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(७८१) मंडल उन्हींसे पवित्र हुआ है.
भावश्रावकके लक्षण भी इस प्रकार कहे हैं:- १ स्त्रीके वश न होना, २ इन्द्रियां वशमें रखना, ३ धनको अनर्थका हेतु समझना, ४ संसारको असार समझना, ५ विषयकी. अभिलाषा न रखना, ६आरम्भका त्याग करना, ७गृहवासको बन्धन समान समझना ८आजन्म समकितका पालन करना,९साधारण मनुष्य, जैसे भेड प्रवाहसे चलते हैं, ऐसा चलता है ऐसा विचारना, १० सब जगह आगमके अनुसार बर्ताव करना, ११ यथाशक्ति दानादि चतुर्विध धर्मका आचरण करना, १२ धर्मकार्य करते कोई अज्ञ मनुष्य हंसी करे, तो उसकी शर्म न रखना, १३ गृह . कृत्य राग द्वेष न रखते हुए करना; १४. मध्यस्थपना रखना, १५ धनादिक होवे तो भी उसीमें लिप्त न हो रहना, १६ स्त्रीके बलात्कार आग्रह पर कामोपभोम सेक्न करना. १७ वेश्या समान गृहवासमें रहना. यह सत्रह पद भावंथावकका लक्षण है यह इसका भाव संक्षेप आनो. अब इसकी व्याख्या करते हैं। * १ स्त्रीको अनर्थ उत्पन्न करनेवाली, चंचलचित्तवाली और नरकको जानेके मार्ग समान मानकर अपना हित चाहनेवाला श्रावक उसके घशमें न रहे. २ इन्द्रियरूप चपल अश्व हमेशा दुर्गतिके मार्गमें दौडते हैं, उनको संबास्को यथार्थ स्वरूप जाननेवाले श्रावकने सम्यग्ज्ञानरूप लगामेसे कुमार्गमें जानेसे रोकना. ३ धनको संकल अनर्थीका, प्रयासका तथा' कैलेशका