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है तदनुसार प्रतिमास छः पर्व तिथियों में वह यथाविधि पौषध
आदि करता था. एक समय वह अष्टमीका पौषध किये हुए होनेसे रात्रिको शून्यघरमें प्रतिमा अंगीकार करके रहा. तब सौधर्मेंद्रने उसकी धर्मकी दृढ़ताकी बहुत प्रशंसा करी. जिसे सुन एक मिथ्यादृष्टि देवता उसकी परीक्षा करने आया. प्रथम उसने श्रेष्ठीके मित्रका रूप प्रकट कर “करोड स्वर्णमुद्राओंका निधि है. तुम आज्ञा करो तो वह मैं ले लेऊ' इस प्रकार अनेक बार श्रेष्ठीको विनंती करी. पश्चात् उस देवताने, श्रेष्ठिकी स्त्रीका रूप प्रकट किया, और आलिंगनआदि करके उसकी बहुत कदर्थना की. तत्पश्चात् मध्यरात्रि होते हुए प्रभातकालका प्रकाश, सूर्योदय तथा सूर्यकिरणआदि प्रकट कर उस देवताने श्रेष्ठीके स्त्री, पुत्र आदिका रूप बना पौषधका पारणा करनेके लिये श्रेष्ठीको अनेक बार प्रार्थना करी. इसीतरह बहुतसे अनुकूल उपसर्ग किये, तो भी सज्झाय करनेके अनुसार मध्यरात्रि है, यह श्रेष्ठी जानता था, जिससे तिलमात्र भी भ्रममें नहीं पड़ा. यह देख देवताने पिशाचका रूप बनाया, और चमडी उखाडना, मारना, उछालना, शिला पर पछाडना, समुद्रमें फैंक देना इत्यादि प्राणांतिक प्रतिकूल उपसर्ग किये; तो भी श्रेष्ठी धर्मध्यानसे विचलित नहीं हुआ. कहा है कि--इस पृथिवीको यद्यपि दिग्गज, कच्छप, कुलपर्वत और शेषनागने पकड रखी है; तथापि यह चलती है, परन्तु शुद्ध अन्तःकरणवाले सत्पुरुषोंका अंगीकार