण्हं सुण्हाणं कुलघरवग्गं आमंतेइ २ विपुलं असणं ४ उवक्खडावेह ततो पच्छा पहाए भोयणमंडवंसि सुहासणमित्तणाति० चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गेणं सद्धिं तं विपुलं असण ४ जाव सकारेति २ तस्सेव मित्तनाति० चउपह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स य पुरतो पंच सालिअक्खए गेण्हति २ जेट्ठा सुण्हा उज्झितिया तं सहावेति २ एवं वदासी-तुम णं पुत्ता मम हत्थाओ इमे पंच सालिअक्खए गेण्हाहि २ अणुपुवेणं सारक्खेमाणी संगोवेमाणी विहराहि, जया ऽहं पुत्ता! तुम इमे पंच सालिअक्खए जाएजा तया णं तुम मम इमे पंच सालिअक्खए पडिदिजाएज्जासित्तिक? सुण्हाए हत्थे दलयति २ पडिविसजेति, तते णं सा उज्झिया धण्णस्स तहत्ति एयम8 पडिमुणेति २ धण्णस्स सस्थवाहस्स हत्याओ ते पंच सालिअक्खए गेण्हति २ एर्गतमवकमति एर्गतमवकमियाए इमेयारूवे अभत्थिए-एवं खलु तायाणं कोट्ठागारंसि बहवे पल्ला सालीण पडिपुण्णा चिट्ठति, तं जया ॥११५॥ ~233~ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [७], ---------------- मूलं [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६३] दीप अनुक्रम [७५] णं ममं ताओ इमे पंच सालिअक्खए जाएस्सति तया णं अहं पल्लंतराओ अन्ने पंच सालिअक्खए गहाय दाहामित्तिकट्ट एवं संपेहेर २तं पंच सालिअक्खए एगंते एडेति २ सकम्मसंजुत्ता जाया यावि होत्था । एवं भोगवतियाएवि, णवरं सा छोल्लेति २अणुगिलति२ सकम्मसंजुत्ता जाया। एवं रक्खियावि, नवरं गेण्हति २ इमेयारूवे अम्भत्थिए०-एवं खलु ममं ताओ इमस्स मित्तनाति० चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स य पुरतो सद्दावेत्ता एवं वदासी-तुमण्णं पुत्ता मम हत्थाओ जाव पडिदिजाएजासितिक मम हत्थंसि पंच सालिअक्खए दलयति तं भवियवमेत्य कारणेणंतिकट्ट एवं संपेहेति २ ते पंच सालिअक्खए सुद्धे वत्थे बंधह २ रपणकरंडियाए पक्खिवेद २ ऊसीसामले ठावेह २ तिसंझं पडिजागरमाणी विहरइ । तए णं से धण्णे सत्यवाहे तस्सेव मित्त जाव चउस्थिं रोहिणीय सुण्हं सदावेति २ जाव तं भवियचं एत्थ कारणेणं तं सेयं खलु मम एए पंच सालि अक्वए सारक्खेमाणीए संगोवेमाणीए संवढेमाणीएत्तिकटु एवं संपेहेति २कुलघरपुरिसे सहावेति २ एवं वदासी-तुम्भे णं देवाणुप्पिया! एते पंच सालिअक्खए गेण्हह २ पदमपाउसंसि महाबुट्टिकायंसि निवइयंसि समाणंसि खुड्डागं केयारं सुपरिकम्मियं करेह २त्ता इमे पंच सालिअक्खए वावेह २ दोचंपि तचंपि उक्खयनिहए करेह २ वाडिपक्खेवं करेह २ सारक्खेमाणासंगोवेमाणा अणुपुत्वेणं संबड्डेह, तते णं ते कोडुबिया रोहिणीए एतम8 पडिमुणंति से पंच सालिअक्वए गेहंति २ अणुपुवेणं सारक्खंति संगोवंति विहरंति, तए णं ते ~234~ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [ ६३ ] दीप अनुक्रम [७५] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र -६ (मूलं + वृत्तिः) अध्ययनं [७], मूलं [ ६३ ] श्रुतस्कन्ध: [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥ ११६ ॥ Education Internationa कोटुंबिया पढमपाउसंसि महाबुद्विकार्यसि णिवइयंसि समाणंसि खुट्टायं केदारं सुपरिकम्मियं करेंति २ ते पंच सालिअक्खए ववंति दुचंपि तचंपि उक्खयनिहए करेंति २ वाडिपरिक्लेव करेति २ अणुपुत्रेण सारक्खेमाणा संगोवेमाणा संवçमाणा विहरंति, तते णं ते साली अणुपुवेणं सारविवजमाणा संगोविजमाणा संबद्दिज्जमाणा साली जाया किण्हा किण्होभासा जाव निउरंबभूया पासादीया ४, तते णं साली पत्तिया बत्तिया गन्भिया पसूया आगयगंधा वीराइया बद्धफला पक्का परियागया सल्लइया पत्तइया हरिपत्रकंडा जाया यावि होत्था, तते णं ते कोटुंबिया ते सालीए पत्तिए जाव सल्लइए पत्तइए जाणित्ता तिक्खेहिं णवपणएहिं असियएहिं लुणेति २ करयलमलिते करेंति २ पुर्णति, तस्थ णं चोक्खाणं सूयाणं अक्खंडाणं अफोडियाणं छड्डाप्रयाणं सालीणं मागहए पत्थए जाए, तते णं ते कोडंबिया ते साली व घडएस पक्विवंति २ उपलिंपति २ लंछियमुद्दिते करेंति २ कोट्ठागाररस एगदेसंसि ठावेंत २ सारक्खमाणा संगोवेमाणा विहरंति, तते णं ते कोडुबिया दोघंमि वासास पढ़पाउसंसि महाबुट्टिकायंसि निवइयंसि खुड्डागं केयारं सुपरिकम्मियं करेंति ते साली वर्वति दोपि पि उक्खयणिहए जाव लुणेति जाव चलणतलमलिए करेंति २ पुणंति, तत्थ णं सालीणं बहवे कुडवा (मुरला) जाव एगदेसंसि ठावेंत २ सारक्ख० संगो० विहरंति, तते णं ते कोहुंबिया तबंसि वासारत्तंसि महाबुहिकासि बहवे केदारे सुपरि० जाव लुर्णेति २ संवर्हति २ खलयं करेति २ मलेति जाव बहवे कुंभा For Park Use Only ~ 235~ रोहिणी ज्ञातं सु. ६‍ ॥१९६॥ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [७], ----------------- मूलं [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६३] दीप अनुक्रम जाया, तते णं ते कोटुंबिया साली कोडागारंसि पक्खिवंति जाब विहरंति, चउत्थे वासारत्ते वहवे कुंभसया जाया। तते णं तस्स धणस्स पंचमयंसि संबच्छरंसि परिणममाणंसि पुषरतावरत्तकालसमयंसि इमेयारूवे अन्भत्थिए जाव समुप्पजिस्था-एवं खलु मम इओ अतीते पंचमे संवच्छरे चउहं सुण्हाणं परिक्खणट्टयाए ते पंच सालिअक्खता हत्धे दिन्ना त सेयं खलु मम कल्लं जाव जलते पंच सालिअक्खए परिजाइत्तए जाव जाणामि ताव काए कि सारक्खिया वा संगोचिया वा संवड्डिया जावत्तिकटु एवं संपेहेति २ कल्लं जाव जलते विपुलं असण ४ मित्तनाय. चउण्ह य सुण्हाणं कुलघर जाव सम्माणित्ता तस्सेव मित्त० चउण्ह य मुण्हाणं कुलघरवग्गस्स पुरओ जेढ उजिझयं सद्दावेइ २त्ता एवं बयासी-एवं खलु अहं पुत्ता! इतो अतीते पंचमंसि संवच्छरंसि इमस्स मिस० चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स य पुरतो तव हत्थंसि पंच सालिअक्खए दलयामि जया णं अहं पुत्ता! एए पंच सालियअक्खए जाएज्जा तया णं तुम मम इमे पंच सालिअक्खए पडिदिजाएसित्तिकट्ठ तं हत्थंसि दलयामि, से नूर्ण पुसा! अस्थ समझे ?, हंता अस्थि, तन्नं पुत्ता ! मम ते सालिअक्खए पडिनिज्जाएहि, तते णं सा उज्झितिया एयमटुं धण्णस्स पडिसुणेति २ जेणेव कोट्ठागारं तेणेव उवागच्छति २ पल्लातो पंच सालिअक्खए गेण्हति २ जेणेव धपणे सत्यवाहे तेणेव उवागच्छति २ धणं एवं वदासी-एए णं ते पंच सालिअक्खएसिक? घण्णस्स हत्थंसि ते पंच सालिअक्खए वलयति, तते गंधण्णे उझियं सवहसावियं करेति २एवं बयासी [७५] ~236~ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [७], ---------------- मूलं [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: रोहिणी ज्ञाताधर्म प्रत सूत्रांक कथाङ्गम्. ज्ञात सू. ६३ [६३] ॥११७॥ दीप अनुक्रम [७५] किण्णं पुत्ता ! एए चेव पंच सालिअक्खए उदाहु अन्ने ?, तते णं उज्झिया धणं सत्थवाहं एवं वयासीएवं खलु तुम्भे तातो! इओऽतीए पंचमे संवच्छरे इमस्स मित्त नाति चण्ह य कुल० जाव विहरामि, तते ऽहं सुम्भं एतम? पडिसुणेमि २ ते पंच सालिअक्खए गेण्हामि एगंतमवकमामि तते णं मम इमेयारूवे अन्भत्थिए जाव समुप्पजित्था एवं खलु तायाणं कोट्ठागारंसि०सकम्मसंजुत्ता तं णो खलु ताओ ! ते चेव पंच सालिअक्खए एए णं अन्ने, तते णं से घण्णे उज्झियाए अंतिए एयमटुं सोचा णिसम्म आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे उज्झितियं तस्स मित्तनाति०चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्सय पुरओ तस्स कुलघरस्स छारुझियं च छाणुझियं च कयवरुज्झियं च समुच्छियं च सम्मजिअं च पाउवदाई चण्हाणोवदाईच बाहिरपेसणकारिं ठवेति, एचामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंधो वा २ जाव पचतिते पचं य से महवयाति उज्झियाई भवंति से णं इह भवे चेव यहणं समणाणं ४ जाव अणुपरियदृइस्सइ जहा सा उझिया । एवं भोगवइयावि, नवरं तस्स कंडिंतियं वा कोहतियं च पीसंतियं च एवं रुचंतियं रंधतियं परिवेसंतियं च परिभायंतियं च अभंतरियं च पेसणकारिं महाणसिणिं ठवेंति, एवामेष समणाउसो! जो अम्हं समणो पंच य से महत्वयाई फोडियाई भवंति से णं इह भवे चेव बहणं समणाणं ४ जाव हील ४ जहा व सा भोगवतिया । एवं रक्खितियावि, नवरं जेणेव चासघरे तेणेव उवागच्छह २ मंजूसं विहाडेइ २ रयणकरंडगाओ ते पंच सालिअक्खए गेण्हति २ जेणेव धणे तेणेव उपा०२पंच सा semeseseseiserceceneceservepepers ॥११७॥ ~ 237~ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [७], ---------------- मूलं [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: सद प्रत सूत्रांक [६३] दीप अनुक्रम [७५] ASSSS लिअक्खए धण्णस्स हस्धे दलयति, तते णं से धपणे रक्खितियं एवं वदासी-किन्नं पुत्ता ते व ते पंच सालिअक्खया उदाहु अन्नेत्ति ?, तते णंरक्खितिया धणं एवं० ते चेव ताया! एए पंच सालिअक्खया णो भन्ने, कहनं पुत्ता, एवं खलु ताओ! तुम्भे इओ पंचमंमि जाव भवियत्वं एत्व कारणेणंतिकटुते पंच सालिअक्खए सुद्धे वत्थे जाव तिसंझं पडिजागरमाणी य विहरामि, ततो एतेणं कारणेणं ताओ! ते वेव ते पंच सालिअक्खए णो अन्ने, तते णं से धपणे रक्खितियाए अंतिए एयमटुं सोचा हट्टतुट्ठ तस्स कुलघरस्स हिरनस्स य कंसदूसविपुलधणजावसावतेजस्स य भंडागारिणिं ठवेति, एवामेव समणाउसो! जाव पंच य से महषयाति रक्खियाति भवंति से णं इह भवे चेव बहणं समणाणं ४ अञ्चणिजे जहा जाव सा रक्खिया। रोहिणियावि एवं चेव, नवरं तुम्भे ताओ मम सुबहुयं सगडीसागडं दलाहि जेणं अहं तुम्भं ते पंच सालिअक्खए पडिणिज्जाएमि, तते णं से धण्णे रोहिणि एवं वदासीकहणं तुम मम पुत्ता ! ते पंच सालिअक्खए सगडसागडेणं निजाइस्ससि ?, तते णं सा रोहिणी धणं एवं वदासी-एवं खलु तातो! इओ तुम्भे पंचमे संवच्छरे इमस्स मित्त जाव बहवे कुंभसया जाया तेणेव कमेणं एवं खलु ताओ! तुम्भे ते पंच सालिअखए सगडसागडेणं निज्जाएमि, तते णं से धपणे सत्थवाहे रोहिणीयाए सुवहुयं सगडसागडं दलयति, तते णं रोहिणी सुबहुं सगडसागडं गहाय जेणेव सए कुलघरे तेणेव उवागच्छइ कोट्ठागारे विहाडेति २ पल्ले उभिदति २ सगडीसागडं भरेति २ रायगिदं roectroeserceaercere. ~238~ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [७], ----------------- मूलं [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्. प्रत सूत्रांक [६३] रोहिणीज्ञातं सू. ६३ ॥११८॥ नगरं मझमझेणं जेणेव सए गिहे जेणेव घण्णे सत्यवाहे तेणेव सपागच्छति, तते णं रायगिहे नगरे सिंघाडग जाव पहजणो अन्नमन एवमातिक्खति-धन्ने णं देवा! धणे सत्यवाहे जस्स णं रोहिणिया सुण्हा जीए णं पंच सालिअक्खए सगडसागडिएणं निज्जाएति, तते णं से धपणे सत्यते पंच सालिअक्खए सगडसागडेणं निजाएतितेपासति २ हट्ट पडिच्छति रतस्सेव मित्तनाति० चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरपुरतो रोहिणीयं सुण्हं तस्स कुलघरस्स बहुसु कजेसु य जाव रहस्सेसु य आपुच्छणिज जाव बहावितं पमाणभूयं ठावेति, एवामेव समणाउसो! जाव पंच महत्वया संवड्डिया भवंति से णं इह भवे चेव बटणं समणाणं जाव चीतीवइस्सइ जहा व सा रोहिणीया । एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं सत्तमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पन्नत्तेत्तियेमि ॥ (सूत्रं ६३)सत्तमं नायज्झयणं समत्तं ॥७॥ दीप अनुक्रम [७५] KO इदमपि सुगमम् , नवरं 'मए'त्ति मयि 'गयंसित्ति गते ग्रामादौ एवं 'च्युते' कुतोऽप्यनाचारात् खपदात् पतिते 'मृते ॥ ॥११८॥ परासुतां गते 'भग्ने' वाल्यादिना कुनखञ्जखकरणेनासमर्थीभूते 'लुग्गंसि वचि रुने जीर्णतां गते 'शटिते' व्याधिवि-1|| शेषापछीर्णतां गते 'पतिते' प्रासादादेर्मश्चके वा ग्लानभावात् 'विदेशस्थे' विदेश गला तत्रय स्थिते 'विप्रोषिते' खस्था ~239~ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [ ६३ ] दीप अनुक्रम [७५] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र -६ (मूलं + वृत्तिः) अध्ययनं [७], मूलं [ ६३ ] श्रुतस्कन्धः [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः नविनिर्गते देशान्तरगमनप्रवृत्ते आधारः- आश्रयो भूरिव आलम्बनं वरत्रादिकमिव प्रतिबन्धः प्रमार्जनिका शलाकादीनां लतादबरक इव कुलगृहं पितृगृहं तद्वर्गो मातापित्रादिः संरक्षति अनाशनतः सङ्गोपयति संवरणतः संबर्द्धयति बहुलकरणतः 'छोल्लेइति निस्तुपीकरोति 'अणुगिलइ'त्ति भक्षयति, कचित्फोलेईत्येतदेव दृश्यते, तत्र च भक्षयतीत्यर्थः, 'पत्तिय'त्ति सञ्जातपत्राः 'वत्तिय'त्ति श्रीहीणां पत्राणि मध्यशलाकापरिवेष्टनेन नालरूपतया वृत्तानि भवन्ति तद्वृत्ततया जातदृत्तत्वाद्वत्तिताः शाखादीनां वा समतया वृत्तीभूताः सन्तो वर्त्तिता अभिधीयन्ते, पाठान्तरेण 'तइया वति सञ्जातत्वच इत्यर्थः गर्भिता-जातगर्भा डोडकिता इत्यर्थः, प्रसूताः कणिशानां पत्रगर्भेभ्यो विनिर्गमात् आगतगन्धा - जातसुरभिगन्धाः आयातगन्धा वा दूरयायिगन्धा इत्यर्थः, क्षीरकिताः सञ्जातक्षीरकाः बद्धफलाः क्षीरस्य फलतया बन्धनात् जातफला इत्यर्थः पकाः काठिन्यमुपगताः, पर्या यागताः पर्यायगता वा सर्वनिष्पन्नतां गता इत्यर्थः, 'सल्लइपत्तय'त्ति सल्लकी वृक्षविशेषस्तस्था इव पत्रकाणि दलानि कुतोऽपि | साधम्यर्यात् सञ्जातानि येषां ते तथेति, गमनिकैवेयं पाठान्तरेण शल्यकिता :- शुष्कपत्रतया सञ्जातशलाका: पत्रकिता:- सञ्जातकुत्सितकाऽल्पपत्राः, 'हरियपचकंड'त्ति हरितानि - हरितालवर्णानि नीलानि पर्वकाण्डानि - नालानि येषां ते तथा, जाताथाप्यभूवन्, 'नवपज्जाणएहिं ति नवं-प्रत्ययं पायनं- लोहकारेणातापितं कुट्टितं तीक्ष्णधारीकृतं पुनस्तापितानां जले निबोलनं येषां तानि तथा तैः, 'असिएहिं'ति दात्रः, 'अखंडाण'ति सकलानां अस्फुटितानां असञ्जातराजीकानां छड २ इत्येवमनुकरणतः सूर्पादिना स्फुटाः-स्फुटीकृता शोधिता इत्यर्थः स्पृष्टा वा पाठान्तरेण पूता ये ते तथा तेषां 'मागहए पत्थए'सि "दो असईओ पसई दो पसइओ उ सेहया हो । चउसेदओ उ कुडओ चउकुडओ पत्थओ For Penal Use On ~ 240 ~ wor Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [७], ----------------- मूलं [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक ज्ञाताधर्म- कथाङ्गम्. [६३] ॥११९॥ दीप अनुक्रम नेउ ॥१॥"त्ति [ असती प्रसतिः । प्रसती तु सेतिका भवति । चतुःसेतिका कुडवचतुकुडवः प्रस्थको ज्ञेयः॥१॥] रोहिणीअनेन प्रमाणेन मगधदेवव्यवहृतः प्रस्थो मागधप्रस्था, 'उपलिंपंति' घटकमुखस्य तत्पिधानकस्य च गोमयादिना रन्ध्र ज्ञात भञ्जन्ति ' लिंति' घटमुखं तत्स्थगितं च छगणादिना पुनर्ममृगीकुर्वन्ति, लाञ्छितं रेखादिना, मुद्रितं मृन्मयमुद्रादानेन तत्कुर्वन्ति, मुरलो-मानविशेषः, खलक-धान्यमलनस्थण्डिल, चतुष्प्रस्थं आढकः आढकानां षल्या जघन्यः कुम्भः अशीत्या मध्यमः शतेनोत्कृष्ट इति, क्षारोष्ट्रिकां' भसपरिष्ठापिका 'कचवरोजिशका' अवकरशोधिका 'समुक्षिकां' प्रात-18 गृहाङ्गणे जलच्छटकदायिका, पाठान्तरेण 'संपुच्छिय'त्ति तत्र सम्प्रोच्छिका पादादिलूपिका 'सम्मार्जिक' गृहखान्तर्ष- हिन बहुकरिकावाहिका 'पादोदकदायिका पादशौचदायिका स्नानोदकदायिका प्रतीतां, पाद्यानि प्रेषणानि कर्माणि || करोति या सा 'बाहिरपेसणगारियत्ति भणिया, 'कंडयंतिका'मिति अनुकम्पिता कण्डयन्तीति-तन्दुलादीन् उदूखलादौ क्षोदयन्तीति कंडयन्तिका सां, एवं 'कुट्टयन्तिकां' तिलादीनां चूर्णनकारिको 'पेषयन्तिकां गोधूमादीनां घरहादिना पेष-18 णकारिका 'रुन्धयंतिका' यन्त्रके ब्रीहिकोद्रवादीनां निस्तुषत्वकारिका रन्धयन्तिकां' ओदनस्य पाचिका 'परिवेषय-18 न्तिका भोजनपरिवेषणकारिको 'परिभाजयन्तिका' पर्वदिने स्वजनगृहेषु खण्डखाद्याथैः परिभाजनकारिकां महानसे || | नियुक्ता महानसिकी तां स्थापयति, 'सगडीसागड'ति शकट्यश्च-गव्यः शकटानां समूहः शाकटं च शकटीशाकटं|| ॥११॥ गडीओ गडिया यति उक्तं भवति, 'दलाह'त्ति दत्त प्रयच्छतेत्यर्थः, 'जाणं'ति येन 'ण' मित्यलङ्कारे, 'प्रतिनियोतयामि समर्पयामीति, अस्य च ज्ञातवं विशेषेणोपनयनं निगदति, यथा-'जह सेट्ठी तह गुरुणो जह णाइजणो तहा समणसंघो । [७५] ~ 241~ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) (०६) श्रुतस्कन्ध: [१] .............-- अध्ययनं [७], .. .-- मलं [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सत्राक [६३] दीप अनुक्रम जह बहुया तह भवा जह सालिकणा तह वयाई ॥१॥ जह सा उज्नियनामा उज्शियसाली जहत्यमभिहाणा । पेसणगारितेणं | असंखदुक्खरखणी जाया ॥ २ ॥ तह भयो जो कोई संघसमक्खं गुरुविदिबाई । पडिबजिउं समुज्झइ महजयाई महामोहा ॥ ३ ॥ सो इह चेव भवमी जणाण धिकारभायणं होई । परलोए उ दुहत्तो नाणाजोणीसु संचरइ ॥ ४ ॥ उक्तं च-'धम्माओ भ?" वुत्तं, "इहेबऽहम्मो"युत्तं "जह वा सा भोगवती जहत्थनामोवभुत्तसालिकणा । पेसणविसेसकारितणेण पत्ता दुई चेव ॥ ५॥ तह जो महावयाई उवर्भुजइ जीवियत्ति पालितो। आहाराइसु सचो चत्तो सिवसाहणिकछाए ॥६॥ सो एत्थ जहिच्छाए पावइ आहारमाइ लिंगिचि । विउसाण नाइपुलो परलोयम्मी दुही चेव ॥ ७॥ जह वा रक्खियवहुया रक्खियसालीकणा जहत्थक्खा । परिजणमण्णा जाया भोगमुहाई च संपना ॥८॥ तह जो जीवो सम्म पडिवजिचा महबए पंच । पालेइ निरइयारे पमायलेसंपि बज्जेतो ॥९॥ सो अप्पहिएकरई इहलोयंमिवि विऊहिं पणयपओ । एगंतसुही जायइ परंमि मोक्खपि पावे ॥१०॥जह रोहिणी उ मुण्हा रोवियसाली जहत्वमभिहाणा । बड्डित्ता सालिकणे पत्ता सबस्ससामित्तं ॥११॥ तह जो भयो पाविय बयाई पालेइ अप्पणा सम्मं । अनेसिपि भवाणं देह अणेगेसि हियहेउं ।। १२ । सो इह संघपहाणो जुगप्पहाणेचि लहइ संसई । अप्पपरेसिं कल्लाणकारओ गोयमपहुच ।। १३ ॥ तित्थस्स चुट्टिकारी अक्खेवणो कृतिस्थियाईणं । विउसनरसेवियकमो कमेण सिद्धिपि पावे ॥ १४ ॥"त्ति [यथा श्रेष्ठी तथा गुरखो यथा शातिजनस्तथा असणसंघः । यथा बध्वस्तथा भव्या यथा शालिकणास्तथा ब्रतानि ॥१॥ यथा सोज्झितनानी उज्झितशालियथार्थाभिधाना प्रेषणकर्तृत्वेनासंख्यदुःखखनिर्जाता ॥ २॥ तथा भव्यो यः कोऽपि संघसमक्ष गुरुवितीर्णानि प्रतिपय समुज्झति महानतानि महा [७५]] ~ 242~ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [७], ----------------- मूलं [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म प्रत सूत्रांक कथानम्. रोहिणीज्ञात ॥१२०॥ [६३] मोहात् ॥३॥ स इहैव भवे जनानां धिक्कारभाजनं भवति । परलोके तु दुःखा” नानायोनिषु संचरति ॥४॥ (अत्रत्य यदतिदिष्टं धम्माओ भटुं० इहेवऽहम्मो० इति वृत्तद्वयं तदप्रसिद्धबाबोल्लिखितुं शक्यं)। यथा वा सा भोगवती यथार्थनानी || उपभुक्तशालिकणा । प्रेषणविशेषकारिखेन प्राप्ता दुःखमेव ॥ ५॥ तथा यो महाव्रतानि उपचुनक्ति जीविकेतिकृता पालयन् ।। आहारादिषु सक्तस्त्यक्तः शिवसाधनेच्छया ॥६॥ सोऽत्र यथेच्छं प्राप्नोत्याहारादि लिङ्गीति । विदुषां नातिपूज्यः परलोके दुःख्येव ॥ ७॥ यथा वा रक्षिता वध रक्षितशालिकणा यथार्थाख्या । परिजनमान्या जाता भोगसुखानि च संप्राक्षा ॥८॥ तथा यो जीकः सम्यक् प्रतिपद्य महाव्रतानि पञ्चैव पालयति निरतिचाराणि प्रमादलेशमपि वर्जयन् ।। ९|| स आत्महितैकरतिरिहलोकेऽपि विद्वत्प्रणतपादः। एकान्तसुखी जायते परसिन् मोक्षमपि प्राप्नोति ॥१०॥ यथा रोहिणी तु स्नुषा रोपितशालियथार्थाभिधाना वर्धयित्वा शालिकणान् प्राप्ता सर्वखखामि ॥११॥ तथा यो भव्यो ब्रतानि प्राप्य पालयति आत्मना) सम्यक । अन्येषामपि भव्यानां ददात्यनेकेषां हितहेतोः ॥१२ ।। स इह संघप्रधानो युगप्रधान इति लभते संशब्दम् । आत्म-| परेषां कल्याणकारको गौतमप्रभुवत् ॥ १३ ॥ तीर्थस्व वृद्धिकारी आक्षेपकः कुतीथिकादीनां । विद्वन्नरसेवितक्रमः क्रमेण| सिद्धिमपि प्रामोति ॥१४॥] सप्तमरोहिणीज्ञाताध्ययनविवरणं समाप्तमिति ॥ . . दीप अनुक्रम [७५] ॥१२॥ | अत्र अध्ययन-७ परिसमाप्तम् ~ 243~ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६४] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६४] गाथा: अधाष्टम मस्यध्ययनम् । अथाष्टमं ज्ञात व्याख्यायते, अस्य च पूर्वेण सहायमभिसम्बन्धः-पूर्वमिन् महावतानां विराधनाविराधनयोरनार्थायुक्ती इह तु महावतानामेवाल्पेनापि मायाशल्येन पितानामयथावत्स्वफलसाधकलमपदयते इत्यनेन सम्बन्धेन सम्बद्धमिदम् जति णं भंते ! समणेण सत्तमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते अट्ठमस्स णं भंते । के अट्ठे पण्णते, एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबूहीवे दीवे महाविदेहे वासे २ मंदरस्स पव्वयस्स पञ्चत्थिमेणं निसढस्स वासहरपघयस्स उत्तरेणं सीयोयाए महाणदीए दाहिणेणं सुहावहस्स वक्खारपवतस्स पबस्थिमेणं पचत्थिमलवणसमुहस्स पुरच्छिमेणं एत्थ णं सलिलावती नामं विजए पन्नते, तत्थ णं सलिलावतीविजए वीयसोगा नामं रापहाणी पं०, नवजोयणविच्छिन्ना जाव पचक्वं देवलोगभूया, तीसे गं बीयसोगाए रायहाणीए उसरपुरच्छिमे दिसिभाए इंदकुंभे नाम उजाणे, तत्थ णं बीपसोगाए रायहाणीए बले नाम राया, तस्सेव धारणीपामोक्खं देविसहस्सं उवरोधे होस्था, तते णं सा धारिणी देवी अन्नया कदाइ सीहं सुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा जाव महन्धले नाम दारए जाए उम्मुक जाव भोगसमत्थे, तते णं तं महन्धलं अम्मापियरो सरिसियाणं कमलसिरीपामोक्खाणं पंचण्हं राषवरकन्नासयार्ण एगदिवसेणं पाणिं गेण्हावेंति, पंच पासायसया पंचसतो दातो जाव विहरति, घेरागमणं इंदकुंभे दीप अनुक्रम [७६-८०] 98500 AREauratoninternational अथ अध्ययन-८ "मल्ली आरभ्यते भगवती मल्ली तिर्थंकर-चरित्रं ~244~ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६४] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सुत्रांक जाताधर्मकथानम् दमडीज्ञाते महीजिनपूर्वभवः सू.६४ [६४] ॥१२॥ गाथा: साणे समोसते परिसा निग्गया, पलोवि निग्गओ धम्म सोचा णिसम्म जं नवरं महन्यलं कुमारं रख्ने ठावेति जाव एकारसंगची बहूणि वासाणि सामण्णपरियायं पाउणित्ता जेणेव चारुपए मासिएणं भत्तेणं सिद्धे, तते णं सा कमलसिरी अन्नदा सीहं सु० जाव पलभद्दो कुमारो जाओ, जुबराया यावि होत्या, तस्स णं महब्बलस्स रक्षो इमे छप्पिय बालवयंसगा रायाणो होस्था, तंजहा-अर्यले धरणे पूरणे वसं वेसमणे अभिचंदे सहजायया जाव संहिचाते णित्थरियवेत्तिकटु अन्नमनिस्सेयमझु पडिसुगति तेणं कालेणं २इंदकुंभे उजाणे घेरा समोसढा, परिसा महम्बले णं धम्मं सोचा जं नवरं छप्पिय बालवयंसए आपुच्छामि बलभदं च कुमारं रज्जे ठावेमि जाव छप्पिय बालवयंसए आपुच्छति, तते गं ते छप्पिय० महब्बलं रायं एवं वदासी-जति णं देवाणुप्पिया! तुम्भे पचयह अम्हं के अन्ने आहारे वा जाव पचयामो, तते णं से महब्बले राया ते छप्पिय० एवं०-जति णं तुन्भे मए सद्धिं जाव पवयह तो णं गच्छह जेट्टे पुत्ते सएहि २ रज्जेहि ठावेह पुरिससहस्सवाहिणीओ सीयाओ दुरूढा जाव पाउन्भवति, तते णं से महब्बले राया छप्पिय बालवयंसए पाउन्भूते पासति २ हट्ट० कोटुंबियपुरिसे बलभदस्स अभिसेओ, आपुच्छति, तते णं से महब्बले जाव महया इड्डीए पञ्चतिए एकारस अंगाई बहहिं चउत्थ जाव भावेमाणे विहरति, तते णं तेर्सि महळ्यलपामोक्खाणं सत्तण्हं अणगाराणं अनया कयाइ एणयओ सहियाणं इमेयासवे मिहो कहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था-जपणं अम्हं देवाणुक एगे तवोकम्मं उबसं दीप अनुक्रम [७६-८०] ॥१२॥ | भगवती मल्ली तिर्थकर-चरित्रं, मल्लिजिनस्य पूर्वभव: ~245~ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] --------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६४] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६४] गाथा: पजिता विहरति तणं अम्हे हिं सोहिं तवोकम्म उवसंपबित्ताणं विहरित्तएत्तिफट्ट अण्णमण्णस्स एयमढें पडिसुणेति २ बहूहिं चउत्थ जाव विहरति, तते णं से महब्बले अणगारे इमेणं कारणेणं इस्थिणामगोयं कम्म निव्वत्तेसु-जति णं ते महब्बलवज्जा छ अणगारा चउत्थं उवसंपजिसाणं विहरंति ततो से महब्बले अणगारे छ8 उपसंपञ्जित्ता णं विहरइ, जति णं ते महब्बलवज्जा अणगारा छ8 उवसंपज्जित्ता णं विहरंति ततो से महब्बले अणगारे अट्ठमं उवसंपज्जित्ता णं विहरति, एवं अट्टमं तो दसम अह दसमं तो दुवालसं, इमेहि य णं वीसाएहि य कारणेहिं आसेवियबहुलीकरहिं तित्थयरनामगोयं कम्मं निबत्तिसु, तं०-"अरहंत १सिद्ध २ पवयण ३ गुरु ४ थेर ५ बहुस्सुए ६तवस्सीमुं७॥ वच्छल्लया यतेसि अभिक्ख णाणोवओगे य८॥१॥दसण ९विणए १० आवस्सए य ११ सीलबए निरइयारं १२ । खणलव १३ तव १४ चियाए १५ वेयावचे १६ समाही य १७ ॥२॥ अप्पुबणाणगहणे १८ सुयभत्ती १९ पवयणे पभावणया २० । एएहिं कारणेहिं तित्ययरत्तं लहइ जीओ ॥३॥" [ अहत्सिद्धप्रवचनगुरुस्थविरबहुश्रुततपखिवत्सलता अभीक्ष्णं ज्ञानोपयोगश्च ॥ १ ॥ दर्शनं विनय आवश्यकानि च शीलवतं निरतिचारं क्षणलवः तपः त्यागः वैयावृस्य समाधिश्च ॥२॥अपूर्वज्ञानग्रहणं श्रुतभक्तिः प्रवचने प्रभावना एतैः कारणैः तीर्थकरत्वं लभते जीवः ॥शा] तए ण ते महाबलपामोक्खा सत्त अणगारा मासियं भिक्खुपडिम उवसंपज्जित्ताणं विहरति जाब एगराइयं उव०, तते णं ते मह दीप अनुक्रम [७६-८०] | भगवती मल्ली तिर्थंकर-चरित्रं, मल्लिजिनस्य पूर्वभवः, २०-स्थानस्य नामानि ~ 246~ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] --------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६४] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत शाताधर्मकथाङ्गम्. मल्लीज्ञाते मल्लीजिनपूर्वभवः सुत्राक [६४] ॥१२२॥ गाथा: ब्बलपामोक्खा सत्त अणगारा खुट्टागं सीहनिकीलियं तवोकम्मं उपसंपजित्ताणं विहरंति, तं०-घउत्थं करेंति २ सबकामगुणियं पारंति २ छटुं करत्ति २ चउत्थं करेंति २ अट्ठमं करेंति २ छटुं करेंति २ दसमं करेंति २ अट्ठमं करेंति २ दुवालसमं करेंति २ दसमं करेंति २ चाउद्दसमं करेंति २ दुवालसमं करेंति २ सोलसमं करेंति २ चोइसम करेंति २ अट्ठारसमं करेंति २सोलसमं करेंति २वीसइमं करेंति २ अट्ठारसमं करेंति २ वीसइमं करेंति २ सोलसमं करेंति २ अट्ठारसमं करेंति २ चोद्दसमं करेंति २ सोलसमं करेंति २ दुवालसमं करेंति २ चाउद्दसमं करेंति २ दसमं करेंति २ दुवालसमं करेंति २ अट्ठमं करेंति २ दसमं करेंति २ छटुं करेंति २ अट्ठमं करेंति २ चउत्थं करेंति २ण्टुं करेंति २ चउक० सवत्थ सबकामगुणिएणं पारेंति, एवं खलु एसा खुडागसीहनिक्कीलियस्स तवोकम्मस्स पढमा परिवाडी छहिं मासहि सत्साह य अहोरत्तेहि य अहामुत्ता जाव आराहिया भवह, तयाणतरं दोचाए परिवाडीए चउत्थं करैति नवरं विगइवज्जं पारति, एवं तचावि परिवाडी नवरं पारणए अलेवार्ड पारेंति, एवं चउत्थावि परिवाडी नवरं पारणए आयंबिलेण पारंति, तए णं ते महन्यलपामोक्खा सत्स अणगारा खुदागं सीहनिकीलियं तवोकम्मं दोहिं संवच्छरेहिं अट्ठावीसाए अहोरत्तेहि अहासुतं जाव आणाए आराहेत्ता जेणेव धेरे भगवंते तेणेव उवागच्छंति २ घेरे भगवंते बंदंति नमसंति २ एवं बयासी-इच्छामो णं भंते। महालयं सीह निक्कीलियं तहेव जहा खुड्डागं नवरं चोत्तीसइमाओ नियत्तए एगाए परिवाडीए कालो दीप अनुक्रम [७६-८०] ॥१२२॥ SAREatinthianatana FaPramamyam uncom A asurary.com | भगवती मल्ली तिर्थकर-चरित्रं, मल्लिजिनस्य पूर्वभव:, तपस: वर्णनं ~ 247~ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] --------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६४] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६४] गाथा: एगेणं संवच्छरेणं छहिं मासेहिं महारसहि य अहोरत्तेहिं समप्पेति, सबंपि सीहनिझीलियं छहिं वासेटिं दोहि य मासेहि वारसहि य अहोरत्तेहिं समप्पेति, तए णं ते महब्बलपामोक्खा सत्स अणगारा महालयं सीहनिक्कीलियं अहासुत्तं जाव आराहेत्ता जेणेव येरे भगवंते तेणेव उवागच्छति २ थेरे भगवंते वंदति नमसंति २ बहणि चउत्थ जाब विहरंति, सते णं ते महन्बलपामोक्खा सत्त अणगारा तेणं ओरालेणं सुक्का मुक्खा जहा खंदओ नवरं थेरे आपुच्छित्ता चारुपवयं दुरूहति २ जाव दोमासियाए. संलेहणाए सवीसं भत्तसयं चतुरासीति वाससयसहस्सातिं सामण्णपरियागं पाउणति २ चुलसीर्ति पुत्वसयसहस्साति सबाउयं पालइत्ता जयंते विमाणे देवत्ताए उववना (सूत्रं ६४) सर्व सुगम, नवरं शीतोदायाः पश्चिमसमुद्रगामिन्या दक्षिणे कूले सलिलावतीति यदुक्तमिह तद् ग्रन्थान्तरे नलिनावतीत्युच्यते, चक्रवर्चिविजयं-चक्रवर्तिविजेतव्यं क्षेत्रखण्डं, 'इमेणं कारणेणं ति अनेन वक्ष्यमाणेन हेतुनाऽन्यथाप्रतिज्ञायान्यथा करणलक्षणेन, मायारूपत्वादस्य, माया हि खीखनिमित्तं तत्र श्रूयते, तस्य चैतदन्यथाभिधानान्यथाकरणं किल कुतोऽपि मिथ्या-| भिमानादह नायक एते खनुनायकाः इह च को नायकानुनायकाना विशेषो यद्यहमुत्कृष्टतरतया न भवामीत्येवमादेस्सम्भाव्यते, 'इत्थीनामगोयन्ति स्त्रीनामः-खीपरिणामः स्त्रीत्वं यदुदयाद्भवति गोत्रं-अभिधानं यस्य तत् स्त्रीनामगोत्रं अथवा यत् स्त्रीप्रायोग्यं नामकर्म गोत्रं च तत् खीनामगोत्र कर्म निवर्तितवान, तत्काले च मिथ्यात्वं सास्वादनं वा अनुभूतवान् , खीनामकर्मणो मिथ्यात्वानन्तानुबन्धिप्रत्ययस्वात, 'आसेवियबहुलीकएहिति आसेवितानि सत्करणात् बहुलीकतानि दीप अनुक्रम [७६-८० FaPramamyam uncom | भगवती मल्ली तिर्थकर-चरित्रं, मल्लिजिनस्य पूर्वभवः, तपस: वर्णनं ~248~ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ------------------ अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६४] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सुत्राक ज्ञाताधर्मकथानम्. [६४] ॥१२॥ गाथा: कट बहुशः सेवनात् यानि तैः, 'अरहंतगाहा' अर्हदादीनि सप्त पदानि, तत्र प्रवचन-श्रुतज्ञानं तदुपयोगानन्यखाद्वा सः गुरवो- दमलीज्ञाधर्मोपदेशकाः स्थविराः जातिश्रुतपर्यायभेदभिन्नास्तत्र जातिस्थविरः पष्टिवर्षः श्रुतस्थविरः समवायधरः पर्यायस्थविरो विंशतिवर्ष- ते मल्लीजिपयायः बहुश्रुताः परस्परापेक्षया तपखिन:-अनशनादिविचित्रतपोयुक्ताः सामान्यसाधवो वा, इह च सप्तमी पष्टयर्थे द्रष्टव्या, नपूर्वभवः ततोऽहत्सिद्धप्रचनगुरुस्थविरबहुश्रुततपखिनां वत्सलतया-वात्सल्येनानुरागयथावस्थितगुणोत्कीर्तनानुरूपोपचारलक्षणया तीर्थ-18 सू. ६४ करनामकम्मे बद्धवानिति सम्बन्धः, 'तेर्सि'ति ये एते जगद्वन्दनीया अहंदादयस्तेपा,अभीक्ष्ण-अनवरतं ज्ञानोपयोगे च सति तद | वध्यते इत्यष्टौ, 'दसण'गाहा, दर्शन-सम्यक्त ९, विनयो ज्ञानादिविषयः, तयोनिरतिचास संस्तीर्थकरसं बद्धवान् १०, आवश्यकअवश्यकत्र्तव्यं संयमव्यापारनिष्पन्न तसिंध निरतिचारः सन्निति ११ तथा शीलानि च-उत्तरगुणा बतानि च-मूलगुणास्तेषु पुननिरतिचार इति १२, क्षणलवग्रहण कालोपलक्षण, क्षणलवादिषु संवेगभावनाध्यानासेवनतत्र निर्वर्जितवान् १३ तथा तपस्त्यागयो। |सतो निवेचितवान्, तत्र तपसा चतुर्थादिना १४ त्यागेन च यतिजनोचितदानेनेति १५, तथा वैयावृत्त्ये सति दशविधे| निर्वनितवान् १६ समाधौ च गुर्वादीनां कार्यकरणद्वारेण चिचस्वास्थ्योत्पादने सति निर्तितवान् १७, द्वितीयगाथायां नव, "अवगाहा' अपूर्वज्ञानग्रहणे सति निर्वर्तितवान् १८ श्रुतभक्तियुक्ता प्रवचनप्रभावना श्रुतभक्तिप्रवचनप्रभावना तया च निवेतितवान् श्रुतबहुमानेन १९ यथाशक्ति मार्मदेशनादिकया च प्रवचनप्रभावनयेति भावः २०, तीर्थकरखकारणतायामुक्ताया हेतु-1 विशतेः सर्वजीवसाधारणतां दर्शयन्नाह-एतैः कारणैस्तीर्थकरखं अन्योऽपि लभते जीव इति, पाठान्तरे तु 'एसोति एप महाबलो लब्धवानिति 'जाव एगराय'ति इह यावत्करणात् 'दोमासियं तेमासियं चउम्मासियं पंचमासियं छम्मासियं सचमा दीप अनुक्रम [७६-८०] भगवती मल्ली तिर्थंकर-चरित्रं, मल्लिजिनस्य पुर्वभवः, तपस: वर्णनं, विंशति: स्थानक्स्य अर्था: ~249~ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [ ६४ ] गाथा: दीप अनुक्रम [७६-८०] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१] ----- अध्ययनं [८], मूलं [ ६४ ] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..... . आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः सियं पढमसतराईदियं बीयसतराईदियं तच्चसत्तराईदियं अहोराईदियंति द्रष्टव्यमिति, 'सोहनिकीलिये 'ति सिंहनिष्क्रीडितमिव सिंहनिष्क्रीडितं, सिंहो हि विहरन् पञ्चाद्भागमवलोकयति एवं यत्र प्राक्तनं तप आवश्यत्तरोत्तरं तद् विधीयते तत्तपः सिंहनिष्क्रीडितं तथ द्विविधं महत् क्षुद्रकं चेति, तत्र क्षुल्लकमनुलोमगतौ चतुर्भक्तादि विंशतितमपर्यन्तं प्रतिलोमगतौ तु विंशतितमादिकं चतुर्थान्तं, उभयं मध्येऽष्टादशकोपेतं चतुर्थषष्ठादीनि तु एकैकवृद्ध्यै कोपवासादीनि स्थापना चेयं भवति | १ | २ | १ | ३ |२| ४ | ३ | ५ ४ ६ ८ १ २ १ ३ २ ४ ३ ५ ४ ६ ५ ७ ६ | ८ ७ ९ । इह चखारि २ चतुर्थादीनि त्रीण्यष्टादशानि द्वे विंशतितमे तदेवं चतुष्पञ्चाशदधिकं शतं तपोदिनानां त्रयत्रिंशच पारणकदिनानामेवमेकस्यां परिपाट्यां षण्मासाः सप्तरात्रिन्दिवाधिका भवन्ति, प्रथमपरिपाठ्यां च पारणकं सर्वकामगुणिकं, सर्वे कामगुणाः- कमनीयपर्याया विकृत्यादयो विद्यन्ते यत्र तत्तथा, द्वितीयायां निर्विकृतं तृतीयायामलेपकारि चतुर्थ्याम श्यामाम्लमिति, प्रथमपरिपाटीप्रमाणं चतुर्गुणं सर्वप्रमाणं भवतीति । महासिंहनिष्कीडितमप्येवमेव भवति, नवरं चतुर्थादि चतुस्त्रिंशत्पर्यन्तं प्रत्यावृत्तौ चतुखिंशादिकं चतुर्थपर्यन्तं मध्ये द्वात्रिंशोपेतं सर्व स्वयमूहनीयं स्थापना चास्य १/२ | १ | ३ | २|४ | ३ | ५ | ४ | ६ | ५६5 | ८ | १० | ९|99|१०|१२|११|१३|१२|१४ १३,१५,१४३१६ १/२/१२/२/४.३:५ ४ ६/५७६/८७९/८ | १०||११/१०/१२/११/१३/१२/१४/१३/१५/१४/१६ भगवती मल्ली तिर्थकर चरित्रं, मल्लिजिनस्य पुर्वभवः, तपसः वर्णनं For Pasta Use Only ~ 250 ~ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ------------------ अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६४] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सुत्रांक ज्ञाताधर्म- कथाङ्गम् ॥१२॥ ८ मल्लीज्ञाते मल्लीजिनजन्म [६४] गाथा: खंदओत्ति भगवत्यां द्वितीयशते इहैव वा यथा मेघकुमारो वर्णितस्तथा तेऽपि, नवरं 'धेर'त्ति स्कन्दको महावीरमापृष्टवानेते तु स्थविरानित्यर्थः, प्रतिदिनं द्विभॊजनस्य प्रसिद्धखात् मासद्वयोपवासे विंशत्युत्तरभक्तशतविच्छेदः कृतो भवतीति, जयन्तविमानं अनुत्तरविमानपश्चके पश्चिमदिग्बति । तत्थ णं अत्गतियाणं देवाणं बत्तीसं सागरोवमाई ठिती, तत्थ णं महब्बलवजाणं छपहं देवाणं देसूणाई बत्तीसं सागरोवमाई ठिती, महब्बलस्स देवस्स पडिपुन्नाई बत्तीसं सागरोचमाई ठिती। तते णं ते महब्बलवजा छप्पिय देवा ताओ देवलोगाओ आउखएणं ठिइक्खएणं भवक्खएणं अणंतरं चयं चहता इहेब जंबुद्दीचे २ भारहे वासे विमुद्धपितिमातिवंसेसु रायकुलेसु पत्तेयं २ कुमारत्ताए पचायायासी, तंजहा-पडिबुद्धी इक्खागराया चंदच्छाए अंगराया संखे कासिराया रुप्पी कुणालाहिवती अदीणसत्तू कुरुराया जितसत्तू पंचालाहिवई, तते णं से महन्यले देवे तीहिं णाणेहि समग्गे उचट्ठाणट्ठिएसु गहेसु सोमासु दिसासु वितिमिरासु विसुद्धासु जइतेसु सउणेसु पयाहिणाणुकलंसि भूमिसपिसि मारुतंसि पवायसि निप्फन्नसस्समेहणीयसि कालंसि पमुहयपक्की लिएसु जणवएसु अद्धरत्तकालसमयंसि अस्सिणीणक्खत्तेणं जोगमुवागएणं जे से हेमंताणं चउत्थे मासे अट्टमे पक्व फग्गुणसुद्धे तस्स णे फग्गुणसुद्धस्स चउत्धिपक्वेणं जयंताओ विमाणाओ बत्तीसं सागरोवमट्टितीयाओ अर्णतरं पयं चइत्ता इव जंबुद्दीचे २ भारहे वासे मिहिलाए रायहाणीए कुंभगस्स रनो पभा दीप अनुक्रम [७६-८०] ॥१२॥ भगवती मल्लिजिनस्य जन्मन: वर्णनं ~ 251~ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [ ६५ ] दीप अनुक्रम [१] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र -६ (मूलं + वृत्तिः) श्रुतस्कन्धः [१] अध्ययनं [८], मूलं [ ६५ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Education Internation वती देवीए कुच्छिसि आहारवर्षातीए सरीरवकंतीए भववकंतीए गन्मत्ताए वकते, तं स्यणिं च णं चोदस महासुमिणा बन्नओ, भत्तारकहणं सुमिणपाढगपुच्छा जाव विहरति । तते णं तीसे पभावतीए देवीए तिन्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं इमेयारूवे डोहले पाउन्भूते धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ जाओ णं जलथलपभासुरप्पभूषणं दसद्धवन्नणं मल्लेणं अत्थुयपवत्थुयंसि सयणिजंसि सन्निसन्नाओ सण्णिवन्नाओ य विहरंति, एगं च महं सिरीदामगंडं पाडलमल्लियचंपयअसोगपुन्नागनागमरुयगद्मणण अणोज्जकोजयपरं परमसुहफासदसिणिज्जं महया गंधद्धणिं मुयंतं अग्घायमाणीओ डोहलं विर्णेति, तते णं तीसे भावती देवीए इमेयारूवं डोहलं पाउन्भूतं पासित्ता अहासन्निहिया वाणमंतरा देवा खिप्पामेव जलथलय० जाव दसवनमलं कुंभग्गसो य भारग्गसो य कुंभगस्स रन्नो भवणंसि वा० साहरंति, एगं च णं महं सिरिदामगंडं जाव मुयंतं जवर्णेति, तए णं सा पभावती देवी जलथलय जाव मल्लेणं डोहलं विणेति, तणं सा प्रभावतीदेवी पसत्थडोहला जाव विहरह, तए णं सा पभावतीदेवी नवहं मासाणं अद्धइमाण य रतिंदियाणं जे से हेमंताणं पढमे मासे दोचे पक्खे मग्गसिरसुद्धे तस्स णं० एकारसीए पुखरतावरत० अस्सिणीमक्खतेणं उच्चद्वाण० जाव पमुश्यपक्कीलिए जणवएस आरोयाऽऽरोयं एकूणवीसतिमं तिस्थपरं पयाया (सूत्रं ६५) 'इक्खागराय'ति इक्ष्वाकूणां इक्ष्वाकुवंशजानां अथवा इक्ष्वाकुजनपदस्य राजा, स च कोशलजनपदोऽप्यभिधीयते यत्र भगवती मल्लिजिनस्य जन्मनः वर्णनं For Par Lise Only ~252~ nary or Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सत्राक [६५]] दीप जाताधर्म- अयोध्या नगरीति, अंगराय'त्ति अङ्गा-जनपदो यत्र काम्पिल्य (चम्पा) नगरी, एवं काशीजनपदो यत्र वाराणसी नगरी, कुलाणा मलीकथाङ्गम. यत्र श्रावस्ती नगरी, कुरुजनपदो यत्र हस्तिनागपुरं नगरं, पाञ्चाला यत्र काम्पिल्यं नगरं, 'उचट्ठाणहिएसुति उच्चस्था- ज्ञाते मल्ली नानि ग्रहाणामादित्यादीनां मेषादीनां दशादिषु त्रिंशांशकेष्वेवमवसेयानि-'अजवृषमृगाङ्गनाकर्कमीनवणिजोंऽशकेविनायुचाः । जिनजन्म ॥१२५॥ दश १० शिख्य ३ ष्टाविंशति २८ तिथि १६ इन्द्रिय ५ त्रिधन २७ विशेषु २० ॥१॥" इति, 'सोमासु' इत्यादि, KA सौम्यासु' दिग्दाहायुत्पातवर्जितासु 'वितिमिरासु' तीर्थकरगर्भाधानानुभावेन गतान्धकारासु 'विशुद्धासु' अरजस्खलत्वा-1 दिना 'जयिकेषु राजादीनां विजयकारिषु शकुनेषु यथा 'काकानां श्रावणे द्वित्रिचतुः शब्दाः शुभावहा' इति, प्रदक्षिणः प्रदक्षिणावर्त मान त्वात् अनुकूलश्च यः सुरभिशीतमन्दत्वात् स तथा तत्र 'मारुते' वायौ 'प्रवाते वातुमारब्धे निष्पन्नशस्सा मेदिनी-भूयंत्र काले, अत एव प्रमुदितप्रक्रीडितेपु-उष्टेषु कीडावत्सु च जनपदेषु-विदेहजनपदवास्तव्येषु जनेषु, 'हेमंताण'ति | शीतकालमासानां मध्ये चतुर्थो मासः अष्टमः पक्षः, कोऽसावित्याह-फाल्गुनस्य शुद्धः-शुक्ला-द्वितीय इत्यर्थः, तस्य फाल्गुनशुद्धस्य पक्षस्य या चतुर्थी तिथिस्तस्याः पक्षः-पाश्र्थोऽर्द्धरात्रिरिति भावः, तत्र 'ण'मित्यलकारे, वाचनान्तरे तु गिम्हार्ण पढमे | इत्यादि दृश्यते तत्रापि चैत्रसितचतुर्थी मार्गशीषसितैकादश्यां तज्जननदिने नव सातिरेका मासाः अभिवद्भुितमासकल्पनया, भवन्तीति तदपि सम्भवति, अतोच तत्वं विशिष्टज्ञानिगम्यमिति, 'अणंतरं चयं चइत्तति अव्यवहितं च्यवनं कृत्वेत्यर्थः, अथवा ॥१२५॥ अनन्तरं चर्य-शरीरं देवसम्बन्धीत्यर्थः 'चहत्ता' त्यक्त्वा 'आहार'त्यादि आहारापकान्त्या-देवाहारपरित्यागेन भवापकान्त्या-1 देवगतित्यागेन शरीरापक्रान्त्या वैक्रियशरीरत्यागेन अथवा आहारव्युत्क्रान्त्या-अपूर्वाहारोत्पादेन मनुष्योचिताहारग्रहणेणेत्यर्थः, अनुक्रम [८१] भगवती मल्लिजिनस्य जन्मन: वर्णनं ~253~ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ------------------ मूलं [६५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सत्राक [६५]] II एवमन्यदपि पदद्वयमिति, गर्भतया व्युत्कान्तः-उत्पन्नः, 'मल्लेणं'ति मालाभ्यो हितं माल्यं-कुसुमं जातावेकवचनं 'अस्थु यपचत्युयंसिति आस्तृते-आच्छादिते प्रत्यवस्तृते पुनः पुनराच्छादिते इत्यर्थः शयनीये निषण्णा निवन्नाः-सुप्ताः, 'सिरिदामगंड"ति श्रीदाम्ना-शोभावन्मालानां काण्ड-समूहः श्रीदामकाण्ड, अथवा गण्डो-दण्डः तद्वद्यत्तद् गण्ड एवोच्यते, श्रीदाम्नां गण्डः श्रीदामगण्डः, पाटलाद्याः पुष्पजातयः प्रसिद्धाः, नवरं मल्लिका-विचकिलः मरुवक:-पत्रजातिविशेषः 'अणोज्ज'त्ति अनवद्यो-निर्दोषः कुब्जक:-शतपत्रिकाविशेषः एतानि प्रचुराणि यत्र तत्तथा, परमशुभदर्शनीयं परमसुखदर्शनीयं वा 'महया गंधद्धणि मुयंतंति महता प्रकारेण गंधध्राणि-सुरभिगन्धगुणं तृप्तिहेतुं पुद्गलसमूहं मुश्चत् आजिघ्रन्त्यःउत्सिहन्त्यः, 'कुंभग्गसो यति कुम्भपरिमाणत: 'भारग्गसो यत्ति भारपरिमाणतः, 'आरोग्गारोग्गं'ति अनाबाधा माता अनाबाधं तीर्थकरम् । तेणं कालेणं २ अहोलोगवस्थवाओ अट्ट दिसाकुमारीओ मयहरीयाओ जहा जंबुद्दीवपन्नत्तीए जम्मणं सवं नवरं मिहिलाए कुंभयरस पभावतीए अभिलाओ संजोएको जाव नंदीसरवरे दीवे महिमा, तया णं कुंभए राया बहुर्हि भवणवति ४ तित्थयर जाव कस्मं जाव नामकरणं, जम्हा णं अम्हे इमीए दारियाए माउए मल्लसयणिजंसिरोहले विणीते तं होउणं णामेणं मल्ली, जहा महाबले नाम जाव परिवडिया -सा बद्धती भगवती दियलोयचुता अणोवमसिरीया। दासीदासपरिबुडा परिकिना पीढमदेहि॥१॥असियसिरया सुनयणा वियोढी धवलदंतपंतीया । वरकमलकोमलंगी फुल्लुप्पलगंधनीसासा ॥२शा" (सूत्र ६६) दीप अनुक्रम [८१] भगवती मल्लिजिनस्य जन्मन: वर्णनं ~254~ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [६६-६७] दीप अनुक्रम [८२-८५] श्रुतस्कन्धः [१] अध्ययनं [८], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र [०६] ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥ १२६॥ “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र -६ (मूलं + वृत्ति:) ১৯৩ ১ ১৩১৩১৬৯৫ तए णं सा मल्ली विदेहवररायकन्ना उम्मुकबालभावा जाव रूवेण जोषणेण य लावन्त्रेण य अतीव २ eg gair जाया यावि होत्था, तते णं सा मल्ली देसूणवाससयजाया ते छप्पि रायाणो विपुलेण ओहिणा आभोमाणी २ विहरति, तं०-पडिबुद्धिं जाव जियसत्तुं पंचालाहिबई, तते णं सा मल्ली कोबि० तुम्भेणं देवा० असोगवणियाए एवं महं मोहणघरं करेह अणेगखं भसयसन्निविद्धं, तस्स णं मोहणघरस्स बहुमज्झदेसभाए छ गन्भघरए करेह, तेसि णं गन्भघरगाणं बहुमज्झदेसभाए जालघरयं करेह, तस्स णं जालघरयस्स बहुमज्झदेसभाए मणिपेढियं करेह २ जाव पञ्चपिणंति, तते णं मल्ली मणिपेढिया उचरिं अपणो सरिसियं सरित्तयं सरिवयं सरिसलावन्नजोवणगुणोववेयं कणगम मत्थयच्छि उप्पलप्पहाणं पडिमं करेति २ जं विपुलं असणं ४ आहारेति ततो मणुन्नाओ असण ४ कल्लाकालि एगमेगं पिंडं हाय तीसे कणगामतीए मत्थयडिड्डाए जाव पडिमाए मत्थयंसि पक्खिमाणी २ विहरति, तते णं तीसे कणगमतीए जाव मच्छयछिट्टाए पडिमाए एगमेगंसि पिंडे पक्खिप्पमाणे २ ततो भवति से जहा नामए अहिमडेति वा जाव एसो अणिङ्कतराए अमणामतरए (सूत्र ६७ ) 'अहोलोयवत्थवाओ 'त्ति गजदन्तकानामधः अधोलोकवास्तव्या अष्टौ दिकुमारीमहत्तरिका, इह चावसरे यदभिधेयं तन्महतो ग्रन्थस्य विषय इतिकृत्वा सङ्क्षेपार्थमतिदेशमाह-'जहा जंबुद्दीवपन्नत्तीए जम्मणं सर्व'ति यथा जम्बूद्वीपप्रज्ञस्यां सामान्यतो जिनजन्मोक्तं तथा मट्टीतीर्थकृतो जन्मेति जन्मवक्तन्यता सर्वा वाच्येति, नवरमिह मिथिलायां नगर्यां कुम्भस्य गं For Para Lise Only मूलं [ ६६,६७ ] + गाथा: "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः | भगवती मल्लिजिनस्य जन्मनः वर्णनं, पुर्वभवस्य मित्राणां प्रतिबोधार्थे मल्लिजिनस्य युक्ति: ~ 255 ~ ८मलीज्ञाति जन्ममहोत्सवः सू. ६६ स्वमूर्तिकारणं सू. ६७ ॥ १२६ ॥ war Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६६,६७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६६-६७] टाटाहटललsicceटारहरहरु दीप अनुक्रम [८२-८५] राज्ञः प्रभावत्या देव्याः इत्ययमभिलापः संयोजितव्यो, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्यां तु नाय विद्यते इति, किंपर्यवसानं जन्म वक्तव्यमित्याह-यावन्नन्दीश्वरे 'महिमति अतिदिष्टग्रन्थश्वार्थत एवं द्रष्टव्यो, यथा अष्टौ दिकुमारीमहत्तरिकाः भोगराप्रभृतयस्तत्समयमुपजातसिंहासनप्रकम्पाः प्रयुक्तावधिज्ञानाः समवसितकोनविंशतितमतीर्थनाथजननाः ससम्भ्रममनुष्ठितसमवायाः समस्तजिननायकजन्मसु महामहिमविधानमस्माकं जीतमिति विहितनिश्चयाः स्वकीयस्थकीयाभियोगिकदेवविहितदिव्यविमानारूढाः सामानिकादिपरिकरवृताः सर्वेयो मडिजिनजन्मनगरीमागम्य जिनजन्मभवनं यानविमानैखिः प्रदक्षिणीकृत्य उत्तरपूर्वेस्यां दिशि यानविमानानि चतुर्भिरझुलैर्भुवमप्राप्तानि व्यवस्थाप्य जिनसमीपं जिनजननीसमीपं च गत्वा निः प्रदक्षिणीकृत्य कृतप्राञ्जलिपुटा इदमवादिषुः-नमोऽस्तु ते रत्नकुक्षिधारिके! नमोऽस्तु ते जगत्प्रदीपदायिक वयमधोलोकवास्तव्या दिकुमार्यों जिनस्य जन्ममहिमानं विधास्यामः अतो युष्माभिन भेतव्यमिति अभिधाय च विहितसंवर्गवाताः जिनजन्मभवनस्य समन्तायोजनपरिमण्डलक्षेत्रस्य तृणपत्रकचवरादेरशुचिवस्तुनोऽपनयनेन विहितशुद्ध्योर्जिनजनन्योरदूरतो जिनखासाधारणमगणितगुणगणमागायन्त्यस्तस्थुः, एचमेवोध्ये लोकवास्तव्या नन्दनवन कूटनिवासिन्य इत्यर्थः अष्टौ दिकुमारीमहतरिकास्तथैवागत्य विरचिताभ्रवद्देलिकाः आयोजनमानक्षेत्र गन्धोदकवर्षे पुष्पवर्ष धूपघटीय कृखा जिनसमीपमागत्य परिगायन्त्य आसांचाः, तथा पौरस्त्यरुचकवास्तव्या रुचकाभिधा-| नख त्रयोदशस्य द्वीपस्य मध्यवर्तिनः प्राकाराकारेण मण्डलव्यवस्थितखोपरि पूर्वदिग्व्यवस्थितेष्वष्टासु कूटेषु कृतनिवासा इत्यर्थः । आगत्य तथैवादशेहस्ता गायन्त्यस्तस्थुः, एवं दक्षिणरुचकवास्तब्धा जिनस्य दक्षिणेन भृङ्गारहस्ताः पश्चिमरुचकवास्तव्या जिनख । | पश्चिमेन तालवृन्तहस्ता उत्तररुचकवास्तव्याधामरहस्ता जिनस्य उत्तरेण, एवं चतस्रो रुचकरप विदिवास्तच्या आगत्य दीपिका भगवती मल्लिजिनस्य जन्मन: वर्णनं ~256~ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [६६-६७] दीप अनुक्रम [८२-८५] श्रुतस्कन्धः [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र -६ (मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [८], मूलं [ ६६,६७ ] + गाथा: आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः कथाङ्गम्. ॥१२७॥ ज्ञाताधर्म - 8 हस्ता जिनस्य चतसृषु विदिक्षु तथैव तस्थुः, मध्यमरुचकवास्तव्या रुचकद्वीपस्याभ्यन्तरार्द्धवासिन्य इत्यर्थः चतस्रस्तास्तथैवागत्य जिनस्य चतुरङ्गुलवर्जनाभिनालच्छेदनं च विवरखननं च नाभिनालनिधानं च विवरस्य रत्नपूरणं च तदुपरि हरितालिकापीठबन्धं च पश्चिमावर्जदिकाये कदलीगृहत्रयं च तन्मध्येषु चतुःशालभवनत्रयं च तन्मध्यदेशे सिंहासनत्रयं च दक्षिणे सिंहासने जिनजनन्योरुपवेशनं च शतपाकादितैलाभ्यङ्गनं च गन्धद्रव्योद्वर्त्तनं च पुष्पोदकं च पूर्वत्र पुष्पोदकगन्धोदकशुद्धोदकमज्जनं च सर्वालङ्कारविभूषणं च उत्तरत्र गोशीर्षचन्दनकाष्ठैर्वह थुज्ज्वलनं चानिहोमं च भूतिकर्म च रक्षापोहलिकां च मणिमयपाषाणद्वयस्य जिनकर्णाभ्यर्णे प्रताडनं च भवतु भगवान् पर्वतायुरिति भगनं च पुनः समाकजिनस्य स्वभवननयनं च शय्याशायनं च चक्रुः कृत्वा च गायन्त्यस्तस्थुरिति । सौधर्मकल्पे च शक्रस्य सहसा आसनं प्रचकम्पे अवधिं चासौ प्रयुयुजे तीर्थकरजन्म चालुलोके ससंभ्रमं च सिंहासनादुत्तस्थौ पादुके व मुमोच उत्तरासङ्गं च चकार सप्ताष्टानि च पदानि जिनाभिमुखमुपजगाम भक्तिभरनिमेरो यथाविधि जिनं च ननाम पुनः सिंहासनमुपविवेश हरिणेगमेपीदेवं पदात्यनीकाधिपतिं शब्दयांचकार तं चादिदेश यथा सुधर्मायां सभायां योजनपरिमण्डलां सुघोषाभिधानां घण्टां त्रिस्ताडयद्घोषणां विधेहि, यथा-भो भो देवा ! गच्छति शक्रो जम्बूद्वीपं तीर्थकरजन्ममहिमानं कर्तुमतो यूयं सर्वसमृद्ध्या शीघ्रं शक्रस्यान्तिके प्रादुर्भवतेति स तु तथैव चकार, तस्यांच घण्टायां ताडितायामन्यान्ये कोनद्वात्रिंशद्घण्टालक्षाणि समकमेव रणरणारवं चक्रुः, उपरते च घण्टारवे घोषणामुपश्रुत्य यथादिष्टं देवाः सपदि विदधुः, ततो पालकाभिधानाभियोगिकदेवविरचिते लक्षयोजनप्रमाणे पश्चिमावर्जदित्रयनिवेशित तोरणद्वारे नानामणिमयूखमञ्जरीरञ्जितगगनमण्डले नयनमनसामतिप्रमोददायिनि महाविमानेऽधिरूढः सामानिकादिदेवकोटीभिरने Education Intention भगवती मल्लिजिनस्य जन्मनः वर्णनं For Parts Only ~ 257 ~ ८मलीज्ञाते जन्ममहोत्सवः सू. ६६ स्वमूर्ति कारणं सू. ६७ ॥१२७॥ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६६,६७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६६-६७] HS काभिः परिवृतः पुर प्रवर्तितपूर्णकलशभृङ्गारच्छत्रपताकाचामराधनेकमङ्गल्यवस्तुस्तोमः पश्चवर्ण कुडभिकासहस्रपरिमण्डितयो-18 जनसहस्रोच्छित्तमहेन्द्रध्वजप्रदर्शितमार्गो नन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणपूर्वे रतिकरपर्वते कृतावतारो दिव्यविमानचिमुपसंहरन् मिथिला नगरीमाजगाम, विमानारूढ एव भगवतो जिनस्य जन्मभवनं त्रिः प्रदक्षिणीकृतवान् , उत्तरपूर्वस्यां दिशि चतुर्भिरङ्गुलैर्भुवमप्राप्त विमानमवस्थापितवान् , ततोऽवतीर्य भगवन्तं समातृकं दिक्कुमारीवदभिवन्ध जिनमातरमवखाप्य जिनप्रतिबिम्ब तत्सबिधी विधाय पञ्चधाऽऽस्मानमाधाय एकेन रूपेण करतलपल्लवावधृतजिनः अन्येन जिननायकोपरिविकृतच्छत्रः अन्याभ्यां करचा-| ललितप्रकीर्णकः अन्येन च करकिशलयकलितकुलिशः पुरः प्रगन्ता सुरगिरिशिखरोपरिवर्तिपण्डकवनं गखा तद्व्यवस्थिताति पाण्डकम्बलाभिधानशिलासिंहासने पूर्वाभिमुखो निषण्णः, एवमन्ये इंशानादयो वैमानिकेन्द्रायमरादयो भवनपतीन्द्रा काला-1 दयो व्यन्तरेन्द्राः चन्द्रसूर्यादयो ज्योतिष्काः सपरिवाराः मन्दरेऽवतेरुः, ततश्वाच्युतदेवराजो जिनाभिषेकमत्याऽऽभियोगि|कदेवानादिदेश, ते चाटसहस्रं सौवणिकानां कलशानामेवं रूप्यमयानां मणिमयानां एवं द्विकसंयोगवतां त्रीण्यष्टसहस्राणि । त्रिसंयोगवतामष्टसहस्रं भोमेयकानां च तथाऽटसहसं चन्दनकलशानां भृङ्गाराणामादर्शानां स्थालानामन्येषां च विविधानामभियेकोपयोगिनां भाजनानामष्टसहसं २ विचक्रुः, तेश्च कलशादिभाजनैः क्षीरोदस्य समुद्रस्य पुष्करोदस्य च मागधादीनां च तीथानां गङ्गादीनां च महानदीना पद्मादीनां महादानामुदकमुत्पलादीनि मृक्तिकां च हिमवदादीनां च वर्षधराणां वत्तेल विजयाद्धानां च पर्वतानां भद्रशालादीनां च वनानां पुष्पाणि गन्धान सर्वोषधीः तूबराणि सिद्धार्थकान् गोशीर्षचन्दनं चानिन्युः, ततोऽसा-18 वच्युतदेवराजोऽनेकैः सामानिकदेवसहस्रैः सह जिनपतिमभिषिषेच, अभिषेके च वर्तमाने इन्द्रादयो देवाः छत्रचामरकल दीप अनुक्रम [८२-८५] भगवती मल्लिजिनस्य जन्मन: वर्णनं ~258~ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६६,६७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६६-६७] दीप अनुक्रम [८२-८५] ज्ञाताधर्म S|शधपकडच्छकपुष्पगन्धापनेकविधाभिषेकद्रव्यव्यग्रहस्ताः वज्रशूलाधनेकायुधसम्बन्धवन्धुरपाणयः आनन्दजललवप्लुतगण्ड- मलीज्ञाकथाङ्गम्. स्थलाः ललाटपट्टयटितकरसम्पुटा जयजयारवमुखरितदिगन्तराः प्रमोदमदिरामन्दमदवशविरचित विविधचेष्टाः पर्युपासांचक्रिरे, ते जन्मम तथा केचित् चतुर्विधं वाद्य वादयामासुः केचिच्चतुर्विधं गेयं परिजगुः केचिचातुर्विध नृत्तं ननृतुः केचिचतुर्विधमभिनयमभिनिन्युः होत्सवः ॥१२८॥ केचिद् द्वात्रिंशद्विधं नाव्यविधिमुपदर्शयामासुरिति, ततो गन्धकापायिकया गावाण्यलूपयन् , ततश्चाच्युतेन्द्रो मुकुटादिभिर्जि- म.६६ | नमलञ्चकार, ततो जिनपतेः पुरतो रजतमयतन्दुरुर्दपणादीन्यष्टाष्टमङ्गलकान्यालिलेख पाटलादिबहलपरिमलकलितकुसुमनिकरं स्वमूर्तिव्यकिरत् शुभसुरभिगन्धवन्धुरं धूपं परिददाह, अष्टोचरेण वृत्तशतेन च सन्तुष्टस्तुष्टाव-नमोऽस्तु ते सिद्ध ! बुद्ध! नीरजः कारणं सू. श्रमण ! समाहित समस्त समयोगिन् शल्यकर्तन ! निर्भय! नीरागद्वेष ! निर्मम ! निःशल्य ! निःसङ्गमानमूरणागण्यगुणरत। शीलसागर ! अनन्ताप्रमेयभव्यधर्मवरचतुरन्तचक्रवर्तिन् ! नमोऽस्तु तेऽहेते नमोऽस्तु ते भगवते इत्यभिधाय वन्दते स्म, ततो नातिदरे खितः पर्युपासांचके, एवं सर्वेऽप्यभिषिषेचुः, केवलं सर्वान्ते शक्रोऽभिषिक्तवान् , तदभिषेकावसरे च ईशानः शक्रव दात्मानं पञ्चधा विधाय जिनस्योत्सङ्गधरणादिक्रियामकरोत, ततः शक्रो जिनस्स चतुर्दिशि चतुरो धवलवृपभान् विचकार, तेषां च शृङ्गाग्रेभ्योऽष्टौ तोयधारा युगपद्विनिर्ययुः वेगेन च वियति समुत्पेतुः एकत्र च मिलन्ति स भगवतो मूर्द्धनि च निपेतुः, शेषमच्युतेन्द्रवदसावपि चकार, ततोऽसौ पुनर्विहितपञ्चप्रकारात्मा तथैव गृहीतजिनश्चतुर्निकायदेवपरिवृतः तूर्यनि-II नादापूरिताम्बरतलो जिननायकं जिनजनन्याः समीपे स्थापयामास, जिनप्रतिविम्बमवस्खापं च प्रतिसञ्जहार, क्षोमयुगलं कुण्डयुगलं ॥१२८॥ |च तीर्थकरस्योच्छीर्षकमूले स्थापयति स्म श्रीदामगण्डकं च नानामणिमयं जिनस्सोल्लोके दृष्टिनिपातनिमिचमतिरमणीयं निचिक्षेप, भगवती मल्लिजिनस्य जन्मन: वर्णनं ~ 259~ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६६,६७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६६-६७] दीप अनुक्रम [८२-८५] ततः शक्रो वैश्रमणमवादी-भो देवानुप्रिय! द्वात्रिंशद्धिरण्यकोटीत्रिंशत्सुवर्णकोटीय जिनजन्मभवने यथा संहरेति, तदादेशाच जृम्भका देवास्तथैव चकुः शक्रः पुनर्देवैर्जिनजन्मनगर्या त्रिकादिष्वेवं घोषणं कारयामास, यथा-हन्त ! भुवनवास्थादिदेवाः शृण्वन्तु भवन्तो यथा यो जिने जिनजनन्यां वाऽशुभं मनः सम्प्रधारयति तस्यार्जकमारीव सप्तधा मूद्धा स्फुटतु, ततो देवा नन्दीश्वरे महिमानं विदधुः, स्वस्थानानि च जम्मुरिति । मालायै हितं तत्र वा साध्विति माल्यं-कुसुमं तद्गतदोहदपूर्वकंजन्म-18 त्वेनान्वर्थतः शब्दतस्तु निपातनात् मल्लीति नाम कृतं, यस्तु स्त्रीखेपि तस्याईजिनस्तीर्थकर इत्यादिशब्दव्यपदेशः सोईदादिशब्दानां बाहुल्येन पुंस्खेव प्रवृत्तिदर्शनादिति, 'यथा महाबल'इति भगवत्यां महावलोऽभिहित इहेब वा यथा मेघकुमार इति,R 'सा बहुए भगवती'त्यादि गाथाद्वयं आवश्यकनियुक्तिसम्बन्धि ऋषभमहावीरवर्णकरूपं बहुविशेषणसाधयोदिहाधीतं न पुनर्गाथाद्वयोक्तानि विशेषणानि सर्वाणि मल्लिजिनस्य घटन्त एव, तच दर्शयिष्यामः, ततः सा वर्द्धते-वृद्धिमुपगच्छति स भगवती ऐश्वर्यादिगुणयोगात् देवलोकाच्च्युता अनुत्तरविमानावतीर्णखात् अनुपमश्रीका-निरुपमानशोभा दासीदासपरिवृतेति प्रतीतं, परिकीर्णा-परिकरिता पीठमर्दै:-चयस्वैरिति, एतत्किल प्रायः स्त्रीणामसम्भवि, वयस्विकानामेव तासां सम्भवात् , अथवा अलौ-15 किकचरितखेन पीठमईसम्भयेऽपि निर्दपणलेन भगवत्या नेदं विशेषणं न सम्भवति,असितशिरोजा-कालकुन्तला सुनयना-सुलोचना विम्बोष्ठी-पकगोल्हाभिधानफलविशेषाकारोष्ठी धवलदन्तपट्टिका पाठान्तरेण धवलदन्तश्रेणिका वरकमलगर्भगौरीत्येतद्विशे. पणं न सम्भवति तस्याः कमलगर्भस्य सुवर्णवर्णवात् भगवत्याश्च मयाः प्रियङ्गवर्णवेन श्यामवाद्, उक्तं च "पउमाभ% वासुपुज्जा रचा ससिषुप्फदंत ससिगोरा । सुब्बयनेमी काला पासो मल्ली पियंगाभा ॥१॥" इति, अथवा वरकमलस-प्रधान | भगवती मल्लिजिनस्य जन्मन: वर्णनं ~260~ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [६६-६७] दीप अनुक्रम [८२-८५] श्रुतस्कन्धः [१] अध्ययनं [८], मूलं [ ६६,६७ ] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र -६ (मूलं + वृत्ति:) ज्ञाताधर्म-दरिणस्य गर्म इव गर्भो जठरसम्भूतत्वसाधर्म्यात् वरकमलगर्भः कस्तूरिका तद्वद् गौरी - अवदाता वरकमलगर्भगौरी श्यामवर्णखात्, कस्तूरिकाया इव श्यामेत्यर्थः, पाठान्तरेण वरकमलगर्भवर्णा, तत्रापि श्यामवर्णेत्यर्थः, वाचनान्तरेण वरकमलकोमलाङ्गीत्यनवद्यमेव, फुलं विकसितं यदुत्पलं- नीलोत्पलादि तस्य यो गन्धस्तद्वन्निःश्वासो गन्धसाधर्म्याद्यस्याः सा तथा सुरभिनिःश्वासेत्यर्थः, पाठान्तरेण 'पउप्पलुप्पलगंधनीसास'ति तत्र पद्मं - शतपत्रादि गन्धद्रव्यविशेषो वा उत्पलंनीलोत्पलमित्यादि उत्पलकुष्ठं च गन्धद्रव्यविशेष इति 'विदेहरायवरकन्न'ति विदेहा- मिथिलानगरीजनपदस्तस्था राजा कुम्भकस्तम्य वरकन्या या सा तथा, 'उकिडा उकिडसरीर ति रूपादिभिरुत्कृष्टा, किमुक्तं भवति ? - उत्कृष्टशरीरेति, 'देसूणवाससयजाय'त्ति देशोनं वर्षशतं जाताया यस्याः सा तथा, 'मोहणघरयं'ति सम्मोहोत्पादकं गृहं रतिगृहं वा 'गन्भचरण 'ति मोहनगृहस्य गर्भभूतानि वासभवनानीति केचित् 'जालघरगं'ति दार्यादिमयजालकप्रायकु यत्र मध्यव्यवस्थितं वस्तु बहिः स्थितैर्दृश्यते, 'से जहा नामए अहिमडे इबत्ति स गन्धो यथेति दृष्टान्तोपन्यासे यादृश इत्यर्थः नामए इत्यलङ्कारे अहिमृते-मृतसर्पे सर्पकलेवरस्य गन्ध इत्यर्थः अथवा अहिमृतं सर्पकलेवरं तस्य यो गन्धः सोऽप्युपचारात् तदेव, इतिरुपदर्शने वा विकल्पे अथवा 'से जह'ति उदाहरणोपन्यासोपक्षेपार्थः, 'अहिमडे इव ेति अहिमृतकस्येव अहिमृतकमिव वेति यावत्करणादिदं दृश्ये - 'गोमडेइ वा सुणगमडे वा दीवगमडेइ वा मज्जारमडेह वा मणुस्समडेह वा महिसमडेड़ वा मूसगमडेह वा आसमडेइ वा हत्थिमडे वा सीहमडे वा वग्धमडेति वा विगमडे वा दीवियमडेड़ बा,' द्वीपिक:-चित्रकः, किंभूते अहिकडेवरादौ किंभूतं वा तदित्याह--'मयकुहियविणद्वदुरभिवावण्णदृष्भिगंधे' मृतं कथाङ्गम्. ॥१२९॥ Education International पुर्वभवस्य मित्राणां प्रतिबोधार्थे मल्लिजिनस्य युक्तिः For Panalyse On ~261~ ८मलीज्ञा ते जन्ममहोत्सवः सू. ६६ स्वमूर्तिकारणं स्. ६७ ॥१२९॥ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६६,६७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६६-६७] दीप अनुक्रम [८२-८५] जीवविमुक्तमात्रं सत् यत् कुथितं-कोथमुपगतं तत् मृतकुथितमीषदुर्गन्धमित्यर्थः, तथा विनष्टं-उच्छ्नखादिभिर्विकारः स्वरूपादपेतं सत् यदुरभि-तीव्रतरदुष्टगन्धोपेतं तत्तथा व्यापन-शकुनिभृगालादिभिर्भक्षणाद्विरूपां विभत्सामवस्था प्राप्तं सघद् दुरभिगन्धतीब्रतमाशुभगन्धं तत्तथा, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः, तत्र तदेव वा 'किमिजालाउलसंसत्ते' कृमिजालैराकुलैःव्याकुलैः आकुलं वा सङ्कीर्ण यथा भवतीत्येवं संसक्तं सम्बद्धं यत्र तत्था, तत्र तदेव वा 'असुइविलीणविगयविभच्छदरिसणिज्जे' अशुचि-अपवित्रमस्पृश्यलात् विलीनं-जुगुप्सासमुत्पादकखात् विकृत-विकारवचात् बीभत्सं द्रष्टुमयोग्यता एवंभूतं दृश्यते इति दर्शनीयं, ततः कर्मधारयः, तत्र तदेव वा 'भवेतारूवे सिया' यारशः सादिकलेवरे गन्धो भवेत् | यादर्श वा सादिकलेवरं गन्धेन भवेत् एतदूपस्तद्रूपो वा स्वाद्-भवेत्तस्स भक्तकवलस्य मन्ध इति सूत्रकारस विकल्पोल्लेखः 'नो इणढे समझे' नायमर्थः समर्थ:-सङ्गत इत्ययं तु तस्यैव निर्णयः, निणीतमेव गन्धखरूपमाह-'एत्तो अणिहतराए| चेव' इत:-अहिकडेवरादिगन्धात् सकाशादनिष्टतर एव-अभिलापस्याविषय एव अकान्तरका-अकमनीयतरखरूपः अप्रिय| तरः-अप्रीत्युत्पादकलेन अमनोजतरका-कथयाऽप्यनिष्टलात् अमनोजतरश्चिन्तयाऽपि मनसोऽनभिगम्य इत्यर्थः । तेणं कालेणं २ कोसला नाम जणवए, तस्थ णं सागेए नाम नयरे तस्लणं उत्तरपुरच्छिमे दिसीमाए, एत्थ णं महं एगे णागघरए होस्था दिवे सच्चे सचोवाए संनिहियपाडिहरे, तत्थ णं नगरे पडिवुद्धिनाम इक्खागुराया परिवसति पउमावती देवी सुवुद्धी अमचे सामदंड, तते णं पउमावतीए अन्नया कयाई पुर्वभवस्य मित्राणां प्रतिबोधार्थे मल्लिजिनस्य युक्ति: ~2624 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१] ............--- अध्ययनं [८], . ..- मलं [६८1 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: माताधम प्रत ८मल्लीज्ञाते मिथिलाया प्रतिबुद्धिनपस्यागमन सत्राक [६८) दीप नागजन्नए यावि होत्या, तते णं सा पउमावती नागजन्नमुवट्टियं जाणित्ता जेणेव पडिवुद्धिकरयल एवं वदासी-एवं खलु सामी! मम कल्लं नागजन्नए यावि भविस्सति तं इच्छामि णं सामी ! तुम्भेहि अन्भगुन्नाया समाणी नागजन्नयं गमित्तए, तुन्भेऽविणं सामी ! मम नागजनयंसि समोसरह, तते णं पडिबुद्धी पउमावतीए देवीए एयमढे पडिसुणेति, तते णं पउमावती पडिबुद्धिणा रन्ना अन्भणुन्नाया हट्ट कोटुंबिय० सद्दावेति २ एवं वदासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! मम कल्लं नागजपणए भविस्सति तं तुम्भे मालागारे सद्दावेह २ एवं बदह-एवं खलु पउमावईए देवीए कलं नागजन्नए भविस्सइ तं तुम्भे गं देवाणुप्पिया! जलथलय० दसद्धवन्नं मलं णागधरयंसि साहरह एगं च णं महं सिरिदामगंडं उवणेह, ततेणं जलथलय दसद्धवन्नेणं मल्लेणं णाणाविहभत्तिसुचिरइयं हंसमियमउरकोंचसारसचळवायमयणसालकोइलकुलोववेयं ईहामियजावभत्तिचित्तं महग्धं महारिहं विपुलं पुष्फमंडवं विरएह, तस्स णं यहुमज्झदेसभाए एगं महं सिरिदामगंड जाव गंधद्धणि मुयंतं उल्लोयंसि ओलंबेह २ पउमावतिं देवि पडिवालेमाणा २ चिट्ठह, तते णं ते कोडुंबिया जाव चिट्ठति, तते गं सा पउमावती देवी कल्लं कोडंपिए एवं वदासी-खिप्पामेव भो देवाणप्पिया! सागेयं नगरं सम्भितरबाहिरियं आसितसम्मज्जितोवलितं जाव पञ्चप्पिणंति, तते णं सा पउमावती दोचपि कोडेविय०खिप्पामेव लहुकरणजुत्तं जाव जुत्तामेव उवट्ठवेह, तते गं तेऽवि तहेव उघडावेंति, तते णं सा पउमावती अंतो अंतेउरंसि पहाया जाव अनुक्रम [८६] ॥१३॥ प्रथम-मित्र प्रतिबुध्धिः, तस्य वर्णनं ~263~ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ...........--- अध्ययनं [८], .... ... ..- मलं [६८1 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सत्राक [६८) दीप धम्मियं जाणं दूरूढा, तए णं सा पउमावई नियगपरिवालसंपरिबुडा सागेयं नगरं मझमोणं णिजति २ जेणेव पुक्खरणी तेणेव उवागच्छति २ पुक्खरणिं ओगाहह २ जलमजणं जाच परमसहभूपा उल्लपडसाडया जाति तत्थ जप्पलातिं जाव गेण्हति २ जेणेव नागघरए तेणेव पहारेत्य गमणाए, तते णं पउमावतीए दासचेडीओ बहूओ पुष्फपडलगहत्थगयाओ धूवकटुच्छुगहधगयाओ पिट्ठतो समणुगच्छंति, तते णं पउमावती सविड़िए जेणेच नागघरे तेणेव उवागच्छति २ नागघरयं अणुपविसति २ लोमहत्वगं जाय धूवं डहति २ पडिबुद्धिं पडिवालेमाणी २ चिट्ठति, तते पडिवडी पहाए हस्थिखंधवरगते सकोरंट जाव सेयवरचामराहिं हयगयरहजोहमयाभडगचडकरपहकरेहिं साकेयनगरं० णिग्गच्छति २ जेणेव नागधरे तेणेव उवागच्छति २ हस्थिखंधाओ पचोरुहति २ आलोए पणामं करेइ २ पुष्पमंडवं अणुपविसति २पासतितं एग महं सिरिदामगड, तएणं पडिबुद्धीतं सिरिदामगंड सुहरं कालं निरिक्खइ २ तंसि सिरिदामगंडसि जायविम्हए सुबुद्धिं अमचं एवं बयासी-तुमनं देवाणुप्पिया! मम दोचेणं बहूणि गामागर जाव सन्निवेसाई आहिंडसि बहूणि रायईसर जाव गिहार्ति अणुपविससि तं अस्थि णं तुमे कहिंचि एरिसए सिरिदामगंडे दिट्टपुचे जारिसए णं इमे पउमावतीए देवीए सिरिदामगंडे ?, तते णं सुवुद्धी पडिबुद्धिं रायं एवं वदासी-एवं खलु सामी! अहं अन्नया कयाई तुभं दोघेणं मिहिलं रायहाणि गते तत्थ णंमए कुंभगस्स रन्नोधूयाए पमावईए देवीए अत्तयाए मल्लीए संवच्छ अनुक्रम [८६] 262 प्रथम-मित्र प्रतिबुध्धिः, तस्य वर्णनं ~264~ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाङ्गम. ते मिधि प्रत ॥१३॥ सत्राका [६८ दीप अनुक्रम रपडिलेहणगंसि दिये सिरिदामगंडे विट्ठपुचे तस्स णं सिरिदामगंडस्स इमे पउमावतीए सिरिदामगंडे |मलीज्ञासयसहस्सतिम कलंण अग्धति, तते ण पडिवद्धी सुदि अमचं एवं वदासी-केरिसिया णं देवाणुप्पिया! मल्ली विदेहरायवरकन्ना जस्स णं संवच्छरपडिलेहणयंसि सिरिदामगंडस्स पउमावतीए लायां प्रदेवीए सिरिदामगंडे सयसहस्सतिमंपि कलं न अग्धति ?, तते णं सुबुद्धी पडिबुद्धिं इक्खागुरायं एवं तिबुद्धिनवदासी-विदेहरायवरकन्नगा सुपइट्ठियक्रमुन्नयचारुचरणा बन्नओ, तते णं पडिबुद्धी सुवुद्धिस्स अमञ्चस्स पस्यागमनं अंतिए सोचा णिसम्म सिरिदामगंडजणितहासे दयं सद्दावेइ २ एवं व०-गच्छाहि णं तुम देवाणुप्पिया! मिहिलं रायहार्णि तत्थ णं कुंभगस्स रन्नो ध्यं पभावतीए देवीए अत्तियं मल्लिं विदेहवररायकण्णगं मम भारियत्ताए बरेहि जतिविय णं सा सयं रजसुंका, तते णं से दूए पडिबुद्धिणा रन्ना एवं वुत्ते समाणे हद्द० पडिसुणेति २ जेणेव सए गिहे जेणेव चाउग्धंटे आसरहे तेणेव उवागच्छति २ चाउग्घंटे आसरह पडिकप्पावेति २ दुरुढे जाव हयगयमहयाभडचडगरेणं साएयाओ णिग्गच्छति २ जणव विदेहजणवए जेणेव मिहिला रायहाणी तेणेव पहारेत्थ गमणाए (सूत्रं ६८) 'नागघरएति उरगप्रतिमायुक्तं चैत्यं 'दिवे'त्ति प्रधानं 'सच्चे ति तदादेशानामवितथचात् , 'सच्चोवाए'त्ति सत्यावपातं सफ- लसेवमित्यर्थः 'संलिहियपाडिहेरेति सन्निहितं-विनिवेशितं प्रातिहार्य-प्रतीहारकर्म तथाविधव्यन्तरदेवेन यत्र तत्तथा देवा [८६] १३२॥ 