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वैसी ही दुसरी प्रतिमा तैयार की। पश्चात् प्रतिष्ठा करवा कर सर्वांगमें आभूषण पहिरा कर, पूष्पादिक वस्तुसे उसकी पूजा करी और श्रेष्ठचंदनके डब्बेमें रखी। एक समय उस प्रतिमा. के प्रभावसे व्यन्तरने समुद्रमें एक नौकाके छः महीनेके उपद्रव दूर किये । और उस नौकाके नाविकको कहा कि- " तू यह प्रतिमाका डब्बा सिंधुसौवीरदेशान्तर्गत वीतभयपट्टणमें ले जा और वहां के बाजारमें ऐसी उद्घोषणा कर कि, " देवाधिदेवकी प्रतिमा लो।" उक्त नाविकने वैसा ही किया । तब तापस भक्त उदायन राजा तथा दूसरे भी बहुतसे अन्यदर्शनियोंने अपने अपने देवका स्मरण करके उस डब्बे पर कुल्हाडेसे प्रहार किये, जिसमें कुल्हाडे टूट गये, किन्तु डब्बा नहीं खुला । सर्व लोग उद्विग्न होगये । मध्यान्हका समय भी होगया । इतनेमें रानीप्रभावतीने राजाको भोजन करनेके लिये बुलानेको एक दासी भेजी। राजाने उसी दासीके द्वारा संदेशा भेजकर कौतुक देखनेके लिये रानीको बुलवाइ । रानीप्रभावतीने वहां आते ही कहा कि, " इस डिब्बे में देवाधिदेव श्रीअरिहंत है, दूसरा कोई नहीं । अभी कौतुक देखो।" यह कह रानीने यक्षकर्दमसे उस डब्बे पर अभिषेक किया और एक पुष्पांजली देकर कहा कि, " देवाधिदेव ! मुझे दर्शन दो।" इतना कहते ही जैसे प्रातःकालमें कमलकलिका विकसित होती है वैसे डब्बा अपने आप खुल गया । अंदरसे सुकोमल विकसित पुष्पोंकी माला