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इस रीति से देशावकाशिक ग्रहण करनेसे महान फल प्राप्त होता है, और इससे मुनिराजकी भांति निःसंगपन उत्पन्न होता है । यह व्रत जैसे वैद्यके जीव वानरने प्राणांततक पाला, और उससे उसने दूसरे भवमें सर्वोत्कृष्ट फल पाया, वैसे ही विशेषफलके इच्छुक अन्यमनुष्यने भी मुख्यतः पालना चाहिये । परंतु वैसे पालनेकी शक्ति न होवे तो अनाभोगादि चार आगारों में से चौथे आगार द्वारा अनि सुलगना आदि कारण से वह (देशावकाशिक ) व्रत छोडे तो भी व्रतभंग नहीं होता । वैद्यके जीव वानरका दृष्टांत श्रीरत्नशेखरसूरीजी ( इन्होने ) विरचित आचारप्रदीपग्रंथ में देखो |
इसी प्रकार चार शरणाको अंगीकार करना । सर्व जीवराशिको खमाना । अट्ठारह पापस्थानकका त्याग करना । पापकी निंदा करना । पुण्यकी अनुमोदना करना । प्रथम नवकारकी गणना कर,, जैइ मे हुज्ज पमाओ, इमस्स देहस्सिमाइ रयणी || आहारमुवहि देहं सव्वं तिविहेण वोसिरिअं ॥ १ ॥ इस गाथा से तीनवार सागारी अनशन स्वीकार करना, और सोते समय नवकारका चितवन करना । एकांतशय्या ही में सोना, परंतु जहां स्त्रीआदिका संसर्ग हो वहां नहीं सोना । कारण कि, विषयसेवनका अभ्यास अनादिकालका है, और वेदका
१ जो इस रात्रिमें इस देहका प्रमाद हो तो यह देह, आहार और उपधि इन सर्वको त्रिविधले वोसिराता हूं । ( १ )