26ee प्रथम-मित्र प्रतिबुध्धिः, तस्य वर्णनं ~265~ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ------------------ अध्ययनं [८], ------------------ मूलं [६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सत्राक [६८) धिष्ठितमित्यर्थः, 'नागजण्णए'चि नागपूजा नागोत्सव इत्यर्थः, 'सिरिदामगंड'मित्यादौ यावत्करणात् 'पाडलमल्लि' इत्यादिणको दृश्या, 'दोघेणं ति दौत्येन दूतकर्मणा, 'अस्थियाईति इह आइंशब्दो भाषायां 'संवच्छरपडिलेहणKiगंसित्ति जन्मदिनादारभ्य संवत्सरः प्रत्युपेक्ष्यते-एतावतिथः संवत्सरोऽध पूर्ण इत्येवं निरूप्यते महोत्सवपूर्वकं यत्र दिने| तत्संवत्सरप्रत्युपेक्षणकं, यत्र वर्ष वर्ष प्रति सङ्ख्याज्ञानार्थ ग्रन्धिबन्धः क्रियते यदिदानीं वर्षग्रन्थिरिति रूढं, तस्येत्यादेरयमर्थः-18 मल्लीश्रीदामकाण्डस्य पद्मावतीश्रीदामकाण्डं शतसहस्रतमामपि कलां-शोभाया अंशं नाति-न प्राप्नोति, कूर्मोन्नतचारुचरणा इत्यादिखीवर्णको जम्बूद्वीपप्रज्ञयादिप्रसिद्धो मल्लीविषये अध्येतव्यः, 'सिरिदामगंडजणियहासे'त्ति श्रीदामकाण्डेन | जनितो हर्षेः-प्रमोदोऽनुरागो यस्य स तथा, "अत्तियन्ति आत्मजां 'सयं रजसुंकत्ति खयं-आत्मना स्वरूपेण निरुपमचरिततयेतियावत् राज्यं शुल्क-मूल्यं यस्याः सा तथा, राज्यप्रात्येत्यर्थः, तथापि वृष्विति सम्बन्धः, 'चाउग्घंटेति चतस्रो घण्टाः पृष्ठतोऽग्रतः पार्वतश्च यस्य स तथा अश्वयुक्तो रथोऽश्वरथः 'पडिकप्पावेईचि सञ्जयति 'पहारेत्थ गमणा-18 एति प्रधारितवान् -विकल्पितवान् गमनाय-गमनार्थम् ।। तेणं कालेणं २ अंगानाम जणवए होत्था, तत्थ णं चंपानामे णयरी होत्या, तस्थ णं चंपाए नयरीए चंदच्छाए अंगराया होत्था, तत्थ णं चंपाए नयरीए अरहन्नगपामोक्खा बहवे संजत्ता णावावाणियगा परिवसंति अड्डा जाव अपरिभूया, सते णं से अरहन्नगे समणोवासए यावि होस्था अहिगयजीवाजीवे वन्नओ, तते णं तेसिं अरहन्नगपामोक्खाणं संजुत्ताणावावाणियगाणं अन्नया कयाइ एययओ दीप अनुक्रम [८६] अगच्छाय-नृपः, तस्य वर्णनं ~266~ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [६९,७०] दीप अनुक्रम [८७,८८] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] अध्ययनं [८], --- मूलं [ ६९,७०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्. ॥१३२॥ 30152392999999 Education Internation सहिआणं इमे एयारूवे मिहो कहासंलावे समुप्पज्जित्था - सेयं खलु अहं गणिमं धरिमं च मेजं च पारिच्छेनं च भंडगं गहाय लवणसमुद्दपोतवहणेण ओगाहित्तएत्तिकट्टु अन्नमन्नं एयम परिसुति २ गणिमं च ४ गेहति २ सगडिसागडियं च सर्जेति २ गणिमस्स ४ भंडगस्स सगडसागडियं भरेंति २ सोहसि तिहिकरणनक्खत्तमुत्तंसि विपुलं असण ४ उबक्खडावेंति मित्तणाइभोअणवेलाए भुंजावेंति जाव आपुच्छति २ सगडिसागडियं जोयंति २ चंपाए नयरीए मज्झमज्झेणं जेणेव गंभीरए पोयपहणे तेणेव उवा० २ सगडिसागडियं मोयंति २ पोयवहणं सर्जति २ गणिमस्स य जाव चविहस्स भंडगस्स भरति तंदुलाण य समितस्स य तेल्लयरस य गुलस्स य घयस्स य गोरसस्स य उदयरस य उदयभायणाण य ओसहाण य भेसज्जाण य तणस्स य कट्ठस्स य आवरणाण य पहरणाण य अन्नेसिं च बहू पोयवहणपाउरगाणं दद्वाणं पोतवहणं भरेंति, सोहणंसि तिहिकरणनखसमुहसंसि विपुलं असण ४ उवक्खडावेति २ मिश्रणातं आपुच्छति २ जेणेव पोतद्वाणे तेणेव उवागच्छति । तते णं तेसिं अरहन्नग जाव वाणियगाणं परियणो जाव तारिसेहिं वग्गूहिं अभिनंदता य अभिसंधुणमाणा य एवं वदासी-अज्ज ताय भाय माउल भाइणजे भगवता समुदेणं अनभिखिखमाणा २ चिरं जीवह भदं च भे पुणरवि लद्धट्ठे कयकले अणहसमग्गे नियगं घरं हवमागए पासामोतिकड ताहि सप्पिवासाहिं पप्पुयाहिं दिट्ठीहिं निरीक्खमाणा मुहुत्तमेतं संचिति तओ समाणिएसु अङ्गच्छाय-नृपः, तस्य वर्णनं For Parts Only ~267~ ८मलीज्ञा ते मिथिलायामङ्गच्छायनपागमः स्. ६९ ॥ १३२ ॥ ! Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ---------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६९,७०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६९,७०] SECRUGidों पुष्फवलिकम्मेसु दिनेसु सरसरत्तचंदणदएरपंचंगुलितलेसु अणुक्खितंसि धूवंसि पूतिएसु समुहवाएसु संसारियासु वलयबाहासु फसिएम सिएसु झयग्गेसु पडुप्पवाइएसु तूरेसु जइएसु सबसउणेसु गहिएसु रायवरसासणेसु महया उकिडिसीहणाय जाव रवेणं पक्खुभितमहासमुद्दरवभूयंपिव मेहाण करेमाणा एगदिसिं जाच वाणियगा णावं दुरूढा, ततो पुस्समाणवो बकमुदाहु-हं भो! सवेसिमवि अत्थसिद्धी उबविताई कल्लाणाई पडिहयाति सपपाबाई जुत्तो पूसो विजओ मुहुत्तो अयं देसकालो, ततो पुस्समाणएणं बके मुदाहिए हहतुढे कुकिछधारकन्नधारगन्भिजसंजत्ताणावावाणियगा चाचारिंसु तं नावं पुनुच्छंग पुण्णमुहिं बंधणेहितो मुंचंति, तते णं सा नावा विमुफबंधणा पवणवलसमाहया उस्सियसिया विततपक्खा इव गरुडजुबई गंगासलिलतिक्खसोपवेगेहि संखुब्भमाणी २ उम्मीतरंगमालासहस्साई समतिच्छमाणी २ कावहिं अहोरत्तेहिं लवणसमुई अणेगार्ति जोयणसतातिं ओगाढा, तते णं तेसिं अरहन्नगपामोक्खाणं संजुत्तानावावाणियगाणं लवणसमुई अणेगाई जोयणसयाई ओगाढाणं समाणाणं बहूति उप्पातियसतार्ति पाउन्भूयाई, तंजहा-अकाले गजिते अकाले विज्जुते अकाले थणियसरे, अभिक्खणं २ आगासे देवताओ नचंति, एगं च णं महं पिसायरूवं पासंति, तालजंघं दिवं गयाहिं बाहाहि मसिमसगमहिसकालगं भरियमेहचन्नं लंबोदृ निग्गयग्गदंतं निल्लालियजमलजुयलजीहं आऊसियवयणगंडदेसं चीणचिपिटनासियं विगयभुग्गभग्गभुमयं दीप अनुक्रम [८७,८८] अगच्छाय-नृपः, तस्य वर्णनं ~268~ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययन [८], ----------------- मूलं [६९,७०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. प्रत सूत्रांक [६९,७०] በደህ एयरब्रह 355 दीप अनुक्रम [८७,८८] स्काजोपगविसमक्खुराग उसासणणं विसालवच्छ विसालकुञ्छि पलंकान्छि पहसियपालिचायाधिक मङ्ख्यध्यगतं पणनमाणं अफोदतं अभिवयंलं अभिमजतं बहुसो २ अवहासे विणिम्भुयंतं नीलुषलगवला बने चन्द्रलिपञ्जयसिकुसुमागास खुरधार असि गहाया अभिमुहमाषयमाणं पासंति। तते पण ते अरहणम पच्छायनृपबाजा संजुत्ताणायावाणियमा एगचणं महं तालपिसायं पासंति तालजंघ दिर्घ गयाहिं बाहास्टि स्थागमः सिरं भमरणिगरषरमासरासिमहिसकालगं मरियमेहच मुप्पणहं फालसरिसजीहं लंपोर्ट अवलवा अरहन्नकअसिलिट्ठतिक्वधिरपीणकुबिलदाढोषगूढवयणं विकोसियधारासिजुयलसमसरिसतणुयचंचलगलंतरस- वृत्तं च सू. लोलचवलफुरुफुरतमिल्लालियागजीहं अवयच्छियमहल्लविगयबीभत्सलालपगलंतरत्ततालुयं हिंगुलुप ७० सगम्भकंदरबिलंब अंजणगिरिस्स अग्गिजालुग्गिलंतवयणं आऊसियअक्खचम्मउगंडदेख चीणचि. पिडबंकभग्गणासं रोसागयधम्मधर्मतमारुतनिद्रवरफरुसमुसिरं ओमुग्गणासियपुडं पाहुम्मडरइयभीसणमुहं उद्यमुहकन्नसकुलियमहंतविगयलोमसंखालगलबंतचलियकन्नं पिंगलदिप्पंतप्लोयर्ण भिडितडियनिडालं नरसिरमालपरिणवचिद्धं विचित्तगोणससुबद्धपरिकर अपहोलंतपुप्फुयायंतसप्पविच्छुय ॥१३॥ गोधुंदरनउलसरडविरक्ष्यविचिसयच्छमालियामं भोगकूरकण्हसप्पधमधमेंतलंबतकन्नपूरं मजारसियाललइयखंधं दिलघुधुयंतव्यकयकुंतलसिरं घंटारवेणभीमं भयंकरं कायरजणहिययफोडणं दिसमदृष्टहासं विर्णिम्मुयंतं क्सारुहिरपूपमंसमलमलिणपोबडतणुं उत्तासणयं विसालवच्छ पेच्छता भित्रणहमुह aeraceae अगच्छाय-नृपः, तस्य वर्णनं ~ 269~ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ---------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६९,७०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६९,७०] दीप अनुक्रम [८७,८८] जयणकवरवग्यचित्तकत्तीगिवसणं सरसरुहिरमयचम्म विततकसवियवानुजबलं वाहिय स्वरमा असिणिअणिढदित्सअसुभअप्पिय [अमणुन] अक्तवग्गूहि य सज्जयंतं पासंतिलालपिसायरूवं एजमाणं पासंति २ भीया संजायभया अन्नमन्नस्स कार्य समतुरंमेमाणा २ करणं इंदाण य खंदाण य रुद्दसिक्वेसमणणागाणं भूयाण य जक्खाण य अजकोहकिरियाण य बहणि उपाइयसयागि ओवातियमाणा चिट्ठति, तए णं से अरहनाए समणोवासए तं दिवं पिसायरूवं एजमाणं पासति २ अभीते अतल्थे अचलिए असंभंते अणाउले अणुविग्गे अभिन्नमुहरागणयाचो अदीणषिमणमाणसे पोयवहणस्स एयदेसंसि वत्थंतेणं भूमि पमजति २ठाणं ठाइ २ करयलओ एवं वयासि-बमोऽत्धु णं अरहताण जाव संपत्ताणं, जइ णं अहं एत्तो उवसग्गातो मुंचामि तो मे कप्पत्ति पारिसए अहणं एत्तो उवसग्गाओ ण मुंचामि तो मे तहा पञ्चक्खाएयवेत्तिकटु सागारं भत्तं पचखाति, तते से पिसापरूवे जेणेच अरहन्नए समणोवासए तेणेव उवा०२ अरहन्नगं एवं वदासी-भो! अरहलगा अपत्थियपस्थिया जाव परिवजिया णो खलु कप्पति तव सीलवयगुणवेरमणपचक्खाणे पोसहोववासाति चालित्तए वा एवं खोभेत्तए वा खंडित्तए का भंजित्तए वा उज्झित्तए वा परिचइत्तए वा, तं जति णं तुम सीलवयं जाव ण परिचयसि तो ते अहं एयं पोतवहणं दोहिं अंगुलियाहिं गेण्हामि २ सत्तद्रुतलप्पमाणमेत्ताति उडुं वेहासं उबिहामि२ अंतोजलंसि णिच्छोलेमि जेणं तुमं अदृदुहवसहे असमाहिपत्ते अकाले चेव जीवि sekseesese अगच्छाय-नृपः, तस्य वर्णनं ~270~ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [६९,७०] दीप अनुक्रम [८७,८८] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] मूलं [ ६९,७०] अध्ययनं [८], --- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६ ] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥१३४॥ Education Internationa याओ ववरोविज्जसि, तते णं से अरहनते समणोवासए तं देवं मणसा चैव एवं बदासी- अहं णं देवा ! अरहन्नए णामं समणोवासए अहिगयजीवाजीवे नो खलु अहं सक्का केणइ देवेण वा जाव निग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए वा खोभेत्तए वा विपरिणामेत्तए वा तुमं णं जा सद्वा तं करेहित्तिकट्टु अभी जाव अभिन्नमुहरागणयणवन्ने अदीणविमणमाणसे निचले निष्फंदे तुसिणी धम्मज्झाणोवगते विहरति, तए णं से दिवे पिसायरूवे अरहन्नगं समणोवासगं दोचंपि तच्चपि एवं वदासीहं भो अरहना !• अदीणविमणमाणसे निचले निष्फंदे तुसिणीए धम्मज्झाणोवगए विहरति, तते णं से दिवे पिसायचे अरहन्नगं धम्मज्झाणोवगयं पासति २ पासित्ता बलियतरागं आसुरुते तं पोयवहृणं दोहिं अंगुलियाहिं गिण्हत २ सत्तद्वतलाई जाव अरहन्नगं एवं वदासी-हं भो अरहन्नगा !- अप्पथियपत्थिया णो खलु कप्पति तव सीलवय तहेब जाव धम्मज्झाणोवगए विहरति, तते णं से पिसारूवे अरहन्नगं जाहे नो संचाएर निग्गंथाओ० चालित्तए वा० ताहे उवसंते जाव निधिने तं पोयवहणं सणियं २ उबरिं जलस्स उवेति २ तं दिवं पिसायरूवं पडिसाहरइ २ दिवं देवरूवं विउ २ अंतलिक्खपवित्रे सखिखिणियाहं जाब परिहिते अन्नगं स० एवं वपासी-हं भो ! अरहन्नगा! धन्नोऽसि णं तुमं देवाणुप्पिया! जाव जीवियफले जस्स णं तव निग्गंथे पावयणे इमेयाख्वा पडिवत्ती लद्वा पत्ता अभिसमन्नागया, एवं खलु देवाणुप्पिया ! सके देविंदे देवराया सोहम्मे कप्पे सोहम्मवसि अङ्गच्छाय-नृपः, तस्य वर्णनं For Parts Only ~271~ ८ मध्यध्य9) यने चन्द्र19) च्छायनुपस्यागमः अरहक्षकवृत्तं च सू. ७० ॥१३४॥ wor Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [६९,७०] दीप अनुक्रम [८७,८८] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] अध्ययनं [८], --- मूलं [ ६९,७०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Eucation Internation विमा सभाए सुम्मा बहूणं देवाणं मज्झगते मया सद्देणं आतिक्खति ४ एवं खलु जंबूद्दीवेरमारहे बासे चंपाए नगरीए अरहन्नए सम० अहिगयजीवाजीवे नो खलु सका केणति देवेण वा दाणवेण वाणिग्गंथाओं पावयणाओ चालितए वा जाव विपरिणामेत्तए वा तते णं अहं देषाणु० 1 सकस्स णो एयमहं सहहामि० तते णं मम इमेयारूवे अन्भत्थिए ५ गच्छामि णं अरहन्नयस्स अंतियं पाउन्भवामि जाणामि ताव अहं अरहनगं किं पियधम्मे णो पियधम्मे ? दढधम्मे नो दधम्मे ? सीलवयगुणे किं चालेति जाब परिचयति णो परिपञ्चयतित्तिकडु, एवं संपेहेमि २ ओहिं पजामि २ देवाणु० ! ओहिणा आभोमि २ उत्तरपुरच्छिमं २ उत्तरविउधियं० ताए उधिट्ठाए जेणेव समुद्दे जेणेव देवाणुपिया तेणेव उवागच्छामि २ देवाणु उवसग्गं करेमि, नो चेव णं देवाणुप्पिया भीया वा०, तं जण्ण सक्के देविंदे देवराया वदति सचे णं एसमट्ठे तं दिट्ठे णं देवाणुप्पियाणं इड्डी जुई जसे जाव परकमे लदे पत्ते अभिसमन्नागए तं खामेमि णं देवाणु० ! खमंतु मरहंतु णं देवाणुप्पिया ! णाइभुजो २ एवं - करणयापत्तिकड पंजलिउडे पायवडिए एयमहं विणएणं भुजो २ खामेइ २ अरहन्नयस्स दुबे कुंडलजुले दलपति २ जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव पडिगए (सूत्रं ६९) तते णं से अरहन्नए निरुवसग्गमितिकड पडिमं पारेति, तए णं ते अरहन्नगपामोक्खा जाब वाणियगा दक्खिणाणुकूलेणं चापणं जेणेव गंभीरए पोयपणे तेणेव उवागच्छंति २ पोयं लंबेति २ सगडसागडं सर्व्वेति २ तं गणिमं ४ सगडि० अङ्गच्छाय-नृपः, तस्य वर्णनं For Penal Use On ~272~ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ---------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६९,७०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: टमध्यध्य जाताधर्मकथानम्. यने चन्द्र प्रत सूत्रांक [६९,७०] ॥१३५॥ च्छायनृपस्थागमः अरहनक वृत्तं च सू दीप अनुक्रम [८७,८८] संकामेति २ सगडी. जोएंति २ जेणेव मिहिला तेणेव उवा २ मिहिलाए रायहाणीए बहिया अग्गुज्जाणंसि सगडीसगडं मोएइ २ मिहिलाए रायहाणीए तं महत्थं महम्यं महरिहं विउलं रायरिह पाहुडं कुंडलजुपलं च गेण्हंति २ अणुपषिसंति २ जेणेव कुंभए तेणेव उवा०२ करयल० तं महत्वं विषं कुंडलजुयलं उवणेति २ तते गं कुंभए तेसिं संजसगाणं जाव पहिच्छाइ २ मल्ली विदेहवररायक सहावेतिरतं दिवं कुंडलजुपलं मल्लीए विदेहवररायकन्नगाए पिणद्धति २ पडिविसबेति, लते णं से कुंभए राया ते अरहनगपामोक्खे जाव वाणियगे विपुलेणं असणवस्थगंध जाव खस्सुणी पियरति २ रायमग्गमोगादेइ बाबासे वियरति पडिविसजेति, लते णं अरहन्नगसंजत्तगा जेणेकरापमम्ममोगाडे आवासे तेणेव उबागच्छति र अंडक्वहरणं करेंति २ पडिभंडं गेहति २ समडी भरेंति जेणेब बंभी रए पोयपट्टणे तेषेव २ पोतवहणं सशति २ भंडं संकामेति दक्षिणाणु० जेणेव चंपा पोयटाणे तेणेव पोपं लंबेतिर सगडी सति २ तं गणिम ४ सगही संकामेति र जाक महत्थं पाहुडं दिवं च कुंडलजुयल मेण्हंति २जेणेक चंदच्छाए अंगराया तेणेव उवा तं महत्थं जाव उवणेति, लते णं चंदगाए अंपराया तं विश्वं महत्थं च कुंडलजुयलं पद्धिच्छति २ ते अरहन्नमपामोक्खे एवं वदासी-तुम्भे गं देवा! यहूणि मामामार जाब आहिंडह लवणसमुई च अभिक्खणं २पोयवहणेहिं ओगाहेह गाहहतं अस्थियाईभे केइ कहिंचि अच्छेरए विद्वपुबे, तसे णं से बरहापा ॥१३५॥ अगच्छाय-नृपः, तस्य वर्णनं ~273~ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [६९, ७०] दीप अनुक्रम [८७,८८] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [८], मूलं [ ६९,७०] श्रुतस्कन्ध: [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः arrer jari अंगराय एवं क्वासी एवं सतु सम्मी ! अम्हे इहेब पाए क्यरीए अरपावह संजता वावाणियमा परिवसामो तते णं अम्हे अन्नया कयाई गधिमं च ४ तब अहीणमतिरितं जव कुंभमस्स रनो उवणेमो, तते यं से कुंभए मल्लीए विदेहरायवरकझाए तं दिवं कुंडलजुयलं पिणद्वेति २ पडिसिज्जेति तं एस णं सामी ! अम्हेहिं कुंभरायभक्ांसि मल्ली किदेहे अच्छेर दिट्ठे तं नो खलु अन्ना कावि तारिसिया देवकन्ना वा जाव जारिसिया पणं मल्लीविदेहा, तते जं चंदच्छा ते अरहमपामोक्ले सकारेति सम्माचेति २ पडिक्सोति तले चंदच्छा - गणिग्रहासे दूतं सहावेति जाव जहविय णं सा सयं रजसुका, तते णं ते दूते हट्ठे जाव पहारेत्थ नयगाए २ (सूत्रं ७०) 'संजत्ताणावावाणियगा' सहता यात्रा- देशान्तरगमनं संत्रा तत्प्रादा नौवाणिजकाः- पोतवणिजः संवात्रानीवाणिजकाः 'अरहण्णगे समणोकासमे आणि होत्थति न केवलमाढ्यादिगुणयुक्तः श्रमणोपासकवाप्यभूत्, 'गणिमं चेत्यादि, मणिमं-नालिकेरपूगीफलादि यत् गणितं सत् व्यवहारे प्रविशति, परिमं-तुलाधृतं सत् व्यवहियते, मेयंयत्सेतिकापल्यादिना मीयते, परिच्छेधं यद् गुणतः परिच्छेद्यते परीक्ष्यते यत्रमण्यादि, 'समियस्स यत्ति कणिकायाश्र 'ओसहाणं ति त्रिकटुकादीनां 'मेसज्जाण य'ति पध्यानामाहारविशेषाणां अथवा ओषधानां - एकद्रव्यरूपाणां भेषजानांद्रव्यसंयोगरूपाणां आवरणानां - अङ्गरक्षकादीनां बोधिस्थप्रक्षराणां च 'अ'त्यादि, आर्य! हे पितामह ! तात ! हे पितः ! अङ्गच्छाय-नृपः, तस्य वर्णनं For Parts Only ~ 274~ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [६९,७०] दीप अनुक्रम [८७,८८] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] अध्ययनं [८], --- मूलं [ ६९,७०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६ ] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥१३६॥ हे भ्रातः ! हे मातुल ! हे भागिनेय ! भगवता समुद्रेण अभिरक्ष्यमाणा यूयं जीवत, भद्रं च 'भेति भवतां भवलिति गम्यते, पुनरपि लब्धार्थान् कृतकार्यान् अन्धान् समग्रान्, अनघतं निर्दूषणतथा समग्रलम्-अहीनधन परिवारतया, निजकं गृहं 'हवं'ति शीघ्रमागतान् पश्याम इतिकृला - इत्यभिधाय 'सोमाहिंति निर्विकारत्वात् 'निद्धाहिं' ति सस्नेह त्वात् 'दीहाहिं 'ति दूरं यावदवलोकनात् 'सप्पिवासाहति सपिपासाभिः पुनर्दर्शनाकाङ्क्षावतीभिर्दर्शनातृप्ताभिर्वा 'पप्पुयाहिं'ति प्रप्लुताभिः अथुजलाद्रभिः 'समाणिएस'ति समापितेषु दत्तेषु नावीति गम्यते सरसरक्तचन्दनस्य दर्दरेण चपेटाप्रकारेण पञ्चाङ्गुलितलेषु हस्तकेष्वित्यर्थः, 'अणुक्खिन्तंसी 'ति अनुत्क्षिप्ते - पश्चादुत्पादिते धूपे पूजितेषु समुद्रवातेषु नौसांयात्रिकप्रक्रियया समुद्राधिपदेवपादेषु वा 'संसारियासु वलयवाहासु' ति स्थानान्तरादुचित स्थान निवेशितेषु दीर्घकाष्ठलक्षणचाहुषु आवल्लकेष्विति सम्भाव्यते, तथा उच्छ्रितेषु ऊद्धीकृतेषु सितेषु ध्वजाग्रेषु-पताकाग्रेषु पडुभिः पुरुषः पटु वा यथा भवतीत्येवं प्रवादितेषु तूर्येषु जयिकेषु - जयावहेषु सर्वशकुनेषु - वायसादिषु गृहीतेषु राजवरशासनेषु आज्ञासु पट्टकेषु वा प्रक्षुभितमहासमुद्ररवभूतमिव तदात्मकमिव तं प्रदेशमिति गम्यते 'तओ पुस्समाणवो बक्कमुयाहुति ततोऽनन्तरं मागधो मङ्गलवचनं ब्रवीति स इत्यर्थः, तदेवाह सर्वेपामेव 'मे' भवतामर्थसिद्धिर्भवतु, उपस्थितानि कल्याणानि प्रतिहतानि सर्वपापानि - सर्वविधाः, 'जुत्तो'ति युक्तः 'पुष्यो' नक्षत्रविशेषः चन्द्रमसा इहावसरे इति गम्यते, पुष्यनक्षत्रं हि यात्रायां सिद्धिकरं, यदाह - "अपि द्वादशमे चन्द्रे, पुष्यः सर्वा - र्थसाधन" इति मागधेन तदुपन्यस्तं विजयो मुहूर्त्तत्रिंशतो मुहूर्त्तानां मध्यात्, अयं देशकाल : - एष प्रस्तावो गमनस्येति गम्यते 'वक्के उदाहिए'ति वाक्ये उदाहृते हृष्टतुष्टाः कर्णधारो - निर्यामकः कुक्षिधारा-नौपार्श्वनियुक्तकाः आवेलकवाहकादयः Eucation Internationa अङ्गच्छाय-नृपः, तस्य वर्णनं For Park Use Only ~275~ ८मल्यध्य यने चन्द्र च्छायनुप स्यागमः अरहझकवृत्तं च सू. ७० ॥१३६॥ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [६९,७०] दीप अनुक्रम [८७,८८] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [८], मूलं [ ६९,७०] श्रुतस्कन्ध: [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः गर्भे भवाः गर्भजा :- नीमध्ये उच्चावचकर्मकारिणः संयात्रानौवाणिजका - भाण्डपतयः, एतेषां द्वन्द्रः, 'वावरिंसुति व्यापृतवन्तः स्वस्वव्यापारेष्विति, ततस्तां नावं पूर्णोत्सङ्गां विविधभाण्डभृतमध्यां पण्यमध्यां वा मध्यभागनिवेशितमङ्गल्यवस्तुलात् पूर्णमुखीं पुण्यमुखीं वा तथैव बन्धनेभ्यो विसर्जयन्ति-मुञ्चन्ति, पवनबलसमाहता- वातसामर्थ्यप्रेरिताः 'ऊसियसिय'त्ति उच्छ्रितसितपटा, यानपात्रे हि वायुसद्दार्थ महान् पट उच्छ्रितः क्रियते, एवं चासायुपमीयते विततपक्षेव गरुडयुवतिः गङ्गासलिलस्य तीक्ष्णाः ये श्रोतोवेगाः प्रवाहवेगास्तैः सक्षुभ्यन्ती २- प्रेर्यमाणा समुद्रं प्रतीति ऊर्मयो महाकल्लोलाः तरङ्गा-हस्वकल्लोलास्तेषां माला:-समूहाः तत्सहस्राणि 'समतिच्छमाणि'ति समतिक्रामन्ती 'ओगाढ'ति प्रविष्टा, 'तालजंघ' मित्यादि तालो-वृक्षविशेषः स च दीर्घस्कन्धो भवति ततस्तालवअड्डे यस्य तत्तथा, 'दिवंगयाहिं बाहाहिं ति आकाशप्राप्ताभ्यामतिदीर्घाभ्यां बाहुभ्यां युक्तमित्यर्थः, 'मसिमूसगमहिसकालगं ति मषी - कजलं मूषकः- उन्दुरविशेषः अथवा मषीप्रधाना मूषा-ताम्रादिधा|तुप्रतापनभाजनं मषीभूषा महिषश्च प्रतीत एव तद्वत्कालकं यत्तत्तथा 'भरियमेहवण्णं'ति जलभृतमेघवर्णमित्यर्थः, तथा लम्बोष्ठं 'निरगयग्गदंतं'ति निर्गतानि मुखादग्राणि येषां ते तथा निर्गताग्रा दन्ता यस्य तत्तथा, 'निल्लालियजमलजुयलजीहं' ति | निर्लालितं विवृतमुखान्निःसारितं यमलं - समं युगलं द्वयं जियोर्येन तत्तथा 'आऊसियवयणगडदेसं'ति आऊसियत्ति-प्रविष्टौ वदने गण्डदेशी-कपोलभागौ यस्य तत्तथा 'चीणचिपिङनासियंति चीना-हवा चिपिटा चनिम्ना नासिका यस्य तत्तथा 'विगयभुग्गभुमय'ति विकृते-विकारवत्यौ मुझे भने इत्यर्थः, पाठान्तरेण 'भुग्गभग्गे' अतीव वक्रे भ्रुवौ यस्य तथा, 'खज्जोयगदित्त चक्खुरागं ति खद्योतका ज्योतिरिङ्गणाः तद्वद्दीप्तचक्षूरागो-लोचनरक्ततं Education Internation अङ्गच्छाय-नृपः, तस्य वर्णनं For Pale Only ~276~ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ---------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६९,७०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६९,७०] दीप अनुक्रम [८७,८८] यस तत्तथा, उत्रासनक-भयंकर विशालपदो-विस्तीणोसस्थल विशालकुक्षि-विस्तीर्णोदरदेश एवं प्रलम्क्कुक्षि पहसिक- मल्लयभ्यकथानम्, पयलियपयडियात्तति प्रहसितानि-हसितुमारब्धानि प्रचलितानि च स्वरूपात् प्रवलिकानि वा-प्रजातक्लीकानि अपति- यने चन्द्र तानि च-प्रकर्षण रवीभूतानि मात्राणि यख तत्तथा, वाचनान्तरे 'विगयभुग्गभुमयपहसियपयलियपयडियफुलिंगख- च्छायनूप॥१३७ ज्जोयदित्तचक्खुराम ति पाठः, तत्र विकृते मो भ्रवौ प्रहसिते च प्रचलिते प्रपतिते यस्य स्फुलिङ्गक्त् खद्योतकवच दीस- स्यागमः विभूरामश्च यस्य तत्तथा, "पणचमाण'मित्यादि विशेषणपश्चकं प्रतीतं, 'नीलुप्पलें'त्यादौ गवलं-महिपमा अतसी-मालव-18 अरहन्नककदेशप्रसिद्धो धान्यविशेषः, 'खुरहारंति क्षुरस्येव धारा यस स तथा तमसिं-खङ्ग, क्षुरो अतितीक्ष्णधारो मवत्यन्यया केशा-8 वृत्तं च सू. नाममण्डनादिति क्षुरेणोपमा खगधारायाः कृतेति, अभिमुखमापतत् पश्यन्ति सर्वेऽपि सांयात्रिकाः, त्राहमकवर्जा यत् कुर्वन्ति र नदर्शयितुमुक्तमेव पिशाच स्वरूपं स विशेष तेषां तदर्शनं चानुक्दन्निदमाह-तए णमित्यादि, ततस्ते अर्हनकवर्जाः सांगात्रिकाः पिशाचरूपं वक्ष्यमाणविशेषगं पश्यन्ति, दृष्ट्वा च बहूनामिन्द्रादीनां बहून्युफ्याचितशतान्युपयाचितवन्तस्तिष्ठन्तीति । | समुदायाः, अथवा 'तए प्रति 'अरहनावजा इत्यादि गमान्तरं 'आगासदेवयाओ नचंति इलोऽनन्तरं द्रष्टव्यम्, 8| अत एव वाचनान्तरे नेदुमुपलभ्यते, उपलभ्यते चैवम्-अभिमुहं आवयमाणं पासंति, तर ते अरहनामवजा नावा वाणियगा भीया' इत्यादि, तत्र 'तालपिसायंति तालवृक्षाकारोक्तिदीर्घवेन पिशाचः तालपिशाचः तं, विशेषणदर्य प्रापि, १३७॥ 'फुट्टसिरति स्फुटितम् वचन्मलेन चिकीर्ण शिर इनि-शिरोजातवान् केशा यख स तथा तं अमरनिकरवत् वरमापराशिक्त् माहफिच्च कालको कास तथा तं भूतमेघवर्ण तथैव, सूर्णमिव-धान्यशोधकमानविशेषय नखा यस स मूर्पनखा लं, 'फाल 29300aeeeeeeeee SARERatininemarana अगच्छाय-नृपः, तस्य वर्णनं ~ 277~ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ---------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६९,७०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६९,७०] सदशजिह्व'मिति फाल-द्विपश्चाशत्फ्लप्रमाणो लोहमयो दिव्य विशेषस्तव रहिमतापितमिह प्राय तस्साच चेह जिलाया वर्णदीप्तिदीर्ववदिभिरिति, लम्बोष्ठं प्रतीतं धवलाभित्ताभिरंश्लिष्टाभिर्विशरारुखेन तीक्ष्णामिः स्थिराभिः निश्चलखेन पीनाभिरुपचिततेन कुटिलानिय क्कतचा दंष्ट्रामिस्वगृढ़-व्याप्तं कदनं यस्य स तथा तं, विकोशितस्प-अपनीतकोशकस्य निराकरणस्पेत्यर्थः घारापोः धाराप्रधानखजयोर्ययुगलं-द्वितयं तेन समसक्यो अत्यन्ततुल्ये तनुके प्रतले चञ्चलं-विमुक्तस्थैर्य यथा || ॥ भवत्यविश्राममित्खयों कलन्त्यो रसाक्लिौस्यात् लालाविभुश्चन्त्यौ रसलोले-भक्ष्यस्सलम्पटे चाले-पश्चले फुस्फुरायमाणे-प्रकम्प्रे निलालिते-मुखात्रिकाशिते अग्रजिहे-अग्रभूते जिहे जिहाग्रे इत्यर्थो येन स तथा तं 'अवच्छिपति प्रसारितमित्येके, अन्ये तु यकारस्थालमत्वात् 'अवयच्छियं प्रसारितमुखत्वेन रश्यमानमित्याहु, 'महलं नि महत् विकृत बीभत्सं लालाभिः प्रमलता रक्तं च तालु-काकुन्द यस्य स तथा तं,तथा हिकुलकेन कर्जकद्र व्यविशेषेण सर्भ कन्दरलक्षणं क्लिं यस स तथा तमिक 'अंजणगिरिस्सति विभक्तिविपरिणामादअनगिरि-कृष्णवर्णपर्वत विशेष तथाऽग्निज्वाला उहिरव क्दनं स स तथा तं, अथवा 'अव|च्छियेत्यादि हिंगलुए'त्वादि अनिवाले त्यादि प्रत्यंतरे च कर्मधारयेण वक्ष्यमाणक्दनपदस विशेषणं कार्य रख तमित्येवरूपश्च वाक्यशेषो द्रष्टव्यः, तथा अमिधाला उद्गिरद्वदनं यस स तथा तं, 'आऊसिय'ति सङ्कुचितं यदक्षचर्म-जलाकर्षणकोशस्तद्वत् |'उइति अफ्कृष्टौ अक्कर्षवन्तौ सङ्कुचितौ गण्डदेशी क्स्य स लया तं, अन्ये वाहुः-आमूषितानि-सङ्कटितानि अक्षाणि-इन्द्रियाणि च चर्म च ओष्ठौ च गण्डदेसी च यस स तथा तं, चीना इखा 'चिचडचि चिपटा-निम्ना वंका-कका भन्ने भना-जयोधनकुट्टितेवेत्यथों नासिका यस स तथा तं, रोपादायतो 'धमपतचि प्रबलतया ममतत्ति शब्दं कुर्वाणो मास्तो दीप अनुक्रम [८७,८८] - RERuratanALLone अगच्छाय-नृपः, तस्य वर्णनं ~ 278~ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [६९,७०] दीप अनुक्रम [८७,८८] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] अध्ययनं [८], --- मूलं [ ६९,७०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्. ॥१३८॥ वायुर्निष्ठुरो-निर्भरः खरपरूपः - अत्यन्त कर्कशः शुषिरयो :- रन्ध्रयोर्यत्र तत्तथा तदेवंविधमवशुनं वक्रं नासिकापुढं यस्य तथा तं, इह च पदानामन्यथा निपातः प्राकृतत्वादिति, घाताय पुरुषादिवधाय घाटाभ्यां वा मस्तकावयवविशेषाभ्यां उद्भ विकरालं रचितमत एव भीषणं मुखं यस्य तथा तं, ऊर्द्धमुखे कर्णशष्कुल्यौ - कर्णावती ययोस्तौ तथा तौ च महान्ति-दीर्षाणि विकृतानि लोमानि ययोस्तौ तथा तौ च 'संखालग'ति शङ्खवन्तौ च शङ्खयोः - अक्षिप्रत्यासन्नावयवविशेषयोः संलग्नौ सम्बद्वावित्येके, लम्बमानौ च- प्रलम्बी चलितौ-चलन्तौ कर्णौ यस्य स तथा तं, पिङ्गले-कपिले दीप्यमाने -भासुरे लोचने यस्य स तथा तं भृकुटि :- कोपतो भ्रूविकारः सैव तडिद्- विद्युयस्मिंस्तत्तथा तथाविधं पाठान्तरेण भ्रुकुटितं - कृत कुटि ललाटं यस्य स तथा तं नरशिरोमालया परिणद्धं वेष्टितं चिन्ह-पिशाचकेतुर्यस्य स तथा तं, अथवा नरशिरोमालया यत्परिणद्धं परिषहनं तदेव चिन्हं यस्य स तथा तं, विचित्रैः बहुविधैगोनसैः सरीसृपविशेषैः सुबद्धः परिकरः सभा हो येन स तथा तं, 'अबहोलंतत्ति अवघोलयन्तो डोलायमानाः 'फुप्फुयायंत 'त्ति फूत्कुर्वन्तो ये सर्पाः वृद्धिका गोधाः उन्दुरा नकुलाः सरटाथ तैर्विरचिता विचित्रा- विविधरूपवती बैंकेक्षेण-उत्तरासङ्गेन मर्कटबन्धेन स्कन्धलम्बमात्रतया वा मालिका -माला यस्य स तथा तं, भोगः-फणः स क्रूरो- रौद्रो ययोस्ती तथा तौ च कृष्णसर्पों च तौ घमघमायमानौ च तावेव लम्बमाने कर्णपूरे-कर्णाभरणविशेषौ यस्य स तथा तं, मार्जारशृगाली लगिती-नियोजितौ स्कन्धयोर्येन स तथा तं दीप्तं - दीप्तखरं यथा भवत्येवं 'घुघुयंत 'ति धूत्कारशब्दं कुर्वाणो यो घूकः - कौशिकः स कृतो विहितो 'कुंतल'त्ति शेखरकः शिरसि येन स तथा तं घण्टानां वर्णशब्दस्तेन भीमो यः स तथा स चासौ भयङ्करखेति तं, कातरजनानां हृदयं स्फोटयति यः स तथा तं दीप्तमदृट्टहासं घण्टारवेण अङ्गच्छाय-नृपः, तस्य वर्णनं For Park Use Only ~279~ ८ मल्यध्य यने चन्द्र च्छायनृप स्वागमः अरहनक वृत्तं च सू. ७० ॥ १३८ ॥ wor Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ---------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६९,७०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६९,७०] दीप अनुक्रम [८७,८८] भीमादिविशेषणविशिष्टं विनिर्मुश्चन्तं वसारुधिरपूयमांसमलैमेलिना 'पोशड'त्ति विलीना च तनु:-शरीरं यस्य स तथा सं. उमा-IST सनक विशालवक्षसं च प्रतीते, 'पेच्छंतति प्रेक्ष्यमाणा-दृश्यमाना अभिन्ना-अखण्डा नखाब-नखरा रोम च मुख चन शाच कर्णौ च यस्यां सा तथा सा चासौ वरच्याघ्रस्य चित्रा-कळूरा कृत्तिव-चर्मेति सा तथा सैव निवसन-परिधानं यस्यस तथा तं, सरसं-रुधिरप्रधानं यद्गजचर्म तद्विततं-विस्तारितं यत्र तत्तथा तदेवं विधं 'ऊसविर्य'ति उच्छ्रुतं-ऊदींकृतं बायSIगलं येन स तथा तं, ताभिश्व तथाविधाभिः खरपरुषा-अतिकर्कशाः अस्निग्धाः-स्नेहविहीना दीप्ता-ज्वलन्त्य इवोपतापहेत खात् अनिष्टा-अभिलापाविषयभूताः अशुभाः खरूपेण अप्रियाः अप्रीतिकरखेन अकान्ताश्च विवरत्वेन या वाचस्वाभिः विस्तान कुर्वाणं-त्रस्तयन्तं तर्जयन्तं च पश्यन्ति स, पुनस्तत्चालपिशाचरूप 'एजमाण'ति नावं प्रत्यागच्छत् पश्यन्ति सम तुरंगेमाणे'ति आश्लिष्यन्तः, स्कन्द:-कार्तिकेयः रुद्र:-प्रतीतः शिवो-महादेवः श्रमणो-यक्षनायकः नागो-भवनपति|विशेषः भूतयक्षा-कयन्तरभेदा: आय--प्रशान्ता प्रसन्नरूपा दुगों-कोक्रिया-सैव महिषारूढरूपा, पूजाभ्युपगमपूर्वकाणि || प्रार्थनानि उपयाचितान्युच्यन्ते, उपयाचितवन्तो-विदधतस्तिष्ठन्ति स्मेति,अर्हन्नकवर्जानामियमितिकर्चच्यतोक्ता, अधुनाईसकस्य पतामाह-'तए ण'मित्यादि, अपस्थियपत्थियानि अप्रार्थितं-यत्केनापि न प्रार्थ्यते तत्प्रार्थयति यः स तथा तदामत्रण पाठा-1 न्तरेण अप्रस्थितः सन् यः प्रस्थित इव मुमूर्षरित्यर्थः स तथोच्यते तस्यामन्त्रणं हे अप्रखितप्रस्थित, यावत्करणात् 'दुरंतप तलक्खणे'ति दुरन्तानि-दुष्टपर्यन्तानि प्रान्तानि-अपसदानि लक्षणानि यस्य स तथा तस्यामश्रणं 'हीणपुण्णचाउदसी इति हीना-असमग्रा पुण्या-पवित्रा चतुर्दशी तिथिर्यस्य जन्मनि स तथा, चतुर्दशीजातो हि किल भाग्यवान् भवतीति आक्रोशे SARERatininemarana punciurary.orm अगच्छाय-नृपः, तस्य वर्णनं ~280~ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ---------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६९,७०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६९,७०] दीप अनुक्रम [८७,८८] ज्ञाताधर्म सदभावो दर्शित इति, सिरिहिरिधीकित्तिवजिय'चि प्रतीतं, 'नवसीलाए'त्यादि, तब शीलवतानि-बनतामि गुमा-मिल्यध्यकथाङ्गम. गुणवतानि विश्मणानि-रामादिविरतिप्रकाराः प्रत्याख्यानानि-नमस्कारसहितादीनि पौषधोपवास:-अष्टम्यादिषु पहि यने चन्द्र सन आहारशरीरसस्काराचम्यामारपरिवर्जनमित्यर्थः, एतेषां इन्द, 'चालिसए'पि भाकान्तरगृहीतान् मकान्तरेण छायनृप॥१३९॥ कि श्रीमयित-एतान्येवं परिपालयाम्युतोमामीति श्लोमविषयान् कर्नु खण्डयितुं-देशता भई सर्वसा उमिझतु-परखा देवस्यागमः विरतेस्त्यागेन परित्यक्तु-सम्यक्त्वस्थापि त्यागत इति, 'दोहि अंगुशीहिति बङ्गुष्ठकतर्जनीभ्यां अथवा तर्जनीमध्यमाभ्या-1 अरहन्नकमिसि, 'सप्सतलप्पमाणमेत्तार्य'ति तलो-हस्ततला तालाभिधानो गाऽतिदीर्घवधविशेषः स एव प्रमाणं-यानं नरूप्रमाणं वृत्तं च सू. समाष्टौ वा सप्लाष्टानि तलप्रमाणानि परिमाणं येषां ते समाष्टतलप्रमाणमात्रास्तान् गगनभागान् यावदिति गम्यते 'पहुं वहार्स ति ऊर्च विहायसि-ममने 'उबिहामिति नयामि 'जेणं तुमति येन वं 'अदुहवसहेति मार्चम-ध्यानविशेषस्य यो 'बुहह'चि दुर्घटः दुःस्थमो दुनिरोधो वश:-पारतयं तेन ऋतः--पीड़ितः भादूर्घटवशाः , किमुक्त भवति ?-असमाधिप्रातः, 'यवरोधिजसि'चि व्यपरोपयिष्यसि अपेतो भविष्यसीत्यर्थः, 'चालिसए चि इह चलनयन्यथाभावत्वं, कई-खोभिसए'चि क्षोभयित संशयोस्पादनतः तथा 'विपरिणामिसए'चि विपरिणामयितुं विपरीताध्यवसायोत्पादनत इति, 'संते'इत्यादौ यावत्करणात् 'संते परिते' इति इष्टव्य, तत्र श्रान्तः शान्तो वा मनसा तान्त:-कायेन खेदवान् परिवान्ता-सर्वतः खिनः निर्विणः-तम्मादुपसर्गकरणादुपरता, 'लढे'त्यादि, नत्र लब्धा-उपार्जनतः प्राप्तक-- तत्त्रारमिसमन्वागदा-सम्यगासेवनतः, 'बाइक्सह इत्यादि, आख्याति सामान्येन भापते विशेषतः, एतदेव द्वयं क्रमेण पर्या SARELatunintamanna अगच्छाय-नृपः, तस्य वर्णनं ~ 281~ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [६९,७०] दीप अनुक्रम [८७,८८] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [८], मूलं [ ६९,७०] श्रुतस्कन्ध: [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः यशब्दाभ्यामुच्यते-- प्रज्ञापयति प्ररूपयति, 'देवेण वा दाणवे त्यादाविदं द्रष्टव्यमपरं 'किनरेण वा किंपुरिसेण वा महोरगेण या गंधवेण व'ति तत्र देवो वैमानिको ज्योतिष्को वा दानवो भवनपतिः शेषा व्यन्तरभेदाः, 'वो सदहामि इत्यादि न श्रद्दधे प्रत्ययं न करोमि 'नो पत्तियामि' तत्र प्रीतिकं प्रीतिं न करोमि न रोचयामि -- अस्माकमप्येवंभूता गुणप्राप्तिर्भवत्येवं न रुचिविषयी करोमीति, 'पियधम्मेति धर्मप्रियो दृढधर्म्मा- आपद्यपि धर्मादविचलः, यावत्करणाद ऋयादिपदानि दृश्यानि, तत्र 'इहि'ति गुणर्द्धिः श्रुतिः - आन्तरं तेजः यशः - ख्यातिः वलं शारीरं वीर्य - जीवप्रभवं पुरुषकारः - अभियानविशेषः पराक्रमः स एव निष्पादितस्वविषयः लब्धादिपदानि तथैव, 'उस्तुकं विपरई चि शुल्काभावमनुजानातीत्यर्थः, 'गामागरे' त्यादाविदं द्रष्टव्यं - 'नगरखेडकब्बडमडच दोणमुहपट्टणनिगमसन्निवेसाई' इति तत्र ग्रामो - जनपदाध्यासितः आकरोहिरण्याद्युत्पत्तिस्थानं नगरं - करविरहितं खेटं धूलीप्राकारं कर्बट कुनगरं मडम्बं दूरवर्त्तिसन्निवेशान्तरं द्रोणमुखं – जलपथस्थलपथयुक्तं पचनं-जलपथस्थलपथयोरेकतरयुक्तं निगमो - वणिग्जनाधिष्ठितः सन्निवेशः कटकादीनामावासः, 'देवकन्नगा वे'त्यादाविदं दृश्यं - 'असुरकना वा नागकन्ना वा जrasar at jaaner वा रायकन्ना दे'ति, 'वाणियगजणियहासे'त्ति नैगमोत्पादितमल्लीविषयानुराग इत्यर्थः २ ।। Education Internation तेणं कालेणं २ कुणाला नाम जणवए होत्था, तस्थ णं सावत्थी नामं नगरी होत्था, तत्थ णं रुप्पी कुणालाहिवई नाम राया होत्था, तस्स णं रुप्पिस्स धुषा धारिणीए देवीए अत्तया सुबाहुनामं दारिया अङ्गच्छाय-नृपः, तस्य वर्णनं For Parts Only ~ 282~ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [७१,७२] दीप अनुक्रम [८९,९०] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [८], --- मूलं [ ७१,७२] श्रुतस्कन्ध: [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥१४०॥ Je Eticatio होत्था, सुकुमाल० रुवेण य जोवणेणं लावण्णेण य उफिट्टा उकिटसरीरा जाया यावि होत्था, तीसे सुबाहुए दारियाए अन्नदा चाउम्मासियमजणए जाए यावि होत्था, तते णं से रुप्पी कुणालाहि वई सुबाहुए दारियाए चाउम्मासियमज्जणयं उबद्वियं जाणति २ कोटुंबियपुरिसे सहावेति २ एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! सुबाहुए दारियाए कल्लं चाउम्मासियमज्जणए भविस्सति तं कलं तुम्भेणं रायमग्गमोगाईसि चउसि जलथलपदसद्भवन्नमलं साहरेह जाव सिरिदामगंडे ओलइन्ति, 'तते णं से रुप्पी कुणालाहिवती सुवन्नागार सेणिं सावेति २ एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! रायमग्गमोगास पुष्कमंडवंसि णाणाविह पंचवन्नेहिं तंदुलेहिं नगरं आलिहह तस्स बहुमज्झदेसभाए परएह २ जाब पचपिणंति, तते णं से रुप्पी कुणालाहिवई हत्थिखंधवरगए चाउरंगिणीए सेणाए महया भड० अंतेउरपरियाल संपरिबुडे सुबाहुं दारियं पुरतो कट्टु जेणेव रायमग्गे जेणेव पुष्फमण्डवे तेणेव उarगच्छति २ हत्थखंधातो पचोरूहति २ पुष्फमंडवं अणुपविसति २ सीहासणवरगए पुरस्थाभिमुहे सन्निसन्ने, तते णं ताओ अंतेउरियाओ सुबाहुं दारियं पयंसि दुरुहेति २ सेयपीतएहिं कलसेहिं हार्णेति २ सवालंकारविभूसियं करेति २ पिउणो पायं बंदिडं उबर्णेति, तते णं सुवाहृदारिया जेणेव रुप्पी राया तेणेव उवागच्छति २ पायग्गहणं करेति, तते णं से रूप्पी राया सुबाहुं दारियं अंके निवेसेति २ सुबाहुए दारियाए रुवेण य जो० लाव० जाव विम्हिए वरिसधरं सदावेति २ एवं वयासी-तुमण्णं रुक्मी नृपः, तस्य वर्णनं For Parts Only ~ 283~ ८ महयध्ययेन श्रीदामगण्डात् ऋक्मिनु पागमः सू. ७१ ॥१४०॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [७१,७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७१,७२] दीप अनुक्रम [८९,९०] देवाणुप्पिया ! मम दोचेणं बहूणि गोमागरनगरगिहाणि अणुपविससि, तं अत्थि याई ते कस्सइ रनो वा ईसरस्स वा कहिंचि एयारिसए मज्जणए दिट्ठपुछे जारिसए णं इमीसे सुबाहुदारियाए मजणए?, तते णं से वरिसधरे रुप्पि करयल एवं व०-एवं खलु सामी! अहं अन्नया तुन्भेणं दोघेणं मिहिलं गए तत्थ णं मए कुंभगस्स रन्नो धूयाए पभावतीए देवीए अत्तयाए मल्लीए विदेहरायकन्नगाए मज्जणए दिहे, तस्सणं मजणगस्स इमे सुबाहुए दारियाए मजणए सयसहस्सहमपि कलं न अग्घेति, तए णं से रूप्पी राया वरिसघरस्स अंतिए एयमटुं सोचा णिसम्म सेसं तहेव मजणगजणितहासे दूतं सदावेति २ एवं वयासी-जेणेच मिहिला नयरी तेणेव पहारित्थगमणाए ३ (सूत्रं ७१) तेणं कालेणं २ कासी नाम जणवए होत्या, तत्थ णं चाणारसीनाम नगरी होत्या, तस्थ णं संखे नाम कासीराया होत्या, तते णे तीसे मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए अन्नया कयाई तस्स दिवस्स कुंडलजुयलस्स संधी.विसंघडिए यावि होस्था, तते णं से कुंभए राया सुवनगारसेणि सहावेति २ एवं वदासी-तुन्भे णं देवाणुप्पिया! इमस्स दिवस्स कुंडलजुयलस्स संधि संघाडेह, तए णं सा सुवन्नगारसेणी एतमहं तहत्ति पडिमुणेति २ तं दिषं कुंडलजुयलं गेण्हति २ जेणेव सुवन्नगारभिसियाओ तेणेष उवागच्छति २ सुवन्नगारभिसियासु णिवेसेति २ बहुहिं आएहि य जाव परिणामेमाणा इच्छंति तस्स दिवस्स कुंडलजुयलस्स संधि घडिसए, नो चेव णं संचाएंति संघडित्तए, तते णं सा सुवन्नगारसेणी जेणेव कुंभए तेणेव उवा SAREairatmIAnd For P OW Homiarary om रुक्मी-नृपः, तस्य वर्णनं ~ 284~ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [७१,७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: शाताधर्मकथानम् मध्यभ्ययने सुक णकार) प्रत सूत्रांक [७१,७२] ॥१४शा पागमः सू.७२ दीप अनुक्रम [८९,९०] गच्छति २ करयल० बद्धावेत्ता एवं वदासी-एवं खलु सामी? अज तुन्भे अम्हे सहावेह २ जाव संधि संघाडेत्ता एतमाणं पञ्चप्पिणह, तते णं अम्हे तं दिवं कुंडलजुयलं गेण्हामो जेणेच सुवन्नगारभिसियाओ जाव नो संचाएमो संघाडिसए, तते णं अम्हे सामी! एयस्स दिवस्स कुंडलस्स अन्नं सरिसयं कुंडलजयलं घडेमो, तते णं से ऊभए राया तीसे सुवनगारसेणीए अंतिए एयमढे सोचा निसम्म आसुरुत्ते तिवलियं भिउडी निडाले साहड्ड एवं वदासी-से केणं तुम्भे कलायाणं भवह ? जे णं तुम्भे इमस्स कुंडलजुयलस्स नो संचाएह संधि संघाडेत्तए?, ते सुवन्नगारे निविसए आणति, तते ते सुवनगारा कुंभेणं रण्णा निविसया आणता समाणा जेणेव साति २ गिहाति तेणेव उवा०२ सभंडमत्तोवगरणमायाओ मिहिलाए रायहाणीए मज्झमझेणं निक्लमंति २ विदेहस्स जणवयस्स मज्झमझेणं जेणेव कासी जणवए जेणेच चाणारसी नयरी तेणेव उवा०२ अग्गुजाणंसि सगडीसागडं मोएन्ति २ महत्थं जाव पाहुडं गेण्हंति २सा वाणारसीनयरी मजझमझेणं जेणेव संखे कासीराया तेणेव उवागउछति २ करयल. जाव एवं अम्हे णे सामी! मिहिलातो नयरीओ कुंभएणं रत्ना निविसया आणत्ता समाणा इई हपमागता तं इच्छामो णं सामी! तुभ बाहरछायापरिग्गहिया निग्भया निरुविग्गा सुइंसुहेणं परिवसिउं, तते ण संखे कासीराया ते मुवनगारे एवं वदासी-किन्नं तुन्भे देवा! ऊंभएणं रखा निबिसया आणता ?, तते णं ते सुवन्नगारा संखं एवं वदासी-एवं खलु सामी ! कुंभगस्स esce ॥१४॥ | रुक्मी-नृपः, तस्य वर्णनं ~285~ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [७१,७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७१,७२] दीप अनुक्रम [८९,९०] रनो घूयाए पभावसीए देवीए अत्तयाए मल्लीए कुंडलजुयलस्स संधी विसंघडिए तते / से कुंभए सुवनगारसेणि सद्दावेति २ जाव निविसया आणत्ता, तं एएणं कारणेणं सामी! अम्हे कुंभएणं निविसया आणसातते णं से संखे सुवन्नगारे एवं वदासी-केरिसिया णं देवाणुप्पिया! कुंभगस्सधूया पभावतीदेवीए अत्तया मल्ली वितते णं ते सुवन्नगारा संखरायं एवं वदासी-गो खलु सामी ! अन्ना काई तारिसिया देवकन्ना वा गंधवकन्नगा वा जाव जारिसिया णं मल्ली विदेहवररायकन्ना, तते णं से संखे कुंडलजुअलजणितहासे दूतं सहावेति जाव तहेव पहारस्थ गमणाए (सूत्रं ७२) . 'मिसियाओति आसनानि 'तिवलियं भिउडिं निडाले साहटुचि त्रिवलीका-बलियोपेतां भृकुटीं-भ्रूविकारं| सहत्य-अपनीयेति, 'केणं तुन्भे कलायाणं भवहति के पूर्व कलादाना-सुवर्णकाराणां मध्ये भवथ, न केपीत्यों, निर्विज्ञानत्वात् , अथवा के यूयं सुवर्णकाराणां पुत्राधन्यवमा भवध, अथवा के यूयं कलादा, न केपीत्यर्थः, णमित्यलङ्कारे, शेष सुगर्म ॥ तेणं कालेणं २ कुरुजणवए होत्था हस्थिणाउरे नगरे अदीणसत्तू नाम राया होत्था जाव विहरति, तत्थ णं मिहिलाए कुंभगरस पुसे पभावतीए अत्तए मल्लीए अणुजायए मल्लदिन्नए नाम कुमारे जाव जुवराया यावि होत्था, तते णं मल्लदिन्ने कुमारे अन्नया कोटुंबिय० सद्दावेति २ गच्छह णं तुम्भे मम पमदवणंसि एग महं चित्तसभ करेह अणेग जाव पञ्चप्पिणंति, तते णं से मल्लदिन्ने चित्तगरसेणि सद्दा-- रुक्मी-नृपः, तस्य वर्णनं, अदिनशत्रु-राजा, तस्य वर्णनं ~286~ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [७३] दीप अनुक्रम [१] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र -६ (मूलं + वृत्तिः) श्रुतस्कन्धः [१] अध्ययनं [८], मूलं [७३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥१४२॥ Education Internation वेति २ एवं क्यासी तु णं देवा० ! चित्तसमं हावभावविलासविव्ययकलिएहिं स्वेहिं चित्तेह २ जाव पचपण, तणं सा चित्तगरसेणी तहत्ति पडिसुणेति २ जेणेव सयाई गिहाई तेणेव उवा० २ तूलियाओ बन्नए य गेहति २ जेणेव चित्तसभा तेणेव उवागच्छति २त्ता अणुपविसंति २भूमिभागे विरंचंति २ भूमिं सवेंतिर चित्तसभं हावभाव जाव चित्तेवं पयत्ता यावि होत्था, तते णं एगस्स चित्तगरस्स इमेयावा चित्तगरलद्वी लद्धा पत्ता अभिसमन्नागया-जस्स णं दुपयस्स वा चउपयस्स वा अपयस्स वा एगदेसमवि पासति तस्स णं देसाणुसारेणं तथाणुरूवं निवन्तेति, तए णं से चित्तगरदारए मल्लीए जबणियंतरियाए जालंतरेण पायेंगु पासति, तते णं तस्स णं चित्तगरस्स इमेयारूये जाव सेयं खलु ममं मल्लीएवि पार्थगुट्टाणुसारेणं सरिसगं जाव गुणोववेयं एवं निवत्तित्तए, एवं संपेहेति २ भूमिभागं सज्जेति २ मल्लीएवि पार्थगुट्टाणसारणं जाव निवतेति तते णं सा चित्तगरसणी चित्तसमं जाव हावभावे चित्तेति २ जेणेव मल्लदिने कुमारे तेणेष २ जाव एतमाणन्तियं पञ्चप्पिणंति, तए णं मल्लदिने चित्तगरसेणिं सकारेह २ विपुलं जीवियारिहं पीइदाणं दलेह २ पडिविसज्जे, तए णं मलदिने अन्नया पहाए अंतेउरः परियाल संपरिवुडे अम्मधाईए सद्धिं जेणेव चित्तसभा तेणेव उवा० २ चित्तसमं अणुपविसह २ हावभावविलासविन्योय कलियाई रुबाई पासमाणे २ जेणेव मल्लीए विदेहबररायकनाए तथाणुरूवे वित्तिए तेणेव पहारेत्थ गमणाएं, तए णं से मल्लदिने कुमारे मल्लीए विदेहवररायकन्नाए तथाणुरूवं निवत्तियं अदिनशत्रु-राजा, तस्य वर्णनं For Pale Only ~287~ १८मल्यध्य यने चित्रकरात् अदीनशत्रु १% नृपागमः १ सू. ७३ ॥१४२॥ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ---------------- मूलं [७३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सत्रांक [७३] दीप अनुक्रम पासति २ इमेयास्वे अन्भत्थिए जाव समुप्पवित्था-एस णं मल्ली विदेहवररायकन्नत्तिकटु लजिए वीडिए विअडे सणियंरपच्चोसकर, तएणं मल्लदिन्नं अम्मधाई पच्चोसकंतं पासित्ता एवं वदासी-किन्नं तुमं पुत्ता! लजिए वीडिए विअडे सणियंरपच्चोसका?, तते णं से मल्लदिन्ने अम्मघाति एवं वदासी-जुत्तंणं अम्मो!मम जेहाए भगिणीएगुरुदेवयभूयाए लज्जणिजाए मम चित्तगरणिवत्तियं सभं अणुपविसित्तए?,तएणं अम्मधाई मल्लदिन्नं कुमारं व-नो खलु पुत्ता! एस मल्ली, एस णं मल्ली विदे०चित्तगरएणं तयाणुरूवेणिवत्तिए,तते णं मल्लदिन्ने अम्मधाईए एयम8 सोचा आसुरुत्ते एवं वयासी-केस णं भो चित्तयरए अपत्थियपत्थिए जाव परिवज्जिए जे णं मम जेट्टाए भगिणीए गुरुदेवयभूयाए जाव निवत्तिएत्तिकटुतं चित्तगरं वज्झं आणवेइ, तए णं सा चित्तगरस्सेणी इमीसे कहाए लट्ठा समाणा जेणेव मल्लदिन्ने कुमारे तेणेच उवागच्छइ २त्ता करयलपरिग्गहियं जाव वद्धावेइ २त्ता २ एवं वयासी-एवं खलु सामी! तरस चित्तगरस्स इमेयारूवा चित्तकरलद्धी लद्धा पत्ता अभिसमन्नागया जस्स णं दुपयस्स चा जाब णिवत्तेति तं मा णं सामी! तुन्भे तं चित्तगरं वज्झं आणवेह, तं तुम्भे गं सामी। तस्स चित्तगरस्स अन्नं तयाणुरूवं दंडं निवत्तेह, तए णं से मल्लदिन्ने तस्स चित्तगरस्स संडासगं छिंदावेइ २ निविसयं आणवेह, तए णं से चित्तगरए मल्लदिनेणं णिविसए आणते समाणे सभंडमत्तोवगरणमायाए मिहिलाओ णयरीओ णिक्खमइ २ विदेहं जणवयं मझमझेणं जेणेव हत्थिणाउरे नयरे जेणेव कुरुजणवए जेणेव अदीणसत्तू राया तेणेव [११] अदिनशत्रु-राजा, तस्य वर्णनं ~288~ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [७३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ON कथाजम्. दमझ्यध्ययने चित्रकरात् अ. दीनशत्रु प्रत सत्राक [७३] नृपागम: सू.७३ दीप अनुक्रम [९१] ज्ञाताधर्म उवा०२ सा भंडणिक्खेवं करेइ २ चित्तफलग सजेहर मल्लीए विदेह पायंगुहाणुसारेण रूवं णिवत्तेइ २ कक्खंतरंसि बुब्भइ २ महत्थं ३ जाव पाहुडं गेण्हइ रहस्थिणापुरं नयरं मझमझेणं जेणेव अदीणसचू राया तेणेव उवागच्छति २२ करयल जाव बद्धावेइ २पाहुडं उवणेति २ एवं स्खलु अहं सामी! मिहि॥१४॥ लाओ रायहाणीमो कुंभमस्स रनो पुत्तेणं पभावतीए देवीए अत्तएणं मल्लदिनेणं कुमारणं निधिसए आणसे समाणे इह हवमागए, तं इच्छामि सामी! तुभ बाहुच्छायापरिग्गहिए जाव परिवसित्तए, तते णं से अदीणसत्तू राया तं चित्तगदारय एवं वदासी-किन्नं तुम देवाणुप्पिया! मल्ल दिण्णेणं निधिसए आणते, तए णं से चित्तयरदारए अदीणसत्तुराय एवं वदासी-एवं खलु सामी! मल्लविन्ने कुमारे अपणया कयाई चित्तगरसेणि सद्दावेइ २ एवं च-तुम्मे देवाणुप्पिया! मम चित्तसभं तं चेव सर्व भाणिय जाव मम संडासगं छिंदावेद २ निविसयं आणचेह, तं एवं खलु सामी! मल्लदिनेणं कुमारेणं निषिसए आणत्ते, सते णं अदीणसत्तू राया तं चिसगरं एवं बदासी-से केरिसए णं देवाणुप्पिया! तुमे मल्लीए तवाणुरूवे रूवे निबत्तिए, तते णं से चित्त० कक्खंतराओ चित्तफलयं गीणेति २ अदीणस तुस्स उवणेह २ एवं व०-एस णं सामी! मल्लीए वि० तयाणुरूवस्स रुवस्स केइ आगारभावपटोयारे RI. निवत्तिए णो खलु सका केणइ देवेण वा जाव मल्लीए विदेहरायवरकषणगाए तयाणुरूवे रूवे निपत्तित्तए, तते गं मदीणसत्तू पडिरूवजणितहासे दूयं सहावेतिरएवं वदासी-सहेव जाव पहारेत्य गमणयाए(सूत्रं७३) १४शा अदिनशत्रु-राजा, तस्य वर्णनं ~289~ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) (०६) श्रुतस्कन्ध: [१] ---------------अध्ययनं [८], .......-- मूलं [७३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सत्रांक [७३] का 'पमयवणंसिति गृहोद्याने हावभावविलासविडोयकलिएहि ति हावभाचादयः सामान्येन स्त्रीचेष्टाविशेषाः, विशेषः पुनरयम्-"हाबो मुखविकारः, स्याद्, भावश्चित्तसमुद्भवः । विलासो नेत्रजो मेयो, विभ्रमो भ्रूसमुद्भवः ॥१॥" इति, अन्ये | त्वेवं विलासमाहुः-"स्थानासनगमनानां हस्तभूनेत्रकर्मणां चैव । उत्पद्यते विशेषो यः श्लिष्टोऽसौ विलासः स्यात् ॥१॥" विब्बोकलक्षणं चेदम्-"इष्टानामर्थानां प्राप्तावभिमानमर्भसम्भूतः । स्त्रीणामनादरकतो विम्बोको नाम विज्ञेयः ॥१॥" 'तूलियाउत्ति तूलिका बालमय्यचित्रलेखनकर्चिकाः, 'तदणुरूवं रूवंति दृष्ट्वा द्विपदाधुचितमाकारमिति, 'अंतेउरपरियालेण'न्ति अन्तःपुरा च परिवारश्न अन्तःपुरलक्षणो वा परिवारो यः स तथा ताभ्यां तेन वा सम्परिवृतः, लज्जितो वीडितो व्यईः इत्येते वयोऽपि पर्यायशब्दा: लजाप्रकर्षाभिधानायोक्ताः, 'लज्जणिवाए'चि लज्ज्यते यस्याः सा लजनीया। तेणं कालेणं २ पंचाले जणवए कंपिल्ले पुरे नयरे जियसत्तू नाम राया पंचालाहिवई, तस्स णं जितसनुस्स धारिणीपामोक्खं देविसहस्सं ओरोहे होत्या, तत्थ णं मिहिलाए चोक्खा नाम परिवाइया रिउक्वेद जाव परिणिहिया यावि होत्या, तते णं सा चोक्खा परिवाइया मिहिलाए बहणं राईसर जाव सस्थवाहपभितीणं पुरतो दाणधम्मं च सोयधम्मं च तित्थाभिसेयं च आघवेमाणी पण्णवेमाणी परूवेमाणी उवदंसेमाणी विहरति, तते णं सा चोक्खा परिवाइया अन्नया कयाई तिदंडं च कुंडियं च जाव धाउरत्ताओ य गेण्हइ २ परिवाइगावसहाओ पडिनिक्खमइ २ पविरलपरिवाइया सद्धिं संपरिचुडा दीप अनुक्रम [११] अदिनशत्रु-राजा, तस्य वर्णनं, जितशत्रु-राजा, तस्य वर्णनं ~290~ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [७४,७५] + गाथा: दीप अनुक्रम [९२-९५] श्रुतस्कन्धः [१] अध्ययनं [८], मूलं [ ७४, ७५ ] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥ १४४ ॥ Education Internation “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र -६ (मूलं + वृत्तिः ) मिहिलं रायहाणि मज्झंमज्झेणं जेणेव कुंभगस्स रन्नो भवणे जेणेव कण्णतेउरे जेणेव मल्ली विदेह० तेणेव उदागच्छ २ उदयपरिफासियाए दम्भोवरि पचत्थुयाए भिसियाए निसियति २ सा मल्लीए विदेह० पुरतो दाणधम्मं च जाव विहरति, तते णं मल्ली विदेहा चोक्खं परिवाइयं एवं वयासी-तुम्मे णं चोक्खे ! किंमूल धम्मे पत्ते, तते णं सा चोक्खा परिवाइया मल्लिं विदेहं एवं वदासी अम्हं णं देवाणुप्पिए । सोयमूलए घम्मे पण्णवेमि, जण्णं अम्हं किंचि असुई भवइ तण्णं उदरण य महियाए जाव अविग्घेणं सगं गच्छामो, तरणं मल्ली विदेह० चोक्खं परिवाइयं एवं वदासी-चोक्खा ! से जहा नामए केई पुरिसे रुहिरकर्य वत्थं रुहिरेण चैव धोवेजा अत्थि णं चोक्खा ! तस्स रुहिरकयरस वत्थस्स रुहिरेणं धोद्यमाणस्स काई सोही ?, नो इणट्ठे समद्वे, एवामेव चोक्खा ! तुम्भे णं पाणाइवाएणं जाव मिच्छादंसणसणं नत्थि काई सोही, जहा व तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स रुहिरेणं चैव घोषमाणस्स, तए सा चोक्खा परिवाइया मल्लीए विदेह० एवं बुत्ता समाणा संकिया कंखिया विइगिच्छिया भेयसमावण्णा जाया यावि होत्था, मल्लीए णो संचारति किंचिचि पामोक्खमाइक्खित्तए तुसिणीया तितं चोख मल्लीए बहुओ दासचेडीओ हीलति निंदति खिंसंति गरहंत अप्पेतिया रुयाति अप्पे० मुहमक्कडिया करेंति अप्पे० वग्घाडीओ करेंति अप्पे० तलमाणीओ निच्छुभंति, तए णं सो चोक्खा मल्लीए विदेह० दासचेडियाहिं जाव गरहिलमाणी हीलिजमाणी आसु जितशत्रु-राजा, तस्य वर्णनं For Parts Only ~ 291~ ८मल्यध्य यने परिआजका याः जितशत्रुनृपागमः सृ. ७४ ॥१४४॥ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [७४,७५] + गाथा: दीप अनुक्रम [९२-९५] श्रुतस्कन्धः [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः ) अध्ययनं [८], मूलं [ ७४, ७५ ] + गाथा आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः कत्ता जाव मिसिमिसेमाणी मल्लीए विदेहरायंवरकण्णाए पओसमावञ्चति, भिसियं गेण्हति २ कण्णतेराओ पडिनिक्खमति २ मिहिलाओ निग्गच्छति २ परिवाइयासंपरिवुडा जेणेव पंचाल जणवए जेणेव कंपिल्लपुरे बहूणं राइसर जाव परुवेमाणी विहरति, तए णं से जियसत्तू अन्नदा कदाई अंतेउरपरियाल सद्धिं संपरिवुडे एवं जाव विहरति, तते णं सा चोक्खा परिवाइया संपरिवडा जेणेव जितसंतुस्स रण्णो भवणे जेणेव जितसत्तू तेणेव उवागच्छइ २ ता अणुपविसति २ जियसत्तुं जएणं विजएणं वद्धावेति, तते णं से जितसत्तू चोक्खं परि० एज्जमाणं पासति २ सीहासणाओ अम्मुट्टेति २ चोक्खं सकारेति २ आसणेणं उवणिमंतेति, तते णं सा चोक्खा उदगपरिफासियाए जाब भिसियाए निविसइ, जिग्रसत्तुं रायं रज्जे व जाव अंतेउरे य कुसलोदंतं पुच्छर, तते णं सा चोक्खा जिसस रन्नो दाणधम्मं च जाव विहरति, तते गं से जियसत्तू अप्पणो ओरोहंसि जाव विम्हिए चोक्खं एवं वदासी - तुमं णं देवाणुप्पिया ! बहूणि गामागर जाव अडह बहूण य रातीसर गिहातिं अणुविससि तं अस्थियाई ते कस्सवि रन्नो वा जाव एरिसए ओरोहे दिवे जारिसए णं इमे मह उवरोहे ?, तए सा चोक्खा परिछाइया जियसत्तुं [ एवं वदासी ] ईसिं अवहसियं करेइ २ ( एवं व्यासी) एवं च सरिसए गं तुमं देवाणुपिया! तस्स अगडदद्दुरस्स ?, के णं देवाणुप्पिए । से अगडददुरे ?, जियसत्तू ! से जहा नामए अगडददुरे सिया, से णं तत्थ जाए तत्थेव बुडे अण्णं अगडं वा तलागं वा दहं वा जितशत्रु-राजा, तस्य वर्णनं For Parta Use Only ~ 292~ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [७४,७५] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म प्रत सूत्रांक [७४,७५] कथाझम्. ॥१४५॥ मध्यध्ययने जित|शत्रुनृपागमः सू. ७४ गाथा: सरं वा सागरं वा अपासमाणे चेवं मण्णइ-अयं चेव अगडे चा जाव सागरे वा, तए णं तं कूवं अपणे सामुद्दए दहुरे हदमागए, तए णं से कूवदहुरे तं सामुददुरं एवं वदासी-से केसणं तुम देवाणुप्पिया! कत्तो वा इह हबमागए, तए णं से सामुद्दए बहुरे तं कूवबहुरं एवं बयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! अहं सामुद्दए दहुरे, तए णं से कृवदहरे तं सामुद्दयं दहरं एवं बयासी-केमहालए णं देवाणुप्पिया। से समुद्दे, तए णं से सामुए ददुरे तं कृवद्हरं एवं बयासी-महालए णं देवाणुप्पिया! समुद्दे, तए णं से दर्रे पारणं लीहं कड्डेइ २ एवं वयासी-एमहालए णं देवाणुप्पिया! से समुद्दे, णो इणद्वे समझे, महालए णं से समुदे, तए णं से कूवदहुरे पुरच्छिमिल्लाओ तीराओ उफिडित्ता णं गच्छा २ एवं वयासी-एमहालए ण देवाणुप्पिया! से समुद्दे, णो इणढे समढे, तहेव एवामेव तुमंपि जियसत्तू अन्नेसि पाहूर्ण राईसर जाव सत्यवाहपभिईणं भज्ज वा भगिणी वा धूयं वा सुण्हं वा अपासमाणे जाणेसि जारिसए मम चेव णं ओरोहे तारिसए णो अपणस्स, तं एवं खलु जियस तू ! मिहिलाए नयरीए कुंभगस्स धूता पभावतीए अत्तिया मल्ली नामंति स्वेण य जुवणेण जाव नो खलु अपणा काई देवकना या जारिसिया मल्ली, विदेहवररायकपणाए छिपणस्सवि पायंगुढगस्स इमे तवोरोहे सयसहस्सतिर्मपि कल न अग्घात्तिकट्ठ जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया, तते गं से जितस तू परिवाइयाजणितहासे दूयं सहावेति २जाव पहारेत्थ गमणाए ।(सूत्रं ७४) तते णं तेसि जियसत्तु दीप अनुक्रम [९२-९५] ॥१४॥ SAMEnirbal जितशत्रु-राजा, तस्य वर्णनं ~ 293~ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [७४,७५] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७४,७५] गाथा: paersesedकहलeseब्लिट पामोक्खाणं छहं राईणं या जेणेव मिहिला तेणेव पहारेत्थ गमणाए, तते णं छप्पिय दूतका जेणेव मिहिला तेणेव उवाग०२ मिहिलाए अरगुजाणंसि पत्तेयं २ खंधावारनिवेसं करेंति २ मिहिलं रायहाणी अणुपविसंति २ जेणेव कुंभए तेणेव उवा०२ पत्तेयं २ करयल० साणं २ राईणं वयणार्ति निवेदेति, तते णं से कभए तेसिं दयाणं अंतिए एपमटुं सोचा आसुरुत्ते जाय तिवलियं भिउडि एवं वयासी-न देमि णं अहं तुम्भं मल्ली विदेहवरकपणंतिक१ ते छप्पि दूते असक्कारिय असम्माणिय अबहारेणं णिच्छुभावेति, तते णं जितसत्तुपामोक्खाणं छहं राईणं या कुंभएणं रचा असकारिया असम्माणिया अवदारेणं णिच्छुभाविया समाणा जेणेव सगा २ जाणवया जेणेव सयाति २णगराइंजेणेव सगा २ रायाणो तेणेव उवा० करयलपरिक एवं वयासी-एवं खलु सामी अम्हे जितसत्तुपामोक्खाणं छपहं राईणं दूया जमगसमगं चेव जेणेव मिहिला जाव अवदारेणं निच्छुभावेति, तं ण देइ णं सामी ! कुंभए मल्ली वि०, साणं २ राईणं एयमट्ट निवेदंति, तते णं ते जियसनुपामोक्खा छप्पि रायाणो तेर्सि दूयाणं अंतिए एयमढे सोचा निसम्म आसुरुत्ता अण्णमण्णस्स दूयसंपेसणं करेंति २ एवं वदासीएवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं छहं राईणं या जमगसमगं चेव जाब निच्छूढा, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं कुंभगस्स जत्तं गेण्हित्तएत्तिक? अपणमण्णस्स एतमढ पडिसुणेति २ पहाया सपणद्धा हत्थिखंधवरगया सकोरंटमल्लदामा जाव सेयवरचामराहि० महयाहयगयरहपवरजोहकलियाए चाउरं दीप अनुक्रम [९२-९५] ~294~ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [७४,७५] + गाथा: दीप अनुक्रम [९२-९५] श्रुतस्कन्धः [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्. ॥१४६॥ “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र -६ (मूलं + वृत्तिः ) अध्ययनं [८], मूलं [ ७४, ७५ ] + गाथा आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Education Internation गिणीए सेणाए सद्धिं संपरिवुडा सविट्टीए जाव रखेणं सएहिं २ नगरेहिंतो जाव निग्गच्छंत २ एगयओ मिलायंति २ जेणेव मिहिला तेणेव पहारेत्थ गमणाए, तते णं कुंभए राया हमीसे कहाए लट्ठे समाणे बलवाउयं सद्दावेति २ एवं वदासी- खिप्पामेव० हय जाब सेण्णं सन्नाहेह जाव पञ्चपिणंति, तते णं कुंभए पहाते सण्डे हत्थिखंध सकोरंट० सेयवरचामरए महया० मिहिलं मज्झमज्झेणं णिजाति २ विदेहं जणवयं मज्झमज्झेणं जेणेव देसअंते तेणेव उवा० २ खंधावार निवेस करेति २ जियस पा० छप्पिय रायाणो पडिवालेमाणे जुज्झसज्जे पडिचिट्ठति, तते णं ते जियसन्तुपामोक्खा छप्पिय राया णो जेणेव कुंभए तेणेव उवा० २ कुंभएणं रन्ना सद्धिं संपलग्गा यावि होत्था, तते णं ते जियसत्तुपामोक्खा छप्पि रायाणो कुंभयं रायं हयमहियपवर बीरघाइयनिवडियचिंधयप्पडागं किच्छप्पाणोवगयं दिसो दिसिं पडिसेहिति, तते णं से कुंभए जितसत्तुपामोक्खेहिं छहिं राईहिं हयमहित जाव पडिसेहिए समाणे अत्थामे अबले अवीरिए जाव अधारिणिज्जमितिकट्टु सिग्धं तुरियं जाब वेइयं जेणेव मिहिला तेणेव उवा० २ मिहिलं अणुपविसति २ मिहिलाए दुवारार्ति पिहे २ रोहसले चिट्ठति, तते णं ते जितसपामोक्खा छप्पि राया णो जेणेव मिहिला तेणेव उद्यागच्छति २ मिहिलं रायहाणिं णिस्संचारं णिरुच्चारं सहतो समंता ओरंभित्ताणं चिति, तते णं से कुंभए मिहिलं रायहाणिं रुद्धं जाणित्ता अभंतरियाए उद्वाणसालाए सीहासणवरगए तेसिं जितसत्तुपामोक्खाणं छण्हं रातीणं छिक्षणि य For Park Use Only ~ 295~ ८मल्यध्ययने युद्धपराजये प्रतिमया बोधःस्. ७५ ॥१४६॥ waryra Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [७४,७५] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७४,७५] गाथा: विवराणि य मम्माणि य अलभमाणे बहहिं आएहि य उवाएहि य उत्पत्तियाहि य ४ बुद्धीहि परिणामेमाणे २ किंचि आयं वा स्वायं वा अलभमाणे ओहतमणसंकप्पे जाव झियायति, इमं च णं मल्लीवि० पहाया जाव बहूहिं खुजाहिं परिवुडा जेणेव कुंभए तेणेव उ०२ कुंभगस्स पायग्गहणं करोति, तते णं कुंभए मल्लिं विदेह णो आढाति नो परियाणाइ तुसिणीए संचिट्ठति, तते णं मल्ली वि० कुंभग एवं वयासी-सुब्भेणं ताओ ! अण्णदा मम एजमाणं जाव निवेसेह, किणं तुभं अज ओहत झियायह ?, तते णं कुंभए महिं वि० एवं व०-एवं खलु पुत्ता! तव कज्जे जितसत्तुपमुक्खेहिं छहि रातीहिं दूया संपेसिया, ते णं मए असफारिया जाव निच्छूढा, तते णं ते जितसत्तुपामुक्खा तसि दूयाणं अंतिए एयम8 सोचा परिकुविया समाणा मिहिलं रायहाणि निस्संचारं जाव चिट्ठति, तते ण अहं पुत्ता तोर्स जितसत्तुपामोक्खाणं छहं राईणं अंतराणि अलभमाणे जाव सियामि, तते गं सा मल्ली वि० कुंभयं रायं एवं वयासी-मा मैं तुम्भे ताओ! ओहयमणसंकप्पा जाप झियायह, तुम्भे णं ताओ! तोर्स जियसनुपामोक्खाणं छहं राईणं पत्तेयं २ रहसियं दुयसंपेसे करेह, एगमेगं एवं बदह-तव देमि मार्मि विदेहवररायकण्णंतिकट्ठ संझाकालसमयंसि पविरलमणूसंसि निसंतंसि पडिनिसंतंसि पत्तेयं २ मिहिलं रायहाणि अणुप्पवेसेह २ गम्भघरएसु अणुष्पवेसेह मिहिलाए रायहाणीए दुवाराई पिधेह २ रोहसज्जे चिट्ठह, तते ण कुंभए एवं तं चेव जाव पवेसेति रोहसज्जे चिट्ठति, तते गं ते जितसत्तुपामोक्खा दीप अनुक्रम [९२-९५] ~296~ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [७४,७५] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: जाताधर्म-1 प्रत सूत्रांक [७४,७५] कथाङ्गम् दमझ्यभ्ययने युद्ध पराजये ॥१४७॥ प्रतिमया बोधः सू. गाथा: छप्पिय रायाणो कल्लं पाउन्भूया जाव जालंतरेहि कणगमयं मत्थयछिडं पउमुप्पलपिहाणं पडिमं पासति, एस गं मल्ही विदेहरायवरकपणत्तिकमलीए विदेहरूवे य जोवणे य लावणे य मुच्छिया गिद्धा जाव अझोववण्णा अणिमिसाए दिट्ठीए पेहमाणा २ चिट्ठति, तते णं सा मल्ली वि० पहाया जाव पायच्छित्ता सवालंकार बहूहिं खुजाहिं जाव परिक्खित्ता जेणेव जालघरए जेणेव कणयपडिमा तेणेच उवाग०२ तीसे कणगपडिमाए मत्थयाओतं पउमं अवणे ति, तते णं गंधे णिद्धावति से जहा नामए अहिमडेति वा जाव असुभतराए चेव, तते ण ते जियसत्तुपामोक्खा तेणं असुभेणं गंघेणं अभिभूया समाणा सरहिं २ उत्सरिजएहिं आसातिं पिहेंति २त्ता परम्मुहा चिट्ठति, तते णं सा मल्ली वि० ते जितसत्तुपामोक्खे एवं वयासी-किपणं तुम्भं देवाणुप्पिया! सएहिं २ उत्तरिजेहिं जाव परम्मुहा चिट्ठह ?, तते ण ते जितसत्नुपामोक्खा मल्ली वि० एवं वयंति-एवं खलु देवाणुपिए । अम्हे हमेणं असुभण गंधणं अभिभूया समाणा सएहि २ जाव चिट्ठामो, तते णं मल्ली वि० ते जितसत्तुपामुक्खे० जइ ता देवाणुपिया! इमीसे कणग. जाव पडिमाए कल्लाकाहिं ताओ मणुषणाओ असण ४ एगमेगे पिंडे पक्खिप्पमाणे २ इमेयारूवे असुभे पोग्गलपरिणामे इमस्स पुण ओरालियसरीरस्स खेलासबस्स बंतासवस्स पित्तासवस्स सुकसोणियपूयासवस्स दुरूवऊसासनीसासस्स दुख्वमुत्तपुतियपुरीसपुषणस्स सडण जाव धम्मस्स केरिसए परिणामे भविस्सति?, तं मा णं तुन्भे देवाणु ! माणुस्सएसु कामभोगेसु दीप अनुक्रम [९२-९५] ॥१४॥ भगवती मल्लिजिन एवं पूर्वभवानां मित्राणां प्रातिबोध: ~ 297~ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [७४,७५] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७४,७५] गाथा: सज्जह रज्जह गिजाह मुजाह अजमोववजह, एवं खलु देवाणु। तुम्हे अम्हे इमाओ तचे भवग्गहणे अवरविदेहवासे सलिलावर्तिसि विजए वीयसोगाए रायहाणीए महब्बलपामोक्खा सत्तवि य वालवयंसया रायाणो होत्था सहजाया जाव पचतिता, तए णं अहं देवाणुप्पिया! इमेणं कारणेणं इत्थीनामगोयं कम्मं निवत्तेमि जति णं तुभं चोत्थं उपसंपजित्ताणं विहरह तते णं अहं छ8 उपसंपज्जित्ताणं विहरामि सेसं तहेव सवं, तते णं तुम्भे देवाणुप्पिया! कालमासे कालं किया जयंते विमाणे उववण्णा तत्थ णं तुम्भे देसूणाति बत्तीसाति सागरोवमाई ठिती, तते ण तुन्भे ताओ देवलोयाओ अणंतरं चयं चइता इहेव जंबुद्दीवे २ जाव साई २ रज्जाति उवसंपजित्ताणं विहरह, तते णं अहं देवाणुताओ देवलोयाओ आउक्खएणं जाव दारियत्ताए पञ्चायाया,-किंथ तयं पम्हुटुंज थ तया भी जयंत पवरमि । वुत्था समयनिबद्धं देवा! तं संभरह जाति ॥१॥ तते गं तेर्सि जियसत्तुपामोक्खाणं छण्हं रायाणं मल्लीए विदेहराय० अंतिए एतमढे सोचा णिसम्म सुभेणं परिणामेणं पसत्येणं अजस वसाणेणं लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं तयावरणियाणं० ईहाबूह० जाव सणिज्जाइस्सरणे समुष्पन्ने, एयमह सम्म अभिसमागच्छति, तए णं मल्ली अरहा जितसत्तुपामोक्खे छप्पि रायाणो समुप्पण्णजाइसरणे जाणित्ता गम्भघराणं दाराई विहाडावेति,तते णं ते जितसत्तुपामोक्खा जेणेव मल्ली अरहातेणेव उवागञ्छति२ततेणं महन्यलपामोक्खा सत्तविय बालवयंसा एगयओ अभिसमन्नागया यावि होत्था,तते णं मल्लीए अरहाते दीप अनुक्रम [९२-९५] भगवती मल्लिजिन एवं पूर्वभवानां मित्राणां प्रातिबोध: ~298~ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [७४,७५] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७४,७५] जाताधर्मकयामू दमध्यध्ययने युद्धपराजये प्रतिमया बोधः सू. ॥१४८॥ गाथा: जितसत्तुपामोक्खे छप्पिय रायाणो एवं व-एवं खलु अहं देवा! संसारभयउबिग्गा जाव पपयामि तं तुम्भे णं किं करेह किं चववसह जाव किं भे हियसामत्थे ?.जियसत्त० मालिं अरहं एवं बयासी-जति णं तुम्भे देवा! संसार जाव पबयाह अम्हे णं देवा! के अण्णे आलंबणे वा आहारे वा पडिबंधे था जह चेव णं देवा! तुम्भे अम्हे इओ तच्चे भवग्गहणे बहुसु कजेसु य मेढी पमाणं जाव धम्मधुरा होत्था तहा चेव णं देवा इपिहपि जाव भविस्सह,अम्हेविय णं देवाणु संसारभउधिग्गा जाव भीया जम्मणमरणाणं देवाणुप्पियाणं सद्धिं मुंडा भवित्ता जाच पच्चयामो.तते णं मल्ली अरहा तेजितसत्तपामो. क्खे एवं बयासी-जण्णं तुम्भे संसार जाव मए सद्धिं पञ्चयह तं गच्छह णं तुम्भे देवा-सएहि २ रज्जेहिं जेट्टे पुत्ते रज्जे ठावेह रत्ता पुरिससहस्सवाहिणीओसीयाओदुरूहह दुरूदा समाणामम अंतियं पाउम्भवह, तते णं ते जितसत्तुपामुक्खा मल्लिस्स अरहतो एतमढे पडिमुणेति, तते णं मल्ली अरहा ते जितसत्तु० गहाय जेणेव कुंभए तेणेव उवागच्छद उवागच्छित्ता कुंभगस्स पाए पाडेति, तते णं कुंभए ते जितसतु विपुलेणं असण ४ पुष्फवत्थगंधमल्लालंकारेणं सकारेति जाव पडिविसज्जेति, तते णं ते जियसतुपामोक्खा कुंभएणं रपणा विसजिया समाणा जेणेव साई २ रजाति जेणेव नगरात तेणेव उवा०२ सगाई रजाति उपसंपज्जित्ता विहरंति, तते णं मल्ली अरहा संवरछरावसाणे निक्खमिस्सामित्ति मणं पहारेति (सूत्रं ७५) दीप अनुक्रम [९२-९५] ||१४८॥ | भगवती मल्लिजिन एवं पूर्वभवानां मित्राणां प्रातिबोध: ~299~ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [७४,७५] + गाथा: दीप अनुक्रम [९२-९५] श्रुतस्कन्धः [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः ) अध्ययनं [८], मूलं [ ७४, ७५ ] + गाथा आगमसूत्र - [ ०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः 'पामोक्खं 'ति उत्तरं आक्षेपस्य परिहार इत्यर्थः, 'हीलंती' त्यादि हीलयन्ति जात्याद्युद्घट्टनतः निन्दन्ति-मनसा कुत्सन्ति खिसंति परस्परस्याग्रतः तदोपकीर्त्तनेन गर्छन्ते तत्समक्षमेव 'हरुयार्लि'ति विकोपयन्ति मुखमर्कटिकातः अभूयया स्वमुखचक्रताः कुर्वन्ति, 'बग्घाडियाओ' ति उपहासार्था रुतविशेषाः, 'कुसुलोदत' वि कुशलवार्त्ता, 'अगडददुरे सिय'त्ति कूपमण्डको भवेत्, 'जमगसमगं'ति युगपत् 'जन्तं गिण्हित्तए'ति यात्रां विग्रहार्थं गमनं ग्रहीतुं आदातुं विधातुमित्यर्थः, 'बलवाडयं' ति बलव्यापृतं सैन्यव्यापारवन्तं 'संपलग्गे 'त्यत्र योद्धमिति शेषः, 'हयमहियपवरवीर घाइयविवडिय चिंधद्धयपडागे ति हतः - सैन्यस्य हतत्वात् मथितो मानस्य निर्मथनात् प्रवरा वीरा-भटा घातिता विनाशिता यस्य स तथा विपतिता चिह्नध्वजाः- चिह्नभूतगरुडसिंहधरा वलकध्वजादयः पताकाश्च हस्तिनामुपरिवर्त्तिन्यः प्रबलपरबलप्रयुक्ताने कतीक्ष्णक्षुरप्रहारप्रकरेण दण्डादिच्छेदनाद्यस्य स तथा ततः पदचतुष्कस्य कर्मधारयः, अथवा हयमथिताः- अश्वमर्द्दिताः प्रवरवीरा यस्य घातिताश्च सत्यो विपतितादिध्वजपताका यस्य स तथा तं, 'दिसोदिसं'ति दिशो दिशि सर्वत इत्यर्थः, 'पडिसेहंति' चि - आयोधनाद्विनिवर्त्तयन्ति निराकुर्वन्तीत्यर्थः, 'अधारणिज्जं ति अधारणीयं धारयितुमशक्यं परचलमितिकृला, अथवा अधारणीयं- अयापनीयं यापना कर्तुमात्मनो न शक्यत इतिकृला 'निस्संचारं ति द्वारापद्वारैः जनप्रवेशनिर्गमवर्जितं यथा भवति 'निरुच्चारं' प्राकारस्योर्ध्व जनप्रवेशनिर्गमवर्जितं यथा भवति अथवा उच्चारः पुरीषं तद्विसर्गार्थं यजनानां बहिर्निर्गमनं तदपि स एवेति तेन वर्जितं यथा भवत्येवं सर्वतो दिक्षु समन्तात् विदिक्षु 'अवरुध्य' रोधकं कृता तिष्ठन्ति स्मेति, 'रहस्सिए' चि रहसिकान् गुप्तान् 'दूतसंप्रेषान' दूतप्रेषणानि 'पविरलमणूसंसिचि प्रविरलाः मनुष्याः मार्गादिषु यस्मिन् सन्ध्याकाल Education Intemation For Parks Use One ~300~ www.landbrary.org Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [७४,७५] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म प्रत सूत्रांक [७४,७५] गाथा: समये स तथा तस्मिन् , तथा 'निशान्तेषु' गृहेषु 'प्रतिनिश्रान्ता' विश्रान्ता यस्मिन् मनुष्या इतीह द्रष्टव्यं, स तथा त्रत, दमयन्यअथवा सन्ध्याकालसमये सति तथा तत्रैव या अविरलो मनुष्यो-मानुपजनो मार्गेषु भवति तत्र निशाननेषु प्रतिनिश्रान्ते इत्यर्थःयने युद्ध 'जइ तावे'त्यादि, यदि तावदस्थाहारपिण्डस्यायं परिणामः अस्य पुनरौदारिकशरीरस्य कीदृशो भविष्यतीति सम्बन्धः, इह च। पराजये ॥१४९॥ 'किमंग पुण'त्ति यत्कचिद् दृश्यते ततः 'इमस्स पुण'चि पठनीयं वाचनान्तरे तथादर्शनात् , 'कल्लाकर्मिति प्रतिदिन प्रतिममा 'खेलासवे'त्यादि खेलं-निष्ठीवनं तदाश्रवति-क्षरतीति खेलाथ तस्य एवं शेषाण्यपि पदानि, नवरं वान्तं-चमनं पित्तं- बापासू. दोषविशेषः शुक्र-सप्तमो धातुः शोणितं-आर्व सामान्येन वा रुधिरं 'पूर्व परिपकं तदेव दूरूपी-विरूपावुच्छासनिःश्वासौभा७४-७५ यस्स तसथा तस्य, दूरूपेण मूत्रकेण पूतिकेन वा-अशुभगन्धवता पुरीषेण पूर्ण यत्तत्तथा तस्य, तथा शटनं-अगुल्यादेः कुष्ठा|दिना पतनं छेदन-पाहादेषिध्वंसनं च-चयः एते धर्माः-स्वभावा यस्य तत्तथा तस्य, 'सज्जह' सज्जत सहं कुरुत 'रज्यत'| | रागं कुरुत 'गिजाह' गृध्यत गृदि प्राप्तभोगेष्वतृप्तिलक्षणां कुरुत 'मुझह' मुघत मोई-तदोपदशेने मूढलं कुरुत 'अज्झो-12 ववजह' अध्युपपद्यर्च तदप्राप्तप्रापणायाध्युपपत्ति-तदेकाग्रतालक्षणां कुरुत, ' किंथ लयं' गाहा 'कि' मिति प्रश्ने, ' इति वाक्यालङ्कारे, 'तकत् तत् 'पम्हट्ट'ति विस्मृतं 'जति यत् थ इति वाक्यालङ्कारे 'तदा' तस्मिन् काले 'भो' इत्यामश्रणे 15 IT'जयंतप्रवरे' जयन्तामिधाने प्रवरेऽनुत्तरविमाने 'वुत्थति उषिता निवासं कृतवन्तः 'समयनिवर्द्ध' मनसा निबद्ध-18| ॥१४९॥ सङ्केतं यथा प्रतिबोधनीया वयं परस्परेणेति, समकनिषद्धा वा-सहितैर्या उपाता जातिस्ता देवाः अनुत्तरसुराः सन्ता, 'तति || त एव तो वा देवसम्बन्धिनी सरत जाति-जन्म यूयमिति ॥१॥ दीप अनुक्रम [९२-९५] ~ 301~ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [७६,७७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७६,७७] गाथा: तेणं कालेणं २ सकस्सासणं चलति, तते णं सके देविंदे ३ आसणं चलियं पासति २ ओहिं पञ्जति २ मलि अरहं ओहिणा आभोएति २ इमेयारूवे अन्भस्थिए जाच समुप्पवित्था-एवं खलु जंबुद्दीवे २ भारहे वासे मिहिलाए भगस्स० मल्ही अरहा निक्खमिस्सामित्ति मणं पहारेति.तं जीयमेयं तीयपचुप्पन्नमणागयाणं सकाणं ३ अरहंताणं भगवंताणं निक्खममाणाणं इमेयारूवं अत्थसंपयाणं दलितए, तंजहा-'तिण्णेच य कोडिसया अवासीति च होंति कोडीओ। असितिं च सयसहस्सा इंदा दलयंति अरहाणं ॥१॥ एवं संपेहेति २ वेसमणं देवं सद्दावेति २त्ता एवं खलु देवाणु ! जंबुद्दीवे २ भारहे वासे जाव असीर्ति च सयसहस्साई दलइत्तए, तं गच्छह णं देवाणुपिया! जंबु० भारहे• कुंभगभवणंसि इमेयाख्वं अत्थसंपदाणं साहराहि २ खिप्पामेव मम एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणाहि, तते णं से वेसमणे देवे सक्केणं देविदेणं एवं युत्ते हढे करयल जाव पडिसुणेइर जंभए देवे सद्दावेइ२ एवं वयासीगच्छह णं तुम्भे देवाणु जंबुद्दीवं दीवं भारहं वासं मिहिलं रायहाणि कुंभगस्स रन्नो भवणंसि तिन्नेव य कोडिसया अट्ठासीयं च कोडीओ असियं च सयसहस्साई अयमेयारूवं अत्थसंपयाणं साहरह २ मम एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह, तते गं ते जंभगा देवा वेसमणेणं जाव सुणेत्ता उत्तरपुरच्छिमं दिसीभार्ग अवक्रमति २ जाव उत्तरवेवियाई रुवाई विइति २ताए उकिटाए जाव बीइवयमाणा जेणेव जंबुद्दीवे २ भारहे वासे जेणेव मिहिला रायहाणी जेणेव कुंभगस्स रपणो भवणे तेणेव उवाग दीप अनुक्रम [९६ -१०८] INER भगवन्त मल्ली तिर्थकरस्य संवत्सरी-दानं ~302~ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) सूत्रांक [७६,७७] + गाथा: अनुक्रम [९६ -१०८] श्रुतस्कन्धः [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥ १५०॥ “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र -६ (मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [८], मूलं [ ७६,७७] + गाथा: आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः च्छति २ कुंभगस्स रन्नो भवणंसि तिन्नि कोडिसया जाब साहरंति २ जेणेव वेसमणे देवे तेणेव उवा० २ करयल जाव पञ्चपिणंति, तते णं से वेसमणे देवे जेणेव सके देविंदे देवराया तेणेव उवागच्छ २ करपल जाव पचप्पिणति, तते णं मल्ली अरहा कल्लाकलिं जाव मागहओ पायरासोति बहूणं सणाहाण य अणाहाण ये पंधियाण य पहियाण य करोडियाण य कप्पडियाण य एगमेगं हिरuratfs अ य अणूणातिं सयसहस्सातिं इमेयारूवं अत्यसंपदाणं दलयति, तए णं से कुंभए मिहिलाए रा० तत्थ २ तहिं २ देसे २ बहूओ महाणससालाओ करेति, तत्थ णं बहवे मणुया दिष्णभइभत्तवेयणा विपुलं असण ४ उबक्खर्डेति २ जे जहा आगच्छंति तं०-पंथिया वा पहिया वा करोडिया वा कप्पाडिया वा पासंडत्था वा गिहत्था वा तस्स य तहा आसत्थस्स वी सत्यस्स सुहासणवरगत ० तं विपुलं असणं ४ परिभाषमाणा परिवेसे माणा विहरंति, तते मिहिलाए सिंघाडग जाव बहुजणी अण्णमण्णरस एवमातिक्खति एवं खलु देवाणु०! कुंभगस्स रण्णो भवणंसि सङ्घकामगुणियं किमिच्छियं विपुलं असणं ४ बहूणं समणाण य जाव परिवेसिज्जति, घरवरिया घोसिजति किमिच्छयं दिज्जए बहुविहीयं । सुर असुरदेवदानवनरिंदमहियाण निक्खमणे ॥ १ ॥ तते णं मल्ली अरहा संवच्छरणं तिन्नि कोडिसया अट्ठासीति च होति कोडीओ असितिं च सय सहस्साई इमेयारूवं अत्थसंपदाणं दलहत्ता निक्खमामिति मणं पहारेति (सूत्रं ७६ ) तेणं कालेणं २ लोगंतिया देवा बंभलोए कप्पे रिट्टे विमाण भगवन्त मल्ली तिर्थकरस्य संवत्सरी-दानं For Park Use Only ~303~ ८मल्यध्ययने सांव४ त्सरिक दानं सू. ॥१५०॥ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [७६,७७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७६,७७] गाथा: पत्थडे सएहिं २ विमाणेहिं सएहिं २ पासायसिएहिं पत्तेयं २ चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं तिहिं परिसाहि सत्सहिं अणिएहि सत्तहिं अणियाहिबईहिं सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं अन्नेहि य यहूहिं लोगतिएहि देवहिं सद्धिं संपरिबुडा महयाहयनहगीयवाहय जाव रवेणं भुंजमाणा विहराइ, तंजहा'सारस्सयमाचा वण्ही वरुणा य गद्दतोया य । तुसिया अबाबाहा अग्गिचा चेव रिहा य ॥१॥ तते णं तेर्सि लोयंतियाणं देवाणं पत्तेयं २ आसणाति चलति तहेव जाव अरहताणं निक्खममाणाणं संघोहर्ण करेत्सएति तं गच्छामो णं अम्हेचि मल्लिस्स अरहतो संबोहणं करेमित्तिकहु एवं संपेहेंति २ उत्तरपुरच्छिमं दिसीभायं० वेचियसमुग्याएणं समोहणंति २ संखिजाई जोयणाई एवं जहा जंभगा जाव जेणेव मिहिला रायहाणी जेणेव कुंभगस्स रनो भवणे जेणेव मल्ली अरहा तेणेव उवागच्छंति २ अंतलिक्खपडिचन्ना सखिखिणियाइं जाव वत्वाति पवर परिहिया करपल ताहिं इट्ठा एवं बयासीबुज्झाहि भगवं! लोगनाहा पवत्तेहि धम्मतित्थं जीवाणं हियसुहनिस्सेयसकरं भविस्सतित्तिकटु दोचंपि तचपि एवं वयंति २ मल्लिं अरहं बंदंति नमसंति २जामेव दिसि पाउन्भूआ तामेव दिसिं पडिगया, तते णं मल्ली अरहा तेहिं लोगंतिएहिं देवेहिं संबोहिए समाणे जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवा०२ करयल. इच्छामिणं अम्मयाओ! तुम्भेहिं अभYण्णाते मुंडे भवित्ताजाव पचतित्तए, अहासुहं देवा० मा पडिबंधं करेहि, तते णं कुंभए कोडंबियपुरिसे सद्दावेति २एवं वदासी-खिप्पामेव अट्ठसहस्सं सोवणियाणं जाव दीप अनुक्रम [९६ -१०८] ARTMastaram.org | लोकान्तिकदेवैः भगवन्त-मल्लिं सम्बोधनं ~ 304~ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [७६,७७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म-18 प्रत सूत्रांक [७६,७७] कथाङ्गम्. ॥१५॥ मियध्ययने सांवत्सरिकदानं सू. ७६ गाथा: भोमेजाणंति, अण्णं च महत्थं जाब तित्थयराभिसेयं उबट्ठवेह जाव उवट्ठवेंति, तेणं कालेणं २ चमरे असुरिंदे जाच अच्चुयपज्जवसाणा आगया, तते णं सक्के ३ आभिओगिए देवे सद्दावेति २ एवं वदासीखिप्पामेव अट्ठसहस्सं सोवपिणयाण जाव अपणं च तं विउलं उबट्ठवेह जाव उवट्ठति, तेवि कलसा ते चव कलसे अणुपविट्ठा, तते णं से सके देविंदे देवराया कुंभराया मल्लिं अरहं सीहासणंसि परत्थाभिमुहं निवेसेह अट्ठसहस्सेणं सोवपिणयाणं जाव अभिर्सिचंति, तते णं मल्लिस्स भगवओ अभिसेए बद्दमाणे अप्पेगतिया देवा मिहिलं च सम्भितरं बाहिं आव सबतो समंता परिधावंति, तए णं कुंभप राया दोचंपि उत्तराचकमणं जाव सबालंकारविभूसियं करेति २ कोटुंषियपुरिसे सहावेइ २त्ता एवं बयासीखिप्पामेव मणोरमं सीय उवट्ठवेह ते उवट्ठति, तते णं सके ३ आभिओगिए खिप्पामेच अणेगखंभ० जाव मणोरमं सीयं उचट्ठवेह जाच सावि सीया तं चेव सीयं अणुपविट्ठा, तते णं मल्ली अरहा सीहासणाओ अन्भुढेति २ जेणेव मणोरमा सीया तेणेव उवा० २ मणोरमं सीयं अणुपयाहिणीकरेमाणा मणोरम सीयं दुरूहति २सीहासणवरगए पुरत्याभिमुहे सन्निसन्ने, तते णं कुंभए अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ सदावेति २ एवं वदासी-तुम्भे णं देवाणुप्पिया! पहाया जाव सबालंकारविभूसिया मल्लिस्स सीयं परिवहह जाव परिवहंति, तते णं सक्के दविंदे देवराया मणोरमाए दक्खिणिल्लं उवरिल्लं बाहं गेपहति, ईसाणे उत्तरिलं उवरिल्लं बाहं गेण्हति, चमरे दाहिणिलं हेढिल्लं, बली उत्तरिल्लं हेडिल्लं, अवसेसा देवा जहा दीप अनुक्रम [९६ हा ॥१५॥ -१०८] भगवन्त-मल्ली-तिर्थकरस्य दीक्षा-अभिषेक: (भगवन्त के जन्म-अभिषेक कि तरह भगवन्त कि दीक्षा के पूर्व भी ६४ ईन्द्र द्वारा अभिषेक होता है) ~305~ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [७६,७७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७६,७७] गाथा: रिहं मणोरमं सीयं परिवहंति, "पुचिं उक्खित्ता माणुस्सेहिं तो हट्ठरोमकूवहिं। पच्छा वहति सीयं असुरिंदसुरिंदनागेंदा ॥ १॥ चलचवलकुंडलधरा सच्छंदविउवियाभरणधारी । देविंददाणविंदा वहंति सीय जिणिंदस्स ॥२॥ तते णं मल्लिस्स अरहओ मणोरमं सीयं दुरुढस्स इमे अट्ठमंगलगा पुरतो अहाणु एवं निग्ग मो जहा जमालिस्स, तते णं मल्लिस्स अरहतो निक्खममाणस्स अप्पे देवा मिहिलं आसिय० अभितरवासविहिगाहा जाव परिधावति, तते णं मल्ली अरहा जेणेव सहस्संबवणे उजाणे जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवासीयाओ पचोरुभति २ आभरणालंकारं पभावती पडिच्छति, तते णं मल्ली अरहा सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेति, तते णं सक्के देविंदे ३ मल्लिस्स केसे पडिच्छति, खीरोदगसमुद्दे पक्खिवह, तते णं मल्ली अरहा णमोऽत्थु णं सिद्धाणंतिक? सामाइयचरित्तं पडिवज्जति, जं समयं च णं मल्ली अरहा चरितं पडिवज्जति तं समयं च णं देवाणं माणुसाण य णिग्घोसे तुरियनिणायगीयवातियनिग्घोसे य सकस्स वयणसंदेसेणं णिलुके यावि होत्था, जं समयं च णं मल्ली अरहा सामातियं चरित्तं पडिचन्ने तं समयं च णं मल्लिस्स अरहतो माणुसधम्माओ उत्तरिए मणपज्जवनाणे समुप्पन्ने, मल्ली णं अरहा जे से हेमंताणं दोचे मासे चउत्थे पक्खे पोससुद्धे तस्स णं पोससुद्धस्स एकारसीपक्खेणं पुषणहकालसमयंसि अट्टमेणं भत्तेणं अपाणएणं अस्सिणीहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं तिहिं इत्थीसएहिं अभितरियाए परिसाए तिहिं पुरिससरहिं बाहिरियाए परिसाए सद्धिं मुंडे भवित्ता पचहए, दीप अनुक्रम [९६ -१०८] | भगवन्त मल्लिजिनस्य दीक्षा-निष्क्रमण महोत्सव: ~306~ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [७६,७७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७६,७७] ज्ञाताधर्मकधाङ्कम् ॥१५॥ गाथा: मल्लिं अरहं इमे अढ रायकुमारा अणुपवइंसु तंजहा-णंदे य णदिमित्ते सुमित्त बलमित्त भाणुमित्ते य । दमयष्यअमरवति अमरसेणे महसेणे व अहमए ॥१॥तए णं से भवणवई ४ मल्लिस्स अरहतो निक्खमण- यने सावमहिमं करेंति २जेणेव नंदीसरवरे अट्ठाहियं करेंति २जाव पडिगया, तते णं मल्ली अरहा जंचेव दिवसं पव त्सरिक तिए तस्सेव दिवसस्स पुवा(पच्च) वरण्हकालसमयंसि असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलापट्टयंसि मुहा दानं सू. सणवरगयस्स सुहेणं परिणामेणं पसत्यहिं अज्झवसाणेहिं पसत्याहिं लेसाहिं विसुज्झमाणीहि तयावरण| कम्मरयविकरणकरं' अपुचकरणं अणुपविठ्ठस्स अणते जाव केवलनाणदंसणे समुप्पन्ने (सूत्रं ७७)। 'जाव मागहओ पापरासोति मगधदेशसम्बन्धिन प्रातराश-प्राभातिकं भोजनकालं यावत् प्रहरद्वयादिकमित्यर्थः,18 'बाहण'मित्यादि, सनाथेभ्य:-सखामिकेभ्यः अनाथेभ्यो-रकेभ्यः 'पंधियाणं ति पन्थानं नित्यं गच्छन्तीति पान्धास्त एव8 पान्थिकास्तेभ्यः 'पहियाणं'ति पथि गच्छन्तीति पथिकास्तेभ्यः अहितेभ्यो वा केनापि कचिव प्रेषितेभ्य इत्यर्थः करोट्याकपालेन चरन्तीति करोटिकास्तेभ्यः कचित 'कायकोडियाण ति पाठस्तत्र काचो-भारोद्वहनं तस्य कोटी-भागः काच-12 कोटी तया ये चरन्ति काचकोटिकास्तेभ्यः, कपटैश्चरन्तीति कार्यटिकाः कापटिका वा-कपटचारिणस्तेभ्यः, 'एगमेगं हत्था-IN मासंति वाचनान्तरे दृश्यते तत्र हस्तेन हिरण्यस्यामर्श:-परामर्शो ग्रहो हस्तामर्शः तत्परिमाणं हिरण्यमपि स एवोच्यते अत-1 स्तमेकैकमेकैकस्मै ददाति स, प्रायिक चैतत्सम्भाव्यते 'वरवरिया घोसिज्जइ किमिच्छियं दिजए बहुविहीय'ति वचनात् । अत | SH दीप अनुक्रम [९६ ॥१५॥ -१०८] ~307~ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययन [८], ----------------- मूलं [७६,७७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७६,७७] गाथा: एव 'एगा हिरण्णकोडी'त्याद्यपि शक्रार्पितहिरण्यदानप्रमाणमेव, यतोऽन्यदपि स्वकीयधनधान्यादिगतं दानं सम्भवतीति, 'तत्थ तत्यत्ति अवान्तरपुरादौ देशे देशे-शृङ्गाटकादौ 'तहिं तहिं ति तत्र तत्र महापथपथादीनां भागे भागे अतिबहुषु स्थानेष्विति तात्पर्यमिति, महानससाला-रसवतीगृहाणि 'दिण्णभयभत्तवेयण तिदन-वितीर्ण भृतिभक्तलक्षणं द्रव्यभोजनखरूपं वेतनमूल्यं येभ्यस्ते तथा 'पासंड'त्ति लिङ्गिनः 'सबकामगुणिय'ति सर्वे कामगुणा-अभिलपणीय पर्याया रूपरसगन्धस्पर्शलक्षणाः131 सन्ति सञ्जाता वा यत्र तत् सर्वकामगुणिक सर्वकामगुणितं वा, क: किमीप्सतीत्येवमिच्छानुसारेण यद्दीयते तत्किमीप्सितं, बहुभ्यः श्रमणेभ्यो ब्राह्मणेभ्यः सनाथेभ्य इत्यादि पूर्ववत् , 'सुरासुरियं ति वाचनान्तरे दृश्यते तत्र भोजने अयं च सूरोऽयं च मूरो भुक्तां च यथेष्टमित्येवं या परिवेषणक्रिया सा सूरामरिका पुटापुटिकादीनामिवात्र समासः तया सूरामरिकया, तृतीया || चेह सूत्रनिर्देशे द्वितीया द्रष्टव्येति, 'वरवरिया' गाहा वरख-इष्टार्थस्य चरण-ग्रहणं परवरिका, वरं वृणुत वरं वृणुतेत्येवं संशब्दनं 81 वरवरिकेति भावः, सुरासुरैर्देवदानवनरेन्द्रव महिता येते तथा तेषां, 'सारस्सय'गाहा सारखताः १आदित्याः २ वह्नयो ३]% | वरुणाश्च ४ गईतोयाश्च ५ तुषिताः ६ अध्यावाधाः ७ आग्नेयाचे ८ त्यष्टौ कृष्णराज्यचकाशान्तरस्थविमानाष्टकवासिनो रिष्ठावेति|रिष्ठाख्यविमानप्रस्तटवासिनः, कचित् दशविधा एते व्याख्यायन्ते, असाभिस्तु स्थानाङ्गानुसारेणैवमभिहिताः, 'हहरोमकूवेहिति रोमाश्चितैः 'चलचवलकुंडलधरति चलाच ते चपलकुण्डलधराति विग्रहः, 'सच्छंदविउबियाभरणधारित्ति खच्छन्दाश्च ते विकुर्विताभरणधारिणश्च स्वच्छन्देन वा-खाभिप्रायेण विकुर्वितान्याभरणानि धारयन्तीति विग्रहः, 'जहा जमालिस्स'चि भगवत्यां यथा जमालेः निष्क्रमणं वह वाच्यमिहेव वा यथा भेषकुमारस्य, नवरं चामर-18 दीप अनुक्रम [९६ -१०८] ~ 308~ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [७६,७७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म- प्रत सूत्रांक [७६,७७]] कथाझम. त्सरिक ॥१५३॥ ७६ गाथा: धारितरुण्यादिषु शकेशानादीन्द्रप्रवेशत इह विशेषः, 'आसिय० अभंतरा वास विहि गाहा' इति 'अप्पेगइया देवा मिहिलं रावहाणि सभितरवाहिरं आसियसंमञ्जियं संमहसुइरत्यंतरावणवीहियं करेंति, अप्पेगइया देवा मंचाइमंचक-1 यने सांवलियं करेंती'त्यादिर्मेधकुमारनिष्क्रमणोक्तनगरवर्णकस्स तथा 'अप्पेगइया देवा हिरण्णवासं वासिसु एवं सुवनवास वासिसु एवं रयणवहरपुष्फमल्लगंधचुण्णाभरणवासं वासिसु' इत्यादिवर्षसमूहस्य तथा 'अप्पेगइया देवा हिरण्णविहि माइंसु दानं सू. एवं 'सुवण्णचुण्णविहि भाईसु' इत्यादिविधिसमूहस्य तीर्थकरजन्माभिषेकोक्तसनहार्थी याः कचित् गाथाः सन्ति ताः अनुभित्य | सूत्रमध्येयं यावद् 'अप्पेगइया देवा आघाउँति परिधावन्तीत्येतदवसानमित्यर्थः, इदं च राजमभकृतादी द्रष्टव्यमिति, 'निलुकेति निलुकोऽन्तर्हित इत्यर्थः 'सुद्धस्स एकारसीपक्खेणं ति शुद्धपक्षस्य या एकादशी तिथिस्तत्पधे-तदढे गमि-18 त्यलकारे 'णायकुमार'चि हाता:-क्ष्वाकुवंशविशेषभूताः तेषां कुमारा:-राज्याही ज्ञातकुमाराः, 'तस्सेव दिवसस्स पुवा(पच)वरणहकालसमयंसिति यत्र दिवसे दीक्षा जग्राह तस्यैव पोषमासशुद्धैकादशीलक्षणस्य प्रत्यपराह्नकालसमये-पश्चिमे 8 भागे इदमेवावश्यक पूर्वाहे मार्गशीर्षे च श्रूयते,यदाह-'तेवीसाए गाणं उप्पन जिणवराण पुतण्हे'त्ति तथा 'मग्गसिरसुद्धए-18 कारसीए मल्लिस्स अस्सिणीजोगिति तथा तत्रैवाखाहोरात्र यावच्छावपर्यायः श्रूयते तदवाभिप्राय बहुश्रुता विदन्तीति, 'कम्मरयविकरणकर'ति कर्मरजोविक्षेपणकारि अपूर्वकरणमष्टमगुणस्थानक, अनन्त विषयानन्तखात् यावत्करणा-1| ॥१५॥ दिदं द्रष्टव्यं अनुत्तर-समस्तवानप्रधानं निर्व्यापातं-अप्रतिहतं निरावरण-क्षायिक कृत्स्न-सर्वार्थग्राहकखात् प्रतिपूर्ण-सकल-| खांशयुक्तनात् पौर्णमासीचन्द्रवत् केवलबरनानदर्शनं संशुद्धं वरविशेषग्रहणं सामान्यग्रहणं चेत्यर्थः । दीप अनुक्रम [९६ -१०८] ~309~ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ---------------- मूलं [७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सत्राक [७८] दीप सेणं कालेणं २ सबदेवाणं आसणाति चलंति समोसढा सुणेति अट्ठाहियमहा० नंदीसरं जामेव दिसं पाउ० कुंभएवि निग्गच्छति। तते गं ते जितसत्तुपा० एप्पि० जेट्टपुत्ते रज्जे ठावेत्ता 'पुरिससहस्सवाहिणीयाओ दुरूढा सचिड्डीए जेणेव मल्ली अ० जाव पज्जुवासंति, तते णं मल्ली अ० तीसे महालियाए कुंभगस्स तेसिं च जियसत्तुपामुक्खाणं धम्मं कहेति परिसा जामेव दिसि पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया, कुंभए समणोवासप जाते, पडिगए, पभावती य, तते णं जितसत्तू छप्पि राया धम्मं सोचा आलित्तए णं भंते ! जाव पच्चया, चोद्दसपुषिणो अणंते केवले सिद्धा, ततेणं मल्ली अरहा सहसंबवणाओ मिक्खमति २ बहिया जणवयविहारं विहरह, मल्लिस्सणं भिसगपामोक्खा अट्ठावीसं गणा अट्ठावीसं गणहरा होत्या, मल्लिस्सणं अरहओ चत्तालीसं समणसाहस्सीओ उक्कोव्बंधुमतिपामोक्खाओ पणपण्णं अजियासाहस्सीओउको सावयाणं एगा सतसाहस्सी चुलसीतिं सहस्सा सावियाणं तिनि सयसाहसीओ पण्णढि च सहस्सा छस्सया चोइसपुवीण वीससया ओहिनाणीणं बत्तीसंसया केवलणाणीणं पणतीसं सया वेउबियाणं अट्ठसया मणपज्जवनाणीणं चोइससया वाईणं वीसं सया अणुत्तरोववातियाणं, मल्लिस्स अरहओ दुविहा अंतगडभूमी होत्था तंजहा-जुयंतकरभूमी परियायतकरभूमी य, जाव चीसतिमाओ पुरिसजुगाओ जुयंतकरभूमी, दुवासपरियाए अंतमकासी, मल्ली णं अरहा पणुवीस घणूतिमुहूं उच्चत्तेणं वपणेणं पियंगुसमे समचउरससंठाणे बजरिसभणारायसंघयणे मज्झदेसे सुहंसुहेशं विहरित्ता जेणेव अनुक्रम [१०९] मल्लिजिनस्य षड् मित्राणां दिक्ष-महोत्सव: ~310~ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [ ७८ ] दीप अनुक्रम [ १०९ ] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र -६ (मूलं + वृत्तिः) श्रुतस्कन्धः [१] अध्ययनं [८], मूलं [७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाक्रम. ॥१५४॥ सम्मेए पचए तेणेव उवागच्छइ २त्ता संमेयसेल सिहरे पाओवगमणुववण्णे मल्लीण य एवं वाससतं आगारवा पणपणं वाससहस्सातिं वाससयऊणातिं केवलिपरियागं पाणित्ता पणपणं वाससहसाई सघाउयं पालता जे से गिम्हाणं पढमे मासे दोचे पक्खे चित्तसुद्धे तस्स णं चेतसुद्धस्स उत्थी भरणीए णक्खतेणं अद्धरत्तकालसमयंसि पंचहिं अजियासएहिं अभितरियाए परिसाए पंचहि अणगारसएहिं बाहिरियाए परिसाए मासिएणं भन्तेणं अपाणएणं वग्धारियपाणी खीणे वेयणिजे आउए नामे गोए सिद्धे एवं परिनिषाणमहिमा भाणियंत्रा जहा जंबुद्दीवपण्णत्तीए, नंदीसरे अट्ठाहियाओ पडिगयाओ, एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं अट्ठमस्स नायज्झयणस्स अयमट्टे पण्णत्तेतिबेमि (सूत्रं ७८ ) ॥ ८ ॥ 'अट्ठाहियामहिम 'ति अष्टानामहां समाहारोऽष्टाहं तदस्ति यस्यां महिमायां साऽष्टाहिका, इदं च व्युत्पत्तिमात्रं, प्रवृत्तिस्तु महिमामात्र एवेति दिवसस्य मध्ये तद्द्द्वयं न विरुध्यते इति, 'दुबिहा अंतकरभूमि त्ति अन्तकराः - भवान्तकराः निर्वाणयायिनस्तेषां भूमिः कालान्तरभूमिः, 'जयंतकर भूमी' त्ति इह युगानि - कालमानविशेषास्तानि च क्रमवर्त्तीनि तत्साधर्म्याचे क्रमवर्चिनो गुरुशिष्यप्रशिष्यादिरूपाः पुरुषास्तेऽपि युगानि तैः प्रमिताऽन्तकरभूमिः युगान्तकरभूमिः, 'परियायंतकर भूमी'ति पर्याय:तीर्थंकरस्य केवलिखकालस्तमाश्रित्यान्तकरभूमिर्या सा तथा तत्र, 'जावे त्यादि इह पश्चमी द्वितीयार्थे द्रष्टव्या ततो यावद्वि Educatuny Internationa मल्लिजिनस्य षड् मित्राणां दिक्ष महोत्सव: For Pernal Use On ~311~ ८मलीज्ञा ताध्य० म. लीनिर्वा णादि सू. ७८ ॥१५४॥ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ------------------ अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सत्राक [७८] शतितम पुरुष एवं युग पुरुषयुगं विंशतितम प्रतिशिष्यं यावदित्यर्थः युगान्तकरभूमिमल्लिजिनस्वाभवत् । मल्लिजिनादारभ्य। तत्तीर्थे विंशतितमं पुरुषं यावत् साधवः सिद्धास्ततः परं सिद्धिगमनव्यवच्छेदोऽभूदिति हृदयं, 'दुवासपरियाए'ति द्विवर्ष- पर्याये केवलिपर्यायापेक्षया भगवति जिने सति अन्तमकार्षीत-भवान्तमकरोत् तत्तीर्थे साधु रात् कथिदपीति, 'दुमासपरियाए' इति कचित् कचिच 'चउमासपरियाए' इति दृश्यते, 'वग्धारियपाणी'ति प्रलम्बितभुजा, 'जहा जंबुद्दीवपन्नत्तीए'त्ति यथा जम्बूद्वीपप्रज्ञायां ऋषभस्य निर्वाणमहिमोक्तस्तथेह मल्लिजिनस वाच्य इत्यर्थः, स चैवमर्थता-यत्र समये || मल्लिरहेन् कालगतो व्यतिक्रान्तः समुद्घातः छिन्नजातिजरामरणबन्धनः सिद्धः तत्र समये शक्रवलितासनः प्रत्युक्तावधि|र्विज्ञातजिननिर्वाणः सपरिवारः सम्मेतशैलशिखरेऽवततार, ततोऽसौ विमना निरानन्दोऽश्रुपूर्णनयनो जिनशरीरकं त्रिः प्रद- क्षिणीकृत्य अनतिदूरासने नमस्मन् पर्युपास्ते म, एवं सर्वेऽपि वैमानिकादयो देवराजाः, ततः शक्रो देवनन्दनवनात् आनायितगोशीर्षसरसदारुविहितचितित्रयः क्षीरसमुद्रादानीतक्षीरोदकेन जिनदेहं नापयामास गोशीर्षचन्दनेनानुलिलेप हंसल-18 !क्षणं शाटकं निवासयामास सर्वालङ्कारविभूषितं चकार, शेपा देवा गणधरानगारशरीरकाण्येवं चक्रुः, शक्रस्ततो देवेस्तिस्रः शिविकाः कारयामास, तत्रैकवासी जिनशरीरमारोपयामास महाच चितिस्थाने नीखा चितिकायां स्थापयामास, शेपदेवा गणधरानगारशरीराणि द्वयोः शिविकयोरारोप्य चित्योः स्थापयामासुः, ततः शक्रादेशादग्निकुमारा देवास्तिसप्वपि चितिष्वग्निकार्य, | विकृतवन्तो वायुकुमारास्तु वायुकार्य शेपदेवाश्च कालागुरुप्रवरकुन्दरुकतुरुकधूपान् घृतं मधु च कुम्भारशः प्रचिक्षिपुः, ततो मांसादिषु दग्धेषु मेधकुमारा देवाः क्षीरोदकेन चितीनिर्वापयामासुः, ततः शक्रो भगवतो दक्षिणमुपरितनं सस्थि जग्राह दीप अनुक्रम [१०९] ~312~ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ---------------- मूलं [७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म- कथाङ्गम, प्रत सत्राक ॥१५५|| [७८] ईशानश्च वामं चमरोधस्तनं दक्षिण वलियम शेषा यथार्हमङ्गोपाङ्गानि गृहीतवन्तः, ततस्तीर्थकरादिचितिक्षितिषु महास्तूपान् । मल्लीज्ञाचक्रुः परिनिर्वाणमहिमानं च, ततः शक्रो नन्दीश्वरे गता पूर्वमिन्नञ्जनकपर्वते जिनायतनमहिमानं चकार तल्लोकपालास्तुताध्यमचत्वारश्चतुर्दा पूर्वाञ्जनपार्श्ववर्तिषु दधिमुखपर्वतेषु सिद्धायतनमहिमानं चक्षुः, एवमीशानः उत्तरसिंस्तल्लोकपालास्तत्वार्थलीनिर्वावर्तिदधिमुखेषु चमरो दक्षिणाञ्जनके तल्लोकपालास्तथैव बलिः पश्चिमेऽञ्जनके तल्लोकपालास्तथैव, ततः शक्रः स्वकीये विमाने 8 णादि सू. गला सुधर्मसभामध्यव्यवस्थितमाणवकाभिधानस्तम्भवर्तिवृत्तसमुद्कानवतार्य सिंहासने निवेश्य तम्मध्यवर्तिजिनसक्थीन्यपू-ISH पुजत् मल्लिजिनसक्थि च तत्र प्राविपद् एवं सर्वे देवा इति, 'एव'मित्यादि निगमनम् ॥ इह च ज्ञाते यद्यपि | दृष्टान्तदाष्टोन्तिकयोजना सूत्रेण न दर्शिता तथापि द्रष्टच्या, अन्यथा ज्ञातसानुपपत्तेः, सा च किलैचम्-"उग्गतवसं- जमवओ पगिढफलसाहगस्सवि जियस्स | धम्मविसएवि सुहुमावि होह माया अणस्थाय ॥१॥ जह मल्लिस्स महाबलभवंमि || तिस्थयरनामबंधेवि । तवविसय थेवमाया जाया जुवइत्तहेउत्ति ॥२॥ [उग्रतपःसंयमवत: प्रकृष्टफलसाधकस्यापि जीवस्य धर्मविषयाऽपि सूक्ष्माऽपि भवति माया पुनरनर्थाय ॥ १॥ यथा मल्या महाबलभवे तीर्थकरनामवन्धेऽपि तपोविषI स्तोका माया जाता युवतिभावहेतुः ॥२॥] अष्टमज्ञातविवरणं समासमिति ॥८॥ दीप अनुक्रम [१०९] अत्र अध्ययन-८ परिसमाप्तम् ~313~ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ------------------अध्ययन [९], ----------------- मूलं [७९-८०]मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अथ नवमज्ञातविवरणम् । प्रत सूत्रांक [७९-८०] दीप अनुक्रम [११० eKEReserveeeeee अथ नवमं विवियते, अस्य च पूर्वेण सहायमभिसम्बन्धः-पूर्वत्र मायावतोऽनर्थ उक्तः इह तु भोगेष्वविरतिमतोऽनों विरतिमतथार्थोऽभिधीयते इत्येवंसम्बद्धंजइणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं अट्ठमस्स णायज्झयणस अयमढे पण्णत्ते नवमस्स णं भंते नायजायणस्स समणेणं जाव संपत्तेणं के अढे पण्णत्ते , एवं खलु जंबू। तेणं कालेणं २चंपा नाम नयरी पुण्णभद्दे तत्थ णं माकंदी नाम सत्यवाहे परिचसति, अहे, तस्स णं भद्दा नाम भारिया, सीसे णं महाए अत्तया दुवे सत्यवाहदारया होत्या, तंग-जिणपालिए य जिणरक्खिए य, तते णं सेसिं मागंदियदारगाणं अण्णया कयाई एगपओ इमेयारूवे मिहो कहासमुल्लावे समुप्पवित्था-एवं खल्लु अम्हे लवणस. मुई पोयवहणेणं एकारस वारा ओगाढा सबस्थविय णं लट्ठा कयकज्जा अणहसमग्गा पुणरवि निययघरं हवमागया त सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया ! दुवालसमंपि लवणसमुदं पोतवणेणं ओगाहित्तएत्तिकड अण्णमण्णस्सेतमटुं पडिसुणेति २त्सा जेणेव अम्मापियरो तेणेव ७वा. एवं वदासी-एवं खलु अम्हे अम्मयाओ! एकारस वारा तं चेव जाव निययं घरं हवमागया,तं इच्छामो णं अम्मयाओ! तुम्हेहिं -११२] अथ अध्ययन- ९ "माकन्दी आरभ्यते ...शिर्षक स्थाने मया यत् [७९-८०] लिखितं तत् स्पष्टीकरण-- (मूल संपादक द्वारा सूत्र ७९, ऐसा क्रम भुलसे दोबार दिया गया है, उसके बाद सूत्र-८० है, मतलब यहां तीन सूत्र एक साथ है, इसिलिए हमने ७९,८० ऐसी हमारी पध्धत्ति को छोडकर यहा ७९-८० लिखा है ~314~ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ---------------- अध्ययनं [९], ----------------- मूलं [७९-८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. प्रत सूत्रांक [७९-८०] ॥१५६॥ दीप अनुक्रम [११०-११२] अन्भणुपणाया समाणा दुवालसमं लवणसमुदं पोयवहणेणं ओगाहित्तए, तते ण ते मागंदियदारए ९माकअम्मापियरो एवं वदासी-इमे ते जाया! अजग जाव परिभाएत्तए तं अणुहोह ताय जाया ! बन्दीज्ञाता० विउले माणुस्सए इड्डीसकारसमुदए, किंभे सपच्चवाएणं निरालंबणेणं लवणसमुद्दोत्तारेण ?, एवं खलु लवणोदपुसा! दुवालसमी जत्ता सोचसग्गा यावि भवति, तं मा णं तुम्भे दुवे पुत्ता! दुवालसमंपि लवण धियात्रा जाव ओगाहेह, मा हु तुम्भं सरीरस्स वावत्ती भविस्सति, तते णं मागंदियदारगा अम्मापियरो दोचपि तपेपि एवं वदासी-एवं खलु अम्हे अम्मयाओ! एकारस वारा लवणं ओगाहित्सए, तते णं ते मार्गदीदारए अम्मापियरो जाहे नो संचाएंति बहहिं आघवणाहिं पण्णवणाहि य आघवित्तए वा पन्नवित्तए वा ताहे अकामा चेव एयमहूं अणुजाणिस्था, तते णं ते मागंदियदारगा अम्मापिकहिं अग्भणुण्णाया समाणा गणिमं च धरिमं च मेजं च पारिच्छेज्जं च जहा अरहणगस्स जाव लवणसमुई बरई जोअणसयाई ओगाढा (सूत्रं ७९) तते णं तेसिं मागंदियदारगाणं अणेगाई जोयणसयाई ओगाढाणं समाणाणं अणेगाई उप्पाहपसयाति पाउम्भूयाति, तंजहा-अकाले गजियं जाव थणियस कालियवाते तत्व समु. ॥१५६॥ हिए, तते णं सा णावा तेणं कालियवातणं आहुणिजमाणी २ संचालिबमाणी २ संखोभिजमाणी २ सलिलतिक्खवेगेहिं आयडिजमाणी२ कोहिमंसि करतलाहते विव तेंदूसए तत्थेव २ ओवयमाणी य उप्पयमाणी य उप्पयमाणीविच धरणीयलाओ सिद्धविजाहरकनगा ओवयमाणीविष गगणतलाओ *. अत्र सूत्रक्रमांक स्थाने मूल संपादने एका स्खलना वर्तते- यत् सू. ७९ स्थाने सू. १९ मुद्रितं ~315~ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [७९-८०] दीप अनुक्रम [११० -११२] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] अध्ययनं [९], मूलं [ ७९-८० ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Jan Eucatury International भट्टविज्जा विजाहरकन्नगाविव पलायमाणीविव महागरुलवेगवित्तासिया भुयगवरकन्नगा धावमाणीविव महाजणरसियस वित्तत्था ठाणभट्ठा आसकिसोरी णिगुंजमाणीविव गुरुजणदिट्ठावराहा सुयणकुलकन्नगा घुम्ममाणीविव वीचीपहारसततालिया गलियलंबणाविव गगणतलाओ रोयमाणीविच सलिलगंद्विविप्पइरमाणघोरं सुवाएहिं णववह उवरतभतया विलवमाणीविव परचकरायाभिरोहिया परममहन्भ या महापुरवरी झायमाणीविव कवडच्छोमप्पओगजुत्ता जोगपरिवाइया णिसासमाणीविव महाकतारविणिग्गयपरिस्संता परिणयवया अम्मया सोयमाणीविव तवचरणखीणपरिभोगा चयणकाले देववरबहू संचुण्णियककूवरा भग्गमेडिमोडियसहस्समाला सुलाइयवकपरिमासा फलहंतरतडतडेंतहंतसंधिवियलंत लोहकीलिया सवंगवियंभिया परिसडियरज्जुविसरतसदगत्ता आमगमलगभ्रूया अकपपुण्णजणमणोरहोबिव चिंतिजमाणगुरुई हाहाकयकण्णधारणाचियवाणियगजणकम्मगारविलविया णाणाविहरयणपणियसंपुष्णा बहूहिं पुरिससएहिं रोयमाणेहिं कंद० सोय० तिप्प० विलवमाहिं एवं महं अंतो जलगयं गिरिसिहरमासायहत्ता संभग्गकवतोरणा मोडियझयदंडा वलयसयखंडिया करकरस्स तत्थेव विद्दवं उबगया, तते णं तीए णावाए भिमाणीए बहवे पुरिसा विपुलपडियं भंडमायाए अंतो जलंमि णिमज्जावि यावि होत्था (सूत्रं७९) तते णं ते मागंदियदारगा छेया दक्खा पट्ठा कुसला मेहावी णिउणसिप्पोबगया बहुसु पोतवहणसंपराए कयकरणलद्धविजया अमूढा अमूढहत्था For Parts Only ~ 316~ wor Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ------------------ अध्ययनं [९], ----------------- मूलं [७९-८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्। ९ माकदीदारकज्ञाते नौ ॥१५७॥ प्रत सूत्रांक [७९-८०] निमजनं एग महं फलगखंडं आसाति, जंसिंच णं पदेसंसि से पोयवहणे विवन्ने तसिं च णं पदेससि एगेमहं रवणदीचे णाम दीचे होत्था अणेगाई जोअणाति आयामविक्खंभेणं अणेगाईजोअणाई परिक्खेवणं णाणादुमसंडमंडिउद्देसे सस्सिरीए पासातीए ४, तस्स गं बहुमज्झदेसभाए तत्थ णं महं एगे पासायवसए होत्था अन्भुग्गयमूसियए जाव सस्सिरीभूपतवे पासातीए ४, तत्थ णं पासायबसए रयणद्दीवदेवया भाम देवया परिवसति पाचा चंडा रुदा साहसिया, तस्स णं पासायवसियस्स चउरिसिं चत्तारि चणसंडा किण्हा किण्होभासा, तते णं ते मागंदियदारगा तेणं फलयखंडेणं उबुज्नमाणा २ रपणदीचंतेणं संवुढा यावि होत्या, तते ते मागंदियदारणा याहं लभंति २ मुटुसतरं आससंति २ फलगखंडं विसजेति २ रयणदीव उत्तरंति २फलाणं मम्गणमवेसणं करेंति २फलार्ति गिण्हंति २ आहारैति २णाकि- एराणं मग्गणमवेसणं करेंति २ गालिएराई फोडेंति २ नालिएरतेल्लेणं अपणमण्णस्स गत्ताई अभंगति २ पोक्खरणीतो ओबाहिति २ जलमजणं करेंति २ जाब पबुत्तरंति २पुढविसिलापडपंसि निसीयंति २ आसत्था बीमत्था मुहासणवरगया चंपानयार अम्मापिउआपुच्छणं व लवणसमुदोत्तारं च कालियथायसमुत्थर्ण च पोतबहणविवर्ति च फलयखंडस्स आसायणं च रयणदीनुत्तारं च अणुर्णिलेमाणा २ मोहतमणसंकप्पा आव सिवायेन्ति, तते सा रथाद्दीचदेवया ते मामंदिपदारए जोहिणा आमोएतिअसिफसगवग्गहस्था खसहतालप्पमाणं हूं बहासं जम्पयति २ खाते बिहाए जान देषगईए पीइय लद्वीपदेवतासंगः सू.८० दीप अनुक्रम [११० -११२] ॥१५७॥ ~317~ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [७९-८०] दीप अनुक्रम [११० -११२] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] अध्ययनं [९], मूलं [७९-८० ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः माणी २ जेणेव मानंदियदारए तेणेव आगच्छति २ आसुरुता मादिपदारए खरफरूसनिठुरवयणेहिं एवं वदासी-हं भो मागंदियदारया ! अप्यत्थियपत्थिया जति णं तुम्भे मए सद्धि बिलात भोगभोगाई जमाया विरह तो थे अत्थि जीविअं, अहरणं तुम्मे मए सद्धिं विजातिं नो विहरह तो भे इमेणं नीलुप्पलनवलगुलिय जान खुरधारेणं असिमा रतगंडबाई मायाहिं उबसोहियाई तालफलाणीव सीसाई एते एडेमि, तते णं ते मार्गदियदारमा रमणदीवदेषपाए अंतिए सो० भीया करयल० एवं जपणं देवाणुपिया ! वतिस्ससि तस्स आणाउववायवयणनिदेसे चिहिस्सामो, तते णं सा रयगावदेवा से मागंदियदारए नेण्हति २ जेणेव पासायवडिंसए तेणेव उबागच्छ २ असुभपोग्गलावहारं करेति २ सुभपोग्गलबक्स्वेवं करेति २त्ता पच्छा तेहिं सद्धिं विडला भोग भोगाई भुंजमाणी विहरति कल्लाकहिं व अमयफलातिं उयमेति (सूत्रं ८० ) सर्व सुगम, नवरं 'निरालंबणेणं' निष्कारणेन प्रत्यपायसम्भवे वा त्राणायाऽऽलम्बनीयवस्तुबर्जितेन 'कालियावाप तत्थ'ति कालिकाबातः- प्रतिकूलवायुः, 'आहुणिनमाणी'त्यादि आधूयमाना कम्पमाना विद्रवमुपगतेति सम्बन्धः, सञ्चाल्यमाना- स्थानात् स्थानान्तरनयनेन सोध्यमाना अघो निमजनदः उद्गतलोकक्षोभोत्यादाद्वा सलिलातीक्ष्ण वेमैरतिवर्त्यमानाआक्रम्यमाणा कुट्टिमे करवलेनाहतो मः स तथा स इव 'तेंदूसए' ति कन्दुकः तत्रैव प्रदेशेऽधः पतन्ती बा-अधो मच्छन्ती उत्प Education Internationa For Pernal Use On ~ 318~ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [ ७९-८०] दीप अनुक्रम [११० -११२] श्रुतस्कन्ध: [१] अध्ययनं [९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६ ] ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. [રપઢી “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) Educatin internation तन्ती वा ऊर्द्ध यान्ती तथोत्पतन्तीव धरणीतलात् सिद्धविद्या विद्याधरकन्यका तथाऽधः पतन्तीव गगनतलाद् भ्रष्टविद्या वि| द्याधरकन्यका तथा विपलायमानेव - भयाद्धावन्तीव महागरुड वेगवित्रासिता भुजगकन्यका धावन्तींव महाजनस्य रसितशब्देन वित्रस्ता स्थानभ्रष्टाऽव किशोरी तथा विगुञ्जन्तीव-अव्यक्तशब्दं कुर्वन्तीव अवनमन्तीव वा गुरुजनदृष्टापराधा-पित्राद्युपलब्धव्यलीका सुजनकुलकन्यका कुलीनेति भावः, तथा घूर्णन्तीव वेदनया थरथरायमाजेव वीचिप्रहारशतताडिता हि स्त्री वेदनया घूर्णतीति वेदनयेव घूर्णयन्तीत्येवमुपमानं द्रष्टव्यं गलितलम्बनेव-आलम्बनाद् भ्रष्टेव गगनतलाद्-आकाशात् पतितेति गम्यते, यथा क्षीणबन्धनं फलाद्याकाशात् पतति एवं साऽपीति, कचित्तु गलितलम्बना इत्येतावदेव दृश्यते, तत्र लम्ब्यन्ते इति लम्बना:--नङ्गरास्ते गलिता यस्यां सा तथा, तथा रुदन्तीव, केः केत्याह-सलिलभिन्ना ये ग्रन्थयस्ते सलिलग्रन्थयः ते च ते 'विप्पइरमाण'ति विप्रकिरन्तथ सलिलं क्षरन्त इति समासः तं एवं स्थूरा अश्रुपातास्तैर्नववधूरुपरतभर्तृका तथा विलपन्तीय, कीदृशी केल्याह-परचक्रराजेन - अपरसैन्यनृपतिनाऽभिरोहिता - सर्वतः कृतनिरोधा या सा तथा परममहाभयाभिद्रुता महापुरवरी, तथा क्षणिकस्थिरत्व साधर्म्यात् ध्यायन्तीव कीडशी केत्याह- कपटेन-वेषाद्यन्यथावेन यच्छद्म तेन प्रयोगः- परप्रतातरणव्यापारः तेन युक्ता या सा तथा योगपरिवाजिका-समाधिप्रधानत्रतिनीविशेषः, तथा निःश्वसन्तीव अधोगमनसाधर्म्यात् तद्गत जननिःश्वाससाधर्म्याद्वा निःश्वसन्तीव कीदृशी केत्याह--महाकान्तारविनिर्गता परिश्रान्ता च या सा तथा परिणतवया - विगतयौवना 'अम्मय'ति अम्बा पुत्रजन्मवती, एवंभूता हि स्त्री श्रमप्रचुरा भवति ततश्वात्यर्थं निःश्वसितीत्येवं सा विशेषितेति तथा तद्गतजनविषादयोगात् शोचन्तीव, कीडशी केवेत्याह- तपश्चरणं ब्रह्मचर्यादि तत्फलमपि उपचारात् तपश्वरणं For Parts Only मूलं [७९-८० ] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~ 319~ ९. माकन्दीज्ञाता. सू. १७९-८० ॥ १५८॥ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ------------------ अध्ययनं [९], ----------------- मूलं [७९-८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७९-८०] खर्गसम्भवमोगजातं तसा क्षीणः परिभोगो यस्याः सा तथा, च्यवनकाले देववरवधूः, अथवा 'उप्पयमाणीवियेत्यादाविवशब्दसान्यत्र योगादुत्पतन्ती नौः, केव-सिद्धविद्याविद्याधरकन्यकेवेत्यादि व्याख्येयमिति,तथा सञ्चूर्णितानि काष्ठानि कूवर च-तुण्डं यस्याः सा तथा, तथा भया मेढी-सकलफलकाधारभूतकाष्ठरूपा यस्याः सा तथा, मोटितो-मनः सहसा-अकस्मात् सहस्रसाजनाश्रयभूतो वा मालो-मालकः उपरितनभागो जनाधारो यस्याः सा तथा, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, तथा । शूलाचितेव-शूलापोतेव गिरिभृङ्गारोहणेन निरालम्बनतां गतखाछ्लाचिता पङ्को-वक्र: परिमों-जलधिजलस्पर्शो यस्खाः सा तथा ततः कर्मधारयः अथवा शूलायित:-आचरितशूलारूप: स्कन्दितपरिकरवात् 'मूलाइच'चि पाठे तु शूलाय-18 मानो वन-वक्र: 'परिमासोति नौगतकाष्ठविशेषो नाविकप्रसिद्धो यस्यां सा तथा, फलकान्तरेषु-सङ्कटितफलकविवरेषु तटतटायमाना:-तथाविधध्वनि विदधानाः स्फुटन्तो-विघटमानाः सन्धयो-मीलनानि यस्यां सा तथा, विगलन्त्यो लोहकीलिका यस्यां सा तथा, ततः कर्मधारयः, तथा सर्वाङ्ग:-सर्वावयवैर्विजृम्भिता-विवृततां गता या सा तथा, परिशटिता रजवा-फलकसङ्घातनदवरिका यस्याः सा तथा, अत एच 'विसरंत'त्ति विशीर्यमाणानि सर्वाणि गात्राणि यस्याः सा तथा, ततः कर्मधारयः, आमकमल्लकभूता-अपकशराबकल्पा, जलसम्पर्के क्षणेन विलयनात्, तथा| अकृतपुण्यजनमनोरथ इव चिन्त्यमाना-कथमियमेतामापदं निस्तरिष्यतीत्येवं विकल्प्यमाना गु/-गुरुका, आपदः सकाशात् दुःसमुद्धरणीयखात्, निपुण्यजनेनापि खो मनोरथः कथमयं पूरयिष्यत इत्येवं चिन्त्यमानो दुनिहखाद् गुरुरेव भव-18 KR न्तीति तेनोपमेति, तथा हाहाकृतेन-हाहाकारण कर्णधाराणां-निर्यामकाणां नाविकाना-कैवर्चानां वाणिजकजनानां कर्मकराणां दीप अनुक्रम [११० -११२] ~320~ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ------------------ अध्ययनं [९], ----------------- मूलं [७९-८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म कथानम् ॥१५॥ प्रत सूत्रांक [७९-८०] दीप अनुक्रम [११०-११२] |च प्रतीतानां विलपितं-विलापो यस्यां सा तथा, नानाविधै रत्नैः पण्यैश्च-भाण्डैः सम्पूर्णा या सा तथा, 'रोयमाणेहि ति ९माकसशब्दमश्रूणि विमुञ्चत्सु 'कंदमाणेहि ति शोकान महाध्वनि मुञ्चत्सु 'सोयमाणेहि शोचत्सु मनसा खिद्यमानेषु तिप्पमा-न्दीज्ञाता. णहिति भयात् प्रखेदलालादि तर्पत्सु 'विलपत्सु धार्त जल्पत्सु एक महन् 'अंतो जलगर्य'ति जलान्तर्गतं गिरिशि-181 खरमासाथ सम्भन्नः कूपका-कृपकस्तम्भो यत्र यत्र सितपटो निवध्यते तोरणानि च यस्यां सा तथा, तथा मोरिता वज-11७९-८० दण्डा यस्यां सा तथा, बलकानां-दीर्घदारुरूपाणां शतानि खण्डानि यस्यां सा तथा अथवा वलयशतैः-वलयाकारखण्डशतैः खण्डिता या सा तथा, 'करकर'त्ति करकरेतिशब्दं विधाना तत्रैव जलधौ विद्रवं-विलयमुपगतेति, पोयवहणसंपराएK'ति 18 सम्परायः-सङ्ग्रामः तव्यानि भीषणानि पोतवहनकार्याणि तानि तथोच्यन्ते तेषु, देवताविशेषणानि विजयचौरविशेषणवद् । गमनीयानि, 'असिखेडगवग्गहस्थति खडफलकाभ्यां व्यत्रौ हस्तौ यस्याः सा तथा, 'रत्तगंडमंसुयाईति रक्तौ-रञ्जितौ || गण्डौ पैस्तानि रक्तगण्डानि तानि श्मथूणि-पूर्चकेशाः ययोस्ते रक्कमण्डश्मभुके 'माउयाहि जयसोहियाईति इह माउयाउ18 उत्तरोष्ठरोमाणि सम्भाष्यन्ते अथवा 'माया' सस्यो मातरो वा वाभिः उपशोमिते-समारचितकेशलादिना जनितशोभे|81 उपशोभिते वा-निर्मलीकते शिरसी-मस्तके छिच्चेति वाक्यशेषः, 'जण्णं देवाणुप्पिए'त्यादि, यं कञ्चन प्रेष्याणामपि प्रेम देवानुप्रिया वदिष्यति-उपदेश्यति यदुतायमाराध्यः 'तस्स'त्ति तस्यापि आस्वां भवत्याः आबा-अवश्य विधेयतया आदेशः ॥१५९॥ उपपात:-सेवावचनं अनियमपूर्वक आदेश एवं निर्देश:-कार्याणि प्रति प्रश्ने कृते यत्रियवार्यनुचरमेतेषां समाहारद्वन्द्वः तत्र अथवा यद्देवानां प्रिया वदिष्यति तस्ससि तत्र आज्ञादिरूपे सास्थामा वर्तिघ्याम इति, अमयफलाई ति अमृतोपमफलानि । ~321~ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] --------------- अध्ययनं [९], --------------- मूलं [८१] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक Doesea ८१] गाथा: तते णं सा रयणदीवदेवया सक्कवयणसंदेसेणं मुट्ठिएणं लवणाहिवणा लवणसमुद्दे तिसंसखुसो अणपरिपहियवेत्ति ज किंचि तत्थ तर्ण वा पत्तं वा कटु वा कयवरं वा असुई पूतिय दुरभिगंधमचोक्वं तं सर्व आहुणिय २ तिसत्तखुत्तो एगंते एडेयवंतिकड्ड णिउत्ता, तत्ते णं सा पणदीवदेवया ते भागंदियदारए एवं वदासी-एवं खलु अहं देवाणुप्पिया! सत्र सुट्टियः तं चेव जाव णिउत्ता, तं जाव अहं देवालवणसमुदे जाव एडेमि ताव तुम्भे इहेव पासायवर्डिसए सुहंसुहेणं अभिरममाणा चिट्ठह, जति णं तुम्भे एयंसि अंतरंसि उबिग्गा वा उस्सुया वा उप्पुषा वा भवेजाह तो णं तुन्भे पुरच्छिमिल्लं वणसंडं गच्छेज्जाह, तत्थ णं दो ऊऊ सया साहीणा तं०-पाउसे य वासारत्ते य, तत्थ उ कंदलसिलिंधदंतो णिउरवरपुष्फपीवरकरो । कुडयज्जणणीवसुरभिदाणो पाउसऊगयवरो साहीणो ॥१॥ तत्थ प-सुरगोचमणिविचित्तो वहुरकुलरसियउजमररयो। वरहिणविंदपरिणासिहरो वासारत्तो उऊपवतो साहीणो ॥२॥ तत्थ णं तुम्भे देवाणुप्पिया! बहुसु बाबीसु य जाय सरसरपंतियासु बहसु आलीघरएसु य मालीघरएसु य जाच कुसुमघरएसु य सुहंमुहेणं अभिरममाणा विहरेज्जाह, जति णं तुम्भे एस्थवि उबिग्गा वा उस्सुया वा उप्पुया वा भवेज्जाह तो णं तुम्भे उत्तरिलं वणसंह गच्छेज्जाह, तत्थ णं दो ऊऊ सया साहीणातं०-सरदो य हेमंतो य, तत्थ उ सणससवण्णकउओ नीलुप्पलपउमन लिणसिंगो । सारसचकवायरवितघोसो सरयऊऊगोवती साहीणो दीप अनुक्रम [११३-१२२] ~322~ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] --------------- अध्ययनं [९], --------------- मूलं [८१] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक जाताधर्मकथाकम्. ८१] ॥१६॥ ९माकन्दीज्ञाता. वनषण्डे पडतुवर्णनं पर्वतशशिसागरैः सू. गाथा: ॥१॥ तत्थ य सियकुंदधवलजोण्हो कुसुमितलोद्भवणसंडमंडलतलो । तुसारदगधारपीवरकरो हेमंतकऊससी सया साहीणो ॥२॥ तत्थ णं तुन्भे देवाणुप्पिया! बावीसु य जाब विहरेज्जाह, जति णं तुन्भे तत्ववि उधिग्गा वा जाव उस्सुया वा भवेताह तो गं तुन्भे अवरिलं वणसंडं गच्छेज्जाह, तत्थ णं दो ऊऊ साहीणा, तं०-वसंते य गिम्हे य, तस्थ उ सहकारचारहारो किंसुयकणियारासोगमउडो । ऊसिततिलगबउलायपत्तो वसंतउऊणरवती साहीणो ॥१॥ तत्थ य पाडलसिरीससलिलो मलियावासंतियधवलवेलो। सीयलसुरभिअनिलमगरचरिओ गिम्हऊऊसागरो साहीणो ॥२॥ तत्थ णं बहुसु जाव विहरेवाह,जति णं तुम्भे देवा तत्थवि उधिग्गा उस्सुया भवेज्जाह तओ तुन्भे जेणेव पासायवडिंसए तेणेव उवागच्छेजाह, ममं पडिवालेमाणा २ चिट्ठवाह, मा णं तुन्भे दक्खिणिलं वणसंडं गच्छेजाह, तत्थ णं महं एगे उग्गविसे चंडविसे घोरविसे महाविसे अहकायमहाकाए जहा तेयनिसग्गे मसिमहिसामूसाकालए नयणविसरोसपुषणे अंजणपुंजनियरप्पगासे रत्तच्छे जमलजुयलचंचलचलंतजीहे धरणियलवेणिभूए उक्कड फुडकुडिलजडिलकक्खडवियडफडाडोवकरणदच्छे लोगाहारधम्ममाणधमधमेतघोसे अणागलियचंडतिवरोसे समुहिं तुरियं चवलं धमधमतदिट्ठीविसे सप्पे य परिवसति, मा णं तुम्भं सरीरगस्स वायत्ती भविस्सइ, ते मागंदियदारए दीप अनुक्रम [११३-१२२] ॥१६॥ ~323~ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रतस्कन्धः [१] ...... .......-- अध्ययनं [९], ............... मूलं [८१] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक ८१] गाथा: दोचंपितञ्चपि एवं वदति २ वेउवियसमुग्घाएणं समोहणति २ ताए उकिटाए लवणसमुई तिसत्त खुत्तो अणुपरियडेउं पयत्ता यावि होत्था (सूत्रं ८१) 'सकवयणसंदेसेणं'ति शक्रवचनं चासौ सन्देशश्व-भाषकान्तरेण देशान्तरस्थस्य भणनं शक्रवचनसन्देशः तेन, अशुचिकअपवित्रं समुद्रस्थाशुद्धिमात्रकारकं पत्रादीति प्रक्रमः पूतिक-जीर्णतया कुथितप्राय दुरभिगन्धं-दुष्टगन्धं,किमुक्तं भवति ?-अचोक्ष-12 अशुद्धं, 'तिसत्तखुत्तो'त्ति त्रिभिर्गुणिताः सप्त त्रिसप्त त्रिसप्त वाराः त्रिसप्तकृत एकविंशतिवारानित्यर्थः, एयंसि अंतरंसित्ति एतस्मिन्नवसरे विरहे वा 'उबिग्गति उद्विनौ उद्वेगवन्तौ 'उप्पिच्छत्ति भीतौ पाठान्तरेण उत्प्लुतौ-भीतावेव 'उस्सुय'ति । उत्सुकौ अस्सत् समागमनं प्रति, 'तत्थ णं दो उदू'इत्यादि, तत्र-पौरस्त्ये वनखण्डे द्वौ ऋतू-कालविशेषौ सदा खाधीनौ-अस्तिखेन स्वायची, तजन्यानां वनस्पतिविशेषपुष्पादीनां सद्भावात् , तद्यथा-प्रावृट् वर्षारात्रश्च, आषाढश्रावणो भाद्रपदाश्वयुजौ । चेत्यर्थः, अनयोरेव रूपकालङ्कारेण वर्णनाय गीतिकाद्वयम्, 'तस्थ उ'इत्यादि, तत्रैव पूर्ववनखण्डे नान्यत्रौदीच्ये पश्मेि वेत्यर्थः, Ki कन्दलानि च-प्रत्यग्रलताः सिलिन्ध्राच-भूमिस्फोटाः, अन्ये बाहुः-कन्दलप्रधानाः सिलिन्ध्रा-वृक्षविशेषा ये प्राकृषि पुष्यन्ति सितकुसुमात्र भवन्ति त एव कुसुमिताः सन्तो दन्ता यख घवलबसाधात् सः कन्दलसिलीन्ध्रदन्तः, इह च सिलीन्ध्राणां कुसुमितख विशेषणं सामर्थ्याद् व्याख्यातं, कुसुमाभावे तेषां प्रावृषोऽन्यत्रापि कालान्तरे सम्भवादिति, तथा निउरों'चि वृक्षविशेषः तस्य यानि वरपुष्पाणि तान्येव पीयरः-धूरः करो यस्य स तथा, कुटजार्जुननीपा-वृक्षविशेषास्तत्पुष्पाणि कुटजार्जुननीपानि तान्येव दीप अनुक्रम [११३-१२२] ~324~ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] --------------- अध्ययनं [९], --------------- मूलं [८१] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सत्रांक ८१] गाथा: ज्ञाताधर्म- सुरभिदानं-सुगन्धिमदजलं यस्य स तथा, प्रावृद् ऋतुरेव गजबरः प्रावृऋतुगजवरः खाधीनः, इह सिलिन्धादिवनस्पतीना माककथाङ्गम, कालान्तराकृतकुसुमानां सदाकुसुमितानां भावादात्मवशोऽस्तीति भावः ॥१॥ तथा तत्रैव बनखण्डे सुरगोपा-इन्द्रगोपकामिधानान्दीज्ञाता. रक्तवर्णाः कीटास्त एव मणयः पद्मरागादयः तैर्विचित्र:-कबुरो यः स तथा, तथा दर्दुरकुलरसितं-मण्डूकसमूहरटितं सदेव वनषण्डे. ॥१६॥ उज्झररवो-निर्झरशब्दो यत्र स तथा, बहिणवृन्देन-शिखण्डिसमूहेन परिणद्धानि-परिगतानि शिखराणि ऋतुपक्षे वृक्षसम्बन्धीनि पडतुवर्णन पर्वतपक्षे कूटानि यत्र स तथा वरात्रऋतुरेव पर्वत इति विग्रहः, स्वाधीनः-स्वायत्तस्तद्धर्माणां सर्वदा तत्र भावादिति ॥२॥पर्वतशशि'वावीसु'इत्यादि प्रथमाध्ययनवत्, 'सरओ हेमंतो यति कार्तिकमार्गशीर्षों पौषमाघौ चेत्यर्थः, इहापि गीतिकाद्वयं-सागरैः सू. 'तत्थ उ'इत्यादि, तत्रैव सनो-बल्कप्रधानो वनस्पतिविशेषः सप्तपर्ण:--सप्तच्छदस्तयोः पुष्पाणि सनसप्तपर्णानि तान्येव ककुदि-स्कन्घदेश विशेषो यस्य स तथा, नीलोत्पलपद्मनलिनानि-जलजकुसुमविशेषास्तान्येव शृङ्गे यस्य स तथा, सारसाश्चक्रवा-18 काच-पक्षिविशेषास्तेषां 'रविपति रुतं तदेव घोषो नर्दितं यस्य स तथा शरहतुरेव गोपतिः-गवेन्द्रः शरहतुगोपतिः स्वाधीनः18 ॥१॥ तथैव तत्र बनखण्डे सितानि यानि कुन्दानि-कुन्दाभिधानवनस्पतिकुसुमानि तान्येव धवला ज्योत्स्ना-चन्द्रिका यस्य || |स तथा, पाठान्तरेण 'सितकुंदविमलजोण्हो'चि स्पष्टं, कुसुमितो यो लोध्रवनखण्डः स एव मण्डलतलं-बिम्ब यस्य स तथा, तुषारं-हिमें तत्प्रधानाः या उदकधारा-उदकविन्दुप्रवाहास्ता एव पीवरा:-स्थूलाः करा:-किरणा यख स तथा, हेम-1 ॥१६॥ पन्तऋतुरेव शशी-चन्द्र इति विग्रहः खाधीनः ॥२॥ तथैव 'वसंते गिम्हे यति फाल्गुनचत्रो वैशाखज्येष्ठी चेत्यर्थः, 'तत्थ उ'इत्यादि गीतिकाइयं, तत्र च सहकाराणि-चूंतपुष्पाणि तान्येव चारुहारो यस्य स तथा, किंशुकानि-पलाशस्य कुसु दीप अनुक्रम [११३-१२२] ~325~ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रतस्कन्धः [१] ...... .......-- अध्ययनं [९], ............... मूलं [८१] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक ८१] गाथा: कामानि कर्णिकाराणिकर्णिकारस्य अशोकानि चाशोकस्य तान्येव मुकुट-किरीट यस्य स तथा, उच्छ्रितं-उन्नतं तिलकबकुलानि तिलकबकुलकुसुमानि तान्येवातपत्र-छत्रं यस्य स तथा, वसन्त ऋतुर्नेरपतिः स्वाधीनः प्रतीतम् ॥१॥ तत्र च पाटलाशिरीपाणि-18 पाटलाशिरीषकुसुमानि तान्येव सलिलं यत्र स तथा मल्लिका-विचकिलो वासन्तिका-लताविशेषः तत्कुसुमानि मलिकावासन्तिकानि तान्येव धवला-सिता वेला-जलवृद्धिर्यस्य स तथा, शीतला सुरभिश्च योऽनिलो-वायुः स एव मकरचरितं यत्र स तथा, इह || चानिलशब्दस्य अकारलोपः प्राकृतखात् 'अरण रणं अलार्य लाउय'मित्यादिवत् ग्रीष्मऋतुसागरः खाधीन इति । 'उग्गविसे इत्यादि, उग्रं दुर्जरखाद्विवं यस्य स उपविषः, एवं सर्वत्र, नवरं चण्डं झगिति व्यापकलात् , पाठान्तरे तु 'भोगविसे' इति तत्र भोगः शरीरं स एव विषं यखेति, घोरं परम्परया पुरुषसहस्रस्थापि घातकखात्, महत् जम्बूद्वीपप्रमाणशरीरस्थापि विषतयाऽभवनात्|| कायान्-शरीराणि शेषाहीनामतिकान्तोऽतिकाया,. अत एव महाकायः, 'जहा तेयनिसम्गेति शेषविशेषणानि यथा । गोशालकचरिते तथेहाध्येतल्यानीत्यथें, तानि चैतानि 'मसिमहिसमूसाकालगे' मपी च महिपक्ष भूपा च-वर्णादितापन-18 भाजनविशेषः इति द्वन्द्वः एता इव कालको यः स तथा, नयणविसरोसपुण्णों' नयनविषेण-दृष्टिविषेण रोषेण च पूर्ण इत्यर्थः, 'अंजणपुंजनिगरप्पगासे' कजलपुञ्जानां निकर इव प्रकाशते यः स तथा, रत्तच्छे जमलजुपलचंचलचलंतजीह यमल-14 सहवर्ति युगलं-द्वयं चञ्चलं च यथा भवत्येवं चलन्त्योः अतिचपलयोर्जियोर्यख स तथा, धरणितलवेणिभूए' धरणीतलख || वेणीभूतो-बनिताशिरसः केशबन्धविशेष इच यः कृष्णखदीर्घबश्लक्ष्णलपश्चाद्भागवादिसाधात् स तथा, 'उकडफुडकुडिलज-19 डिलकक्खाइधिमडफडाडोषकरणदच्छे' उत्कटो बलवताऽन्येनाध्वंसनीयवाद स्फुटो-व्यक्तः प्रयत्नविहितसात् कुटिल:-18 दीप अनुक्रम [११३-१२२] ~326~ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ---------------- अध्ययनं [९], ----------------- मूलं [८१] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक हितोपदे ८१] गाथा: ज्ञाताधर्म तत्स्वरूपसात् जटिल:-स्कन्धदेशे केसरिणामिवाहीनां केसरसद्भावात् कर्कशो-निष्ठुरो बलवत्त्वात विकटश्च-विस्तीणों यः स्फटा- ९माककथानम्. टोपः-फपासंरम्भः तत्करणे दक्षो यः स तथा, 'लोहागरधम्ममाणधमधमेतघोसे लोहाकरे ध्मायमानं-अग्निना ताप्य-न्दीज्ञाता. Sमानं लोहमिति गम्यते तस्येव यद्धमधमायमानो-धमधमेतिवर्णव्यक्तिमिवोत्पादयन् घोषः-शब्दो यस्य स तथा, 'अणागलि-10 ॥१६॥ ISIIयचंडतिबरोसे अनर्गलिता-अनिवारितोऽनाकलितो वा-अप्रमेयश्चण्डतीव्रः-अत्यर्थतीम्रो रोषो यस्य स तथेति, 'समुहिं। शावाप्तिः तुरियं चवलं धर्मतंति शुनो मुखं श्वमुखं तस्खेवाचरणं श्वमुखि-कॉलेयकखेव भपणता सरितचपल-अतिचतुलतया धमन्-1 सू.८२ शब्दं कुर्वन्नित्यर्थः॥ तए णं ते मागंदियदारया तओ मुहुत्तरस्स पासायवडिंसए सई वा रतिं वा घिति वा अलभमाणा अण्णमण्णं एवं वदासी-एवं खलु देवा! रयणद्दीवदेवया अम्हे एवं वदासी-एवं खलु अहं सकवयणसंदेसेणं मुट्टिएणं लवणाहिवइणा जाव वाबत्ती भविस्सइ, तं सेयं खलु अम्हं देवाणुपिया! पुरच्छिमिल्ले वणसंडं गमित्तए, अण्णमण्णस्स एयमई पडिसुणेति २ जेणेव पुरच्छिमिल्ले वणसंडे तेणेव उवागमति २तत्थ णं वावीसु य जाव अभिरममाणा आलीघरएसु य जाव विहरति. तते णं ते ॥१६२॥ मागंदियदारया तत्थवि सई वा जाव अलभमाणा जेणेव उत्तरिल्ले वणसंडे तेणेव उवा० २ तत्थ णं वाधीसु य जाव जालीघरएमु य विहरंति, तते णं ते मागंदियदारया तत्थवि सर्ति वा जाव अलभ. दीप अनुक्रम [११३-१२२] ~327~ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [८२-८८] + गाथा: दीप अनुक्रम [१२३ -१४०] श्रुतस्कन्धः [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित person/% “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र -६ (मूलं + वृत्ति:) अध्ययन [ ९ ], मूलं [८२-८८] + गाथा: आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः जेणेव पचस्थिमिले वणसंडे तेणेव उवा०२ जाव विहरति, तते णं ते मागंदिय० तत्थवि सतिं वा जाव अलभ० अण्णमण्णं एवं वदासी एवं खलु देवा० ! अम्हे रयणदीवदेवया एवं वयासी एवं खलु अहं देवाप्पिया ! सक्कस्स वयणसंदेसेणं सुट्टिएण लवणाहिवणा जाब मा णं तुन्भं सरीरगस्स वाबत्ती भविसति तं भविय एत्थ कारणेणं, तं सेयं खलु अम्हं दक्खिणिल्लं वणसंडं गमित्तएत्तिकडु अण्णमorea एतमहं पडिसुर्णेति २ जेणेव दक्खिणिले वणसंडे तेणेव पहारेत्थ गमणाए, तते णं गंधे निद्धाति से जहा नामए अहिमडेति वा जाव अणिद्वतराए चैव तते णं ते मागंदियदारया तेणं असुभेणं गंधे अभिभूया समाणा सएहिं २ उत्तरिजेहिं आसातिं पिहति २ जेणेव दक्खिणिल्ले वणसंडे तेणेच उवागया तस्थ णं महं एवं आघातणं पासंति २ अट्टियरासिसतसंकुलं भीमदरिस णिज्जं एगं च तस्थ 'सूलाइतयं पुरिसं कल्लुणातिं विस्सरातिं कट्ठातिं कुछमाणं पासंति, भीता जाव संजात भया जेणेव से सूलातियपुरिसे तेणेव उवागच्छति २ तं सूलाइयं एवं बदासी एस णं दे० ! कस्साघयणे तुमं च णं के कओ वा इहं हवमागए केण वा इमेयारूवं आवतिं पाविए ?, तते णं से सूलातियए पुरिसे मार्गदियदारए एवं वदासी - एस णं देवाणु० ! रयणदीवदेवयाए आघयणे अहरणं देवाणुप्पिया! जंबुद्दीबाओ दीवाओ भारहाओ वासाओ कागंदीए आसवाणियए विपुलं पणियभंडमायाए पोतवहणेणं लवणसमुदं ओयाए, तते णं अहं पोयवहणविवत्सीए निन्युडुभंडसारे एवं फलगखंडं आसाएमि, तते णं अहं उबुज्झमाणे २ Education Internation For Parts Only ~328~ yor Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [९], ----------------- मूलं [८२-८८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक ज्ञाताधर्म कधानम्. 1८२-८८] ॥१६॥ ९माकदीज्ञाता. हितोपदेशावाप्तिः सू. ८२ गाथा: रयणदीवतेणं संबूढे, तते णं सा रयणदीवदेवया ममं ओहिणा पासइ २ ममं गेण्हई २ मए सद्धिं विपुलाति भोगभोगार्ति भुजमाणी विहरति, तते णं सा रयणदीवदेवया अण्णदा कयाई अहालहुसगंसि अवराहसि परिकुविया समाणी ममं एतारूवं आवर्ति पावेइ, तं ण णजति णं देवा! तुम्हपि इमेसि सरीरगाणं का मण्णे आवती भविस्सइ, तते णं ते मागंदियदारया तस्स सूलाइयगस्स अंतिए एयमत्धं सोचा णिसम्म बलियतरं भीया जाव संजायभया मूलाइतयं पुरिसं एवं प०-कहाणं देवाणु ! अम्हे रतणदीवदेवयाए हत्याओ साहत्धि णित्थरिज्जामो,तते णं से मूलाइयए पुरिसे ते मागंदिय० एवं वदासी-एस णं देवाणु ! पुरच्छिमिल्ले वणसंडे सेलगस्स जक्खस्स जक्खाययणे सेलए नामं आसरूवधारी जक्खे परिवसति, तए णं से सेलए जक्खे चोदसट्टमुद्दिपुण्णमासिणीसु आगयसमए पत्तसमये महया २ सदेणं एवं वदति-कं तारयामि कं पालयामि, तं गच्छह णं तुम्भे देवा! पुरच्छिमिल्लं वणसंडं सेलगस्स जक्खस्स महरिहं पुष्फचणियं करेह २ जण्णुपायवडिया पंजलिउडा विणएणं पज्जुवासमाणा चिट्ठह, जाहे णं से सेलए जक्खे आगतसमए पत्तसमए एवं वदेजा-कं तारयामि के पालयामि, ताहे तुम्भे बदह-अम्हे तारयाहि अम्हे पालयाहि, सेलए भे जक्खे परं रयणदीवदेबयाए हत्थाओ साहस्थि णित्थारेज्जा, अण्णहा भेन याणामि इमेसि सरीरगाणं का मण्णे आवई भविस्सइ ? (सूत्रं ८२) तते णं ते मागंदिय० तस्स सूलाइयस्स अंतिए एपमढे सोचा निसम्म सिग्धं चंडं दीप अनुक्रम [१२३-१४०] | ॥१६॥ ~329~ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [९], ----------------- मूलं [८२-८८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८२-८८] गाथा: चवलं तुरियं चेइयं जेणेव पुरच्छिमिल्ले वणसंडे जेणेव पोक्खरिणी तेणेष उवा० पोक्वरिणिं गार्हति २ जलमजणं करेन्ति २ जाई तत्थ उप्पलाई जाव गेण्हति २ जेणेव सेलगस्स जक्खस्स जक्खाययणे तेणेच उ०२ आलोए पणामं करेंति २ महरिहं पुप्फचणियं करेंति २ जण्णुपायवडिया सुस्सूसमाणा णमंसमाणा पज्जुवासंति, तते णं से सेलए जक्खे आगतसमए पत्तसमए एवं वदासी- तारयामि के पालयामि ?, तते णं ते मागं दियदारया उट्ठाए उट्ठति करयल० एवं व०-अम्हे तारयाहि अम्हे पालयाहि, तए णं से सेलए जक्खे ते मागंदिय एवं वया०-एवं खलु देवाणुप्पिया। तुभं मए सद्धिं लवणसमुद्देणं मझं २ वीइवयमाणेणं सा रयणदीवदेवया पावा चंडा रुद्दा खुद्दा साहसिया बहूहिं स्वरएहि य मउएहि य अणुलोमेहि य पडिलोमेहि य सिंगारेहि य कलुणेहि य उवसग्गेहि य उवसग्गं करेहिति, तं जति णं तुम्भे देवा ! रयणदीवदेवयाए एतमढे आढाह वा परियाणह वा अवयेक्वह वा तो भे अहं पिट्ठातो विधुणामि, अह णं तुभे रयणदीवदेवयाए एतमझु णो आढाह णो परियाणह णो अवेक्खह तो भे रयणदीवदेवयाहत्थातो साहत्थि णित्यारेमि, तए णं ते मागंदियदारया सेलगं. जक्खं एवं वदासी-जपणं देवाणु01 वइस्संति तस्स णं उववायवयणणिसे चिहिस्सामो, तते णं से सेलए जक्खे उत्तरपुरच्छिमं दिसीमागं अवक्कमति २ वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहणति २ संखजाति जोयणाई दंडं निस्सरइ दोचपि तचंपि वेउवियसमु०२ एगं महं आसरूवं विउद्या २ ते मागंदियदा दीप अनुक्रम [१२३-१४०] SAREaratunintamanna ~330~ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [८२-८८] + गाथा: दीप अनुक्रम [१२३ -१४०] श्रुतस्कन्धः [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥१६४॥ “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र -६ (मूलं + वृत्तिः ) अध्ययनं [९], मूलं [८२-८८] + गाथा: आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Education Internation रए एवं वदासी-हं भो मार्गदिया ! आरुह णं देवाणुपिया ! मम पिसि, तते णं ते मार्गदिय० ह सेलगस्स जक्खस्स पणामं करेंति २ सेलगस्स पिट्ठि दुखढा, तते णं से सेलए ते मागंदिय० दुरुदे जाणित्ता सत्ततापमाणमेत्तातिं उहुं बेहासं उत्पयति, उप्पइत्ता य ताए उक्किद्वार तुरियाए देवयाए लवणसमुदं मज्झंमज्झेणं जेणेव जंबुद्दीवे दीवे जेणेव भारहे जेणेव चंपा नयरी तेणेव पहारेत्थ गम ए (सूत्र ८३ ) तते णं सा रयणदीवदेवया लवणसमुद्रं तिसत्तखुत्तो अणुपरियद्दति जं तत्थ तणं वा जाव एंडेति, जेणेव पासायवडेंसए तेणेव उवागच्छति २ ते मागंदिया पासायवर्डिसए अपासमाणी जेणेव पुरच्छिमिले वणसंडे जाव सङ्घतो समंता मग्गणगवेसणं करेति २ तेर्सि मायंदियदारगाणं कच्छ सुतिं वा ३ अलभमाणी जेणेव उत्तरिल्ले एवं चैव पचत्थिमिल्लेवि जाव अपासमाणी ओहिं पउंजति, ते मार्गदियदारए सेलएणं सद्धिं लवणसमुदं मज्झमज्झेणं बीइवयमाणे २ पासति २ आसुरुत्ता असिखेडगं गेहति २ सतह जाव उप्पयति २ ताए उक्किट्ठाए जेणेव मागंदिय० तेणेव उवा०२ एवं व०-हं भो मागंदिय० अप्पत्थियपत्थिया किण्णं तुम्भे जाणह ममं विप्पजहाय सेलएणं जक्खेणं सद्धिं लवणसमुदं मांमझेणं वीतीयमाणा ?, तं एवमवि गए जइ णं तुम्भे ममं अवयक्खह तो मे अस्थि जीवियं, अहणं arrar तो भे इमेणं नीलुप्पलगवल जाव एडेमि, तते णं ते मागंदियदारया रयणदीवदेवयाए अंतिए एयमहं सो० जिस अभीया अतत्था अणुविग्गा अक्खुभिया असंभंता रयणदीवदेवयाए For Parts Only ~ 331~ ९ माक न्दीज्ञावे शैलकयक्षपृष्ठेआरो हः सू. ८३ जिनरक्षितचलनं सू. ८४ ॥१६४॥ wor Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [८२-८८] + गाथा: दीप अनुक्रम [१२३ -१४०] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र -६ (मूलं + वृत्ति:) अध्ययन [ ९ ], मूलं [ ८२-८८] + गाथा: आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः श्रुतस्कन्धः [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित Educator यम नो आति नो परि० णो अवयक्वंति, अणाढायमाणा अपरि० अणवयक्खमाणा सेलरण जक्खेण सद्धिं लवणसमुदं मज्झमज्झेणं वीतिवयंति, तते णं सा रयणदीवदेवया ते मागंदिया जाहे नो संचाएति यहूहिं पडिलोमेहि य एवसोहि य चालितए वा खोभित्राए वा विपरिणामित्तए या लोभित्तए वा ता महुरेहि सिंगारेहि य कलुणेहि य उवसग्गेहि य उवसग्गेउं पयत्ता यावि होत्या; हं भो मागंदियदारगा ! जति णं तुब्भेहिं देवाणुप्पिया! मए सद्धिं हसियाणि य रमियाणि य ललियाणि य कीलियाणि य हिंडियाणि य मोहियाणि य ताहे णं तुम्भे सवातिं अगणेमाणा ममं विप्पहाय सेलएणं सद्धिं लवणसमुद्दे मज्झमज्झेणं बीइवयह, तते णं सा रयणदीवदेवया जिणरक्खियरस मण ओहिणा आभापति आभोएता एवं वदासी - णिचंऽपिय णं अहं जिणपालियरस अणिट्ठा ५ निबं मम जिणपालिए अणिट्टे ५ निबंपिय णं अहं जिणरक्खियस्स इट्ठा ५ नियंपिय णं ममं जिणरक्लिए इहे ५, जति णं ममं जिणपालिए रोयमाणी कंदमाणीं सोयमाणी तिप्पमाण विलवमाणीं णावयक्खति किरणं तुमं जिणरक्खिया ! ममं रोयमाणि जाव णावयक्खसि ?, तते णं- 'सा पवररयणदीवस्स देवया ओहिणा उ जिणरक्खियस्स मणं । नाऊण वधनिमित्तं उवरि मागंदियदारगाणं दोन्हंपि ॥ १ ॥ दोसकलिया सललियं णाणाविहचुण्णवासमीसं (सियं) दिवं । धाणमणनिव्युइकरं सोउयसुरभिकुसुपहुंचमाणी ॥ २ ॥ णाणामणिकणगरयणघंदियखिखिणिणेकरमे हलभूसणरवेणं । दिसाओ विदि For Pale Only ~332~ For Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [९], ----------------- मूलं [८२-८८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक 1८२-८८] ज्ञाताधर्म कथासम्, ९माकन्दीज्ञाते जिनरक्षितचलनं सू. ॥१६५॥ ८४ गाथा: साओ पूरयंती वयणमिणं चेति सा सकलुसा ॥३॥ होल वसुल गोल णाह दइत पिय रमण कंत सामिय णिग्घिण णिस्थक । छिपण णिकिव अकयलय सिढिलभाव निल्लज्ज लुक्ख अकलुण जिणरक्खिय मज्झं हिययरक्खगा!॥४॥णह जुज्जसि एक्वियं अणाहं अबंधर्व तुजन चलणओबायकारियं उज्झिर्ड महणं । गुणसंकर ! अहं तुमे विहूणा ण समत्थावि जीविउ खणपि ॥५॥ इमस्स पु अणेगझसमगरविविधसावयसयाउलघरस्स । रयणागरस्स मज्झे अप्पाणं वहेमि तुझ पुरओ एहि णियत्ताहि जइसि कुविओ खमाहि एकावराह मे ॥ ६॥ तुज्झ य विगयघणविमलससिमंडलगारसस्सिरीयं सारयनवकमलकुमुदकुवलयविमलदलनिकरसरिसनिभानयणं वयणं पिवासागयाएसद्धा मे पेच्छिउँ जे अवलोएहिता इओ मर्म णाह जा ते पेच्छामि वयणकमलं ॥ ७॥ एवं सप्पणयसरलमहुरातिं पुणो २ कलुणाई वयणार्ति जपमाणी सा पावा मग्गओ समण्णेह पावहियया ॥८॥ तते णं से जिणरक्खिए चलमणे तेणेव भूसणरवेणं कपणसुहमणोहरेणं तेहि य सप्पणयसरलमहरभणिएहिं संजायविजणराए रयणदीवरस देवयाए तीसे सुंदरचणजहणवयणकरचरणनयणलावारूवजोषणसिरिं च दिचं सरभसउवगूहियाई जाति विव्योपविलसियाणि य विहसियसकडक्खदिहिनिस्ससियमलियउबललिपठिपगमणपणयखिजियपासादियाणि य सरमाणे रागमोहियमई अवसे कम्मवसगए अवयवति मग्गतो सविलियं, तते णं जिणरक्खियं समुप्पन्नकलुणभावं मच्चुगलस्थाहणोल्लियमई अवयक्वंतं तहेव जक्खे य सेलए दीप अनुक्रम [१२३-१४०] ॥१६॥ ~333~ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [९], ----------------- मूलं [८२-८८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक ८२-८८ गाथा: Reechemesesesesecesesee जाणिऊण सणियं २ उविहति नियगपिट्ठाहि विगयसत्थं, तते णं सा रयणदीवदेवया निस्संसा कलुर्ण जिणरक्खियं सकलुसा सेलगपिट्टाहि उवयंतं दास! मओसित्ति जंपमाणी अप्पत्तं सागरसलिलं गेण्हिय बाहाहिं आरसंतं उई उबिहति, अंबरतले ओवयमाणं च मंडलग्गेण पडिच्छित्ता नीलुप्पलगवलअयसिप्पगासेण असिवरेणं खंडाखंडिं करेति २ तत्थ बिलव माणं तस्स य सरसवहियस्स घेत्तूण अंगमंगाति सरुहिराइंउक्खित्तबलिं चउदिसि करेति सा पंजली पहिहा। (सूत्रं८४) एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंधाण वा २ अंतिए पञ्चतिए समाणे पुणरवि माणुस्सए कामभोगे आसायति पत्थयति पीहेति अभिलसति से णं इह भवे चेव बहणं समणाणं ४ जाव संसारं अणुपरियहिस्सति, जहा वा से जिणरक्खिए-छलओ अवयक्खतो निरावयक्खो गओ अविग्घेणं । तम्हा पवयणसारे निरावयक्खेण भवियचं ॥