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जं च न सुमरामि अहं, भिच्छा मे दुक्कडं तस्स ॥२॥ सामाइयपोसहसंठिअस्म जीवस्त जाइ जो कालो || सो सफलो बोद्धव्त्रो, सेतो संसारफलहेऊ ||३|| पश्चात् सामायिक विधि से लिया इत्यादि कहना. दिवसपौषध भी इसी रीति से जानो. विशेष इतनाही है कि, पौषध-' दंडक में "जाव दिवसं पज्जुवासामि " ऐसा कहना. देवसीप्रति - क्रमण कर लेने पर दिवसपौषध पाला जा सकता है. रात्रिपौषध भी इसी प्रकार है. उसमें इतनाही विशेष है कि, पौषधदंडक में "जाब सेसदिवसं रतिं पज्जुवासामि” ऐसा कहना मध्यान्हके बाद दो घडी दिन रहे वहां तक रात्रिपौषध लिया जाता है. पौषधके पारणेके दिन साधुका योग होवे तो अवश्य अतिथिसंविभाग व्रत करके पारणा करना ।
इस प्रकार पौष आदि करके पर्वदिनकी आराधना करना चाहिये. इस विषय पर दृष्टान्त है कि :--
धन्यपुर में धनेश्वर नामक श्रेष्ठी, धनश्री नामक उसकी स्त्री और धनसार नामक उसका पुत्र, ऐसा एक कुटुम्ब रहता था. धनेश्वर श्रेष्ठी परम श्रावक था. वह कुटुम्ब सहित प्रत्येकपक्ष में विशेष आरम्भका त्यागआदि नियमका पालन किया करता था, और "चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या तथा पूर्णिमा इन तिथियों में परिपूर्णपौषधका करनेवाला था.", जिस प्रकार भगवतीसूत्र में तुंगिकानगरीके श्रावकके वर्णनके प्रसंग में कहा