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(६९७) पहिरावणी करना, धोतियांआदि देना तथा द्रव्यकी वृद्धि हो उस प्रकार आरती उतारनाआदि धर्मकृत्य करके देवद्रव्यकी वृद्धि, ६ महापूजा, ७ रात्रिमें धर्मजागरिका, ८ श्रुतज्ञानकी विशेषपूजा, ९ अनेकप्रकारके उजमणे, १० जिन-शासनकी प्रभावना, और ११ आलोयणा इतने धर्मकृत्य यथाशक्ति करना.
जिसमें श्रीसंघकी पूजा, अपने कुल तथा धनआदिके अनुसार बहुत आदरसत्कारसे साधुसाध्वीके खपमें आवे ऐसी आधाकर्मादि दोष रहित वस्तुएं गुरुमहाराजको देना. यथाः-- वस्त्र, कम्बल, पादपोंछनक, सूत्र, ऊन, पात्र, जलके तुंबेआदि पात्र, दांडा, दांडी, सूई, कांटा निकालनेका चिमटा, कागज, दावात, कलमें, पुस्तकेंआदि. दिनकृत्यमें कहा है कि-वस्त्र, पात्र, पांचों प्रकारकी पुस्तकें, कम्बल, आसन, दांडा, संथारा, सिज्जा तथा अन्य भी औधिक तथा औपगहिक, मुहपत्ति, आसन जो कुछ शुद्ध संयमको उपकारी होवे वह देना. प्रवचनसारोद्धारवृत्ति में कहा है कि- "जो वस्तु संयमको उपकारी होवे, वह वस्तु उपकार करनेवाली होनेसे उपकरण कहलाती है, उससे अधिक वस्तु अधिकरण कहलाती है. असंयतपनसे वस्तुका परिहार अर्थात् परिभोग ( सेवन ) करनेवाला असंयत कहलाता है." यहां परिहारशब्दका अर्थ परिभोग करनेवाला किया, उसका कारण यह है कि "परिहारः परिभोग"