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दित्य राजा शत्रुजयकी यात्राको गया, तब उसके संघमें एक सौ उनसत्तर ( १६९ ) स्वर्णमय और पांचसौ ( ५०० ) दांत, चंदनादिमय जिनमंदिर थे. सिद्धसेनदीवाकर आदि पांच हजार ५००० आचार्य थे. चौदह (१४) मुकुटधारी राजा थे, तथा सत्तरलाख (७००००००) श्रावक कुटुम्ब, एक करोड़ दसलाख नव हजार ( ११००९००० ) गाड़ियां, अट्ठारह लाख ( १८०००००) घोडे, छहत्तरसौ (७६०० ) हाथी और इसी प्रकार ऊंट, बैलआदि थे। कुमारपालके निकाले हुए संघमें सुवर्णरत्नादिमय अट्ठारहसौ चौहत्तर ( १८७४ ) जिनमंदिर थे। थरादमें पश्चिममंडलिक नामसे प्रसिद्ध आभु संघवीकी यात्रामें सातसौ ( ७०० ) जिनमंदिर थे, और उसने यात्रामें बारह करोड स्वर्णमुद्राओंका व्यय किया । पेथड नामक श्रेष्टिने तीर्थके दर्शन किये तब ग्यारह लाख रौप्यटक व्यय किये, और उसके संघमें बावन जिनमंदिर और सात लाख मनुष्य थे। वस्तुपालमंत्रीकी साढे बारह यात्राएं प्रसिद्ध हैं इत्यादि ।
इसी प्रकार प्रतिदिन जिनमंदिरमें धूमधामसे स्नात्रोत्सव करना, ऐसा करनेकी शक्ति न होवे तो प्रत्येक पर्वके दिन करना, यह भी न हो सके तो वर्षमें एक बार तो स्नात्रोत्सव अवश्य करना चाहिये । उसमें मेरुकी रचना करना, अष्टमंगलिककी स्थापना करना, नैवेद्य धरना तथा बहुतसी केशर, चन्दन, सु