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वर्जे याने दीक्षा ग्रहण न की जासके तो आरंभका त्याग करे | उसमें पुत्रआदि कोई भी घरका सर्व कार्य भार सम्हाल लेने योग्य होवे तो सर्वआरंभका त्याग करना, और वैसा न होवे तो सचित्तवस्तुका आहार आदि निर्वाहके अनुसार आरंभ त्याग करे । बन सके तो अपने लिये अन्नका पाक आदि भी न करे | कहा है कि - जिसके लिये अन्नका पाक ( रसोई ) बने उसीके लिये आरंभ होता है । आरंभ में जीवहिंसा है, और जीवहिंसा दुर्गति होती है ।
सोलहवां द्वार
श्रावकने आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये । जैसे पेथड श्रेष्ठीने बत्तीसवें वर्ष में ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार किया और बाद में वह भीमसोनीकी मढी में गया । ब्रह्मचर्य - आदिका फल अर्थदीपिकामें देखो ।
सत्रहवां द्वार—
श्रावक प्रतिमाआदि तपस्या करे, आदिशब्द से संसार - तारण इत्यादि कठिन तपस्या समझनी चाहिये । उसमें मासिकी आदि ११ प्रतिमाएं कही हैं । यथा:
दंसण १ वयं २ सामाइअ ३, पोसह ४, पडिमा ५ अबंभ ६ सञ्चित्ते ७ आरंभ ८ पेस ९ उद्दि - ट्ठवज्जए १० समणभूए ११ अ ॥ १॥ अर्थः-- १ दर्शनप्रतिमाका स्वरूप यह है कि उसमें राजाभियोगादि छः आगार रहित, श्रद्धानआदि चार गुण