१॥ भोगे अवयखंता पडति संसारसायरे घोरे । भोगेहिं निरचयक्खा तरंति संसारकतारं ॥२॥ (सूत्रं ८५) तते णं सा रयणद्दीवदेवया जेणेव जिणपालिए तेणेच उवा बहूहि अणुलोमेहि य पडिलोमेहि य खरमहरसिंगारेहिं कलुणेहि य उवसग्गेहि य जाहे नो संचाएइ चालित्तए वा खोभि. विप्प० ताहे संता तंता परितंता निविपणा समाणा जामेव दिसिं पाउ० तामेव दिसं पडिगया, तते णं से सेलए जक्खे जिणपालिएण सद्धिं लवणसमुई मझमझेणं बीतीवयति २ जेणेव चंपानयरी तेणेव उवागच्छति २ चंपाए नयरीए अग्गुनाणंसि जिणपालियं पट्ठातो ओयारेति २ एवं वा-एस णं देवा! 8csecescaeneceseseseceseisese दीप अनुक्रम [१२३-१४०] ~334~ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [८२-८८] + गाथा: दीप अनुक्रम [१२३ -१४०] श्रुतस्कन्धः [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्. ॥१६६॥ “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र -६ (मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [९], मूलं [८२-८८] + गाथा: आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः पायरी दीसतित्तिकट्टु जिणपालियं आपुच्छति २ जामेव दिसिं पाउए तामेव दिसिं पडिगए (सूत्रं ८६) तणं जिलपालिए चंप अणुपविसति २ जेणेव सए गिहे जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ २ अम्मापिणं रोयमाणे जाव विलवमाणे जिणरक्खियवावतिं निवेदेति, तते णं जिणपालिए अम्मापियरो मित्तणाति जाव परियणेणं सद्धिं रोयमाणातिं बहूई लोइयाई मयकिचाई करेति २ कालेणं विगतसोया जाया, ततेणं जिणपालियं अन्नया कयाइ सुहासणवरगतं अम्मापियरो एवं वदासी कहणणं पुत्ता ! जिणरक्खिए कालगए ?, तते णं से जिणपालिए अम्मापिणं लवणसमुद्दोत्तारं च कालियवायसमुत्थणं पोतवहणविवन्तिं च फलहखंड आसातणं च रयणदीबुत्तारं च रयणदीवदेवयागिहं च भोगविभूई च रयणदीबदेवयाअप्पाहणं च स्लाइयपुरिसदरिसणं च सेलगजक्खआरुहणं च रग्रणदीवदेवया उवसग्गं च जिणरक्सियधिवतिं च लवणसमुद्दउत्तरणं च चंपागमणं च सेलगजक्खआपुच्छणं च जहाभूयमवितहमसंदिद्धं परिकति, तते णं जिणपालिए जाव अप्पसोगे जाव विपुलातिं भोगभोगाई भुंजमाणे विहरति । (सूत्रं ८७) तेणं कालेणं २ समणे० समोसढे, धम्मं सोचा पचतिए एकारसंगवी मासिएणं सोहम्मे कप्पे दो सागरोवमे, महाविदेहे सिज्झिहिति । एवामेव समणाउसो ! जाव माणुस्सर कामभोए णो पुणरवि आसाति से णं जाव वीतिवतिस्सति जहा वा से जिणपालिए । एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया नवमस्स नायज्ायणस्स अयम पण्णत्तेतिबेमि । (सूत्रं ८८ ) ॥ नवमं अज्झयणं समत्तं ॥ Ja Education International For Par Use Only ~ 335~ ९ माक न्दीज्ञाते भोगाकां क्षणोपन यः सू. ८५ रलद्वीपदे वतापका: न्तिः सू. ८६ जिनपालितस्वास्थ्यंसू. |८७श्रीवीरसमीपे दी क्षा सू. ८८ ॥१६६॥ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [८२-८८] + गाथा: दीप अनुक्रम [१२३ -१४०] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र -६ (मूलं + वृत्ति:) अध्ययन [ ९ ], मूलं [८२-८८] + गाथा: आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः श्रुतस्कन्धः [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित 'सई व 'ति सुखलक्षणफलबहुलतां स्मृतिं वा सरणं अतिव्याकुलचित्ततया न लभते स रतिं चित्तरमणं 'धिरं वत्ति धृतिं चित्तखास्थ्यमिति, 'आसयाई 'ति आये- मुखे 'पिहिति'ति पिघन्तः- स्थगयन्तः 'आधयणं'ति वधस्थानं 'सुलाइयगं'ति शूलिकाभिन्नं 'कलुणाई'ति करुणाजनकखात् 'कट्ठाई' ति कष्टं दुःखं तत्प्रभवत्वात् 'विस्सराई'ति विरूपशब्दस्वरूपत्वात् वचनानीति गम्यते, 'कूजन्तं' अव्यक्तं शब्दायमानं 'काकंदीए 'ति काकन्दीनगरी तद्भवः, 'ओयाए 'चि उपायातः-उपागतः, 'अहाल हुस्सगंसि ति यथाप्रकारे लघुखरूपे, 'उद्दिह'त्ति अमावास्या, 'आगयसमए नि आसन्नी भूतोऽवसरो यस्य स इत्यर्थः प्राप्तस्तु साक्षादेव, 'हत्थाओ' चि हस्ताद् ग्रहणप्रवृत्तात् 'साहस्थि'ति स्वहस्तेन 'सिंगारेहिं'ति शृङ्गाररसोपेतैः कामोत्कोचकैः करुणैस्तथैव उपसर्गेः- उपद्रवैर्वचन चेष्टा विशेषरूपैः 'अवयक्खह' अपेक्षध्वं 'मए सद्धिं हसियाणि इत्यादि, इह तप्रत्ययो भावे तस्य चोपाधिभेदेन भेदस्य विवक्षणाद् बहुवचनं, अन्यथा यद्युवाभ्यां मया सार्द्ध हसितं चेत्यादि वाच्यं स्यात् तथा रतानि च अक्षादिभिः ललितानि च ईप्सितानि लीला वा 'कीलियाणि यत्ति जलान्दोलनकक्रीडादिभिः हिण्डितानि च बनादिषु विहतानि मोहितानि च निधुवनानि, एतच्च वाक्यं काकाऽध्येयं तत उपालम्भः प्रतीयते, 'तए णं सा रयणदीवेत्यादि सूत्रं वाचनान्तरे रूपकविशेषद्वयभ्रान्तिं करोति, तथाहि--सा पवररयणदीवस्स देवया ओहिणा उ जिणरक्खिअस्स नाऊण वनिमित्तं वारं माईदिदारगाण दोपहपि' इत्येकं 'दोसकलिया सलीलयं नाणाविण्णवासमीसियं दिवं घाणमणनिव्युइकरं सघोउयसुरहिकुसुमवुद्धिकरं पहुंचमाणी' इति द्वितीयं एवमन्यान्यपि परिभावनीयानि पद्यानि, पद्यबन्धं हि विना तुकारादिनिपातानां पादपूरणार्थानां निर्देशो न घटते, अपरिमितानि च छन्दःशास्त्राणीति, अर्थस्लेवम् Eucation International For Par Use Only ~336~ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [९], ----------------- मूलं [८२-८८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८२-८८ गाथा: बाबासा देवता जिनरक्षितस्य ज्ञाखा भावमिति शेषो बधनिमित्तं तस्यैव, वचनमिदं ब्रवीति स्मेति सम्बन्धः, 'दोसकलिय'ति। कथाङ्गम् द्वेषयुक्ता, 'सलीलय'ति सलीलं यथा भवतीत्यर्थः, 'चुण्णवासति चूर्णलक्षणा वासा: चूर्णवासाः तैमिश्रा या सा तथा ता|8दीज्ञाते दिव्यां प्राणमनोनिवृत्तिकरी सर्वतकानां सुरभीणां च कुसुमानां या वृष्टिः सा तथा तां प्रमुञ्चन्ती । तथा नानामणिकनकर-जिनपालि॥१६७|| लानां सम्बन्धीनि घण्टिकाश्च किङ्किण्यश्च-क्षुद्रघण्टिका नुपूरौ च प्रतीती मेखला च-रसना एतल्लक्षणानि यानि भूषणानि तेषां तजिनर 18यो वस्तेन इति रूपकाध 'दिसाओ विदिसाओ पूरयंती वयणमिणं बेइ यत्ति दिशो विदिशव पूरयन्ती वचनमिदं क्षितवृत्तं वक्ष्यमाणं ब्रवीति सा देवता, सकलुसति सह कलुषेण पापेन वर्तते या सा तथेति तृतीयं । हे हो(हा)ल हे वसुल हे गोल एतानि सू८५८८ |च पदानि नानादेशापेक्षया पुरुषाधामन्त्रणवचनानि गौरवकुत्सादिगर्भाणि वर्तन्ते, हो(हा)ल इति दशवकालिके होल इति दृश्यते, तथा नाथ!-योगक्षेमकरिन् ! दयित!-वल्लभ ! रक्षित ! इति वा प्रिय !-प्रेमकर्तः! रमण-भतः! कान्त !-कमनीय ! खामिक!-अधिपते । निर्पण!-निर्दय ! सस्नेहाया वियोगदुःखाया मम परित्यागात् 'नित्थक'चि अनवसरज्ञ अनुरताया ममाकाण्डे एव त्यागादित्यई 'छिपण ति स्त्यान! कठिन मदीयात्यन्तानुकलचरिताद्रवीकृतहृदयखात् निष्कप ! मम || दुःखिताया अप्रतीकारात् , अकृतज्ञ! मदीयोपकारस्थानपेक्षणात् शिथिलभाव ! अकस्साद् मम मोचनात् निर्लज ! प्रतिपन्नत्यागात रूक्ष ! स्नेहकार्याकरणात् अकरुण ! हे जिनरक्षित मम हृदयरक्षक !-वियोगदुःखेन शतधास्फुटतो हृदयस्य त्रायक पुनर्मम | ॥१६७॥ खीकरणत इत्यर्थः इति चतुर्थ, 'नहु' नैव युज्यसे-अर्हसि एककामनाथामबान्धवां तब चलनोपपातकारिका-पादसेवाविधायिनीमुज्झितुमधन्यामिति, इह च समानार्थानेकशब्दोपादानेऽपि न पुनरुक्तदोषः सम्भ्रमाभिहितसाद , यदाह-"वक्ता हर्षभ Saeedeeo899000 दीप अनुक्रम [१२३-१४०] ~337~ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [८२-८८] + गाथा: दीप अनुक्रम [१२३ -१४०] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र -६ (मूलं + वृत्ति:) अध्ययन [ ९ ], मूलं [८२-८८] + गाथा: आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः श्रुतस्कन्धः [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित यादिभिरक्षितमनाः स्तुवंस्तथा निन्दन् । यत्पदमसद् श्रूयात् तत्पुनरुक्तं न दोषाय ॥ १२ ॥ इति अर्ध, हे गुणसंकर !-गुणसमुदायरूप ! हं इति अकारलोपदर्शनादद्दमिति दृश्यं सया विहीना न समर्था जीवितुं क्षणमपीति पञ्चमं । तथा 'इमस्स उति अस्य पुनः अनेके ये झपा-मत्स्या मकरा - ग्राहाः विविधश्वापदाश्र - जलचरक्षुद्रसच्चरूपास्तेषां यानि शतानि तेषामाकुलगृहं आकीर्णगेहं झपादीनां वा सदा नित्यं कुलगृहमिव कुलगृहं यः स तथा तस्येत्यर्द्ध रत्नाकरस्य - समुद्रस्य मध्ये आत्मानं 'वहेमि'ति हन्मि तब-भवतः पुरतः अग्रतः तथा एहि निवर्त्तख 'जइसित्ति यदि भवसि कुपितः क्षमस्वैकापराधं त्वं मे इति षष्ठं। 'तुज्झ य'त्ति तब च विगतधनं विमलं च यच्छशिमण्डलं तस्येवाकारो यस्य श्रिया च सह यद्वर्त्तते तत्तथा पाठान्तरेण विगतघनविमलशशिमण्डलेनोपमा यस्य सश्रीकं च यत्तत्तथा शारदं शरत्कालसम्भवं यनवं-प्रत्ययं कमलं च-सूर्यबोध्यं कुमुदं च-चन्द्रबोध्यं कुवलयं च-नीलोत्पलं तेषां यो दलनिकरः- दलवृन्दं तत्सदृशे नितरां भात इति निभे च नयने यत्र तत्तथा, पाठान्तरेण शारदनवकमलकुमुदे च ते विमुकुले च ते विकसिते शेषं तथैव वदनं मुखं प्रतीति वाक्यशेषः, पिपासागताया:मुखदर्शनजलपानेच्छया आयातायाः तां वा गतायाः प्राप्तायाः कस्याः १-मे-मम श्रद्धा-अभिलापः किं कर्तुं ?-प्रेक्षितुं - अवलोकयितुं जे इति पादपूरणे निपातः अवलोकय ता इति- ततस्तावदिति वा इतः अस्यां दिशि मां नाथ जा इति येन याव दिति वा ते तव प्रेक्षे वदनकमलमिति रूपकं ॥ ७ ॥ एवं सप्रणयानि सस्नेहानीव सरलानि-सुखावगम्याभिधेयानि मधुराणि च-भाषया कोमलानि यानि तानि तथा, तथा करुणानि - करुणोत्पादकलात् बचनानि जल्पन्ती सा पापा क्रियया मार्गतः - पृष्ठतः समन्वेति समनुगच्छति पापहृदयेति ॥ ८ ॥ ततोऽसौ जिनरक्षितथलमना :- अभ्युपगमाच्चलितचेताः 'अवयक्खड़'त्ति Education Internationa For Parts Only ~ 338~ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [८२-८८] + गाथा: दीप अनुक्रम [१२३ -१४०] श्रुतस्कन्धः [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्. ॥१६८॥ “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र -६ (मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [९], मूलं [८२-८८] + गाथा: आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः सम्बन्धः, किंभूतः १ - सञ्जातद्विगुणरागः पूर्वकालापेक्षया, कस्यां ? - रत्नद्वीपदेवतायां, केन कैथेत्याह-वेन च पूर्वोक्तेन भूषणवेण कर्णसुखो मनोहरथ यस्तेन तेच पूर्ववर्णितैः सप्रणय सरलमधुरभणितः, तथा तस्या देवतायाः सुन्दरं यत्स्तनजघन वदनकरचरणनयनानां लावण्यं स्पृहणीयत्वं तच्च रूपं च शरीरसुन्दरत्वं च यौवनं च तारुण्यं तेषां या श्रीः- सम्पत् सा तथा तां च दिव्यां - देवसम्बन्धिनीं स्मरन्निति सम्बन्धः, तथा सरभसानि - सहर्षाणि यान्युपग्रहितानि - आलिङ्गितानि तानि तथा 'विन्योयकाः' स्त्रीचेष्टाविशेषाः विलसितानि च नेत्रविकारलक्षणानि च तानि तथा, विहसितानि च - अर्द्धहसितादीनि सकटाक्षा:सापाङ्गदर्शनाः दृष्टयो-विलोकितानि निःश्वसितानि च कामक्रीडायाः समुद्भवानि मलितानि च पुरुषाभिलषणी वयोपिदङ्गमर्दनानि च पाठान्तरेण मणितानि च-रतकूजितानि उपललितानि च क्रीडितविशेषरूपाणि पाठान्तरेण ललितानि - ईप्सि तानि क्रीडितानि वा स्थितानिं च स्वभवनेषु उत्सङ्गासनादिषु वा अवस्थानानि गमनानि च-हंसगत्या चङ्क्रमणानि प्रणयखेदितानि च-प्रणयरोपणानि प्रसादितानि च - कोपप्रसादनानीति द्वन्द्वस्तानि च सरन्- चिन्तयन् राममोहितमतिः अवश आत्मन इति गम्यते, कर्म्मवशं कर्मणः पारतन्त्र्यं गतो यः स तथा पाठान्तरे कर्म्मवशात् वेगेन मोहस्य नडितो-विडम्बितो यः स कर्म्मवशवेगनडितः, 'अवइक्खइति अवेक्षते-निरीक्षते स्म मार्गतः पृष्ठतोऽवलोकयति तामागच्छन्तीमित्यर्थः, 'सविलियं'ति सत्रीडं, सलअमित्यर्थः । ' मच्चुगलस्थलणोलियमई'ति मृत्युना - यमराक्षसेन 'गलत्थल्ला' हस्तेन गलग्रहणरूपा तथा नोदिता- खदेशगमनवैमुख्येन यमपुरीगमनाभिमुखीकृता मतिर्यस्य स तथा तं अवेक्खमाणं तथैव यक्षस्तु शैलको ज्ञाता शनैः २ 'उधिहर'त्ति उद्विजहाति ऊर्द्ध क्षिपति, 'तहेव सनियं' इत्येतत् पदद्वयं वाचनान्तरे नोपलभ्यते निजकपृष्ठात् Jan Eat International For Park Use Only ~339~ ९ माक न्दीज्ञाते जिनपालितजिनरक्षितवृतं सू. ८५-८८ ॥१६८॥ waryra Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [९], ----------------- मूलं [८२-८८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८२-८८] गाथा: शरीरावयव विशेषात् 'विगयसत्यति विगतस्वास्थ्यं पाठान्तरे विगतश्रद्धो यक्षः शैलक इति, 'ओवयंत'ति अवपतन्तं 'सरसबहियस्स'त्ति सरसं-अभिमानरसोपेतं वधितो-हतो यःस तथा तस्य 'अंगमंगाईति शरीरावयवान् 'उक्वित्तरलिं'ति उत्क्षिप्त:-ऊर्द्ध आकाशे क्षिप्तो न भूमिपट्टादिषु निवेशितो यो बलि:-देवतानामुपहारः स तथा तं चतुर्दिशं करोति, सा देवता 'पंजलि'त्ति प्रकृताञ्जलिः प्रकृष्टतोपवती 'एवमेवेत्यादि निगमनं 'आसायति प्राप्तानाश्रयति भजते-अप्राप्तान प्रार्थयते|ऋद्धिमन्तं याचते स्पृहयति-अप्रार्थित एव यद्ययं श्रीमान भोगान् मे ददाति तदा साधु भवति इत्येवंरूपां स्पृहां करोति अभिलपति-दृष्टादृष्टेषु शब्दादिषु भोगेच्छां करोतीत्यर्थः, अत्रार्थे 'छलिउं' गाहा-छलितो-व्यंसितोऽनर्थ प्राप्तः अवकाहन्' पश्चाद्भागमवलोकयन् जिनरक्षित इति प्रस्तुतमेव 'निरवयक्खो ' निरवकासः पश्चाद्भागमनवेक्षमाणस्तभिस्स्पृह इत्यर्थों गतःस्वस्थान प्राप्तोऽविघ्नेन-अन्तरायाभावेन जिनपालित इति वक्ष्यमाणं, एष दृष्टान्तानुबादो, दान्तिकस्खेवं-यस्मादेवं तस्मात् । 'प्रवचनसारे' चारित्रे लब्धे सतीति गम्यते 'निरवकालेण' परित्यक्तमोगान् प्रति निरपेक्षेण-अनभिलापवता भवितव्यमिति, "भोगे' गाहा चारित्रं प्रतिपद्यापि भोगानवकाजन्तः पतन्ति संसारसागरे घोरे जिनरक्षितवत् , इतरे तु तरन्ति ज़िनपालितवत् | समुद्रमिति ।।२।। शेष सूत्रसिद्धं । इह विशेषोपनयमेवं वर्णयन्ति व्याख्यातार:-"जह रयणदीवदेवी तह एत्थं अविरहे महापावा।। जह लाहत्थी वणिया तह सुहकामा इहं जीवा ॥१॥ जह तेहिं भीएहिं दिवो आघायमंडले पुरिसो । संसारदुक्खभीया पासंति | तहेब धम्मकह ॥२॥ जह तेण तेसि कहिया देवी दुक्खाण कारणं घोरं । ततो चिय नित्थारो सेलगजक्खाओ नन्नत्तो ॥३॥ १यया रनडीप देवी तथानाविरतिर्महापापा । यथा लाभार्थिनी कनिजी तथा सुखकामा इह जीयाः॥१॥ यथा ताभ्यां भीताभ्यो र आघातमण्डले पुरुषः । | संसारदुःखभीताः पश्यन्ति तथैव धर्मकथकं ।। २ ॥ यथा वेन ताभ्यां कथिता दुःखानां घोरं कार देवी । तत एव लिकयक्षात् निस्तारो नान्यस्मात् ॥३॥ कटर Scrime दीप अनुक्रम [१२३-१४०] ~340~ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [९], ----------------- मूलं [८२-८८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८२-८८ ज्ञाताधर्म- कथानम्- तहे धम्मकही भहाण साहए दिवअचिरइसहायो । सयलदुहहेउभूलो विसपा विरयंति जीवाणे ॥ ४॥ सत्ताणं दुहत्ताणं सरणं चरणं जिणिदपन । आणंदरूवनिहाणसाहणं तहय देसेइ ॥५॥जह तेसि तरियको महसमुद्दो तहेव संसारो। जह तेसि सगिहगमणं निधाणगमो तहा एत्थं ॥ ६ ॥ जह सेलगपिट्ठाओ भट्ठो देवीइ मोहियमईओ । सावयसहस्सपउरंमि | सायरे पाविओ निहणं ॥ ७ ॥ तह अविरईइ नडिओ चरणचुओ दुक्खसावयाइण्णे । निवडइ अपारसंसारसायरे दारुणसरूवे ॥८॥जह देवीए अक्खोहो पत्तो सट्ठाण जीवियसुहाई । तह चरणडिओ साहू अक्खोहो जाइ निवाणं ॥ ९॥ नवमज्ञाताध्ययनविवरणं समासमिति ॥ ९ माकन्दीज्ञाते जिनपालि तजिनर|क्षितवृत्तं सू.८५-८८ ॥१६॥ गाथा: दीप अनुक्रम [१२३-१४०] १ तथा धर्मकथको भव्येभ्यः कषयेत् इष्टम मिरतिखभावम् । सकलदुःसहेतुभूतं विषयेभ्यो विरमयन्ति जीवान् ॥ ४ ॥ सरवाना दुःखातीना शरण चरणं जिनेन्द्रप्रहः । आनन्दरूपनिर्वागसाधनं तव दर्शयति ।। ५ ॥ यथा ताभ्यो तरणीयो रुद्रः समुद्रतयेव संसारः । यथा तयोः खगृहगमनं निर्वाणगमन तथाऽत्र ॥६॥ यथा शैलकपृष्ठात् अष्टो देवीमोहितमतिकः । श्वापदसहस्रप्रचुरे सागरे प्राप्तो निधनम् ॥ ७॥ तपाऽविरया नटितश्चरणयुरो दुःखश्वापदाकीणे । निषतत्यपारससारसागरे दारुणखरूपे ।। ८॥ यथा देण्याक्षोभः प्राप्तः सस्थानं जीवितसुखानि च । तथा परगस्थितः साधुरक्षोभो याति निर्वाणम् ॥५॥ ansare |॥१६९॥ | अत्र अध्ययन-९ परिसमाप्तम् ~341~ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [८] दीप अनुक्रम [१४१] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१] अध्ययनं [१०], मूलं [८९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अथ दशमज्ञातविवरणम् । अथ दशमं विव्रियते, तस्य चायं पूर्वेण सह सम्बन्धः - अनन्तराध्ययनेऽविरतिवशवयवशवर्त्तिनोरनर्थेतरावुक्तौ, इह तुं गुणहानिवृद्धिलक्षणानर्थार्थी प्रमाद्यप्रमादिनोरभिधीयेते इत्येवं सम्बद्धमिदम्--- जति णं भंते! समणेणं० णवमस्स णायज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते दसमस्स के अट्ठे० १, एवं खलु जंबू ! ते काले २ रायगिहे नगरे सामी समोसढे गोयमसामी एवं वदासी कहणं भंते! जीवा वहुति वा हायन्ति वा ?, गो० ! से जहा नामए बहुलपक्खस्स पाडिवयाचंदे पुण्णिमाचंं पणिहाय हीणो वण्णेणं हीणे सोम्मयाए हीणे निद्धयाए हीणे कंतीए एवं दिलीए जुतीए छायाए पभाए ओयाए लेस्साए मंडलेणं तयाणंतरं च णं बीयाचंदे पाडिवयं चंदं पणिहाय हीणतराए वण्णेणं जाव मंडलेणं तयातरं च णं ततिआचंदे बितियाचंदं पणिहाय हीणतराए वण्णेणं जाव मंडलेणं, एवं खलु एएणं कमेणं परिहायमाणे २ जाव अमावस्साचंदे चाउहसिचंद पणिहाय नट्टे वण्णेणं जाव नट्टे मंडलेणं, एवामेव समणासो ! जो अहं निग्गंथो वा निरगंथी वा जाव पवइए समाणे हीणे खंतीए एवं मुत्तीए गुत्तीए अजवेणं मद्दवेणं लाघवेणं सचेणं तवेणं चियाए अकिंचणयाए बंभचेरवासेणं, तयाणंतरं च णं हीणे हीणतराए खंतीए जाव हीणतराए बंभवेरवासेणं, एवं खलु एएणं कमेणं परिहायमाणे २ णट्टे खंतीए Education International अथ अध्ययनं १० "चन्द्रमा" आरभ्यते For Penal Use Only ~342~ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ------------------ अध्ययनं [१०], --------------- मूलं [८९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्मकधाङ्गम्. oeceo प्रत सत्राक ॥१७॥ [८९]] दीप अनुक्रम जाव गट्टे बंभचेरवासेणं, से जहा वा सुक्तपक्खस्स पाडिवयाचंदे अमावासाए चंदं पणिहाय अहिए १०चन्द्रवपणेणं जाव अहिए मंडलेणं तयाणंतरं च णं बिइयाचंदे पडिवयाचंदं पणिहाय अहियपराए थपणेणं ज्ञाता० जाव अहियतराए मंडलेणं एवं खलु एएणं कमेणं परिवुड्डेमाणे २ जाव पुण्णिमाचंदे चाउद्दसिं चंदं क्षान्त्यापणिहाय पडिपुपणं वण्णेणं जाव पडिपुण्णे मंडलेणं, एवामेव समणाउसो! जाब पञ्चतिए समाणे अहिए Pादिवृद्धि हानिभ्यां खंतीए जाव बंभचेरवासेणं, तयाणंतरं च णं अहिययराए खंतीए जाव बंभचेरवासेणं, एवं खलु जीवगुणएएणं कमेणं परिवहेमाणे २ जाब पडिपुन्ने बंभचेरवासेणं, एवं खलु जीवा वटुंति वा हायंति वा, एवं 18 वृद्धिहानी खलु जंबू ! समणेणं भगवता महावीरेणं दसमस्स णायज्झयणस्स अयमढे पपणत्तेत्तियेमि ॥ (सत्रं ८९) । दसमं णायज्झयणं समत्तं ॥१०॥ सर्व सुगमम् , नवरं जीवानां द्रव्यतोऽनन्तत्वेन प्रदेशतश्च प्रत्येकमसङ्ख्यातप्रदेशसेनावस्थितपरिमाणखात् बर्द्धन्ते गुणैः । हीयन्ते च तैरेव । अनन्तरनिर्देशखेन हानिमेव तावदाह-'से जहे त्यादि, 'पणिहाए'ति प्रणिधायापेक्ष्य 'वर्णेन' शुक्रताल-II क्षणेन 'सौम्यतया' सुखदर्शनीयतया 'स्निग्धतया' अरूक्षतया 'कान्त्या' कमनीयतया 'दीया' दीपनेन वस्तुप्रकाशनेनेत्यर्थः 'जुत्तीय'त्ति युक्त्या आकाशसंयोगेन, खण्डेन हि मण्डलेनाल्पतरमाकाशं युज्यते न पुनयांवत्सम्पूर्णन, 'छायया' जलादौ प्रतिविम्बलक्षणया शोभया वा 'प्रभया' उद्गमनसमये यद् द्युतिस्फुरणं तया 'ओयाए'ति ओजसा दाहापनय [१४१] Secerce ॥१७॥ ~343~ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ------------------ अध्ययनं [१०], --------------- मूलं [८९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सत्राका [८९ नादिस्खकार्यकरणशक्या 'लेश्यया' किरणरूपया 'मण्डलेन' वृत्ततया, क्षान्त्यादिगुणहानिश्च कुशीलसंसर्गात् सद्गुरूणाम-IN |पर्युपासनात् प्रतिदिनं प्रमादपदासेवनात् तथाविधचारित्रावरणकर्मोदयाच्च भवतीति, गुणधृद्धिस्वेतद्विपर्ययादिति, एवं च हीयमानानां जीवानां न वान्छितस्य निर्वाणसुखस्यावाप्तिरित्यनर्थः, आह च-'चंदोष कालपक्खे परिहाई पए पए पमायपरो। तह उग्घरविग्घरनिरंगणोवि न य इच्छियं लहइ ॥१॥"ति[चन्द्र इव कृष्णपक्षे परिहीयते पदे पदे प्रमादपरः । तथा उद्ध-IN हविगृहनिरञ्जनोऽपि द्रव्यतो नेप्सितं लभते ॥१॥] गुणैर्वर्द्धमानानां तु वान्छितार्थावाप्रथे इति, विशेषयोजना पुनरेवम्ST"जह चंदो तह साहू राहुवरोहो जहा तह पमाओ । वण्णाई गुणगणो जह तहा खमाई समणधम्मो ॥१॥ पुण्णोवि पइदिणं|3|| जह हायंतो सबहा ससी नस्से । तह पुण्णचरित्तोऽविहु कुसीलसंसग्गिमाईहिं ।। २॥ जणियपमाओ साहू हायंतो पइदिणं | Kखमाईहिं । जायइ नढचरितो ततो दुक्खाई पावेह ॥ ३॥ तथा-'हीणगुणोविहु होउं सुहगुरुजोगाइजणियसंवेगो । पुण्णस-11 रूपो जायइ विवढमाणो ससहरोच ॥४॥ [यथा चन्द्रस्तथाः साधुः राहपरोधो यथा तथा प्रमादः । वोदिगुणगणो यथा तथा क्षमादिः श्रमणधर्मः॥१॥ पूर्णोऽपि प्रतिदिनं यथा हीयमानः सर्वथा नश्यति शशी । तथा पूर्णचारित्रोऽपि कुशीलसं-1%8 सर्गादिभिः ॥२॥ जातप्रमादः साधुः प्रतिदिनं हीयमानः क्षमादिभिः । जायते नष्टचारित्रः ततो दुःखानि प्राप्नोति ॥३॥ हीनगुणोऽपि भूखा शुभगुरुयोगादिजनितसंवेगः । पूर्णखरूपो जायते विवर्धमानः शशधर इव ॥४॥] दशमज्ञातविवरण समाप्तमिति ॥ दीप अनुक्रम [१४१] अत्र अध्ययनं-१० परिसमाप्तम् ~344~ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [११], ----------------- मूलं [१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: एकादशज्ञातविवरणम् । ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. प्रत सुत्रांक ॥१७१॥ [१०] दीप cerserseleoenesepeper अथैकादशमं विवियते-अस्य पूर्वेण सहायं सम्बन्धः-पूर्वत्र च प्रमाधप्रमादिनोर्गुणहानिवृद्धिलक्षणावनार्थायुक्ती, इह तु मार्गाराधनविराधनाभ्यां तावुच्यते इतिसम्बमिदम् जति णं भंते ! दसमस्स नायजसणस्स अयमढे एकारसमस के अ०१. एवं खल जव! तेणं कालेणं २ रायगिहे गोयमे एवं वदासी-कह णं भंते ! जीवा आराहगा वा विराहगा वा भवंति ?, गो! से जहा णामए एगंसि समुद्दकूलंसि दावद्दवा नाम रुक्खा पपणत्ता किण्हा जाव निउबभूया पत्तिया पुफिया फलिया हरियगरेरिजमाणा सिरीए अतीव उवसोभेमाणा २ चिट्ठति, जया णं दीविचगा इंसिं पुरेवाया पच्छावाया मंदावाया महावाया वायंति तदा णं बहवे दावद्दया रुक्खा पत्तिया जाव चिट्ठति अप्पेगतिया दाबद्दवा रुक्खा जुन्ना झोडा परिसडियपंडुपत्तपुष्फफला सुक्रुक्खओ विव मिलायमाणा २ चिट्ठति, एवामेव समणाउसो! जे अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा जाव पञ्चतिते समाणे बट्टणं समणाणं ४ सम्म सहति जाव अहियासेति बरणं अपणउत्थियाणं वहणं गिहत्थाणं नो सम्मं सहति जाब नो अहियासेति एस णं मए पुरिसे देसविराहए पण्णत्ते समणाउसो! जया णं सामुदगा इंसिं पुरेवाया पच्छा ११दावद्वज्ञाताध्य. स्वपरोभयानुभयोक्तिसहने देशविराधनाराधनसाराधनविराधनाः सू.९० ॥१७॥ Cenenewestseenesesences अनुक्रम [१४२] अथ अध्ययनं- ११ "दावद्रव आरभ्यते ~345~ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [११], ------------------ मूलं [९०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सुत्रांक [१०] दीप पाया मंदावाया महावाता वायति तदा णं बहवे दावदवा रुक्खा जुपणा झोडा जाब मिलायमाणा २ चिट्ठति, अप्पेगइया दावद्दवा रुक्खा पत्तिया पुफिया जाय उबसोभेमाणा २ चिटुंति, एवामेवसमणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंधी वा पचतिए समाणे बहणं अण्णउत्धियाणं बहूणं गिहत्थाणं सम्म सहति बरणं समणाणं ४ नो सम्मं सहति एस णं मए पुरिसे देसाराहए पन्नत्ते समणासो।। जया शं नो दीविचगा णो सामुहगा ईसिं पुरेवाया पच्छावाया जाव महावाया तते णं सबेदावच्या रुक्खा जुण्णा झोडा. एवामेव समणाउसो! जाव पवतिए समाणे बहूणं समणाणं २ बहूणं अन्नउत्थिय. गिहत्थाणं नो सम्मं सहति एस णं मए पुरिसे सबविराहए पण्णते समणाउसो!, जया णं दीविचगावि सामुद्दगावि ईसिं पुरेवाया पच्छावाया जाव वायति तदा णं सबे दावदवा रुक्खा पत्तिया जाव चिट्ठति, एवामेव समणाउसो! जे अम्हं परतिए समाणे बट्टणं समणाणं बरणं अनउस्थियनिहत्थाणं सम्मं सहति एस णं मए पुरिसे सबाराहए पं०1, एवं खलु गो ! जीवा आराहगा वा विराहगा वा भवंति, एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया एक्कारसमस्स अयम? पण्णत्तेत्तिबेमि ॥ (सूत्रं-१०) एकारसमं नायज्ज्ञयर्ण समतं॥ सर्व सुगम, नवरं आराधका ज्ञानादिमोक्षमार्गस्य विराधका अपि तस्यैव 'जया णमित्यादि 'दीविच्चगा' द्वैप्या द्वीपसम्भवा ईषद पुरोवाता:-मनाक्-सस्नेहवाता इत्यर्थः, पूर्वदिक्सम्बन्धिनो बा, पथ्या वाता-वनस्पतीनां सामान्येन हिता अनुक्रम [१४२] ~346~ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ------------------ अध्ययनं [११], ---------------- मूलं [९०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्मकधाङ्गम. प्रत सुत्रांक ॥१७॥ [१०] दीप वायवः पश्चाद्वाता था मन्दाः-शनैः सञ्चारिणः महाबाता:-उदंडवाता बान्ति तदा 'अप्पेगइय'चि अध्येके केचनापि ११दावद्रस्तोका इत्यर्थः, 'जुण्ण'त्ति जीर्णा इव जीर्णाः, झोडा पत्रादिशाटनं, तद्योगात्तेऽपि झोडाः, अत एव परिशटितानि कानिचिव विज्ञाताध्य. पाण्डूनि पत्राणि पुष्पफलानि च येषां ते तथा शुष्कवृक्षक इव म्लायन्तस्तिष्ठन्ति इत्येष दृष्टान्तो, योजना तस्यैवं 'एवामेवेत्यादि, स्वपराभ'अण्णउत्थियाण'ति अन्ययूथिकानां-तीर्थान्तरीयाणां कापिलादीनामित्यर्थः, दुर्वचनादीनुपसर्गान् नो सम्यक् सहते इति, 'एस 'ति य एवंभूतः एष पुरुषो देशविराधको ज्ञानादिमोक्षमार्गस्य, इयमत्र विकल्पचतुष्टयेऽपि भावना यथा दावद्रव्य-18 |किसहने वृक्षसमूहः खभावतो द्वीपवायुभिः बहुतरदेशैः खसम्पदः समृद्धिमनुभवति देशेन चासमृदि १ समुद्रवायुभिश्व देशरसमृद्धि देशविरा धनाराधदेशेन च समृद्धि २ मुभयेषां च वायूनाममाये समृद्धभाव ३ मुभयसद्भावे च सर्वतः समृद्धि ४ मे क्रमेण साधुः कुती-1 |र्थिक गृहस्थानां दुर्वचनादीन्यसहमानः क्षान्तिप्रधानस्य ज्ञानादिमोक्षमार्गस्य देशतो विराधनां करोति, श्रमणादीनां बहुमानवि-181 नसोरा धनविराषयाणां दुर्वचनादिक्षमणेन बहुतरदेशानामाराधनात् १ श्रमणादिदुर्वचनानां खसहने कुतीथिकादीनां सहने देशानां विराधनेन8 धनाः देशत एवाराधना करोति २ उभयेषामसहमानो विराधनायां सर्वथा तस्य वर्तते ३ सहमानश्च सर्वथाऽऽराधनायामिति ४, इह|8 सू.९० पुनर्विशेषयोजनामेवं वर्णयन्ति-"जह दाबद्दवतरुवणमेव साह जहेब दीविचा । वाया तह समणाइयसपक्खवयणाई दुसहाई ॥१॥ जह सामुदयवाया तहऽण्णतित्थाइकडयवयणाई । कुसुमाइसंपया जह सिवमग्गाराहणा तह उ ॥२॥जह कुसुमाइविणासो ॥१७॥ १ यथा दाववतम्वनमेवं साधवः यथैव द्वीपगाः । वातास्तथा श्रमणादिकरापक्षवचनानि दुःसहानि ॥ १॥ यथा समुद्रवातास्तथाऽभ्यतीथिकादिकटुकवचनानि । कुसमादिसंपत् यथा शिवमानौराधना तथैव ॥ २ ॥ यथा कुसुमादिविनाशः । अनुक्रम [१४२] ~347~ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [30] दीप अनुक्रम [१४२] अध्ययनं [११], मूलं [१०] श्रुतस्कन्ध: [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... .... आगमसूत्र [०६ ], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ........... “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र -६ (मूलं + वृत्ति:) - JEL | सिर्वमग्गविराहणा तहा नेया । जह दीववाडजोगे बहु इड्डी ईसि य अणिड्डी ॥ ३ ॥ तह साहम्मियवयणाण सहमाणाराहणा भवे बहुया । इयराणमसहणे पुण सिवमग्गविराहणा थोवा ॥ ४ ॥ जह जलहि वाउजोगे थेविड्डी बहुवरा यणिड्डी य । तह पर पक्कखमणे आराहणमीसि बहुययरं ॥ ५ ॥ जह उभयवादविरहे सवा तरुसंपया विद्वत्ति । अनिमित्तोभयमच्छररुवे | विराहणा वह य ।। ६ ।। जह उभयव उजोगे सवसमिड्डी वणस्स संजाया । तह उभयवयणसहणे सिवमग्गाराणा वृत्ता ॥७॥ ता पुन्नसमणधम्माराहणचित्तो सया महासत्तो । सचेणवि कीरंतं सहेज सर्वपि पडिकूलं ॥ ८ ॥” इति ॥ एकादशज्ञातविवरण समाप्तं ॥ ११ ॥ अत्र अध्ययनं १९ परिसमाप्तम् - १] शिवाराधना तथा ज्ञेया यथा द्वीपवायुयोगे वहुः ऋद्धिपथानृदिः ॥ १ ॥ तथा साधर्मिकवचनानां सहमानानामाराधना भवेद्दुका इतरेषा मसहने पुनः शिवभागंविराधना सोका ॥ ४ ॥ यथा जलधिवायोगे स्तोककतराऽनदिव तथा परपक्षक्षमणे आराधनेषत् बहुकतरा ( विराधना ) ॥ ५ ॥ यथोभवायुविर सर्वापत् विनष्टेति । अनिमित्तोभयमत्सररूपेह विराधना तथा च ॥ ६ ॥ यथोभयवायुयोगे सर्वां सम्मृद्धिर्वनस्य संजाता। तयोभयवचनसहने शिवाराधना ॥ ७ ॥ तत् पूर्णमणधर्माराधनाचित्तः सदा महासत्त्यः सर्वेणापि क्रियमाणं सहेत सर्वमपि प्रतिकूलं ॥ ८ ॥ For Penal Use Only ~ 348 ~ jor Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ------------------ अध्ययनं [१२], ----------------- मूलं [९१,९२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाङ्गम. प्रत सूत्रांक [९१,९२] ॥१७३॥ दीप द्वादशज्ञातविवरणम्। १२उदक ज्ञाते परिअधुना द्वादशं विवियते, अस्य चैवं सम्बन्धः-अनन्तरज्ञाते चारित्रधर्मस्य विराधकत्वमाराधकलं चोक्तमिह तु चारित्रारा-18 खोदकं सू. धकवं प्रकृतिमलीमसानामपि भव्यानां सद्गुरुपरिकर्मणातो भवतीत्युदकोदाहरणेनाभिधीयते, इत्येवं सम्बद्धमिदम्--- द्धिकृतो जतिणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं एकारसमस्स नायज्झयणस्स अयम बारसमस्स णं नायज्झयणस्स के जितशत्रोअढे पं०१, एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं२चंपा नाम नयरी पुण्णभद्दे जितसत्तू रायाधारिणी देवी, अदीणसत्तू नामं कुमारे जुवराया यावि होत्था, सुबुद्धी अमचे जाव रज्जधुरार्चितए समणोवासए, तीसे णं चंपाए णयरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमेणं एगे परिहोदए यावि होत्था, मेयवसामसरुहिरपूयपडलपोचडे मयगकलेवरसंछण्णे अमणुण्णे चपणेणं जाव फासणं, से जहा नामए अहिमडेति वा गोमडेति वा जाव मयकुहियविणढकिमिणवावण्णदुरभिगंधे किमिजालाउले संसते असुइविगयवीभत्थदरिसणिजे, भवेयारूवे सिया?, णो इणद्वे समढे, एत्तो अणिट्ठतराए चेव जाव गंधेणं पण्णत्ते (सूत्रं ९१) तते णं से जितसत्तू ॥१७॥ राया अण्णदा कदाइ पहाए कयवलिकम्मे जाव अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरे बहहिं राईसर जाव सत्यवाहपभितिहिं सद्धिं भोयणवेलाए सुहासणवरगए विपुलं असणं ४ जाव विहरति, जिमितभु अनुक्रम [१४३ -१४४] SAMEniraunia अथ अध्ययनं- १२ "उदकज्ञात" आरभ्यते ~349~ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१२], ----------- --- मूलं [९१,९२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९१,९२] नुत्तरायए जाव सुइभूते तंसि विपुलंसि असण ४ जाव जायविम्हए ते बहवे ईसर जाब पभितीए एवं वयासी-अहो णं देवा! इमे मणुण्णे असण ४ वण्णेणं उववेए जाव फासेणं उववेते अस्सायणिज्जे विस्सायणिजे पीणणिज्जे दीवणिजे दप्पणिज्जे मयणिज्जे विहणिजे सबिंदियगायपल्हायणिज्जे, तते णं ते बहवे ईसर जाव पभियओ जितसत्तुं एवं व०-तहेव णं सामी! जणं तुम्भे बदह अहो णं इमे मणुण्णे असणं ४ वण्णेणं उववेए जाव पल्हायणिज्जे, तते णं जितसत्तू सुबुद्धिं अमचं एवं व०-अहो णं सुबुद्धी! इमे मणुण्ण असणं ४ जाव पल्हायणिज्जे, तए णं सुवुद्धी जितसत्तुस्सेयम8 नो आढाइ जाव तसिणीए संचिट्ठति, तते णं जितसत्तुणा सुवुद्धी दोचंपि तचापि एवं वुत्ते समाणे जितसत्तुं रायं एवं वदासी-नो खलु सामी! अहं एयंसि मणुण्णंसि असण ४ केइ विम्हए, एवं खलु सामी ! सुन्भिसहावि पुग्गला दुन्भिसदत्ताए परिणमंति दुन्भिसद्दावि पोग्गला मुभिसहत्ताए परिणमंति, सुरूवावि पोग्गला दुरूवत्ताए परिणमंति दुरूवावि पोग्गला सुरूवत्ताए परिणमंति, सुन्भिगंधावि पोग्गला दुन्भिगंधत्ताए परिणमंति. दुन्भिर्गधावि पोग्गला सुन्भिगंधत्ताए परिणमंति सुरसावि पोग्गला दुरसताए परिणमंति दुरसावि पोग्गला सुरसत्ताए परिणमंति सुहफासावि पोग्गला दुहफासत्ताए परिणमंति दुहफासावि पोग्गला सुहफासत्ताए परिणमंति पओगवीससापरिणयावि य णं सामी! पोग्गला पण्णत्ता, तते णं से जितसत्तू सुबुद्धिस्स अमञ्चस्स एवमातिक्खमाणस्स ४ एयमद्वं नो आढाति नो दीप अनुक्रम [१४३-१४४] Taurasurary.com ~350~ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [९१, ९२] दीप अनुक्रम [१४३ -१४४] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] अध्ययनं [१२], मूलं [ ९१, ९२ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः हाताधर्म कथाङ्गम्. ॥१७४॥ परियाई सिणीए संचिट्ठद्द, तए णं से जितसत्तू अष्णदा कदाई पहाए आसखंधवरगते महया भडचडगरह आसवाहणियाए निज्ज्ञायमाणे तस्स फरिहोदगस्स अदूरसामंतेणं बीतीवयइ । तते णं जितसत्तू तस्स फरिहोद्गस्स असुभेणं गंधेणं अभिभूते समाणे सरणं उत्तरिजगेणं आसगं पिछेइ, एस अवक्कमति, ते बहवे ईसर जाव पभितिओ एवं वदासी- अहो णं देवाणुप्पिया इमे फरिहोदए ! अमपुणे वण्णेणं ४ से जहा नामए अहिमडेति वा जाच अमणामतराए चेव, तए णं ते बहवे राईसर पभिह जाब एवं व० तव णं तं सामी ! जंणं तुग्भे एवं वयह, अहोणं इमे फरिहोदए अमगुण्णे वपणेणं ४ से जहा णामए अहिमडे इ वा जाव अमणामतराए चेव, तए णं से जियसत्तू सुबुद्धिं अमचं एवं वदासीअहो णं सुबुद्धी ! इमे फरिहोदए अमणुण्णे वण्णेणं से जहा नामए अहिमडेइ वा जाव अमणामतराए चे, तर सुबुद्धी अमचे जाव तुसिणीए संचिहर, तए णं से जियसत्तू राया सुबुद्धिं अमचं दोचंपि तप एवं व० - अहो णं तं चेब, तए णं से सुबुद्धी अमचे जियसत्तुणा रन्ना दोपि तचंपि एवं वृत्ते समाणे एवं व०-नो खलु सामी ! अम्हं एयंसि फरिहोदगंसि केइ विम्हए, एवं खलु सामी ! सुभिसदावि पोग्ला भत्ताए परिणमंति, तं चैव जात्र पओगवीससापरिणयावि य णं सामी ! पोरगला पण्णत्ता, तते णं जितसत्तु सुबुद्धिं एवं चेव, मा णं तुमं देवाणु० ! अप्पाणं च परं च तदुभयं वा बहिय असम्भावुभावणाहिं मिच्छत्ताभिणिवेसेण य बुग्गाहेमाणे बुप्पाएमाणे विहराहि, तते णं Eucation International For Park Use Only ~351~ | १२उदकज्ञाते परिखोदकं सू. ९१ सुबु द्धिकृतो जितशत्रोबोधः सु. ९२ ॥१७४॥ wor Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ------------------ अध्ययनं [१२], ----------------- मूलं [९१,९२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९१,९२] दीप सुबुद्धिस्स इमेयारूवे अन्भस्थिए ५ समुप्पजित्था-अहो णं जितसत्तू संते तच्चे तहिए अवितहे सन्भूते जिणपण्णत्ते भावे णो उवलभति, तं सेयं खलु मम जितसन्तुस्स रपणो संताणं तचार्ग तहियाणं अवितहाणं सम्भूताणं जिणपण्णत्ताणं भावाणं अभिगमणद्वयाए एयम8 उवाइणावेत्तए, एवं संपेहेति २ पचतिएहिं पुरिसेहिं सदि अंतरावणाओ नवए घडयपडए पगण्हति २ संझाकालसमयंसि पविरलमणुस्संसि णिसंतपडिनिसंतंसि जेणेव फरिहोदए तेणेव उवागए २तं फरिहोदगं गेण्हावेति २ नवएसु घडएस गालावेति २ नवएसु घडएसु पक्खिवावेति २ लंछियमुद्दिते करावेति २ सत्तरतं परिवसावेति २ दोचंपि नवएसु घडएसु गालावेति नवएसु घडएसु पक्खिवावेति २ सज्जक्खारं पक्खिवावेह लंछियमुहिते कारवेति २ सत्तरतं परिवसावेति २ तचंपि णवएसु घडएसु जाव संवसावेति एवं खलु एएणं उवाएणं अंतरा गलावेमाणे अंतरा पक्खिवावेमाणे अंतराय विपरिवसावेमाणे २ सत्त २ रातिंदिया विपरिवसावेति, तते णं से फरिहोदए सत्तमसत्तयंसि परिणममाणंसि उदगरयणे जाए यावि होत्था अच्छे पत्थे जच्चे तणुए फलिहवण्णाभे वण्णेणं उववेते ४ आसायणिजे जाव सर्विदियगायपल्हायणिजे, तते णं सुबुद्धी अमचे जेणेव से उदगरयणे तेणेव उवा०२ करयलंसि आसादेति २तं उदगरयणं वण्णणं उबवेयं ४ आसायणिज्जे जाच सर्विदियगायपल्हायणिहज जाणित्ता हट्ठतुहे बहहिं उद्गसंभारणिज्जेहिं संभारेति २ जितसत्तुस्स रणो पाणियपरियं सदावेति २ एवं व०-तुर्म च गं देवाणु अनुक्रम [१४३ -१४४] ~ 352~ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [९१, ९२] दीप अनुक्रम [१४३ -१४४] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] अध्ययनं [१२], मूलं [ ९१, ९२ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्. ॥१७५॥ Sentenenesesente Education Internationa पिया ! इमं उदगरयणं गेहाहि २ जितसचुस्स रनो भोयणवेलाए उवणेज्जासि, तते णं से पाणियघरए सुबुद्धिस तमहं पडिसुर्णेति २ तं उद्गरयणं गिण्हाति २ जितसचुस्स रण्णो भोगणवेलाए वेति, तते गं से जितसत्तू राया तं विपुलं असण ४ आसाएमाणे जाब बिहरइ, जिमियभुक्षुत्तराययावि य णं जाव परमसुइभूए तंसि उद्गरपणे जायविम्हए ते बहुवे राईसर जाव एवं व० - अहो णं देवा ! इसे उदगरणे अच्छे जाब सद्विंदियगायपल्हायणि तते णं बहवे राईसर जाब एवं व०तव णं सामी ! जपणं तुम्भे वदह जाव एवं चेव पल्हायणिज्ये, तते णं जितसत्तू राया पाणियघरियं सहावेति २ एवं व-एस णं तुम्भे देवा० ! उदगरयणे कओ आसादिते ?, तते णं से पाणियधरिए जितसत्तुं एवं बदासी - एस णं सामी ! मए उदगरयणे सुबुद्धिस्स अंतियाओ आसादिते, तते णं जितसत्तू सुबुद्धि अमचं सहावेति २ एवं व०-अहो णं सुबुद्धी केणं कारणेणं अहं तव अणिट्टे ५ जेणं तुम मम कल्ला कल्लिं भोयणवेलाए इमं उद्गरयणं न उबट्टवेसि ?, नए णं तुमे देवा० ! उद्गरयणे कओ उबलद्वे ?, तते णं सुबुद्धी जितसत्तुं एवं व०-एस णं सामी से फरिहोदए, तते णं से जितसत्तू सुबुद्धिं एवं व० केणं कारणं सुबुद्धी । एस से फरिहोदए ?, तते णं सुबुद्धी जितसत्तुं एवं व०- एवं खलु सामी ! तुम्हे तथा मम एवमातिक्खमाणस्स ४ एतमहं नो सहहह तते णं मम इमेयाचे अभत्थिते ६ अहो णं जितसत्तू संते जाव भावे नो सद्दहति नो पत्तियति नो रोएति तं सेयं खलु ममं जियसन्तुस्स For Parts Use Only ~ 353~ १२ उदक ज्ञाते परि खोदक सू. ९१ सुबुद्धिकृतो जितशत्रोबोधः सु. ९२ ॥ १७५ ॥ yor Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१२], ----------- --- मूलं [९१,९२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९१,९२] c erseme रनो संताणं जाव सन्भूताणं जिणपन्नत्ताणं भावाणं अभिगमणट्टयाए एतमट्ठ उवाइणावेत्तए, एवं संपेहेमि २तं चेव जाव पाणियपरियं सहावेमि २ एवं वदामि-तुम णं देवाणु ! उदगरतणं जितसत्तुस्स रन्नो भोयणवेलाए उवणेहि, तं एएणं कारणेणं सामी ! एस से फरिहोदए । तते गं जितसत्तू राया सुबुद्धिस्स अमचस्स एवमातिक्खमाणस्स ४ एतमझु नो सद्दहति ३ असहमाणे ३ अम्भितरहाणिज्जे पुरिसे सद्दावेति २ एवं वदासी-गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया! अंतरावणाओ नवघडए पडए य गेण्हह जाच उद्गसंहारणिज्जेहिं दवेहिं संभारेह तेऽवि तहेव संभारेति २ जितसत्तुस्स उवणेति, तते णं जितसत्तू राया तं उदगरयणं करयलंसि आसाएति आसातणिजं जाव सविंदियगायपल्हायणिज्जं जाणिसासुबुद्धि अमचं सद्दावेति २एवं व०-सुबुद्धी! एए णं तुमे संता तथा जाव सन्भूया भावा कतो उवलद्धा, तते णं सुबुद्धी जितसत्तुं एवं वदासी-एए णं सामी ! मए संता जाव भावा जिणवयणातो उवलद्धा, तते णं जितसत्तु सुवुद्धि एवं व०-तं इच्छामि गं देवाणु ! तब अंतिए जिणवयणं निसामेत्तए, तते गं सुबुद्धी जितसत्तुस्स विचितं केवलिपन्नत्तं चाउजामं धम्म परिकहेइ, तमाइक्वति जहा जीवा बझंति जाव पंच अणुषयाति, तते णं जितसत्तू सुबुद्धिस्स अंतिए धम्मं सोचा णिसम्म हट्ट सुबुद्धिं अमचं एवं व०-सद्दहामि णं देवाणुप्पिया! निग्गंध पावयणं ३ जाव से जहेयं तुम्भे वयह, तं इच्छामि गं तव अंतिए पंचाणुषइयं सत्तसिक्खावइयं जाव उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, अहासुहं देवा! मा पडि दीप अनुक्रम [१४३ -१४४] Re ~354~ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [९१, ९२] दीप अनुक्रम [१४३ -१४४] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] अध्ययनं [१२], मूलं [ ९१, ९२ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्. ॥१७६॥ sentatasheets ० तरणं से जियसत्तू सुबुद्धिस्स अमवस्स अंतिए पंचाणुवइयं जाव दुवालसविहं सावयधम्मं पडिवज्जइ, तते गं जितसत्तू समणोवासए अभिगयजीवाजीवे जाव पडिला भेमाणे विहरति । तेणं कालेणं २ धेरागमणं जियसत्तू राया सुबुद्धी य निग्गच्छति, सुबुद्धी धम्मं सोचा जं गवरं जियसत्तुं आपुच्छामि जाव पयामि, अहासुहं देवा० १, तते णं सुबुद्धी जेणेव जितसत्तू तेणेव उचा० २ एवं व० एवं खलु सामी ! मए थेराणं अंतिए घम्मे निसन्ते सेऽविय धम्मे इच्छियपडिच्छिए ३, तए णं अहं सामी ! संसारभरि भी जाव इच्छामि णं तुम्भेहिं अन्भणुन्नाए स० जाव पवइन्तए, तते णं जितसत् सुबुद्धिं एवं व० - अच्छासु ताव देवाणु० 1 कतिवयातिं वासाइं उरालातिं जाव भुंजमाणा ततो पच्छा errओ राणं अंतिए मुंडे भवित्ता जाव पवइस्सामो, तते णं सुबुद्धी जितसत्तुस्स एयम पडि णेति, तते णं तस्स जितसत्तुस्स सुबुद्धीणा सद्धिं विपुलाई माणुस्स० पचणुभवमाणस्स दुबालस वासाई वीतिताई तेणं कालेणं २ थेरागमणं तते गं जितसत्तू धम्मं सोचा एवं जं नवरं देवा० ! सुबुद्धिं आमंमि जेट्ठपुत्तं रज्जे उवेमि, तए णं तुभं जाव पवयामि, अहासुहं, तते णं जितसत्तू जेणेव सए गिहे तेणेव उवा० २ सुबुद्धिं सहावेति २ एवं वयासी एवं खलु भए धेराणं जाव पवज्जामि, तुमं णं किं करेसि ?, तते णं सुबुद्धी जितसत्तुं एवं व०-जाव के० अन्ने आहारे वा जाव पचयामि तं जति णं देवा० जाब पढयह गच्छह णं देवाणु०! जेद्वपुत्तं च कुटुंबे ठावेहि २ सीयं दुरुहित्ताणं ममं अंतिए सीया Education International For Pasta Use Only ~ 355~ १२ उदकज्ञाते परिखोदकं सू. ९१ सुबुद्धिकृतो ९ जितशत्रोबोधः सु. ९२ ॥१७६॥ or Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ------------------ अध्ययनं [१२], ----------------- मूलं [९१,९२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९१,९२] दीप जाव पाउन्भवेति, तते णं सुवुद्धीए सीया जाव पाउन्भवइ, तते णं जितसत्तू कोढुंचियपुरिसे सहावेति २ एवं व०-गच्छह णं तुम्भे देवा० अदीणसत्तुस्स कुमारस्स रायाभिसेयं उवट्ठवेह जाव अभिसिंचंति जाव पञ्चतिए । तते णं जितसत्तू एकारस अंगाई अहिज्जति बहूणि वासाणि परियाओ मासियाए सिद्धे, तते णं सुबुद्धी एक्कारस अंगाई अ० यहणि चासाणि जाव सिद्धे । एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं बारसमस्स अयमद्धे पण्णत्तेत्तिवेमि (सूत्रं ९२) ॥१२॥ वारसमं नाअज्झयणं समत्तं ॥ सर्व सुगम नवरं 'फरिहोदए'त्ति परिखायाः-खातवलयस्सोदकं परिखोदकं, चापीति समुच्चये, ततश्चपादिकोऽर्थोऽभूद एवं परिखोदकं चाभूदित्येवं, चः समुपये इति, 'मेयेत्यादि, अत्र मेदःप्रभृतीनां पटलेन-समूहेन 'पोवई' विलीनं मृतकानां यथा वा द्विपदादीनां कडेवरी संछन्नं यत्तत्तथा, अह्मादिकडेवरविशेषणायाह-मृत-जीवविमुक्तमात्र सबत् कुथित-हेपतुदुर्गन्धमित्यर्थः तथा विनष्टं उच्छनखादिविकारवत् 'किमिण'ति कतिपयकृमिवत् व्यापन च शकुन्यादिभक्षणाद्वीभत्सतां गतं सद्यहुरभिगन्धं तीव्रतरदुष्टगन्धं तत्तथा 'सुब्भिसद्दाविति शुभशब्दा अपि, 'दुम्भिसद्दत्ताए'त्ति दुष्टशब्दतया, 'पओगवीससापरिणय'त्ति प्रयोगेण-जीवव्यापारेण विश्रसया च-खभावेन परिणताः-अवस्थान्तरमापना ये ते तथा 'आसखंधवरगए'त्ति अश्व एव स्कन्धः-पुद्गलप्रचयरूपो वर:-प्रधानोऽश्वस्कन्धवरोऽथवा स्कन्धप्रदेशप्रत्यासत्तेः पृष्ठमपि स्कन्ध इति व्यपदिष्टमिति, 'असम्भावुभावणाहिति असतां भावानां-वस्तूनां वस्तुधाणां वा या उद्भावना-उत्क्षेपणानि तास्तथा ताभिमिथ्या अनुक्रम [१४३ -१४४] SAREairabad Aasaram.org ~356~ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ------------------ अध्ययनं [१२], ----------------- मूलं [९१,९२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९१,९२] ताधर्म- खाभिनिवेशेन च-विपर्यासाभिमानेन व्युग्राहयन्-विविधत्वेनाधिक्येन च ग्राहयन् व्युत्पादयन्-अव्युत्पन्नमतिं व्युत्पन्नं कुर्वन् ||१२उदककथाङ्गम. 'संते'इत्यादि सतो-विद्यमानान् 'तचेति तत्त्वरूपानैदंपर्यसमन्वितानित्यर्थः, अत एव तथ्यान्-सत्यान् , एतदेव व्यति- ज्ञाते परि रेकेणोच्यते-अवितथान् न वितथानित्यर्थः, किमुक्तं भवति ?-सद्भूतान् सता प्रकारेण भूतान्-यातान् सद्भूतान् एकार्थी वैते खोदकं सू. ॥१७७॥ शब्दाः, 'अभिगमणट्ठयाए' अवगमलक्षणाय अर्थायेत्यर्थः, 'एतमटुंति एवं(त)-पुद्गलानामपरापरपरिणामलक्षणमर्थ ||९१ सुबुINI'उवाइणावित्तए'ति उपादापयितुं प्राहयितुमित्यर्थः, 'अंतरावणाउ'ति परिखोदकमार्गान्तरालवचिनो हात् कुम्भका- द्धि कृता रसम्बन्धिन इत्यर्थः, 'सज्जखारं'ति सद्यो भस, 'अच्छे'त्यादि, अच्छ-निर्मल, पथ्य-आरोग्यकरं जायं-प्रधानमिति जितशत्राभावः, तनुकं-लघु सुजरमिति हृदयं, 'उद्गसंभारणिजेहिं ति उदकवासकैः बालकमुस्तादिभिः संमारयति-संभृतं करोति । इहाध्ययने यद्यपि सूत्रेणोपनयो न दर्शितः तथाऽप्येवं द्रष्टव्यः-"मिच्छत्तमोहियमणा पावपसत्तावि' पापिणो विगुणा । फरिहोदगंव गुणिणो हवंति वरगुरुपसायाओ ॥१॥"ति [ मिथ्यालमोहितमनसः पापप्रसक्ता अपि प्राणिनो विगुणाः । परिखो-18 दकमिव गुणिनो भवन्ति वरगुरुप्रसादात् ॥१॥] द्वादशज्ञातविवरणं समाप्तम् ।। 81 बाँधः सू. दीप अनुक्रम [१४३-१४४] seeeeeeeeeeeeeeeeeera ॥१७७॥ अत्र अध्ययनं-१२ परिसमाप्तम् ~ 357~ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१३], ----------------- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अथ त्रयोदशज्ञातविवरणम् । प्रत सत्राक [९३] दीप अनुक्रम [१४५] अथ त्रयोदर्श व्याख्यायते, अस्य च पूर्वेण सहायं सम्बन्धः-अनन्तराध्ययने संसर्गविशेषाद् गुणोत्कर्ष उक्तः, इह तु संसविशेषाभावाद् गुणापकर्ष उच्यते, इत्येवं सम्बद्धमिदम् जति णं भंते । समणेणं बारसमस्स अयमढे पण्णते तेरसमस्स णं भंते ! नाय. के. अढे पन्नते?, एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं २ रायगिहे गुणसिलए चेतिए, समोसरणं, परिसा निग्गया, तेणं कालेणं २ सोहम्मे कप्पे दहुरवडिंसए विमाणे सभाए सुहम्माए दडुरंसि सीहासणंसि दडुरे देवे चउहि सामाणियसाहस्सीहिं चउहि अग्गमहिसीहिं सपरिसाहिं एवं जहा सुरियाभो जाव दिवाति भोगभोगाई भुंजमाणो विहरइ, इमं च णं केवलकप्पं जंबुद्दीवं २ विपुलेणं ओहिणा आभोएमाणे २ जाव नविहि उवदंसित्ता पडिगते जहा सुरियाभे। भंतेति भगवं गोयमे समर्ण भगवं महावीरं वंदह नमसति २ एवं व-अहो भंते। ददुरे देवे महिड्डिए २ दहुरस्सणं भंते! देवस्स सा दिवा देविड्डी ३ कहिं गया०१, गो सरीरं गया सरीरं अणुपविट्ठा कूडागारदिढतो, दहुरेणं भंते ! देवेणं सा दिवा देचिट्ठी ३ किण्णा लद्धा जाव अभिसमक्षागया, एवं खलु गो! इहेव जंबुद्दीवे २ भारहे वासे रायगिहे गुणसिलए अथ अध्ययनं- १३ "दर्दुरक' आरभ्यते ~358~ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१३], ----------------- मूलं [९३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: शाताधर्म Deepe कथाङ्गम. प्रत | १३दवुरज्ञातानन्दश्राद्धेन वाप्यादिकारणं सू. ॥१७८॥ सत्राक [९३] e दीप अनुक्रम [१४५] चेतिए सेणिए राया, तत्थ णं रायगिहे णंदे णामं मणियारसेट्टी अहे दित्ते, तेणं कालेणं २ अहं गोयमा! समोसड्डे परिसा णिग्गया, सेणिए राया निग्गए, तते णं से नंदे मणियारसेट्ठी इमीसे कहाए लट्टे समाणे पहाए पायचारेणं जाव पज्जुवासति, गंदे धम्म सोचा समणोवासए जाते, तते णं अहं रायगिहाओ पडिनिक्खन्ते बहिया जणवयविहारं विहरामि, ततेणं से गंदे मणियारसेट्ठी अन्नया कदाइ असाहुदंसणेण य अपज्जुवासणाए य अणणुसासणाए य असुस्सूसणाए य सम्मत्तपजवेहि परिहायमाणेहिं २मिच्छत्तपज्जवेहिं परिवड्डमाणेहिं २ मिच्छत्तं विप्पडिवन्ने जाए यावि होत्या, तते णं नंदे मणियारसेट्ठी अन्नता गिम्हकालसमयंसि जेट्ठामूलंसि मासंसि अट्ठमभत्तं परिगण्हति २ पोसहसालाए जाव विहरति, तते णं णंदस्स अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि तण्हाए छुहाए य अभिभूतस्स समाणस्स इमेयारूवे अन्भत्थिते ५-धन्नाणं ते जाव ईसरपभितओ जेसिं णं रायगिहस्स बहिया बहूओ वावीतो पोक्खरणीओ जाव सरसरपंतियाओ जत्थ णं बहुजणो ण्हातिय पियति य पाणियं च संवहति, सेयं खलु ममं कल्लं पाउ० सेणियं आपुच्छित्ता रायगिहस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसिभाए वेभारपवयस्स अदूरसामंते वत्थुपाढगरोइतंसि भूमिभागंसि जाव णंदं पोक्खरणिं खणावेत्तएत्तिकटु एवं संपेहेति २ कल्लं पा० जाव पोसहं पारेति २ हाते कयबलिकम्मे मित्तणाइ जाव संपरिखुडे महत्थ जाव पाहुडं रायारिहं गेण्हति २जेणेव सेणिए राया तेणेव उवा ०२ जाव पाहुडं उवट्ठवेति २ एवं व-इच्छामि णं सामी! तुन्भेहिं अन्भणु eeerasasraee ॥१७८॥ दर्दुरकदेवस्य पूर्वभव - नन्द-मणिकारश्रेष्ठिन: कथा ~359~ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ------------------ अध्ययनं [१३], --------------- मूलं [९३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सत्राक [९३] दीप अनुक्रम [१४५] माए समाणे रायगिहस्स बहिया जाव खणावेत्तए, अहासुहं देवाणुप्पिया, तते ण णंदे सेणिएणं रक्षा अम्भणुण्णाते समाणे हद्व० रायगिहं मझमझेणं निग्गच्छत्ति २ वत्धुपाढयरोइयंसि भूमिभागंसि शंदं पोक्खरणिं खणाविउं पयत्ते यावि होत्था, तते णं सा गंदा पोक्खरणी अणुपुवेणं खणमाणा २ पोक्खरणी जाया यावि होत्था चाउकोणा समतीरा अणुपुब्बसुजायवापसीयलजला संछपणपत्तविसमु. णाला बहुप्पलपउमकुमुदनलिणसुभगसोगंधियपुंडरीयमहापुंडरीयसयपत्तसहस्सपत्तपफुल्लकेसरोववेया परिहत्थभमंतमच्छछप्पयअणेगसउणगणमिहुणवियरियसहुन्नइयमहरसरनाइया पासाईया ४। तते णं से गंदे मणियारसेट्टी गंदाए पोक्खरणीए चउद्दिसिं चत्तारि वणसंडे रोवावेति । तए णं ते वणसंडा अणुपुवेणं सारक्खिजमाणा संगोविज्जमाणा य संवड्डियमाणा य से वणसंडा जाया किण्हा जाव निकुरुंबभूया पत्तिया पुफिया जाव उवसोभेमाणा २ चिट्ठति । तते णं नंदे पुरच्छिमिल्ले वणसंडे एगं महं चित्तसभ करावेति अणेगखंभसयसंनिविडं पा०, तत्थ णं वहणि किण्हाणि य जाव सुकिलाणि य कट्टकम्माणि य पोत्थकम्माणि चित्त० लिप्प० गंधिमवेढिमपूरिमसंघातिम उवदंसिज्जमाणाई २ चिट्ठति, तत्थ णं बहणि आसणाणि य सयणाणि य अत्थुपपञ्चधुयाई चिट्ठति, तत्थ णं बहवे णडा य पट्टा य जाब दिनभइभत्तवेयणा तालायरकम्मं करेमाणा विहरंति, रायगिहविणिग्गओ य जत्थ यह जणो तेसु पुछन्नत्थेसु आसणसयणेसु संनिसन्नो य संतुयहो य सुणमाणो य REarathimitramand AJulturary.com दर्दुरकदेवस्य पूर्वभव - नन्द-मणिकारश्रेष्ठिन: कथा ~360~ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ------------------ अध्ययनं [१३], --------------- मूलं [९३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: शाताधर्मकथानम् प्रत १३दर्दुरज्ञातानन्दश्राद्धेन वाप्यादिकारणं सू. सत्राक ॥१७९॥ [९३] दीप अनुक्रम [१४५] पेच्छमाणो य सोहेमाणो य सुहंसुहेणं विहरह, तते ण णंदे दाहिणिल्ले वणसंडे एगं महं महाणससालं करावेति अणेगखंभ जाच रूवं तत्थ पं यहवे पुरिसा दिनभइभत्तवेयणा विपुलं असण ४ उवक्खडेंति बहूणं समणमाहणअतिही किवणवणीमगाणं परिभाएमाणा २ विहरंति, तते णं गंदे मणियारसेट्ठी पञ्चस्थिमिल्ले वणसंडे एग महं तेगिच्छियसालं करेति, अणेगखंभसय जाच रूवं, तत्थ ण बहवे बेजा य वेजपुत्ता य जाणुया य जाणुयपुत्ता य कुसला य कुसलपुत्ता य दिनभइभत्सवेयणा बटणं वाहियाणं गिलाणाण य रोगियाण य दुबलाण य तेइच्छं करेमाणा चिहरंति, अण्णे य एत्थ यहवे पुरिसा दिन तेर्सि बहूणं वाहियाण य रोगि० गिला. दुव्यला. ओसहभेसज्जभत्तपाणेणं पडियारकम्मं करेमाणा विहरंति, तते णं गंदे उत्सरिल्ले वणसंडे एगं महं अलंकारियसभं करेति, अणेगखंभसत. जाव पडिरूवं, तत्थ णं वहवे अलंकारियपुरिसा दिनभइभत्त. बहूर्ण समणाण य अणाहाण य गिलाणाण य रोगि दुव्य. अलंकारियकम्मं करेमाणा २विहरति । तते णं तीए गंदाए पोक्सरपीए बहवे सणाहा य अणाहा य पंथिया य पहिया य करोडिया कारिया० तणहार० पत्त कट्ठ० अप्पेगतिया पहायति अप्पेगतिया पाणियं पियंति अप्पेगतिया पाणियं संवहंति अप्पे विसज्जितसेय जल्लमलपरिस्समनिहखुप्पिवासा सुहंसुहेणं विहरंति । रायगिहविणिग्गओवि जत्थ बहुजणो किं ते जलरमणविविहमजणकयलिलयाघरयकुसुमसत्थरयअणेगसउणगणरुयरिमितसंकुलेसु ॥१७९॥ दर्दुरकदेवस्य पूर्वभव - नन्द-मणिकारश्रेष्ठिन: कथा ~361~ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१३], ------------------ मूलं [९३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत Scene सत्राक [९३] सुहंमुहेणं अभिरममाणो विहरति । तते गं गंदाए पोक्खरिणीए बहुजणो ण्हायमाणो पाणिर्य च संवहमाणो य अन्नमन्नं एवं वदासी-धपणे णं देवा! मंदे मणियारसेट्टी कयत्थे जाव जम्मजीवियफले जस्स णं इमेयारूवा गंदा पोक्खरणी चाउकोणा जाब पडिरूवा, जस्स पुरथिमिल्ले तं वेव सवं चउमुवि वणसंडेसु जाव रायगिहविणिग्गओ जत्य बहुजणो आसणेसु य सयणेसु य सग्निसन्नो य संतुयहो य पेच्छमाणो य साहेमाणो य सुहंसुहेणं विहरति, तं धन्ने कयत्थे कयपुन्ने कयाणं. लोया सुलद्धे माणुस्सए जम्मजीवियफले नंदस्स मणियारस्स, तते णं रायगिहे संघाडग जाव बहुजणो, अन्नमन्नस्स एवमातिक्षति ४ घने णं देवाणुप्पिया! गंदे मणियारे सो चेव गमओ जाव सुहंसुहेणं विहरति । तते णं से गंदे मणियारे बहजणस्स अंतिए एतमढे सोचा हह २ धाराहयकलंवगंपिव समूससियरोमकूवे परं सायासोक्खमणुभवमाणे विहरति (सूत्रं ९३) सर्व सुगम, नवरं 'एवं सुरियाभेचि यथा राजप्रश्नकृते मूरिकाभो देवो वर्णितः एवं अयमपि वर्णनीयः, कियता वर्णकेनेत्याह-जाव दिवाई'इत्यादि, स चाय वर्णकः 'तिहिं परिसाहि सत्चहि अणिएहि सनहि अणियाहबईहिं' इत्यादि, 'इमंच IS केवलकप्पंति इमं च केवल:-परिपूर्णः स चासौ कल्पश्च-खकार्यकरणसमर्थ इति केवलकल्पः केवल एव वा केवलकल्प के IS आभोएमाणे इह यावत्करणादिदं दृश्यं-'पासह समर्थ भगवं महावीर मित्यादि, 'कूडागारदिहते ति एवं चासौ 'से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ सरीरगं गया सरीगं अणुफविट्ठा , मोयमा से जहा नामए कूडागारसाला सिया दुहओं वहिरन्तय दीप अनुक्रम [१४५] Fone Jaurasurary.org दर्दुरकदेवस्य पूर्वभव - नन्द-मणिकारश्रेष्ठिन: कथा ~362~ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ------------------ अध्ययनं [१३], ---------------- मूलं [९३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सत्राक [९३] दीप अनुक्रम [१४५] ज्ञाताधर्म-RI 'गुत्ता लिला' सावरणखेन गोमयाघुपलेपनेन च, उभयतो गुप्तखमेवाह-गुप्ता-बहिः प्राकारावृता गुत्तदुवारा अन्तर्गुप्तेत्यर्थः, १३दर्दुरकथानम्.. अथवा गुप्ता गुप्तद्वारा द्वाराणां केषांचित् स्थगितखात् केषांचिच्चास्थगितखादिति 'निवाया' वायोरप्रवेशात् 'निवायगंभीरा' किल महद् गृहं निवातं पायो न भवतीत्यत आह-निवातगम्भीरा निवातविशालेत्यर्थः, 'तीसे णं कूडागारसालाए अदूरसामते एत्यान्दश्राद्धन ॥१८॥ णं महं एगे जणसमूहे चिट्ठद, तए णं से जणसमूहे एगं महं अभवदलयं वा वासबद्दलयं वा महावार्य वा एजमाणं पासह वाप्यादि पासित्ता तं कूडागारसालं अंतो अणुषविसित्ताणं चिट्ठइ, से तेणद्वेणं गोयमा! एवं बुच्चइ सरीरगं गया सरीरगं अणुषविद्वति, ISI कारणं सू. 'असाधुदर्शनेनेति साधूनामदर्शनेनात एव 'अपर्युपासनया' असेवनया 'अननुशासनया' शिक्षाया अभावेन 'अशुश्रूषणया' श्रवणेच्छाया अभावेन 'सम्यक्त्वपर्यवैः' सम्थक्वरूपपरिणामविशेषैरेवं मिथ्याखपर्यवैरपि मिथ्यालं विशेषण प्रतिपनो विप्रतिपन्नः, काष्ठकर्माणि-दारुमयपुत्रिकादिनिर्मापणानि एवं सर्वत्र, नवरं पुस्त-वखं चित्रं लेप्यं च प्रसिद्ध ग्रन्थिमा-18 नि-यानि सूत्रेण अध्यन्ते मालावत् वेष्टिमानि-यानि वेष्टनतो निष्पाद्यन्ते पुष्पमालालम्बूसकवत् पूरिमाणि-यानि पूरणतो भवन्ति | कनकादिप्रतिमावत् सङ्घातिमानि-सङ्घातनिष्पाद्यानि रथादिवत् उपदर्यमानानि लोकैरन्योऽन्यमित्यर्थः, 'तालायरकम्मति |प्रेक्षणककर्मविशेषः, 'तेगिच्छियसालं'ति चिकित्साशाल-अरोगशाला वैद्या-भिषग्वराः आयुर्वेदपाठकाः वैद्यपुत्राःतत्पुत्रा एव 'जाणुय'त्ति ज्ञायकाः शाखानध्यायिनोऽपि शास्त्रज्ञप्रवृत्तिदर्शनेन रोगस्वरूपतः चिकित्सावेदिनः कुशलाः-खवित-1 ॥१८॥ कोचिकित्सादिप्रवीणाः, 'वाहियाण'ति ग्याधितानां विशिएचित्तपीडावतां शोकादिविप्लुतचित्तानामित्यर्थः अथवा विशिष्टा आधिर्यस्मात् स व्याधिः-स्थिररोगः कुष्ठादिस्तद्वतां ग्लानानां क्षीणहर्षाणामशक्तानामित्यर्थः रोगितानां सञ्जातज्वरकुष्ठादिरो-II दर्दुरकदेवस्य पूर्वभव - नन्द-मणिकारश्रेष्ठिन: कथा ~363~ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१३], ----------------- मूलं [९३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सत्राक celes [९३] दीप अनुक्रम [१४५] गाणामाशुधातिरोगाणां बा, 'ओसहमित्यादि औषधं-एकद्रव्यरूपं भैषज-द्रव्यसंयोगरूपं अथवा औषधं-एकानेकद्रव्यरूपं भैषजं तु-पथ्यं भक्तं तु-भोजनमात्र प्रतिचारककर्म-प्रतिचारकलं 'अलंकारियसह ति नापितकर्मशाला, 'विसजिए'त्यादि विसृष्टखेदजल्लमलपरिश्रमनिद्राक्षुत्पिपासाः, तत्र जल्लोऽस्थिरो मालिन्यहेतुर्मलस्तु स एव कठिनीभूत इति, 'रायगिहे'त्यादि राजगृहविनिर्गतोऽपि चात्र बहुजनः 'किंतेत्ति किं तद् यत्करोति ?, उच्यते-जलरमणैः-जलक्रीडामिः विविधमज्जनै:बहुप्रकारखानैः कदलीनां च लतानां च गृहकैः कुसुमश्रस्तरैः अनेकशकुनिगणरुतैश्च रिभितैः-खरघोलनावद्भिर्मधुरैरित्यर्थः। सङ्कलानि यानि तानि तथा तेषु पुष्करणीवनखण्डलक्षणेषु पञ्चसु वस्तुष्विति प्रक्रमः, 'संतुयट्टो यति शयितः, 'साहेमाणो यत्ति प्रतिपादयन् 'गमय'ति पूर्वोक्तः पाठः, 'सायासोक्खंति साता-सातवेदनीयोदयात् सौख्य-सुखं ।। तते णं तस्स नंदस्स मणियारसेहिस्स अन्नया कयाई सरीरगंसि सोलस रोयायंका पाउन्भूया तं०"सासे कासे जरे दाहे, कुच्छिमूले भगंदरे ६। अरिसा अजीरए दिढिमुद्धसूले अगारए" ॥१॥ अच्छिवेपणा कनवेयणा कंडू दउदरे कोढे १६। तते णं से गंदे मणियारसेट्ठी सोलसहि रोयायंकेहिं अभिभूते समाणे कोडुषियपुरिसे सद्दावेति २ एवं व०-च्छह णं तुम्भे देवा० रायगिहे सिंघाडग जाव पहेसु. महया सद्देणं उग्धोसेमाणा २एवं व०-एवं खलु देवाणु णंदस्स मणियारसेहिस्स सरीरगंसि सोलस रोयायंका पाउन्भूता तं०-'सासे जाव कोढे' तं जो णं इच्छति देवाणुप्पिया ! वेजोवा वेजपुत्तो वा. जाणुओ वा २ कुसलो वा २ नंदस्स मणियारस्स तेसिं च णं सोलसण्हं रोयायंकाणं एगमवि रोयापक दर्दुरकदेवस्य पूर्वभव - नन्द-मणिकारश्रेष्ठिन: कथा ~364~ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [५] + गाथा दीप अनुक्रम [१४६ -१४७] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः ) श्रुतस्कन्धः [१] ------- अध्ययनं [१३]. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... . आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६ ] ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्. ॥१८२॥ उवसामेत्त तस्स णं दे० ! मणियारे बिउलं अत्यसंपदाणं दूलयतित्तिकट्टु दोपि तचंपि घोसणं घोसे २ पञ्चपिह, तेवि तहेव पचप्पिणंति, तते पणं रायगिहे इमेयारूवं घोसणं सोचा णिसम्म बहवे बेजा य वेजपुत्ता य जाव कुसलपुत्ता य सत्यकोस हत्थगया य कोसगपायहत्थगया य सिलि याहत्थगया य गुलिया० य ओसह मेसज हत्थगया व सएहिं २ गिहिंतो निक्खमति २ रायगिहं मज्झंमज्झेणं जेणेव णंदस्स मणियारसेहिस्स गिहे तेणेच उवा० २ णंदस्स सरीरं पासंति, तेसिं रोयायंकाणं णियाणं पुच्छंति णंदस्स मणियार० बहूर्हि उचलणेहि य उधट्टणेहि य सिणेहपाणेहि य चमणेहिय विरेयणेहि सेयणेहिय अवदहहि य अवण्हाणेहि य अणुवासणेहि य वत्धिकम्मेहि य निरूहेहि य सिरावेहेहि य तच्छणाहि य पच्छणाहि य सिरावेढेहि य तप्पणाहि य पुढवाएहि य छल्लीहि य बल्लीहि य मूलेहि यकदेहि य पत्तेहि य पुष्फेहि य फलेहि य वीएहि य सिलियाहि य गुलियाहि य ओसहेहि य सज्जेहि य इच्छति तेसिं सोलसण्डं रोयायंकाणं एगमवि रोयायकं उवसामित्तए, नो चेव णं संचाएति उवसामेतर, तते णं ते बहवे वेज्जा य ६ जाहे नो संचाएंति तेसिं सोलसण्डं रोगाणं एगमवि रोगा० उव० ताहे संता तंता जाव पडिगया । तते णं नंदे तेहिं सोलसेहिं रोपायंकेहिं अभिभूते समाणे णंदापोक्खरणीए मुछिए ४ तिरिक्खजोणिएहिं निवैद्वाउते बद्धपएसिए अट्टदुहट्टवसट्टे कालमासे कालं किया नंदाए पोखरणीए दहुरीए कुच्छिसि ददुरत्ताए उबवने । तए णं णंदे दहुरे गन्भाओ विणिम्मुके For Pass Use Only मूलं [ ९५] + गाथा " ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~ 365~ १३ दर्दुर ज्ञातान्नन्दस्य रोगोत्पादृमृतिदर्दुरस्वदेवत्वा ४ दि. सु. ९५ ॥ १८१ ॥ nar *** अत्र मूल - संपादने सूत्रक्रमांकने एक: मुद्रण-दोषः वर्तते सूत्र ९४ स्थाने सूत्र ९५ मुद्रितं (सूत्र - ९४ क्रम भूल गये है और सूत्र ९५ लिख दिया है) दर्दुरकदेवस्य पूर्वभव - नन्द-मणिकारश्रेष्ठिनः कथा एवं नन्दस्य मृत्युः, दर्दुरकत्वेन नन्दस्य उत्पत्तिः Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] .................--- अध्ययन [१३], --------------- मूलं [९५] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सुत्रांक [९५] गाथा समाणे उम्मुक्कबालभावे विनायपरिणयमित्ते जोधणगमणुपत्ते नंदाए पोक्खरणीए अभिरममाणे २ विहरति, तते णं गंदाए पोक्खरणीए बहू जणे ण्हायमाणो य पियइ य पाणियं च संवहमाणो अन्नमन्नस्स एवमातिक्खति ४ घन्ने णं देवाणुप्पिया! गंदे मणियारे जस्स णं इमेयारूवा गंदा पुक्खरणी चाउकोणा जाव पडिरूवा जस्स णं पुरथिमिल्ले वणसंडे चित्तसभा अणेगखंभ. तहेव चत्तारि सहाओ जाव जम्मजीवियफले, तते णं तस्स दहुरस्स तं अभिक्खणं २ बहुजणस्स अंतिए एयमढे सोचा णिसम्म इमेयारूवे अम्भत्थिए ६-से कहिं मन्ने मए इमेयारूवे सद्दे णिसंतपुषेत्तिकट्ट सुभेणं परिणामेणं जाव जाइसरणे समुप्पन्ने, पुषजाति सम्मं समागच्छति, तते णं तस्स दडुरस्स इमेयारूवे अन्भस्थिए ५-एवं खलु अहं इहेच रायगिहे नगरे गंदे णाम मणियारे अहे । तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं म. समोसहे, तए णं समणस्स भगवओ० अंतिए पंचाणुबाए सत्तसिक्खावइए जाव पडिवन्ने, तए णं अहं अन्नया कयाई असाहुदंसणेण य जाव मिच्छत्तं विप्पडिवन्ने, तए णं अहं अक्षया कयाई गिम्हे कालसमयंसि जाव उपसंपज्जित्ता णं विहरामि, एवं जहेच चिंता आपुच्छणा नंदापुक्ख० वणसंडा सहाओ तं व सर्व जाव नंदाए पु० दहुरत्ताए उववन्ने, तं अहो णं अहं अहने अपुग्ने अकयपुग्ने निग्गंथाओ पावयणाओ नहे भट्ठे परिन्भटे तं सेयं खलु मम सयमेव पुवपडिवन्नाति पंचाणुवयाति उपसंपजित्ताणं विह रित्तए, एवं संपेहेति २ पुवपडिवनाति पंचाणुवयाई. आरुहेति २ इमेयारूवं. दीप अनुक्रम [१४६-१४७] नन्द-मणिकारस्य दर्दुरक-जन्मस्य घटना ( नन्द मणिकार का दर्दुरकरूपे जन्म और वो दर्दुरक के व्रत-ग्रहण कि अभूतपूर्व घटना ) ~366~ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रतस्कन्धः [१] . -- अध्ययनं [१३], ................ मूलं [९५] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९५] ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. | १३दर्दुरज्ञातानन्दस्य रो ॥१८॥ गोत्पादमू गाथा स्वदेवत्वा दिसू.९५ अभिग्गहं अभिगिण्हति-कप्पड़ मे जावजीवं छटुंछट्टेणं अणि. अप्पाणं भावमाणस्स विहरित्तए, छट्ठस्सविष णं पारणगंसि कप्पड़ मे गंदाए पोक्खरणीए परिपेरंतेसु फासुएणं पहाणोदएणं उम्महणोलोलियाहि य वित्तिं कप्पेमाणस्स विहरित्तए, इमेयारूवं अभिग्गहं अभिगेण्हति, जावज्जीवाए छटुंछट्टेणं जाव विहरति तेणं कालेणं २ अहंगो ! गुणसिलए समोसढे परिसा निग्गया, तए णं नंदाए पुक्खरिणीए बहुजणो पहाय०३ अन्नमन्त्रं जाव समणे ३ इहेव गुणसिलएक, तं गच्छामो णं देवाण. समणं भगवं.चंदामो जाव पज्जुवासामो एयं मे इह भवे परभवे पहियाए जाव अणुगामियत्ताए भविस्सइ, तए णं तस्स (रस्स बहुजणस्स अंतिए एयममु सोचा निसम्म० अपमेयारूवे अन्भत्थिए ५ समुप्पज्जित्था-एवं खलु संमणेतं गच्छामि णं वंदामि० एवं संपेहेति २णंदाओ पुक्खरणीओसणियं. उत्तरह जेणेव रायमग्गे तेणेव उवा०२ ताए उक्किट्ठाए ५ ददुरगईए वीतिवयमाणे जेणेव ममं अंतिए तेणेव पहारेथ गमणाए, इमं च णं सेणिए राया भंभसारे पहाए कपकोउप जाव सबालंकारविभूसिए हस्थिखंघबरगए सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं० सेयवरचामरा० हयगयरह० महया भडचडगर०चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिवुडे मम पायवंदते हवमागच्छति, तते णं से दूहुरे सेणियस्स रन्नो एगेणं आसकिसोरएणं वामपाएणं अकंते समणे अंतनिग्धातिए कते यावि होत्या, तते णं से दहुरे अस्थामे अबले अवीरिए अपुरिसकारपरकमे अधारणिज्जमितिकटु एगंतमवक्कमति करयलपरिग्गहियं नमोऽत्यु दीप अनुक्रम [१४६-१४७] ॥१८॥ SAREmiratomimona नन्द-मणिकारस्य दर्दुरक-जन्मस्य घटना ( नन्द मणिकार का दर्दुरकरूपे जन्म और वो दर्दुरक के व्रत-ग्रहण कि अभूतपूर्व घटना ) ~367~ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्क न्ध : [१] ----------------- अध्ययन [१३], ----------------- मूलं [९५] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सुत्रांक [९५] 29 गाथा णं जाच संपसाणं नमोऽत्धु णं मम धम्मायरियस्स जाव संपाविउकामस्स पुषिंपिय णं मए समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतिए थूलए पाणातिवाए पचक्खाए जाय थूलए परिग्गहे पचक्खाए, तं स्याणिपि तस्सेच अंतिए सर्व पाणातिवायं पञ्चक्खामि जाव सर्व परि० पच जावजीवं सबं असण ४ पच जावजीवं जंपिय इमं सरीरं इ8 कंतं जाव मा फसंतु एयंपिणं चरिमेहि ऊसासेहि बोसिरामित्तिकट्ट, तए ण से दहुरे कालमासे कालं किचा जाव सोहम्मे कप्पे दहरवर्डिसए विमाणे उववायसभाए द(रदेवत्ताए उचबन्ने,एवं खलु गो० ददुरेणं सा दिवा देविड्डी लद्धा ३ ददुरस्स णं भंते ! देवस्स केवतिकालं ठिई पण्णत्ता ?, गोचत्तारि पलिओवमाई ठिती पं०, सेणं ददुरे देवे० महाविदेहे वासे सिजिनहिति बुझिजाच अंतं करेहिइ य। एवं खलु समणेणं भग. महावीरेणं तेरसमस्स नायजमयणस्स अयम? पण्णत्तेत्तिवेमि ॥ (सूत्र ९५) तेरसमं णायज्झयणं समत्तं ॥१३॥ 'सासे'त्यादि श्लोकः प्रतीतार्थः, नवरं 'अजीरए'ति आहारापरिणतिः 'दिट्टीमुद्धसूले'चि दृष्टिशूल-नेत्रशूल। मर्द्धशूलं-मस्तकशूलं, 'अकारए'ति भक्तद्वेषः 'अच्छिवेयणे'त्यादि श्लोकातिरिक्तं, 'कंड'त्ति खर्जुः, 'दउदरे'ति दकोदरं जलोदरमित्यर्थः, 'सस्थकोसे'त्यादि, शस्त्रकोश:-क्षुरनखरदनादिभाजनं स हस्ते गतः-स्थितो येषां ते तथा, एवं | सर्वत्र, नवरं शिलिकाः-किराततिक्तकादितृणरूपाः प्रततपाषाणरूपा वा शस्त्रतीक्ष्णीकरणार्थाः, तथा गुटिका-द्रव्यसंयोगनिप्पादितगोलिकाः ओषधभेषजे तथैव 'उच्चलणेही त्यादि उद्वेलनानि-देहोपलेपन विशेषाः यानि देहाद्धस्तामर्शनेनापनीयमा Tweeeeee दीप अनुक्रम [१४६-१४७] नन्द-मणिकारस्य दर्दुरक-जन्मस्य घटना ( नन्द मणिकार का दर्दुरकरूपे जन्म और वो दर्दुरक के व्रत-ग्रहण कि अभूतपूर्व घटना ) ~368~ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रतस्कन्धः [१] . -- अध्ययनं [१३], ................ मूलं [९५] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९५] ॥१८॥ गाथा चतिद१र नानि मलादिकमादायोद्वलंतीति उद्वर्तनानि तान्येव विशेषस्तु लोकरूढिसमवसेय इति, नेहपानानि-द्रव्यविशेषपकघृतादि- १३दर्दुरपानानि वमनानि च प्रसिद्धानि विरेचनानि-अधोविरेकाः स्वेदनानि-सप्तधान्यकादिभिः अवदहनानि-दम्भनानि अपना-1 |ज्ञाताननानि-स्नेहापनयनहेतुद्रव्यसंस्कृतजलेन स्नानानि अनुवासना:-चर्मयन्त्रप्रयोगेणापानेन जठरे तैलविशेषप्रवेशनानि बस्तिक-18 न्दस्य रोBाणि-चर्मवेष्टनप्रयोगेण शिरःप्रभृतीनां स्नेहपूरणानि गुदे वा वादिक्षेपणानि निरुहा-अनुवासना एव केवलं द्रव्यकृतो गोत्पादमू विशेषः शिरोवेधा-नाडीवेधनानि रुधिरमोक्षणानीत्यर्थः तक्षणानि-वचः क्षुरप्रादिना तनूकरणानि प्रक्षणानि-इखानि बचो|| विदारणानि शिरोषस्तय:-शिरसि बद्धस्य चर्मकोशस्य संस्कृततेलापूरलक्षणाः, प्रागुक्तानि बस्तिकर्माणि सामान्यानि अनुवासना-स्वदेवत्वानिरुहशिरोवस्तयस्तु तद्भेदाः, तर्पणानि-लेहद्रव्यविशेषैहणानि पुटपाका:-कृष्ठिकानां कणिकावेष्टितानामनिना पचनानिदि सू.९५ |अथवा पुटपाका:-पाकविशेषनिष्पना औषधविशेषाः छल्यो-रोहिणीप्रभृतयः पल्ल्यो-गुडूचीप्रभृतयः कन्दादीनि प्रसि-101 द्धानि, एतैरिच्छन्ति एकमपि रोगमुपशमयितुमिति, 'निबद्धाउए'त्ति प्रकृतिस्थित्यनुभागबन्धापेक्षया 'बंधपएसिए'त्ति | प्रदेशपन्धापेक्षयेति 'अंतनिग्धाइए'ति निर्धातितान्त:, 'सर्व पाणाइयायं पञ्चक्खामि' इत्यनेन यद्यपि सर्वग्रहणं तथापि तिरयां देशविरतिरेव, इहार्थे गाथे-"तिरियाणं चारि निवारियं अह य तो पुणो तेसि । सुबइ बहुयाणपिङ महबयारोहणं समए ॥१॥ न महायसम्भावेवि चरणपरिणामसम्भवो तेसि । न बहुगुणाणपि जओ केवलसंभूइपरिणामो ॥२॥” इति [ तिरचा चारित्रं निवारितं अथ च तदा पुनस्तेषां श्रूयते बहूनामपि महाव्रतारोपणं समये ॥१॥ न महाव्रतसद्भावेऽपि चरण- सा Sपरिणामसंभवस्तेषां । बहुगुणानामपि न यतः केवलसंभूतिपरिणामः ॥२॥] इह यद्यपि सूत्रे उपनयो नोक्ता तथाऽप्येवं ।। दीप अनुक्रम [१४६-१४७] नन्द-मणिकारस्य दर्दुरक-जन्मस्य घटना ( नन्द मणिकार का दर्दुरकरूपे जन्म और वो दर्दुरक के व्रत-ग्रहण कि अभूतपूर्व घटना ) ~369~ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययन [१३], ----------------- मूलं [९५] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सुत्रांक [९५] 9800 द्रष्टव्यः--"संपन्नगुणोवि जओ सुसाहुसंसग्गिवजिओ पायं । पावइ गुणपरिहाणीं ददुरजीवोद मणियारो ॥ १ ॥ [संपन्नगुणोऽपि यतः सुसाधुसंसर्गवर्जितः प्रायः । प्राप्नोति गुणपरिहाणि दर्दुरजीव इव मणिकारः॥१॥ति, अथवातित्थयरवंदणत्थं चलिओ भावेण पावए सगं । जह दडुरदेवेणं पत्तं येमाणियसुरत्तं ॥२॥" [ तीर्थकरवन्दनार्थ चलितो भावेन प्रामोति खर्गम् । यथा द१रदेवेन प्राप्त वैमानिकसुरखम् ॥१॥]"ति त्रयोदशज्ञातविवरणं समाप्तम् ॥ १३ ॥ गाथा अथ चतुर्दशज्ञातविवरणम् । दीप अनुक्रम [१४६-१४७] अथ चतुर्दशज्ञात विवियते-अस्स चार्य पूर्वेण सहाभिसम्बन्धः-पूर्वस्मिन् सतां गुणानां सामग्यभावे हानिरुक्ता, इह तु| तथाविधसामग्रीसद्भावे गुणसम्पदुपजायते इत्यभिधीयते, इत्येवंसम्बद्धमिदम् जति णं भंते! तेरसमस्स ना. अयमढे पण्णत्ते चोहसमस्स के अढे पन्नते?, एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं २ तेयलिपुरं नाम नगरं पमयवणे उजाणे कणगरहे राया, तस्स णं कणगरहस्स पउमावती देवी, तस्स णं कणगरहस्स तेयलिपुत्ते णामं अमचे सामदंड०, तत्थ णं तेयलिपुरे कलादे नाम मूसियार 9 09asraerseas अत्र अध्ययनं-१३ परिसमाप्तम् अथ अध्ययनं- १४ "तैतलीपुत्र" आरभ्यते ~370~ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१४], --------- --- मूलं [९६-९९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथानम्. प्रत सूत्रांक [९६-९९] १४तेतलिपुत्रज्ञाता. | तेतलिपोलियोर्वि ॥१८॥ वाहः सू. ९६ दीप अनुक्रम [१४८-१५१] दारए होत्था अड्डे जाव अपरिभूते, तस्स णं भदा नाम भारिया, तस्स णं कलायस्स मूसियारदारयस्स धूया भदाए अत्तया पोहिला नाम दारिया होत्था रूवेण जोवणेण य लावनेण उकिट्ठा २, तते णं पोटिला दारिया अन्नदा कदाइ पहाता सबालंकरविभूसिया चेडियाचकवालसंपरिबुडा उप्पि पासायवर गया आगासतलगंसि कणगमएणं तिदूसएणं कीलमाणी २ विहरति, इमं च णं तेयलिपुत्ते अमचे पहाए आसखंधवरगए महया भडचडगरआसवाहणियाए णिज्जायमाणे कलायस्स भूसियारदारगस्स गिहस्स अदूरसामंतेणं वीतिवयति, तते णं से तेयलिपुत्ते भूसियारदारगगिहस्स अदूरसामंतेणं चीतीवयमाणे २ पोटिलं दारियं उप्पि पासायवरगयं आगासतलगंसि कणगतिंदूसएणं कीलमाणी पासति २ पोहिलाए दारियाए रूवे प ३ जाव अझोववन्ने को९वियपुरिसे सद्दावेति २ एवं व०-एस णं देवा० ! कस्स दारिया किनामधेजा, तते णं कोडंबियपुरिसे तेयलिपुत्तं एवं वदासी-एस णं सामी! कलायस्स मूसियारदारयस्स धूता भद्दाए अत्तया पोहिला नाम दारिया रूवेण य जाव सरीरा, तते णं से तेयलिपुत्ते आसवाहणियाओ पडिनिपत्ते समाणे अम्भितरहाणिज्जे पुरिसे सद्दावेति २एवं व०-गच्छह णं तुन्भे देवाणुप्पिया! कलादस्स मूसियार धूयं भद्दाए अत्तयं पोहिलं दारियं मम भारियत्साए वरेह, तते णं ते अभंतरद्वाणिज्जा पुरिसा तेतलिणा एवं वुत्ता समाणा हट्ट करयतहत्ति जेणेव कलायस्स मूसि. गिहे तेणेव उवागया, तते णं से कलाए मूसियारदारते पुरिसे एजमाणे पासति २ हठ्ठतुढे आसणाओ अग्भु ॥१८४॥ MOL. airaturasurare.org तेतलिपुत्रस्य कथा ~371~ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१४], ---------- --- मूलं [९६-९९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९६-९९] ज दीप अनुक्रम [१४८-१५१] इति २ सत्तहपदाति अणुगच्छति २ आसणेणं उवणिमंतेति २ आसत्थे बीसत्थे सुहासणवरगए एवं व-संदिसंतु णं देवाणु! किमागमणपओयणं , तते णं ते अम्भितरद्वाणिज्जा पुरिसा कलायमूसिया एवं प-अम्हे णं देवाणु! तव घूयं भदाए अत्तयं पोहिलं दारियं तेयलिपुत्तस्स भारियत्ताए बरेमो, तं जति णं जाणसि देवाणु जुत्तं चा पत्तं वा सलाहणिज्जं वा सरिसो वा संजोगो ता दिजउ णं पोहिला दारिया तेयलिपुत्तस्स, ता भण देवाणु०! किं दलामो सुकं , तते णं कलाए मूसियारदारए ते अभितरवाणिज्जे पुरिसे एवं बदासी-एस चेव णं दे०१ मम सुंके जन्नं तेतलिपुत्ते मम दारियानिमित्तेणं अणुग्गहं करेति, ते ठाणिज्जे पुरिसे विपुलेणं असण ४ पुष्फवत्थ जाव मल्लालंकारेणं सकारेह स०२ पडिविसजेड, तए णं कलायस्सवि मूसि० गिहाओ पडिनि०२ जेणेव तेयलिपुत्ते अ० तेणेव उवा०२ तेयलिपु० एयमटुं निवेयंति, तते णं कलादे मूसिपदारए अन्नया कयाई सोहणंसि तिहिनक्खत्तमुहत्तंसि पोहिलंदारियं पहायं सवालंकारभूसियं सीयं दुरूहहरसा मित्तणाह. संपरिबुडे सातो गिहातो पडिनिक्खमति २ सबिड्डीए तेयलीपुरं मझमजोणं जेणेच तेतलिस्स गिहे तेणेव उघा०२ पोहिलं दारियं तेतलिपुत्तस्स सयमेव भारियत्ताए दलपति, तते णं तेतलिपुत्ते पोहिलं दारियं भारियत्ताए उवणीयं पासति २ पोहिलाए सद्धिं पट्टयं दुरूहति २ सेतापीतएहिं कलसेहि अप्पाणं मज्जावेति २ अग्गिहोमं करेति २ पाणिग्गहणं करेति २ पोटिलाए भारियाए मित्तणाति जाव SHARERIEatinnitutimonal तेतलिपुत्रस्य कथा ~372~ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [९६-९९] दीप अनुक्रम [१४८ -१५१] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१] अध्ययनं [१४], मूलं [ ९६-९९ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥१८५॥ परिजणं विपुलेणं असणपाणखातिमसातिमेणं पुष्क जाब पडिविसज्येति, तते णं से तेतलिपुत्ते पोट्टि - ला भारियाए अरसे अविरते डरालाई जाव विहरति (सूत्रं ९६) तते णं से कणगरहे राया रज्जेय रहे थ बले य वाहणे य कोसे व कोट्ठागारे य अंतेउरे य मुच्छिते ४ जाते २ पुत्ते वियंगेति, अप्पेगइयाणं इत्थंगुलियाओ छिंदति अप्पेगइयाणं हत्थंगुहप छिंदति एवं पायंगुलियाओ पायंगु एवि कन्नसकुलीएव नासाडाई फालेति अंगमंगातिं वियंगेति, तते णं तीसे पउमावतीए देवीए अन्नया पुवरस्ताव अयमेयारूवे अन्भथिए समुपज्जित्था ४ एवं खलु कणगरहे राया रज्जे व जाव पुत्ते वियंगेति जाब अंगमंगाई वियंगेति, तं जति अहं दारयं पयायामि सेयं खलु ममं तं दारगं कणगरहस्स रहस्सियं चैव सारक्खमाणी संगोमाणी विहरत्तएत्तिकट्टु एवं संपेहेति २ तेयलिपुत्तं अमचं सहावेति २ एवं व० एवं खलु देवro ! कणगरहे राया रज्जे य जाव वियंगेति तं जति णं अहं देवाणु० 1 दारगं पयायामि तते णं तुमं कणगरहस्त रहस्सियं चैव अणुपुद्देणं सारक्खमाणे संगोवेमाणे संघढेहि, तते णं से दारए उम्मुकषालभावे जोवणगमणुपपत्ते तव य मम य भिक्खाभायणे भविस्सति, तते णं से तेयलिपुत्ते परमावतीए एयमहं पडिसुणेति २ पडिगए, तते णं परमावतीय देवीए पोहिलाय अमच्चीए सयमेव गन्भं गेहति सयमेव परिवहति, तते णं सा परमावती नवण्डं मासाणं जाव पियदंसणं सुरूवं दारगं पयाया, जं रणिं च णं परमावती दारयं पयाया तं स्यणि च णं पोहिलावि अमची नवण्णुं मासाणं विणिहायमा ucation namatond तेतलिपुत्रस्य कथा, राजकुमार कनकध्वजस्य जन्म For Parts Only ~373~ १४वेतलिपुत्रज्ञाता० कनकध्व ज जन्मा दि सू. ९७ ॥१८५॥ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१४], --------- --- मूलं [९६-९९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९६-९९] दीप अनुक्रम [१४८-१५१] वन्नं दारियं पयाया, तते णं सा पउमावती देवी अम्मधाई सद्दावेति २ एवं व०-गच्छह णं तुमे अम्मो! तेयलिगिहे तेयलिपु० रहस्सिययं चेव सहावेह, तते णं सा अम्मधाई तहत्ति पडिसुणेति २ अंतेउरस्स अवदारेणं निग्गच्छति २ जेणेव तेयलिस्स गिहे जेणेव तेयलिपुत्ते तेणेव उवा०२ करयल जाव एवं वदासी-एवं खलु देवा! पउमावती देवी सद्दावेति, तते णं तेयलिपुत्ते अम्मधातीए अंतिए एयम8 सोचा हह २ अम्मधातीए सद्धिं सातो गिहाओ णिग्गच्छति २ अंतेउरस्स अवहारेणं रहस्सियं चेय अणुपविसति २ जेणेव पउमावती तेणेव उवाग० करयल. एवं ब०-संदिसंतु णं देवाणुप्पिया! जं मए काय, तते णं पउमावती तेयलीपुत्तं एवं व०-एवं खलु कणगरहे राया जाव वियंगेति अहं च णं देवा ! दारगं पयाया तं तुम णं देवाणु तं दारगं गेण्हाहि जाव तव मम य भिक्खाभायणे भविस्सतित्तिकटु तेयलिपुत्तं दलपति, तते णं तेयलिपुत्ते पउमावतीए हत्थातो दारगं गेण्हति उत्तरिजेणं पिहेति २ अंतेउरस्स रहस्सियं अवदारेणं निग्गच्छति २ जेणेव सए गिहे जेणेच पोहिला भारिया तेणेव उवा० २पोटिलं एवं व०-एवं खलु देवाणु कणगरहे राया रज्जे य जाब विचंगेति अयं च णं दारए कणगरहस्स पुत्ते पउमावईए अत्तए तेणं तुम देवा०1 इमं दारगं कणगरहस्स रहस्सियं चेव अणुपुत्रेणं सारक्खाहि य संगोवेहि य संबड्डेहि य तते णं एस दारए उम्मुकवालभावे तव य मम य पठमावतीए य आहारे भविस्सतित्तिकट्ठ पोहिलाए पासे णिक्खिवति पोहिलाओ पासाओ तं विणिहायमावनियं तेतलिपुत्रस्य कथा ~374~ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१४], --------- --- मूलं [९६-९९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म १४तेतलि कधानम्. प्रत सूत्रांक [९६-९९] ॥१८६॥ Sil पुत्रज्ञाता. पोट्टिलाप्र ज्यादेवत्वावास्यादि सू.९८ दीप अनुक्रम [१४८-१५१] दारियं गेण्हति २ उत्तरिजेणं पिहेति २ अंतेउरस्स अवदारणं अणुपविसति २ जेणेव पउमावती देवी तेणेव उवा०२ पउमावतीए देवीए पासे ठावेति २जाव पडिनिग्गते । तते णं तीसे पउमावतीए अंगपडियारियाओ पउमावई देवि विणिहायमावन्नियं च दारियं पयायं पासंति२ सा जेणेव कणगरहे राया तेणेव. २सा करयल० एवं व-एवं खलु सामी ! पउमावती देवी मइल्लियं दारियं पयाया, तते णं कणगरहे राया तीसे मइल्लियाए दारियाए नीहरणं करेति बहुणि लोइयाई मयकिचाई. कालेणं विगयसोए जाते, तते णं से तेतलिपुत्ते कल्ले कोडंबियपुरिसे सद्दावेति २ एवं व०-खिप्पामेव चारगसो. जाव ठितिपडियं जम्हा णं अम्हं एस दारए कणगरहस्स रज्जे जाए तं होउ णं दारए नामेणं कणगज्झए जाव भोगसमत्थे जाते (सूत्र९७)तते णं सा पोहिला अन्नया कयाई तेतलिपुत्तस्स अणिट्ठा ५ जाया यायि होत्था णेच्छह य तेयलिपुत्ते पोट्टिलाए नामगोत्तमवि सवणयाए, किं पुण दरिसणं वा परिभोगं वा?, तते णं तीसे पोहिलाए अन्नया कयाई पुत्वरत्त० इमेयारवे ५ जाव समुप्पज्जित्था एवं खलु अहं तेतलिस्स पुर्वि इट्टा ५ आसि इयाणि अणिट्ठा ५ जाया, नेच्छद य तेयलिपुत्ते मम नाम जाव परिभोगं वा ओहयमणसंकप्पा जाव झियायति, तए णं तेतलिपुत्ते पोहिलं ओहयमणसंकप्पं जाव झिपायमाणं पासति २ एवं व-माणं तुम दे! ओहयमणसं तुमणं मम महाणसंसि विपुलं असण ४ उवक्खडावेहि २ बहूर्ण समणमाहण जाव वणीमगाणं देयमाणी य दवावमाणीय विहराहि, तते णं सा पोहिला ॥१८६॥ SARERainintenarana तेतलिपुत्रस्य कथा, तेतलि-पत्नी पोट्टीलाया: दीक्षा, संयमजीवनं, देवत्व-प्राप्ति: ~375~ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१४], --------- --- मूलं [९६-९९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९६-९९] दीप अनुक्रम [१४८-१५१] तेयलिपुत्तेणं एवं युत्ता समाणा हट्टतेयलिपुत्तस्स एयमह पडिसुणेति २ कल्लाकलं महाणसंसि विपुल असण ४ जाव दवावेमाणी विहरति (सूत्र९८) तेणं कालेणंर सुचयाओ नाम अज्जाओ ईरियासमिताओ जाव गुत्तभयारिणीओ बहुस्सुयाओ बहुपरिवाराओ पुवाणुपुर्षि जेणामेव तेयलिपुरे नयरे तेणेव उवा २ अहापडिरूवं उग्गह उग्गिहंति २संजमेण तवसा अप्पाण भावेमाणीओ विहरंति, तते णं तासिं सुबयाणं अजाणं एगे संघाडए पढमाए पोरसीए सज्झायं करेति जाव अडमाणीओ लेतलिस्स गिहं अणुपविडाओ, तते णं सा पोहिला ताओ अजाओ एजमाणीओ पासतिर हट्ट आसणाओ अब्भुढेति २ वंदति नमंसति २ विपुलं असण ४ पडिलाभेति २ एवं व०-एवं खलु अहं अजाओ! तेयलिपुत्तस्स पुषिं इट्टा ५ आसी याणि अणिठ्ठा ५ जाव दंसणं वा परिभोगं वा०, तंतुम्भेणं अज्जातो सिक्खियाओ बहुनायाओ बहुपढियाओ बहूणि गामागर जाव आहिंढह बहूर्ण राईसर जाव गिहातिं अणुपविसह तं अस्थि याई भे अमाओ! केह कहंचि चुन्नजोए वा मंतजोगे वा कम्मणजोए वा हियउड्डावणे वा काउड्डावणे वा आभिओगिए पा घसीकरणे वा कोउयकम्मे वा भूइ० मूले कंदे छल्ली वल्ली सिलिया वा गुलिया वा ओसहे वा भेसज्जे वा उबलहपुधे जेणाहं तेयलिपुत्तस्स पुणरवि इट्ठा ५ भवेज्जामि, तते णं ताओ अजाओ पोटिलाए एवं बुत्ताओसमाणीओ दोवि कन्ने ठाइंति २पोहिलं एवं वदासी-अम्हे णं देवा! समणीओ निग्गंधीओ जाव गुत्तर्षभचारिणीओ नो खलु कप्पह अम्हें एयप्पयारं कन्नेहिवि णिसामेत्तए, किमंग पुण उवदिसित्तए तेतलिपुत्रस्य कथा, तेतलि-पत्नी पोट्टीलाया: बोध:, श्रावक्त्वं, दीक्षा, संयमजीवनं, देवत्व-प्राप्ति: ~376~ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [९६-९९] दीप अनुक्रम [१४८ -१५१] “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] अध्ययनं [१४], मूलं [ ९६-९९ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्. ॥१८७॥ रित वा?, अम्हे णं तव देवा० ! विचिन्तं केव लिपन्नन्तं धम्मं परिकहिजामो, तते णं सा पोहिला ओ अजाओ एवं व० - इच्छामि णं अजाओ ! तुम्हें अंतिए केवलिपन्नत्तं धम्मं निसामित्तए, तते गंताओ अजाओ पोहिलाए विचिन्तं धम्मं परिकर्हेति, तले णं सा पोहिला धम्मं सोचा निसम्म हट्ट० एवं व०सहामि णं अज्जाओ ! निग्गंधं पाचपणं जाव से जहेयं तुन्भे वयह, इच्छामि णं अहं तु अंति पंजाब धम्मं पडिवज्जिन्तए, अहासुहं, तए णं सा पोहिला तासिं अजाणं अंतिए पंचाणुच्चइयं जाव धम्मं पडिवज्जइ ताओ अज्जाओ बंदति नम॑सति २ पडिविसज्जेति, तए णं सा पोहिला समणोवासिया जाया जाब पडिला भेमाणी विहरइ (सूत्रं ९९ ) सर्व सुगम, नवरं 'कला'त्ति कलादो नाना मूषिकारदारक इति पितृव्यपदेशेनेति, 'अभितराणिजे ति आभ्यन्तरानाप्तानित्यर्थः, 'वियंगेइ जि व्यङ्गयति विगतकर्णनाशाहस्तायङ्गान् करोतीत्यर्थः, 'विइतेति त्ति विकृतन्तति छिनत्तीत्यर्थः, 'संरक्खमाणीय'त्ति संरक्षन्त्याः आपदः सङ्गोपयन्त्याः प्रच्छादनतः 'भिक्खा भायणे 'ति भिक्षाभाजनमिव भिक्षाभाजनं तदमार्क भिक्षोरिष निर्वाहकारणमित्यर्थः, 'पढमाए पोरुसीए सम्झाय'मित्यादौ यावत्करणादिदं द्रष्टव्यं - 'बीयाए पोरिसीए झाणं झियायह तईयाए पोरिसीए अतुरियमचवलमसंभंते मुहपोत्तियं पडिलेहेड भायणवत्थाणि पडिलेहेइ भाषणाणि पमजइ भायणाणि उग्गाहेद २ जेणेव सुहयाओ अज्जाओ तेणेव उवागच्छन्ति २ सुखयाओ अज्जाओ वंदन्ति नर्मसन्तिरएवं क्यासी- इच्छामो णं तुम्मेहिं For Parts Only तेतलिपुत्रस्य कथा, तेतलि-पत्नी पोट्टीलाया: बोधः, श्रावक्त्वं दीक्षा, संयमजीवनं देवत्व-प्राप्तिः ~377~ १४ तेतलिज्ञाता०पोट्टिढायाः श्रमणोपा सिकात्वं सू. ९९ ॥ १८७॥ www.unibrary.or Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१४], --------- --- मूलं [९६-९९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९६-९९] दीप अनुक्रम [१४८-१५१] अन्भणुभार तेपलिपुरे नयरे उच्चनीयमज्झिमाई कुलाई घरसमुयाणस्स भिक्खायरियाए अडिचए, अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं, तए ण ताओ अजयाओ सुच्चयाहि अजाहिं अब्भणुण्णायाओ समापीओ सुबयाणं अजाणं अंतियाओ पडिस्सयाओ पडिनिक्खमिति अतुरियमचवलमसमंताए गतीए जुमंतरपलोयणाए दिट्ठीए पुरओ रियं सोहेमाणीओ तेयलिपुरे नयरे उच्चनीयमज्झिमाई कुलाई घरसमुयाणस्स भिक्खायरिय अडमाणीउति गृहेषु समुदान-भिक्षा गृहसमुदानं तसै गृहसमुदानाय भिक्षाचया-मिक्षानिमित्रं विचरण अटन्त्यः-कुर्वाणाः, 'अस्थि याई भेचि आइति देशभाषायां मेति-भवतीना, 'चुण्णजोए'ति द्रव्यचूर्णानां योगः स्तम्भनादिकर्मकारी, 'कम्मणजोए'त्ति कुष्ठादिरोगहेतः, 'कम्माजोप'त्ति काम्ययोगः कमनीयताहेतुः,12 'हियपडावणे'ति हुदयोड्डापनं चित्ताकर्षणहेतुः 'काउड्डावणे ति कार्याकर्षणहेतुः 'आभिओगिए'त्ति पराभिभवनहेतुः ISI'वसीकरणे'त्ति वश्यताहेतुः 'कोज्यकम्मे त्ति सौभाग्यनिमिर्त्त स्वपनादि 'भूहकम्मे'त्ति मत्राभिसंस्कृतभूतिदानं । तते णं तीसे पोहिलाए अन्नया कयाइ पुवरत्तावरत्तकालस० कुडंबजागरिय. अयमेयारूवे अन्भस्थिते. एवं खलु अहं तेतलि पुर्षि इहा ५ आसि इयाणि अणिवा५जाव परिभोगं वातं सेयं खलु मम सुखयाणं अजाणं अंतिए पञ्चतित्तए, एवं संपेहेतिरकल्लं पाउ जेणेव तेतलिपुत्ते तेणेव उवा० २ करयलपरि० एवं व.-एवं खलु देवाणुप्पिया! मए सुच्चयाणं अजाणं अंतिए धम्मे णिसंतेजाव अन्भणुन्नाया पवइत्तए, तते णं तेयलिपुसे पोहिलं एवं व०-एवं खलु तुम देवाणुप्पिए! मुंडा पवइया समाणी कालमासे कालं किया Peae तेतलिपुत्रस्य कथा, तेतलि-पत्नी पोट्टीलाया: बोध:, श्रावक्त्वं, दीक्षा, संयमजीवनं, देवत्व-प्राप्ति: ~378~ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [१०० -१०१] दीप अनुक्रम [१५२ -१५३] “ ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [१४], मूलं [ १००-१०१] श्रुतस्कन्ध: [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्. ॥१८८॥ अन्नतरेसु देवलोएस देवत्ताए उववजिहिसि तं जति णं तुमं देवा० ! ममं ताओ देवलोपाओ आगम्म केवलिपन्नत्ते धम्मे बोहिहि तोऽहं विसज्जेमि, अह णं तुमं ममं ण संबोहेसि तो ते ण बिसज्जेमि, तते णं सा पोहिला तेयलिपुत्तस्स एयमहं पडिसुणेति तते णं तेयलिपुत्ते विपुलं असण ४ उवक्खडावेति २ मि. तणातिजावआमंते २ जाव सम्माणेइ २ पोहिलं पहायं जाव पुरिससहस्सवाहणीयं सिअं दुरूहित्ता मितणाति जाय परिवुढे सविट्टिए जाव वेणं तेतलीपुत्तस्स मज्झमज्झेणं जेणेव सुबयाणं उबस्सए तेणेव वा०२ सीयाओ पचोरुहति २ पोहिलं पुरतो कट्टु जेणेव सुधया अज्जा तेणेव उवागच्छति२ बंदति नम॑सति२ एवं ० एवं खलु देवा० 1 मम पोहिला भारिया इट्ठा ५ एस णं संसारभउद्विग्गा जाव पवतित्तए पडिच्छंतु णं देवा० ! सिस्सिणिभिक्वं दलयामि, अहासुहं मा०प० तते णं सा पोहिला सुषयाहिं अज्जाहिं एवं बुत्ता समाणा हट्ट उत्तरपुर० सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयति रसयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेह २ जेणेव सुइयाओ अजाओ तेणेव उवागच्छद्दरवंदति नम॑सति२एवं व०-आलिसे गं भंते! लोए एवं जहा देवानंदा जाव एफारस अंगाई बहूणि वासाणि सामन्नपरियागं पाउणइ २ मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झोसेत्ता सहि भत्ता अण० आलोहयपडि० समाहिं पत्ता कालमासे कालं किचा अन्नतरेसु देवलोएस देवदताए उबवना (सू २००) तते णं से कणगरहे राया अन्नया कयाई कालधम्मुणा संजुत्ते यावि होस्था, तते राईसर जाव णीहरणं करेति २ अन्नमन्नं एवं ब० एवं खलु देवाणु ! कणगरहे राया रजे य जाव For Passa Lise Only तेतलिपुत्रस्य कथा, तेतलि-पत्नी पोट्टीलाया: बोधः, श्रावक्त्वं दीक्षा, संयमजीवनं देवत्व-प्राप्तिः ~379~ १४ तेतलिज्ञाता० पोदिलाया दीक्षादि सू. १०० ॥१८८॥ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [१०० -१०१] दीप अनुक्रम [१५२ -१५३] “ ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [१४], मूलं [ १००-१०१] श्रुतस्कन्ध: [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः पुते वियंगिस्था, अम्हे णं देवा० ! रायाहीणा रायाहिट्टिया रायाहीणकज्जा अयं च णं तेतली अमचे कणगरहस्स रनो सट्टा सवभूमियासु लद्वपच्चए दिनवियारे सबकज्जवावर यावि होत्या, तं सेयं खलु अम्हं तेतलिपुत्तं अमचं कुमारं जातित्तपत्तिकट्टु अन्नमन्नस्स एयम पडिसुर्णेति २ जेणेव तेयलिपुत्ते अमचे तेणेव उवा० २ तेयलिपुत्तं एवं व० एवं खलु देवाणु० 1 कणगरहे राया रज्जेय रहे य जाव वियंगे, अम्हे यणं देवाणु० ! रायाहीणा जाव रायाहीणकज्जा, तुमं च णं देवro ! कणगरहस रनो सासु जाव रज्जधुराचिंतए, तं जड़ णं देवाणु० ! अस्थि के कुमारे रामलक्खणसंपन्ने अभियारि तपणं तुमं अम्हं दलाहि, जा णं अम्हे महया २ रायाभिसेएणं अभिसिंचामो, तर णं तेतलिपुते तेसिं ईसर एतम पडिसृणेति २ कणगज्झयं कुमारं पहायं जाव सस्सिरीयं करेइ २ सा तेसिं ईसर जाव उवणेति २ एवं व०-एस णं देवा०! कणगरहस्स रन्नो पुत्ते पउमावतीए देवीए अन्तर कणगज्झए नामं कुमारे अभिसेयारिहे रामलक्खणसंपन्ने मए कणगरहस्स रन्नो रहसिययं संबट्टिए, एयं णं तुम्भे महया २ रायाभिसेएणं अभिसिंचह, सर्व च तेसिं उद्वाणपरियावणियं परिकहेइ । तते णं ते ईसर कणगज्झयं कुमारं महया २ अभिसिंचति । तते णं से कणगज्झए कुमारे राया जाए महया हिमवंत मलय० वण्णओ जाव रज्जं पसासेमाणे बिहरइ । तते णं सा परमावती देवी कणगज्झयं रायं सदावेति २ एवं व०-एस णं पुत्ता तव० रज्जे जाव अंतेउरे य० तुमं च तेतलिपुत्तस्स पहावेणं, तं तुमं Ja Eucation Internationa तेतलिपुत्रस्य कथा, कनकरथस्य राज्याभिषेकः For Parts Only ~380~ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१४], ----------------- मूलं [१००-१०१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: साताधर्म प्रत सूत्रांक [१०० -१०१] गं तेतलिपुत्तं अमचं आढाहि परिजाणाहि सकारेहि सम्माणेहि इंतं अम्भुट्टेहि ठिचं पज्जुवासाहि वच्चंत: तेतलि. कथाङ्गम्. पडिसंसाहहि अद्धासणेणं उवणिमंतेहि भोगं च से अणुवढेहि, तते णं से कणगज्झए परमावतीए तहत्ति IS ज्ञाता०कपडि० जाव भोगं च से बप्ति (सूत्रं १०१) KIनकध्वज॥१८॥ 'रायाहीणा'इत्यादि, राजाधीनाः राझो रेऽपि वर्तमाना राजक्शवर्तिन इत्यर्थः,. राजाधिष्ठितास्नेन स्वयमध्यासिताः,स्य नृपत्वं राजाधीनानि-राजायत्तानि कार्याणि येषां ते वयं राजाधीनकार्या', 'सबं च से उठाणपरियावणियंति सर्वे च सेन्तस्य सू.१०१ Bउत्थानं च-उत्पत्ति परियापनिका च-कालान्तरं यावत् खितिरित्युत्थानपरियापनिकं तत्परिकथयतीति; 'वयंत परिसंसा-IRT हेहित्ति विनयप्रस्तापात् व्रजन्तं प्रतिसंसाधय-अनुव्रज, अथवा वदस प्रति संश्लाघय-साथूक्तं साध्वित्येवं प्रशंसा कृवित्यर्थः,80 भोग-वर्तम। तते ण से पोष्टिले देवे तेतलिपुस अभिक्खणं केवलिपन धम्मे संथोहेति, नो चेव णं से तेतलिपुत्ते संबुज्झति, तते णं तस्स पोहिलदेवस्स इमेयारवे अपमस्थिते ५-एवं खलु कणगजाए- राया तेवलिपुत्रआढाति जाक मोगं च संबड्लेति तते पं से तेतली अभिववर्म र संयोहिलामाकि कामेनो संघुज्वति तं सेयं खलु कणगअझयंततलिपुसातो विपरिणामेत्तयत्तिकदुःएवं समेहेतिरका कापगलायं तेललिपुरानो १८९॥ विपरिणामेका तसेणं तेतलिपुत्ते कल्लं पहाते जाय पायच्छित आसवंधवगए बहूलिं पुरिकि संपरिकुले सातो गिहातो मिग्मच्छति २ जेमेक कामगाए। सया तेणेकः पहारेथ गमणाण, तो तोधि दीप अनुक्रम [१५२-१५३] SMS तेतलिपुत्रस्य कथा, कनकरथस्य राज्याभिषेक: ~381~ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१४], ----------------- मूलं [१०२-१०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: 24 प्रत सूत्रांक [१०२-१०४] पुतं अमचं में जहा बहके राईसरतलकर जाय पभियओ पासंतितेतहेक्लायति परिजाणंति अलि २ अंजलिपरिग्गडं करेंति इहाहिं कताहिं जाव वग्गूहिं आलवेमाणाय संलवेमाणा या पुरतोय चिठतोय पासतोय मम्मतो यसमणुगकांति, तते गं से तेतलिपुत्ते जेणेव कणमज्झए तेणेव उवागच्छति, तसेणं कणगज्झए तेतलिपुतं एजमाणं पासतिश्नो आढाति नो परियाणाति नो अमुटुक्ति अणाढायमाणे ३ परम्मुझे संचिट्ठति, तते ण तेत्तलिपुसे कणगज्झयस्स रन्नो अंजलिं करेइ, तते णं से कणगजाए त्या अणावायमाणे तसिणीए परम्महे संचिदति, तते गं तेतलिपुत्से कणगलमयं विपरिणयं जाणित्ता भीते जाव संजातभए एवं प०-सट्टे णं मम कणगज्झए राया हीणे णं मम कणगल्झए रापा अवमाए कणगजाए, तंण नज्जइ णं मम केणइ कुमारेण मारेहितित्तिक? भीते तत्थे य जाव सणियं २ पचोसकेति २ तमेव आसखधं दुरूहेति २ तेतलिपुरं मज्झमशेणं जेणेव सए गिहे तेणेव पहारेस्थ गमणाए, तते जं तेयलिपुतं जे जहा ईसर जाव पासंति ते तहा नो आढायंति नो परियाणंति नो अमुटुंति नो अंजलि. इटाहिं जाव णो संलचंति नो पुरओ य पिष्टुओ य पासओ य (मग्गत्ते य) समणुगच्छंति, तते गं तेतलिपुत्ते जेणेव सए गिहे तेणेव उवागछति, जावि य से तस्थ वाहिरिया परिसा भवति, तं०-दासेति या पेसेति वा भाइएति वा सावि य णं नो आढाइ २.जाबिय से अभितरिया परिसा भवति, तंजहापियाइ वा माताति वा जाव सुण्हाति वा साविय गंवा नो आप कोण से तेतलिपुले जेणेव वास दीप अनुक्रम [१५४-१५६] Saree O manora | पोट्टीलदेवै: तेतलिपुत्रं प्रतिबोध: ~382~ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१४], ----------------- मूलं [१०२-१०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्मकधाहम्. प्रत सूत्रांक [१०२-१०४] ॥१९॥ घरे जेणेव सए सयणिजे तेणेव उवागच्छति २सयणिजंसि णिसीयति २एवं व०-एवं खलु अहं सयातो गिहातो निग्गपछामि तं चेव जाव अभितरिया परिसा नो आढाति नो परियाणाति नो अन्भुट्टेति, तं सेयं खलु मम अप्पाणं जीवियातो ववरोवित्तएत्तिकट्ठ एवं संपेहेति २ तालउड विसं आसगंसि पक्खिवति सेय विसे णो संकमति, तते णं से तेतलिपुत्ते नीलुप्पल जाव असिं खंधे ओहरति, तत्स्थवि य से धारा ओपल्ला, तते णं से तेतलिपुत्ते जेणेव असोगवणिया तेणेव उवागच्छति २ पासगं गीवाए बंधति २रुक्खं दुरूहति २पासं रुक्खे बंधतिरअप्पाणं मुयति तत्थवि य से रज्जू छिन्ना, ततेणं से तेतलिपुत्ते महतिमहालयं सिलं गीचाए बंधति २ अत्थाहमतारमपोरिसियसि उदगंसि अप्पाणं मुयति, तत्थवि से थाहे जाते, तते णं से तेतलि० सुकंसि तणकूडसि अगणिकार्य पक्खिवति २ अप्पाणं मयति तत्वविय से अगणिकाए विज्झाए, तते णं से तेतली एवं व-सद्धेयं खलु भो समणा वयंति सद्धेयं खलु भो माहणा वयंति सद्धेयं खलु भो समणा माहणा वयंति, अहं एगो असद्धेयं वयामि एवं खलु अहं सह पुत्तेहिं अपुत्ते को मेदं सद्दहिस्सति ? सह मित्तेहिं अमित्ते को मेदं सद्दहिस्सति ?, एवं अत्थेणं दारेण दासेहिं परिजणेणं, एवं खलु तेयलिपुत्ते णं अ० कणगझएणं रन्ना अवज्झाएणं समाणेणं तेयलिपुत्ते तालपुडगे विसे आसगंसि पक्खित्ते सेविय णो कमति को मेयं सद्दहिस्सति ?, तेतलिपुत्ते नीलुप्पल जाव खंधंसि ओहरिए तत्थविय से धारा ओपल्ला को मेदं सद्दहिस्सति?, तेतलिपुत्तस्स पासगं गीवाए बंधेत्ता eceneverceneseseaeeseroerce दीप अनुक्रम [१५४-१५६] ॥१९॥ पोट्टीलदेवै: तेतलिपुत्रं प्रतिबोध: ~383~ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१४], ----------------- मूलं [१०२-१०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०२-१०४] जाच रजू छिन्ना को मेदं सहहिस्सति ?, तेतलिपुत्ते महासिलयं जाव बंधित्ता अथाह जाव उदगंसि अप्पा मुक्के तत्वविय णं थाहे जाए को मेयं सद्दहिस्सति?, तेतलिपुत्ते सुकंसि तणकूडे अग्गी विज्झाए को मेदं सद्दहिस्सति', ओहतमणसंकप्पे जाव झियाइ । तते णं से पोहिले देवे पोहिलारूपं विउवति २ तेतलिपुत्तस्स अदूरसामंते ठिच्चा एवं व-हं भो ! तेतलिपुत्सा! पुरतो पवाए पिट्टओ हथिभयं दुहओ अचक्खुफासे मज्झे सराणि बरिसयंति गामे पलिते रत्ने झियाति रने पलिते गामे झियाति आउसो! तेतलिपुत्ता! कओ वयामो?, तते णं से तेतलिपुत्ते पोटिलं एवं वयासी-भीयस्स खलु भो! पबज्जा सरणं उकंद्वियस्स सद्देसगमणं छुहियस्स अन्नं तिसियरस पाणं आउरस्स भेसज माइयरस रहस्सं अभिजुत्तस्स पच्चयकरणं अद्धाणपरिसंतस्स वाहणगमणं तरिउकामस्स पवहणं किचं परं अभिओजितुकामस्स सहायकिच्चं खंतस्स दंतस्स जितिंदियस्स एत्तो एगमविण भवति, तते णं से पोहिले देवे तेयलिपुत्तं अमचं एवं व०-सुदणं तुमं तेतलिपुत्ता ! एयमढे आयाणिहित्तिकट्ठ दोबंपि एवं वयह २ जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए(सूच१०२)तते णं तस्स तेयलिपुत्तस्स सुभेणं परिणामेणं जाइसरणे समुप्पन्ने,तते ण तस्स तेयलिपुत्तस्स अयमेयारूवे अम्भत्थिते ५ समु०-एवं खलु अहं इहेव जंबुद्दीवे २ महाविदेहे वासे पोक्खलावतीविजये पोंडरीगिणीते रायहाणीए महापउमे नामं राया होत्या, तते णं अहं घेराणं अंतिए मुंडे भवित्ता जाव चोद्दस पुवातिव्यहूणि वासाणि सामनपरियाए मासियाए संलेहणाए महामुके कप्पे देवे, तते esesepersecekeeseiseseaectrserses दीप अनुक्रम [१५४-१५६] पोट्टीलदेवै: तेतलिपुत्रं प्रतिबोध: ~384~ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१४], ----------------- मूलं [१०२-१०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथानम्. प्रत सूत्रांक [१०२-१०४] ॥१९॥ णं अहंताओ देवलोयाओ आउक्खएणं इहेच तेयलिपुरे तेयलिस्स अमचरस भक्षर भास्यिाएवारमत्तार पचापाते,तं सेयं खलु मम पुषविटाईमहत्वयाई सयमेव उपसंपत्तिाणं विहरितए, एवं संपेहेतिरसयमेव महवयाई आकहेति २ जेणेव पमयषणे उजाणे तेणेव उवा०२ असोगवरपायचस्स अहे पुढविसिलापट्टयंसि सुहनिसन्नस्स अणुर्चितेमाणस्स पुवाहीयाति सामाश्यमातियाई चोदसपुवाई सयमेच अभिसमन्नामबाई, तते णं तस्स पलिपुत्सस्स अपगारस्स सुमेणं परिणामेणं जाक तयावाणिजाणं कम्मरणं स्वओक्समे कम्मरयविकरणकर अपुष्करगं पविठ्ठरस केषलवरणाणदंसने समुम्पन्ने (सूकं१०३) तए णं तेवलिपुरे नपरे अहासन्निहिएहिं वाणमलारेहिं देहि देवीहि व देवदुंदुभीओ समाहयाओ दसवने कुसुमे निवाइए, क्वेि गीयगंधदमिनाए कए याषि होत्था, तक्ते णं से कणगझल सया इमीसे कहाष लट्ठे एवं ब०-एक स्खलु तेतर्लि मए अवाले मुंडे भविता पञ्चलिकेतंकममितेय लिपुतं अणणारं वदामि नमसामि २ एयमई विणए मुजो खानेमिः; एवं संपेलेति २ बहाक चाललंगिणीए- सेणाम जेणेच पायो उज्जाणे जेणेक तेतलिपुले अणगारे तेनेक उचागच्छति २ तेतालिपुरतं अश्वगावं वेदक नमसक्ति २ एक महं च विणएणं भुजोरखामेइ बचासने जाच पज्जुषालाइ, बो से लेकतिपुत्ते अग्गगारे कपा जायस्सरसो तीसे य महा धर्म परिकहेइ, तते से कागजाक सपा लिपुकास केवलिस्क अंतिए धम्म सोचा णिसम्म पंचाशुवइषं सत्ससिक्खावइयं सावधम्म पत्रिका २ समणोचासए जाने १४तेतलिज्ञाता०तेतलेजोतिस्मृतेःसर्व पूर्वज्ञानं 18सू. १०३ | सकेवलो मोक्षः सू. १०४ पन कुसुम निवाइए, वेि दीप अनुक्रम [१५४-१५६] D ॥१९॥ पोट्टीलदेवै: तेतलिपुत्रं प्रतिबोध:, तेतलिपुत्रस्य मोक्ष: ~385~ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१४], ----------------- मूलं [१०२-१०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०२-१०४] जाव अहिगयजीवाजीवे । तते णं तेतलिपुत्ते केवली बहणि वासाणि केवलिपरियागं पाउणित्ता जाव सिद्धे । एवं सत्र । भगवया समणेणं महावीरेणं चोदसमस्स नायजायणस्स अयमढे पन्नत्तेत्तिबेमि (सूत्रं १०४) बदसमे अजमय समय ॥१४॥ 'म्हे ण'मित्यादी हीनोऽयं मय ग्रीस्येति गम्यते, अपध्यातो-दुवचिन्तावान् ममेक्-िममोपरि कनकध्वजा, पाठान्तरेण दुातोऽहं-दुष्टचिन्ताविषयीकृतोऽहं कमध्वजेन राजा, तत्-क्सान ज्ञायते केनापि कुमारणा-विरूपमारणप्रकारेण मारयिष्यतीति खधंसि उवहरई'इति स्कन्धे उपहरति पिनाशयतीति 'धास ओपल्लति अपदीको अण्ठीभूतेत्यर्थः, 'अत्याहं ति अस्तनिरस्तमविद्यमानमधस्तलं प्रतिष्ठान यस तदस्ता स्ताघो वा-प्रतिष्ठानं तदभावादस्तापं, असार यस करण नास्ति पुरुषः परिमाण यस्य तत्पौरुषेयं तनिषेधादपौरुषेवं ततः पत्रयस्य कर्मधारयो, मकारौ च प्राकृतखात्, अतस्तत्र, 'सद्धेय मित्यादि, श्रद्धेयं । श्रमणा वदन्ति आत्मपरलोकपुण्यपाषादिकमर्थजातं, अतीन्द्रियस्यापि तस्य प्रमाणामपितखेन श्रद्धानमोचरसाद, अहं पुनरेकोऽ| अदेयं वदामि पुत्रादिपरिवारयुक्तस्यास्यर्थ राजसम्मतस्य च अपुत्रादिलमराजसम्मसलं च विषखापाशकजलाप्रिभिरहिंसलं चारमनः प्रतिपादयतो मम युक्तिवाधितत्वेन अनप्रतीतेरविषयत्वेनाश्रद्धेयस्वादिति प्रस्तुतसूत्रभावना, 'तए 'मित्यावि, भो। | इत्यामन्त्रणे, पुरत:-अग्रतः, प्रपातो-गर्भः पृष्ठतो हस्तिभवं 'दुहओ'त्ति उभयतः अचक्षुःस्पर्श:-अन्धकार मध्ये-मध्यभागे यत्रं | वयमासहे तत्र शरा-बाणा निपतन्ति, ततश्च सर्वतो भयं वर्त्तते इत्यर्थः, तथा ग्रामः प्रदीप्तोऽग्निना ज्वलति, अरण्यं तु ध्मायतेऽनुपशान्तदाहं वर्त्तते, अथवा ध्यायतीच ध्यायति, अमेरविध्यानेन जागर्तीवेत्यर्थः,अथवा अरण्य प्रदीसं ग्रामो मायते न विथ्यापति, दीप अनुक्रम [१५४ Evereseकन्छ -१५६] SH ~386~ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१४], ----------------- मूलं [१०२-१०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०२-१०४] ज्ञाताधर्म-1एवं सर्वखापि भयानकखात् स्थानान्तरस्य चाभावादायुष्मंस्तेतलिपुत्र ! 'क'तिक बजामः भीतैर्गन्तव्यममाभिरिवान्येनापि १४तेतलिकथाङ्गम्भ वतीति प्रश्ना, उत्तरं च भीतस्य प्रवज्या शरणं भवतीति गम्यते, यथोत्कण्ठितादीनां खदेशगमनादीनि, तत्र 'छुहियस्स'चि का ज्ञाता० ॥१९२॥ बुभुक्षितस मायिनो-पंचकस्य रहस्र-गुप्तवं शरणमिति सर्वत्र गमनीयं, अभियुक्तस्य-सम्पादितदूषणस प्रत्ययकरणं-दूषणापोहेन प्रतीत्युत्पादनं अध्वानं अरियतो(अध्वपरिश्रान्तस्य)- गन्तुमशक्तस्य बाहनगमनं-शकटाचारोहणं तरीतुकामस्य नद्यादिकं प्लवनंतरणं कृत्यं कार्य यस्य तत् प्लवनकृत्यं तरकाण्डं परमभियोक्तुकामस्व-अभिभवितुकामस्य सहायकृत्य-मित्रादिकृतं सहायक-RI म्र्मेति, अथ कथं भीतस्य प्रव्रज्या शरणं भवति अत उच्यते-खंते त्यादि वान्तस्य क्रोधनिग्रहेण दान्तस्पेन्द्रियनोइन्द्रियदमेन जितेन्द्रियस्य विषयेषु रागादिनिरोद्धः 'एत्तो'त्ति एतेभ्योऽनन्तरोदितेभ्योऽप्रतः प्रपातादिभ्यो भयेभ्यः एकमपि भयं न भवति, प्रबजितस्य सामायिकपरिणत्या शरीरादिषु निरभिष्वङ्गखात् मरणादिभयाभावादिति, एवं देवेनामात्यः खवाचा भीतस्य प्रव्रज्या श्रेयसीत्यभ्युपगमं कारयिखा एवमुक्तः 'सुगु इत्यादि, अयमों-भीतस्य प्रव्रज्या शरणमिति यदि प्रतिज्ञायते तदा सुष्टु ते मतं, भयाभिभूतस्तमिदानीमसीति एतमर्थमाजानीहि-अनुष्ठानद्वारेणावबुध्यस्ख प्रवज्यां विधेहीतियावत् ।। इह च यद्यपि सूत्रे उप नयो नोक्तः तथाप्येवं द्रष्टव्यः, "जाव न दुक्खं पत्ता माणभंसं च पाणिणो पायं । ताव न धम्मं गेहंति भावओ तेयलीसुRI उन ॥१॥[प्राणिनः प्रायेण तावन्न धर्म गृहन्ति भावतः याबदुःखं न प्राप्ता मानभ्रंशं च तेतलिसुतवत् ॥१॥ति समाप्तं | IS ॥१९॥ चतुर्दशज्ञातविवरणम् ।। १४ ॥ दीप अनुक्रम [१५४ -१५६] Home अत्र अध्ययनं-१४ परिसमाप्तम् ~387~ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ------------------ अध्ययनं [१५], --------------- मूलं [१०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०५]] दीप अनुक्रम [१५७]] अथ पंचदशज्ञातविवरणम् ॥ १५ ॥ अधुना पञ्चदशं वित्रियते, अस्य चैवं पूर्वेण सह सम्बन्धः-पूर्वस्मिन्नपमानाद्विषयत्यागः प्रतिपादितः, इह तु जिनोपदेशात् तत्र च सत्यर्थप्राप्तिस्तदभावे खनर्थप्राप्तिरभिधीयत इत्येवंसम्बद्धमिदम् जति णं भंते ! चोहसमस्स नायज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते पन्नरसमस्स० के अढे पन्नत्ते?, एवं खलु जंबु। तेणं कालेणं २ चंपा नाम नयरी होत्था, पुन्नभद्दे चेहए जियसत्तू राया, तत्थ णं चंपाए नयरीए धणे णामं सत्थवाहे होत्था अड्डे जाव अपरिभूए, तीसे णं चंपाए नयरीए उत्तरपुरच्छिमे दिसिभाए अहिच्छत्ता नाम नयरी होत्था, रिद्वत्थिमियसमिद्धा वन्नओ, तत्थणं अहिच्छत्ताए नयरीए कणगकेउ नामंराया होस्था, महया वन्नओ, तरस धण्णस्स सत्यवाहस्स अन्नदा कदाइ पुवरत्तावरत्तकालसमयंसि इमेयाख्वे अब्भत्धिते चिंतिए पत्थिर मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था-सेयं खलु मम विपुलं पणियभंडमायाए अहिच्छत्तं नगरं वाणिज्जाए गमित्तए, एवं संपेहेति २गणिमं च ४ चउविहं भंडं गेण्हइ २सगडीसागई सज्जेइ २ सगडीसागडं भरेति २ कोटुंबियपुरिसे सहावेति २ एवं व०-गच्छह णं तुम्भे देवा! चंपाए नगरीए सिंघाडग जाव पहेसुं एवं खलु देवाणु ! धणे सत्यवाहे विपुले पणिय. इच्छति अहिच्छत्तं नगरं वाणिज्जाए गमित्तते, तं जो ण देवाणु०1 चरए चा चीरिए वा चम्मखंडिए वा भिन्छुडे वा पंडरगे यद SAREaratunintentiational अथ अध्ययनं- १५ "नन्दिफ़ल" आरभ्यते ~388~ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१५], --------------- मूलं [१०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म कधाङ्कम्. प्रत सूत्रांक [१०५] ॥१९॥ १५ नन्दीफरज्ञाता. धन्यसार्थवाहप्रवासादि सू. १०५ दीप अनुक्रम [१५७]] घा गोतमे वा गोवतीते वा गिहिधम्मे वा गिहिधम्मचिंतए वा अविरुद्धविरुद्ध सावगरत्तपडनिग्गंथप्पभितिपासंडत्थे वा गिहत्थे वा तस्स णं धपणेणं सद्धिं अहिच्छत्तं नगरि गच्छइ तस्स गंधण्णे अच्छत्तगस्स छत्तगं दलाइ अणुवाहणस्स उवाहणाउ दलयइ अकुंडियस्स कुंडियं दलयइ अपत्थयणस्स पत्थयणं दलयइ अपक्वेवगस्स पक्खेवं दलयइ अंतराविय से पडियस्स चा भग्गलुग्गसाहेजं दलयति सुहंसुहेण य णं अहिच्छत्तं संपावेतित्तिकद दोचपि तचंपि घोसेह २ मम एयमाणत्तियं पचप्पिणह, तते णं ते कोडुंबियपुरिसा जाव एवं व०-हंदि सुणंतु भगवंतो चंपानगरीवत्थत्वा बहवे चरगा य जाव पञ्चप्पिणंति, तते णं से कोडुंबियघोसणं सुच्चा चंपाए णयरीए बहवे चरगाय जाब गिहत्थाय जेणेव धपणे सत्यवाहेतेगेव उवागच्छन्ति ततेणं धपणे तेसिंचरगाण यजाव गिहत्थाण थ अच्छत्तगस्स छत्तंदलयइ जावं पत्थयणंदलाति, गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया! चंपाए नयरीए बहिया अग्गुज्जाणंसि ममं पडिवालेमाणा चिट्टह, तते णं चरगा यधपणेणं सत्यवाहेणं एवं बुत्ता समाणा जाव चिटुंति,तते णं धपणे सत्यवाहे सोहणंसि तिहिकरणनक्वत्तसि विपुलं असणं४उवक्खडावेइरत्ता मित्तनाई आमंतेतिरभोयणं भोयावेतिर आपुच्छतिर सगडीसागडं जोयावेति २ चंपानगरीओ निग्गच्छति णाइविप्पगिद्देहिं अद्धाणेहिं वसमाणे २ सुहेहिं वसहिपायरासेहि अंग जणवयं मज्झमझेणं जेणेव देसग्गं तेणेव उवागच्छति २ सगडीसागडं मोयावेति २ सस्थणिवेसं करेति २ कोटुंबियपुरिसे सहावेति एवं व-तुम्भे णं देवा! मम सत्यनिवेसंसि १९३॥ ~389~ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१५], --------------- मूलं [१०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०५]] महया २ सद्देणं उरघोसेमाणा २ एवं वदह-एवं खलु देवाणु ! इमीसे आगामियाए छिन्नावापाए दीहमद्धाए अडवीए बहुमज्झदेसभाए बहवे णदिफला नाम रुक्खा पन्नत्ता किण्हा जाव पत्तिया पुफिया फलिया हरियरेरिजमाणा सिरीए अईव अतीव उवसोभेमाणा चिट्ठति मणुपणा वनेणं ४ जाव मणुन्ना फासेणं मणुन्ना छायाए, तं जो णं देवाणुप्पिया! तेसिं नंदिफलाणं रुक्खाणं मूलाणि वा कंद. तय० पत्त० पुप्फ० फल० बीयाणि वा हरियाणि वा आहारेति छायाए वा वीसमति तस्स णं आवाए भद्दए भवति ततो पच्छा परिणममाणा २ अकाले चेव जीवियातो ववरोवेंति, तं मा णं देवाणुप्पिया! केह तेसिं नंदिफलाणं मूलाणि वा जाव छायाए वा वीसमउ, मा णं सेऽवि अकाले चेव जीवियातो ववरोविजिस्सति, तुम्भे णं देवाणु ! अन्नेसिं रुक्खाणं मूलाणि य जाव हरियाणि य आहारेथ छायासु वीसमहत्ति घोसणं घोसेह जाव पञ्चप्पिणंति, तते णं धपणे सस्थवाहे सगडीसागडं जोएतिरजेणेच नंदिफला रुक्खा तेणेव उवागच्छति २ तेसिं नंदिफलाणं अदूरसामंते सत्थणिवेसं करेति २दोचंपि तचंपि कोटुंचियपुरिसे सदावेति २एवं च०-तुम्भे णं देवाणु ! मम सत्थनिवेसंसि महता सहेणं उरघोसेमाणा २ एवं बयह-एएणं देवाणु 1 ते णंदिफला किण्हा जाव मणुन्ना छायाए तं जो णं देवाणु ! एएसि मंदिफलाणं रुक्खाणं मूलाणि वा कंद. पुष्फ तय० पत्त० फल. जाव अकाले चेव जीवियाओ ववरोवेंति, तं मा णं तुम्भे जाव दूर दूरेणं परिहरमाणा वीसमह, मा णं अकाले जीवितातो ववरोविस्संति, अन्नेसिं दीप अनुक्रम [१५७]] ~390~ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१५], ----------------- मूलं [१०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्. प्रत सूत्रांक [१०५] १५नन्दीफलज्ञाता. धन्यसार्थवाहप्रवासादि सू. ॥१९४॥ seleepeces_RESS दीप अनुक्रम [१५७]] रुक्खाणं मलाणि य जाव चीसमहत्सिकद्द घोसणं पचपिगंति, तत्थ णं अत्धेगइया पुरिसा धणस्स सत्यवाहस्स एयमहूं सदहति जाव रोयति एयमटुं सदहमाणा तेसिनंदिफलाणं दूरं दरेण परिहरमाणा२ अन्नेसि रुक्खाणं मूलाणि य जाव बीसमंति, तेसि णं आवाए नो भद्दए भवति, ततो पच्छा परिणममाणा २ सुहरूवत्ताए ५ भुजो २ परिणमंति, एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वार जाव पंचस कामगुणेसु नो सजेति नो रजेति से णं इह भवे चेव बहूर्ण समणाणं ४ अचणिज्जे परलोए नो आगच्छति जाव बीतीवतिस्सति, तत्थ णं जे से अप्पेगतिया पुरिसा धण्णस्स एयमझु नो सद्दहति ३ धण्णस्स एतमढ असदहमाणा ३ जेणेव ते नंदिफला तेणेव उवागच्छति २ तेसिं नंदिफलाणं मलाणि य जाव बीसमंति तेसि णं आवाए भद्दए भवति ततो पच्छा परिणममाणा जाव ववरोति, एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं निग्गंधो वा निग्गंधी वा पबतिए पंचसु कामगुणेसु सज्जेति ३ जाव अणुपरियहिस्सति जहा व ते पुरिसा, तते णं से धण्णे सगडीसागर्ड जोयावेति २ जेणेव अहिच्छत्ता नगरी तेणेव उवागच्छति २ अहिच्छत्ताए णयरीए वहिया अग्गुवाणे सत्यनिवेसं करेतिर सगडीसागडं मोया. वेइ, तएणं से धणे सत्थवाहे महत्धरापरिहं पाहुडं गेण्हइरबहुपुरिसेहिं सद्धिं संपरिबुडे अहिच्छत्तं नयरं मज्झमझणं अणुप्पविसह जेणेच कणगकेऊ राया तेणेव उवागच्छति, करयल जाव बद्धावेह, तं महत्थं ३ पाहडं उवणेह, तए णं से कणगकेऊ राया हद्दतुह० घण्णस्स सत्यवाहस्स तं महत्थं ३ जाव ॥१९४| ~391~ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१५], ---------------- मूलं [१०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०५]] दीप अनुक्रम [१५७]] पडिच्छइ २ धणं सत्यवाहं सकारेइ सम्माणेइ२ उस्सुक्कं वियरतिर पडिविसज्जेह भंडविणिमयं करेहर पडिभंडं गेण्हतिरसुहंसुहेणं जेणेव चंपानयरी तेणेच उवागच्छतिरमित्तनाति अभिसमन्नागते विपुलाई माणुस्सगाई जाव विहरति, तेणं कालेणं २ घेरागमणं धण्णे धम्मं सोचा जेट्टपुत्तं कुटुंचे ठावेत्ता पचाए एकारस सामाइयाति अंगार्ति बहणि वासाणि जाव मासियाए सं० अन्नतरेसु देवलोएसु देवताए उवचन्ने महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव अंतं करेति । एवं खलु जंबू । समणेणं भगवया महावीरेणं पन्नरसस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्तेत्तिबेमि (सूत्रं १०५) पन्नरसम नायज्झयणं समत्तं ॥ सर्व सुगम, नवरं 'चरए वेत्यादि, तत्र चरको-धाटिभिक्षाचरः चीरिको रथ्यापतितचीवरपरिधानः चीरोपकरण इत्यन्ये चमखण्डक:-चर्मपरिधानः चर्मोपकरण इति चान्ये भिक्षाण्डो-भिक्षामोजी सुगतशासनस्थ इत्यन्ये, पाण्डुरागः-शैवः गौतमः-लघुतराक्षमालाचर्चितविचित्रपादपतनादिशिक्षाकलापवद्वषभकोपायतः कणभिक्षाग्राही गोत्रतिका-गोधयानुकारी, उक्तं च-"गावीहिं समं निग्गमपवेसठाणासणाइ पकरेंति । मुंजंति जहा गावी तिरिक्खवासं विभावता ॥१॥" [गोभिः समं प्रवेशनिर्गमस्थानासनादि प्रकुर्वन्ति । भुंजन्ति यथा गावस्तिर्यग्वासं विभावयन्तः॥१॥] गृहिधर्मा-गृहस्थधर्म एव श्रेयानित्यभि-| सन्धाय तयथोक्तकारी धर्मचिन्तको धर्मसंहितापरिज्ञानवान् सभासदः अविरुद्धो-बैनयिका, उक्तं च-"अविरुद्धो विणयकारी देवाईणं पराए भत्तीए । जह येसियायणसुओ एवं अन्नेवि नायवा ॥१॥" [अविरुद्धो विनयकारी देवादीनां परया भक्त्या । यथा वैश्यायनसुत एवमन्येऽपि ज्ञातव्याः ॥१॥] विरुद्धोः-अक्रियावादी परलोकानभ्युपगमात् सर्ववादिभ्यो ~392~ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ------------------ अध्ययनं [१५], ----------------- मूलं [१०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०५]] ज्ञाताधर्म- कथानम् ॥१९५॥ दीप अनुक्रम [१५७]] aeo2009 विरुद्धः एवं वृद्धः-तापसः प्रथममुत्पन्नवात् प्रायो वृद्धकाले च दीक्षाप्रतिपत्तेः श्रावको-ब्राह्मणः अन्ये तु वृद्धश्रावक इति १५नन्दीव्याचक्षते, स च ब्राह्मण एव, रक्तपट:-परिव्राजको निर्ग्रन्थ:-साधुः प्रभृतिग्रहणात् कापिलादिपरिग्रह इति, 'पत्थयणं' तिफलज्ञाता. पथ्यदनं-शम्बलं 'पक्खि'ति अर्द्धपथे त्रुटितशम्बलस्य शम्बलपूरणं द्रव्यं प्रक्षेपका, 'पडियस्स'ति वाहनात्पतितस्य रोगे वा धन्यसाथपतितस्य 'भग्गग्गस्स'त्ति वाहनात स्खलनाद्वा पतने भनस्य रुग्णस्य च-जीर्णतां गतस्पेत्यर्थः, हंदि'त्ति आमन्त्रणे 'नाइविगि-वाहप्रवाहहिं अद्धाणेहि ति नातिविप्रकृष्टेषु नातिदीपेष्वध्वमु-प्रयाणकमार्गेषु वसन् शुभैरनुकलैः 'वसतिप्रातराशेः' आवासस्थानासादिसू. प्रातर्भोजनकालेश्वेत्यर्थः 'देसगं'ति देशान्तं । इहोपनयः सूत्राभिहित एव । विशेषतः पुनरेवंतं प्रतिपादयन्ति-"चंपा इव मणुयगती। १०५ धणोव भयवं जिणो दएकरसो । अहिछत्तानयरिसमं इह निहाणं मुणेयई ॥१॥ घोसणया इव तित्थंकरस्स सिवमग्गदेसणमहग्धं 18 चरगाइणोच इत्थं सिवसुहकामा जिया बहवे ॥२॥ नंदिफलाइ व इहं सिवपहपडिवणगाण विसया उ | तब्भक्खणाओ मरणं RI जह तह विसएहि संसारो ॥३॥ तवजणेण जह इट्टपुरगमो विसयवजणेण तहा । परमानंदनिबंधणसिवपुरगमणं मुणेया ॥४ चम्पेव मनुष्यगतिर्थन इव भगवान् जिनो दयैकरसः । अहिच्छत्रानगरीसममिह निर्वाणं ज्ञातव्यं ॥१॥ घोषणमिव तीर्थकरस्य शिवमार्गदेशनमनधं । चरकादिवदत्र शिवसुखकामा जीवा बहवः ॥२॥ नन्दीफलानीवेह शिवपथप्रतिपन्नानां विषयाः। तवक्षणात् मरणं यथा तथेह विपयैः संसारः ॥शा तर्जनेनेष्टपुरगमो यथा विषयवर्जनेन तथा । परमानन्दनिबन्धन- १९५॥ शिवपुरगमनं ज्ञातव्यं ॥४॥] पञ्चदशज्ञातविवरणं समाप्तम् ॥१५॥ अत्र अध्ययनं-१५ परिसमाप्तम् ~393~ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१०६-१०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अथ षोडशज्ञातविवरणम् ॥ १६॥ प्रत सूत्रांक [१०६-१०८] Poeseser दीप अनुक्रम [१५८ अथ पोडशं व्याख्यायते, अस्य च पूर्वेण सहायमभिसम्बन्धः-पूर्वत्र विषयाभिष्वङ्गस्यानर्थफलतोक्ता इह तु तद्विषयनिदा-11 नस्य सोच्यते इत्येवंसम्बद्धमिदम् जतिणं भंते ! स०भ०म० पन्नरसमस्स नायज्झयणस्स अयमढे प०सोलसमस्सणं णायजायणस्सणं समक भग० महा० केअहे पण्णत्ते?, एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं २ चंपा नाम नयरी होत्या, तीसे णं चंपाए नयरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसिभाए सुभूमिभागे उजाणे होत्था,तत्थ णं चंपाए नयरीए तओमारणा भातरो परिवसंति, तंजहा-सोमे सोमदत्ते सोमभूती अड्डा जाव रिउच्वेद ४ जाव सुपरिनिट्ठिया, तेसि णं माहणाणं तओ भारियातो होत्था, तं०-नागसिरी भूयसिरी जक्खसिरी सुकुमाल जाव तेसिणं माहणाणं इट्टाओ विपुले माणुस्सए जाव विहरति । तते णं तेर्सि माणाणं अन्नया कयाई एगयओ समुवागयाणं जाव इमेयारूवे मिहो कहासमुल्लावे समुप्पजित्था, एवं खलु देवाणुपिया! अम्हं इमे विपुले धणे जाव सावतेज्जे अलाहि जाव आसत्तमाओ कुलवंसाओ पकामं दाउं पकामं भोत्तुं पकामं परिभाएतं सेयं खलु अम्हं देवाणु अन्नमन्नस्स गिहेसु कल्लाकल्लिं विपुलं असणं ४ उपक्खडे २ परि जमाणाणं विहरित्तए, अन्नमन्नस्स एयमढें पडिसुणेति, कल्लाकल्लिं अन्नमन्नस्स गिहेसु विपुलं असण -१६०] अथ अध्ययन- १६ “अपरकका आरभ्यते द्रौपदी-कथा, द्रौपद्या: पूर्वभवस्य वृतान्तं-नागश्री कथा ~ 394~ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१०६-१०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथानम्. १६ अपर प्रत सूत्रांक [१०६-१०८] ॥१९६॥ ता.ब्राह्मणभोजनव्यवस्था सू. १०६ दीप अनुक्रम [१५८ ४ उवक्खडावेति २ परिभुजमाणा विहरंति, तते णं तीसे नागसिरीए माहणीए अन्नदा भोयणवारए जाते याषि होत्या, तते णं सा नागसिरी विपुलं असणं ४ उबक्खडेति २एगं महं सालतियं तित्ता लाउअं यहसंभारसंजुत्तं जेहावगाढं उवक्खडावेति, एग बिंदुर्य करयलंसि आसाएइ तं खारं कडयं अक्खजं अभोज विसन्भूयं जाणित्सा एवं च०-धिरत्धु णं मम नागसिरीए अहनाए अपुत्ताए दूभगाए दूभगसत्ताए दूभगणियोलियाए जीए णं भए सालइए बहुसंभारसंभिए नेहावगाढे उवक्खडिए सुबहुदवक्खएणं, नेहक्खए य कए, तं जति णं ममं जाउयाओ जाणिस्संति तोणं मम खिंसिस्संतितं जाव ताव मम जाउयाओ ण जाणंति ताव मम सेयं एवं सालतियं तित्तालाउ बहुसंभारणेहकर्य एगते गोवेत्तए अन्नं सालइयं महुरालाउयं जाव नेहावगाढं उवक्खडेत्तए, एवं संपेहेति २तं सालतियं जाव गोवेइ, अनं सालतियं महुरालाउयं उवक्खडेइ, तेसिं माहणाणं पहायाणं जाव सुहासणवरगयाणं तं विपुलं असण ४ परिवेसेति, तते णं ते माहणा जिमितभुत्युत्तरागया समाणा आयंता चोक्खा परमसुइभूया सकम्मसंपउत्ता जाया याचि होत्था, तते णं ताओ माहणीओ पहायाओ जाब विभूसियाओ तं विपुलं असण ४ आहारेंति २ जेणेव सयाई २ गेहाई तेणेव उवा०२ सककम्मसंपउत्तातो जायातो (सूत्रं १०६) तेणं कालेणं २ धम्मघोसा नाम थेरा जाव बहुपरिवारा जेणेव चंपा नामं नगरी जेणेव सुभूमिभागे उजाणे तेणेव उवा०२ अहापडिरूवं जाव विहरंति, परिसा निग्गया, धम्मो कहिओ, परिसा पडिगया, cerceneversersesesesercere ॥१९६॥ -१६०] द्रौपदी-कथा, द्रौपद्या: पूर्वभवस्य वृतान्तं-नागश्री कथा ~395~ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१०६-१०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०६-१०८] दीप अनुक्रम [१५८ तए णं तेसि धम्मघोसाणं घेराणं अंतेवासी धम्मरुई नाम अणगारे ओराले जाव तेउलेस्से मासं मासेणं खममाणे विहरति, तते गं से धम्मई अणगारे मासखमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झार्य करेइ २ बीयाए पोरसीए एवं जहा गोयमसामी तहेव उग्गाहेतिर तहेव धम्मघोसं धेरं आपुच्छह जाव चंपाए नयरीए उच्चनीयमज्झिमकुलाई जाव अडमाणे जेणेच नागसिरीए माहणीए गिहे तेणेव अणुपविठे,ततेणंसा नागसिरी माहणी धम्मरुई एज्जमाणं पासतिरत्ता तस्स सालइयस्स तित्तकडुयस्स बहु०णेहा०नि सिरण?याए हहतहा उट्टेति २ जेणेव भत्तघरे तेणेव उवा०२तं सालतियं तित्तकडुयं च बहुनेहं धम्मरुइस्स अणगारस्स पडिग्गहंसि सबमेव निसिरह, तते णं से धम्मरुई अणगारे अहापज्जत्तमितिकटु णागसिरीए माहणीए गिहातो पडिनिक्खमति २पाए नगरीए मझमझेणं पडिनिक्खमति २ जेणेव सुभूमिभागे उजाणे तेणेव उवागच्छति २धम्मघोसस्स अदूरसामंते अन्नपाणं पडिदंसेइ २ अन्नपाणं करयलसि पडिदंसेति, तते णं ते धम्मघोसा घेरा तस्स सालइतस्स नेहावगाढस्स गंधेणं अभिभूया समाणा ततो सालइयातो नेहावगाढाओ एग बिंदुर्ग गहाय करयलंसि आसादेति तित्तगं खारं कडयं अखजं अभोज्ज विसभ्यं जाणित्ता धम्मरुई अणगारं एवं वदासी-जति णं तुम देवाणु एयं सालइयं जाव नेहावगाढं आहारेसि तो गं तुम अकाले चेव जीवितातो ववरोविज्जसि, तं मा णं तुम देवाणु ! इमं सालतियं जाव आहारेसि, मा णं तुम अकाले चेव जीविताओ ववरोविजसि, तं गच्छ णं तुम देवाणु ! इर्म -१६०] द्रौपदी-कथा, द्रौपद्या: पूर्वभवस्य वृतान्तं-नागश्री कथा, धर्मरुचि अनगारस्य कथा ~396~ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [१०६ - १०८] दीप अनुक्रम [१५८ -१६०] “ ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [ १६ ], मूलं [ १०६-१०८] श्रुतस्कन्धः [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्. ॥१९७॥ Education Intention सालतियं एतमणावाए अचित्ते थंडिले परिद्ववेहि २ अनं फासूयं एसणिजं असण ४ पडिगाहेता आहारं आहारेहि, तते णं से घम्मरुई अणगारे धम्मघोसेणं घेरेणं एवं बुत्ते समाणे धम्मघोसस्स थेरस्स अंतियाओ पडिनिक्लमति २ सुभूमिभागउज्जाणाओ अदूरसामंते थंडिलं पडिलेहेति २ ततो सालइयातो एवं बिंदुगं गहेइ २ थंडिलंसि निसिरति, तते णं तस्स सालतियस्स तितकयस्स बहुनेहावगाढस्स गंधेणं बहूणि पिपीलिगासहस्साणि पाउ० जा जहा य णं पिपीलिका आहारेति सा तहा अकाले वेव जीवितातो बवरोविज्जति, तते णं तस्स घम्मरुइस्स अणगारस्स इमेयारूवे अम्भस्थिए५ जइ ताव इमस्स सालतियस्स जाव एगंमि बिंदुगंमि पक्खिन्तंमि अणेगातिं पिपीलिकासहस्साइं वबरोविज्वंति तं जति णं अहं एवं सालइयं पंडिलंस सवं निसिरामि तते णं बहूणं पाणाणं ४ बहकरणं भविस्सति, तं सेयं खलु ममेयं सालइयं जाब गाढं सयमेव आहारेतर, मम चेव एएणं सरीरेणं णिज्जाउत्तिक एवं संपेहेतिर मुहपोन्तियं २ पडिलेहेति २ ससीसोवरियं कार्य पमज्जेति २ तं सालइयं तित्तकडुयं बहुनेहावगाढं चिलमिव पन्नगभूतेणं अप्पाणेणं सवं सरीरकोहंसि पक्खिवति, तते णं तस्स धम्मरुइस्स तं सालइयं जाव नेहावगाढं आहारियस्स समाणस्स मुहतंतरेणं परिणममाणंसि सरीरगंसि वेयणा पाउन्भूता उजला जाव दुरहियासा, तते णं से धम्मरुची अणगारे अथामे अबले अवीरिए अपुरिसकारपरकमे अधारणिज्जमितिक आयारमंडगं एते वेइ २ थंडिल्लं पडिलेहेति २ दम्भसंधारगं संधारेह २ दम्भसंधारगं दुरूहति २ For Parts Only द्रौपदी-कथा, द्रौपद्याः पूर्वभवस्य वृतान्तं नागश्री कथा, धर्मरुचि अनगारस्य कथा ~ 397~ esese १६ अपर कङ्काज्ञाता० धर्म रुच्यनगा रवृत्तं सू. १०७ ॥१९७॥ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१०६-१०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०६ -१०८] दीप अनुक्रम [१५८ पुरस्थाभिमुहे संपलियंकनिसन्ने करयलपरिग्गहियं एवं व-नमोऽत्थु णं अरहताणं जाव संपत्ताणं, णमोडत्यु णं धम्मघोसाणं घेराणं मम धम्मायरियाणं धम्मोवएसगाणं, पुधिपि णं मए धम्मघोसाणं थेराणं अंतिए सखे पाणातिवाए पञ्चक्खाए जावज्जीवाए जाय परिग्गहे, इयाणिपि णं अहं तेर्सि चेव भगवंताणं अंतियं सर्व पाणाति० पचक्खामि जाव परिग्गहं पञ्चक्खामि जावजीचाए, जहा खंदओ जाव चरिमेहिं उस्सासेहिं वोसिरामिसिकट्टआलोइयपडिकंते समाहिपसे कालगए, ततेणं ते धम्मघोसाधेरा धम्मरुई अणगारंचिरं गयं जाणित्ता समणे निग्गंधे सद्दावेंति २एवं व०-एवं खलु देवाणु ! धम्मरुइस्स अणगारस्स मासखमणपारणगंसि सालइयस्स जाव गाढस्स णिसिरणट्ठयाए बहिया निग्गते चिराति तं गच्छह णं तुम्भे देवाणु ! धम्मरुइस्स अणगारस्स सबतो समंता मग्गणगवेसणं करेह, तते णं ते समणा निग्गंधा जाव पडिसुणेतिर धम्मघोसाणं घेराणं अंतियाओ पडिनिक्खमंति २ धम्मरुइस्स अणगारस्स सबओ समंता मग्गणगवेसणं करेमाणा जेणेव धंडिल्लं तेणेव उवागच्छंति २ धम्मरुइस्स अणगाररस सरीरगं निप्पाणं निचेहूं जीवविप्पजडं पासंति २हा हा अहो अकजमितिकटु धम्माइस्स अणगारस्स परिनिपाणवत्तियं काउस्सग्गं करेंति, धम्मरुइस्स आयारभंडगं गेण्हति २ जेणेव धम्मघोसा घेरा तेणेव उवागच्छंति २ गमणागमणं पडिकमंति२ एवं व०-एवं खलु अम्हे तुभ अंतियाओ पडिनिक्खमामोर सुभूमिभागस्स उ० परिपेरंतणं धम्मरुइस्स अणगारस्स सर्व जाव करेमाणे जेणेव थंडिल्ले तेणेब उचा०२ जाव -१६०] द्रौपदी-कथा, द्रौपद्या: पूर्वभवस्य वृतान्तं नागश्री कथा, धर्मरुचि अनगारस्य कथा ~398~ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१०६-१०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्. प्रत सूत्रांक [१०६ ॥१९८॥ -१०८] इहं हवमागया, तं कालगए णं भंते ! धम्मरुई अणगारे इमे से आयारभंडए, तते णं ते धम्मघोसा घेरा पुवगए उपओगं गच्छंतिर समणे निग्गंथे निग्गंधीओ य सदातिर एवं व०-एवं खलु अजो! मम अंतेवासी धम्मरुची नाम अणगारे पगइभदए जाब विणीए मासंमासेणं अणिक्खित्तेणं तबोकम्मेणं जाव नागसिरीए माहणीए गिहे अणुपबिढे, तए णं सा नागसिरी माहणी जाव निसिरह, तएणं से धम्मरुई अणगारे अहापजत्तमितिकटु जाव कालं अणवकखेमाणे विहरति, से णं धम्मरुई अणगारे बहणि वासाणि सामनपरियागं पाउणित्ता आलोइयपडिकंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किचा उर्ल्ड सोहम्मजाव सबढसिद्धे महाविमाणे देवत्ताए उववन्ने, तत्थ णं अजहण्णमणुकोसेणं तेत्तीसं सागरोव. माई ठिती पत्नत्ता, तस्थ धम्मरुइस्सवि देवस्स तेत्तीसं सागरोषमाइं ठिती पपणत्ता, से गं धम्मरुई देवे ताओ देवलोगाओ जाव महाविदेहे वासे सिज्झिहिति (सूत्रं१०७) तं धिरत्थु णं अनो! णागसिरीए माहणीए अधन्नाए अपनाए जाय णिबोलियाए जाए णं तहारूवेसाह धम्मलई अणगारे मासखमणपारणगंसि सालइएणं जाव गाढणं अकाले येव जीवितातो ववरोविए, तते गं ते समणा निग्गंधा धम्मघोसाणं थेराणं अंतिए एतम8 सोचा णिसम्म चंपाए सिंघाडगतिगजाच बहुजणस्स एवमातिक्खंति-धिरत्थु णं देवा! नागसिरीए माहणीए जाव णिबोलियाए जाए णं तहारूवे साह साहरूवे सालतिएणं जीवियाओ यवरोवेह, तए णं तेसिं समणाणं अंतिए एयम8 सोचा णिसम्म बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमातिक्वति and900000 दीप अनुक्रम [१५८ -१६०] ॥१९८॥ द्रौपदी-कथा, द्रौपद्या: पूर्वभवस्य वृतान्तं-नागश्री कथा, धर्मरुचि अनगारस्य कथा ~399~ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१०६-१०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०६ -१०८] दीप अनुक्रम [१५८ एवं भासति-धिरत्थु णं नागसिरीए माहणीए जाव जीवियाओ ववरोविते, तते ण ते माहणा चंपाए नयरीए बहुजणस्स अंतिए एतमटुं सोचा निसम्म आसुरुत्ता जाव मिसिमिसेमाणा जेणेच नागसिरी माहणी तेणेव उवागच्छंति २णागसिरी माहणी एवं वदासी-हं भो। नागसिरी! अपस्थियपत्धिए दुरंतपंतलक्खणे हीणपुषणचाउद्दसे घिरस्थु णं तव अधन्नाए अपुन्नाए जाव णिवोलियाते जाए णं तुमे तहारूवे साहू साहुरूवे मासखमणपारणगंसि सालतिएणं जाव ववरोविते,उच्चावएहि अकोसणाहिं अकोसंति उच्चावयाहिं उर्द्धसणाहिं उद्धंसेंति पचावयाहिं णिन्भधणाहिं णिन्भत्धति उच्चावयाहिं णिकछोडणाहिं निच्छोडेंति तज्जेति तालेति तब्बेत्ता तालेत्ता सयातोगिहातो निच्छुभंति,ततेणं सानागसिरी सयातो गिहातो निच्छूढा समाणी चंपाए नगरीए सिंघाडगतियचउपचचरचउम्मुह बहुजणेणं हीलिजमाणी खिसिजमाणी निंदिनमाणीगरहिजमाणी तजिजमाणी पदहिज्जमाणी धिकारिजमाणी धुकारिजमाणी कत्थई ठाणं वा निलयं वा अलभमाणी २ दंडीखंडनिवसणा खंडमल्लयखंडघडगहत्थगया फुहहडाहडसीसा मच्छियाचहगरेणं अग्निज्जमाणमग्गा गेहंगेहेणं देहवलियाए वित्तिं कप्पेमाणी विहरति, तते णं तीसे नागसिरीए माहणीए तब्भवंसि चेव सोलस रोयायंका पाउन्भूया, तंजहा-सासे कासे जोणिसूले जाव कोदे, तए णं सा नागसिरी माहणी सोलसहि रोयायंकेहिं अभिभूता समाणी अहवसहा कालमासे कालं किच्चा छट्ठीए पुढवीए उक्कोसेणं बावीससागरोवमहितीएम नरएसु नेरइयत्ताते उववन्ना, सा णं तओणंतरंसि -१६०] SARERIEatinintamanna द्रौपदी-कथा, द्रौपद्या: पूर्वभवस्य वृतान्तं-नागश्री कथा, ~ 400~ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [१०६ -१०८] दीप अनुक्रम [१५८ -१६०] “ ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [ १६ ], मूलं [ १०६-१०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्. ॥ १९९॥ श्रुतस्कन्धः [१] मच्छे चवन्ना, तत्थ णं सत्थवज्झा दाहवकंतिए कालमासे कालं किचा आहेसत्तमी पुढarry उक्साए तित्तीसागरोवमट्टितीएस नेरइएस उबवन्ना, सा णं ततोऽणंतरं उहित्ता दोपि मच्छे ववज्जति, तस्थाविय णं सत्यवज्झा दाहवकंतीए दोबंपि अहे सत्तमीए पुढबीए को तेत्तीससागरोमहितीए नेरपसु उववज्जति सा णं तओहिंतो जाव उद्दित्ता तचंपि मच्छेसु उबवन्ना, तत्थविय ं सत्यवज्झा जाव कालं किच्चा दोचंपि छट्ठीए पुढबीए उक्कोसेणं० तओऽणंतरं उद्यहिता नरएस एवं जहा गोसाले तहा नेयवं जाय रयणप्पभाए सत्तसु उघयन्ना, ततो उवहित्ता जाव इमाई वहयरविहाणाई जाव अदुत्तरं च णं खरबायरपुढविकाइयत्ताते तेसु अणेगसतसहस्स खुत्तो (सूत्रं १०८ ) सर्व सुगमं, नवरं 'सालइयं ति शारदिकं सारेण वा रसेन चितं युक्तं सारचितं, 'तितालाउयं'ति कटुकतुम्बकं 'बहुसंभारसंजुतं' बहुभिः सम्भारद्रव्यैः- उपरि प्रक्षेप द्रव्यैस्तगेलाप्रभृतिभिः संयुक्तं यत्तत्तथा 'स्नेहावगाढ' स्नेहव्याप्तं 'दूभगसत्ताए' त्ति दुर्भगः सम्वः - प्राणी यस्याः सा तथा, 'दूभगनिंबोलियाए 'ति निम्बगुलिकेव- निम्बफलमिक अत्यनादेयत्नसाधर्म्यात् दुर्भगाणां मध्ये निम्बगुलिका दुर्भगनिम्बगुलिका, अथवा दुर्भगानां मध्ये निर्वोलिता- निमज्जिता दुर्भगनिवलिता, 'जाउयाउ'ति देवराणां जाया मार्या इत्यर्थः, 'बिलमिवेत्यादि बिले इव- रन्धे इव पन्नगभूतेन सर्पकल्पेन आत्मना करणभूतेन सर्व तदलाबु शरीरकोष्ठ के प्रक्षिपति, यथा किल चिले सर्प आत्मानं प्रक्षिपति पार्श्वन् असंस्पृशन् एवमसौ वदनकन्दरपार्श्वान् असं For Pasta Use Only द्रौपदी-कथा, द्रौपद्याः पूर्वभवस्य वृतान्तं नागश्री कथा, नागश्री- भवभ्रमणः ~ 401 ~ १६ अपर कङ्काज्ञाता. नागश्रीभवच मः सु. १०८ ॥ १९९॥ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१०६-१०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०६ -१०८] दीप अनुक्रम [१५८ स्पृशन् आहारेण तदसञ्चारणतस्तदलाबु जठरविले प्रवेशितवानिति भावः, 'गमणागमणाए पडिकमंति'ति गमनागमनंपर्यापथिकी 'उच्चावयाहिं'ति असमञ्जसाभिः 'अक्कोसणाहिति मृताऽसि समित्यादिभिर्वचनैः, 'उद्धंसणाहिति दुष्कुली-II नेत्यादिभिः कुलायभिमानपातनाथैः, 'निच्छुहणाहिति निःसरासद्गेहादित्यादिभिः 'निच्छोडणाहिति स्वजासदीयं । विसादीत्यादिभिः सज्जेति'त्ति ज्ञास्यसि पापे! इत्यादिभणनतः 'तालिंति तिं चपेटादिभिः हील्यमाना-जात्याधुघट्टनेन खिस्स माना-परोक्षकुत्सनेन निन्द्यमाना-मनसा जनेन गईमाणा-तत्समक्षमेव तय॑माना-अङ्गुलीचालनेन ज्ञास्यसि पाषे इत्यादिभणनतः । प्रव्यध्यमाना-यष्ट्यादिताडनेन धिविक्रयमाणा-धिकशब्दविषयीक्रियमाणा एवं क्रियमाणा दण्डी-कृतसन्धानं जीर्णवखं तस्य खण्डं निवसन-परिधानं यस्याः सा तथा, खण्डमल्लक-खण्डशरावं भिक्षाभाजनं खण्डपटकच-पानीयभाजनं ते हस्तयोगते यस्याः सा तथा, 'फुति स्फुटितया स्फुटितकेशसञ्चयसेन विकीर्णकेशं 'हडाहडंति अत्यर्थ शीर्ष शिरो यस्याः सा तथा, मक्षिकाचटकरेण-मक्षिकासमुदायेन अन्वीयमानमार्गा-अनुगम्यमानमार्गा मलाविलं हि वस्तु मक्षिकाभिर्वेष्यते एवेति, देह बलिमित्येत-18 स्थाख्यानं देहबलिका तया, अनुखारो नैपातिका, 'सस्थवज्झ'ति शस्त्रवध्या जातेति गम्यते, 'दाहवकतिए'त्ति दाहव्युत्क्रान्त्या-दाहोत्पच्या 'खहयरविहाणाई जाव अदुत्तरं चे'त्यत्र गोशालकाध्ययनसमानं सूत्रं तत एव दृश्य, बहुखात्तु न लिखितं ॥ साणं तओऽर्णतरं उचहित्ता इहेव जंबुडीवे दीवे भारहे वासे चंपाए नयरीए सागरवत्तस्स सस्थवाहस्स भदाए भारियाए कुञ्छिसि दारियत्ताए पञ्चायाया, तते णं सा भद्दा सस्थवाही गवण्डं मासाणं वारियं -१६०] द्रौपदी-कथा, द्रौपद्या: पूर्वभवस्य वृतान्तं-नागश्री कथा, नागश्री-भवभ्रमण: ~ 402~ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१] अध्ययनं [ १६ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥२००॥ पाया सुकुमालकोमलियं गयता लुयसमाणं, तीसे दारियाए निघत्ते बारसाहियाए अम्मापियरो इमं एतारूवं गोनं गुणनिष्पन्नं नामघेज्जं करेंति-जम्हा णं अम्हं एसा दारिया सुकुमाला गयतालुयसमाणा तं होड णं अम्हं इमीसे दारियाए नामघेज्जे सुकुमालिया, तते णं तीसे दारियाए अम्मापितरो नामवेज्जं करेंति सूमालियत्ति, तए णं सा सूमालिया दा० पंचधाईपरिग्गहिया तंजहा - खीरधाईए जाब गिरिकंदरमater to चंपकलया निवाए निदाघायंसि जाव परिवहद्द, तते णं सा सूमालिया दारिया उम्मुकबालभावा जाव रूवेण य जोवणेण य लावण्णेण य उकिडा उकिडसरीरा जाता यावि होत्था (सूत्रं १०९ ) तत्थ णं चंपाए नगरीए जिणदत्ते नाम सत्थवाहे अहे, तस्स णं जिणदत्तस्स भद्दा भारिया सूमाला इट्ठा जाब माणुस्सर कामभोए पञ्चणुग्भवमाणा विहरति, तस्स णं जिणदत्तस्स पुत्ते भद्दार भारियाए अत्तर सागर नाम दारए सुकुमाले जाव सुरूवे, तते णं से जिणदन्ते सत्थवाहे अन्नदा कदाई सातो गिहातो पडिनिक्खमति २ सागरदत्तस्स गिहस्स अदूरसामंतेणं बीतीवयह इमं च णं सूमालिया दारिया व्हाया चेडियासंघपरिवुडा उप्पिं आगासतलगंसि कणगतेंदूसएणं कीलमाणी २ विहरति, तते णं से जिणदत्ते सत्थवाहे समालियं दारियं पासति २ सूमालियाए दारियाए रुवे य ३ जायविम्हए कोबिपुरिसे सहावेति २ एवं व०-एस णं देवा० ! कस्स दारिया किं वा णामधेों से १, तते णं ते कोडबिपुरिसा जिणद सेण सत्यचाहेणं एवं वृत्ता समाणा हट्ट करयल जाव एवं बयासी-एस णं देवाणु० ! सागर द्रौपदी कथा, द्रौपद्याः पूर्वभवस्य वृतान्तं - सुकुमालिका कथा For Penal Use On मूलं [ १०९ - ११३] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~ 403~ १६ अपरकङ्काङ्क्षाता. सुकुमालिका या जन्म वीवाइःस्. १०९-११० ॥ २००॥ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१०९-११३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: दत्तस्स सत्यवाहस्स धूया भद्दाए अत्तया सूमालिया नाम दारिया सुकुमालपाणिपाया जाव उकिट्टा, तते णं से जिणदत्ते सत्यवाहे तेसि कोटुंबियाणं अंतिए एयमहूँ सोचा जेणेव सए गिहे तेणेव उवा०२ पहाए जाव मित्तनाइपरिबुडे चपाए. जेणेच सागरदत्तस्स गिहे तेणेव उवागच्छइ, तए णं सागरदत्ते सत्यवाहे जिणदत्तं सत्यवाह एज्वमाणं पासइ एजमाणं पासइत्ता आसणाओ अन्भुढेइ २ त्ता आसणेणं उवणिमंतेति २ आसत्धं वीसत्थं सुहासणवरगयं एवं बयासी-भण देवाणुप्पिया! किमागमणपओयणं, तते णं से जिणदत्ते सत्यवाहे सागरदत्तं सत्यवाहं एवं वयासी-एवं खलु अहं देवा! तव धूयं भद्दाए अत्तियं सूमालियं सागरस्स भारियत्ताए बरेमि, जति णं जाणाह देवा! जुत्तं वा पत्तं वा सलाहणिज्जं वा सरिसो वा संजोगो ता दिजउ णं सूमालिया सागरस्स, तते णं देवा! किं दलयामो सुंकं सूमालियाए ?,तए णं से सागरदत्ते तं जिणदत्तं एवं वयासी-एवं खलु देवा ! सूमालिया दारिया मम एगा एगजाया इट्टा जाव किमंग पुण पासणयाए तं नो खलु अहं इच्छामि सूमालियाए दारियाए खणमवि विप्पओगं, तं जतिणं देवाणुप्पिया! सागरदारए मम घरजामाउए भवति तो णं अहं सागरस्स दारगस्स सूमालियं दलयामि, तते णं से जिणदत्ते सत्यवाहे सागरदत्तेणं सत्यवाहेणं एवं वुत्तेसमाणे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइरसागरदारगं सद्दावेतिर एवं व०-एवं खलु पुत्ता सागरदत्ते सम्मम एवं बयासी-एवं खलु देवा०1 सूमालिया दारिया इट्टा तं चेव तं जति णं सागरदारए मम घरजामाउए ~ 404~ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१०९-११३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: शाताधर्म कथाङ्गम. १५अपरकङ्काज्ञाता. सागरित्यागः सू. १११ ॥२०॥ भवइ ता वलयामि, तते णं से सागरए दारए जिणदत्तेणं सत्यवाहेणं एवं बुत्ते समाणे तुसिणीए, तते णं जिणदत्ते स. अन्नदा कदाइ सोहणंसि तिहिकरणे विउलं असण ४ उवक्खडावेति २ मित्तणाई आमंतेह जाय सम्माणित्ता सागरं दारगं पहायं जाव सवालंकारविभूसियं करेइ २ पुरिससहस्सवाहिणि सीयं दुरूहावेति २मित्तणाइ जाव संपरिचुडे सबिड्डीए सातो गिहाओ मिग्गच्छति २ चंपानयरि मझमझेणं जेणेच सागरदत्तस्स गिहे तेणेव उवागच्छति २ सीयाओ पचोरुह ति २सागरगं दारर्ग सागरदत्तस्स सस्थ० उवणेति,तते णं सागरदत्ते सत्यवाहे विपुलं असण ४ उपक्सडावेहर जाव सम्माणेसा सागरगंदारगं सूमालियाए दारियाए सद्धिं पश्यं दुरूहावेइ २ सेयापीतएहिं कलसेहिं मज्जावेति २होम करावेतिर सागरं वारयं सूमालियाए दारियाए पाणि गेण्हादिति (सूत्रं ११०) तते णं सागरवारए सूमालियाए दारिइम एयारूवं पाणिफासं पडिसंवेदेति से जहा नाम ए असिपसे हवा जाव मुम्मुरे हवा इतो अणिहतराए चेव पाणिफासं पडिसंवेदेति, तते णं से सागरए अकामए अवसघसे तं मुहुत्तमित्तं संचिदृति, तते णं से सागरदसे सस्थवाहे सागरस्स दारगस्स अम्मापियरो मित्तणाइ विउलं असणपुष्फवस्थ जाव सम्माणेत्ता पडिविसज्जति, तते णं सागरए दारए समालियाए सद्धिं जेणेव वासघरे तेणेव उवा० २सूमालियाए दारियाए सद्धिं तलिगंसि निवज्जइ, तते णं ते सागरए दा० सूमालियाए दा० इमं एयारूवं अंगफासं पडिसंवेदेति, से जहा नामए असिपत्तेइ वा जाब अमणामयराग घेच अंगफासं पचणुन्म Sececemesesearcelones RO ॥२०॥ AREauratonintanational ~ 405~ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१०९-११३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: बमाणे विहरति, तते णं से सागरए अंगफासं असहमाणे अवसबसे मुहुत्समित्तं संचिट्ठति, सते गं से सागरदारए सूमालियं दारियं सुहपसुत्तं जाणित्ता सूमालियाए दारियाए पासाउ उद्वेतिर जेणेच सए सयणिज्जे तेणेव उवा०२ सयणीयंसि निवजह, तते णं सूमालिया दारिया तओ मुहसंतरस्स पडिबुद्धा समाणी पतिवया पइमणुरत्ता पति पासे अपस्समाणी तलिमाउ उद्वेति २ जेणेव से सयणिज्जे तेणेव उवागच्छति २ सागरस्स पासे गुवज्जइ, तते णं से सागरदारए सूमालियाए दारि० दुचंपि इम एयारूवं अंगफासं पडिसंवेदेति जाव अकामए अवसबसे मुहत्तमित्तं संचिट्ठति, तते णं से सागरदारए सूमालियं दारियं मुहपमुत्तं जाणिसा सयणिज्जाओ उट्टेड २ वासघरस्स दारं विहाडेति २ मारामुके विव काए जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसिंपडिगए (सूत्रं १११) तते णं सूमालिया दारिया ततो मुहुर्सतरस्स पडिबुद्धा पर्तिवया जाव अपासमाणी सयणिज्जाओ उद्वेति सागरस्स दा० सबतो समंता मग्गणगवेसणं करेमाणी २ वासघरस्स दारं विहाडियं पासइ २ एवं व-गए से सागरेसिकटु ओहयमणसंकप्पा जाब झियायह, सते णं सा भद्दा सत्यवाही कल्लं पाउ० दासचेडियं सदावेति २ एवं व०-गच्छह णं तुम देवाणुप्पिए बहुवरस्स मुहसोहणियं उवणेहि, तते णं सा दासचेडी भराए एवं चुत्ता समाणी एयमहुँ तहत्ति पडिसुगंति, मुहधोवणियं गेण्हति २ जेणेव वासघरे तेणेव उवागच्छति २ सूमालियं दारियं जाव झियायमाणिं पासति २ एवं व-किन्नं तुमं देवाणु ! ओहयमणसंकप्पा ~406~ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१०९-११३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: साताधर्म कथानम्. ६अपरकरज्ञा द्रमककृतस्त्यागः सू. ११२ ॥२०॥ जाव झियाहिसि?, तते णं सा सूमालिया दारिया तं दासचेडीयं एवं व०-एवं खलु देवा सागरए दारए मम मुहपसुत्तं जाणित्ता मम पासाओ उद्देति २ वासघरदुवारं अवगुण्डति जाव पडिगए, तते णं ततो अहं मुहुत्तंतरस्स जाव विहाडियं पासामि, गए णं से सागरएत्तिक? ओहयमण जाव झियायामि, तते णं सा दासचेडी सूमालियाए दारि० एयमटुं सोचा जेणेव सागरदत्ते तेणेव उवागच्छद २त्ता सागरदत्तस्स एपमडं निवेएइ, तते णं से सागरदत्ते दासचेडीए अंतिए एपमहूं सोचा निसम्म आसुरुत्ते जेणेव जिणदत्तसत्थवाहगिहे तेणेव उवा०२ जिणद एवं ब-किणं देवाणुप्पिया! एवं जुत्तं वा पत्तं वा कुलाणुरूवं वा कुलसरिसंवा जन्नं सागरदारए समालियं दारियं अदिट्टदोसं पइवयं विप्पजहाय इहमागओ बहूहिं खिज्जणियाहि य रुंदणियाहि य उवालभति, तए णं जिणदत्ते सागरदतस्स एयमहूं सोचा जेणेव सागरए दारए तेणेव उवा०२ सागरयं दारयं एवं व०-दुवर्ण पुत्ता! तुमे कयं सागरदत्तस्स गिहाओ इहं हवमागते, तेणं तं गच्छह णं तुम पुत्सा। एवमपि गते सागरदत्तस्स गिहे. तते णं से सागरए जिणदत्तं एवं व०-अवि याति अहंताओ! गिरिपडणं वा तरूपडणं वा मरुप्पचायं वा जलप्पवेसं वा विसभक्खणं वा वेहाणसं वा सत्थोवाइणं वा गिद्धापिटुं वा पवजं वा विदेसगमणं वा अग्भुवगच्छिज्जामि नो खलु अहं सागरदत्तस्स गिहं गच्छिज्जा, तते णं से सागरदत्ते सत्यवाहे कुडूंतरिए सागरस्स एयमह निसामेतिर लजिए विलीए विड़े जिणदत्तस्स गिहातो पडिनिक्खमह S२०या ~ 407~ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ १०९ - ११३] श्रुतस्कन्धः [१] अध्ययनं [ १६ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Ecation Inte जेणेव सए गिहे तेणेव उवा० २ सुकुमालियं दारियं सदावेह २ अंके निवेसेइ २ एवं ब०hi तव पुत्ता ! सागरएणं दारएणं मुक्का ?, अहं णं तुमं तस्स दाहामि जस्स णं तुमं इट्ठा जाव मणामा भविस्ससित्ति सूमालियं दारियं ताहिं इट्ठाहिं वग्गूहिं समासासेइ २ पडिविसज्जे । तए से सागरदत्ते सत्थ अन्नया उप्पिं आगासतलगंसि सुहनिसपणे रायमग्गं ओलोएमाणे२ चिट्ठति, तते से सागरदत्ते एवं महं दमगपुरिसं पासह दंडिखंडनिवसणं खंडगमल्लगघडगहत्थगयं मच्छियासहसेहिं जाव अन्निज्माणमग्गं तते णं से सागरदत्ते कोडूंचियपुरिसे सहावेति २ एवं व०-तुम्भे णं देवा० ! एयं दमगपुरिसं विउलेणं असण४ पलो मेहिरगिहं अगुप्त वेसेह २ खंडगमल्लगं खंडघडगं ते एगंते एडेह २ अलंकारियकम्मं कारेह २ पहायं कयबलि० जाव सवालंकारविभूसियं करेह २ मणुष्णं असण ४ भोयावेह २ मम अंतियं उवणेह, तए णं कोटुंबियपुरिसा जाव पडिसुर्णेति २ जेणेव से दमगपुरिसे तेणेव उदा० २ तातं दमगं असणं उचप्पलोमे॑ति २ त्ता सयं सिंहं अणुपवेसिंति२ तं खंडगमल्लगं खंडगघडगं च तस्स दमगपुरिसस्स एगते एडंति, तते णं से दमगे तं खंडमल्लगं सि खंडघडगंसि य एगंते एडिजमाणंसि महया र सद्देणं आरसति, तए णं से सागरदत्ते तस्स दमगपुरिसस्स तं महया २ आरसियस सोचा निसम्म कोवियपुरिसे एवं व० - किण्णं देवाणु० ! एस दमगपुरिसे महया २सद्देणं आरसति ?, तते णं ते कोडुंबियपुरिसा एवं ० एस णं सामी । तंसि खंड मल्लांसि खंडघडगंसि एगते एडिज़माणंसि महया (सद्देणं आरसह, For Parts Only ~ 408~ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१०९-११३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाङ्गम. १६ अपरकङ्काज्ञाता.द्रमककृतस्त्यागः सू. ११२ ॥२०॥ ततेणं से सागरदत्ते सस्थ० ते कोडंबियपुरिसे एवं व-मा णं तुम्भे देवा! एयस्स दमगस्सतं खंड जाव एडेह पासे ठवेह जहा णं पत्तियं भवति, तेवि तहेव ठविति, तए णं ते कोडंचियपुरिसा तस्स दमगस्स अलंकारियकम्मं करेंति २ सयपागसहस्सपागेहिं तिल्लेहिं अम्भंगेति अब्भंगिए समाणे सुरभिगंधुबहणेणं गायं उहिति २ उसिणोदगगंधोदएणं सीतोदगेणं पहाणेति पम्हलसुकुमालगंधकासाईए गायाई लूहंति २हंसलक्खणं पसाडगं परिहंति २ सवालंकारविभूसियं करेंति २ विउलं असण ४ भोयातिर सागरदत्तस्स उवणेन्ति, तए णं सागरदत्ते सूमालियं बारियं पहायं जाव सघालंकारभूसियं करित्ता तं दमगपुरिसं एवं व०-एस गं देवा० मम धूचा इट्ठा एवं णं अहं तब भारियत्ताए दलामि भदियाए भद्दतो भविज्जासि, तते णं से दमगपुरिसे सागरदत्तस्स एयमझु पडिमुणेति २ सूमालियाए दारियाए सद्धिं वासघरं अणुविसति सूमालियाए दा० सद्धिं तलिगंसि निवजह, तते गं से दमगपुरिसे सूमालियाए इमं एयारूवं अंगफास पडिसंवेदेति, सेसं जहा सागरस्स जाव सपणिज्जाओ अन्भुट्टेति २ वासघराओ निग्गछति २ खंडमल्लगं खंडघडं च गहाय मारामुफे विव काए जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिसं पडिगए, तते णं सा सूमालिया जाच गए णं से दमगपुरिसेत्तिकह ओहयमण जाब झियायति (सन ११२) तते णं सा भद्दा कल्लं पाउदासचेर्डि सद्दावेति २एवं बयासी जाव सागरदत्तस्स एपमढे निवेदेति, तते णं से सागरदत्ते तहेव संभंते समाणे जेणेव वासहरे तेणेय उवा०२ ॥२०शा ~ 409~ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ---------- अध्ययनं [१६], -------------- मूलं [१०९-११३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: 80easoosease सूमालियं दारियं अंके निवेसेति २ एवं व०-अहोणं तुम पुत्ता ! पुरापोराणेणं जाव पचणुभवमाणी विहरसि तं मा णं तुमं पुत्ता ! ओहयमण जाव झियाहि तुम णं पुत्ता मम महाणसंसि विपुलं असणं ४ जहा पुहिला जाव परिभाएमाणी विहराहि, तते णं सा सूमालिया दारिया एयम पडिसुणेतिर महाणसंसि विपुलं असण जाव दलमाणी विहरद । तेणं कालेणं २ गोवालियाओ अज्जाओ बहुस्सुयाओ एवं जहेव तेयलिणाए सुब्बयाओ तहेव समोसड्डाओ तहेव संघाडओ जाव अणुपषिढे तहेव जाव सूमालिया पडिलाभित्ता एवं वदासी-एवं खलु अजाओ! अहं सागरस्स अणिवा जाव अमणामा नेच्छइ सागरए मम नाम वा जाव परिभोग वा, जस्स २ विय णं दिनामि तस्स २ विय णं अणिट्ठा जाव अमणामा भवामि, तुम्भे य णं अजाओ! बहुनायाओ एवं जहा पुहिला जाव उवलद्धे जे गं अहं सागरस्स दार० इट्ठा कंता जाच भवेजामि, अवाओ तहेव भणंति तहेव साविया जाया तहेव चिंता तहेव सागरदत्तं सत्यवाहं आपुच्छति जाव गोवालियाणं अंतिए पवइया, तते णं सा सूमालिया अजा जाया ईरियासमिया जाव बंभयारिणी बहूहिं चउत्थछट्ठहम जाच विहरति, तते णं सा सूमालिया अज्जा अन्नया कयाइ जेणेव गोवालियाओ अज्जाओतेणेव उवा०२ चंदति नमसतिर एवं व०-इच्छामि गं अजाओ। तुम्भेहि अन्भणुन्नाया समाणी चंपाओ बाहिं सुभूमिभागस्स उजाणस्स अदूरसामंते ण्टुंण्टेणं अणिक्खित्तेणं तबोकम्मेणं सूराभिमुही आयावेमाणी विहरित्तए, तते गं ताओ ~ 410~ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) श्रुतस्कन्धः [१] अध्ययनं [ १६ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्. ॥२०४॥ “ ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) गोवालियाओ अज्जाओ सूमालियं एवं व०-अम्हे णं अज्जे । समणीओ निग्गंधीओ ईरियासमियाओ जाव गुत्तर्वभचारिणीओ नो खलु अम्हं कप्पति बहिया गामस्स जाव सण्णिवेसस्स वा छ २ जाब विहरितए, कप्पति णं अम्हं अंतो उबस्सयस्स वतिपरिक्खित्तस्स संघाडिवद्धियाए णं समतलपतियाए आयवित्त, तते णं सा सूमालिया गोवालिया एयमहं नो सद्दहति नो पत्तियह नो रोपति एपमहं अ० ३ सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स अदूरसामंते छछणं जाव विहरति (सूत्रं ११३ ) Education International सुकुमालककोमलिकां- अत्यर्थं सुकुमारां, गजतालुसमानां गजतालुकं सत्यर्थं सुकुमालं भवतीति, 'जुत्तं वेत्यादि युक्तंसङ्गतं 'पतं'ति प्राप्तं प्राप्तकालं पात्रं वा गुणानामेष पुत्रः, श्लाघनीयं वा सहसो वा संयोगो विवाद्ययोरिति, 'से जहा नामए असिपत्ते वा' इत्यत्र यावत्कारणादिदं द्रष्टव्यं 'करपतेइ वा खुरपत्ते वा कलंबची रिगापतेह वा सतिअग्गेति वा कौतमेति वा तोमरग्गेति वा भिंडिमालग्गेइ वा सूचिकलाब एति वा बिच्छु केइ वा कविकच्छूड वा इंगालेति वा मुम्मुरेति वा अचीह वा जालें वा अलाएति वा सुद्धागणी वा भवेतारूये १, नो इणट्टे समहे, एत्तो अणिइतराए चैव अकंततराए चेव | अप्पियतराए चैव अमणुनतराए चैव अमणामतराए चेव'चि तत्रासिपत्रं खड्गः करपत्रं - क्रकचं क्षुरपत्रं - बुरः कदम्बची|रिकादीनि लोकरूढ्याऽवसेयानि वृधिकङ्क:- वृश्चिककण्टकः, कपिकच्छुः खर्जुकारी वनस्पतिविशेषः, अङ्गारो-विज्वालोऽग्निकणः मुर्मुर:- अग्निकणमिश्रं भस्म अविः - इन्धनप्रतिबद्धा ज्वाला ज्वाला तु-इन्धनच्छित्रा अलावं- उल्मुकं शुद्धाग्निः - अय स्पिण्डान्त मूलं [ १०९ - ११३] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः For Pasta Use Only ~ 411~ १६ अपरकङ्काज्ञाता. दात्री साध्वी आतापिका सुकुमालिका सू. ११३ ॥२०४॥ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ---------- अध्ययनं [१६], -------------- मूलं [१०९-११३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: मनकामति अकामको-निरभिलापर, 'अवस्सवसे'ति अपस्खवशः, अपगतात्मतत्रस इत्यर्थः, 'तलिसि निवजईत्ति तल्पे--शयनीये निपद्यते-शेते 'पइवय'चि पति-भत्तारं व्रतयति-तमेवाभिगच्छामीत्येवं नियमं करोतीति पतिव्रता. पतिमनुरक्ता-भारं प्रति रागवतीति, 'मारामुकेविव काए'ति मायेन्ते प्राणिनो यस्यां शालायां सा मारा-शूना का तथा मुक्तो यः स मारामुक्तो माराद्वा-मरणान्मारकपुरुषाद्वा मुक्तो-विच्छुटितः काको-पायसः, 'बहुवरस्स'जि पक्ष परश्च वधूवर तस्य, 'कुलाणुरुवंति कुलोचितं वणिजां वाणिज्यमिव 'कुलसरिसं'ति श्रीमद्वणिजा रखवाणिज्यमिव 'अदिट्ट दोसवडिय'ति न दृष्टे-उपलभ्यखरूपे दोषे-दूपणे पतिता-समापना अदृष्टदोपपतिता तां, 'खिजणियाहिति खेदक्रियामिः ॥ रुण्टनकादिभिः-रुदितक्रियाभिः, 'मरुप्पवायं वत्ति निर्जलदेशप्रपातं 'सत्थोबाडणं'ति शस्त्रेणावपाटनं-विदारणमात्मन त्यर्थ: 'गिद्धपट्टति गृध्रस्पृष्ट-गृधैः स्पर्शनं कडेवराणां मध्ये निपत्य गृधैरात्मनो भक्षणमित्यर्थः, 'अम्भुवेज्जामि'चि अभ्यु-18 KIपैमि'पुरा पोराणाण'मित्यत्र यावत्करणादेवं द्रष्टव्यं 'दुचिण्णाणं दुप्परकताणं कडाणं पावाणं कम्माण पावगं फलवित्तिविसेस'ति। 18 अयमर्थः-पुरा-पूर्वभवेषु पुराणानां-अतीतकालभाविना तथा दुवीर्ण--दुश्चरितं मृपावादनपारदार्यादि तद्धेतकानि कर्माण्यपि। दुधीर्णानि व्यपदिश्यन्ते अतस्तेषामेव दुष्पराक्रान्तानां नवरं दुप्पराक्रान्तं-प्राणिघातादत्तापहारादिकृतानां प्रकृत्यादिभेदेन, पुराशब्दस्पेह सम्बन्धः,पापानां-अपुण्यरूपाणां 'कर्मणां ज्ञानावरणादीनां पापक-अशुभ फलवृत्तिविशेष' उदयवर्जनभेदं प्रत्यनभवन्ती' वेदयन्ती 'विहरसि' वर्तसे, 'कप्पइ णं अम्हं' इत्यादि 'अम्हंति अस्माकं मते प्रबजिताया इति गम्यते, अन्तः-मध्ये 'उपाश्रयस्य' वसतेवृत्तिपरिक्षिप्तस्य परेषामनालोकवत इत्यर्थः, 'संघाटी'निर्गन्धिकापच्छदविशेषः सा बद्धा-निचे ~ 412~ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१०९-११३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म-19 शिता काये इति गम्यते यया सा संघाटीबद्धिका तस्याः, णमित्यलकारे समतले द्वयोरपि भुवि विन्यस्तखात् पदे-पादौ यस्याः सा कथाङ्गम् समतलपदिका तस्याः 'आतापयितुं आतापना कर्त कल्पते इति योगः। तत्थ णं चंपाए ललिया नाम गोही परिवसति, नरवइदिण्णवि(प)यारा अम्मापिइनिययनिप्पिवासा ॥२०५॥ घेसविहारकयनिकेया नाणाविहअविणयप्पहाणा अड्डा जाव अपरिभूया, तत्थ णं चंपाए देवदत्ता नामं गणिया होत्था सुकुमाला जहा अंडणाए,तते णंतीसे ललियाए गोहीए अन्नया पंच गोहिल्लगपुरिसा देवदसाए गणियाए सद्धिं सुभूमिभागस्स उजाणस्स उज्जाणसिरिं पञ्चणुम्भवमाणा विहरंति, तत्थ णं एगे गोटिलगपुरिसे देवदत्तं गणियं उच्छंगे धरति एगे पिट्टओ आयवत्तं धरेइ एगे पुष्फपूरयं रएइ एगे पाए रएइ एगे चामरक्खेवं करेइ, तते णं सा सूमालिया अन्जा देवदत्तं गणियं तेहिं पंचहि गोहिल्लपुरिसेहिं सर्द्धि उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुंजमाणी पासति २ इमेयारूचे संकप्पे समुप्पज्जित्था-अहो णं इमा इत्थिया पुरा पोराणार्ण कम्माणं जाव विहरह, तं जति णं केइ इमस्स सुचरियस्स तवनियमभचेरवासस्स कल्लाणे फलवित्तिविसेसे अस्थि तो गं अहमवि आगमिस्सेणं भवग्गहणेणं इमेयारूवाई उसलाई जाव विहरितामित्तिकट्ठनियाणं करेतिर आयावणभूमिओपचोरुहति (सूत्रं ११४)तते णं सा सूमालिया अजा सरीरबउसा जाया यावि होत्था, अभिक्खण र हत्थे धोवेड पाए धोवेह सीसं घोवेह मुहं धोबेड़ धणंतराई धोवेह कक्वंतराहं धोवेह गोजसंतराई घोवेह जत्थ णं ठाणं वा सेज वा निसीहियं वा चेए १६ अपरकङ्काज्ञाता. सुकु. मालिका निदानं सू. ११४ ईशाने उपपातः सू. ११५ ॥२०५॥ ~ 413~ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [११४-११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ब्रटल ति तस्यषि य णं पुषामेव उदएणं अन्भुक्खइत्ता ततो पच्छा ठाणं वा ३ चेएति, तते णं तातो गोयालियाओ अलाओ सूमालियं अर्ज एवं व०-एवं खलु देवा! अजे अम्हे समणीओ निग्गंधीओ ईरियासमियाओ जाव बंभचेरधारिणीओ, नो खलु कप्पति अम्हं सरीरबाउसियाए होत्तए, तुमं च णं अजे! सरीरबाउसिया अभिक्खणं २ हत्थे धोबसि जाव चेदेसि, तं तुम णं देवाणुप्पिए तस्स ठाणस्स आलोएहि जाव पडिवजाहि, तते णं समालिया गोवालियाणं अजाणं एयमद्वं नो आढाइ नो परिजाणति अणाढायमाणी अपरिजाणमाणी विहरति, तए णं ताओ अज्जाओ सूमालियं अजं अभिक्खणं २ अमिहीलंति जाव परिभवति, अभिक्खणं २ एयमद्वं निवारेंति, तते णं तीए सूमालियाए समणीहिं निग्गंधीहिं हीलिजमाणीए जाव वारिजमाणीए इमेयारूवे अब्भस्थिए जाव समुप्पज्जित्था, जया णं अहं अगारवासमझे वसामि तया णं अहं अप्पवसा, जया णं अहं मुंडे भवित्ता पवइया तया णं अहं परवसा, पुर्वि च णं मम समणीओ आढायंति २ इयाणि नो आदति २ तं सेयं खलु मम कल्लं पाउ० गोवालियाण अंतियाओ पडिनिक्खमित्ता पाडिएकं उबस्सगं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तएत्तिकट्ठ एवं संपेहेति २ कलं पा० गोवालियाणं अजाणं अंतियाओ पडिनिक्खमति २त्ता पाडिएक उवस्सगं उवसंपन्नित्ता णं विहरति, तते णं सा सूमालिया अज्जा अणोहहिया अनिवारिया सच्छंदमई अभिक्खकर हत्थे धोवेइ जाव चेएति तत्थविय णं पासस्था पासत्वविहारी ओसण्णा ओसण्णविहारी कुसीलार संसत्तार बहुणि वासाणि ecerseseseps ~414~ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [११४-११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥२०६॥ एकटकलsedecease सामण्णपरियागं पाउणति अद्धमासियाए संलेहणाए तस्स ठाणस्स अणालोइयअपडिता कालमासे १६ अपरकालं किच्चा ईसाणे कप्पे अण्णयरंसि विमाणसि देवगणियत्ताए उबवण्णा, तत्धेगतियाणं देवीणं नव कङ्काज्ञापलिओचमाई ठिती पण्णत्ता, तस्थ णं सूमालियाए देवीए नव पलिओवमाई ठिती पन्नत्ता (सूत्रं ११५) ता. सुकु'ललिय'त्ति क्रीडाप्रधाना 'गोहि'त्ति जनसमुदायविशेषः 'नरवइदिन्नपयाति नृपानुज्ञातकामचारा 'अम्मापिइनिय- मालिकागनिप्पिवास'त्ति मात्रादिनिरपेक्षा 'वेसविहारकयनिकेय'चि वेश्याविहारेषु-वेश्यामन्दिरेषु कृतो निकेतो-निवासो यया सानिदानं तथा, 'नाणाविहअविणयप्पहाणा' कण्ठ्यं 'पुष्फपूरयं रएइ'चि पुष्पशेखरं करोति, 'पाए रएई' पादावलक्तादिना सू.११४ रजयति, पाठान्तरे 'रावेइति घृतजलाभ्यामार्द्रयति, 'सरीरबाउसिय'ति बकुशः-शनलचरित्रः स च शरीरत उपकरण- ईशाने उतश्वेत्युक्तं शरीरवकुशा-तद्विभूषानुवर्तिनीति, 'ठाणं ति कायोत्सर्गस्थानं निपदनस्थानं वा 'शय्यां' वग्वर्त्तनं 'नषेधिकीपपातः । खाध्यायभूमि चेतयति-करोति, 'आलोएहि जावे'त्यत्र यावत्करणात् 'निन्दाहि गरिहाहि पडिकमाहि विउहाहि विसोहेहि सू. ११५ अकरणयाए अन्भुट्टेहि अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवजाहि'त्ति दृश्यमिति, तत्रालोचनं--गुरोनिवेदनं निन्दनपश्चात्तापो गर्हणं-गुरुसमक्षं निन्दनमेव प्रतिक्रमणं-मिथ्यादुष्कृतदानलक्षणं अकृत्याविवर्त्तनं वा वित्रोटनं-अनुबन्ध-15 च्छेदनं विशोधन-प्रतानां पुनर्नवीकरणं शेष कण्ठ्यमिति, 'पडिएकति पृथक्, 'अणोह हियति अविद्यमानोऽपघट्टको-IS२०६॥ यदृच्छया प्रवर्त्तमानायाः हस्तग्राहादिना निवत्तको यस्याः सा तथा, तथा नास्ति निवारको-मैवं कार्षीरित्येवं निषेधको यस्याः सा तथा। ~ 415~ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [११६-११९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: तेणं कालेणं २ इहेव जंबुद्दीवे भारहे वासे पंचालेसु जणवएसु कपिल्लपुरे नाम नगरे होत्था, वन्नओ, : तत्थ णं दुवए नाम राया होत्या, बन्नओ, तस्स णं चुलणी देवी धट्ठज्जुणे कुमारे जुवराया, तए णं सा सूमालिया देवी ताओ देवलोयाओ आउक्खएणं जाव चइत्ता इहेव जंबुद्दीवे २भारहे वासे पंचालेसु जणवएम कंपिल्लपुरे नयरे दुपयस्स रपणो चुलणीए देवीए कम्छिसि दारियत्ताए पञ्चायाया, तते णं सा चुलणी देवी नवहं. मासाणं जाव दारियं पयाया, तते णं तीसे दारियाए निबत्तवारसाहियाए इमं एया. रूवंक नाम० जम्हाणं एस दारिया दुवयस्स रण्णो धूया चुलणीए देवीए अत्तियातं होउ णं अम्हं इमीसे दारियाए नामधिजे दोबई,तएणं तीसे अम्मापियरो इमं एयारूवं गुण्णं गुणनिप्फन्नं नामधेज करिति दोवती, तते णं सा दोवई दारिया पंचधाइपरिग्गहिया जाच गिरिकंदरमल्लीण इव चंपगलया निवायनिवाघापंसि सुहंसुहेणं परिवढा । तते णं सा दोबई रायवरकन्ना उम्मुक्कबालभावा जाव उकिट्टसरीरा जाया यावि होत्या, तते णं तं दोवर्ति रायवरकन्नं अण्णया कयाई अंतेउरियाओ ण्हायं जाव विभूसिपं करेंति २. दुवयस्स रपणो पायवंदिङ पेसंति, तते णं सा दोवती राय. जेणेव दुवए राया तेणेव उवागच्छद २ दुवयस्स रण्णो पायग्गहणं करेति, तए णं से दुवए राया दोवर्ति दारियं अंके निवेसेद २ दोवईए रायवरकन्नाए रूवेण जोबणेण य लावण्णेण य जायबिम्हए दोबई रायवरकर्म एवं व०जस्स णं अहं पुत्ता ! रायस्स वा जुवरायस्स वा भारियत्ताए सयमेव दलइस्सामि तत्थ णं तुमं सुहिया, ~ 416~ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) श्रुतस्कन्धः [१] अध्ययनं [ १६ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्. ॥२०७॥ “ ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) Ja Education International दुखिया वा भविजासि, तते णं ममं जावजीवाए हिययडाहे भविस्सर, तं णं अहं तव पुत्ता ! अन्नया सयंवरं विरयामि, अज्जयाए णं तुमं दिवणं सयंवरा जेणं तुमं सयमेव रायं वा जुबरायं वा बरेहिसि सेणं, तब भत्तारे भविस्सइत्तिकट्टु ताहिं इट्ठाहिं जाव आसासेह २ पडिविसज्जेह । (सूत्रं ११६) तते णं से दुबए राया दूयं सहावेति २ एवं व०-गच्छह णं तुमं देवा० ! बारवई नगरिं तत्थणं तुमं कहं वसुदेवं समुदविजयपामोक्खे दस दसारे बलदेवपामुषखे पंच महावीरे उग्गसेणपामोक्त्रे सोलस रायसहस्से पज्जुण्णपामुक्खाओ अट्ठाओ कुमारकोडीओ संवपामोक्खाओ सद्वि दुदंतसाहसीओ वीरसेापामुक्खाओ इक्वीसं वीरपुरिससाहस्सीओ महसेणपामोक्खाओ छप्पन्नं बलवगसाहसीओ अने य बहवे राईसरतलवरमाडंबियकोडुंबियइन्भसिहिसेणावहसत्थवाहपभिइओ कलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावन्तं अंजलि मत्थए कट्टु जएणं विजएणं वजावेहि२ एवं वयाहि एवं खलु देवाणforant कंपिल्लपुरे नरे बस्स रण्णो घूयाए चुलणीए देवीए अत्तपाए धट्टज्जुणकुमारस्स भगिणीए दोवईए रायवरकण्णाए सयंवरे भविस्सइ तं णं तुम्भे देवा! दुवयं रार्य अणुगिरहेमाणा अकालपरिहीणं वेव कंपिल्लपुरे मयरे समोसरह, तए णं से दृए करयल जाब कट्टु दुवयस्स रण्णो एयम पडिसुर्णेति २ जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ २ कोबियपुरिसे सहावेह २ एवं व०-लिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! बाउri आसरहं जुत्तामेव उषट्टवेह जाय उबवेंति, सप णं से दूए पहले जाव अलंकार• सरीरे बाउट For Park Lise Only मूलं [११६-११९] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~ 417 ~ estnesত १६ अपरकङ्काज्ञाता. द्रौपद्याः स्वयंवराज्ञा सू. ११६ स्वयंवरे नृपागमः सू. ११७ ॥२०७॥ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [११६-११९] श्रुतस्कन्धः [१] अध्ययनं [ १६ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Ja Eucation intention आसरहं दुरुह २ बहूहिं पुरिसेहिं सन्नद्ध जाब गहियाऽऽउहपहरणेहिं सद्धिं संपरिवुडे कंषिलपुरं नगरं मज्झमज्झेणं निग्गच्छति, पंचालजणवपस्स मज्झमशेणं जेणेव देसप्पंते तेणेव उवागच्छ, सुरद्वाजणवयस्स मज्शंमज्झेणं जेणेव बारवती नगरी तेणेय उवागच्छ २ बारबई नगरिं मज्झमझेणं अणुपविसह २ जेणेव कण्हस्स वासुदेवस्स वाहिरिया उवद्वाणसाला तेणेव उवागच्छइ २ सा चाउरघंट आसरहं वेइ २ रहाओ पचोरुहति २ मणुस्सवग्गुरापरिक्खित्ते पायचारविहारचारेणं जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवा० २ कण्हं वासुदेवं समुहविजयपामुक्खे य दस दसारे जाव बलवगसाहसीओ करयल तं चैव जाव समोसरह । तते णं से कण्हे वासुदेवे तस्स दूयस्स अंतिए एयमहं सोचा निसम्म हट्ठ जाव हियए तं दूयं सकारेह सम्माणे २ पडिविसह । तए णं से कहे वासुदेवे कोडुंबियपुरिसं सहावे एवं व०- गच्छहणं तुमं देवाणुप्पिया ! सभाए सुहम्माए सामुदाइयं भेरिं तालेहि, तए णं से कोपुरिसे करयल जाव कण्हस्स वासुदेवस्स एयमहं पडिसुर्णेति २ जेणेव सभाए सुहम्माए सामुदाइया मेरी तेणेव उवागच्छ २ सामुदाइयं भेरिं महया २ सदेणं तालेइ, तए णं ताए सामुदाइयाए भेरीए तालियाए समाणीए समुहविजयपामोक्खा दस दसारा जाब महसेणपामुक्खाओ छप्पण्णं बलवगसाहसीओ व्हाया जाय विभूसिया जहा विभवइट्टिसकारसमुदएणं अप्पेगइया जाब पायविहारचारेणं जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छति २ करयल जाव कण्हं वासुदेवं जपणं विजएणं वद्वावेंति, For Parts Only ~418~ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [ १६ ], मूलं [११६-११९] श्रुतस्कन्धः [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्. ॥२०८॥ तणं से कहे वासुदेवे कोटुंबियपुरिसे सदावेति २ एवं व० खिप्पामेव भो! देवाणुपिया ! अभिसेकं हत्थरयणं पटिकप्पेह हयगय जाव पचप्पिणंति, तते णं से कण्हे वासुदेवे जेणेव मज्जणघरे तेव वाग ०२ समुत्तालाकुलाभिरामे जाव अंजणगिरिकूडसन्निभं गयवई नरवई दुरुडे, तते णं से कण्हे वासुदेवे समुह विजय पामुक्रखेहिं दसहिं दसारेहिं जाच अणंग सेणापामुक्रखेहिं अणेगाहिं गणियासाहस्सीहिं सि संपरिबुडे सविट्टीए जाव रवेण बारवइनयरिं मज्झमज्झेणं निग्गच्छ २ सुरद्वाजणवयस्स मज्झमजणं जेणेव देसप्पंते तेणेव उवागच्छइ २ पंचालजणवयस्स मज्झमज्झेणं जेणेव कंपिल्लपुरे नयरे तेणेव पहारेत्थगमणाए । तए णं से दुवए राया दोचं दूयं सदावेइ २ एवं व०- गच्छ णं तुमं देवाणुप्पिया! हत्थिणाउरं नगरं तत्थणं तुमं पंडुरायं सपुत्तयं जुहिद्विल्लं भीमसेणं अज्जुणं नउलं सहदेवं दुज्जोहणं भाइसयसमग्गं गंगेयं विदुरं दोणं जयदहं सजणीं कीचं आसत्थामं करयल जाब कट्टु तहेब समोसरह, तए णं से दूए एवं व०जहा वासुदेवे नवरं भेरी नत्थि जाव जेणेव कंपिल्लपुरे नयरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए २ । एएणेव कमेणं तच दूयं चंपायरिं तत्थ णं तुमं कण्हं अंगरायं सेल्लं नंदिरायं करयल तहेब जाव समोसरह । चस्थं दूयं सुत्तिमहं नयरिं तत्थ णं तुमं सिसुपालं दमघोससुयं पंचभाइसयसंपरिवुद्धं करपल तहेब जाव समोसरह | पंचमगं द्वयं हृत्थसीसनयरं तत्थ णं तुमं दमदंतं रामं करयल तहेब जाव समोसरह । छङ्कं दूयं महुरं नयरिं तत्थ णं तुमं घरं रायं करयल जाव समोसरह । सत्तमं दूपं रायगिहं नगरं तत्थ णं तुमं सह Education International For Pass Use Only ~419~ ಎಂದ १६ अपर कङ्काज्ञा ता. स्वयंवरे नृपागमः सू. ११७ ॥२०८॥ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [११६-११९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: देवं जरासिंधुसुयं करयल जाव समोसरह । अट्टमं दूयं कोडिण्णं नयरं तत्थ णं तुम रूपि भेसगसुयं करयल तहेव जाव समोसरह । नवमं यं विराडनयरं तत्थ णं तुमं कियगं भाउसयसमग्गं करयल जाय समोसरह । दसमं दूर्य अवसेसेसुथ गामागरनगरेसु अणेगाई रायसहस्साई जाव समोसरह, तएणं से दूए. तहेव निग्गच्छइ जेणेव गामागर जाव समोसरह । तएणंताई अणेगाई रायसहस्साई तस्स यस्स अंतिए एयमढे सोचा निसम्म हहतंदूयं सकारति२ सम्माणतिरपडिविसर्जिति, तए णं ते वासुदेवपामुक्खा बहवे रायसहस्सा पत्तेयंर ण्हाया सन्नद्धहत्थिखंधवरगया हयगयरहरूमहया भडचडगररहपहकर०सएहि २ नगरेहितो अभिनिग्गच्छति २ जेणेव पंचालेजणवए तेणेव पहारेत्थ गमणाए।(सूत्रं ११७)तए णं से दुवए राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ २ एवं व०-गच्छह णं तुमं देवाणु० ! कंपिल्लपुरे नयरे बहिया गंगाए महानदीए अदूरसामंते एगं महं सयंवरमंडवं करेह अणेगखंभसयसन्निविट्ठ लीलद्वियसालभंजिआगं जाव पञ्चप्पिणति, तए णं से दुवए राया को९वियपुरिसे सद्दावेइ २ एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! वासुदेवपामुक्खाणं बहूणं रायसहस्साणं आवासे करेह तेवि करेत्ता पञ्चप्पिणंति, तए णं दुवए चासुदेवपामुक्खाणं बहूर्ण रायसहस्साणं आगमं जाणेत्ता पत्तेयं २ हत्थिखंधजावपरिबुडे अग्धं च पजं च गहाय सपिडिए कंपिल्लपुराओ निग्गच्छइ २ जेणेव ते वासुदेवपामुक्खा बहवे रायसहस्सा तेणेव उवागच्छह २ताई वासुदेवपामुक्खाई अग्घेण य पजेण य सकारेति सम्माणेइ २ तेसि वासुदेव ~420~ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [११६-११९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्. ॥२०९॥ १६ अपरकाज्ञा ता. स्वयं हवरमण्डपः सू. ११८ जिनपूजा | सू. ११९ पामुक्खाणं पत्तेयं २ आवासे वियरति, तए णं ते वासुदेवपामोक्खा जेणेव सया २ आवासा तेणेव उवा० २ हथिखंधाहितो पचोरुहंति २ पत्तेयं खंधावारनिवेसं करेंति २ सए२ आवासे अणुपविसंति २ सएसुरआवासेसु आसणेमु य सयणेसु य सन्निसमा य संतुयहा य बहहिं गंधवेहि य नाडएहि य उवगिजमाणा य उवणचिजमाणाय विहरंति,तते णं से दुवए राया कंपिल्लपुरं नगरं अणुपविसतिरविउलं असण ४ उवक्खडावेइ २ को९वियपुरिसे सहावेइ २ एवं व०-गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! विउलं असणं ४ सुरं च मजं च मंसं च सीधुं च पसण्णं च सुबहुपुष्फवत्वगंधमल्लालंकारं च वासुदेवपामोक्खाणं रायसहस्साणं आवासेसु साहरह, तेवि साहरंति, तते णं ते वासुदेवपामुक्खा तं विपुलं असणं ४ जाव पसन्नं च आसाएमाणा ४ विहरंति, जिमियभुत्तुत्तरागधाविय णं समाणा आयंता जाव सुहासणवरगया बहहिं गंधवेहिं जाब विहरंति, तते णं से दुवए राया पुवावरण्हकालसमपंसि कोटुंबियपुरिसे सहावेह २त्ता एवं प०-गच्छह णं तुमे देवाणुप्पिया ! कंपिल्लपुरे संघाडग जाव पहे वासुदेवपामुक्खाण प रायसहस्साणं आवासेसु हथिखंधवरगया महया २ सद्देणं जाव उग्घोसेमाणार एवं वदह-एवं खल. देवाणु कल्लं पाउ• दुवयस्स रपणो धूयाए बुलणीए देवीए अत्तयाए घटाजुण्णस्स भगिणीए दोवईए रायवरकपणाए सयंवरें भविस्संह, ते तुम्भे णं देवा! दुवयं रायाणं अणुगिण्हेमाणा व्हाया जाब विभूसिया हस्थिखंधवरगया सकोरंट० सेयवरचामर हयगयरह महया भडचरगरेणं जाव परिक्खित्ता ॥२०९|| ~421~ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [११६-११९] श्रुतस्कन्धः [१] अध्ययनं [ १६ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः can Internation जेणेव सयंवरामंडवे तेणेव उवा० २ पत्तेयं नामकेसु आसणेसु निसीयह २ दोवई रायकण्णं पडिवालेमाणा २ चिट्ठ, घोसणं घोसे २मम एयमाणत्तियं पञ्चप्पियह, तए णं ते कोटुंबिया तहेव जाव पचप्पि ति, तए से दुव राया कोहुंबियपुरिसे सदा० २ एवं व० गच्छह णं तुग्भे देवाणु० 1 सयंवरमंडपं आसियसंमजिओवलितं सुगंधवरगंधियं पंचवण्णपुष्कपुंजोवयारकलियं कालागरुपवर कुंदुरुक्कतुरुजाव गंधचभूयं मंचाइमंचकलियं करेह २ वासुदेवपामुक्खाणं बहूणं रायसहस्साणं पत्तेयं २ नामंकाई आसणाई अत्थुपचत्थुयाई रएह २ एयमाणत्तियं पचप्पिणह, तेवि जाव पञ्चप्पिणंति, तते णं ते वासुदेवपामुक्खा बहवे रायसहस्सा कलं पाउ० व्हाया जाव विभूसिया हस्थिखंधवरगया सकोरंट० सेवरचामराहिं हयगय जान परिवुडा सविट्टीए जाव रवेणं जेणेव सयंवरे तेणेव उवा० २ अणुपविसंत २ पत्तेयं २ नामंकेसु निसीयंति दोवई रायवरकण्णं पडिवालेमाणा चिट्ठंति, तए णं से पंडुए राया कल्ले पहाए जाय विभूसिए हत्थिबंधवरगए सकोरंट० हयगय० कंपिल्लपुरं मज्मज्झेणं निरगच्छंति जेणेव सयंवरा मंडवे जेणेव वासुदेवपामुक्खा बहवे रायसहस्सा तेणेव उवा० २ तेसिं वासुदेवपामुक्खाणं करयल० वद्धावेत्ता कण्ट्स्स वासुदेवस्स सेपवरचामरं गहाथ उववीयमाणे चिट्ठति (सूत्रं ११८) तणं सा दोवई रायवरकन्ना जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ २ पहाया कपबलिकम्मा कपकोडमंगलपायच्छा सुष्पावेसाई मंगल्लाई बस्थाई पवर परिहिया मज्जणघराओ पडिनिक्खमह२ जेणेव For Parts Only ~ 422 ~ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [११६-११९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म कधाङ्गम्. ॥२१॥ जिणघरे तेणेव उवागच्छह २ जिणघरं अणुपविसइ २ जिणपडिमाणं आलोए पणामं करेइ २ लोमहत्वयं १६ अपरपरामुसइ एवं जहा सूरियाभो जिणपडिमाओ अञ्चेइ २ तहेव भाणियचं जाव घूर्व डहइ २ वामं जाणुं कङ्काज्ञा ता.स्वयंअश्चेति दाहिणं जाणुं धरणियलंसि णिवेसेतिर तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणियलं सि नमेइ२ ईसि पचुपणमति वरमण्डपः करयल जाय कह एवं बयासी-नमोऽत्थु णं अरिहंताणं भगवंताणं जाव संपत्ताणं बंदा नमसह २ सू. ११८ जिणघराओ पडिनिक्खमति २ जेणेव अंतेउरे तेणेव उवागच्छह (सूत्रं ११९) जिनपूजा 'अजयाए'त्ति अद्यप्रभृति, 'अग्धं च त्ति अर्घ पुष्पादीनि पूजाद्रव्याणि, 'पजं च'त्ति पादहितं पाद्यं-पादप्रक्षालनस्नेइनो | सू.११९ द्वर्तनादि, मद्यसीधुप्रसन्नाख्याः सुराभेदा एव, 'जिणपडिमाणं अचणं करेइ'चि एकस्यां वाचनायामेतावदेव दृश्यते, वाचनान्तरे तु बहाया जाव सव्वालंकारविभूसिया मजणघराओ पडिनिक्खमह २ जेणामेव जिणघरे तेगामेव उवागच्छति २ जिणधरं अणुपविसह २ जिणपडिमाणं आलोए पणाम करेइ २ लोमहत्थयं परामुसइ २ एवं जहा मरियाभो जिण-19 |पडिमाओ अञ्चेति तहेव भाणियत्वं जाव धूर्व डहइति इह यात्रकरणात अर्थत इदं दृश्य-लोमहस्तकेन जिनप्रतिमाः प्रमार्टि सुरभिणा गन्धोदकेन नपयति गोशीर्षचन्दनेनानुलिम्पति वखाणि निवासयति, ततः पुष्पाणां माल्यानां-प्रथितानामित्यर्थः ॥२१०॥ गन्धानां चूर्णानां वस्त्राणामाभरणानां चारोपणं करोति स, मालाकलापावलम्बनं पुष्पप्रकरं तन्दुलैदर्पणाबष्टमङ्गलालेखनं च करोति, 'वामं जाणुं अश्चेइति उत्क्षिपतीत्यर्थः, दाहिणं जाणुं धरणीतलंसि निहटु-निहत्य स्थापयिलेत्यर्थः, 'तिक्खुत्तो ~ 423~ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [११६-११९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: मुद्धाण धरणीतलंसि निवेसेइ-निवेशयतीत्यर्थः, 'ईसिं पच्चुन्नमति २ करतलपरिग्गहियं अंजलिं मत्थए कटु एवं वयासी-नमोत्थु णं अरहताणं जाच संपत्ताणं वंदति नमसति २ जिणघराओ पडिनिक्खमह'त्ति तत्र वन्दते चैत्यवन्दनविधिना प्रसिद्धेन नमस्पति पश्चात् प्रणिधानादियोगेनेति वृद्धाः, न च द्रौपद्याः प्रणिपातदण्डकमात्रं चैत्यवन्दनमभिहितं सूत्रे इति सूत्रमात्रप्रामाण्यादन्यस्यापि श्रावकादेस्तावदेव तदिति मन्तव्यं, चरितानुवादरूपवादस्य, न च चरितानुयादवचनानि विधिनिषेधसाधकानि भवन्ति, अन्यथा सरिकामादिदेववक्तव्यतायां बहूनां शस्त्रादिवस्तूनामर्चनं श्रूयते इति तदपि विधेयं स्यात् , किञ्च-अविरतानां प्रणिपातदण्डकमात्रमपि चैत्यवन्दनं सम्भाव्यते, यतो वन्दते नमस्यतीति पदद्वयस्य | वृद्धान्तरण्याख्यानमेवमुपदर्शितं जीवाभिगमवृत्तिकृता-"विरतिमतामेव प्रसिद्धचैत्यबन्दनविधिर्भवति, अन्येषां तथाऽभ्युप-16 गमपुरस्सरकायोत्सर्गासिद्धेः, ततो. वन्दते सामान्येन नमस्करोति आशयवृद्धः प्रीत्युत्थानरूपनमस्कारेणे"ति किञ्च-समगण सावएण य अवस्स कायवयं हवइ जम्हा। अंतो अहो नि सिस्स य तम्हा आवस्सयं नाम ॥१॥" तथा "जपणं समणो वा समणी वा सावओ वा साविया वा तचित्ते तल्लेसे तम्मणे उभओ कालं आवस्सए चिट्ठति तन्नं लोउत्तरिए भावावस्सए" [श्रमणेन श्रावकेण चावश्यं कर्तव्यं भवति यस्मात् । अन्तरहो निशायाश्च तसादावश्यकं नाम ॥१॥ यत् श्रमणो वा श्रमणी | वा श्रावको वा प्राधिका वा तश्चित्तः तन्मनाः तल्लेश्यः उभयसिन् काले आवश्यकाय तिष्ठति तत् लोकोत्तरिक भावावश्यकं ] इत्यादेरनुयोगद्वारवचनात् , तथा 'सम्यग्दर्शनसम्पन्नः प्रवचनभक्तिमान् पविधावश्यकनिरतः पदस्थानयुक्तच श्रावको भवती'त्युमास्वातिवाचकवचनाच श्रावकस पबिधावश्यकस्य सिद्धावावश्यकान्तर्गत प्रसिद्ध चैत्यवन्दनं सिद्धमेव भवतीति ।। ~424~ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१२०-१२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. १६ अमरकङ्काज्ञा. पश्चपाण्डववरणं सू. ॥२११॥ १२० तते णं तं दोवई रायवरकन्नं अंतेउरियाओ सवालंकारविभूसियं करेंति किं ते ? बरपायपत्तणेउरा जाव चेडियाचकवालमयहरगविंदपरिक्खित्ता अंतेउराओ पडिणिक्खमति २ जेणेव बाहिरिया उबट्ठाणसाला जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवा०२ किड्डावियाए लेहियाए सद्धिं चाउग्घंटं आसरहं दुरूहति, तते णं से घट्ठज्जुणे कुमारे दोवतीए कण्णाए सारत्धं करेति, तते णं सा दोवती रायवरकपणा कंपिल्लपुरं नयरं मझमज्झेणं जेणेव सयंवरमंडवे तेणेव उवा०२ रहं ठवेति रहाओ पचोरुहति २ किड्डावियाए लेहियाए यसद्धिं सयंवर मंडपं अणुपविसति करयल तेसिं वासुदेवपामुक्खाणं पहणं रायवरसहस्साणं पणामं करेति, तते णं सा दोवती रायवर० एगं मह सिरिदामगंड किंते? पाडलमल्लियचंपय जाव सत्तच्छयाईहिं गंधद्धणि मुयंतं परमसुहफासं दरिसणिज्जं गिण्हति, तते णं सा किद्वाविया जाव सुरूवा जाव वामहत्येणं चिल्ललगदप्पणं गहेऊण सललियं दप्पणसंकंतर्विचं संदसिए य से दाहिणणं हस्धेणं दरिसिए पवररायसीहे फुडविसयविसुद्धरिभियगंभीरमहुरभणिया सा तेर्सि सधेर्सि पत्थिवाणं अम्मापिऊण वंससत्तसामत्थगोतविकतिकतिबहुविहआगममाहप्परूवजोवणगुणलावण्णकुलसीलजाणिया कित्तणं करेइ, पढमं ताव वहिपुंगवाणं दसदसारचीरपुरिसाणं तेलोकवलवगाणं सत्तुसयसहस्समाणावमहगाणं भवसिद्धिपवरपुंडरीयाणं चिल्ललगाणं बलवीरियरूवजोवणगुणलावन्नकित्तिया कित्तणं करेति, ततो पुणो उग्गसेणमाईणं जायवाणं, भणति य-सोहग्गरूवकलिए वरेहि वरपुरिस ॥२१॥ ~425~ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [ १६ ], मूलं [१२०-१२४] श्रुतस्कन्धः [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Education Interation गंधहीणं । जो ते होइ हिययदइओ, तले णं सा दोवई रायवरकन्नगा बहुणं रायवरसहस्साणं मज्मणं समतिच्छमाणी २ पुडकयणियाणेणं चोइजमाणी २ जेणेव पंच पंडवा तेणेव उवा० २ ते पंचपंडवे तेणं दसवणेणं कुसुमदाणेणं आवेदियपरिवेढियं करेति २त्ता एवं वयासी एए णं मए पंच पंडवा वरिया, तते णं तेसिं वासुदेवपामोक्खाणं बहूणि रायसहस्साणि महया २सद्देणं उग्घोसेमाणा २ एवं वयंति-सुवरियं खलु भो ! दोवइए रायवरकन्नाए २त्तिकट्टु सयंवरमंडवाओ पडिमिं २. जेणेव सया २ आवासा तेणेव उवा०, तते णं धनुण्णे कुमारे पंच पंडवे दोवतिं रायवरकण्णं चाउ आसरहं दुरूहति २त्ता कंपिल्लपुरं मज्झमज्झेणं जाव सयं भवणं अणुपविसति, तते णं दुबए राया पंच पंडवे दोबई रायवरकण्णं पहयं दुरुहेति२ सेयापीएहिं कलसेहिं मज्जावेति २ अग्गिहोमं कारवेति पंच पंडवाणं दोवतीए य पाणिग्ग्रहणं करावे, तते णं से दुवए राया दोवतीए रायवरकण्णयाए इमं एयावं पीतिदाणं दलपती, तंजहा अट्ट हिरण्णकोडीओ जाव अट्ठ पेसणकारीओ दासचेडीओ, अण्णं च विपुलं धणकणग जाव दलपति तते णं से दुवए राया लाई वासुदेवपामोक्खाई विपुलेणं असण ४ त्यगंध जाव पडिविसजेति (सूत्रं १२० ) तते गं से पंडू राया तेसिं वासुदेवपामोक्खाणं बहू रा० करयल एवं व० एवं खलु देवा० । हत्थिणाउरे नयरे पंच पंडवाणं दोवतीए य देवीए कल्लाणकरे भविस्सति तं तुम्भे णं देवा० ! ममं अणुगिण्हमाणा अकालपरिहीणं समोसरह, तते णं For Parts Only ~426~ ra Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१२०-१२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म कधाङ्गम्. १६ अमरकाज्ञाता. कल्याणकारः सू. ॥२१२॥ १२१ वासुदेवपामोक्खा पत्तेघर जाव पहारेत्थ गमणाए । तते णं से पंडुराया कोटुंबियपुरिसे सहा० २ एवं व०-गच्छह णं तुम्भे देवा! हथिणाउरे पंचण्हं पंडवाणं पंच पासायवडिंसए कारेह अभुग्गयमूसिय वण्णओ जाव पडिरूवे, तते णं ते को९वियपुरिसा पडिसुणेति जाव करावेंति, तते णं से पंडुए पंचहिं पंडवेहिं दोवईए देवीए सद्धिं हयगयसंपरिचुडे कंपिल्लपुराओ पडिनिक्खमह२ जेणेव हस्थिणाउरे तेणेव उवागए, तते णं से पंडुराया तेसिं वासुदेवपामोक्खाणं आगमणं जाणित्ता कोटुंबि० सदावेइ २ एवं ब०-गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया! हस्थिणाउरस्स नयरस्स बहिया वासुदेवपामोक्खाणं बहूर्ण रायसहस्साणं आवासे कारेह अणेगखंभसय तहेव जाव पचप्पिणंति, तते णं ते वासुदेवपामोक्खा पहवे रायसहस्सा जेणेव हस्थिणाउरे तेणेव उवागच्छन्ति, तते णं से पंडराया तेर्सि वासुदेवपामोक्खाणं आगमण जाणित्ता हहतुढे पहाए कयवलि. जहा दुपए जाव जहारिहं आचासे दलयति, तते णं ते वासुदेवपा० बहवे रायसहस्सा जेणेव सयाई २ आवासाई तेणेव उवा तहेव जाव विहरंति, तते णं से पंडराया हस्थिणारं णयरं अणुपविसति २ कोडुंबिय० सद्दावेति २ एवं व०-तुम्भेणं देवा ! विउलं असण ४ तहेव जाव उवणेति, तते णं ते वासुदेवपामोक्खा बहवे राया पहाया कयवलिकम्मा तं विपुलं असणं ४ तहेव जाब विहरंति, तते णं से पंडराया पंच पंडवे दोवतिं च देविं पट्टयं दुरूहेति २ सीयापीएहिं कलसेहिं पहावेंति २ कल्लाणकारं करेति २ ते वासुदेवपामोक्खे बहवे रायसहस्से विपुलेणं ॥२२॥ ~427~ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१२०-१२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: असण ४ पुप्फवस्थेणं सकारेति सम्माणेति जाव पडिविसज्जेति, तते णं ताई वासुदेवपामोक्खाई बहुहिं जाव पडिगयाति(सूत्रं१२१) तते ण ते पंच पंडवा दोवतीए देवीए सद्धिं अंतो अंतेउरपरियाल सर्द्धि कलाकर्तिवारंवारेणं ओरालाति भोगभोगाई जाव विहरति, तते णं से पंह राया अन्नया कयाई पंचहि पंडवेहिं कोंतीए देवीए दोवतीए देवीए यसद्धिं अंतो अंतेउरपरियाल सद्धिं संपरिखुडे सीहासणवरगते यावि विहरति, इमं चणं कच्छल्लणारए दंसणेणं अइभदए विणीए अंतो २ य कस्लुसहियए मज्झत्थोवस्थिए य अल्लीणसोमपियदंसणे सुरूवे अमइलसगलपरिहिए कालमियचम्मउत्तरासंगरइयवत्थे दण्डकमण्डलुहत्थे जडामउडदित्तसिरए जन्नोवइयगणेत्तियमुंजमहलबागलधरे हत्थकयकच्छभीए पियगंधवे धरणिगोयरप्पहाणे संवरणावरणओवयणउप्पयणिलेसणीसु य संकामणिअभिओगपण्णत्तिगमणीथंभणीसुय बहुसु विजाहरीसु विजासु विस्सुयजसे इहे रामस्स य केसवस्स य पज्जुन्नपईवसंबअनिरुद्धणिसहउम्मुयसारणगयसुमुहदुम्मुहातीण जायवाणं अट्ठाण कुमारकोडीणं हिययदइए संथवए कलहजुद्धको. लाहलप्पिए भंडणामिलासी यहुसु य समरसयसंपराएसुदंसणरए समंतओ कलहसदक्खिणं अणुगवेसमाणे असमाहिकरे दसारवरवीरपुरिसतिलोकबलवगाणं आमंतेऊण तं भगवती एकमणि गगणगमणदफई उप्पइओ गगणमभिलंघयंतो गामागरनगरखेडकब्बडमडंबदोणमुहपदणसंवाहसहस्समंडियं थिमियमेइणीतलं वसुहं ओलोईतो रम्मं हथिणारं उवागए पंडुरायभवणंसि अइवेगेण समो. ~428~ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१२०-१२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म-19 कथाका. 101 १६अमरकाज्ञा नारदस्यानादरःसू. १२२ ॥२१३॥ वइए, तते णं से पंडुराया ककछुल्लनारयं एजमाणं पासति २ पंचहिं पंडवेहि कुंतीए य देवीए सद्धिं आसणातो अब्भुट्टेति २ कच्छुल्लनारयं सत्तदृपयाई पञ्चुग्गच्छइ२ तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेति २ वंदति णमंसति महरिहेणं आसणेणं उवणिमंतेति, तते णं से कच्छुल्लनारए उदगपरिफोसियाए दभो. वरिपञ्चत्युयाए भिसियाए णिसीयति २ पंडरायं रजे जाव अंतउरे य कुसलोदंतं पुच्छइ, तते णं से पंडराया कोंतीदेवी पंच य पंडवा कच्छुल्लणारयं आढ़ति जाच पज्जुवासंति, तए णं सा दोबई कच्छुल्लनारयं अस्संजयं अविरयं अपडिहयपञ्चक्खायपावकम्मंतिकड नो आढाति नो परियाणइ नो अन्भुट्टेति नो पज्जुवासति ( सूत्रं १२२) तते णं तस्स कच्छुल्लणारयस्स इमेयारूवे अम्भत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था अहो णं दोवती देवी रूवेणं जाव लावण्णेण य पंचहिं पंडवेहिं अणुबहा समाणी ममं णो आदाति जाव नो पज्जुवासह तं सेयं खलु मम दोवतीए देवीए विप्पियं करिशएत्तिकट्ठ एवं संपेहेति २ पंडुयरायं आपुच्छह २ उप्पयर्णि विजं आवाहेति २ ताए उफिट्टाए जाच विजाहरगईए लवणसमुई मज्झमझेणं पुरस्थाभिमुहे वीइवतिउं पयत्ते यावि होत्था । तेणं कालेणं तेणं समएणं धायइसंडे दीवे पुरथिमद्धदाहिणड्डभरहवासे अवरकंका णाम रापहाणी होत्था, तते णं अमरकंकाए रायहाणीए पउमणाभे णाम राया होत्या महया हिमवंत० वण्णओ, तस्स णं पउमनाभस्स रनो सत्त देवीसयाति ओरोहे होत्या, तस्स ॥२१॥ seoccerseas ~429~ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१२०-१२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: णं पउमनाभस्स रण्णो सुनाभे नाम पुत्ते जुवरायायावि होत्या, तते गं से पउमणाभे राया अंतो अंतेउरंसि ओरोहसंपरिखुढे सिंहासणवरगए विहरति, तए णं से कच्छुल्लणारए जेणेच अमरकंका रायहाणी जेणेच पउमनाहस्स भवणे तेणेव उवागच्छति २ पउमनाभस्स रन्नो भवणंसि झत्ति बेगेणं समोवइए, तते णं से पउमनाभे राया कच्छुल्लं नारयं एजमाणं पासति २ आसगातो अम्भुटेति २ अग्घेणं जाव आसणेणं उवणिमंतेति, तए णं से कच्छुल्लनारए उदयपरिफोसियाए दम्भोवरिपत्थुयाते भिसियाए निसीयइ जाव कुसलोदंतं आपुच्छइ, तते णं से पउमनाभे राया णियगओरोहे जायविम्हए कच्छुल्लणारयं एवं २०-तुभं देवाणुप्पिया! बहणि गामाणि जाव गेहाति अणुपविससि, तं अस्थि याई ते कहिंचि देवाणुप्पिया! एरिसए ओरोहे दिपुवे जारिसए णं मम ओरोहे ?, ततेणं से कच्छुल्लनारए पउमनाभेणं रन्ना एवं वुत्ते समाणे ईसिं विहसियं करेइर एवं व-सरिसे णं तुमं पउमणामा! तस्स अगडद(रस्स, के णं देवाणुप्पिया! से अगडदहुरे ?, एवं जहा मल्लिणाए एवं खलु देवा! जंबूद्दीवे २ भारहे वासे हस्थिणाउरे दुपयस्स रणो धूया चूलणीए देवीए अत्तया पंडस्स सुण्हा पंचण्हं पंडवाणं भारिया दोवती देवी स्वेण य जाव उकिट्ठसरीरा दोवईए ण देवीए छिन्नस्सवि पायंगुट्ठयस्स अयं तव ओरोहे सतिमपि कलं ण अग्धतित्तिकठ, पउमणाभं आपुच्छति २ जाव पडिगए २, तते णं से पउमनाभे राया कच्छुल्लनारयस्स अंतिए एयमढे सोचा णिसम्म दोवतीए ecesesese ~430~ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) श्रुतस्कन्धः [१] अध्ययनं [ १६ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥२१४॥ “ ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) Eucation International - देवीए रूबे प ३ मुच्छिए ४ दोवईए अज्झोववन्ने जेणेव पोसहसाला तेणेव उव० २ पोसहसा जाब पुवसंगतियं देवं एवं व० - एवं खलु देवा० ! जंबुद्दीवे २ भारहे वासे हथिणाउरे जाब सरीरा तं इच्छादेवा! दोवतीं देवीं इहमाणियं, तते णं पुवसंगतिए देवे परमनाभं एवं व० - नो खलु देवा० ! एवं भूयं वा भवं वा भविस्सं वा जपणं दोवती देवी पंच पंडवे मोतृण अन्नणं पुरिसेणं सद्धिं ओरालातिं जाव विहरिस्सति, तहाविय णं अहं तव पियतयाए दोवती देविं इहं हवमाणेमित्तिक मणाभं आपुच्छर २ ताए उकिट्ठाए जाब लवणसमुदं मज्झमज्झेणं जेणेव हत्थणाउरे जयरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए । तेणं कालेणं २ हत्थिणाउरे जुहिद्विल्ले राया दोवतीए सद्धि उपिं आगासतलसि सुहृपसुते यावि होत्था, तरणं से पुवसंगतिए देवे जेणेव जुहिट्ठिल्ले राया जेणेव दोवती देवी तेणेव उवाग० २ दोवती देवीए ओसोवणियं दलपइ र दोवति देविं गिव्हइताए उक्किद्वाए जाव जेणेव अमरकंका जेणेव पउमणाभस्स भवणे तेणेव उवा० २ पउमणाभस्स भवणंसि असोगवणियाए दोबतिं देवीं ठावेश २ ओसोवणि अवहरति २ जेणेव पउमणाभे तेणेव उ० २ एवं व०-एस णं देवा ! मए हत्थिणाराओ दोवती इह ह्वमाणीया तब असोगणियाए चिट्ठति, अतो परं तुमं जाणसित्तिकट्टु जामेव दिसिं पाउएतामेव दिसिं पडिगए । तते णं सा दोबई देवी ततो मुहतरस्स पडिबुद्धा समाणी तं भवणं असोगवणियं च अपचभिजाणमाणी एवं व०-नो खलु अम्हं एसे सए भवणे णो खलु एसा अम्हं सगा . For Pay Lise On मूलं [१२०-१२४] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~ 431~ १६ अमर कङ्काज्ञा० धातकीभरतेऽपहा र: सू.१२३ ॥ २१४॥ war Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१२०-१२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: e perseceicer असोगवणिया, तं ण णजति णं अहं केणई देवेण वा दाणवेण वा किंपुरिसेण वा किन्नरेण वा महोरगेण वा गंधवेण वा अन्नस्स रण्णो असोगवणियं साहरियत्तिका ओहयमणसंकप्पा जाव झियायति, तते णं से पउमणाभे राया पहाए जाव सबालंकारभूसिए अंतेउरपरियालसंपरिबुडे जेणेव असोगवणिया जेणेव दोवती देवी तेणेव उवा०२दोवती देवी ओहय. जाव झियायमाणीं पासति २ सा एवं व०-किणं तुम देवा०1 ओहय जाच झियाहि !, एवं खलु तुम देवा! मम पुवसंगतिएणं देवेणं जंबुद्दीवाओ २ भारहाओ वासाओ हथिणापुराओ नयराओ जुहिडिल्लस्स रपणो भवणाओ साहरिया तं मा णं तुमं देवा! ओहय जाव झियाहि, तुमं मए सद्धिं विपुलाई भोगभोगाई जाव विहराहि, तते णं सा दोवती देवी पउमणाभं एवं व०-एवं खलु देवा! जंबुद्दीवे२ भारहे वासेबारवतिए णयरीए कण्हे णामं वासुदेवे ममप्पियभाउए परिवसति, तं जति णं से छह मासाणं ममं कूवं नो हवमागच्छा तते णं अहं देवा! जे तुमं वदसि तस्स आणाओवायवयणणिद्देसे चिहिस्सामि, तते णं से पउमे दोवतीए एयमहूँ पडिमुणेत्तार दोवतिं देविं कण्णंतेउरे ठवेति, तते णं सा दोवती देवी छटुंछटेणं अनिक्खित्तेणं आयंबिलपरिग्गहिएणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणी विहरति (सूत्रं१२३) ततेणं से जुहुढिल्ले राया तओ मुहुर्ततरस्स पडिबुद्धे समाणे दोवर्ति देविं पासे अपासमाणो सयणिज्जाओ उद्वेइ २त्ता दोवतीए देवीए सबओ समंता मग्गणगवेसणं करेह २त्ता दोवतीए देवीए कत्थई सुई वा खुई चा पवर्ति वा अल de ~ 432~ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१२०-१२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म कथाइम्. ॥२१५॥ १६अमरकङ्काज्ञा० द्रौपदीगवेषणप्रत्यानयनं सू. १२४ भमाणे जेणेव पंडुराया तेणेव उवा०२ ता पंडराय एवं व०-एवं खलु ताओ! ममं आगासतलगंसि पमुत्तस्स पासातो दोवती देवी ण णजति केणइ देवेण वा दाणवेण वा किन्नरेण वा महोरगेण वा गंधवेण वा हिया वा णीया वा अवक्वित्ता वा?, इच्छामि णं ताओ दोवतीए देवीए सवतो समंता मग्गणगवसणं कयं, तते णं से पंडराया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेद २ एवं व०-गच्छह णं तुब्भे देवा! हत्थिणाउरे नयरे सिंघाडगतियचउक्कचच्चरमहापहपहेसु महया २ सद्देणं उग्घोसेमाणा २ एवं व०-एवं खलु देवा०! जुहिडिल्लस्स रपणो आगासतलगंसि सुहपसुत्तस्स पासातो दोवती देवी ण णज्जति केणइ देवेण वा दाणवेण वा किंपुरिसेण वा किन्नरेण वा महोरगेण वा गंधवेण वा हिया वा नीया वा अवक्खित्ता वा, तं जो णं देवाणुप्पिया! दोवतीए देवीए मुर्ति वा जाव पवितिं वा परिकहेति तस्स पं पंडराया विउलं अत्थसंपयाणं दाणं दलयतित्तिक घोसणं घोसावेह २ एयमाणत्तियं पचप्पिणह, तते णं ते कोटुंबियपुरिसा जाव पचप्पिणंति, तते णं से पंडू राया दोवतीए देवीए कत्थति सुई वा जाव अलभमाणे कोती देवीं सदावेति २ एवं वनाच्छह णं तुम देवाणु! बारवर्ति णयरिं कण्हस्स वासुदेवस्स एयमझु णिवेदेहि, कण्हे णं परं वासुदेवे दोवतीए मग्गणगवेसणं करेजा, अन्नहा न नजद दोवतीए देवीए सुती वा खुती वा पवत्ती वा उवल भेजा, तते णं सा कोंती देवी पंडुरण्णा एवं चुत्ता समाणी जाव पडिसुणेइ २ण्हाया कयबलिकम्मा हथिखंधवरगया हथिणाउरं मझमझेणं णिग्गच्छइ२ कुरु ॥२१ ॥ ~ 433~ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१२०-१२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: aeriendrased00000readragnoree जणवयं मझमझेणं जेणेव सुरहजणवए जेणेव वारवती णयरी जेणेव अग्गुजाणे तेणेव उवा०२हत्थिखधाओ पचोकहति २ कोटुंबियपुरिसे सद्दा०२ एवं व०-गच्छह णं तुम्भे देवा! जेणेव पारचई णयरिं बारवति णयरिं अणुपविसह २ कण्हं वासुदेवं करयल एवं वयह-एवं खलु सामी ! तुम्भं पिउच्छा कोंती देवी हथिणाउराओ नयराओ इह हबमागया तुम्भं दंसणं कंखति, तते णं ते कोटुंथियपुरिसा जाव कहेंति, तते णं कण्हे वासुदेवे कोडुंबियपुरिसाणं अंतिए सोचा णिसम्म हस्थिखंधवरगए हयगय बारवतीए य मज्झमज्झेणं जेणेव कोंती देवी तेणेव उ० २ हत्धिखंधातो पचोरुहति २कोंतीए देवीए पायग्गहणं करेति २ कोतीए देवीए सद्धि हत्थिखधं दुरूहति २ बारवतीए गयरीए मज्झमज्झेणं जेणेव सए गिहे तेणेव उवा० २ सयं गिहं अणुपविसति । तते णं से कण्हे वासुदेवे कोंती देविं पहायं कयवलिकम्म जिमियभुत्तुत्तरागयं जाव सुहासणवरगयं एवं वळ-संदिसउ णं पिउच्छा ! किमागमणपओयणं ,तते णं सा कोंती देवी कण्हं वासुदेवं एवं व०-एवं खलु पुत्ता! हत्थिणाउरे णयरे जुहिडिल्लस्स आगासतले सुहपसुत्तस्स दोवती देवी पासाओ ण णज्जति केणइ अबहिया जाव अवक्खित्ता वा, तं इच्छामि णं पुत्ता! दोवतीए देवीए मग्गणगवेसणं कयं, तते णं से कण्हे वासुदेवे कोती पिउञ्छि एवं व०-जं णवरं पिउच्छा! दोवतीए देवीए कत्थइ सुई वा जाव लभामि तो णं अहं पायालाओ वा भवणाओ वा अद्धभरहाओ वा समंतओ दोवति साहस्थि उवणेमित्तिकट्ठ FOLTOCOCIcerceceiocceroeneratioesee ~ 434~ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) श्रुतस्कन्धः [१] अध्ययनं [ १६ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥२१६ ॥ “ ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) Education International aff पथि सकारेति सम्माणेति जाव पडिविसज्जेति तते णं सा कोंती देवी कण्हेणं वासुदेवेणं पडिविसज्जिया समाणी जामेव दिसिं पाउ० तामेव दिसिं पडि० । तते णं से कण्हे वासुदेवे कोचियपुरिसे सहा० २ एवं वनाच्छ्ह णं तुग्भे देवा० ! बारवर्ति एवं जहा पंडू तहा घोसणं घोसावेति जाव पञ्चप्पिति, पंडुस्स जहा, तते णं से कण्हे वासुदेवे अन्नया अंतो अंतेउरगए ओरोहे जाव विहरति, इमं चणं कच्छुल्लए जाव समोवइए जाव णिसीइत्ता कन्हं वासुदेवं कुसलोदंतं पुच्छर, तते णं से कण्हे वासुदेवे कच्छुल्लं एवं ब० तुमं णं देवा० ! बहणि गामा जाव अणुपविससि, तं अस्थि याई ते कहिवि दोषतीए देवीए सुती वा जाव उचलद्धा , तते णं से कच्छुल्ले कण्डं वासुदेवं एवं व० एवं खलु देवा ! अन्नया घायतीसंडे दीवे पुरत्थिमद्धं दाहिणभरहवासं अवरकंकारायहाणिं गए, तत्थ णं मए पउमनाभस्स रन्नो भवणंसि दोवती देवी जारिसिया दिट्टपुवा यावि होत्था, तते पणं कण्हे वासुदेवे कच्छुल्लं एवं व०-तुभं चेव णं देवाणु ! एवं पुचकम्मं, तते णं से कच्छुल्लनारए कण्हेणं वासुदेवेणं एवं बुत्ते समाणे उप्पयणि विज्जं आवाहेति २ जामेव दिसिं पाउदभूए तामेव दिसिं पडिगए, तते णं से कण्हे वासुदेवे दूयं सद्दावेइ २ एवं व० गच्छहणं तुमं देवा० ! हत्थिणाउरं पंडुस्स रनो एवम निवेदेहि-एवं खलु देषाणु० ! धायइसंडे दीवे पुरच्छिम अवरकंकाए रायहाणीए पमणाभभवणंसि दोवती देवीए पती उबलद्धा, तं गच्छंतु पंच पंडवा चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिबुडा पुरस्थि For Parts Only मूलं [१२०-१२४] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~ 435~ १६ अमर कङ्काज्ञा० द्रौपदीगवेषणत्यानयनं सू. १२४ ॥२१६ ॥ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१२०-१२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: टटटहरदकरलालहर मवेयालीए ममं पडिवालेमाणा चिटुंतु, तते णं से दूर जाव भणति, पडिवालेमाणा चिट्ठह, तेवि जाव चिट्ठति, तते णं से कण्हे वासुदेवे कोटुंबियपुरिसे सद्दावेइ२त्ता एवं व०-गच्छह णं तुम्भे देवा! सन्नाहियं भेरि ताडेह, तेवि तालेंति, तते णं तीसे सण्णाहियाए भेरीए सदं सोचा समुहविजयपामोक्खा दसदसारा जाच छप्पणं बलवयसाहस्सीओ सन्नद्धबद्ध जाव गहियाउहपहरणा अप्पेगतिया हयगया गयगया जाव वग्गुरापरिक्खित्ता जेणेव सभा सुधम्मा जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव २ करयल जाव बद्धवावेंति, तते गं कण्हे वासुदेवे हथिखंधवरगए सकोरेंटमल्लदामेणं छत्तेणं० सेयवर हयगय महया भष्टचडगरपहकरेणं बारवती गयरी मज्झमज्झेणं णिग्गच्छति, जेणेव पुरथिमवेयाली तेणेव उवा०२ पंचहि पंडवेहिं सद्धिं एगपओ मिलइ २ खंधावारणिवेसं करेति २ पोसहसाल अणुपविसति २ सुट्टियं देवं मणसि करेमाणे २ चिट्ठति, तते ण कण्हस्स वासुदेवस्स अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि मुहिओ आगतो, भण देवा! जंमए काय, तते णं से कण्हे वासुदेव मुट्ठियं एवं व०-एवं खलु देवा०1 दोवती देवी जाव पउमनाभस्स भवर्णसि साहरिया तण्णं तुम देवामम पंचहिं पंडवेहिं सद्धिं अप्पछट्ठस्स छण्इं रहाणं लवणसमुद्दे मग्गं वियरेहि, जणं अहं अमरकंकारायहाणी दोवतीए कूवं गच्छामि, तते णं से सुटिए देवे कण्हं वासुदेवं एवं बयासी-किण्हं देवा! जहा चेव पउमणाभस्स रन्नो पुषसंगतिएणं देवेणं दोवती जाव संहरिया तहा चेव दोवर्ति देविं धायतीसंहाओ दीवाओ भार ~ 436~ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१२०-१२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥२१७॥ १६ अमरकङ्काज्ञा द्रौपदीगवेषणप्रत्यानयनं सू.१२४ हाओ जाव हस्थिणापुरं साहरामि, उदाहु पउमणाभं रायं सपुरयलवाहणं लवणसमुद्दे पक्खिवामि?, तते ण कण्हे वासुदेव मुट्ठियं देवं एवं व-मा णं तुम देवा! जाव साहराहि तुम णं देवा! लवणसमुद्दे अप्पण्वस्स छण्हं रहाणं मग्गं चियराहि, सयमेव णं अहं दोवतीए कृवं गच्छामि, तए णं से सुट्टिए देवे कण्हं वासुदेवं एवं वयासी-एवं होउ, पंचहिं पंडवेहिं सद्धिं अप्पछट्ठस्स छह रहाणं लवणसमुद्दे मग्गं वितरति, तते णं से कण्हे बासुदेवे चाउरंगिणीसेणं पडिविसज्जेति २ पंचहिं पंडवेहिं सद्धिं अप्पछट्टे छर्हि रहेहिं लवणसमुदं मझमझेणं वीतीवयति २ जेणेव अमरकंका रायहाणी जेणेव अमरकंकाए अग्गुजाणे तेणेव उवागच्छइ २ रहं ठवेइ २ दारुयं सारहिं सद्दावेति एवं च-गच्छहणं तुम देवा०1 अमरकंकारायहाणी अणुपविसाहि २ पउमणामस्स रपणो वामेणं पाएणं पायपीढं अकमित्ता कुंतग्गेणं लेहं पणामेहि तिवलियं भिउर्षि पिडाले साहव आसुरुत्ते रुढे कुडे कुविए पंडिकिए एवं व०-हं भो पउमणाहा! अपत्थियपत्थिया दुरंतपंतलक्खणा हीणपुन्नचाउद्दसा सिरीहिरिधीपरिवजिया अज्ज ण भवसि किन्नं तुम ण याणासि कण्हस्स वासुदेवस्स भगिणि दोवतिं देविं इहं हवं आणमाणे, तं एयमवि गए पचप्पिणाहि णं तुम दोवर्ति देविं कण्हस्स वासुदेवस्स अहव णं जुद्धसजे णिग्गच्छाहि, एस णं कण्हे वासुदेवे पंचहिं पंडवेहि अप्पछडे दोवतीदेवीए कूवं हबमागए, तते णं से दारुए सारही कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्ते समाणे हद्दतुढे जाव पडिमुणे २ अमरकंकारापहार्णि ॥२१७॥ ~ 437~ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१२०-१२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अणुपविसति २ जेणेव पउमनाहे तेणेव उवा०२ करयल जाव बद्धावेत्सा एवं व०-एस णं सामी! मम विणयपडिवित्ती इमा अन्ना मम सामिस्स समुहाणत्तित्तिक? आसुरुत्ते वामपाएणं पायपीदं अणुक्कमति २ कोतग्गेणं लेहं पणामति २त्ता जाव कूवं हवमागए, तते णं से पउमणामे दारुणेणं सारहिणा एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते तिवलिं मिउर्डि निडाले साहट्ट एवं व०-णों अप्पिणामि णं अहं देवा! कण्हस्स वासुदेवस्स दोवर्ति, एस णं अहं सयमेव जुज्झसजो णिग्गच्छामित्तिकड दारुयं सारहिं एवं व केवलं भो! रायसत्थेसु दूये अवोत्तिकटु असक्कारिय असम्माणिय अवद्दारेणं णिच्छुभावेति, तते णं से दारुए सारही पउमणाभेणं असकारिय जाव णिच्ढे समाणे जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उ०२ करयल. कण्हं जाव एवं व०-एवं खलु अहं सामी! तुम्भं वयणेणं जाव णिच्छुभावेति, तते णं से पउमणाभे बलवाउयं सदावेति २ एवं प.-खिपामेच भो देवाणु ! आभिसे हस्थिरयणं पडिकप्पेह, तयाणंतरं च णं छेयायरियउवदेसमइविकप्पणाविगप्पेहिं जाब उवणेति, तते णं से पजमनाहे सन्नद्ध० अभिसेयं० दूरूहति २ हयगय जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव पहारेत्य गमणाए, तते णं से कण्हे वासुदेवे पउमणाभं रायाणं एजमाणं पासति २ ते पंच पंडवे एवं व०-हं भो दारगा! किन्नं तुम्भे पउमनाभेणं सद्धिं जुज्झिहिह उयाहु पेच्छिहिह, तते णं ते पंच पंडवा कण्हं वासुदेवं एवं १०-अम्हे णं सामी ! जुज्झामो तुम्भे पेच्छह, तते णं पंच पंडवे सपणद्ध जाव पहरणा रहे दुरूहंति २ जेणेच पउम ~ 438~ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [ १६ ], मूलं [१२०-१२४] श्रुतस्कन्धः [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥२१८॥ नामे राया तेणेव उ० २ एवं व० अम्हे पमणाभे वा रायतिकडु पउमनाभेणं सद्धिं संपलग्गा यावि होत्था, तते णं से पउमनाने राया ते पंच पंडवे खिप्पामेव हयमहियपवरविवडियचिन्धद्वयपडागा जाब दिसोदिसिं पडिसेहेतित्ति, तते णं ते पंच पंडवा पउमनाभेणं रन्ना हयमहियपवरविवडिय जाब पडिसेहिया समाणा अस्थामा जाव अधारणिज्जत्तिकट्टु जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवा, त से कण्हे वासुदेवे ते पंच पंडवे एवं व०-कणं तुम्भे देवाणु० 1 पउमणाभेण रत्ना सद्धिं संपलग्गा ?, तते णं ते पंच पंडया कण्हं वासुदेवं एवं व० एवं खलु देवा० ! अम्हे तुम्भेहिं अग्भणुन्नाया समाणा सन्नद्ध रहे दुरूहामो २ जेणेव पउमनाभे जाव पडिसेहेति, तते णं से कण्हे वासुदेवे ते पंच पंडवे एवं ब०जति णं तुभे देवा ! एवं वयंता अम्हे णो पउमनाभे रायत्तिकड पउमनाभेणं सद्धिं संपलग्गंता तो तु णो पमणाहे हयमहियपवर जाव पडिसेहते, तं पेच्छह णं तुन्भे देवा ! अहं नो पउमणाभे रायत्तिक पउमनाभेणं रत्ना सद्धिं जुज्झामि रहं दुरूहति २ जेणेव पउमनाभे राया तेणेव उवाग० २ सेयं गोखीरहारधवलं तणसोल्लियसिंदुवारकुंदेंदु सन्निगासं निययबलस्स हरिसजणणं रिउसेण्णविणासकरं पंचवण्णं संखं परामुसति २ मुहवायपूरियं करेति, तते णं तस्स पमणाहस्स तेणं संखसणं बलतिभाए हते जाव पडिसेहिए, तते णं से कण्हे वासुदेवे धणुं परामुसति वेढो घणुं पुरेति २ घणुस करेति, तते णं तस्स उमनाभस्स दोचे बलतिभाए तेणं धणुसदेणं हयमहिय जाब पडिसेहिए, त anand For Parts Only ~439~ १६ अमर कङ्काज्ञा० द्रौपदीगवेषणप्रत्यानयर्न सू. १२४ ॥२१८॥ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१२०-१२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: णं से पउमणाभे राया तिभागवलावसेसे अत्थामे अवले अवीरिए अपुरिसक्कारपरकम्मे अधारणिजत्तिकङ सिग्धं तुरियं जेणेव अमरकंका तेणेव उ०९ अमरकंक रायहाणि अणुपविसति २ दाराति पिहेति २रोहसज्जे चिट्ठति, तते णं से कण्हे वासुदेवे जेणेच अमरकंका तेणेव उ०२ रहं ठवेति २ रहातो पचोरूहति २ वेउवियसमुग्धाएणं समोहणति, एगं महं णरसीहरूवं विउबति २ महया २ सद्देणं पाददद्दरियं करेति, तते णं से कण्हेणं वासुदेवेणं महया २ सद्देणं पाददइरएणं करणं समाणेणं अमरकंका रायहाणी संभग्गपागारगोपुरांद्यालयचरियतोरणपल्हस्थिपपवरभवणसिरिधरा सरस्सरस्स धरणियले सन्निवइया, तते णं से पउमणाभे राया अमरकंक रायहाणिं संभग्ग जाव पासित्ता भीए दोवतिं देवि सरणं उवेति, ततेणं सा दोबई देची पउमनाभं रायं एवं व०-किपणं तुमं देवा ! न जाणसि कण्हस्स वासुदेवस्स उत्तमपुरिसस्स विप्पियं करेमाणे ममं इह हबमाणेसि, तं एवमवि गए गच्छह णं तुम देवा! पहाए उल्लपडसाडप अवचूलगवत्थणियत्थे अंतेजरपरियालसंपरिखुडे अग्गाई चराई रयणाई गहाय मम पुरतो कार्ड कण्हं वासुदेवं करयलपायपडिए सरणं उवेहि, पणिवइयवच्छला गं देवागुप्पिया! उत्तमपुरिसा, तते णं से पउमनाभे दोवतीए देवीए एयमढे पडिमुणेति २ण्हाए जाब सरणं उवेति २ करयल० एवं व०-दिहा ण देवाणुप्पियाणं इड्डी जाव परकम्मे तं खामेमि णं देवाणुप्पिया! जाव खमंतु णं जाव णाहं भुजो २ एवंकरणयाएत्तिकट्ठ पंजलिवुडे पायवडिए कण्हस्स वासुदेवस्स एएeseseeeeee ~440~ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१२०-१२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्मकयाडम्. ॥२१॥ Se0e39000 दोवर्ति देषि साहत्थि उवणेति, तते णं से कण्हे वासुदेवे पउमणाभं एवं व०-हं भो पउमणाभा! १६ अमरअप्पत्थियपत्थिया ४ किपणं तुमंण जाणसि मम भगिणि दोवती देवी इह हरमाणमाणे तं एवमवि गए IS कङ्काज्ञा णत्थि ते ममाहितो इयाणिं भयमस्थित्तिकट्ठ पउमणाभं पडिविसज्जेति, दोवतिं देवि गिण्हतिर रहं दुरू द्रौपदीग वेषणप्रहेति २ जेणेव पंच पंडवे तेणेव उवा० २ पंचण्डं पंडवाणं दोवतिं देविं साहत्यि उवणेति, तते णं से | त्यानयन कण्हे पंचहि पंडवेहिं सद्धिं अप्पछडे छहिं रहेहिं लवणसमुई मझमझेणं जेणेव जंबुद्दीचे २ जेणेव सू. १२४ भारहे वासे तेणेव पहारेत्थ गमणाए (सूत्रं १२४) 'सारत्थति सारथ्यं सारथिकर्म, 'तए णं सा किड्डाविए'त्यादौ यावत्करणादेवं दृश्यं 'साभावियहसा चोदहजणस्स उस्सुयकर विचित्तमणिरयणबद्धच्छरुह'ति तत्र क्रीडापिका-क्रीडनधात्री 'साभावियहसति साझाविकः-अकैतवकृतो घर्षोघर्षणं यस्य स तथा तं दर्पणमिति योगः, 'चोदहजणस्स ऊसुयकरे ति तरुणलोकस्य औत्सुक्यकर-प्रेक्षणलम्पटसकर 'विचित्तमणिरयणबद्धच्छरुहति विचित्रमणिरर्बद्धः छरुको-मुष्टिग्रहणस्थानं यस्य स तथा तं 'चिल्लगे' दीप्यमानं दप्पे-18 म्-आदर्श दप्पणसंकंतर्विक्संदंसिए य सेति दर्पणे सङ्कान्तानि यानि राज्ञा विम्बानि-प्रतिविम्बानि तैः संदर्शिताः- २१९॥ उपलम्भिता ये ते तथा तांश्च से-तस्था दक्षिणहस्तेन दर्शयति स द्रोपद्या इति प्रक्रमः प्रबरराजसिंहान् , स्फुटमर्थतो विशदं । वर्णत: विशुद्ध शब्दार्थदोपरहितं रिमितं-खरघोलनाप्रकारोपेतं गम्भीरं-मेघशब्दवत् मधुरं-कर्णसुखकर भणित-भाषितं | ~441~ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१२०-१२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: यस्याः क्रीडापिकायाः सा तथा तां, मातापितरौ वंश-हरिवंशादिकं सत्त्वं-आपत्खवैतव्यकरमध्यवसानकर च सामर्थ्य-बलं गोत्र-गौतमगोत्रादि विक्रान्ति-विक्रम कान्ति-प्रभा पाठान्तरण कीर्ति वा-प्रख्याति बहुविधागर्म-नानाविधशाखविशारदमित्यर्थः माहात्म्यं-महानुभावतां कुलं-वंशस्थावान्तरभेदं शीलं च-स्वभावं जानाति या सा तथा कीर्तनं करोति स्मेति, वृष्णिपुङ्गवानां-यदुपुङ्गवानां यदुप्रधानानांदशाराणां-समुद्रविजयादीनां दशारस्य वा-वासुदेवस्य ये बरा वीराव पुरुषास्ते तथा ते चते त्रैलोक्येऽपि बलवन्तति विग्रहस्ततस्तेषां, शत्रुशतसहस्राणां-रिपुलक्षाणां मानमवमृद्गन्ति ये ते तथा तेषा, तथा भविष्यतीति भवा-भाविनी सा सिद्धिर्येषां ते भवसिद्धिकास्तेषां मध्ये वरपुण्डरीकाणीव वरपुण्डरीकाणि ये ते तथा तेषां, 'चिल्लगाणं ति दीप्यमानानां तेजसा तथा बलं-शारीरं वीर्य-जीवनभवं रूपं-शरीरसौन्दर्य यौवनं-तारुण्यं गुणान्-सौन्दर्यादीन् लावण्यं चस्पृहणीयता कीर्तयति या सा तथा, क्रीडापिका कीर्चनं करोति स्म, पूर्वोक्तमपि किश्चिद्विशेषाभिधानायाभिहितमिति न दुष्टं, 'समइच्छमाणी'ति समतिक्रामन्ती, 'दसद्धवष्णेणं'तीह श्रीदामगण्डेन पूर्वगृहीतेनेति सम्बन्धनीयं 'कल्लाणकारे नि । कल्याणकरणं मङ्गलकरणमित्यर्थः, 'इमं च णं'ति इतच 'कछुल्लनारए'ति एतबामा तापसः, इह कचिद्यावत्करणादिदं| उश्य, 'दसणेणं अहमदए' भद्रदर्शन इत्यर्थः, 'विणीए अंतो अंतो य कलुसहियए' अन्तरान्तरा दुष्टचितः केलीप्रियता-18| |दित्यर्थः, 'मझत्थजवस्थिए ' माध्यस्थ्य-समतामभ्युपगतो व्रतग्रहणत इति भावः, 'अल्लीणसोमपियदंसणे सुरूवें। आलीनाना--आश्रितानां सौम्य--अरौद्रं प्रियं च दर्शनं यस स तथा 'अमइलसगलपरिहिए' अमलिनं सकलं-अखण्डं शकलं वा खण्डं बल्कवास इति गम्यते परिहित-निवसितं येन स तथा, 'कालमियचम्मउत्तरासंगरइयवत्धे कालमृगचर्म उत्त-18 ~442~ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१] अध्ययनं [ १६ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥२२०॥ रासङ्गेन रचितं वक्षसि येन स तथा 'दंडकमंडलुहत्थे जडामउडदित्तसिरए जन्नोवइयगणेत्तियमुंज मेहलाबागलधरे' गणेत्रिका-रुद्राक्षकृतं कलाचिकाभरणं मुञ्जमेखला - मुञ्जमयः कटीदवरकः वल्कलं - तरुवरु, 'हत्थकथकच्छ भीए' कच्छपिका तदुपकरणविशेषः, 'पियगंधत्रे' गीतप्रियः, 'घरणिगोयरप्पहाणे' आकाशगामिखात्, 'संचरणावरण उवयणिलेसणीसु य संकामणिअभिओगपण्णतिगमणीथंभणीसु य बहुसु विजाहरी विज्जासु विस्सुयजसे' इह सञ्चरण्यादिविधानामर्थः शब्दानुसारतो वाच्यः, 'विजाहरिसुति विद्याधरसम्बन्धिनीषु विश्रुतयशाः ख्यातकीर्त्तिः, 'इट्ठे रामस्स केसवरस य पज्जुन्न|पईव संबअनिरुद्ध निसढउम्मुपसारणगय सुमुहदुम्मु हाईणं जाधवाणं अडाणं कुमारकोडीणं हिययदइए वल्लभ इत्यर्थः, 'संधवे' एतेषां संस्तावकः, 'कलहजुद्धकोलाहलप्पिए' कलहो - वाग्युद्धं युद्धं तु - आयुधयुद्धं कोलाहलोबहुजन महाध्वनिः, 'भंडणाभिलासी' मंडनं पिष्टातकादिभिः 'बहुसु य समरसंपराएसु' समरसवामेष्वित्यर्थः, 'दंसणरए समंतओ कलहं सदक्खिणं' सदानमित्यर्थः, 'अणुगवेसमाणे असमाहिकरे दसारवरवीरपुर सतेलोकबलवगाणं आमंतेऊणं तं भगवति एकमणिं गमणत्थं उप्पइओ गगणतलमभिलंघयंतो गामागरनगरखेड| कब्बडमडंबदोणमुहपट्टणसंवाह सहस्समंडियं थिमियमेहणीयं णिग्भरजनपदं वसुहं ओलोयतो रम्मं हत्थिणपुरं उवागए' 'असंजय अविश्य अप्पडियपञ्चक्खायपावकम्मेत्तिकद्दु' असंयतः संयमरहितलात् अविरतो विशेषतस्तपस्यरतत्वात् न प्रतिहतानि न प्रतिषेधितानि अतीतकालकृतानि निन्दनतः न प्रत्याख्यातानि च भविष्यत्कालभावीनि पापकर्माणि - प्राणातिपातादिक्रिया येन अथवा न प्रतिहतानि सागरोपमकोटी कोटवन्तः प्रवेशनेन सम्यक्खलाभतः न च For Pal Use Only मूलं [१२०-१२४] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~443~ १६ अपर कङ्काज्ञाता. द्रौपदीहरणादि ॥ २२० ॥ waryra Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१२०-१२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत्याख्यातानि सागरोपमकोटीकोव्याः सङ्ख्यातसागरोपमैन्युनताकरणेन सर्वविरतिलामतः पापकर्माणि-ज्ञानावरणादीनि येन स तथेति पदत्रयस्य कर्मधारयः, 'कू'ति कूजकं व्यावकवलमिति भावः, 'सुई वत्ति श्रूयते इति श्रुतिः-शब्दः ता, 'खुति वत्ति क्षुतिः छीत्कारादिशब्दविशेष एव तां प्रयुक्ति-वार्ता, वा पर्यायाश्चैते इति, 'हिया व'चि हृता प्रदेशान्तरे । स्थापिता 'नीता' नेत्रा स्वस्थान प्रापिता 'आक्षिपिता' आकृष्टैवेति, 'इमा अण्णे'त्यादि, इसमन्या अपरा मदीयस्वामिनः | | सम्बन्धिनी विनयप्रतिपत्तिरिति वर्तते, 'समुहाणत्तित्तिकटु' स्वमुखेन-स्वकीयवदनेन भणिता आज्ञप्ति:-आदेशः स्वमुखानप्तिरितिकृता-एवमभिधाय, आसुरुत्ते'त्ति क्रुद्धः, 'बलवाउएति बलव्यापृतः सैन्यव्यापारवान्, 'अभिसेकन्ति | अभिषेकमर्हतीत्याभिषेक्यं मूर्धाभिषिक्तमित्यर्थः, 'छेयायरियउवएसमइविगप्पणाविगप्पेहिति छेको-निपुणो य आचार्यः-18 8 कलाचार्यः तस्योपदेशात्-तत्पूर्विकाया मतेः-युद्धेर्याः कल्पना:-विकल्पाः लप्तिभेदास्ते तथा तैरिति, इह यावत्करणादिदं दृश्यं | 'सुनिउणेहिति सुनिपुणैनरैः 'उज्जलनेवत्थहवपरिवच्छियंति उज्वलनेपथ्येन-निर्मलवेषेण 'हव'न्ति शीघं परिक्षिप्त:परिगृहीतः परिवृतो यः स तथा तं 'मुसज्ज' सुष्टु प्रगुणं, 'वम्मियसन्नहबद्धकवचियउप्पीलियकच्छवच्छबद्धगेवजगलयवरभूसणविरायंत वर्मणि नियुक्ता वार्मिकास्तैः सनद्धः-कृतसन्नाहो या स बार्मिकसन्नद्धा बद्धं कवचंसन्नाह विशेषो यस्य स बद्धकवचः, स एव बद्धकवचिकः, अथवा वर्मितः सन्नद्धः बद्धस्वक्त्राणबन्धनात् कवचितश्च यः स7 तथा, भेदश्चैतेषां लोकतोऽवसेयः, एकार्थाश्चैते शब्दाः सन्नद्धताप्रकर्षाभिधानायोक्ता इति, तथा उत्पीडिता-गाढीकृता कक्षा-वृदयरज्जुर्वक्षसि यस्य स तथा अवेयक-ग्रीवाभरणं बद्धं गले-कण्ठे यस स तथा वरभूषणविराजमानो यः स तथा, ततो ~ 444~ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) श्रुतस्कन्धः [१] अध्ययनं [ १६ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्. ॥२२९॥ “ ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) Ja Eucation International वर्मितादिपदानां कर्मधारयोऽतस्तं, 'अहियतेयजुत्तं सललितवरकण्णपूरविराजितं पलंबओचूलमहयरकयंधगारं' प्रलम्बानि अवचूलानि - करक (ट) न्यस्ताऽधोमुखकूर्चकाः यस्य सः प्रलम्बावचूल: मधुकरैः- भ्रमरैर्मदजलगन्धा कृष्टैः कृतमन्धकारं येन स तथा ततः कर्मधारयोऽतस्तं, 'चित्तपरिच्छेयपच्छदं' चित्रो-विचित्रः परिच्छेको लघुः प्रच्छदो-वस्त्रविशेषो यस्य स तथा तं, 'पहरणावरण भरियजुद्धसज्ज' प्रहरणानां कुन्तादीनामावरणानां च कङ्कटानां भृतो यः स तथा स च युद्धसज्जश्रेति कर्मधारयः अतस्तं 'सच्छतं सज्झयं सङ्घटं पंचामेलयपरिमंडियाभिरामं पञ्चभिरापीडः- शेखरैः परिमण्डितोऽत ६ एवाभिरामश्र- रम्यो यः, 'ओसारियजमलजुयलघंट' अवसारितं - अवलम्बितं यमलं समं युगलं-द्वयं घण्टयोर्यत्र स तथा तं, 'बिज्जुप्पणिद्धं व कालमेह' घण्टाप्रहरणादीनामुज्ज्वलखेन विद्युत्कल्पत्वात् हस्तिदेहस्य कालवेन महत्वेन वा मेघकल्पसादिति, 'उष्पाइयपद्वयं व चंकमंत' चङ्क्रममाणमिवौत्पातिकपर्वतं, पाठान्तरेण ओत्पातिकं पर्वतमिव 'सक्व' ति साक्षात् 'मत्तं' ति मदवन्तं 'गुलुगुलं' 'मणपवणजइणवेगं' मनःपवनजयी वेगो यस्य स तथा तं, 'भीमं संगामियाजोग्गं' साझामिक आयोग : - परिकरो यस्य स तथा तं, 'अभिसेकं हत्थिरयणं पडिक पति २ उवर्णेति'त्ति 'हय महियपवरविवडियचिधधयपडागे' हतमथिता - अत्यर्थं हताः अथवा हताः प्रहारतो मथिताः मानमथनात् इतमथिताः तथा प्रवरा विपतिताञ्चिन्हध्वजादयः पताकाच तदन्या येषां ते तथा ततः कर्मधारयोऽतस्तान्, यावत्करणात् 'किच्छोवगयप्पाणे 'ति दृश्यं कष्टगतजीवितव्यानित्यर्थः, 'अम्हे वा पउमनाभे वा रायत्तिकद्दु' इति अस्माकं पद्मनाभस्य च बलवादि सङ्ग्रामे वयं वा भवामः पद्मनाभो वा, नोभयेषामपीह संयुगे त्राणमस्ती तिकृत्वा इति निश्वयं विधाय सम्प्रलमाः योद्धमिति शेषः, 'अम्हे For Park Use Only मूलं [१२०-१२४] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~ 445~ १६ अपर कङ्काज्ञाता. द्रौपदीहरणादि ॥२२१॥ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१२०-१२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: Sनो पउमनाभे रायत्तिक?' वयमेवेह रणे जयामो न पद्मनाभो राजेति, यदि स्वविषये विजयनिश्चयं कृत्वा पद्मनाभेन IS सार्द्ध योद्धं सम्प्रालगिष्यथ ततो न पराजय प्राप्स्यथ, निश्चयसारखात् फलप्राप्तः, आह च-"शुभाशुभानि सर्वाणि, निमित्तानि स्युरेकतः । एकतस्तु मनो याति, तद्विशुद्ध जयावहम् ॥१॥ तथा स्थानिश्चयैकनिष्ठाना, कार्यसिद्धिः परा नृणाम् । संशयक्षुण्णचित्ताना, कार्ये संशीतिरेव हि ॥२॥" शङ्खविशेषणानि कचिद् दृश्यन्ते-'सेयं गोखीरहारधवलं तणसोलाल्लियसिंदुचारकुंदेंदुसन्निगासं 'तणसोल्लियन्ति मल्लिका सिंदुवारो-निर्गुण्डिः, 'निययस्स बलस्स हरिसजणणं| रिउसेण्णविणासकर पंचजण्ण'न्ति पाञ्चजन्याभिधानं 'वेढो'ति वेष्टकः एकवस्तुविषया पदपद्धतिः, स चेह धनुर्विषयो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिप्रसिद्धोऽध्येतव्यः,तद्यथा-'अइरुग्णयबालचंदईदधणुसनिकासं' अचिरोद्तो यो बालचन्द्रः-शुक्लपक्षद्वितीयाचन्द्रः तेनेन्द्रधनुषा च वक्रतया सन्निकाश-सदृशं यत्तत्तथा 'वरमहिसदरियदप्पियदढघणसिंगग्गरइयसारं वरमहिषस्य दृप्तदर्षितस्यIN सञ्जातदातिशयस्य यानि दृढानि धनानि च शृङ्गाग्राणि ते रचितं सारं यत्तत्तथा, 'उरगवरपवरगवलपवरपरहुयभमरकुलनी लधतघीयपट्ट' उरगवरो-नागवरः प्रवरगवलं-वरमहिषशङ्ग प्रवरपरभृतो-यरकोकिलो भ्रमरकुलं-मधुकरनिकरो नीली-गुलिका |एतानीव स्निग्धं कालकान्तिमत् ध्मातमिव ध्मातं च-तेजसा ज्वलत् धौतमिव धौतं च-निर्मलं पृष्ठं यस्य तचथा, 'निउणोवियमिसिमिसिंतमणिरयणघंटियाजालपरिक्खित्त' निपुणेन शिल्पिना ओपिताना-उज्ज्वलितानां मणिरनपण्टिकानां यज्जालं तेन | परिक्षित-वेष्टितं यत्तत्तथा 'तडितरुणकिरणतवणिज्जबद्धचिंध तडिदिव-विद्युदिव तरुणा:-प्रत्ययाः किरणा यस्य तत्तथा|3|| | तस्य तपनीयस्स सम्बन्धीनि बद्धानि चिन्हानि-लाञ्छनानि यत्र तत्तथा 'दद्दरमलयगिरिसिहरकेसरचामरवालयद्धचंदर्षिचं दर्द AREauratoninternational ~446~ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१२०-१२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म- रमलयाभियानौ यौ गिरी तयोर्यानि शिखराणि तत्सम्बन्धिनो ये केसरचामरखाला:-सिंहस्कन्धचमरपुच्छकेशाः अर्द्धचन्द्राच ||१६ अमरकथानम्. तल्लक्षणानि चिह्नानि यत्र तत्तथा, 'कालहरियरचपीयसुकिल्लबहुण्हारुणिसंपिनद्धजीयं कालादिवर्णाः या वायवः-शरीरान्तर्व- काज्ञा. र्धास्ताभिः सम्पिनद्धा-बद्धा जीवा-प्रत्यश्चा यस्स तत्तथा 'जीवियान्तकर ति शत्रूणामिति गम्यते, 'संभग्गे'त्यादि, सम्भन्नानि | कृष्णकपि॥२२॥ प्राकारो गोपुराणि च-प्रतोल्यः अट्टालकाच-प्राकारोपरिस्थानविशेषाः चरिका च नगरप्राकारान्तरेऽष्टहस्तो मार्गः तोरणानि||लयोःशच यस्यां सा तथा, पर्यस्तितानि-पर्यस्तीकृतानि सर्वतः क्षिप्तानि इत्यर्थः प्रवरभवनानि श्रीगृहाणि च-भाण्डागाराणि |ब्दसंमेल: यस्यां सा तथा, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, 'सरसरस्स'ति अनुकरणशब्दोऽयमिति, 'उल्लपडसाडए'त्ति सद्यामानेन सू. १२५ आद्री-पट्टशाटको उत्तरीयपरिधाने यस्य स तथा, 'अवचूलगवत्थनियत्यति अवचूल-अधोमुखचूलं मुकलावलं यथा भवतीत्येवं वसं निवसितं येन स तथा, 'तं एवमवि गए नत्थि ते ममाहितो याणि भयमस्थिति तत-तमादित्थमपि II गते अस्मिन् कार्ये नास्ति अयं पक्षो यदुत ते-तव मत्तो भयमस्ति-भवति । तेणं कालेणं २ धायतिसंडे दीवे पुरच्छिमद्धे भारहे वासे चंपा णामं णपरी होत्था, पुण्णभद्दे चेतिए, तत्व णं चंपाए नयरीए कविले णामं वासुदेवे राया होत्था, महया हिमवंत० वण्णाओ, तेणं कालेणं २ ॥२२२॥ मुणिसुबए अरहा चंपाए पुण्णभद्दे समोसढे, कपिले वासुदेवे धम्म सुणेति, तते णं से कविले वासुदेवे मुणिसुवयस्स अरहतो धम्म सुणेमाणे काहस्स वासुदेवस्स संखसई सुणेति, तते णं तस्स कविलस्स ~447~ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१२५-१३१] श्रुतस्कन्धः [१] अध्ययनं [ १६ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Educatin internation वासुदेवस्स इमेयारूवे अम्भस्थिए समुप्पवित्था-किं मण्णे धायहसंडे दीवे भारहे वासे दोचे वासुदेवे समुपणे ? जस्सणं अयं संखसद्दे ममपिव मुहवायपूरिते वियंभति, कविले वासु सहातिं सुणे, मुणि अरहा कविलं वासुदेवं एवं व०-से पूर्ण ते कविला वासुदेवा ! मम अंतिए धम्मं णिसामेमाणस्स संखस आकण्णित्ता इमेयारूवे अम्भस्थिए- किं मन्ने जाव वियंभइ, से पूर्ण कविला वासुदेवा! अयमट्टे समहे ?, हंता ! अत्थि, नो खलु कविला ! एवं भूयं वा ३ जन्नं एगे खेते एगे जुगे एगे समय दुवे अरहंता वा चक्की वा बलदेवा वा वासुदेवा वा उष्पर्जिसु उप्पजिति उप्पज्जिस्संति वा, एवं खलु वासुदेवा ! जंबुवाओ भारहाओ वासाओ हरिथणाउरणयराओ पंडुस्स रण्णो सुण्हा पंचण्हं पंडवाणं भारिया दोवती देवी तव उमनाभस्त रण्णो पुवसंगतिएणं देवेणं अमरकंकाणयरिं साहरिया, तते णं से कहे वासुदेवे पंचि पंडवेहिं सद्धिं अप्पछट्टे छहिं र हेहिं अमरकंकं रायहाणिं दोवतीए देवीए कूर्व ह्धमागए, तते णं तस्स कण्हस्स वासुदेवस्स उमणाभेणं रण्णा सद्धिं संगामं संगामेमाणस्स अयं संखसद्दे तव मुहवाया० इव इट्ठे कंते इहैव वियंभति, तए णं से कविले वासुदेवे मुणिसुखयं वंदति २ एवं व०- गच्छामि णं अहं भंते! कण्हं वासुदेवं उत्तम पुरिसं सरिसपुरिसं पासामि, तए णं मुणिसुवए अरहा कविलं वासुदेवं एवं वनो खलु देवा० एवं भूयं वा ३ जण्णं अरहंता वा अरहंतं पासंति चक्कवही वा चक्कवहिं पासंति बलदेवा वा बलदेवं पासंति वासुदेवा वा वासुदेवं पासंति, तहविय णं तुमं कण्हस्स वासुदेवस्स लवणसमुद्द For Park Use Only ~448~ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१२५-१३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: शाताधर्म कथाङ्गम्. १६ अपरकङ्काज्ञा वासुदेवयोः शङ्खशब्दमेल: सू.१२५ ॥२२३॥ मसंमज्झेणं वीतिवयमाणस्स सेयापीयाई धयग्गाति पासिहिसि, तते गं से कविले वासुदेवे मुणिमुवयं वंदति २ हत्थिखंचं दुरूहति २ सिग्धं २ जेणेव वेलाउले तेणेव उ०२ कण्हस्स वासुदेवस्स लवणसमुई मज्झमझेणं वीतिवयमाणस्स सेयापीयाहिं धयग्गाति पासति २ एवं चयइ-एस णं मम सरिसपुरिसे उत्तमपुरिसे कण्हे वासुदेवे लषणसमुई मज्झमज्झेणं बीतीवयतित्तिकट्ठ पंचयन्नं संखं परामुसति मुहवायपूरियं करेति, तते णं से कण्हे वासुदेवे कविलस्स वासुदेवस्स संखसई आयन्नेति २ पंचयनं जाव पूरियं करेति, तते गं दोवि वासुदेवा संखसद्दसामायारिं करेति, तते णं से कविले वासुदेवे जेणेच अमरकंका तेणेव १०२अमरकंक रायहाणि संभग्गतोरणं जाव पासति २पउणणाभं एवं व०-किन्न देवाणुप्पिया! एसा अमरकंका संभग्ग जाव सन्निवश्या ?, तते णं से पउमणाहे कविलं वासुदेवं एवं व०-एवं खलु सामी! जंबुद्दीवाओ दीवाओ भारहाओ वासाओ इहं हवमागम्म कण्हेणं वासुदेवेणं तुम्भे परिभूय अमरकंका जाव सन्निवाडिया, तते णं से कविले वासुदेवे पउमणाहस्स अंतिए एयमई सोचा पउमणाह एवं व-हं भो! पउमणाभा! अपत्थियपत्थिया किन्नं तुम न जाणसि मम सरिसपुरिसस्स कण्हस्स वासुदेवस्स विप्पियं करेमाणे?, आसुरुत्ते जाव पउमणाहं णिविसयं आणवेति, पउमणाहस्स पुत्तं अमरकंकारायहाणीए महया २ रायाभिसेएणं अभिसिंचति जाव पडिगते (सूत्रं १२५) तते णं से कण्हे वासुदेवे लवणसमुई मज्झमझेणं वीतिवयति, ते पंच पड़वे एवं व० ॥२२३॥ ~449~ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१२५-१३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: nee - गच्छह णं तुम्भे देवा० ! गंगामहानदि उत्तरह जाव ताव अहं सुट्टियं लवणाहिबई पासामि, ततेणे ते पंच पंडवा कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्ता समाणा जेणेव गंगामहानदी तेणेव उ०२ एगट्टियाए णावाए मग्गणगवेसणं करेंति २ एगट्टियाए नावाए गंगामहानदि उत्तरंति २ अण्णमणं एवं वयन्ति-पट्टा देवा! कण्हे वासुदेवे गंगामहाणदि बाहाहिं उत्तरिसए उदाहु णो पमू उत्सरित्सएतिकट्ठ एगडियाओ नावाओ मेति २ कण्हं वासुदेवं पडिवालेमाणा २ चिट्ठति, तते णं से कण्हे वासुदेवे सुट्ठियं लवणाहिवई पासति २ जेणेव गंगा महाणदी तेणेव उ०२ एगट्टियाए सबओ समंता मरगणगवेसणं करेति २ एगडियं अपासमाणे एगाए वाहाए रहं सतुरगं ससारहिं गेहइ एगाए थाहाए गंगं महाणर्दिबासर्टि जोयणार्ति अजोयणं च विच्छिन्नं उत्तरिउं पयत्ते यावि होत्था, तते णं से कण्हे वासुदेवे गंगामहाणदीए बहुमज्झदेसमागं संपत्ते समाणे संते तंते परितंते बद्धसेए जाए याचि होत्या, तते णं कण्हस्स वासुदेवस्स इमे एयारूवे अम्भत्थिए जाव समुप्पज्जित्था-अहो णं पंच पंडवा महाबलवगा जेहिं गंगामहाणदी बासहि जोयणाई अजोयणं च विच्छिण्णा बाहाहिं उत्तिण्णा, इच्छंतएहिं णं पंचहिं पंडबेहि पउमणाभे राया जाव णो पडिसेहिए, तते णं गंगादेवी कण्हरस वासुदेवस्स इमं एयारूवं अम्भत्थियं जाव जाणित्ता थाहं वितरति, तते णं से कण्हे वासुदेवे मुहुर्सतरं समासासति २ गंगामहाणदि बावहि जाव उत्तरति २जेणेव पंच पंडवा तेणेव उवा०पंच पंडवे एवं व०-अहो णं तुम्भे देवा! ~450~ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [ १६ ], मूलं [१२५-१३१] श्रुतस्कन्धः [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥२२४॥ 1307027202 महाबलवगा जेणं तुभेहिं गंगामहानदी बासहिं जाव उत्तिष्णा, इच्छंतएहिं तुम्भेहिं पउम जाव णो डिसेहिए, तते णं ते पंच पंडवा कण्हेणं वासुदेवेणं एवं कुत्ता समाणा कन्हं वासुदेवं एवं व० एवं खलु देवा०! अम्हे तुम्भेहिं विसज्जिया समाणा जेणेव गंगा महानदी तेणेव उवा० २ एगट्टियाए मग्गणगवेसणं तं चैव जाव णूमेमो तुम्भे पडिवालेमाणा चिट्ठामो, तते णं से कण्हे वासुदेवे तेसिं पंच पांडवानं एयमहं सोचा णिसम्म आसुरुते जाब तिवलियं एवं व०-अहो णं जया मए लवणसमुदं दुवे जोयणसयसहस्सा विच्छिष्णं वीतीवइत्ता परमणाभं हयमहिय जाब पडिसेहिता अमरकंका संभाग० दोवती साथ उवणीया तथा णं तुम्भेहिं मम माहत्यं ण विण्णायं इयाणि जाणिस्सहतिकड लोहदंड परामुसति, पंच पंचवाणं रहे चूरेति २ णिविसए आणवेति २ तत्थ णं रहमद्दणे णामं को णिविट्ठे, तते से कहे वासुदेवे जेणेव सए खंधावारे तेणेव उवागच्छ २ सरणं संधावारेणं सद्धिं अभिसमन्नागए या होत्था, तते णं से कण्हे वासुदेवे जेणेव बारवई जयरी तेणेच उवा० २ अणुपविसति (सूत्रं १२६) तते णं ते पंच पंडवा जेणेव हत्थिणाउरे तेणेव उवागच्छन्ति२ जेणेव पंडू तेणेच उ० २ करयल एवं ब० एवं खलु ताओ! अम्हे कण्हेणं णिविसया आणत्ता, तते णं पंडुराया ते पंच पंडवे एवं ०-कहणं पुस्ता ! तुभे कण्हेणं वासुदेवेणं णिविसया आणता ?, तते णं ते पंच पंडवा पंडुरायं एवं व०एवं खलु ताओ ! अम्हे अमरकंकातो पडिणियत्ता लवणसमुदं दोन्नि जोयणसय सहस्साई वीतिव Eucation International For Parks Use Only ~451~ १६ अमरकङ्काज्ञा० रथमधन | दुर्गतिवेशः पाण्डवनिविषयता च सू. १२६ ॥२२४॥ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१२५-१३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: Area तित्ता (स्था) तए णं से कण्हे अम्हे एवं वयासि-गच्छह णं तुम्भे देवा! गंगामहाणदि उत्तरह जाय चिट्ठह ताव अहं एवं तहेव जाव चिट्ठामो, तते णं से कण्हे वासुदेवे मुट्ठियं लवणाहिवइंदवण तं चेव सर्व नवरं कण्हस्स चिंताण जुज्ज (बुच्च) ति जाव अम्हे णिविसए आणवेति, तए णं से पंडराया ते पंच पंडवे एवं व०-दुहणं पुत्ता ! कर्य कण्हस्स वासुदेवस्स विप्पियं करेमाणेहि, तते णं से पंहू राया कॉर्ति देविं सद्दावेति २ एवं व-गच्छणं तुम देवा1 बारवर्ति कण्हस्स वासु.णिवेदेहि-एवं खलु देवा! तुम्हे पंच पंडवा णिविसया आणत्ता तुमं च णं देवा ! दाहिणभरहस्स सामी तं संदिसंतुणं देवा ते पंच पंडवा कपरं दिसि वा विदिसंवा गच्छतु ?, तते णं सा कोंती पंडणा एवं बुत्ता समाणी हस्थिखं, दुरूहति २ जहा हेट्ठा जाव संदिसंतु णं पिउत्था! किमागमणपओयणं, तते णं सा कोंती कण्हं वासुदेवं एवं व०-एवं खलु पुत्ता! तुमे पंच पंडवा णिविसया आणत्ता तुमंच णंदाहिणभरह जाव वि दिसं या गच्छंतु ?, तते णं से कण्हे वासुदेव कोंतिं देवि एवं व०-अपूईवषणा णं पिउत्था ! उत्तमपुरिसा वासुदेवा बलदेवा चकवट्टी तं गच्छंतु णं देवाणु ! पंच पंडवा दाहिणिल्लं वेयालिं तत्थ पंडुमहुरं णिवेसंतु मम अदिवसेवगा भवतुत्तिकट्ट कौति देविं सकारेति सम्माणेति जाव पडिविसजेति, तते णं सा कोंती देवी जाव पंहुस्स एयमहूँ णिवेदेति, तते णं पंडू पंच पंडवे सद्दावेति २एवं व०-गच्छह णं तुम्भे पुत्ता! दाहिणिलं वेयालिं तत्थ णं तुम्भे पंडुमहुरं णिचेसेह, तते णं पंच पंडवा पंडुस्स रपणो जाव SO9003089asaeraaasaree ~ 452~ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [ १६ ], मूलं [१२५-१३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्. ॥२२५॥ श्रुतस्कन्धः [१] तहत्ति पडिसुर्णेति सबलवाहणा हयगय हत्थिणाउराओ पडिणिक्खमति २ जेणेव दक्खिजिल्ले वेयाली तेणेव उवा० २ पंडुमडुरं नगरं निवेसेति २ तत्थ णं ते विपुल भोग समितिसमण्णागया याचि होस्था (सूत्रं १२७ ) तते णं सा दोवई देवी अन्नया कयाई आवण्णसत्ता जाया यावि होत्था, तते णं सा दोवती देवी णवण्हं मासाणं जाव सुरूवं दारगं पयाया समालं णिवन्तवारसाहस्स इमं एयारूवं जम्हा णं अम्हं एस दारए पंचण्डं पंडवाणं पुत्ते दोवतीए अत्तए तं होउ अम्हं इमस्स दारगस्स णामधे पंडुसेणे, तते णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो णामवेज्जं करेह पंडुसेणत्ति, बावन्तरिं कलाओ जाव भोगसमत्थे जाए जुवराया जाव विहरति, थेरा समोसढा परिसा निग्गया iser former धम्मं सोचा एवं व०-जं णवरं देवा० ! दोवतिं देविं आपुच्छामो पंडुसेणं च कुमारं रामो तो पच्छा देवा! अंतिए मुंडे भवित्ता जाव पक्षयामो, अहासुहं देवा० 1, तते णं ते पंच पंढवा जेणेव सए गिहे तेणेव उवा० २ दोवतिं देवि सहावेति २ एवं ब० एवं खलु देवा० ! अम्हेहिं राणं अंतिर धम्मे णिसंते जाव पवयामो तुमं देवाणुप्पिए! किं करेसि ?, तते णं सा दोवती देवी ते पंच पंडवे एवं व०-जति णं तुम्भे देवा! संसारभविग्गा पञ्चयह ममं के अपणे आलंबे वा जाव भविस्सति ?, अहंपि य णं संसारभउद्विग्गा देवाणुप्पिएहिं सद्धिं पवतिस्सामि, तते णं ते पंच पंडवा पंडुसेणre अभिसेओ जाव राया जाए जाव रज्जं पसाहेमाणे विहरति, तते णं ते पंच पंडवा दोवती य Eaton Internationa For Penal Use On ~453~ १६ अमर कङ्काज्ञा० पाण्डुमधुरानिवेश: पाण्डवदी क्षा सू. १२७-१२८ ॥२२५॥ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ---------- अध्ययनं [१६], -------------- मूलं [१२५-१३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: देवी अन्नया कयाई पंहुसेणं रायाणं आपुच्छति, सते णं से पंडुसेणे राया कोटुंबियपुरिसे सहावेति २ एवं वयासी-खिप्पामेव भो! देवाणु ! निक्षमणाभिसेयं जाव उवहवेह पुरिससहस्सपाहणीजो सिवियाओ उवट्ठवेह जाव पचोरुहंति जेणेव थेरा तेणेष. आलित्ते णं जाप समणा जाया चोइस्स पुवाई अहिज्जति २ बाहणि वासाणि छट्ठट्ठमदसमखुवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं अप्पाणं भावमाणा विहरति (सूत्रं १२८) तते णं सा दोवती देवी सीयातो पचोरूहति जाव पञ्चतिया सुचयाए अज्याए सिस्सिणीयताए दलयति, इक्कारस अंगाई अहिजइ बहूणि वासाणि छट्ठमदसमदुवालसेहिं जाव विहरति(सूत्रं१२९) तते ण थेरा भगवंतो अन्नया कयाई पंहुमहरातो णयरीतो सहसंबवणाओ उज्जाणाओ पडिणिक्खमंति २ बहिया जणवयविहारं विहरंति, तेणं कालेणं २ अरिहा अरिहनेमी जेणेव सुरहाजणवए तेणेव उवा०२ सुरद्वाजणवयंसि संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति, तते णं बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमातिक्खइ०-एवं खलु देवाणुप्पिया ! अरिहा अरिहनेमी सुरद्वाजणवए जाब वि०, तते णं से जुहिडिल्लपामोक्खा पंच अणगारा बहुजणस्स अंतिए एपमढे सोचा अन्नमन्नं सद्दाति २ एवं व०-एवं खल देवाणु ! अरहा अरिहनेमी पुवाणु० जाव विहरह, तं सेयं खलु अम्हंधेरा आपुच्छिता अरहं अरिहुनेमि चंदणाए गमित्तए, अन्नमन्नस्स एयमह पडिसुणेति २ जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव जवा०२ थेरे भगवते वदंति णमसंति २त्ता एवं व०-इच्छामो णं तुम्भेहिं अभणुनाया समाणा अरहं अरिह ~454~ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१२५-१३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: १६ अमर ज्ञाताधर्म-10 कधानम् ॥२२॥ | ता. द्रौप दीदीक्षा पाण्डवमो क्षश्च सू. ४१२९-१३० e eeeeeesercerserse नेमि जाव गमित्तए, अहासुहं देवा०1, तते णं ते जुहिडिल्लपामोक्खा पंच अणगारा धेरेहिं अम्भणुन्नाया समाणा थेरे भगवंते बंदति णमंसति २राणं अंतियाओ पडिणिक्खमंति मासंमासेणं अणिक्खितेणं तवोकम्मेणं गामाणुगाम दुईज्जमाणा जाव जेणेव हत्थकप्पे नयरे तेणेव उवा हत्थकप्पस्स बहिया सहसंबवणे उजाणे जाव विहरंति, तते णं ते जुहिडिल्लवजा चत्तारि अणगारा मासखमणपारणए पढमाए पोरसीए सज्झायं करेंति बीयाए एवं जहा गोयमसामी णवरं जुहिडिल्लं आपुच्छंति जाव अडमाणा बहुजणसई णिसामेंति, एवं खलु देवा! अरहा अरिहनेमी उर्जितसेलसिहरे मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं पंचहिं छत्तीसेहिं अणगारसएहिं सद्धिं कालगए जाव पहीणे, तते णं ते जुहिडिल्लवजा चसारि अणगारा बहुजणस्स अंतिए एयम8 सोचा हत्थकप्पाओ पडिणिक्खमंति २ जेणेय सहसंबवणे उज्जाणे जेणेव जुहिडिल्ले अणगारे तेणेव उवा०२ भत्तपाणं पचुवेक्खंति २ गमणागमणस्स पडिकमंति २ एसणमणेसणं आलोएंति २ भत्तपाणं पडिदंसेंति २एवं व०-एवं खलु देवाणुप्पिया! जाव कालगए तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया! इमं पुत्वगहियं भत्तपाणं परिद्ववेत्ता सेत्तुझं पञ्चयं सणियं सणियं दुरूहित्तए संलेहणाए झूसणा सियाणं कालं अणवखमाणाणं विह रित्तएत्तिकट्ठ अण्णमणस्स एयमढे पडिसुणेति २तं पुबगहियं भत्तपाणं एगंते परिट्ठवेंति २ जेणेच सेत्तुले पचए तेणेव उवागचछ। २त्ता सेत्तुञ्ज पवयं दुरुहंति २ जाव कालं अणवखमाणा विहरति । तते णं ते अहिडिल्लपामोक्खा ॥२२॥ see ~455~ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१२५-१३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: पंच अणगारा सामाइयमातियाति चोइस पुवाई बहूणि वासाणि दोमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झोसित्ता जस्सट्टाए कीरति णग्गभावे जाव तमहमाराति २ अणंते जाव केवलवरणाणदंसणे समुप्पन्ने जाव सिद्धा (सूत्रं १३०)तते णं सा दोवती अजा सुव्वयाणं अज्जियाणं अंतिए सामाइयमाइयाई एकारस अंगार्ति अहिज्जति २ बहणि वासाणि मासियाए संलेहणाए. आलोइयपडिता कालमासे कालं किच्चा बंभलोए उववन्ना, तत्थ णं अत्थेगतियाणं देवाणं दस सागरोवमाई ठिती प० तस्थ णं दुवतिस्स देवस्स दस सागरोवमाई ठिती पन्नत्ता, सेणं भंते ! दुबए देवे ततो जाब महाविदेहे वासे जाव अंतं काहिति । एवं खलु जंबू ! समणेणं सोलमस्स अपम? पण्णतेत्तिवेमि (सूत्रं १३१) सोलसम-नायज्झयणं समत्तं ॥१६॥ 'एगट्ठिय'त्ति नौः 'नूमंति'त्ति गोपयन्ति, श्रान्त:-खिन्नः तान्त--तरकाण्डकाडावान् जातः परितान्त: सर्वथा खिन्नः। एकाथिका बैते, 'इच्छंतएहिंति इच्छया कयाचिदित्यर्थः, 'वेयालीएतिवेलातटे इति । इहापि सूत्रे उपनयो न दृश्यते, एवं चासी द्रष्टव्य:-"सुबहुपि तवकिलेसो नियाणदोसेण दूसिओ संतो । न सिवाय दोवतीए जह किल सुकुमालियाजम्मे | ॥१॥" अथवा-'अमणुनमभत्तीए पत्ते दाणं भवे अणत्थाय । जह कड्डयतुंबदाणं नागसिरिभवमि दोवइए ॥२॥"ति [सुबहुरपि तपःक्लेशो निदानदोषेण दूपितः सन् | न शिवाय द्रौपद्या यथा सुकुमारिकाजन्मनि ॥१॥ अमनोज्ञमभक्या पात्रे दानं भवेदनाय । यथा कटुतुम्बदानं नागश्रीभवे द्रौपद्या अपि ॥२॥] समाप्तं पोडशज्ञाताध्ययन विवरणम् ॥१६॥ अत्र अध्ययनं-१६ परिसमाप्तम् ~456~ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१७], ----------------- मूलं [१३२-१३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्. ॥२२॥ अथ सप्तदशाध्ययनविवरणम् ॥१७॥ १६ अमर. द्रौपद्या दे वत्वं १३१ अथ सप्तदशं व्याख्यायते, अस्य च पूर्वेण सहायमभिसम्बन्धः-इहानन्तराध्ययने निदानात् कुत्सितदानाद्वा अनर्थ उक्त 81 १७ अश्वइह सिन्द्रियेभ्योऽनियत्रितेभ्यः स उच्यते, इत्येवंसम्बद्धमिदम् ज्ञा.सांयाजति णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सोलसमस्स णायज्मयणस्स अयमझे त्रिकागमः पण्णत्ते सत्सरसमस्स णं णायज्झयणस्स के अढे पन्नते ?, एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं २ सू,१३२ हत्थिसीसे नयरे होत्था, वण्णओ, तत्थ णं कणगकेऊ णामं राया होत्था, वपणओ, तत्थ णं हस्थिसीसे णयरे बहवे संजुत्ताणाचावाणियगा परिवसंति अड्डा जाव बहुजणस्स अपरिभूया यावि होत्था, तते णं तेसिं संजुत्ताणावावाणियगाणं अन्नया एगयओ जहा अरहण्णओ जाव लवणसमुई अणेगाई जोपणसयाई ओगाढा यावि होत्या, तते णं तेसिं जाव बहणि उप्पातियसयाति जहा मागंदियदारगाणं जाव कालियवाए यतत्थ समुत्थिए, तते णं साणावा तेणं कालियवाएणं आघोलिज्जमाणी २संचालिजमाणी२ १२२७॥ संखोहिज्जमाणीर तत्व परिभमति, तते णं से णिज्जामए गढमतीते णट्ठसुतीते णट्ठसपणे मूढदिसाभाए जाए यावि होत्था,ण जाणइ कयरं देसं वा दिसं वा विदिसं वा पोयवहणे अवहितत्तिकहु ओहयमणसं अथ अध्ययन- १७ "अश्व: आरभ्यते ~ 457~ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१७], ----------------- मूलं [१३२-१३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: कप्पे जाव झियापति, तते गं ते यहचे कुच्छिधारा य कपणधारा य गम्भिलगा य संजत्ताणावावाणियगा य जेणेव से णिज्जामए तेणेव उवा०२ एवं व०-किन्नं तुम देवा०1 ओहयमणसंकप्पा जाव झियायह ?, तते णं से णिज्जामए ते वहवे कुच्छिधारा य४एवं वक-एवं खलु देवाणहमतीते जाव अवहिएत्तिक? ततो ओहयमणसंकप्पे जाव झियामि, तते ण ते कण्णधारा तस्स णिज्जामयस्स अंतिए एयमह सोचा णिसम्म भीया ५ ण्हाया कयवलिकम्मा करयल थहणं इंदाण य खंधाण य जहा मल्लिनाए जाव उवायमाणा २चिट्ठति, तते णं से णिज्जामए ततो मुहुर्ततरस्स लद्धमतीते ३ अमूढदिसाभाए जाए यावि होत्या, तते णं से णिज्जामए ते बहवे कुच्छिधारा य एवं व०-एवं खलु अहं देवालद्धमतीए जाव अमूढदिसाभाए जाए, अम्हे णं देवा! कालियदीवंतेणं संबूढा, एस णं कालियदीवे आलोकति, तते णं ते कुच्छिधारा य ४ तस्स णिजागमस्स अंतिए सोचा हट्टतुट्टा पयक्खिणाणुकूलेणं वारण जेणेव कालीयदीवे तेणेव उवागच्छंति २ पोयवहणं लंति २ एगडियाहिं कालियदीवं उत्तरंति, तस्थ णं बहवे हिरपणागरे य सुवपणागरे य रयणागरे य पइरागरे य बहवे तत्थ आसे पासंति, किं ते?, हरिरेणुसोणिमुत्तगा आईणवेढो, तते णं ते आसा ते वाणियए पासंति तेसिं गं, अग्यायंति २भीया तत्था उधिग्गा उधिग्गमणा ततो अणेगाई जोइणाति उम्भमंति, ते गं तत्थ पउरगोयरा पउरतणपाणिया निन्भया निरुबिग्गा सुहंसुहेणं विहरंति, तए णं संजुत्तानावावाणियगा अण्णमण्णं एवं ब०-किण्हं अम्हे Rodreese688@@usesesese ~ 458~ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१७], ----------------- मूलं [१३२-१३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म कथानम्. १७ अश्वज्ञाता. अ. श्वानयनायंप्रेषणं सू, १३३ ॥२२८॥ creesea देवा० आसेहिं?, इमेणं बहवे हिरण्णागराय सुवण्णागरा य रयणागरायवइरागरा य त सेयं खलु अम्हं हिरण्णस्स य सुवण्णस्स य रयणस्स य वइरस्सय पोयवहणं भरित्तएत्तिकडअन्नमन्नस्स एयमह पडिसुणतिर हिरण्णस्स य सुवण्णस्स य रयणस्स य वइरस्स य तणस्स य अण्णस्स य कट्टस्स य पाणियस्स य पोयवहणं भरेंति २ पयक्खिणाणुकूलेणं वाएणं जेणेव गंभीरपोयवहणपणे तेणेव उ०२ पोयवहणं लंबंति २ सगडीसागडं सजेति २तं हिरणं जाव वरं च एगहियाहिं पोयवहणाओ संचारेंति २ सगडीसागडं संजोइंति २ जेणेच हथिसीसए नयरे तेणेव उवा०२ हत्थिसीसयरस नयरस्स बहिया अग्गुज्जाणे सस्थणिवेसं करेंति २ सगडीसागडं मोएंति २महत्थं जाव पाहुडं गेहति २हत्धिसीसंच नगरं अणुपविसंति २ जेणेव कणगकेऊ तेणेव उ०२जाव उवणेति, तते णं से कणगकेऊ तेसिं संजुत्ताणावावाणियगाणं तं महत्थं जाव पडिच्छति (सूत्रं १३२) ते संजुत्ताणावावाणियगा एवं व०-तुम्भे णं देवा! गामागर जाच आहिंडह लवणसमुदं च अभिक्खणं २ पोयवहणणं ओगाहह तं अस्थि याई केइ भे कहिचि अच्छेरए दिट्टपुचे?, तते गंते संजुत्ताणावावाणियगा कणगकेउं एवं व०-एवं खलु अम्हे देवा! इहेव हत्थिसीसे नपरे परिवसामो तं चेव जाव कालियदीवंतेणं संवृदा, तथणं बहवे हिरण्णागरा यजाव बहवे तत्थ आसे, किंते?, हरिरेणु जाच अणेगाइं जोयणाई उन्भमंति, तते णं सामी! अम्हेहि कालियदीवे ते आसा अच्छेरए दिवे, तते णं से कणगकेऊ तेसिं संजत्तगाणं अंतिए एयमहूँ सोचा ते Recenesedeseetise ॥२२॥ ~ 459~ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१७], ----------------- मूलं [१३२-१३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: संजुत्तए एवं प०-च्छह णं तुम्भे देवा०मम कोडुंबियपुरिसेहिं सद्धिं कालियदीवाओ ते आसे आणेह, ततेणं से संजुत्ता०कणगकेउं एवं व०-एवं सामित्तिकट्ठ आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेति, तते णं कणगके कोटुंपियपुरिसे सद्दावेति २ एवं वनाच्छह णं तुम्भे देवा! संजुत्तएहिं सद्धिं कालियदीवाओ मम आसे आणेह, तेवि पडिसुगंति, तते णं ते कोडंबिय० सगडीसागडं सज्जेंति २तस्थ णं बहणं वीणाण य वल्लकीण य भामरीण य कच्छभीण य भंभाण य छन्भामरीण य विचित्तवीणाण य अन्नेसिं च बहणं सोर्तिदियपाउग्गाणं दवाणं सगडीसागडं भरेंति २बहूर्ण किण्हाण य जाव सुकिलाण य कट्ठकम्माण यगंथिमाण य ४ जाव संघाइमाण य अन्नेसिं च बहणं चक्खिदियपाउग्गाणं दवाणं सगडीसागडं भरेंति २ पटणं कोठपुडाण य केयइपुडाण य जाच अन्नेसिं च यहणं घाणि दियपाउग्गाणं दवाणं सगहीसागडं भरेति २ बहुस्स खंडस्स य गुलस्स य सकराए य मच्छडियाए य पुप्फुत्तरपउमुत्तर अन्नेर्सि च जिम्भिदियपाउग्गाणं दवाणं भरेंति २षहणं कोयवयाण य कंबलाण य पावरणाण य नवतयाण य मलयाण य मसूराण य सिलावहाण जाव हंसगम्भाण य अन्नेसि च फार्सिदियपाउग्गाणं दवाणं जाव भरेति रसगडीसागडं जोएंति २ जेणेच गंभीरए पोयट्ठाणे तेणेव य उवा०२सगडीसागडं मोएंति २पोयवहणं सजेंति २ तेसिं उकिटाणं सहफरिसरसरूवगंधाणं कट्ठस्स य तणस्स य पाणियस्स य तंदुलाण य समियस्स य गोरसस्स य जाव अन्नेसिं च बहूर्ण पोयवहणपाउग्गाणं पोयवहर्ण भरति २दक्खि ~ 460~ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१७], ----------------- मूलं [१३२-१३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म कथाक्रम्. १७ अश्वज्ञाता. अश्वानयनायंप्रेषणं सू. १३३ ॥२२९॥ णामुकलेणं वारण जेणेव कालियदीवे तेणेष ख्वा०२पोयषहणं लकति २ताई किट्ठाईसहफरिसरसरूव- गंधाई एगडियाहिं कालियदीवं उसारेंति २ जर्हि २चणं ते आसा आसयंति वा सयंति वा चिट्ठति वा तुपति वा तहिं २ च णं ते कोर्दुवियपुरिसा ताओ बीणाओ य जाव वि चित्सवीणातो य अन्नाणि बहणि सोइंदिपपापग्गाणि य दवाणि समुद्दीरमाणा चिट्ठति तेर्सि परिपेरंतेणं पासए ठवेंति २ णिच्चला णिफंदा तुसिणीया चिट्ठति, जत्थ २ ते आसा आसयंति वा जाव तुयति वा तत्थ तत्थ णं ते कोडेविय० यहणि किण्हाणि य५कट्टकम्माणि य जाव संघाइमाणि य अन्नाणि य पहणि चखिदियपाउग्गाणि य दबाणि ठवेंति तेर्सि परिपेरंतेणं पासए ठवेंति २ णिचला णिफंदा० चिट्ठति जत्थ २ ते आसा आसयंति ४ तत्थ २णं तेर्सि बहणं कोट्टपुडाण य अन्नेसिं च धाणिदियपाउग्गाणं दवाणं पुंजे य णियरे य करेंतिरतेसिं परिपेरंते जाव चिट्ठति जत्थरणं से आसा आसयंति ४ तत्थ २ गुलस्स जाव अन्नेसि च बहूर्ण जिभिदियपाउग्गाणं दवाणं पुंजे य निकरे य करेंति २ वियरए खणंति २गुलपाणगस्स खंडपाणगस्स पारपाणगस्स अन्नसिं च बहणि पाणगाणं वियरे भरेति रतेसिं परिपेरंतेणं पासए ठवेंति जाव चिट्ठति, जहि २च ते आसा आसतहिं २च ते बहवे कोयवया य ाव सिलाषया अण्णाणि य फासिदियापाउगाई अस्थुयपच्चत्थुयाई ठवेंति २ तेर्सि परिपेरंतेणं जाव चिट्ठति, तते णं आसा जेणेव एते उकिट्ठा सहफरिसरसरूपगंधा तेणेव उवा० २ तत्थ णं अत्थेगतिया आसा अपुधा णं इमे सफरिसरसरूवगंधा STOeSaeeda ॥२२९॥ ~ 461~ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१७], ----------------- मूलं [१३२-१३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: eeeeeeeeeserResese4 इतिकडु तेसु उकिडेसु सफरिसरसरूवगंधेसु अमुच्छिया ४ तेर्सि उकिटाणं सद्द आव गंधाणं दूरदूरेणं अवमंति, ते णं तत्थ पउरगोयरा पउरतणपाणिया णिन्भया णिरुधिग्गा सुहंसुहेणं विहरंति, एवामेव समणाउसो। जो अम्हं णिग्गयो वा २ सहफरिसरसरूवगंधा णो सज्जति से गंहलोए चेव बहणं समणाणं ४ अञ्चणिज्जे जाय वीतिवयति (सूत्रं १३३) तत्थ र्ण अस्थेगतिया आसा जेणेव उकिट्टसद्दफरिसरसरूवगंधा तेणेव उवा०२ तेसु उफिटेसु सफरिस ५ मुच्छिया जाव अज्झोववण्णा आसेविड पयत्ते यावि होत्था, तते णं ते आसा एए उकिटे सद्द ५ आसेवमाणा तेहिं यहूहिं कूडेहि य पासेहि य गलएसु य बझंति, तते णं ते कोटुंबिया एए आसे गिण्हंति २ एगद्वियाहिं पोयवहणे संचारेंति २ तणस्स कट्ठस्स जाव भरेंति, तते गं ते संजुत्ता दक्षिणाणुकूलेणं वाएणं जेणेव गंभीरपोयपदणे तेणेव उवा०२ पोयवहणं लंति २ ते आसे उत्तारेति २ जेणेव हत्यिसीसे णयरे जेणेव कणगकेऊ राया तेणेष उवागच्छन्ति २त्ता करयल जाव बद्धावेंति २ते आसे उवणेति, तते णं से कणगकेज तेसिं संजुत्तावाणियगाणं उस्सुकं वितरति २ सकारेति संमाणेति २ ता पडिविसजेति, तते णं से कणगकेक कोटुंबियपरिसे सहावेह २ सकारेति पडिविसजेति, तते णं से कणगकेफ आसमदए सद्दावेति २एवं च०तुम्भेणं देवा ! मम आसे विणएह, तते णं ते भासमद्दगा तहत्ति पडिसुणंति २ ते आसे यहूहिं मुहवंधेहि य कण्णबंधेहि यणासाबंधेहि य वालपंधेहि य खुरवंधेहि य कडगवंधेहि य ख लिणवंधेहि य अहिलाणेहि ~ 462~ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१७], ----------------- मूलं [१३२-१३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म १७अन्व कथाङ्गम्. ज्ञाता. अ ॥२३॥ श्वानांपारतन्त्र्य स. १३४ यपडियाणेहि य अंकणाहि य वेलप्पहारेहि य चित्तप्पहारेहि य लयप्पहारेहि य कसप्पहारेहि य छिवप्पहारेहि य विणयंति २ कणगकेउस्स रन्नो उवणेति २ तते णं से कणगकेऊ ते आसमदए सकारेति २पडिविसजेति, तते णं ते आसा बहहिं मुहबंधेहि य जाव छिवप्पहारेहि य बहूणि सारीरमाणसाणि दुक्खाति पाति, एवामेव समणाउसो! जो अम्हं णिग्गंथो वा २ पचइए समाणे इढेसु सदफरिस जाव गंधेसु य सज्जंति रजति गिझंति मुझंति अझोववनंति से णं इहलोए चेच वरणं समणाण य जाव सावियाण य हील णिजे जाव अणुपरियहिस्सति (सूत्रं १३४) सर्व सुगम, नवरं नहमतीएचि-चक्षुनिस्स विषयानिश्चायकखात् नष्टश्रुतिको निर्यामकशाखेण दिगादिविवेचनस्य करणे अशक्तखात् , नष्टसंज्ञो मनसो भ्रान्तवात् , किमुक्तं भवति ?-मूढः-अविनिधितो दिशां भागो-विभागो यस्य स मढदिग्भागः. कुक्षिधारादयो यानपात्रव्यापारविशेषनियोगिनः, 'हिरण्णागरे'त्यादि, हिरण्याकरांश्च सुवर्णाकरांश्च रनाकरांच वैराकरांश्च तदुत्पत्तिभूमिरित्यर्थः, बहूंथात्राश्चान्-घोटकान् पश्यन्ति स्म, 'किंतेति किंभूतान् ? अत्रोच्यते-'हरी'त्यादि, 'आइन्नवेढोति आकीर्णा-जात्याः अश्वाः तेषां 'वेढो'त्ति वर्णनार्थी वाक्यपद्धतिराकीर्णवेष्टकः, स चायं-"हरिरेणुसोणिसुत्तग सकविलमज्जार-1 पायकुकडयोडसमुग्गयसामवना । गोहुमगोरंगगोरीपाडलगोरा पवालवण्णा य धूमवण्णा य केइ ॥१॥ तलपत्तरिट्ठवण्णा सालीवना य भासवन्ना य । केई जंपियतिलकीडगा य सोलोयरिद्वगा य पुंडपइया य कणगपट्टा य केइ ॥ २॥ चकागपि ॥२३॥ REairatna n d ~ 463~ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१७], ----------------- मूलं [१३२-१३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: वण्णा सारसवण्णा य हंसवण्णा य केई । केइत्थ अभवन्ना पक्कतलमेहवना य बहुवन्ना य केइ ॥३॥ संझाणुरागसरिसा। सुयमुहगुंजद्धरागसरिसऽस्थ केई । एलापाडलगोरा सामलयागवलसामला पुणो केइ ।। ४ ॥ बहवे अमे अणिदेसा सामाकासी-1ST सरत्तपीया अञ्चतविसुद्धाविय णं आइण्णजाइकुलविणीयगयमच्छरा हयवरा जहोवएसकमवाहिणोऽविय णं सिक्खाविणी-1 यविणया लंघणवग्गणधावणधोरणत्तिवईजईणसिक्खियगइ, किं ते ?, मणसावि उविहंताई अणेगाई आससयाई पासंति"ति तत्र हरिद्रेणवच-नीलवर्णपांसवः श्रोणिसूत्रकं च-बालकानां वर्मादिदवरकरूपं कटीसूत्रं, तद्धि प्रायः कालं भवति, सह कपिलेन-18 पक्षिविशेषेण यो माजोरो-बिडालः स च तथा पादकुकुट:-कुकुटविशेषः स च तथा बोडं-कपोसीफर्ल तस्स समुद्गकं| सम्पुटमभिन्नावस्थं कपासीफलमित्यर्थः, सचेति द्वन्द्वस्तत एषामिव श्यामो वर्णो येषां ते तथा, इह च सर्वत्र द्वितीयार्थे प्रथमा,18 अतस्तानिति, तथा गोधूमो-धान्यविशेषः तद्वद् गौरमङ्गं येषां ते तथा गौरी या पाटला-पुष्पजातिविशेषस्तद्वये गौरास्ते 1% तथा ततः पदवयस्य कर्मधारयः, गोधूमगौराङ्गगौरपाटलागीरास्तान्, तथा प्रवालवर्णाव--विद्रुमवर्णान् अभिनवपल्लववर्णान् | वा रक्तानित्यर्थः, धूमवर्णाश्च-धूम्रवर्णान् पाण्डुरानित्यर्थः, 'केईति कांश्चिन सर्वानित्यर्थः, इदं च हरीत्यत आरभ्य बोण्ड-1 शब्दे कल्पिता रूपकं भवति १। तलपत्राणि-तालाभिधानवृक्षपर्णानि रिष्ठा च-मदिरा तद्वद्व! येषां ते तलपत्ररिष्ठावर्णा-18 स्तान , तथा शालिवर्णाश्च शुक्लानित्यर्थः, 'भासवण्णा यति भसवर्णाश्च भाषो वा पक्षिविशेपस्तद्वर्णाध कांधिदित्यर्थः, 'जंपियतिलकीडगाय'ति यापिता:-कालान्तरप्रापिता ये तिला:-धान्य विशेषास्तेषां ये कीटका:-जीवविशेषास्तद्वद्ये वर्णसाधात् ते तथा तांश्च यापिततिलकीटकांच 'सोलोयरिट्ठगा यति सावलोक-सोद्योतं यद्रिष्टकं-रनविशेषस्तद्वये वर्णसा-1 ~464~ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१७], ----------------- मूलं [१३२-१३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाजमू. १७अश्वज्ञाता अश्वानां पारतनयं सू.१३४ ॥२३॥ धात ते सावलोकरिष्ठास्तांश्च 'पुंडपझ्या वति पुण्डानि-धवलानि पदानि-पादा येषां ते तथा ते एव पुण्डपदिकास्तांध तथा कनकपृष्ठान् कोचिदितिरूपकं २ । 'चकागपिट्ठवण्ण'त्ति चक्रवाक:-पक्षिविशेषस्तत्पृष्ठस्येव वर्णो येषां ते तथा तान् | सारसवर्णाश्च हंसवर्णान् कांचिद् इति पद्याई, 'केतित्थ अब्भवण्णे'ति कांश्चिदत्राभ्रवर्णान् 'पकतलमेहवण्णा यति पकपत्रो यस्तलः-तालवृक्षः स च मेघश्चेति विग्रहस्तस्खेव वर्णो येषां ते तथा तान् , 'पविरलमेहयषण'ति कचित्पाठा, तथा 'बहुवण्णा के 'त्ति बभ्रुवर्णान् कांचित्पिङ्गानित्यर्थः, बाहुवर्णानिति कचित् दृश्यते, रूपकमिदं ३ । तथा 'संशाणुरागसरिस'ति सन्ध्यानुरागेण सदृशान् वणेत इत्यर्थः, 'सुयमुहगुंजद्धरागसरिसत्य केह'ति शुकमुखस्स गुञ्जार्द्धस्य च प्रतीतस्स रागेण-सटशो रागो येषां ते तथा तान् , अत्र-इह कांश्चिदित्यर्थः, 'एलापाडलगोर'त्ति एलापाटला-पाटलाविशेषोऽथवा एला च पाटला च तद्वत् गौरा ये ते तथा तान् , 'सामलयागवलसामला पुणो केह'त्ति श्यामलता-प्रियङ्गुलता गवलं च-महिपशूज तद्वत् श्यामलान्-श्मामान पुनः काश्चिदिति रूपकं ४ । 'बहवे अन्ने प निदेस'त्ति एकवर्णेनाव्यपदेश्यानित्यर्थः, अत एवाह 'सामाकासीसरत्तपिय'त्ति श्यामकाच काशीसं-रागद्रव्यं तद्वये ते कासीसास्ते च रक्काच पीताश्च येते तथा तान् शबलानित्यर्थः, 'अचंतविसुद्धावियण ति निदोषांश्चेत्यर्थः णमित्यलङ्कारे 'आइण्णजाइकुलविणी-1 रायगयमच्छरति आकीर्णानां-जवादिगुणयुक्तानां सम्बन्धिनी जातिकुले येषां ते तथा ते च ते विनीताय गतमत्सराव-परस्परा8 सहनवर्जिता निर्मसका चेति तथा तान् , 'हयवर'ति हयाना-अश्वानां मध्ये वरान् प्रधानानित्यर्थः, 'जहोवदेसकमवाहिणोड विय णति यथोपदेशक्रममिच-उपदिष्टपरिपाट्यनतिक्रमेणैव वोढुं शीलं येषां ते तथा तानपि च णमित्यलकारे, 'सिक्खा ॥२३॥ ~465~ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१७], ----------------- मूलं [१३२-१३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: विणीयविणय'त्ति शिक्षयेव-अश्वदमकपुरुषशिक्षाकरणादिव विनीतः-अवाप्तः विनयो यैस्ते तथा तान् , 'लंघणवग्गणधा-181 वणधोरणतिवाईजहणसिक्खियगइति लङ्कनं गोंदीनां वल्गन-कूईनं धावन-वेगवद् गमनं धोरणं-चतुरतं गतिविषय || त्रिपदी-मल्लस्येव रङ्गभूम्यां गतिविशेषः एतद्रूपा जविनी-वेगवदी शिक्षितेव शिक्षिता गतिय स्ते तथा तान् , किं ते इति किमपरं, 'मणसावि उविहंताईति मनसाऽपि-चेतसाऽपि न केवलं वपुषा 'उविहंताईति उत्पतन्ति, 'अणेगाई आससयाईति न केवलमश्वानेकैकशः अपि तु अश्वशतानि पश्यन्ति स्मेति,गमनिकामात्रमेतदस्य वर्णकस भावार्थस्तु बहुश्रुतबोध्य इति। 'पजरगोयर'त्ति प्रचुरचरणक्षेत्राः, 'वीणाण येत्यादि, वीणादीनां तश्रीसझ्यादिकृतो विशेषः, भंभा-ढक्का 'कोटपुडे'त्यादि, 18 कोष्ठपुटे ये पश्यन्ते ते कोष्टषुटा:-वासविशेषाः तेषां च, इह यावत्करणादिदं दृश्य-पत्तपुडाण य' पत्राणि तमालपत्रादीनि18 चोयपुडाण ब'चोय'ति बपुट-पत्रादिमयं तद्भाजनं 'तगरपुडाण य एलापुडाण यहिरिवेरपुडाण य चंदणपुडाण य कुंकुमपुडाण य ओसीरपुडाण य चंपगपुडाण य मरुअगपुडाण य दमणगपुडाण य जातिपुडाण य जूहियापुडाण काय मल्लियापुडाण य नोमालियापुडाण य वासंतियापुडाण य केयइपुडाण य कप्तरपुडाण य पाडलपुडाण यत्ति, इह तगरादीनि गन्धद्रव्याणि गान्धिकप्रसिद्धानि, हिरिरं-वालकः उसीरं-बेरणीमूलं, केचित्तु पुष्पजातिविशेषाः लोकप्रसिद्धाः, SIपुष्पजातयश्च प्रायो यधपि बहुदिनक्षमा न भवन्ति तथाऽप्युपायतः कतिपयदिनक्षमाः सम्भाव्यन्ते, न च शुष्कतायामपि तासां सर्वथा सुगन्धाभाव इति तद्ग्रहणमिहादुष्टमिति, तथा 'बहुस्सति बहोः खण्डादेः पुष्पोतरा पद्मोचरा च शर्कराभेदावेव, 'कोयवगाण यति रूतपूरितपटानां प्रावारा:-प्रावरणविशेषा नवतानि-जीनानि मलयानि मसूरकाणि चासनविशेषाः, अथवा ~466~ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१७], ----------------- मूलं [१३२-१३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: कथाङ्गम्म १७अश्वज्ञाता. इन्द्रियास ॥२३॥ दोषगुणाः सू. १३५ मलयानि-मलयदेशोत्पन्नाः वस्त्रविशेषाः, पाठान्तरेण 'मसगाण यति मशका:-कृत्तिमण्डिताः वसविशेषाः शिलापट्टाः- मृणशिलाः, 'समियस्स'चि फणिकायाः, 'खलिणबंधेहि यत्ति खलिनैः-कविकः, 'उवीलणेहि य'ति अवपीडनाभि- बन्धनविशेषः, पाठान्तरे 'अहिलाणेहि' मुखबन्धनविशेषैः 'पडियाणएहि यति पटतानकं पर्याणस्वाधो यहीयते इति, शेष प्रायः प्रसिद्धं । अथेन्द्रियासंबृतानां स्वरूपस्खेन्द्रियासंवरदोषस्य चाभिधायक गाथाकदम्बकं वाचनान्तरेऽधिकमुपलभ्यते, तत्र कलरिभियमहुरतंतीतलतालवंसकउहाभिरामेसु । सद्देसु रज्जमाणा रमंती सोहंदियवसहा ॥१॥ सोइंदियदुहन्तत्तणस्स अह एत्तिओ हवति दोसो । दीविगरुयमसहंतो वहबंधं तित्तिरो पत्तो ॥ २ ॥ धणजहणवणकरचरणणयणगवियविलासियगतीसु । रुवेसु रजमाणा रमंति चक्खिदियवसहा ॥३॥ चक्खिदियदुईतत्तणस्स अह एत्तिओ भवति दोसो । जं जलणंमि जलते पडति पर्यगो अबुद्धीओ॥४॥ अगुरुवरपवरघूवणउउयमल्लाणुलेवणविहीसु । गंधेसु रज्जमाणा रमंति पाणिदियवसा ॥५॥ पाणिदियदुईतत्तणस्स अह एत्तिओ हवह दोसो । ज ओसहिगंधेणं बिलाओ निद्धावती उरगो ॥६॥ तित्तकडुयं कसायंब महुरं बहुखजपेजलेझेसु आसायंमि उ गिद्धा रमति जिभिदियवसहा ॥७॥ जिभिदियदुईतत्तणस्स अह एत्तिओ हवह दोसो। जंगललग्गुक्खित्तो फुरह थलविरल्लिओ मच्छो ॥८॥ उउभयमाणसुहेहि य सविभवहिययगमणनिब्बुइकरेसु । फासेसु रजमाणा रमंति फासि दियव ae ॥२३॥ ~ 467~ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१७], ----------------- मूलं [१३५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: सट्टा ॥९॥ फासिदियदुईतत्तणस्स अह एत्तिओ हवह दोसो। जं खणइ मत्थयं कुंजरस्स लोहंकुसो तिक्खो ॥१०॥ कलरिभियमहुरतंतीतलतालवंसकउहाभिरामेसु । सद्देसु जे न गिद्धा वसहमरणं न ते मरए ॥११॥ थणजहणवयणकरचरणनयणगवियविलासियगतीसु । रूवेसु जे न रत्ता बसहमरणं न ते मरए ॥ १२॥ अगरुवरपवरधूवणउउयमल्लाणुलेवणविहीसु । गंधेसु जे न गिद्धा वसहमरणं न ते मरए ॥१३॥ तित्तकडुयं कसायं व महुरं बहुखजपेजलेज्झेसु । आसाये जे न गिद्धा वसहमरणं न ते मरए ॥ १४ ॥ उउभयमाणसुहेसु य सविभवहिययमणणिबुइकरेसु । फासेसु जे न गिद्धा वसहमरणं न ते मरए ॥ १५ ॥ सहेसु य भयपावएसु सोयविसयं उवगए । तुट्टेण व रुडेण व समणेण सया ण होय ॥ १६ ॥ रूवेसु य भद्दगपावएस चक्खुविसयं उवगएसु । तुडेण व रुद्वेण व समणेण सया ण होय ॥ १७॥ गंधेसु य भयपावरसु घाणबिसयं उवगएसु । तुट्टेण व रुडेण व समणेण सया ण होयत्वं ॥ १८॥ रसेसु य भयपावएसु जिन्भविसयं उवगएसु । तुटेण व रुद्वेण व समणेण सया ण होयचं •॥१९॥ फासेसु य भइयपावएमु कायविसयं उवगएसु । तुट्टेण व रुढेण व समणेण सया ण होयचं ॥२०॥ एवं खस्तु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सत्तरसमस्स णायजायणस्स अयMRI मढे पन्नत्तेत्तिवेमि ( सूत्रं १३५) सत्तरसमं नायज्झयणं समत्तं ॥ १७ ॥ eeeeeeeeee ~ 468~ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) श्रुतस्कन्धः [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ज्ञावाधर्म कथाङ्गम्. ॥२३३॥ “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र -६ (मूलं + वृत्तिः) अध्ययनं [१७], • मूलं [१३५] + गाथा: आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः 'कलरमियमरतितलताल वंसककुहाभिरामेसु ति कला:- अत्यन्तश्रवणहृदयहराः अव्यक्तध्वनिरूपा अथवा कलावन्तः- परिणामचन्त इत्यर्थः रिभिताः खरघोलनाप्रकारवन्तः मधुराः - श्रवणसुखकरा ये रात्रीतलतालवंशाः ते तथा, तत्र तत्रीवीणा तलतालाः- इस्ततालाः अथवा तलाः-हस्ताः बालाः-कंसिनः वंशः-वेणवः इह च तमादयः कलादिभिः शब्दधर्मैर्विशेषिताः शब्दकारणलाचे च ते कहुदा:-प्रधानमः स्वरूपेणाभिरामाथ - मनोज्ञा इति कर्मधारयोऽतस्तेषु, रमन्ति- रतिं कुर्वन्तीति इति योगः, 'सहेसु रामाणा रति सोइंदियमसह चि शब्देषु-मनोज्ञध्वनिषु श्रोतोचिषयेषु रम्यमाना - रामकन्तः श्रोत्रेन्द्रियस्य वशेन बलेन ऋताः पीडिता इति विग्रहः, ये शब्देषु रज्यन्ते तत्कारणेषु तत्र्यादिषु श्रोत्रेन्द्रियवशाद्रमन्ते इति वाक्यार्थः, अनेन च कार्यतः श्रोत्रेन्द्रिय स्वरूपमुक्तं ॥ 'सोइंदियदुद्दतत्तणस्स अह एत्तिओ हवइ दोसो । दीवियस्यमसहंतो बहबंधं तित्तिरो पत्तो' ॥२॥ कण्ठ्या, नवरं शाकुनिकपुरुषसम्बन्धी पञ्जरस्थतित्तिरो द्वीपिका उच्यते तस्य यो रवस्त| मसहमान: स्वनिलयान्निर्गतो वर्ध-मरणं बन्धं च पञ्जरबन्धनं प्राप्त इत्यर्थः । 'धणजघणवयणकरचरणनयणगद्दियविलासियगईसु ति स्तमादिषु तथा गर्वितानां सौभाग्यमानवतीनां श्रीणां या विलसिता जातविलासाः सविकारा गतयस्तासु चेत्यर्थः । 'रूवेसु रज्खमाणा रमंति चक्खिदियवसट्टा' प्रतीतमेव, 'चक्खिवियदुदंत तणस्स अह एतिओ हवइ दोसो । जं जलणंमि जलते बडह पर्यगो अबुद्धीओ ॥ ४ ॥ कण्ठ्या, 'अगुरुवरपवर धूषणउउयमहाणुलेवणविहीसु । गंधेसु रजमाणा रमंति वाणिदिव्यवसट्टा ॥५॥ कण्ठ्याः, नवरं अमुरुवरः - कृष्णागरुः प्रवरधूपनानि - गन्धयुक्त्युपदेशविरचिता धूपविशेषतः, 'उउयचि ऋतौ २ यान्युपचितानि तानि आर्तवानि माल्यानि जात्यादिकुसुमानि अनुलेपनानि च श्रीखण्डकुङ्कुमादीनि विषयः - एतत्प्रकारा For Penal Use Only ~469~ १७अम्ब ज्ञाता० इन्द्रियासं वरसंवर दोषगुणाः सू. १३५ ॥२३३॥ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१७], ----------------- मूलं [१३५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: । इति॥'घाणिदियदुरन्तत्तणस्स आह एसिओ भवति दोसो। ओसहिगंघेणं विलाओ निद्धावई उलगों' ६, कण्ठ्या, शतिसकदु कसायंषमहुरं बहु खजपेजलेज्मेसु । आसायंमि उ गिद्धा मंति जिभिदियवसा॥७॥, पूर्ववत्, नवरं तिक्तानि-निम्बकटुकादीनि कदुकानि-शृङ्गबेरादीनि कयायाणि-मुमादीनि अम्लानि-तक्राविसंस्कृतानि मधुराणि-सण्डा-3 दीमि खायानि-कूरमोदकादीनि पेयानि-जलमयदुग्धादीनि लेखानि-अधुशिखरिणीप्रभृतीनि आस्वादे-से | 'जिभिदियदुईतत्तणस बह एतिजो भवा दोसो। जे गललग्मुक्खिचो फरह थलविरेडिओ मच्छो ॥८॥ कण्ठया, नवरं मलं-विजिपं सब लनः कण्ठे विदला उत्क्षिप्तो-जलादुतस्ततः कर्मधारयः, स्फुरति-स्पन्दते सले-भूतले 'विरेलिओति प्रसास्तिः वित इत्यर्थः यः स तथा ॥ 'उडभयमाणसुहेसु य सविभवहिययमणनिम्बुड़करेसु फासेसु रजमाणा रमति फार्सिदियवसहा॥॥ कण्ठ्या, नवरं ऋतुष-हेमन्तादिषु भव्यमानानि-सेव्यमानानि मुखानि-सुखकराणि तानि तथा तेषु,सविभवानि-18 समृद्धियुक्तानि महाधनानीत्यर्थः, हितकानि-प्रकत्यनुकूलानि सविभवानां वा-श्रीमतां हितकानि यानि तानि तथा मनसो नितिकराणि यानि तानि तथा ततः पदत्रयस्य तवयस्स चा कर्मधारयोऽतस्तेषु, सक्चन्दनाङ्गनावसनतूल्यादिषु द्रव्येविति गम्यते, 'फार्सिदियदुईतत्तणस्स अह एत्तिो हवइ दोसो। जं खणइ मत्थय कुंजरस्स लोहंकुसो तिक्खो ।।१०।। भावना प्रतीतैव, अथेन्द्रियाणां संवरे गुणमाह-कलरिभियमहुरतंतीतलतालवंसककहाभिरामेसु । सद्देसु जे न गिद्धा वसट्टमरणं न ते मरए [॥१२॥ पूर्ववत्, नवरमिह तव्यादयः शब्दकारणखेनोपचाराच्छन्दा एव विवक्षिता अतः शम्देष्वित्येतस्य विशेषणतया व्याख्येया:, तथा वशेन-इन्द्रियपारतक्येण ऋता:-पीडिता वार्ताः वशं वा-विषयपारतच्यं ऋता:-प्राप्ता वशााः तेषां मरणं वशाते ~ 470~ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१७], ----------------- मूलं [१३५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: मरणं वशत्तमरणं वा न ते 'मरए'त्ति म्रियन्ते छान्दसखादेकवचनप्रयोगेऽपि बहुवचनं व्याख्यातमिति, 'थणजघणवयणकर- १७अश्वकथाङ्गम्. | चरणनयणगवियविलासियगईसु । रूवेसु जे न रत्ता वसट्टमणं न ते मरए।।१२॥ एवमन्यास्तिस्त्रो गाथाः पूर्वोक्तार्था वाच्याः , उप- ज्ञाता. देशमिन्द्रियाश्रितमाह-सद्देसु य भद्दयपावएसु सोयविसयं उवगएसु । तुद्वेण व रुद्वेण व समणेण सया न होय।।१६॥ कण्ठ्या ,नवरं इन्द्रियासं. ॥२३४॥ भद्रकेषु-मनोज्ञेषु पापकेषु-अमनोत्रेषु क्रमेण तुष्टेन-रागवता रुष्टेन-रोषवतेति, एवमन्या अपि चतस्रोऽध्येतव्या इति ॥ इह विशे- वरसंवर पोपनयमेवमाचक्षते-"जह सो कालियदीयो अणुवमसोक्खो तहेब जइधम्मो । जह आसा तह साहू वणियबष्णुकूलकारिजणा | दोषगुणाः I॥ १॥ जह सद्दाइअगिद्धा पत्ता नो पासबंधणं आसा । तह विसएसु अगिद्धा बझंति न कम्मणा साहू ॥२॥ जह सच्छंद-18 विहारो आसाणं तह य इह वरमुणीणं । जरमरणाई विवज्जिय संपत्ताणंदनिवार्ण ॥३॥ जह सद्दाइसु गिद्धा बद्धा आसा तहेव विसयरया । पावेंति कम्मबंधं परमासुहकारणं घोरं ॥४॥जह ते कालियदीवा णीया अन्नत्थ दुहगणं पत्ता । वह धम्मपरिभवा अधम्मपत्ता इह जीवा ॥ ५॥ पावेंति कम्मनरवइवसया संसारवाहयालीए । आसप्पमदएहि व नेरइयाइहि ॥ दुक्खाई ॥६॥" [ यथा स कालिकद्वीपोऽनुपमसौख्यस्तथा यतिधर्मः । यथाऽश्वास्तथा साधवः वणिज इवानुकूलकारिणो18 जनाः॥१॥ यथा शब्दायेषु अगृद्धाः प्राप्ता न पाशबन्धनं अश्वाः । तथा विषयेषु अगृद्धा बध्यन्ते न कर्मणा साधवः ॥२॥ यथा स्वच्छन्दविहारोऽश्वानां तथाचेह वरमुनीनां । जरामरणानि विवर्य संप्राप्ताऽऽनन्दं निर्वाणं ॥ ३॥ यथा शब्दादिषु गृद्धा | ॥२३४॥ बद्धा अश्वास्तथैव विषयरताः । प्राप्नुवन्ति कर्मबन्धं परमासुखकारणं घोरम् ॥ ४॥ यथा ते कालकद्वीपात् नीता अन्यत्र दुःख-18 लरकलeacence ~ 471~ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१७], ----------------- मूलं [१३५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: एकटहर गणं प्राप्तः । दवा धर्मपरिभ्रष्टाः अधर्मप्राप्ता इह जीवाः ॥ ५॥ प्राप्नुवन्ति कर्मनरपतिवशगताः संसारवाशाली अश्वप्रमर्दकैI रिख नैरयिकादिभिर्दुःखानि ॥ ६ ॥] इति सप्तदर्श ज्ञातं विवरणतः समाप्तम् ॥ १७ ॥ -name अथ अष्टादशज्ञाताध्ययनम् ॥ अथाष्टादशमारभ्यते, अस्स चाय पूर्वेण सहायमभिसम्बन्धः-पूर्वमिनिन्द्रियवशवर्तिनामितरेषां चानघुतरावुक्ताविह तु लोभवशवर्तिनामितरेषां च तावेवोच्यते इत्येवंसम्बद्धमिदम् जतिणं भंते! समणेणं सत्तरसमस्स अयमढे पपणत्ते अट्ठारसमस्स के अढे पन्नसे?,एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं श्रायगिहे णाम भयरे होत्था, वण्णओ,तस्थ कधण्णे सत्यवाहे भहा भारिया,तस्मण धण्णस्स सत्यवाहस्स पुत्ता भदाए अत्तया पंच सत्यवाहदारगा होत्था,तं०-धणे धणपाले धणदेवेधणगोवेधणरक्खिए, तस्स ण धणस्स सत्यवाहस्स धूया भद्दाए अत्तया पंचण्हं पुत्ताणं अणुमग्गजातीया सुंसुमाणामंदारिया होत्था सूमालपाणिपाया, सस्स गंधण्णस्स सत्यवाहस्स चिलाए नामंदासचेडे होस्था अहीणपंचिंदियसरीरे मंसोबचिए बालकीलावणकुसले यावि होत्या, तते णं से दासचेडे सुंसुमाए दारियाए बालग्गाहे जाए यावि होत्था, सुंसुमं दारियं कडीए गिण्हति २ बरहिं दारएहि य दारियाहि य भिएहि यरिंभियाहिप कुमारएदि - अत्र अध्ययनं-१७ परिसमाप्तम् अथ अध्ययन- १८ "सुसुमा" आरभ्यते ~472~ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१८], ----------------- मूलं [१३६-१३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: शाताधर्म कथाम १८ सुंसुमाज्ञाता. चिलातिनिर्धाटनं ॥२३५॥ सू. १३६ य कुमारियाहि य सद्धिं अभिरममाणे २ विहरति, तते णं से चिलाए दासचेडे तेर्सि बहूणं दारियाण य ६ अप्पेगतियाणं खल्लए अवहरति, एवं बट्टए आडोलियातो तेंदुसए पोत्नुल्लए साडोल्लए अप्पेगतियाणं आभरणमल्लालंकारं अवहरति अप्पेगतिया आउस्सति एवं अवहसइ निच्छोडेति निम्भच्छेति तज्जेति अप्पे० तालेति, तते णं ते बहवे दारगा य ६ रोयमाणा य५ साणं २ अम्मापिऊणं णिवेदेति, तते ण तेसिं बरणं दारगाण य ६ अम्मापियरो जेणेव धणे सत्यवाहे तेणेव उवाधणं सत्थवाह यहहिं खेजणाहि य रुंटणाहि य उवलंभणाहि य खेजमाणा य रुंटमाणा य उवलंभेमाणा य धपणस्स एयमई णिवेदेति, तते णं धण्णे सत्थवाहे चिलायं दासचेडं एयमÉ भुजो २ णिवारेंति णो चेव णं चिलाए दासचेडे उवरमति, तते णं से चिलाए दासचेडे तेसिं बहूणं दारगाण य ६ अप्पेगतियाणं खुल्लए अवहरति जाव तालेति, तते णं ते बहवे दारगा य ६ रोयमाणा य जाव अम्मापिऊणं णिवेदेति, तते णं ते आसुरुत्ता ५ जेणेव धण्णे सत्वचाहे तेणेव उवा०२त्ता बहहि खिज जाव एयमहूँ णिवेदिति, तते णं से धपणे सस्थवाहे बहूणं दारगाणं ६ अम्मापिऊणं अंतिए एयमढे सोचा आसुरुत्ते चिलायं दासबेड उचावयाहिं आउसणाहि आउसति उद्धंसति णिन्भच्छेति निच्छोडेति तजेति उचावयाहिं तालणाहिं तालेति सातो गिहातो णिच्छुभति (सूत्रं १३६) तते णं से चिलाए दासचेडे सातो गिहातो निच्छुढे समाणे रायगिहे नयरे सिंघाडए जाव पहेसु देवकुलेसु य सभासु य पवासु य जयखलएम य ~ 473~ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१८], ----------------- मूलं [१३६-१३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: बेसाघरेसु य पाणघरएसु य मुहंसुहेणं परिवहति, तते णं से चिलाए दासचेडे अणोहहिए अणिवारिए सच्छंदमई सइरप्पयारी मज्जपसंगी चोजपसंगी मंसपसंगी जूयप्पसंगी वेसापसंगी परदारप्पसंगी जाए यावि होस्था, तते णं रायगिहस्स नगरस्स अदूरसामंते दाहिणपुरस्थिमे दिसिभाए सीहगुहा नाम चोरपल्ली होत्था विसमगिरिकजगकोडंबसंनिविद्या वंसीकलंकपागारपरिक्खित्ता छिपणसेलविसमप्पवायफरिहोवगूढा एगदुवारा अणेगखंडी विदितजणणिग्गमपचेसा अम्भितरपाणिया सुदुल्लभजलपेरंता सुबहुस्सवि कूवियबलस्स आगयस्स दुप्पहंसा यावि होत्या, तत्थ णं सीहगुहाए चोरपल्लीए विजए णाम चोरसेणावती परिवसति अहम्मिए जाव अधम्मे केऊ समुट्ठिए बहुणगरणिग्गयजसे सूरे दढप्पहारी साहसीए सहवेही, से णं तत्थ सीहगुहाए चोरपल्लीए पंचण्डं चोरसयाणं आहेबच्चं जाव विहरति, तते णं से विजए तकरे चोरसेणावती बट्टणं चोराण य पारदारियाण य गंठिभेयगाण य संधिच्छेयगाण य खत्त. खणगाण य रायावगारीण य अणधारगाण य बालघायगाण य वीसंभधायगाण य जयकाराण य खंडरक्खाण य अन्नेसिंच पहुणं छिन्नभिन्नबहिराहयाणं कुडंगे यावि होत्या, तते णं से विजए तकरे चोरसेणावती रायगिहस्स दाहिणपुरच्छिमं जणवयं षहहिं गामघाएहि य नगरघाएहि य गोग्गहणेहि य चंदिग्गहणेहि य पंथकुट्टणेहि य खत्तखणणेहि य उवीलेमाणे २ विद्धंसेमाणे २ णित्थाणं णिद्धणं करेमाणे विहरति, तते णं से चिलाए दासचेडे रायगिहे बहहिं अत्याभिसंकीहि य चोजाभिसंकीहि य दाराभिसंकीहि य धणि ~ 474~ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१८], ----------------- मूलं [१३६-१३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म-18 कधानम्. १८सुंसु ॥२३६॥ माज्ञाता. चिलाते राधिपत्यं सू. १३७ एहि य जूहकरेहि य परब्भवमाणे २रायगिहाओ नगरीओ णिग्गच्छति २ जेणेव सीहगुफा चोरपल्ली तेणेव उवा०२ विजयं चोरसेणावती उवसंपज्जित्ताणं विहरति, तते णं से चिलाए दासचेडे विजयस्स चोरसेणावइस्स अग्गे असिलट्ठग्गाहे जाए यावि होत्था, जाहेविय णं से विजए चोरसेणावती गामघायं वा जाव पंधकोहि वा काउं वच्चति ताहेविय णं से चिलाए दासचेडे सुबटुंपि हु कूवियबलं हयविमहिय जाव पडिसेहिति, पुणरवि लवे कयकज्जे अणहसमग्गे सीहगुहं चोरपल्लिं हवमागच्छति, तते णं से विजए चोरसेणावती चिलायं तकरं वहइओ चोरविजाओ य चोरमंते य चोरमायाओ चोरनिगडीओ य सिक्खावेइ, तते णं से विजए चोरसेणावई अन्नया कपाई कालधम्मुणा संजुसे यावि होत्था, तते ण ताई पंचचोरसयार्ति विजयस्स चोरसेणावइस्स महया २ इहीसकारसमुदएणं णीहरण करेंति २ बरई लोइयार्ति मयकिचाई करेइ २ जाब विगयसोया जाया याचि होस्था, तते णं ताई पंच चोरसपाति अन्नमन्नं सदातिर एवं व०-एवं खल अम्हं देवा! विजए चोरसेणावई कालधम्मुणा संजुत्ते अयं च णं चिलाए तफरे विजएणं चोरसेणावइणा बहुइओ चोरविजाओ य जाब सिक्खाबिए तं सेयं खल्लु अम्हं देवाणुप्पिया! चिलायं तकरं सीहगुहाए चोरपल्लीए चोरसेणावहत्ताए अभिर्सिचित्तएत्तिका अन्नमन्नस्स एयमहूँ पडिसुणेति २चिलायं तीए सीहगुहाए चोरसेणावइत्ताए अभिसिंचंति, तते णं से चिलाए चोरसेणावती जाए अहम्मिए जाव विहरति, तए णं से चिलाए चोरसेणावती चोरणापगे जाव 11२३६॥ ~ 475~ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१८], ----------------- मूलं [१३६-१३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: हट कुडंगे यावि होत्था, से णं तत्थ सीहगुहाए चोरपल्लीए पंचण्डं चोरसयाण य एवं जहा विजलो तहेव सच जाव रायगिहस्स दाहिणपुरच्छिमिल्लं जणवयं जाव णित्थाणं निद्धणं करेमाणे विहरति (सूत्र १३१) तते णं से चिलाए चोरसेणावती अन्नया कयाई विपुलं असण ४ उवक्खडावेत्ता पंच चोरसए आमंतेई तओ पच्छा पहाए कयवलिकम्मे भोषणमंडवंसि तेहिं पंचहिं चोरसएहिं सद्धिं विपुलं असणं ४ सुरं च जाव पसणं च आसाएमाणे ४ विहरति, जिमियभुत्तुत्तरागए ते पंच चोरसए विपुलेणं धूवपुष्फगंधमल्लालंकारेणं सफारेति सम्माणेति २ एवं व०-एवं खलु देवा०1रायगिहे णपरे धणे णामं सस्थवाहे अड्डे, तस्स णं धूया भदाए अत्तया पंचण्डं पुत्ताणं अणुमग्गजातिया सुंसुमाणामंदारिया यावि होत्था अहीणा जाव सुरूवा, तं गच्छामोणं देवा०1 धण्णस्स सत्यवाहस्स गिहं विलुपामो तुम्भं विपुले धणकणग जाव सिलप्पवाले ममं सुंसुमा दारिया, ततेणं ते पंच चोरसया चिलायस्स०पडिमुणेति, ततेणं से चिलाए चोरसेणावती तेहि पंचहिं चोरसएहिं सद्धिं अल्लचम्मं दुरूहति २ पुवावरण्हकालसमयंसि पंचहिं चोरसएहिं सद्धिं सण्णद्ध जाव गहियाउहपहरणा माइयगोमुहिएहि फलएहि णिकट्ठाहिं असिलट्ठीहिं अंसगएहि सोणेहिं सजीवहिं धणूर्हि समुक्खित्तेहिं सरेहिं समुल्लालियाहिं दीहाहिं ओसारियाहिं उघंटियाहि छिप्पतूरेहि बजमाणेहि महया २ उषिहसीहणायचोरकलकलरवं जाव सद्दरवभूयं करेमाणा सीहगुहातो चोरपल्लीओ पडिनिक्खमति २ जेणेव रायगिहे नगरे तेणेव उवा०२ रायगिहस्स अदूरसामंते एगं महं गहणं अणु | ** मूल संपादने सूत्र-क्रमांकने यत् (सूत्रं १३१) लिखितं तत् मुद्रणदोषः, सूत्र १३७ स्थाने सूत्र १३१ लिखितं ~ 476~ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१८], ----------------- मूलं [१३६-१३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म toes कथाङ्गम. ॥२३७॥ 1 पविसति २ दिवसं खवेमाणा चिट्ठति, तते णं से चिलाए चोरसेणावई अद्धरत्तकालसमयंसि निसंतपडि १८ सुसुनिसंतंसि पंचहिं चोरसएहिं सद्धिं माइयगोमुहितेहिं फलएहिं जाव मूइआहिं उरुघंटियाहिं जेणेव रायगिहे माज्ञाता. पुरथिमिल्ले दुवारे तेणेव उवा० २ उदगवत्थिं परामुसति आयंते ३ तालुग्घाडणिविजं आवाहेइ २ सुसुमापरायगिहस्स दुवारकवाडे उदएणं अच्छोडेति कवाई बिहाडेति २ रायगिह अणुपविसति २ महया २ हारः सू. सदेणं उग्घोसेमाणे २ एवं व०-एवं खलु अहं देवा ! चिलाए णामं चोरसेणावई पंचहिं चोरसरहिं सद्धिं सीहगुहातो चोरपल्लीओ इह हवमागए धण्णस्स सत्यवाहस्स गिहं घाउकामे तं जो णं णवियाए माउयाए दुद्धं पाउकामे से णं निग्गच्छउत्तिकड जेणेव धण्णस्स सत्थवाहस्स गिहे तेणेव उवा० २ धण्णस्स गिहं बिहाडेति, तते णं से धपणे चिलाएणं चोरसेणावतिणा पंचहिं चोरसएहिं सद्धिं गिहं घाइजमाणं पासति २भीते तत्थे ४ पंचहिं पुत्तेहिं सद्धिं एगतं अवकमति, तते णं से चिलाए चोरसेणावती धण्णस्स सत्यवाहस्स गिहं घाएति २ सुबहुं धणकणग जाव सावएज्जं सुंसुमं च दारियं गेण्हति २त्ता रायगिहाओ पडिणिक्खमति २ जेणेव सीहगुहा तेणेव पहारेत्थ गमणाए (सूत्रं १३८) S२३७॥ सर्व सुगमं नवरं 'खुल्लए'त्ति कपकविशेषान् 'वर्तकान्' जखादिमयगोलकान् 'आडोलियाउ'त्ति रुद्धा उन्नइया इति वा योच्यते, तेंदूसए'त्ति कन्दुकान् 'पोत्तुल्लए'त्ति वस्त्रमयपुत्रिका अथवा परिधानवस्त्राणि, 'साडोल्लए'चि उत्तरीयवस्त्राणि, ~ 477~ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१८], ----------------- मूलं [१३६-१३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: Recee 'खेवणाहि यति खेदनाभिः खेदसंसूचिकाभिः वाग्भिः रुदनादिभिः-रुदितप्रायाभिरुपालम्भनामिः-युक्तमेतद्भवादशामित्यादिभिरिति 'अणोहहए'त्ति अकार्ये प्रवर्त्तमानं तं हस्ते गृहीला योऽपहरति-व्यावयति तदभावादनपहर्तृकः अनपघट्टको वा वाचा निवारयितुरभावादनिवारकः, अत एवं स्वच्छन्दमति:-निरर्गलघुद्धिरत एष स्वैरप्रचारी स्वच्छन्दविहारी, 'चोजपसंगे-11 ति चौर्यप्रसक्तः, अथवा 'चोजति आश्चर्येषु कुहेटकेषु प्रसक्त इत्यर्थः, 'विसमगिरिकडगकोलंबसन्निवित्ति विषमो योऽसौ गिरिकटकस्य-पर्वतनितम्बस्य कोलम्बः-प्रान्तस्तत्र सनिविष्टा-निवेशिता या सा तथा, कोलम्बो हि लोकेऽवनतं वृक्षशाखाप्रमुच्यते 18 इह चोपचारतः कटकानं कोलम्बो व्याख्यातः, 'वंसीकलंकपागारपरिक्खित्त'त्ति वंशीकलङ्का-वंशजालीमयी वृत्तिः सैव प्राकारस्तेन परिक्षिप्ता-वेष्टिता या सा तथा, पाठान्तरे तु वंशीकृतप्राकारेति, 'छिन्नसेलविसमप्पवायपरिहोवगूढ'त्ति छिनोविभक्तोऽवयवान्तरापेक्षया यः शैलस्तस्स सम्बन्धिनो ये विषमाः प्रपाता-गाः त एव परिखा तयोपगूढा-वेष्टिता या सा। शतथा, एकद्वारा-एकप्रवेशनिर्गममार्गा, 'अणेगखंडि'त्ति अनेकनश्यन्नरनिर्गमापद्वारा विदितानामेव-प्रतीतानां जनानां निर्ग-1 मप्रवेशौ यस्यां हेरिकादिभयात् सा तथा, अभ्यन्तरे पानीयं यस्याः सा तथा, सुदुर्लभं जलं पर्यन्तेषु-बहिःपार्श्वेषु यस्याः सा तथा, सुबहोरपि 'कूवियबलस्स'चि मोषव्यावर्तकसैन्यस्वागतस्य दुष्प्रध्वंस्था, वाचनान्तरे पुनरेवं पठ्यते 'जत्थ चउरंगवलनिउत्तावि कृवियवला यमहियपवरवीरघाइयनिवडियचिन्धधयवडया कीरंति'त्ति, अत्र चतुर्णामझानां हस्त्यश्वरथपदातिलक्षणानां यदलं-सामर्थ्य तेन नियुक्तानि-नितरां सङ्गतानि यानि तानि तथा, 'कृवियबल'त्ति निवर्तकसैन्यानीति, 'अधम्मिए ति अधर्मेण |चरतीत्यधार्मिका, यावत्करणात् 'अधम्मि?' अधर्मिष्टोऽतिशयेन निर्द्धा निस्वंशकर्मकारिखात् , 'अधम्मकलाई' अधर्ममा eeseceverse For P OW ~ 478~ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१८], ----------------- मूलं [१३६-१३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म-18 ख्यातुं शीलं यस्य स तथा, 'अधम्माणुए' अधर्मे कर्तव्येऽनुज्ञा-अनुमोदनं यस्य सोऽधर्मानुज्ञः अधर्मानुगो चा 'अधम्म- १८ संसकथाङ्गम्. पलोई' अधर्ममेव प्रलोकयितुं शीलं यस्यासावधर्मप्रलोकी 'अधम्मपलज्जणे' अधर्मप्रायेषु कर्मसु प्रकर्षण रज्यते इत्य-1, माज्ञाता धर्मप्ररजनः, रलयोरक्यमितिकता रस स्थाने लकारः, 'अधम्मसीलसमुदायारे' अधर्म एवं शील-स्वभावः समुदाचारच यरिकश्चनानुष्ठानं यस्य स तथा, 'अधम्मेण चेव वित्ति कप्पेमाणे विहरति' अधर्मेण-पापेन सावधानुष्ठानेनैव दहनाकननिलाञ्छनादिना कर्मणा वृत्ति-वर्चनं कल्पयन्-कुर्वाणो विहरति-आस्ते स 'हणदिभिंदवियसए' हन-विनाशय |छिन्द-द्विधा कुरु मिंद-कुंतादिना भेदं विधेहीत्येवं परानपि प्रेरयन प्राणिनो विकृन्ततीति हनच्छिन्दमिन्द विकर्तकः, हनेत्यादयः शब्दाः संस्कृतेऽपि न विरुद्धाः, अनुकरणरूपखादेषां, 'लोहियपाणि' प्राणविकर्चनो (नतो) लोहितौ रक्तरक्ततया पाणी-हस्तौ यस्य स तथा, 'पंडे' चण्डः उत्कटरोषखात्, 'रुद्दे रौद्रो निस्तूंशखात , क्षुद्रः क्षुद्रकर्मकारिखात् , साहसिका-असमीक्षितकारिखात् , 'उपचणचणमायानियडिकबडकूडसाइसंपओगबहले उत्कश्शनमुत्कोचा, मुग्धं प्रति तत्प्रतिरूपदानादिक-18 |मसव्यवहार कर्ने प्रवृत्तस्स पार्थवर्तिविचक्षणभयात क्षणं यत्तदकरणं तदुत्कञ्चनमित्यन्ये, वान-प्रतारणं माया-परवचनबुद्धिः निकृतिः-बकवृत्त्या कुर्कुटादिकरणं अधिकोपचारकरणेन परच्छलनमित्यन्ये मायाप्रच्छादनार्थ मायाम्मरकरणमित्यन्ये । कपर्ट-वेपादिविपर्ययकरणं कूट कापणतलाव्यवस्थापत्रादीनामन्यथाकरणं 'साइति अविश्रम्भः एषां सम्प्रयोगा-प्रच-II २३८॥ तैनं तेन बहुलः स वा बहुलो यस्य स तथा, निस्सीले अपगतशुभस्वभावः 'निवए' अणुव्रतरहित: 'निर्गुणों गुणवतरहितः 'निप्पचक्खाणपोसहोववासे अविद्यमानपौरुष्यादिप्रत्याख्यानोऽसत्पर्वदिनोपवासवेत्यर्थः, 'बहूर्ण दुपय-1|| रेलच ~479~ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१८], ----------------- मूलं [१३६-१३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: See प्रचउप्पयमियपसुपक्खिसिरीसवाणं पायाए वहाए उच्छायणयाए अधम्मकेऊसमुहिए'त्ति प्रतीतं नवरं पात:-प्रहारो वयो हिंसा व्यत्ययो वा उच्छादना-जातेरपि व्यवच्छेदनं तदर्थ 'अधर्मकेतुः' पापप्रधानः केतुः-ग्रहविशेष स इव यः स । तथा, द्विपदादिसवानां हि क्षयाय यथा केतुर्ग्रहः समुद्गच्छति तथाऽयं समुत्थित इति भावना, बहुनगरेषु निर्ग-IKI तं-जनमुखाभिःसतं यशः-ख्यातिर्यस्य स तथा, सूरो-विक्रमी दृढप्रहारी-गाढप्रहार, शब्दं लक्षीकृत्य विध्याले यः सः शब्दवेधी, चौरादीन्येकादश पदानि प्रतीतानि, नवरं प्रन्थिभेदकाः-ज्यासकान्यथाकारिणः घुर्घरकादिना वा ये अन्धीन् । छिन्दन्ति, सन्धिच्छेदका ये गृहभित्तिसन्धीन विदारयन्ति, क्षात्रखानका ये सन्धानवर्जितभित्तीः काणयन्ति, 'अणधारयति । ऋण-व्यवहरकदेयं द्रव्यं तये तेषां धारयन्ति, खंडरक्षा-दण्डपाशिकाः, तथा छिन्ना-हस्सादिषु भिमा नासिकादो पायाः देशात् || आहता-दण्डादिभिः ततो द्वन्द्वः, कुडंग--वंशादिगहनं तद्वयो दुर्गमसेन रक्षार्थमाश्रयणीयससाधम्योत् स तथा, 'नित्थाण'ति स्थानभ्रष्टं 'अग्गअसिलढिगाहिति पुरस्तात् खड्गयष्टिग्राह: अथवा अम्पा-प्रधाना, 'अल्लचम्म दुरूहत्ति'चि आर्द्र चमारोहति माङ्गल्यार्थमिति, 'माइयति ककारख वार्थिकखात् 'माइ'सि रुक्षादिवालयुक्तखात् पक्ष्मलानि तानि च तानि 'गोमुहीअति गोमुखवदुरप्रच्छादकलेन कृतानि गोमुखितानि चेति कर्मधारयस्ततस्तैः फलकैः-स्फुरकैः, अत्रार्थे । वाचनान्तराण्यपि सन्ति तानि च विमर्शनीयानीति, गमनिकैवेयं, निकृष्टाभिः-कोशाबहिष्कृताभिरसियष्टिभिः असङ्गतैःस्कन्धावस्थितैस्तूणैः-शरभस्वादिभिः सजीवैः-कोव्यारोपितप्रत्यश्चर्द्धनुर्भिः समुक्षिप्तः-निसर्गार्थमाकृष्टैः शरधेः सकाशारछरैः-18 बाणैः 'समुल्लासियाहिति ग्रहरणविशेषाः 'ओसारियाहिंति प्रलम्बीकृताभिः ऊरुघंटाभिः-जहाघण्टामिः 'छिप्पतूरेणं'ति SO900908 ~ 480~ Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१८], ----------------- मूलं [१३६-१३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म- कथाङ्गम. ॥२३९॥ क्षिप्ततूर्येण, द्रुतं वाद्यमानेन तूर्येणेत्यर्थः, प्रतिनिःकामन्ति, इह बहुवचनं चौरव्यक्त्यपेक्षया अन्यथा चौरसेनापतिप्रक्रमादेक- १८ सुंसुवचनमेव स्वादिति । माज्ञाता धन्यादेः तते गं से धण्णे सत्थचाहे जेणेव सए गिहे तेणेव उवा०२ सुवहुंधणकणगं सुंसुमंच दारियं अवहरियं अटवीनिजाणित्ता महत्थं ३ पाहुडं गहाय जेणेव णगरगुत्तिया तेणेव उवा० २ तं महत्थं पाहुढं जाव उवणेति २ जस्तारः सू. एवं व०-एवं खलु देवा! चिलाए चोरसेणावती सीहगुहातो चोरपाल्लीओ इहं हवमागम्म पंचहिं चोरसएहिं सर्द्धि मम गिहं घाएत्ता सुवहुंधणकणगं सुंसुमं च दारियं गहाय जाब पडिगए, तं इच्छामो णं देवा! मुंसुमादारियाए कूवं गमित्तए,तुम्भे णं देवाणुप्पिया! से विपुले धणकणगे ममं सुंसुमा दारिया, तते णं ते णयरगुत्तिया धण्णस्स एयम8 पडिसुणेति २ सन्नड जाव गहियाउहपहरणा महया २ उक्किट्ठ० जाव समुद्दरवभूयंपिव करेमाणा रायगिहाओ णिग्गच्छंति २जेणेव चिलाए चोरे तेणेव उवा०२चिलाएणं चोरसेणावतिणा सहि संपलग्गा यावि होत्या, तते णं णगरगुत्तिया चिलायं चोरसेणावति हयमहिया जाव पडिसेहें ति, तते णं ते पंच चोरसया णगरगोत्तिएहिं हयमहिय जाव पडिसेहिया समाणा तं विपुलं ॥२३९॥ धणकणगं विच्छडेमाणा य विपकिरेमाणा य सबतो समंता विप्पलाइत्या, तते णं ते णयरगुत्तिया तं विपुलं धणकणगं गेण्हंति २ जेणेव रायगिहे तेणेव उवा०, तते णं से चिलाए तं चोरसेण्णं लेहिं णय ~481~ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१८], ----------------- मूलं [१३९-१४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: eseel RRCPNA रगुत्तिएहिं हयमहिय जाव भीते तत्थे सुसुमं दारियं गहाय एगं महं अगामियं दीहमद्धं अडविं अणुपविटे, तते णं धण्णे सत्यवाहे सुंसुमं दारियं चिलाएणं अडवीमुहिं अवहीरमाणिं पासित्ताणं पंचहिं पुत्तेहिं सद्धिं अप्पछट्टे सन्नद्धबद्धचिलायस्स पदभग्गविहिं अभिगच्छति,अणुगज्जेमाणे हकारेमाणे पुक्कारेमाणे अभिनजेमाणे अमितासेमाणे पिट्टओ अणुगच्छति, तते णं से चिलाए तं धपणं सत्यवाह पंचहि पुत्तेहिं अप्पछ8 सन्नद्धबद्धं समणुगच्छमाणे पासति २ अत्यामे ४ जाहे णो संचाएति भुसुमं दारयं णिवाहित्तए ताहे संते तंते परिसंते नीलुप्पलं असि परामुसति २ सुंसुमाए दारियाए उत्तमंगं छिदति २तं गहाय तं अगामियं अडविं अणुपविटे, तते णं चिलाए तीसे अगामियाए अडवीए तण्हाते अभिभूते समाणे पम्छुट्टदिसाभाए सीहगुहं चोरपल्लिं असंपत्ते अंतरा चेव कालगए। एवामेव समणाउसो! जाव पवतिए समाणे इमस्स ओरालियसरीरस्सवंतासवस्स जाव विद्धंसणधम्मस्स वपणहेउं जाव आहारं आहारेति से णं इहलोए चेव बहणं समणाणंहीलणिजे जाव अणुपरियहिस्सति जहा व से चिलाएतकरे। तते णं से धणे सत्यवाहे पंचहि पुत्तेहिं अप्पछडे चिलायं परिधाडेमाणे २ तण्हाए छुहाए य संते तंते परितंते नो संचाइए चिलातं चोरसेणावर्ति साहथि गिण्हित्तए, से णं तओ पडिनियत्ता २ जेणेव सा सुंसुमा दारिया चिलाएणं जीवियाओ ववरोविल्लिया तेणंतेणेव उवागच्छतिर सुसुमं दारियं चिला. एणं जीवियाओ ववरोवियं पासइ २ परसुनियंतेव चंपगपायवे, तते णं से धणे सत्यवाहे अप्पछडे ~ 482~ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१८], ----------------- मूलं [१३९-१४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्. १८ सुंसुमाज्ञाता. अटवीनिस्तारः सू. १३९ ॥२४॥ आसत्थे कूवमाणे कंदमाणे विलवमाणे महया २ सद्देणं कुह २ सुपरुन्ने सुचिरं कालं वाहमोक्खं करेति, तते णं से धणे पंचहि पुत्तेहिं अप्पछट्टे चिलायं तीसे अगामियाए सवतो समंता परिधाडेमाणा तण्हाए छुहाए य परिन्भं(रद्ध)ते समाणे तीसे आगामियाए अडवीए सघतो समंता उदगस्स मग्गणगवेसणं करेंति २ संते तंते परितंते णिविन्ने तीसे आगामियाए अडवीए उदगस्स मग्गणगवेसणं करेमाणे नो चेच णं उदगं आसादेति, तते णं उदगं अणासाएमाणे जेणेव सुसमा जीषियातो वघरोएल्लिया तेणेव उवा० २जेहूं पुतं धणे सहावेइ २ एवं वयासी-एवं खलु पुत्ता ! सुंसुमाए दारियाए अट्टाए चिलायं तकरं सपतो समंता परिधाडेमाणा तण्हाए छुहाए य अभिभूया समाणा इमीसे आगामियाए अडबीए पदगस्स मग्गणगवेसणं करेमाणा णो चेव णं उद्गं आसादेमो, तते णं उदगं अणासाएमाणा णो संचाएमो रायगिहं संपावित्सए, तण्णं तुम्भं ममं देवा! जीवियाओ परोह मंसंच सोणियं च आहारेह २ तेणं आहारणं अवहिट्ठा समाणा ततो पच्छा इमं आगामियं अहर्षि मित्थरिहिह रायगिहं च संपाविहिह मित्तणाइय अभिसमागच्छिहिह अस्थस्स प धम्मरस प पुण्णस्स य आभागी भविस्सह,तते णं से जेपत्ते धणेणं एवं कुत्ते समाणे धणं सत्यवाहं एवं प-तुमने ण ताओ! अम्हं पिया गुरू जणया देवयभूया ठावका पतिद्वावका संरक्खगा संगोवगातं कहपणं जम्हे तातो! तुम्भे जीवियाओ ववरोबेमो तुम्भ णं मंसंच सोणियं च आहारमो? तं तुम्भेण तातो! मर्म जीवियाओ वक ॥२४॥ ~483~ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१८], ----------------- मूलं [१३९-१४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: रोवेह मंस च सोणियं च आहारेह आगामियं अडविं णित्थरह तं चेव सर्व भणइ जाव अत्थस्स जाव पुण्णस्स आभागी भविस्सह, तते णं धणं सत्थ. दोचे पुत्ते एवं व-मा णं ताओ ! अम्हे जेहूं भायरं गुरुं देवयं जीवियाओ ववरोवेमो तुम्भे गं ताओ! मम जीवियाओ ववरोवेह जाव आभागी भविस्सह, एवं जाव पंचमे पुत्ते, तते णं से धपणे सत्यवाहे पंच पुत्ताणं हियइच्छिर्य जाणित्ता ते पंच पुत्ते एवं प०-मा णं अम्हे पुत्ता! एगमवि जीवियाओ ववरोवेमो एस णं सुंसुमाए दारियाए सरीरए णिप्पाणे जाव जीवविप्पजढे तं सेयं खलु पुत्ता! अम्हं सुंसुमाए दारियाए मंसं च सोणियं च आहारेत्तए, तते णं अम्हे तेणं आहारेणं अवस्थद्धा समाणा रायगिहं संपाउणिस्सामो, तते गं ते पंच पुत्ता धण्णेणं सत्यवाहेणं एवं वुत्ता समाणा एयम8 पडिसुणेसि, तते णं धपणे सत्थ० पंचहिं पुत्तेहिं सद्धि अरणि करेति २ सरगं च करेति २ सरएणं अरणिं महेति २ अग्गि पाडेति २ अम्गि संधुक्खेति २ दारुयाति परिक्खेवेति २ अग्गि पज्जालेति २सुंसुमाए दारियाए मंसं च सोणियं च आहारेंति, तेणं आहारेणं अवस्थद्धा समाणा रायगिहं नार संपत्ता मित्तणाईअभिसमण्णागया तस्स य विष्लस्स घणकणगरयण जाव आभागी जायाविहोत्था, तते णं से धपणे सत्यवाहे मुंसुमाए दारियाए बरई लोइयाति जाब विगयसोए जाए यावि होत्था (सूत्रं १३९) तेणं कालेणं २ समणे भगवं महावीरे गुणसिलए चेहए समोसदे, से णं धणे सत्यवाहे संपत्ते धम्मं सोचा पवतिए एकारसंगवी मासियाए ~484~ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१८], ----------------- मूलं [१३९-१४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म- संलेहणाए सोहंमे उबवण्णो महाविदेहे वासे सिन्झिहिति, जहाविय णं जंबू! धपणेणं सत्यवाहेणं |१८ सुंसुकधाङ्गम्. णो वण्णहे वा नो रूवहे वा णो बलहेर्ड वा नो बिसयहे वा सुंसुमाए दारियाए मंससोणिए माज्ञाता. आहारिए नन्नत्य एगाए रायगिह संपावणट्ठयाए, एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा २ ॥२४॥ अटवीतो इमरस ओरालियसरीरस्स वंतासवस्स पित्तासवस्स मुकासवस्स सोणियासवस्स जाच अवस्सं विप्प- | निस्तारः जहियवस्स वा नो वण्णहेउं वा नो रूवहे वा नो बल. विसयहे वा आहारं आहारेति ननस्थ एगाए धन्यदीक्षोसिद्धिगमणसंपावणट्टयाए, से णं इहभवे चेव बहूणं समणाणं २ बट्टणं सावयाणं बहूर्ण साविगाणं पिनयश्च सू. अचणिज्जे जाव वीतीवतीस्सति, एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया अट्ठारमस्स अयमढे पण्णत्तेत्तिमि १३९-१४० (सत्रं १४०) अट्ठारसमं णायज्मयणं समत्तं १८ __ 'मूइयाहिं'ति मूकीकताभिनिःशब्दीकृताभिरित्यर्थः, 'उदगवस्थिति जलभृतदृतिः जलाधारपर्ममयभाजनमित्यर्थः, 'जो णं णवियाए'त्यादि यो हि नविकायाः-अग्रेतनभवभाविन्याः मातुर्दुग्धं पातुकामः स निर्गच्छतु, यो मुमूर्षरित्यर्थः, ॥२४॥ KI आगरमियंति अग्रामिकं 'दीहमद्धं ति दीर्घमार्ग, 'पयमग्गविहिंति पदमार्गप्रचार, 'पम्हढदिसाभाए'ति विस्मृत दिग्भागः, 'अंतरा चेव कालगए'त्ति इह एतावदेवोपयोगीति आवश्यकादिप्रसिद्धं तदीयं शेषचरितं साधुदर्शनोपशमायुप-15 देशेन सम्यक्सपरिभाषनवज्रतुण्डकीटिकाभक्षणदेवलोकगमनलक्षणं नोक्तमिति न विरोधः सम्भावनीयः, उपनयग्रन्थः पूर्व ~485~ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१८], ----------------- मूलं [१३९-१४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: चत, 'चाहपामोक्ख'ति अथुविमोचनं 'पिया'इत्यादौ पितोपचारतो लोकेऽन्योऽपि रूढो, पदाह-"जनेता चोपनेता च, यस्तु | विद्या प्रयच्छति । अन्नदाता भयत्राता, पश्चैते पितरः स्मृताः ॥१॥” इति जनकग्रहणं स्थापकाः-गृहस्थधर्मे दारादिसमहणात् प्रतिष्ठापका:-राजादिसमक्ष स्वपदनिवेशनेन संरक्षकाः-नानाव्यसनेभ्यः सङ्गोपका:-यहच्छाचारितायां संवरणाद, "अरणिति अरणिरनेः उत्पादनार्थ निर्मथ्यते यद्दारु 'सरगं करेइति शरको निर्मथ्यते तद्येनेति, 'नो वनहेतु'मित्यादि, अनेन च किमुक्तं भवति :--'नन्नत्यति एकस्याः सिद्धिगमन प्रापणार्थतया अन्यत्र नाहारमाहारयति, तां वर्जेयिखा कारणान्तरेण नाहारयतीत्यर्थः, तत्र सिद्धिगमनस्य-सिद्धिगतेयः प्रापणलक्षणोऽर्थः प्राप्तिरित्यर्थः तस्य भावस्तत्ता तस्या इति, इह चैवं चिशे-| पोपनयः-"जह सो चिलाइपुत्तो सुसुमगिद्धो अकज्जपडिबद्धो । धणपारद्धो पत्तो महाडविं वसणसयकलियं ॥१॥ तह जीवो विसयसुहे लुद्धो काऊण पावकिरियाओ । कम्मवसेणं पायद भवाडवीए महादुक्खं ॥२॥ धणसेट्ठीविन गुरुणो पुत्ता इव साहवो भवो अडवी । सुयमंसमिबाहारो रायगिह इह सिर्व नेयं ॥३॥ जह अडविनयरनित्थरणपावणत्थं तरहिं सुयमंसं ।। भुत तहेह साहू गुरूण आणाए आहारं ॥ ४॥ भवलंघणसिवपावणहेउं भुअंतिण उण गेहीए । वष्णबलरूवहेउं च भावियप्पा | महासत्ता ॥ ५॥ [ यथा स चिलातिपुत्रः सुसुमागृद्धोऽकार्यप्रतिबद्धः धन्येन प्रारब्धः प्राप्ती महाटवीं व्यसनशतकलिताम् ॥१॥ तथा जीवो विषयसुखे लुब्धः कुला पापक्रियाः । कर्मवशेन प्राप्नोति भवाटव्यां महादुःखम् ॥२॥ धनश्रेष्ठीव गुरवः। पुत्रा इव साधवो भवोऽटची । सुतामांसमिवाहारो राजगृहं इह शिवं ज्ञेयम् ॥३॥ यथाटवीनिस्तरणनगरप्रापणार्थ तैः ~486~ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१३९-१४०] श्रुतस्कन्धः [१] अध्ययनं [१८], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥२४२॥ सुतामांसं । भुक्तं तथेह साधवो गुरूणामाज्ञयाऽऽहारं ॥ ४ ॥ भवलङ्घनशिवप्रापणहेतोर्भुञ्जन्ति न पुनर्गृज्या वर्णचलरूपहेतोच भावितात्मानो महासच्चाः ॥ ५ ॥] अष्टादश ज्ञातविवरण समाप्तम् ॥ १८ ॥ अथ एकोनविंशतितमाध्ययनविवरणम् ॥१९ ॥ अथैकोनविंशतितमं व्याख्यायते, अस्य च पूर्वेण सहायमभिसम्बन्धः - पूर्वत्रासंवृताश्रवस्येतरस्य चानर्थेतरानुक्ताविह तु चिरं संवृताश्रवो भूलाऽपि यः पश्चादन्यथा स्यात्तस्य अल्पकालं संवृताश्रवस्य च तावुच्येते इत्येवंसम्बद्धमिदम्जति णं भंते! समणेनं भग० म० जाव संपत्तेणं अट्ठारसमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते एगूणवीस - मस्स नाययणस्स के अट्ठे पन्नत्ते ?, एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवघा महावीरेणं तेणं कालेणं हे जंबु दीवेदी पुत्रविदेहे सीयाए महाणदीप उत्तरिल्ले कूले नीलवंतस्स दाहिणेणं उत्तरिल्लस्स सीतामुहवणसंडस्स पच्छिमेणं एगसेलगस्स वक्रखारपवयस्स पुरत्थिमेणं एत्थ णं पुक्खलाबई णामं विजय पक्षसे, तत्थ णं पुंडरिगिणी णामं रायहाणी पन्नत्ता णवजोयणविच्छिण्णा दुबालसजोयणायामा जाव पचक देवलोयभूषा पासातीया ४ । तीसे णं पुंडरिगिणीए णयरीए उत्तरपुरच्छिमे दिसिभाए णलिणिवणे अत्र अध्ययनं १८ परिसमाप्तम् अथ अध्ययनं - ९९ "पुण्डरीक" आरभ्यते For Parts Only ~ 487 ~ १९ पुण्डरीकज्ञाता. पद्मदीक्षामोक्षी सू. १४१ ॥२४२॥ Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१९], ----------------- मूलं [१४१-१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: णामं उजाणे, तस्थ णं पुंडरिगिणीए रायहाणीए महापउमे णाम राया होत्या, तस्स णं पउमावती 'णामं देवी होत्था, सस्स णं महापउमस्स रन्नो पुत्ता पउमावतीए देवीए अत्तथा दुवे कुमारा होत्था, तं०-पुंडरीए य कंडरीए य सुकुमालपाणिपाया०, पुंडरीयए जुवराया, तेणं कालेणं २ घेरागमर्ण महापउमे राया णिग्गए धर्म सोचा पोंडरीय रज्जे ठवेत्ता पचतिए, पोंडरीए राया जाए, कंडरीए जुवराया, महापउमे अणगारे चोइसपुषाई अहिजइ, तते णं थेरा बहिया जणवयविहारं विहरति, तते णं से महापउमे यहूणि वासाणि जाय सिद्धे (सूत्रं १४१) तते णं घेरा अन्नया कयाई पुणरवि पुंडरिगिणीए रापहाणीए णलिणवणे उजाणे समोसढा, पोंडरीए राया णिग्गए, कंडरीए महाजणसई सोचा जहा महब्बलो जाच पज्जुवासति, घेरा धर्म परिकहेंति, पुंडरीए समणोवासए जाए जाव पडिगते, तते णं कंडरीए उहाए उद्देति उहाए उद्वेत्ता जाव से जहेयं तुम्भे वदह ज णवरं पुंडरीयं रायं आपुच्छामि तए णं जाव पचयामि, अहासुहं देवाणुप्पिया, तए णं से कंडरीए जाव धेरे बंदद नमसइ० अंतियाओ पडिनिक्खमह तमेव चाउघंटं आसरहं दुरूहति जाव पचोरुहइ जेणेव पुण्डरीए राया तेणेव उवागच्छति करयल जाव पुंडरीयं एवं बयासी-एवं खलु देवा! मए थेराणं अंतिए जाव धम्मे निसंते से धम्मे अभिरुइए तए णं देवा ! जाव पबत्तए, तए णं से पुंडरीए कंडरीय एवं बयासी-मा णं तुम देवाणुप्पिया! इदाणि मुंडे जाव पच्चयाहि अहंणं तुम महया २रायाभिसेएणं अभिसिंचयामि, तए णं से कंडरीए पुंड ~ 488~ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१९], ----------------- मूलं [१४१-१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाङ्गम. |१९पुण्डरीकज्ञाता. कण्डरीक| दीक्षा गाहस्थ्यं सू. १५२-२४३ ॥२४॥ रीयस्स रपणो एयमढ णो आढाति जाव तुसिणीए संचिट्ठति,तते णं पुंडरीए राया कंडरीयं दोच्चंपितचंपि एवं वक-जाव तुसिणीए संचिट्ठति, तते णं पुंडरीए कंडरीयं कुमारं जाहे नो संचाएति बहहिं आघवणाहिं पण्णवणाहि य ४ ताहे अकामए चेव एयम8 अणुमन्नित्था जाव णिक्खमणाभिसेएणं अभिसिंचति जाव थेराणं सीसभिक्खं दलयति, पबतिए अणगारे जाए एकारसंगविऊ, तते गं घेरा भगवंतो अन्नया कयाई पुंडरीगिणीओनयरीओ णलिणीवणाओ उज्जाणाओ पडिणिक्खमंति पहिया जणवयविहारं विह-. रति (सूत्रं १४२)तते णं तस्स कंडरीयस्स अणगारस्स तेहिं अंतहि य पंतेहि य जहा सेलगस्स जाव दाहवकंतीए यावि विहरति, तते णं थेरा अन्नया कयाई जेणेव पोडरिगिणी तेणेच उवागच्छह २ णलिणिवणे समोसढा, पोंडरीए णिग्गए धम्म मुणेति, तए णं पोंडरीए राया धम्म सोचा जेणेव कंडरीए अणगारे तेणेव उवा० कंडरीयं वंदति णमंसति २ कंडरीयस्स अणगारस्स सरीरगं सवाधाहं सरोयं पासति २ जेणेव धेरा भगवंतो तेणेच उबा०२ धेरे भगवंते वंदति णमंसह २त्सा एवं व-अहण्णं भंते! कंडरीयस्स अणगारस्स अहापवत्तेहिं ओसह सज्जेहिं जाव तेइच्छं आउहामि तं तुम्भे गं भंते! मम जाणसालासु समोसरह, तते णं घेरा भगवंतो पुंडरीयस्स पडिसुणेति २जाय उवसंपज्जित्ताणं विहरंति, तते णं पुंडरीए राया जहा मंडुए सेलगस्स जाव बलियसरीरे जाए, तते णं घेरा भगवंतो पोंडरीयं रायं पुच्छंति २ बहिया जणवयविहारं विहरंति, तते णं से कंडरीए ताओ रोयायंकाओ विप्पमुके समाणे तंसि ॥२४३ ~ 489~ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१९], ----------------- मूलं [१४१-१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: मणुपणंसि असणपाणखाइमसाइमंसि मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोषवणे णो संचाएइ पोंडरीपं आपुच्छिता बहिया अन्भुजएणं जणवयविहारं विहरित्तए, तत्थेव ओसपणे जाए, तते णं से पोंडरीए इमीसे कहाए लट्टे समाणे पहाए अंतेउरपरियालसंपरिबुडे जेणेव कंडरीए अणगारे तेणेव उचा०२कंडरियं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ २बंदति णमंसति २ एवं व-धन्नेसि णं तुमं देवा! कयत्थे कयपुन्ने कयलक्खणे सुलद्धे णं देवा। तब माणुस्सए जम्मजीवियफले जे गं तुमं रजं च जाच अंतरं च छडइत्ता विगोवइत्ता जाव पचतिए, अहं णं अहणणे अकयपुन्ने रज्जे जाच अंतेउरे य माणुस्सएमु य कामभोगेसु मुच्छिए जाव अज्झोववन्ने नो संचाएमि जाव पवतित्तए, तं धन्नेऽसि णं तुम देवा! जाव जीवियफले, तते णं से कंडरीए अणगारे पुंडरीयस्स एयमढे णो आदाति जाव संचिट्ठति, तते णं कंडरीए पोंडरीएणं दोपि तचंपि एवं बुत्ते समाणे अकामए अवस्सबसे लज्जाए गारवेण य पोंडरीयं रायं आपुच्छति २ थेरेहिं सद्धिं बहिया जणवयविहारं विहरति, तते णं से कंडरीए थेरेहिं सद्धिं किंचि कालं उग्गउग्गेणं विहरति, ततो पच्छा समणत्तणपरितंते समणतणणिविणे समणत्तणणिन्भत्थिए समणगुणमुकजोगी घेराणं अंतियाओ सणियं २ पच्चोसकति २ जेणेव पुंडरिगिणी णयरी जेणेव पुंडरीयस्स भवणे तेणेव उवा० असोगवणियाए असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलापट्टगंसि णिसीयति २ ओहयमणसंकप्पे जाव सियायमाणे संचिट्ठति, तते णं तस्स पोंडरीयस्स अम्मघाती जेणेव असोगवणिया तेणेव Scedese ~ 490~ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) "ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१] अध्ययनं [१९], मूलं [१४१-१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥ २४४ ॥ Educat उबा० २ कंडरीयं अणगारं असोमवरपायवस्स अहे पुढविसिलावयसि ओहयमणसंकष्पं जाव झियायमाणं पासति २ जेणेव पोंडरीए राया तेणेव उवा० २ पोंडरीयं रायं एवं व० एवं खलु देवा० ! तब पिउभाउए कंडरीए अणगारे असोगवणियाए असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलावट्टे ओहयमणसंकरपे जाव झियायति, तते णं पोंडरीए अम्मधाइए एयमहं सोचा णिसम्म तहेव संभंते समाणे उट्ठाए उद्वेति २ अंतेउरपरियालसंपरिवुडे जेणेव असोगवणिया जाव कंडरीयं तिक्खुत्तो० एवं व० घण्णेसि पण तुमं देवा ! जाव पवतिए, अहण्णं अघण्णे ३ जाव पद्मइत्तए, तं घनेऽसि णं तुमं देवा० ! जाव जीवियफले, तणं कंडरीए पुंडरीएणं एवं बुत्ते समाणे तुसिणीए संचिट्ठति दोपि तपि जाव चिह्नति, तणं पुंडरीकंडरी एवं व०-अट्ठो भंते । भोगेहिं ?, हंता ! अहो, तते णं से पोंडरीए राया कोबिपुरिसे सहावे २ एवं व० - खिप्पामेव भो देवा ! कंडरीयस्स महत्थं जाव रायाभिसेअं बहवेह जाब रायाभिसेणं अभिसिंचति (सूत्रं १४३ ) तते णं पुंडरीए सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेति सयमेव चाजा धम्मं पडिवज्जति २ कंडरीयस्स संतियं आधारभंडयं गेण्हति २ इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगह - कप्पति मे घेरे वंदित्ता णमंसित्ता थेराणं अंतिए चाउज्जामं धम्मं उवसंपत्नित्ता णं ततो पच्छा आहारं आहारितएत्तिकट्टु, इमं च एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हेत्ता णं पोंडरिगिणीए पंडिनिक्खमति २ वापुषि चरमाणे गामाणुगामं दूइजमाणे थेरा भगवंतो तेणेव पहारेत्थ गमणाए (१४४) तते For Park Use Only ~ 491~ १९ पुण्डरीकज्ञाता. पुण्डरीक दीक्षा सू. १४४ ||॥२४४॥ ra Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१९], ----------------- मूलं [१४१-१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: तस्स कंडरीयस्स रपणो तं पणीयं पाणभोयणं आहारिपस्स समाणस्स अतिजागरिएण य अइभोयणपसंगेण य से आहारे णो सम्मं परिणमइ, तते णं तस्स कंडरीयस्स रण्णो तंसि आहारंसि अपरिगममाणंसि पुवरत्तावरत्तकालसमयंसि सरीरंसि वेयणा पाउन्भूया उज्जला विउला पगाढा जाब दुरहियासा पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवकंतीए यावि विहरति ॥ तते णं से कंडरीए राया रजे य रहे य अंतेउरे य जाव अज्झोववन्ने अहवहवस अकामते अवस्सबसे कालमासे कालं किचा अहे सत्तमाए पुढवीए उक्कोसकालहिइयंसि नरयंसि नेरइयत्ताए उबवण्णे । एवामेव समणाउसो! जाव,पबतिए समाणे पुणरवि माणुस्सए कामभोगे आसाइए जाव अणुपरियहिस्सति जहा व से कंडरीए राया (सूत्रं १४५) तते णं से पोंडरीए अणगारे जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवा० २ थेरे भगवंते वंदति नमंसति २धेराणं अंतिए दोचंपि चाउजामं धम्म पडिवज्जति, छट्ठखमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेति २जाव अडमाणे सीयलुक्खं पाणभोयणं पडिगाहेति २ अहापज्जत्तमितिकट्ठ पडिणियत्तति, जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवा०२ भत्तपाणं पडिदंसेति २थेरेहिं भगवंतेहिं अन्भणुनाए समाणे अमुच्छिते ४ विलमिव पण्णगभूएणं अप्पाणेणं तं फासुएसणिज्वं असण ४ सरीरकोटगंसि पक्खिवति, तते णं तस्स पुंडरीयस्स अणगारस्सतं कालाइकंतं अरसं विरसं सीयलुक्खं पाणभोयर्ण आहारियस्स समाणस्स पुषरत्तावरत्तकालसमपंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स से आहारे णो sece ~492~ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१९], ----------------- मूलं [१४१-१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: शाताधर्म ॥२४॥ सम्मं परिणमति, तते णं तस्स पुंडरीयस्स अणगारस्स सरीरगंसि वेपणा पाउम्भूया उज्जला जाव दुरहियासा पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवकंतीए विहरति, तते णं से पुंडरीए अणगारे अत्थामे अबले अवीरिए अपुरिसक्कारपरक्कमे करयल जाव एवं व०-णमोऽत्थु णं अरिहंताणं जाव संपत्ताणं णमोऽत्यु णं थेराणं भगवंताणं मम धम्मायरियाणं धम्मोवएसयाणं पुर्विपि य णं मए थेराणं अंतिए सबे पाणातिवाए पञ्चक्खाए जाव मिच्छादसणसल्ले णं पच्चक्खाए जाच आलोइयपडिपते कालमासे कालं किचा सबट्टसिद्धे उववन्ने । ततो अणंतरं उपट्टित्ता महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव सबसुक्खाणमंतं काहिति। एवामेव समणाउसो! जाव पबतिए समाणे माणुस्सएहिं कामभोगेहिं णो सजति नो रजति जाव नो विप्पडियायमावलति से णं हहभवे चेव बरणं समणाणं बढ़णं समणीणं बाहणं सावयाणं बहणं साविगाणं अच्चणिज्जे वंदणिज्जे पूयणिज्जे सकारणिज्जे सम्माणणिज्जे कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासणिज्जेत्तिकदु परलोएवियणं णो आगच्छति बहणि दंडणाणि य मुंडणाणि प तजणाणि य ताडणाणि य जाव चाउरतं संसारकतारं जाव वीतीवइस्सति जहा व से पोंडरीए अणगारे । एवं खलु जंबू । समणेणं भगवया महावीरेणं आदिगरेणं तित्थगरेणं जाब सिद्धिगइणामधेनं ठाणं संपत्तेणं एगूणवीसइमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते ॥ एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सिद्धिगइणामधेनं ठाणं संपत्तेणं छट्ठस्स अंगस्स पढमस्स सुयक्खंधस्स अयमढे पण्णत्तेत्तिबेमि (सूत्रं १४६) तस्स R१९पुण्ड रीकज्ञाता | कण्डरीक| नारकिता पुण्डरीकसिद्धिः श्रुत०समाप्तिः सू. १४५-१४६ -१४७ ॥२४५ ~ 493~ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१९], ----------------- मूलं [१४१-१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: णं सुयक्खंधस्स एगूणवीसं अज्झयणाणि एक्कसरगाणि एगूणवीसाए दिवसेसु समप्पंति (सूत्र १४७) पढमो सुयक्खंधो समत्तो। सर्व सुगम, नवरं उपनयविशेषोऽयम्-'वाससहस्सपि जई काऊणं संजमं सुविउलंपि । अंते किलिट्ठभावो.न विसुज्नइ कंड-II |रीउन ॥१॥ तथा अप्पेणवि कालेणं केइ जहागहियसीलसामण्णा । साहिति निययकर्ज पुंडरीयमहारिसिब जहा ॥२॥ [ वर्षसहस्रमपि यतिः कला संयम सुविपुलमपि । अन्ते क्लिष्टभावो न विशुध्यति कण्डरीक इव ॥ १ ॥ अल्पेनापि कालेन केचित् यथागृहीतशीलसंयुक्ताः । साधयन्ति निजकार्य यथैव पुण्डरीकमहर्षिः ॥२॥] इत्येकोनविंशतितमं ज्ञातं || विवरणत: समाप्तम् ॥ SHETATRALENTRATESTRALESTRATRAPATRAPATRAMETESTRA इति श्रीचन्द्रकुलनभोङ्गणनभोमणिश्रीमदभयदेवमूरिनिर्मितविवरणवृते । ज्ञाताने प्रथमो ज्ञातश्रुतस्कन्धः समाप्त अत्र अध्ययनं-१९ परिसमाप्तम् तत् परिसमाप्ते प्रथमो श्रुतस्कन्धो अपि समाप्तम् ~ 494~ Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ---------- वर्ग: [१], ---------- अध्ययनं [१-५], ---------- मूलं [१४८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: Ill ज्ञाताधर्म-शा कथाङ्गम्. RIश्रुत.वर्ग: ॥२४॥ अथ द्वितीयश्रुतस्कन्धविवरणम् । अथ द्वितीयो व्याख्यायते, अस्य च पूर्वेण सहायमभिसम्बन्धः-पूर्वत्राप्तोपालम्भादिभिातर्धार्थ उपनीयते, इह तु साह एव साक्षात्कथाभिरभिधीयते इत्येवंसम्बन्धोऽयम्तेणं कालेणं २ रायगिहे नाम नयरे होत्था, वण्णओ, तस्स णं रायगिहस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसिभाए तत्थ णं गुणसीलए णामं चेइए होत्था वणओ, तेणं कालेणं २ समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अज्जमुहम्मा णाम थेरा भगवंतो जातिसंपन्ना कुलसंपन्ना जाव चउद्दसपुती चउणाणोधगया पंचाहिं अणगारसएहिं सद्धिं संपरिवुडा पुवाणुपुर्वि चरमाणा गामाणुगाम दुइज्जमाणा सुहंमुहेणं विहरमाणा जेणेव रायगिहे णयरे जेणेव गुणसीलए चेइए जाव संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति, परिसा निग्गया, धम्मो कहिओ, परिसा जामेव दिस पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया, तेणं कालेणं २ अज्जमुहम्मस्स अणगारस्स अंतेवासी अजजंबू णाम अणगारे जाव पज्जुवासमाणे एवं व-जति णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं छट्ठस्स अंगस्स पढमसुयक्खंधस्स णायसुयाणं अयमढे पन्नत्ते या दोच्चस्स गंभंते ! सुयक्खंधस्स धम्मकहाणं समणेणं जाव संपत्तेणं के अढे पन्नत्ते , एवं खलु जंबू! समणेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं दस वग्गा पं०, तं०-चमरस्स अग्गमहिसीणं पढमे वग्गे १ बलिस्स cecedeseseeeeeeeeeeeeee ॥२४॥ wirelunurary.org ___अथ द्वितिय: श्रुतस्कन्ध: आरभ्यते अथ पञ्च-अध्ययनात्मक: प्रथम-वर्ग: आरब्धः ~ 495~ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ---------- वर्ग: [१], ---------- अध्ययनं [१-५], ---------- मूलं [१४८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: बहरोयर्णिदस्स बहरोयणरन्नो अग्गमहिसीणं बीए वग्गे २ असुरिंदवज्जाणं दाहिणिल्लाणं इंदाणं अग्गमहिसीणं तइए वग्गे ३ उत्तरिल्लाणं असुरिंदवजियाणं भवणवासिइंदाणं अग्गमहिसीणं चउत्धे बग्गे ४ दाहिणिल्लाणं वाणमंतराणं इंदाणं अग्गमहिसीणं पंचमे वग्गे ५ उत्तरिल्लाणं वाणमंतराणं इंदाणं अग्गमहिसीणं छठे वग्गे ६ चंदस्स अग्गमहिसीणं सत्तमे वग्गे ७ सूरस्स अग्गमहिसीणं अट्टमे वग्गे ८ सफस्स अग्गमहिसीणं णवमे वग्गे ९ इंसाणस्स अग्गमहिसीणं दसमे वग्गे १०। जति णं भंते! समणेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं दस बग्गा पं० पढमस्स णं भंते ! बग्गस्स समणेणं जाव संपत्तेणं के अढे पन्नते?, एवं खलु जंबू! समणेणं जाव संपत्तेणं पढमस्स बग्गस्स पंच अज्झयणा पं० सं०-काली राई रयणी विजू मेहा, जइणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं पढमस्स बग्गस्स पंच अज्झयणा पं०पढमस्स णं भंते। अज्झयणस्स समणेणं जाव संपत्तेणं के अटे पं०१, एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं २ रायगिहे णयरे गुणसीलए चेहए सेणिए राया चेलणा देवी सामी समोसरिए परिसा णिग्गया जाव परिसा पज्जुवासति, तेणं कालेणं २ काली नाम देवी चमरचंचाए रायहाणीए कालवडिंसगभवणे कालंसि सीहासणंसि चउहि सामाणियसाहस्सीहिं चउहिं मयहरियाहिं सपरिवाराहिं तिहिं परिसाहिं सत्तहिं अणिएहिं सत्तहिं अणियाहिवतीहिं सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं अण्णेहिं बहुएहि य कालवडिसयभवणवासीहिं असुरकुमारेहिं देवीहिं देवेहि य सद्धिं संपरिखुडा महयाहय जाव विहरह, इमं च णं केव ~496~ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ---------- वर्ग: [१], ---------- अध्ययनं [१-५], ---------- मूलं [१४८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. थाश्रुतस्कन्धः ॥२४७ लकप्पं जंबुद्धीव २ विउलेणं ओहिणा आभोएमाणी २ पासह, तत्थ समणं भगवं महावीर जंबुद्दीवे २ भारहे वासे रायगिहे नगरे गुणसिलए चेइए अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिणिहत्ता संजमेणं तवसा अप्पार्ण भावेमार्ण पासति २त्ता हहतुट्ठचित्तमाणंदिया पीतिमणा जाव हयहियथा सीहासणाओ अन्भुटेति २ पायपीढाओ पचोरुहति २ पाउया ओमुयति २ तित्थगराभिमुही सत्तट्ट पयाई अणुगच्छति २ वाम जाणुं अंचेति २दाहिणं जाणु धरणियलंसि निहट्ठ तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणियलंसि निवेसेति २ईसिं पचुण्णमह २ कडयतुडियर्थभियातो भुयातो साहरति २ करयल जाव कड एवं व० णमोऽत्थु णं अरहताणं जाव संपत्ताणं णमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव संपाविउकामस्स बदामि णं भगवंतं तत्थगयं इह गए पासउ मे समणे भगवं महावीरे तत्थ गए इह गयंतिकटु वंदति २ नमंसति २सीहासणधरंसि पुरत्याभिमुहा निसपणा, तते गं तीसे कालीए देवीए इमेयारवे जाव समुप्पज्जित्था-सेयं खलु मे समणं भगवं महावीरं वंदित्ता जाव पज्जुधासित्तएत्तिकडु एवं संपेहेति २ आभिओगिए देवे सहावेति २ एवं व०-एवं खलु देवा ! समणे भगवं महावीरे एवं जहा सुरियाभो तहेव आणत्तियं देह जाव दिवं सुरवराभिगमणजोगं करेह २ जाव पञ्चपिणह, तेवि तहेव करेत्ता जाव पञ्चप्पिणंति, णवरं जोयणसहस्सविच्छिण्णं जाणं सेसं तहेव तहेव णामगोयं साहेइ तहेव नविहिं उवदंसेइ जाव पडिगया। भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति णमंसति २ एवं व० ॥२४७॥ SAREauratonintamarina ~497~ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) श्रुतस्कन्धः [२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... “ज्ञाताधर्मकथा” वर्ग: [१], मूलं [१४८ ] .आगमसूत्र - [०६ ], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: Eaton International - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययनं [१५], कालिए णं भंते! देवीए सा दिवा देविड्डी ३ कहिं गया० कूडागा रसालादिहंतो, अहो णं भंते! काली देवी महिडिया, कालिए णं भंते! देवीए सा दिवा देविट्टी ३ किष्णा लढा किण्णा पत्ता किण्णा अभिसमागया ?, एवं जहा सुरिया भस्स जाव एवं खलु गोयमा । तेणं कालेणं २ इहेब जंबुद्दीये २ भारहे वासे आमलकप्पा णाम जयरी होत्था वण्णओ अंवसालवणे चेहए जियसत्तू राया, तत्थ णं Creature care काले नामं गाहावती होत्था अड्डे जाव अपरिभूए, तस्स णं कालस्स गाहावइस्स कालसिरी णामं भारिया होत्था, सुकुमाल जाव सुरूवा, तस्स णं कालगस्स गाहावतिस्स घूया कालसिरीए भारियाए अन्तया काली णामं दारिया होत्था, वड्डा वडकुमारी जुण्णा जुण्णकुमारी पडियपुरस्थणी णिनिवरा वरपरिवजियावि होत्था, तेणं कालेणं २ पासे अरहा पुरिसादाणीए आइगरे जहा माणसामीणवरं णवहस्थुस्सेहे सोलसहिं समणसाहस्सीहिं अट्ठत्तीसाए अज्जियासाहस्सीहिं सद्धिं संपरिवुडे जाव अंबसालवणे समोसढे परिसा णि० जाव पज्जुवासति, तते णं सा काली दारिया इमीसे कहाए लट्ठा समाणी हट्ट जाव हियया जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवा० २ करयल जाव एवं व० एवं खलु अम्मयाओ ! पासे अरहा पुरिसादाणीए आइगरे जाव विहरति, तं इच्छामि णं अम्मयाओ ! तुमेहिं अग्भणुन्नाया समाणी पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स पायवंदिया गमित्तए ?, अहासुहं देवा० ! मा परिबंध करेहि, तसे णं सा कालिया दारिया अम्मापर्हहिं अन्भणुन्नाया समाणी हट्ट जाव हियया For Parts Only ~ 498~ war Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ---------- वर्ग: [१], ---------- अध्ययनं [१-५], ---------- मूलं [१४८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म २धमक कथाङ्गम्. थाश्रुत स्कन्धः ॥२४८॥ पहाया कयपलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता सुद्धप्पवेसाई मंगल्लाति बस्थातिं पवर परिहिया अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरा चेडियाचकवालपरिकिपणा सातो गिहातो पडिणिक्खमति २ जेणेव बाहिरिया उबट्ठाणसाला जेणेव धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव उवा०२ धम्मियं जाणपवरं दुरूढा, तते णं सा काली दारिया धम्मियं जाणपवरं एवं जहा दोवती जाव पज्जुवासति, तते णं पासे अरहा पुरिसादाणीए कालीए दारियाए तीसे य महतिमहालयाए परिसाए धम्म कहेइ, तते णं सा काली दारिया पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स अंतिए धम्मं सोचा णिसम्म हह जाव हियया पासं अरहं पुरिसादाणीयं तिक्खुत्तो वंदति नमंसति २ एवं व०-सद्दहामि णं भंते! णिग्गंधं पावयणं जाय से जहेयं तुम्भे वयह, जं णवरं देवा०1 अम्मापियरो आपुच्छामि,तते णं अहं देवाणुप्पियाणं अंतिए जाव पचयामि, अहासुहं देवा, तते णं सा काली दारिया पांसेणं अरया पुरिसादाणीएणं एवं बुत्ता समाणी हट्ट जाव हियया पासं अरहं पंदति २ तमेव धम्मियं जाणप्पवरं दुरूहति २ पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स अंतियातो अंपसालवणाओ चेइयाओ पडिणिक्खमति २ जेणेव आमलकप्पा नयरी लेणेव उचा०२ आमलकप्पं णयरिं मझमझेणं जेणेव बाहिरिया उबट्ठाणसाला तेणेव उवा. २ धम्मियं जाणपबरं ठवेति २ धम्मियाओ जाणप्पवराओ पच्चोरुहति २ जेणेव अम्मापियरा तेणेव उवा०२ करयल एवं व०एवं खलु अम्मयाओ! मए पासस्स अरहतो अंतिए धम्मे णिसंते सेविय धम्मे इच्छिए पडिच्छिए ॥२४८॥ ~ 499~ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ---------- वर्ग: [१], ---------- अध्ययनं [१-५], ---------- मूलं [१४८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ए अभिरुतिए, तए णं अहं अम्मयाओ ! संसारभउविग्गा भीया जम्मणमरणाणं इच्छामि गं तुम्भेहिं अन्भणुन्नाया समाणी पासस्स अरहतो अंतिए मुंडा भबित्ता आगारातो अणगारियं पवतिसए. अहासुहं देवा० मा पडिबंध कर, तते णं से काले गाहावई विपुलं असणं ४ उवक्खडावेति २ मिसणाइणियगसयणसंबंधिपरियणं आमंतेतिर ततो पच्छा पहाए जाब विपुलेणं पुष्फवत्थगंधमलालंकारेणं सकारेत्ता सम्माणेत्ता तस्सेव मित्तणातिणियगसयणसंबंधिपरियणस्स पुरतो कालियं दारियं सेयापीपहिं कलसेहि पहावेति २ सवालंकारविभूसियं करेति २पुरिससहस्सवाहिणीयं सीयं दुरुहेति २ मित्त णाइणियगसयणसंबंधिपरियणेणं सद्धिं संपरिबुडा सविहीए जाव रवेणं आमलकप्पं नयरिं मझमज्झेणं णिग्गच्छति २ जेणेव अंबसालवणे चेइए तेणेव उवा०२छत्ताइए तित्थगराइसए पासतिरसीयं ठवेइ २ कालियंदारियं अम्मापियरो पुरओ काउंजेणेव पासे अरहा पुरिसा तेणेव उवा०२ बंदइ नमसइ २त्ता एवं व०-एवं खलु देवा! काली दारिया अम्हं धूया इहा कंता जाव किमंग पुण पासणयाए ?, एस णं देवा! संसारभउधिग्गा इच्छह देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडा भवित्ताणं जाव पबहत्तए, तं एवं गं देवाणुप्पियाण सिस्सिणिभिक्खं दलयामो पडिच्छतु णं देवाणुप्पिया! सिस्सिणिभिक्खं, अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंध, तते णं काली कुमारी पासं अरहं वंदति २ उत्तरपुरच्छिमं दिसिभागं अवकमति २ सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयति २ सयमेव लोयं करेति २ जेणेव पासे अरहा ~500~ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ---------- वर्ग: [१], ---------- अध्ययनं [१-५], ---------- मूलं [१४८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. धाश्रत स्कन्धः ॥२४॥ पुरिसादाणीए तेणेव उवा०२ पासं अरहं तिक्खुसो वंदति २एवं व-आलित्ते गं भंते ! लोए एवं जहा देवार्णदा जाव सयमेव पधाविउं, तते णं पासे अरहा पुरिसादाणीए कालिं सयमेव पुष्फलाए अज्जाए सिस्सिणियत्साए दलयति, तते णं सा पुष्फचूला अज्जा कार्लि कुमारि सयमेव पवावेति, जाव उवसंपज्जित्ताणं विहरति, तते णं सा काली अजा जाया ईरियासमिया जाव गुत्सर्वभयारिणी, तते णं सा काली अज्जा पुष्फलाअजाए अंतिए सामाइयमाझ्याति एक्कारस अंगाई अहिजइ बहूर्हि चउत्थ जाव विहरति, तते णं सा काली अजा अन्नया कयाति सरीरवाउसिया जाया पावि होत्या, अभिक्खणं २ हत्थे धोवइ पाए धोवइ सीसं धोबह मुहंधोवइ थर्णतराई धोवह कक्खंतराणि धोवति गुज्तराई धोवइ जत्थ २विय णं ठाणं वा सेज वा णिसीहियं वा चेतेइतं पुषामेव अभुक्खेत्ता ततो पच्छा आसयति वा सयइ वा, तते गं सा पुष्फबूला अज्जा कालिं अजं एवं प०-नो खलु कप्पति देवा! समणीणं णिग्गंधीणं सरीरबाउसियाण होत्तए तुमं च णं देवाणुप्पिया ! सरीरबाउसिया जाया अभिक्खणं २ हस्थे धोवसि जाव आसयाहि वा सयाहि वा तं तुम देवाणुप्पिए। एयरस ठाणस्स आलोएहि जाव पापछि पडिवजाहि,तते णं सा काली अज्जा पुष्फलाए अजाए एयमझु नो आढाति जाव तुसिणीया संचिट्ठप्ति, तते णं ताओ पुप्फचूलाओ अजाओ कालिं अजं अमिक्खणं २हीलेंति जिंदति सिंति गरिहंति अवमपणति अभिक्खणं २ एपम8 निवारेति, सते णं तीसे कालीए अज्जाए समणीहिं गिग्गं ceserveseencaes Sesesese ॥२४॥ ~501~ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ---------- वर्ग: [१], ---------- अध्ययनं [१-५], ---------- मूलं [१४८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: SceneneRce थीहिं अभिक्खणं २ हीलिजमाणीए जाव वारिज्नमाणीए इमेयासवे अन्मस्थिए जाप समुपजिस्थाजया णं अहं आगारवासं मचे वसिस्था तया " अहं सर्यचसा जप्पिभिइंच णं अहं मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पचतिया तप्पभिई च णं अहं परवसा जाया, तं सेयं खलु मम कालं पाउपभायाए रयणीए जाव जलते पाडिकिय अवस्सयं उपसंपज्जित्ता णं विहरित्तएतिकटु एवं संपेहेति २कल्लं जाव जलते पाडिएफ उवस्सयं गिण्हति, तत्थ णं अनिवारिया अणोद्दिया सच्छंदमती अभिक्खणं २हत्थे धोवेति जाव आसयइ वा सयइ वा, तए णं सा काली अज्जा पासस्था पासस्थविहारी ओसण्णा ओसण्णविहारी कुसीला २ अहाउंदा २ संसत्ता २ बहूणि वासाणि सामनपरियागं पाउणइ २ अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेति २ तीसं भत्ताई अणसणाए छेएइ २ तस्स ठाणस्स अणालोइयजपडिकंता कालमासे कालं किच्चा चमरचंचाए रायहाणीए कालवर्डिसए भवणे उबवापसभाए देवसयणिजंसि देवदूसंतरिया अंगुलस्स असंखेजाइभागमेत्ताए ओगाहणाए कालीदेवीत्ताए उवषण्णा, तते णं सा काली देवी अटुणोववण्णा समाणी पंचविहाए पज्जत्तीए जहा सूरियाभो जाव भासामणपज्जत्तीए, तते णं सा काली देवी चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं जाव अण्णेसिं च यहूर्ण कालवडेंसगभवणवासीणं असुरकुमाराणं देवाण य देवीण य आहेवचं जाव विहरति, एवं खलु गो! कालीए देवीए सा दिया देविड्डी ३ लद्धा पत्ता अभिसमण्णागया, कालीए णं भंते ! देवीए केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता', ~502~ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ---------- वर्ग: [१], ---------- अध्ययनं [१-५], ---------- मूलं [१४८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाजन्म. २धर्मकथाश्रुतस्कन्धः ॥२५॥ गो! अट्ठाइजाई पलिओवमाई ठिई पन्नत्ता, काली णं भंते ! देवी ताओ देवलोगाओ अणंतरं उययद्वित्ता कहिं गच्छिहिति कहं उववजिहिति ?, गो! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति, एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं पढमवग्गस्स पढमज्झयणस्स अयमढे पण्णत्तेत्तियेमि । धम्मकहाणं पढमायणं समत्तं (सूत्रं १४८) सर्वः सुगमः, नवरं 'किण्णा लद्ध'त्ति प्राकृतखात् केन हेतुना लब्धा-भवान्तरे उपार्जिता प्राप्ता-देवभवे उपनीता अभिसमन्वागता-परिभोगतः उपयोग प्राप्तेति, 'वडत्ति बृहती वयसा सैव बृहत्वादपरिणीतखाच्च बृहत्कुमारी जीर्णा शरीरजरणाद्धेत्यर्थः सैव जीर्णस्वापरिणत्वाभ्यां जीर्णकुमारी जीर्णशरीरखादेव पतितपुतस्तनी-अवनतिगतनितम्बदेशवक्षोजा |निर्विण्णाच वरा:-परिणेतारो यस्याः सा निर्विष्णवरा अत एव वरपरिवर्जितेति, शेष सूत्रसिद्धम् ।। जति णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं पढमस्स वग्गस्स पढमज्झयणस्स अयमद्धे प० वितियस्स णं भंते ! अज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के० अहे पण्णते?, एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं २रायगिहे नगरे गुणसीलए चेहए सामी समोसढे परिसा णिग्गया जाव पज्जुवासति, तेणं कालेणं २राई देवी चमरचंचाए रायहाणीए एवं जहा काली तहेब आगया पट्टविहिं उवदंसेत्ता पडिगया, भंतेत्ति भगवं गो! पुवभवपुच्छा, एवं खलु गो! तेणं कालेणं २ आमलकप्पा णयरी अंबसालवणे चेहए जियसत्तू राया राई गाहावती राईसिरी भारिया राई दारिया पासस्स समो neelee ॥२५॥ FarPurwanaBNamunoonm ~503~ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” वर्ग: [१], मूलं [ १४९ ] आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः श्रुतस्कन्धः [२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित Eucatur International - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययनं [१५], सरणं राई दारिया जहेब काली तहेव निक्खता तहेब सरीरबाउसिया तं चैव सर्व्वं जाव अंतं काहिति । एवं खलु जंबू ! वियज्झयणस्स निक्लेवओ २ । जति णं भंते! तइयज्झयणस्स उक्खेवतो, एवं खलु जंबू ! रायगिहे णयरे गुणसिलए चेइए एवं जहेब राती तहेव रयणीवि, णवरं आमलकप्पा नयरी रयणी गाहावती रयणसिरी भारिया रयणी दारिया सेसं तहेव जाब अंतं काहिति ३ । एवं बिज्जूवि आमलकप्पा नपरी बिज्जुगाहावती विज्जुसिरिभारिया विज्जुदारिया सेसं तहेव ४ । एवं महावि आमलकप्पाए नयरीए मेहे गाहावती मेहसिरि भारिया मेहा दारिया सेसं तहेव ५ । एवं खलु जंबू समणेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं पढमस्स वग्गस्स अयमद्वे पण्णत्ते (सूत्रं १४९ ) जति णं भंते! समणेणं जाव संपत्तेर्ण दोचस्स वग्गस्स उक्खेबओ, एवं खलु जंबू । समणेणं जाव संपत्तेर्ण दोचस्स वग्गस्स पंच अज्झयणा पं० तं०-सुंभा निसुंभा रंभा निरंभा मदणा, जति णं भंते! समणेणं जाव संपत्ते धम्मकहाणं दोचस्स वग्गस्स पंच अक्षयणा पं०, दोचस्स णं भंते! वग्गस्स पढमज्झयणस्स ० अट्ठे पं० १, एवं खलु जंबू । तेणं कालेणं २ रायगिहे णपरे गुणसीलए चेइए सामी समोसढो परिसा णिग्गया जाव पज्जुवासति तेणं कालेणं २ सुंभा देवी बलिचंचाए रायहाणीए सुंभवडेंसए भवणे सुनंसि सीहासांसि कालीगम एणं जाव पाहविहिं उवसेत्ता जाव पडिगया, पुवभवपुच्छा, सावस्थी णयरी कोट्टए चेहए जियसत्तू राया सुंभे गाहावती सुंभसिरी भारिया सुंभा दारिया सेसं जहा कालिया णवरं For Parts Only अत्र पञ्च अध्ययनात्मकः प्रथम-वर्गः परिसमाप्तः अथ द्वितियात् आरभ्य दशम-वर्गः पर्यन्ता वर्गाः (स्व-स्व अध्ययनानि समेता) कथ्यन्ते ~ 504~ Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], --------- वर्ग: [२],[३], --------- अध्ययनं [१-५],[१-५४], --------- मूलं [१५०,१५१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: शाताधर्म कथासम्. थाश्रुतस्कन्धः २५|| अदुवाति पलिओवमाई ठिती, एवं खलु जंबू ! निक्खेवओ अज्झयणस्स एवं सेसावि चत्तारि अझयणा, सावत्थीए नवरं माया पिया सरिसनामया, एवं खलु जंवू ! निक्खेवओ वितीयवग्गस्स २ (सूत्र १५०) उक्खेवओ तइयवग्गस्स एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं तइयरस वग्गरस चउपपणं अज्झयणा पन्नत्ता, सं०-पढमे अज्झयणे जाव चउपण्णतिमे अजायणे, जति णं भंते! समणेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं तइयस्स वग्गस्स चउष्पन्नज्झयणा पं० पढमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स समणेणं जाव संपत्तेणं के अढे पण्णते, एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं २ रायगिहे गयरे गुणसीलए चेहए सामी समोसढे परिसा णिग्गया जाव पज्जुवासति, तेणं कालेणं २ इला देवी धरणीए रायहाजीए इलावडंसए भवणे इलंसि सीहासणंसि एवं कालीगमएणं जाव गटविहिं उपदंसेत्ता पडिगया, पुषभवपुच्छा, चाणारसीए णयरे काममहावणे चेइए इले गाहावती इलसिरी भारिया इला दारिया सेसं जहा कालीए णवरं धरणस्स अग्गमहिसित्ताए उववाओ सातिरेगअद्धपलिओवमठिती सेसं तहेव, एवं खलु णिक्खेवओ पढमजायणस्स, एवं कमा सतेरा सोयामणी इंदा घणा विज्जुयावि, सपाओ एयाओ धरणस्स अग्गमहिसीओ एव, एते छ अज्झयणा वेणुदेवस्सविअविसेसिया भाणियचा एवं जाव घोसस्सवि एए चेव छ अज्झयणा, एवमेते दाहिणिल्लाणं इंदाणं चउपपणं अज्झयणा भवंति, सहाओवि वाणारसीए काममहावणे चेहए तइयवग्गस्स णिक्खेवओ (सूत्रं १५१) चउत्थस्स उक्खेवओ, 18| ॥२५॥ ~ 505~ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ---------- वर्ग: [४] ----------- अध्ययनं [१-५४] ---------- मूलं [१५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं चउत्थवग्गस्स चउप्पण्णं अज्झयणा पं०,०पहमे अजायणे जाव चप्पण्णइमे अज्झयणे, पढमस्स अज्झयणस्स उक्खेवो गो०1 एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं २ रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पज्जुवासति, तेणं कालेणं २ रूया देवी रूयाणंदा रायहाणी रूयगवर्दिसए भवणे रूपगंसि सीहासणंसि जहा कालीए तहा नवरं पुषभवे चंपाए पुण्णभदे चेतिए रूयगगाहावई रूयगसिरी भारिया रूया दारिया सेसं तहेव, णवरं भूयाणंद अग्गमहिसित्ताए उववाओ देसूर्ण पलिओवर्म ठिई णिक्खेवओ, एवं खलु सुरूयावि रूयंसावि रूयगावतीवि रूयकतावि ख्यप्पभावि, एयाओं चेव उत्तरिल्लाणं इंदाणं भाणियबाओ जाव महाघोसस्स, णिक्खेबओ चउत्थवग्गस्स (सूत्रं १५२) पंचमवग्गस्स उक्खेवओ, एवं खलु जंबू ! जाच बत्तीसं अज्झयणा पं०, तं०कमला कमलप्पभा चेव, उप्पला य सुदंसणा । रूववती बहुरूवा, सुरूवा सुभगाविय ॥१॥ पुण्णा बहुपुत्तिया चेव, उत्तमा भारियाविय । पउमा वसुमती चेव, कणगा कणगप्पभा ॥२॥ वडेंसा केउमतीचेव, वहरसेणा रयिप्पिया । रोहिणी नमिया चेव, हिरी पुष्फवतीतिय ॥३॥ भुयगा भुयगवती चेव, महाकच्छाऽपराइया। सुघोसा विमला चेव, सुरसराय सरस्सती॥४॥ उक्खेवओ पढमज्झयणस्स, एवं खलु जंबू तेणं कालेणं २रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पज्जुवासति, तेणं कालेणं २ कमला देवी कमलाए रायहाणीए कमलवडेंसए भवणे कमसंसि सीहासणंसि सेसं जहा कालीए तहेच णवरं पुषभषे ~5064 Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) श्रुतस्कन्ध: [२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..... ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥२५२ ॥ “ज्ञाताधर्मकथा” वर्ग: [५] आगमसूत्र [०६], अंग सूत्र [०६ ] Internationa - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययनं [१-५४] नागपुरे नपरे सहसंबवणे उज्जाणे कमलस्स गाहावतिस्स कमलसिरीए भारियाए कमला दारिया पासस० अंतिए निक्खता कालस्स पिसायकुमारिदस्स अग्गमहिसी अपलिओवमं द्विती, एवं सेसावि अज्झयणा दाहिणिल्लाणं वाणमंतरिंदाणं, भाणियवाओ सबाओ नागपुरे सहसंबवणे उखाणे माया पिया धूया सरिसनामया, टिती अद्धपलिओवमं । पंचमो वग्गो समत्तो । (सूत्रं १५३ ) छट्टोवि वग्गो पंचमग्गसरिसो, णवरं महाकालिंदाणं उत्तरिल्लाणं इंदाणं अग्गमहिसीओ पुवभवे सायनयरे उत्तररुवाणे माया पिया घूया सरिसणामया सेसं तं चेव । छट्टो वग्गो समत्तो (सूत्रं १५४ ) सत्तमस्स बग्गस्स उक्खेवओ, एवं खलु जंबू ! जाव चत्तारि अज्झयणा पं० तं०-सूरम्पभा आयवा अचिमाली पभंकरा, पढमज्झयणस्स उक्स्वेवओ, एवं खलु जंबू । तेणं कालेणं २ रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पज्जुवासह, तेणं कालेणं २ सरप्पभा देवी सुरंसि विमाणंसि सूरप्पभंसि सीहासणंसि सेसं जहा कालीए तहा णवरं पुचभवो अरक्खुरीए नयरीए सूरप्पभस्स गाहावइस्स सूरसिरीए भारियाए सुरभा दारिया सूरस्स अग्गमहिसी ठिती अद्धपलिओवमं पंचहिं वाससएहिं अन्भहियं सेसं जहा कालीए, एवं सेसाओवि सबाओ अरक्खुरीए णयरीए । सत्तमो वग्गो समत्तो (सूत्रं १५५ ) अट्टमस्स उक्खेचओ, एवं खलु जंबू ! जाव चत्तारि अज्झयणा पं० तं० - चंदप्पभा दोसिणाभा अचिमाली पभंकरा, पढमस्स अज्झयणस्स उक्खेवओ, एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं २ रायगिहे समोसरणं जाव परिसा For Penal Lise Only मूलं [ १५२ ] + गाथा: "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~ 507~ २ धर्मक थाश्रुतस्कन्धः ॥२५२॥ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], --------- वर्ग: [८] --------- अध्ययनं [१-४] --------- मूलं [१५६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: पज्जुवासति, सेणं कालेणं २ चंदप्पभा देवी चंदप्पभसि विमाणसि चंदप्पभंसि सीहासणंसि सेसं जहा कालीए, णवरं पुत्वभवे महुराए णयरीए भंटिवडेंसए उजाणे चंदप्पभे गाहावती चंदसिरी भारिया चंदप्पभा दारिया चंदस्स अग्गमहिसी ठिती अद्धपलिओवमं पण्णासाए वाससहस्सेहि अन्भहियं सेसं जहा कालीए, एवं सेसाओवि महुराए णयरीए मायापियरोवि धूयासरिसणामा, अट्ठमो वग्गो समत्सो। (सूत्रं १५६) णवमस्स उक्खेवओ, एवं खस्लु जंबू ! जाव अट्ट अज्झयणा पं०, तं०-पषमा सिवा सती अंजू रोहिणी णवमिया अचला अच्छरा, पहमज्झयणस्स उक्खेवओ, एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पज्जुवासइ, तेणं कालेणं २ पउमावई देवी सोहम्मे कप्पे पउमवडेंसए विमाणे सभाए सुहम्माए पउमंसि सीहासणंसि जहा कालीए एवं अढवि अज्मयणा कालीगमएणं नायवा, णवरं सावत्थीए दो जणीओ हथिणाउरे दो जणीओ कंपिल्लपुरे दो जणीओ सागेयनयरे दो जणीओ पउमे पियरो विजया मायराओ सबाओऽवि पासस्स अंतिए पदतियाओ सक्करस अग्गमहिसीओ ठिई सत्त पलिओवमाईमहाविदेहे वासे अंतं काहिंति ।णवमो वग्गो समत्तो (सूत्र १५७) दसमस्स उक्खेवओ, एवं खलु जंबू! जाव अट्ठ अज्झयणा पं०, तं०-कण्हा य कण्हराती रामा तह रामरक्खिया बसू या । वसुगुत्ता वसुमित्ता वसुंधरा चैव ईसाणे॥१॥ पढमज्झयणस्स उक्खेवओ, एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पज्जुबासति, ~508~ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], --------- वर्ग: [१०] --------- अध्ययनं [१-८] --------- मूलं [१५८] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञाताधर्म ला तेणं कालेणं २ कण्हा देवी ईसाणे कप्पे कण्हव.सए विमाणे सभाए सुहम्माए कण्हंसि सीहासणंसि कथाङ्गम. सेसं जहा कालीए एवं अट्ठवि अज्झयणा कालीगमएणं पवा, णवरं पुषभये वाणारसीए नयरीए दो जणीओ रायगिहे नयरे दो जणीओ सावस्थीए नयरीए दो जणीओ कोसंबीए नयरीए दो जणीओ रामे ॥२५३|| पिया धम्मा माया सबाओऽवि पासस्स अरहओ अंतिए पवइयाओ पुष्फलाए अजाए सिस्सिणीयत्ताए ईसाणस्स अग्गमहिसीओ ठिती णव पलिओवमाई महाविदेहे वासे सिजिझहिंति बुजिमाहिति मुच्चिहिंति सबदुक्खाणं अंतं काहिंति । एवं खलु जंबू! णिक्खेवओ दसमवग्गस्स । दसमो वग्गो समत्तो। (सूत्र १५८) । एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं आदिगरेणं तित्थरेणं सयंसंबुद्धेणं पुरिसोसमेणं जाव संपत्तेणं | धम्मकहा सुयक्खंधो समसो दसहि बग्गेहिं नायाधम्मकहाभो समताओ। (सूत्रं १५९) समाप्तो द्वितीयः श्रुतस्कन्धः। नमः श्रीवर्धमानाय, श्रीपार्श्वप्रभवे नमः । नमः श्रीमत्सरस्वत्यै, सहायेभ्यो नमो नमः ॥१॥ इह हि गमनिकार्थ यन्मया KI न्यूहयोक्तं, किमपि समयहीनं तद्विशोध्यं सुधीभिः । नहि भवति विधेया सर्वथाऽस्मिन्नुपेक्षा, दयितजिनमतानां तापिनां चाङ्गि वर्गे ॥ २॥ परेषां दुर्लक्षा भवति हि विपक्षाः स्फुटमिदं, विशेषाद् वृद्धानामतुलवचनज्ञानमहसाम् । निराम्नायाधीभिः पुनरतितरी माशजनस्ततः शास्त्रार्थे मे वचनमनघं दुर्लभमिह ॥३॥ ततः सिद्धान्ततत्त्वज्ञैः, स्वयमूहः प्रयत्नतः । न पुनरसदाख्यात, एव प्रायो नियोगतः ॥ ४॥ तथापि माऽस्तु मे पापं, समत्युपजीवनात् । वृद्धन्यायानुसारिखाद्धितार्थ च प्रवृत्तितः ॥२५॥ अथ द्वितियात् आरभ्य दशम-वर्ग: पर्यन्ता वर्गा: (स्व-स्व अध्ययनानि समेता) परिसमाप्ता: ~509~ Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) “ज्ञाताधर्मकथा” - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], ---------- वर्ग: [-] --------- अध्ययनं [-] - ------- मूलं [१५९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: Kaरहस्य M॥५॥ तथाहि-किमपि स्फुटीकृतमिह स्फुटेऽप्यर्थतः, सकष्टमतिदेशतो विविधवाचनातोऽपि यत् । समर्थपदसंश्रयाद्विगुण पुस्तकेभ्योऽपि यत्, परात्महितहेतवेऽनभिनिवेशिना चेतसा ॥६॥ यो जैनाभिमतं प्रमाणमनघं व्युत्पादयामासिवान् । प्रस्थानवि विधैर्निरस्य निखिलं बौद्धादि सम्बन्धि तत् । नानावृत्तिकथाकथापथमतिक्रान्तं च चके तपो, निःसम्बन्धविहारमप्रतिहतं शास्त्रानुसारात्तथा ॥ ७ ॥ तस्साचार्यजिनेश्वरस्य मदवद्वादिप्रतिस्पर्द्धिनः, तद्वन्धोरपि बुद्धिसागर इति ख्यातस्य । रेचवि । छन्दोवन्धनिबद्धवन्धुरवचःशब्दादिसल्लक्ष्मणः, श्रीसंविग्नविहारिणः श्रुतनिधेश्चारित्रचूडामणेः ॥८॥ शिष्येणाभयदेवाख्यसूरिणा विवृतिः कृता । ज्ञाताधर्मकथाजस्य, श्रुतभक्त्या समासतः ॥ ९ ॥ निर्वतककुलनभस्तलचन्द्रदोणाख्यम्रिमुख्येन । पण्डितगुणेन गुणवत्प्रियेण संशोधिता चेयम् ॥ १०॥ प्रत्यक्षरं गणनया, अन्धमानं विनिश्चितम् । अनुष्टुभां सह साणि, त्रीण्येवाष्टशतानि च ॥११॥ एकादशसु शतेष्वथ विंशत्यधिकेषु विक्रमसमानाम् । अणहिलपाटकनगरे विजयद|| शम्यां च सिद्धेयम् ।।१२।। समाप्ता चेयं ज्ञाताधर्मकथाप्रदेशटीकेति ।। ORNANAPNARNAANAANANARNARNARANAANARNIAANAD ॥ इति चन्द्रकुलनभस्तलोडपतिप्रभश्रीमदभयदेवमूरिसूत्रितविवरणयुतं ज्ञाताधर्मकथाङ्गं समाप्तम् ।। अथ द्वितिय: श्रुतस्कन्ध: परिसमाप्त: मुनिश्री दीपरत्नसागरेण पुन: संपादित: (आगमसूत्र ६) “ज्ञाताधर्मकथा" परिसमाप्त: ~ 510~ Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरूभ्यो नमः पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च “ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्र" [मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः] | (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: 'ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं वृत्तिः” नामेण परिसमाप्त: Remembar it's a Net Publications of 'jain_e_library' ~511~