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१ अभयदान, २ सुपात्रदान, ३ अनुकंपादान, ४ उचितदान और ५ कीर्तिदान ऐसे दानके पांच प्रकार हैं. जिसमें प्रथम दोप्रकारके दानसे भोगसुख पूर्वक मोक्षकी प्राप्ति होती है और अंतिम तीनप्रकारके दानसे केवल भोगसुखादिक ही मिलता है. सुपात्रके लक्षण ये हैं:-उत्तमपात्र साधु, मध्यमपात्र श्रावक और जघन्यपात्र अविरति सम्यग्दृष्टि. वैसे ही कहा है कि
उत्तमपत्तं साहू, मज्झिमपत्तं च सावया भणिया । अविरयसम्मादिट्ठी, जहन्नपत्तं मुणेअब्वं ॥१॥ मिथ्यादृष्टिसहस्रेषु, वामेको ह्यणुव्रती । अणुव्रतिसहस्रेषु, वरमेको महाव्रती ॥२॥ . महाबतिसहस्रेषु, वरमेको हि तात्विकः । तात्विकस्य समं पात्रं न भूतं न भविष्यति ॥३॥ सत्पात्रं महती श्रद्धा, काले देयं यथोचितम् । धर्मसाधनसामग्री, बहुपुण्यैरवाप्यते ॥ ४॥ अनादरो विलंबश्व, वैमुख्यं विप्रियं वचः। पश्चात्तापश्च पंचापि, सदानं दूषयन्त्यमी ॥ ५ ॥
हजारों मिथ्यादृष्टिकी अपेक्षा एक बारहव्रतधारी श्रावक श्रेष्ठ है, और हजारों बारहव्रतधारी श्रावकोंसे एक पंचमहाव्रतधारी मुनिराज श्रेष्ठ है. हजारों मुनिराजसे एक तत्वज्ञानी श्रेष्ठ है. तत्वज्ञान के समान पात्र न हुआ और न होगा. सत्पात्र, महान्श्रद्धा, योग्य काल, उचितवस्तु आदि धर्मसाधनकी