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प्रथम वे दोनों देवियां स्वर्गसे च्युत हुई । तब उस देवने केवली भगवानसे पूछा कि, “हे प्रभो ! मैं सुलभवोधि हूं कि दुर्लभबोधि ?" केवली भगवानने उत्तर दिया- " तूं सुलभबोधि हैं । पुनः उसने पूछा "यह बात किस भांति सो समझाइए " केवलीने कहा कि, "जो तेरी दोनों देवियां स्वर्गसे पतित हुई हैं उनमें हंसीका जीव तो क्षितिप्रतिष्ठित नगरमें ऋतुध्वज राजाका पुत्र मृगध्वज राजा हुआ है, और सारसीका जीव पूर्वभवमें माया करनेसे काश्मीर देशके अंदर विमलाचलके पास एक आश्रम में गांगलि ऋषिकी कमलमाला नामक कन्या हुई है. तूं अब उनका जातिस्मरणज्ञान वाला पुत्र होगा '
श्रीदत्त मुनि कहते हैं कि- " हे मृगध्वज राजन् ! केवलीके मुखसे यह बात सुनकर तोतेका जीव देव समान मधुर वचनसे तुझे उस आश्रम में लेगया, वहां तुझे कन्याको पहिरानेके लिये वस्त्रालंकारादि दिये, वापस तुझे लाकर तेरी सेना में सम्मिलित किया और पश्चात् वह स्वर्ग में गया। वहांसेत होकर अब यह तेरा पुत्र हुआ है । इसने अपना वर्णन सुनकर जातिस्मरण ज्ञान पाकर विचार किया कि, “पूर्वभवमें जो मेरी दो स्त्रियां थी वही इस भव में मेरे माता पिता हुए हैं, अब मैं उनको 'हे तात! हे मात' यह किस प्रकार कहूं ? इससे मौन धारण करना ही उत्तम है" इस विचारसे कुछ भी दोष न होने पर भी इसने आज तक मौन साधन किया और अभी हमारा वचन न उल्लंघन