Book Title: Shraddh Vidhi
Author(s): Ratnashekharsuri
Publisher: Jain Bandhu Printing Press

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Page 806
________________ (७८३) माण रत्नकी भांति दुर्लभ, ऐसी हितकारिणी और निरवद्य धर्मक्रिया पाकर उसको सम्यक् रीतिसे आचरण करते अपनेको देखकर कोई अज्ञानी लोग अपनी हंसी करे, तो भी उससे मनमें शर्म नहीं करना. १३ देहस्थिति के मूल कारण धन, स्वजन, आहार, गृह इत्यादि सांसारिकवस्तुओंमें रागद्वेष न रखते हुए संसारमें रहना. १४ अपना हित चाहनेवाला पुरुष मध्यस्थस्थितिमें रहकर तथा नित्य मनमें समताका विचार रखकर रागद्वेष के वश न होवे तथा कदाग्रहको भी सर्वथा छोड दे. १५ नित्य मनमें सर्ववस्तुओंकी क्षणभंगुरताका विचार करनेवाला पुरुष धनादिकका स्वामी होते हुए भी धर्मकृत्यको बाधा पहुंचे ऐसा उनमें लिप्त न होजावे. १६ संसारसे विरक्त हुआ श्रावक भोगोपभोगसे जीवकी तृप्ति नहीं होती, ऐसा विचारकर स्त्रीके आग्रहसे बहुतही विवश होने परही कामभोग सेवन करे. १७ वेश्याकी भांति आशंसा रहित श्रावक आज अथवा कल छोड दूंगा ऐसा विचार करता हुआ पराई वस्तुकी भांति शिथिलभावसे गृहवास पाले. उपरोक्त सत्रह गुणयुक्त पुरुष जिनागममें भावश्रावक कहलाता है. यही भावश्रावक शुभकर्मके योगसे शीघ्र भावसाधुत्वको प्राप्त करता है. ऐसा धर्मरत्नशास्त्रमें कहा है. उपरोक्त गीतसे शुभभावना करनेवाला, पूर्वोक्त दिनकृत्यमें तत्पर अर्थात् "यह निग्रंथ प्रवचनही अर्थरूप तथा परमार्थरूप है, शेष सब अनर्थ है," ऐसी सिद्धान्तमें कही हुई

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