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प्रकट किये. जिससे राजाको आठ उपवास हुए. परन्तु उसकी साधर्मिक भक्ति तो तरुणपुरुषकी शक्तिकी भांति दिन प्रतिदिन बढती ही गई, जिससे इन्द्र प्रसन्न हुआ, और उसने उसको दिव्य धनुष्य, बाण, रथ, हार तथा दो कुंडल देकर शत्रुजयकी यात्रा करनेके लिये प्रेरणा की. दंडवीर्यने वैसा ही किया.
श्रीसंभवनाथ भगवान् भी पूर्वके तीसरे भवमें धातकीखंडान्तर्गत ऐरवतक्षेत्रकी क्षमापुरीनगरीमें विमलवाहन नामक राजा थे. तब उन्होंने भयंकर दुर्भिक्षमें समस्त साधर्मिभाइयोंको भोजनादिक देकर जिननामककर्म उपार्जन किया. पश्चात् दीक्षा ले देहान्त होनेपर आनतदेवलोकमें देवतापन भोगकर श्रीसंभवनाथ तीर्थकर हुए. उनका फाल्गुनशुक्ल अष्टमीके दिन अवतार हुआ, उस समय महान् दुर्भिक्ष होते हुए उसी दिन चारों तरफसे सर्व जातिका धान्य आ पहुंचा, इससे उनका नाम 'सम्भव' पडा. बृहद्भाष्यमें कहा है कि--'शं शन्दका अर्थ सुख है. भगवान्के दर्शनसे सर्व भव्यजीवोंको सुख होता है, इसलिये उनको 'शंभव' कहते हैं. इस व्याख्यानके अनुसार सर्व तीर्थकर शंभव नामसे बोले जाते हैं. संभवनाथजीको संभवनामसे पहिचाननेका और भी एक कारण है. किसी समय श्रावस्ती नगरीमें कालदोषसे दुर्भिक्ष पड गया, तब सर्व मनुष्य दुःखी होगये. इतनेहीमें सेनादेवी के गर्भ में संभवनाथजीने अव: तार लिया. तब इन्द्रने स्वयं आकर सेनादेवी माताकी पूजा
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