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उद्यानके अंदर स्थित गोत्रदेवी चक्रेश्वरीके मंदिरमें शीघ्र गई.
और परमभक्तिसे कमलपुष्पोंकी मालाओंसे पूजा करके उसे विनती करी किः- "हे स्वामिनी ! मैंने जो मनमें कपट रहित भक्ति रखकर सर्वकाल तेरी पूजा, वंदना और स्तुति करी होवे तो आज मेरे ऊपर अनुग्रह कर अपनी पवित्रवाणीसे मेरी बहिनकी शुद्धि बता. हे मातेश्वरी ! अगर यह बात तुझसे न बनेगी तो, "यह समझ ले कि मैंने आजन्म पर्यंत भोजनका त्याग किया." कारणकि कौन नीतिमान् मनुष्य अपने इष्टव्यक्तिके अनिष्टकी मनमें कल्पना आने पर भोजन करता है ?"
तिलकमंजरीकी भक्ति, शक्ति और बोलनेकी युक्ति देखकर चक्रेश्वरी देवी प्रसन्न होकर शीघ्र प्रकट हुई. मनुष्य मनकी एकाग्रता करे तो क्या नहीं हो सकता ? देवाने हर्षपूर्वक कहा कि, "हे तिलकमंजरी ! तेरी बहिन कुशल पूर्वक है. हे वत्से ! तू खेदको त्याग कर दे और भोजन कर. एक मासके अंदर तुझे अशोकमंजरीकी शुद्धि मिलेगी और दैवयोगसे उसी समय उसका ब तेरा मिलाप भी होगा. जो तू पूछना चाहेकि उसका मिलाप कहां व किस प्रकार होगा ? तो सुन-सघनवृक्षोंके कारण कायरमनुष्य जिसे पार नहीं कर सकता वैसी इस नगरकी पश्चिम दिशामें कुछ दूर पर एक अटवी ( वन ) है. उस समृद्धअटवीमें राजाका हाथ तो क्या ? परन्तु सूर्यको किरणे भी कहीं प्रवेश नहीं कर सकती. वहांके शृगाल भी अन्तः