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उत्तम स्थान भी उचित मूल्य देकर तथा पडौसीकी सम्मतिआदि लेकर न्यायहीसे ग्रहण करना चाहिये. किन्तु किसीका पराभवआदि करके कभी न लेना चाहिये. क्योंकि इससे धर्मार्थकामके नाश होनेकी सम्भावना है. इसी प्रकार ईंट, लकडी, पत्थर इत्यादि वस्तुएं भी दोष रहित, मजबूत हो वे ही उचित मूल्य देकर लेना अथवा मंगाना चाहिये. ये वस्तुएं भी बेचने. वालेके यहां तैयार की हुई लेना, परन्तु खास तौर पर अपने लिये ही तैयार न करवाना चाहिये. कारण कि, उससे महा
आरम्भआदि दोष लगना सम्भव है उपरोक्त वस्तुएं जिनमंदिरआदिकी हो तो न लेना. कारण कि उससे बहुतही हानि होती है. ऐसा सुनते हैं कि, दो वणिक पडौसी थे. उनमें एक धनिक था, वह दूसरेका पद पद पर पराभव करता था. दूसरा दरिद्री होनेके कारण जब किसी प्रकार उसका नुकसान न कर सका तब उसने उसका घर बंध रहा था उस समय चुपचाप एक जिनमंदिरका पडा हुआ ईटका टुकडा उसकी भीतमें रख दिया. घर बनकर तैयार हुआ तब दरिद्री पडौसीने श्रीमन्त पडौसीको यथार्थ बात कह दी. तब श्रीमन्त पडौसीने कहा कि, "इसमें क्या दोष है ?" ऐसी अवज्ञा करनेसे विद्युत्पातआदि होकर उसका सर्वनाश होगया. कहा है कि-जिनमंदिर, कुआ, बावडी, स्मशान, मठ और राजमंदिरका सरसों बराबर भी पत्थर ईंट काष्टआदि न लेना चाहिये.