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क्रमशः आहारका त्याग करना वह द्रव्यसंलेखना और कोवादि कषायका त्याग करना वह भावसंलेखना कहलाती है । कहा है कि- शरीर संलेखनावाला न होवे तो मरणसमय में सात धातुका एकदम प्रकोप होनेसे जीवको आर्त्तध्यान उत्पन्न होता है । मैं तेरे इस शरीरको बखानता नहीं । शरीर किसका अच्छा है ? क्या तेरी अंगुली टूट गई ? इसलिये हे जीव ! तू भावसंलेखनाकर समीप आई हुई मृत्यु स्वप्न, शकुन तथा देवताके वचन परसे निर्धारित करना चाहिये । कहा है किदुःस्वप्न, अपनी स्वाभाविकप्रकृति में हुआ कोई भिन्न फेरफार, बुरे निमित्त, उलटे ग्रह, स्वरके संचार में विपरीतता, इन कारणोंसे पुरुषने अपनी मृत्यु समीप आई जानना । इस प्रकार संखेलना करके सकल श्रावक मानो धर्मके उद्यापन ही के निमित्त अन्तकालके समय भी चरित्र ग्रहण करे | कहा है कि- जीव शुभ परिणामसे जो एक दिवस पर्यंत भी चारित्रको प्राप्त होजावे, तो यद्यपि वह मोक्षको नहीं प्राप्त करता, तथापि वैमानिक देवता तो अवश्य होता है ।
नलराजाका भाई कुबरका पुत्र नई शादी होनेपर भी ज्ञानके मुख से अपनी आयुष्य पांचदिन बाकी है यह सुन शीघ्र चारित्र लेकर सिद्ध हुआ । हरिवाहनराजा ज्ञानीके वचनसे अपनी आयुष्य नव प्रहर शेष जानकर दीक्षा ले सर्वार्थसिद्धि