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पांचवें निग्रंथ (ग्रन्थ-परिग्रह रहित) होते हुए भी ग्रन्थ रचना करनेवाले श्रीजिनकीर्ति गुरु हुए ॥११॥
एषां श्रीसुगुरूणां, प्रसादतः षट्खतिथिमिते (१५०६) वर्षे ॥ श्राद्धविधिसूत्रवृत्ति, व्यधित श्रीरत्नशेखरः सूरिः ॥१२॥
अर्थः--श्रीरत्नशेखरसूरिने उपरोक्त गुरुओंके प्रसादसे विक्रम संवत् १५०६ में श्राद्धविधिसूत्रकी वृत्तिकी रचना करी. ॥१२॥
अत्र गुणसत्रविज्ञावतंसजिनहंसगणिवरप्रमुखैः॥ शोधनलिखनादिविधौ, व्यधायि सांनिध्यमुद्युक्तैः ॥१३॥
अर्थ:--परमगुणवन्त और विद्वद्रत्न श्रीजिनहंसगणिआदि विद्वानोंने यह ग्रन्थ रचना, संशोधन करना लिखना आदिकार्यमें परिश्रमसे सहायता करी. ॥१३॥
विधिवैविध्याच्छ्रतगत-नयत्यादर्शनाच्च यत्किंचित् ।। अत्रोत्सूत्रमसूत्र्यत, तन्मिथ्यादुष्कृतं मेऽस्तु ॥१४॥
अर्थः-विधि नानाप्रकारकी होनेसे तथा सिद्धान्तस्थितनिश्चय बातको नहीं देखनेसे इस ग्रन्थमें मैंने जो कुछ उत्सूत्र रचना की हो, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या होवे. ॥१४॥
विधिकौमुदीतिनाम्न्यां, वृत्तावस्यां विलोकितैर्वणैः ॥ श्लोकाः सहस्रषट्कं, सप्तशती चैकषष्टयधिका ॥१५॥
अर्थ:--- विधिकौमुदीनामक इस वृत्तिमें अक्षराक्षरकी संख्यासे इस ग्रन्थकी श्लोक संख्या ६७६१ होती है. ॥१५॥