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ऐसा समझना चाहिये. वस्तुपाल मन्त्रीने नवसौ चौरासी पौषधशालाएं बनवाई. सिद्धराज जयसिंहके मुख्य मन्त्री सातूने अपना नया महल वादिदेवसूरिको दिखाकर कहा कि, "यह कैसा हैं ? " तब शिष्य माणिक्य बोला कि, "जो इसे पौषधशाला करो तो हम इसकी प्रशंसा करें " मन्त्रीने कहा- "जो आज्ञा, आजसे यह पौषधशाला होगई." उस पौषधशालाकी बाहरकी परशालमैं श्रावकों को धर्मध्यान कर लेनेके अनन्तर मुख देखनेके लिये एक पुरुष प्रमाण उंचे दो दर्पण दोनों ओर रखे थे.
( मूलगाथा )
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आजम्मं सम्मत्तं,
जहसत्ति वयाई दिक्खगर्हे अहवा ||
आरंभचाउँ बंभ.
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पडिमाई "अंतिआरहणी ||१६|| संक्षेपार्थ:--१२ यावज्जीव समकित पालना, १३ यथाशक्ति व्रत पालना, १४ अथवा दीक्षा लेना, १५ आरम्भका त्याग करना, १६ ब्रह्मचर्य पालना, १७ श्रावककी प्रतिमा करना, १८ तथा अन्तमें आराधना करना. ॥ १६ ॥ विस्तारार्थ:
बारहवां-- तेरहवां-द्वार
आजन्म याने बाल्यावस्थासे लेकर यावज्जवि तक समार्कत और अणुव्रत आदिका यथाशक्ति पालन करना. इसका वर्णन